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आजदेव उस सजा से आजाद हो गया जो अपराध उस ने किया ही नहीं, बल्कि उस से करवाया गया था. इन 7 सालों में उस से उस का हंसताखेलता परिवार तो छिन ही गया, उस का प्यार भी हमेशा के लिए उस से दूर चला गया. जब वह जेल से बाहर निकला तो उस का एक मित्र मनोज उस के लिए खड़ा था. कितना कहा उस ने कि वह अपने घर न सही उस के घर चले, पर देव ने यह बोल कर जाने से इनकार कर दिया कि अब उस का अपना बचा ही कौन है इस शहर में जो वह यहां रहे पर यह भी बोला उस ने कि वह जहां भी जाएगा, उसे जरूर बताएगा.

कुछ पैसे उसे जेल काटने के दौरान काम करने पर मिले, कुछ मनोज ने दिए. टिकट ले कर जो पहली ट्रेन मिली उस पर चढ़ गया. कहां जाना है, क्या करना है उसे कुछ पता नहीं चल रहा था. बस निकल पड़ा एक अनजान रास्ते की ओर. आसपास लोगों की भीड़ और शोरशराबे में भी वह अपने ही विचारों में मग्न था. जैसेजैसे ट्रेन की गति बढ़ने लगी वैसेवैसे देव अपनी पिछली जिंदगी के पन्ने पलटने लगा...

अपनी मां का लाड़ला बेटा देव था. वैसे देव का एक बड़ा भाई भी था निखिल, जो काफी शांत स्वभाव का था और वह वही करता जो उस के मांपापा कहते उस से. पढ़ाई में जरा कमजोर निखिल ने जहां बीए करते ही रेलवे में नौकरी पा ली, वहीं देव इंजीयरिंग पढ़ने के लिए बैंगलुरु चला गया. लेकिन देव के पापा की बड़ी इच्छा थी कि बड़ा बेटा न सही, कम से कम छोटा बेटा तो डाक्टर बन जाता, पर देव की तो डाक्टर की पढ़ाई मोटीमोटी किताबें देख कर ही तबीयत खराब होने लगती थी और जब उस के एक दोस्त के भाई ने, जोकि मैडिकल की पढ़ाई कर रहा था, बताया कि मोटीमोटी किताबें पढ़ने के साथसाथ उसे मेढक और मरे हुए इंसान के शरीर की भी चीरफाड़ करनी पड़ेगी, तो सुन कर ही उसे चक्कर सा आने लगा और उसी वक्त उस ने प्रण कर लिया कि चाहे जो हो जाए वह डाक्टर तो कभी नहीं बनेगा. आखिर देव के मातापिता को उस की जिद के आगे झकना पड़ा और उसे इंजीनियरिंग पढ़ने के लिए बैंगलुरु भेज दिया.

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