उन्हें भरती किए हुए 18 घंटे हो चुके थे. पर सुधार की अभी कोई सूचना नहीं आई थी. जब अतुल का घर में फोन आया था तब वे होशहवास में थे. गंभीर दुर्घटना की बात कह रहे थे. याचनाभरे शब्दों में बोल रहे थे, ‘मुझे बचा लो. मैं मरना नहीं चाहता. मैं मसूरी से करीब 17 मिलोमीटर दूर देहरादून वाली रोड पर बड़े मोड़ पर पड़ा हूं. मेरे साथी गजेंद्र बाबू मर चुके हैं. किसी जीप ने हमारी बाइक को टक्कर मार दी. लोग आजा रहे हैं, पर हमें कोई उठा नहीं रहा है. मेरा खून बहुत बह चुका है. शायद मैं बच न सकूं. दिव्या का खयाल रखना.’ फिर फोन बंद हो गया था. शायद अतुल बेहोश हो गए थे.
शहर के एक बड़े अस्पताल जीवनदायिनी हौस्पिटल में भारी उम्मीदों के साथ मेरे ससुर दिगंबरजी ने अतुल को अस्पताल में भरती कराया था. वे रोड के बीच में बेसुध अवस्था में पड़े थे. गाड़ी का एक पहिया उन की जांघ के बीचोंबीच से निकल गया था. हाथपैरों में कई जगह फै्रक्चर थे. हैलमेट के कारण सिर तो बच गया पर चेहरा बुरी तरह जख्मी था. पास ही गजेंद्र बाबू की लाश पड़ी थी. सिर फटा था. गुद्दी बाहर फैली थी. बाइक का भी कचूमर निकल गया था.
ये सब देखने की मुझ में हिम्मत ही कहां थी. यह तो साथ में गए मेरे देवर दिवाकर व गांववालों ने ही बतलाया था. मैं तो सासूमां और बिरादरी की अन्य औरतों के साथ अस्पताल सीधी पहुंची थी. वहीं सुना, गजेंद्र बाबू की बौडी को पोस्टमार्टम के लिए मौरचरी में ले जाया जा रहा था.
अस्पताल के वेटिंगरूम में तमाम ग्रामीण व रिश्तेदार जमा थे. वे आपस में चर्चा कर रहे थे. मेरे कान उन की बातें सुनने में लगे थे. व्याकुल दशा में मेरा दिल धकधक कर मुझे ही सुनाई दे रहा था. अपने तनमन को संतुलित करने का प्रयास कर रही थी. सासूमां का रुदन थम नहीं रहा था. आंसुओं की मानो बाढ़ आ गई थी. पड़ोसी महिलाएं उन्हें शांत करने का प्रयास कर रही थीं. मेरा ध्यान उन लड़कों की बातों में लगा था जो कुछ दूर धीमेधीमे बतिया रहे थे. मेरा चचेरा देवर बता रहा था, ‘यार, गाड़ी का पहिया उस के कमर व जांघ से हो कर निकल गया था. जिस का निशान साफ दिखाई पड़ रहा था. हम ने जायजा लिया था कि कितनी चोट लगी है. कमर व जांघ की हड्डी चूरचूर हो गई थी. हालत बड़ी गंभीर लगती है…’
मैं ने सुना तो जैसे मुझे बेहोशी सी छाने लगी. मेरे मुंह से घुटीघुटी चीख निकल पड़ी. औरतों ने सुना, वे मेरी ओर लपकीं. मुझे पास ही बिछी चटाई पर लिटा दिया गया. मेरी ननद तनुजा मुझे अखबार से पंखा झलने लगी, हालांकि अस्पताल के पंखे भी चल रहे थे. मैं कुछ देर बाद तनिक सामान्य हालत में आ गई थी. मैं घुटने सिकोड़ कर लेटी रही. औरतें धीरेधीरे फुसफुसा रही थीं. दूर से आदमियों की हलकीहलकी आवाजें आ रही थीं. कुछ ही क्षणों बाद कोई नर्स आईसीयू से बाहर आई. हमारे तीमारदारों ने उसे घेर लिया. हालात के बारे में पूछने लगे. ‘‘अभी कुछ कहा नहीं जा सकता. डाक्टर लगातार देख रहे हैं,’’ कह कर वह तेजी से दूसरे वार्ड में चली गई.
अस्पताल वाले हमारे लोगों को आईसीयू में घुसने नहीं दे रहे थे. उन का कहना था कि घरवालों को देख कर मरीज को दिल का दौरा पड़ सकता है. अभी 10 मिनट भी नहीं हुए थे कि एक वार्डबौय आईसीयू से बाहर निकला. उस की चाल में धीमापन था. चेहरे में हताशा की कालिमा पुती हुई थी. श्मशान सी उदासी. वह बिना इधरउधर देखे मंथर गति से बाहर की ओर बढ़ा जा रहा था. दोएक ने उसे रोक कर कुछ पूछना चाहा. पर वह रुका नहीं, चलता ही गया. चलतेचलते हाथ इस प्रकार हिला रहा था मानो कह रहा हो ‘मुझे पता नहीं.’ हाथ हिलाने से यह भी अर्थ निकलता था कि, ‘मुश्किल है.’ यह भी समझा जा सकता था कि ‘अब कुछ नहीं बचा.’
लगभग सभी नजरें उसी पर थीं. उस के हाथ हिलाने का सब मन ही मन अपनेअपने ढंग से अर्थ निकाल रहे थे. दिवाकर ने मेरी ओर देखा. आंखों में प्रश्नचिह्न थे. मैं ने इशारे से वार्डबौय का पीछा करने को कहा. वे समझ गए और धीरेधीरे अपने कदम बाहर की ओर बढ़ा दिए. जब लौटे तो मुरझाए हुए थे. डूबते कदमों से मेरे पास आए और बोले, ‘‘मांजी ने कहा है अपनी भाभी को घर पर पहुंचा आ. चलो, घर चलते हैं.’’ वे नजर उठा कर मेरी ओर नहीं देख रहे थे. मैं सशंकित होते हुए उठी, पूछा, ‘‘क्या कहा उस ने?’’
‘‘2-4 घंटे बाद डाक्टर ही बतलाएंगे,’’ दिवाकर ने फिर मांजी से कहा, ‘‘मैं भाभी को घर पहुंचाने जा रहा हूं.’’ मांजी ने सहमति में सिर हिलाया.
मुझे लगा किसी को भी मेरा यहां रुकना अच्छा नहीं लग रहा था. एक तो यहां स्थिति नाजुक थी, दूसरा मैं गर्भवती थी. पांचवां महीना चल रहा था. ऐसे में मुझे वहां रोकना कौन पसंद करेगा. मैं घर चली आई. खाली घर भायभाय सा खाने को दौड़ रहा था. मैं ने पलंग पर सिरहाने रखे उन के स्वेटर को उठा लिया. पलंग पर गिर कर जोरजोर से रोने लगी. बड़े जतन से मैं ने उन का स्वेटर बुना था. जब पूर्ण होने को आया तो…? दिवाकर को मेरा रुदन बरदाश्त नहीं हो रहा था. उन का खुद भी गला भर आया था. यह कह कर कि, ‘‘भाभी, अपना खयाल रखना. मैं अस्पताल जा रहा हूं.’’ और बिना पानी पिए ही वे लौट गए. कल रात्रि से परिवार वालों के गले में अन्न का एक दाना भी नहीं गया था.
मकान के पिछवाड़े बनी झोंपडि़यों में नौकर व बटाइदारों के परिवार रहते हैं. घर में मालिक लोगों के आने की खबर पा कर एक नौकर की बीवी अपने घर से ही दूध गरम कर लाई थी. वह बोली, ‘‘बीबीजी, दूध लाई हूं. पी लीजिए, बच्चे की खातिर आप के पेट में कुछ न कुछ जाना आवश्यक है.’’ वह दूघ का गिलास मेज पर रख कर कुछ दूर खड़ी हो कर बोली, ‘‘मालिक लोगों के आने में समय लगेगा. मैं यहीं हूं. आप को जो भी कुछ चाहिएगा, बतला दें. बाहर जानवरों का सारा काम हम ने कर दिया है. लाइट वगैरा भी हम जला देंगे. आप चिंता न करें. पानी की मोटर हम चालू कर देते हैं,’’ कह कर नौकरानी बरामदे के बिजली के स्विच की ओर बढ़ गई.