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गुस्सा तो मुझे मां की खामोशी पर आता था. क्यों नहीं वे पिताजी की गलत बातों का विरोध करती हैं, क्यों इतनी डरीडरी सी रहती हैं. खुद मां जैसे वर्षों से पिताजी के अत्याचारों को सहती आई हैं. वैसी ही अपेक्षा ये लोग दीदी से भी क्यों कर रहे हैं. अत्याचार के विरुद्ध दीदी ने जो कदम उठाया  है, उस की सराहना करने की जगह ये लोग दीदी को ही गलत साबित करने में क्यों लगे हुए हैं.

मां तो 24 घंटे पिताजी द्वारा रटेरटाए नियमकायदों को ही ढोती रहती हैं. किसी भी विषय पर उन की अपनी स्वतंत्र राय नहीं होती. उन की अपनी कोई विचारधारा नहीं थी. वे तो बस पिताजी द्वारा खींची हुई परिधि में सिर्फ सांस ले रही थीं. मु  झे अपने घर के पालतू तोता मिट्ठू और अपनी मां में कोई खास अंतर नहीं दिखता था. मिट्ठू को सारे दिन जो सिखाया जाता वही रटता रहता. कितनी बार मैं ने उस के पिंजरे का दरवाजा खोल दिया. मिट्ठू उड़ जा, उड़ जा मिट्ठू, लेकिन मेरे लाख कहने पर भी मिट्ठू, पिंजरा छोड़ कर नहीं उड़ता. मिट्ठू बाहर थोड़ी देर के लिए निकलता लेकिन वापस उसी पिंजरे के अंदर चला आता.

पिंजरे के अंदर लौट कर एक ही रट लगाता रहता कि रूपा पिंजरा बंद कर मिट्ठू उड़ जाएगा. यह वाक्य उस ने मेरी चाची से सुना था जिसे वह पिंजरे के अंदर भी रटता रहता. मां की तरह मिट्ठू को भी पिंजरे की कैद का अभ्यास हो गया था.

मिट्ठू तो एक पंछी था. लेकिन मां वह तो इंसान थी. वह क्यों इन  झूठे आडंबरों और आदर्शों की कैद में रहने को विवश और लाचार थीं? वे क्यों पिताजी द्वारा थोपे गए दकियानूसी विचारों और सिद्धांतों को मानने के लिए मजबूर थीं? और अब तो दीदी के लिए भी उन्हीं खोखले आदर्शों की दीवारें खड़ी की जा रही थीं.

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