कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

‘‘कमली...  आज यहां ठीक से साफ नहीं किया? बैंच के नीचे गंदगी दिख रही है,’’ कहते हुए बिल्डिंग नंबर 2 के 402 फ्लैट की शालिनी मैडम ने अपनी कार पार्किंग से निकाली और कमली को घूरते हुए अपनी तरफ की खिड़की का शीशा नीचे किया. हिकारत से कमली को घूरा, फिर शीशा ऊपर किया, बालों को ?ाटका दिया और चली गई.

कमली ने भी मन ही मन उन्हें गाली दी. नाम तो उस का कमला था पर कमला से कमली कब हो गया, उसे खुद भी पता नहीं चला था. वह कई बार सोचती, पता नहीं, उन के नामों को बिगाड़ क्यों दिया जाता है, उस का पति संतोष से संतू हो चुका था, बहन शकुंतला से शन्नो हो गई थी, जीजा जितेंद्र से जितिया, ननद नीलिमा से नल्लो. और कब इन्होनें लोगों द्वारा दिया अपना यह नाम स्वीकार भी कर लिया, इस का भी पता नहीं चला. अब कमली, संतू, शन्नो यही सब नाम रह गए थे.

ऐसा नहीं है कि मुंबई में आने के बाद इन सब का नया नामकरण संस्कार हुआ था, जब ये सब सुलतानपुर के अपने बहादुरपुर गांव में थे, तब भी इन्हें इन्हीं नामों से बुलाया जाता था. पैदा होते ही नाम भी ठीकठाक रखे जाते पर कब लोग इन्हें अपने ही रखे नामों से आवाज देने लगते, इन्हें भी पता नहीं चलता था.

सुलतानपुर से सब से पहले काम की तलाश में संतोष मुंबई आया, अपने गांव के साथी सुनील और उस के साथियों के साथ उसी कमरे में कुछ दिन रहा जहां सब एक ही कमरे में एकसाथ रहते. मनोरमानगर की चाल में ये सब रहते. संतोष सुलतानपुर में एक अमीर आदमी के घर गायभैंस नहलाने का काम करता था पर उस का मन इस काम से उचट रहा था. वह चाहता था कि अभी वह 32 साल का ही तो है, 30 साल की अपनी पत्नी कमला के साथ वह कहीं अच्छी जगह जा कर रहना चाहता. अब वह खुद को आजमाने मुंबई चला आया था. सुनील परेल की एक सोसाइटी ‘कामधेनु’ में वाचमैन था. संतोष के कहने पर उस ने अपनी सिक्यूरिटी एजेंसी वाले विनोद अग्रवाल को फोन किया. नरमी से कहा, ‘‘भैयाजी, गांव से दोस्त आया है. उसे भी काम चाहिए.’’

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...