कहानी- मंगला रामचंद्रन

वह दौरे से लौटे ही थे. मैं ने अरदली से चाय बनाने को कहा. यह नहा कर गुसलखाने से निकले. मैं ने थोड़ा नमकीन चिवड़ा और मीठे बिस्कुट प्लेट में निकाल कर मेज पर रखे. इतने में अरदली ट्रे में करीने से चाय लाया.

अचानक अंदर के कमरे से ही इन की तेज आवाज आई, ‘‘ये दशहरी आम कौन लाया है?’’

‘‘बताती हूं. आप पहले चाय तो ले लीजिए,’’ मैं खुशी दबाते हुए बोली. बताने की उत्सुकता मेरी आवाज में साफ झलक रही थी.

हथेलियों में क्रीम मलते हुए यह आ  कर बैठे और चाय का कप उठा लिया. मैं ने भी चाय हाथ में ली.

‘‘सब इंस्पेक्टर विनोद आया था. कहने लगा, साहब तो हम को पास फटकने भी नहीं देते. हम को सेवा करने का मौका ही नहीं देते,’’ मैं ने भूमिका बांधने की कोशिश की.

‘‘उस को तो मालूम था कि हम दौरे पर गए हैं. फिर आया क्यों?’’

‘‘नहीं, उस को नहीं मालूम था. बड़े आश्चर्य से कह रहा था-हैं, साहब नहीं हैं. दौरे पर गए हैं. खैर, हमारे लिए तो आप में और साहब में फर्क ही क्या है. आप दोनों ही हमारे माईबाप हैं.’’

‘‘उस ने कहा और तुम मान गईं. दौरे पर जाते समय थाने में उस से मिलते हुए गया हूं. वह जानबूझ कर मेरे पीछे आ कर आम दे गया है. मेरे सामने तो दुम दबा कर रहता है. ‘जी हां, साहब’ के अलावा मुंह से कुछ निकलता ही नहीं. वह तो चालाक और धूर्त है, पर तुम इतनी नासमझ तो नहीं हो कि उस ने दिया और रख लिया.’’

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