अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने देश की महिलाओं को मिले अबॉर्शन यानी गर्भपात के संवैधानिक अधिकार को खत्म कर दिया. कोर्ट ने 24 जून को पचास साल पहले के अपने ही उस फैसले को पलटकर रख दिया, जिसमें कहा गया था कि महिलाओं के लिए अबॉर्शन का अधिकार एक संवैधानिक अधिकार है. पचास साल पहले अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने जिस मामले में ये फैसला सुनाया था, उसे 1973 के चर्चित ‘रोए बनाम वेड’केस के तौर पर जाना गया. अब इस नए फैसले के बाद पचास साल पहले के इस मामले की खूब चर्चा हो रही है.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद से अमेरिका के साथ ही दुनियाभर में इसपर लगातार आलोचना हो रही है. अमेरिका के अलावा कई देशों में फैसले के विरोध में प्रदर्शन हो रहे है. इस फैसले के बाद अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा से लेकर कई जानी-मानी हस्तियों ने इसपर विरोध जताया है. अबॉर्शन यानि गर्भपात को लेकर भारत अमेरिका से कितना आगे है ये जानने से पहले आइए थोड़ा इस केस के बारे में जान लेते है.

‘रोए वी वेड’ का फैसला क्या था?

अमेरिका में गर्भपात हमेशा से एक बेहद संवेदनशील मुद्दा रहा है. महिलाओं के पास गर्भपात का अधिकार होना चाहिए या नहीं इसको लेकर अमेरिका में लगातार बहस होती रही है. साथ ही ये मुद्दा रिपब्लिकन्स (कंजरवेटिव) और डेमोक्रेट्स (लिबरल्स) के बीच भी विवाद का का कारण बनता आया है. बात साल 1971 की है. जब अमेरिका में रो जेन नाम की महिला ने तीसरी बार प्रेगनेंट होने के बाद कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. रो जेन पहले ही दो बच्चों की मां थी, और वो तीसरा बच्चा नहीं चाहती थी. लेकिन अमेरिका में अबॉर्शन की इजाज़त केवल विशेष परिस्थितियों में ही थी. जिसके कारण रो ने अबॉर्शन की इजाजत के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. जिसके बाद अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट ने 1973 में अमेरिका की महिलाओं को अबॉर्शन का अधिकार दिया.

भारत में प्रेग्नेंसी कानून

भारत में 1971 में मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी कानून आया था. समय-समय पर इस कानून में संशोधन हुए. ये कानून एक सीमा तक महिलाओं को अबॉर्शन कराने की अनुमति देता है. लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि भारत में महिलाओं को अबॉर्शन कराने की खुली छूट है. एमटीपी एक्ट में कई टर्म्स एंड कंडीशन्स दी गई हैं. अगर आपका कारण उस क्राइटेरिया को पूरा करता है, तब ही आप गर्भपात करा पाएंगी.

भारत में अबॉर्शन से जुड़े कानून

एमटीपी एक्ट में अबॉर्शन राइट्स को तीन कैटेगरी में डिवाइड किया गया है.

1. जिसमे पहली कैटेगरी है प्रेग्नेंसी के 0 – 20 हफ्ते तक अबॉर्शन. इसके तहत अगर कोई महिला मां बनने के लिए मानसिक तौर पर तैयार नहीं है. या फिर अगर कांट्रासेप्टिव मेथर्ड या डिवाइस फेल हो गया और ना चाहते हुए महिला प्रेग्नेंट हो गई तब वो गर्भपात करा सकती है. अबॉर्शन एक रजिस्टर्ड डॉक्टर द्वारा होना ज़रूरी है.

2. दूसरी कैटेगरी प्रेग्नेंसी के 20 – 24 हफ्ते तक अबॉर्शन. इसके तहत अगर मां या बच्चे की मानसिक या शारीरिक स्वास्थ को किसी भी तरह का खतरा है तब महिला गर्भपात करा सकती है. इसके लिए अबॉर्शन के दौरान दो रजिस्टर्ड डॉक्टरों का होना जरूरी है.

3. प्रेग्नेंसी के 24 हफ्ते बाद अबॉर्शन के लिए. यदि महिला रेप का शिकार हुई है और उस वजह से प्रेगनेंट हुई है तब वो प्रेग्नेंसी के 24 हफ्ते बाद भी अबॉर्शन करवा सकती है. या महिला विकलांग है तब वह 24 हफ्ते बाद भी गर्भपात की मांग कर सकती है. साथ ही बच्चे के जीवित बचने के चांस कम है या प्रेगनेंसी की वजह से मां की जान को खतरा हो तो भी करवाया जा सकता है अबॉर्शन.

24 हफ्ते के बाद गर्भपात पर फैसला लेने के लिए एमटीपी बिल में राज्य स्तरीय मेडिकल बोर्ड्स का गठन किया जाता है. इस मेडिकल बोर्ड में एक गायनेकोलॉजिस्ट, एक बाल रोग विशेषज्ञ, एक रेडियोलॉजिस्ट या सोनोलॉजिस्ट शामिल होते हैं. ये बोर्ड गर्भवती की जांच करता है और अबॉर्शन में महिला की जान पर कोई खतरा न होने की स्थिति में ही अबॉर्शन करने की इजाज़त देता है.

भ्रूण के लिंग की जांच के बाद गर्भपात करना भ्रूण हत्या के दायरे में आता है और कानून की नज़र में ये अपराध है.

भारत में से अबॉर्शन जुड़ी समस्याएं

भारत उन कुछ चुनिंदा देशों में से है जहां महिलाओं को क़ानूनी तौर पर गर्भपात का हक है, लेकिन यहां समस्याएं अलग तरह की हैं.

भारत में आमतौर पर प्रेग्नेंसी का फैसला सिर्फ महिलाओं का नहीं होता. शादीशुदा घरों में यहां बहुत कुछ पति और परिवार पर निर्भर करता है. यही बात अबॉर्शन केसेस पर भी लागू होती है. जैसे कानून तो ये कहता है कि अगर प्रेग्नेंसी की वजह से किसी महिला को मानसिक आघात पहुंचता है तो वो गर्भपात करवा सकती है. लेकिन भारत में जिस तरह का सोशल स्ट्रक्चर है उसमें परिवार का दबाव, समाज का दबाव इतना हावी होता है कि महिला पर बच्चा पैदा करने का भारी दबाव होता है. ऐसे में अगर वो मानसिक रूप से तैयार नहीं होने की बात कहकर अबॉर्शन करवाना चाहे भी तो परिवार वाले उसे ऐसा करने नहीं देते.

अक्सर इस तरह की बातें सुनने में आती हैं. ये अपने आप में बड़ी आयरनी है कि एक महिला जब अपनी मर्ज़ी से अबॉर्शन करना चाहती है तो उस पर बच्चा पैदा करने का दबाव बनाया जाता है. लेकिन अगर पता चल जाए कि पेट में लड़की है तो जीव हत्या, ऊपर वाले को क्या मुंह दिखाओगी कहने वाले रिश्तेदार झट से बच्चा गिराने की राय देने लगते हैं. UNFPA की रिपोर्ट बताती है कि 2020 में जन्म से पहले लिंग परीक्षण की वजह से भारत में करीब 4.6 करोड़ लड़कियां मिसिंग हैं.

ये तो विवाहित महिलाओं की बात थी, लेकिन जब बात अविवाहित लड़कियों की आती है तो उसे कई स्तरों पर नेगेटिव बातों से जूझना पड़ता है. चूंकि शादी के बिना बनाए गए शारीरिक संबंधों को भारतीय समाज स्वीकार नहीं करता है और स्टिग्मा की तरह देखता है. ऐसे में जब कोई लड़की गर्भपात कराने जाती है, तो डॉक्टर्स भी उससे शादीशुदा हो, बच्चे का बाप कौन है, मां बाप को इस बारे में पता है टाइप के गैरज़रूरी सवाल पूछते हैं कई डॉक्टर्स लड़कियों को डांटने भी लगते हैं कि घरवालों का भरोसा तोड़ दिया आदि आदि. ऐसे वक्त में जब एक लड़की को सपोर्ट की सबसे ज्यादा ज़रूरत होती है वो लोगों के जजमेंट झेल रही होती है.

और गर्भपात तो दूर की बात है, आप किसी नार्मल सी प्रॉब्लम के लिए भी गायनेकोलॉजिस्ट के पास जाओ तब भी वो दो चार गैर ज़रूरी सवाल पूछेंगी. सही समय पर शादी और बच्चा पैदा करने जैसी बिन मांगी सलाह दे देंगी.

अबॉर्शन के अधिकारों के मामले में इंडिया अमेरिका से आगे है?

बिल्कुल सही बात है…भारत इस मामले में अमेरिका से आगे है. यहां का कानून महिलाओं को ये फैसला लेने का हक देता है कि बच्चा रखना चाहती है या नहीं. लेकिन वजह फैमिली प्लानिंग वाली है. एक औरत का उसके शरीर पर अधिकार वाली नहीं. कानून तो हमारा दुरुस्त है लेकिन दिक्कत सोशल स्ट्रक्चर की है जहां पति और ससुराल वाले एक लड़की, उसके शरीर और उसके पूरे अस्तित्व पर अपना हक समझते हैं. इस वजह से कई महिलाएं अपने शरीर से जुड़े फैसले खुद नहीं ले पातीं, उसके लिए भी दूसरों पर निर्भर हो जाती हैं.

कानूनी हक के बावजूद सुविधाओं की कमी और सामजिक दिक्कतों के कारण वो पूरी तरह अपने हक़ का इस्तेमाल नहीं कर पातीं. हमें ज़रूरत है सुविधाओं को महिलाओं तक पहुंचाने और सामजिक रूप से कुरीतिओं को खत्म करने की ताकि महिलाएं अपने हक़ का इस्तेमाल कर सकें.

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