हाल ही में मेक इन इंडिया के तहत बनी नौका तारिणी में सवार हो कर 6 महिला अफसरों ने एक साहसिक अभियान को अंजाम दिया. वह 19 सितंबर, 2017 का दिन था जब ऐश्वर्या, एस विजया, वर्तिका जोशी, प्रतिभा जम्वाल, पी स्वाति और पायल गुप्ता ने आईएनएस तारिणी पर अपना सफर शुरू किया. 19 मई, 2018 को वे 21,600 नाटिकल माइल्स यानी 216 हजार समुद्री मील की दूरी तय कर के वापस आई थीं. इस अभियान में लगभग 254 दिनों का समय लगा और इसी के साथ ही इन 6 नेवी महिला अफसरों ने अपने नाम को इतिहास के पन्नों में भी दर्ज करा लिया.

21 मई, 2018 को वे आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, पोलैंड और साउथ अफ्रीका होते हुए गोवा पहुंचीं. उन के सामने भी उतनी ही चुनौतियां थीं जितनी पुरुषों के सामने आती हैं, लेकिन उन्होंने उस का डट कर मुकाबला किया और सफलता पाई.

ये है आज की नारी की बदली हुई छवि यानी खुद आगे बढ़ कर जोखिमों का सामना करने वाली महिलाएं. यह प्रगति चाहे 1947 की आजादी की देन है या विश्व में होते हुए बदलाव की, बहुत सुखद है और इसे 75वें साल की सालगिरह पर याद करना एक अच्छी बात है.

भारत को आजाद हुए 75 वर्ष हो गए हैं. आजादी के 7 से ज्यादा दशकों के सफर में देश की महिलाओं का जीवन काफी बदला है. उन की स्थिति में सुधार हुआ है. उन्हें कई अधिकार मिले हैं, उन्होंने कई बंधनों से मुक्ति पाई है, कई तरह के अधिकारों की लड़ाई लड़ी है, कई जगह सफलता के परचम लहराए हैं और कई क्षेत्रों में पुरुषों से बाजी मारी है. मगर इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि कई मानों में उन की जिंदगी आज भी पारंपरिक यातनाओं का दंश ?ोल रही है. आज भी उन्हें दोयम दर्जा प्राप्त है, आज भी उन का शारीरिक शोषण हो रहा है और आज भी उन की मुट्ठी खाली ही है.

आइए, देखते हैं इन 75 सालों में महिलाओं की जिंदगी में किस तरह के बदलाव आए हैं.

भारत के अंगरेज शासकों ने समाज सुधारों और आम सुधारों पर कम ध्यान दिया था. आजादी के बाद संविधान बना जिस में औरतों को हर जगह बराबर के अवसर मिले. हिंदू कानूनों में 1956 तक कई परिवर्तन हुए जिन से बहु विवाह प्रथा समाप्त हुई. शिक्षा के क्षेत्र में कांग्रेस सरकारों ने बहुत नए स्कूल खोले जिन में लड़कियों को भी प्रवेश मिला. आजादी से पहले इस सब के बारे में सोचने की गवर्नर जनरल इन काउंसिल को कभी फुरसत नहीं रही.

समाज और परिवार में महिलाओं की स्थिति में धीरेधीरे ही सही पर बहुत से सकारात्मक परिवर्तन आ रहे हैं.

शिक्षित हुई है नारी

अपने वजूद को पहचानने और अपनी काबिलीयत का लोहा मनवाने के लिए जरूरी है कि एक स्त्री शिक्षित हो. वह अपने हकों को जाने, कर्तव्यों को पहचाने और आगे बढ़ने से घबराए नहीं. महिलाओं के विकास में शिक्षा का सब से बड़ा रोल रहा है. आजादी के बाद महिलाओं को बराबर अधिकार मिले जिस से उन्हें पढ़नेलिखने का अवसर मिला. यहीं से आधी आबादी की दुनिया बदलनी शुरू हुई.

शिक्षा के कारण महिलाओं की चेतना जाग्रत हुई. वे परंपरागत और पुरातनपंथी सोच से बाहर आईं और अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हुईं. जब वे शिक्षित हुईं तो नौकरी के लिए घर से बाहर निकलीं, पुरुषों के इस समाज में अपनी जगह सुनिश्चित की और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनीं.

महिलाएं अब महज हाउसवाइफ की भूमिका में नहीं हैं बल्कि वे अब होममेकर बन चुकी हैं. घरपरिवार चलाने में आर्थिक सहयोग दे रही हैं. इस से उन के अंदर आत्मविश्वास पैदा हुआ है. ऐसी महिलाएं किसी पर निर्भर रहने के बजाय घरपरिवार, मातापिता और पति को आर्थिक रूप से सहयोग करने लगी हैं. जो महिलाएं ज्यादा पढ़ीलिखी नहीं वे भी अपनी बेटियों को अच्छी शिक्षा दे कर कुछ बनाना चाहती हैं और उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करना चाहती हैं. यह एक सकारात्मक रुझन है.

पिछले 7 दशकों में महिलाओं की नौकरी करने की दर में अच्छाखासा इजाफा हुआ है. आज बहुत सी महिलाएं कंपनी की सीईओ और मैनेजिंग डाइरैक्टर बन रही हैं, ऊंचे से ऊंचे ओहदे पर बैठ रही हैं. वे न सिर्फ पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं बल्कि इन सभी बदलावों के कारण उन का आत्मविश्वास भी बढ़ा है.

वे अपनी बात सब के सामने रख पाती हैं. अपने अधिकारों को पाने के लिए तत्पर नजर आती हैं. अब वे सोशल मीडिया के जरीए भी अपनी बात रखने लगी हैं. महिलाओं से जुड़े कई कैंपेन भी इस माध्यम के जरीए चलाए जा रहे हैं, जिन के सकारात्मक परिणाम सामने आ रहे हैं.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की ताजा रिपोर्ट के अनुसार शिक्षा में महिलाओं की भागीदारी बड़ी है. शिक्षण संस्थानों तक लड़कियों की पहुंच लगातार बढ़ रही है. 1 दशक पहले हुए सर्वेक्षण में शिक्षा में महिलाओं की भागीदारी 55.1% थी जो अब बढ़ कर 68.4% तक पहुंच गई है. यानी इस क्षेत्र में 13% से अधिक की वृद्धि दर्ज की गई है.

आधुनिक तकनीक भी महिलाओं की जिंदगी में शिक्षा का जरीया बनी है. गांव की लड़कियां बड़ेबड़े स्कूलकालेजों से घर बैठे अपनी पढ़ाई कर रही हैं. बड़ी औनलाइन कंपनियों से जुड़ कर उत्पाद बेच रही हैं. अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो रही हैं.

मन से भी स्वतंत्र हुई हैं महिलाएं

महिलाएं अब अपने मन की बात सुनती हैं और उस पर विचार भी करती हैं. सही फैसले लेने से हिचकिचाती नहीं हैं. यानी वे अब मन से भी स्वतंत्र हो रही हैं. वे अगर कुछ करने की ठान लेती हैं तो कर के गुजरती हैं.

मन में कुछ साहसिक और दुष्कर कर दिखाने की बात ठान लेना और सफलतापूर्वक कर के दिखाना आज की महिलाओं ने सीख लिया है. ऐसा 10-20 साल पहले तक महिलाएं सोच भी नहीं सकती थीं. पर अब उन के पास रास्ते हैं और जज्बा भी है. महिलाएं एकदूसरे से भी प्रेरित हो रही हैं. यही आजाद भारत की महिलाओं की उभरती नई छवि है.

खुद को साबित किया है

किसी देश का विकास उस के मानव संसाधन पर निर्भर होता है. इस में महिला और पुरुष दोनों का ही स्थान आता है. आजाद होने के बाद हमारे देश में भी हर नागरिक को समान अधिकार मिले जिस से उन के विकास की राह खुली. महिलाओं ने हर क्षेत्र में अपनी क्षमता और प्रतिभा को साबित किया है. खेल का क्षेत्र हो या विज्ञान का, राजनीति हो या कौरपोरेट वर्ल्ड, अदाकारी हो या सैन्य क्षेत्र, डाक्टरी हो या इंजीनियरिंग महिलाएं हर जगह अपनी काबिलीयत दिखा रही हैं.

आज विदेश और रक्षा जैसे महत्त्वपूर्ण मंत्रालयों की जिम्मेदारियां महिलाओं पर हैं और वे बखूबी इस काम को कर रही हैं. वे देश के सर्वोच्च पदों पर पहुंच रही हैं. फाइटर पायलट बन कर देश की रक्षा दायित्व भी निभाने के लिए तैयार हैं. ये सभी बदलाव बहुत ही सकारात्मक हैं. अब घर का पुरुष चाहे पिता हो, भाई हो या पति सब महिलाओं के योगदान को महत्त्व दे रहे हैं और उन को सहयोग भी कर रहे हैं.

अपनी मरजी से जीना

खासकर मुंबई और दिल्ली जैसे भारत के महानगरों और अन्य बड़े शहरों में बसने वाली लड़कियों और महिलाओं की स्थिति में काफी बदलाव आए हैं. आज उन्हें शारीरिक पोषण और मानसिक विकास के समान अवसर मिल रहे हैं. सड़कों पर जरूरी काम से देर रात भी निकलना चाहें तो निकल सकती हैं. बेखौफ हो कर अपनी पसंद के कपड़े पहनती हैं.

अपने दिल और मरजी की थाप पर एक साथ गुनगुनाती है. अपनी मरजी से अपना साथी चुनने का अधिकार भी मिलने लगा है. दिल चाहे तो वह बुरका पहनती है और मन करे तो बिकिनी भी. उस की मरजी हो तब लिपस्टिक लगाने का अधिकार है और मरजी हो तो बिना मेकअप घूमनेफिरने का हक. शादी करने या न करने का फैसला भी ले सकती है.

वह अपनी मरजी से अकेली भी रहती है तो कोई उस पर ताने नहीं कसता. अपनी मरजी की जौब कर आत्मनिर्भर जिंदगी जीने के मौके भी उस के पास हैं. हां इतना दुख जरूर है कि यह क्रांति अभी बड़े शहरों तक सीमित है. छोटे शहरों और गांवों में आज भी पंचायत, समाज और खापों की चल रही है. कई जगह नए कपड़े पहनने तक पर पाबंदी है.

घर में सम्मान

शिक्षा और जागरूकता का असर घरेलू हिंसा पर भी पड़ा है. अब इस तरह के मामले पहले से कम हुए हैं. रिपोर्ट के अनुसार वैवाहिक जीवन में हिंसा ?ोल रही महिलाओं का प्रतिशत 37.2 से घट कर 28.8% रह गया है. सर्वे में यह भी पता चला कि गर्भावस्था के दौरान केवल 3.3% को ही हिंसा का सामना करना पड़ा.

एक सर्वेक्षण से यह भी सामने आया है कि 15 से 49 साल की उम्र में 84% विवाहित महिलाएं घरेलू फैसलों में हिस्सा ले रही हैं. इस से पहले 2005-06 में यह आंकड़ा 76% था. ताजा आंकड़ों के अनुसार लगभग 38% महिलाएं अकेली या किसी के साथ संयुक्त रूप से घर या जमीन की मालकिन हैं.

आज के बदलते परिवेश में जिस तरह नारी पुरुष वर्ग के साथ कंधे से कंधा मिला कर प्रगति की ओर अग्रसर हो रही है वह समाज के लिए एक गर्व और सराहना की बात है. आज राजनीति, टैक्नोलौजी, सुरक्षा समेत हर क्षेत्र में जहांजहां महिलाओं ने हाथ आजमाया उन्हें कामयाबी ही मिली. अब तो ऐसी कोई जगह नहीं है जहां आज की नारी अपनी उपस्थिति दर्ज न करा रही हो. इतना सब होने के बाद भी वह एक होममेकर के रूप में भी अपना स्थान बनाए हुए है.

हाल ही में भारत ने महिला सशक्तीकरण की दिशा में अभूतपूर्व कदम उठाते हुए देश की संसद और राज्य विधानसभाओं में एकतिहाई महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की. वैसे एक सच यह भी है कि महिला आरक्षण का मात्र वही महिलाएं फायदा उठा सकती हैं जो शिक्षित या योग्य हैं. आज भी जो महिलाएं परदे के पीछे रहती हैं उन की स्थिति वही की वही है.

ज्यादा प्रयास की जरूरत

सिक्के का दूसरा पहलू भी विचारणीय है जहां आज भी महिलाओं को घर के बाहर न निकलने की हिदायत दी जाती है. रेप या बलात्कार होने पर हमारा समाज एक औरत को आत्महत्या के लिए मजबूर कर देता है. यही नहीं कन्या भ्रूण हत्या जैसी घटनाएं महिलाओं के विकास में अवरोध पैदा कर रही हैं.

आज भी महिलाओं को उतना आगे नहीं आने दिया जा रहा है जितना जरूरत है और इस की सब से बड़ी वजह है हमारे समाज का पुरुषप्रधान होना. हालात ऐसे हैं कि नारी पुरुषों के लिए भोगविलास की वस्तु मानी जाती है. विज्ञापनों, फिल्मों जैसे क्षेत्रों में उन्हें अश्लील रूप में प्रदर्शित किया जाता है.

अगर हम भारत के संदर्भ में बात करें तो पाएंगे कि अब भी हमारे देश को महिलाओं की स्थिति सुधारने की जरूरत है. शिक्षा को निचले स्तर तक पहुंचा कर हम नारियों को सशक्त करने का प्रयास कर सकते हैं.

महिला सशक्तीकरण की दिशा में देश में प्रगति हुई है, लेकिन बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहां और प्रयासों की जरूरत है. लिंगानुपात के मोरचे पर देश ज्यादा प्रगति नहीं कर पाया है.

शहरी क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार हुआ है, इसलिए प्रसूति मौतों के मामलों में कमी आई है. हालांकि गांवों की स्थिति अभी ज्यादा नहीं बदली है. यूनिसेफ के अनुसार भारत में प्रसव के दौरान होने वाली मौतें पहले से घटी हैं, लेकिन ये अब भी बहुत ज्यादा हैं. देश में हर साल लगभग 45 हजार महिलाओं की मौत प्रसव के दौरान हो जाती है.

वेतन संबंधी असमानता

चैरिटी संगठनों के एक अंतर्राष्ट्रीय परिसंघ औक्सफैम के अनुसार भारत में पुरुषों और महिलाओं के बीच वेतन असमानता दुनिया में सब से खराब है. मान्स्टर सैलरी इंडैक्स के अनुसार पुरुषों और महिलाओं दोनों द्वारा एक ही प्रकार के काम के लिए भारतीय पुरुष महिलाओं की तुलना में 25 रुपए अधिक कमाते हैं.

भारतीय समाज में महिलाओं के ऊपर हिंसा एक प्रमुख मुद्दा है. महिलाओं की सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए लड़कियों को ‘सही ढंग से व्यवहार करना’ सिखाने की तुलना में पुरुषों को ‘सभी महिलाओं का सम्मान’  करना सिखाना अधिक आवश्यक है.

देश की पितृसत्तात्मक संरचना के कारण भारत में घरेलू दुर्व्यवहार अभी भी सांस्कृतिक रूप से स्वीकार्य है. भारत में युवा पुरुषों और महिलाओं के एक सर्वेक्षण के अनुसार 57% लड़के और 53% लड़कियों का मानना है कि महिलाओं को उन के पति द्वारा पीटा जाना उचित है.

2015 और 2016 के बीच किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार 80% कामकाजी महिलाओं को अपने जीवनसाथी के हाथों घरेलू शोषण का सामना करना पड़ता है.

सेना में भारतीय महिलाओं की भागीदारी बेहद कम है और हाल ही के वर्षों में इस में गिरावट आई है. पुरुष से महिला अनुपात सिर्फ 0.36 है.

महिलाओं को नहीं मिली इन चीजों से आजादी

स्वतंत्रता दिवस हर भारतीय के लिए खास है क्योंकि इसी दिन हम अंगरेजों की गुलामी की जंजीरें तोड़ आजाद हुए थे. मगर बात अगर महिलाओं की स्थिति की करें तो आज भी कई ऐसी चीजें हैं जिन से उन्हें आजादी नहीं मिली. महिलाएं जो देश की 49% आबादी का गठन करती हैं अभी भी सुरक्षा, गतिशीलता, आर्थिक स्वतंत्रता, पूर्वाग्रह और पितृसत्ता जैसे मुद्दों से जूझ रही हैं.

फैसले का हक नहीं

हमारे जैसा पितृसत्तात्मक समाज पुरुषों को निर्णय लेने की शक्ति देता है, लेकिन लड़कियों को नहीं. ज्यादातर लड़कियां अपनी इच्छा से पढ़ नहीं सकतीं, खेल प्रतिस्पर्धा में भाग नहीं ले सकतीं, कैरियर नहीं बना सकतीं यहां तक कि जीवनसाथी चुनने का हक भी उन्हें नहीं मिलता. पढ़ने या काम करने के विकल्प से ले कर आर्थिक फैसले और कमाई के इस्तेमाल जैसे अहम मुद्दों पर अकसर महिलाओं को पुरुषों की बात माननी पड़ती है. पितृसत्ता वाले इस समाज का नतीजा है कि भारत में कन्या भू्रण हत्या की घटनाएं इतनी ज्यादा होती हैं. उन्हें दहेज के नाम पर जला दिया जाता है और उन की जिंदगी चौकेचूल्हे तक सीमित कर दी जाती है.

हिंसा, दुर्व्यवहार और शोषण से मुक्ति नहीं

भारत में महिलाओं को हर दिन एहसास करवाया जाता है कि वे अपने घर, औफिस और पब्लिक प्लेस में कितनी असुरक्षित हैं. घर में दुर्व्यवहार, पति की मारपीट और सास के ताने, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न या मानसिक दबाव, सोशल मीडिया पर भद्दे कमैंट, सड़क पर छेड़खानी और रेप, मोबाइल पर ब्लैंक कौल्स जैसी घटनाओं से महिलाओं को हर दिन गुजरना पड़ता है. पति से ज्यादा कमाने वाली 27% पत्नियां शारीरिक हिंसा की शिकार हैं तो 11% को इमोशनल ब्लैकमेलिंग ?ोलनी पड़ती है.

शादी के बाद काम करने की आजादी

भारत में बहुत सी महिलाएं आज भी हाउसवाइफ की तरह अपनी जिंदगी व्यतीत कर रही हैं. उन में से बहुत सी औरतें तो घर के काम से खुश हैं, लेकिन कुछ मजबूरी के चलते बाहर काम नहीं करतीं. चूंकि आज भी कई जगहों पर महिलाओं को शादी के बाद काम करने की आजादी नहीं है. कुछ पुरुष आज भी पत्नी के काम को अपना अपमान समझते हैं.

मनचाहे कपड़े पहनने की आजादी

कुछ समय पहले उत्तराखंड के सीएम तीरथ सिंह रावत ने महिलाओं की फटी जींस को ले कर बयान देते हुए कहा था कि आजकल महिलाएं फटी जींस पहनती हैं. उन के घुटने दिखते हैं. ये कैसे संस्कार हैं? ये संस्कार कहां से आ रहे हैं? इस से बच्चे क्या सीख रहे हैं और महिलाएं आखिर समाज को क्या संदेश देना चाहती हैं? अकसर इस तरह के बयान नेताओं या देश के तथाकथित हितचिंतकों की जबानी सुनने को मिल जाते हैं. अब जिस देश को संभालने वालों की ही ऐसी सोच हो तो वहां महिलाओं को अपनी पसंद के कपड़े पहनने की आजादी भला कैसे मिलेगी?

महिलाओं ने अब तक जो हासिल किया भी है वह स्वयं के अनुभव, आत्मविश्वास और मेहनत के आधार पर किया है. मगर पुरुष समाज लैंगिक सोच के दायरे से बाहर नहीं निकला है. स्त्री को देह मानने की मानसिकता अब भी है. खाप पंचायतों की महिलाओं को ले कर हुए तुगलकी फरमान किसी से छिपे नहीं हैं. इसी समाज में रोजाना बुलंदशहर जैसी घटनाएं भी हमारे प्रगतिशील समाज के मुंह पर कालिख पोतती हैं. दलित, निर्धन और अशिक्षित महिलाओं की सुध लेने की बात तो दूर की है जब शहरी आबादी ही बुरी तरह सामाजिक परंपराओं के बोझ ढोने को विवश हो.

विश्वभर की संसदों में महिलाओं की संख्या के हिसाब से भारत आज भी 103वें स्थान पर है, जबकि नेपाल, बंगलादेश और पाकिस्तान की संसद में महिला सांसदों की संख्या कहीं अधिक है, जिन्हें हम अपने से भी ज्यादा पिछड़ा हुआ मानते हैं.

मंजिल अभी दूर

कुल मिला कर आज आजादी के 75 सालों बाद भी भारत में महिलाओं की स्थिति संतोषजनक नहीं कही जा सकती. आधुनिकता के विस्तार के साथसाथ देश में दिनप्रतिदिन बढ़ते महिलाओं के प्रति अपराधों की संख्या के आंकड़े चौकाने वाले हैं. उन्हें आज भी कई प्रकार के धार्मिक रीतिरिवाजों, कुत्सित रूढि़ मान्यताओं, यौन अपराधों, लैंगिक भेदभावों, घरेलू हिंसा, निम्न स्तरीय जीवनशैली, अशिक्षा, कुपोषण, दहेज उत्पीड़न, कन्या भ्रूण हत्या, सामाजिक असुरक्षा, तथा उपेक्षा का शिकार होना पड़ रहा है.

हालांकि कुछ महिलाएं इन सभी चुनौतियों से पार पाकर विभिन्न क्षेत्रों में देश के सम्माननीय स्तरों तक भी पहुंची हैं जिन में श्रीमती इंदिरा गांधी, प्रतिभा देवी सिंह पाटिल, सुषमा स्वराज, निर्मला सीतारमण, महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, अमृता प्रीतम, महाश्वेता देवी, लता मंगेशकर, आशा भोंसले, श्रेया घोषाल, सुनिधि चौहान, अल्का याज्ञनिक, मायावती, जयललिता, ममता बनर्जी, मेधा पाटकर, अरुंधती राय, चंदा कोचर, पी.टी. ऊषा, ?साइना नेहवाल, सानिया मिर्जा, साक्षी मलिक, पी. वी. सिंधू, हिमा दास, झलन गोस्वामी, स्मृति मंधाना, मिताली राज, हरमनप्रीत कौर, गीता फोगाट, मैरी काम और हाल ही में नवनिर्वाचित राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू आदि नाम उल्लेखनीय हैं.

भारत जैसे पुरुषप्रधान देश में 70 के दशक से महिला सशक्तीकरण तथा फैमिनिज्म शब्द प्रकाश में आए. गैरसरकारी संगठनों ने भी महिलाओं को जाग्रत कर उन में अपने अधिकारों के प्रति चेतना विकसित करने तथा उन्हें सामाजिक और आर्थिक रूप से सशक्त बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है.

हरियाणा, राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश आदि में कन्या भ्रूण हत्या को रोक कर लिंग अनुपात के घटते स्तर को संतुलित करने तथा शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति सुधारने के प्रयास में केंद्र सरकार द्वारा ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना चलाई जा रही है.

आजादी के बाद के वर्षों में महिलाओं के लिए समान अधिकार, अवसरों की समानता, समान कार्य के लिए समान वेतन, अपमानजनक प्रथाओं पर रोक आदि के लिए कई प्रावधान भारतीय संविधान में किए गए. इन के अतिरिक्त दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961, कुटुंब न्यायालय अधिनियम 1984, सती निषेध अधिनियम 1987, राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम 1990, घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005, बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम 2006, कार्यस्थल पर महिलाओं का लैंगिक उत्पीड़न (प्रतिषेध) अधिनियम 2013 आदि भारतीय महिलाओं को अपराधों के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करने तथा उन की आर्थिक एवं सामाजिक दशा में सुधार करने के लिए बनाए गए प्रमुख कानूनी प्रावधान हैं. कई राज्यों की ग्राम व नगर पंचायतों में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों का प्रावधान भी किया गया है.

स्त्री सुरक्षा और समता

स्त्री सुरक्षा और समता में उठाया गया हमारा प्रत्येक कदम किसी न किसी हद तक स्त्रियों की दशा सुधारने में कारगर साबित हो रहा है इस में कोई दोराय नहीं. किंतु सामाजिक सुधार की गति इतनी धीमी है कि इस के यथोचित परिणाम स्पष्ट रूप से सामने नहीं आ पाते. हमें और भी तेजी से इस क्षेत्र में जनजागृति और शिक्षा पहुंचाने का कार्य करने की आवश्यकता है.

हमें यह समझना होगा कि विकास और महिला उत्थान 2 अलग चीजें नहीं हैं. इन्हें 2 अलग नजरिए से देखने पर सिर्फ नाकामी ही हाथ लगेगी. महिलाओं को विकास की मुख्यधारा में शामिल करने के लिए प्रयास किए जाएं ताकि वे आत्मनिर्भर और जागरूक हो सकें.

आज किसी भी बड़े मौल में चले जाएं, सब से चमकदार दुकानों में औरतों का सामान बिक रहा है. सुपर मार्केटों में ज्यादा खरीदारी औरतें कर रही हैं. व्हाइट गुड्स जैसे फ्रिज, एयरकंडीशनर, गैस के चूल्हे, नई मौड्यूल, किचन आदि पर फैसला औरतें कर रही हैं. इंटीरियर डैकोरेशन पर औरतों की राय ली जा रही है और वे धड़ाधड़ नए डिजाइन के बैड, वार्डरोब, नए पेंट, पौलिश बाजार में छा रहे हैं जिन की ग्राहक औरतें हैं.

औरतें हर देश के सकल उत्पादन यानी जीडीपी की वृद्धि में अब बड़ा योगदान कर रही हैं और भारत में भी वे उत्पादन में भी लगी हैं और कंज्यूमर भी हैं.

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