लेखक व निर्देषक को इस बात की जानकारी नही है कि सत्तर से नब्बे के दर्शक में किस तरह पितृसत्तात्मक सोच ने महिलाओं के पैरो में बेड़ियां डाल रखी थीं. इसी वजह से वह फिल्म में तरला की पितृसत्तात्मक सोच के खिलाफ लड़ाई व उनके पति नलिन दलाल के सपोर्ट को रेखांकित करने में पूरी तरह से विफल रहे हैं.

रेटिंग: पांच में से ढाई स्टार

निर्माताः अर्थस्काय पिक्चर्स, आरएसवीपी मूवीज

लेखकः गौतम वेद और पियूष गुप्ता

निर्देशकः पियूष गुप्ता

कलाकारः हुमा कुरेशी, शारिब हाशमी,पूर्णेंदु भट्टाचार्य, वीना नायर, भारती आचरेकर और अन्य

अवधिः दो घंटे सात मिनट

ओटीटी प्लेटफार्म: जी 5

इन दिनों हर होटल में जो मुख्य रसोइया होता है,उसे ‘षेफ’ कहा जाता है.इन दिनों ‘षेफ’ एक अति प्रचलित षब्द हो गया है. पर आज से पचास साल पहले इस षब्द का इजाद नहीं हुआ था. उस दौर में एक साधारण महिला तरला दलाल ने कुछ करने के मकसद से कूकिंग क्लास लेनी शुरू की. उन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. फिर उनकी रेसिपी की किताबें बिकने लगीं. सत्तर से नब्बे के दशक में तरला दलाल ने रसोई के व्यंजनों /रेसिपी को लेकर जिस तरह से अपने कैरियर को अंजाम दिया कि हर कोई अचंभित रह गया. उन्होने अपने काम से पितृसत्तात्मक सोच को भी धराषाही कर दिया. यहां तक कि उनके पति नलिन दलाल भी उनकी मदद किया करते थे. तरला दलाल इंडियन फूड राइटर, शेफ, कुकबुक राइटर और कुकिंग शो की होस्ट रह चुकी हैं. वह पहली भारतीय थीं, जिन्हें 2007 में खाना पकाने की कला में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था.

उनके ‘देसी नुस्खे‘ आज भी हर भारतीय के घर में चर्चा का विषय होते हैं. तरला दलाल ऐसी शेफ थीं, जिन्हें आज भी शाकाहारी खाने को नया रूप व स्वाद देने के लिए क्रेडिट दिया जाता है. 2013 में 77 वर्ष की उम्र में निधन हो गया था. वह 17 हजार से अधिक रेसिपी देकर गयी हैं. ऐसी ही तरला दलाल की बायोपिक  फिल्म ‘‘तरला’’ लेकर फिल्मकार पियूष गुप्ता आए हैं,जो कि सात जुलाई से ओटीटी प्लेटफार्म ‘‘जी 5’’पर स्ट्रीम हो रही है.

कहानी

फिल्म की कहानी शाकाहारी भोजन बनाने की कला को आसान बनाने वाली तरला दलाल की है. स्कूल में जब षिक्षक उन्हे पढ़ा रही होती थी,तब वह कुछ करने के सपने देखती रहती थीं. वह कुछ करने के लिए शादी नही करना चाहती थीं. लेकिन उनके माता पिता ने कम उम्र में यह कह कर शादी कर दी कि ‘ जो मन में आए शादी के बाद कर लेना‘. पर तरला शादी नही करना चाहती थी. इसलिए जब पेशे से इंजीनियर नलिन दलाल (शारिब हाशमी) उनके घर आते हैं,तो  तो तरला (हुमा कुरेशी) इतनी नाराज हो जाती है कि वह नलिन को लाल मिर्च मिला हुआ हलवा परोस देती हैं. जिसे नलिन एक खेल की तरह लेते हुए शादी के लिए हां कह देते हैं.

तरला शादी कर घरेलू कामकाज में व्यस्त हो जाती हैं.उनके तीन बच्चे हो जाते हैं. पति नलिन के टिफिन लेकर फैक्ट्री जाने के बाद तरला के पास खाना बनाने,सफाई करने, अपने तीन बच्चों की देखभाल करने का ही काम रहता है. ऐसा तब तक चलता रहता है जब तक उसे अहसास नही होता कि उसे स्टोव पर भोजन पकाने के अपने कौशल को अन्य युवा महिलाओं तक पहुंचाकर उनकी जल्द शादी होने में योगदान देना है. फिर वह कूकिंग क्लास लेने लगती हैं. पर सोसायटी एतराज करती है. उधर नलिन की नौकरी चली जाती है. तब नलिन प्रकाशक बनकर तरला की कूकिंग रेसिपी की किताब छापता है.पहले किताबे नही बिकती. मगर फिर कमाल हेा जाता है. फिर तरला का टीवी कायकम आने लगात है. और एक दिन नलिन को अहसास होता है कि लोग तरला के साथ ही उसके भी प्रषंसक है क्योकि उसने पितृसत्तात्मक सोच के विपरीत जाकर अपनी पत्नी को कुछ करने में अपना योगदान दिया.

लेखन व निर्देशन

कई वर्ष तक फिल्मकार नितेश तिवारी के साथ जुड़े रहे पियूष गुप्ता की बतौर निर्देशक यह पहली फिल्म है,पर उन्होने दृष्यों को सुंदरता से फिल्माया है. मगर पटकथा लेखक गौतम वेद इस फिल्म की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी हैं. इसके चलते फिल्म प्रभाव छोड़ने में असफल रहती है. लेखक व निर्देशक को इस बात की जानकारी नही है कि सत्तर से नब्बे के दषक में किस तरह पितृसत्तात्मक सोच ने महिलाओं के पैरो में बेड़ियां डाल रखी थीं.

इसी वजह से वह फिल्म में तरला की पितृसत्तात्मक सोच के खिलाफ लड़ाई व उनके पति नलिन दलाल के सपोर्ट को रेखांकित करने में पूरी तरह से विफल रहे हैं. भोजन के इर्द-गिर्द घूमने वाली इस  फिल्म में एक भी तत्व ऐसा नहीं है,जो इंसान के अंदर सुरूचिकर भोजन के प्रति जिज्ञासा पैदा करे. इतना ही नही फिल्म में एक भी यादगार दृश्य नहीं है.सब कुछ बड़ा बनावटी सा लगता है. यहां तक कि नलिन दलाल का किरदार भी ठीक से नहीं उभर पाया,जो कि खुद को प्रगतिषील मानता है,मगर हर मोड़ पर वह अपनी प्रषंसा का भूखा भी है,पर न मिलने पर उसके अंदर एक अजीब सी बेचैनी व जलन भी होती है.फिल्म के अंत में महज दो चार मिनट के दृष्य में इस बात को चित्रित कर लेखक व निर्देशक ने इतिश्री कर ली.इसकी मूल वजह यह हे कि नई पीढ़ी के लेखक गौतम वेद और निर्देषक से पियूष गुप्ता को सत्तर से नब्बे के दषक के समाज  की समझ नही है. इन दोनो ने उसे समझने का भी प्रयास नही किया. पीयूष ने तरला की कहानी को स्लाइस-ऑफ-लाइफ शैली में बेहतर तरीके से पेष किया है,मगर कमजोर पटकथा व कई तरह की नासमझी वाली गलतियों के चलते फिल्म मजेदार नही बन पाती. इतना ही नही फिल्म की गति काफी धीमी है.

मध्यम वर्गीय परिवार में लैंगिक असमानता,सफल कामकाजी महिला के प्रति समाज के दृष्टिकोण को भी फिल्मकार सही ढंग से  चित्रित नही कर पाए.माना कि निर्देशक एक महिला की सहानुभूति को गरिमापूर्ण तरीके से उजागर करने के लिए काफी संवेदनशील नजर आते हैं.

तरला अपने टीवी कार्यक्रम को लेकर इस कदर व्यस्त हो जाती हैं कि घर पर रसोइया रख देती हैं.नलिन नौकरी की तलाष में व्यस्त हैं. डाइनिंग टेबल पर पिता व तीन छोटे बच्चे खाना खा रहे हैं.छोटा बेटा बीच में उठकर खाना कचरे के डिब्बे में फेंक कर आता है और पिता की समझ में कुछ न आए,यह कैसे हो सकता है? यहां तक कि जब डाक्टर बताता है कि बेटे की बीमारी की वजह यह है कि उसने तीन दिन से भोजन नही किया है. तब जिस तरह से तरला व नलिन के बीच बातचीत होनी चाहिए थी,उसे भी लेखक व निर्देषक नहीं गढ़ पाए. लेखक व निर्देषक भूल गए कि किसी की बायोपिक बनाते हुए सिर्फ उसका महिमामंडन नही किया जाता.फिल्म में इस तरह की तमाम गलतियां हैं. फिल्मकार भूल गए कि कोई भी इंसान बिना असाधारण उतार चढ़ाव के बड़ा नही बन पाता.

अभिनय

कमजोर पटकथा के बावजूद तरला के किरदार को हुमा कुरेशी ने अपनी तरफ से मेहनत तो की, पर बात नही बनी. मशहूर रेस्टारेंट ‘सलीम’ के मालिक की बेटी होने के चलते हुमा कुरेशी इस किरदार में अपनी तरफ से कई आयाम जोड़ सकती थीं,पर ऐसा कुछ नही हुआ. तरला मूलतः गुजराती हैं, पर हुमा कुरेशी के मंुह से संवाद सुनकर लगता है कि यह कोई पुणे में रहने वाली महाराष्ट्यिन हैं. कई जगह उनके चेहरे पर वह भाव नही आते,जो आने चाहिए.जब डाक्टर से तरला को पता चलता है कि  उसके तीन दिन से खाना न खाने के चलते उनका बेटा बीमार हुआ है,तो मां के रूप में उनके चेहरे पर जो भाव आने चाहिए थे,वह नजर नही आते.इतना ही नही उस वक्त मां और सफल कामकाजी मां के बीच की जो कश्मकश होती है,वह भी हुमा कुरेशी के चेहरे पर नजर नही आती.‘महारानी’ या ‘मोनिका ओह माय डार्लिंग ’ से उनकी जिस अभिनय प्रतिभा के लोग दीवाने हुए थे,उसका अभाव यहां नजर आता है.

‘फिल्मिस्तान’ व ‘फुल्लूू’ के बाद ‘तरला’ में पुरूष नायक  के तौर पर नलिन दलाल के किरदार को निभाकर शारिब हाशमी ने साबित कर दिया कि वह फिल्म में हीरो बनने लायक अभिनय क्षमता रखते हैं,जिसकी अनदेखी फिल्मकार करते रहते हैं.शारिब ने अपने अभिनय से तरला को यादगार बनाने में अहम भूमिका निभायी है,जबकि लेखक ने उनके किरदार को सही ढंग से  लिखा नही है.अपनी पत्नी के ‘कुछ’करने की इच्छाषक्ति को बेहिचक बढ़ावा देने वाले पति,पत्नी की रेसिपी को टाइपकर उसकी किताब छापने तक नलिन के उत्साह को शारिब हाशमी ने अपने अभिनय से परदे पर उभारा है.माफी मांगने वाले लंबे मोनो लॉग में षारिब का अभिनय यादागर बनकर रह जाता है.छोटे किरदार में भारती आचरेकर अपनी छाप छोड़ जाती हैं.

 

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