प्रतिभा नाम मु?ो कैसे मिला, मालूम नहीं. इसे सार्थक करने का जिम्मा कब लिया, यह भी नहीं मालूम पर इतना जरूर मालूम है कि मैं रूपवती नहीं हूं. मेहनत से प्राप्त सफलता और सफलता से प्राप्त आत्मविश्वास की सीढि़यां चढ़ कर मैं ने अपने साधारण से व्यक्तित्व में चार नहीं तो तीन चांद अवश्य लगा दिए हैं. यद्यपि मैं 7 और 11 वर्षीया 2 प्यारी बेटियों की मां भी बन चुकी हूं, लेकिन हमेशा दुबलीपतली रही, इसलिए उम्र में कभी 22 से बड़ी नहीं लगी.

मेरे पति एक कंपनी में काम करते हैं और मैं विश्वविद्यालय में प्राध्यापिका हूं. मेरे पति
को इसीलिए मेरा नौकरी करना खूब पसंद है.

12 बरस बीत गए हैं उन से मेरी शादी को. तभी से शिकागो में हूं. मु?ो यहां के जर्रेजर्रे से प्यार हो चुका है, लेकिन मेरे पति अपनी नौकरी से खुश नहीं हैं, इसलिए बदलना चाहते हैं. अत: कब, कहां जाना होगा, फिलहाल कुछ पता नहीं है.

यों तो अपने देश की याद आना कोई नई बात नहीं है, मगर इन की नौकरी की उधेड़बुन में देश की इतनी याद आई कि जाड़ों की छोटी सी 2 हफ्ते की छुट्टियों में भी मैं सपरिवार भारत चली आई. आज वापस जा रही हूं. सबकुछ कितना बदलता जा रहा है, इस बात का एहसास मु?ो तब हुआ जब मु?ो अपनी कार में हवाईअड्डे छोड़ने जा रहे पिताजी ने अचानक कहा, ‘‘प्रतिभा, वह बंगला देख रही हो, उस कालोनी के कोने पर. वहां धनश्याम रहता है, अपनी बीवी और 2 बच्चों के साथ. अपनी मां से अलग हो गया है वह.’’

इतना बड़ा घर, कितनी शानशौकत के साथ रहते होंगे वहां. शायद 4-5 नौकर उन लोगों के आगेपीछे घूमते होंगे, लेकिन अपनी बुढि़या मां से अलग हो गए हैं. पलभर को सोचने लगी, क्या ये वही घनश्याम हैं, जिन्हें अपनी विधवा मां से विशेष प्रेम था. कई भाईबहनों में सब से छोटे थे घनश्याम. धीरेधीरे सब मां को छोड़ कर अपनेअपने घरसंसार में जब गए. घनश्याम ही बचे थे, जो अपनी मां को हमेशा साथ रख कर उन की सेवा करना चाहते थे.
कार में बैठेबैठे उन दिनों के दृश्य आंखों के सामने घूमने लगे, जब मेरा छोटा भाई सुमेश हवाईजहाज बनाता था- कागज और लकड़ी के बने मौडल हवाईजहाज. उन की उड़ान देख कर मेरा दिल भी दूर आकाश में उड़ने लगता था. मैं मन ही मन जैसे गाने लगती थी, ‘‘मोनो मोर में घेरो शोंगी, उड़े चाले दीग दीगां तेरो पाड़े…’’

छोटा सा हवाईजहाज होता था सुमेश का. कुछ ही देर में नीचे आने लगता था और उस के साथ ही जमीन पर आ जाता था मेरा मन. 16 बरस की ही तो थी तब मैं. उड़ान का मतलब भी सही ढंग से नहीं जानती थी तब.

उन्हीं दिनों सुमेश को उस के एक कनाडियन दोस्त ने एक हवाईजहाज बनाने की किट भेंट की थी. उस से एक बड़ा सा हवाईजहाज बन सकता था. मैं उसे बनता देखने को बहुत उत्सुक थी. कई दिन इंतजार करना पड़ा था उस के लिए मु?ो. जब पूरा हुआ तो दिल की दिल में ही रह गई. वह उड़ा ही नहीं. उसे ठीक करना हमारे घर में तो किसी को आता नहीं था. घर के पास स्थित विश्वविद्यालय के हाबी वर्कशौप में ऐसे ही छोटे बाग में उड़ाने लायक हवाईजहाज कुछ छात्र बनाते थे. प्रोफैसर पिताजी ने अपने एक विद्यार्थी से सुमेश का हवाईजहाज आ कर देखने को कहा.

शाम को दरवाजे की घंटी बजी. दरवाजा खोलने को मैं ही उठी. उन साहब ने नाम बताया, ‘घनश्यामदास,’ नाम गले में ही अटक कर रह गया, लेकिन होंठों पर मुसकराहट तैर गई. वही तो आए थे सुमेश का हवाईजहाज ठीक करने. संतुलन में कुछ गड़गड़ी थी. करीब आधा घंटा लगा उसे घिसघिसा कर ठीक करने में. अगली शाम उन्होंने ही डोर संभाल रखी थी, उड़ते हवाईजहाज की. हवाईजहाज के साथसाथ मैं भी मन ही मन उड़ती रही आकाश में.

उस के बाद तो घनश्याम जब तक वहां पढ़ते रहे, हफ्ते में 2-4 बार जरूर आते थे हमारे घर. मैं जब तक दिखाई नहीं पड़ती थी, उन की आंखें मु?ो खोजती फिरती थीं. जब मैं मिल जाती तो उन की एक मुसकराहट मु?ो उन के पास खींच ले जाती थी. आते तो थे वे पिताजी और सुमेश से बतियाने, लेकिन बात मू?ा से कर जाते थे. मैं चुप ही रहती. चाह कर भी कुछ नहीं कह पाती थी. शायद एक अदना सी लड़की की इच्छाओं को जानना भी कौन चाहता था. जो उड़ भी सकती है, इस की किस को परवाह थी. सब अपनी मरजी के मालिक जो ठहरे.

अचानक मेरी बड़ी बिटिया को याद आया, ‘‘मां, मेरा टैनिस रैकेट तो रख लिया है
न आप ने?’’

घनश्याम टैनिस अच्छा खेलते थे. उस शाम भी उन का भी सिटी टूरनामैंट का टैनिस का फाइनल मैच था. खूब भीड़ इकट्ठी थी चारों ओर. मैं सब से आगे की पंक्ति में पिताजी के पास ही बैठी थी. मैच का समय हुआ और वे कोर्ट पर आए. तालियों के साथ आई कुछ आवाजें भी, ‘‘मक्खन लगाओ तो ऐसा जो नंबर भी मिलें और ससुराल भी.’’

उन्होंने मेरी ओर देखा जैसे सहमति मांग रहे हों. उस मैच में वे कड़े संघर्ष में हार गए. मुंह लटका कर जा रहे थे.

मैं ने साहस बंधाया, ‘‘आप टैनिस तो बहुत अच्छा खेलते हैं.’’ मैच के बाद अपने भाई, भाभी और 8 वर्षीय भतीजे को ले कर वे हमारे घर आए. मैं ने सब को आइसक्रीम परोसी. वे दूसरे नंबर पर बैठे थे. उन से पूछा, ‘‘और लेंगे?’’

बोले, ‘‘जितनी श्रद्धा हो दे दीजिए.’’

याद नहीं कि उन्हें और दे पाई या नहीं, लेकिन जब उन के भतीजे तक पहुंची और पूछा कि और दूं क्या तो वह बोला, ‘‘जितनी श्रद्धा थी वह चचाजान को दे आईं, मु?ो क्या देंगी.’’

सब लोग हंस पड़े और मैं लजा कर बाहर दौड़ गई. मन उड़ान भर उठा 7वें आसमान की ओर. जबजब उन के रिश्तेदार शहर में आते थे, वे उन्हें हमारे घर अवश्य लाते.

पिताजी ने कार रोक कर सामान की जांच की. छोटी सी कार पर इतना सारा सामान ज्यादा हो गया था. कभी कुछ खिसकने लगता तो कभी कुछ.

सुमेश बोला, ‘‘पिताजी, सामान तो नहीं, लगता है हमारे जीजाजी कार को भारी पड़ रहे हैं. ये न होते तो एक बक्सा और कार में रख लेते.’’

सब लोग हंस पड़े. गजब की विनोदप्रियता थी उन में. बात किसी और से कहते, किस्सा किसी और का होता, पर लाद देते थे मु?ा पर. मैं सब के सामने खिसियानी सी हो उठती.

एक बार सुनाया, ‘‘कुछ दिन हुए मैं अपने बरामदे में खड़ा था. नीचे सड़क पर एक साहिबा जा रही थीं. उन की साड़ी अपने ब्लाउज से अलग रंग की थी, मगर साथ चलते साहब के सूट से अवश्य मेल खाती थी.’’
मु?ो याद आया कि 2 दिन पहले पीला लहंगा, हरा ब्लाउज और मैरून रंग की चुन्नी में मैं ही तो गुजरी थी उन के छात्रावास के सामने से. एक नजर देखा भी था बरामदे में खड़े साहब को मैरून सूट में.

उस दिन में पिछवाड़े से घर में घुसी ही थी कि वे सामने के लौन में बैठे नजर आए. मैं पहुंची तो बड़े अंदाज से मेरी तरफ देखते हुए बोले, ‘‘भई, आज तो बिहारी की नायिका को भी मात कर दिया, चश्मा लगा कर ढूंढ़ने से भी नहीं मिलीं. कहां खो गई थीं.’’

मैं सम?ा गई कि यहां बैठने से पहले जनाब मु?ो सारे घर में ढूंढ़ आए हैं. एक दीपावली पर मेरा बनाया बधाई का कार्ड उन्हें पूरे परिवार की तरफ से भेजा था. शाम को घर आए. सुमेश और मैं ही थे घर पर. बोले, ‘‘एक बात है हमें सुंदरसुंदर बधाई के कार्ड तो मिल जाया करेंगे दोस्तों को भेजने के लिए.’’
ऐसे होते थे उन के व्यंग्य. एक बार कहने लगे कि मु?ो लेडी अरविन से होमसाइंस का कोर्स करना चाहिए. दिल्ली में उन के घर के पास था न यह कालेज. शायद इसीलिए कहा था. वे अपनी पढ़ाई पूरी कर के वापस जो लौटने वाले थे. जी में तो आया पूछूं, ‘‘कोई कमी है क्या वहां लड़कियों की?’’

पिताजी ने पूछा, ‘‘कोई कौफी पीएगा? यहां इंडियन कौफीहाउस में कौफी अच्छी मिलती है.’’ ‘‘पिताजी, कौफी पीना मु?ो अच्छा नहीं लगता. अलबत्ता कुछ खा सकती थी, लेकिन देर हो रही है. अब सीधे पालम ही चलिए,’’ मैं ने कहा और कार आगे बढ़ने लगी.

एक शाम वे अपने कमरे में नैस्कैफे का डब्बा लाए. बड़े उत्साह से फेंट कर कौफी बनाई. आंखों ही आंखों में एक आग्रह था. उन्होंने एक प्याला मेरी ओर बढ़ाया. मैं ने कभी कौफी नहीं पी थी. उन के आग्रह के बावजूद सब घर वालों के सामने उन के हाथ से कप लेने की हिम्मत नहीं संजो पाई.

सालभर पलक ?ापकते ही निकल गया. मैं 16 से 17 साल की हो गई थी. विश्वविद्यालय में इंजीनियरिंग विभाग में प्रवेश ले लिया था. उन्होंने एक और किस्सा सुना दिया, ‘‘एक बार एक श्रीमतीजी ने रेडियो से प्रोत्साहित हो कर घर का बिगड़ा बजट सुधारने की ठानी. इधर पतिदेव दफ्तर में गए और वह घर के पुराने अखबार इकट्ठे कर के लिफाफे बनाने में लग गई. दिनभर न खाने की सुध रही न पीने की. शाम तक किसी तरह 100 लिफाफे बना डाले. 5 रुपए के बिके. जब शाम को पतिदेव लौटे तो खाना नदारद. तब तय किया कि बाहर रेस्तरां में चल कर खा लिया जाए. 16 रुपए का बिल आया. इस से तो वह घर रह कर बढि़या खाना बनाती, जिस से पतिदेव खुश हो कर अगले दिन दोगुने उत्साह से दफ्तर जाते, दोगुना काम करते और समय से पहले ही अगली तरक्की पा जाते, मैं ने सोचा.

साफ था कि उन्हें मेरी पढ़ाईलिखाई रास नहीं आ रही थी. चाहते थे कि थोड़ाबहुत पढ़ कर ही किसी के ड्राइंगरूम की शोभा बढ़ाऊं. बिना अपने को वचनबद्ध किए ही मु?ा से इतना बड़ा वचन मांग रहे थे.
इच्छा तो हुई कि कह दूं कि तो आज ही ब्याह रचा लो, फिर तुम्हारी ही सुनूंगी वरना जिस दिन तैयार हो जाओ उस दिन बात करना. लेकिन साहस नहीं कर पाई इतना सब कहने का. वे भी शायद जवाब की आशा नहीं करते थे. वे तो बस उड़ना और उड़ाना जानते थे. शायद किसी से उधार मांग रखी थी वह मुसकराहट, जो बाद में मिलने पर कभी चेहरे पर नजर नहीं आई.

मालूम नहीं कैसे मैं बड़ी हो गई. ‘टर्निंग पौइंट’ की शर्ले मैक्लीन को भी मात दे कर आगे बढ़ गई और अपने बालू के ढेर पर बनाए सब सपनों को ताक पर रख कर इंजीनियर बन गई. इन 4 बरसों में शायद 4 बार भी उन से मुलाकात नहीं हुई. 2 मुलाकातें तो मैं ने ही कोशिश कर के दिल्ली में की थीं. सारा वातावरण ऐसा था कि लगता था जैसे अनचाहे और अनजाने ही बांध दी जाऊंगी उन से किसी भी दिन. मन में जानती थी कि एक मुसकराहट पर मरा जा सकता है, लेकिन जिंदगी नहीं बिताई जा सकती. यही मकसद था मेरा उन से मिलने का. लेकिन उन्होंने कुछ कहा ही नहीं. मैं भी शब्दों में कंजूसी कर गई. मन की बात मन ही रख कर चली आई. कितना अच्छा होता यदि वे कुछ शुरुआत करते और मैं कह पाती, ‘‘आप ने महसूस किया है कि कितने अलग हैं हम दोनों एकदूसरे से?’’

शायद इतना कहना ही काफी होता, अपनी हार को जीत में बदलने के लिए ‘मना’ करना जितना अहं को संतुष्ट करता है. ‘न’ सुनना उतना ही ठेस पहुंचा सकता है. नहीं सम?ाती थी मैं उस दिन तक.
सम?ा तब, जब मैं ने एक दिन पिताजी की मेज पर रखा देखा उन की शादी का निमंत्रण पत्र. उसी के पास रखा था, एक पत्र जो उन्होंने कुछ अरसा पहले लिखा होगा. प्रत्यक्ष था कि पापा ने मेरा प्रस्ताव रखा होगा उन के सामने.

उन का जवाब था, ‘‘शी इज टू ऐजुकेटेड फौर मी,’’ (वह मेरे हिसाब से बहुत ज्यादा पढ़ीलिखी है) मु?ो लगा जैसे मेरा अधिकार उन्होंने छीन लिया हो. वही तो लगाते थे हमारे घर के चक्कर और घंटों बैठे रहते थे. वही तो कहानी सुनाते थे दुनियाभर की. फिर वही मुकर गए.

कोई दलील नहीं चली उस दिन मन के आगे. बहुत बुरा लगा. हार जो गई थी. क्या बीतती होगी उन बेचारियों पर जो 25 बार संवारीसजाई जाती हैं ताकि उन्हें देखने आने वाला ‘हां’ कर दे. तभी एक ?ाटके के साथ कार रुकी. हम पालम पहुंच गए थे. मन की उड़ान एक ?ाटके में छिन्नभिन्न हो गई.

सामान ले कर हम ने सब से विदा ली. पिताजी ने कहा, ‘‘बड़ी कमजोर लग रही हो. अपनी सेहत का खयाल रखा करो.’’ पिताजी को मैं कमजोर लग रही थी. एक बार भी उन्होंने यह नहीं कहा, ‘‘प्रतिभा, बड़ी खुशी हुई यह सुन कर हमारी बिटिया को सर्वश्रेष्ठ नए नागरिक का खिताब मिला,’’ इतने अखबारों में मेरी खबर छपी बढि़या फाटो के साथ और पिताजी को बस एक बात ही नजर आई कि कमजोर लग रही हूं.

मेरी चुप्पी सुमेश ने तोड़ी, ‘‘पिताजी, प्रतिभा ने अपनी जिंदगी इतनी क्रियाशील बना रखी है कि मांस चढ़े कहां से. यदि प्रतिभा न रही तो जीजाजी को 3-3 बीवियां रखनी होंगी उस की कमी को पूरा करने के लिए. एक बीवी नौकरी करेगी, दूसरी परिवार और घर की देखभाल और तीसरी उन के सामाजिक और राजनीतिक जीवन की सहचरी होगी.’’

मैं ने चलते हुए सास के पैर छुए तो उन्होंने गले से लगा लिया. हम लोग पालम के इंदिरा गांधी इंटरनैशनल एअरपोर्ट की भीड़ को चीरते हुए सिक्युरिटी से गुजर कर हवाईजहाज में जा बैठे. कितनी इज्जत है मेरी ससुराल में. शायद इसलिए न कि हर छोटी से छोटी रूढि़ को निभाने से मेरी इज्जत पर आंच नहीं आती.
हवाईजहाज ने दौड़ लगाई और पीछे छूटने लगे वह बंगला जो मन पर हावी होने लगे था.

मैं आधुनिक जगत में इतना गहरे पैठ चुकी हूं कि सिर ढकने और पैर छूने से मु?ो रूढि़वादी कहलाए जाने का डर नहीं लगता. आज मेरी इज्जत बनी है इंजीनियरी की ठोस बुनियाद पर. पर सोचती हूं कि क्या मैं आज विजय के साथ जुड़ कर जीत गई? क्या मेरी जीत का आधार वह चुनौती नहीं थी जो घनश्याम के इनकार से 12 वर्ष पूर्व मेरी जिंदगी में प्रणय व प्यार की जगह अनजाने सामने आ खड़ी हुई थी?

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