निहारिका मानसिक द्वंद्व से जू?ाती हुई अपने कमरे में निश्चेत सी पड़ी थी. अपना मोबाइल भी औफ कर रखा था. वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसी भी रूप में डाक्टर विवेक का सामना नहीं करना चाहती थी. हालांकि वह यह भी बहुत अच्छी तरह जानती थी कि एक ही यूनिट में रहते हुए यह मुमकिन नहीं है, मगर वह ऐसी किसी भी स्थिति से बचना चाह रही थी, जिस में डाक्टर विवेक से उस का एकांत में सामना हो, क्योेंकि उस के किसी भी सवाल का जवाब उस के पास नहीं था.

तभी होस्टल के चौकीदार ने दरवाजा खटखटाया, ‘‘मैडम, डाक्टर विवेक विजिटर रूम में आप का वेट कर रहे हैं.’’

‘‘उन से कहिए कि मैं रूम में नहीं हूं,’’ निहारिका ने आमनासामना होने की सिचुएशन को टालने की कोशिश की.

‘‘जी, मैडम,’’ कह कर चौकीदार चला गया.

निहारिका का मन कर रहा था कि वह जोरजोर से रोए, चीखेचिल्लाए, सब कुछ तोड़ दे… किस चक्रव्यूह में फंस गई वह जिस से निकलते ही नहीं बन रहा. एक वह अभिमन्यु था जो अपनों से घिरा था… वह भी तो घिरी है अपनेआप से… शायद उस की नियति भी अभिमन्यु जैसी ही होने वाली है… निहारिका कटे वृक्ष सी बिस्तर पर गिर गई.

2 साल पहले कितनी सुखी जिंदगी थी उस की. प्यार करने वाला पति देव, लाड़ करने वाली सासूमां और अपनी भोली मुसकान से दिन भर की थकान उतार देने वाली 4 साल की बिटिया पलक…

देव जोधपुर के आईआईटी इंस्टिट्यूट में प्रोफैसर था और वह खुद भी वहीं एक हौस्पिटल में डाक्टर थी. निहारिका अपने पेशे में और अधिक महारथ हासिल करने के लिए ऐनेस्थीसिया में पीजी करना चाहती थी. 2 साल के अथक प्रयासों के बाद आखिर उस का पोस्ट ग्रैजुएशन करने के लिए सलैक्शन हो ही गया. उसे बीकानेर के सरदार पटेल मैडिकल कालेज में सीट आवंटित हुई.

परिवार खासतौर पर पलक से दूर होने की कल्पना रहरह कर निहारिका की पलकों के कोर नम कर रही थी. मगर सासूमां पर उसे पूरा भरोसा था कि वे पलक की देखभाल उस से भी बेहतर करेंगी. फिर देव ने भी उस का हाथ अपने हाथ में लेते हुए उसे आश्वस्त किया था. मगर वही उन के भरोसे पर खरी नहीं उतर पाई… वही न जाने किस फिसलन भरी ढलान पर उतर गई थी. एक बार फिसली तो फिर फिसलती चली गई.

हालांकि मैडिकल की पढ़ाई के दौरान भी वह होस्टल में ही रही थी और उस पीरियड को खूब ऐंजौय भी किया था उस ने, मगर इस बार बात कुछ और थी. अकसर शाम को पलक और देव को याद कर के उदास हो जाती थी.

उसे मैडिकल कालेज से संबद्ध पीबीएम हौस्पिटल में रैजिडैंट डाक्टर की हैसियत से अपनी सेवाएं देनी पड़ती थीं. जब उस की ड्यूटी दिन या फिर शाम की होती थी तब तो इतने मरीज आते कि उसे सिर उठाने की भी फुरसत नहीं मिलती थी. मगर रात की ड्यूटी में जब सारे मरीज और उन के रिश्तेदार गहरी नींद में होते तब उस की आंखों से नींद कोसों दूर होती. वह देर तक देव से बात करती, मगर फिर भी उस का अकेलापन दूर नहीं होता था. उसे यों रात भर जागते देख साथी डाक्टर उसे उल्लू कह कर चिढ़ाया करते थे. वे उसे वार्ड की जिम्मेदारी सौंप रैस्ट भी कर लिया करते थे.

बीचबीच में निहारिका जोधपुर का चक्कर भी लगा लेती थी. 1-2 बार देव भी आया था पलक को ले कर बीकानेर. मगर दूरियां तो आखिर दूरियां ही होती हैं… इन्हें मोबाइल और चैटिंग से नहीं पाटा जा सकता.

इसी तरह देखते ही देखते 1 साल गुजर गया. हौस्पिटल में नए पीजी डाक्टर्स आ गए. उन्हीं में से एक था विवेक, जो उसी की फैकल्टी में पीजी करने एक छोटे कसबे से आया था. दिखने में बहुत ही सीधेसादे और मितभाषी विवेक का व्यक्तित्व बहुत ही आकर्षक था. चूंकि निहारिका उस की सीनियर थी, इस नाते वह उस की बहुत इज्जत करता था. उस की मासूमियत निहारिका के दिल में उतरने लगी. शुरुआती दिनों में विवेक बहुत शरमीला था. मगर धीरेधीरे निहारिका से खुलने लगा. घरपरिवार और कालेज के पुराने किस्से सुना कर उसे खूब हंसाता, उस का मन बहलाने की कोशिश करता. जब भी दोनों नाइट ड्यूटी में साथ होते, वह उस के लिए कौफी बना कर लाता. विवेक निहारिका से उम्र में छोटा था, मगर उस के साथ होते ही निहारिका खुद एक नटखट बच्ची बन जाती थी.

विवेक की आंखें उस के व्यक्तित्व का सबसे प्रभावशाली हिस्सा थीं. न जाने क्या था उन गहराइयों में कि निहारिका उन में डूबती चली गई. एक चुंबक था जैसे उन के भीतर… निहारिका जितना अवौइड करने की कोशिश करती उतनी ही खिंचती चली जाती उस की तरफ… जैसे धरती चाहे या न चाहे उसे सूर्य की परिक्रमा करनी पड़ती है. कुछ ऐसे ही गुरुत्त्वाकर्षण से बंधती जा रही थी निहारिका भी. विवेक उस के भीतर पसरे खालीपन को भरने लगा था. जब वह उस के साथ होती तो देव को फोन करना भी भूल जाती थी.

एक दिन नाइट ड्यूटी के बाद जब निहारिका होस्टल लौट रही थी, तो विवेक पीछे से अपनी बाइक ले कर आया. निहारिका को लिफ्ट देने की पेशकश की तो वह सम्मोहित सी पीछे बैठ गई. विवेक उसे चाय पिलाने अपने कमरे पर ले गया.

वह रसोई में जाने लगा तो निहारिका ने कहा, ‘‘तुम बैठो, मैं चाय बनाती हूं.’’

विवेक भी उस की मदद करने के लिए पीछेपीछे आ गया. छोटी सी किचन में विवेक का इतना पास होना निहारिका के शरीर में कंपन पैदा कर रहा था.

हौस्पिटल में तो कितने ही ऐसे मौके आते हैं जब हम बहुत पास होते हैं. यहां तक कि एकदूसरे को छू भी जाते हैं, मगर तब ऐसी फीलिंग क्यों नहीं आती, निहारिका सोच रही थी.

चाय के लिए कप लेने को मुड़ी निहारिका विवेक से टकरा गई. विवेक ने बांहों में थाम लिया तो निहारिका से कुछ भी कहते नहीं बना. बस सौरी कह कर रह गई.

अब अकसर ही जब दोनों नाइट ड्यूटी कर के जाते तो विवेक उसे कमरे पर ले जाता. दुनियाजहान से बेखबर दोनों देर तक साथ रहते, खूब मस्ती करते. निहारिका उस की बचकानी हरकतों पर पेट पकड़पकड़ कर हंसती. उस की मासूम अदाओं पर रीझ कर निहारिका ने उसे नाम दिया सिरफिरा. अब वह उसे इसी नाम से बुलाती थी. उस का दिल कहता था जैसे उसे बरसों से ऐसे ही साथी की तलाश थी. हालांकि देव भी उसे कम प्यार नहीं करता था. मगर न जाने क्यों विवेक को जी भर कर

प्यार करने की ललक उस के भीतर सिर उठाने लगी थी.

2 दिन बाद विवेक का जन्मदिन आने वाला था. निहारिका ने मन ही मन प्लान तैयार कर लिया. संयोग से विवेक के जन्मदिन वाले दिन दोनों ड्यूटी के बाद विवेक के कमरे पर चले गए. निहारिका ने अपना स्टेथ टेबल पर रखा और ऐप्रन कुरसी के पीछे टांग कर आराम से बैठ गई. विवेक किचन में चाय बनाने चला गया.

विवेक ने चाय के कप टेबल पर रख दिए.

निहारिका बोली, ‘‘आज तुम्हारा जन्मदिन है न?’’

‘‘हां. तो?’’

‘‘तो क्या गिफ्ट नहीं मांगोगे?’’

‘‘जब बिना मांगे ही इतना कुछ मिल गया है, तो और क्या मांगूं?’’

‘‘मगर हम तो फिर भी देंगे,’’ निहारिका ने इतराते हुए कहा.

‘‘तो लाइए.’’

‘‘ऐसे नहीं… आंखें बंद करो.’’

विवेक ने अपनी आंखें बंद कर लीं. निहारिका धीरे से उस के पास आई और उस के होंठों पर अपने होंठ रख कर एक गहरा चुंबन जड़ दिया.

विवेक ने तो इस सरप्राइज की कल्पना भी नहीं की थी. यंत्रचालित सी उस की बांहों ने निहारिका को घेर लिया. वह भी सब कुछ भूल कर उस में खोती चली गई. जब होश आया तो चाय ठंडी हो चुकी थी.

निहारिका ने अपने कपड़े ठीक करते हुए कहा, ‘‘तुम बैठो, मैं चाय बना कर लाती हूं.’’

मगर विवेक नहीं माना और किचन में चला गया.

निहारिका ने मजाक में कहा, ‘‘तुम चाय बहुत अच्छी बनाते हो… एक काम करो डाक्टरी छोड़ कर चाय की दुकान खोल लो. मैं तो तुम्हारी परमानैंट ग्राहक बन जाऊंगी.’’

‘‘मंजूर है, मगर वादा करो कि तुम रोज चाय पीने आओगी.’’

‘‘वादा,’’ निहारिका ने उस का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा.

‘‘जोधपुर तो नहीं चली जाओगी?’’ विवेक ने उस की आंखों में ?ांकते हुए पूछा.

निहारिका सकपका गई. कुछ जवाब देते नहीं बना तो चुपचाप चाय का कप ले कर कुरसी पर बैठ गई.

निहारिका तो शादीशुदा थी. उस के लिए अंतरंग संबंध नई बात नहीं थी. मगर अविवाहित विवेक ने जब से यह वर्जित फल चखा था, उस की हालत दीवानों सी हो गई. वह हर वक्त निहारिका के आगेपीछे घूमने लगा. क्लास हो, वार्ड हो या फिर औपरेशन थिएटर, हर जगह वह उसे छूने के अवसर तलाशता रहता. कभी ऐनेस्थीसिया देते वक्त हाथ पकड़ लेता तो कभी मरीज देखते समय टेबल के नीचे पांव पर पांव रख कर सहलाने लगता. रोज अकेले में मिलने की जिद करता. उस का दीवानापन निहारिका के लिए परेशानी का कारण बनने लगा.

कहते हैं कि इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते… होस्टल, मैडिकल कालेज,

हौस्पिटल हर जगह दोनों के अफेयर की चर्चा होने लगी. लोग दबी जबान निहारिका को ही दोषी ठहराते. पिछली बार जब देव आया था तो विवेक को उस का आना फूटी आंख नहीं सुहाया था. उस के जाने के बाद भी निहारिका से 2 दिन रूठारूठा रहा था.

‘‘देव मेरी सचाई है विवेक इस बात को तुम जितनी जल्दी सम?ा लो उतना ही हम दोनों के लिए बेहतर है,’’ निहारिका ने उसे सम?ाते हुए कहा.

‘‘मैं तुम्हारे साथ किसी और की कल्पना भी नहीं कर सकता अब… वे 2 रातें जो तुम ने उस के साथ बिताई हैं, मु?ा पर कैसी गुजरी हैं तुम क्या जानो,’’ विवेक ने जैसे न सम?ाने का प्रण कर रखा था.

‘‘तुम देव से तलाक ले लो,’’ विवेक ने निहारिका को कस कर बांहों में जकड़ते हुए कहा.

‘‘यह संभव नहीं है.’’

‘‘मेरे साथ इस रास्ते पर चलने से पहले क्यों नहीं सोचा कि इस की मंजिल क्या होगी?’’ विवेक आज आर या पार की बहस के मूड में था.

‘‘मु?ा से गलती हो गई. शायद देव से दूरियों ने मेरे मन को डिगा दिया… मु?ो माफ कर दो… मैं तुम्हारी गुनहगार हूं, तुम जो चाहे सजा दो. अब इस नाजायज रिश्ते की आंच मेरे घर को जलाने लगी है… मैं इस रास्ते पर आगे नहीं जा सकती,’’ कह निहारिका ने अपनी बात खत्म कर दी. मगर वह जानती थी कि दिलों के संबंध इतनी आसानी से नहीं टूटते.

निहारिका ने अपने एचओडी से रिक्वैस्ट कर के अपनी यूनिट चेंज करवा ली. अब उस की ड्यूटी विवेक के साथ नहीं लगेगी. विवेक ने शायद वह ड्यूटी चार्ट देख लिया है. इसीलिए वह उस से मिलने की जिद कर रहा है.

ड्यूटी पर तो जाना ही पड़ेगा, सोचते हुए निहारिका ने उठ कर मुंह धोया. अपनेआप को संयत करते हुए होस्टल से बाहर निकली. सामने पेड़ के नीचे खड़ा विवेक उसी की राह देख रहा था. निहारिका को उस पर दया उमड़ आई. वह अपनेआप को कोसने लगी कि क्यों उस ने

विवेक की शांत जिंदगी में प्यार फेंक कर हलचल मचा दी. वह अनजान बनने का नाटक करती हुई आगे बढ़ी तो विवेक ने सामने आ कर रास्ता रोक लिया.

‘‘?ाठ क्यों कहा कि तुम रूम में नहीं हो?’’ विवेक ने पूछा.

‘‘मैं ने किस से कहा?’’ निहारिका ने भी प्रतिप्रश्न किया.

‘‘वाचमैन ने तो कुछ देर पहले यही कहा था.’’

‘‘शायद मैं उस वक्त बाथरूम में थी,’’ निहारिका ने टालने की गरज से कहा.

‘‘क्या मु?ा से इतनी नफरत हो गई कि मेरे साथ ड्यूटी भी नहीं कर सकतीं?’’ विवेक ने शिकायत की.

‘‘ऐसी कोई बात नहीं है. यह तो मैनेजमैंट का डिसीजन है.’’

‘‘मैं इतना नादान भी नहीं हूं, सब सम?ाता हूं.’’

‘‘तुम सम?ा ही तो नहीं रहे हो विवेक… यह हम दोनों के लिए बहुत जरूरी है. हमें इस मोड़ से लौटना ही होगा.’’

‘‘तुम बेशक लौट जाओ, मगर मैं यहीं इसी मोड़ पर खड़ा तुम्हारा इंतजार करूंगा,’’ विवेक ने आंखें नम करते हुए कहा.

विवेक के लिए तो वह पहला प्यार ही थी और पहले प्यार को खोना सब कुछ लुट जाने जैसा ही होता है.

मगर निहारिका ने अपने मन को कड़ा किया और विवेक से दूरियां बना लीं. वह उन सभी हालात से बचने की कोशिश करती जहां विवेक से सामना होने का अंदेशा होता.

निहारिका के कोर्स का अंतिम वर्ष था. वह सब कुछ भूल कर अपनी परीक्षा की तैयारी में जुट गई. उस ने अपनी स्टडी टेबल पर अपनी फैमिली की तसवीर रख ली ताकि अगर उस का मन बगावत पर उतर आए तो वह कंट्रोल कर सके. रोज रात को पलक के सोने से पहले उस से 10-15 मिनट बात जरूर करती और अपने परिवार के लगाव को भीतर तक महसूस करती. देव से भी पहले की तरह ही नियमित बात करती. कुछ दिन तो उसे ये सब करना अपनेआप को छलने जैसा ही लगा, मगर धीरेधीरे लगने लगा कि स्नेह की जो डोर कमजोर पड़ रही थी वह फिर से मजबूत हो रही है. उसे अब पहले की तरह ही घर की याद सताने लगी थी.

आज आखिरी परीक्षा थी. उसे रात की ट्रेन से जोधपुर जाना था. उस ने अपना जरूरी सामान पैक किया और विवेक के कमरे की तरफ चल दी.

निहारिका को यों अचानक आया देख विवेक आश्चर्य से भर गया.

निहारिका ने कहा, ‘‘मैं वापस जा रही हूं… मैं ने जो कुछ भी किया वह माफी के लायक तो नहीं है, मगर फिर भी मेरे लिए अपने मन में मैल मत रखना. प्यार सच्चा या ?ाठा नहीं होता, वह बस प्यार होता है. तुम्हारा प्यार भी मेरे दिल के एक कोने में सदा सुरक्षित रहेगा.’’

‘‘तुम ने मु?ो प्यार के एहसास से परिचित करवाया, उस के लिए शुक्रिया. अच्छे दोस्तों की तरह संपर्क बनाए रखना,’’ विवेक अब तक काफी सामान्य हो चुका था.

निहारिका ने जाने से पहले विवेक को प्यार से गले लगाया और फिर उस रास्ते की तरफ बढ़ गई जहां उस का परिवार उस के इंतजार में आंखें बिछाए खड़ा था.

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