पुराणों, गीता, कुरान, बाइबिल जैसे धर्म ग्रंथों को व्यापार का माध्यम कहा जाए या कोई नैतिक शिक्षा ग्रहण करने का माध्यम? आज देखा जाए तो हमारे देश में ईश्वर के नाम पर सब से बड़ा धंधा पनप रहा है. अगर व्यापार करना ही है तो धर्म के नाम पर क्यों? क्यों लोग इन ग्रंथों को पढ़ते और सुनते हैं, जब आज के युग से इस का कोई मतलब ही नहीं है. ईश्वर के नाम पर एक इंसान दूसरे इंसान को लूट कर चला जाता है. धर्म के नाम पर मारापीटा जाता है. हमारे ग्रंथों में असल में यही लिखा गया है.

दरअसल, एक धार्मिक कथा जिस में एक पत्नी ने अपने पति का प्रेम पाने के लिए अपने पति का ही दान कर दिया, यह कथा पौराणिक है पर आज भी सुनाई जा रही है. फेसबुक पर आध्यात्मिक कहानियों के पेज पर पोस्ट इन कथाओं को काफी लाइक्स भी मिले हैं. क्या आज के युग, आज के समय, आज के लोगों से उस युग की कथा का कोई संबंध है?

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यह कहानी कृष्ण लीला से संबंधित है, उसी कृष्ण से जिस ने गोपियों के साथ रासलीला कर के स्नान के वक्त गोपियों के कपड़े चुरा लिए थे. कहानी का प्रारंभ का वाक्य है कि कृष्ण की 16008 पत्नियों में रानी होने का दर्जा सिर्फ

‘8’ को ही था. यह किसी भी युग में स्वीकार न होगा पर आज के समय उस का बखान इस तरह के वाक्य से करना गलत है.

लालच और ईर्ष्या

आज के युग में अगर एक पत्नी के होते हुए भी आप दूसरा विवाह करते हैं तो हमारा समाज और कानून भी उसे गुनहगार मानता है, क्योंकि आज के समय में समाज और कानून दोनों ही इस के विरुद्ध हैं. आज तो पहली पत्नी भी पुलिस थानेदार से ज्यादा उग्र हो बैठेगी, ऐसे में सत्यभामा की कहानी को कहकह कर एक से ज्यादा औरतों से संबंध को महिमामंडित क्यों किया जा रहा है?

कहानी में कहा गया है कि कृष्ण की 2 रानियों का नाम था सत्यभामा और रुक्मिणी. सत्यभामा को घमंड था कि कृष्ण उस से ही सब से अधिक प्रेम करते हैं. लेकिन जहां प्रेम है वहां सिर्फ सकारात्मकता ही होती है, जहां नकारात्मकता आ जाए वह प्रेम सच्चा हो ही नहीं सकता. वैसे यह गर्व की बात है घमंड की नहीं. पर कहानी में लेखक कहते हैं कि कृष्ण के इतने प्रेम करने के बावजूद भी सत्यभामा को और प्रेम चाहिए था और यह प्रेम सत्यभामा के जीवन में लालच और ईर्ष्या का रूप ले चुका था जो इतना बढ़ गया था कि सत्यभामा ने कृष्ण को ही दान में दे दिया.

कहानी में लेखक कहता है कि नारद को जब इस बारे में पता चला तो उस का काम तो वैसे ही पूरे देवलोक में संचार करना था, अब वह चुगली के रूप में हो या संचार के रूप में, क्या फर्क पड़ता है? नारद जैसे चरित्र की आज के युग में प्रशंसा करना ही गलत है पर कहानियों के माध्यम से उसे ऊंचा दर्जा दिया जाता है. नारद ने सत्यभामा को अपने जाल में फंसा ही लिया और कहा कि उसे तुलाभ्राम व्रत करना चाहिए, जिस से श्रीकृष्ण का प्रेम सत्यभामा के प्रति कई गुणा बढ़ जाएगा.

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बेसिरपैर की कहानी

अगर आप आज इस व्रत की पूरी विधि तार्किक मन से सुनेंगे तो चकित हो जाएंगे. इस व्रत की पूरी विधि में नारद ने बताया कि पहले कृष्ण को दान कर के और फिर वापस पाने के लिए कृष्ण के वजन के बराबर का सोना देना होगा. यदि सत्यभामा यह काम पूरा करने में असफल हुई तो कृष्ण नारद के गुलाम बन जाएंगे. प्रेम का सौदा करने का पाठ कौन पढ़ा सकता है? यह तो एक तरह का जुआ है. यहां पर पौराणिक कथा के रूप में यह भी दिमाग में बैठा दिया जाता है.

अगर नारद के इस खेल को दूसरे नजरिए से देखें तो इस युग में सच में सब मोहमाया है. आज भी नारद आप को हर घर, हर मंदिर, मसजिद में बैठा दिखेगा. कहीं फकीर के रूप में, कहीं पंडित बन कर, तो कहीं केसरिया चोला पहन कर. कोई चंदन का तिलक लगा कर टीवी पर सुबहसुबह ज्ञान बखेरता है.

इस तरह की कहानियों का इतना असर है कि किसी का कोई काम पूरा नहीं हो रहा. उस पर मेहनत करने के बजाय हम हाथों की रेखाएं दिखाना जरूरी समझते हैं और हाथ देख कर भविष्य बताने वाला आप का कल और साथ में हर तकलीफों का हल आसानी से बता कर झोला लिए गलीगली घूमता है. क्यों इन के जीवन में ठहराव नहीं है?

सत्यभामा को पे्रम कृष्ण ही दे सकते थे नारद नहीं, यह बात सत्यभामा समझ ही नहीं पाई. उस के लालच और अभिमान ने उसे सोचने ही नहीं दिया. वह नारद की बातों में आती गई और भूल गई कि हम जिस से प्रेम करते हैं वही हमारी तकलीफ दूर कर सकता है, कोई दूसरा व्यक्ति नहीं.

सच्चा प्रेम और सच्ची आस्था

कहानी में सत्यभामा के व्रत के अनुसार कृष्ण को दान में दे दिया गया. अब बारी थी उन्हें तराजू पर बैठा कर उन के वजन जितना सोना दान करने की. सत्यभामा ने पूरी कोशिश की पर वह असफल रही. वह उतना सोना जुटा ही नहीं पाई. अंत में रुक्मिणी के सच्चे प्रेम और आस्था की वजह से सोना हटा कर तुलसी का एक पत्ता दूसरे पलड़े पर रख दिया और उस का वजन कृष्ण जितना हो गया. सत्यभामा का घमंड वहीं चूरचूर हो गया. इस बहाने सोने को तुच्छ दिखा दिया गया, तुलसी पूजा को श्रेष्ठ. सोना दे दो प्रेम पा लो यह भी कह दिया और तुलसी पूजो यह भी.

इस कथा में उपदेश दिया गया कि सच्चा प्रेम दिखाने से नहीं होता. प्रेम कोई वस्तु नहीं है जिसे तौला जा सकता है, जिसे परखने के लिए योजना बन सकती है जबकि यथार्थ यह है कि यह एक एहसास है जिसे महसूस किया जाता है.

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इस कहानी में छिपा उद्देश्य यह है कि साधुपंडित पति का प्रेम लौटा भी सकते हैं और छीन भी सकते हैं. इसलिए पति को खुश करने के लिए उस का प्रेम पाने के लिए ढेर सारा चढ़ावा चढ़ाओ, अंधविश्वास की राह पर चलो, यों ही किसी की बातों में आ कर अपना सबकुछ खो दो जैसा सत्यभामा ने नारद की बातों में आ कर किया.

आज के युग में लोग अगर ईश्वर को ढेर सारा सोनाचांदी दान करते हैं तो इन्हीं कहानियों से प्रभवित हो कर. यह बारबार दोहराया जाता है कि ईश्वर तो लालची है. जब तक हम उसे कुछ देंगे नहीं, तब तक वह हमारी इच्छा पूरी नहीं करेगा. ईश्वर रिश्वत लेता है और उसे उस के एजेंट आ कर ले जाते हैं. इस तरह की गप भरी कहानियों का प्रसारप्रचार आज के युग में ऊंचनीच और लूट को पुनर्स्थापित कर रही है.

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