Women’s Day 2024: सिंगल मदर की जिम्मेदारी बखूबी निभा रही हैं ये 5 टीवी एक्ट्रेस

महिलाओं को सलाम करने का कोई खास दिन नही होता. लेकिन 8 मार्च यानी आज के दिन पूरी दुनिया एक साथ मिलकर महिलाओं का सम्मान करती है. इसी खास मौके पर आज हम आपको टीवी इंडस्ट्री कुछ ऐसी महिलाओं के बारे में बताएंगे, जिन्होंने अपने हससफर के बिना अपने बच्चों की जिम्मेदारियां संभालीं. आइए आपको बताते हैं कौन है वो सिंगल मदर्स हसीनाएं…

1. श्वेता तिवारी (Shweta Tiwari)

2 बार शादी कर चुकी श्वेता तिवारी दो बच्चों की मां हैं. दूसरे पति से अलग होने के बाद अब श्वेता तिवारी सिंगल मदर बनकर अपनी बेटी पलक चिवारी और बेटे का ख्याल रख रही हैं, जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि महिलाएं किसी भी चीज में मन लगाएं तो वह काम कर सकते हैं, जिसमें कोई साथ दे या ना दे.

 

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2. नीना गुप्ता (Neena Gupta)

 

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फिल्म ‘बधाई हो’ जैसी एक से एक फिल्मों में नजर आ चुकीं एक्ट्रेस नीना गुप्ता भी इंडस्ट्री सिंगल मदर्स में से एक हैं. पौपुलर क्रिकेटर विवियन रिचर्ड्स को डेट करने वाली नीना गुप्ता की बेटी मसाबा गुप्ता है. हालांकि नीना और क्रिकेटर विवियन रिचर्ड्स की कभी शादी नही हुई. लेकिन उन्होंने मसाबा की पूरी जिम्मेदारी उठाई, जिसके कारण आज मसाबा एक नामी फैशन डिजाइनर हैं.

3. उर्वशी ढोलकिया (Urvashi Dholakia)

 

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कसौटी जिंदगी के सीरियल में कोमोलिका से देश के घर घर में जगह बनाने वाली टीवी एक्ट्रेस उर्वशी ढोलकिया भी एक सिंगल मदर हैं. 16 साल की उम्र में उर्वशी ने शादी की थी, जिसके कुछ समय बाद ही उर्वशी ने जुड़वां बच्चों को जन्म दिया था औऱ अब वह अपने बच्चों के साथ अक्सर मस्ती करते हुए नजर आती हैं.

4. दलजीत कौर (Dalljiet Kaur)

बिग बॉस 13 में नजर आ चुकीं एक्ट्रेस दलजीत कौर एक्टर शालीन भनोट से शादी कर चुकी हैं. हालांकि अब दोनों का तलाक हो चुका है. वहीं तलाक के बाद दलजीत कौर को आर्थिक तंगी का भी सामना करना पड़ गया था. बावजूद इसके दलजीत कौर ने हार नहीं मानी और अपने बेटे का सिंगल मदर बनकर ख्याल रखा. जल्दी ही वो दूसरी शादी करने जा रही हैं.

5. जूही परमार (Juhi Parmar)

 

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सीरियल कुमकुम से फैंस के दिल में जगह बनाने वाली जूही परमार अपने पति औऱ एक्टर सचिन श्रॉफ को तलाक दे चुकी हैं, जिसके बाद से वह अपनी बेटी समायरा को खुद ही पाल रही हैं. इसी के साथ उन्होंने अब अपनी जिंदगी में नया कदम भी उठाते हुए बेटी को संभालने के साथ हमारी वाली गुड न्यूज सीरियल में भी काम करती नजर आ रही हैं.

Women’s Day 2024: बोया पेड़ बबूल का…- शालिनी को कैसे हुआ छले जाने का आभास

‘‘तुम्हेंमालूम है चिल्लाते समय तुम बिलकुल जंगली बिल्ली लगती हो. बस थोड़ा बालों को फैलाने की कमी रह जाती है,’’ सौम्य दांत किटकिटा कर चिल्लाया.

‘‘और तुम? कभी अपनी शक्ल देखी है आईने में? चिल्लाचिल्ला कर बोलते समय पागल कुत्ते से लगते हो.’’

यह हम दोनों का असली रूप था, जो अब किसी भी तरह परदे में छिपने को तैयार नहीं था. बस हमारे मासूम बेटे के बाहर जाने की देर होती. फिर वह चाहे स्कूल जाए या क्रिकेट खेलने. पहला काम हम दोनों में से कोई भी एक यह कर देता कि खूब तेज आवाज में गाने बजा देता और फिर उस से भी तेज आवाज में हम लड़ना शुरू कर देते. कारण या अकारण ही. हां, सब के सामने हम अब भी आदर्श पतिपत्नी थे. शायद थे, क्योंकि कितनी ही बार परिचितों, पड़ोसियों की आंखों में एक कटाक्ष, एक उपहास सा कौंधता देखा है मैं ने.

मैं ने और सौम्य ने प्रेमविवाह किया था. मैं मात्र 18 वर्ष की थी और सौम्य का 36वां साल चल रहा था. वे अपनी पहली पत्नी को एक दुर्घटना में गंवा चुके थे और 2 बच्चों को उन के नानानानी के हवाले कर जीवन को पूरी शिद्दत और बेबाकी से जी रहे थे. मस्ती, जोश, फुरतीलापन, कविता, शायरी, कहानियां, नाटक, फिल्में, तेज बाइक चलाना सब कुछ तो था, जो मुझ जैसी फिल्मों से बेइंतहा प्रभावित और उन्हीं फिल्मों की काल्पनिक दुनिया में जीने वाली लड़की के लिए जरूरी रहा था. 36 साल का व्यक्ति 26 साल के युवक जैसा व्यवहार कर रहा है, उस के जैसा बनावशृंगार कर रहा है, इस में मुझे कुछ भी गलत नहीं लगा था उस समय. शायद 18 साल की उम्र होती ही है भ्रमों में जीने की या शायद मैं पूरी तरह सौम्य के इस भ्रमजाल में फंस चुकी थी. मम्मीपापा का कुछ भी समझाना मेरी समझ में नहीं आया.

‘‘36 साल की आयु में कहीं भी उस में गंभीरता नहीं, न संबंधोंरिश्तों को निभाने में और न ही अपनी जिम्मेदारियां निभाने में. वह तुम्हारी क्या देखभाल करेगा? कैसे रहोगी उस के साथ जीवन भर?’’ मम्मी ने समझाने की बहुत कोशिश की थी, लेकिन मैं तो प्रेम के खुमार में डूबी थी.

‘‘यह तो तारीफ की बात है मम्मी. हर समय मुंह लटकाए रखने की जगह अगर कोई खुशदिली से रह रहा है, तो उस में बुरा क्यों देखना? तारीफ करनी चाहिए उस की तो,’’ मैं उलटा मम्मी को ही समझाने लगती.

पापा चुपचाप अखबार पढ़ते रहते. जिस दिन पापा जबरदस्त तनाव में होते उस दिन

के अखबार में न जाने क्याक्या खोजते रहते. फिर भले ही अखबार सुबह पूरा पढ़ लिया हो.

यह देख मैं, मम्मी और मेरे दोनों छोटे भाई शालीन और कुलीन बिलकुल चुप्पी साध लेते. घर में इतनी शांति हो जाती कि केवल बीचबीच में पापा की गहरी सांसों की आवाज ही सुनाई देती.

‘‘तनाव तो सब को हो ही जाता है कभीकभी. शायद बड़ों को ज्यादा ही होता है,’’ मम्मी हमें समझातीं.

तो इस समय पापा पूरी तरह तनाव में हैं.

‘‘शालिनी,’’ पापा ने आवाज लगाई.

पापा का मुझे इस समय शालू के बजाय शालिनी कहना तो यही बताता है कि पापा हाई टैंशन में नहीं वरन सुपर हाई टैंशन में हैं.

‘‘शालिनी, मेरे सामने बैठो… मेरी बात को समझो बेटा. मैं ने पता किया है. सौम्य ठीक लड़का नहीं है. उस की पहली शादी भी प्रेमविवाह थी. फिर बीवी को मानसिक रूप से इतना प्रताडि़त किया कि उस ने आत्महत्या कर ली. बच्चों को उन के नानानानी के पास पहुंचाने के बाद पिछले 5 वर्षों में एक बार भी उन की खोजखबर लेने नहीं गया और न उन्हें कोई पैसे भेजता है. बच्चों के नानानानी को इस कदर डराधमका रखा है कि वे कोर्टकचहरी नहीं करना चाहते और बच्चों और अपनी सुरक्षा के लिए चुप रह गए हैं.

‘‘ऐसा आदमी जो अपनी पहली बीवी और अपनी ही संतान के प्रति इतना निष्ठुर हो, वह तुम्हारी क्या देखभाल करेगा? कैसे रखेगा तुम्हें? फिर तुम दोनों की उम्र में भी बहुत ज्यादा अंतर है. जीवनसाथी तो हमउम्र ही ठीक रहता है. तुम एक बार गंभीरता से सोच कर देखो. प्रेम अच्छी चीज है बेटा. लेकिन प्रेम में इस तरह अंधा हो जाना कि सचाई दिखाई ही न दे, ठीक नहीं है. बेटा, तुम्हें हम ने अच्छे स्कूलों में पढ़ाया, अच्छे संस्कार दिए. आज तुम्हारी सारी समझदारी की परीक्षा है बेटा… 1 बार नहीं 10 बार सोचो और तब निर्णय करो.’’

अपनी सारी अच्छाइयों के बावजूद पापा खुद निर्णय लेने में बेहद दृढ़ रहे हैं. बेहद कड़ाई से निर्णय लेते रहे हैं, लेकिन उस दिन मुझे समझाने में कितने कातर हुए जा रहे थे. उन की कातरता मुझे और भी उद्दंड बना रही थी. उन की किसी बात, किसी तर्क पर मैं ने एक क्षण के लिए भी ध्यान नहीं दिया. सोचनेसमझने की तो बात ही दूर थी.

मैं चिल्ला कर बोली, ‘‘मैं तो निर्णय कर चुकी हूं पापा. एक बार सोचूं या 10 बार… मेरा निर्णय यही है कि मैं सौम्य से शादी कर रही हूं. आप सब की मरजी हो तब भी और न हो तब भी,’’ मैं आपे से बाहर हुई जा रही थी.

‘‘तो मेरा भी निर्णय सुन लो. आज के बाद हमारा तुम से कोई संबंध नहीं. मैं, मेरी बीवी और मेरे दोनों बेटे शालीन और कुलीन तुम्हारे कुछ नहीं लगते और न तुम हमारी कुछ हो. जब मरूंगा तभी आना और मेरी संपत्ति से अपना हिस्सा ले कर निकल जाना. नाऊ, गैट लौस्ट,’’ पापा अपने पूरे दृढ़ रूप में आ गए थे.

मगर मैं ही कौन सा डर रही थी? दृढ़ स्वर में बोली, ‘‘ओके देन. मैं आप की संपत्ति पर थूकती हूं. कभी इस घर का रुख नहीं करूंगी. बाय,’’ और मैं जोर से दरवाजा बंद कर बाहर निकल गई थी.

उसी रात हम ने मंदिर में शादी कर ली. सौम्य के 2-4 मित्रों की मौजूदगी में. अब मैं श्रीमती सौम्य थी, जिसे बहुत लाड़ से सौम्य ने ही सौम्या नाम दिया था.

शादी के कुछ दिनों बाद तक सब बहुत सुंदर था. कथा, कहानियों या कहें फिल्मों के परीलोक जैसा और फिर जल्द ही मासूम के आने की आहट सुनाई दी. मेरे लिए तो यह पहली बार मां बनने का रोमांच था, लेकिन सौम्य तो इस अनुभव से 2 बार गुजर चुके थे और उस अनुभव को कपड़े पर पड़ी धूल की तरह झाड़ चुके थे. उन्हें कोई उत्साह न होता. लेकिन मैं इसे पूरी उदारता से समझ लेती. आखिर मैं हूं ही बहुत समझदार. दूसरे के मनोविज्ञान, दूसरे के मनोभावों को खूब अच्छी तरह समझती हूं. इसलिए मां बनने के अपने उत्साह को मैं ने तनिक भी कम नहीं होने दिया.

समय पर सुंदर बेटे को जन्म दे कर खुद ही निहाल होती रही. सौम्य इस सब में कहीं भी मेरे साथ, मेरे पास नहीं थे. लेडी डाक्टर और नर्सों के साथ उन की हंसीठिठोली चलती रहती. लेकिन इस जिंदादिली की तो मैं खुद कायल थी. तो अब क्या कहती?

इधर मां के रूप में मेरी व्यस्तता बढ़ती जा रही थी उधर सौम्य बरतन साफ करने वाली बाई, मासूम की देखभाल करने वाली आया, यहां तक कि मेरी मालिश करने के लिए आने वाली, मेरा हाल पूछने आने वाली पड़ोसिनों, मेरी सहेलियों को भी अपनी जिंदादिली से भिगोए रहते. काश, थोड़ी सी यही जिंदादिली मेरे मासूम बेटे को भी मिल जाती. ‘मेरे’ इसलिए कहा, क्योंकि सौम्य ने ही कहा था कि यह सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा बच्चा है. मेरे तो पहले ही 2 बच्चे हैं, जो बेचारे मां के मरने की वजह से अपने नानानानी के पास पड़े हैं.

सौम्य का गिरगिट की तरह बदलता रंग मुझे आश्चर्यचकित कर देता. प्रेम की पींगें बढ़ाते समय तो कभी उस ने पत्नी और बच्चों का जिक्र भी नहीं किया था और अब अचानक बच्चों से इतनी ज्यादा सहानुभूति पैदा हो गई थी. बस यहीं कहीं से मेरे प्रेम का दर्पण चटकना शुरू हो गया था और दिनबदिन इस में दरारें बढ़ती जा रही थीं. शायद सब से बड़ी दरार या कहें पूरा दर्पण ही तब चकनाचूर हो गया जब मैं ने सौम्य को किसी से कहते सुना कि यह बेवकूफ औरत (मैं) अपने बाप की सारी दौलत छोड़ कर खाली हाथ मेरा माल उड़ाने चली आई. उस वक्त इस के रूप और यौवन पर फिदा हो कर मैं भी शादी करने की मूर्खता कर बैठा वरना ऐसी औरतों को बेवकूफ बना कर अपना उल्लू सीधा करना मुझे खूब आता है.

आज शादी के 8 साल बाद पेट के निचले हिस्से में दर्द होने पर जब जांच करवाई तो पता चला कि गर्भाशय में कुछ समस्या है, इसलिए उसे निकालना बेहद जरूरी है वरना कैंसर होने का खतरा है.

आज एक बार फिर मैं अस्पताल के बिस्तर पर हूं. किसे खबर करूं? मेजर औपरेशन है, लेकिन कोई ऐसा नहीं दिखता जिसे अपने पास बुला सकूं, जो सांत्वना के 2 शब्द कहे. मासूम के भोले मुखड़े को ममता से दुलारे ताकि उस की उदासी कुछ कम हो जाए. अपने पापा की विरक्ति उस से छिपी नहीं है. और मम्मी? न जाने उन्हें क्या हुआ है, क्या होने वाला है. मम्मी को कुछ हो गया तो? कहां जाएगा वह? पहले वाली मम्मी के मांबाप की तरह उस के नानानानी तो उसे रखेंगे नहीं. वे तो मम्मी से सारे संबंध तोड़ चुके हैं. नन्हे से भोले मन में कितनी दुश्चिंताएं सिर पटक रही हैं और मैं सिर्फ उस की पसीजती हथेलियों को अपनी मुट्ठी में दबा कर उसे झूठी सांत्वना देने की कोशिश ही कर पा रही हूं.

नर्स, वार्डबौय सब यमदूत की तरह घेरे हुए हैं मुझे. कोई नस खोज रहा है सूई लगाने के लिए, कोई ग्लूकोस चढ़ाने का इंतजाम कर रहा है, कोई सफाई कर रहा है. औपरेशन से पहले इतनी तैयारी हो रही है कि मेरा मन कांपा जा रहा है और सौम्य? सौम्य कहां हैं? वे बाहर खड़े बाकी नर्सों से हंसीठट्ठा कर रहे हैं.

‘‘अरे मैडम, मुझ से तो यह सब देखा ही नहीं जाता. मेरा वश चले तो मैं अस्पताल आऊं ही नहीं. लेकिन क्या किया जाए? अच्छा है कि आप लोगों जैसी सुंदरसुंदर हंसमुख परियां यहां हैं वरना तो इस नर्क में मेरा बेड़ा गर्क हो जाता. आप सब के भरोसे ही यहां हूं,’’ सौम्य की कामुक आवाज और हंसी अंदर तक आ रही थी.

‘‘चलिए मैडम, औपरेशन का समय हो गया. औपरेशन थिएटर चलना है,’’ स्ट्रेचर लिए

2 वार्डबौय हाजिर हो गए.

मैं दरवाजे की ओर देख रही हूं. शायद अब तो सौम्य अंदर आएं. उन के सामने से ही तो स्ट्रेचर अंदर आई होगी न? आंखों से आंसू भरे मासूम मुझ से लिपट गया.

‘‘अरे, मेरा बहादुर बेटा रो रहा है. मैं जल्दी बाहर आऊंगी और फिर कुछ दिनों में बिलकुल ठीक हो जाऊंगी. रोना नहीं,’’ मैं उसे सांत्वना दे रही हूं, लेकिन मुझे सांत्वना देने वाला वहां कोई नहीं है.

‘‘जल्दी कीजिए मैडम. डाक्टर साहब गुस्सा करेंगी,’’ वार्डबौय ने टोका.

‘‘हां चलिए,’’ कह मैं स्ट्रेचर पर लेट गई. बाहर भी सौम्य का कहीं अतापता न था.

‘‘भैया, मेरे पति कहां हैं?’’ मैं हकलाई.

‘‘वे सारी सिस्टर्स के लिए मिठाई लाने गए हैं. कुछ कह रहे थे… आज उन का स्वतंत्रता दिवस है… आते ही होंगे,’’ कह बेहयाई से दांत निपोरे वार्डबौय ने, लेकिन साथ ही थोड़ा धैर्य भी बंधा दिया. शायद मुझ पर दया आ गई उसे.

औपरेशन थिएटर के अंदर तो जैसे भय सा लगने लगा. अबूझ, अनाम सा भय. निराधार होता मेरा अपना वजूद. मुंह पर मास्क, सिर पर टोपी और ऐप्रन पहने डाक्टर, नर्स, वार्डबौय सभी. किसी की अलग से कोई पहचान नहीं. केवल आंखें और दस्ताने पहने हाथ. ये आंखें मुझे घूर रही हैं जैसे कुछ तोल रही हैं. ‘क्या? मेरी मूर्खता? मेरी निरीहता? मेरा अपमान? मेरा मजाक? या मेरी बीमारी? और ये दस्ताने पहने हाथ? मुझे मेरे वजूद से ही छुटकारा दिला देंगे या सिर्फ मेरी बीमारी को ही निकाल फेकेंगे? क्या सोच रही हूं मैं? मम्मीपापा, शालीन, कुलीन सब के चेहरे आंखों के सामने घूम रहे हैं.

फिर सौम्य, एक नर्स के कंधे पर हाथ टिकाए, दूसरी को समोसा खिलाता. उस की आवाज कानों को चीर रही है, ‘‘अरे, जब यूटरस ही नहीं रहा तो औरत औरत नहीं रही. और मैं? मैं तो आजाद पंछी हूं. कभी इस डाल पर तो कभी उस डाल पर. बंध कर रहना तो मैं ने सीखा ही नहीं. आज से मैं स्वतंत्र हूं, पहले की तरह… अरे यह मैं क्या सोच रही हूं?

‘बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से होय?’ पापा, आप ने, मम्मी ने मुझे अच्छे संस्कार दिए, अच्छी परवरिश दी, अच्छे स्कूलों में पढ़ाया ताकि आप की बेटी संस्कारी बने, समझदार बने. लेकिन मैं न समझदार बनी, न ही संस्कारी. पापा, मुझे माफ कर दो, मम्मी मुझे माफ कर दो.

अरे, यह क्या हो रहा है मुझे? कहीं दूर से आवाज आ रही है, ‘‘अरे डाक्टर, ये तो बेहोश हो रही हैं, बीपी बहुत डाउन हो गया है. अभी तो ऐनेस्थीसिया दिया भी नहीं गया. ये तो खुदबखुद बेहोश हो रही हैं. डाक्टर… डाक्टर… जल्दी आइए.’’

मैं, मेरा वजूद अंधेरे में डूब गया है.

Women’s Day 2024: काली सोच-शुभा की आंखों पर पड़ा था कैसा परदा?

लेखन कला मुझे नहीं आती, न ही वाक्यों के उतारचढ़ाव में मैं पारंगत हूं. यदि होती तो शायद मुझे अपनी बात आप से कहने में थोड़ी आसानी रहती. खुद को शब्दों में पिरोना सचमुच क्या इतना मुश्किल होता है?

बाहर पूनम का चांद मुसकरा रहा है. नहीं जानती कि वह मुझ पर, अपनेआप पर या किसी और पर मुसकरा रहा है. मैं तो बस इतना जानती हूं कि वह भी पूनम की ऐसी ही एक रात थी जब मैं अस्पताल के आईसीयू के बाहर बैठी अपने गुनाहों के लिए बेटी से माफी मांग रही थी, ‘मुझे माफ कर दे बेटी. पाप किया है मैं ने, महापाप.’

मानसी, मेरी इकलौती बेटी, भीतर आईसीयू में जीवन और मौत के बीच झूल रही है. उस ने आत्महत्या करने की कोशिश की, यह तो सभी जानते हैं पर यह कोई नहीं जानता कि उसे इस हाल तक लाने वाली मैं ही हूं. मैं ने उस मासूम के सामने कोई और रास्ता छोड़ा ही कहां था?

कहते हैं आत्महत्या करना कायरों का काम है पर क्या मैं कायर नहीं जो भविष्य की दुखद घटनाओं की आशंका से वर्तमान को ही रौंदती चली आई?

हर मां का सपना होता है कि वह अपनी नाजों से पाली बेटी को सोलहशृंगार में पति के घर विदा करे. मैं भी इस का अपवाद नहीं थी. तिनकातिनका जोड़ कर जैसे चिडि़या अपना घोंसला बनाती है. वैसे ही मैं भी मानसी की शादी के सपने संजोती गई. वह भी मेरी अपेक्षाओं पर हमेशा खरी उतरी. वह जितनी सुंदर थी उतनी ही मेधावी भी. शांत, सुसभ्य, मृदुभाषिणी मानसी घरबाहर सब की चहेती थी. एक मां को इस से ज्यादा और क्या चाहिए?

‘देखना अपनी लाडो के लिए मैं चांद सा दूल्हा लाऊंगी,’ मैं सुशांत से कहती तो वे मुसकरा देते.

उस दिन मानसी की 12वीं कक्षा का परिणाम आया था. वह पूरे स्टेट में फर्स्ट आईर् थी. नातेरिश्तेदारों की तरफ से बधाइयों का तांता लगा हुआ था. हमारे पड़ोसी व खास दोस्त विनोद भी हमारे घर आए थे मिठाई ले कर.

‘मिठाई तो हमें खिलानी चाहिए भाईसाहब, आप ने क्यों तकलीफ की,’ सुशांत ने गले मिलते हुए कहा तो वे बोले, ‘हां हां, जरूर खाएंगे. सिर्फ मिठाई ही क्यों? हम तो डिनर भी यहीं करेंगे, लेकिन पहले आप मेरी तरफ से मुंह मीठा कीजिए. रोहित का मैडिकल कालेज में दाखिला हो गया है.’

‘फिर तो आज दोहरी खुशी का दिन है. मानसी ने 12वीं में टौप किया है. मैं ने मिठाई की प्लेट उन की ओर बढ़ाई.’

‘आप चाहें तो हम यह खुशी तिहरी कर लें,’ विनोद ने कहा.

‘हम समझे नहीं,’ मैं अचकचाई.

‘अपनी बेटी मानसी को हमारे आंचल में डाल दीजिए. मेरी बेटी की कमी पूरी हो जाएगी और आप की बेटे की,’ मिसेज विनोद बड़ी मोहब्बत से बोली.

‘देखिए भाभीजी, आप के विचारों की मैं इज्जत करती हूं, लेकिन मुंह रहते कोई नाक से पानी नहीं पीता. शादीविवाह अपनी बिरादरी में ही शोभा देते हैं,’ इस से पहले कि सुशांत कुछ कहते मैं ने सपाट सा उत्तर दे दिया.

‘जानती हूं मैं. सदियों पुरानी मान्यताएं तोड़ना आसान नहीं होता. हमें भी काफी वक्त लगा है इस फैसले तक पहुंचने में. आप भी विचार कर देखिएगा,’ कहते हुए वे लोग चले गए.

‘इस में हर्ज ही क्या है शुभा? दोनों बच्चे बचपन से एकदूसरे को जानते हैं, समझते हैं. सब से बढ़ कर बौद्धिक और वैचारिक समानता है दोनों में. मेरे खयाल से तो हमें इस रिश्ते के लिए हां कह देनी चाहिए.’ सुशांत ने कहा तो मेरी त्योरियां चढ़ गईं.

‘तुम्हारा दिमाग तो नहीं फिर गया है. आलते का रंग चाहे जितना शोख हो, उस का टीका नहीं लगाते. कहां वो, कहां हम उच्चकुलीन ब्राह्मण. हमारी उन की भला क्या बराबरी? दोस्ती तक तो ठीक है, पर रिश्तेदारी अपनी बराबरी में होनी चाहिए. मुझे यह रिश्ता बिलकुल पसंद नहीं है.’

‘एक बार खुलेमन से सोच कर तो देखो. आखिर इस में बुराई ही क्या है? दीपक ले कर ढूंढ़ेंगे तो भी ऐसा दामाद हमें नहीं मिलेगा’, सुशांत ने कहा.

‘मुझे जो कहना था मैं ने कह दिया. तुम्हें इतना ही पसंद है तो कहीं से मुझे जहर ला दो. अपने जीतेजी तो मैं यह अनर्थ नहीं होने दूंगी. अरे, रिश्तेदार हैं, समाज है उन्हें क्या मुंह दिखाएंगे. दस लोग दस तरह के सवाल पूछेंगे, क्या जवाब देंगे उन्हें हम?’

मैं ने कहा तो सुशांत चुप हो गए. उस दिन मैं ने मानसी को ध्यान से देखा. वाकई मेरी गुडि़या विवाहयोग्य हो गई थी. लिहाजा, मैं ने पुरोहित को बुलावा भेजा.

‘बिटिया की कुंडली में तो घोर मंगल योग है बहूरानी. पतिसुख से यह वंचित रहेगी. पुरोहित के मुख से यह सुन कर मेरा मन अनिष्ट की आशंका से कांप उठा. मैं मध्यवर्गीय धर्मभीरू परिवार से थी और लड़की के मंगला होने के परिणाम से पूरी तरह परिचित थी. मैं ने लगभग पुरोहित के पैर पकड़ लिए, ‘कोई उपाय बताइए पुरोहितजी. पूजापाठ, यज्ञहवन, मैं सबकुछ करने को तैयार हूं. मुझे कैसे भी इस मंगल दोष से छुटकारा दिलाइए.’

‘शांत हो जाइए बहूरानी. मेरे होते हुए आप को परेशान होने की बिलकुल भी जरूरत नहीं है,’ उन्होंने रसगुल्ले को मुंह में दबाते हुए कहा, ‘ऐसा कीजिए, पहले तो बिटिया का नाम मानसी के बजाय प्रिया रख दीजिए.’

‘ऐसा कैसे हो सकता है पंडितजी. इस उम्र में नाम बदलने के लिए न तो बिटिया तैयार होगी न उस के पापा. वे कुंडली मिलान के लिए भी तैयार नहीं थे.’

‘तैयार तो बहूरानी राजा दशरथ भी नहीं थे राम वनवास के लिए.’ पंडितजी ने घोर दार्शनिक अंदाज में मुझे त्रियाहट का महत्त्व समझाया व दक्षिणा ले कर चलते बने.

‘आज से तुम्हारा नाम मानसी के बजाय प्रिया रहेगा,’ रात के खाने पर मैं ने बेटी को अपना फैसला सुना दिया.

‘लेकिन क्यों मां, इस नाम में क्या बुराई है?’

‘वह सब मैं नहीं जानती बेटा, पर मैं जो कुछ भी कर रही हूं तुम्हारे भले के लिए ही कर रही हूं. प्लीज, मुझे समझने की कोशिश करो.’

उस ने मुझे कितना समझा, कितना नहीं, यह तो मैं नहीं जानती पर मेरी बात का विरोध नहीं किया.

हर नए रिश्ते के साथ मैं उसे हिदायतों का पुलिंदा पकड़ा देती.

‘सुनो बेटा, लड़के की लंबाई थोड़ा कम है, इसलिए फ्लैटस्लीपर ही पहनना.’

‘लेकिन मां फ्लैटस्लीपर तो मुझ पर जंचते नहीं हैं.’

‘देखो प्रिया, यह लड़का 6 फुट का है. इसलिए पैंसिलहील पहनना.’

‘लेकिन मम्मी मैं पैंसिलहील पहन कर तो चल ही नहीं सकती. इस से मेरे टखनों में दर्द होता है.’

‘प्रिया, मौसी के साथ पार्लर हो आना. शाम को कुछ लोग मिलने आ रहे हैं.’

‘मैं नहीं जाऊंगी. मुझे मेकअप पसंद नहीं है.’

‘बस, एक बार तुम्हारी शादी हो जाए, फिर करती रहना अपने मन की.’

मैं सुबकने लगती तो प्रिया हथियार डाल देती.

पर मेरी सारी तैयारियां धरी की धरी रह जातीं जब लड़के वाले ‘फोन से खबर करेंगे’, कहते हुए चले जाते या फिर दहेज में मोटी रकम की मांग करते, जिसे पूरा करना किसी मध्यवर्गीय परिवार के वश की बात नहीं थी.

‘ऐसा कीजिए बहूरानी, शनिवार की सुबह 3 बजे बिटिया से पीपल के फेरे लगवा कर ग्रहशांति का पाठ करवाइए,’ पंडितजी ने दूसरी युक्ति सुझाई.

‘तुम्हें यह क्या होता जा रहा है मां, मैं ये जाहिलों वाले काम बिलकुल नहीं करूंगी,’ प्रिया गुस्से से भुनभुनाई, ‘पीपल के फेरे लगाने से कहीं रिश्ते बनते हैं.’

‘सच ही तो है, शादियां यदि पीपल के फेरे लगाने से तय होतीं तो सारी विवाहयोग्य लड़कियां पीपल के इर्दगिर्द ही घूमती नजर आतीं,’ सुशांत ने भी हां में हां मिलाई.

‘चलो, माना कि नहीं होती पर हमें यह सब करने में हर्ज ही क्या है?’

‘हर्ज है शुभा, इस से लड़कियों का मनोबल गिरता है. उन का आत्मसम्मान आहत होता है. बारबार लड़के वालों द्वारा नकारे जाने पर उन में हीनभावना घर कर जाती है. तुम ये सब समझना क्यों नहीं चाहतीं. मानसी को पहले अपनी पढ़ाई पूरी कर लेने दो. उसे जो बनना है वह बन जाने दो. फिर शादी भी हो जाएगी,’ सुशांत ने मुझे समझाने की कोशिश की.

‘तब तक सारे अच्छे रिश्ते हाथ से निकल जाएंगे, फिर सुनते रहना रिश्तेदारों और पड़ोसियों के ताने.’

‘रिश्तेदारों का क्या है, वे तो कुछ न कुछ कहते ही रहेंगे. उन की बातों से डर कर क्या हम बेटी की खुशियों, उस के सपनों का गला घोंट दें.’

‘तुम कहना क्या चाहते हो, मैं क्या इस की दुश्मन हूं. अरे, लड़कियां चाहे कितनी भी पढ़लिख जाएं, उन्हें आखिर पराए घर ही जाना होता है. घरपरिवार और बच्चे संभालने ही होते हैं और इन सब कामों की एक उम्र होती है. उम्र निकलने के बाद यही काम बोझ लगने लगते हैं.’

‘तो हमतुम मिल कर संभाल लेंगे न इन की गृहस्थी.’

‘संभालेंगे तो तब न जब ब्याह होगा इस का. लड़के वाले तो मंगला सुनते ही भाग खड़े होते हैं.’

हमारी बहस अभी और चलती अगर सुशांत ने मानसी की डबडबाई आंखों को देख न लिया होता.

सुशांत ने ही बीच का रास्ता निकाला था. वे कहीं से पीपल का बोनसाई का पौधा ले आए थे, जिस से मेरी बात भी रह जाए और प्रिया को घर से बाहर भी न जाना पड़े.

साल गुजरते जा रहे थे. मानसी की कालेज की पढ़ाई भी पूरी हो गई थी.

घर में एक अदृश्य तनाव अब हर समय पसरा रहता. जिस घर में पहले प्रिया की शरारतों व खिलखिलाहटों की धूप भरी रहती, वहीं अब सर्द खामोशी थी.

सभी अपनाअपना काम करते, लेकिन यंत्रवत. रिश्तों की गर्माहट पता नहीं कहां खो गई थी.

हम मांबेटी की बातें जो कभी खत्म ही नहीं होती थीं, अब हां…हूं…तक ही सिमट गई थीं.

जीवन फिर पुराने ढर्रे पर लौटने लगा था कि तभी एक रिश्ता आया. कुलीन ब्राह्मण परिवार का आईएएस लड़का दहेजमुक्त विवाह करना चाहता था. अंधा क्या चाहे, दो आंखें.

हम ने झटपट बात आगे बढ़ाई. और एक दिन उन लोगों ने मानसी को देख कर पसंद भी कर लिया. सबकुछ इतना अचानक हुआ था कि मुझे लगने लगा कि यह सब पुरोहितजी के बताए उपायोें के फलस्वरूप हो रहा है.

हंसीखुशी के बीच हम शादी की तैयारियों में व्यस्त हो गए थे कि पुरोहित दोबारा आए, ‘जयकारा हो बहूरानी.’

‘सबकुछ आप के आशीर्वाद से ही तो हो रहा है पुरोहितजी,’ मैं ने उन्हें प्रणाम करते हुए कहा.

‘इसीलिए विवाह का मुहूर्त निकालते समय आप ने हमें याद भी नहीं किया,’ वे नाराजगी दिखाते हुए बोले.

‘दरअसल, लड़के वालों का इस में विश्वास ही नहीं है, वे नास्तिक हैं. उन लोगों ने तो विवाह की तिथि भी लड़के की छुट्टियों के अनुसार रखी है, न कि कुंडली और मुहूर्त के अनुसार,’ मैं ने अपनी सफाई दी.

‘न हो लड़के वालों को विश्वास, आप को तो है न?’ पंडित ने छूटते ही पूछा.

‘लड़के वालों की नास्तिकता का परिणाम तो आप की बेटी को ही भुगतना पड़ेगा. यह मंगल दोष किसी को नहीं छोड़ता.’

‘यह तो मैं ने सोचा ही नहीं,’ जैसेतैसे मेरे मुंह से निकला. पुरोहितजी की बात से शादी की खुशी जैसे काफूर गई थी.

‘कुछ कीजिए पुरोहितजी, कुछ कीजिए. अब तक तो आप ही मेरी नैया पार लगाते आ रहे हैं,’ मैं गिड़गिड़ाई.

‘वह तो है बहूरानी, लेकिन इस बार रास्ता थोड़ा कठिन है,’ पुरोहित ने पान की गिलौरी मुंह में डालते हुए कहा.

‘बताइए तो महाराज, बिटिया की खुशी के लिए तो मैं कुछ भी करने के लिए तैयार हूं,’ मैं ने डबडबाई आंखों से कहा.

‘हर बेटी को आप जैसी मां मिले,’ कहते हुए उन्होंने हाथ के इशारे से मुझे अपने पास बुलाया, फिर मेरे कान के पास मुंह ले जा कर जो कुछ कहा उसे सुन कर तो मैं सन्न रह गई.

‘यह क्या कह रहे हैं आप? कहीं बकरे या कुत्ते से भी कोई मां अपनी बेटी की शादी कर सकती है.’

‘सोच लीजिए बहूरानी, मंगल दोष निवारण के लिए बस यही एक उपाय है. वैसे भी यह शादी तो प्रतीकात्मक होगी और आप की बेटी के सुखी दांपत्य जीवन के लिए ही होगी.’

‘लेकिन पुरोहितजी, बिटिया के पापा भी तो कुछ दिनों के लिए बाहर गए हैं. उन की सलाह के बिना…’

‘अब लेकिनवेकिन छोडि़ए बहूरानी. ऐसे काम गोपनीय तरीके से ही किए जाते हैं. अच्छा ही है जो यजमान घर पर नहीं हैं.

‘आप कल सुबह 8 बजे फेरों की तैयारी कीजिए. जमाई बाबू (बकरा) को मेरे साथी पुरोहित लेते आएंगे और बिटिया को मेरे घर की महिलाएं संभाल लेंगी.

‘और हां, 50 हजार रुपयों की भी व्यवस्था रखिएगा. ये लोग दूसरों से तो 80 हजार रुपए लेते हैं, पर आप के लिए 50 हजार रुपए पर बात तय की है.’ मैं ने कहते हुए पुरोहितजी चले गए.

अगली सुबह 7 बजे तक पुरोहित अपनी मंडली के साथ पधार चुके थे.

पुरोहिताइन के समझाने पर प्रिया बिना विरोध किए तैयार होने चली गई तो मैं ने राहत की सांस ली और बाकी कार्य निबटाने लगी.

‘मुहूर्त बीता जा रहा है बहूरानी, कन्या को बुलाइए.’ पुरोहितजी की आवाज पर मुझे ध्यान आया कि प्रिया तो अब तक तैयार हो कर आई ही नहीं.

‘प्रिया, प्रिया,’ मैं ने आवाज दी, लेकिन कोई जवाब न पा कर मैं ने उस के कमरे का दरवाजा बजाया, फिर भी कोई जवाब नहीं मिला तो मेरा मन अनजानी आशंका से कांप उठा.

‘सुनिए, कोई है? पुरोहितजी, पंडितजी, अरे, कोई मेरी मदद करो. मानसी, मानसी, दरवाजा खोल बेटा.’ लेकिन मेरी आवाज सुनने वाला वहां कोई नहीं था. मेरे हितैषी होने का दावा करने वाले पुरोहित बजाय मेरी मदद करने के, अपने दलबल के साथ नौदोग्यारह हो गए थे.

हां, आवाज सुन कर पड़ोसी जरूर आ गए थे. किसी तरह उन की मदद से मैं ने कमरे का दरवाजा तोड़ा.

अंदर का भयावह दृश्य किसी की भी कंपा देने के लिए काफी था. मानसी ने अपनी कलाई की नस काट ली थी. उस की रगों से बहता खून पूरे फर्श पर फैल चुका था और वह खुद एक कोने में अचेत पड़ी थी. मेरे ऊलजलूल फैसलों से बचने का वह यह रास्ता निकालेगी, यह मैं ने सपने में भी नहीं सोचा था.

पड़ोसियों ने ही किसी तरह हमें अस्पताल तक पहुंचाया और सुशांत को खबर की.

ऐसी बातें छिपाने से भी नहीं छिपतीं. अगली ही सुबह मानसी के ससुराल वालों ने यह कह कर रिश्ता तोड़ दिया कि ऐसे रूढि़वादी परिवार से रिश्ता जोड़ना उन के आदर्शों के खिलाफ है.

‘‘यह सब मेरी वजह से हुआ है,’’ सुशांत से कहते हुए मैं फफक पड़ी.

‘‘नहीं शुभा, यह तुम्हारी वजह से नहीं, तुम्हारी धर्मभीरुता और अंधविश्वास की वजह से हुआ.’’

‘‘ये पंडेपुरोहित तो तुम जैसे लोगों की ताक में ही रहते हैं. जरा सा डराया, ग्रहनक्षत्रों का डर दिखाया और तुम फंस गईं जाल में. लेकिन यह समय इन बातों का नहीं. अभी तो बस यही कामना करो कि हमारी बेटी ठीक हो जाए,’’ कहते हुए सुशांत की आंखें भर आईं.

‘बधाई हो, मानसी अब खतरे से बाहर है,’ डा. रोहित ने आईसीयू से बाहर आते हुए कहा.

‘रोहित, विनोद का बेटा है, मानसी के लिए जिस का रिश्ता मैं ने महज विजातीय होने के कारण ठुकरा दिया था, इसी अस्पताल में डाक्टर है और पिछले 48  घंटों से मानसी को बचाने की खूब कोशिश कर रहा है. किसी अप्राप्य को प्राप्त कर लेने की खुशी मुझे उस के चेहरे पर स्पष्ट दिख रही है. ऐसे समय में उस ने मानसी को अपना खून भी दिया है.

‘क्या यह इस बात का प्रमाण नहीं कि रोहित सिर्फ व सिर्फ मेरी बेटी मानसी के लिए ही बना है?

‘मैं भी बुद्धू हूं.

‘मैं ने पहले बहुत गलतियां की हैं. अब और नहीं करूंगी,’ यह सब वह सोच रही थी.

रोहित थोड़ी दूरी पर नर्स को कुछ दवाएं लाने को कह रहा था. उस ने हिम्मत जुटा कर रोहित से आहिस्ता से कहा, ‘‘मानसी ने तो मुझे माफ कर दिया, पर क्या तुम व तुम्हारे परिवार वाले मुझे माफ कर पाएंगे.’’

‘कैसी बातें करती हैं आंटी आप, आप तो मेरी मां जैसी है.’ रोहित ने मेरे जुड़े हुए हाथों को थाम लिया था.

आज उन की भरीपूरी गृहस्थी है. रोहित के परिवार व मेरी बेटी मानसी ने भी मुझे माफ कर दिया है. लेकिन क्या मैं कभी खुद को माफ कर पाऊंगी. शायद कभी नहीं.

इन अंधविश्वासों के चंगुल में फंसने वाली मैं अकेली नहीं हूं. ऐसी घटनाएं हर वर्ग व हर समाज में होती रहती हैं.

मैं आत्मग्लानि के दलदल में आकंठ डूब चुकी थी और अपने को बेटी का जीवन बिगाड़ने के लिए कोस रही थी.

Women’s Day 2024: आधुनिक श्रवण कुमार- मीरा ने कैसे किया परिवार का सपना पूरा

पिछले साल जब मीरा ने समाचारपत्र में एक विदेश भ्रमण टूर के बारे में पढ़ा था तब से ही उस ने एक सपना देखना शुरू कर दिया था कि इस टूर में वह अपने परिवार के साथ वृद्ध मातापिता को भी ले कर जाए. चूंकि खर्चा अधिक था इसलिए वह पति राम और बेटे संजू से किसी प्रकार की आर्थिक सहायता नहीं लेना चाहती थी. उसे पता था कि जब इस बात का पता पति राम को लगेगा तो वह कितना हंसेंगे और संजू कितना मजाक उड़ाएगा. पर उसे इस मामले में किसी की परवा नहीं थी. बस, एक ही उमंग उस के मन में थी कि वह अपने कमाए पैसे से मम्मीपापा को सैर कराएगी.

वह 11 बजने का इंतजार कर रही थी क्योंकि हर रोज 11 बजे वह मम्मी से फोन पर बात करती थी. आज फोन मिलाते ही बोली, ‘‘मम्मी, सुनो, जरा पापा को फोन देना.’’

पापा जैसे ही फोन पर आए मीरा चहकी, ‘‘पापा, आज ही अपना और मम्मी का पासपोर्ट बनने को दे दीजिए. हम सब अगस्त में सिंगापुर, बैंकाक और मलयेशिया के टूर पर जा रहे हैं.’’

‘‘तुम शौक से जाओ बेटी, इस के लिए तुम्हारे पास तो अपना पासपोर्ट है, हमें पासपोर्ट बनवाने की क्या जरूरत है?’’

‘‘पापा, मैं ने कहा न कि हम जा रहे हैं. इस का मतलब है कि आप और मम्मी भी हमारे साथ टूर पर रहेंगे.’’

‘‘हम कैसे चल सकते हैं? दोनों ही तो दिल के मरीज हैं. तुम तो डाक्टर हो फिर भी ऐसी बात कह रही हो जोकि संभव नहीं है.’’

‘‘पापा, आप अपने शब्दकोश से असंभव शब्द को निकाल दीजिए. बस, आप पासपोर्ट बनने को दे दीजिए. बाकी की सारी जिम्मेदारी मेरी.’’

बेटी की बातों से आत्मविश्वास की खनक आ रही थी. फिर भी उन्हें अपनी विदेश यात्रा पर शक ही था क्योंकि वह 80 साल के हो चुके थे और 2 बार बाईपास सर्जरी करवा चुके थे. उन की पत्नी पुष्पा 76 वर्ष की हो गई थीं और एक बार वह भी बाईपास सर्जरी करवा चुकी थीं. दोनों के लिए पैदल घूमना कठिन था. कार में तो वे सारे शहर का चक्कर मार आते थे और 10-15 मिनट पैदल भी चल लेते थे पर विदेश घूमने की बात उन्हें असंभव ही नजर आ रही थी.

वह बोले, ‘‘देखो बेटी, मैं मानता हूं कि तुम तीनों डाक्टर हो पर मेरे या अपनी मां के बदले तुम पैदल तो नहीं चल सकतीं.’’

‘‘पापा, आप पासपोर्ट तो बनने को दे दीजिए और बाकी बातें मुझ पर छोड़ दीजिए.’’

‘‘ठीक है, मैं पासपोर्ट बनने को दे देता हूं. हम तो अब अगले लोक का पासपोर्ट बनवाने की तैयारी में हैं.’’

‘‘पापा, ऐसी निराशावादी बातें आप मेरे साथ तो करें नहीं,’’ मीरा बोली, ‘‘आप आज ही भाई को कह कर पासपोर्ट बनाने की प्रक्रिया शुरू करवा दें. डेढ़ महीने में पासपोर्ट बन जाएगा. उस के बाद मैं आप को बताऊंगी कि हम कब घूमने निकलेंगे.’’

फोन पर बातें करने के बाद हरिजी अपनी पत्नी से बोले, ‘‘चल भई, तैयारी कर ले. तेरी बेटी तुझे विदेश घुमाने ले जाने वाली है.’’

‘‘आप भी कैसी बातें कर रहे हैं. मीरा का भी दिमाग खराब हो गया है. घर की सीढि़यां तो चढ़ी नहीं जातीं और वह हमें विदेश घुमाएगी.’’

‘‘मैं राजा को भेज कर आज ही पासपोर्ट के फार्म मंगवा लेता हूं. पासपोर्ट बनवाने में क्या हर्ज है. बेटी की बात का मान भी रह जाएगा. विदेश जा पाते हैं या नहीं यह तो बाद की बात है.’’

‘‘जैसा आप ठीक समझें, कर लें. अब तो कहीं घूमने की ही इच्छा नहीं है. बस, अपना काम स्वयं करते रहें और चलतेफिरते इस दुनिया से चले जाएं, यही इच्छा है.’’

उसी दिन मीरा ने रात को खाने पर पति राम और संजू से कहा, ‘‘आप लोग इतने दिनों से विदेश भ्रमण की योजना बना रहे थे. चलो, अब की बार अगस्त में 1 हफ्ते वाले टूर पर हम भी निकलते हैं.’’

‘‘अरे, मम्मी, जरा फिर से तो बोलो, मैं आज ही बुकिंग करवाता हूं,’’ बेटा संजू बोला.

राम बोले, ‘‘आज तुम इतनी मेहरबान कैसे हो गईं. तुम तो हमेशा ही मना करती थीं.’’

‘‘उस के पीछे एक कारण था. मैं अपने मम्मीपापा को भी साथ ले कर जाना चाहती थी और इस के लिए मेरे पास रुपए नहीं थे. 1 साल में मैं ने पूरे 1 लाख रुपए जोड़ लिए हैं. अब मम्मीपापा के लिए भी मैं टिकट खरीद सकती हूं.’’

‘‘यह मेरे और तेरे रुपए की बात कब से तुम्हारे मन में आई. तुम अगर अपने मम्मीपापा को साथ ले जाने की बात बोलतीं तो क्या मैं मना करता. 30 साल साथ रहने के बाद क्या तुम मुझे इतना ही जान पाई हो.’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है पर मेरे मन में था कि मैं खुद कमा कर अपने पैसे से उन्हें घुमाऊं. बचपन में हम जब भी घूमने जाते थे तब पापा कहा करते थे कि जब मेरी बेटी डाक्टर बन जाएगी तब वह हमें विदेश घुमाएगी. उन की वह बात मैं कभी नहीं भूली. इसीलिए 1 साल में एक्स्ट्रा समय काम कर के मैं ने रुपए जोड़े और आज ही उन्हें फोन पर पासपोर्ट बनवाने को कहा है.’’

‘‘वाह भई, तुम 1 साल से योजना बनाए बैठी हो और हम दोनों को खबर ही न होने दी. बड़ी छिपीरुस्तम निकलीं तुम.’’

‘‘जो मरजी कह लो पर अगर हम लोग विदेश भ्रमण पर जाएंगे तो मम्मीपापा साथ जाएंगे.’’

‘‘तुम ने उन की तबीयत के बारे में भी कुछ सोचा है या नहीं या केवल भावुक हो कर सारी योजना बना ली?’’

‘‘अरे, हम 3 डाक्टर हैं और फिर वे दोनों वैसे तो ठीक ही हैं, केवल ज्यादा पैदल नहीं चल पाते हैं. उस के लिए हम टैक्सी कर लेंगे और जहां अंदर घूमने की बात होगी तो व्हीलचेयर में बैठा कर घुमा देंगे.’’

‘‘ठीक है, जैसा तुम चाहो. तुम खुश तो हम सब भी खुश.’’

पासपोर्ट बन कर तैयार हो गए. 8 अगस्त की टिकटें खरीद ली गईं. थामस नामक टूरिस्ट एजेंसी के सिंगापुर, बैंकाक और मलयेशिया वाले ट्रिप में वे शामिल हो गए. उन की हवाई यात्रा चेन्नई से शुरू होनी थी.

मीरा, राम और संजू मम्मीपापा के पास चेन्नई पहुंच गए थे. मीरा ने दोनों के सूटकेस पैक किए. उस का उत्साह देखते ही बनता था. मम्मी बोलीं, ‘‘तुम तो छोटे बच्चों की तरह उत्साहित हो और मेरा दिल डूबा जा रहा है. हमें व्हीलचेयर पर बैठे देख लोग क्या कहेंगे कि बूढ़ेबुढि़या से जब चला नहीं जाता तो फिर बाहर घूमने की क्या जरूरत थी.’’

‘‘मम्मी, आप दूसरों की बातों को ले कर सोचना छोड़ दो. आप बस, इतना सोचिए कि आप की बेटी कितनी खुश है.’’

सुबह 9 बजे की फ्लाइट थी. सारे टूरिस्ट समय पर पहुंच चुके थे. पूरे ग्रुप में 60 लोग थे और सभी जवान और मध्यम आयु वर्ग वाले थे. केवल वे दोनों ही बूढे़ थे. चेन्नई एअरपोर्ट पर वे दोनों धीरेधीरे चल कर सिक्योरिटी चेक करवा कर लाज में आ कर बैठ गए थे. वहां बैठ कर आधा घंटा आराम किया और फिर धीरेधीरे चलते हुए वे हवाई जहाज में भी बैठ गए थे. दोनों के चेहरे पर एक विशेष खुशी थी और मीरा के चेहरे पर उन की खुशी से भी दोगुनी खुशी थी. आज उस का सपना पूरा होने जा रहा था.

3 घंटे की हवाई यात्रा के बाद वे सिंगापुर पहुंच गए थे. जहाज से उतर कर वे सीधे बस में बैठ गए जो उन्हें सीधे होटल तक ले गई. विशेष निवेदन पर उन्हें नीचे ही कमरे मिल गए थे.

यहां तक पहुंचने में किसी को भी कोई परेशानी नहीं हुई थी. होटल के कमरे में पहुंच कर मीरा बोली, ‘‘हां, तो मम्मी बताना, अभी आप कहां बैठी हैं?’’

‘‘सिंगापुर में. सच, मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा है. तू ने तो अपने पापा का सपना सच कर दिया.’’

इस पर पापा ने गर्व से बेटी की ओर देखा और मुसकरा दिए. शाम से घूमना शुरू हुआ. सब से पहले वे सिंगापुर के सब से बड़े मौल में पहुंचे. वहां बुजुर्गों और विकलांगों के लिए व्हीलचेयर का इंतजाम था. एक व्हील चेयर पर मम्मी और दूसरी पर पापा को बिठा कर मीरा और संजू ने सारा मौल घुमा दिया. फिर उन्हें एक कौफी रेस्तरां में बिठा कर मीरा ने अपने पति व बेटे के साथ जा कर थोड़ी शापिंग भी कर ली. रात में नाइट क्लब घूमने का प्रोग्राम था. वहां जाने से दोनों बुजुर्गों ने मना कर दिया अत: उन्हें होटल में छोड़ कर उन तीनों ने नाइट क्लब देखने का भी आनंद उठाया.

दूसरे दिन वे सैंटोजा अंडर वाटर वर्ल्ड और बर्डपार्क घूमने गए. शाम को ‘लिटिल इंडिया’ मार्केट का भी वे चक्कर लगा आए. तीसरे दिन सुबह वे सिंगापुर से बैंकाक के लिए रवाना हुए. बैंकाक में भी बड़ेबड़े शापिंग मौल हैं पर ‘गोल्डन बुद्धा’ की मूर्ति वहां का मुख्य आकर्षण है.

5 टन सोने की बनी बुद्ध की मूर्ति के दर्शन मम्मीपापा ने व्हीलचेयर पर बैठ कर ही किए. उस मूर्ति को देख कर सभी आश्चर्यचकित थे. वहां से उन का ग्रुप ‘पटाया’ गया. पटाया का बीच प्रसिद्ध है. यहां तक पहुंचने में भी दोनों बुजुर्गों को कोई विशेष कठिनाई नहीं हुई. वहां रेत में बैठ कर वे दूसरों द्वारा खेले गए ‘वाटर गेम्स’ का लुत्फ उठाते रहे. बीच के आसपास ही बहुत से मसाज पार्लर हैं. वहां का ‘फुट मसाज’ बहुत प्रसिद्ध है. पापा ने तो वहां के फुट मसाज का भी आनंद उठाया.

रात को वहां एक ‘डांस शो’ था जहां लोकनृत्यों का आयोजन था. डेढ़ घंटे का यह शो भी सब को आनंदित कर गया. 2 दिन बैंकाक में बीते फिर वहां से कुआलालम्पुर पहुंचे. वहां पैटरौना टावर्स, जेनटिंग आइलैंड घूमे. दोनों ‘केबल कार’ में तो नहीं चढ़े, पर साधारण कार में चक्कर अवश्य लगाए. वहां के स्नोवर्ल्ड वाटर गेम्स और थीम पार्क में भी वे नहीं गए. उस दिन उन्होंने होटल में ही आराम किया.

देखते ही देखते 6 दिन बीत गए. 7वें दिन फिर से चेन्नई के एअरपोर्ट पर उतरे और घर की ओर रवाना हुए. उस के बाद मम्मीपापा का पसंदीदा वाक्य एक ही था, ‘‘मीरा और राम तो हमारे श्रवण कुमार हैं जिन्होंने हमें विदेश की सैर व्हीलचेयर पर करवा दी.’’

Women’s Day 2023: मां का घर- क्या अपने अकेलेपन को बांटना चाहती थीं मां

Women’s Day 2023: आशियाना- अनामिका ने किसे चुना

“बहू कुछ दिनों के लिए रश्मि आ रही है. तुम्हें भी मायके गए कितने दिन हो गए, तुम भी शायद तब की ही गई हुई हो, जब पिछली दफा रश्मि आई थी. वैसे भी इस छोटे से घर में सब एकसाथ रहेंगे भी तो कैसे?

“तुम तो जानती हो न उस के शरारती बच्चों को…क्यों न कुछ दिन तुम भी अपने मायके हो आओ,” सासूमां बोलीं.

लेकिन गरीब परिवार में पलीबङी अनामिका के लिए यह स्थिति एक तरफ कुआं, तो दूसरी तरफ खाई जैसी ही होती. उसे न चाहते हुए भी अपने स्वाभिमान से समझौता करना पड़ता.

अनामिका आज भी नहीं भूली वे दिन जब शादी के 6-7 महीने बाद उस का पहली दफा इस स्थिति से सामना हुआ था.

तब मायके में कुछ दिन बिताने के बाद मां ने भी आखिर पूछ ही लिया,”बेटी, तुम्हारी ननद ससुराल गई कि नहीं? और शेखर ने कब कहा है आने को?” मां की बात सुन कर अनामिका मौन रही.

उसी शाम जब पति शेखर का फोन आया तो बोला,”अनामिका, कल सुबह 10 बजे की ट्रेन से रश्मि दीदी अपने घर जा रही हैं. मैं उन्हें स्टेशन छोड़ने जाऊंगा और आते वक्त तुम्हें भी लेता आऊंगा। तुम तैयार रहना, जरा भी देर मत करना. तुम्हें घर छोड़ कर मुझे औफिस भी तो जाना है.”

कुछ देर शेखर से बात करने के बाद जब वह पास पड़ी कुरसी पर बैठने लगी तो उस पर रखे सामान पर उस की नजर गई। उस ने झट से सामान उठा कर पास पड़ी टेबल पर रखा और कुरसी पर बैठ कर अपनी आंखें मूंद लीं.

कुछ देर शांत बैठी अनामिका अचानक से उठ खड़ी हुई. उस ने सामान फिर से कुरसी पर रखा और उसे देखती रही और फिर से वही सामान टेबल पर रख कर कुरसी पर बैठ गई.

इस छोटे से प्रयोग से अनामिका को यह समझने में जरा भी देर नहीं लगी कि कहीं वह भी इस सामान की तरह तो नहीं? कभी यहां तो कभी वहां…

अगले दिन जब वह शेखर के साथ ससुराल गई तो बातबात में उस ने कहीं छोटीमोटी जौब करने की इच्छा जताई तो शेखर ने साफ मना कर दिया.

लेकिन शेखर के ना चाहते हुए भी अनामिका ने कुछ ही दिनों में जौब ढूंढ़ ही ली. और जब अपनी पहली सैलरी ला कर उस में से कुछ रूपए अपनी सासूमां के हाथ में थमाए तो सास भी अपनी बहू की तरफदारी करते हुए शेखर को समझाने लगीं,”अनामिका पढ़ीलिखी है, अब जौब कर के 2 पैसे घर लाने लगी है तो इस में बुराई क्या है?”

अपनी मां से अनामिका की तारीफ सुनने के बाद शेखर के पास बोलने को जैसे कुछ नहीं बचा.

महीनों बाद जब घर में रुपयोंपैसों को ले कर सहुलत होने लगी तो शेखर को भी अनामिका का जौब करना रास आने लगा.

आज जब बेटी रश्मि का फोन आने के बाद सासूमां ने अनामिका को मायके जाने के लिए कहा तो हर बार की तरह मायूस होने की बजाय अनामिका पूरे उत्साह से बोली,”मांजी, मैं आज ही पैकिंग कर लेती हूं. कल शेखर के औफिस जाने के बाद चली जाऊंगी.”

एक बार तो आत्मविश्वास से लबरेज बहू का जबाव सुन कर सास झेंप सी गईं फिर सोचा कि बहुत दिनों बाद मायके जा रही है, शायद उसी की खुशी झलक रही है.

अगले दिन शेखर को औफिस के लिए विदा कर के अपना काम निबटा कर अनामिका ने मायके जाने के लिए इजाजत मांगी तो सास ने कहा,”मायके पहुंचते ही फोन करना मत भूलना.”

‘हां’ में गरदन हिलाते हुए अनामिका बाहर की ओर चल दी.

ससुराल से मायके का सफर टैक्सी में आधे घंटे से अधिक का नहीं था. लेकिन शाम के 4 बजने को आए थे, अनामिका का अब तक कोई फोन नहीं आया.

सासूमां ने उसे फोन किया तो आउट औफ कवरेज एरिया बता रहा था. फिर उस के मायके का नंबर मिलाया तो पता चला कि अनामिका अब तक वहां पहुंची ही नहीं.

सास के पांवों के नीचे से जमीन खिसकने लगी थी. झट से शेखर को फोन कर के इस बारे में बताया.

औफिस में बैठा शेखर भी घबरा गया। वह भी बारबार अनामिका के मोबाइल पर नंबर मिलाने के कोशिश करने लगा. और कुछ देर बाद जब रिंग गई तो…

“अनामिका, तुम ठीक तो हो न? तुम तो मेरे जाने के कुछ ही देर बाद मायके निकल गई थीं? लेकिन वहां पहुंची क्यों नहीं? घर पर मां परेशान हो रही हैं और तुम्हारी मम्मी भी इंतजार कर रही हैं. आखिर हो कहां तुम?” शेखर एक ही सांस में बोल गया.

“मैं अपने घर में हूं,” उधर से आवाज आई.

“लेकिन अभीअभी तुम्हारी मम्मी से मेरी बात हुई तो पता चला तुम वहां पहुंची ही नहीं.”

“मैं ने कहा… मैं अपने घर में हूं,”आशियाना अपार्टमैंट, तीसरा माला, सी-47,” जोर देते हुए अनामिका ने कहा.

“लेकिन वहां क्या कर रही हो तुम?” हैरानपरेशान शेखर ने आश्चर्य से पूछा.

“यहां नए फ्लैट पर चल रहे आखिरी चरण का काम देखने आई हूं.”

“नया फ्लैट? मैं कुछ समझा नहीं… लेकिन यह सब अचानक कैसे?”

“अचानक कुछ नहीं हुआ, शेखर। जब भी रश्मि दीदी सपरिवार हमारे यहां आती हैं, तो मुझे छोटे घर के कारण अपने मायके जाना पड़ता है. और जब मायके ज्यादा दिन ठहर जाती हूं तो मां पूछ बैठती हैं कि बेटी, और कितने दिन रहोगी?

“एक तो पहले से ही वहां भैयाभाभी और उन के बच्चे मां संग रह कर जैसेतैसे अपना गुजारा करती हैं, ऊपर से मैं भी वहां जा कर उन पर बोझ नहीं बनना चाहती.”

और फिर एक कान से दूसरे कान पर फोन लगाते हुए बोली,”औफिस में मेरे साथ जो डिसूजा मैम हैं उन्होंने ने भी 1 साल पहले इसी अपार्टमैंट में 1 फ्लैट खरीदा था.

“मैं ने उन से इस बारे में जानकारी जुटा कर फौर्म भर दिया और हर महीने अपनी सैलरी का एक बड़ा हिस्सा इस फ्लैट की ईएमआई भरने में लगाने लगी.

“तुम ने भी मेरी सैलरी और उस के खर्च को ले कर कभी कोई हस्तक्षेप नहीं किया, इसलिए इस में तुम्हारा भी बहुत बड़ा योगदान है.”

“अनामिका…अनामिका… प्लीज, ऐसा कह कर मुझे शर्मिंदा मत करो.”

“शर्मिंदा होने का समय गया शेखर… जब मैं किसी सामान की तरह जरूरत के मुताबिक यहां से वहां भेज दी जाती थी. लेकिन आज मैं अपने स्वाभिमान की बदौलत अपने आशियाने में हूं,” कहते हुए अनामिका भावुक हो गई.

महिलाओं को कैरियर बनाने की बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है- गरिमा अरोड़ा, मिसलिन स्टार शैफ

मुंबई के जय हिंद कालेज से पत्रकारिता की पढ़ाई करने के बाद गरिमा ने फील्ड में भी काम किया, लेकिन इस दौरान उन्हें एहसास हुआ कि वे जो कर रही हैं उस में उन्हें मजा नहीं आ रहा.

कैरियर और पैशन को ले कर गरिमा बताती हैं, ‘‘पत्रकारिता के दौरान मैं ने अपने अंदर छिपे कुकिंग के पैशन को पहचाना. दरअसल, कुकिंग से मेरा परिचय मेरे पापा ने बहुत कम उम्र में ही करा दिया था. फिर मैं ने पैरिस के कलिनरी स्कूल से कुकिंग का कोर्स करने का फैसला किया.’’

इस के बाद गरिमा ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा और मिशलिन स्टार हासिल करने वाली भारत की पहिला महिला शैफ बनीं.

शैफ ही बनना था

पैरिस से कोर्स करने के बाद गरिमा ने रैस्टोरैंट्स में काम किया और कुकिंग के साथसाथ इस व्यवसाय की बारीकियों को सीखा. गरिमा कहती हैं, ‘‘मेरे दिमाग में हमेशा यह रहता था कि मुझे शैफ ही बनना है. मुझे कलिनरी की पढ़ाई के दौरान ही यह पता चल चुका था कि कुकिंग बिजनैस में कैरियर बनाना है तो शुरुआत जल्दी करनी होगी. इस के लिए मैं ने काफी रिसर्च भी की.’’

ऐसा नहीं है कि यह यह सब गरिमा के लिए बहुत आसान था. कैरियर की शुरुआत में भी और शैफ बनने के बाद भी चुनौतियां आती रहीं. सब से बड़ी चुनौती को याद करते हुए गरिमा बताती हैं, ‘‘कोविड-19 के समय रैस्टोरैंट को चलाना, स्टाफ को समय से पैसा देना और डाइनिंग में आए नए बदलाव को समझना बेहद मुश्किल था. हमें रेवेन्यू बढ़ाने के नए तरीकों के बारे में जल्दी सोचना था क्योंकि अपनी टीम की जिम्मेदारी भी हमारी ही थी. इस दौर ने हमें यह समझने का मौका दिया कि हम अंदर से मजबूत हैं और चुनौतियों का सामना कर सकते हैं.’’

संघर्ष जैंडर नहीं देखता

गरिमा का कहती हैं, ‘‘पुरुष हो या महिला दोनों के लिए चुनौतियां अलगअलग होती हैं. महिलाओं के जीवन में संघर्ष थोड़ा ज्यादा होता है. उन्हें उन पाबंदियों से भी जूझना पड़ता है जो समाज ने उन के लिए बना दी हैं और जिन मदरहुड और कैरियर के बीच तालमेल बैठाने के लिए उन्हें आज भी कई तरह के समझौते करने पड़ते हैं. महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिए उन के आसपास के लोगों को उन की मदद करनी चाहिए.’’

गा की शुरुआत

हर शैफ का सपना होता है कि उस का अपना बेहतरीन रैस्टोरैंट हो. गरिमा का भी सपना था कि अपनी स्वाद की समझ को एक नई पहचान, एक नया नाम दें. इस तरह शुरू हुआ यानी गरिमा का रैस्टोरैंट.

गरिमा कहती हैं, ‘‘गा का खयाल मुझे अचानक उस समय आया जब मैं थाईलैंड में एक दिन वाक कर रही थी. मुझे थाईलैंड के जायकों में भारतीय खानपान की झलक दिखाई देती थी. फिर जब मुझे रैस्टोरैंट खोलने में मदद करने के लिए इनवैस्टर भी मिल गया तो फिर मैं ने अपने सपने को सच में बदलने का काम शुरू कर दिया.’’

फिटनेस का भी रखें ख्याल

गरिमा अपने पैशन को जीने के साथसाथ अपनी फिटनैस का भी ध्यान रखती हैं. हफ्ते में 5 दिन वर्कआउट करना गरिमा कभी मिस नहीं करतीं. वे हमेशा ऐसे खाने पर प्रयोग करती रहती हैं जो सेहत के लिए अच्छा हो.

गरिमा महिलाओं को संदेश देते हुए कहती हैं, सेहतमंद खानपान शरीर और दिमाग दोनों को मजबूत बनता है और जब ये दोनों मजबूत रहते हैं तो आप की प्रोडक्टिविटी भी बढ़ती है. इसलिए अच्छा बनाएं, अच्छा खाएं और हमेशा फिट रहें.

मास्टर शेफ की जज

गरिमा इन दिनों मास्टरशैफ शो के नए सीजन में बतौर जज नजर आ रही हैं. खास बात यह है कि इस शो के प्रतिभागियों को कुकिंग टिप्स देने के साथसाथ गरिमा उन का हौसला भी बढ़ाती हैं. शो की महिला प्रतिभागी गरिमा को अपना रोल मौडल मानती हैं. वे हमेशा प्रतिभागियों को प्रोत्साहित करते हुए कहती हैं, ‘‘हमारे देश के खाने में जितनी विविधता है उतनी किसी देश के खाने में नहीं. आप लोग इस विविधता को अपनी लगन से अंतर्राष्ट्रीय मंच पर जरूर ले जाएं.’’

मिडिल क्लास लड़की का भविष्य पहले से ही तय होता है- झूलन गोस्वामी, क्रिकेटर

झूलन गोस्वामी का जन्म 25 नवंबर, 1982 को पश्चिम बंगाल के नदिया जिले के चकदाहा शहर में एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था. उन के पिता का नाम निशित गोस्वामी और माता का नाम झरना गोस्वामी है. उन का एक भाई भी है जिस का नाम कुनाल गोस्वामी है. झूलन ने 15 साल की उम्र में क्रिकेट खेलना शुरू किया था. क्रिकेट में शुरुआत करने से पहले वह फुटबाल पसंद करती थीं और खेला करती थीं. झूलन को क्रिकेट में दिलचस्पी तब हुई जब उन्होंने 1992 का क्रिकेट विश्वकप टीवी पर देखा.

इस के बाद 1997 के महिला क्रिकेट विश्वकप का फाइनल मैच जोकि कोलकाता के ईडन गार्डन मैदान पर खेला गया था, उस में झूलन एक बालगर्ल का काम कर रही थी. मैच जीतने के बाद आस्ट्रेलियाई खिलाडि़यों के विक्ट्री लैप को देखने के बाद उन्होंने इस खेल में और अधिक रुचि लेना शुरू किया और भारत के लिए विश्वकप जीतने का सपना देखने लगीं.

उस समय उन के गृहनगर चकदाहा में क्रिकेट खेलने की कोई सुविधा नहीं थी, इसलिए झूलन को लगभग 3 घंटे लोकल ट्रेन में यात्रा कर के कोलकाता आना पड़ता था. उन के कोच सपन साधु बहुत सख्त थे और समय पर मैदान में न पहुंचने पर वह खिलाड़ी को भगा देते थे. लेट आने पर खिलाड़ी को उस दिन की प्रैक्टिस मिस करनी पड़ती थी. सपन झूलन की लंबाई और कलाई के घुमाव से बहुत इम्प्रैस थे. उन्होंने ही झूलन को गेंदबाज बनने की सलाह दी और आज वे विश्व की प्रसिद्ध महिला गेंदबाज हैं.

आसान नहीं था सपना पूरा करना

चकदाहा ऐक्सप्रैस के लिए अपने सपनों को ट्रैक पर उतारना इतना आसान भी नहीं था. झूलन ने अपने सफर को याद करते हुए कहा भी था, ‘‘छोटे कस्बे के मिडिल क्लास परिवार की लड़की का सफर लगभग तय होता है. लेकिन मुझे अपने क्रिकेटर बनने के सपने को पूरा करना ही था. मेरी दादी ने मेरा साथ दिया तो मेरे अंदर हिम्मत आई.

चकदाहा में क्रिकेट की अच्छी सुविधा न होने के कारण मैं कोलकाता स्टेडियम में जाती थी. ट्रेन के सफर के साथ ताने भी सुनने को मिलते थे. फिर रिकशा से स्टेडियम पहुंचती थी. मुझे यह एहसास था कि मैं ने लड़की हो कर सपना देखा है और यदि इसे पूरा करने में नाकाम रही तो शायद फिर समाज की लड़कियों के लिए धारणा सही हो जाएगी कि लड़की को तो घर के काम ही करने चाहिए.’’

कामयाबी की छलांग

साल 2002 में जब झूलन ने चैन्नई में इंगलैंड के खिलाफ अपना पहला एकदिवसीय अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैच खेला, उस समय उन की उम्र मात्र 19 वर्ष थी. उन्होंने 2007 में आईसीसी महिला खिलाड़ी का वर्ष का पुरस्कार जीता. 2008 में वह एशिया कप में एकदिवसीय मैचों में 100 विकेट तक पहुंचने वाली चौथी महिला खिलाड़ी बनीं और वर्ष 2011 में उन्होंने सर्वश्रेष्ठ महिला क्रिकेटर के लिए ‘एम.ए. चिदंबरम ट्रौफी’ जीती. झूलन को जनवरी 2016 में आईसीसी महिला ओडीआई गेंदबाजी रैंकिंग में पहले स्थान पर रखा गया था.

झूलन ने अपना अंतिम टी20 मैच 10 जून, 2018 बांग्लादेश के खिलाफ खेल था और इस के बाद अगस्त, 2018 में उन्होंने टी20 क्रिकेट से संन्यास की घोषणा कर दी. कुल मिला कर झूलन गोस्वामी ने 280 मैचों में 350 अंतर्राष्ट्रीय विकेट लिए हैं और 3 अर्धशतकों के साथ 1922 रन बनाए हैं.

अर्जुन पुरस्कार और पद्मश्री से सम्मानित झूलन गोस्वामी को लीडिंग इंटरनैशनल विकेट टेकर का सम्मान भी हासिल है. आज वे भारतीय महिला क्रिकेट टीम के मुख्य कोच रमेश पोवार के तहत गेंदबाजी सलाहकार के रूप में नियुक्त हैं. झूलन के जीवन और उन की सफलता की कहानी से प्रेरित एक बायोपिक ‘चकदाहा एक्सप्रेस’ बनी है, जिस में अनुष्का शर्मा ने उन की भूमिका निभाई है. इस बायोपिक का निर्देशन सुशांत दास ने किया है. नैटफ्लिक्स पर यह फिल्म 10 मई 2023 को रिलीज होगी.

बेटियों को फाइनैंशियली इंडिपैंडैंट बनाना जरूरी- शिवजीत भारती, आईएएस

हरियाणा के पंचकूला जिले के एक छोटे से गांव जयसिंहपुरा की रहने वाली 29 वर्षीय शिवजीत भारती के पिता गुरनाम सैनी अखबार बेचने का काम करते हैं. एक दिन उन की खुशी का ठिकाना न रहा जब उन्हीं समाचारपत्रों की सुर्खियों में उन की अपनी बेटी का नाम रोशन हो रहा था. गांव की इस बेटी का सलैक्शन पहले ही प्रयास में हरियाणा सिविल सर्विस में हुआ था. वर्तमान में वे चंडीगढ़ में डिप्टी सैक्रेटरी उप सचिव कोपरेशन डिपार्टमैंट सहकारिता विभाग में कार्यरत हैं.

शिवजीत की मां आंगनवाड़ी कार्यकर्ता हैं. शिवजीत भारती ने पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़ से मैथ्स में ग्रैजुएशन और पोस्ट ग्रैजुएशन किया है. आर्थिक तंगी के कारण वे अच्छी कोचिंग प्राप्त नहीं कर पाईं थीं पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. किताबों, पत्रिकाओं, अखबारों और यूट्यूब वीडियोज का सहारा ले कर सफलता पाई. अतिरिक्त कमाई के लिए वे अपने घर पर ही छात्रों को ट्यूशन भी पढ़ाती थीं. 2 महीने पहले उन्होंने लव मैरिज की है. उन के पति भी सिविल सर्विसेज में हैं. पति मध्य प्रदेश के हैं, मगर अब हरियाणा सिविल सर्विस कंपीट कर के भारती के साथ चंडीगढ़ में ही हैं.

आर्थिक मजबूती जरूरी

यह पूछने पर कि वे किन समस्याओं पर सब से पहले ध्यान देना चाहती हैं? तो शिवजीत बताती हैं, ‘‘मैं हरियाणा में सैक्स रेश्यो के इम्प्रूवमेंट के लिए काम करना चाहेंगी जिस में हरियाणा काफी कमजोर है. दूसरी कोशिश ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ के लिए करना चाहेंगी. सोसाइटी में अपनी जगह बनाने के लिए महिलाओं और लड़कियों का आर्थिक रूप से इंडिपैंडैंट होना काफी जरूरी है.

ऐसी महिलाएं बच्चों को भी एक अलग प्रोस्पैक्टिव दे सकती हैं. महिला घर से भी काम कर सकती है. छोटे बिजनैस कर सकती है. इस से महिला का आत्मविश्वास बढ़ता है और परिवार को भी आर्थिक सहयोग मिलता है.’’अपने संघर्ष के बारे में बताते हुए शिवजीत कहती हैं, ‘‘मेरे पिता न्यूज पपेर बेचने का काम करते थे. मां आंगनबाड़ी में काम करती हैं. 1 बहन और 1 भाई और है. भाई स्पैशल चाइल्ड है. हम फाइनैंशियली स्ट्रौंग नहीं थे, मगर मेरे पेरैंट्स सपोर्टिव थे. जब मैं पढ़ाई के लिए दिल्ली गई तो सोसाइटी में सब बोलते थे कि बेटी को इतनी दूर भेज दिया. तब लोग मेरे पिता को समझते थे कि इस की शादी करा दो. मगर मेरे पेरैंट्स ने उन की बातों पर ध्यान नहीं दिया और तभी आज मैं इस मुकाम पर हूं.’’

आज भी महिलाओं के लिए समाज की स्टीरियोटाइप थिंकिंग से पार पाना कितना मुश्किल है? इस सवाल के जवाब में शिवजीत कहती हैं, ‘‘अगर फैमिली खासकर पेरैंट्स सपोर्टिव हैं, आप का हस्बैंड और बौस की सपोर्ट है और आप के अंदर आत्मविश्वास है तो आप हर बाधा पार कर सकती हैं. यही वजह है कि लाख बाधाओं के बावजूद महिलाओं ने खुद को हमेशा प्रूव किया है. महिलाओं में किसी भी परेशानी या दुख से उबरने और कठिनाइयों से लड़ने की क्षमता बहुत अधिक होती है.’’

मां से मिली प्रेरणा

शिवजीत भारती को हमेशा अपनी मां से प्रेरणा मिली है. वे बताती हैं, ‘‘मेरा भाई स्पैशल चाइल्ड है जबकि मां वर्किंग वूमन थीं. वे घर का काम भी करती थीं और जौब भी. मेरे भाई को भी संभालती थीं. यदि किसी के घर में स्पैशल चाइल्ड होता है तो इंसान और सबकुछ भूल जाता है. जौब भी भूल जाता है और दूसरे बच्चों को भी. मगर मेरी मां ने सबकुछ बहुत अच्छे से संभाला.

संदेश

महिलाओं को संदेश देते हुए भारती कहती हैं, ‘‘वे यह न सोचें कि बेटी हैं तो उन की ऐजुकेशन, जौब या ऐंपावरमैंट औप्शनल है. जितना यह सब बेटे के लिए जरूरी है उतना ही बेटी के लिए भी. फाइनैंशियल इंडिपैंडैंस औप्शनल नहीं है. महिलाएं जब पढ़ेंगी और अपने पैरों पर खड़ी होंगी तभी दुनिया बदलेगी, समाज में समानता आएगी.’’

महिला असफल हो जाए तो लोग उस की क्षमता पर सवाल उठाते हैं- विदिशा बथवाल

विदिशा एक बिजनैस फैमिली से आती हैं और उन्होंने बिजनैस की डिगरी भी हासिल की है. उन की शादी भी एक व्यावसायिक परिवार में ही हुई. यही वजह है कि उन के मन में भी अपना खुद का बिजनैस शुरू करने का जनून जगा.

उन्होंने 2011 में पैपरिका की शुरुआत की जिस का उद्देश्य कोलकाता के लोगों को रैस्टोरैंट स्टाइल फैसी कुक्ड मील्स मुहैया कराना था. एक दशक से भी अधिक समय से यह ब्रैंड कोलकाता का प्रीमियम और पसंदीदा गोरमे डैस्टिनेशन बना हुआ है.

विदिशा बताती हैं, ‘‘मैं हमेशा से एक ऐसा व्यवसाय करना चाहती थी जिसे अपना कह सकूं और जिस से मुझे पहचान मिले. मैं शुरू में लंदन में हेज फंड ऐनालिस्ट के रूप में काम कर रही थी. फिर वह नौकरी छोड़ दी और कोलकाता चली गई. वहीं इस बिजनैस का विचार दिमाग में आया.

कई पुरस्कार जीते

पैपरिका के साथ अपने एक दशक के लंबे सफर के दौरान विदिशा ने कई पुरस्कार भी जीते. मसलन, 2012 में गौरमे के क्षेत्र में ‘अपराजिता पुरस्कार,’ 2018 में ‘गो गेटर वाईएफएलओ कोलकाता गौरमंड’, 2018 में ‘जस्ट डायल पैपरिका टेक अवे’ और 2019 में फिक्की द्वारा संजीव कपूर कुकिंग कंपीटिशन में भी पुरस्कार हासिल किया.

क्या आज भी महिलाओं के लिए समाज की रूढि़वादी सोच से पार पाना मुश्किल है? इस सवाल के जवाब में विदिशा कहती हैं, ‘‘लड़कियों को इसी मानसिकता के साथ बड़ा किया जाता है कि युवा होते ही उन की शादी कर दी जाए और उन के बच्चे हो जाएं. फिर सारी जिंदगी घरपरिवार के कामों में उलझे रहें. अगर कोई महिला अपना बिजनैस शुरू करना चाहे तो उस का अपना ही परिवार, दोस्त, रिश्तेदार और समाज के लोग उसे पीछे खींचते हैं. कभीकभी जब एक महिला अपना बिजनैस शुरू करती है और कोई समस्या आती है तो उस की क्षमता पर सवाल उठता है. लोग कहने लगते हैं कि हमें पता था तुम से नहीं होगा.

शाम के बाद लड़की घर से नहीं निकलेगी भले ही उस का कैटरिंग इवेंट मैनेज करने के लिए शाम में जाना जरूरी हो. इस तरह उस के पैर बांधने की कोशिश की जाती है.’’

एक घटना ने बदली जिंदगी

जिंदगी की कोई घटना जिस ने आप के जीवन की दिशा बदल दी हो? इस सवाल के जवाब में विदिशा कहती हैं, ‘‘अपने कैरियर की शुरुआत में मैं ने कोलकाता में एक बौंबे कंपनी की फ्रैंचाइजी ली थी. हालांकि यह अच्छा नहीं चल रहा था और मुझे भारी मन से उस बिजनैस को बंद करना पड़ा. इस निर्णय ने मेरे विजन को और भी मजबूत बना दिया. मैं ने जो भी निवेश कर के बौंबे फ्रैंचाइजी शुरू की थी वह मैं नहीं चाहती थी कि यह बरबाद हो जाए. इसलिए मैं ने उसी से अपना कैटरिंग क्लाउड किचन शुरू किया और फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा.’’

इस फील्ड में कितना कंपीटिशन है? इस के जवाब में वे कहती हैं, ‘‘12 साल पहले जब मैं ने काम शुरू किया था तब से अब तक प्रतिस्पर्धा  काफी बढ़ गई है. बहुत सारे कम उम्र के लड़के हों या लड़कियां इस बिजनैस में आ रहे हैं.  वे प्रौपर ट्रेनिंग ले रहे हैं और प्रोफैशनल शेफ बन रहे हैं. इस से प्रतिस्पर्धा बढ़ती है क्योंकि वे बिजनैस के सभी गुर सीख रहे हैं और अपने स्वयं के कैफे, रेस्तरां खोल रहे हैं जो एक तरह से बहुत अच्छा है.’’

विदिशा कहती हैं, ‘‘हम ने दुबई, संयुक्त अरब अमीरात में इस नाम के साथ कैटरिंग शुरू की. दुबई ने हम पर ढेर सारा प्यार बरसाया और हमारे ब्रैंड का खुले हाथों से स्वागत किया. हम अपनी कैटरिंग पेरुवियन कोरियन और मैक्सिकन तक फैला रहे हैं. मैं रचनात्मकता और जनून में दृढ़ विश्वास रखती हूं और मैं इस बात पर जोर देती हूं कि व्यक्ति को हमेशा ऊंचा लक्ष्य रखना चाहिए. मेरा लक्ष्य भविष्य में रैस्टोरैंट खोलने का है.

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