Sad Story : दर्द की सिलवटें

Sad Story : अवंतिका औफिस में बैठी कुछ फाइलों के बीच अपनी आंखें जमाए हुए थी. बौस का आदेश था कि इन फाइलों का निबटारा जल्द से जल्द कर दिया जाए वरना उस की सैलरी यों ही अटकी रहेगी.

‘‘क्या हुआ अवंतिका? मुंह बना कर फाइलों को क्यों निहार रही हो?’’ अवंतिका के पास कुरसी खींच कर बैठते हुए यामिनी बोली. यामिनी उसी औफिस में काम करती थी.

‘‘क्या बोलूं?’’ अवंतिका ने गहरी सांस खींची, ‘‘इन फाइलों का निबटारा तो मैं कर ही नहीं पाई. पता नहीं कैसे दिमाग से उतर गया. बहुत जरूरी हैं. यदि 2 दिन के अंदर इन्हें सही नहीं किया तो बौस का लौस होगा तो होगा, साथ में मु?ो भी पता नहीं कब सैलरी मिले.

‘‘तुम कितनी तेजी से काम का निबटाती हो न. तुम्हारी मेहनत और काबिलीयत को देख कर ही तो बौस ने तुम्हें यह सब दिया था. अब क्या हुआ. सबकुछ ठीक तो है न.’’

‘‘अरे बाबा, सब ठीक है. वह घर में भी तो काम देखना पड़ता है न. दीप की 10वीं कक्षा की परीक्षा चल रही थी. उसी पर ध्यान देने में व्यस्त रही, इसलिए…’’

‘‘अच्छा चलो, जल्दी से अपना काम

निबटा लो,’’ यामिनी वहां से अपने कैबिन की तरफ चल दी.

शाम के समय औफिस से लौटते हुए अवंतिका सब्जियां आदि खरीदते हुए घर पहुंची. निखिल औफिस से आ चुका था. अवंतिका को देखते ही बोला, ‘‘बहुत सही समय पर आई हो. चलो, जल्दी से चाय पिला दो.’’

‘‘निखिल मैं बहुत थकी हुई हूं. बदन में भी खिंचाव महसूस हो रहा है. दीप को कहती हूं चाय बना कर ले आएगा.’’

‘‘अरे नहीं उसे चाय बनानी नहीं आती. कभी चायपत्ती अधिक डाल देता है तो कभी चीनी. चाय पीने का मजा किरकिरा कर देता है,’’  निखिल बोला.

‘‘ऐसा बिलकुल नहीं है. अब उसे मात्रा आदि समझा दी है. अच्छी चाय बना लेगा,’’ कह कर अवंतिका ने अपने बेटे दीप को चाय बनाने के लिए कहा.

अवंतिका मेहनती और टेलैंटेड महिला थी. उसे कुछ वर्ष ही हुए थे एक मल्टी नैशनल कंपनी में नौकरी करते. निखिल बैंक में कैशियर के पद पर कार्यरत था. अवंतिका के 2 बच्चे थे श्रुति और दीप. श्रुति 7वीं कक्षा में पढ़ रही थी और दीप 10वीं बोर्ड की परीक्षा दे दी थी. शुरुआती दिनों में सिंगल फैमिली होने के कारण अवंतिका ने एक गृहिणी बने रहना मंजूर किया था. लेकिन बच्चे जब बड़े होने लगे और अपनी पढ़ाई और दोस्तों में उन की व्यस्तता बढ़ने लगी तो अवंतिका को घरगृहस्थी के कामों के बाद खाली समय में अकेलापन महसूस होने लगा. निखिल भी अपने बैंक से लौटने के बाद शाम का समय दोस्तों के बीच ठहाके लगाने में बिताता. बैंक से आने के बाद शाम की चाय पी कर निखिल अपनी मित्र मंडली में जा बैठता. फिर तो उन के ठहाके और मनोरंजन का दौर थमता ही नहीं था. रात के 8-9 के पहले वह घर नहीं आता.

ऐसे में अवंतिका ने एक मल्टी नैशनल कंपनी जौइन कर ली. व्यस्त दिनचर्या के साथ हाथ में सैलरी मिलने से उसे सुखद अनुभूति होने लगी. अब उसे छोटीमोटी जरूरत के लिए भी निखिल पर आश्रित नहीं रहना पड़ता. अपनी मेहनत और कार्यकौशल से उस ने औफिस में खास पहचान बना ली थी. लेकिन इधर कुछ समय से वह अपने कार्य को ले कर पहले जैसी तत्परता और सक्रियता नहीं दिखा पा रही थी. घर की जिम्मेदारी पहले की ही तरह निभा रही थी, उस पर औफिस का काम.

रात का खाना बनाने के बाद अवंतिका टेबल पर खाना लगा रही थी, ‘‘श्रुति, जरा खाना सर्व करो और दीप तुम पीने के लिए पानी ले आओ. आज मैं बहुत थकी हुई महसूस कर रही हूं. ज्यादा देर नहीं बैठ पाऊंगी. जल्दी से खा कर सोने जा रही हूं. तुम लोग खाना खा कर जूठे बरतन सिंक में डाल देना.’’

अगली सुबह फिर से पूरा परिवार अपनेअपने काम में व्यस्त हो गया. श्रुति और दीप अपनी पढ़ाई और दोस्तों के बीच तो निखिल भी दिन में ड्यूटी और शाम में दोस्तों के साथ मस्ती में व्यस्त रहते. अवंतिका समय पर औफिस पहुंच चुकी थी. उसे अभी भी 2 फाइलों के काम निबटाने थे और कल तक बौस की टेबल पर देनी थीं.

‘‘गुड मौर्निंग अवंतिका. और कहो, तुम्हारा पैंडिंग वर्क पूरा हो गया?’’ यामिनी ने पूछा.

‘‘नहीं यार, अभी तो 2 फाइलें बाकी हैं और कल सुबह तक बौस को टेबल पर चाहिए. प्लीज, जरा मेरी हैल्प कर दो न.’’

‘‘यह भारीभरकम उलझी फाइलों में सिर खपाना मेरे वश की बात नहीं, वह भी प्रैशर में. तुम्हें ध्यान नहीं शायद लेकिन यह सब तुम्हारी प्रतिभा के कारण मिला है. और दिखाओ बौस को अपनी प्रतिभा और काबिलीयत,’’ यामिनी टोंट करते हुए हंस दी.

‘‘देखो मजाक का वक्त नहीं है. तुम्हें पता है न बौस ने मु?ो इस महीने की सैलरी नहीं दी है?  वे भी मेरी लापरवाही से नाराज हैं. यदि औफिस का नुकसान हुआ तो पूरी सैलरी खतरे में पड़ जाएगी. अब गंभीर बनो और कुछ रास्ता सुझाओ.’’

‘‘ओके, तुम अतुल की मदद ले लो.’’

‘‘कौन. वह लड़का जिस ने अभी कुछ महीने पहले ही कंपनी जौइन की है? उस नौसिखिए से क्या मदद लूं?’’

‘‘शायद तुम उसे ठीक से जानती नहीं हो. वह भी दिमाग का तेज है और युवा है तो काम के लिए उत्साह भी खूब भरा रहता है. पता है, पिछले महीने उस ने अमन की मदद की थी.’’

यह सुन अवंतिका अतुल से मदद लेने को तैयार हो गई. शाम होने लगी थी. अवंतिका ने अतुल को दोनों फाइलें दे कर काम समझा दिया और अगले दिन ले कर आने को कहा.

घर पहुंचने के बाद अवंतिका अपनी गृहस्थी वाले रूटीन वर्क  में लग गई तभी…

‘‘ऊफ… फिर से पीरियड भी न…’’

पिछले कुछ महीनों से अवंतिका के पीरियड्स थोड़ा असामान्य हो गए थे. इस दौरान वह शारीरिक कष्ट को भी ?ोलने लगी थी. उस ने सोचा कि वर्क लोड और अनियमित खानपान के कारण यह सब हो रहा होगा. वह अपने पीरियड्स को ले कर कुछ विशेष चिंता नहीं करती. वैसे भी लोग कहते हैं कि 40+ की महिलाओं में माहवारी को ले कर कुछनकुछ समस्या रहती ही है.

औफिस का काम तो निबट गया. उसे राहत मिली. लेकिन पीरियड्स के दौरान होने वाले शारीरिक कष्ट शुरू हो गए. इसलिए अवंतिका खाना खा कर जल्दी से बैड पर आराम करने चली गई. हौट फ्लैश और पेड़ू कमर के दर्द से परेशान अवंतिका बिस्तर पर आते ही निढाल हो गई. निखिल भी कुछ देर के बाद बैडरूम में आ चुका था. वह रात की बेला में रूमानियत महसूस कर रहा था. बिस्तर पर लेटी अवंतिका किसी हुस्न परी का एहसास करा रही थी. निखिल अवंतिका के समीप आया है और उसे स्पर्श करते हुए अपने पास खींचने की कोशिश करने लगा.

‘‘नहीं निखिल, तबीयत बिलकुल ठीक नहीं है. हौट फ्लैश से परेशान हूं. मुझे आराम करने दो.’’

‘‘यह क्या हो गया है तुम्हें? जब देखो तब तबीयत खराब या थकान का बहाना करती रहती हो. औफिस जाने के लिए तुम तो एकदम तंदुरुस्त हो जाती हो. है न?’’

‘‘तुम कैसी बातें कर रहे हो. मेरी थकान, मेरी खराब तबीयत तुम्हें नाटक लगता है?’’

‘‘और नहीं तो क्या. मैं देख रहा हूं कि कुछ महीनों से तुम घरपरिवार पर पहले की तरह ध्यान नहीं दे रही हो और मुझ पर तो बिलकुल भी नहीं. कभी तबीयत खराब, कभी थकान, कभी पीरियड्स… तुम मुझ से दूर होती जा रही हो.’’

‘‘तुम कहना क्या चाहते हो निखिल? मैं दोहरी जिम्मेदारी निभा रही हूं. घरपरिवार देखते हुए जौब भी कर रही हूं.’’

‘‘जिम्मेदारी? हुंह,’’ कह निखिल बिस्तर पर एक तरफ मुंह घुमा कर सो गया.

मगर अवंतिका की आंखों में नींद गायब हो गई. उसे निखिल की बातें चुभ गईं. वह जौब करने के लिए तब घर से बाहर निकली जब बच्चे थोड़े बड़े हो गए थे. निखिल भी तो अपनी दुनिया में व्यस्त रहता है. दोस्तों के साथ मस्ती भरे पल बिताता है.

‘‘क्या मेरी जरूरत सिर्फ घर के काम और बिस्तर तक ही सीमित है?’’ अचानक अवंतिका के मन में यह विचार कौंध गया और उस की आंखें डबडबा गईं.

अवंतिका थोड़ी चिड़चिड़ी होने लगी थी. निखिल को अवंतिका से शिकायत रहती. वहीं अवंतिका को निखिल से सम?ादारी की उम्मीद. उस की जिंदगी इसी तरह गुजरते जा रही थी. उस के मातापिता कुछ वर्ष पहले गुजर गए थे. एक भाई था तो वह भी विदेश में सैटल हो चुका था जो उस की कोई खोजखबर नहीं लेता. ससुराल में सासससुर भी नहीं थे. लेकिन ससुराल के नातेरिश्तेदार यदाकदा अपनी उपस्थिति दर्ज कराते रहते, वह भी निखिल के लिए. अवंतिका को ससुराल पक्ष के रिश्तेदार हेय दृष्टि से देखते.

वे कहते, ‘‘इस का तो न मायका है न भाई पूछने वाला. हम न पूछें तो इसे कोई न पूछे. मरने पर कोई कफन देने वाला भी न मिले.’’

अवंतिका सब की बातों को सुनती और खून का घूंट पी कर रह जाती. मन में सोचती कि सही वक्त पर इस का जवाब देना उचित होगा. यही कारण था कि बच्चों के साथ वह अपने काम के प्रति भी पजैसिव हो गई थी. हालांकि उसे न तो प्रोत्साहन मिलता और न ही सपोर्ट. लेकिन वह खुद को काम में व्यस्त रखती.

औफिस में अवंतिका को यामिनी के रूप में एक अच्छी साथी तो मिली ही. लेकिन अब अतुल के रूप में भी उसे एक समझदार दोस्त मिल गया था. उम्र में वह अवंतिका से छोटा जरूर था मगर था बहुत समझदार और सहयोगी व्यवहार वाला. तभी तो उस ने अवंतिका के बिखरे काम को समेटने में मदद की. अवंतिका ने पैंडिंग फाइलें समय पर पूरी कर बौस को दे दीं.

काम को सही तरीके से करने के लिए बौस ने अवंतिका की तारीफ की, ‘‘वैरी गुड. रियली दैट्स नाइस. मुझे मालूम था कि तुम इसे पूरा कर लोगी. मैं तुम्हारी काबिलीयत को जानता हूं. लेकिन पता नहीं क्यों तुम इधर काम के प्रति थोड़ी लापरवाह होने लगी थी.’’

‘‘थैंक यू सर. दरअसल बेटे का 10वीं कक्षा का ऐग्जाम था तो उस पर ध्यान देने के चक्कर में यह काम दिमाग से उतर गया था. मेरी कोशिश रहेगी कि आइंदा ऐसा न हो.’’

‘‘चलो, कोई बात नहीं. मैं ने तुम्हारी सैलरी पास कर दी है और साथ में कुछ बोनस भी. अब एक बात ध्यान से सुनो, एक बड़े प्रोजैक्ट पर काम होने वाला है. उस में तुम मेरे साथ रहोगी. यदि तुम ने अपनी मेहनत से अच्छा कर दिखाया तो तुम्हारी प्रमोशन पक्की. मुझे पूरा विश्वास है कि तुम मुझे निराश नहीं करोगी.’’

‘‘थैंक यू वैरी मच सर. मैं हार्ड वर्क से पीछे नहीं हटने वाली. मेरी पूरी कोशिश रहेगी कि मैं आप की उम्मीदों पर खड़ी उतरूं.’’

अवंतिका नए काम को पा कर बहुत खुश थी. उसे अब पूरी तरह से अपने नए प्रोजैक्ट पर फोकस करना था. उसे अपनी प्रमोशन के सपने खुली आंखों से दिखने लगे थे. लेकिन उस के इस उत्साह में निखिल का साथ बिलकुल नहीं मिल पा रहा था. अवंतिका निखिल से यह उम्मीद करने लगी थी कि घर की जिम्मेदारियों में निखिल थोड़ा सहयोग करे जिस से उसे अपना काम करने में सहूलियत हो. लेकिन निखिल का रवैया पहले जैसा ही था.

उस के रिश्तेदार भी निखिल से कहते, ‘‘देखा, सासससुर के न रहने पर कैसे अपने पंखों को फैला रही है. अब घरपरिवार उसे कहां से रास आएगा. मातापिता के रहते तुम से किसी ने घर में कोई काम करवाया? लेकिन देखो, अब महारानी तुम्हें गृहस्थी के कामों में उलझना चाहती है. सावधान रहना, तुम भी तो नौकरी करते हो.’’

निखिल शुरू से अवंतिका को कम और रिश्तेदारों को अधिक महत्त्व देता रहा. लेकिन अवंतिका सामंजस्य स्थापित कर के रिश्ते को निभाने की कोशिश करती रहती. अभी वह चाहती थी कि निखिल शाम के वक्त घर पर बच्चों को समय दे या सब्जी आदि खरीद कर ले आए.  लेकिन वह अपने दोस्तों के बीच रहना अधिक जरूरी समझौता. कहता, ‘‘मेरी भी तो अपनी लाइफ है. ड्यूटी से आ कर दोस्तों के साथ मन बहलाना भी जरूरी है नहीं तो सारा समय कामकाम और बस काम.’’

‘‘लेकिन निखिल, मेरी स्थिति भी समझ. एक अच्छा अवसर हाथ में आने वाला है. मैं इस गोल्डन मौके को गंवाना नहीं चाहती. मुझे घर के कामों में थोड़ा सहयोग कर दो ताकि इस प्रोजैक्ट को बेहतर मन से कर पाऊं.’’

‘‘तुम ने यह सब क्यों चुना? घरपरिवार ज्यादा जरूरी है. तुम्हें तो पता है, शुरू से मैं स्वच्छंद रहा हूं. मांबाबूजी ने बड़े प्यार से पाला है. ऊपर से किसी भी रिश्तेदार के घर जाता हूं तो बैठेबैठे आवभगत होती है. ऐसे में मुझे घर में कुछ करने की जरूरत नहीं पड़ी. यदि तुम से नहीं हो पा रहा तो प्रोजैक्ट छोड़ दो.’’

‘‘छोड़ दो,’’ अवंतिका को निखिल की बात बुरी लगी. वह मन ही मन सोचने लगी कि क्यों हर बार हर चीज स्त्री को ही छोड़नी पड़ती है ताकि गृहस्थी सुचारु रूप से चल सके. लड़की मायके और वहां से जुड़ी हर बात छोड़ कर आती है ससुराल में. एक नए रूप और अस्तित्व के साथ ससुराल में रहती है. सभी के साथ सामंजस्य स्थापित करने में न जाने कितना कुछ छोड़ती चली जाती है. इस सब के बावजूद क्या वह एक अपनी खुशी या सपने को ले कर आगे नहीं बढ़ सकती? आज जिस काम से उसे खुशी मिल रही है, उस का वजूद निखर रहा है, उसे भी वह छोड़ दे ताकि पारिवारिक जिम्मेदारियां सही से निभा पाए? माना कि निखिल प्यार में पला, कभी कोई जवाबदेही नहीं उठाई. मगर अभिभावक और घर का मुखिया बनने के बाद भी उस में जिम्मेदारी का भाव नहीं आना चाहिए? एक पति और हमसफर के तौर पर क्या उसे अपनी पत्नी का सहयोग नहीं करना चाहिए? आखिर मैं भी तो बचपन से ही जिम्मेदारियां उठाने की आदी नहीं?

तरहतरह की बातें मन में सोचते हुए अवंतिका खुद से ही जाने कितने सवाल पूछ बैठी. फिर भी, मन ही मन सोचा है कि यह मौका हाथ से नहीं जाने दूंगी. जिस को जैसे चलना है चले. मैं भी अपनी मेहनत बढ़ा दूंगी. एक बार प्रमोशन हो जाए बस.’’

अवंतिका निखिल के व्यवहार और दूसरों की सोच को दरकिनार करते हुए अपने काम में लगी रहती. बच्चों से भी कुछ काम में हाथ बंटाने का आग्रह करती ताकि उसे थोड़ा सी सपोर्ट मिल जाए. उस ने अपनी मेहनत बढ़ा दी लेकिन जल्दीजल्दी होने वाले पीरियड्स के कारण परेशान भी होने लगी थी. महीने में एक बार होने वाला कभीकभी 2 बार भी होने लगा. इस दौरान वह शारीरिक, मानसिक कष्ट महसूस करती. उसे बातबात पर गुस्सा भी आने लगा था. लेकिन निखिल उस की परेशानी समझाने के बजाय उस पर बरस पड़ता. इन सब की वजह से अवंतिका का कार्य भी प्रभावित होने लगा.

यामिनी ने अवंतिका की परेशानी को देख कर उसे डाक्टर से मिलने की सलाह दी. डाक्टर ने अवंतिका को बताया कि वह मेनोपौज के दौर से गुजर रही है. कभीकभी किसी को समय से पहले भी मेनोपौज हो जाता है. ऐसे में चिड़चिड़ापन, नकारात्मक सोच, थकान, कमजोरी आदि शारीरिकमानसिक दिक्कतें होनी सामान्य बात है. उसे अभी अपने सही खानपान के साथ सकारात्मक खुशहाल माहौल बनाए रखना भी जरूरी है. आवश्यक दिशानिर्देश और दवाइयां देने के साथ डाक्टर ने अवंतिका को मेनोपौज के संबंध में विस्तार से समझाया.

अवंतिका ने अपनी परेशानी निखिल से साझा की है. उसे उम्मीद थी कि यह सब जान कर निखिल को अब कोई शिकायत नहीं होगी बल्कि वह अपनी पत्नी की परेशानियों को समझाते हुए उस को मानसिक मजबूती प्रदान करेगा. लेकिन अवंतिका की सोच यहां उलटी पड़ गई. निखिल ने अवंतिका और डाक्टर की बातों को अधिक महत्त्व नहीं दिया.

‘‘यह सब क्या नई बातें ले कर बैठ गई? मासिकचक्र कोई नई बात है क्या? महिलाओं के लिए तो यह आम बात है. अब जा कर तुम्हें मनोवैज्ञानिक पहलू समझ में आने लगा? यह सब ज्यादा पढ़लिख जाने के कारण है. नौटंकी तो ऐसे कर रही हो जैसे कोई बहुत बड़ी बीमारी हो गई है. हुंह.’’

निखिल की बात से अवंतिका एक बार फिर खीझ गई. वह मन ही मन सोचने लगी कि चाहे जो हो मुझे हिम्मत से काम लेना होगा. भावनात्मक सहारा मिले न मिले लेकिन अपने अंदर सकारात्मक ऊर्जा को जरूर भरना होगा. समय के ऊबड़खाबड़ रास्ते पर अवंतिका के जीवन की गाड़ी यों ही बढ़ते जा रही थी. इधर औफिस के साथ घर की जिम्मेदारियां पूरा करते हुए अवंतिका मेनोपौज के दौर से भी गुजर रही थी. निखिल का रूखा व्यवहार पतिपत्नी के रिश्ते में खटास भरने का काम करने लगा था. अवंतिका को ऐसे में अपने मातापिता की बहुत याद आती कि काश वे होते तो उन से कुछ अपना दुख बांट लेती.

यामिनी ने अवंतिका की परेशानियों को समझाते हुए उसे पुन: सलाह दी कि प्रोजैक्ट में अतुल को शामिल कर के उस की मदद ले ले. कुछ तो राहत मिलेगी और यह बात उन तीनों तक ही रहेगी, बौस को जानकारी नहीं होने देंगे.

अवंतिका को यामिनी की बात जंच गई. उस ने इस नए प्रोजैक्ट में अतुल को अपने साथ मिला लिया. अतुल अवंतिका की बड़ी इज्जत करता था. सहयोगी व्यवहार के कारण वह एक बार फिर अवंतिका के काम में सहयोग करने के लिए तैयार हो गया.

अब अवंतिका ने थोड़ी राहत की सांस ली. काम को ले कर अतुल और अवंतिका की बातचीत औफिस के बाद घर पर भी फोन से होने लगी. निखिल को यह बात भी खटकने लगी. अवंतिका निखिल की इस मानसिक सोच से अनभिज्ञ अपनी दिनचर्या में मसरूफ थी. घर आने के बाद भी अतुल का काम के सिलसिले में कभी कौल तो कभी मैसेज आ जाता. इस बार का प्रोजैक्ट बड़ा महत्त्वपूर्ण था और अवंतिका कोई गलती नहीं करना चाहती थी. इसलिए 1-1 बारीकी पर वह अतुल से बात करती.

अतुल के सहयोग से अवंतिका का काम आसान तो हो गया मगर निखिल के साथ रिश्ते कठिन होने लगे.

एक शाम अवंतिका रसोई में खाना बना रही थी कि तभी अतुल का फोन आया. प्रोजैक्ट फाइल में कहीं कुछ मिसिंग था. उस को ले कर वह अवंतिका से कुछ जरूरी चीज पूछने लगा. उस में से मैटर बताने के लिए अवंतिका हौल की तरफ बढ़ गई और वहीं बैठे निखिल को गैस पर चढ़ी सब्जी देखने को बोल दिया.

इधर अवंतिका फाइल समेट कर वापस रसोई में आई तो सब्जी जल चुकी थी. वह निखिल से अपनी बात बोली तो उस ने न सुनने की बात कह कर पल्ला झाड़ लिया. ऊपर से अवंतिका पर ही बरसने लगा, ‘‘मैं देख रहा हूं कि तुम्हें अब कोई और भाने लगा है. घर की जिम्मेदारी तो छोड़ो अब खाना बनाने में भी मन नहीं लग रहा है. सीधेसीधे बोल दो कि तुम स्वतंत्र होना चाहती हो.’’

‘‘निखिल, तुम यह क्या बोल रहे हो? बच्चे क्या कहेंगे यह सब सुन कर? मैं तुम्हें सब्जी देखने के लिए बोल कर फाइल देखने चली गई थी.’’

‘‘अच्छा, तुम्हें नहीं दिखा कि मैं क्रिकेट मैच देख रहा हूं?’’

‘‘यदि तुम्हें नहीं देखना था तो बोल देते, मैं बच्चों को बोल देती. खैर, बात खत्म करो. आइंदा मैं बच्चों से ही बोल कर कुछ सहयोग ले लिया करूंगी.’’

‘‘हांहां, ले लो बच्चों का सहयोग. तुम नौकरी करो और बच्चों की पढ़ाई छुड़वा कर उन से घर के काम करवाओ.’’

‘‘अब इस में पढ़ाई छुड़वाने की बात कहां से आ गई? घर में छोटेमोटे कुछ काम देख लेने से उन की पढ़ाई छूट जाएगी? कितने बच्चे शहरों में अकेले रह कर पढ़ाई करते हैं. वे अपना काम खुद करते हैं.’’

अवंतिका समझ कर बात खत्म करना चाहती थी. लेकिन निखिल का गुस्सा 7वें आसमान पर था. उस दिन की तकरार से अवंतिका का मन टूट गया. उस ने एक पल को औफिस छोड़ने का मन बना लिया. अगले दिन औफिस में अवंतिका ने अतुल से प्रोजैक्ट पर काम करना बंद करने के लिए कहा. यह सुन कर अतुल चौंक गया. तब अवंतिका ने उसे अपनी पारिवारिक समस्याएं बताईं.

अतुल ने समझाया, ‘‘अवंतिकाजी, बड़ी सफलता के लिए कड़ी मेहनत के साथ संघर्ष भी करना पड़ता है. आप संघर्ष करते हुए सफलता के करीब आने वाली हैं. ऐसे में जौब छोड़ने का फैसला गलत होगा.’’

अब तक यामिनी भी अवंतिका के पास आ चुकी थी और सारी बातें जानने के बाद उस ने भी अवंतिका को जौब न छोड़ने की सलाह दी.

एक तो अवंतिका मेनोपौज के दौर से गुजर रही थी उस पर निखिल का व्यवहार. औफिस में महत्त्वपूर्ण प्रोजैक्ट उस के कैरियर को एक टर्निंग पौइंट देने वाला बन चुका था इसलिए अतुल और यामिनी की बात मान कर अवंतिका अपने काम और पारिवारिक परिस्थितियों में सामंजस्य रखने की सोची. यामिनी और अतुल यह सुन कर मुसकरा दिए.

‘‘दैट्स लाइक ए गुड गर्ल. देखो अवंतिका, मेनोपौज के दौर से गुजर रही महिलाओं की मानसिकशारीरिक स्थिति कुछ अलग होती है, लेकिन बेहतर खानपान और योग के द्वारा इन स्थितियों से निबटा जा सकता है. तुम वादा करो, किसी भी सिचुएशन में खुद को कूल रखोगी.’’

यामिनी की बात सुन कर अवंतिका ने स्वयं को कूल रखने का वादा किया. प्रोजैक्ट को 3-4 दिन में पूरा कर लेना था. निखिल के व्यवहार को देखते हुए अवंतिका ने तय किया कि वह औफिस से 1 घंटा लेट निकलेगी. यहीं अतुल के साथ बैठ कर काम का निबटारा कर लेगी ताकि घर जा कर प्रोजैक्ट वर्क पर बात करने की जरूरत न पड़े. अतुल भी इस बात को सही माना.

2-3 दिन अवंतिका औफिस से घर लेट पहुंची तो निखिल अवंतिका पर शक करने लगा. उस ने औफिस से जानकारी ली तो अतुल और अवंतिका के लेट तक रुकने का पता चला. निखिल का गुस्सा 7वें आसमान पर पहुंच गया लेकिन अपने क्रोध को छिपाते हुए उस ने एक शाम अतुल को बहुत जरूरी काम बोल कर बहाने से घर बुलाया.

‘‘अतुल इस आमंत्रण को सम?ा न सका. लेकिन उस ने निखिल के घर जाने का निर्णय लिया. अतुल को घर बुलाने के बाद निखिल ने उस को खूब फटकार लगाई और अवंतिका से दूर रहने की चेतावनी दी.

‘‘यह आप क्या कह रहे हैं? हमारे लिए आप के मन में क्या चल रहा है?’’ अतुल ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘मेरे मन में नहीं तुम्हारे मन में चल रहा है और वह भी अवंतिका के लिए. तुम्हें शर्म नहीं आती किसी की गृहस्थी को बरबाद करते?’’ निखिल गुस्से में बोला.

‘‘निखिलजी आप बहुत गलत सोच रहे हैं. ऐसा कुछ भी नहीं है. मैं अवंतिकाजी की बहुत इज्जत करता हूं,’’ अतुल ने सम?ाने का प्रयास किया.

अवंतिका निखिल के इस रवैए से बहुत गुस्सा हुई. अतुल के सामने ही अवंतिका और निखिल में अच्छीखासी बहस हो गई.

गुस्से में निखिल ने अवंतिका से कहा,  ‘‘ठीक है, तुम दोनों के बीच यदि कुछ भी गलत नहीं है तो अभी मेरे सामने तुम अतुल को राखी बांधो और इसे अपना भाई बना कर दिखाओ.’’

‘‘निखिल तुम इतनी गिरी हुई सोच के हो जाओगे यह मैं ने कभी नहीं सोचा था. मुझे तुम से नफरत हो गई है. क्या एक स्त्री और पुरुष मित्रवत व्यवहार के साथ नहीं रह सकते?’’

‘‘तुम बात घुमाने की कोशिश मत करो. अभी इसे राखी बांध कर इसे अपना भाई मानो.’’

अतुल भी निखिल के व्यवहार से क्रुद्ध हो गया है. लेकिन खुद को सामान्य बनाते हुए बोला, ‘‘अवंतिकाजी, आप इन की बात मान लीजिए. आप मेरी कलाई पर धागा बांध कर मुझे भाई के रूप में स्वीकार कीजिए.’’

अवंतिका अतुल की बात सुन कर कुछ बोलती उस से पहले ही अतुल ने फिर से अपनी बात दोहराई. अवंतिका को माहौल शांत करने का यही एकमात्र रास्ता नजर आया. वह मौली उठा कर ले आई और उसे अतुल की दाहिनी कलाई पर राखी के रूप में बांध दिया.

कलाई पर मौली बंधवाने के बाद अतुल अपने क्रोधावेग को बढ़ाते हुए बोला, ‘‘सुनो निखिल, मैं तुम्हें चेतावनी देता हूं कि इसी पल से तुम अवंतिका के साथ न तो बुरा बरताव करोगे और न ही उसे किसी प्रकार का मानसिक कष्ट देने की कोशिश करोगे. अभी से यह मेरी बड़ी बहन है और यदि उस की आंखों में तुम्हारी वजह से आंसू आए तो मु?ा से बुरा कोई न होगा. याद रखना यह अवंतिका के भाई की चेतावनी है.’’

निखिल अतुल का यह रूप देख कर अवाक रह गया. वे इस प्रकार के जवाब की बिलकुल उम्मीद नहीं की थी. आगे वह किस बात पर बहस करे?

उस को चुप देख कर अतुल बोला, ‘‘मैं अवंतिकाजी को बड़ी बहन के रूप में ही इज्जत करता था लेकिन आज तुम ने हमारे रिश्ते को इस धागे से मजबूत बना दिया है. अब यह मत सम?ाना कि अवंतिका अकेली है. मैं इस का भाई सदैव इस के लिए खड़ा रहूंगा. चलता हूं अवंतिकाजी अपना खयाल रखिएगा और हां, आप को अपने काम पर पूरा फोकस करना है. यह प्रमोशन का अवसर आप के हाथ से जाने न पाए. अब मैं चलता हूं.’’

अतुल वहां से जा चुका था मगर निखिल के पैर अब भी जस के तस ठिठके थे.

‘‘आज तुम ने विश्वास की आखिरी डोर को भी तोड़ दिया. तुम ने मुझे जो दर्द की सिलवटें दी हैं वे हृदय में जीवनभर चुभती रहेंगी. निखिल, भले ही मैं यहां इस घर में रहूंगी वह भी अपने बच्चों की खातिर मगर मेरे मन में तुम्हारे लिए

न तो पहले जैसी भावना रहेगी और न इज्जत. अपनी गंदी सोच से गृहस्थीरूपी

प्रेमालय को तुम ने मैला कर दिया है. तुम न तो अपनी जिम्मेदारियां समझ सके और न ही अपनी पत्नी को,’’ कह कर अवंतिका गुस्से से कमरे में चली गई और निखिल वहीं खड़ा अपनी सोच पर पछतावा करता रहा.

Latest Hindi Stories : बुलडोजर – कैसे पूरे हुए मनोहर के सपने

Latest Hindi Stories :  मनोहर की आंखों में बड़ेबड़े सपने थे, मगर उस की पढ़ाई बीच में ही छूट गई थी. आटोमोबाइल में आईटीआई पास करने के बाद वह जेसीबी मशीन औपरेटर बन गया था. दरअसल, मनोहर ने अपने टीचर के एक भाई राम सिंह से जेसीबी मशीन चलाना सीखा था. वक्त का मारा मनोहर अपने 3 छोटे भाईबहनों और मां की परवरिश की खातिर राम सिंह का सहायक लग गया था. आईटीआई का प्रमाणपत्र उस के पास था. मगर नौकरी कब मिलती, पता नहीं. उन के ठेकेदार ने उस की अच्छी कदकाठी देखी, जेसीबी मशीन चलानेसमझने का हुनर देखा और उसे काम मिलने लगा, जिस से उस के घर की माली हालत सुधरने लगी थी. भाईबहनों की परवरिश और पढ़ाई से अब मनोहर निश्चिंत था. मां का पार्टटाइम काम छुड़ा कर उस ने चैन की सांस ली थी. एक दिन अचानक मनोहर को एक दूरदराज के गांव में जाने का मौका मिला. ठेकेदार का आदमी उसे गाड़ी में बिठा कर पहले ही साइट दिखा गया था. सो वह निश्चिंत था. अपनी धीमी मगर मस्त चाल से चलते जेसीबी मशीन को वहां पहुंचतेपहुंचते शाम हो गई. खेतों के बीच एक जगह पर ईंट का भट्ठा बनाने की तैयारी चल रही थी. मनोहर को वहां मिट्टी की खुदाई करनी थी. उस के पीछे ही एक इंजीनियर के साथ ठेकेदार आया और उसे गड्ढे का नापजोख समझाने लगा.

मनोहर भी खेत में उतर कर कहे मुताबिक मिट्टी काटने लगा. थोड़ी देर बाद ही वे सब वापस चले गए. अब वहां कोई नहीं था. उस ने सोचा कि क्यों न एकाध घंटे काम और कर लिया जाए, सो वह मिट्टी काटने में रम गया. अचानक मनोहर का ध्यान उस जगह की तरफ गया, जहां की मिट्टी थोड़ी भुरभुरी थी. थोड़ा और खोदने पर उसे एक बोरा दिखाई दिया. उस बोरे में कुछ चीजें थीं. वह मशीन से उतरा और मिट्टी के ढेर से बोरा बाहर निकाला. उस बोरे में एक साड़ी, चादर और कुछ जेवरात भी थे, जिन की चमक से उस की आंखें चुंधियां गईं. पुराने डिजाइन की एक भारीभरकम सोने की चेन, सोने की ही 4 चूडि़यां और कान के बुंदे थे. साड़ी में लहू के छींटे लगे थे, जो अब कत्थई हो चुके थे. मनोहर को कुछ समझ नहीं आया कि इस बोरे से मिली चीजों का क्या करे. फिर भी उस ने उन्हें वहीं वापस गाड़ दिया कि ऐसे खतरे की चीजें अपने पास रखने पर वह भी फंस सकता है. ठेकेदार ने वहीं एक झोंपड़ी बना कर मनोहर के रहने का इंतजाम किया था, सो उसे कहीं जाना तो था नहीं.

अब मनोहर क्या करे? यह एक बड़ा सवाल था. यहां से शहर और पुलिस चौकी भी काफी दूर थे. अचानक मनोहर ने देखा कि एक लड़की अकेले जा रही थी. मनोहर ने उस लड़की से बात की, ताकि नजदीक के गांव के बारे में कुछ जान सके. बातोंबातों में उसे पता चला कि वह बीए की छात्रा थी. हाल ही में उस के इम्तिहान खत्म हुए थे. अभी वह किसी काम से शहर से गांव लौट रही थी. बहुत कुरदने पर उस लड़की ने बताया कि वह पुलिस स्टेशन गई थी, क्योंकि उस की विधवा मां एक हफ्ते से लापता थी. वह निकट के गांव में उस के साथ अकेली रहती थी. रिश्तेदारों के साथ उन लोगों का जमीन का कुछ झगड़ा था. पहले तो उन लोगों ने गांव में उन की जमीन दबा कर अपना मकान बढ़ा लिया था और अब वे उन के खेत हथियाना चाहते थे. उस लड़की को पूरा शक था कि उन लोगों ने ही उस की मां को गायब कर दिया है. पुलिस भी उन से मिली हो सकती है, ऐसा भी शक था.

उस लड़की का नाम सीमा था. अपनी पढ़ाई पूरी कर के वह गांव के ही एक स्कूल में टीचर की नौकरी करने लगी थी. सीमा की डबडबाई आंखें उस की मजबूरी बयान कर रही थीं. मनोहर को बड़ा गुस्सा आया कि कैसेकैसे लोग हैं यहां, जो अपनों का ही शोषण करते हैं. ‘‘तुम चिंता मत करो, मैं पहले तुम्हें तुम्हारी मां को ढूंढ़ने में मदद करूंगा…’’ मनोहर बोला, ‘‘मुझे कुछ चीजें मिली हैं. क्या तुम उन्हें पहचान सकती हो?’’ मनोहर उस जगह पर गया और बोरे से सावधानी से उन जेवरात समेत कपड़ों को बाहर निकाल लाया. उन्हें देखते ही सीमा सुबकने लगी, ‘‘अरे, ये तो मेरी मां के कपड़े हैं. और ये जेवरात तो वे हमेशा पहने रहती थीं. पता नहीं, बदमाशों ने उन के साथ क्या सुलूक किया होगा.’’

‘‘अब जो हुआ सो हुआ. अपने मन को कड़ा करो और आगे की सोचो.’’

‘‘आगे का क्या सोचना है. मैं अकेली क्या कर सकती हूं. सारा गांव उन से डरता है, फिर पुलिस भी उन्हीं के साथ है…’’ सीमा बोली, ‘‘मगर, पहले मां का कुछ पता तो चले.’’

‘‘अब पता क्या करना है…’’ मनोहर गुस्से से बोला, ‘‘जरूर उन लोगों ने उन्हें मार दिया होगा. मन करता है कि अभी जा कर उन लोगों के घर पर बुलडोजर चला दूं.’’

‘‘आप यहां के लिए अजनबी हैं. आप को उन के पैसे और पहुंच का अंदाजा नहीं है. वे बड़े खतरनाक लोग हैं,’’ सीमा ने बताया.

‘‘कितने भी खतरनाक हों, मैं उन्हें देख लूंगा,’’ मनोहर गुस्से में भर कर बोला, ‘‘तुम मेरा मोबाइल नंबर लिख लो.’’ सीमा ने मनोहर का मोबाइल नंबर लिखा और फिर उसे अपना नंबर भी दे दिया. इस के बाद सीमा अपने रास्ते चली गई. अब मनोहर दोपहर खेत में जेसीबी मशीन से मिट्टी काटने में लगा था. मगर इस बार मिट्टी काटने में वह काफी सावधानी बरत रहा था. उसे शक के हिसाब से एक जगह की भुरभुरी मिट्टी के बीच एक बड़ी गठरी दिखी. एक काले कंबल में एक औरत की लाश लपेट कर वहां गाड़ दी गई थी. बड़ी सावधानी के साथ उस ने वह गठरी निकाली. फिर तुरंत सीमा को फोन किया. वह भागती हुई आई और अपनी मां की लाश को देख कर रो पड़ी. खेत के किनारे पूरा गांव उमड़ पड़ा था. ऐसे समय में जाहिर है कि लोग तरहतरह की बातें बनाते थे, लेकिन सीमा एकदम शांत थी.

‘‘जाने दो बेटी…’’ सीमा का एक बुजुर्ग पड़ोसी उस से कह रहा था, ‘‘अब जाने वाले को कौन रोकता है. हम तुम्हारी पूरी मदद करेंगे.’’

‘‘यही तो मदद की है आप ने कि मेरी मां को मार डाला…’’ वह उन के मुंह पर थूकते हुए चिल्लाई, ‘‘पहले घर छीना और अब हमारी जमीन छीनना चाहते हैं. आप इनसान नहीं हैवान हैं.’’

‘‘हां, हम हैवान हैं और तू इस गांव के सब से रसूखदार आदमी राम प्रसाद पर थूकती है,’’ वह बुजुर्ग गुस्से में उस की चोटी पकड़ कर चिल्लाया, ‘‘तेरी यह हिम्मत कि तू मुझ पर थूके.’’ वह बुजुर्ग उसे बेतहाशा मार रहा था और चिल्ला रहा था, ‘‘गांव में है किसी की हिम्मत, जो मुझे रोक सके. हां, मैं ने तेरा घर उजाड़ा है और अब तेरी सारी जमीन छीन कर तुझे सड़क की भिखारिन बना दूंगा.’’ सारा गांव तमाशा देख रहा था. अचानक मनोहर को तैश आया और उस ने लपक कर बुजुर्ग को पीछे से दबोचते हुए कहा, ‘‘एक तो दिनदहाड़े गलत काम किया, गरीब बेसहारा को लूटा और उस की हत्या कर दी और अब एक लड़की पर हाथ उठाते हुए शर्म नहीं आती.’’

मनोहर उसे मारते हुए बोला, ‘‘इस गांव में जैसे सभी नामर्द हैं तो क्या हुआ, मैं तेरी सारी हेकड़ी हवा कर दूंगा.’’ अब देखादेखी गांव की भीड़ भी जैसे मनोहर के साथ हो गई.

‘‘अब देखते क्या हो..’’ भीड़ में से एक आवाज आई, ‘‘पुलिस तो आने से रही और हम भी इस के खिलाफ गवाही देंगे कि यह कितना दुष्ट है. मगर, इस ने जो किया है, उस की सजा इसे जरूर मिलनी चाहिए.’’

‘‘मन करता है कि इस के घर पर बुलडोजर चला दूं,’’ वह दांत पीस कर बोला, ‘‘तभी यह सबक सीखेगा.’’

‘‘तो चला दो न. मना कौन करता है?’’ भीड़ में से किसी ने कहा. और देखते ही देखते उस की जेसीबी मशीन राम प्रसाद के घर को मटियामेट कर गई. समय बीतने के साथ उन दोनों की दोस्ती गाढ़ी हो चुकी थी. सीमा ने उस का घरपरिवार, रहनसहन वगैरह सबकुछ देखसमझ लिया था. मनोहर को झिझक थी कि एक पढ़ीलिखी लड़की से उस का शादी होना क्या ठीक रहेगा. क्या कहीं यह शादी बेमेल तो नहीं होगी? लोग क्या कहेंगे कि एक कम पढ़ेलिखे लड़के ने एक पढ़ीलिखी लड़की को फंसा लिया? फिर भी सीमा से मनोहर का मिलनाजुलना चलता रहा. इस बीच एक रुकावट आ गई. सीमा के एक रिश्तेदार शंभु प्रसाद, जो उस के रिश्ते में मामा लगते थे, एक किसान थे और अब उसी के साथ उसी के घर में रहने लगे थे. भले ही उन की माली हालत गिर चुकी थी, मगर पुराने जमींदारों वाली ठसक उन में अभी बाकी थी. उन्हें मनोहर फूटी आंख नहीं सुहाता था.

‘‘यह किस आदमी को चुना है शादी के लिए तुम ने…’’ वे दहाड़े, ‘‘न शक्लसूरत, न ढंग का कामधाम, दिनभर टूटीफूटी सड़कों की मरम्मत करता फिरता है या खंडहरों को गिराता चलता है.’’

‘‘मैं शादी करूंगी तो उसी से,’’ सीमा चीख कर बोली थी, ‘‘जब मेरी मां की हत्या हुई और मेरा घर हथिया लिया गया था, तब आप कहां थे.’’

‘‘आग लगे ऐसी जवानी में,’’ शंभु प्रसाद की पत्नी यानी सीमा की मामी चिल्लाई थीं, ‘‘कोई ढंग का रूपरंग भी तो हो. बेडौल ढोल जैसा बदन है उस का. उस की टेढ़ी नाक देखी है तुम ने. यह लड़की तो मेरी नाक कटाने पर ही तुली है.’’ मनोहर को भी घबराहट होती. नाहक उस के चलते सीमा के घर में बवाल मचता है. लेकिन फिर भी वह उस के सपनों में आती थी. इन 5 साल में मनोहर को क्या मिला? सिर्फ चंद सूखी रोटी और सब्जी. कभी किसी को खयाल आया कि वह भी कुछ है कि उस के भी कुछ अरमान होंगे. ठीक है कि वह भद्दा है, मगर क्या ऐसे लोग जिंदगी नहीं जीते. इतना कुछ होने के बावजूद उसी के चलते तो उस का परिवार सुखी और संतुष्ट है. यह सड़क बनाने का काम भी अजीब है. ठेकेदारों का क्या है, बस लोग भर दिए. लगे रहो काम पर. करते रहो खुदाई और भराई का काम. यह भारीभरकम मशीन चलाना हर किसी के बस की बात थोड़े ही है. चिलचिलाती धूप हो या मूसलाधार बारिश या कड़ाके की ठंड क्यों न हो, इसे चलाना है. पीछे मजदूरों का कारवां चला करता है, जैसे हाथी के साथ पैदल सेना चल रही हो. सभी उसी के समान दुखियारे और बेचारे. जो कहीं काम न पाने के चलते यहां अपने हाड़ जलाने पहुंच जाते हैं.

मनोहर उन का दुख देख कर अपना दुख भूल जाता है. कम से कम उस के सिर पर बुलडोजर की टिन की छत तो है, जिस से वह कड़ी धूप या बारिश से बच जाता है. राह चलते लोग या गाडि़यों पर बैठे सरपट भागते लोगों को क्या समझ आएगा यह सब. उन्हें तो बस हड़बड़ी रहती है काम पर जाने की या घर पहुंचने की. अचानक एक दिन सड़क हादसे में सीमा के रिश्तेदार शंभु प्रसाद जख्मी हो गए थे. चारों तरफ खून ही खून फैला हुआ था. डाक्टर ने खून चढ़ाने की बात कही थी, मगर खून दे तो कौन. सीमा की मामी चारों ओर जैसे बिलखती फिरीं. पास में पैसे नहीं थे. आमदनी के नाम पर बस थोड़ी सी जमीन की उपज थी, जिस से परिवार का खर्च बमुश्किल चलता था. तभी तो सीमा को भी टीचर की नौकरी करनी पड़ रही थी. ऐसे मुसीबत के समय में सारे रिश्तेदारों और पड़ोसियों ने किनारा कर लिया था. आखिर में इस मुसीबत के समय मनोहर ही सामने आया. हफ्ते भर के अंदर उस ने अपने शरीर के पूरे 5 बोतल खून दे डाले थे. दवाओं के खर्च में भी उस ने पूरी मदद की और उस ने यह सब किसी लालच के चलते नहीं, बल्कि इनसानियत के नाते किया था. हालांकि अब उस का सीमा के घर में आनाजाना उस के मामा मामी की अनदेखी के चलते काफी कम हो गया था. और अब मनोहर ही सीमा के घर में सब से अच्छा दिखने लगा था. अब सब को यही लगता कि सीमा के मामा को उस ने जिंदगी दी है. एक हद तक यह बात सही भी थी. एक शाम सीमा के मामा उस के घर आए. उस ने उन्हें आदर के साथ बिठाया और आवभगत की. वे उस से बोले, ‘‘आजकल तुम मेरे घर नहीं आते?’’

‘‘बस ऐसे ही,’’ मनोहर संकोच के चलते बोला, ‘‘ज्यादा काम की वजह से…’’ ‘‘हां भाई साहब, इसी की वजह से ही हमारा घर संभला है,’’ मनोहर की मां बोलीं, ‘‘अपने भाईबहनों के लालनपालन, पढ़ाईलिखाई की जिम्मेदारी इसी पर है.’’

‘‘मगर, इस की भी तो शादी होनी चाहिए. उम्र काफी हो रही है.’’

‘‘इस लड़के से कौन शादी करेगा? ढंग का कामधाम और रूपरंग भी तो हो.’’

‘‘ढंग का कामधाम कैसे नहीं है इस के पास. अभीअभी तो आप ने कहा था कि पूरे घर की जिम्मेदारी इसी ने संभाली हुई है. फिर लड़के की सूरत नहीं, सीरत देखी जाती है बहनजी,’’ सीमा के मामा बोले, ‘‘मैं इस से अपनी बेटी सीमा की शादी कराना चाहूंगा. उम्मीद है कि आप इनकार नहीं करेंगी.’’ ‘‘तो ठीक है अगले लगन में शादी हो जाएगी,’’ मनोहर की मां बोलीं, ‘‘मगर, आप सोच लीजिए कि हम एक साधारण परिवार से हैं. लड़का भी कुछ खास नहीं है.’’ ‘‘मैं ने सबकुछ देख और सोच लिया है. इस से बढि़या दामाद मुझे नहीं मिलेगा,’’ वे उठते हुए बोले. अब उन्हें मनोहर काफी खूबसूरत दिख रहा था. वे सोच रहे थे, ‘सचमुच खूबसूरती इनसान में नहीं, नजरिए में होती है.’

Hindi Thriller Stories : फर्क – पल्लव के धोखे के बाद क्या था रवीना का खतरनाक कदम

Hindi Thriller Stories :  18 वसंत पूरे करते ही जैसे ही रवीना के हाथ में वोटर कार्ड आया, उसे लगा जैसे सारी दुनिया उस की मुट्ठी में समा गई हो.

‘अब मैं कानूनी रूप से बालिग हूं. अपनी मरजी की मालिक. अपनी जिंदगी की सर्वेसर्वा. अपने निर्णय लेने को स्वतंत्र, जो चाहे करूं. जहां चाहे जाऊं, जिस के साथ मरजी रहूं. कोई बंधन, कोई रोकटोक नहीं. बस खुला आसमान और ऊंची उड़ान,’ मन ही मन खुश होती हुई रवीना पल्लव के साथ अपनी आजादी का जश्न मनाने का नायाब तरीका सोचने लगी.

ग्रैजुएशन के आखिरी साल की स्टूडैंट रवीना अपने मांपापा की इकलौती बेटी है. फैशन और हाई प्रोफाइल लाइफ की दीवानी रवीना नाजों से पली होने के कारण थोड़ी जिद्दी और मनमौजी भी है. मगर पढ़ाईलिखाई में औसत छात्रा ही है, इसलिए पास होने के लिए हर साल उसे ट्यूशन और कोचिंग का सहारा लेना पड़ता है.

कसबाई युवक पल्लव पिछले दिनों ही इस कोचिंग इंस्टिट्यूट में पढ़ाने लगा है. पहली नजर में ही रवीना उस की तरफ झुकने लगी थी. लंबा ऊंचा कद. गेहुआं रंग, गहरी गंभीर आंखें और लापरवाही से पहने कसबाई फैशन के हिसाब से आधुनिक लिबास. बाकी लड़कियों की निगाहों में पल्लव कुछ भी खास नहीं था, मगर उस का बेपरवाह अंदाज अतिआधुनिक शहरी रवीना के दिलोदिमाग में खलबली मचाए हुए था.

पल्लव कहने को तो कोचिंग इंस्टिट्यूट में पढ़ाता था, लेकिन असल में तो वह खुद भी एक स्टूडैंट ही था. उस ने इसी साल अपनी ग्रैजुएशन पूरी की थी और अब प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने के लिए शहर में रुका था. कोचिंग इंस्टिट्यूट में पढ़ाने के पीछे उस का यह मकसद भी था कि इस तरीके से वह किताबों के संपर्क में रहेगा साथ ही जेबखर्च के लिए कुछ अतिरिक्त आमदनी भी हो जाएगी.

पल्लव के पिता उस के इस फैसले से सहमत नहीं थे. वे चाहते थे कि पल्लव अपना पूरा ध्यान केवल अपने भविष्य की तैयारी पर लगाए लेकिन पल्लव से पूरा दिन एक ही जगह बंद कमरे में बैठ कर पढ़ाई नहीं होती, इसलिए उस ने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध पढ़ने के साथसाथ पढ़ाने का विकल्प भी चुना और इस तरह से रवीना के संपर्क में आया.

2 विपरीत धु्रव एकदूसरे को आकर्षित करते हैं, इस सर्वमान्य नियम से भला पल्लव कैसे अछूता रह सकता था. धीरेधीरे वह भी खुद के प्रति रवीना के आकर्षण को महसूस करने लगा. मगर एक तो उस का शर्मीला स्वभाव. दूसरे सामाजिक स्तर पर कमतरी का एहसास उसे दोस्ती के लिए आमंत्रित करती रवीना की मुसकान के निमंत्रण को स्वीकार नहीं करने दे रहा था.

आखिर विज्ञान की जीत हुई और शुरुआती औपचारिकता के बाद अब दोनों के बीच अच्छीखासी ट्यूनिंग बनने लगी थी. फोन पर बातों का सिलसिला भी शुरू हो चुका था.

‘‘लीजिए जनाब, सरकार ने हमें कानूनन बालिग घोषित कर दिया है,’’ पल्लव के चेहरे के सामने अपना वोटर कार्ड हवा में लहराते हुए रवीना खिलखिलाई.

‘‘तो, जश्न मनाया जाए?’’ पल्लव ने भी उसी गरमजोशी से जवाब दिया.

‘‘चलो, आज तुम्हें पिज्जा हट ले चलती हूं.’’

‘‘न, पिज्जा हट नहीं. तुम अपने खूबसूरत हाथों से एक कप चाय बना कर पिला दो. मैं तो इसी में खुश हो जाऊंगा,’’ पल्लव ने रवीना के चेहरे पर शरारत करते बालों की लट को उस के कानों के पीछे ठेलते हुए कहा.

रवीना उस का प्रस्ताव सुन कर हैरान थी, ‘‘चाय? मगर कैसे? कहां?’’ रवीना ने पूछा.

‘‘मेरे रूम पर और कहां?’’ पल्लव ने उसे आश्चर्य से बाहर निकाला.

रवीना राजी हो गई.

रवीना ने मुसकरा कर अपना स्कूटर स्टार्ट करते हुए पल्लव को पीछे बैठने के लिए आमंत्रित किया. यह पहला मौका था जब पल्लव उस से इतना सट कर बैठा था.

कुछ ही मिनटों के बाद दोनों पल्लव के कमरे पर थे. जैसाकि आम पढ़ने वाले युवाओं का होता है, पल्लव के कमरे में भी सामान के नाम पर एक पलंग, एक टेबलकुरसी और थोड़ाबहुत रसोई का सामान था. रवीना अपने बैठने के लिए जगह तलाश कर ही रही थी कि पल्लव ने उसे पलंग पर बैठने का इशारा किया. रवीना सकुचाते हुए बैठ गई. पल्लव भी वहीं उस के पास आ बैठा.

एकांत में 2 युवा दिल एकदूसरे की धड़कनें महसूस करने लगे और कुछ ही पलों में दोनों के रिश्ते ने एक लंबा फासला तय कर लिया. दोनों के बीच बहुत सी औपचारिकताओं के किले ढह गए. एक बार ढहे तो फिर बारबार ये वर्जनाएं टूटने लगीं.

कहते हैं कि इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते. दोनों की नजदीकियों की भनक जब रवीना के घर वालों को लगी तो उसे लाइन हाजिर किया गया.

‘‘मैं पल्लव से प्यार करती हूं,’’ रवीना ने बेझिझक स्वीकार किया.

बेटी की मुंहजोरी पर पापा आगबबूला हो गए. यह उम्र कैरियर बनाने की है, रिश्ते नहीं. समझी?’’ पापा ने उसे लता दिया.

‘‘मैं बालिग हूं. अपने फैसले खुद लेने का अधिकार है मुझे,’’ रवीना बगावत पर उतर आई.

इसी दौरान बीचबचाव करने के लिए मां उन के बीच आ खड़ी हुई.

‘‘कल से इस का कालेज और इंस्टिट्यूट, दोनों जगह जाना बंद,’’ पापा ने उस की मां की तरफ मुखातिब होते हुए कहा तो रवीना पांव पटकते हुए अपने कमरे की तरफ चल दी. थोड़ी ही देर में कपड़ों से भरा सूटकेस हाथ में लिए खड़ी थी.

‘‘मैं पल्लव के साथ रहने जा रही हूं,’’ रवीना के इस ऐलान ने घर में सब के होश उड़ा दिए.

‘‘तुम बिना शादी किए एक पराए मर्द के साथ रहोगी? क्यों समाज में हमारी नाक कटवाने पर तुली हो?’’ इस बार मां उस के खिलाफ हो गई.

‘‘हम दोनों बालिग हैं. अब तो हाई कोर्ट ने भी इस बात की इजाजत दे दी है कि 2 बालिग लिव इन में रह सकते हैं, उम्र चाहे जो भी हो,’’ रवीना ने कुछ समय पहले दिए गए केरल हाईकोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए मां के विरोध को चुनौती दी.

‘‘कोर्ट अपने फैसले नियम, कानून और सुबूतों के आधार पर देता है. सामाजिक व्यवस्थाएं इन सब से बिलकुल अलग होती हैं. कानून और समाज के नियम सर्वथा भिन्न होते हैं,’’ पापा ने उसे नरमाई से समझाने की कोशिश की.

मगर रवीना के कान तो पल्लव के नाम के अलावा कुछ और सुनने को तैयार ही  नहीं थे. उसे अब अपने और पल्लव के बीच कोई बाधा स्वीकार नहीं थी. वह बिना पीछे मुड़ कर देखे अपने घर की दहलीज लांघ गई.

यों अचानक रवीना को सामान सहित अपने सामने देख कर पल्लव अचकचा गया. रवीना ने एक ही सांस में उसे पूरे घटनाक्रम का ब्योरा दे दिया.

‘‘कोई बात नहीं, अब तुम मेरे पास आ गई हो न. पुराना सब भूल जाओ और मिलन का जश्न मनाओ,’’ कमरा बंद कर के पल्लव ने उसे अपने पास खींच लिया और कुछ ही देर में हमेशा की तरह उन के बीच रहीसही सारी दूरियां भी मिट गईं. रवीना ने एक बार फिर अपना सबकुछ पल्लव को समर्पित कर दिया.

2-4 दिन में ही पल्लव के मकानमालिक को भी सारी हकीकत पता चल गई कि पल्लव अपने साथ किसी लड़की को रखे हुए है. उसने पल्लव को धमकाते हुए कमरा खाली करने का अल्टीमेटम दे दिया. समाज की तरफ से उन पर यह पहला प्रहार था, मगर उन्होंने हार नहीं मानी. कमरा खाली कर के दोनों एक सस्ते होटल में आ गए.

कुछ दिन तो सोने से दिन और चांदी सी रातें गुजरीं, मगर साल बीततेबीतते ही उन के इश्क का इंद्रधनुष फीका पढ़ने लगा. ‘प्यार से पेट नहीं भरता,’ इस कहावत का मतलब पल्लव अच्छी तरह समझने लगा था.

समाज में बदनामी होने के कारण पल्लव की कोचिंग छूट गई और अब आमदनी का कोई दूसरा जरीया भी उन के पास नहीं था. पल्लव के पास प्रतियोगी परीक्षाओं का शुल्क भरने तक के पैसे नहीं बच पा रहे थे. उस ने वह होटल भी छोड़ दिया और अब रवीना को ले कर बहुत ही निम्न स्तर के मुहल्ले में रहने आ गया.

एक तरफ जहां पल्लव को रवीना के साथ अपना भविष्य अंधकारमय नजर आने लगा था वहीं दूसरी तरफ रवीना तो अब पल्लव में ही अपना भविष्य तलाशने लगी थी. वह इस लिव इन को स्थाई संबंध में परिवर्तित करना चाहती थी. पल्लव से शादी करना चाहती थी. रवीना को भरोसा था कि जल्द ही ये अंधेरी गलियां खत्म हो जाएंगी और उन्हें अपनी मंजिल का रास्ता मिल जाएगा. बस किसी तरह पल्लव कहीं सैट हो जाए.

एक बार फिर विज्ञान का यह आकर्षण का नियम पल्लव पर लागू हो रहा है कि दो  विपरीत धु्रव जब एक निश्चित सीमा तक नजदीक आ जाते हैं तो उन में विकर्षण पैदा होने लगता है. पल्लव भी इसी विकर्षण का शिकार होने लगा था.

हालात के सामने घुटने टेकता वह अपने पिता के सामने रो पड़ा तो उन्होंने रवीना से अलग होने की शर्त पर उस की मदद करना स्वीकार कर लिया. मरता क्या नहीं करता. पिता की शर्त के अनुसार उस ने फिर से कोचिंग जाना शुरू कर दिया और वहीं होस्टल में रहने लगा. इस बार कोचिंग में पढ़ाने नहीं बल्कि स्वयं पढ़ने के लिए.

यह रवीना के लिए किसी बड़े झटके से कम नहीं था. वह अपनेआप को ठगा सा महसूस करने लगी. मगर दोष दे भी तो किसे? यह तो उस का अपना फैसला था. इस रास्ते पर चलना उस ने खुद चुना था.

पल्लव के जाने के बाद वह अकेली ही उस महल्ले में रहने लगी. इतना सब होने के बाद भी उसे पल्लव का इंतजार था. वह भी उस की बैंक परीक्षा के रिजल्ट का इंतजार कर रही थी.

‘‘एक बार पल्लव का चयन हो जाए, फिर सब ठीक हो जाएगा. हमारा दम तोड़ता रिश्ता फिर से जी उठेगा,’’ इसी उम्मीद पर वह हर चोट सहती जा रही थी.

आखिर रिजल्ट भी आ गया. पल्लव की मेहनत रंग लाई और उस का बैंक परीक्षा में में चयन हो गया. रवीना यह खुशी उत्सव की तरह मनाना चाहती थी. वह दिनभर तैयार होकर उस का इंतजार करती रही मगर वह नहीं आया. रवीना पल्लव को फोन पर फोन लगाती रही, मगर उस ने फोन भी नहीं उठाया. आखिर रवीना उस के होस्टल जा पहुंची. वहां जा कर पता चला कि पल्लव तो सुबह रिजल्ट आते ही अपने घर चला गया.

रवीना बिलकुल निराश हो गई. क्या करे कहां जाए. वर्तमान तो खराब हुआ ही, भविष्य भी अंधकारमय हो गया. आसमान तो हासिल नहीं हुआ, पांवों के नीचे की जमीन भी अपनी नहीं रही. पल्लव का प्रेम तो मिला नहीं, मांपापा का स्नेह भी वह छोड़ आई. काश, उस ने अपनेआप को कुछ समय सोचने के लिए दिया होता. मगर अब क्या हो सकता है. पीछे लौटने के सारे रास्ते तो वह खुद ही बंद कर आई थी. रवीना बुरी तरह से हताश हो गई. वह कुछ भी सोच नहीं पा रही थी. कोई निर्णय नहीं ले पा रही थी. आखिर उस ने एक खतरनाक निर्णय ले ही लिया.

‘‘तुम्हें तुम्हारा रास्ता मुबारक हो. मैं अपने रास्ते जा रही हूं. खुश रहो,’’ रवीना ने एक मैसेज पल्लव को भेजा और अपना मोबाइल स्विच्ड औफ कर लिया. संदेश पढ़ते ही पल्लव के पांवों के नीचे से जमीन खिसक गई.

‘अगर इस लडकी ने कुछ उलटासीधा कर लिया तो मेरा कैरियर चौपट हो जाएगा,’ सोचते हुए उसने 1-2 बार रवीना को फोन लगाने की कोशिश की, मगर नाकाम होने पर तुरंत दोस्त के साथ बाइक ले कर उस के पास पहुंच गया. जैसाकि उसे अंदेशा था, रवीना नींद की गोलियां खा कर बेसुध पड़ी थी. पल्लव दोस्त की मदद से उसे हौस्पिटल ले गया और उस के घर पर भी खबर कर दी. डाक्टरों के इलाज शुरू करते ही दवा लेने के बहाने पल्लव वहां से खिसक गया.

बेशक रवीना अपने घर वालों से सारे रिश्ते खत्म कर आई थी मगर खून के  रिश्ते भी कहीं टूटे हैं भला? खबर पाते ही मांपापा बदहवास से बेटी के पास पहुंच गए. समय पर चिकित्सा सहायता मिलने से रवीना अब खतरे से बाहर थी. मापापा को सामने देख कर वह फफक पड़ी.

‘‘मां, मैं बहुत शर्मिंदा हूं. सिर्फ आज के लिए ही नहीं बल्कि उस दिन के अपने फैसले के लिए भी, जब मैं आप सब को छोड़ आई थी,’’ रवीना ने कहा तो मां ने कस कर उस का हाथ थाम लिया.

‘‘यदि मैं ने उस दिन घर न छोड़ा होता तो आज कहीं बेहतर जिंदगी जी रही होती. मेरा वर्तमान और भविष्य, दोनों ही सुनहरे होते. मैं ने स्वतंत्र होने में बहुत जल्दबाजी की. अपने प्यार के फल को विश्वास की आंच पर पकने नहीं दिया. मैं तो आप लोगों से माफी मांगने के लायक भी नहीं हूं…’’ रवीना ने आगे कहा.

‘‘बीती ताहि बिसार दे. आगे की सुध लेय. तुम घर लौट चलो. अपनेआप को वक्त दो और फिर से अपने फैसले का मूल्यांकन करो. जिंदगी किसी एक मोड़ पर रुकने का नाम नहीं बल्कि यह तो एक सतत प्रवाह है. इस के साथ बहने वाले ही अपनी मंजिल को पाते हैं,’’ पापा ने उसे समझाया.

‘‘हां, किसी एक जगह अटके रहने का नाम जिंदगी नहीं है. यह तो अनवरत बहती रहने वाली नदी है. तुम भी इस के बहाव में खुद को छोड़ दो और एक बार फिर से अपनी तकदीर लिखने की कोशिश करो. हम सब तुम्हारे साथ हैं,’’ मां ने उस का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा.

मन ही मन अपने फैसले से सबक लेने का दृढ़ संकल्प करते हुए रवीना मुसकरा दी. अब उसे स्वतंत्रता और स्वच्छंदता में फर्क साफसाफ नजर आ रहा था.

लेखिका- आशा शर्मा

Latest Hindi Stories : अकेलापन – क्यों सरोज झेल रही थी दर्द

Latest Hindi Stories :  राजेश पिछले शनिवार को अपने घर गए थे लेकिन तेज बुखार के कारण वह सोमवार को वापस नहीं लौटे. आज का पूरा दिन उन्होंने मेरे साथ गुजारने का वादा किया था. अपने जन्मदिन पर उन से न मिल कर मेरा मन सचमुच बहुत दुखी होता.

राजेश को अपने प्रेमी के रूप में स्वीकार किए मुझे करीब 2 साल बीत चुके हैं. उन के दोनों बेटों सोनू और मोनू व पत्नी सरोज से आज मैं पहली बार मिलूंगी.

राजेश के घर जाने से एक दिन पहले हमारे बीच जो वार्तालाप हुआ था वह रास्ते भर मेरे जेहन में गूंजता रहा.

‘मैं शादी कर के घर बसाना चाहती हूं…मां बनना चाहती हूं,’ उन की बांहों के घेरे में कैद होने के बाद मैं ने भावुक स्वर में अपने दिल की इच्छा उन से जाहिर की थी.

‘कोई उपयुक्त साथी ढूंढ़ लिया है?’ उन्होंने मुझे शरारती अंदाज में मुसकराते हुए छेड़ा.

उन की छाती पर बनावटी गुस्से में कुछ घूंसे मारने के बाद मैं ने जवाब दिया, ‘मैं तुम्हारे साथ घर बसाने की बात कर रही हूं.’

‘धर्मेंद्र और हेमामालिनी वाली कहानी दोहराना चाहती हो?’

‘मेरी बात को मजाक में मत उड़ाओ, प्लीज.’

‘निशा, ऐसी इच्छा को मन में क्यों स्थान देती हो जो पूरी नहीं हो सकती,’ अब वह भी गंभीर हो गए.

‘देखिए, मैं सरोज को कोई तकलीफ नहीं होने दूंगी. अपनी पूरी तनख्वाह उसे दे दिया करूंगी. मैं अपना सारा बैंकबैलेंस बच्चों के नाम कर दूंगी… उन्हें पूर्ण आर्थिक सुरक्षा देने…’

उन्होंने मेरे मुंह पर हाथ रखा और उदास लहजे में बोले, ‘तुम समझती क्यों नहीं कि सरोज को तलाक नहीं दिया जा सकता. मैं चाहूं भी तो ऐसा करना मेरे लिए संभव नहीं.’

‘पर क्यों?’ मैं ने तड़प कर पूछा.

‘तुम सरोज को जानती होतीं तो यह सवाल न पूछतीं.’

‘मैं अपने अकेलेपन को जानने लगी हूं. पहले मैं ने सारी जिंदगी अकेले रहने का मन बना लिया था पर अब सब डांवांडोल हो गया है. तुम मुझे सरोज से ज्यादा चाहते हो?’

‘हां,’ उन्होंने बेझिझक जवाब दिया था.

‘तब उसे छोड़ कर तुम मेरे हो जाओ,’ उन की छाती से लिपट कर मैं ने अपनी इच्छा दोहरा दी.

‘निशा, तुम मेरे बच्चे की मां बनना चाहती हो तो बनो. अगर अकेली मां बन कर समाज में रहने का साहस तुम में है तो मैं हर कदम पर तुम्हारा साथ दूंगा. बस, तुम सरोज से तलाक लेने की जिद मत करो, प्लीज. मेरे लिए यह संभव नहीं होगा,’ उन की आंखों में आंसू झिलमिलाते देख मैं खामोश हो गई.

सरोज के बारे में राजेश ने मुझे थोड़ी सी जानकारी दे रखी थी. बचपन में मातापिता के गुजर जाने के कारण उसे उस के मामा ने पाला था. 8वीं तक शिक्षा पाई थी. रंग सांवला और चेहरामोहरा साधारण सा था. वह एक कुशल गृहिणी थी. अपने दोनों बेटों में उस की जान बसती थी. घरगृहस्थी के संचालन को ले कर राजेश ने उस के प्रति कभी कोई शिकायत मुंह से नहीं निकाली थी.

सरोज से मुलाकात करने का यह अवसर चूकना मुझे उचित नहीं लगा. इसलिए उन के घर जाने का निर्णय लेने में मुझे ज्यादा कठिनाई नहीं हुई.

राजेश इनकार न कर दें, इसलिए मैं ने उन्हें अपने आने की कोई खबर फोन से नहीं दी थी. उस कसबे में उन का घर ढूंढ़ने में मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई. उस एक- मंजिला साधारण से घर के बरामदे में बैठ कर मैं ने उन्हें अखबार पढ़ते पाया.

मुझे अचानक सामने देख कर वह पहले चौंके, फिर जो खुशी उन के होंठों पर उभरी, उस ने सफर की सारी थकावट दूर कर के मुझे एकदम से तरोताजा कर दिया.

‘‘बहुत कमजोर नजर आ रहे हो, अब तबीयत कैसी है?’’ मैं भावुक हो उठी.

‘‘पहले से बहुत बेहतर हूं. जन्मदिन की शुभकामनाएं. तुम्हें सामने देख कर दिल बहुत खुश हो रहा है,’’ राजेश ने मिलाने के लिए अपना दायां हाथ आगे बढ़ाया.

राजेश से जिस पल मैं ने हाथ मिलाया उसी पल सरोज ने घर के भीतरी भाग से दरवाजे पर कदम रखा.

आंखों से आंखें मिलते ही मेरे मन में तेज झटका लगा.

सरोज की आंखों में अजीब सा भोलापन था. छोटी सी मुसकान होंठों पर सजा कर वह दोस्ताना अंदाज में मेरी तरफ देख रही थी.

जाने क्यों मैं ने अचानक अपने को अपराधी सा महसूस किया. मुझे एहसास हुआ कि राजेश को उस से छीनने के मेरे इरादे को उस की आंखों ने मेरे मन की गहराइयों में झांक कर बड़ी आसानी से पढ़ लिया था.

‘‘सरोज, यह निशा हैं. मेरे साथ दिल्ली में काम करती हैं. आज इन का जन्मदिन भी है. इसलिए कुछ बढि़या सा खाना बना कर इन्हें जरूर खिलाना,’’ हमारा परिचय कराते समय राजेश जरा भी असहज नजर नहीं आ रहे थे.

‘‘सोनू और मोनू के लिए हलवा बनाया था. वह बिलकुल तैयार है और मैं अभी आप को खिलाती हूं,’’ सरोज की आवाज में भी किसी तरह का खिंचाव मैं ने महसूस नहीं किया.

‘‘थैंक यू,’’ अपने मन की बेचैनी के कारण मैं कुछ और ज्यादा नहीं कह पाई.

‘‘मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ ऐसा कह कर सरोज तेजी से मुड़ी और घर के अंदर चली गई.

राजेश के सामने बैठ कर मैं उन से उन की बीमारी का ब्योरा पूछने लगी. फिर उन्होंने आफिस के समाचार मुझ से पूछे. यों हलकेफुलके अंदाज में वार्तालाप करते हुए मैं सरोज की आंखों को भुला पाने में असमर्थ हो रही थी.

अचानक राजेश ने पूछा, ‘‘निशा, क्या तुम सरोज से अपने और मेरे प्रेम संबंध को ले कर बातें करने का निश्चय कर के यहां आई हो?’’

एकदम से जवाब न दे कर मैं ने सवाल किया, ‘‘क्या तुम ने कभी उसे मेरे बारे में बताया है?’’

‘‘कभी नहीं.’’

‘‘मुझे लगता है कि वह हमारे प्रेम के बारे में जानती है.’’

कुछ देर खामोश रहने के बाद मैं ने अपना फैसला राजेश को बता दिया, ‘‘तुम्हें एतराज नहीं हो तो मैं सरोज से खुल कर बातें करना चाहूंगी. आगे की जिंदगी तुम से दूर रह कर गुजारने को अब मेरा दिल तैयार नहीं है.’’

‘‘मैं इस मामले में कुछ नहीं कहूंगा. अब तुम हाथमुंह धो कर फ्रैश हो जाओ. सरोज चाय लाती ही होगी.’’

राजेश के पुकारने पर सोनू और मोनू दोनों भागते हुए बाहर आए. दोनों बच्चे मुझे स्मार्ट और शरारती लगे. मैं उन से उन की पढ़ाई व शौकों के बारे में बातें करते हुए घर के भीतर चली गई.

घर बहुत करीने से सजा हुआ था. सरोज के सुघड़ गृहिणी होने की छाप हर तरफ नजर आ रही थी.

मेरे मन में उथलपुथल न चल रही होती तो सरोज के प्रति मैं ज्यादा सहज व मैत्रीपूर्ण व्यवहार करती. वह मेरे साथ बड़े अपनेपन से पेश आ रही थी. उस ने मेरी देखभाल और खातिर में जरा भी कमी नहीं की.

उस की बातचीत का बड़ा भाग सोनू और मोनू से जुड़ा था. उन की शरारतों, खूबियों और कमियों की चर्चा करते हुए उस की जबान जरा नहीं थकी. वे दोनों बातचीत का विषय होते तो उस का चेहरा खुशी और उत्साह से दमकने लगता.

हलवा बहुत स्वादिष्ठ बना था. साथसाथ चाय पीने के बाद सरोज दोपहर के खाने की तैयारी करने रसोई में चली गई.

‘‘सरोज के व्यवहार से तो अब ऐसा नहीं लगता है कि उसे तुम्हारे और मेरे प्रेम संबंध की जानकारी नहीं है,’’ मैं ने अपनी राय राजेश को बता दी.

‘‘सरोज सभी से अपनत्व भरा व्यवहार करती है, निशा. उस के मन में क्या है, इस का अंदाजा उस के व्यवहार से लगाना आसान नहीं,’’ राजेश ने गंभीर लहजे में जवाब दिया.

‘‘अपनी 12 सालों की विवाहित जिंदगी में सरोज ने क्या कभी तुम्हें अपने दिल में झांकने दिया है?’’

‘‘कभी नहीं…और यह भी सच है कि मैं ने भी उसे समझने की कोशिश कभी नहीं की.’’

‘‘राजेश, मैं तुम्हें एक संवेदनशील इनसान के रूप में पहचानती हूं. सरोज के साथ तुम्हारे इस रूखे व्यवहार का क्या कारण है?’’

‘‘निशा, तुम मेरी पसंद, मेरा प्यार हो, जबकि सरोज के साथ मेरी शादी मेरे मातापिता की जिद के कारण हुई. उस के पिता मेरे पापा के पक्के दोस्त थे. आपस में दिए वचन के कारण सरोज, एक बेहद साधारण सी लड़की, मेरी इच्छा के खिलाफ मेरे साथ आ जुड़ी थी. वह मेरे बच्चों की मां है, मेरे घर को चला रही है, पर मेरे दिल में उस ने कभी जगह नहीं पाई,’’ राजेश के स्वर की उदासी मेरे दिल को छू गई.

‘‘उसे तलाक देते हुए तुम कहीं गहरे अपराधबोध का शिकार तो नहीं हो जाओगे?’’ मेरी आंखों में चिंता के भाव उभरे.

‘‘निशा, तुम्हारी खुशी की खातिर मैं वह कदम उठा सकता हूं पर तलाक की मांग सरोज के सामने रखना मेरे लिए संभव नहीं होगा.’’

‘‘मौका मिलते ही इस विषय पर मैं उस से चर्चा करूंगी.’’

‘‘तुम जैसा उचित समझो, करो. मैं कुछ देर आराम कर लेता हूं,’’ राजेश बैठक से उठ कर अपने कमरे में चले गए और मैं रसोई में सरोज के पास चली आई.

हमारे बीच बातचीत का विषय सोनू और मोनू ही बने रहे. एक बार को मुझे ऐसा भी लगा कि सरोज शायद जानबूझ कर उन के बारे में इसीलिए खूब बोल रही है कि मैं किसी दूसरे विषय पर कुछ कह ही न पाऊं.

घर और बाहर दोनों तरह की टेंशन से निबटना मुझे अच्छी तरह से आता है. अगर मुझे देख कर सरोज तनाव, नाराजगी, गुस्से या डर का शिकार बनी होती तो मुझे उस से मनचाहा वार्तालाप करने में कोई असुविधा न महसूस होती.

उस का साधारण सा व्यक्तित्व, उस की बड़ीबड़ी आंखों का भोलापन, अपने बच्चों की देखभाल व घरगृहस्थी की जिम्मेदारियों के प्रति उस का समर्पण मेरे रास्ते की रुकावट बन जाते.

मेरी मौजूदगी के कारण उस के दिलोदिमाग पर किसी तरह का दबाव मुझे नजर नहीं आया. हमारे बीच हो रहे वार्तालाप की बागडोर अधिकतर उसी के हाथों में रही. जो शब्द उस की जिंदगी में भारी उथलपुथल मचा सकते थे वे मेरी जबान तक आ कर लौट जाते.

दोपहर का खाना सरोज ने बहुत अच्छा बनाया था, पर मैं ने बड़े अनमने भाव से थोड़ा सा खाया. राजेश मेरे हावभाव को नोट कर रहे थे पर मुंह से कुछ नहीं बोले. अपने बेटों को प्यार से खाना खिलाने में व्यस्त सरोज हम दोनों के दिल में मची हलचल से शायद पूरी तरह अनजान थी.

कुछ देर आराम करने के बाद हम सब पास के पार्क में घूमने पहुंच गए. सोनू और मोनू झूलों में झूलने लगे. राजेश एक बैंच पर लेटे और धूप का आनंद आंखें मूंद कर लेने लगे.

‘‘आइए, हम दोनों पार्क में घूमें. आपस में खुल कर बातें करने का इस से बढि़या मौका शायद आगे न मिले,’’ सरोज के मुंह से निकले इन शब्दों को सुन कर मैं मन ही मन चौंक पड़ी.

उस की भोली सी आंखों में झांक कर अपने को उलझन का शिकार बनने से मैं ने खुद को इस बार बचाया और गंभीर लहजे में बोली, ‘‘सरोज, मैं सचमुच तुम से कुछ जरूरी बातें खुल कर करने के लिए ही यहां आई हूं.’’

‘‘आप की ऐसी इच्छा का अंदाजा मुझे हो चुका है,’’ एक उदास सी मुसकान उस के होंठों पर उभर कर लुप्त हो गई.

‘‘क्या तुम जानती हो कि मैं राजेश से बहुत पे्रम करती हूं?’’

‘‘प्रेम को आंखों में पढ़ लेना ज्यादा कठिन काम नहीं है, निशाजी.’’

‘‘तुम मुझ से नाराज मत होना क्योंकि मैं अपने दिल के हाथों मजबूर हूं.’’

‘‘मैं आप से नाराज नहीं हूं. सच तो यह है कि मैं ने इस बारे में सोचविचार किया ही नहीं है. मैं तो एक ही बात पूछना चाहूंगी,’’ सरोज ने इतना कह कर अपनी भोली आंखें मेरे चेहरे पर जमा दीं तो मैं मन में बेचैनी महसूस करने लगी.

‘‘पूछो,’’ मैं ने दबी सी आवाज में उस से कहा.

‘‘वह 14 में से 12 दिन आप के साथ रहते हैं, फिर भी आप खुश और संतुष्ट क्यों नहीं हैं? मेरे हिस्से के 2 दिन छीन कर आप को कौन सा खजाना मिल जाएगा?’’

‘‘तुम्हारे उन 2 दिनों के कारण मैं राजेश के साथ अपना घर  नहीं बसा सकती हूं, अपनी मांग में सिंदूर नहीं भर सकती हूं,’’ मैं ने चिढ़े से लहजे में जवाब दिया.

‘‘मांग के सिंदूर का महत्त्व और उस की ताकत मुझ से ज्यादा कौन समझेगा?’’ उस के होंठों पर उभरी व्यंग्य भरी मुसकान ने मेरे अपराधबोध को और भी बढ़ा दिया.

‘‘राजेश सिर्फ मुझे प्यार करते हैं, सरोज. हम तुम्हें कभी आर्थिक परेशानियों का सामना नहीं करने देंगे, पर तुम्हें, उन्हें तलाक देना ही होगा,’’ मैं ने कोशिश कर के अपनी आवाज मजबूत कर ली.

‘‘वह क्या कहते हैं तलाक लेने के बारे में?’’ कुछ देर खामोश रह कर सरोज ने पूछा.

‘‘तुम राजी हो तो उन्हें कोई एतराज नहीं है.’’

‘‘मुझे तलाक लेनेदेने की कोई जरूरत महसूस नहीं होती है, निशाजी. इस बारे में फैसला भी उन्हीं को करना होगा.’’

‘‘वह तलाक चाहेंगे तो तुम शोर तो नहीं मचाओगी?’’

मेरे इस सवाल का जवाब देने के लिए सरोज चलतेचलते रुक गई. उस ने मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए. इस पल उस से नजर मिलाना मुझे बड़ा कठिन महसूस हुआ.

‘‘निशाजी, अपने बारे में मैं सिर्फ एक बात आप को इसलिए बताना चाहती हूं ताकि आप कभी मुझे ले कर भविष्य में परेशान न हों. मेरे कारण कोई दुख या अपराधबोध का शिकार बने, यह मुझे अच्छा नहीं लगेगा.’’

‘‘सरोज, मैं तुम्हारी दुश्मन नहीं हूं, पर परिस्थितियां ही कुछ…’’

उस ने मुझे टोक कर अपनी बात कहना जारी रखा, ‘‘अकेलेपन से मेरा रिश्ता अब बहुत पुराना हो गया है. मातापिता का साया जल्दी मेरे सिर से उठ गया था. मामामामी ने नौकरानी की तरह पाला. जिंदगी में कभी ढंग के संगीसाथी नहीं मिले. खराब शक्लसूरत के कारण पति ने दिल में जगह नहीं दी और अब आप मेरे बच्चों के पिता को उन से छीन कर ले जाना चाहती हैं.

‘‘यह तो कुदरत की मेहरबानी है कि मैं ने अकेलेपन में भी सदा खुशियों को ढूंढ़ निकाला. मामा के यहां घर के कामों को खूब दिल लगा कर करती. दोस्त नहीं मिले तो मिट्टी के खिलौनों, गुडि़या और भेड़बकरियों को अपना साथी मान लिया. ससुराल में सासससुर की खूब सेवा कर उन के आशीर्वाद पाती रही. अब सोनूमोनू के साथ मैं बहुत सुखी और संतुष्ट हूं.

‘‘मेरे अपनों ने और समाज ने कभी मेरी खुशियों की फिक्र नहीं की. अपने अकेलेपन को स्वीकार कर के मैं ने खुद अपनी खुशियां पाई हैं और मैं उन्हें विश्वसनीय मानती हूं. उदासी, निराशा, दुख, तनाव और चिंताएं मेरे अकेलेपन से न कभी जुड़ी हैं और न जुड़ पाएंगी. मेरी जिंदगी में जो भी घटेगा उस का सामना करने को मैं तैयार हूं.’’

मैं चाह कर भी कुछ नहीं बोल पाई. राजेश ठीक ही कहते थे कि सरोज से तलाक के बारे में चर्चा करना असंभव था. बिलकुल ऐसा ही अब मैं महसूस कर रही थी.

सरोज के लिए मेरे मन में इस समय सहानुभूति से कहीं ज्यादा गहरे भाव मौजूद थे. मेरा मन उसे गले लगा कर उस की पीठ थपथपाने का किया और ऐसा ही मैं ने किया भी.

उस का हाथ पकड़ कर मैं राजेश की तरफ चल पड़ी. मेरे मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला, पर मन में बहुत कुछ चल रहा था.

सरोज से कुछ छीनना किसी भोले बच्चे को धोखा देने जैसा होगा. अपने अकेलेपन से जुड़ी ऊब, तनाव व उदासी को दूर करने के लिए मुझे सरोज से सीख लेनी चाहिए. उस की घरगृहस्थी का संतुलन नष्ट कर के अपनी घरगृहस्थी की नींव मैं नहीं डालूंगी. अपनी जिंदगी और राजेश से अपने प्रेम संबंध के बारे में मुझे नई दृष्टि से सोचना होगा, यही सबकुछ सोचते हुए मैं ने साफ महसूस किया कि मैं पूरी तरह से तनावमुक्त हो भविष्य के प्रति जोश, उत्साह और आशा प्रदान करने वाली नई तरह की ऊर्जा से भर गई हूं.

Famous Hindi Stories : खड़ूस मकान मालकिन – क्या था आंटी का सच

Famous Hindi Stories : ‘‘साहबजी, आप अपने लिए मकान देख रहे हैं?’’ होटल वाला राहुल से पूछ रहा था. पिछले 2 हफ्ते से राहुल एक धर्मशाला में रह रहा था. दफ्तर से छुट्टी होने के बाद वह मकान ही देख रहा था. उस ने कई लोगों से कह रखा था. होटल वाला भी उन में से एक था. होटल का मालिक बता रहा था कि वेतन स्वीट्स के पास वाली गली में एक मकान है, 2 कमरे का. बस, एक ही कमी थी… उस की मकान मालकिन.

पर होटल वाले ने इस का एक हल निकाला था कि मकान ले लो और साथ में दूसरा मकान भी देखते रहो. उस मकान में कोई 2 महीने से ज्यादा नहीं रहा है.

‘‘आप मकान बता रहे हो या डरा रहे हो?’’ राहुल बोला, ‘‘मैं उस मकान को देख लूंगा. धर्मशाला से तो बेहतर ही रहेगा.’’

अगले दिन दफ्तर के बाद राहुल अपने एक दोस्त प्रशांत के साथ मकान देखने चला गया. मकान उसे पसंद था, पर मकान मालकिन ने यह कह कर उस की उम्मीदों पर पानी फेर दिया कि रात को 10 बजे के बाद गेट नहीं खुलेगा.

राहुल ने सोचा, ‘मेरा तो काम ही ऐसा है, जिस में अकसर देर रात हो जाती है…’ वह बोला, ‘‘आंटी, मेरा तो काम ही ऐसा है, जिस में अकसर रात को देर हो सकती है.’’

‘‘ठीक है बेटा,’’ आंटी बोलीं, ‘‘अगर पसंद न हो, तो कोई बात नहीं.’’

राहुल कुछ देर खड़ा रहा और बोला, ‘‘आंटी, आप उस हिस्से में एक गेट और लगवा दो. उस की चाबी मैं अपने पास रख लूंगा.’’

आंटी ने अपनी मजबूरी बता दी, ‘‘मेरे पास खर्च करने के लिए एक भी पैसा नहीं है.’’

राहुल ने गेट बनाने का सारा खर्च खुद उठाने की बात की, तो आंटी राजी हो गईं. इस के साथ ही उस ने झगड़े की जड़ पानी और बिजली के कनैक्शन भी अलग करवा लिए. दोनों जगहों के बीच दीवार खड़ी करवा दी. उस में दरवाजा भी बनवा दिया, लेकिन दरवाजा कभी बंद नहीं हुआ.

सारा काम पूरा हो जाने के बाद राहुल मकान में आ गया. उस ने मकान मालकिन द्वारा कही गई बातों का पालन किया. राहुल दिन में अपने मकान में कम ही रहता था. खाना भी वह होटल में ही खाता था. हां, रात में वह जरूर अपने कमरे पर आ जाता था. उस के हिस्से में ‘खटखट’ की आवाज से आंटी को पता चल जाता और वे आवाज लगा कर उस के आने की तसल्ली कर लेतीं.

उन आंटी का नाम प्रभा देवी था. वे अकेली रहती थीं. उन की 2 बेटियां थीं. दोनों शादीशुदा थीं. आंटी के पति की मौत कुछ साल पहले ही हुई थी. उन की मौत के बाद वे दोनों बेटियां उन को अपने साथ रखने को तैयार थीं, पर वे खुद ही नहीं रहना चाहती थीं. जब तक शरीर चल रहा है, तब तक क्यों उन के भरेपूरे परिवार को परेशान करें.

अपनी मां के एक फोन पर वे दोनों बेटियां दौड़ी चली आती थीं. आंटी और उन के पति ने मेहनतमजदूरी कर के अपने परिवार को पाला था. उन के पास अब केवल यह मकान ही बचा था, जिस को किराए पर उठा कर उस से मिले पैसे से उन का खर्च चल जाता था.

एक हिस्से में आंटी रहती थीं और दूसरे हिस्से को वे किराए पर उठा देती थीं. पर एक मजदूर के पास मजदूरी से इतना बड़ा मकान नहीं हो सकता. पतिपत्नी दोनों ने खूब मेहनत की और यहां जमीन खरीदी. धीरेधीरे इतना कर लिया कि मकान के एक हिस्से को किराए पर उठा कर आमदनी का एक जरीया तैयार कर लिया था.

राहुल अपने मांबाप का एकलौता बेटा था. अभी उस की शादी नहीं हुई थी. नौकरी पर वह यहां आ गया और आंटी का किराएदार बन गया. दोनों ही अकेले थे. धीरेधीरे मांबेटे का रिश्ता बन गया.

घर के दोनों हिस्सों के बीच का दरवाजा कभी बंद नहीं हुआ. हमेशा खुला रहा. राहुल को कभी ऐसा नहीं लगा कि आंटी गैर हैं. आंटी के बारे में जैसा सुना था, वैसा उस ने नहीं पाया. कभीकभी उसे लगता कि लोग बेवजह ही आंटी को बदनाम करते रहे हैं या राहुल का अपना स्वभाव अच्छा था, जिस ने कभी न करना नहीं सीखा था. आंटी जो भी कहतीं, उसे वह मान लेता.

आंटी हमेशा खुश रहने की कोशिश करतीं, पर राहुल को उन की खुशी खोखली लगती, जैसे वे जबरदस्ती खुश रहने की कोशिश कर रही हों. उसे लगता कि ऐसी जरूर कोई बात है, जो आंटी को परेशान करती है. उसे वे किसी से बताना भी नहीं चाहती हैं. उन की बेटियां भी अपनी मां की समस्या किसी से नहीं कहती थीं.

वैसे, दोनों बेटियों से भी राहुल का भाईबहन का रिश्ता बन गया था. उन के बच्चे उसे ‘मामामामा’ कहते नहीं थकते थे. फिर भी वह एक सीमा से ज्यादा आगे नहीं बढ़ता था. लोग हैरान थे कि राहुल अभी तक वहां कैस टिका हुआ है.

आज रात राहुल जल्दी घर आ गया था. एक बार वह जा कर आंटी से मिल आया था, जो एक नियम सा बन गया था. जब वह देर से घर आता था, तब यह नियम टूटता था. हां, तब आंटी अपने कमरे से ही आवाज लगा देती थीं.

रात के 11 बज रहे थे. राहुल ने सुना कि आंटी चीख रही थीं, ‘मेरा बच्चा… मेरा बच्चा… वह मेरे बच्चे को मुझ से छीन नहीं सकता…’ वे चीख रही थीं और रो भी रही थीं.

पहले तो राहुल ने इसे अनदेखा करने की कोशिश की, पर आंटी की चीखें बढ़ती ही जा रही थीं. इतनी रात को आंटी के पास जाने की उस की हिम्मत नहीं हो रही थी, भले ही उन के बीच मांबेटे का अनकहा रिश्ता बन गया था.

राहुल ने अपने दोस्त प्रशांत को फोन किया और कहा, ‘‘भाभी को लेता आ.’’

थोड़ी देर बाद प्रशांत अपनी बीवी को साथ ले कर आ गया. आंटी के कमरे का दरवाजा खुला हुआ था. यह उन के लिए हैरानी की बात थी. तीनों अंदर घुसे. राहुल सब से आगे था. उसे देखते ही पलंग पर लेटी आंटी चीखीं, ‘‘तू आ गया… मुझे पता था कि तू एक दिन जरूर अपनी मां की चीख सुनेगा और आएगा. उन्होंने तुझे छोड़ दिया. आ जा बेटा, आ जा, मेरी गोद में आ जा.’’

राहुल आगे बढ़ा और आंटी के सिर को अपनी गोद में ले कर सहलाने लगा. आंटी को बहुत अच्छा लग रहा था. उन को लग रहा था, जैसे उन का अपना बेटा आ गया. धीरेधीरे वे नौर्मल होने लगीं.

प्रशांत और उस की बीवी भी वहीं आ कर बैठ गए. उन्होंने आंटी से पूछने की कोशिश की, पर उन्होंने टाल दिया. वे राहुल की गोद में ही सो गईं. उन की नींद को डिस्टर्ब न करने की खातिर राहुल बैठा रहा.

थोड़ी देर बाद प्रशांत और उस की बीवी चले गए. राहुल रातभर वहीं बैठा रहा. सुबह जब आंटी ने राहुल की गोद में अपना सिर देखा, तो राहुल के लिए उन के मन में प्यार हिलोरें मारने लगा. उन्होंने उस को चायनाश्ता किए बिना जाने नहीं दिया.

राहुल ने दफ्तर पहुंच कर आंटी की बड़ी बेटी को फोन किया और रात में जोकुछ घटा, सब बता दिया. फोन सुनते ही बेटी शाम तक घर पहुंच गई. उस बेटी ने बताया, ‘‘जब मेरी छोटी बहन 5 साल की हुई थी, तब हमारा भाई लापता हो गया था. उस की उम्र तब 3 साल की थी. मांबाप दोनों काम पर चले गए थे.

‘‘हम दोनों बहनें अपने भाई के साथ खेलती रहतीं, लेकिन एक दिन वह खेलतेखेलते घर से बाहर चला गया और फिर कभी वापस नहीं आया. ‘‘उस समय बच्चों को उठा ले जाने वाले बाबाओं के बारे में हल्ला मचा हुआ था. यही डर था कि उसे कोई बाबा न उठा ले गया हो.

‘‘मां कभीकभी हमारे भाई की याद में बहक जाती हैं. तभी वे परेशानी में अपने बेटे के लिए रोने लगती हैं.’’ आंटी की बड़ी बेटी कुछ दिन वहीं रही. बड़ी बेटी के जाने के बाद छोटी बेटी आ गई. आंटी को फिर कोई दौरा नहीं पड़ा.

2 दिन हो गए आंटी को. राहुल नहीं दिखा. ‘खटखट’ की आवाज से उन को यह तो अंदाजा था कि राहुल यहीं है, लेकिन वह अपनी आंटी से मिलने क्यों नहीं आया, जबकि तकरीबन रोज एक बार जरूर वह उन से मिलने आ जाता था. उस के मिलने आने से ही आंटी को तसल्ली हो जाती थी कि उन के बेटे को उन की फिक्र है. अगर वह बाहर जाता, तो कह कर जाता, पर उस के कमरे की ‘खटखट’ बता रही थी कि वह यहीं है. तो क्या वह बीमार है? यही देखने के लिए आंटी उस के कमरे पर आ गईं.

राहुल बुखार में तप रहा था. आंटी उस से नाराज हो गईं. उन की नाराजगी जायज थी. उन्होंने उसे डांटा और बोलीं, ‘‘तू ने अपनी आंटी को पराया कर दिया…’’ वे राहुल की तीमारदारी में जुट गईं. उन्होंने कहा, ‘‘देखो बेटा, तुम्हारे मांबाप जब तक आएंगे, तब तक हम ही तेरे अपने हैं.’’

राहुल के ठीक होने तक आंटी ने उसे कोई भी काम करने से मना कर दिया. उसे बाजार का खाना नहीं खाने दिया. वे उस का खाना खुद ही बनाती थीं.

राहुल को वहां रहते तकरीबन 9 महीने हो गए थे. समय का पता ही नहीं चला. वह यह भी भूल गया कि उस का जन्मदिन नजदीक आ रहा है. उस की मम्मी सविता ने फोन पर बताया था, ‘हम दोनों तेरा जन्मदिन तेरे साथ मनाएंगे. इस बहाने तेरा मकान भी देख लेंगे.’

आज राहुल की मम्मी सविता और पापा रामलाल आ गए. उन को चिंता थी कि राहुल एक अनजान शहर में कैसे रह रहा है. वैसे, राहुल फोन पर अपने और आंटी के बारे में बताता रहता था और कहता था, ‘‘मम्मी, मुझे आप जैसी एक मां और मिल गई हैं.’’

फोन पर ही उस ने अपनी मम्मी को यह भी बताया था, ‘‘मकान किराए पर लेने से पहले लोगों ने मुझे बहुत डराया था कि मकान मालकिन बहुत खड़ूस हैं. ज्यादा दिन नहीं रह पाओगे. लेकिन मैं ने तो ऐसा कुछ नहीं देखा.’’ तब उस की मम्मी बोली थीं, ‘बेटा, जब खुद अच्छे तो जग अच्छा होता है. हमें जग से अच्छे की उम्मीद करने से पहले खुद को अच्छा करना पड़ेगा. तेरी अच्छाइयों के चलते तेरी आंटी भी बदल गई हैं,’ अपने बेटे के मुंह से आंटी की तारीफ सुन कर वे भी उन से मिलने को बेचैन थीं.

राहुल मां को आंटी के पास बैठा कर अपने दफ्तर चला गया. दोनों के बीच की बातचीत से जो नतीजा सामने आया, वह हैरान कर देने वाला था.

राहुल के लिए तो जो सच सामने आया, वह किसी बम धमाके से कम नहीं था. उस की आंटी जिस बच्चे के लिए तड़प रही थीं, वह खुद राहुल था. मां ने अपने बेटे को उस की आंटी की सचाई बता दी और बोलीं, ‘‘बेटा, ये ही तेरी मां हैं. हम ने तो तुझे एक बाबा के पास देखा था. तू रो रहा था और बारबार उस के हाथ से भागने की कोशिश कर रहा था. हम ने तुझे उस से छुड़ाया. तेरे मांबाप को खोजने की कोशिश की, पर वे नहीं मिले.

‘‘हमारा खुद का कोई बच्चा नहीं था. हम ने तुझे पाला और पढ़ाया. जिस दिन तू हमें मिला, हम ने उसी दिन को तेरा जन्मदिन मान लिया. अब तू अपने ही घर में है. हमें खुशी है कि तुझे तेरा परिवार मिल गया.’’ राहुल बोला, ‘‘आप भी मेरी मां हैं. मेरी अब 2-2 मांएं हैं.’’ इस के बाद घर के दोनों हिस्से के बीच की दीवार टूट गई.

लेखक- अभय कृष्ण गुप्ता

Interesting Hindi Story : रिश्ता दोस्ती का

Interesting Hindi Story : औफिस में लंच के समय श्वेता ने व्हाट्सऐप संदेश देखा ‘‘आज शाम 6 बजे,’’ श्वेता ने तुरंत उत्तर दे दिया. ‘‘ठीक है,’’ औफिस से 6 बजे श्वेता नीचे उतरी, इंद्रनील उस का इंतजार कर रहा था. दोनों पैदल समीप के मौल की ओर बातें करते हुए चल दिए जहां कौफीहाउस में एक कोने की सीट पर बैठ कर कौफी पीने लगे. इंद्रनील आज चुप था, वह श्वेता की ओर न देख कर विपरीत दिशा में देख रहा था.

‘‘क्या बात है इंद्रनील, उधर क्या देख रहे हो?’’

‘‘कुछ नहीं, बस यों ही.’’

‘‘चुप भी हो?’’

श्वेता के पूछने पर इंद्रनील चुप रहा.

‘‘कौफी भी नहीं पी रहे हो. टकटकी लगा कर उधर देखे जा रहे हो. कौन है वहां?’’

इंद्रनील ने अब श्वेता की ओर देखा और धीरे से कहा ‘‘श्वेता अब विदा होने का समय आ गया है.’’

‘‘समझी नहीं?’’

‘‘मैं दिल्ली छोड़ कर वापस कोलकाता जा रहा हूं,’’ इंद्रनील ने श्वेता की ओर पहली बार देखते हुए कहा.

‘‘क्या सदा के लिए?’’ श्वेता कुछ उदास हो गई.

‘‘हां तभी तुम से कह रहा हूं. शायद आज अंतिम बार मिलना हो, मैं कुल सुबह कोलकाता रवाना हो रहा हूं.’’

‘‘इतनी जल्दी?’’

‘‘हां सब अचानक से हो गया और निर्णय भी तुरंत ही लेना पड़ा.’’

‘‘श्वेता मैं ने नौकरी छोड़ दी है. आज मेरा अंतिम दिन था. सब को अलविदा कहा. बिना तुम से मिले कैसे जा सकता हूं. एक तुम ही तो हो जिस के साथ हर सुख और दुख सांझा किया है.’’

‘‘पहले बता देते?’’ श्वेता के इस प्रश्न पर इंद्रनील भावुक हो गया.

‘‘बस 10-12 दिनों में घटनाक्रम इतनी तेजी से घूमा कि तुम से बात नहीं कर सका.’’

‘‘कुछ बताओ, दिल पर पड़ा बोझ हलका हो जाएगा,’’ श्वेत ने इंद्रनील से कहा.

‘‘श्वेता पिछले महीने श्यामली की मृत्यु हो गई.’’

‘‘तुम ने बताया ही नहीं?’’

‘‘मुझे भी नहीं मालूम था. कोई 12 दिन पहले श्यामली की चाची ने अस्पताल में दोनों बच्चों सुब्रता और सांवली को मेरी मां के हवाले कर दिया. बच्चों की खातिर ही दिल्ली छोड़ कोलकाता जा रहा हूं,’’ कह कर इंद्रनील चुप हो गया.

इंद्रनील और श्वेता कौफी के घूंट पीते हुए अतीत में चले गए… श्वेता और इंद्रनील पिछले लगभग 10 वर्षों से मित्र हैं. दोनों की उम्र लगभग 40 के आसपास है. श्वेता 10 वर्ष पहले जब औफिस में काम करने पहली बार आईर् थी तब इंद्रनील के साथ वाली सीट पर बैठ कर काम करना आरंभ किया. साथसाथ बैठ कर काम करतेकरते दोनों घनिष्ठ मित्र बन गए. दोनों में एक बात समान थी कि दोनों उस समय तलाकशुदा थे.

श्वेता का एक 4 वर्ष का पुत्र जिस का नाम शौर्य था और अपने मातापिता के संग रह रही थी. इंद्रनील कोलकाता का रहने वाला था और वह भी तलाकशुदा था उस के 2 बच्चे थे 4 वर्षीय पुत्र सुब्रता और 2 वर्षीय पुत्री सांवली. तलाक के समय छोटे बच्चों की परवरिश मां को मिली. इंद्रनील कोलकाता से दिल्ली आ गया.

कभीकभी जब कोलकाता जाता तब बच्चों से मिलता. शुरूशुरू में बच्चों से मिलना लगा रहा फिर बच्चे भी कभीकभी मिलने वाले पिता से घुलमिल नहीं सके और इंद्रनील ने बच्चों से मिलना छोड़ दिया.

कुछ यही हाल श्वेता का भी था. वह शौर्य को अपने पिता के साए से दूर रखना चाहती थी और 2 वर्ष बाद दूर हो ही गया. श्वेता की समस्या उस का पुत्र था जिस कारण उस का दूसरा विवाह नहीं हुआ. उस के मातापिता तो दूसरा विवाह चाहते थे, लेकिन सामाजिक बेडि़यों ने एक बच्चे वाली मां का दूसरा विवाह नहीं होने दिया. इंद्रनील ने एक बार दूसरा विवाह करने की सोची, लेकिन पुराने कटु अनुभव ने उसे रोक लिया.

10 मिनट बाद पुरानी यादों के चलते नम आंखों के साथ वर्तमान में आ गए और  कौफीहाउस से बाहर मौल में चहलकदमी करने लगे. एक दुकान के अंदर श्वेता इंद्रनील के लिए शर्ट पसंद करने लगी और इंद्रनील श्वेता के लिए साड़ी पसंद करने लगा. एकदूसरे के लिए शायद अंतिम उपहार उन दोनों ने खरीदा था. आज कोई बात नहीं हो रही थी सिर्फ एकदूसरे की आंखों में आंखें डाल कर दिल की बात कह और सुन रहे थे. मौल से बाहर आने पर श्वेता ने शर्ट का पैकेट इंद्रनील को दिया, ‘‘इंद्र फिर कब मिलना होगा?’’

इंद्रनील ने साड़ी का पैकेट श्वेता को देते हुए जवाब दिया, ‘‘मुझे स्वयं नहीं मालूम… फोन करूंगा.’’

बाय कह कर इंद्रनील और श्वेता अपनेअपने घर की ओर चल दिए. इंद्रनील ने सुबह की गाड़ी पकड़नी थी, इसलिए उस ने सारा सामान पैक कर रखा था, लेकिन उस की आंखों से नींद नदारद थी… 10 वर्ष से उस की श्वेता से पहचान है. श्वेता से वह औफिस में ही मिलता था और औफिस से बाहर सिनेमा भी देखते थे, मौल भी घूमते थे और अकसर इंडिया गेट के लौन या पुराना किला के अंदर दीवार के साथ बैठ कर बातें करते थे.

इंद्रनील किराए के कमरे में रहता था और कभी भी श्वेता को अपने कमरे में ले कर नहीं गया. वह श्वेता पर किसी भी तरह का लांछन नहीं लगने देना चाहता था उस का मकान मालिक या पड़ोसी श्वेता और उस के रिश्ते पर कोई उंगली उठाए. ठीक उसी तरह वह कभी भी श्वेता के घर नहीं गया कि कहीं श्वेता का परिवार, रिश्तेदार, पड़ोसी उन की मित्रता को गलत समझें.

इन 10 वर्षों में उन दोनों का रिश्ता सिर्फ भावनात्मक ही रहा. वे दोनों कभी भी नहीं बहके और लक्ष्मण रेखा को नहीं लांघे. औफिस में उन की नजदीकियों पर सहकर्मी उपहास करते थे, लेकिन यह अधिक समय नहीं रहा क्योंकि 1 वर्र्ष बाद इंद्रनील ने नौकरी बदल ली और औफिस के बाद या अवकाश के समय ही मिलते थे. 10 वर्षों में इंद्रनील और श्वेता ने कई नौकरियां बदलीं, लेकिन एक अनोखा भावनात्मक रिश्ता मजबूत होता गया.

श्वेता की भी नींद नदारद थी. वह इंद्रनील के बारे में सोचती रही कि दोनों एकदूसरे के नजदीक होते हुए भी दूर रहे. एक खयालात, एक सोच लेकिन एक नहीं हुए. पिछले 10 वर्षों से वे दोनों कहें तो दोहरी जिंदगी जी रहे थे.

इंद्रनील कोलकाता चला गया और श्वेता औफिस के बाद उदास रहने  लगी. पुत्र शौर्य अब 14 वर्ष का हो गया है और पढ़ाई के साथ खेल में व्यस्त रहने लगा है. श्वेता रात को इंद्रनील के बारे में ही सोचती रहती और इंद्रनील श्वेता के बारे में सोचता रहता. इंद्रनील का पुत्र सुब्रता भी अब 14 वर्ष और पुत्री सांवली 12 की हो गई. इंद्रनील कई वर्षों से बच्चों से नहीं मिला था. तलाक के बाद श्यामली अपने मातापिता के संग रह रही थी, लेकिन वे श्यामली से पहले ही दुनिया से कूच कर चुके थे.

श्मामली की मृत्यु पर दोनों बच्चे अकेले रह गए. सड़क दुर्घटना के बाद अस्पताल में श्यामली ने अपने सासससुर को संदेश भिजवाया और बच्चों को अस्पताल में दादादादी को सुपुर्द कर के दुनिया छोड़ गई. मातापिता से सूचना मिलने पर इंद्रनील कोलकाता चला गया. अंतिम समय में श्यामली की आर्थिक स्थिति दयनीय थी और बहुत मुश्किल से गुजरबसर हो रहा था. स्कूल की फीस भी नहीं भरी थी.

इंद्रनील सोचने लगा कि  10 वर्ष पूर्व श्यामली ने तलाक पर एक मुश्त 10 लाख रुपए की रकम ली थी, यदि वह उस रकम को बैंक में फिक्स्ड डिपौजिट पर रखती तब आज इतनी दयनीय स्थिति नहीं होती.

इंद्रनील की कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे. बच्चे उस के पास थे, लेकिन सहमे हुए क्योंकि वर्षों बाद अपने पिता से मिल रहे थे जिस की उन के मानसपटल पर कोई स्मृति शेष नहीं थी. इंद्रनील ने सब से पहले बच्चों की स्कूल फीस भरी और उन को स्कूल भेजना शुरू किया. श्यामली ने सड़क दुर्घटना के पश्चात अस्पताल में बच्चों को उन के पिता के बारे में बताया और दादादादी के सुपुर्द किया.

कोलकाता आए इंद्रनील को  1 महीना हो  गया. इस 1 महीने में श्वेता और इंद्रनील के बीच कोई बात नहीं हुई. श्वेता ने फोन करने की सोची, लेकिन संयम रखते हुए अपने हाथ खींच लिए. अब उस ने अपना समय पुत्र शौर्य के संग बिताना आरंभ किया. इंद्रनील अपने जीवन में तालमेल नहीं बैठा सका और एक दिन श्वेता को फोन कर ही दिया.

‘‘श्वेता कैसी हो?’’

‘‘तुम बताओ?’’

‘‘चलो एकदूसरे को अपना हाल बता देते हैं.’’

‘‘यह ठीक है इंद्रनील, जीवन का नया पड़ाव कैसा लग रहा है?’’

‘‘श्वेता इन परिस्थितियों के बारे में कभी सोचा नहीं था इसलिए हालात से समन्वय नहीं बन पा रहा है.’’

‘‘इंद्रनील जीवन अनिश्चिता से भरपूर है. भविष्य एक रहस्य है कि कल क्या होगा. हम ने विवाह किया तब यह नहीं सोचा था कि हमारा तलाक होगा लेकिन हुआ. जब हम ने उन परिस्थितियों को जीया तब अब भी जी सकते हैं. थोड़ा समय दिक्कत होती है फिर हम सब नई परिस्थितियों के आदी हो जाते हैं.’’

‘‘श्वेता तुम्हारी दार्शनिक बातें सुन कर मन का बोझ हलका हुआ कि हालात से समझौता करना ही पड़ता है.’’

‘‘इंद्रनील जीवन अपनेआप में ही समझौता है. हर पल समझौता करना होता है. अगर हम यह बात पहले समझ जाते तब हो सकता है कि तलाक ही नहीं होता लेकिन हुआ क्योंकि कहीं न कहीं हमारा अहम टकरा गया और हम पीछे नहीं हटे. जीवन के अनुभवों से ही हम सीखते हैं.’’

‘‘श्वेता मेरी समस्या बच्चों के साथ तालमेल की है. आज वर्षों बाद बच्चे साथ हैं, समझ नहीं आ रहा कि मैं उन के साथ कैसा व्यवहार करूं.’’

‘‘इंद्रनील बच्चे तो तुम्हारे अपने हैं बस अंतर सिर्फ इतना है कि तुम वर्षों बाद बच्चों से मिल रहे हो. समझ लो कि विदेश में रहते थे. अब वापस अपने घर आए हो.’’

‘‘श्वेता तुम तो उदाहरण भी ऐसे देती हो कि मेरे पास कोई उत्तर ही नहीं सिवा इस के कि तुम्हारे सुझाव पर अमल करूं.’’

‘‘इंद्रनील यह महिला दिमाग का कमाल है जो पुरुष दिमाग से सदा आगे रहता है.’’

फोन पर बात समाप्त होने पर शौर्य ने मां श्वेता से पूछा, ‘‘मम्मी किस के साथ बात कर रही थीं? बहुत लंबी बात हो गई?’’

‘‘शौर्य में इंद्रनील से बात कर रही थी. मेरे साथ औफिस में काम करते थे आजकल कोलकाता में रहते हैं. कई बार बात होती रहती है. इन का लड़का भी तुम्हारे जितना बड़ा है 14 वर्ष का.’’

‘‘इंद्रनील अंकल कभी घर नहीं आए… कभी देखा नहीं?’’

पुत्र के इस प्रश्न पर श्वेता को आश्चर्य हुआ कि आज  पहली बार शौर्य उस से ऐसा प्रश्न कर रहा है. अब वह बड़ा हो गया है और दुनिया की ऊंचनीच भी समझने लगा है. फिर चुटकी में अपने भावों को नियंत्रित करते हुए श्वेता ने शौर्य को समझाया कि हमारे औफिस में बहुत कर्मचारी हैं और मैं ने 4 कंपनियों में काम किया, वहां अनेक के साथ मेरी मित्रता रही, लेकिन मैं किसी के घर नहीं जाती थी क्योंकि तुम छोटे थे और औफिस के बाद तुम्हारे साथ समय बिताना मेरी प्राथमिकता रही है इसी कारण मैं किसी को अपने घर भी नहीं बुलाती थी क्योंकि तुम्हें मालूम है कि मेरा और तुम्हारे पापा का 10 वर्ष पूर्व तलाक हुआ था.

‘‘मैं ने तुम्हारी परवरिश को सब से बेहतर रखने की कोशिश की ताकि तुम्हें पिता की कमी महसूस न हो. अब तुम बड़े हो गए हो तुम चाहोगे तब मैं अपने मित्रों को भी घर बुलाऊंगी.’’

‘‘मम्मी मैं तो सिर्फ इसलिए पूछ रहा था क मेरे मित्र घर आते हैं तब आप के क्यों नहीं आते हैं?’’

‘‘वह इसलिए कि तुम मित्रों के संग पढ़ते हो, मेरे मित्र आएंगे तब सिर्फ गपशप होगी और तुम्हारी पढ़ाई में खलल होगा.’’

‘‘कभीकभी तो बुला सकती हो?’’

‘‘अब तुम चाहते हो तब इसी रविवार को अपने मित्रों के संग महफिल सजा दूंगी,’’ श्वेता ने मुसकराते हुए शौर्य से कहा तो शौर्य भी मुसकरा दिया.

खैर शौर्य की मंशा श्वेता समझ गई कि बच्चा अब स्याना हो गया है और रिश्तों के साथ मित्रता की भी अहमियत समझने लगा है. श्वेता ने अपनी तरफ से इंद्रनील को फोन नहीं किया. उसे शायद डर था कि शौर्य उस के इंद्रनील के साथ पवित्र रिश्ते को कहीं गलत न समझ ले कि उस की मां दोहरी जिंदगी जी रही है. उस ने रिश्ते पर पूर्णविराम लगा दिया. इंद्रनील कभीकभी श्वेता से फोन पर बात कर लिया करता था, वह सिर्फ अपने बच्चों से जुड़ने पर ही विमर्श करता था.

इंद्रनील ने कोलकाता में नौकरी कर ली और छुट्टी वाले दिन बच्चों के साथ रहता और उन के साथ घूमने जाता. श्वेता ने इंद्रनील को सलाह दी कि वह बच्चों को आर्थिक संरक्षण प्रदान करने के साथसाथ उन से भावनात्मक रूप से भी जुड़े. इंद्रनील छुट्टी वाले दिन बच्चों के साथ घूमने जाता. धीरेधीरे बच्चे इंद्रनील से जुड़ने लगे. इंद्रनील के बच्चों से जुड़ाव के बाद श्वेता ने इंद्रनील से फोन पर बात भी बंद कर दी.

1 वर्ष बाद सर्दियों की ठंड में श्वेता बालकनी में बैठ कर धूप सेंक रही थी. शौर्य की 10वीं की बोर्ड परीक्षा नजदीक थी. वह भी धूप में श्वेता के नजदीक बैठ कर पढ़ रहा था तभी डोरबैल बजी.

‘‘शौर्य जरा दरवाजा खोलना.’’

‘‘मम्मी मैं पढ़ रहा हूं, आप खोलिए.’’

श्वेता ने दरवाजा खोला, दरवाजे पर इंद्रनील अपने बच्चों सुब्रता और सांवली के संग खड़ा था. वह इंद्रनील को अचानक घर पर बिना किसी सूचना के अपने सामने देख कर अचंभित हो गई. उस का मुख खुला का खुला रह गया.

इंद्रनील ने चुप्पी तोड़ी, ‘‘श्वेता इन से मिलो, सुब्रता और सांवली.’’

‘‘आओ इंद्रनील,’’ श्वेता ने सब को बैठक में बैठा कर शौर्य को आवाज दी, ‘‘शौर्य देखो कौन आया है.’’

‘‘कौन है मम्मी?’’ शौर्य ने बालकनी से ही श्वेता से पूछा.

‘‘इंद्रनील अंकल.’’

इंद्रनील सुनते ही शौर्य बैठक में आ कर बड़ी आत्मीयता से सब से मिला.

सुब्रता और सांवली के एक प्रश्न पर श्वेता चुप रह गई, ‘‘आंटी आप ने पापा से फोन पर बात करना क्यों छोड़ दिया है?’’

श्वेता को इस प्रश्न का उत्तर मालूम था, लेकिन बच्चों को किस तरह से अपने मन की बात समझाए, उस की जबान पर शब्द नहीं आ रहे थे.

‘‘हां मम्मी आप इंद्रनील अंकल को अपने विचारों से अवगत कराती थीं और सुझावों से अंकल को बच्चों से एक कराया फिर क्या हुआ जो आप ने अंकल से बात करनी बंद कर दी?’’

शौर्य की बात का समर्थन करते हुए सुब्रता और सांवली ने भी श्वेता से प्रश्न पूछा, ‘‘आंटी आप के सुझाव और मार्गदर्शन से हम पापा से जुड़ सके और आप ही पापा से जुदा हो गईं. पापा हमारे सामने आप से फोन पर बात करते थे, इसलिए हमारे अनुरोध पर पापा हमें आप से मिलवाने दिल्ली आए हैं.’’

श्वेता ने बात बदलते हुए इंद्रनील से पूछा ‘‘कहां रुके हो?’’

‘‘कंपनी के गैस्टहाउस में रुका हूं. थोड़ा कंपनी का काम भी कर लूंगा और बच्चों के साथ दिल्ली भी घूम लूंगा.’’

बात को दूसरी तरफ घूमता देख सुब्रता और सांवली ने श्वेता को टोका, ‘‘आंटी आप

ने हमारे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया.’’

‘‘हां मम्मी मैं भी इस प्रश्न का उत्तर चाहता हूं,’’ शौर्य ने भी मां से पूछा.

‘‘श्वेता मैं भी उत्तर चाहता हूं,’’ इंद्रनील ने भी श्वेता से पूछा.

2 मिनट तक श्वेता चुप रही फिर बोली, ‘‘इंद्रनील तुम तो उत्तर जानते हो. हम और तुम सिर्फ मित्र रहे, एक अच्छे मित्र की भांति हम ने आपस में सुख और दुख साझा किए. हमारी मित्रता इसलिए मजबूत रही क्योंकि हम दोनों तलाकशुदा थे और हमारे बच्चों की उम्र भी एकजैसी थी. जब मैं पहली बार औफिस में इंद्रनील से मिली तब इंद्रनील सुब्रता और सांवली से मिलते रहते थे और उसी तरह शौर्य अपने पिता से. छोटे बच्चों की अच्छी परवरिश हो और उन के मानसपटल पर हमारे तलाक का धब्बा न लगे यही हम दोनों का मुख्य उद्देश्य था.

‘‘श्यामली की मृत्यु के पश्चात जब सुब्रता और सांवली इंद्रनील के जीवन में वापस आए तब तुम किशोरावस्था में पदार्पण कर चुके थे और दुनिया की ऊंचनीच को समझने लगे थे. इस से पहले कि शौर्य मुझे गलत समझे मैं ने दूरी बनानी उचित समझी.’’

श्वेता का उत्तर इंद्रनील को मालूम था कि यही होगा, लेकिन तीनों बच्चे एकसाथ बोले, ‘‘आप मित्र बन कर रहो. मित्रता क्यों तोड़ते हो?’’

‘‘हमने कभी लक्ष्मणरेखा नहीं लांघी है.’’

‘‘हम लक्ष्मण रेख लांघने को नहीं कह रहे हैं. पुरानी मित्रता को कायम रखो.’’

शौर्य ने श्वेता का हाथ पकड़ कर इंद्रनील की ओर बढ़ाया तो सुब्रता ने इंद्रनील का हाथ श्वेता की ओर बढ़ाया.

‘‘सच्ची मित्रता कभी नहीं टूटती है,’’ सांवली ने श्वेता और इंद्रनील का हाथ एक करते हुए कहा.

Hindi Stories Online : हुस्न का बदला

Hindi Stories Online : शीला की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे और क्या न करे. पिछले एक महीने से वह परेशान थी. कालेज बंद होने वाले थे. प्रदीप सैमेस्टर का इम्तिहान देने के बाद यह कह कर गया था, ‘मैं तुम्हें पैसों का इंतजाम कर के 1-2 दिन बाद दे दूंगा. तुम निश्चिंत रहो. घबराने की कोई बात नहीं.’

‘पर है कहां वह?’ यह सवाल शीला को परेशान कर रहा था. उस की और प्रदीप की पहचान को अभी सालभर भी नहीं हुआ था कि उस ने उस से शादी का वादा कर उस के साथ… ‘शीला, तुम आज भी मेरी हो, कल भी मेरी रहोगी. मुझ से डरने की क्या जरूरत है? क्या मुझ पर तुम्हें भरोसा नहीं है?’ प्रदीप ने ऐसा कहा था.

‘तुम पर तो मुझे पूरा भरोसा है प्रदीप,’ शीला ने जवाब दिया था.

शीला गांव से आ कर शहर के कालेज में एमए की पढ़ाई कर रही थी. यह उस का दूसरा साल था. प्रदीप इसी शहर के एक वकील का बेटा था. वह भी शीला के साथ कालेज में पढ़ाई कर रहा था. ऐयाश प्रदीप ने गांव से आई सीधीसादी शीला को अपने जाल में फंसा लिया था.

शीला उसे अपना दोस्त मान कर चल रही थी. उन की दोस्ती अब गहरी हो गई थी. इसी दोस्ती का फायदा उठा कर एक दिन प्रदीप उसे घुमाने के बहाने पिकनिक पर ले गया. फिर वे मिलते, पर सुनसान जगह पर. इस का नतीजा, शीला पेट से हो गई थी.

जब शीला को पता चला कि उस के पेट में प्रदीप का बच्चा पल रहा है, तो वह घबरा गई. बमुश्किल एक क्लिनिक की लेडी डाक्टर 10 हजार रुपए में बच्चा गिराने को तैयार हुई. डाक्टर ने कहा कि रुपयों का इंतजाम 2 दिन में ही करना होगा.

इधर प्रदीप को ढूंढ़तेढूंढ़ते शीला को एक हफ्ते का समय बीत गया, पर वह नहीं मिला. शीला ने उस का घर भी नहीं देखा था. प्रदीप के दोस्तों से पता करने पर ‘मालूम नहीं’ सुनतेसुनते वह परेशान हो गई थी.

शीला ने सोचा कि क्यों न घर जा कर कालेज में पैसे जमा करने के नाम पर पिता से रुपए मांगे जाएं. सोच कर वह घर आ गई. उस की बातचीत के ढंग से पिता ने अपनी जमीन गिरवी रख कर शीला को 10 हजार रुपए ला कर दे दिए.

वह रुपए ले कर ट्रेन से शहर लौट आई. टे्रन के प्लेटफार्म पर रुकते ही शीला ने जब अपने सूटकेस को सीट के नीचे नहीं पाया, तो वह घबरा गई. काफी खोजबीन की गई, पर सूटकेस गायब था. वह चीख मार कर रो पड़ी. शीला गायब बैग की शिकायत करने रेलवे पुलिस के पास गई, पर पुलिस का रवैया ढीलाढाला रहा.

अचानक पीछे से किसी ने शीला को आवाज दी. वह उस के बचपन की सहेली सुधा थी.

‘‘अरे शीला, पहचाना मुझे? मैं सुधा, तेरी बचपन की सहेली.’’

वे दोनों गले लग गईं.

‘‘कहां से आ रही है?’’ सुधा ने पूछा.

‘‘घर से,’’ शीला बोली.

‘‘तू कुछ परेशान सी नजर आ रही है. क्या बात है?’’ सुधा ने पूछा.

शीला ने उस पर जो गुजरी थी, सारी बात बता दी. ‘‘बस, इतनी सी बात है. चल मेरे साथ. घर से तुझे 10 हजार रुपए देती हूं. बाद में मुझे वापस कर देना.’’ सुधा उसी आटोरिकशा से शीला को अपने घर ले कर पहुंची.

शीला ने जब सुधा का शानदार घर देखा, तो हैरान रह गई.

‘‘सुधा, तुम्हारा झोंपड़पट्टी वाला घर? तुम्हारी मां अब कहां हैं?’’ शीला ने सवाल थोड़ा घबरा कर किया.

‘‘वह सब भूल जा. मां नहीं रहीं. मैं अकेली हूं. एक दफ्तर में काम करती हूं. और कुछ पूछना है तुझे?’’ सुधा ने कहा, ‘‘ले नाश्ता कर ले. मुझे जरूरी काम है. तू रुपए ले कर जा. अपना काम कर, फिर लौटा देना… समझी?’’ कह कर सुधा मुसकरा दी.

शीला रुपए ले कर घर लौट आई. अगले दिन जैसे ही शीला आटोरिकशा से डाक्टर के क्लिनिक पर पहुंची, तो वहां ताला लगा था. पूछने पर पता चला कि डाक्टर बाहर गई हैं और 2 महीने बाद आएंगी. शीला निराश हो कर घर आ गई. उस ने एक हफ्ते तक शहर के क्लिनिकों पर कोशिश की, पर कोई इस काम के लिए तैयार नहीं हुआ.

हार कर शीला सुधा के घर रुपए वापस करने पहुंची.

‘‘मैं पैसे वापस कर रही हूं. मेरा काम नहीं हुआ,’’ कह कर शीला रो पड़ी.

‘‘अरे, ऐसा कौन सा काम है, जो नहीं हुआ? मुझे बता, मैं करवा दूंगी. मैं तेरी आंख में आंसू नहीं देख सकती,’’ सुधा ने कहा.

शीला ने सबकुछ सचसच बता दिया. ‘‘तू चिंता मत कर. मैं सारा काम कर दूंगी. मुझ पर यकीन कर,’’ सुधा ने कहा. और फिर सुधा ने शीला का बच्चा गिरवा दिया. डाक्टर ने उसे 15 दिन आराम करने की सलाह दी.

शीला बारबार कहती, ‘‘सुधा, तुम ने मुझ पर बहुत बड़ा एहसान किया है. यह एहसान मैं कैसे चुका पाऊंगी?’’

‘‘तुम मेरे पास ही रहो. मैं अकेली हूं. मेरे रहते तुम्हें कौन सी चिंता?’’ शीला अपना मकान छोड़ कर सुधा के घर आ गई.

शीला को सुधा के पास रहते हुए तकरीबन 6 महीने बीत गए. पिता की बीमारी की खबर पा कर वह गांव चली आई. पिता ने गिरवी रखी जमीन की बात शीला से की. शीला ने जमीन वापस लेने का भरोसा दिलाया.

जब शीला सुधा के पास आई, तो उस ने सुधा से कहा, ‘‘मुझे कहीं नौकरी पर लगवा दो. मैं कब तक तुम्हारा बोझ बनी रहूंगी? मुझे भी खाली बैठना अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘ठीक है. मैं कोशिश करती हूं,’’ सुधा ने कहा.

एक दिन सुधा ने शीला से कहा, ‘‘सुनो शीला, मैं ने तुम्हारी नौकरी की बात की थी, पर…’’ कह कर सुधा चुप हो गई.

‘‘पर क्या? कहो सुधा, क्या बात है बताओ मुझे? मैं नौकरी पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हूं.’’ सुधा मन ही मन खुश हो गई. उस ने कहा, ‘‘ऐसा है शीला, तुम्हें अपना जिस्म मेरे बौस को सौंपना होगा, सिर्फ एक रात के लिए. फिर तुम मेरी तरह राज करोगी.’’

शीला ने सोचा कि प्रदीप से बदला लेने का अच्छा मौका है. इस से सुधा का एहसान भी पूरा होगा और उस का मकसद भी.

शीला ने अपनी रजामंदी दे दी. फिर सुधा के कहे मुताबिक शीला सजसंवर कर बौस के पास पहुंच गई. बौस के साथ रात बिता कर वह घर आ गई. साथ में सौसौ के 20 नोट भी लाई थी. और फिर यह खेल चल पड़ा. दिन में थोड़ाबहुत दफ्तर का काम और रात में ऐयाशी.

अब शीला भी आंखों पर रंगीन चश्मा, जींसशर्ट, महंगे जूते, मुंह पर कपड़ा लपेटे गुनाहों की दुनिया की बेताज बादशाह बन गई थी.

कालेज के बिगड़ैल लड़के, अमीर कारोबारी, सफेदपोश नेता सभी शीला के कब्जे में थे. एक दिन शीला ने सुधा से कहा, ‘‘दीदी, मुझे लगता है कि अमीरों ने फरेब की दुकान सजा रखी है…’’ इतने में सुधा के पास फोन आया.

‘‘कौन?’’ सुधा ने पूछा.

‘‘मैडम, मैं प्रदीप… मुझे शाम को…’’

‘‘ठीक है. 10 हजार रुपए लगेंगे. एक रात के… बोलो?’’

‘‘ठीक है,’’ प्रदीप ने कहा.

‘‘कौन है?’’ शीला ने पूछा.

‘‘कोई प्रदीप है. उसे एक रात के लिए लड़की चाहिए.’’ शीला ने दिमाग पर जोर डाला. कहीं यह वही प्रदीप तो नहीं, जिस ने उस की जिंदगी को बरबाद किया था.

‘‘दीदी, मैं जाऊंगी उस के पास,’’ शीला ने कहा.

‘‘ठीक है, चली जाना,’’ सुधा बोली.

शीला ने ऐसा मेकअप किया कि उसे कोई पहचान न सके. दुपट्टे से मुंह ढक कर चश्मा लगाया और होटल पहुंच गई.

शीला ने एक कमरा पहले से ही बुक करा रखा था, ताकि वही प्रदीप हो, तो वह देह धंधे के बदले अपना बदला चुका सके. प्रदीप नशे में झूमता हुआ होटल पहुंच गया.

‘‘मेरे कमरे में कौन है?’’ प्रदीप ने मैनेजर से पूछा.

‘‘वहां एक मेम साहब बैठी हैं. कह रही हैं कि साहब के आने पर कमरा खाली कर दूंगी. वैसे, यह उन्हीं का कमरा है. होटल के सभी कमरे भरे हैं,’’ कह कर मैनेजर चला गया.

प्रदीप ने दरवाजा खोल कर देखा, तो खूबसूरती में लिपटी एक मौडर्न बाला को देख कर हैरान रह गया.

‘‘कमाल का हुस्न है,’’ प्रदीप ने सोफे पर बैठते हुए कहा.

‘‘यह आप का कमरा है?’’

‘‘जी,’’ शीला ने कहा.

‘‘मैं आप का नाम जान सकता हूं?’’ प्रदीप ने पूछा.

‘‘मोना.’’

‘‘आप कपड़े उतारिए और अपना शौक पूरा करें. समय बरबाद न करें. इसे अपना कमरा ही समझिए.’’

इस के बाद शीला ने प्रदीप को अपना जिस्म सौंप दिया. वे दोनों अभी ऐयाशी में डूबे ही थे कि किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी.

प्रदीप मुंह ढक कर सोने का बहाना कर के सो गया.

शीला ने दरवाजा खोला, तो पुलिस को देख कर वह जोर से चिल्लाई, ‘‘पुलिस…’’

‘‘प्रदीप साहब, आप के खिलाफ शिकायत मिली है कि आप ने मोना मैडम के कमरे पर जबरदस्ती कब्जा जमा कर उन से बलात्कार किया है. आप को गिरफ्तार किया जाता है,’’ पुलिस ने कहा.

‘‘जी, मैं…’’ यह सुन कर प्रदीप की घिग्घी बंध गई.

पुलिस ने जब प्रदीप को गिरफ्तार किया, तो मोना उर्फ शीला जोर से खिलखिला कर हंस उठी और बोली, ‘‘प्रदीपजी, इसे कहते हैं हुस्न का बदला…’’

Hindi Kahani : माटी की गंध के परे – क्या थी गीता की कहानी

Hindi Kahani : शुभा खाना खातेखाते टीवी देख रही थी, बीचबीच में नीरज से बातें भी करती जा रही थी. सहसा उसे लगा कि उस ने टीवी में गीता को देखा है. मुंह में कौर था. उंगली के इशारे से टीवी की तरफ देखती हुई शुभा बोल उठी, ‘‘देखो, देखो, गीता है वहां.’’ बच्चे चौंक कर मां को देखने लगे, फिर उस की मुद्रा पर हंस दिए. मुंह में कौर होने से शब्द अस्पष्ट से निकले. अस्पष्ट शब्दों से नीरज एकाएक समझ नहीं पाया बात को. समझ कर देखा, तब तक कोई और खबर आने लगी थी.

‘‘ए, चुप रहो तुम लोग,’’ बच्चों को डपट कर शुभा फिर नीरज से बोली, ‘‘सच नीरज, गीता ही थी, शतप्रतिशत, 2 बार क्लिप में देखा. अभी अपने अलबम में उस का फोटो दिखाऊंगी तुम्हें.’’

खाना समेटने के बाद तौलिए से हाथों को पोंछती शुभा कालेज के समय का अपना अलबम निकाल लाई. पन्ने पलटपलट कर देखने लगी, फिर एक जगह रुक कर उंगली रखती हुई नीरज को दिखाने लगी. चित्र में एक कन्या अपने होंठों के कोने पर उंगली रखे झिलमिल दांत दिखाती हंस रही थी. साधारण सी लड़की का असाधारण फोटो.

नीरज को बड़ी शोख सी लगी लड़की. ‘‘वाह, क्या पोज बनाया है तुम्हारी सहेली ने, एकदम फिल्म स्टार लग रही है.’’‘‘हां, पापा ठीक कहते हैं. हेमा मालिनी लग रही हैं, आंटी,’’ नन्ही नीता होहो कर के हंसने लगी. कुछ मजाक का पुट था उन के स्वरों में. शुभा तुनक गई.

‘‘देखो, मजाक मत करो तुम लोग. सच, इसी को टीवी पर देखा था किसी भाषण में. आई होगी भाषण सुनने.’’‘‘अरे छोड़ो, तुम्हें क्या करना है. तुम शाम के खाने की तैयारी करो. याद है न, करीब 7 लोग आएंगे खाना खाने. मैं जाता हूं औफिस.’’

नीरज चला गया था. बच्चे खेलने में व्यस्त हो गए थे. शुभा को अकेलापन मिला तो फिर गीता स्मृतियों में हलचल मचाने चली आई. अतीत की झील में वर्तमान ने कंकड़ उछाल दिया. छोटीबड़ी लहरें एकदूसरे को उलांघती उसे छूने लगीं. गीता उस की प्रिय सहेली थी. बचपन की, गुड्डेगुडि़यों की उम्र की, चुहल शरारतों की, कालेज की. बचपन तो सहज सा ही गुजरा था. कालेज के दिनों में गीता अपने में डूब गई थी. एक अलग सी दुनिया बसा ली थी उसने.

अचानक नीता के रोने की आवाज आई. नलिन, नीता के लड़ने के स्वर तो बहुत देर से सुनाई दे रहे थे, पर जैसे चेतना के दायरे में न थे. विचारों में व्यवधान पड़ने पर उसे होश आया. झपट कर बच्चों के पास पहुंची. पूरा कमरा खिलौनों से अटा पड़ा था. बस्ते इधरउधर मुंह औंधा कर पड़े थे. कपड़े अलमारी से बाहर लटक रहे थे. शुभा ने कमरा देखा तो चिल्ला पड़ी, ‘‘यह क्या हाल कर दिया कमरे का.’’

दोनों बच्चे सहम कर खड़े हो गए. नीता का रोना थम गया. डरतेडरते वह ही बोली, ‘‘मैं ने तो भैया के बाद फेंका है उन का सामान, पहले तो…’’नलिन बात काट कर खीजा, ‘‘नहींनहीं, इसी ने पहले मेरे बैग से ड्राइंग की कौपी निकाली थी.’’‘‘चुप रह कर खेलो, खबरदार जो अब आवाज सुनाई दी,’’ बच्चों को डांट कर उस का ध्यान गीता में ही उलझ गया.

कालेज के दिन, कितने ही वाकिए, बातें याद आती रहीं. इन सब में गीता कहीं न कहीं से आ टपकती. गीता एक पहेली सी लगती थी. बेबाक, शोख, शर्मलिहाज से परे, पर उद्दंड नहीं थी. कब क्या कर गुजरती, कोई जान नहीं पाता था. मध्यवर्गीय परिवार में जन्मी थी, पर सपने ऐसे कि आसमान को छू कर भी आगे निकलने का प्रयास करते, गहरा असंतोष दिखाती,  कभी बड़ेबड़े लोगों से मिलने की ललक, धनवान बन जाने की चाह. आज उस की बहुत सारी बातें समझ में आ रही थीं. वरना तब तो कैसी लगती थी वह, कभी तेजतर्रार, कभी मायूस, कभी मासूम.

शुभा ने अपना ध्यान गीता की यादों से बाहर निकालने की कोशिश की तो एकदम से उस को याद आ गया कि उसे मेहमानों के लिए शाम की तैयारी करनी है, जल्दीजल्दी सारा घर सैट किया. अलबम अलमारी में रख कर शाम की व्यवस्था में लग गई. काम करते हुए हाथ अभ्यासवश चल रहे थे पर दिलदिमाग दूर, बहुत दूर उड़े जा रहे थे गीता के संगसंग. भीतर ही भीतर खदबदा रही थी शुभा.

फिर बहुत दिन निकल गए. रोजमर्रा के काम के बीच गीता के बारे में सोचना छोड़ दिया. एक शाम नीरज ने आते ही पूछा, ‘‘तुम्हारी बिनाका के पोज वाली सहेली का क्या नाम है, शुभा?’’‘‘गीता, पर क्यों, कैसे याद आई अचानक से?’’‘‘अचानक से क्यों? आज सुबह ही देखा था, हमारे बैंक में आई थी लौकर डील करने.’’ शुभा के कान उत्सुक हो उठे.

‘‘मंत्री की बीवी है वह, साथ में क्या लावलश्कर था. अर्दली, सिक्योरिटी, 3-4 कारें थीं. पूरा दफ्तर ही व्यस्त हो गया उन्हें लौकर डील कराने में. कोई दौड़ कर कुरसी ला रहा था तो कोई पानी, कोई कोल्डडिं्रक तो कोई क्लर्क फाइल ले कर उन के पीछे चुपचाप खड़ा था. लौकर वाला क्लर्क चाबी ले कर साथ चलने के इंतजार में खड़ा था. क्या शान से आई और क्या शान से चली गई. किसी की तरफ आंख उठा कर तक न देखा.’’

‘‘तुम क्या कर रहे थे, तुम भी तो कुछ कर ही रहे होगे मंत्रीजी की पत्नी को दिखाने के लिए?’’‘‘मैं तो कुछ कर ही नहीं पाया. धड़धड़ाती आई थी तो कुछ सूझा ही नहीं. बस, बारबार किसी को यह बताने का मन कर रहा था कि इस को मैं जानता हूं. यह मेरी बीवी की सहेली है. पर बाबा, अच्छा हुआ जो किसी से नहीं कहा वरना बड़ी खिंचाई करते सब के सब. कुछ भी कहो, बड़ा ठसका था उस का.’’

‘‘कौन से मंत्री हैं?’’

‘‘राज्यमंत्री हैं.’’‘‘गीता ने शादी मंत्री से की या मंत्री बाद में बने?’’‘‘अब यह जन्मपत्री मैं कैसे जान सकता हूं. तुम्हारी सहेली है, तुम्हें ज्यादा पता होना चाहिए.’’

एक झटका ही काफी था, शुभा की स्मृतियों की मुट्ठी खुल गई. कितने ही क्षण लुढ़क पड़े, अपने, बेगाने, जेहन में कितनी ही परछाइयां सी आड़ीतिरछी हो कर घूमने लगीं. गीता का शोखभरा व्यक्तित्व. अपने साधारण से कपड़ों को संवारसंवार कर पहनती, नित नए ढंग से बाल बनाती, कभी चुन्नी से सिर ढकती, कभी गले में लहरा कर चलती, अलगथलग दिखने की चाह में कसे कपड़ों पर ढीला सा मर्दाना स्वेटर पहनती. कालेज की अमीरअमीर लड़कियों से दोस्ती करती, उन के घर चली जाती फिर आ कर उन के घर का विस्तार से वर्णन खूब रस लेले कर करती.

न जाने किस भाव से उस की आंखें चमकने लगती थीं. दृष्टि में स्वप्न से उतर आते थे. एक बार तंग आ कर शुभा ने पूछा, ‘क्या वे बुलाती हैं?’

‘नहीं बुलातीं तो क्या, मुझे उन के बारे में जान कर अच्छा लगता है. मसलन, वे कैसे रहती हैं. क्या तौरतरीके हैं उन के रहनेसहने के, उन के पास क्याक्या है?’

‘तुझे क्या करना है यह सब जान कर?’‘वाह, क्यों नहीं करना मुझे. सब पता तो होना चाहिए न. जब मैं अमीर बन जाऊंगी तब मुझे सबकुछ आता होगा उन जैसा ही.’

ओह तो यह रहस्य था, फिर भी न जाने क्यों यह सब पागलपन के अलावा कुछ नहीं लगता था तब. उस की बातें कोरी गप लगती थीं पर उस के कहने का आत्मविश्वास ऐसा होता था कि लगता था शायद सच ही कह रही हो. उस का सोचने का आलम निराला ही था. कालेज की लाइब्रेरी में मैगजीन के पन्ने पलटती रहती, किसी हीरोइन के गहने देखती. किसी व्यवसायी की जीवनी पढ़ती. उस के फोटो देखती, उस का घर, ड्राइंगरूम, लौन. कितनी हरसत होती थी उस की निगाहों में, कितनी महत्त्वाकांक्षाएं टहलती होती थीं. हम फिल्म देखने जाते तो कहानी, अभिनय के बारे में कोई बात नहीं. बस, घर के भव्य सैट्स उसे लुभाते रहते, गाडि़यों की शान में उस की जान रत्तीरत्ती बस जाती. उस की बातों के विषय हमेशा गाड़ी, बंगला, नौकरचाकर, गहने, साडि़यां होते. यह शौक पागलपन की हद तक पहुंचता, कालेज के कंपाउंड में कोई अच्छी गाड़ी दिखी कि वह पहुंच जाती ड्राइवर से गाड़ी के बारे में बातें करने, उसे छू कर देखने.

शादीब्याह में भी सजीधजी, गहनेसाड़ी पहने, मौडर्न दिखती महिलाओं के आसपास मंडराती रहती. तब अजब दीवानगी थी और अब मंत्री की पत्नी. यही तो चाहिए था उसे. चलो, ठीक ही हुआ. जो वह चाहती थी, मिल गया, पर ताज्जुब है, मंत्रीजी मिले कहां से? आखिर अमीर बन ही गई, नाम भी पा ही लिया.

समय के साथसाथ बात फिर आईगई हो गई. जबतब गीता का ध्यान आता भी पर गृहस्थी की व्यस्तता में खो जाता. एक शाम महीने के प्रारंभ में गृहस्थी के सामान से लदेफंदे शुभा और नीरज सवारी की प्रतीक्षा कर रहे थे. तभी एक चमचमाती कार नजदीक आ कर रुकी. कार के काले शीशे को नीचे करता एक चेहरा झांका. शुभा को पलभर भी न लगा उसे पहचानने में, पर वह अनजान बनी सकुचाई सी चुपचाप खड़ी रही. गीता ही लपक कर आई.

‘‘पहचाना नहीं शुभा, मैं गीता हूं. मैं ने तो दूर से ही पहचान लिया था. बहुत खुश हूं तुझे देख कर. यहां कैसे, कब से?’’‘‘यहीं पर हूं 2 साल से. पतिदेव हैं नीरज, यहीं पर पोस्टेड हैं,’’ उत्तर में बचपन की अंतरंगता का लेशमात्र भी पुट न था.‘‘नमस्कार, नीरजजी. आइए, घर छुड़वा दूंगी.’’

फिर ड्राइवर को संबोधित करती हुई वह बोली, ‘‘ड्राइवर, पहले मुझे घर छोड़ देना. शुभा, मुझे पार्टी में जाना है. तैयार होऊंगी. इसलिए घर जल्दी जाना है. ड्राइवर को घर बता देना, वह छोड़ देगा.’’

शुभा अभी तक असंयत थी. सारी शाम दालमसालों और गृहस्थी की खरीदारी में निकली थी जिस से सूती साड़ी बुरी तरह मुस गई थी…गंधा रही थी. यही हाल नीरज का भी था. पैर आगे ही नहीं बढ़े.

‘‘अरे आ न, बैठ.’’

फिर सारे रास्ते गीता ही बोलती रही थी. शुभा को अभी भी छोटेपन का एहसास था, कुछ भी बोलते नहीं बन रहा था. शब्द खो गए थे. बातचीत का विषय ढूंढ़े से भी नहीं मिल रहा था. अजीब सा उतावलापन छाया हुआ था. दोनों हथेलियों को धीरेधीरे मसलती शुभा चुप ही रह गई. नीरज तो एकाध बात कर भी रहा था. बंगले के बाहर गीता उतर गई और भीतर चली गई. अब एक नजर बंगले पर डाली शुभा ने. बहुत बड़ा आधुनिक शैली का बना हुआ था, बड़ा सा लौन, उस में पड़ी रंगबिरंगी कुरसियां, लौन की छतरी, कोने में स्विमिंगपूल. हां, कुत्तों के भूंकने की आवाज भी आई थी. 2-4 तो होंगे ही. कार चल दी थी. नीरज रास्ता बताता जा रहा था.

घर आ कर भी शुभा पर कार वगैरह का रोब इतना हावी रहा कि मूड उखड़ा ही रहा.वह चिनचिनाई, ‘‘क्या जरूरत थी तुम्हें कार में जाने की.’’‘‘मैं गया था क्या कार में? आगेआगे तो तुम ही लपकी थीं,’’ नीरज तुनका.

जूड़े का पिन निकालती हुई वह बड़बड़ाई, ‘शान दिखाने को ले गई थी साथ. यह न हुआ कि घर तक छोड़ने आ जाती. गैरों की तरह ड्राइवर के साथ भेज दिया. हम भी पागल थे जो उस के बुलाते ही तुरंत चल पड़े. होगी अपने घर की बड़ी अमीर. हम तो जैसे हैं वैसे ही अच्छे,’ शुभा अपने मन की खीज उतार रही थी. शीशे में साड़ी का मुसापन और चेहरे की थकान बुरी लग रही थी.

‘‘अब बंद करो यह बड़बड़ाना. जो हो गया सो हो गया. तब क्यों नहीं बोलीं? तब बोलतीं न?’’क्या बोलती शुभा? तब तो सबकुछ भूल गई थी. एक भी बात न पूछी गीता से. न ही अपनी कही. कैसी गूंगी सी बैठी रही पूरे समय. रात तक यही बातें घूमफिर कर सालती रहीं उसे.

अगले दिन सुबह ही सादे परिवेश में लिपटी गीता आ गई मुसकराते हुए. आ कर जोर से शुभा को गले लगाया और खुद घर तक न छोड़ने की क्षमा भी मांग ली. बातचीत की सहजता ने शुभा को प्रभावित किया. फिर भी सहज होने में थोड़ा समय लिया उस ने. गीता तो सदा से अलमस्त थी. पलंग पर आलथीपालथी मार कर बैठ गई. शुभा को पास ही बिठा लिया.

‘‘पहले यह बता, खाना तो नहीं बनाया तू ने?’’‘‘नहीं, अब बनाऊंगी. नीरज लंच पर घर आते हैं.’’गीता चहक उठी जैसे, ‘‘तब तो बड़ा मजा आएगा, मैं भी तेरे साथ मिल कर खाना बनाऊंगी.’’‘‘आज अमिया बड़ी, अरहर की दाल बनाएंगे, चावल भी. साथ में प्याज व बैगन का भरता और कुरकुरी मोटी रोटी. आम का अचार है क्या?’’

पुरानी मित्रता का भाव उभर आया. लाड़ से सिर हिलाती शुभा गीता के साथ रसोई में चली गई. खाना बनातेबनाते शुभा ने गीता के बारे में जानना चाहा.‘‘कैसी हो, गीता? कैसा लगता है?’’

‘‘छोड़ न, आज हमतुम बचपन की बातें करते हैं.’’‘‘तुझे याद है कैसे बड़ों से छिप कर अमराई जाते थे? पूरी दोपहरी अमिया और इमली बटोरते रहते थे.’’

‘‘हां, नमक लगा कर खाते समय तू कितने तरह के मुंह बनाती थी और कितना हंसते थे हम दोनों.’’‘‘सच शुभा, वैसी हंसी तो अब आती ही नहीं. बातबेबात कितनी हंसी आती थी, तेरी नानी बहुत डांटती थीं. क्या कहती थीं वे डांटते हुए?’’

‘‘ठट्ठा के नहीं हंसती लड़कियां, मुंह की शोभा चली जाती है,’’ मोटी आवाज में शुभा ने नानी की नकल की. देर तक गीता और शुभा हंसती रहीं फिर.

गुडि़यों के ब्याह में सीधे पल्ले की साडि़यां पहन कर गुड्डेगुडि़यों की मां होने का अभिनय करना, इकियादुकिया का खेल, छुपनछुपाई, गुट्टे तिकतिक और जो कुट्टी हो गई तो एकएक चिए का हिसाबकिताब, अमिया की गुठली के पीछे झगड़ा, गुडि़या के जेवर नोचनोच कर वापस करना. और भी न जाने कितने छोटेबड़े, सार्थकनिरर्थक प्रसंग, सारा बचपन ही दोहरा डाला. कालेज के समय की एक भी बात गीता ने नहीं की और न ही अपनी बात, न अपने पति की बात. पूरी चर्चा में गाड़ीबंगला, नौकरचाकर, अमीरी कहीं नहीं थे. था तो हुलसताहुमकता बचपन. उसे पूरे जोश के साथ याद करती रही गीता.

नीरज आए तो लंच में बहुत बेतकल्लुफ हो कर गीता ने खाना खाया. हाथ से चावलदाल का खाना, उंगलियां चाटना. रोटी की तारीफ, भरते के लिए बारबार पूछना शुभा को अच्छा लग रहा था, सहज सा.‘‘शुभा, ऐसा मनोहारी दिन फिर न जाने कब मिले. ला, 1 गिलास पानी पिला, फिर चलती हूं.’’

सुराही की मिट्टी की सोंधी गंध से युक्त पानी के 3-4 गिलास पी गई गीता. मुंह को हथेली से साफ करती गीता की आंखें स्वप्निल हो उठीं, ‘‘कितना बढि़या पानी है, कितनी सोंधी खुशबू है इस में. फ्रिज का पानी पीपी कर तो इस गंध को भूल ही गई थी. शुभा, मिट्टी से तो रिश्ता ही टूट गया मेरा. ऐसा फूल हो गई हूं जो गुलदस्ते में सजा है, फिर भी खिले रहने की भरपूर कामना करता है,’’ कहतेकहते हंस दी गीता, पर कैसी थी यह हंसी, उजड़ीउजड़ी, बियाबान सी हंसी, कितनी मरी हुई, दर्द की खनक से भरी.

‘‘सबकुछ मैं ने अपने हाथों आप ही तो बरबाद कर डाला. शादी के लिए न वर देखा, न उस की उम्र देखी, देखा तो पैसा, नौकरचाकर, बंगला, गाड़ी, हाई सोसाइटी. किसी से शिकायत भी तो नहीं कर सकती. खाली कोख उजाड़ लगती है. मातम मना कर भी क्या करूं? कौन है जो मुझे चाहते हुए भी देखे? मंत्री की पत्नी हूं, एक मुलम्मा चढ़ा रखा है अपने चेहरे पर, मेकअप का, हंसी का. अभी भी मन पूरी तरह मरा नहीं है शुभा, इसलिए फलनेफूलने की उसी चाह को सीने से लगाए मिट्टी तलाशती रहती हूं. धन पाने की चाह में क्याक्या खो दिया. शायद सबकुछ.’’

शुभा की दोनों हथेलियों को अपनी हथेलियों में भींच कर विदा ले कर गीता चल दी अपने सुविधायुक्त गुलदस्ते की ओर, कुछ दिन और खिले रहने की चाह से…माटी की गंध मन में समा कर.

Kahaniyan : ऐसे हुई पूजा

Kahaniyan :  अंशु के अच्छे अंकों से पास होने की खुशी में मां ने घर में पूजा रखवाई थी. प्रसाद के रूप में तरहतरह के फल, दूध, दही, घी, मधु, गंगाजल वगैरा काफी सारा सामान एकत्रित किया गया था. सारी तैयारियां हो चुकी थीं लेकिन अभी तक पंडितजी नहीं आए थे. मां ने अंशु को बुला कर कहा, ‘‘अंशु, एक बार फिर लखन पंडितजी के घर चले जाओ. शायद वे लौट आए हों… उन्हें जल्दी से बुला लाओ.’’

‘‘लेकिन मां, अब और कितनी बार जाऊं? 3 बार तो उन के घर के चक्कर काट आया हूं. हर बार यही जवाब मिलता है कि पंडितजी अभी तक घर नहीं आए हैं?’’

अंशु ने टका जा जवाब दिया, तो मां सहजता से बोलीं, ‘‘तो क्या हुआ… एक बार और सही. जाओ, उन्हें बुला लाओ.’’

‘‘उन्हें ही बुलाना जरूरी है क्या? किसी दूसरे पंडित को नहीं बुला सकते क्या?’’ अंशु ने खीजते हुए कहा.

‘‘ये कैसी बातें करता है तू? जानता नहीं, वे हमारे पुराने पुरोहित हैं. उन के बिना हमारे घर में कोई भी कार्य संपन्न नहीं होता?’’

‘‘क्यों, उन में क्या हीरेमोती जड़े हैं? दक्षिणा लेना तो वे कभी भूलते नहीं. 501 रुपए, धोती, कुरता और बनियान लिए बगैर तो वे टलते नहीं हैं. जब इतना कुछ दे कर ही पूजा करवानी है तो फिर किसी भी पंडित को बुला कर पूजा क्यों नहीं करवा लेते? बेवजह उन के चक्कर में इतनी देर हो रही है. इतने सारे लोग घर में आ चुके हैं और अभी तक पंडितजी का कोई अतापता ही नहीं है,’’ अंशु ने खरी बात कही.

‘‘बेटे, आजकल शादीब्याह का मौसम चल रहा है. हो सकता है वे कहीं फंस गए हों, इसी वजह से उन्हें यहां आने में देर हो रही हो.’’

‘‘वह तो ठीक है पर उन्होंने कहा था कि बेफिक्र रहो, मैं अवश्य ही समय पर चला आऊंगा, लेकिन फिर भी उन की यह धोखेबाजी. मैं तो इसे कतई बरदाश्त नहीं करूंगा. मेरी तो भूख के मारे हालत खराब हो रही है. आखिर मुझे तब तक तो भूखा ही रहना पड़ेगा न, जब तक पूजा समाप्त नहीं हो जाती. जब अभी तक पंडितजी आए ही नहीं हैं तो फिर पूजा शुरू कब होगी और फिर खत्म कब होगी पता नहीं… तब तक तो भूख के मारे मैं मर ही जाऊंगा.’’

‘‘बेटे, जब इतनी देर तक सब्र किया है तो थोड़ी देर और सही. अब पंडितजी आने ही वाले होंगे.’’

तभी पंडितजी का आगमन हुआ. मां तो उन के चरणों में ही लोट गईं.

पंडितजी मुसकराते हुए बोले, ‘‘क्या करूं, थोड़ी देर हो गई आने में. यजमानों को कितना भी समझाओ मानते ही नहीं. बिना खाए उठने ही नहीं देते. खैर, कोई बात नहीं. पूजा की सामग्री तैयार है न?’’

‘‘हां महाराज, बस आप का ही इंतजार था. सबकुछ तैयार है,’’ मां ने उल्लास भरे स्वर में कहा.

तभी अंशु का छोटा भाई सोनू भी वहां आ कर बैठ गया. पूजा की सामग्री के बीच रखे पेड़ों को देख कर उस का मन ललचा गया. वह अपनेआप को रोक नहीं पाया और 2 पेड़े उठा कर वहीं पर खाने लगा. पंडितजी की नजर पेड़े खाते हुए सोनू पर पड़ी तो वे बिजली की तरह कड़क उठे, ‘‘अरे… सत्यानाश हो गया. भगवान का भोग जूठा कर दिया इस दुष्ट बालक ने. हटाओ सारी सामग्री यहां से. क्या जूठी सामग्री से पूजा की जाएगी?’’

मां तो एकदम से परेशान हो गईं. गलती तो हो ही चुकी थी. पंडितजी अनापशनाप बोलते ही चले जा रहे थे. जैसेतैसे जल्दीजल्दी सारी सामग्री फिर से जुटाई गई और पंडितजी मिट्टी की एक हंडि़या में शीतल प्रसाद बनाने लगे.

अंशु हड़बड़ा कर बोल उठा, ‘‘अरे…अरे पंडितजी, आप यह क्या कर रहे हैं?’’

‘‘भई, शीतल प्रसाद और चरणामृत बनाने के लिए हंडि़या में दूध डाल रहा हूं.’’

‘‘मगर यह दूध तो जूठा है?’’

‘‘जूठा है. वह कैसे? यह तो मैं ने अलग से मंगवाया है.’’

‘‘लेकिन जूठा तो है ही… आप मानें चाहे न मानें, यह जिस गाय का दूध है, उसे दुहने से पहले उस के बछड़े ने तो दूध अवश्य ही पिया होगा, तो क्या आप बछड़े के जूठे दूध से प्रसाद बनाएंगे? यह तो बड़ी गलत बात है.’’

पंडितजी के चेहरे की रंगत उतर गई. वे कुछ भी बोल नहीं पाए. चुपचाप हंडि़या में दही डालने लगे.

अंशु ने फिर टोका, ‘‘पंडितजी, यह दही तो दूध से भी गयागुजरा है. मालूम है, दूध फट कर दही बनता है. दूध तो जूठा होता ही है और इस दही में तो सूक्ष्म जीव होते हैं. भगवान को भोग क्या इस जीवाणुओं वाले प्रसाद से लगाएंगे?’’ पंडितजी का चेहरा तमतमा गया. भन्नाते हुए शीतल प्रसाद में मधु डालने लगे.

‘‘पंडितजी, आप यह क्या कर रहे हैं? यह मधु तो उन मधुमक्खियों की ग्रंथियों से निकला हुआ है जो फूलों से पराग चूस कर अपने छत्तों में जमा करती हैं. भूख लगने पर सभी मधुमक्खियां मधु खाती हैं. यह तो एकदम जूठा है,’’ अंशु ने फिर बाल की खाल निकाली. पंडितजी ने हंडि़या में गंगाजल डाला ही था कि अंशु फिर बोल पड़ा, ‘‘अरे पंडितजी, गंगाजल तो और भी दूषित है. गंगा नदी में न जाने कितनी मछलियां रहती हैं, जीवजंतु रहते हैं. आखिर यह जल भी तो जूठा ही है और ये सारे फल भी तोतों, गिलहरियों, चींटियों आदि के जूठे हैं. आप व्यर्थ ही भगवान को नाराज करने पर तुले हैं. जूठे प्रसाद का भोग लगा कर आप भगवान के कोप का भाजन बन जाएंगे और हम सब को भी पाप लगेगा.‘‘

‘‘तो फिर मैं चलता हूं… मत कराओ पूजा,’’ पंडितजी नाराज हो कर अपने आसन से उठने लगे.

‘‘पंडितजी, पूजा तो आप को करवानी ही है लेकिन जूठे प्रसाद से नहीं. किसी ऐसी पवित्र चीज से पूजा करवाइए जो बिलकुल शुद्ध हो, जूठी न हो और वह है मन, जो बिलकुल पवित्र है?’’

‘‘हां बेटे, ठीक कहा तुम ने मन ही सब से पवित्र होता है. पवित्र मन से ही सच्ची पूजा हो सकती है. सचमुच, तुम ने आज मेरी आंखें खोल दीं. मेरी आंखों के सामने ढोंग और पाखंड का परदा पड़ा हुआ था. मुझ से बड़ी भूल हुई. मुझे माफ कर दो,’’ उस के बाद पंडितजी ने उसी सामग्री से पूजा करवा दी लेकिन पंडितजी के चेहरे पर पश्चात्ताप के भाव थे.

Kahaniyan : चोर बाजार – मिर्जा साहब क्यों कर रहे थे दहेज की वकालत

Kahaniyan :  मिर्जा साहब किसी सरकारी दफ्तर में नौकर थे. 800 रुपए तनख्वाह और इतनी ही ऊपर की आमदनी. खातेपीते आदमी थे. पत्नी थी, लड़का हाईस्कूल में पढ़ रहा था और लड़की जवान हो चुकी थी. बस, यही था उन का परिवार. बेटी की शादी की चिंता में घुले जाते थे. हमारे देश में मनुष्य के जीवन का सब से महत्त्वपूर्ण काम बेटी का विवाह ही होता है. बेटी का जन्म होते ही दुख और चिंता का सिलसिला शुरू हो जाता है. बेटी का जन्म मातापिता के लिए एक कड़ी सजा ही तो होता है.

बेटे के जन्म पर बधाइयां मिलती हैं, जश्न मनाया जाता है और बेटी के जन्म पर केवल रस्मी बधाइयां, ठंडी आहें और फीकी मुसकराहटें, जैसे जबरदस्ती कोई मुसीबत गले में आ पड़े. फिर भी हम छाती ठोंक कर शोर मचाते हैं कि हमारे समाज में स्त्री को आदर और सम्मान मिलता है.

बेटी के विवाह के लिए पिता रिश्वत लेता है, दूसरों का गला काटता है और लूटमार का यह धन कोई और लुटेरा बाजे बजाता हुआ आ कर ले जाता है. दिन दहाड़े सड़कों पर, बाजारों में चोरीडकैती का व्यापार जारी है. सब लुट रहे हैं और सब लूट रहे हैं. सब चलता है.

जो लुटने से इनकार कर दे उस की बेटी बिन ब्याही बूढ़ी हो जाती है. रिश्वत इसी कारण ली जाती है क्योंकि बेटी का विवाह करना है और विवाह मामूली तनख्वाह से नहीं हो सकता.

एक दिन मिर्जा साहब ने बताया कि उन की बेटी के विवाह की बातचीत चल रही है. लड़का जूनियर इंजीनियर था.

तनख्वाह तो 700 रुपए है परंतु ऊपर की आमदनी 2,000 रुपए महीने से कम नहीं. उन्होंने खुश हो कर बताया, ‘‘और आजकल तनख्वाह को कौन पूछता है? असल चीज तो ऊपर की आमदनी है.’’

अगले दिन लड़के वाले बातचीत के लिए आ गए. मैं भी मौजूद था. लड़के के बाप हबीब बेग जूते का काम करते थे और जूतों के तलों में चमड़े के स्थान पर तरबूज का छिलका भर कर अच्छा पैसा कमाया था.

चायपानी के बाद हबीब बेग बोले, ‘‘हां तो, मिर्जा साहब, अब कुछ लेनदेन की बात हो जाए.’’

‘‘जो भी मुझ से बन पड़ेगा, करूंगा,’’ मिर्जा साहब ने दबी जबान से कहा.

‘‘बात साफ अच्छी होती है,’’ हबीब बेग कहने लगे, ‘‘लड़के को पढ़ानेलिखाने पर जो भी खर्च हुआ वह तो हुआ ही, नौकरी के लिए 20 हजार रुपए गिन कर दिए हैं. बिना पैसा दिए नौकरी नहीं मिलती. देखिए जनाब, स्कूटर, टेलीविजन और फ्रिज के साथसाथ 50 हजार रुपए  नकद लूंगा.’’

मिर्जा साहब को पसीना आ गया. बोले, ‘‘मैं जैसे भी बन पड़ेगा, करूंगा.’’

जब लड़के वाले चले गए तो मिर्जा साहब फूट पड़े, ‘‘कयामत करीब है. शादीब्याह व्यापार बन गया है. लड़कों का मोलतोल हो रहा है. इनसानियत और शराफत केवल किताबी शब्द बन चुके हैं. बेटी की शादी भी बिना रिश्वत के नहीं होती. ईमानदारी से केवल दो वक्त की दालरोटी ही चल सकती है. यह लाखों का दहेज कहां से आए? दहेज के खिलाफ कानून बने, परंतु कौन सुनता है?

‘‘मुफ्त के धन को हड़पने वाले ये कठोर लुटेरे पल भर के लिए भी नहीं सोचते कि बेटी वाला इतना धन लाएगा कहां से? इन के दिलों में दया का नाम नहीं. ये सब भेडि़ए हैं. अब कोई उन से पूछे कि बेटी वाला तो अपनी बेटी दे  रहा है इन्हें, उस के गले पर छुरी क्यों रखते हैं?

‘‘क्या संसार में और कहीं लड़के बेचे जाते हैं? क्या लड़के को इसीलिए पाला और पढ़ायालिखाया था कि इस की कीमत लड़की वालों से वसूल करो? अगर लड़की वाला भी अपनी बेटी को पालने, पढ़ानेलिखाने का खर्च लड़के से मांगे तो कैसा लगे?

‘‘अब देखो न, दहेज ऐसी बुराई है जो अनेक बुराइयों को जन्म देती है. आखिर लोग रिश्वत क्यों लेते हैं? मिलावट क्यों करते हैं? नकली वस्तुएं क्यों बनाते हैं? इस का कारण यही है कि दहेज में देने के लिए लाखों चाहिए? ईमानदारी से कितना कमाया जा सकता है? एक आदमी को बेटी ब्याहनी है और उस का दहेज वह दूसरों की जेब पर डाके डाल कर एकत्र करता है.

‘‘सब को दहेज देना है, इसलिए सब ही अपनेअपने स्थान पर डाके डाल रहे हैं. सब चुप हैं. किसी को दहेज लेते हुए शरम नहीं आती. बड़ेबड़े धर्मात्मा हों, साधू या शैतान हों, दहेज सब को हजम कर जाता है. बनाती रहे सरकार कानून, कौन मानता है? हमारे नेता और मंत्री सब धड़ल्ले से दहेज लेते हैं. कोई रोकने वाला नहीं है.’’

मिर्जा साहब बहुत बिगड़े हुए थे.

मैं ने पूछा, ‘‘क्या यह संभव नहीं कि आप कोई ऐसा लड़का ढूंढ़ें जो बिना दहेज के शादी कर ले?’’

‘‘ऐसा कोई लड़का नहीं मिलता,’’ उन्होंने कहा, ‘‘जाहिलों की बात छोड़ो. कालिजों और विश्वविद्यालयों सेडिगरियां ले कर निकलने वालों का हाल तो और भी बुरा है. इन के पेट और भी बढ़े होते हैं. इन्हें लाखों चाहिए क्योंकि नौकरी बिना रिश्वत दिए नहीं मिलती और अगर मिल भी जाए तो ऊपर की आमदनी वाली नहीं होती.

‘‘हमारे युवक कालिजों से यही आदर्श सीख कर निकलते हैं कि अपने आने वाले दिनों के लिए ताजमहल लड़की वाले की हड्डियों पर बनाओ. दहेज रिश्वत के लिए और रिश्वत दहेज के लिए. क्या तमाशा है, कैसा अंधेर है, दुख तो इस बात का है कि समाज इन बुराइयों को बुरा नहीं समझता. हमारा समाज समाज नहीं, एक चोर बाजार है जहां चोरी का माल खरीदा और बेचा जाता है. बेचने वाले और खरीदने वाले सब चोर हैं.’’

‘‘चोर बाजार,’’ मैं धीरे से बड़-बड़ाया.

मिर्जा साहब कहते ही रहे, ‘‘मेरा भी क्या बिगड़ता है? अधिक से अधिक यही होगा कि मैं ऊपर की आमदनी बढ़ा लूंगा. उफ, ये लड़के वाले, ये धन के कुत्ते और दहेज के गुलाम नहीं जानते कि ये कितने बड़े अपराधी हैं और इन की दहेज की भूख समाज में कितने भयंकर अपराधों को जन्म दे रही है.’’

मिर्जा साहब की बेटी की शादी धूमधाम से हो गई. स्कूटर, टेलीविजन, फ्रिज और 50 हजार रुपए नकद. जूनियर इंजीनियर साहब की अपनी बेटी भी रिश्वत की हराम की कमाई पर पलेगी, बढ़ेगी, रिश्वत की ही कमाई से उस का दहेज दिया जाएगा. इस प्रकार यह बीमारी चलती ही रहेगी. इस का कोई अंत नहीं है.

कई वर्ष बीत गए. मैं देश से बाहर चला गया था.

इतने सालों बाद जब मैं उन के घर पहुंचा तो पता चला कि बेटे की शादी की बात पक्की करने कहीं गए हैं. अब उन के बेटे की नौकरी लग गई थी और नौकरी भी ऐसी कि ऊपर की कमाई इतनी थी कि वारेन्यारे थे.

मैं उन के घर थोड़ी देर बैठा रहा. इतने में मिर्जा साहब आ गए लड़की वाले के घर से. मुझे देख कर वह बड़े खुश हुए.

‘‘कहिए,’’ मैं ने पूछा, ‘‘शादी पक्की कर आए न?’’

वह भरे बैठे थे. एकदम फट पड़े, ‘‘हद हो गई शराफत की. जानते हो लड़की वाले कौन हैं? अरे भई, वही हाजी फजल बेग. हर वर्ष हज को जाते हैं और लाखों का हेरफेर करते हैं. पिछले वर्ष 3 लाख का केवल सोना ही लाए थे. कमाई के और भी साधन हैं, नंबर दो के. इतना कुछ होते हुए भी बेटी को डेढ़ लाख का दहेज देते हुए दम निकल रहा है.

‘‘कोई मजाक है लड़के को पालना, पढ़ानालिखाना, नौकरी दिलाना? मैं ने साफ कह दिया है, 1 लाख नकद और 50 हजार का सामान दो तो बात करो. मेरा बेटा कोई भिखारी नहीं है. जिस घर चला जाऊंगा, इतनी रकम तो हाथोंहाथ मिलेगी.

‘‘इतनी सी बात लोगों को समझ में नहीं आती कि जितना गुड़ डालेंगे, उतना ही मीठा होगा. जितना दहेज दोगे, उतना ही अच्छा वर मिलेगा. बिना लिएदिए भले लोगों में कहीं शादियां होती हैं? भई, पास में धन है तो बेटी को दो दिल खोल कर. अपनी ही बेटी को दोगे. न जाने कैसा जमाना आ गया है? यह दुनिया क्या बनती जा रही है?’’

मैं आश्चर्य से आंखें फाड़े मिर्जा साहब का भाषण सुन रहा था चुपचाप, परंतु उन का आखिरी प्रश्न सुन

कर मेरे मुंह से निकल ही गया,

‘‘चोर बाजार.’’

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