हक की लड़ाई

इस में अब संदेह नहीं रह गया है कि जनता के हित के जो काम वोटों से चुन कर आई सरकारों को करने चाहिए, अदालतें उन्हीं सरकारों के बनाए कानूनों की जनहित व्याख्या करते हुए काम करने लगी है. अदालतों ने साबित कर दिया है कि हमारी सरकारों के पास या तो मंदिर बनाने का काम रह गया है या ठेके देने का जिन में जनता का गला घोंट कर पैसा छीन कर लगाया जा रहा है, सरकारों को आम जनता के दुखदर्द की ङ्क्षचता दाव ही होती है जब मामला टैक्स का हो या वोट का या फिर धर्म का.

चेन्नै उच्च न्यायालय ने एक अच्छे फैसले में कहा है कि हालांकि एक मुसलिम औरत को खुला प्रथा के अनुसार तलाक लेने का हक पूरा है पर इस का सॢटफिकेट कोर्ई भी 4 जनों की जमात नहीं दे सकती. अब तक शरीयत कोर्ट ऐसे सॢटफिकेट देती थी जिन्हें कैसे बनाया जाता था और उन के तर्कवितर्क क्या होते थे, वहीं रिकार्ड नहीं किए जाते थे. उच्च न्यायालय ने औरत को फैमिली कोर्ट जा कर अपना सॢटफिकेट लेना चाहिए जहां उस के खाङ्क्षवद की भी सुनी जाएगी. इसी तरह सेना में एउल्ट्री यानी पतिपत्नी में से एक का किसी दूसरे से सैक्स संबंध इंडियन पील्ल कोर्ड में अब आपराधिक गुनाह नहीं रह गया हो, सेनाओं में सेना कानूनों के हिसाब से चलता रहेगा. यह बहुत जरूरी है क्योंकि सैनिकों को महीनों घरों से बाहर रहना पड़ता है और उन के पास उन के पीछे वीबियों के गुलछर्रे उड़ाने की खबरें आती रहती हैं.

इसी तरह महीनों पत्नी से दूर रहे सैनिक पति कहां किसी……….औरत से संबंध न बना लें, इस गम में पत्नियां घुलती रहती हैं. अपराधी होने का साया देशों के काबू में रख सकता है. सैनिक युद्ध में बिना घर की फिक्र किए तैनात रहे पर देश की सुरक्षा के लिए जरूरी है. केंद्र सरकार मुसलिम कानून में 3 तलाक को बैन करने का ढोल बजाती रहती है पर उसे इन लाखों ङ्क्षहदू औरतों की ङ्क्षचता नहीं है जो तलाकों के मुकदमों के अदालतों के गलियारों में चप्पलें घिस रही हैं. अगर पति या पत्नी में से एक मीनिट पर अड़ जाए से तलाक महीनों बरसों टलता रहता है. जैसे ङ्क्षहदू कानून शादी मिनटों में कोई भी तिलकधारी करा सकता है, तलाक भी क्यों नहीं हो सकता.

हां, अगर ङ्क्षहदू औरतें इतनी पतिव्रता, धर्मकर्म, जन्मजन्मांतरों को मानने वाली वो बात दूसरी होती. वे तो आम दुनिया भर की औरतों की तरह जिन्हें तलाक की तलवार के नीचे आता पड़ सकता है. सरकार उन्हें तरसातरसा कर तलाक दिलवाती है, सरकार कानून में रद्दोबदल करने में कोई इंटरेस्ट ही नहीं लेती क्योंकि यह मुद्दा न तो वोट का है न नोट का.

कर्म करें या व्रत

यह सोचने वाली बात है कि क्यों हर व्रत का पालन बस स्त्रियां ही करती हैं फिर चाहे वह करवाचौथ का हो, अहोई अष्टमी या वट सावित्री? क्यों बस पुरुषों की लंबी उम्र की कामना के लिए ही व्रत रखे जाते हैं? हर व्रत के साथ एक पौराणिक कथा भी जुड़ी होती है जिस कारण अधिकतर स्त्रियां इन व्रतों को बहुत ही  श्रद्धा और कड़े नियमों के साथ रखती हैं.

मान्यता तो यह भी है कि यदि पहला करवाचौथ व्रत निर्जला रखा है तो हर करवाचौथ ऐसे ही रखना होता है चाहे ऐसे व्रतों का आप के स्वास्थ्य पर कितना भी बुरा प्रभाव क्यों न पड़े.

क्या वास्तव में हर माह पूर्णिमा या निर्जला एकादशी व्रत करने से घर में शांति बनी रहती है? क्यों हम इन व्रतों पर इतनी श्रद्धा रखते हैं? क्या यह हमारी भीरुता का परिचायक नहीं है? जीवन में आने वाली कठिनाइयों का सामना करने के बजाय हमारे धर्मगुरु हमें व्रत करने की सलाह देते हैं.

पढ़ेलिखे भी झांसे में

क्यों हम किसी भी कठिन समय में कर्म के बजाय व्रत को महत्त्व देते हैं? क्यों आज भी पढे़लिखे लोग इन व्रतों के जाल से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं?

इस के पीछे का कारण है उन का अंधविश्वास या फिर उन का आलस्य. किसी भी समस्या के समाधान के लिए हमें एक सुनियोजित तरीके से काम करना होता है, जिस के लिए लगती है कड़ी मेहनत और अथक प्रयास. मगर बहुत बार हमें व्रत की राह अधिक आसान लगती है क्योंकि हमें हमेशा से ही वह चीज ज्यादा आकर्षित करती है जो हमें सपनों की दुनिया में खींच ले जाती है.

वैभवलक्ष्मी के व्रत करने से धन लाभ होगा, ऐसा मान कर न जाने कितनी महिलाएं इस व्रत को करती हैं तथा सच्ची श्रद्धा से इस का उद्यापन भी करती हैं. इन व्रतों का कड़े नियम से पालन करने में और इन के उद्यापन में भी बेहद खर्चा होता है. ये व्रत हमारी जेब पर बहुत भारी पड़ते हैं. समय पर खानापीना न खा कर और रात में गरिष्ठ भोजन के कारण हमारे स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ता है यह तो हम सब जान ही चुके होंगे.

गहरी साजिश है यह

मेरी अपनी सास हमेशा करवाचौथ के उपवास को बहुत ही श्रद्धा के साथ रखती थीं. हर व्रत उन के पति की लंबी आयु के लिए ही होता था, फिर भी उन की चिर सुहागन की इच्छा पूरी न हो सकी.

गौर करें तो पाएंगे कि सारे व्रत केवल महिलाएं ही रखती हैं? फिर चाहे वह पूर्णमासी का व्रत हो, एकादशी का हो, अष्टमी का हो या फिर करवाचौथ का. हर व्रत के पीछे मुख्य भावना होती है परिवार की सुखशांति या फिर पुत्र अथवा पति की लंबी आयु. ये व्रतअनुष्ठान बस स्त्रियां ही क्यों रख पाती हैं क्योंकि उन्हें बचपन से ही इच्छाओं को दमन करने की शिक्षा दी जाती है. यह समाज में पुरुषों की सत्ता का दबदबा रखने के लिए भी किया जाता है.

सारे व्रत महिलाएं रखती हैं पर उन व्रतों के नियम बनाने वाले सब पंडित पुरुष ही हैं. क्यों अब तक भी पंडिताई में पुरुषों का ही वर्चस्व है? क्या इस के पीछे यह कारण तो नहीं है कि हमारा धर्म आज भी महिलाओं को एक ऐसे अंधकार में रखना चाहता है जहां पर नारी खुल कर सोच न पाए. अगर व्रत करने से जिंदगी आसान हो जाती है तो शायद ही हमें अपने आसपास कोई दुखी इनसान मिले.

जिंदगी की राह ऐसे आसान बनाइए

जो समय और ऊर्जा हमारी महिलाएं इन व्रतों को रखने में लगाती हैं, उतने ही समय में तो वे कितने ही लाभकारी कार्य भी कर सकती हैं. जो समय और ऊर्जा महिलाएं इन व्रतों को करने में लगाती हैं उतने ही समय में वे कोई लाभकारी हुनर सीख सकती हैं जो उन की जिंदगी की राह को आसान बना सकने में सक्षम रहेगा. मैं व्रतअनुष्ठानों के खिलाफ कोई मुहिम नहीं छेड़ रही हूं. मैं बस यह कहना चाहती हूं कि आप भले ही कोई भी व्रत रखें पर उसे अपनी खुशी के लिए रखें. अपने समय और स्वास्थ्य के हिसाब से आप उन के नियम और कायदों को ढाल भी लें.

भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराध में वृद्धि के कारण और उपाय

झारखंड में 28 अगस्त 2022 को 18 साल की मासूम की नृशंस हत्या ने एक बार फिर भारत में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर गंभीर चिंता का विषय बना दिया है.

महिलाओं के खिलाफ बढ़ी हुई अपराध को पुरुष प्रधान और रूढ़िवादी समाज को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है. सरकार ने ऐसे अपराधियों के मन में डर पैदा करने के लिए कई कानून बनाए और अपग्रेड किए हैं, लेकिन महिलाओं के खिलाफ सबसे जघन्य अपराधों की घटनाओं की आवृत्ति में कोई राहत नहीं मिली है.

भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराध में वृद्धि के कारण –

कानून का डर नहीं: कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न, विशाखा दिशा-निर्देश जैसे विभिन्न कानून लागू हैं. दुर्भाग्य से, ये कानून महिलाओं की रक्षा करने और दोषियों को दंडित करने में विफल रहे हैं. यहां तक ​​कि कानून में भी कई खामियां हैं. उदाहरण के लिए, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न अधिनियम के तहत, कानून कहता है कि एक वार्षिक रिपोर्ट होनी चाहिए जिसे कंपनियों द्वारा दाखिल करने की आवश्यकता है, लेकिन प्रारूप या फाइलिंग प्रक्रिया के साथ कोई स्पष्टता नहीं है.

पितृसत्ता: बढ़े हुए शिक्षा स्तर और ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ जैसे विभिन्न सरकारी प्रयासों के बावजूद, महिलाओं की स्थिति में बहुत सुधार नहीं हुआ है. लोग अपनी पितृसत्तात्मक मानसिकता को नहीं छोड़ रहे हैं. पितृसत्तात्मक मानसिकता को चुनौती देने वाली महिलाओं की बढ़ती आवाज के कारण ऑनर किलिंग, घरेलू हिंसा बढ़ रही है.

सार्वजनिक सुरक्षा की कमी: महिलाएं आमतौर पर अपने घरों के बाहर सुरक्षित नहीं होती हैं. कई सड़कों पर खराब रोशनी है, और महिलाओं के शौचालयों की कमी है. जो महिलाएं शराब पीती हैं, धूम्रपान करती हैं या पब में जाती हैं, उन्हें भारतीय समाज में नैतिक रूप से ढीले के रूप में देखा जाता है, और ग्राम कबीले परिषदों ने बलात्कार की घटनाओं में वृद्धि के लिए सेल फोन पर बात करने और बाजार जाने वाली महिलाओं में वृद्धि को दोषी ठहराया है.

महिलाओं के पक्ष में सामाजिक – सांस्कृतिक कारक: लिंग भूमिकाओं की रूढ़िवादिता युगों से जारी है. महिलाओं के लिए प्राथमिक भूमिका विवाह और मातृत्व की रही है. महिलाओं को शादी करनी चाहिए क्योंकि अविवाहित, अलग या तलाकशुदा स्थिति एक कलंक है. और दहेज प्रथा आज भी भारतीय शादियों में प्रचलित है.

परिवार द्वारा दिए गए संस्कार: लड़कियों को बचपन से ही सिखाया जाता है कि उन्हें ढके हुए कपड़े पहनने चाहिए, उन्हें पुरुषों का सम्मान करना चाहिए, उन्हें विशेष रूप से सार्वजनिक वातावरण में जोर से नहीं हंसना चाहिए, आदि. लेकिन क्या लड़कों को भी यह सिखाया जाता है कि महिलाओं का सम्मान करें? लड़कियों के साथ कैसा व्यवहार करें? उन पर टिप्पणी न करें? उन्हें बुरी तरह से नहीं देखें अथवा छुएं? उनका रेप नहीं करना है? परोपकार अपने घर से ही प्रारंभ होता है. परिवार को अपने लड़कों को बचाने के बजाय उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई करनी चाहिए, अगर वे इस तरह के अपराध करते हैं.

महिलाओं के खिलाफ अपराधों को रोकने के लिए समाज के लिए कुछ सुझाव:

जवाबदेही बढ़ाने के लिए पुलिस का पुनर्गठन:

पुलिस बल के बारे में एक आम व्यक्ति की धारणा यही है कि वह पक्षपातपूर्ण, राजनीतिकरण है और आम तौर पर बहुत सक्षम नहीं है.

पुलिस को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि पुलिस स्टेशन महिलाओं के लिए शिकायत करने के लिए स्वागत स्थल हैं. क्यूंकि इन शिकायतों को दबाने से केवल व्यवस्था कमजोर होती है और अपराधियों का हौसला बढ़ता है.

महिलाओं के कार्यस्थल उत्पीड़न की रोकथाम:

कॉरपोरेट्स द्वारा बनाई गई प्रभावी नीतियां कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को प्रभावी ढंग से निपटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं. महिलाओं के लिए शत्रुतापूर्ण कार्य वातावरण को रोकने के लिए उन्हें अपनी संगठनात्मक संस्कृति पर भी काम करना चाहिए. यह भविष्य के लिए एक महान निवेश है यदि उनके कर्मचारी सहमति से नियमों का उल्लंघन किए बिना या सत्ता के खेल खेलने के बिना एक-दूसरे के साथ आराम से काम करने में सक्षम हैं.

मूल भारतीय नैतिकता को स्थापित करना:

एक बच्चे के प्रारंभिक वर्षों के दौरान चरित्र निर्माण माता-पिता और शिक्षकों की एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है. इस संबंध में शिक्षा इस समय की आवश्यकता है कि इस मुद्दे के आसपास की वर्जनाओं को दूर किया जाए, और देश में पुरुषों को सम्मान, सीमाओं और सहमति के बारे में समझने में मदद की जाए ताकि वे महिलाओं के अधिकारों का उल्लंघन न करें.

किशोरों के खिलाफ अपराधों के लिए कठोर दंड:

यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO) में संशोधन किया जाना चाहिए ताकि 12 साल से कम उम्र के बच्चों के साथ बलात्कार के लिए मौत की सजा दी जा सके.

वही ऐसे अपराधियों के मन में प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाएगा.

सरकारी मकान और औरतों का फैसला

एक जमाना था जब किसी भी तरह की पक्की छत लोगों को स्वीकार थी या आज लाइफ स्टाइल के साथ मजबूती और टिकाऊ भी मकान में होना जरूरी हो गया है. जहां पहले दिल्ली डेवलेपमैंट अथौरिटी के मकानों को अलाट कराने के लिए हजार तरह की सिफारिशें लगाई जाती थीं और रिश्वतें दी जाती थीं अब ये मकान लौटाए जा रहे हैं और हाल में 27′ लोगों ने अपने मकान लेने से इंकार कर दिया.

ये सरकारी मकान अब सस्ते तो नहीं रह गए थे उलटे इन की बनावट खराब है और यह पक्का है कि इनकी रखरखाव पर डीडीए कोई ध्यान न देगा क्योंकि डीडीए अपने लिए जीता है, चलता है, काम करता है. जनता के लिए नहीं. घरों के चलाने वाली औरतों ने अब खराब मकान लेने से इंकार कर दिया चाहे वे वर्षों इन का इंतजार कर चुकी हो.

आज की औरत को डीडीए ही नहीं देश भर की सरकारें कम न समझें. शिक्षा और आजादी ने उन्हें इतनी समझ दे दी है कि अकेलेे होते घरों में वे पहली धुरी हैं और उन के पति. पिता या बेटे बाद में आते हैं. घर को चलाने के लिए आवश्यकताओं की समझ उन्हें है और घर ही चुनौतियों का सामना उन्होंने ही करना है. अब वे इंकार करना जानती है और डीडीए यह सब करोड़ों का नुकसान सह कर समझ रही है.

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आज की औरतें मकान के रखरखाव पर बहुत ज्यादा चूजी होती जा रही हैं और अब जैसा है चलेगा की भावना खत्म होती जा रही है. मकानों में प्राइवेट बिल्डरों की बाढ़ आ गई है और डीडीए जैसे सरकारी संस्थाएं अब निरर्थक हो गई हैं. औरतों को अब सरकारी बाबू नहीं चाहिए जिस के सामने वे गिड़गिड़ाएं, उन्हें अब सप्लायर चाहिए जो उन की मर्जी से काम करे, जो उन की सुने और उन की शिकायत दूर करे.

सरकारी मकान तो एक उदाहरण है कि किसी की भी मोनोपोंली असल में भीषण में होती है आज यही टैक्नोलौजी में हो रहा है जिस में कुछ कंपनियों ने एकाध्धिककार कर के दिमाग और जानकारी पर वैसा ही कब्जा कर लिया है जैसा भवनों और मकानों की जमीनों पर 30 साल पहले सरकार का था. आम जनता और विशेषत औरतों की एक पीढ़ी ने बहुत बुरे मकानों में अपने जीवन के कीमती साल बर्बाद करें क्योंकि सरकार को अपनी चलाने की पड़ी थी.

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आज सरकार सुधरी है, ऐसी नहीं लगता. सरकार आज भी घरों के आसपास में ऐसा ढंग से नहीं रख पा रही है और शहर में कुछ वीआईपी इलाकों को छोडक़र सब दूसरी जगहों को बुरी तरह निग्लैक्ट किया जा रहा है क्योंकि औरतों ने राकेश टिकैत की तरह धरने देने शुरू नहीं किए हैं. अगर शाहीन बाग और किसान मोर्चो की तरह कालोनी सुधार मोर्चे लगने शुरू हो जाएं तो ही शहरी जीवन सुधरेगा. कुछ हफ्तों की मेहनत बाकी जीवन को सुधार देगी.

लोकतंत्र और धर्म

धर्म और संस्कृति के नाम पर जो शोषण सदियों से औरतों का हुआ है वह जनतंत्र या लोकतंत्र के आने के बाद ही रुका था पर अब फिर षड्यंत्रकारी धर्म के दुकानदार अपनी विशिष्ट अलग प्राचीन संस्कृति के नाम पर पुरातनी सोच फिर शोप रहे हैं जिस में औरतें पहली शिकार होती है. अफगानिस्तान में तालिबानी शासन में तो यह साफ ही है. पर भारत में भी अनवरत यत्र, हवन, प्रवचनों, तीर्थ यात्राओं, पूजाओं, श्री, आरतियों, धाॢमक त्यौहारों के जरिए लोकतंत्र की दी गई स्वतंत्रता को जमकर छीना जा रहा है. अमेरिका भी आज बख्शा नहीं जा रहा जहां चर्चा की जमकर वकालत की वजह गर्भधत पर नियंत्रण लगाया जा रहा है जो असल में औरत के सेक्स सुख का नियंत्रण है और जो औरत को केवल बच्चे पैदा करने की मशीन बनाता है, एक कर्मठ नागरिक नहीं.

कल्चरल रिवाइवलिज्म के नाम पर भारत में देशी पोशाक, देशी त्यौहार, जाति में विवाह, कुंडली, मंगल देव, वास्तु, आरक्षण के खिलाफ आवाज उठाई जा रही है जो धर्म के चुंगल से निकालने वाले लोकतंत्र को हर कमजोर कर रही है और मंदिरमसजिद गुरुद्वारे धर्म को मजबूर कर रही हैं. इन सब धर्म की दुकानों में औरतों को पल्ले की कमाई तो चढ़ानी ही होती है उन्हें हर बार अपनी लोकतांत्रिक संपत्ति का हिस्सा भी धर्म के दुकानदार को देकर अपना पड़ता है. यह चाहे दिखवा नहीं है क्योंकि ये सारे धर्म की दुकानें पुरुषों द्वारा अपने बनाए नियमों और तौरतरीकों से चलती है और इस में मुख्य जना जो पूजा जाता है. वह या तो पुरुष होता है या हिंदू धर्म किसी पुरुष की संतान या पत्नी होने के कारण पूजा जाता है. भाभी औरत का वजूद नहीं रहता और यह मतपेटियों तक पहुंचता है.

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लोकतंत्र सिर्फ वोट देने का अधिकार नहीं है. लोकतंत्र का अर्थ है सरकार और समाज को चलाने का पुरुष के बराबर का सा अधिकार. इस देश में इंदिरा गांधी, जयललिता और ममता बैनर्जी जैसी नेताओं के बावजूद देश का लोकतंत्र पुरुषों को गुलाम रहा है और धर्म के आवरण में फिर उसी रास्ते पर हर रोज बढ़ रहा है.

नरेंद्र मोदी की सरकार में औरतों की उपस्थिति न के बराबर है. 2014 में सुषमा स्वराज ने प्रधानमंत्री पर ये चाह रखी थी तो उन्हें न चुने जाने के बाद उन को विदेश मंत्री की जगह वीजा मंत्री बना कर दर्शा दिया गया कि औरतों की कोई जगह नहीं है. वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन अपने हर वाक्य में जय श्री राम नहीं जय नरेंद्र मोदी बोलती हैं ताकि उन की गद्दी बची रहे. यह एक पढ़ीलिखी, सुघड़, सुंदर, स्मार्ट और हो सकता है कमाऊ पत्नी की तरह जो हर बात में उन से पूछ कर बताऊंगी का उत्तर देती हैं. लोकतंत्र का आखिरी अर्थ है कि हर औरत चाहे दफ्तर में हो, राजनीति में हो, स्कूल में हो या घर में आप फैसले खुद ले सकें.

लोकतंत्र का लाभ औरतों को मिले इस की लंबी लड़ाई स्त्री और पुरुष विचारकों ने 18वीं व 19वीं शताब्दी में लड़ी पर 20वीं के अंत में व 21वीं के प्रारंभ की शताब्दी में यह लड़ाई कमजोर हो गई है. आज अमेरिका की औरतें गर्भपात केंद्रों पर धरने दे रही हैं और भारत की कर्मठ आजाद गुजराती औरतें अपना सकें. पुरुष गुरुओं के नव रही हैं.

लोकतंत्र का अर्थ आॢथक आजादी भी है जो शून्य होती जा रही है. हर उस औरत की महिमा गाई जाती है जिस ने ऊंचा स्थान पाया हो पर यह भी बता दिया जाता है कि यह उस के पिता या पत्नी के कारण मिला है. जिन महिला अधिकारियों के खिलाफ  आजकल कुछ आॢथक अपराध के मामले चल रहे हैं उन की परतें खोलने पर साफ दिख रहा है कि असल बागडोर तो पतियों के हाथों में ही थी.

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लोकतंत्र की भावना को कुचलने में धर्म का ही बड़ा स्थान है क्योंकि पूंजीवाद तो औरतों को बड़ा ग्राहक मानता है. इज्जत देता है और इसलिए लोकतंत्र की रक्षा करता है. धर्म को वेवकूद औरतें चाहिए जिन्हें हांका जा सके और वे अपने एजेंट धरधर भेजते है. लोकतंत्र का कोई एजेंट नहीं है, लोकतंत्र को छलनी करने के सैनिकों की पूरी फौज है. कब तक बचेगा लोकतंत्र और कब तक आजाद रहेंगी औरतें, देखने की बात है. अभी तो क्षितिज पर अंधियारे बादल दिख रहे हैं.

औरत नहीं है बच्चा पैदा करने की मशीन

हाल ही में मुंबई के पौश इलाके दादर की एक 40 वर्षीय महिला ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई कि उस के पति ने उसे बेटा पैदा करने के दबाव में 8 बार गर्भपात कराने को मजबूर किया. इस के साथ ही उस को 1,500 से अधिक हारमोनल और स्टेराइड इंजैक्शन दिए गए.

भारत में गर्भपात गैरकानूनी है, इसलिए उस का गर्भपात और उपचार बिना उस की सहमति के विदेश में करवाया. बेटे की ख्वाहिश में की जा रही इस मनमानी के खिलाफ आवाज उठाने पर उस के साथ मारपीट की.

पीडि़ता ने अपना दर्द बयां करते हुए कहा कि शादी के कुछ समय बाद ही पति ने वारिस के रूप में एक बेटे की जरूरत पर जोर दिया और जब ऐसा नहीं हो सका तो उस के साथ मारपीट करनी शुरू कर दी. इसी वजह से विदेश में उस का 8 बार गर्भपात कराया. महिला के पिता सेवानिवृत्त जज हैं और उन्होंने अपनी बेटी का विवाह एक उच्च शिक्षित और प्रतिष्ठित परिवार में किया था. पीडि़ता के पति और सास दोनों ही पेशे से वकील हैं और ननद डाक्टर है.

2009 में पीडि़ता ने एक बच्ची को जन्म दिया. 2 साल के बाद 2011 में जब वह दोबारा गर्भवती हुई तो उस का पति उसे डाक्टर के पास ले गया और गर्भ में फिर से बेटी होने की खबर पा कर उसे गर्भपात के लिए मजबूर किया.

आरोपी पति अपनी पत्नी को भ्रूण प्रत्यारोपित कराने ले गया और इस से पहले आनुवंशिक रोग के निदान के लिए बैंकौक भी ले कर गया. गर्भाधान से पहले भ्रूण के लिंग की जांच कर के उस का इलाज और सर्जरी की जा रही थी. इस के लिए पीडि़ता को 1,500 से अधिक हारमोनल और स्टेराइड के इंजैक्शन दिए गए. महिला की शिकायत के आधार पर पति के खिलाफ उत्पीड़न, मारपीट, धमकी और जैंडर सलैक्शन का केस दर्ज कर लिया गया.

सोचने वाली बात है कि जब रईस और पढ़ेलिखे लोग ऐसा करेंगे तो दहेज देने में लाचार या अनपढ़ लोगों के बारे में कुछ कहना ही बेकार है. आज के समय में जबकि लड़कियां बड़े से बड़े ओहदे पर पहुंच कर बखूबी अपनी भूमिकाएं निभा रही हैं तब इस तरह की सोच रखने वाले रईस परिवारों की इस मानसिक संकीर्णता पर अफसोस जाहिर करने के सिवा क्या कहा जा सकता है?

औरतों के साथ हैवानियत

मगर बात यहां केवल संकीर्ण सोच या बेटे के लिए पागलपन की नहीं है. इस तरह के मामले दरअसल हैवानियत की सीमा पार कर जाते हैं. एक औरत के लिए मां बनने का सफर आसान नहीं होता. गर्भधारण के बाद के पूरे 9 महीने उसे कितनी शारीरिक तकलीफों से गुजरना पड़ता है यह केवल एक औरत ही समझ सकती है. मगर अकसर पुरुष औरत को इंसान नहीं बल्कि बच्चे पैदा करने वाली मशीन समझते हैं.

उन्हें यह भी समझ नहीं आता कि एक मां का अपने बच्चे से जुड़ाव उसी समय हो जाता है जब वह उस के पेट में आता है. बच्चा उस के शरीर का ही हिस्सा होता है. ऐसे में महज बेटी होने की वजह से उस का गर्भपात करा देना उस अजन्मी बच्ची के साथसाथ मां की ममता का भी खून करना होता है. असुरक्षित गर्भपात गर्भवती औरतों की मृत्यु का तीसरा सब से बड़ा कारण है.

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यही नहीं गर्भपात और इलाज के नाम पर उस के शरीर में हारमोनल और स्टेराइड इंजैक्शन घुसाना या सर्जरी करना किसी भी तरह मान्य नहीं है. पति होने का मतलब यह नहीं कि पुरुष महिला के शरीर का मालिक हो गया और उस के साथ कुछ भी करने का हक हासिल कर लिया. इस तरह के लोग तो रैपिस्ट से भी ज्यादा हैवान होते हैं. रेपिस्ट किसी अनजान महिला के साथ जबरदस्ती करते हैं, मगर पति 7 वचन निभाने का वादा कर के भी महिला को मर्मांतक पीड़ा पहुंचाते हैं.

औरत केवल बच्चे पैदा करने के लिए नहीं है

हाल ही में अफगानिस्तान में तालिबान की नई सरकार में महिलाओं को शामिल किए जाने की सभी संभावनाओं को खारिज करते हुए समूह के एक प्रवक्ता ने कहा कि महिलाओं को सिर्फ बच्चे पैदा करने चाहिए. एक महिला के लिए कैबिनेट में होना जरूरी नहीं है. इस के बाद अफगानिस्तान की सैकड़ों महिलाएं अपनी जान जोखिम में डाल कर इस के विरोध में सड़कों पर उतर आईं.

तालिबान द्वारा विरोध पर काररवाई में महिला प्रदर्शनकारियों के खिलाफ कोड़े और लाठियों का इस्तेमाल किया. यही नहीं तालिबान ने अफगानिस्तान में महिलाओं के खेलों पर भी प्रतिबंध लगा दिया है.

इस तरह की सोच पुरुषों की छोटी सोच का नतीजा होती है. आज महिलाएं जीवन के हर क्षेत्र में पुरुषों के साथ कंधा से कंधा मिला कर अपनी काबिलीयत साबित कर रही हैं. फिर भी औरतों को दोयम दर्जा ही दिया जाता है. बात तालिबान की हो या भारत की, औरतों के साथ हैवानियत कहीं भी हो सकती है और इस की वजह महिलाओं के प्रति समाज का संकीर्ण रवैया है. समाज का यह रवैया कहीं न कहीं धार्मिक अंधविश्वासों और धर्मगुरुओं की देन है.

मैं बच्चा पैदा करने की मशीन नहीं हूं

महिला हीरोइन हो या साधारण घर की लड़की अकसर भारतीय समाज में शादी के बाद ज्यादातर लड़कियों से यह सवाल जरूर पूछा

जाता है कि वह खुशखबरी कब सुनाएगी यानी मां कब बन रही है. ऐसा लगता है जैसे औरत का सब से पहला और जरूरी काम बच्चे पैदा करना ही है.

दरअसल, ससुराल में ऐंट्री होने के बाद से ही लड़कियों पर एक अच्छी पत्नी और बहू के साथसाथ घर को वारिस देने की जिम्मेदारी भी डाल दी जाती है. उसे बेटे की मां बनने का आशीर्वाद दिया जाता है. मां बनने में देर हुई तो ताने दिए जाने लगते हैं. सिर्फ परिवार वाले ही नहीं बल्कि रिश्तेदार और पासपड़ोस वालों का नजरिया भी यही होता है.

अकसर घर के बड़े बेटियों को समझते हैं कि शादी के बाद कैरियर को भूल कर पहले घर देखना और घर की जिम्मेदारी संभालनी चाहिए. लड़की को कभी अपनी जिंदगी से जुड़े अहम फैसले लेने का हक भी नहीं मिलता. कई बार सासससुर द्वारा बहू से डिमांड की जाती है कि वह उन्हें पोता ही दे.

इस तरह कभी पोते की चाह को ले कर सासससुर बहू पर हावी होते हैं तो कभी शादी के तुरंत बाद बच्चे की पैदाइश को ले कर उतावले रहते हैं. ऐसा लगता है जैसे बहू बच्चा पैदा करने की मशीन है. जब चाहे पोता पैदा करवा लो और यदि गर्भ में बच्ची है तो उस की हत्या कर दो. लगता है जैसेकि लड़की की अपनी कोई संवेदना ही नहीं. उस का कोई वजूद ही नहीं, रूढ़ीवादी सोच के चलते लड़की के साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है.

बदल जाती है लड़की की जिंदगी

शादी वैसे तो 2 लोगों के बीच होती है, लेकिन अपेक्षाएं केवल बहू से ही की जाती हैं. वैसे ही नए माहौल में एडजस्ट होना और घर को संभालना उस के जीवन की चुनौती होती है. उस की जिंदगी में ऐसे कई बदलाव आते हैं जिन का सामना सिर्फ और सिर्फ लड़की को ही करना पड़ता है. यही नहीं नए रीतिरिवाजों से ले कर सब के मन की करने का बोझ भी घर की नई बहू पर डाल दिया जाता है.

जिन लड़कियों के लिए जिंदगी में कैरियर बहुत महत्त्वपूर्ण होता है उन्हें भी शादी के बाद अपनी प्राथमिकताएं बदलनी पड़ती हैं. एक अच्छी बहू, पत्नी बनने के चक्कर में कैरियर बहुत पीछे छूट जाता है. बची हुई कसर उन के मां बनने के बाद घर पर रह कर बच्चा संभालने की जिम्मेदारी पूरी कर देती है.

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सोसाइटी में दिखावा

समाज में दिखावा करने का रिवाज बहुत पुराना है. बहू के आने के बाद शादी में मिले सामान से ले कर उस की खूबसूरती और कुकिंग स्किल्स को ले कर ससुराल वाले रिश्तेदारों के सामने तारीफ करते नहीं थकते. ऐसा कर के वे समाज में अपनी हैसियत बढ़ा रहे होते हैं. सोसाइटी में अच्छी और बुरी बहू के कुछ पैमाने बने हुए हैं जिन के आधार पर एक बहू को जज किया जाता है. बहू घर का कितना काम करती है, कितनी जल्दी पोते का मुंह दिखा रही है या कितने बड़े घर से आई है जैसी बातें ही उस के अच्छा और बुरा बनने का फैसला करती हैं.

समाज को नहीं भाती आत्मनिर्भर लड़की

समाज में एक आत्मनिर्भर बहू को पचा पाना आज भी मुश्किल है. अगर बहू अपने पहनावे, कैरियर और दोस्तों से मिलनेजुलने जैसी बातें खुद डिसाइड करती है तो ससुराल में उस का टिकना मुश्किल हो जाता है. उस के पति और सासससुर को यह बात बिलकुल रास नहीं आती है. अगर एक बहू काम से घर पर देर से लौटती है तो उसे जज किया जाता है. लड़के दोस्त होने पर उस के चरित्र तक पर सवाल उठाए जाते हैं और शादी के तुरंत बाद मां न बनने का फैसला उस में कई तरह की कमियां ढूंढ़ निकालता है.

जरूरी है कि महिलाएं खुद अपनी अहमियत को समझेंं और किसी भी तरह के दबाव को अपनी लाइफ पर हावी न होने दें. पुरुषों को भी जरूरत है इस सोच से ऊपर उठने की, बेटा हो या बेटी बिना किसी पक्षपात के बच्चे को अपना पूरा प्यार देने की.

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देश की पुलिस व्यवस्था

पौराणिक कहानियां जो हमारे यहां हर मौके पर पंडितों, प्रवचन कर्ताओं और व्हाट्सएप महानुभवों द्वारा सुनार्ई जाती हैं, एक विशेषता रखती हैं. वह है कि उन में न सिरपैर होता है, न तर्क, न सही तथ्य पर पढऩे में मजेदार होती है. हमारी पुलिस इस ज्ञान में माहिर है और जब भी किसी अभियुक्त को साल 6 माह बाद जेल में रखने के बाद जमानत मिलती है (आरोपमुक्ति नहीं) यह स्पष्ट हो जाता है कि बेबात में पौराणिक सी कहानी बना कर उसे जेल में इतने दिन बंद रखा गया.

सुशांत ङ्क्षसह राजपूत की आत्महत्या के मामले में कितनों को ही बेमतलब की पौराणिक कहानियां बनाकर मजिस्ट्रेट के सामने अभियुक्त बना कर खड़ा किया गया और गिरफ्तारी का आदेश ले लिया गया. आमतौर पर हमारे जज पुलिस की बात कानून व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर मान लेते हैं पर जब तथ्यों की कमी होने लगती है तो लगने लगता है कि पुलिस का केस तो सत्यनारायण व्रत कथा की तरह का है. जिसमें सत्यनारायण की कथा है ही नहीं.

मुंबई के अंधेरी के रहने वाले जपतप ङ्क्षसह आनंद को फरवरी 2020 में गिरफ्तार किया गया था क्योंकि सुशांत सिंह राजपूत की मैनेजर करिश्मा प्रसाद ने उस के अकाउंट में 3100 रुपए भेजे थे. अब यह न पूछें कि यह पुलिस को कैसे पता चला कि यह पैसा 50 ग्राम गांजा खरीदने के लिए भेजे गए थे. पुलिस का दावा था कि जपतप ङ्क्षसह ने यह पैसे अपने भाई करमजीत ङ्क्षसह को दिए जिसे भी गिरफ्तार किया गया था पर पहले ही जमानत मिल चुकी थी.

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विलक्षण ज्ञान वाले नैरकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरों के पुलिस अधिकार रखने वाले अफसरों को दिव्य ज्ञान हो गया था कि यह पैसा ड्रग खरीदने के लिए दिया गया था. अब जपतप ङ्क्षसह आनंद के पास चाहे ड्रग न मिली हो पुलिस के लिए यह ब्रहत वाक्य सी एंट्री थी कि 3100 रुपए का लेनदेन ड्रग के अरबों के व्यापार का हिस्सा है.

जपतप को पुलिस कैंट में इतना समय बिताने के बाद आर्यन खान की तरह जमानत मिल गई पर सबाल उठता है कि हम कैसे समाज में जी रहे हैं जहां जो सत्ता में हो वे चाहे जैसे आरोप लगा कर अपराधी सिद्ध कर सकते हैं. यह ऐसा ही आरोप है जैसा व्हाट्सएप पर घूमता है कि सोनिया गांधी के पास इतने 1 अरब डौलर हैं, लालू यादव के पास इतने, मनमोहन ङ्क्षसह के पास इतने.

इन सब की जड़ में वह धाॢमक प्रचार है जिसे पढ़ कर औरतें खुद भी झूम उठती हैं और पूरे परिवार को उसी पर चलाती हैं. शुक्रवार के व्रत की यह महिला है, गैरमुखी घर का यह दुर्गुण है, लाल साड़ी में यह शुभ बात है, विधवा अपने पति का इस तरह खा जाती है. विभूति के ग्रह दोष इन कारणों से है आदि की कंपाल कल्पित कहानियां सुन कर, पढ़ कर व्हाट्सएप पर जान कर देश का समाज पुलिसमयी हो गया है. सैंकड़ों जजों के आदेश भी इसी तरह के होते हैं जो यथासंभव पुलिस की हां में हां मिलाते हैं जैसे झुंड में बैठी प्रवचनकर्ता वे शब्दों पर जयजयकार करती हैं.

देश की खराब पुलिस व्यवस्था का दोष घरों की सोच को दिया जा सकता है. अज्ञान किस तरह हानिकारक हो सकता है, हम सब जानते हैं. हमारी गरीबी, हमारे झगड़ों और हमारी बिमारियों की जड़ों में बहुत हद तक यह अज्ञान ही है जो पुलिस दस्तावेजों में भी पहुंच जाता है और निर्दोषों को महीनों, सालों जेलों में सडऩा होता है. उन के घर वाले किस तरह तिलतिल कर मरमर के जीते हैं, यह कल्पना ही शरीर को झनझना देती है.

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जागृति तो सिर्फ पढ़ने से आती है

सिंपल लिविंग हाई थिंकिंग यानी सादा जीवन उच्च विचार पर अमल करने वाले युवाओं की तादाद दिनोंदिन कम होती जा रही है. युवा टिपटौप रहें, अच्छे मनपसंद कपड़े पहनें, वक्त के हिसाब से फैशन करें ये बातें कतई हरज की नहीं, लेकिन उन की सोच और मानसिकता कैसी होनी चाहिए जो उन्हें अपनी मंजिल तक पहुंचा दे यह सबक भोपाल की 24 वर्षीय जागृति अवस्थी से लिया जा सकता है जिस ने इस साल यूपीएससी के इम्तिहान में देशभर में दूसरा स्थान हासिल किया है.

मध्यवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखने वाली दुबलीपतली लेकिन आकर्षक दिखने वाली खूबसूरत जागृति भोपाल के शिवाजी नगर स्थित सरकारी आवास में रहती है. उस के पिता सुरेश अवस्थी आयुर्वेदिक कालेज में होमियोपैथी के प्रोफैसर हैं और मां मधुलता हाउसवाइफ हैं. एकलौता भाई सुयश मैडिकल कालेज का छात्र है.

नतीजे के दिन से जागृति के घर मीडिया और बधाई देने वालों का तांता लगा है. हरकोई उस से जानना चाहता है कि उस ने यह मुकाम कैसे हासिल किया.

पड़ोसी होने के नाते इस प्रतिनिधि ने बचपन से ही उसे देखा है. जागृति शुरू से ही आम बच्चों से भिन्न रही है. उस की जिज्ञासा और मासूमियत ने उसे वहां तक पहुंचा दिया जो किसी भी युवा का सपना होता है.

इस प्रतिनिधि ने उस से लंबी अंतरंग बातचीत की तो कई अहम बातें सामने आईं जो बताती हैं कि यों ही कोई आईएएस अधिकारी नहीं बन जाता. इस उपलब्धि के लिए न केवल कड़ी मेहनत करना पड़ती है बल्कि बहुत से सुख और मौजमस्ती भी छोड़नी पड़ती है. आइए, जागृति की जबानी जानें उस के सफर की कहानी:

हाई रिस्क हाई गेन

जागृति ने जिंदगी का बहुत बड़ा जोखिम बीएचईएल की नौकरी छोड़ देने का उठाया था. भोपाल के एनआईटी से इलैक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की डिगरी लेने के बाद उस की जौब जब इस सरकारी कंपनी में लगी थी तब तक उस ने सिविल सेवाओं के बारे में सोचा भी नहीं था. क्व95 हजार महीने की खासी लगीलगाई नौकरी छोड़ना एक बहुत बड़ी रिस्क था जिस पर दोस्तों, रिश्तेदारों और शुभचिंतकों ने उस के इस फैसले को एक तरह से नादानी करार दिया था. कुछ की सलाह थी कि तैयारी तो नौकरी के साथसाथ भी हो सकती है यानी नौकरी छोड़ने का जोखिम मत उठाओ.

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मगर जागृति ने जोखिम उठाया और कामयाब रही. युवाओं को रिस्क लेना चाहिए. वह कहती है कि इस के लिए जरूरी है अपनेआप पर भरोसा होना कि जो लक्ष्य उन्होंने चुना है उसे हासिल कर ही दम लेंगे. अगर ठान लिया जाए और खुद को पूरी तरह झोंक दिया जाए तो दुनिया का कोईर् काम मुश्किल नहीं.

पत्रपत्रिकाएं जरूरी

जागृति के पेरैंट्स ने कभी उस के फैसलों पर एतराज नहीं जताया बल्कि हमेशा उसे प्रोत्साहित ही किया. जब बच्चे बड़े होने लगे तो मधुलता ने उस की बेहतर पढ़ाई के लिए टीचरशिप की नौकरी छोड़ दी. लेकिन अकेले पढ़ाई में अव्वल होना किसी भी प्रतियोगी परीक्षा में सफलता की गारंटी जागृति नहीं मानती. उस के मुताबिक आप को बहुत सा और हर तरह का साहित्य पढ़ना चाहिए जो सिर्फ पत्रपत्रिकाओं और पुस्तकों में ही मिलता है. सोशल मीडिया और टीवी, मोबाइल का युवाओं को सीमित उपयोग करना चाहिए.

खुद जागृति के घर टीवी नहीं है जो पढ़ाई में बाधक ही होता. वह बताती है कि परीक्षा की तैयारी के लिए उस ने तरहतरह की किताबें पढ़ीं जिस से उस का ज्ञान बढ़ा. वह बचपन में बड़े चाव से चंपक पढ़ा करती थी और अब सरिता, गृहशोभा सहित कारवां पत्रिका भी जरूर पढ़ती है. पत्रपत्रिकाओं के अध्ययन ने उसे व्यावहारिक और तार्किक बनाया.

आईएएस ही क्यों

जागृति जब बीएचईएल में नौकरी करती थी तब उस ने देखा कि छोटे स्तर के कर्मचारी अपने छोटेछोटे कामों के लिए कलैक्टर के दफ्तर भागते थे. कुछ के काम हो जाते थे और कुछ के नहीं. इन लोगों की परेशानी देख उस के मन में भी आईएएस बनने का खयाल आया. वह कहती है कि वह खुद बुदेलखंड इलाके के जिले छतरपुर के छोटे से गांव से है, लिहाजा बचपन में ही उस ने देहाती जिंदगी की दुश्वारियों को देखा है. अब वह महिला और बाल विकास विभाग को प्राथमिकता में रखते हुए काम करेगी.

राजनीतिक हस्तक्षेप

ब्यूरोक्रेट्स को अकसर राजनीतिक दबाव में फैसले लेने पड़ते हैं. अगर ऐसी नौबत कभी आई तो क्या करोगी? इस सवाल पर वह पूरे आत्मविश्वास से बोली कि उसे नहीं लगता कि राजनीतिक दबाव में वह कोई फैसला लेगी. देश में एक संविधान है. उस के दायरे में ही फैसले लेगी. जागृति का मानना है कि कोई भी फैसला आम और वंचित लोगों के भले के लिए संस्थागत तरीके से लिया जाना चाहिए. देश टैक्स के पैसे से चलता है किसी खैरात से नहीं, यह बात सभी को ध्यान में रखनी चाहिए. ऐसा ज्यादा से ज्यादा क्या होगा ट्रांसफर कर दिया जाएगा, जिन की परवाह नहीं.

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महिला आरक्षण

जागृति का ध्यान पिछले दिनों चीफ जस्टिस एनवी रमण के उस बयान जिस में उन्होंने न्यायपालिका में महिलाओं के 50 फीसदी आरक्षण की जोरदार वकालत की थी पर खींचने पर वह बोली कि आरक्षण होना चाहिए, लेकिन यह देखा जाना जरूरी है कि वह कैसे दिया जा रहा है. आरक्षण के मसले पर हमें महिलाओं को विभिन्न तबकों में बांटना होगा क्योंकि सभी की हालत एक सी और ठीक नहीं है जिसे सुधारने के लिए महिला शिक्षा और जागरूकता पर ध्यान दिया जाना जरूरी है.

डाक्टर भीमराव अंबडेकर ने जातिगत आरक्षण दे कर उस तबके का भला ही किया था जो सदियों से शिक्षा से वंचित था. शहरों में तो स्थिति ठीकठाक है, लेकिन ग्रामीण इलाकों में काफी कुछ काम इस दिशा में होना बाकी है.

शादी के बारे में

जागृति का नजरिया शादी के बारे में बहुत स्पष्ट है. वह हंसते हुए कहती है कि बहुत से चीजों को देखते हुए किसी समकक्ष से ही शादी करेगी लेकिन उस में मम्मीपापा की रजामंदी होगी. उन्होंने उसे इस बारे में भी फैसला लेने की छूट दे रखी है. ऐसा जीवनसाथी पसंद करेगी जिस में आदमी को आदमी समझने का जज्बा हो और जो जमीनी सोच रखता हो.

युवा धैर्य और समझ से काम लें

अब बहुतों की रोल माडल बन चुकी जागृति मौखिक इंटरव्यू में एक मामूली से सवाल पर लड़खड़ा गई. यह सवाल था मध्य प्रदेश का पिनकोड 4 से शुरू होता है और किस राज्य का पिनकोड 4 से शुरू होता है. जबाव बहुत आसान था कि छत्तीसगढ़ का क्योंकि वह मध्य प्रदेश से अलग हो कर ही बना था. वह कहती है अकसर इंटरव्यू में ऐसा होता है कि उम्मीदवार मामूली से सवालों के जवाब मालूम होते हुए भी नहीं दे पाता.

जागृति की नजर में यह घबराहट हालांकि स्वाभाविक है, लेकिन युवाओं को न केवल किसी इंटरव्यू बल्कि जिंदगी की हर लड़ाई में धैर्य और अपनी समझ बनाए रखनी चाहिए. आज का युवा कई अनिश्चितताओं में जी रहे हैं पर आत्मविश्वास एक ऐसी पूंजी है जो उन्हें कभी दरिद्र नहीं होने देती.

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मतलब खोती शिक्षा

आजकल बहुत सा पैसा टैक्नोलौजी से चल रही पढ़ाई में लगाया जा रहा है और इस का अर्थ है कि सीमेंट और ईंटों से बने स्कूलकालेजों में 40-50 साल पहले तय की गई शिक्षा अब अपना मतलब खोती जा रही है. जैसे फैक्टरियों में मजदूरों को नई टैक्नोलौजी बुरी तरह निकाल रही है, उसी तरह टैक्नोलौजी न जानने वाले युवाओं का भविष्य और ज्यादा धूमिल होता जा रहा है.

जिस तरह का पैसा बैजू जैसी कंपनियों में लग रहा है उस से साफ है कि कंप्यूटर पर बैठ कर ऊंची शिक्षा पाने वाले ही अब देशदुनिया में छा जाएंगे पर यह शिक्षा बहुत महंगी है और साधारण घर इसे अफोर्ड भी नहीं कर पाएंगे.

अमेरिका में किए गए एक सर्वे में पाया गया कि 30 हजार डौलर (लगभग क्व18 लाख) कमाने वाले परिवारों में से 64% के पास स्मार्ट फोन, 1 से ज्यादा कंप्यूटर, वाईफाई, ब्रौडबैंड कनैक्शन, स्मार्ट टीवी हैं जबकि 30 हजार डौलर से कम कमाने वाले घरों में 16% के पास ही ये सुविधाएं हैं.

इस का अर्थ है कि गरीब मांबाप के बच्चे गरीबी में ही रहने को मजबूर रहेंगे क्योंकि न तो वे महंगे स्कूलकालेजों में जा पाएंगे और न ही महंगी चीजें खरीद पाएंगे.

आज हाल यह है कि पिछले सालों में कम तकनीक जानने वालों के वेतनों में 2-3% की वृद्धि हुई है जबकि ऊंची तकनीक जानने वालों का वेतन 20-25% बढ़़ा है.

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भारत में यह स्थिति और ज्यादा उग्र हो रही है क्योंकि यहां भेदभाव को जन्म व जाति से भी जोड़ा हुआ है. यहां जिस तरह पूरे रोज के विज्ञापन कोचिंग क्लास चलाने वाले अखबारों में लेते हैं, उस से साफ है कि नौनटैक्नोलौजी शिक्षा भी महंगी हो गई है और टैक्नोलौजी की शिक्षा तो न जाने कहां से कहां जाएगी.

टैक्नोलौजी से चलने वाली शिक्षा का एक बड़ा असर औरतों की शिक्षा पर पड़ रहा है. उन्हें ऊंची पोस्ट मिलने में कठिनाई होने लगी है क्योंकि सारी पढ़ाई का खर्च लड़कों पर किया जा रहा है जो अब और ज्यादा हो गया है.

हाल यह है कि भारत के विश्वविद्यालयों और कालेजों में ही, जहां पर अभी तक टैक्नोलौजी का राज नहीं है, केवल 7% प्रमुख पोस्ट औरतों के पास हैं और इन में से भी ज्यादा ऐसे संस्थानों में हैं जहां केवल लड़कियां पढ़ रही हैं.

टैक्नोलौजी न केवल गरीब और अमीर का भेद बढ़ा रही है, अमीरों में भी यह जैंडर यानी लड़केलड़की का भेद बढ़ा रही है. टैक्नोलौजी को समाज और दुनिया को बचाने वाला समझ जाता है पर यह बुरी तरह से कुछेक के हाथों में पूरी ताकत सौंप रही है.

अमीर घरों के लड़के खर्चीली पढ़ाई कर के ऊंची कमाई करेंगे और मनचाही लड़की से शादी करेंगे पर उस लड़की पर मनचाहे ढंग से राज भी करेंगे. घर, कपड़ों, छुट्टियों, गाड़ी के लालच में पत्नियों की दशा राजाओं की रानियों की तरह हो जाएगी जो गहनों से लदी होती थीं पर राजा की निगाहों में बस आनंद देने वाली गुडि़या होंगी.

इस समस्या का निदान आसान नहीं है और धर्म की मारी, अपने भाग्य पर निर्भर लड़कियां न तो भारत में और न ही बाकी दुनिया में कहीं कभी इस स्थिति में लड़़ पाएंगी. वे टैक्नो गुलाम रहेंगी और टैक्नो गुलामों से काम कराने में फख्र करेंगी.

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लोकतांत्रिक सरकारों को समझना होगा

उपचुनावों में राजस्थान, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश और पश्चिमी बंगाल में पिटाई होने के बाद भारतीय जनता पार्टी सरकार को समझ आया है कि घरों को लूटना महंगा पड़ सकता है और परिणामों के अगले दिन ही पैट्रोल व डीजल के दाम घटा दिए गए हैं. यह कटौती कोई संतोषजनक नहीं है पर साबित करती है कि सरकार को अब भरोसा हो गया है कि राममंदिर और ङ्क्षहदूमुस्लिम कर के वे ज्यादा दिन तक घरों को बहलफुसला नहीं सकते.

धर्म के नाम पर लूट तो सदियों से चली आ रही है पर पहले राजा पहले अपने पराक्रम से शासन शुरू करता था और फिर अपना मनचाहा धर्म जनता पर थोपता था. आज धम्र का नाम लेकर शासन हथियाना जा रहा है और समझा जा रहा है कि मूर्ख जनता को सिर्फ पाखंड, पूजापाठ, मंदिर और विधर्मी का भय दिखाना ही सरकार का काम है. सरकार बड़ेबड़े मंदिर और भवन बना ले जिन में चाहे काल्पनिक देवीदेवता बैठें या हाड़मांस के चुनकर आए नेता, जनता खुश रहेगी.

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आम घरों से निकला छीनने की पूरी तैयारी हो रही है. नोटबंदी के दिनों से जो देश की अर्थव्यवस्था का सत्यानाथ किया जाना शुरू किया है, वह आज भी चल रहा है और बेरहमी से जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी सरकार ने अकाल के दिनों में लगाम वसूला था, आज की सरकार कोविड की मार खाए व्यापार को पैट्रोल व डीजल के दाम हर दूसरे दिन बढ़ा कर कर रही है. चुनावों में मार खाए पर समझ आया कि यह भारी पड़ सकता है.

लोकतांत्रिक सरकारों को समझना होगा कि वे अपनी मनमानी ज्यादा दिन नहीं थोप सकते. जनता का गुस्सा आज जरूरी नहीं सडक़ों पर उतरे. जनता के पास वोट का हक भी है. भारतीय जनता पार्टी जनता को बहकाने में दक्ष है क्योंकि वह लाखों की भीड़ को कुंभ, धारधाम, मेलों, मंदिरों, तीर्थों में ले जाना जानती है जहां उन को जम कर धर्म के नाम पर लूटा जाता है पर यह नहीं भूलना चाहिए कि यही भीड़ वोट देने भी पहुंचती है जहां सरकार से जवाब वसूली की जाती है.

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उपचुनावों में टूटीफूटी कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश और राजस्थान में व अंदर तक मजबूत तृणमूल कांग्रेस ने पश्चिमी बंगाल में भारतीय जनता पार्टी को हिला दिया और पहले कदम में उन को पैट्रोल डीजल के दाम कुछ करने पड़े है.

अब यह जनता पर निर्भर है कि वह धर्म के झूठ की रोटी खाने में संतुष्ट रहना चाहती है या एक कुशल सरकार चाहती है.

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