सुप्रीम कोर्ट के भीतर कुछ हाईकोर्टों पर वार

सरकारी एजेंसियों को नियंत्रित व निर्देशित करतीं सरकारें देश की अदालतों को भी नियंत्रित करने की कोशिश करती रही हैं, फिर चाहे वह सैशन कोर्ट हो, हाईकोर्ट हो और यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ही क्यों न हो.

अनियोजित व अचानक लगाए गए राष्ट्रव्यापी लौकडाउन के कारण रोजीरोटी छिनने से सड़क पर गिरतेपड़ते, चलतेदौड़ते, बीमार होते, भूखप्यास से मरते माइग्रेंट लेबरों की दुखदाई हालत पर चौतरफा आलोचना और फिर सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से हुई किरकिरी की वजह से केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार तिलमिलाई हुई है. सरकार ने आलोचना करने वालों का मुंह बंद करने की कोशिश तो की ही है, न्यायपालिका से जुड़े लोगों को भी अपने निशाने पर लिया है और उन की बेहद तीखी आलोचना की है. इतना ही नहीं, उन पर निजी हमले तक किए हैं. साथ ही, कोर्टों पर भी आरोप मढ़ा है.

मालूम हो कि कि देश के 20 बहुत ही मशहूर और बड़े वकीलों ने चिट्टी लिख कर सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि माइग्रेंट लेबरों की मौजूदा अतिदयनीय स्थिति उन के मौलिक अधिकारों का हनन है. इस के साथ ही इन वकीलों ने सर्वोच्च न्यायालय को उस के उत्तरदायित्व का एहसास कराते हुए कहा था कि संकट की इस घड़ी में न्यायपालिका को इन मौलिक अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए क्योंकि यह उस का संवैधानिक कर्तव्य है.

मशहूर अधिवक्ताओं की चिट्ठी के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट ने प्रवासियों के मामले का स्वत: संज्ञान लिया. केंद्र व राज्य सरकारों को नोटिस दिए. 28 मई को सुप्रीम कोर्ट में इस पर सुनवाई हुई. सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार का रवैया बहुत आक्रामक रहा.

तीखा अटैक

जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस एस के कौल और एम आर शाह की पीठ से मुखातिब सरकार की पैरवी कर रहे सौलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट को चिट्ठी लिखने वाले वकीलों के नाम लिए बग़ैर कहा,
“जो लोग आप के पास आते हैं, उन से ख़ुद को साबित करने के लिए कहें. वे करोड़ों में कमाते हैं, पर उन्होंने कोरोना पीड़ितों के लिए क्या किया है, उन की क्या मदद की है या उन्हें क्या दिया है? क्या उन्होंने किसी को एक रुपया भी दिया है. लोग सड़कों पर हैं, क्या वे लोग अपने एयरकंडीशंड कमरों से निकले हैं?”

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उन्होंने न्यायिक हस्तक्षेप की माँग करने वालों को ‘आरामकुरसी पर बैठा हुआ बुद्धिजीवी’ क़रार दिया, और कहा कि उन की नज़र में जज निष्पक्ष तभी होते हैं जब वे कार्यपालिका (यानी सरकार) की आलोचना करते हैं. ये मुट्ठीभर लोग पूरी न्यायपालिका को नियंत्रित करना चाहते हैं.

गिद्ध से तुलना !

सौलिसिटर जनरल मेहता ने न्याय के पेशे से जुड़े उन महत्त्वपूर्ण लोगों पर इस से भी तीखा हमला किया और उन की तुलना सूडान भुखमरी के दौरान मरते हुए बच्चे और उस के पीछे चलने वाले गिद्ध की तसवीर खींचने वाले फ़ोटोग्राफ़र केविन कार्टर से कर दी. मेहता ने कहा कि हस्तक्षेप की मांग करने वाले सभी लोगों पर बच्चे और गिद्ध की कहानी लागू होती है.

सौलिसिटर जनरल ने कहा, “एक फ़ोटोग्राफर 1993 में सूडान गया था. वहां एक गिद्ध था और एक बीमार बच्चा था. गिद्ध उस बच्चे के मरने का इंतजार कर रहा था. फोटोग्राफर ने उस दृश्य को कैमरे में कैद किया, जिसे न्यूयौर्क टाइम्स ने छापा और उस फोटोग्राफर को पुलित्ज़र पुरस्कार मिला. पुरस्कार मिलने के 4 महीने बाद उस फोटोग्राफर ने आत्महत्या कर ली. किसी पत्रकार ने उस फोटोग्राफर से पूछा था कि वहां कितने  गिद्ध थे तो उस ने कहा, ‘एक.’ इस पर उस पत्रकार ने तुरंत कहा था, ‘नहीं, वहां 2 गिद्ध थे, दूसरे के हाथ में कैमरा था.”

इस तर्क से यह साफ़ है कि जिन्होंने प्रवासी मज़दूरों की बुरी स्थिति पर चिंता जताई और उन के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने के लिए सुप्रीम कोर्ट से हस्तक्षेप करने की अपील की, सौलिसिटर जनरल की नज़र में वे उस फोटोग्राफर की तरह हैं, जो गिद्ध की तरह था और जिस ने संकट का फ़ायदा उठा कर एक बड़ा पुरस्कार जीत लिया.

अदालत या राजनीतिक या निजी मंच?

बहस को आगे बढ़ाते हुए तुषार मेहता ने कहा, “विनाश की भविष्यवाणी करने वाले कुछ लोग हैं, जो ग़लत जानकारी फैलाते रहते हैं. उन के मन में राष्ट्र के लिए कोई सम्मान नहीं है.”

तुषार मेहता ने मशहूर वकील कपिल सिब्बल से तंज करते हुए पूछा, “आप ने कितने पैसे दिए?” इस पर सिब्बल ने कहा, “4 करोड़ रुपए.” बता दें कि चिट्ठी लिखने वालों में सिब्बल भी थे.

देश के जानेमाने वकील कपिल सिब्बल 2 संगठनों की तरफ से पैरवी कर रहे थे. उन्होंने कहा,”यह मानवीय त्रासदी है और इस का राजनीति से कोई लेनादेना नहीं है. इसे निजी मुद्दा भी मत बनाइए.”

ज्युडीशियरी पर सीधा वार

सौलिसिटर जनरल, जो सरकार का पक्ष रख रहे थे, ने न्यायपालिका पर सीधा वार भी किया. उन्होंने कहा, “कुछ हाईकोर्ट समानांतर सरकार चला रहे हैं.” गौरतलब है कि पिछले दिनों कोरोना संकट के मद्देनजर लौकडाउन लागू किए जाने के चलते प्रवासी मज़दूरों की हुई अतिदयनीय हालत पर सुप्रीम कोर्ट ने तो दख़ल नहीं दिया लेकिन ओडिशा, गुजरात, चेन्नई, कर्नाटक हाईकोर्टों ने राज्य सरकारों को जम कर फटकार लगाई और जवाबदेही तय करने को कहा. ख़ासतौर पर गुजरात हाईकोर्ट ने 2 बार राज्य सरकार की खिंचाई की.

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बहरहाल, प्रवासी मजदूरों (माइग्रेंट लेबरों) की हालत को ले कर सुप्रीम कोर्ट में 28 मई को हुई बहस से यह साफ़ हो जाता है कि मौजूदा केंद्र सरकार के मन में न्यायपालिका के प्रति सम्मान नहीं है, उस की निष्पक्षता पर उसे संदेह है और वह उन सब का मुंह बंद करना चाहती है, जो उस की आलोचना करते हैं, वह चाहे न्यायिक संस्था ही क्यों न हो.

#lockdown: प्रवासी मजदूरों पर कैमिकल कहर भी

कहर पर कहर. कहर दर कहर. कोरोना कहर, गरीबी कहर, मजदूरी कहर, मजबूरी कहर, बेरोजगारी कहर, पलायन कहर और अब तो घरवापसी भी एक कहर सा है. ये सारे कहर प्रवासी मजदूर परिवारों पर टूट पड़े हैं.

पेट के लिए रोटी, तन के लिए कपड़ा और रहने के लिए मकान बनवाने के सपने को पूरा करने के लिए अतिगरीब ग्रामीण अपनी झोंपड़ी से निकल बड़े शहरों को पलायन करते रहे हैं. रोटी, कपड़ा और मकान के उनके सपने किसी हद तक पूरे होते भी रहे हैं और वे सकुशल, सुरक्षित व प्रेमभाव के साथ घरवापसी करते रहे हैं.

समय की मार झेलनेसहने वाले इस तबके पर अब एक असहनीय कहर ढाया गया है जो जारी भी है. और वह कहर है – लौकडाउन. देशभर में प्रवासी मजदूर महानगरों से अपने घरों तक पहुंचना चाहते हैं क्योंकि लौकडाउन के कारण महानगरों में उनका जिंदा रहना मुश्किल हो गया है.

देशव्यापी लौकडाउन वैसे तो पूरे देशवासियों के लिए एक कहर सा है लेकिन गरीब तबके, विशेषकर प्रवासी मजदूरों, के लिए तो यह कहरपरकहर जैसा है. इस दौरान उन्हें हर तरफ से व हर तरह से घोर प्रताड़ना का शिकार बनाया जा रहा है.

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इस संबंध में सभी को काफीकुछ मालूम है. ताजा कहर का जिक्र करते हैं. राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली
के लाजपत नगर में कोरोना की मैडिकल स्क्रीनिंग के लिए अपनी बारी के इंतजार में खड़े प्रवासी मजदूरों पर दक्षिण दिल्ली नगर निगम के कर्मचारी ने इन्फ़ैक्शन से बचाने वाले कैमिकल यानी जीवाणुनाशक का छिड़काव कर दिया. इन प्रवासी मजदूरों को श्रमिक स्पैशल ट्रेनों से अपने गांवघर को वापस जाना था. ट्रेन पर चढ़ने से पहले यह स्क्रीनिंग कराना नियमानुसार आवश्यक है.

सोशल मीडिया के इस युग में इस घटना का वीडियो वायरल हो गया. श्रमिक स्पैशल ट्रेन पकड़ने के लिए मैडिकल स्क्रीनिंग टैस्ट करवाने के लिए प्रवासी मजदूर लाइन में खड़े थे कि तभी दक्षिणी दिल्ली नगर निगम के कर्मचारी टैंकर के साथ वहां पहुंचे और उन पर जीवाणुनाशक कैमिकल का छिड़काव कर दिया. टैंकर में 4 कर्मचारी थे.

निगम कर्मियों ने यह भी नहीं देखा कि वहां कई बूढ़े, महिलाएं व बच्चे भी हैं. यह घटना दिल्ली के पौश इलाके लाजपत नगर के हेमू कलानी सीनियर सैकंडरी स्कूल के बाहर घटी.

दिल्ली के एक इंग्लिश डेली की रिपोर्ट के मुताबिक, भाजपाशासित नगर निगम के 4 कर्मचारियों में से एक कर्मचारी स्कूल के आगे की सड़क को संक्रमणमुक्त करने के लिए छिड़काव कर रहा था, तभी उसने जीवाणुनाशक कैमिकल का पाइप मजदूरों की ओर मोड़ दिया.

इस दौरान दूसरा कर्मचारी उसे ऐसा करने को कह रहा था कि पाइप से सीधे उन्हीं प्रवासियों पर जीवाणुनाशक डालो. कैमिकल पड़ते ही कई मजदूर खांसने लगे और वहां से भागने लगे.

कुछ लोगों ने भागकर स्टील के पिलर के पीछे बच्चों और महिलाओं को बचाया, कुछ ने अपने को अपने बैग या किसी सामान से ढका.

प्रवासियों ने बताया कि वे लोग वहां पिछले 48 घंटों से इंतजार कर रहे हैं ताकि बिहार और यूपी जाने के लिए ट्रेन में एक सीट हासिल कर सकें. बाटला हाउस से पैदल चलकर पहुंचे तौफीक (30 साल) नाम के एक प्रवासी का कहना था, “हमें बिहार के समस्तीपुर जाना है. हमने पहले चिलचिलाती धूप सही, पुलिस का भेदभावपूर्ण रवैया झेला और अब कैमिकल.

“अब हम पर कोई फर्क नहीं पड़ता, हमें घर जाना है. लेकिन हमें यह मालूम भी नहीं कि हमारी ट्रेन निर्धारित समय पर है भी या नहीं. मैं यहां कल रात से ही इंतजार कर रहा हूं. आगे और इंतजार करने को तैयार हूं ताकि किसी तरह मुझे ट्रेन में सीट मिल सके.”

इस घटना का वीडियो सामने आने के बाद दक्षिणी दिल्ली नगर निगम ने अपने कर्मचारी के बचाव में सफाई दी है कि ऐसा ग़लती से हुआ क्योंकि कर्मचारी मशीन से पाइप पर लगने वाले प्रैशर को नहीं संभाल सका और इस वजह से पाइप ग़लत दिशा में मुड़ गया. नगर निगम के अधिकारियों ने इसके लिए प्रवासियों से माफ़ी भी मांगी है.

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मालूम हो कि इससे पहले मार्च में उत्तर प्रदेश के बरेली से ऐसा ही एक वीडियो सामने आया था जिसमें घर लौट रहे प्रवासी मजदूरों को एक जगह बैठाकर उन पर जीवाणुनाशक कैमिकल का छिड़काव किया गया था. इसका वीडियो सामने आने पर लोगों ने उत्तर प्रदेश सरकार को जमकर घेरा था.

#lockdown: प्रवासी मजदूर आखिर क्यों बन गये हैं सरकारी रणनीति की कमजोर कड़ी?

21 दिन के भीतर दूसरी बार सरकार से यह बड़ी चूक हुई. एक बार फिर न तो केंद्र सरकार और न ही राज्य सरकारें, ये अनुमान लगा पायीं कि प्रवासी मजदूर लाॅकडाउन-2 के बाद भी लाॅकडाउन-1 की तरह ही सरकार और व्यवस्था की परवाह किये बिना अपने घरों के लिए निकल पड़ेंगे. हालांकि इस बार प्रवासी मजूदरों को उम्मीद थी कि केंद्र और राज्य सरकारें उनकी परेशानियांे और 21 दिनों की बाडेबंदी के दौरान आयी मुश्किलों को समझेंगी तथा उन्हें उनके घर जाने का कोई बंदोबस्त करेंगी. भूल जाइये कि इस संबंध में किसी ने अफवाह उड़ायी थी. यह अफवाह का मसला नहीं था, वास्तव में देश के तमाम शहरो में अब भी 8 करोड़ से ज्यादा रह रहे दिहाड़ी मजदूरों की यह दिली ख्वाहिश थी कि सरकार उनकी मुश्किलों को समझेगी और उन्हें उनके घर तक पहुुंचाने का कोई सुरक्षित बंदोबस्त करेगी. लेकिन सरकार की तो दूर दूर यह प्राथमिकता में ही नहीं था, चाहे वह राज्यों की सरकारें हों या केंद्र की सरकार.

यही वजह है कि देश का मीडिया और मध्यवर्ग मजूदरों के इस तरह निकलकर सड़कों, स्टेशनों और बस अड्डों में पहुंच जाने से हैरान है. लेकिन यह हैरानी की बात नहीं होनी चाहिए; क्योंकि दिल्ली जैसे शहर में जहां माना जा रहा है कि राज्य सरकार मजदूरों के खानेपीने की भरपूर व्यवस्था कर रही है, वहां भी अव्वल तो सैकड़ों शिकायते हैं कि जरूरतमंद लोगों को खाना नहीं मिल रहा. गैर जरूरतमंद लोग ही खाने को झटक देते हैं. दूसरी शिकायत यह भी है कि एक बार खाना पाने के लिए लोगों को डेढ़-डेढ़ दो-दो घंटे लाइन में लगना पड़ रहा है. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जो लोग लाॅकडाउन की स्थिति में अपने घर नहीं जा पाये, वे लोग यहां रहते हुए किस तरह परेशानियों और उपेक्षा का शिकार हैं. शायद यही वह कारण है कि जैसे ही जरा सी उम्मीद बंधी कि सार्वजनिक परिवहन शुरु हो सकता है तो मजदूर सारी नाकेबंदी, बाड़ेबंदी तोड़कर बस अड्डों, रेलवे स्टेशनों और उन जगहों में पहुंच गये, जहां से उन्होंने उम्मीद की थी. कोई न कोई सवारी उन्हें अपने गांव तक जाने के लिए मिल जायेगी.

देश में सुरक्षा व्यवस्था के लिहाज से सबसे मजबूत माने जाने वाले शहरों, मुंबई, हैदराबाद, सूरत और कुछ हद तक बंग्लुरु में भी बड़ी संख्या में मजदूर घरों से सड़क पर निकल आये. वे मोदी जी के भाषण के पहले ही बस अड्डों और रेलवे स्टेशनों में आ गये थे क्योंकि उन्हें हालत में अपने घर जाने की चाह थीं. लेकिन न तो लाॅकडाउन खुला और न ही उनके घर जाने की व्यवस्था हुई. उल्टे उन्हें तमाम परेशानियों और भूखे पेट सोने के बावजूद पुलिस की मार खानी पड़ी, अपमान सहना पड़ा और एक अनिश्चित दहशत में कैद हो जाना पड़ा. आप कह सकते हैं कि मीडिया में या सरकार की तरफ से आ रही हिदायतों में तो  जरा भी कोई ऐसा संकेत नहीं था कि लाॅकडाउन में छूट मिलेगी. फिर मजदूरों ने यह कैसे अनुमान लगाया. इसका जवाब यह है कि मजदूर न तो हमारी इस व्यवस्था के दायरे में है और न ही वो किसी तरह की सरकारी, गैरसरकारी कम्युनिकेशन व्यवस्था का भी हिस्सा हैं. यह हैरान करने वाली बात लग सकती है लेकिन सच्चाई यही है कि देश के करोड़ों मजदूर देश में रहते हुए भी उस मध्यवर्ग से बिल्कुल एक अलहदा और कटा हुआ जीवन जी रहे हैं, जिस मध्यवर्ग को अपने देश होने का गुमान है. मजदूर न तो इनसे कोई संपर्क करता है और न ही इनके द्वारा संपर्क किये जाने की कोई उम्मीद करता है.

यह हाहाकारी सामाजिक स्थिति है. भले हम इसे न जानते हों या जानकर भी इससे मुंह मोड़ रखा हो. कोरोना एक ऐसी भयावह सामाजिक स्थिति है, जब हिंदुस्तान में कैसे अलग अलग वर्ग अपने में सिमटकर रहता है, इसका खुलासा हो रहा है. लाॅकडाउन-1 के बाद सरकार ने और प्रशासन ने यह स्वीकारा था कि उसे मजदूरों की मनःस्थिति की भनक नहीं लगी थी. लेकिन वाकई अगर सरकार ने या प्रशासन ने लाॅकडाउन-1 के समय खुद से हुई गलतियों को गलती माना होता और यह सोचा होता कि मजदूरों का कभी कोई भावनात्मक और सामाजिक पक्ष है तो निश्चित रूप से उन्हें लाॅकडाउन-2 के पहले मजदूरों का ख्याल रहा होता. लेकिन सच्चाई यही है कि सरकार हो या प्रशासन वह मीडिया के सामने आम लोगों और मजदूरों के लिए भले घड़ियाली आंसू बहाते दिखते हों, लेकिन प्रवासी मजदूरों की उनके लिए कोई महत्ता नहीं है.

क्योंकि लाॅकडाउन-1 के बाद भी यही स्थिति थी कि प्रवासी मजदूर, चाहे जहां भी हों, उनके पास न काम था और न बचत. इसलिए इनका पेट भरना बड़ी चुनौती बन गई थी. गृह मंत्रालय ने सभी केंद्र शासित प्रदेशों व राज्यों से प्रवासी मजदूरों का कल्याण सुनिश्चित करने के लिए कहा है. इसके लिए एक केन्द्रीय कंट्रोल रूम भी स्थापित किया गया है जो प्रवासी मजदूरों की समस्याओं को केंद्र, राज्यों व जिलों की संबंधित एजेंसीज तक पहुंचायेगा. चूंकि केवल सरकार व एनजीओ लम्बे समय तक प्रवासी मजदूरों को मुफ्त भोजन उपलब्ध नहीं करा सकते, इसलिए कॉर्पोरेट हाउसेस को इस काम में शामिल करने का प्रस्ताव है कि वह सीएसआर फंड इसमें इस्तेमाल करें. देश के 150 जिलों से अधिक में से मजदूर काम की तलाश में बाहर निकलते हैं. यह सिलसिला पिछले सौ वर्षों से चला आ रहा है. यह मुख्यतः उत्तर प्रदेश व बिहार के गरीब जिले हैं, लेकिन अब अधिक सम्पन्न क्षेत्रों से भी मजदूर बाहर निकलने लगे हैं. पहले इनकी दौड़ दिल्ली व आसपास के शहरी क्षेत्रों तक ही होती थी, फसल के सीजन में पंजाब व अन्य उत्तरी क्षेत्रों तक भी जाया जाता था, लेकिन अब यह भाषा की तंगी के बावजूद दक्षिण भारत के शहरों जैसे बंग्लुरु, चेन्नै व हैदराबाद भी जा रहे हैं.

केरल में भी 20 लाख से अधिक प्रवासी मजदूर काम कर रहे हैं, जो बिहार व उत्तर प्रदेश के हैं. केरल में प्रवासी मजदूरों की संख्या अधिक होने के दो मुख्य कारण हैं- एक, खाड़ी से आये पैसे की वजह से प्रवासी मजदूरों को अन्य राज्यों की तुलना में ज्यादा मेहनताना मिलता है. दूसरा यह कि केरल में साक्षरता दर शत प्रतिशत है और शिक्षित स्थानीय लोग मजदूरी जैसा ‘छोटा’ काम नहीं करना चाहते. उत्तर भारत के अशिक्षित प्रवासी इन कामों को करने के इच्छुक हैं. यही वजह है कि केरल में प्रवासी मजदूरों के लिए इस लॉकडाउन में सबसे ज्यादा कैंप हैं. वैसे कोविड-19 से सबसे ज्यादा ‘सर्कुलर माइग्रेशन’ प्रभावित हुआ है. ‘सर्कुलर माइग्रेशन’ भी लगभग सौ वर्षों से जारी है और इसका अर्थ यह है कि परिवार के वयस्क पुरुष काम की तलाश में बड़े शहरों में चले जाते, जहां वह हर प्रकार का काम करते हैं जैसे सिक्यूरिटी गार्ड, निर्माण मजदूर आदि.

चूंकि इन कामों की सीमित आय के कारण वह अपने परिवार के रहने का ठिकाना शहरों में नहीं कर सकते, इसलिए उनका परिवार पीछे गांव में ही रहता है, जिसे वह खर्चे के लिए पैसे भेजते रहते हैं. साल में कुछ सप्ताह या माह के लिए ये अपने परिवार के पास चले जाते हैं. काम और घर के बीच चक्कर लगाने का यह सिलसिला जीवनभर जारी रहता है, इसे ही ‘सर्कुलर माइग्रेशन’ कहते हैं. 2017 के आर्थिक सर्वे के अनुसार भारत में 10 करोड़ से अधिक ‘सर्कुलर प्रवासी’ हैं. अनुमान यह है कि कोरोना खतरा समाप्त होने पर ये ‘सर्कुलर प्रवासी’ वापस शहरों में आ जायेंगे. भारत में वैसे भी फसल कटाई के महीनों (अप्रैल व मई) में प्रवासी अपने गांव लौट जाते हैं. चूंकि अब हम अप्रैल के मध्य में हैं और यह प्रवासी शहर छोड़ चुके हैं, इसलिए उन्होंने इस वर्ष के लिए अपनी प्रवासी योजना बदल दी है. काफी अनिश्चितता है.

कोरोना से अर्थव्यवस्था पर गहरी चोट होने जा रही है और अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए प्रवासी मजदूरों की भूमिका महत्वपूर्ण है. इसलिए जरूरत है कि सरकार प्रवासी मजदूरों की समस्याओं को तुरंत संबोधित करे. ग्रामीण भारत से मजदूर दो मुख्य कारणों से बाहर निकलते हैं- अपनी आर्थिक स्थिति बेहतर करने के लिए और अपने मूल स्थान की बदहाली से बचने के लिए. किसी भी देश के विकास व प्रगति के लिए प्रवास जरूरी है, लेकिन डिस्ट्रेस माइग्रेशन (अपनी जगह की बदहाल स्थिति के कारण प्रवास) को कम करने की जरूरत है. बहरहाल, इस समय दो काम बहुत जरूरी हैं- एक, दैनिक मजदूरों के लिए जो 21,000 कैंप हैं, उन्हें बंद कर दिया जाये. फंसे हुए छह लाख से अधिक प्रवासी मजदूर जब अपने घर लौटेंगे तभी उनमें फिर से काम पर लौटने का हौसला आयेगा. दूसरा यह कि प्रवासी मजदूरों के लिए चल कल्याण योजनाएं हों ताकि वह जहां काम पर जाएं वहीं उनको राशनकार्ड से फूड आदि मिल जाये, जो इस समय उनको सिर्फ रिहायश के मूल स्थान पर ही मिलता है.

लॉकडाउन-2 के पहले ही दिन जिस तरह एक बार फिर मुंबई, सूरत, हैदराबाद और कई दूसरे शहरों में मजदूरों का हुजूम अपने गांवों को जाने के लिए उमड़ा, उससे साफ है कि तमाम कोशिशों के बाद भी अभी तक प्रवासी मजदूर सरकारों पर चाहे वो राज्य की सरकारें हों या केंद्र की सरकार, यकीन नहीं कर पा रहे. आज भी मजदूर अपनी जान की कीमत पर भी अपने गांवों को जाने के लिए तैयार हैं. ऐसा क्यों हैं? ऐसा इसलिए है क्योंकि मजदूरों के दिल-दिमाग में यह बात बहुत गहरे तक धंसी हुई है कि चाहे वे कुछ भी कर लें, लेकिन शहरी मध्यवर्ग उनके प्रति कोई अपनत्व या लगाव नहीं रखता. सरकारें भी अपनी तमाम नीतियां और रणनीतियां खाते पीते मध्यवर्ग को ध्यान में रखकर ही बनाती है. यह बहुत बड़ी फांस है, यह फांस मजदूरों के दिल से तभी निकल सकती है, जब हम वाकई ईमानदारी से उनके प्रति अपनत्व दर्शाएं ही नहीं बल्कि वाकई में रखें.

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