21 दिन के भीतर दूसरी बार सरकार से यह बड़ी चूक हुई. एक बार फिर न तो केंद्र सरकार और न ही राज्य सरकारें, ये अनुमान लगा पायीं कि प्रवासी मजदूर लाॅकडाउन-2 के बाद भी लाॅकडाउन-1 की तरह ही सरकार और व्यवस्था की परवाह किये बिना अपने घरों के लिए निकल पड़ेंगे. हालांकि इस बार प्रवासी मजूदरों को उम्मीद थी कि केंद्र और राज्य सरकारें उनकी परेशानियांे और 21 दिनों की बाडेबंदी के दौरान आयी मुश्किलों को समझेंगी तथा उन्हें उनके घर जाने का कोई बंदोबस्त करेंगी. भूल जाइये कि इस संबंध में किसी ने अफवाह उड़ायी थी. यह अफवाह का मसला नहीं था, वास्तव में देश के तमाम शहरो में अब भी 8 करोड़ से ज्यादा रह रहे दिहाड़ी मजदूरों की यह दिली ख्वाहिश थी कि सरकार उनकी मुश्किलों को समझेगी और उन्हें उनके घर तक पहुुंचाने का कोई सुरक्षित बंदोबस्त करेगी. लेकिन सरकार की तो दूर दूर यह प्राथमिकता में ही नहीं था, चाहे वह राज्यों की सरकारें हों या केंद्र की सरकार.

यही वजह है कि देश का मीडिया और मध्यवर्ग मजूदरों के इस तरह निकलकर सड़कों, स्टेशनों और बस अड्डों में पहुंच जाने से हैरान है. लेकिन यह हैरानी की बात नहीं होनी चाहिए; क्योंकि दिल्ली जैसे शहर में जहां माना जा रहा है कि राज्य सरकार मजदूरों के खानेपीने की भरपूर व्यवस्था कर रही है, वहां भी अव्वल तो सैकड़ों शिकायते हैं कि जरूरतमंद लोगों को खाना नहीं मिल रहा. गैर जरूरतमंद लोग ही खाने को झटक देते हैं. दूसरी शिकायत यह भी है कि एक बार खाना पाने के लिए लोगों को डेढ़-डेढ़ दो-दो घंटे लाइन में लगना पड़ रहा है. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जो लोग लाॅकडाउन की स्थिति में अपने घर नहीं जा पाये, वे लोग यहां रहते हुए किस तरह परेशानियों और उपेक्षा का शिकार हैं. शायद यही वह कारण है कि जैसे ही जरा सी उम्मीद बंधी कि सार्वजनिक परिवहन शुरु हो सकता है तो मजदूर सारी नाकेबंदी, बाड़ेबंदी तोड़कर बस अड्डों, रेलवे स्टेशनों और उन जगहों में पहुंच गये, जहां से उन्होंने उम्मीद की थी. कोई न कोई सवारी उन्हें अपने गांव तक जाने के लिए मिल जायेगी.

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