इन 5 तरीकों से संवारें बच्चों का भविष्य

एकल परिवारों के बढ़ते चलन और मातापिता के कामकाजी होने की वजह से बच्चों का बचपन जैसे चारदीवारी में कैद हो गया है. वे पार्क या खुली जगह खेलने के बजाय वीडियो गेम खेलते हैं. उन के दोस्त हमउम्र बच्चे नहीं, बल्कि टीवी, कंप्यूटर, मोबाइल हैं. इस से बच्चों के व्यवहार और उन की मानसिकता पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है. वे न तो सामाजिकता के गुर सीख पाते हैं और न ही उन के व्यक्तित्व का सामान्य रूप से विकास हो पाता है.

क्यों जरूरी है सोशल स्किल सही भावनात्मक विकास के लिए सरोज सुपर स्पैश्यलिटी हौस्पिटल के मनोवैज्ञानिक, डा. संदीप गोविल कहते हैं, ‘‘मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. वह समाज से अलग नहीं रह सकता. सफल और बेहतर जीवन के लिए जरूरी है कि बच्चों को दूसरे लोगों से तालमेल बैठाने में परेशानी न आए. जिन बच्चों में सोशल स्किल विकसित नहीं होती है उन्हें बड़ा हो कर स्वस्थ रिश्ते बनाने में समस्या आती है. सोशल स्किल बच्चों में साझेदारी की भावना विकसित करती है और आत्मकेंद्रित होने से बचाती है. उन के मन से अकेलेपन की भावना कम करती है.’’

आक्रामक व्यवहार पर लगाम कसने के लिए डा. संदीप गोविल कहते हैं, ‘‘आक्रामक व्यवहार एक ऐसी समस्या है, जो बच्चों में बड़ी आम होती जा रही है. पारिवारिक तनाव, टीवी या इंटरनैट पर हिंसक कार्यक्रम देखना, पढ़ाई में अच्छे प्रदर्शन का दबाव या परिवार से दूर होस्टल वगैरह में रहने वाले बच्चों में आक्रामक बरताव ज्यादा देखा जाता है. ऐसे बच्चे सब से कटेकटे रहते हैं. दूसरे बच्चों द्वारा हर्ट किए जाने पर चीखनेचिल्लाने लगते हैं. अपशब्द कहते हुए मारपीट पर उतर आते हैं. ज्यादा गुस्सा होने पर कई बार हिंसक भी हो जाते हैं.’’ बचपन से ही बच्चों को सामाजिकता का पाठ पढ़ाया जाए तो उन में इस तरह की प्रवृत्ति पैदा ही नहीं होगी.

बच्चों को सामाजिकता का पाठ एक दिन में नहीं पढ़ाया जा सकता. इस के लिए बचपन से ही उन की परवरिश पर ध्यान देना जरूरी है.

1. जब बच्चा छोटा हो:

एकल परिवारों में रहने वाले 5 साल तक की उम्र के बच्चे आमतौर पर मांबाप या दादादादी से ही चिपके रहते हैं. इस उम्र से ही उन्हें चिपकू बने रहने के बजाय सामाजिक रूप से ऐक्टिव रहना सिखाना चाहिए.

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2. अपने बच्चों से बातें करें:

पारस ब्लिस अस्पताल की साइकोलौजिस्ट, डा. रुबी आहुजा कहती हैं, ‘‘उस समय से जब आप का बच्चा काफी छोटा हो, उसे उस के नाम से संबोधित करें, उस से बातें करते रहें. उस के आसपास की हर चीज के बारे में उसे बताते रहें. वह किसी खिलौने से खेल रहा है, तो खिलौने का नाम पूछें. खिलौना किस रंग का है, इस में क्या खूबी है जैसी बातें पूछते रहें. नएनए ढंग से खेलना सिखाएं. इस से बच्चा एकांत में खेलने की आदत से बाहर निकल पाएगा.’’ बच्चे को दोस्तों, पड़ोसियों के साथ मिलवाएं: हर रविवार कोशिश करें कि बच्चा किसी नए रिश्तेदार या पड़ोसी से मिले. पार्टी वगैरह में छोटा बच्चा एकसाथ बहुत से नए लोगों को देख कर घबरा जाता है. पर जब आप अपने खास लोगों और उन के बच्चों से उसे समयसमय मिलवाते रहेंगे तो बच्चा जैसेजैसे बड़ा होगा, इन रिश्तों में अधिक से अधिक घुलमिल कर रहना सीख जाएगा.

3. दूसरे बच्चों के साथ घुलनेमिलने और खेलने दें:

अपने बच्चे की अपने आसपास या स्कूल के दूसरे बच्चों के साथ घुलनेमिलने में मदद करें ताकि वह सहयोग के साथसाथ साझेदारी की शक्ति को भी समझ सके. जब बच्चे खेलते हैं, तो एकदूसरे से बात करते हैं. आपस में घुलतेमिलते हैं. इस से सहयोग की भावना और आत्मीयता बढ़ती है. उन का दृष्टिकोण विकसित होता है और वे दूसरों की समस्याओं को समझते हैं, दूसरे बच्चों के साथ घुलमिल कर वे जीवन के गुर सीखते हैं, जो उन के साथ उम्र भर रहते हैं. जब बच्चे बड़े हो रहे हों

4. परवरिश में बदलाव लाते रहें:

डा. संदीप गोविल कहते हैं, ‘‘बच्चों की हर जरूरत के समय उन के लिए मानसिक और शारीरिक रूप से उपलब्ध रहें, लेकिन उन्हें थोड़ा स्पेस भी दें. हमेशा उन के साथ साए की तरह न रहें. बच्चे जैसेजैसे बड़े होते हैं वैसेवैसे उन के व्यवहार में बदलाव आता है. आप 3 साल के बच्चे और 13 साल के बच्चे के साथ एक समान व्यवहार नहीं कर सकते. जैसेजैसे बच्चों के व्यवहार में बदलाव आए उस के अनुरूप उन के साथ अपने संबंधों में बदलाव लाएं. गैजेट्स के साथ कम समय बिताने दें. गैजेट्स का अधिक उपयोग करने से बच्चों का अपने परिवेश से संपर्क कट जाता है. मस्तिष्क में तनाव का स्तर बढ़ने लगता है, जिस से व्यवहार थोड़ा आक्रामक हो जाता है. इस से सामाजिक, भावनात्मक और ध्यानकेंद्रन की समस्या हो जाती है. स्क्रीन को लगातार देखने से इंटरनल क्लौक गड़बड़ा जाती है. बच्चों को गैजेट्स का उपयोग कम करने दें, क्योंकि इन के साथ अधिक समय बिताने से उन्हें खुद से जुड़ने और दूसरों से संबंध बनाने में समस्या पैदा हो सकती है. एक दिन में 2 घंटे से अधिक टीवी न देखने दें.

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5. धार्मिक गतिविधियों से दूर रखें:

अपने बच्चों को शुरु से ही विज्ञान और तकनीक की बातें बताएं. उन्हें धार्मिक क्रियाकलाप, पूजापाठ, अवैज्ञानिक सोच से दूर रखें.

आपके बिहेवियर पर निर्भर बच्चे का भविष्य

एक विज्ञापन में सास के द्वारा अपना चश्मा न मिलने की बात पूछने पर बहू कहती है, ‘‘जगह पर तो रखती नहीं हैं और फिर दिन भर बकबक करती रहती हैं.’’

अगले ही पल मां जब अपने बेटे से पूछती है कि लंचबौक्स बैग में रख लिया तो बेटा जवाब देता है, ‘‘क्यों बकबक कर रही हो रख लिया न.’’

मां का पारा एकदम हाई हो जाता है और फिर बेटे को एक चांटा मारते हुए कहती है, ‘‘आजकल स्कूल से बहुत उलटासीधा बोलना सीख रहा है.’’

बच्चा अपना बैग उठा कर बाहर जातेजाते कहता है, ‘‘यह मैं ने स्कूल से नहीं, बल्कि आप से अभीअभी सीखा है.’’  मां अपने बेटे का चेहरा देखती रह जाती है. इस उदाहरण से स्पष्ट है कि बच्चे जो देखते हैं वही सीखते हैं, क्योंकि बच्चे भोले और नादान होते हैं और उन में अनुसरण की प्रवृत्ति पाई जाती है. आप के द्वारा पति के घर वालों के प्रति किया गया व्यवहार बच्चे अब नोटिस कर रहे हैं और कल वे यही व्यवहार अपनी ससुराल वालों के प्रति भी करेंगे. अपने परिवार वालों के प्रति आप के द्वारा किए जाने वाले व्यवहार को हो सकता है आज आप के पति इग्नोर कर रहे हों पर यह आवश्यक नहीं कि आप के बच्चे का जीवनसाथी भी ऐसा कर पाएगा. ऐसी स्थिति में कई बार वैवाहिक संबंध टूटने के कगार पर आ जाता है. इसलिए आवश्यक है कि आप अपने बच्चों के सामने आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करें ताकि उन के द्वारा किया गया व्यवहार घर में कभी कलह का कारण न बने.

न करें भेदभाव:

इस बार गरमी की छुट्टियों में रीना की ननद और बहन दोनों का ही उस के पास आने का प्रोग्राम था. रीना जब अपने दोनों बच्चों के साथ मौल घूमने गई तो सोचा सब को देने के लिए कपड़े भी खरीद लिए जाएं. बूआ के परिवार के लिए सस्ते और मौसी के परिवार के लिए महंगे कपड़े देख कर उस की 14 वर्षीय बेटी पूछ ही बैठी, ‘‘मां, बूआ के लिए ऐसे कपड़े क्यों लिए?’’

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‘‘अरे वे लोग तो गांव में रहते हैं. उन के लिए महंगे और ब्रैंडेड लेने से क्या लाभ? मौसी दिल्ली में रहती हैं और वे लोग हमेशा ब्रैंडेड कपड़े ही पहनते हैं, तो फिर उन के लिए उसी हिसाब के लेने पड़ेंगे न.’’

रीना की बेटी को मां का यह व्यवहार पसंद नहीं आया.  न तोड़ें पति का विश्वास: विवाहोपरांत पति अपनी पत्नी से अपने परिवार वालों के प्रति पूरी ईमानदारी बरतने की उम्मीद करता है. ऐसे में आप का भी दायित्व बनता है कि आप अपने पति के विश्वास पर खरी उतरें. केवल पति से प्यार करने के स्थान पर उस के पूरे परिवार से प्यार और अपनेपन का व्यवहार करें.  रीमा अपनी बीमार ननद को जब अपने पास ले कर आई तो बारबार उन की बीमारी के चलते उन्हें हौस्पिटलाइज करवाना पड़ता.

यह देख कर रीमा की मां ने एक दिन उसे समझाया, ‘‘देख बेटा वे शुरू से जिस माहौल में रही हैं उसी में रह पाएंगी. बेहतर है कि तुम इन्हें अपनी ससुराल में जेठानी के पास छोड़ दो और प्रति माह खर्चे के लिए निश्चित रकम भेजती रहो.’’

इस पर रीमा बोली, ‘‘मां, आज विपिन की जगह मेरी बहन होती तो भी क्या आप मुझे यही सलाह देतीं?’’ यह सुन कर उस की मां निरुत्तर हो गईं और फिर कभी इस प्रकार की बात नहीं की.

पतिपत्नी के रिश्ते की तो इमारत ही विश्वास की नींव पर टिकी होती है, इसलिए अपने प्रयासों से इसे निरंतर अधिक मजबूती प्रदान करने की कोशिश करते रहना चाहिए.

आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करें:

सोशल मीडिया पर एक संदेश पढ़ने को मिला, जिस में एक पिता अपने बेटे को एक तसवीर दिखाते हुए कहते हैं, ‘‘यह हमारा फैमिली फोटो है.’’

8 वर्षीय बालक भोलेपन से पूछता है, ‘‘इस में मेरे दादादादी तो हैं ही नहीं, क्या वे हमारे फैमिली मैंबर नहीं हैं?’’

पिता के न कहने पर बच्चा बड़े ही अचरज और मासूमियत से कहता है, ‘‘उफ, तो कुछ सालों बाद आप भी हमारी फैमिली के मैंबर नहीं होंगे.’’

यह सुन कर बच्चे के मातापिता दोनों चौंक उठते हैं. उन्हें अपनी गलती का एहसास होता है. इस से साफ जाहिर होता है कि बच्चे जो भी आज देख रहे हैं वे कल आप के साथ वही व्यवहार करने वाले हैं. इसलिए मायके और ससुराल में किसी भी प्रकार का भेदभाव का व्यवहार कर के अपने बच्चों को वह रास्ता न दिखाएं जो आप को ही आगे चल कर पसंद न आए.

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पारदर्शिता रखें:

दूसरों की बुराई करना, अपमान करना, ससुराल के प्रति अपनी जिम्मेदारी न निभाना, मायके के प्रति अधिक लगाव रखना जैसी बातें पतिपत्नी के रिश्ते को तो कमजोर बनाती ही हैं, अपरोक्षरूप से बच्चों पर भी नकारात्मक प्रभाव छोड़ती हैं, इसलिए आवश्यक है कि रिश्तों में सदैव पारदर्शिता रखी जाए. मेरी बहन और उस के पति ने विवाह के बाद एकदूसरे से वादा किया कि दोनों के मातापिता की जिम्मेदारी उन दोनों की है और उसे वे मिल कर उठाएंगे, चाहे हालात कैसी भी हों. वे पीछे नहीं हटेंगे.

आज उन के विवाह को 10 वर्ष होने वाले हैं. आज तक उन में मायके और ससुराल को ले कर कभी कोई मतभेद नहीं हुआ. जिम्मेदारी महसूस करें: अकसर देखा जाता है कि पति अपने परिवार की जिम्मेदारी को महसूस करते हुए परिवार की आर्थिक मदद करना चाहता है और पत्नी को यह तनिक भी रास नहीं आता. ऐसे में या तो घर महाभारत का मैदान बन जाता है या फिर पति पत्नी से छिपा कर मदद करता है. यदि ससुराल में कोई परेशानी है, तो आप पति का जिम्मेदारी उठाने में पूरा साथ दे कर सच्चे मानों में हम सफर बनें. इस से पति के साथसाथ आप को भी सुकून का एहसास होगा.

बुराई करने से बचें:

रजनी की सास जब भी उस के पास आती हैं, रजनी हर समय उन्हें कोसती है, ‘‘जब देखो तब आ जाती हैं, कितनी गंदगी कर देती हैं, ढंग से रहना तक नहीं आता.’’  उस की किशोर बेटी यह सब देखती और सुनती है, इसलिए उसे अपनी दादी का आना कतई पसंद नहीं आता.

ससुराल पक्ष के परिवार वालों के आने पर उन के क्रियाकलापों पर अनावश्यक टीकाटिप्पणी या बुराई न करें, क्योंकि आप की बातें सुन कर उन के प्रति बच्चे वही धारणा बना लेंगे. इस के अतिरिक्त मायके में ससुराल की और ससुराल में सदैव मायके की अच्छी बातों की ही चर्चा करें. नकारात्मक बातें करने से बचें ताकि दोनों पक्षों के संबंधों में कभी खटास उत्पन्न न हो.

जिस प्रकार एक पत्नी का दायित्व है कि वह अपनी ससुराल और मायके में किसी प्रकार का भेदभावपूर्ण व्यवहार न करे उसी प्रकार पति का भी दायित्व है कि वह अपनी पत्नी के घर वालों को भी पर्याप्त मानसम्मान दे और यदि पत्नी के मायके में कोई समस्या हो तो उसे भी हल करने में वही योगदान दे, जिस की अपेक्षा आप अपनी पत्नी से करते हैं, क्योंकि कई बार देखने में आता है कि यदि लड़की अपनी मायके के प्रति कोई जिम्मेदारी पूर्ण करना चाहती है, तो वह उस की ससुराल वालों को पसंद नहीं आता. इसलिए पतिपत्नी दोनों की ही जिम्मेदारी है कि वे अपनी ससुराल के प्रति किसी भी प्रकार का भेदभावपूर्ण व्यवहार न रखें. यह सही है कि जहां चार बरतन होते हैं आपस में टकराते ही हैं, परंतु उन्हें संभाल कर रखना भी आप का ही दायित्व है. बच्चों के सुखद भविष्य और अपने खुशहाल गृहस्थ जीवन के लिए आवश्यक है कि बच्चों के सामने कोई ऐसा उदाहरण प्रस्तुत न किया जाए जिस पर अमल कर के वे अपने भविष्य को ही दुखदाई बना लें.

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ऐसे सिखाएं बच्चों को तहजीब, ताकि वह बन सके एक बेहतर इंसान

चलती ट्रेन में ठीक मेरे सामने एक जोड़ा अपने 2 बच्चे के साथ बैठा था. बड़ी बेटी करीब 8-10 साल की और छोटा बेटा करीब 5-6 साल का. भावों व पहनावे से वे लोग बहुत पढ़ेलिखे व संभ्रांत दिख रहे थे. कुछ ही देर में बेटी और बेटे के बीच मोबाइल के लिए छीनाझपटी होने लगी. बहन ने भाई को एक थप्पड़ रसीद किया तो भाई ने बहन के बाल खींच लिए. यह देख मुझे भी अपना बचपन याद आ गया.

रिजर्वेशन वाला डब्बा था. उन के अलावा कंपार्टमैंट में सभी बड़े बैठे थे. अंत: मेरा पूरा ध्यान उन दोनों की लड़ाई पर ही केंद्रित था.

उन की मां कुछ इंग्लिश शब्दों का इस्तेमाल करती हुई उन्हें लड़ने से रोक रही थी, ‘‘नो बेटा, ऐसा नहीं करते. यू आर अ गुड बौय न.’’

‘‘नो मौम यू कांट से दैट. आई एम ए बैड बौय, यू नो,’’ बेटे ने बड़े स्टाइल से आंखें भटकाते हुए कहा.

‘‘बहुत शैतान है, कौन्वैंट में पढ़ता है न,’’ मां ने फिर उस की तारीफ की. बेटी मोबाइल में बिजी हो गई थी.

‘‘यार मौम मोबाइल दिला दो वरना मैं इस की ऐसी की तैसी कर दूंगा.’’

‘‘ऐसे नहीं कहते बेटा, गंदी बात,’’ मौम ने जबरन मुसकराते हुए कहा.

‘‘प्लीज मौम डौंट टीच मी लाइक ए टीचर.’’

अब तक चुप्पी साधे बैठे पापा ने उसे समझाना चाहा, ‘‘मम्मा से ऐसे बात करते हैं•’’

‘‘यार पापा आप तो बीच में बोल कर मेरा दिमाग खराब न करो,’’ कह बेटे ने खाई हुई चौकलेट का रैपर डब्बे में फेंक दिया.

‘‘यह तुम्हारी परवरिश का असर है,’’ बच्चे द्वारा की गई बदतमीजी के लिए पापा ने मां को जिम्मेदार ठहराया.

‘‘झूठ क्यों बोलते हो. तुम्हीं ने इसे इतनी छूट दे रखी है, लड़का है कह कर.’’

अब तक वह बच्चा जो कर रहा था और ऐसा क्यों कर रहा था, इस का जवाब वहां बैठे सभी लोगों को मिल चुका था.

दरअसल, हम छोटे बच्चों के सामने बिना सोचेसमझे किसी भी मुद्दे पर कुछ भी बोलते चले जाते हैं, बगैर यह सोचे कि वह खेलखेल में ही हमारी बातों को सीख रहा है. हम तो बड़े हैं. दूसरों के सामने आते ही अपने चेहरे पर फौरन दूसरा मुखौटा लगा देते हैं, पर वे बच्चे हैं, उन के अंदरबाहर एक ही बात होती है. वे उतनी आसानी से अपने अंदर परिवर्तन नहीं ला पाते. लिहाजा उन बातों को भी बोल जाते हैं, जो हमारी शर्मिंदगी का कारण बनती हैं.

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आज के इस व्यस्ततम दौर में अकसर बच्चों में बिहेवियर संबंधी यही समस्याएं देखने को मिलती हैं. जैसे मनमानी, क्रोध, जिद, शैतानी, अधिकतर पेरैंट्स की यह परेशानी है कि कैसे वे अपने बच्चों के बिहेवियर को नौर्मल करें ताकि सब के सामने उन्हें शर्मिंदा न होना पड़े. बच्चे का गलत बरताव देख कर हमारे मुंह से ज्यादातर यही निकलता है कि अभी उस का मूड सही नहीं है. परंतु साइकोलौजिस्ट और साइकोथेरैपिस्ट का कहना है कि यह मात्र उस का मूड नहीं, बल्कि अपने मनोवेग पर उस का नियंत्रण न रख पाना है.

इस बारे में बाल मनोविज्ञान के जानकार डा. स्वतंत्र जैन आरंभ से ही बच्चों को स्वविवेक की शिक्षा दिए जाने के पक्ष में हैं ताकि बच्चा अच्छेबुरे में फर्क करने योग्य बन सके. अपने विचारों को बच्चों पर थोपना भी एक तरह से बाल कू्ररता है और यह उन्हें उद्वेलित करती है.

क्या करें

  • बच्चों के सामने आपस में संवाद करते वक्त बेहद सावधानी बरतें. आप का लहजा, शब्द बच्चे सभी कुछ आसानी से कौपी कर लेते हैं.
  • बच्चों को किसी न किसी क्रिएटिव कार्य में उलझाए रखें. ताकि वे बोर भी न हों और उन में सीखने की जिज्ञासा भी बनी रहे.
  • अपने बीच की बहस या झगड़े को उन के सामने टाल दें. बच्चों के सामने किसी भी बहस से बचें.
  • बच्चों को खूब प्यार दें. मगर साथ ही जीवन के मूल्यों से भी उन का परिचय कराते चलें. खेलखेल में उन्हें अच्छी बातें छोटीछोटी कहानियों के माध्यम से सिखाई जा सकती हैं. इस काम में बच्चों के लिए कहानियां प्रकाशित होने वाली पत्रिका चंपक उन के लिए बेहद मनोरंजक व ज्ञानवर्धक साबित हो सकती है.
  • रिश्तों के माने और महत्त्व जानना बच्चों की अच्छी परवरिश के लिए उतना ही जरूरी है, जितना एक स्वस्थ पेड़ के लिए सही खादपानी का होना.
  • समयसमय पर अपने बच्चों के साथ क्वालिटी वक्त बिताएं. इस से आप को उन के मन में क्या चल रहा है, यह पता चल सकेगा और समय पर उन की गलतियों को भी सुधारा जा सकेगा.
  • बच्चों के हिंसक होने पर उन्हें मारनेपीटने के बजाय उन्हें उन की मनपसंद ऐक्टिविटी से दूर कर दें. जैसे आप उन्हें रोज की कहानियां सुनाना बंद कर सकते हैं. उन से उन का मनपसंद खिलौना ले कर कह सकते हैं कि अगर उन्होंने जिद की या गलत काम किए तो उन्हें खिलौना नहीं मिलेगा.

क्या करें

  • बच्चों को बच्चा समझने की भूल हरगिज न करें. माना कि आप की बातचीत के समय वे अपने खेल या पढ़ाई में व्यस्त हैं. पर इस दौरान भी वे आप की बातों पर गौर कर सकते हैं. समझने की जरूरत है कि बच्चों को दिमाग हम से अधिक शक्तिशाली व तेज होता है.
  • बच्चों पर अपनी बात कभी न थोपें, क्योंकि ऐसा करने पर उन्हें अच्छी बातें भी बोझ लगती हैं, लिहाजा बच्चे निराश हो सकते हैं. सकारात्मक पहल कर उन्हें किसी भी काम के फायदे व नुकसान से बड़े प्यार से अवगत कराएं.
  • बच्चों की कही किसी भी बात को वक्त निकाल कर ध्यान से सुनें. उसे इग्नोर न करें.
  • बच्चों की तुलना घर या बाहर के किसी दूसरे बच्चे से हरगिज न करें. ऐसा कर आप उन के मन में दूसरे के प्रति नफरत बो रहे हैं. याद रहे कि हर बच्चा अपनेआप में यूनीक और खास होता है.
  • आज के अत्याधुनिक युग में हर मांबाप अपने बच्चों को स्मार्ट और इंटैलिजैंट देखना चाहते हैं. अत: बच्चों के बेहतर विकास के लिए उन्हें स्मार्ट अवश्य बनाएं. पर समय से पूर्व मैच्योर न होने दें.

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  • बच्चों को अपने सपने पूरा करने का जरीया न समझें, बल्कि उन्हें अपनी उड़ान उड़ने दें. मसलन, जिंदगी में आप क्या करना चाहते थे, क्या नहीं कर पाए. उस पर अपनी हसरतें न लादें, बल्कि उन्हें अपने सपने पूरा करने का अवसर व हौसला दें ताकि बिना किसी पूर्वाग्रह के वे अपनी पसंद चुनें और सफल हों.
  • विशेषज्ञों की राय अनुसार बच्चों से बाबा, भूतप्रेत आदि का डर दिखा कर कोई काम करवाना बिलकुल सही नहीं है. ऐसा करने से बच्चे काल्पनिक परिस्थितियों से डरने लगते हैं. इस से उन का मानसिक विकास अवरुद्ध होता है और वे न चाहते हुए भी गलतियां करने लगते हैं.

जानें कहीं Bullying का शिकार तो नहीं आपका बच्चा

आर्यन दिल्ली के एक पब्लिक स्कूल में चौथी कक्षा में पढ़ता है. पढ़ाई में भी अच्छा है और व्यवहारकुशल भी है. हमेशा स्कूल खुशीखुशी जाता था. मगर अचानक स्कूल जाने से कतराने लगा. कभी सिरदर्द का बहाना बनाने लगा तो कभी बुखार होने का. 2 दिन से आर्यन फिर स्कूल नहीं जा रहा था. कारण था वह जब स्कूल में रेस प्रतियोगिता में फर्स्ट आने ही वाला था कि तभी उसी की क्लास के एक बच्चे ने टंगड़ी मार कर उसे गिरा दिया, जिस से उस के दोनों घुटने बुरी तरह छिल गए. आर्यन की मां रूपा कहती हैं कि पता नहीं स्कूल में बच्चे आर्यन को क्यों तंग करते हैं.

इसी तरह मोनिका कहती हैं कि उन्हें काफी समय तक पता ही नहीं चला कि उन की बेटी वंशिका स्कूल में टिफिन नहीं खा पाती है. उसी की क्लास का एक बच्चा उस का टिफिन चुपके से खा लेता. आर्यन और वंशिका की तरह और न जाने कितने बच्चे स्कूल में अपने साथी बच्चों द्वारा प्रताडि़त होते होंगे. कोलकाता में तो एक 9 वर्ष की बच्ची को उस की सीनियर्स ने बाथरूम में ही बंद कर दिया और वहीं उस की मृत्यु हो गई. ऐसी घटनाएं लगभग सभी स्कूलों में घटती हैं. कहींकहीं ये बोलचाल के जरीए या फिर हाथपैर चला कर शक्ति प्रदर्शन के रूप में भी देखने को मिलती हैं. रूपा और मोनिका की तरह हर बच्चे की मां की दिनचर्या बच्चे को समय से उठाने, तैयार करने, बैग, टिफिन, पानी की बोतल थमाने व स्कूल बस में चढ़ाने और फिर दोपहर को घर लाने तक ही सीमित होती है. पर क्या आप ने कभी इस बात पर ध्यान दिया कि खुशीखुशी स्कूल जाने वाला आप का बेटा या बेटी अचानक पेट दर्द, सिरदर्द आदि बहाना कर स्कूल जाने से कतराने लगी है. ऐसा है तो आप सतर्क हो जाएं. हो सकता है कि आप का बेटा या बेटी स्कूल में बुलिंग की शिकार हो रही हो यानी कोई बच्चा अपनी बात मनवाने या फिर वैसे ही मजा लेने के लिए बेवजह उसे तंग कर रहा हो. यानी वह बुली हो सकता है.

कौन होते बुलीज

कैलाश अस्पताल के वरिष्ठ सलाहकार मनोचिकित्सक डा. अजय डोगरा कहते हैं कि अकसर देखने में आता है कि बुली बच्चे डौमिनेटिंग होते हैं. ये शारीरिक रूप से शक्तिशाली भी होते हैं. ऐसे बच्चे अपने दोस्तों, स्कूल के साथियों और छोटे बच्चों के बीच अपनी धाक जमाने के लिए दादागीरी करते हैं. पासपड़ोस और स्कूल में ये लड़ाकू बच्चों के रूप में जाने जाते हैं. ऐसे बच्चे जो स्कूल में दादागीरी करते हैं वे अकेले भी हो सकते हैं और 3-4 के ग्रुप में भी, जिन्हें मिल कर अपने से कमजोर बच्चों को प्रताडि़त करने में खूब मजा आता है.

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बुलिंग के शिकार बच्चों में निम्न लक्षण पाए जाते हैं:

डा. अजय डोगरा कहते हैं कि बुलिंग के शिकार बच्चों को बारबार बुखार आता है. स्कूल जाने से कतराते हैं, पेट दर्द, सिरदर्द का बहाना बनाते हैं. स्कूल जाने के लिए अपना दैनिक कार्य बहुत धीरेधीरे करते हैं ताकि स्कूल बस छूट जाए.

अकसर बिस्तर गीला करने लगते हैं.

हमेशा घबराए घबराए से रहते हैं.

पढ़ाई में थोड़ा कमजोर हो जाते हैं अथवा पढ़ाई में मन नहीं लगता.

इन की दिनचर्या में अचानक परिवर्तन आ जाता है.

अचानक पौकेट मनी की मांग करने लगते हैं.

छोटीछोटी बातों पर रोने लगते हैं और कोशिश करते हैं कि उन की बात मान ली जाए.

उन में आत्मविश्वास की कमी आने लगती है. ज्यादा कुछ होने पर डिप्रैशन में भी चले जाते हैं.

 बातों के अलावा यह भी होता है:

पैंसिल बौक्स में टूटी चीजें मिलें या स्कूल बैग से कभी टिफिन बौक्स, कभी पानी की बोतल, कभी किताबकौपी, पैन आदि का गायब हो जाना.

अकसर शारीरिक चोट खा कर आना.

भारत में किए गए एक सर्वेक्षण से पता चला है कि बुलिंग बहुत ही गंभीर समस्या है. लगभग 500 बच्चों पर एक अध्ययन हुआ जिन की उम्र 8 से 12 वर्ष थी. इस से पता चला कि 31.4% बच्चे या तो बोलचाल से या फिर शारीरिक रूप से चोट पहुंचाने की नीयत से शिकार हुए हैं.

बुलिंग के प्रकार

मानसिक बुलिंग: इस तरह की बुलिंग में दादागीरी दिखाने वाले बच्चे अन्य बच्चों को अपने ग्रुप में शामिल नहीं करते. खाना अपने साथ नहीं खाने देते. खेल में भी अपने साथ शामिल नहीं करते. यहां तक कि कोई अफवाह फैला कर उन्हें मानसिक रूप से तंग करते हैं.

वर्बल (मौखिक) बुलिंग: तरहतरह के नामों से पुकारना या उन के पहनावे, शक्लसूरत आदि की हंसी उड़ाना. किसी जाति विशेष के तौरतरीकों के बारे में व्यंग्य करना, मजाक उड़ाना आदि.

फिजिकल बुलिंग: इस में डांटना, मारना, काटना, चुटकी काटना, बाल खींचना, चोट पहुंचाना और धमकी देना शामिल है.

सैक्सुअल बुलिंग: अनचाहे शारीरिक संबंध बनाने की कोशिश करना, यौन रूप से प्रताडि़त करना अथवा इस तरह का कोई कमैंट पास करना आदि.

साइबर बुलिंग: डा. अजय डोगरा कहते हैं कि आजकल इस तरह की बुलिंग टीनऐजर्स में काफी होने लगी है. इंटरनैट पर बुलिंग की परिभाषा है कि एक ऐसा कार्य जिस में किसी एक टीन या टीनऐजर समूह द्वारा किसी अन्य टीनऐजर को इंटरनैट पर, सोशल साइट्स पर या मोबाइल पर संदेशों अथवा चित्रों द्वारा परेशान और उस की व्यक्तिगत सूचना को सार्वजनिक किया जाता है. इस से पीडि़त टीनऐजर अपनेआप को असहज महसूस करने लगता है, कमजोर समझता है. साइबर बुलिंग में चीन और सिंगापुर के बाद भारत तीसरे नंबर पर है.

अकसर यह माना जाता है कि बुलिंग ज्यादातर लड़के ही करते हैं, परंतु ऐसा नहीं है. देखा गया है कि लड़के और लड़कियां दोनों ही बुली होते हैं. यह अलग बात है कि लड़का और लड़की होने के नाते दोनों के तरीके अलगअलग हों. लड़कियां ज्यादा मनोवैज्ञानिक तरीके से तंग करती हैं जैसे सीट पर साथ न बैठने देना, साथ खाना खाने से मना करना, साथ खेलने न देना या किसी पार्टी में निमंत्रण न देना, जबकि लड़के अधिकतर शारीरिक रूप से तंग करते हैं जैसे धक्का देना, गालीगलौज करना आदि.

मातापिता ऐसे करें सहायता

मनोचिकित्सक डा. अजय डोगरा के अनुसार जब आप का बच्चा बुलिंग का शिकार हो तो आप के लिए भी काउंसलिंग की जरूरत है ताकि आप बच्चे पर नाराज न हों. हालांकि मातापिता भी परेशान हो जाते हैं, पर बच्चे के सामने जाहिर न होने दें. आप का दुख बच्चे को हताश कर सकता है. अत: निम्न बातों को अपनाएं ताकि बच्चा बुलिंग का शिकार होने से बच सके:

अपने बच्चे के साथ दोस्ताना व्यवहार करें ताकि आप के और उस के बीच दोस्तों जैसा रिश्ता बन सके. तब वह स्कूल की कोई भी बात कहने से हिचकेगा नहीं. इस तरह उस की प्रत्येक गतिविधि की आप को पूरी जानकारी मिल सकेगी.

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उसे बताएं कि वह बुली से न लड़े. जरूरत हो तो अपने टीचर की सहायता ले.

उसे समझाएं कि वह बहादुरी दिखाए और ऐसे बच्चों की बातों को अनुसनी कर अपने दोस्तों के साथ रहे.

यदि इन तरीके से भी समस्या का समाधान न हो तो बच्चे के साथ स्कूल जा कर प्रिंसिपल या टीचर से चर्चा करें. यदि जरूरी हो तो बुली के मातापिता को स्कूल बुला कर समस्या को हल करें.

एक बच्चे की अभिलाषा

“अनिक 10 साल का लड़का था . वह अपने माता-पिता की इकलौती संतान  था . अनिक के पापा काफी व्यस्त बिजनेसमैन थे, जो अपने बेटे के साथ समय नहीं बिता पाते थे. वे अनिक के सोने के बाद घर आते और सुबह अनिक के जागने से पहले ऑफिस चले जाते . अनिक अपने पापा का ध्यान पाने के लिए तरस जाता . वह पार्क जाकर अपने दोस्तों की तरह ही अपने पापा के साथ खेलना था.

एकदिन अनिक अपने पापा को शाम को घर पर देखकर बहुत हैरान था.

“पापा, आपको घर पर देखकर बहुत अच्छा लगा ,” अनिक ने कहा.

“हाँ बेटा, मेरी मीटिंग कैंसिल हो गयी है. इसलिए मैं घर पर हूं लेकिन दो घंटे बाद मुझे एक फ्लाइट पकड़नी है , ”उसके पापा  ने जवाब दिया.

“आप वापिस कब आओगे?”

“कल दोपहर”

अनिक कुछ समय के लिए गहरी सोच में था.  फिर उसने पूछा, “पापा, एक साल में आप कितना कमाते हैं?”

उन्होंने कहा, “मेरे प्यारे बेटे, यह एक बहुत  बड़ी राशि है और आप इसे समझ नहीं पाएंगे.”

“ठीक है पापा , क्या आप जो कमाते हैं उससे खुश हैं?”

“हाँ मेरे बेटे मैं बहुत खुश हूं, और वास्तव में मैं कुछ महीनों में अपनी नई ब्रांच और एक नया बिज़नेस शुरू करने की योजना बना रहा हूं.

यह बहुत अच्छा है पापा मैं यह सुनकर खुश हूँ.

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क्या मैं आपसे एक सवाल पूछ सकता हूं? ”

“हाँ बेटा”

“पापा, क्या आप मुझे बता सकते हैं कि आप 1 घंटे में कितना कमाते हैं?”

“अनिक, आप यह सवाल क्यों पूछ रहे हो?” अनिक के पापा  हैरान थे.

लेकिन अनिक लगातार पूछ रहा था , “PLEASE मुझे जवाब दो. क्या आप मुझे बता सकते हैं कि आप एक घंटे में कितना कमाते हैं? ”

अनिक के पापा ने जवाब दिया, ” यह लगभग 4000 रुपये/- प्रति घंटे होगा. ”

अनिक अपने कमरे में ऊपर चला गया और अपने गुल्लक के साथ नीचे आया जिसमें उसकी बचत थी.

“पापा , मेरे गुल्लक में 500 रुपए हैं.क्या आप इतने पैसो में ही मेरे लिए दो घंटे का समय दे सकते हैं? मैं आपके साथ बहार घूमने जाना चाहता हूं और शाम को आपके साथ खाना खाना चाहता हूँ.क्या आप मेरे लिए थोड़ा टाइम निकाल सकते है.

अनिक के पापा अवाक थे!”

दोस्तों ये सिर्फ एक घर की ही कहानी नहीं है. आजकल ये लगभग सभी घरों की कहानी बन चुकी है .एक तो हम दिनभर अपने कामों में व्यस्त रहते है और अगर हमारे पास टाइम रहता भी है तो हम अपने  स्मार्टफोन में लगे रहते  है . हम अपने बच्चे से कायदे से बैठ कर बात भी नहीं कर पाते और न ही ये जानने की कोशिश करते है की उनके मन में क्या चल रहा है या वो हमारे बारे में क्या सोचते है .

शायद कल को ऐसा दिन आएगा की हर बच्चा ये सोचेगा कि “काश मै एक SMARTPHONE होता “ .

“वो सोचेगा कि अगर मैं smartphone बन जाऊ तो घर में मेरी एक ख़ास जगह होगी और सारा परिवार मेरे आस पास रहेगा. जब मैं बोलूँगा तो सारे लोग मुझे ध्यान से सुनेंगे.पापा ऑफिस से आने के बाद थके होने के बावजूद भी मेरे साथ बैठेंगे. मम्मी को जब तनाव होगा तो वो मुझे डाटेंगी नहीं बल्कि मेरे साथ रहना चाहेंगी. मेरे बड़े भाई-बहन  मुझे अपने पास रखने के लिए झगडा करेंगे, और हाँ phone के रूप में मैं सबको ख़ुशी भी दे पाऊँगा.”

कहीं ये किस्सा आपके बच्चे की भी तो नहीं ?

दोस्तों आज की भाग-दौड़ भरी ज़िन्दगी में हमें वैसे ही एक दूसरे के लिए बहुत कम टाइम मिल पाता है और अगर हम ये भी सिर्फ tv देखने, mobile पर खेलने और facebook में गंवा देंगे तो हम कभी अपने रिश्तों की अहमियत और उससे मिलने वाले प्यार को नहीं समझ पाएंगे

पैसा सब कुछ नहीं खरीद सकता है. एक स्वस्थ्य भविष्य की शुरूआत एक स्वस्थ्य मन से होती है .एक अभिभावक अपने बच्चे को जो सबसे बड़ा उपहार दे सकता है वह है ‘समय’.

मेरी आपसे गुज़ारिश है कि जिस जिसने भी इस लेख को पढ़ा है वो केवल इसे पढ़े  नहीं बल्कि  इस पर अमल भी करें.

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जानें कैसे पेरैंट्स हैं आप

सभी अभिभावक चाहते हैं कि उन के बच्चे को कोई तकलीफ न हो, कोई संघर्ष न करना पड़े. किंतु अपनी जिंदगी तो सभी को खुद ही जीनी होती है. क्या यह संभव है कि हमारे हिस्से के कष्ट हमारे मातापिता झेलें या फिर अपने बच्चों की मुसीबतों का सामना हम करें? पढि़ए, सुनिए और पहचानने की कोशिश कीजिए कि आप पेरैंटिंग की किस श्रेणी में आते हैं:

स्नो प्लाओ पेरैंट

अपने बच्चे के रास्ते से सारी बाधाएं दूर करते हैं ताकि बच्चे को किसी परेशानी का सामना न करना पड़े और वह निरंतर प्रगति करता जाए. ऐसे पेरैंट्स अपने बच्चों की जिंदगी से आसक्त होते हैं.

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इंटैंसिव पेरैंट

अपनी जिंदगी को भूल कर ये अपने बच्चे की जिंदगी में पूर्णरूप से शामिल होना चाहते हैं ताकि बच्चे का समय बिलकुल व्यर्थ न हो और वह अपने जीवन को समृद्ध बना सके, चाहे इस कोशिश में उन का समय और पैसा दोनों व्यर्थ होते रहें.

हैलिकौप्टर पेरैंट

बच्चे की हारजीत की पूरी जिम्मेदारी खुद पर ले लेते हैं, उस के हर काम में उस के साथ रहते हैं, यहां तक कि उस के स्कूल का काम करना, उस की टीचर से बात करना इत्यादि भी खुद ही करते हैं. ऐसे मातापिता अतिसंरक्षण देने के साथ पूर्णतावादी सोच के होते हैं.

फ्री रेंज पेरैंट

बच्चे को जीवन में पूरी छूट देते हैं, जो निर्णय लेना है, जिस के साथ खेलना है, कहां आनाजाना है आदि. उन की तरफ से कोई रोकटोक नहीं रहती. आजादी के साथ पूरी स्वतंत्रता भी. जैसे जीना है, जियो.

टाइगर पेरैंट

ये सख्ती भी बरतते हैं और डिमांडिंग भी होते हैं. बच्चे को हर हाल में जीत दिलवाने का जज्बा लिए. ऐसे पेरैंट्स ‘टफ लव’ में विश्वास रखते हैं. पढ़ाई भी करो, संगीत भी सीखो, मार्शल आर्ट्स की भी प्रैक्टिस करो, चित्रकला में भी निपुण बनो. ये बच्चे को फ्री टाइम देने में बिलकुल विश्वास नहीं रखते.

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आउटसोर्सिंग पेरैंट

ऐसे मातापिता पैसा खर्च कर के बच्चे के सभी काम निबटवाना चाहते हैं, फिर चाहे वह स्कूल का कोई प्रोजैक्ट हो या फिर किसी प्रकार की ट्रेनिंग. ये सब पैसे खर्च कर अपने बच्चे की इच्छा पूरी करने में अपनी कर्तव्यपूर्ति समझते हैं.

जानें क्या है ‘स्नो प्लाओ पेरैंटिंग’ और क्या है इसके नुकसान

स्नो प्लाओ पेरैंट्स ऐसा ही सोचते हैं. स्नो प्लाओ का अर्थ है रास्ते में बिछी बर्फ को साफ करना ताकि उस पर आसानी से चला जा सके. स्नो प्लाओ पेरैंट्स ऐसे मातापिता होते हैं जो अपनी संतान के रास्ते में जो भी परेशानियां आती हैं, उन्हें स्वयं दूर करने में विश्वास रखते हैं ताकि उन के बच्चे बड़े होते समय किसी भी प्रकार की हार या निराशा से बचें.

ऐसे मातापिता इस हद तक जा सकते हैं कि बच्चे की अपने दोस्तों से लड़ाई हो जाने की स्थिति में टीचर से उस का गु्रप बदलने की बात कहें या फिर उस का होमवर्क खुद कर दें या उसे स्पोर्ट्स टीम में दाखिला दिलाने हेतु टीचर को घूस खिलाने का प्रयास करें. मगर ऐसे में वे यह भूल जाते हैं कि न्यूनतम संघर्ष का सामना करने वाले बच्चे अकसर कम खुश रहते हैं.

निर्देशक नागेश कुकुनूर ने एक इंटरव्यू में कहा था कि हम ओवर पेरैंटेड और ओवर प्रोटैक्टेड बच्चे बना रहे हैं. सच, आज के पेरैंट्स बच्चों को न मिट्टी में खेलने देना चाहते हैं और न ही जिंदगी में निर्णय लेने देना. लंच में खाना खत्म नहीं किया तो इस विषय में टीचर से लंबी बात, होमवर्क पूरा नहीं हुआ तो एक ऐप्लिकेशन लिख देंगे, कालेज में ऐडमिशन नहीं मिल पा रहा तो मनपसंद कालेज में भारी डोनेशन दे देंगे…

पेरैंट्स यह भूल जाते हैं कि यदि बच्चों की जिंदगी में कोई उतारचढ़ाव नहीं आएगा तो वे आगे चल कर जिंदगी की परेशानियां कैसे हल कर सकेंगे? कई बार यह बात इतनी बढ़ जाती है कि कई पेरैंट्स अपने बच्चों की जौब में आ रही दिक्कतों को भी खुद ही सौल्व करना चाहते हैं.

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कैसे पड़ा स्नो प्लाओ पेरैंटिंग का नाम

जहां हैलिकौप्टर पेरैंटिंग पिछली सदी का टर्म है, वहीं स्नो प्लाओ पेरैंटिंग का इजाद 2014 में डैविड मैक्लो द्वारा किया गया. डैविड हाई स्कूल टीचर हैं और एक भाषण में उन्होंने इस टर्म का प्रयोग पहली बार किया. इस पर उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी है, जिस का शीर्षक है- ‘यू आर नौट स्पैशल.’ इस किताब में उन्होंने बच्चों को जीवन में हार का सामना करने देने की महत्ता के बारे में लिखा है. उन के अनुसार स्नो प्लाओ पेरैंटिंग वाले बच्चे दुखी, आश्रित और परेशान रहते हैं.

‘पेरैंटिंग टु ए डिग्री’ की लेखिका और कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्री लौरा हैमिल्टन कहती हैं कि स्नो प्लाओ पेरैंट्स अपने बच्चों पर हर समय नजर रखते हैं. वे क्या कर रहे हैं, कैसे कर रहे हैं, कहीं उन पर कोई आंच तो नहीं आ रही. यह बात तो साफ है कि स्नो प्लाओ पेरैंट्स की नीयत केवल इतनी होती है कि उन के बच्चे हर विषम स्थिति से बच सकें. किंतु वे अपने बच्चों को कब तक बचा सकते हैं. जब बड़े हो कर बच्चे उन की छाया से बाहर निकलेंगे और समाज का सामना करेंगे तब बिना मातापिता की सहायता के निराशाओं को कैसे झेल पाएंगे, मुसीबतों का सामना कैसे करेंगे और परेशानियों का हल कैसे खोजेंगे?

मनोवैज्ञानिक मैडिलन लेवाइन ने एक पुस्तक लिखी ‘टीच योर चिल्ड्रन वैल’, जिस में उन के विचार से परेशानियों का हल खोजना, खतरे उठाना और आत्म नियमन बेहद उपयोगी जीवन कौशल है. मातापिता को बच्चों के मामले में अतिसंरक्षित और खुली छूट के बीच का मार्ग ढूंढ़ना होगा ताकि बच्चे गलती करें, उस से शिक्षा लें और अपनी प्रौब्लम खुद सौल्व कर सकें.

स्नो प्लाओ पेरैंटिंग के नुकसान

हार का सामना करना बच्चों के लिए जीवन की अति आवश्यक सीख है. यह बच्चों को निराशा से निबटने के तरीके सिखाती है. जीवन में उन का सामना अलगअलग स्थितियों और लोगों से होगा. कालेज में कोई उन पर तंज कसेगा, अपने को दोस्त कहने वाला प्रतियोगिता में पछाड़ने की कोशिश करेगा, कड़ी मेहनत करने के बाद भी परीक्षा में मनमुताबिक अंक नहीं आएंगे, तो कोई औफिस में बौस से उन की चुगली करेगा. तब वे इन विषम हालात को कैसे हैंडल कर पाएंगे?

स्नो प्लाओ पेरैंटिंग के अंतर्गत पले बच्चे अपनी समस्याएं सुलझाने की कला में माहिर नहीं हो पाते हैं, क्योंकि अतिसंरक्षण देते समय मातापिता इस ओर ध्यान देना भूल जाते हैं कि जिंदगी में कठिन समय में स्वयं को संभालना बच्चों को तभी आएगा जब वे बचपन से छोटीछोटी परेशानियों को झेलना सीखेंगे.

दिशा का 15 साल का बेटा अकसर अपनी टीचर की शिकायत करता कि वे उस से और अच्छे काम की उम्मीद करती हैं और उस से और मेहनत करवाती हैं. लेकिन डायरी में कोई नोट न होने की वजह से दिशा ने टीचर से बात करना उचित नहीं समझा. आखिर मेहनत कर के उस का बेटा और बेहतर ही होगा. दिशा की नजर में यही सही पेरैंटिंग है. बातबात में अपने किशोर बेटे को सहारा देने से वह खुद कैसे आगे बढ़ सकेगा? जो कुछ कहनासमझना है, उसे खुद ही सीखना होगा.

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मनोवैज्ञानिक पीटर ग्रे इसी बात पर जोर देते हुए कहते हैं कि आज की पीढ़ी पहले की तुलना में कम लचीली है. गिर कर उठना, अपनी स्थितियों में सुधार लाना उसे कम आता है. यही कारण है कि किशोरों में, युवाओं में तनाव अवसाद और आत्महत्या के मामले बढ़ रहे हैं. मगर क्या इस में उन की गलती है? क्लास में दोस्त ने लड़ाई कर ली, पार्क में किसी ने गाली दी या मुक्का मार दिया या फिर होमवर्क  की कौपी ले जाना भूल गए. यदि आज ऐसी स्थितियों से आप उन्हें बचाते रहेंगे तो कल बड़ी परेशानियों को सामने देख वे क्या कर सकेंगे?

लंदन के प्रसिद्ध अखबार ‘द इंडिपैंडैंट’ में प्रकाशित खबर के मुताबिक ऐसा नहीं कि अभिभावक स्नो प्लाओ पेरैंटिंग के नुकसान नहीं समझते, फिर भी वे अपने बच्चों को जीतते हुए देखने की चाह में मजबूर हो अपनी ममता के आगे हार जाते हैं.

स्वरा मनोविज्ञान पढ़ना चाहती है पर उस के पेरैंट्स को विश्वास है कि आने वाला जमाना डिजिटल होगा, इसलिए वे उस पर आईटी पढ़ने का जोर डाल रहे हैं. फैशन डिजाइनिंग, लेखन, कार्टून बनाना या फिर फोटोग्राफी जैसे प्रोफैशन युवाओं को आकर्षित करते हैं, किंतु उन के पेरैंट्स को यही बात खलती है कि ऐसे कैरियर की चौइस के लिए लोग क्या कहेंगे. वे उन्हीं घिसेपिटे रास्तों पर अपने बच्चों को चलाना चाहते हैं. इस के विपरीत पश्चिमी देशों में बच्चे किशोरावस्था में प्रवेश करते ही अखबार बांटना, रेस्तरां या कैफे में काम करना, किसी स्टोर में नौकरी करने लगते हैं. किंतु हमारे यहां इसे तुच्छ समझा जाता है. पेरैंट्स का यही कहना होता है कि हमारे होते हुए तुम्हें ऐसे काम करने की कोई जरूरत नहीं है.

स्नो प्लाओ पेरैंटिंग से निबटने के तरीके

स्नो प्लाओ पेरैंटिंग से बचने के लिए आप को सोचसमझ कर आगे बढ़ना होगा. कुछ बातों पर गौर करना होगा:

बच्चे की स्थिति समझें, उस में कूदें नहीं

बच्चा अपनी परेशानी अपने मातापिता से ही शेयर करता है. उसे सुनें, उस की बात से सहमति दिखाएं, उस का विश्वास जीतें, किंतु हल उसे खुद खोजने का अवसर दें. इस से बच्चे में स्वयं हल निकालने की क्षमता का विकास होगा.

राह दिखाएं, उंगली न थामें

यदि आप का बच्चा हल ढूंढ़ने में खुद को असमर्थ पा रहा है तो ऐसी स्थिति में उसे अलगअलग आइडियाज दें, भिन्न स्थितियों से अवगत कराएं, नईनई राह सुझाएं. इस से बच्चा विभिन्न स्थितियों को सोचते हुए किसी निष्कर्ष पर पहुंच सकेगा, जिस में आत्मविश्वास जागेगा.

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स्वयं आश्वस्त रहें तभी बच्चा निश्चयी रहेगा

किसी भी उम्र का बच्चा हो, हर स्थिति में वह अपने मातापिता की ओर देख कर आगे बढ़ता है. जैसी प्रतिक्रिया आप देंगे वैसी ही आप का बच्चा दोहराएगा. इसलिए उस के कदम बढ़ाने पर आप विश्वास दिखाएं, डर नहीं. आप के चेहरे पर विश्वास देख आप का बच्चा भी हिम्मत से आगे बढ़ना सीखेगा.

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