आधुनिकता बनाम धर्मांधता

मध्य प्रदेश के ग्वालियर के नजदीक दतिया की 24 वर्षीय निकिता चौरसिया ने एमबीए किया है. बीती 16 फरवरी को निकिता की शादी जो उस ने अपनी मरजी से की धूमधाम से संपन्न हुई. निकिता ने ब्यूटीपार्लर में मेकअप कराया और मैरिज गार्डन आ कर बरात का इंतजार करने लगी. इस दौरान शादी की सारी रस्में मसलन हलदी, मंडप, मेहंदी और संगीत की हुईं. निकिता के पिता पान की दुकान करते हैं. भाई कुणाल भी मेहमानों के स्वागत और खानेपीने सहित दूसरे इंतजामों में लगा था.

मां और छोटी बहन महिलाओं के साथ अंदर मंगल गीत गाने के साथसाथ रीतिरिवाज संपन्न करवाने में लगी थी. लेकिन मेहमानों के चेहरों पर खुशी के बजाय एक खिंचाव सा था जो बरात का इंतजार बैचेनी से नहीं बल्कि एक उत्सुकता से कर रहे थे क्योंकि किसी ने अपनी जिंदगी में पहले कभी ऐसी शादी नहीं देखी थी.

वजह यह कि निकिता की शादी किसी युवक से नहीं बल्कि एक मूर्ति से होने जा रही थी. भगवान शंकर जो निकिता के दूल्हा थे, अब पति हैं जिन की बरात ब्रह्म कुमारी आश्रम से आई थी. द्वारचार के बाद 2 लोग दूल्हे की मूर्ति को उठा कर लाए और मैरिज गार्डन के बीचोंबीच उसे रख दिया. इस के बाद फेरों की रस्म के लिए पंडितजी के बुलाबे पर दुलहन निकिता आई और उस ने जयमाला के बाद शंकर की मूर्ति के संग 7 फेरे लिए. इस दौरान कुछ लोगों ने जम कर डांस किया.

ये फेरे पंडितों के मंत्रोच्चार के बीच संपन्न हुए. इस दौरान गार्डन में खानापीना चलता रहा. लोग उपहार और आशीर्वाद सिर्फ वधू को देते रहे क्योंकि भगवान भोले नाथ को तो आशीर्वाद देने की उन की न हैसियत थी और न ही हिम्मत. सो लोग उन्हें प्रणाम और चरणस्पर्श करते नजर आए. कुछ लोगों ने पुष्प वर्षा की और 1 घंटे में निकिता भगवान शंकर की पत्नी बन गई.

अनूठी शादी

इस अनूठी शादी को कवर करने का मौका मीडिया वाले भला कैसे चूक जाते. उन के लिए तो यह ऐक्सक्लूसिव और बिकाऊ खबर थी. इसलिए उन्होंने निकिता का इंटरव्यू भी किया, जिस में निकिता ने बताया कि भगवान शिव से शादी करने की वजह यह है कि लोग सांसारिक मोहमाया के जाल में फंसते जा रहे हैं. धनदौलत होने के बाद भी दुखी रहते हैं. महामार्ग को चुनने वाला हमेशा सुखी रहता है. इसलिए उस ने इस मार्ग को चुना किसी सामान्य लड़के के बजाय भगवान शिव को पति चुना. अब वह नव वर के साथ विश्व कल्याण के काम करेगी.

पुरातनपंथ का चक्रव्यूह

निकिता ने जब शंकर से शादी करने का अपना फैसला सुनाया तो घर वाले अचकचा गए थे. उन्होंने उसे सम झाने की कोशिश की पर कुछ देर की बहस के बाद उन्हें ही ज्ञान प्राप्त हो गया कि यह शादी तो हो कर रहेगी. अब यह उन के ऊपर है कि वे निकिता का साथ देते हुए अरैंज्ड मैरिज करेंगे या नहीं. आखिरकार बेटी की खुशी के लिए वे राजी हो गए और शुभचिंतकों की इस सम झाइश पर ध्यान नहीं दिया कि लड़की को सम झाओबु झाओ और कोई अच्छा सा एमबीए पास लड़का देख कर उस की शादी कर दो. दोनों साथ रहते गृहस्थ जीवन जीएं, वंश आगे बढ़ाएं और समाज व देश के लिए कुछ करें उसी में सार है वरना इस ड्रामे से तो लड़की की जिंदगी दूभर हो जाएगी.

मगर चौरसिया परिवार तो शंकर को दामाद बनाने के लिए निकिता से भी ज्यादा उतावला निकला और सलाह देने वालों को यह कहते हुए उन्होंने हड़का दिया कि तुम लोग अच्छा कुछ होते देखते ही टंगड़ी अड़ाने लगते हो. दतिया और दतिया के बाहर जिस ने भी सुना उसे राजस्थान की पूजा सिंह की याद आ गई. उस ने भी इसी तरह कृष्ण मूर्ति से शादी जयपुर में बीते 22 दिसंबर को की थी. पूजा और निकिता दोनों को पंडितों ने अपने पोथेपत्तर खंगाल कर बताया था कि इस तरह के यानी प्रतिमा विवाह का प्रावधान हिंदू धर्म में है. इसलिए वे भगवानों की मूर्तियों से शादी कर सकती हैं.

सामूहिक आस्था पैर पसार लेती है

आधुनिक भारतीय नारियां और युवतियां किस तरह पुरातनपंथ के चक्रव्यूह में फंसी हैं, यह इन 2 और ऐसी आए दिन की शादियों के अलावा खासी शिक्षित युवतियों के सबकुछ छोड़ कर सन्यास लेने से भी आएदिन साबित होता रहता है. अधिकतर सन्यास दीक्षा लेने वाली युवतियां जैन समुदाय की होती हैं. सन्यास का फैसला लेने में मुनि लोग उन की हिम्मत बढ़ाते हुए मदद करते हैं और फिर पूरा समाज ऐसा धूमधड़ाका आयोजित करता है जिस के नीचे वे तमाम बातें और दलीलें फना हो जाती हैं जो आम लोगों के मन में उमड़घुमड़ रही होती हैं. जहां सामूहिक आस्था पैर पसार लेती है तर्कों को वहां से अपनी इज्जत और जान बचाने खिसकने में ही भलाई लगती है.

अब ये सवाल लोगों के मन ही दफन हो कर रह गए कि कल को अगर दोनों में पटरी नहीं बैठी और लड़की ने तलाक मांगा तो वह कौन देगा नीचे की अदालत या ऊपर की क्योंकि दूल्हा तो उस लोक का है या यह फैसला भी वे पंडित ही करेंगे जिन्होंने जाने किस पोथी से शादी का तरीका ढूंढ़ा था वही तलाक का रास्ता निकालेंगे?

पति परमेश्वर क्यों

मनोवैज्ञानिक तौर पर देखें तो ये और ऐसी युवतियां इसी लोक के किसी जीतेजागते युवक से शादी करने और घरगृहस्थी की जिम्मेदारियां उठाने में खुद को असहाय पाती हैं. इसलिए भगवानों की मूर्तियों से शादी कर लेती हैं. असल में किशोरावस्था से ही ये भक्ति के रंग में इतनी रंग जाती हैं कि वास्तविक दुनिया और जिंदगी से कट जाती हैं. इन्हें शुरू से ही घुट्टी पिला दी जाती है कि कृष्ण या शंकर ही तुम्हारा स्वामी है.

अगर सांसारिक पुरुष से विवाह नहीं करना और जीवन का लक्ष्य धर्म तय कर लिया है तो भगवान से ही विवाह कर लो जिस का प्रावधान धर्म में है. राम से कोई युवती शादी नहीं करती क्योंकि वे एक पत्नीव्रत धारी हैं और दूसरे उन से प्रणय निवेदन करने वाली शूर्पणखा का अंजाम सभी को याद है. अब भला कौन युवती अपनी नाक कटवाना पसंद करेगी.

इस मामले में एक दिलचस्प बात यह भी है कि कभी कोई युवक किसी देवी की मूर्ति से शादी नहीं करता. अगर प्रावधान है तो बराबरी से होना चाहिए. ऐसा इसलिए नहीं होता क्योंकि मैसेज यह देना रहता है कि पुरुष ही सर्वोपरि है स्त्री उस के बिना अधूरी है. इसलिए उसे यह एहसास कराया जाता है कि स्त्री जीवन की सार्थकता और पूर्णता ईश्वर के चरणों में है और पुरुष ईश्वर है. पति को परमेश्वर यों ही नहीं कहा गया है. पुरुष जीवन की संपूर्णता या सार्थकता स्त्री के चरणों में नहीं है फिर भले ही वह देवी ही क्यों न हो.

मुमकिन है यह सब धर्म के धंधे में कैरियर बनाने, पैसा कमाने और पूजने के लिए किया जाता हो, लेकिन समाज से एक शिक्षित युवती छिन जाती है जिस का जिम्मेदार वह पुरातनपंथ होता है जिस ने पूरे समाज को तरहतरह के डर और लालच दिखाते हुए जकड़ रखा है. अब कौन पूजा या निकिता से पूछे कि जब मूर्तियों से ही शादी करनी थी तो इतनी पढ़ाईलिखाई क्यों की थी. सोचना जरूरी है कि क्या भगवान भी शिक्षित पत्नी चाहने लगा है?

एक चेहरा यह भी

शिवरात्रि की दोपहर यह प्रतिनिधि भोपाल के न्यू मार्केट इलाके स्थित इंडियन कौफी हाउस में था. उसी वक्त ओला से 2 महिलाएं उतरीं जिन में से ज्यादा उम्र वाली ने सलवारसूट और उस से कम उम्र वाली ने जींसटौप पहन रखा था. एक के हाथ में पौलिथीन का बैग था जिसे ले कर वे रौकेट की रफ्तार से टौयलेट में घुस गईं. इस पर किसी ने खास ध्यान नहीं दिया, लेकिन 5-7 मिनट बाद जब वे टौयलेट से बाहर निकलीं तो उन के कपडे़ बदले हुए थे. अब दोनों ही पीली साडि़यां पहने हुए थीं.

पौलिथीन वाला बैग अब भी उन के हाथ में था. लेकिन अब उस में उतारे हुए कपडे़ थे. एकाध वेटर और मैनेजर का ध्यान उन की तरफ गया. लेकिन कुछ पूछा और कहा जाता उस से पहले ही वे जिस आंधी की तरह आई थीं उस से बड़े तूफान की तरह वापस चली गईं. होगा कुछ यह सोच कर सभी ने सिर  झटक लिया. लेकिन आधे घंटे बाद उन्हें न्यू मार्केट में ही एक शिव बरात में देखा तो यह प्रतिनिधि चौंका कि इसलिए इन्होंने ड्रैस बदली थी.

मन तो वही है

यह कोई नई बात नहीं है बल्कि आज के दौर की महिलाओं का सच है कि वे बाहर से कुछ और अंदर से कुछ और नजर आती हैं. कलश यात्राएं अब धर्म की दुकानदारी का बहुत बड़ा जरीया बन चुकी हैं. इस में महिलाएं भगवा पीले या लाल कपड़े जो आमतौर पर साड़ी ही होती है पहन कर चलती हैं. उन के हाथों और सिर पर कलश होता है और वे मंगल गीत गा रही होती हैं. यह ड्रैस कोड बताता है कि महिलाएं अभी आजाद नहीं हुई हैं. वे धर्म के मकड़जाल में बुरी तरह जकड़ी हुई हैं. हां ऊपर से जरूर वे आधुनिक दिखती हैं.

इस डर या गुलामी को नापने के लिए पैमानों की कमी नहीं. करवाचौथ के दिन घर हो या औफिस औरतें आपस में बतियाती नजर आती हैं कि ए तेरे मियां ने गिफ्ट में क्या दिया? तो क्या आप इसे आधुनिकता कहेंगी, जो औरत की पुरानी तसवीर नए फ्रेम में पेश करती बात है? इस फ्रेम की तुलना जकड़न से करते हुए समाज शास्त्र की एक सीनियर प्रोफैसर कहती हैं, ‘‘पहले महिला की कलाइयों पर धार्मिक रीतिरिवाजों की रस्सी कांस या सन से बनी होती थी, जिस में स्किन छिल जाने की हद तक चुभन होती थी. अब यह रस्सी रेशम या कपास की होने लगी है, जिस में चुभन कम होती है पर जकड़न पर कोई फर्क नहीं पड़ता. वह तो ज्यों की त्यों है. बाजार धर्म में कितनी गहरी पैठ बना चुका है यह तो गिफ्ट वाली बातचीत से साबित होता ही है, लेकिन उस से पहले यह सम झ आता है कि पुरातनपंथ वक्त के साथ मन और चेतना से गहरे अगर आत्मा नाम का कोई तत्त्व होता है तो उस में भी जड़ें जमा चुका है. किसी सौफ्ट वेयर कंपनी की कंप्यूटर इंजीनियर अगर हरतालिका तीज के दिन भूखीप्यासी रहे तो ऐसी शिक्षा पर लानतें न भेजने की कोई वजह नहीं.

इंटरनैट की पोंगापंथी क्रांति की महिलाएं पहले भी धार्मिक मुहरा थीं और आज भी हैं बल्कि अब पहले से कहीं ज्यादा हैं क्योंकि उन के हाथ में टैक्नोलौजी की नई देन स्मार्ट फोन नाम का आत्मघाती गजट है, जिस में उन्हें सुबहसुबह ही दिन का पंचांग, तिथि, व्रत, त्योहार, उपवास आदि की जानकारी मिल जाती है जो पहले सास या मां की जिम्मेदारी होती थी कि बहू आज तुम्हें निराहार निर्जला रहना है क्योंकि आज निर्जला एकादशी है.

न तो पहले सास का हुक्म टाला जा सकता था न आज मोबाइल बाबा की अनदेखी की जा सकती है. अपने मरीजों को खाली पेट न रहने की सलाह देने वाली डाइटिशियन और फिजिशियन भी खाली पेट रहते कौन सी आधुनिकता का सुबूत देती हैं. यह या तो वही जानें या पंडेपुजारी अथवा भगवान बशर्ते वह कहीं होता हो तो. अब नए दौर की औरत को गुरु बनाने या बाबाओं के चमत्कार देखने दूर कहीं नहीं जाना पड़ता. बाबाजी या गुरुजी खुद उस के स्मार्ट फोन में प्रकट हो जाते हैं. यूट्यूब पर बाबाओं और उन के चमत्कारों का खजाना भरा पड़ा है जिन्हें देख आस जगती है कि फलां टोटका करने से पति इधरउधर मुंह नहीं मारेगा.

इंटरनैट भी कम दोषी नहीं

इंटरनैट ने महिलाओं को दिया कम है उन से छीना ज्यादा है. भोपाल के इलाके गौतम नगर में किराए के फ्लैट में रहने वाली बैंक औफिसर सुगंधा आप्टे (बदला हुआ नाम) मनपसंद पति चाहने इन दिनों 16 सोमवार के व्रत कर रही है. सोमवार की सुबह उठ कर वह नहाधो कर शिव मंदिर जाती है और दिनभर व्रत के नाम पर भूखीप्यासी रहती है. शाम को बैंक से लौट

कर वह पूजापाठ करती है और बिना नमक का खाना खाती है. 16 सोमवार के व्रत पूरे हो जाने के बाद सुगंधा उज्जैन हरिद्वार या नासिक जा कर व्रत का समापन करेगी जिसे उद्यापन भी कहते हैं.

यह विधिविधान उस ने यूट्यूब से सीखा है. लेकिन सुगंधा खुद को पुरातनपंथी कहने पर चिढ़ कर कहती हैं कि नहीं मैं नए जमाने की पढ़ीलिखी मौडर्न लड़की हूं जो कभीकभार फ्रैंड्स के साथ बियर भी पीती है और सिगरेट के धुएं के छल्ले भी बनाती है यानी वह ऊपर से कथित आधुनिक और अंदर से वास्तविक पुरातनपंथी है.

सुगंधा की नजर में कभीकभार मन की कर लेना गलत नहीं है. लेकिन कभी भी धर्म की अनदेखी करना कहीं से भी सही नहीं है. जब से सोशल मीडिया का चलन बढ़ा है तब से निकिता पूजा और सुगंधा, जैसी कई लड़कियों को अपनी सनक सा झा करने के लिए एक प्लेटफौर्म भी मिल गया है. ये लड़कियां किसी भी देवता और उन में भी खासतौर से कृष्ण को अपना सखा या प्रेमी बना उस के साथ ऐसा व्यवहार करती हैं मानो वह जीवित उन के सामने खड़ा हो या साथ हो.

पुरातनपंथ फैलाते ब्रैंडेड बाबा

ऐसी ही एक युवती वृंदावन की राधे वृंदावनेश्वरी है जिस के हजारों फौलोअर्स हैं. वृंदावनेश्वरी राजा वृषभानु की बेटी और कृष्ण की हजारों प्रेमिकाओं में से एक थी. जाहिर है यह असली नाम नहीं है. मुमकिन है हो भी लेकिन इस से उस की प्रेमभक्ति या सनक जो भी कह लें पर कोई असर नहीं पड़ता. मासूम और सुंदर वृंदावनेश्वरी सिर से ले कर नाक तक तिलक लगाए रहती है और अकसर ऐसे वीडियो शेयर करती है जिन में वह कृष्ण से बेहद अंतरंग होती है. कई बार वह कृष्ण की मनुहार करते नजर आती है तो कभी उन्हें  िझड़क भी देती है. इसी लीला की आड़ में वह धर्म और शाकाहार का प्रचार भी करती रहती है.

वृंदावनेश्वरी जितनी कृष्णप्रिया हैं उतनी ही सुंदर, आकर्षक और बिंदास दिनरात कृष्ण में डूबी रहने वाली. वह अकसर फिल्मी गानों की पैरोडी पर भी अपनी भावनाएं व्यक्त करती है और कृष्ण को पूजने के फायदे गिनाती रहती है और व्रतत्योहारों की महिमा भी पोस्ट करती है. यह और ऐसी सैकड़ोंहजारों युवतियां सनातन और पुरातनपंथ फैलाने की ब्रैंडेड बाबाओं से कम दोषी नहीं कही जा सकतीं.

कोविड का कहर

कोविड और लौकडाउन के दौरान महिलाएं और तेजी से पुरातनपंथ की गिरफ्त में आईं क्योंकि तब उन के सिर पिता, पति, बेटा या भाई छिन जाने का डर शिद्दत से मंडरा रहा था. तब बिना मनु स्मृति पढ़े ही उन्हें यह ज्ञान प्राप्त हो गया था कि समाज पुरुषप्रधान है और यह सहारा अगर छिना तो वे कहीं की नहीं रह जाएंगी.

लिहाजा, इन दिनों उन्होंने जम कर व्रतउपवास और दूसरे धार्मिक जतन मसलन टोनटोटके तक किए. लेकिन तब उन की सलामती के लिए घर के किसी पुरुष ने यह सब नहीं किया क्योंकि महिला अगर चली भी जाती तो उन की सेहत या स्थिति पर कोई दीर्घकालिक फर्क नहीं पड़ना था. कोविड के पहले भी हालात यही थे कि पुरुष ने यह सब कभी नहीं किया.

कोविड के दौरान विधुर हुए अधिकतर पुरुषों ने दूसरी शादी कर ली है, लेकिन महिलाएं जो विधवा हुईं उन की स्थिति बदतर है क्योंकि विधवा विवाह आज भी आसान नहीं. कोविड ने समाज की भयावहता और भेदभाव को तीव्रता से उजागर किया कि पुरुषप्रधान समाज में महिलाएं चाहे वे अनपढ़ हों या शिक्षित हों असुरक्षा के मामले में उन में कोई अंतर नहीं यानी आधुनिकता तब भी सैकंडरी थी आज भी है. पारिवारिक और सामाजिक सुरक्षा की जो गारंटी धर्म देता है शिक्षा वह नहीं दे पा रही. यह गारंटी कितनी खोखली है यह बात भी किसी सुबूत की मुहताज नहीं.

गैरधार्मिक दकियानूसी भी

जब महिलाएं तेजी से शिक्षित हुईं और नौकरियों में आने लगीं तो उन्हें आभास हुआ कि वे अभी तक ठगी जा रही थीं. लेकिन इस का कोई खास प्रतिकार उन्होंने नहीं किया. हां थोड़ाबहुत वे अपनी मरजी से जीने लगीं. इस का यह मतलब नहीं कि उन्होंने खुद को धार्मिक जकड़न से मुक्त कर लिया बल्कि यह है कि कमाऊ होने के नाते वे कुछ पैसा अपनी सहूलियतों पर खर्च करने लगी जिस पर पुरुषों ने ऐतराज दर्ज न करने में ही बेहतरी सम झी.

फिर शुरू हुआ आधुनिकता के नाम पर किट्टी पार्टियों का दौर जिस की 3 दशक तक खूब चर्चा रही. इस पर भी पुरुषों ने ऐतराज नहीं जताया क्योंकि यह उन के भले की ही बात थी. औरतें अपना वक्त और पैसा जाया करें और उत्पादकता और रचनात्मकता से दूर रहें यह इच्छा किट्टी पार्टियों से पूरी होने लगी. यह एक गैरधार्मिक काम है जिस से औरत पिछड़ी ही रहती है. वह महफिल में मशगूल रहती है ठीक वैसे ही जैसे सत्यनारायण की कथा में रहती है कि कोई तर्क नहीं, कोई सवाल नहीं बस हवन में आहुति डाले जाओ.

कभी न छोड़ें शादी के बाद नौकरी

राइटर- प्रियंका यादव

शादी के बाद महिलाओं से अपेक्षा की जाती है कि वे जौब छोड़ दें क्योंकि घर में रहने वाली महिला को यह समाज संस्कारी महिला की संज्ञा देता है जो बिलकुल भी सही नहीं है. असल में यह समाज महिलाओं को चारदीवारी में कैद रखना चाहता है. ऐसे में महिलाओं को यह चाहिए कि वे शादी के बाद भी अपनी जौब जारी रखें ताकि घर में रहने वाली संस्कारी महिला की छवि को तोड़ा जा सके.

यह समाज शादी के बाद महिलाओं पर घरेलू बनने का दबाव डालता है क्योंकि वह चाहता है कि महिलाएं घर तक ही सीमित रहें. समाज को लगता है कि घर से बाहर निकलने पर महिलाएं अपने हक के बारे में जान जाएंगी और बरसों से चली आ रही रूढि़वादी परंपराओं को मानने से इनकार कर देंगी. यह एक तरह से बगावत होगी समाज के उन ठेकेदारों के खिलाफ जो सदियों से महिलाओं का किसी न किसी रूप में शोषण करते आए हैं. महिलाओं को चाहिए कि वे अपनेआप को ऐसे शोषण करने वाले लोगों से बचाएं.

इस क्षेत्र में सब से पहला कदम महिलाओं का शादी के बाद भी जौब करना है. शादीशुदा महिलाओं को अपने भविष्य के बारे में सोचना चाहिए. उन्हें यह सम?ाना चाहिए कि जौब उन के लिए कितनी जरूरी है. यह न सिर्फ उन के घर से बाहर निकलने का जरीया है बल्कि यह उन्हें आत्मनिर्भर भी बनाती ह.ै उन्हें अपनी योग्यता का इस्तेमाल करना चाहिए. उन्हें यह सोचना चाहिए कि उन की पढ़ाई का क्या फायदा है अगर वे उस का उपयोग ही न कर सकें.

आखिर वजह क्या है

यह समाज हमेशा से यह चाहता आया है कि महिलाएं घर तक ही सीमित रहें. इस के लिए समाज किचन का निर्माण भी ऐसे ही किया कि उस में एक बार में एक व्यक्ति ही काम कर सके. महिलाओं को समाज की इस सोच को तोड़ना है कि रसोईघर सिर्फ महिलाओं का क्षेत्र है. इस के लिए सब से पहले खुली किचन का निर्माण करना होगा या किचन की सैंटिंग ऐसी करनी होगी कि वहां एकसाथ कम से कम 2 लोग काम कर सकें.

जब लड़की अपने पिता के घर होती है तो वह आसानी से जौब कर लेती है. लेकिन शादी के बाद महिलाएं जौब क्यों नहीं करतीं? तो इस का एक कारण है कि उन के होने वाले पति या ससुराल वाले इस की इजाजत नहीं देते. महिलाओं का शादी के बाद जौब न करने का दूसरा कारण महिलाओं द्वारा जल्दी बच्चे कर लेना है. ऐसे में बच्चे के जन्म लेने में 9 महीने का समय लग जाता है और इस के बाद अगले 3 साल तक उस की देखभाल करने की जरूरत होती है.

ऐसे में महिलाएं उसी में बंध कर रह जाती हैं. इसलिए जरूरी है कि लड़कियां शादी से पहले फैमिली प्लानिंग के बारे में होने वाले पति से बात कर लें. शादी से पहले अपने होने वाले पार्टनर से अपने मन की बात करें. उन्हें यह बताएं कि शादी के बाद भी आप जौब करना चाहती हैं.

घर वालों से खुल कर बात करें

बहुत सी महिलाएं शादी के बाद अपने अरमानों का गला घोट देती हैं. वे अपने बेहतर कैरियर तक को छोड़ देती हैं. अत: शादी का फैसला सोचसम?ा कर करें और ऐसा जीवनसाथी चुनें जो आप को कैरियर में आगे बढ़ने की प्रेरणा दे.

जो लड़कियां कैरियर औरिएंटल होती हैं और शादी के बाद जौब छोड़ना नहीं चाहतीं, उन्हें इस बारे में अपने पार्टनर और उस के घर वालों से खुल कर बात करनी चाहिए. इस से उन लोगों के जवाब से महिलाओं को निर्णय लेने में आसानी हो जाएगी.

महिलाएं अपने होने वाले पति से पूछ सकती हैं कि शादी के बाद उन के कैरियर को बढ़ावा देने के लिए वे किस प्रकार से सपोर्ट कर सकते हैं? क्या वे घरेलू जिम्मेदारियों में आप का हाथ बंटाएंगे या फिर परिवार के बढ़ने के बाद भी क्या वे उन के कैरियर की गंभीरता को सम?ोंगे? अगर परिवार के लोगों ने नौकरी छोड़ने को कहा तो क्या वह उन्हें सम?ाने की कोशिश करेंगे? ऐसे ही कुछ सवाल पूछ कर महिलाएं अपने लिए सही जीवनसाथी चुन सकती हैं.

शादीशुदा महिलाएं समय का रखें ध्यान

शादीशुदा महिलाओं को अपने समय का विशेष ध्यान रखना चाहिए. इस के लिए वे अगले दिन के लंच की तैयारी रात में ही कर लें जैसे सब्जियां काट कर फ्रिज में रख दें, रात में ही कपड़े प्रैस कर लें, अपना बैग तैयार कर लें, इस तरह से महिलाएं अपने काम के समय को बचा सकती हैं.

दिल्ली की रहने वाली 28 वर्षीय अनु बताती हैं कि उन की शादी को 2 साल हो गए हैं. शुरू में शादी के बाद जौब करने में उन्हें काफी परेशानियां आईं, फिर उन्होंने अपनी सैलरी का एक हिस्सा दे कर नौकरानी रख ली. अब वे घर और औफिस दोनों का काम बड़ी सरलता से कर लेती हैं. उन्होंने यह भी बताया कि वे अपनी सैलरी का 40% हिस्सा नौकरानी शांता को देती हैं, लेकिन उन्हें इस का कोई मलाल नहीं है क्योंकि वे सम?ाती हैं कि जौब हर महिला को करनी चाहिए और इसे शादी के बाद भी जारी रखना चाहिए.

कामकाजी महिलाओं को घर और औफिस दोनों का काम करना होता है. ऐसे में वे अपने कामों को छोटेछोटे हिस्सों में बांट दें. परिवार के हर सदस्य को उस की जरूरत का खुद खयाल रखने दें, जेबें चैक करने के बाद गंदे कपड़ों को टोकरी में डालने को कहें, खाने के बाद उन्हें अपनी थाली खुद उठाने को कहें, अपने पार्टनर से टेबल और बैड लगाने को कहें, उन्हें पानी का जार भरने जैसे छोटेछोटे काम करने को दें.

पुरुषों को भी यह सम?ाना होगा कि यह केवल महिलाओं का ही काम नहीं है क्योंकि एक कामकाजी महिला के रूप में कार्यालय और घर दोनों अच्छी तरह संभाल रही हैं, इसलिए दोनों को घर के कामों में हाथ बंटाना चाहिए, अगर आप के पार्टनर को खाना बनाना आता है तो उन से कहें कि वे भी खाना बनाया करें. यदि परिवार में अन्य सदस्य हैं. तो सभी को विनम्रता से यह स्पष्ट करें कि आप एक कामकाजी महिला हैं और आप भी जौब करती हैं इसलिए सभी को मिल कर काम करना होगा.

धर्म क्या चाहता है

हर धर्म चाहता है कि औरतें कमजोर रहें और इसलिए धर्म के धोखेबाज तरहतरह के तरीके अपनाते हैं. वे कहते हैं कि पूजापाठ से घर में बरकत होती है, बच्चे होते हैं, लड़की को अच्छा वर मिलता है, बीमार ठीक होता है, इन सब के लिए आदमी अपना समय कम लगाते हैं, औरतें ज्यादा समय लगाती हैं. वर्किंग औरतों को इस साजिश को सम?ा लेना चाहिए और धर्म में समय नहीं लगाना चाहिए.

तीर्थस्थान की जगह मनोरंजक स्थान पर जाएं, जहां फुरसत हो और कार्यक्रम आप के अनुसार तय हो, मंदिर के कपाट खुलने या पंडितों के दिए समय के अनुसार नहीं. मंदिरों में लाइनों में समय बरबाद न करें, किसी समुद्री तट या जंगल का मजा लें.

घर में पूजापाठ के नाम पर घंटों आंखें मूंद कर बैठने की जगह व्यवसाय करें, पौधे लगाएं, घर की देखभाल करें ताकि कोई यह न कह सके कि घर है या कबाड़खाना.

एक सर्वे में यह बात सामने आई है कि एक शिशु को मां की सब से अधिक जरूरत केवल 3 वर्ष तक ही होती है, इस के बाद जैसेजैसे उस का विकास होता जाता है उस का ध्यान कम रखना पड़ता है. इस बीच महिलाएं अपने बच्चे के लिए बेबी सिटर या कहें बेबी केयर अपौइंट कर सकती हैं और इस के बाद महिलाएं अपनी जौब को जारी रख सकती हैं.

महिलाओं को इस बात से पीछे नहीं हटना चाहिए कि उन की सैलरी बेबी केयर और नौकरानी में निकल जाएगी. उन्हें उस वक्त बस यह ध्यान रखना है कि वे अपनी जौब को जारी रखें क्योंकि यही एक जरीया है जो उन्हें बाहरी दुनिया से जोड़े रखेगा और मर्दों के कंधे से कंधा मिला कर चलने का अवसर प्रदान करेगा.

मेघा पेशे से डाक्टर हैं. उन के 2 बच्चे हैं. ऐसे में बच्चों को अकेला छोड़ कर क्लीनिक जाना उन के लिए एक मुश्किल फैसला था. इस वजह से वे अपनी नौकरी छोड़ने की सोच रही थीं. तभी उन की एक दोस्त ने सु?ाव दिया कि वे एक फुलटाइम बेबी सिटर रख लें. मेघा ने ऐसा ही किया. इस के बाद मेघा टैंशन फ्री हो कर क्लीनिंग जाने लगीं.

जमाना बदल गया है

ऐसी ही एक कहानी दिल्ली के पटेल नगर में रहने वाली नीति बताती हैं. वे कहती हैं कि वे एक न्यूज चैनल में कार्यरत हैं. अपने अनुभव बताते हुए वे कहती हैं कि उन्हें हमेशा से यह डर लगता था कि बच्चे होने के बाद क्या वे अपनी जौब जारी रख पाएंगी? लेकिन नौकरानी और बेबी सिटर की सहायता से वे अपने घर और जौब दोनों को अच्छे से संभाल लेती हैं. वे कहती हैं कि महिलाओं को हमेशा अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश करनी चाहिए. इस के लिए जरूरी है कि वे शादी के बाद भी जौब करें.

महिलाओं के लिए नौकरी करना और उस के साथसाथ घर और बच्चे की जिम्मेदारी संभालना आसान काम नहीं है, लेकिन नए जमाने की महिलाओं ने इसे बखूबी निभाया है. महिलाओं को अपने पार्टनर को यह बताना चाहिए कि घर और बच्चे दोनों के हैं इसलिए जिम्मेदारी भी दोनों की है, किसी एक की नहीं.

वे लोग जो सम?ाते हैं कि कामकाजी महिलाएं घर का अच्छे से खयाल नहीं रखती हैं उन्हें शुगर कौस्मैटिक की कोफाउंडर विनीता अग्रवाल और ममा अर्थ की ओनर कजल अलघ का नाम नहीं भूलना चाहिए. वहीं अगर मीडिया इंडस्ट्री की बात की जाए तो उच्च पदों पर कार्यरत महिलाएं जैसे अंजना ओम कश्यप भी शादीशुदा हैं, फिर भी वे घर और जौब दोनों को अच्छे से संभाल रही हैं.

भारत के कई राज्यों और शहरों में ऐसी महिलाएं हैं जिन्होंने फूड स्टाल लगा कर खुद को आत्मनिर्भर बनाया है. वे न केवल अपना खर्चा उठाती हैं बल्कि अपने परिवार की जरूरतों का भी पूरा खयाल रखती हैं.

ऐसा ही एक स्टौल दिल्ली के लाजपत नगर में एक महिला चलाती हैं जो मोमोस के लिए फेमस हैं. इन्हें ‘डोलमा आंटी’ के नाम से जाना जाता है. हमें अपने आसपास राह चलते हुए ऐसी कई महिलाएं दिख जाती हैं जो नीबू पानी, जूस, लस्सी और चाय आदि का स्टाल लगाती हैं. यह वे महिलाएं हैं जिन से हमें प्रेरणा मिलती हैं. ये महिलाएं उन सभी महिलाओं के लिए उदाहरण पेश करती हैं जो शादी के बाद जौब छोड़ कर खुद को घरगृहस्थी में व्यस्त कर लेती हैं और अपना कैरियर दांव पर लगा देती हैं.

ऐसे बहुत से काम हैं जिन्हें शादीशुदा महिलाएं पार्टटाइम के तौर पर कर सकती हैं. ये काम घर बैठे भी किए जा सकते हैं. आमतौर पर ये काम कुछ घंटे के होते हैं जैसे राइटिंग, प्रूफ रीडिंग, एडिटिंग, टाइपिंग आदि. पार्टटाइम काम करने के लिए जरूरी है कि आप के पास उन कामों से संबंधित विषय वस्तु हो जैसे प्रूफ रीडिंग और राइटिंग के लिए टेबल और कुरसी की जरूरत होती है.

कामकाजी महिलाओं के फायदे

कामकाजी महिला होने के बहुत फायदे हैं जैसे कामकाजी महिलाएं आर्थिक रूप से सक्षम होती हैं. वे अधिक कौन्फिडैंट होती हैं क्योंकि वे बनठन कर रहती है इसलिए उन की पर्सनैलिटी होती है. कामकाजी महिलाएं बहुत खुशमिजाज होती हैं और साथ ही साथ जिंदगी को एक नए तरीके से देखने में भी विश्वास रखती हैं.

इस के अलावा और भी कई फायदे हैं:

आर्थिक रूप से सक्षम: आर्थिक रूप से सक्षम कामकाजी महिलाओं का समाज में एक अलग रुतबा होता है. आर्थिक रूप से सक्षम होने के कारण वे अपने आर्थिक फैसले खुद ले सकती हैं. वे जो भी चाहें वह खरीद सकती हैं. इस के लिए उन्हें पति पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं है. यदि महिलाएं शादी के बाद जौब नहीं करतीं तो उन्हें छोटीछोटी जरूरतों के लिए अपने पति का मुंह ताकना पड़ता है. यह उन महिलाओं को असहज महसूस करा सकता है जिन्होंने शादी से पहले जौब की हो.

अपनेआप को इस असहजता से निकालने के लिए उन्हें शादी के बाद भी जौब करनी चाहिए. आर्थिक रूप से सक्षम होने के कारण वे अपने बच्चों को अच्छी परवरिश देती हैं. इस के अलावा आय का एक सोर्स और बढ़ने से घर में सेविंग होने लगती है जोकि उन के भविष्य के लिए बहुत जरूरी है.

अधिक अट्रैक्टिव : शादीशुदा कामकाजी महिलाएं अधिक अट्रैक्टिव होती हैं क्योंकि वे दुनिया से जुड़ी हुई होती हैं. उन्हें पता होता कि फैशन में क्या चल रहा है इसलिए वे पति का अधिक प्यार भी पाती हैं. यह भी देखा गया है कि कामकाजी महिलाओं के पति अधिक रोमांटिक होते हैं. इस वजह से उन के बीच रोमांस अधिक होता है. वहीं अगर घरेलू महिला की बात की जाए तो वे कम अट्रैक्टिव होती हैं क्योंकि वे फैशन से लगभग कट चुकी होती हैं. उन का दायरा अब केवल घर तक ही सीमित रह जाता है. इसी वजह से उन के बीच रोमांस कम होता है.

अधिक कौन्फिडैंट : कामकाजी महिलाओं के कौन्फिडैंट की डोर खुले आसमान में गोते खाती हुई नजर आती है. यह कौन्फिडैंट उन्हें चारदीवारी से बाहर निकल कर आता है. वहीं अगर घरेलू महिलाओं की बात करें तो उन का सारा समय चौका बरतन में ही निकल जाता है. ऐसे में बाहरी दुनिया से उन का नाता लगभग टूट जाता है.

32 वर्षीय सुप्रिया एक मल्टीनैशनल कंपनी में जौब करती हैं. उस का कौन्फिडैंस उन की बातों से साफ ?ालकता है. वहीं अगर घरेलू महिलाओं की बात की जाए तो वे लोगों से बात करने में ?ि?ाकती हैं.

निजी रिश्तों में आता है निखार : यह बात कई अध्ययनों के माध्यम से सामने आई है कि कामकाजी महिलाएं अपने क्षेत्र में अधिक सफल होती हैं. उन का निजी जीवन ज्यादा खुशनुमा होता है.

अधिक खुशमिजाज : लोगों का मानना है कि बाहर काम करना बहुत कठिन है, लेकिन सच तो यह है कि यदि घर पर कोई विशेष काम न हो तो महिलाओं को बाहर निकल कर जौब करनी ही चाहिए. इस से न केवल वे आत्मनिर्भर बनेंगी बल्कि तनावमुक्त भी रहेंगी. हाल ही में हुई एक स्टडी के मुताबिक, कामकाजी महिलाओं में गृहिणियों के मुकाबले कम अवसाद और तनाव देखने को मिला है. लोगों का मानना है कि कामकाजी महिलाएं घरेलू महिलाओं के मुकाबले अधिक खुशमिजाज होती हैं.

आदर्श महिलाएं : कामकाजी महिलाएं अपने बच्चों के सामने एक आदर्श के रूप में निखरती हैं. यह भी देखा गया है कि यदि किसी घरपरिवार में आर्थिक तंगी को ले कर तनाव देखने को मिलता है तो ऐसी स्थिति में ये महिलाएं बाहर निकल कर नौकरी कर के अपने परिवार की आर्थिक स्थिति को मजबूत करती हैं. इन सब बातों का प्रभाव बच्चों की मानसिक स्थिति पर पड़ता है और आगे चल कर वे इस से अपने इरादों में मजबूती पाते हैं.

बदलता है नजरिया : घर से बाहर निकल कर काम करने वाली महिलाओं की सोच का नजरिया घरेलू महिलाओं की सोच में अधिक हो जाता है क्योंकि वे बाहर निकल कर पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर चल रही होती हैं. ऐसी स्थिति में कामकाजी महिलाएं पुरुषों के कार्य को भलीभांति सम?ा सकती हैं. यह देखने में आया है कि कामकाजी महिलाएं अपने परिवार के हित में जो भी फैसला लेती हैं. वह खुले दिल और दिमाग से होता है.

हमें बौलीवुड की फिल्म ‘की एंड का’ से प्रेरणा लेनी चाहिए. फिल्म में दिखाया गया है कि करीना कपूर एक कैरियर ऐंबीशंस लड़की है जो मानती है कि जरूरी नहीं है कि महिलाएं किचन में ही काम करें. वे कौरपोरेट औफिस में भी अच्छी तरह काम कर सकती हैं. वहीं अर्जुन कपूर की अपने पिता के बिजनैस में कोई रुचि नहीं है. वह मानता है कि एक लड़का भी अच्छे से किचन संभाल सकता है.

हमें इस फिल्म से यह सीखना चाहिए कि घरपरिवार की जिम्मेदारी महिलापुरुष कुछ दोनों की है. महिलाओं को यह सम?ाने की जरूरत है कि यह समाज उन्हें बस घर में कैद करना चाहता है. इस के लिए वह अलगअलग हथकंडे अपनाता है जैसे घर संभालना, बच्चों की देखभाल करना, आदर्श बहू बनना और न जाने क्याक्या. महिलाओं को इन सभी बातों को दरकिनार कर के अपने कैरियर के बारे में सोचना चाहिए. उन्हें इस बात को इग्नोर नहीं करना चाहिए कि उन का आत्मनिर्भर होना कितना जरूरी है.

दवा जरूरी या दुआ

सरकार को ड्रग व्यापार पर नियंत्रण करना चाहिएमगर वह लगी है धर्म बचाने में. सरकारी मशीनरी को कफ सिरप और आई ड्रौपों से होने वाली मौतों की चिंता नहींएक हिंदू लड़की के धर्म परिवर्तन कर के मुसलिम लड़के से शादी करने पर चिंता होती रहती है.

पहले जांबिया से खबरें आईं कि वहां सैकड़ों बच्चों की मौत हरियाणा की एक कंपनी का कफ सिरप पीने से हुई. फिर उजबेकिस्तान से आईं. अब डेलसम फार्मा के आई ड्रौपों से होने वाले अंधेपन के मामले सामने आ रहे हैं. यह दवा अमेरिका के कईर् शहरों में बिक रही है.

भारतीय फार्मा कंपनियां आजकल बहुत पैसा बना रही हैं. दुनियाभर को सस्तीकौंप्लैक्स दवाएं बेचने में भारत ने एक खास जगह बना ली है. भारत में बनी दवाओं को भारतीयों पर प्रयोग करना बहुत आसान है क्योंकि यहां की जनता वैसे ही भभूतमंत्रोंहवनों में विश्वास करने वाली है और यदाकदा जब लोग कैमिस्ट से किसी रोग की दवा लेते हैं तो होने वाले नुकसान पर सरकारी अस्पताल के डाक्टर चिंता नहीं करते. वे एक और जने की असमय मौत या गंभीर नुकसान को कंधे उचका कर टाल देते हैं.

जो देश आयुर्वेदहोम्योपैथीयूनानीऔर्गेनिकयोगासनों और पूजापाठ को इलाज मानता हो तथा मौत या शारीरिक नुकसान को भगवान का लिखा हुआ मानता है जो होना ही हैवहां किसी ड्रग का ट्रायल तो जरूरी है ही नहीं. यहां दवाएं टिन शेड वाले कारखानों में मैलेकुचैले मजदूरों के हाथों से बनती हैं. हांबाहर के दफ्तरों में सफेद कोट पहने लोग मंडराते दिख जाएंगे. अब पैकिंग भी बढि़या है. सरकारी एजेंसियां सर्टिफिकेट ऐप्लिकेशन पर रखे पैसों के हिसाब से देती हैंदवाओं की क्वालिटी के आधार पर नहीं.

डेलसम फार्मा के बने आई ड्रौपों को लूब्रिकेशन और आंसू रोकने के लिए प्रयोग किया जाता है पर वे बैक्टीरिया वाले आई ड्रौप हैं जो नेजल कैविटी से लंग्स तक बैक्टीरिया को ले जाते हैं और लंग्स में इन्फैक्शन हो जाता है. आंखों की रोशनी अलग चली जाती है.

इस पर न धर्म संसद बैठेगीन भगवाई मोरचा निकलेगा क्योंकि उन्हें तो दानदक्षिणा से मतलब है और वे मौत व बीमारी को भगवान का आदेश मानते हैं. सरकार इस काम और अंधविश्वास को फैलाने में पूरा सहयोग दे रही है. जगहजगह मंदिरघाट बन रहे हैं जिन में बढि़या पत्थर लग रहा है. हरेभरे घास लगे बाग बन रहे हैं. दवा फैक्टरियों की चिंता किसे हैकितने भारतीय इन नकली या खराब दवाओं से मरते हैंइस के तो आंकड़े भी कलैक्ट नहीं हो पाते.

समलैंगिक विवाह

समलैंगिक विवाह अब एक अच्छी खासी बहस पैदा कर रहे हैं. स्त्रीस्त्री व पुरुषपुरुष का विवाह वैसे तो विवाह करने वालों का आपसी मामला है पर सदियों से समाज, धर्म और उन के कहने पर राजाओं के कानून लोगों के व्यक्तिगत जीवन को कंट्रोल करते रहे हैं. स्त्री समलैंगिक विवाह 2 जनों की अपनी इच्छा साथ रहने की है और इस से न तो नैतिकता का पड़ता है न सामाजिक कानून व्यवस्था को.
बंद कमरों में कौनकौन क्या कर रहा है, यह किसी की ङ्क्षचता नहीं होनी चाहिए. पर हर समाज, देश और खासतौर पर धर्म इस बात से घुले जाता है कि बंद मकान में क्या हो रहा है. उस की कुछ वजह तो यह कही जाती है कि आसपास के लोगों को अपने बच्चों की ङ्क्षचता होती है कि कहीं वे भी ऐसा न करने लगें पर
ज्यादातर यह तकलीफ उन को होती हैं जिन की रोजीरोटी समाज को एक सीधे
बचे बचाए रास्ते पर चलाने से मिलती है.

एक साधारण विवाह जिस में बच्चे हों धर्म के दुकानदारों के लिए भारी इंकम का सांसे है. पहले तो जीवन साथी की खोज करने के लिए पैसा मिलता है. भारत में तो बहुत मोटा पैसा पंडित कमा लेते है सिर्फ लडक़ेलडक़ी को ढूंढऩे में. ङ्क्षहदुओं में गुंडली बनवाने में ही खूब पैसा मिलता है. फिर उन के दोष निकालने पर पैसा मिलता है.

विवाह के समय लंबीचौड़ी लिस्टें छोटेमोटे अनुष्ठानों की बनती हैं जिन में घर की औरतों के व्यस्त तो रखा ही जाता है, पंडितों को हर बार कुछ न कुछ मिलता है. विवाह बाद बच्चे को पैदा होने के लिए तरहतरह से पूजापाठ किए जाते हैं, पंडितों की हर जगह कमाई होती है. बच्चा गर्भ में आ जाए तो फिर एक लंबी फेहरिस्त तैयार हो जाती है पूजापाठों की जिन में पंडित पुरोहितों का योगदान होता है. आज
के जमाने में इस कमाई में डाक्टर भी आ गए हैं. प्रीनेटेल केयर के नाम पर पैसा मिलने लगा है, वे भी इसी बात में रूचि रखते हैं कि विवाह ऐसे हो जिन में बच्चों हों ताकि यह धंधा बढ़ें. विवाह होता है तो वे विवाद भी होते हैं. इन विवादों में धर्म के दुकानदारों और वकीलों व दोनों की बनती है. स्त्रीपुरुष विवाहों में विवाद ज्यादा होते हैं क्योंकि इसमें एक पार्टनर हावी होता है, दूसरा दबा हुआ. सेमसैक्स मैरिज में भी एकदूसरे
पर हावी हो सकते है पर दोनों लगभग बराबर के से होंगे तो फैसले आसान होंगे और यह बहुतों को मंजूर नहीं है.

सेमसैक्स मैरिज से बच्चे नहीं होंगे तो जनसंख्या नियंत्रण में रहेगी यह पक्का पर फिर भी जो लोग जनसंख्या नियंत्रण कानून लाना चाहते हैं वे ही इस का विरोधकर रहे हैं. असल में वे बच्चे कला नहीं चाहते 2 से ज्यादा बच्चों के मातापिताओं को गुलामी की लाइन के परे धकेल देना चाहते हैं. उन्हें अपराधी बना
देना चाहते हैं ताकि उन से कैदियों की तरह का काम लिया जा सके. सेमसैक्स मैरिज कितनी होंगी इस का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता पर जहां इन्हें कानूनी मान्यता मिली है वहां भी बहुत नहीं हुई हैं और वहां भी जोड़े फिर बच्चे गोद न लेने में लग जाते हैं, बच्चे पैदा करने की प्राकृतिक आवश्यकता प्रेम पर देरसबेर हावी हो जाती है पर यह फैसला हर जनें का अपना है और किसी को हक नहीं कि इस में दखल दें.
भारत सरकार सुप्रीम कोर्ट में इस का विरोध कर रही है क्योंकि यह तो आजकल पूजापाठियों की है जो पौराणिक तौरतरीका लाना चाहते हैं जिस में पुत्र जन्म सब से महत्वपूर्ण है क्योंकि वही ङ्क्षपडदान करेगा तो मृतक की आत्मा को मुक्ति मिलेगी.

भारत सरकार कह रही है कि इस से सामाजिक परेशानियां पैदा होंगी, सैंकड़ों कानूनों को बदलना होगा. ये तर्क निरर्थक है. अगर पुराने कानून किसी तरह व्यक्ति की आजादी को छीनते हैं तो उन्हें बदलने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए.

मौत पर अंध विश्वास

एक सफल व्यक्ति के पिता की उस के विवाह के चंद दिनों बाद 20वीं मंजिल से गिर जाने से हो जाए तो एक गंभीर सदमे वाली बात है. ओसो होटल सेवा देने वाली कंपनी के फाउंडर रितेश अग्रवाल 65 वर्षीय रमेश प्रसाद अग्रवाल दिल्ली के पास गुडग़ांव में क्रैस्ट सोसायटी में 20वीं मंजिल से गिरने पर मृत पाए गए. यह सदमा अच्छेअच्छे परिवार को हिला सकता है. बीमारी या दुर्घटना की मौत को अपने हाथ में न होने का बहाना कहा जा सकता है पर 20वीं मंजिल से सुरक्षित ग्रिलों वाली सोसायटी में से किसी का अनायास गिर जाना एक आसान बात नहीं. लोग दोपहर के 1 बजे हवा लेने के लिए बालकौनी में नहीं आते. आमतौर पर इन भव्य महंगे अपार्टमैंटो की बालकानियों में कपड़े भी नहीं सूखते नजर आएंगे उन के लिए अलग ड्राई एरिया बनाया जाता है ताकि सोसायटी की भव्यता खराब न हो.

मौत का कारण चाहे कोई भी हो, बचे लोगों पर यह काला साया वर्षों तक रहेगा इन में शक नहीं. एक साधारण सामान्य परिवार से आए रितेश अग्रवाल ने असमान्य मौत शायद पहले कभी देखी भी न हो. इस के लिए इस समस्या से जूझना आसान नहीं है. यह एक सबक हर युवा के लिए कि उसे मातापिता के साथ अपने हर संबंध का हर एक्शन का ख्याल रखना होगा और कुछ भी अचानक घट सकता है. यह संभव है. रितेश नरेंद्र मोदी को विवाह अवसर पर आमंत्रित करने गया था.

यह बात स्पष्ट करती है कि उस के जान पहचान वाले अच्छे रुतबे के हैं और इन जैसों को अपने हर कदम को सावधानी से उठाना होता है. कोर्ई भी अचानक आया मोड़ आम लोग किस निगाह से लेंगे कहा नहीं जा सकता. घर में हुई एक भी आसमयिक मौत बहुत से दिलों में खालीपन, दर्द, अपराध भाव और संदेह छोड़ जाता है. जीवन में सफलता निजी संबंधी की अचानक मौत में सामने निरर्थक सी लगने लगती है. रमेश प्रसाद अग्रवाल ने अपनी जान क्यों खोई, इस का सही व पूरा जवाब कभी सामने नहीं आएगा पर सवाल हमेशा मंडराता रहेगा.

ऐसे तो घरों की छतें टूटने लगेंगी

फूड होम डिलिवरी सर्विस स्विग्गी का इस साल का नुकसान 3,629 करोड़ है. उस के साथ काम कर रही जोमैटो भी भारी नुकसान में है और उस ने 550 करोड़ की सहायता अभी किसी फाइनैंशियल इनवैस्टर से ली है. स्विग्गी को पिछले साल 1,617 करोड़ का नुकसान हुआ था पर फिर भी उस का मैनेजमेंट धड़ाधड़ पैसा खर्च करता रहा और अब यह नुकसान दोगुना से ज्यादा हो गया.

स्विग्गी की डिलिवरी से फूले नहीं समा रहे ग्राहक यह भूल रहे हैं कि इस नुकसान की कीमत उन से आज नहीं तो कल वसूली ही जाएगी. जितनी भी ऐप बेस्ड सेवाएं हैं वे मुफ्त या सस्ती होने के कारण भारी नुकसान में कुछ साल चलती हैं पर जब वे मार्केट पर पूरी तरह कब्जा कर लेती हैं तो खून चूसना शुरू कर देती हैं.

स्विग्गी अब धीरेधीरे छोटे रेस्तरांओं का बिजनैस खत्म कर रही है और वह क्लाउड किचनों से काम करा रही है. वह अब डिलिवरी बौयज को दी गई शर्तों पर काम करने को मजबूर कर रही है. स्विग्गी से जो रेस्तरां नहीं जुड़ता वह देरसवेर बंद हो जाता है चाहे उस रेस्तरां का खाना और उस की सेवा कितनी ही अच्छी क्यों न हो.

स्विग्गी ने घरों की औरतों को काम न करने का नशा डाल दिया है और इस के लिए 1 साल का 3,600 करोड़ का खर्च करता है. अगर औरतें घरों की किचन में नहीं घुसेंगी तो उन्हें देरसवेर वही खाना पड़ेगा जो स्विग्गी या उस जैसा कोई ऐप मुहैया करेगा. घरों में से किचन गायब हो जाएगी तो लोग दानेदाने के लिए किसी ऐप को तलाशेंगे.

जैसे अब किराने की दुकानों को अमेजन व जियो भारी नुकसान सह कर बंद करा रहे हैं वैसे ही स्विग्गी लोगों का स्वाद बदल रही है. आप वह खाइए जो मां या पत्नी ने नहीं बनाया और डिलिवर हुआ. मां या पत्नी का प्रेम उस खाने से पैदा होता है जो वे प्रेम से बनाती हैंखिलाती हैं. जब इस प्रेम की ही जरूरत नहीं होगी तो घर की छतें टूटने लगेंगी. यह बड़ी कौरपोरेशनों के लिए अच्छा है. सदियों तक राजा और धर्मों के ठेकेदार घरों से आदमियों को निकाल कर युद्ध या धर्म प्रचार में लगाते रहे हैं और दोनों काम करने वालों को जम कर लूटते रहे थे.

उन की औरतें बेबसअनचाहीकेवल बच्चे पैदा करने वाली मशीनें बन कर रह जाती थीं. अब इन औरतों को भी कौरपोरेशनों ने टारगेट करना शुरू कर दिया है और उन से किचन छिनवा दी है. सैनिकों या धर्म के सेवकों को मैसों व लंगरों में खाना खाना पड़ता थाएक जैसावही स्विग्गी करेगा. दिखावटीनकली सुगंध वाला खाना जिस में सस्ती सामग्री लगे लेकिन पैकिंग बढि़या हो और दाम इतने कि न दो तो खाना मिले ही नहीं.

भारत में नए साल पर स्विग्गी ने 13 लाख खाने डिलिवर किए क्योंकि इतने घरों की औरतों ने खाना बनाने से इनकार कर दिया. इस डिलिवरी में कौन लगा थास्विग्गी की स्लेव लेबर जो भीड़ में गरम खाना डिलिवर करने में लगी थी. उन के लिए न अब दीवाली त्योहार रह गया हैन नया साल.

3,600 करोड़ का खर्च इतनी बड़ी जनता को घरों में कैद करने में या मोटरबाइक पर गुलामी करने में कुछ ज्यादा नहीं है. इस का फायदा कोई तो उठा रहा है चाहे आप को वह दिखे न.

आत्मसम्मान का हक बहू को भी है

युवा पतिपत्नी को पति के मातापिता ने अलग से रहने का मकान दिलाया और उस को सुधारने में सारा खर्चा युवा पतिपत्नी ने अपनी दोनों की कमाई से उठाया. फिर पति की मां बीचबीच में आ कर टांग अड़ाने लगी कि यह सोफा साइड में रखो, परदों का रंग बदलो, घरेलू आया को घर से निकाल दो क्योंकि उस ने घंटी बजने पर दरवाजा खोलने में देर कर दी या फिर चाय दूधशक्कर वाली की जगह ग्रीन टी दे दी तो इस पति की मां को क्या कहेंगे?

यही न कि वह बेटेबहू का घर जोड़ नहीं रही, संभाल नहीं रही, तोड़ रही है. यह काम हमारे केंद्र सरकार के नियुक्त गवर्नर उन राज्यों में कर रहे हैं जहां भारतीय जनता पार्टी की सरकारें नहीं हैं.

दिल्ली में तो यह भयंकर रूप से एक के बाद एक राज्यपाल कर रहे हैं. भाजपा चाहे 7 की 7 संसद सीटें जीत जाए, पहले 2 बार वह विधानसभा में और इस बार दिल्ली नगर निगम चुनावों में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी से बुरी तरह हारी. अब वह उस सास की तरह व्यवहार कर रही है जिस के बेटे ने अपनी मरजी से शादी की और मां की ढूंढ़ी लड़कियों को रिजैक्ट कर दिया.

यह तंग करने का अधिकार भारतीय जनता पार्टी के डीएनए में है क्योंकि पुराणों में बारबार जिक्र है कि ऋषिमुनि राजा के दरबार में घुस कर जबरन राजा से काम कराते थे.

नरसिंह अवतार बन कर विष्णु ने हिरण्यकश्यप का अकारण वध किया. कृष्ण ने बिना वजह कौरवों व पांडवों के बीच मतभेद खड़े किए और इस कुरूवंश को समाप्त करा दिया. विश्वामित्र राम और लक्ष्मण को जबरन राक्षसों को मारने ले गए और सारी रामायण में उन की तरह के ऋषिमुनि अयोध्या के राजकाज में विघ्न डालते रहे.

जो कथा इन ऋषिमुनियों ने गढ़ी उन में तो राजा का काम उसी तरह ऋषियों की बेमतलब की बातों को थोपना था जैसा केंद्र सरकार के गवर्नर पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल, दिल्ली, छत्तीसगढ़, झारखंड में कर रहे हैं.

पौराणिक ऋषियों की दखलअंदाजी से पौराणिक कथाओं के राजा हर समय ऋषिमुनियों के आदेश पर लड़ने को मजबूर रहते थे और यही ऋषिमुनि आज घरों में युवा पत्नियों को परेशान करते हैं. आमतौर पर सासें किसी न किसी स्वामी महाराज, गुरु की भक्त होती हैं और रातदिन उन की सेवा में लगी रहती हैं. वे ही सासों को उकसाते हैं कि बहुओं को नकेल में डाल कर रखो.

जो सोचते हैं कि सरकार तो अपने कामकाज से सिर्फ गृहस्थी चलाने वालियों या गृहस्थी की आर्थिक स्थिति मजबूत करने में लगी है, वे गलत हैं क्योंकि हर जिंदगी का फैसला आज उसी तरह के पौराणिक सोच वाले लोगों के हाथों में आ चुका है. गवर्नरों की दखलअंदाजी, सरकारों की धौंस, बुलडोजरों से राज, हिंदूमुसलिम विवाद सब की काली छाया हर घर पर पड़ती है, सीधे या परोक्ष में.

अफसोस यह है कि औरतें बराबर की वोटर होते हुए भी पुरातनपंथी सोच को वरीयता देने में लगी हैं कि हमें क्या मतलब, जो पति कहेंगे वही कर लेंगे. यह दकियानूसीपन स्वतंत्रता को दान में देना है. यही औरतों को बेचारी बनाता है.

गवर्नरों का काम करने का तरीका है कि या तो हमारी मानो वरना हम नाक में दम कर के रखेंगे, यह सोच प्रधानमंत्री कार्यालय से शुरू होती है और छनछना कर हर घर तक पहुंच जाती है. क्या विद्रोह करने का, विरोध करने का, अपना आत्मसम्मान व आत्मविश्वास रखने का हक हर बहू को है या नहीं? क्या लोकतंत्र में विपक्ष की सरकारों को चलने का हक है या नहीं?

भांडा तो फूटा है मगर होगा क्या

लड़कियां मजबूत होंगी तो वे सैक्सुअल हैरेसमैंट से बच सकती हैं और उन्हें सैल्फ डिफेंस सीखना चाहिए. कुश्ती संघ के उधड़े जख्मों से अब साफ है कि वह बेकार है. जरूरत लड़कियों को शारीरिक रूप से मजबूत होने की नहीं है, उस सामाजिक ढांचे को पटकनी देने की है जो औरतों को एक पूरी जमात के तौर पर दबा कर रखता है.

भाजपा के ऊंची जाति के सांसद ब्रज भूषण सिंह खुद कुश्ती खेलना न जानते हों, वे ‘रैसलिंग फैडरेशन औफ इंडिया’ के प्रैसिडैंट हैं और उन के शैडो में सैकड़ों रैसलर सैक्सुअल हैरेसमैंट की शिकायतें ले कर उठ खड़ी हुई हैं.

रैसलिंग कैंपों, विदेशी टूरों, सिलैक्शन में कोचों और न जाने किनकिन को खुश करना पड़ता है तब महिला रैसलर विदेश व देश में मैडल पाने का मौका पाती हैं. हर महिला रैसलर की कहानी शायद मैडल के पीछे लगी पुरुष वीर्य की बदबू से भरी है. कदकाठी और ताकत में मजबूत होने के बाद रैसलरों को न जाने किसकिस को ‘खुश’ करना पड़ता है. रैसलर महिलाओं के साथ जो बरताव होता है उस के पीछे एक कारण है कि वे पिछड़ी जातियों से ज्यादा आती हैं जिन के बारे में हमारे धर्मग्रंथ चीखचीख कर कहते हैं कि वे तो जन्म ही सिर्फ सेवा करने के लिए लेती हैं. देश के देह व्यापार में यही लड़कियां छाई हुई हैं. जाति और समाज के बंधन रैसलर लड़कियों को सैक्सुअल हैरेसमैंट से मुक्ति नहीं दिला सकते. ऐसा बहुत से क्षेत्रों में होता है जहां औरतें अकेली रह जाती हैं. एक युग में जब काशी और वृंदावन हिंदू ब्राह्मण विधवाओं से भरे थे, जिन के घर वालों ने उन्हें त्याग दिया था. वहीं के पंडित संरक्षकों ने उन्हें विदेश ले जाए जा रहे गिरमिटिया मजदूरों के साथ भिजवाया था.

एक तरह से वे जापानी सेना की कंफर्ट वूमंस की तरह थीं जिन्हें कोरियाई सेना के साथ सैनिकों को सुख देने के लिए पकड़ कर रखा था. यह द्वितीय विश्वयुद्ध में हुआ था जब जापान ने कोरिया पर कब्जा कर लिया था. कोरियाई लड़कियां शारीरिक रूप से कमजोर थीं और जब देश ही हार गया हो तो वे क्या करें? अफसोस यह है कि बड़ीबड़ी बातें करने वाला समाज तुलसीदास का कथन औरतों को ताड़न का अधिकारी ही मानता है और सरकार समर्थक अपनी बात पर अड़े रहने के लिए ताड़ना शब्द का नयानया अर्थ रोज निकालते हैं. यही रैसलिंग फैडरेशन में होता है, सभी खेलों में होता है जहां चलती पुरुषों की है पर खेलती लड़कियां हैं. गांवों से आने वाली कम पढ़ीलिखी लड़कियां केवल कपड़े न उतारने की जिद के कारण चमकदमक, विदेशी दौरों, बढि़या रिहाइश का मौका नहीं खोना चाहतीं.

उन्हें बचपन से सिखाया गया है कि पिता, भाई, पति, ससुर के हर हुक्म को सिरआंखों पर रख कर मान लो. अब यह भांड़ा फूटा है पर होगा क्या? होगा यह कि विद्रोह करने वाली लड़कियों को शहद की बूंदों पर मंडराने वाली घरेलू मक्खियों की तरह मार दिया जाएगा. सरकारी आदेशों की हिट उन पर छिड़क दी जाएगी. अगले दौर में उन लड़कियों को लिया जाएगा जो पहले दिन से सर्वस्व देने को तैयार हों. न समाज बदलने वाला, न पुरुषों की लोलुपता और कामुकता. ऊपर से रामायण, महाभारत के किस्से स्पष्ट करते रहेंगे कि औरतो, तुम तो बनी ही यातनाएं सहने को, तुम्हें लक्ष्मण रेखाओं में रहना है, तुम्हें अग्नि में जलना है या भूमि में समाना है, तुम्हें एक नहीं कई पतियों को खुश रखना है, वंश चलाने के लिए व नपुंसक पतियों की इज्जत बचाने के लिए तुम्हें दूसरे पुरुषों के हवाले किया जा सकता है. वह स्वर्ण पौराणिक युग फिर लौट आया है. राम और कृष्ण की जन्मभूमियों को नमन करो और फैडरेशन के अफसरों को खुश करो वरना न पैसा मिलेगा, न 2 वक्त की कुछ दिन अच्छी रोटी मिलेगी.

मिलेट्स से बने हेल्दी फूड के बारें में क्या कहती है महिला उद्यमी विद्या जोशी, जानें यहां

अगर जीवन में कुछ करने को ठान लिया हो तो समस्या कितनी भी आये व्यक्ति उसे कर गुजरता है. कुछ ऐसी ही कर दिखाई है, औरंगाबाद की महिला उद्यमी विद्या जोशी. उनकी कंपनी न्यूट्री मिलेट्स महाराष्ट्र में मिलेट्स के ग्लूटेन और प्रिजर्वेटिव फ्री प्रोडक्ट को मार्किट में उतारा है, सालों की मेहनत और टेस्टिंग के बाद उन्होंने इसे लोगों तक परिचय करवाया है, जिसे सभी पसंद कर रहे है. उनके इस काम के लिए चरक के मोहा ने 10 लाख रुपये से सम्मानित किया है. उनके इस काम में उनका पूरा परिवार सहयोग देता है.

किये रिसर्च मिलेट्स पर

विद्या कहती है कि साल 2020 में मैंने मिलेट्स का व्यवसाय शुरू किया था. शादी से पहले मैंने बहुत सारे व्यवसाय किये है, मसलन बेकिंग, ज्वेलरी आदि करती गई, लेकिन किसी काम से भी मैं पूरी तरह संतुष्ट नहीं हो पा रही थी. मुझे हमेशा से कुछ अलग और बड़ा करना था, लेकिन क्या करना था, वह पता नहीं था. उसी दौरान एक फॅमिली फ्रेंड डॉक्टर के साथ चर्चा की, क्योंकि फ़ूड पर मुझे हमेशा से रूचि थी, उन्होंने मुझे मिलेट्स पर काम करने के लिए कहा. मैंने उसके बारें में रिसर्च किया, पढ़ा और मिलेट्स के बारें में जानने की कोशिश की. फिर उससे क्या-क्या बना सकती हूँ इस बारें में सोचा, क्योंकि मुझे ऐसे प्रोडक्ट बनाने की इच्छा थी, जिसे सभी खा सके और सबके लिए रुचिकर हो. किसी को परिचय न करवानी पड़े. आम इडली, डोसा जैसे ही टेस्ट हो. इसके लिए मैंने एक न्यूट्रीशनिस्ट का सहारा लिया, एक साल उस पर काम किया. टेस्ट किया, सबको खिलाया उनके फीड बेक लिए और फीडबेक सही होने पर मार्किट में लांच करने के बारें में सोचा.

मिलेट्स है पौष्टिक

विद्या आगे कहती है कि असल में मेरे डॉक्टर फ्रेंड को नैचुरल फ़ूड पर अधिक विशवास था. उनके कुछ मरीज ऐसे आते थे, जो रोटी नहीं खा सकते थे, ऐसे में उन्हें ज्वार, बाजरी, खाने के लिए कहा जाता था, जिसे वे खाने में असमर्थ होते थे. कुछ नया फॉर्म इन चीजो को लेकर बनाना था, जिसे लोग खा सकें. मसलन इडली लोग खा सकते है, मुझे भी इडली की स्वाद पसंद है. उसी सोच के साथ मैंने एक प्रोडक्ट लिस्ट बनाई और रेडी टू कुक को पहले बनाना शुरू किया, इसमें इडली का आटा, दही बड़ा, अप्पे, थालपीठ आदि बनाने शुरू किये. ये ग्लूटेन और राइस फ्री है. उसमे प्रीजरवेटिव नहीं है और सफ़ेद चीनी का प्रयोग नहीं किया जाता है. इसमें अधिकतर असली घी और गुड से लड्डू, कुकीज बनाया जाता है. इन सबको बनाकर लोगों को खिलाने पर उन्हें जब पसंद आया, तब मैंने व्यवसाय शुरू किया. इसमें मैंने बैंक से मुद्रा लोन लिया है. मैंने ये लोन मशीन खरीदने के लिए लिया था. सामान बनाने से लेकर पैकिंग और अधिक आयल को प्रोडक्ट से निकालने तक की मशीन मेरे पास है.

हूँ किसान की बेटी

विद्या कहती है कि नए फॉर्म में मैंने मिलेट्स का परिचय करवाया. इसमें सरकार ने वर्ष 2023 को मिलेट्स इयर शुरू किया जो मेरे लिए प्लस पॉइंट था. मैं रियल में एक किसान की बेटी हूँ, बचपन से मैंने किसानी को देखा है, आधा बचपन वहीँ पर बीता है. मेरे पिता खेती करते थे, नांदेड के गुंटूर गांव में मैं रहती थी. 11 साल तक मैं वही पर थी. कॉलेज मैंने नांदेड में पूरा किया. मैंने बचपन से ज्वार की रोटी खाई है. शहर आकर गेहूँ की रोटी खाने लगी थी. मेरे परिवार में शादी के बाद मैंने देखा है कि उन्हें ज्वार, बाजरी की रोटी पसंद नहीं, पर आब खाने लगे. बच्चे भी अब मिलेट्स की सभी चीजे खा लेते है. ज्वार, बाजरा, नाचनी, रागी, चेना, सावा आदि से प्रोडक्ट बनाते है.

मुश्किल था मार्केटिंग

विद्या को मार्किट में मिलेट्स से बने प्रोडक्ट से परिचय करवाना आसान नहीं था. विद्या कहती है कि मैंने व्यवसाय शुरू किया और कोविड की एंट्री हो चुकी थी. मेरा सब सेटअप तैयार था, लेकिन कोविड की वजह से पहला लॉकडाउन लग गया, मुझे बहुत टेंशन हो गयी. बहुत कठिन समय था, सभी लोग मुझे व्यवसाय शुरू करने को गलत कह रहे थे, क्योंकि ये नया व्यवसाय है, लोग खायेंगे नहीं. लोगों में मिलेट्स खाने को लेकर जागरूकता भी नहीं थी, जो आज है. इसमें भी मुझे फायदा यह हुआ है कि कोविड की एंट्री से लोगों में स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता बढ़ी है. हालाँकि दो महीने मेरा यूनिट बंद था, क्योंकि मैं लॉकडाउन की वजह से कही जा नहीं सकती थी, लेकिन लोग थोडा समझने लगे थे. बैंक का लोन था, लेकिन उस समय मेरे पति ने बहुत सहयोग दिया, उन्होंने खुद से लोन भरने का दिलासा दिया था. इसके बाद भी बहुत समस्या आई, कोई नया ट्राई करने से लोग डर रहे थे. शॉप में भी नया प्रोडक्ट रखने को कोई तैयार नहीं था, फिर मैंने सोशल मीडिया का सहारा लिया. तब पुणे से बहुत अच्छा रेस्पोंस मिला. वह से आर्डर भी मिले. इसके अलावा शॉप के बाहर भी सुबह शाम खड़ी होकर मिलेट्स खाने के फायदे बताती थी. बहुत कठिन समय था. अब सभी जानते है. आगे भी कई शहरों में इसे भेजने की इच्छा है.

मिलेट्स होती है सस्ती

विद्या का कहना है कि ये अनाज महंगा नहीं होता, पानी की जरुरत कम होती है. जमीन उपजाऊं अधिक होने की जरुरत नहीं होती. इसमें पेस्टीसाइड के प्रयोग की आवश्यकता नहीं होती. इसलिए इसके बने उत्पाद अधिक महंगे नहीं होते. मैं बाजार से कच्चे सामान लेती हूँ. आगे मैं औरंगाबाद के एग्रीकल्चर ऑफिस से सामान लेने वाली हूँ. किसान उनके साथ जुड़े होते है. वहां गुणवत्ता की जांच भी की जाती है. अच्छी क्वालिटी की प्रोडक्ट ली जाती है. सामान बनने के बाद भी जांच की जाती है. हमारे प्रोडक्ट में भी प्रिजेर्वेटिव नहीं होते. कई प्रकार के आटा, थालपीठ, ज्वार के पोहे, लड्डू आदि बनाती हूँ. मैं औरंगाबाद में रहती हूँ. गोवा, पुणे, चेन्नई और व्हार्ट्स एप ग्रुप और औरंगाबाद के दुकानों में भेजती हूँ. इसके अलावा मैं जिम के बाहर भी स्टाल लगाती हूँ.

मिला सहयोग परिवार का

परिवार का सहयोग के बारें में विद्या बताती है कि मैं हर दिन 10 से 12 घंटे काम करती हूँ, इसमें किसी त्यौहार या विवाह पर गिफ्ट पैकिंग का आर्डर भी मैं बनाती हूँ. सबसे अधिक सहयोग मेरे पति सचिन जोशी करते है, जो एक एनजीओ के लिए काम करते है. मेरे 3 बच्चे है, एक बड़ी बेटी स्नेहा जोशी 17 वर्ष और जुड़वाँ दो बच्चे बेदांत और वैभवी 13 वर्ष के है. बच्चे अब बड़े हो गए है, वे खुद सब काम कर लेते है. मेरी सास है, वह भी जितना कर सकें सहायता करती है. सहायता सरकार से नहीं मिला, लेकिन चरक के मोहा से मुझे 10 लाख का ग्रांट मिला है, जिससे मैं आगे मैं कुछ और मशीनरी के साथ इंडस्ट्रियल एरिया में जाने की कोशिश कर रही हूँ. अभी मैं मिलेट्स की मैगी पर काम कर रही हूँ. जो ग्लूटेन फ्री होगा और इसका ट्रायल जारी है. 5 लोगों की मेरे पास टीम है. प्रोडक्ट बनने के बाद न्यूट्रशनिस्ट के पास भेजा जाता है, फिर ट्रायल होती है. इसके बाद उसका टेस्ट और ड्यूरेबिलिटी देखी जाती है. फिर लैब में इसकी गुणवत्ता की जांच की जाती है.

सस्टेनेबल है मिलेट्स

स्लम एरिया में प्रेग्नेंट महिलाओं को मैं मिलेट्स के लड्डू देती हूँ, ताकि उनके बच्चे स्वस्थ पैदा हो. अधिकतर महिलायें मेरे साथ काम करती है. इसके अलावा तरुण भारत संस्था के द्वारा महिलाओं को जरुरत के अनुसार ट्रेनिंग देकर काम पर रखती हूँ. उन्हें जॉब देती हूँ, इससे उन्हें रोजगार मिल जाता है.

मिलेट्स से प्रोडक्ट बनाने के बाद निकले वेस्ट प्रोडक्ट को दूध वाले को देती हूँ, जो दुधारू जानवरों को खिलाता है. इस तरह से कुछ भी ख़राब नहीं होता. सब कंज्यूम हो जाता है.

भारत में दलितों के प्रति भेदभाव

अमेरिका के एक शहर सीएटल में एक भारतीय मूल की नगर पार्षद की मेहनत से जाति के नाम पर भेदभाव को धर्म, रंग, रेस, सैक्स, शिक्षा, पैसे के साथ जोड़ दिया गया है. हालांकि अमेरिका में भारतीय मूल के लोग ही कम हैं और सिएटल में तो और भी कम पर इस से भी भारतीय मूल के ऊंची जातियों के भारतीय बहुत खफा हैं.

भारतीय मूल के ऊंची जातियों वाले बड़ी कंपनियों में अक्सर दिखते हैं. तमिल ब्राह्मïणों की एक बड़ी लौवी वहां टैक कंपनियों में है जहां रटतुपीरों की बहुत जरूरत होती है और ब्राह्मïणों के मंत्रों की याद रखने की सदियों की आदत है. इन्होंने इस सिएटल के कानून को भारत और भारतीयता के खिलाफ होने की जंग छेड़ी हुई है.

भारत सरकार दलितों के प्रति भेदभाव को हमेशा से छिपाती रही है पर असल में हमारी समस्या वही नहीं है, हमारी एक बड़ी समस्या सवर्ण औरतों के प्रति देश और विदेश में हो रहे भेदभाव है. सती प्रथा क्या थी. सती महिला क्या है. दहेज प्रथा क्या है. भोगलिक होने का दोष क्या है. 16 शुक्रवारों के व्रत अच्छे पति को पाने के लिए क्या हैं. करवाचौथ क्या है. विधवाओं की मांगलिक कामों में अलग रखना क्या है. यह सवर्ण औरतों के साथ होने वाला भेदभाव है जो आज भी औरतें सह रही हैं. सासससुर की सेवा, पति का आदरसम्मान करना, कामकाजी हैं तो सारा वेतन पति के पास में रख देना, केवल पत्नी ही रसोई में जाए, यह सोचना, ये सब स्वर्ण औरतों के प्रति भेदभाव हैं.

जब औरतों के नाम पर जाति व्यवस्था आज खुलेआम पनप रही है तो देशभर में फैली हुई जाति व्यवस्था का एक्सपोर्ट नहीं हुआ होगा. यह कैसा तर्क है. हर भारतीय जब एयरक्राफ्ट में बैठना ही उस के सिर पर एक अदृश्य गठरी होती है जिस में अंधविश्वास, रीतिरिवाज, पूजापाठ, दानपुण्य के साथ जातिगत अहम अहंकार या जातिगत दयनीयता साथ होती है. अमेरिका में भारतीय मजदूर कम गए हैं पर जो गए हैं वे ऊंची जातियों के शिक्षिकों के साथ उठतेबैठते नहीं हैं. उन के घर मोहल्ले अलगथलक हैं.

अमेरिका में रह कर कुछ बदलाव आया है पर यह तो भारत के शहरों में भी हुआ है पर जोरजबरदस्ती, सरकारी फ्लैटों में हर जाति के लोगों को अगलबगल रहना पड़ता है पर जल्दी ही औरतों का लेनदेन जाति के अनुसार हो जाता है. यही आदत औरत होने की जाति व्यवस्था में बदल जाती है. लगभग सभी ग्रंथों ने औरतों को निम्य स्तर दिया है तो भारतीय धर्म ग्रंथ क्यों पीछे रहते. औरतों की इस देश में जब बात होती है तो वह दलितों की औरतों की क्या, ओबीसी की औरतों की कम, स्वर्ण औरतों की ज्यादा होती है कि आज भी वे अत्याचार व अत्याचार घरों की 4 दीवारो में सह रही हैं. अफसोस यह है कि देश की पढ़ीलिखी, सक्षम, एक्टीविस्ट औरतें भी इस जातिगत व्यवस्था पर चुप हैं. पितृ….समाज का अर्थ यही है कि औरत जाति को दबा कर रखा जाए. तेजाब फैकने की घटनाएं हो या भ्रूण हत्या की या दहेज हत्या की, यह ङ्क्षहदू स्वर्ण औरतों के साथ ज्यादा होता है जहां तकनीक भी मालूम है और जरूरत भी.

किट्टी पाॢटयां और लंबे घंटों या दिनों चलने वाले धाॢमक अनुष्ठïान एक तरह से सवर्ण ङ्क्षहदू औरतों को उलझाए रखने के लिए गढ़े गए हैं ताकि वे इन में बिजी रहें. घरों में ओबीसी जाति की मेड्र्स होने से जो औरतें खाली हो गई उन्हें काम पर जाने की छूट कम दी गई, उधरउधर फंसा दिया गया. बच्चों को, घर को, बूढ़े होते मांबाप को कौन संभालेगा कह कर सवर्ण औरतों पर जाति व्यवस्था को सीखा पाठ थोपा गया है. पहले वहीं सती होती थीं भी या विधवाओं के शहरों वृंदावन या काशी में झोंक दी जाती थीं. आज यह मानसिकता दूसरे रूप में पनप रही है. यह कम दिखे पर दिलों पर उतनी ही गहरी चोट करती है जितनी अमेरिका के दलितों के दिल पर जिन्होंने यह कानून बनवाया है.

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