आप भी कर सकती हैं पुरुषों वाले काम

मैं  कल रात को अपनी सहेली मुसकान के घर के ड्राइंगरूम में बैठी उस से गपशप कर रही थी कि अचानक वहां की बत्ती गुल हो गई. सभी अन्य रूम्स की लाइट थी.

‘‘ओह, लगता है, यहां का बल्ब फ्यूज हो गया. रौनित भी घर पर नहीं हैं. अब बल्ब कौन बदलेगा?’’ वह ?झुंझलाते हुए बोली.

‘‘अरे, इतना क्यों ?झुंझला रही हो? बल्ब ही तो फ्यूज हुआ है. बदल दे. कोई आसमान तो नहीं टूट पड़ा.’’

‘‘मुझे बल्ब बदलना नहीं आता. यह काम मर्दों का है. हम औरतों का नहीं.’’

‘‘एक्सक्यूजमी, यह तूने क्या बोला? वैसे तो घर के बाहर बड़ी स्त्रीपुरुषों की समानता के ?ांडे हर समय गाड़ती रहती है और घर के कामों में यह भेदभाव? तू क्यों नहीं बदल सकती फ्यूज्ड बल्ब? यह कोई रौकेटसाइंस तो नहीं.’’

‘‘अरे बाबा, मैं ने आज तक कभी घर में फ्यूज्ड बल्ब नहीं बदला. हमेशा रौनित ही

बदलते हैं.’’

‘‘और अगर कभी रौनित के पीछे बल्ब फ्यूज हो जाए तो क्या करेगी? तेरी बड़ी बेटी की बिटिया तेरे पास ही रहती है न? अभी बहुत छोटी है. रौनित कभीकभी औफिस के टूर पर भी जाते हैं न. जरा सोच, कभी उन की गैरमौजूदगी में देर रात तेरे रूम का बल्ब फ्यूज हो जाए और वह अचानक जोर से रोने लगे, तो क्या करेगी? रौनित का वेट करेगी, कब वे दौरे से वापस आएं और बल्ब बदलें? ’’ मैं ने कुछ सोच कर तनिक मुसकराते हुए उस से पूछा.

‘‘मैं… मैं…’’ मेरे इस सवाल पर वह बगलें ?ांकने लगी.

हर काम बराबर

तब मैं ने उसे सम?ाया, ‘‘घर के काम में मेलफीमेल पर आधारित किसी तरह का कोई विभाजन नहीं होना चाहिए. आज जब जिंदगी के हर क्षेत्र में स्त्री और पुरुष कंधे से कंधा मिला कर चल रहे हैं तो उन्हें घर बाहर का हर कार्य भी करना आना चाहिए. मैं तो अपने बेटेबेटी से हर वह काम करवाती हूं तकि उन्हें कभी किसी भी काम को करने में कोई दिक्कत न आए.

‘‘मेरा 19 साल का बेटा औरतों का ठप्पा लगे सारे काम जैसे सब्जीफल, हरी पत्तेदार सब्जी काटने, धोने, कुकिंग, डाइनिंग टेबल लगाने, अपने कपड़े धोने, घर की साफसफाई उतनी ही निपुणता से करता है, जितनी दक्षता से मेरी 21 साल की बेटी आदमियों का लेबल लगे काम जैसे फ्यूज बदलना, नया बल्ब लगाना, अपनी स्कूटी, घर के बिजली के लगभग सभी उपकरणों की छिटपुट मरम्मत करने, बिजली, पानी के बिल औनलाइन या औफलाइन जमा करवाना, बैंक, बीमा दफ्तर के काम, घर की गाड़ी, स्कूटी के टायर बदलना, अपने कालेज के सभी औफिशियल काम, कपड़े, सब्जी, राशन खरीदने, गैस सिलिंडर बदलने जैसे काम करने में ऐक्सपर्ट है.

यह आज के समय की मांग है, मुसकान. मेरी परवरिश की इसी खासीयत की वजह से आज मेरी 27 साल की सब से बड़ी विवाहित बेटी अमेरिका जैसे देश में जहां लेबर बेहद महंगी है, घरबाहर का हर काम बिना रोएधोए कर रही है. वहां तो उसे अपना फ्लैट बदलने पर अपने पति के साथ घर के सामान की पैकिंग, उसे गाड़ी में चढ़ाना, उतारना जैसे काम भी करने पड़ते हैं.

अमेरिका में रहते हुए शादी से पहले उस ने ये सारे काम अकेले अपने दम पर किए. अब बता अगर मैं भी उस से बचपन से बस लेडीज के काम करवाती तो क्या वह अमेरिका जैसे देश में ठीक से ऐडजस्ट हो पाती, वहां चैन से रह पाती?’’

मुसकान मेरी बातें ध्यान से सुन रही थी. मेरी बात खत्म होने पर वह बोली, ‘‘बात तो तू शतप्रतिशत सही कह रही है. यह तो मैं ने कभी सोचा ही नहीं. अब से तो मैं भी अपने बेटेबेटी से बिना किसी भेदभाव के घरबाहर का हर काम करवाऊंगी. वे दोनों तो अभी बहुत छोटे हैं. सब सीख जाएंगे. थैंक्स सो मच फ्रैंड, मु?ो इतनी पते की बात बताने के लिए.’’

‘‘थैंक्स जो तूने मेरी बात को इतनी

तवज्जो दी.’’

‘‘तो चल मैं आज तुझे बताती हूं अलगअलग तरह के बल्बों को बदलने का तरीका.’’

तो चलिए पाठको, मैं ने जो कुछ मुसकान को बताया, वही सब मैं आज आप के साथ भी शेयर करती हूं:

पावर सप्लाई औफ करें

बल्ब किसी भी प्रकार का हो, सर्वप्रथम बल्ब की पावर सप्लाई के स्विच को औफ कर दें. इस से आप को फ्यूज बल्ब बदलते वक्त करंट लगने का खतरा नहीं रहेगा.

यदि बल्ब जलतेजलते आप के सामने फ्यूज हुआ है तो उस स्थिति में उसे ठंडा होने के लिए कुछ वक्त दें, जिस से आप की हथेली और उंगलियां सुरक्षित रहें. देर तक जलते बल्ब के अचानक बंद होने पर उसे छूने भर से आप की हथेली और उंगलियां जल सकती हैं.

किसी भारी ऊंची चीज का इंतजाम करें

बल्ब बदलने के लिए किसी सुरक्षित सतह पर खड़े होने के लिए एक कुरसी, स्टूल, टेबल अथवा सीढ़ी का इंतजाम करें ताकि आप ऊंचाई पर बिना लड़खड़ाए या डगमगाए सुरक्षित खड़े हो पाएं.

अब मैं बताऊंगी कि आप विभिन्न प्रकार के बल्ब को फ्यूज होने की स्थिति में कैसे बदल सकती हैं?

फ्यूज बल्ब बदलने की विधि

स्टैप-1: फ्यूज बल्ब को बिना जोर दिए हथेली की जकड़ में लेते हुए थामें. अब उसे बांईं ओर घुमाने का प्रयास करें. बल्ब अपनी सौकेट से आसानी से निकल आएगा.

स्टैप-2: अब नए बल्ब को सौकेट में क्लौकवाइज दिशा में घुमा कर फिट कर दें. पावर सप्लाई के स्विच को औन कर दें. आप के नए बल्ब की रोशनी से आप का रूम रोशन हो उठेगा.

 

 

विरासत को लेकर मां बेटों के बीच जंग

पिछले कुछ समय से दिवंगत उद्योगपति के. के. मोदी के परिवार में 11,000 करोड़ रुपये की विरासत को लेकर विवाद चल रहा है. हाल ही में के. के. मोदी के छोटे बेटे और गॉडफ्रे फिलिप्स के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर समीर मोदी ने अपनी मां बीना मोदी पर हमले की साजिश रचने का आरोप लगाया है जिस से परिवार के सदस्यों के बीच विरासत को लेकर झगड़ा और बढ़ गया है.

समीर ने 31 मई को दिल्ली पुलिस में शिकायत दर्ज कराई. इस में उन्होंने अपनी मां, उनके निजी सुरक्षा अधिकारी (PSO) और गॉडफ्रे फिलिप्स के डायरेक्टर्स पर उन्हें गंभीर चोट पहुंचाने का आरोप लगाया. बीना मोदी भी गॉडफ्रे फिलिप्स की डायरेक्टर हैं. समीर ने बताया कि 30 मई को जब वह दिल्ली के जसोला में जीपी की निर्धारित बोर्ड मीटिंग में घुसने की कोशिश की तो बीना मोदी के पीएसओ ने उन्हें मीटिंग में घुसने से रोक दिया. जब उन्होंने जोर दिया तो पीएसओ ने उन्हें धक्का देने की कोशिश की और कहा कि उन्हें बोर्ड मीटिंग में घुसने की अनुमति नहीं है.

बकौल समीर, ‘मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरे ही कार्यालय में मेरे साथ मारपीट की जाएगी जबकि शेयरों के निपटान पर अदालत में मामला लंबित है, मैं अब अपनी हिस्सेदारी नहीं बेचूंगा. मुझे बोर्ड से हटाने का प्रयास किया जा रहा है जो संभव नहीं होगा.’

बाद में गॉडफ्रे फिलिप्स के प्रवक्ता ने इस आरोप को खारिज कर दिया मगर चोट समीर के हाथ और दिल पर देखी जा सकती है. अपनी ही मां के द्वारा इस तरह का व्यवहार किसी को भी चोट पहुंचा सकता है. मगर जब मामला संपत्ति का हो तो इस तरह रिश्तों में दूरियां आना बहुत स्वाभाविक है. विरासत की जंग अक्सर ऐसे ही मंजर ले कर आती है.

ललित मोदी ने भाई के साथ हुई इस घटना को  को ले कर X पर पोस्ट लिखा, ‘मेरे भाई को इस हालत में देखकर मेरा दिल टूट गया. एक मां का उसके सुरक्षाकर्मियों द्वारा बेटे को इस तरह पीटा जाना कि उसका हाथ खराब हो जाए चौकाने वाला है. जबकि समीर का एकमात्र दोष एक बैठक में भाग लेना था.’
दरअसल संपत्ति ऐसी चीज है जो रिश्तों में दूरी लाने का सब से बड़ा कारण बनती है. सम्पत्ति के लिए मां बेटे, बाप बेटे, भाई भाई या भाई बहन को भी झगड़ते देखा जा सकता है. साधारण परिवार हो या अरबों का साम्राज्य हो, संपत्ति के लिए रिश्तों में क्लेश और द्वेष का बढ़ना बहुत स्वाभाविक है. पैसा चीज ही ऐसी है जो रिश्तों में कड़वाहट लाती है. लोग आपस में ही उलझ जाते हैं. अपनों के बीच मुकदमेबाजी होती है. सालों कोर्ट कचहरी के चक्कर लगते हैं. एक दूसरे को ख़त्म करने के षड्यंत्र होते हैं. हाल में ऐसा ही नजारा कुछ बड़े नामचीन और अरबों खरबों का व्यवसाय चलाने वाले खानदानों में दिख रहा है. विरासत की लड़ाइयां उन्हें अपनों के विरुद्ध कोर्ट तक खींच कर ले जा रही है.

केके मोदी परिवार में विरासत की जंग

इस साल फरवरी में दिवंगत केके मोदी के बेटे समीर मोदी ने अपनी मां बीना मोदी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की. उन्होंने उन पर परिवार की 11,000 करोड़ रुपये की विरासत को गलत तरीके से संभालने का आरोप लगाया है. यह विवाद गॉडफ्रे फिलिप्स की हिस्सेदारी और मोदी समूह के अन्य शेयरों के वितरण से जुड़ा है. समीर जो पहले अपनी मां के साथ थे अब ट्रस्ट डीड के तत्काल क्रियान्वयन की मांग में अपने भाई ललित का समर्थन कर रहे हैं. परिवार ने शुरू में ट्रस्ट को भंग करने पर असहमति जताई थी जिस के कारण ललित मोदी ने पहले मां के खिलाफ कानूनी लड़ाई शुरू की थी. उस समय वह अकेले थे मगर अब भाई समीर भी उन के साथ है.

समीर मोदी ने सुप्रीम कोर्ट में बीना मोदी पर अपने पिता द्वारा निष्पादित ट्रस्ट डीड में निर्धारित धन वितरित नहीं करने का आरोप लगाया है. उन्होंने उन पर गॉडफ्रे फिलिप्स के मामलों को नियंत्रित करने और ट्रस्ट डीड के अनुसार न चलने का भी आरोप लगाया है. विरासत में सूचीबद्ध गॉडफ्रे फिलिप्स में परिवार की लगभग 50% हिस्सेदारी शामिल है जिसकी मौजूदा कीमत 5,500 करोड़ रुपये से अधिक है. साथ ही कॉस्मेटिक्स, रिटेल और डायरेक्ट सेलिंग जैसे क्षेत्रों में मोदी समूह की अन्य फर्मों में भी शेयर शामिल हैं. बीना मोदी अब कंपनी के कामकाज को संभाल रही हैं. यही विवाद की जड़ है.

समीर मोदी चाहते हैं कि ट्रस्ट डीड को लागू किया जाए. आने वाले समय के लिए एक पारिवारिक समझौते की परिकल्पना की गई है जिसमें समीर मोदी, ललित मोदी और चारू मोदी कंपनियों और संपत्तियों के बराबर लाभार्थी और उत्तराधिकारी हों. बीना मोदी की भूमिका ऐसे समझौते को संभव बनाने तक ही सीमित होनी चाहिए.

शुरू में समीर मोदी और बहन चारू मोदी ने अपनी मां का समर्थन किया था जब उन्होंने केके मोदी की मृत्यु के बाद 30 नवंबर, 2019 को दुबई में एक पारिवारिक बैठक में फैसला किया था कि पारिवारिक ट्रस्ट जारी रहेगा. उस बैठक में ललित मोदी ने ट्रस्ट को भंग करने और विरासत की आय के वितरण की मांग की थी. उन्होंने विरासत को वितरित करने के लिए गॉडफ्रे फिलिप्स को बेचने का भी प्रस्ताव रखा था.

चारू और समीर मोदी ने ट्रस्ट को जारी रखने की अपनी मां की इच्छा का समर्थन किया था जिससे ललित मोदी अकेले असहमत रह गए थे. बीना मोदी ने तब विवाद को सुलझाने के लिए ललित मोदी को उनका हिस्सा देने की योजना बनाई थी. लेकिन समीर मोदी ने अब अपने भाई के साथ मिलकर मांग की है कि वितरण योजना का तुरंत पालन किया जाए.

केके मोदी ने अपनी पत्नी और तीन बच्चों के बीच विरासत को समान रूप से विभाजित करने का प्रस्ताव रखा था. उनकी पत्नी की मृत्यु की स्थिति में उनकी विरासत तीन बच्चों के बीच समान रूप से वितरित की जाएगी जो फिर इसे अपने वंशजों को दे सकते हैं. इसका मतलब यह था कि चारू, ललित और समीर अंततः पारिवारिक विरासत के एक तिहाई के हकदार होंगे.

ट्रस्ट डीड में शामिल चेतावनियों में उत्तराधिकारियों को ट्रस्ट को भंग करने और परिवार की संपत्ति को इस अनुपात में वितरित करने का विकल्प भी दिया गया था. इसमें यह भी बताया गया था कि यदि कोई सदस्य ट्रस्ट को जारी रखने का विरोध करता है तो उसे भंग करना होगा. उस समय बीना मोदी और उनके दो बच्चों ने इसे जारी रखने का समर्थन किया लेकिन ललित मोदी ने कानूनी रास्ता अपनाया था और भारत की अदालतों और सिंगापुर में मध्यस्थता न्यायाधिकरण का दरवाजा खटखटाया था क्योंकि उनकी मां और भाई-बहनों ने उनकी मांग को स्वीकार नहीं किया था. उन मुकदमों का भी अभी तक फैसला नहीं हुआ है.

फैमिली बैकग्राउंड

ललित मोदी जून 2015 से ही भारत की वॉन्टेड लिस्ट में हैं और अभी भारत से भागकर लंदन में रह रहे हैं. आज के समय में भगौड़ा घोषित किए गए ललित मोदी का ताल्लुक देश के दिग्गज कारोबारी घराने से है. उनके दादा ने एक पूरा शहर बसाया था. ललित मोदी के दादा राय बहादुर सेठ गुजरमल मोदी ने पूरे मोदीनगर को बसाया था.  साल 1933 में उन्होंने दिल्ली से करीब 50 किलोमीटर दूर गाजियाबाद के बेगमाबाद में 100 बीघा जमीन खरीदी. यहां पर उन्होंने इंग्लैंड से लाई मशीनों से एक चीनी मिल शुरू की. आज ये इलाका मोदीनगर के नाम से जाता है.

ललित मोदी के पिता कृष्ण कुमार मोदी यानी केके मोदी की शादी 1961 में बीना मोदी से हुई. शादी के वक्त बीना मोदी दिल्ली में थाई रेस्टोरेंट चलाती थीं. शादी के करीब दो साल बाद 29 नवंबर 1963 को ललित मोदी का जन्म हुआ. ललित मोदी के अलावा केके मोदी के दो और बच्चे हैं, चारू मोदी (सबसे बड़ी) और समीर मोदी (सबसे छोटे). चारू मोदी भारती मोदी ग्रुप की तरफ से चलाए जा रहे एजुकेशनल वेंचर को संभालती हैं. वहीं दूसरी ओर समीर मोदी रिटेल और कॉस्मेटिक्स वेंचर संभालते हैं. चारू मोदी के दो बच्चे हैं, बेटी प्रियल और बेटा अशरथ. समीर मोदी ने शिवानी से शादी की है और उनकी दो बेटियां वेदिका और जयती हैं. ललित मोदी के दो बच्चे हैं रुचिर और आलिया. रुचिर की एक सौतेली बहन भी हैं जिनका नाम करीमा सागरनी है.

ललित मोदी ने दो शादियां की. पहली शादी मीनल से की थी जो उनकी मां बीना मोदी की सहेली थीं. उस वक्त ललित मोदी से उम्र में 9 साल बड़ी मीनल से शादी करने को लेकर चर्चा में आए थे. फिर वह अपने से 12 साल छोटी सुष्मिता सेन के साथ रिश्ते को लेकर चर्चा में रहे. 2018 में मीनल मोदी का कैंसर के कारण निधन हो गया था. मीनल हिंदू थी लेकिन उन के पहले पति और बेटी मुस्लिम हैं. ललित मोदी उनके दूसरे पति थे. ललित मोदी करीमा के सौतेले पिता हैं जिनकी शादी डाबर समूह के विवेक बर्मन के बेटे गौरव बर्मन से हुई है. यानी ललित मोदी की सौतेली बेटी डाबर समूह की बहू भी हैं.

ललित मोदी के बेटे रुचिर मोदी फैमिली बिजनेस से जुड़े हुए हैं. नवंबर 2020 में  रुचिर ने कॉरपोरेट अफेयर्स मिनिस्ट्री को पत्र लिखकर सेबी से जांच कराने की मांग तक कर डाली थी और दादी बीना मोदी पर आरोप लगाए थे. उन्होंने लिखा था कि पब्लिक शेयरहोल्डर्स की ओर से दादी बीना मोदी को बेदखल कर दिया गया. इसके बाद भी वो कंपनी को बतौर प्रेसिडेंट और डायरेक्टर संभाल रही हैं. पिछले साल ललित ने अपने बेटे रुचिर मोदी को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर के बिजनेस संभालने की कमान सौंप दी. अब रुचिर मोदी के पास बिजनेस को बढ़ाने के साथ इस विवाद से निपटने की जिम्मेदारी भी है. ललित मोदी ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाने के साथ 4,555 करोड़ रुपए की संपत्ति भी सौंपी है.

वह मोदी केयर और गॉडफ्रे फिलिप इंडिया लिमिटेड के डायरेक्टर हैं. कंपनी की ऑफिशियल वेबसाइट के मुताबिक रुचिर ही मोदी वेंचर्स के फाउंडर भी हैं. वह ट्वेंटी फोर सेवन कन्वीनियंस स्टोर्स और कलर बार कॉस्मेटिक ब्रांड के प्रोजेक्ट को लीड कर रहे हैं. ब्रिटेन से बिजनेस मैनेजमेंट की पढ़ाई करने वाले रुचिर राजस्थान में अलवर डिस्ट्रिक्ट क्रिकेट एसोसिएशन के प्रेसिडेंट भी हैं. पिता की तरह उन्हें भी क्रिकेट का शौक है.

इन लड़ाइयों से हासिल क्या होता है

इस तरह की संपत्ति की लड़ाइयां रिश्तों में दूरी लाती हैं, विद्वेष बढ़ता है, आप सी रंजिशें कई पीढ़ियों तक चलती हैं और इंसान अपनों के ही विरुद्ध फैसले लेने लगता है. रईस फैमिली हो या गरीब या फिर मध्यवर्गीय इस तरह के झगड़े हर तरह के परिवार में दिख जाते हैं. ऐसे में वकीलों की चांदी होती है और इंसान खुद अपनी मौजूदा संपत्ति और सम्मान भी गंवाता जाता है. इन लड़ाइयों की कोई सीमा नहीं. मुकदमों की सुनवाई सालों चलती है. फैसले आने में सदियां लग जाती हैं मगर हासिल क्या होता है? बेहतर है कि अपनों के विरुद्ध जाने से पहले इंसान मिल बैठ कर समस्या सुलझाने का प्रयास करे और कोई हल निकाले. अपनों के विरुद्ध कड़वाहटों को पीढ़ियों तक पहुंचाने से बेहतर क्या यह नहीं कि इंसान थोड़ा गम खा आकर भी आपसी सहमति से ही फैसले ले ले.

 

आजादी सिर्फ आदमियों के लिए नहीं

पैट डौग्स आदमी का साथी सदियों से रहा है पर जब सेआदमी ने गांवों को छोड़ कर घने शहरों की बस्तियों और फिर बहुमंजिले मकानों में रहना शुरू कर दिया है, मैन ऐनिमल कंपीटिशन चालू हो गया है. लोग घरों में डौग्स पालते हैं बड़ी खुशी से पर तबादला होने, देखभाल न कर पाने, पैट डौग्स के कई पप्पी हो जाने के बाद उन की देखभाल एक आफत हो जाती है और यही पैट डौग्स स्ट्रे डौग्स बन कर आज पूरे देश में आफत कर रहे हैं.

दिल्ली के पास नोएडा में एक स्ट्रे डौग को 15वीं मंजिल से फेंक दिया गया और वह कौंप्लैक्स की पार्किंग में मरा मिला. यह क्रूरता है पर उन घर वालों की सोचिए जिन के घरों के आगे रखे मिल्क के पैकेट ये स्ट्रे डौग्स काट देते हैं या बाहर रखी कुरसियों को फाड़ देते हैं. ज्यादा गंभीर बात तब होती है जब ये अचानक आदमी और खासतौर पर बच्चों पर हमला कर देते हैं.

देशभर में स्ट्रे डौग्स के कारनामे सामने आ रहे हैं जिन में उन्होंने छोटे बच्चों को काटकाट कर मार डाला. स्ट्रे डौग्स की वजह से बहुत लोगों ने घरों के पास की सड़कों पर, बागों में घूमना बंद कर दिया है. गोवा अच्छा पर्यटन पौइंट है पर वहां बीच के किनारे बने शैक रेस्तराओं में दरवाजे न होने की वजह से खाने वालों के सामने कुत्ते आ कर खड़े हो जाते हैं. कुछ कुत्ते रेस्तराओं के पालतू होते हैं पर स्ट्रे डौग्स भी खाने के लालच में आ जाते हैं क्योंकि बहुत से ग्राहक अपनी प्लेट का बचा चिकनमटन उन्हें दे देते हैं. ऐसा सा ही कुछ गायों के साथ हो रहा है.

स्ट्रे डौग्स को किसी भी तरह का प्रोटैक्शन मिलना गलत है क्योंकि यह एक तरह से मानवता की असफलता की निशानी है. दिल्ली के कनाट प्लेस में विदेशी ब्रीड्स के कुत्ते बरामदों में दिखते हैं और ये अवश्य मालिकों द्वारा छोड़े गए पैट्स हैं जो कभी घरों में प्यार से रखे जाते थे फिर होमलैस हो गए. जैसे होमलैस आदमियों को सड़क चलते लोगों को लूटने की इजाजत नहीं दी जा सकती वैसे ही किसी आवारा पशु, चाहे डौग्स हों या गाय हों को नहीं दी जा सकती.

पशु प्रेमियों को छूट है कि वे स्ट्रे डौग्स के लिए घर बनाएं, गायों के लिए गौशालाएं बनाएं, उन की सेवा करें, उन्हें खाना खिलाएं और चाहें तो पुण्य कमाएं. पर सड़क पर किसी तरह के जानवरों को रहने की अनुमति देना मानव के हितों और अधिकारों दोनों के खिलाफ है क्योंकि शहर आदमियों के लिए डिजाइन किए गए हैं, जानवरों के लिए नहीं. पैट डौग्स के बारे में कुछ कहना क्रूरता माना जाता है पर जो उन्हें भुगतते हैं, वे जानते हैं कि ये प्यारे जानवर कितनी बड़ी आफत हैं.

जिंदगी पर भारी लापरवाही

बढ़ती गरमी के साथ आग लगने की घटनाओं में वृद्धि हो रही है. मगर इन घटनाओं की वजह क्या हैं, जान कर हैरान रह जाएंगे आप…

 

दिल्ली व एनसीआर ही नहीं, देश के अलगअलग राज्यों में गरमी का कहर बढ़ता जा रहा है. चाहे वह मैदानी क्षेत्र हो या पहाड़ी, गरमी ने लोगों का जीना बेहाल कर रखा है. आएदिन आग लगने की दिल दहला देने वाली खबरें बहुत तेजी से बढ़ रही हैं, जिस से आग लगने का ग्राफ दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है.

 

कहीं गरमी ने त्राहि मचाई हुई है तो कहीं लापरवाही ने लेकिन खामियाजा लोगों को जान दे कर भुगतना पड़ रहा है.

 

*गुजरात टौप गेमिंग जोन*

 

गुजरात में टौप गेमिंग जोन में लगी आग ने 28 लोगों को अपनी चपेट में ले लिया जिस में 12 बच्चे थे. इस मामले में प्रशासन ने 6 अधिकारियों को सस्पैंड किया. आरोप है कि अधिकारी ने बिना जांचपड़ताल किए टीआरपी गेम जोन का लाइसैंस रिन्यू किया था. जांच में सामने आया है कि गेम जोन के पास अग्नि संबंधी अनापत्ति प्रमाणपत्र (एनओसी) भी नहीं थी.

 

 

*दिल्ली में न्यू बोर्न बेबी हौस्पिटल में आग*

 

दिल्ली के विवेक विहार इलाके के न्यू बोर्न बेबी केयर अस्पताल में हाल ही में जो दर्दनाक हादसे हुआ उस में 7 नवजात बच्चों की मौत हो गई. रिपोर्ट के मुताबिक, इस अस्पताल का लाइसैंस 31 मार्च को ही समाप्त हो गया था. इस के बाद भी हौस्पिचल का संचालन किया जा रहा था. इस अस्पताल का लाइसैंस भी केवल 5 बिस्तरों के लिए ही अनुमति दी गई थी. लेकिन वहां ज्यादा बेड थे.

 

*कृष्णा नगर में लगी आग*

 

दिल्ली के कृष्णा नगर में एक बिल्डिंग में आग लगने से 3 लोगों की मौत हो गई है. उस के ग्राउंड फ्लोर पर कमर्शियल ऐक्टिविटीज होती थी. यहां कोई इलैक्ट्रिक टूव्हीलर ओनर अपने वाहन को चार्जिंग पर लगा कर चला गया था. पहले उस में आग लग गई और उस के बाद इलैक्ट्रिक मीटर में लगी और बढ़तेबढ़ते आग ने बिल्डिंग के तीनों फ्लोर को अपनी जद में ले लिया.

 

इन सभी घटनाओ में एक बात सामान्य है और वह है लापरवाही. लापरवाही चाहे प्रशासन की हो या आम आदमी की लेकिन लोगों को इस का खामकियाजा जान दे कर भुगतना पड़ा. क्यों आज के समय में लोगों में जान इतनी सस्ती हो गई है की वे सिर्फ अपना मतलब निकालने की ही सोचते हैं? ऐसी घटनाओं से बचने के लि जागरूक होना अति आवश्यक है.

 

शादी में धर्म का दखल क्यों

यह धर्म ही है जिस की वजह से सदियों से न सिर्फ महिलाओं को गुलाम बना कर रखा जाता है, शादी जैसे पवित्र बंधन में भी धर्म की दखलंदाजी से विवाह खतरे में है. सवाल है, जब दो दिलों का मामला है, तो फिर धर्म का यहां क्या काम…

सुप्रीम कोर्ट ने अपने हाल के एक फैसले में हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के तहत इस बात पर जोर दिया कि हिंदू विवाह को वैध बनाने के लिए इसे उचित संस्कारों और समारोहों के साथ किया जाना चाहिए जैसे कि सप्तपदी (पवित्र अग्नि के चारों ओर 7 फेरे) आदि. विवादों के मामले में इन समारोहों का प्रमाण आवश्यक है.

जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस औगस्टीन जार्ज मसीह की खंडपीठ ने कहा कि जहां हिंदू विवाह लागू संस्कारों या सप्तपदी जैसे समारोहों के अनुसार नहीं किया जाता है तो विवाह को हिंदू विवाह नहीं माना जाएगा. दूसरे शब्दों में अधिनियम के तहत वैध विवाह के लिए अपेक्षित समारोहों का पालन किया जाना चाहिए और कोई मुद्दा या विवाद उत्पन्न होने पर उक्त समारोह के प्रदर्शन का प्रमाण होना चाहिए. जब तक कि पक्षकारों ने ऐसा समारोह नहीं किया हो अधिनियम की धारा 7 के अनुसार कोई हिंदू विवाह नहीं होगा और केवल प्रमाणपत्र जारी किया जाएगा.

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 8 के तहत हिंदू विवाह का रजिस्ट्रेशन विवाह के सबूत की सुविधा प्रदान करता है लेकिन यह वैधता प्रदान नहीं करता. यदि धारा 7 के अनुसार कोई विवाह नहीं हुआ तो रजिस्ट्रेशन विवाह को वैधता प्रदान नहीं करेगा.

कोर्ट ने एक पत्नी द्वारा अपने खिलाफ तलाक की काररवाई को स्थानांतरित करने की मांग वाली याचिका पर फैसला सुनाते हुए ये टिप्पणियां कीं. मामले की सुनवाई के दौरान पति और पत्नी यह घोषणा करने के लिए संयुक्त आवेदन दायर करने पर सहमत हुए कि उन की शादी वैध नहीं है.

क्या कहता है कानून

सुप्रीम कोर्ट के अनुसार विवाह ‘गीत और नृत्य’ और ‘शराब पीने और खाने’ का आयोजन नहीं है या अनुचित दबाव द्वारा दहेज और उपहारों की मांग करने और आदानप्रदान करने का अवसर नहीं है जिस से आपराधिक काररवाई की शुरुआत हो सकती है. विवाह कोई व्यावसायिक लेनदेन भी नहीं है. विवाह पवित्र है क्योंकि यह 2 व्यक्तियों को आजीवन, गरिमापूर्ण, समान, सहमतिपूर्ण और स्वस्थ मिलन प्रदान करता है.

इसे ऐसी घटना माना जाता है जो व्यक्ति को मोक्ष प्रदान करती है खासकर जब अनुष्ठान और समारोह आयोजित किए जाते हैं.

हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 7 के तहत पारंपरिक संस्कारों और समारोहों का ईमानदारी से आचरण और भागीदारी सभी विवाहित जोड़ों और समारोह की अध्यक्षता करने वाले पुजारियों द्वारा सुनिश्चित की जानी चाहिए. जाहिर है हमारे देश के सब से बड़े कोर्ट ने भी विवाह में धर्म और पुजारियों की भूमिका विवाहों में एक बार और थोप दी, जबकि हम जानते हैं कि धर्मों ने हजारों सालों में क्याक्या किया है.

धर्म का दखल

धर्म ने करोड़ों नरनारियों का गरम रक्त पीया है, हजारों कुल बालाओं को जिंदा जलाया है. धर्म के कारण ही धर्मपुत्र युधिष्ठिर ने जुआ खेला, राज्य हारा, भाइयों और स्त्री को दांव पर लगा कर गुलाम बनाया, धर्म के ही कारण द्रौपदी को 5 आदमियों की पत्नी बनना पड़ा. धर्म के कारण अर्जुन और भीम के सामने द्रौपदी पर अत्याचार किये गए और वे योद्धा मुरदे की भांति बैठे देखते रहे. धर्म के कारण भीष्म पितामह और गुरु द्रोण ने पांडवों के साथ कौरवों के पक्ष में युद्ध किया, धर्म के कारण अर्जुन ने भाइयों और संबंधियों के खून से धरती को रंगा.

धर्म के कारण भीष्म आजन्म कुंआरे रहे और राम ने राज्य त्याग वनवास लिया, धर्म के कारण राम ने सीता को त्यागा, शूद्र तपस्वी को मारा और विभीषण को राज्य दिया.

धर्म ही के कारण राजा हरिशचंद्र राजपाट छोड़ भंगी के नौकर हुए, धर्म के कारण राजपूतों ने सिर कटाए, उन की स्त्रियों ने अपने स्वर्ण शरीर भस्म किए, खून की नदी बही. धर्म के कारण ही सिखों ने मुगल काल में अंग कटवाए, बच्चों को दीवार में चुनवाया, धर्म ही के कारण लाखों ईसाई रोमन कैथोलिकों के भीषण अत्याचार की भेंट हुए, धर्म ही के कारण मुसलमानों ने पूरी पृथ्वी को रौंद डाला और मनुष्य के गरम खून में तलवार रंगी. धर्म ही के लिए ईसाइयों ने प्राणों का विसर्जन किया.

धर्म के लिए घरों में विधवाएं चुपचाप आंसू पी कर जीती रही हैं. अछूत कीड़ेमकोड़े बने हुए हैं, जबकि पाखंडी और घमंडी ब्राह्मण और हर धर्म के दुकानदार सर्वश्रेष्ठ बने हुए हैं. धर्म के कारण ही पेशेवर पाखंडी पुजारी भी लाखों स्त्रीपुरुषों से पैरों को पुजाते हैं. धर्म के कारण ही आज हिंदू, मुसलमान, यहूदी और ईसाई एकदूसरे के जानी दुश्मन बने हुए हैं.

यह कैसा धर्म

सारी दुनिया में हजारों वर्ष से प्रमुख बना यह धर्म मनुष्य को शांति से रहने नहीं देता है, आजाद नहीं होने देता है. दरअसल, इस ने हमारे दिमाग को गुलाम बना लिया है. जो मनुष्य धर्म के जिस रंग में रंगा गया फिर उस के विरुद्ध नहीं सोच सकता. तभी तो अछूत को लगता है कि औरों का मैला ढोना ही उस का धर्म है, ब्राह्मण सोचता है सब से श्रेष्ठ होना ही उस का धर्म है, मुसलमान सम?ाता है कि काफिर को कतल करना ही धर्म है. विधवा सम?ाती है मरे हुए पति के नाम पर सब के अत्याचार सहना ही उस का धर्म है. धर्म के नाम पर पापपुण्य, अच्छा बुरा जो कुछ मनुष्य को सम?ा दिया गया है मनुष्य वैसा ही करने को विवश महसूस करता है.

इसी धर्म को शादीविवाह के अनुबंध में सदियों से घुसाया गया है. हर धर्म कहता है कि धर्म के बिना की गई शादी का कोई मोल नहीं है यानी न चाहते हुए भी हर किसी को ये सारी रस्में निभानी होंगी. पढ़ेलिखे आधुनिक सोच वाले युवा जब जातपांत की परवाह न करते हुए लव मैरिज की हिम्मत करते हैं और कोर्ट में जा कर शादी कर लेते हैं तो इसे कानून ही वैध नहीं मान रहा यानी हर किसी को सभी धार्मिक रस्में निभानी होंगी. अगर पारंपरिक विधि धारा 7 के अंतर्गत करना जरूरी है तो उसी जाति में वर्ण व्यवस्था के अनुसार कुंडलियां देख कर ही शादी हो सकेगी और जो शादियां इन पंडितों के नियम के अनुसार नहीं होगी, सुप्रीम कोर्ट के अनुसार अवैध होंगी.

धर्म का दखल क्यों सोचने वाली बात है कि जब जिंदगी के छोटेबड़े बदलावों में धर्म नहीं घुसता तो शादी में क्यों घुसाया जाता है? कोई इंसान नए किराए के घर में रहने जाता है, घर के किसी बड़ेसामान की शौपिंग करने जाता है, नए कालेज में दाखिला लेता है या नई नौकरी जौइन करता है तो क्या हम पुजारी को बुला कर मंत्रोच्चारण करवाते हैं या धार्मिक रीतिरिवाज शुरू करते हैं? नहीं करते न? इस के बावजूद काम भलीभांति संपन्न होता है.

हम नए घर, नए कालेज या नई नौकरी में तरक्की करते हैं और आगे बढ़ते हैं. धर्म की गैरमौजूदगी से हमें कोई बड़ा घाटा तो नहीं होता न. फिर शादी तो केवल जीवन में 2 लोगों के साहचर्य के लिए एक अनुबंध है. इस तरह के अनुबंध में मात्र एक वचन और अगर आवश्यकता हो तो अनुबंध के पंजीकरण के एक प्रमाण की जरूरत है. अन्य रस्मोंरिवाजों की कहां आवश्यकता है? इस लिहाज से मानसिक श्रम, समय, पैसे, उत्साह और ऊर्जा की बरबादी क्यों?

औरतों को पुरुषों के अधीन बनाया है धर्म ने

दरअसल, धर्म के नाम पर पुरुषों को मरनेमारने को प्रेरित करने के लिए प्लैटर में रख कर औरतों को पुरुष के अधीन बना कर सौंपा गया. धर्म ने एक तरह से स्त्रियों को भी संपत्ति बना डाला. राजकाल में पुरुष योद्धा जब दूसरे राजाओं का खात्मा करते थे तो उन के राज्य की विधवा औरतों को अपने साथ जीत के उपहार की तरह उठा लाते थे. आज भी औरतें संपत्ति की तरह ट्रीट की जाती हैं. इन सब के पीछे सदियों से धर्म की साजिश रही है.

धर्म ने हमेशा से औरतों की शक्तियां छीन कर पुरुषों को सौंपीं और फिर उन पुरुषों ने मनमाने काम करवाए. पापपुण्य की परिभाषाएं गढ़ी गईं. दूसरी तरफ गुलाम सी बनी स्त्रियों को हर जगह नीचे दिखाए जाने की साजिश की गई ताकि वे विरोध में स्वर मुखर न कर सकें. खुद को हमेशा दासी ही मानें. हर धर्म में शादी की धार्मिक रस्मों में भी कितनी ही जगह उसे उस की औकात दिखाई जाती है.

शादी में होने वाला खर्च और रीतिरिवाज

अब जरा गौर करें कि शादी चाहे अरेंज्ड हो या लव इन रिवाजों और तैयारियों में कितने रुपए बरबाद होते हैं. शादी पर अधिक से अधिक खर्च करना क्या एक बड़ा आर्थिक नुकसान नहीं है?

‘लड़के वालों की जो मांग है उसे तो पूरा करना ही है,’ ‘यह दहेज नहीं, गिफ्ट है,’ ‘शादी करनी है तो रीतिरिवाज तो करने ही होंगे और इस में खर्चे तो होंगे ही,’ ‘यह धर्म का मामला है,’ ‘लड़की की शादी मतलब कन्यादान फिर लड़की किसी और की हो जाती है,’ शादियों के दौरान बोले जाने वाले जैसे कथन क्या बताते हैं?

शादी में होने वाले खर्च और उपहार की आड़ में दिए जाने वाले दहेज के आदानप्रदान को समाज ने खुद धर्म, जाति और पितृसत्तात्मक संरचना के आधार पर बनाया है. यह जिस तरह से बनाया गया है उस का संविधान में कहीं उल्लेख नहीं है बल्कि दहेज लेना और देना तो कानून की नजर में एक दंडनीय अपराध है. यह अनुच्छेद 14 के बराबरी के हक के खिलाफ है जिसे सुप्रीम कोर्ट ने नजरअंदाज कर दिया.

लेकिन हमारे समाज में आज भी कई धर्म और जातियों के लोग शादी के लिए इतना कर्ज लेते हैं जो उन के लिए चुका पाना मुश्किल होता है. लड़की के जन्म लेते ही शादी के लिए संपत्ति, दानपुण्य, दहेज जोड़ना मातापिता अपनी जिम्मेदारी सम?ाते हैं. कई परिवार अपनी जीवनभर की कमाई बेटियों की शादी के लिए बचा कर रखते हैं, साथ ही अधिक दहेज या उपहार न दे पाने की स्थिति में खुद को शर्मिंदा महसूस करते हैं.

शादी में होने वाले खर्च पर विचार करने की जरूरत है. शादी में होने वाला खर्च दीवाली के लिए खरीदे जाने वाले पटाखों जैसा ही है जिसे कुछ ही घंटों में जला दिया जाता है. बारबार बाजार जाना, सामान लाना, सब की पसंदनापसंद का ध्यान रखना, खाने की व्यवस्था देखना, बड़ी मात्रा में कागज के कार्ड प्रिंट करवाना, महंगे से महंगे कपड़े खरीदना और उन को बाद में बहुत कम या न के बराबर इस्तेमाल करना.

कानूनी रूप से पंजीकरण करें

इस के साथ ही शादियों से निकालने वाला कूड़ाकचरा जैसे प्लास्टिक की बोतलें, गिलास, थर्माकोल का बना सामान, बड़ी मात्रा में दूसरा यूज ऐंड थ्रो मैटीरियल, ये सब वेस्टेज औफ  मनी नहीं है क्या? शादी में होने वाले खर्च को धार्मिकसामाजिक प्रतिष्ठा से जोड़ दिया जाता है. अगर तार्किक रूप से सोचें तो क्या सच में हमें लोगों को यह बताने की जरूरत है कि किस ने घर की शादी में कितना खर्च किया या लड़के को क्याक्या मिला और लड़की को क्याक्या दिया गया? क्या सभी जोड़े धार्मिक रिवाजों से शादी करने के बाद आपस में खुश हैं?

अब यह भी मुमकिन नहीं है कि सहमति से शादी करने वाले 2 लोग धार्मिक अनुष्ठानों को खारिज कर बिना दहेज और उपहार के शादी के लिए सिर्फ कानूनी रूप से पंजीकरण करें.

यहां पर एक बात पर और ध्यान देने की जरूरत है कि शादी में दहेज या उपहार लड़की को दिया जाता है पर मिलता लड़के को है. अगर हम पितृसत्तात्मक नजरिए से देखें तो शादी में लड़की को दिया तो बहुत कुछ जाता है पर अधिकार उस का शायद ही किसा सामान पर होता है. जो कुछ भी है वह अपने घर से मिलता है और बाद में उस पर हक ससुराल वालों का हो जाता है. अधिकतर लोग लेनदेन से जुड़े रीतिरिवाजों को धर्म से जोड़ कर सही ठहराते हैं.

लड़की के जन्म के बाद ही उस की शादी के बारे में सोचना यह दर्शाता है कि लड़कियों की अपनी कोई इच्छा नहीं हो सकती न ही शादी के रीतिरिवाजों की संरचना में बदलाव को ले कर और न ही शादी करनी है या नहीं करनी है इस फैसले को ले कर. लड़की के जन्म के बाद 2 चरण ऐसे हैं जो समाज लड़कियों से बिना पूछे ही तय कर लेता है.

पहला चरण है लड़की की शादी होना और दूसरा चरण है उस का मां बनना. जबकि यह लड़की की पसंद और चुनाव है कि वह खुद शादी न करना चाहे या मां न बनना चाहे. यही नहीं शादी के दौरान और उस के बाद भी लड़कियों के साथ काफी असमानता का व्यवहार किया जाता है.

असमानता के बीज बोती रस्में

हिंदू धर्म में पारंपरिक शादी के रीतिरिवाज में एक रस्म होती है पैर पूजने की जिस में लड़की के मातापिता दूल्हे के पैर छूते हैं. कहते हैं कि विवाहित पतिपत्नी को गौरी शंकर का रूप माना जाता है इसलिए लड़की के मातापिता बेटीदामाद के पैर छूते हैं.

अब सवाल यह है कि अगर सच में वे ईश्वर का रूप हैं तो लड़की के मातापिता ही क्यों पैर छूते हैं हर किसी को उन के पैर छूने चाहिए. लड़के के मातापिता को भी पैर छूने चाहिए. क्या लड़के के घर वालों को भी ईश्वर के आशीर्वाद की जरूरत सिर्फ इसलिए नहीं होती क्योंकि वे लड़के के मातापिता हैं?

पितृसत्ता की देन है दहेज प्रथा

दहेज व्यापार तब शुरू होता है जब 2 परिवार शादी के लिए राजी हो जाते हैं. दुलहन का परिवार दूल्हे के परिवार को न सिर्फ पैसे बल्कि उपहार और तोहफे भी देता है. क्षमता न होने के बावजूद लड़के वालों की डिमांड पूरी करने के लिए उधार ले कर या घर बेच कर भी दहेज की रकम इकट्ठी करता है. दहेज जैसे रिवाज समाज में चलने वाली पितृसत्तात्मक यानी धर्मसत्तात्मक व्यवस्था को दिखाते हैं क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज यकीनन धर्म की देन है.

लगन के नाम पर शादी से 2 दिन पहले दुलहन का परिवार दूल्हे के परिवार को भारी मात्रा में धन, आभूषण, फर्नीचर, उपकरण, कपड़े आदि देता है. सामान को उस के घर तक पहुंचाने की जिम्मेदारी और खर्च तक लड़की का परिवार ही करता है. इसे हमारे समाज में असली दहेज माना जाता है क्योंकि इस दिन सब से ज्यादा पैसे और सामान का लेनदेन होता है.

साथ ही यह बहुत ही दिखावटी आदानप्रदान होता है. फिर शादी के दिन लड़की के परिवार वाले लड़के के परिवार के ज्यादातर रिश्तेदारों को पैसे के साथ कपड़े भी देते हैं. इस रस्म को समाज में लेनदेन कहा जाता है. लेकिन यह लड़की के परिवार के लिए केवल देन ही देन है न कि लेन.

शादी के दिन भी लड़की का परिवार हर रिश्तेदार के लिए खाने की उत्तम व्यवस्था करता है. भोजन, टैंट, साजसज्जा, रोशनी, लेनदेन (लेनादेना), रस्म, डीजे, ड्रोन, फूल आदि पर बहुत मोटा पैसा खर्च किया जाता है. इन सभी के कारण मुख्य रूप से दुलहन के पिता और भाई पर अत्यधिक आर्थिक दबाव होता है. अधिकतर समय वे अपनी संपत्ति को गिरवी रख या बेच कर शादी के लिए कर्ज लेते हैं. कभीकभी अत्यधिक कर्ज चुकाने में असमर्थ होने के कारण आत्महत्या से मौत के मामले भी सामने आते हैं.

रीतिरिवाज के नाम पर खर्चा

एक शादी में यह रीतिरिवाज के नाम पर मोटा खर्चा इस बात की कोई गारंटी नहीं देता है कि यह शादी का रिश्ता पूरी तरह से चलेगा. कभी अकाल मृत्यु हो जाती है तो कभीकभी तलाक बहुत जल्दी हो जाता है. भले ही तलाक न हो पर दहेज की मांग कई बार शादी के बाद भी चलती रहती है.

पैर धोना

तमाम जगहों पर आज भी शादी के दौरान दूल्हे और बरातियों के पैर धोने की प्रथा है. यह प्रथा एक पक्ष को बड़ा एक को छोटा बनाती है. दरअसल, पहले के समय में लोग दूर से बरात ले कर पैदल आते थे. तब उन के पैर गंदे हो जाते थे. इसलिए उन के पैर धुलाए जाते थे जिस ने आज एक धार्मिक कुरीति का रूप ले लिया है. आज इसे सम्मान से जोड़ा जाता है.

हमारे समाज में दुलहन पक्ष को छोटा सम?ा जाता है जोकि शादी के दौरान धार्मिक गतिविधियां निभाते समय ज्यादा उजागर होता है. वास्तव में शादी दोनों पक्षों के बीच का संबंध होता है और संबंध का अर्थ है बराबरी का बंधन यानी किसी भी पक्ष को छोटा या बड़ा मानना गलत है. मगर धर्म हमेशा औरत को छोटा महसूस कराता है.

कन्यादान

हम सामान्य तौर पर वस्तुओं को ही दान करते हैं जिन के लिए हमें भावनात्मक जुड़ाव नहीं होता. यही वजह है कि जब एक लड़की का कन्यादान किया जाता है तो उसे महसूस होता है जैसे वह कोई इंसान नहीं बल्कि वस्तु है जिसे आज दान किया जा रहा है मानो उस का कोई वजूद नहीं है. उस की भावनाओं का कोई मोल नहीं है.

मातापिता के लिए उन की बेटी सदैव बेटी ही रहती है उसे कभी पराया नहीं किया जा सकता. फिर ऐसे रिवाज का क्या औचित्य? लड़के को दान क्यों नहीं किया जाता केवल लड़की को ही क्यों? दरअसल, इस के पीछे भी धर्म का यही मकसद है कि स्त्री का कोई वजूद न माना जाए. उसे चीज की तरह सम?ा जाए. क्या सुप्रीम कोर्ट चाहता है कि इस परंपरा को जिंदा रखा जाए? अगर ऐसा है तो यह संविधान औरत विरोधी माना जाएगा. शादी में ऐसे धार्मिक रिवाज हमारी संकीर्ण सोच को और पुख्ता करते हैं.

सुहाग की निशानियां

शादी के बाद महिलाओं पर धार्मिक रिवाज के नाम पर एक और प्रथा थोपी जाती है. शादीशुदा की पहचान के रूप में उसे मांग भरनी होता है. इसी तरह चूड़ी, पायल, बिछुए, मंगलसूत्र आदि पहनना महिलाओं के लिए तमाम सुहाग की निशानियां हैं जिन्हें महिला न पहने तो ताने सुनने को मिल जाते हैं, जबकि पुरुषों के लिए ऐसा कुछ भी नहीं है. अगर महिला को यह सब पहनना पसंद है तब कोई बात नहीं लेकिन इसे ले कर धार्मिक और सामाजिक दबाव थोपी हुई प्रथा का रूप दे देता है.

देश के प्रधानमंत्री ने भी अपने चुनावी भाषण में मंगलसूत्र का जिक्र करते हुए खौफ दिखाया कि विपक्ष कहीं मांबहनों के गले का मंगलसूत्र न छीन ले. मगर यहां सवाल यह उठता है कि महिलाएं मंगलसूत्र पहने ही क्यों? क्या पुरुष मंगलसूत्र पहनते हैं? अगर नहीं तो स्त्रियों पर यह पाबंदी क्यों? मंगलसूत्र तो एक तरह से उस पट्टे जैसा हो जाता है जिसे हम अपने पालतुओं के गले में बांधते हैं ताकि उन्हें अपने हिसाब से चला सकें.

औरतों के गले का दुपट्टा भी एक तरह से उस पट्टे जैसा ही है जिसे खींचते ही महिला का दम घुटने लगे. औरतों को इस तरह जंजीरों में बांध कर रखने का औचित्य क्या है? जैसे पुरुष का अपना वजूद है वैसे ही स्त्री का भी है. वह भी अपनी तरह से अपनी जिंदगी की मालिक है. मगर इसे स्वीकारने में हमें डर क्यों लगता है? कहीं न कहीं धर्म ने हमारी सोच ही कुंठित कर रखी है.

नाबालिग को वाहन देना पड़ सकता है भारी

नशे में गाड़ी चलाना न सिर्फ गैरकानूनी है, बल्कि इस से जानमाल का खतरा भी बढ़ जाता है. देश में आए दिन बेलगाम वाहनों से लोगों की जानें जाती रहती हैं और आश्चर्य की बात यह कि ऐसे हादसों में नाबालिगों का लिप्त होना चिंताजनक है.

देश में किसी नाबालिग का अपराधिक घटना में लिप्त होने के बाद भी कोई कङा कानून नहीं है और शायद यही वजह है कि वे बेखौफ जुर्म करते जाते हैं.

पुणे में क्या हुआ हाल ही में ऐसा ही एक मामला पुणे में आया, जिस में 17 वर्षीय एक किशोर ने अपने पिता की पोर्शे कार से नशे में धुत्त होने के बाद 2 इंजीनियर को इतनी जोरदार टक्कर मारी कि दोनों की ही मौके पर मौत हो गई.

किशोर का पिता रियल ऐस्टेट ऐजेंट है, जिस ने जानकारी मिलने के बाद भाग निकलने की तैयारी कर ली थी लेकिन पुलिस ने आरोपी के पिता को पकड़ लिया.

पुणे पुलिस ने नाबालिग के खिलाफ आईपीसी की धारा 304 और मोटर व्हीकल ऐक्ट की अन्य धाराओं में एफआईआर दर्ज की है. इस के साथ ही पुलिस ने नाबालिग के पिता के खिलाफ किशोर न्याय अधिनियम की धारा 75 और 77 के तहत रिपोर्ट दर्ज की है.*

क्या कहता है कानून

नाबालिग के गाड़ी चलाने को ले कर आरटीओ द्वारा बनाए गए नए ड्राइविंग नियमों के तहत नाबालिग के पिता पर न सिर्फ ₹25 हजार तक का चालान किया जा सकता है, अगर ऐसे केस में किसी प्रकार की कोई दुर्घटना होती है तो फिर पिता को जेल भी हो सकती है.*

दुखद पहलू

मगर इस केस का दुखद पहलू यह है कि आरोपी को जो सजा मिली इस से लोगों में आक्रोश बढ़ गया. किशोर को 15 घंटे के बाद ही जमानत मिल गई और सजा के तौर पर 15 दिनों के लिए ट्रैफिक पुलिस के साथ काम करने को कहा गया और पूरे हादसे पर 300 शब्दों का निबंध लिखने को कहा गया.

आरोपी को एक ऐसे डाक्टर से इलाज कराने का निर्देश दिया गया, जो उसे शराब छोड़ने में मदद कर सके और इस के अलावा उसे मनोचिकित्सक से सलाह ले कर उस की रिपोर्ट अदालत में जमा करने का निर्देश दिया गया.

सोचने वाली बात

सोचने की बात यह है कि यदि किशोरों को इस तरह की सजा मिली तो वे धड़ल्ले से अपराध करते रहेंगे.लोगों में सजा के तौर पर मजाक का यह नजरिया आक्रोश में बदल गया, जिस के बाद दोबारा केस दर्ज किया.

आश्चर्य तो यह भी है कि जिस गाड़ी से घटना हुई वह विदेश से मंगवाई गई थी और अभी उस का पंजीकरण भी नहीं किया गया था. पिता का रसूखदार होने के कारण ही किशोर को आसान शर्तों पर रिहा कर दिया गया था जिस से लोगों में गुस्सा फूटा तो पुलिस ऐक्शन में आई और किशोर के पिता को गिरफ्तार कर लिया गया. नाबालिग को शराब परोसने वाले बार के खिलाफ भी केस दर्ज किया गया है.

सख्त कानून जरूरी

यह कोई पहली घटना नहीं है. आए दिन रईस घरानों के बच्चे इस तरह की घटना करते रहते हैं और जल्द ही बिना किसी कड़ी कार्रवाई के छूट भी जाते हैं लेकिन यदि इन की यही मनमानी चलती रही तो लोगों का घर से बाहर निकलना दुश्वार हो जाएगा.

इसलिए यह जरूरी है कि इन के खिलाफ सख्त कानून बनें, चाहे आरोपी नाबालिग हो या बालिग. साथ ही ऐसे मातापिता के खिलाफ भी सख्त कररवाई होनी चाहिए. ऐसे लोगों का गैरजिम्मेदार रवैया आम जनता की जान पर भारी पड़ता है.

 

 

शिक्षा या दिखावा

अमीर घरों के स्टूडैंट्स को अट्रैक्ट करने के लिए साउथ कोरिया के कालेजों ने भी भारत में अपने एजेंट अपौइंट करने शुरू कर दिए हैं और जिस तरह की चमकदमक वाला साउथ कोरिया है, भारतीय स्टूडैंट्स न सिर्फ वहां पढ़ना चाहेंगे, वे भारत से पैसा ले जा कर वहां बिजनैस भी करना चाहेंगे.

साउथ कोरिया कुछ स्कौलरशिप भी औफर कर रहा है क्योंकि उसे ऐसे स्टूडैंट्स भी चाहिए जो मेहनती हैं, पढ़ाकू हैं, इंटैलीजैंट हैं और देश के जाति और धर्म के कहर से डरे हुए हैं. दक्षिणी कोरिया की आबादी अब न सिर्फ बढ़नी बंद हो चुकी है, चीन और जापान की तरह घटने भी लगी है और वे बाहर से युवाओं को बुला रहे हैं. भारत में बढ़ती बेरोजगारी, धर्म का कट्टरपन, मिसमैनेजमैंट, पौल्यूशन बहुतों को बाहर जाने के लिए अट्रैक्ट कर रहा है. अपने बच्चों को बाहर भेजना वैसे भी एक स्टेटस सिंबल है और जब कनाडा, अमेरिका, यूके्रन, इंगलैंड के दरवाजे बंद होने लगे तो साउथ कोरिया का दरवाजे खोलने का तो पुरजोर वैलकम होगा ही. साउथ कोरिया में अभी 2000 स्टूडैंट्स हो गए हैं पर यह शुरुआत है.

साउथ कोरिया इंजीनियरिंग, ह्यूमैनिटीज और आर्ट्स सब में दरवाजे खोल रहा है. साउथ कोरियाई फिल्मों का भारत में पौपुलर होने से यहां के लोगों को लगता है कि वहां की जिंदगी कुछ ज्यादा अलग नहीं होगी. साउथ कोरिया 3 लाख इंटरनैशनल स्टूडैंट्स लेने की ख्वाहिशें कर रहा है और पक्का है कि कम से कम चौथाई तो भारतीय स्टूडैंट्स ले ही जाएंगे. हमारे यहां के अमीर मांबापों के पास इतना पैसा है कि वे अपने बच्चों को एक डैवलैप्ड देश में भेज सकें.

वे तो कतर, सऊदी अरब, आस्टे्रलिया, अमेरिका के अलावा सूडान, उजबेकिस्तान, बेनेजुएला (साउथ अमेरिका), नेपाल, किर्गिस्तान, बोत्सवाना, आर्मेनिया भी भेज रहे हैं. यह बात दूसरी है कि ज्यादातर इन में से वे ही हैं जो भारत को विश्वगुरु मानते हैं और जिन में से एक लड़की को दिखा कर भाजपा ने एक फिल्म बनवाई है कि पापा मोदीजी ने तो हमें निकलवाने के लिए लड़ाई रुकवा दी. वे इस झूठ को सच मानने वालों में से हैं और जाते समय 4-5 मंदिरों के दर्शन कर के ही जाते हैं.

वे यह नहीं पूछते कि आखिर उन्हें विदेशों में पढ़ाने के लिए फौरन करेंसी आती कहां से है. यह आती है उन गरीब मजदूरों की वजह से जो सस्ता काम भारत में करते हैं या विदेशों में जा कर मजदूरी कर रहे हैं. विदेश जाने या जाने की तमन्ना रखने वाले स्टूडैंट्स यह नहीं पूछते कि 10 सालों में हर साल उन जैसों की गिनती बढ़ क्यों रही है.

रिश्तों को बिगाड़ रहा वर्क फ्रौम होम

जब से कोविड-19 के कारण वर्क फ्रौम होम शुरू हुआ और टैक्नोलौजी ने उसे बल दिया, शुरू में पत्नियों को लगा कि यह तो वरदान है पर अब जब यह कोविड के बाद भी चलता जा रहा है, घर से बाहर की विशेषता पता चलने लगी है. अब पता चलने लगा है कि वास्तव में दफ्तर में जा कर काम करने वाले पति या पत्नी असल में कितना काम करते थे, कितनी मौज करते थे.इंडस्ट्रियल या सेल्स जौब्स की छोड़ दें तो अब विशाल दफ्तरों में होने वाला काम कंप्यूटरों से ही होता है और हर डैस्क पर एक कंप्यूटर लगा होता है. कभीकभार मीटिंग कमरे में मिलते हैं, प्रेजैंटेशन देते हैं, डिस्कशन करते हैं पर कोई पहाड़ नहीं खोदा जाता, कोई सामान नहीं उठाया जाता.

असल में दफ्तरों में होता क्या है यह पतियों और पत्नियों को अब पता चलने लगा है.ब्रिक ऐंड मोर्टर कंपनियों के अलावा सारी नौकरियों में 7-8 घंटे औफिस में रहने के बावजूद वर्कर आधापौना टाइम बेकार की गप में लगाते हैं. मिनटों नहीं घंटों टौयलेट जाने के बहाने इधरउधर घूमते हैं. मीटिंगों के नाम पर समय बरबाद करते हैं क्योंकि किसी भी मीटिंग में 2-4 मिनट मिलते हैं कुछ कहने के. मीटिंग में 2-3 लोगों का काम लैक्चर    झाड़ना होता है, बाकी चुपचाप सुनते हैं और मन में खयाली पुलाव बनाते रहते हैं या ताकते रहते हैं कि किस लड़की की ड्रैस का ब्लाउज कितना गहरा है या किस लड़की के बालों में हाथ फिराने में कितना मजा आएगा.वर्क फ्रौम होम से यह पोल खोली जा रही है कि असल में दफ्तरों में कितना काम होता है.सब काम करने के बावजूद रात को 2 बजे जूम मीटिंग इंटरनैशनल बायर के साथ करने के बावजूद, कंप्यूटर पर रिसर्च करने के बावजूद, घंटों घर के सोफे पर मजे करे जा रहे हैं या जूम मीटिंग के साथ पास रखे मोबाइल पर इंडिया वर्सेज पाकिस्तान का मैच देखा जा रहा है.

दोनों पतिपत्नियों की पोलें खुलने लगी हैं कि वे वर्क फ्रौम औफिस के बाद लौटने पर शाम तक थक गए हैं. यह थकान असल में उस मौजमस्ती की थी जो दफ्तरों में की जाती थी. रेस में पूरा दिन सट्टेबाजी में लगाने और बार में8 पैग पीने या पार्टी में 4 घंटे डांस करने के बाद भी तो थकान होती है. वर्क फ्रौम औफिस से इस थकान के रहस्य पर से परदा उठने लगा है.इस से अब पतिपत्नियों में खीज बढ़ने लगी है. 24 घंटे एकदूसरे के सिर पर सवार रहो या बच्चों की चिखचिख, एक कप कौफी तो बना देना, जरा फोन सुन लेना, आज पकौड़े तो बना लेना, डिलिवरी बौय से खाना या सामान तो ले लेना जैसे वाक्य 18 घंटे गूंजते रहते हैं. मेरा साथी मेरे साथ है पर है भी नहीं. कुछ घंटों का भी काम नहीं करता/करती.

बस बातें बनवा लो.पतिपत्नी दोनों कामकाजी हैं पर जब घर से काम कर रहे हों तो बच्चों को भी एहसास हो जाता है कि काम का मतलब तो टीवी देखना, सोफे पर सोना, फालतू में मोबाइल पर गेम खेलना, टैक्सटिंग करना शामिल है. बच्चों के मौडल मांबाप असल में कितने निकम्मे हैं, यह पता चल रहा है.वर्क फ्रौम होम न केवल पतिपत्नी के रिश्तों को बिगाड़ रहा है, यह बच्चों को भी बिगाड़ रहा है. दूसरी तरफ अकेले रहने वालों को अपना घर जेल सा भी बना रहा है जहां से वह अरविंद केजरीवाल की तरह सौलिटरी सैल में रह कर ध्यान लगाने को मजबूर रहते हैं और कभीकभार मुलाकाती आता है, जेलर आता है या खाना देने वाला आता है.वर्क फ्रौम होम मानव का चालचरित्र और चेहरा बिगाड़ न दे यह डर लगने लगा है. व्हाइट कौलर वर्करों से तो ब्लू कौलर वर्कर अच्छे हैं जो फैक्टरियों, सड़कों, खेलों, खदानों में हैं जहां हरदम लोगों के चेहरे देखते हैं. सैकड़ों से हायहैलो करते हैं. पड़ोसिनों से चुगली में जो मजा आता है वह जूम मीटिंग या टैक्सटिंग से थोड़े ही संभव है.

औरतों की बात बस चुनावी जुमला

इस चुनाव में औरतों के मामले बिलकुल नदारद हैंहमेशा की तरह. औरतोंयुवतियोंवृद्धोंछोटी बच्चियों को ही नहींउन के परिवारों को भी यह चुनाव कुछ नहीं दिला रहा. कुछ पार्टियां गरीब लड़कियों को हर साल कुछ नक्दी की बात कर रही हैं पर यह वादा ढेरों वादों में से एक हैयह अकेला वादा नहीं है. औरतों को कुछ न मिलने का अर्थ है कि उन के परिवारों को भी कुछ नहीं मिलना.

चाहे औरतों के पास आज समाज कोई अधिकार नहीं छोड़ता पर उन पर जिम्मेदारियां तो लदी ही रहती हैं. यदि परिवार गरीब है तो हर जने का पेट भरा रहेहरेक साफ व धुले कपड़े पहनेहरेक की बीमारी में उस की देखभाल होकिसी पर भी बाहरी आर्थिक या शारीरिक हमले पर उस की पहली ढाल औरत हो. यह व्यवस्था तो धर्मसमाज और सरकार ने कर रखी है पर उसे देने के नाम पर सब मुंह फेर लेते हैं.

यह चुनाव भी औरतों के बल पर लड़ा जा रहा है पर उन्हें कुछ खास इस से मिलेगाइस की उम्मीद नहीं. आम आदमी पार्टी ने जहां भी जीत हासिल की कुछ सफल प्रयोग किए. बिजली का बो   झ कम करामहल्ला क्लीनिक खोल कर पहली चिकित्सा का प्रबंध करास्कूलों पर मंदिरों से ज्यादा खर्च कराबागबगीचे बनवाए. पर हुआ क्यादेश के कानूनअदालत व संविधान के बावजूद उस के नेताओं को एकदूसरे के कहने मात्र पर पकड़ रखा है.

भारतीय जनता पार्टी जो 545 में से 400 सीटें पाने की उम्मीद कर रही हैऔरतों को मंदिरों की लाइनों में लगवाने का वादा कर रही हैधर्म की रक्षा के लिए उन्हें अपने बच्चों को उकसाने को प्रोत्साहित कर रही है. उन को बता रही है कि अब कौन सा खाना अपनी रसोई में पकाएं और बनाएं. उन्हें 2000 साल पुरानी है कह कर अनपढ़ भगवाधारी आयुर्वेद डाक्टरों की फौज के हवाले कर रही है.

इंडिया ब्लौक की पार्टियां अपनीअपनी जातियों या अपनेअपने गढ़ों को सुरक्षित करने में लगी हैंकोई भी कुछ भी औरतों की बराबरी के लिए करने का खुला वादा नहीं कर रहीं. 1955-56 और फिर 2001 व 2013 में कांग्रेस ने हिंदू विवाह व विरासत के कानून व जमीन पर परिवार के हकों के कानून बनाए थे पर इस चुनाव में कांग्रेस भी इन की याद दिलाने में कतरा रही है. मानो उन्होंने अपने 70 सालों में ये गुनाह तो किए थे.

सदियों से बड़ेबड़े मकबरोंपिरामिडों और मंदिरों का निर्माण हुआ हैकिले बने हैंफौजें खड़ी की गई हैंहमले हुए हैं पर इन सब की कीमत किस ने दीऔरतों ने क्योंकि उन की रसोई में पहुंचने वाला अनाज धर्म और समाज के वसूलीदार पहले से ही ले गए.

आज भी हर साल जीडीपीकुल सकल उत्पादन से ज्यादा कुल टैक्स क्लैशन हर साल ज्यादा बढ़ रहा है. इस का मतलब है कि हर परिवार जो कमा रहा है उस का पहले से ज्यादा हिस्सा सरकार को दे रहा है.किसी चुनावी मंच पर औरतों के मामले पहले नंबर पर नहीं हैं. सरकारी पार्टियों के एजेंडों में तो बिलकुल नहीं. जब केंद्र सरकार औरतों की लोकतंत्र में सुरक्षा नहीं करेगी तो आखिर क्या धर्म तंत्रकौरपोरेट तंत्रऔरतों का सामान बनाने वाला तंत्रकानूनअदालतेंशहरी निकाय औरतों की चिंता करेंगे? औरतों को तो बसों की कतारों मेंपानी के टैंकरों के इंतजारराशन ढोनेरसोई की

गरमीपति और पिता की डांट और सब से बड़ी बात अगले जन्म की सुरक्षा के लिए मंदिरोंमसजिदोंचर्चों की सेवा में लगा रखा है. आदमी इन सब में कम लगते हैं. उन्हें तो सड़कों पर तेज वाहन चलानेधार्मिक जलसों में उछलकूद या हंगामा करने कीमोबाइलों से मजे लेने के लिए छूट दे रखी है क्योंकि उन का वोट जरूरी है. औरतें तो पुरुषों की गुलाम रही हैं और आज भी हैंउन की क्या चिंता करनी?

रिस्क से अनजान यूथ के बीच बढ़ता फाइनैंस क्रेज

सोशल मीडिया में फाइनैंस इन्फ्लुएंसर्स के चलते यूथ में शेयर मार्केट और फाइनैंस की खासी नौलेज तो बढ़ी है पर अधिकतर इन्फ्लुएंसर्स अपनी वीडियो को ज्यादा से ज्यादा वायरल कराने के लिए इस से होने वाले खतरों को छिपा देते हैं.

एक साल पहले मेरे दूर के भाई के हाथ अपने पिताजी के 1990 में खरीदे शेयर्स का पेपर लगा, जिसे उन्होंने डीमैट अकाउंट में ट्रांसफर करा लिया. उन शेयरों की कीमत आज लाखों में है. उस के बाद उन्हें शेयर मार्केट से जैसे प्यार ही हो गया है. वे आएदिन मु?ो अपने शेयर मार्केट के स्क्रीनशौट भेजते रहते हैं और मु?ो भी इन्वैस्ट करने के लिए एनकरेज करते रहते हैं. यह हाल सिर्फ मेरे भाई का ही नहीं, बल्कि वर्तमान में अधिक्तर युवाओं का है.

मिलेनियम हो या जेनजी, भारत के युवाओं में सोशल मीडिया से ले कर लग्जरी लाइफस्टाइल के क्रेज के साथसाथ एक क्रेज और बढ़ रहा है और वह है फाइनैंस का क्रेज. इंटरनैट पर मौजूद तमाम फाइनैंशियल जानकारी के जरिए युवा फाइनैंशियल लिट्रेसी पा रहे हैं, जिस के कारण उन में इन्वैस्टमैंट का क्रेज भी बढ़ रहा है.

बचत से अलग अब वे इन्वैस्टमैंट में बढ़चढ़ कर भाग ले रहे हैं. सोशल मीडिया में आधा कच्चा जैसा भी ज्ञान परोस रहे फाइनैंस के इंफ्लुएसरों की भूमिका इस में खासी रही है. यूट्यूब जैसे सोशल मीडिया प्लेटफौर्म इस में मुख्य भुमिका अदा कर रहे हैं. डीमैट अकाउंट खोलना हो या एसआईपी में निवेश करना हो, बैंकों की फाइनैंस स्कीम्स के बारे में जानना हो या कंपनियों में इन्वैस्टमैंट के बारे में जानना हो, छोटे से ले कर बड़ेबड़े यूट्यूबर आप को हर तरह की जानकारी दे रहे हैं बिना किसी ?ां?ाट के, जो समस्या भी बनती जा रही है.

आजकल लोग, खासकर युवा, यूट्यूब, इंस्टाग्राम और टैलीग्राम के माध्यम से फाइनैंस की जानकारी पा रहे हैं. यूट्यूब पर ढेरों ऐसे चैनल्स उपल्बध हैं जो फाइनैंस की एबीसीडी फ्री में मुहैया करा रहे हैं.

कोरोना के बाद से यह क्रेज और तेजी से बढ़ा है. नौकरीपेशा हो चाहे बेरोजगार युवा, सभी इन्वैस्टमैंट के बारे में जानने में इंट्रैस्टेड हैं और कहीं न कहीं से जानकारी इकट्ठा कर निवेश कर रहे हैं. बेरोजगारी इतनी है कि अपनी सेविंग को लोग अब इन्वैस्ट कर रहे हैं.

वर्तमान में देखा जाए तो पिछले वर्ष नैशनल स्टौक एक्सचेंज (एनएसई) के प्रबंध निदेशक एवं मुख्य कार्यकारी अधिकारी आशीष चौहान का कहना था कि वर्तमान में 17 प्रतिशत भारतीय परिवार शेयरों में निवेश कर रहे हैं. आम लोग निवेश कर रहे हैं. म्यूचुअल फंड हो या एसआईपी या फिर शेयर, कितने ही तरीके आजकल के युवा निवेश के तौर पर अपना रहे हैं, जिस से निवेशकों की संख्या बढ़ रही है.

एनएसई के माध्यम से भारतीय शेयर बाजारों में 80 मिलियन लोग पैसा लगा रहे हैं. हालांकि, यह अभी भी आबादी का एक छोटा सा हिस्सा ही है. अधिकांश नए निवेशक पिछले 2-3 वर्षों में आए हैं. मोबाइल फोन और एप्लिकेशन के माध्यम से अधिक लोग अब शेयर बाजार के माध्यम से बचत कर रहे हैं.

कोरोना के बाद से इन निवेशकों की संख्या लागातार बढ़ रही है. गुजरात, उत्तर प्रदेश से ले कर कर्नाटक तक निवेशकों ने शेयर बाजार में खूब पैसा लगाया है. उत्तर प्रदेश में निवेशकों की संख्या में रिकौर्ड बढ़ोतरी हुई. यूपी ने 2022 में गुजरात को पीछे छोड़ा और सैकंड बिग इन्वैस्टर स्टेट बन गया. मार्च 2015 में 1.24 मिलियन के मुकाबले 2025 तक यूपी से निवेश करने वालों की संख्या 9.36 मिलियन रही.

17.4 प्रतिशत हिस्सेदारी के साथ महाराष्ट्र टौप पर रहा. 2024 तक महाराष्ट्र में 15.3 मिलियन शेयर बाजार निवेशक थे. इन में गुजरात के 9 प्रतिशत, पश्चिम बंगाल 5.6 प्रतिशत, कर्नाटक 5.6 प्रतिशत और राजस्थान के 5.6 प्रतिशत निवशक शामिल हैं. इन 6 राज्यों से 54 प्रतिशत निवेशक हैं और यह नंबर लगातार बढ़ रहा है.

जिरोधा, ग्रो, 5 पैसे और अपस्टौक जैसे मोबाइल ऐप के माध्यम से इन्वैस्ंिटग अब आसान हो गई है. शायद शेयर मार्केट में लगातार बढ़ रहे निवेशकों का यही कारण है. स्मार्टफोन यूजर आसानी से इन ऐप्स के माध्यम से अलगअलग ब्रोकर के पास अपना डीमैट अकाउंट खोल सकते हैं और पैसा इन्वैस्ट कर सकते हैं. इन का इस्तेमाल करना भी आसान है. यही वजह है कि लोग इन का इस्तेमाल कर भी रहे हैं.

 

बहकाए भी जा रहे हैं युवा

नएनए युवा स्टौक मार्केट और इन्वैस्टमैंट के इस खेल, खासकर अपना भाग्य आजमाने में उतर रहे हैं, कभी अपनी बचत को ले कर, कभी मांबाप की जमापूंजी को ले कर तो कभी ब्याज और लोन पर पैसे ले कर. फिर अपनी जमापूंजी एक ?ाटके में डुबो देते हैं, इन्फ्लुएंसर्स के बहकावे में आकर. ये यूट्यूबर्स आप को एक दिन में घरबैठे 1,000 से 10,000 रुपए तक पैसे कमाने को इतने आसान तरीके से दिखाते हैं कि हर कोई इस में फंसता चला जाता है. हालांकि ऐसा नहीं है कि ये सब गलत ही बताते हैं लेकिन इन के वीडियोज इतने आकर्षक होते हैं कि आज का युवा इन पर आसानी से विश्वास कर लेता है.

हाल ही में सेबी (भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड) नें 20 लाख फौलोअर्स वाले फाइनैंस इन्फ्लुएंसर्स रविंद्र भारती को 12 करोड़ रुपए से अधिक की रकम लौटाने को कहा है, जोकि गैरकानूनी तरीके से कमाई गई है. बाजार नियामक सेबी की जांच से पता चला है कि यह शख्स शेयर बाजार प्रशिक्षण संस्थान के नाम पर एक गैर रजिस्टर्ड एडवाइजरी फर्म का संचालन कर रहा था.

10.8 लाख सब्सक्राइबर्स के साथ रविंद्र भारती के शेयर मार्केट मराठी और 8.22 लाख सब्सक्राइबर्स के साथ भारती शेयर मार्केट हिंदी नाम से 2 यूट्यूब चैनल हैं. वह एक फाइनैंस इंस्टिट्यूट भी चलाता है जहां वह शर्तों पर निवेश करने की सलाहें देता है.

सेबी के आदेश में कहा गया कि इन लोगों ने निवेशकों के विश्वास के साथ धोखा किया और व्यक्तिगत लाभ के लिए संस्था बना कर सिस्टम का दुरुपयोग किया. इन लोगों ने नियमकानूनों की अवहेलना करते हुए निवेशकों को 1,000 फीसदी तक की गारंटीकृत रिटर्न देने का वादा किया. यह पूरी तरह से इक्विटी मार्केट में निवेशकों के विश्वास का दुरुपयोग है. इस के बाद अब उसे 12 करोड़ रुपए की राशि का भुगतान करना होगा.

इन्फ्लुएंसर्स का टारगेट पैसे ले कर प्रोडक्ट्स प्रमोट करना भी होता है, जिस के चलते कभीकभी वे ऐसे प्लेटफौर्म को प्रमोट करते हैं जो फ्रौड होते हैं और लोगों को फंसाने का काम करते हैं. यूट्यूब या फिर बाकी सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर लोगों को निवेश से जुड़ी कई गलत सूचनाएं इन के द्वारा दी जाती हैं जिस के लिए ये लोग हजारों रुपए चार्ज करते हैं. वहीं, मुख्य रूप से ये इन्फ्लुएंसर्स अपने कोर्सेज बेच कर और यूट्यूब के जरिए अधिकतर पैसा कमाते हैं.

यूथ सौफ्ट टारगेट

आज युवा ?झटपट अमीर बनना चाहता है. उसे लगता है कि शेयर मार्केट ऐसी जादू की छड़ी है जहां पैसा डालो और रातोंरात अमीर बन जाओ. नया युवा बिना जानकारी के ऐसी धारणा बनाता है. वह थोड़ाबहुत कमाया दांव पर लगाता है. यह बात इन्फ्लुएंसर्स जानते हैं. वे हिंदीभाषी युवाओं को टारगेट करते हैं, क्योंकि हिंदी भाषा में फाइनैंस पर आसान जानकारी उपलब्ध हो, ऐसा कहा नहीं जा सकता. यही कारण है कि उत्तर भारत में अचानक से डीमैट अकाउंट की संख्या में खासी बढ़ोतरी देखने को मिली है. युवा इन इन्फ्लुएंसर्स की वीडियो देखता है और आंखें बंद कर के निवेश शुरू कर देता है. जहांतहां से पैसा उठाया और लगा दिया कभी स्टौक्स में, कभी क्रिप्टो में तो कभी औप्शन ट्रेडिंग में और फिर भारी लौस उठाते हैं.

इसी का उदाहरण है वाल्ड जोकि सिंगापुर स्थित क्रिप्टो ट्रेडिंग प्लेटफौर्म था. 2021 में इसे 4 लोकप्रिय फाइनैंस इन्फ्लुएंसर पी आर सुंदर, अंकुर वारिकू, अक्षत श्रीवास्तव और बूमिंग बुल्स ने प्रमोट किया. बाद में विभिन्न मीडिया रिपोर्टों के अनुसार वाल्ड ने निकासी और जमा सहित अपने सभी कामों को अचानक बंद कर दिया जिस के बाद कितने ही निवेशकों के पैसे इस में फंस गए.

रिक्स छिपाने की कला इस के अलावा, इस में कोई शक नहीं कि ये फाइनैंस इन्फ्लुएंसर देश में, खासकर युवाओं में, फाइनैंस लिट्रेसी बढ़ा रहे हैं लेकिन बात तब बहकावे की आ जाती है जब ये सिक्के के सिर्फ एक पहलू की बात करते हैं. फाइनैंस और मार्केट में ये इन्फ्लुएंसर्स केवल प्रौफिट की ही बात करते हैं.

आप किसी भी इन्फ्लुएंसर के वीडियो को देख लीजिए, अंकुर वारिकू, अक्षत श्रीवास्तव या रचना रानाडे या कोई भी और इन्फ्लुएंसर, इन्हें देख कर ऐसा लगता है कि ये आप को कुछ ही महीनों में करोड़पति बना देंगे. इन की वीडियो का बड़ा हिस्सा शेयर मार्केट से होने वाले फायदे को ले कर होता हैं. ये आप को मार्केट में होने वाले बड़ेबड़े लौसेज के बारे में नहीं बताएंगे, जिन में युवा अकसर अपनी पूरी इन्वैस्टमैंट उड़ा देते हैं.

ऐसे में युवाओं के लिए जरूरी हो जाता है कि वे फाइनैंस इन्फ्लुएंसर के बहकावे में न आ कर अपने फाइनैंस को समझा कर ही इन्वैस्ट करें. सरकारों को भी चाहिए कि वे स्कूल करिकुलम से ही बच्चों में फाइनैंस की समझ विकसित करें.

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