मिसाल बन रहीं अविवाहित मांएं

हिना परवीन फ्रीलांस रिपोर्टर हैं. उच्च शिक्षा प्राप्त हैं और कमाई भी अच्छी है. इंगलिश अखबारों में लिखती हैं. हिना अपने मातापिता की इकलौती संतान हैं. जब उन के अब्बू का इंतकाल हुआ तो अम्मी अकेली न रहे, इस सोच में हिना ने शादी नहीं की. उन की अम्मी अत्यधिक मोटापे और शुगर की मरीज थीं. स्वयं कुछ कर नहीं पाती थीं. हिना ही उन के सारे काम करती थीं. उन की दवा का ख्याल रखती और वक्तवक्त पर डाक्टरी चैकअप करवाती थीं.

ऐसा नहीं था कि हिना निकाह नहीं करना चाहती थीं. बल्कि मसूद अहमद से उन के प्रेम संबंध कालेज के समय से थे. पर मसूद चाहते थे कि हिना निकाह के बाद उन के घर पर उन के परिवार के साथ रहें. लेकिन हिना अपनी असहाय और बीमार अम्मी को अकेला कैसे छोड़ देती? लिहाजा कुछ साल बाद मसूद ने अपने परिजनों की इच्छा को देखते हुए दूसरी लड़की से निकाह कर लिया.

वक्त गुजरता गया. आज हिना अपनी उम्र के 52वें पायदान पर हैं. अम्मी का इंतकाल हो चुका है. एक बड़ा घर, अच्छा बैंक बैलेंस होने के साथसाथ अम्मी के दिए हुए जेवर हिना के पास हैं. किसी चीज की कमी नहीं है मगर एक चीज जो उन्हें सालती थी वह किसी बच्चे का प्यार. हिना को बच्चों से हमेशा प्यार रहा. उम्र बढ़ने के साथ जब बच्चे की ललक बढ़ने लगी तो उन्होंने ‘कारा’ में बच्चा अडौप्ट करने के लिए फौर्म भर दिया. 4 साल के इंतजार के बाद अंतत: हिना को 8 वर्षीय प्रिया को गोद लेने का मौका मिला.

गजब का बदलाव

प्रिया को गोद लेने के बाद हिना की जिंदगी में गजब का बदलाव आ गया. अब उन के सामने एक लक्ष्य है अपनी बेटी को अच्छी परवरिश देने का, उसे अच्छी शिक्षा दिलाने और उस के लाइफ में सैटल करने का. प्रिया के रूप में अब हिना को अपने घरजायदाद का वारिस भी मिल गया है.

अम्मी के मरने के बाद हिना बहुत अकेली हो गई थीं. कई बार अवसादग्रस्त हो जाती थीं. मैडिटेशन सैंटर्स के चक्कर लगाती थीं. मगर प्रिया को पाने के बाद वे खुद में बहुत ताजगी और स्फूर्ति पाती हैं.

प्रिया के साथ वे बहुत खुश हैं. सुबह जल्दी उठती हैं. बेटी को स्कूल के लिए रैडी करती हैं. अपने और उस के लिए ब्रेकफास्ट बनाती हैं. उस का लंच पैक कर के बैग में रखती हैं. फिर कार से उसे स्कूल छोड़ने जाती हैं. पहले हिना के लिए अकेले घर में जो समय काटे नहीं कटता था अब प्रिया के इर्दगिर्द जल्दी बीत जाता है. हर संडे मांबेटी शौपिंग करने जाती हैं, रेस्तरां में लंच करती हैं और जीवन को पूरी मस्ती में जी रही हैं, बिना यह सोचे कि दुनिया उन के बारे में क्या राय रखती है.

शिक्षा, आर्थिक मजबूती, टूटते पारिवारिक बंधन, घर से दूर नौकरी और नई तकनीकों ने आज औरत को यह आजादी दी है कि वह चाहे तो बिना शादी किए किसी मनचाहे पुरुष के साथ सैक्स कर के अथवा बिना किसी पुरुष के संसर्ग के आईवीएफ तकनीक से या किसी अनाथाश्रम से बच्चा गोद ले कर मां बन सकती है. इस पर कानून ने भी अपनी पूर्ण सहमति दे दी है कि बच्चे के जन्म प्रमाणपत्र पर अब पिता का नाम होना आवश्यक नहीं है. न ही स्कूल में एडमिशन के वक्त महिला से पूछा जाएगा कि बच्चे का बाप कौन है?

मिसाल हैं नीना गुप्ता

अनब्याही मां की बात उठी है तो फिल्म अभिनेत्री नीना गुप्ता का किस्सा याद होगा. नीना का वेस्टइंडीज के मशहूर क्रिकेटर विवियन रिचर्ड्स से अफेयर था. दोनों के बीच शारीरिक संबंध थे, जिस के चलते नीना प्रैगनैंट हुई थीं. हालांकि वे जानती थीं कि विवियन रिचर्ड्स उन से शादी नहीं करेंगे क्योंकि वे पहले से शादीशुदा और बच्चों वाले थे, फिर भी नीना ने गर्भ नहीं गिराया और वे विवियन की बच्ची की अनब्याही मां बनीं.

उन्होंने अपनी बच्ची को अपने ही दम पर पाला और उन की बेटी मसाबा आज एक मशहूर फैशन डिजाइनर है. हालांकि बहुत बाद में नीना गुप्ता ने एक इंटरव्यू में कहा था कि किसी स्त्री को अकेले मां बनने का चुनाव नहीं करना चाहिए. यह बहुत कठिन है.

ऐसा नीना ने इसलिए कहा क्योंकि उस समय माहौल अलग था. समाज की सोच दकियानूसी, परंपरावादी और औरत की पवित्रता को उस के कुंआरेपन से आंकने वाली थी. हालांकि फिल्मी दुनिया में औरतों को ले कर काफी खुलापन था मगर उस वक्त शादीशुदा पुरुष कलाकार भी अपनी शादी की बात छिपा कर फिल्मों में काम करते थे क्योंकि शादीशुदा होने की बात सामने आने पर फिल्में नहीं मिलती थीं. ऐसे में फिल्मों में काम करने वाली अभिनेत्रियों को बच्चे तो छोडि़ए, अपने संबंधों तक को छिपाना पड़ता था.

वे अपने बौयफ्रैंड के बारे में किसी को नहीं बताती थीं. यही नहीं, वे फिल्मी पत्रिकाओं में अकसर अपने कुंआरे होने की घोषणाएं भी करती रहती थीं. उन्हें बताया जाता था कि इस से उन की फिल्में चलेंगी.

लेकिन अब ऐसा नहीं है. समाज की सोच और व्यवहार में काफी बदलाव आ चुका है. आज बौलीवुड की अधिकांश अभिनेत्रियां विवाहित हैं. कई तो बच्चों वाली हैं और उन की फिल्में सफल भी होती हैं.

समाज का डर

नैटफ्लिक्स पर आने वाली ‘मेड’ सीरीज सिंगल मदर की कठिनाइयों को बताती है. इस की कहानी अविवाहित युवा मां पर केंद्रित है जो एक अपमानजनक रिश्ते से बच जाती है और घरों की साफसफाई का काम कर के अपनी बेटी का भरणपोषण करने के लिए संघर्ष करती है. इस सीरीज में किसी स्त्री ने अपने बच्चों को त्यागा नहीं, न ही समाज के डर से उन्हें छिपाया.

उन्होंने खुद के लिए और अपने बच्चों के लिए सम्मानजनक स्थान पाने के लिए संघर्ष किया और अंतत: समाज ने उन्हें स्वीकार कर लिया. हमारे धार्मिक ग्रंथों में अनब्याही मां के रूप में कुंती का उदाहरण मिलता है, मगर कुंती ने कर्ण को त्याग दिया था, जिस के लिए कर्ण ने कभी कुंती को माफ नहीं किया.

आज महिलाओं के सामने स्थितियां भिन्न हैं. आज काफी पढ़ीलिखी महिलाएं धर्म, समाज और परिवार द्वारा पैदा की जाने वाली परेशानियों, तनावों और मनोस्थिति से बाहर निकल आई हैं. कुछ साल पहले राजस्थान की एक आईएएस अधिकारी आईवीएफ तकनीक की मदद से मां बनीं.

उन्होंने अपने मातापिता की देखभाल के लिए विवाह नहीं किया. शादी की उम्र निकल गई. लेकिन मां बनने की इच्छा उन्होंने इस तरह से पूरी की.

इसी तरह हाल ही में मध्य प्रदेश की एक मशहूर रेडियो कलाकार भी अविवाहित मां बनी हैं. अभिनेत्री सुष्मिता सेन, एकता कपूर, रवीना टंडन आदि फिल्मी हस्तियों ने अविवाहित रहते हुए भी बच्चों को गोद लिया, उन्हें पाला और उन को अपना नाम दिया है.

अधिकार में कोई फर्क नहीं

वक्त बदलता है तो नैतिकता के चले आ रहे मानदंडों को भी उसी हिसाब से बदलना पड़ता है. हमारे यहां कानून ने अब स्त्री को मां बनने के चुनाव की आजादी दे दी है. वह अविवाहित है, विवाहित है, अकेली है, इस से एक औरत के मां बनने के अधिकार में कोई फर्क नहीं पड़ता. यहां तक कि अब स्कूलों में भी बच्चे के पिता का नाम बताना जरूरी नहीं है.

6 जुलाई, 2015 को सुप्रीम कोर्ट ने बच्चे पर मां के नैसर्गिक हक पर मुहर लगाते हुए अविवाहित मां को कानूनी पहचान प्रदान कर दी है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा कि अविवाहित मां को बच्चे का संरक्षक बनने के लिए पिता से मंजूरी लेना जरूरी नहीं. इतना ही नहीं कोर्ट ने यह भी कहा है कि अगर कोई अविवाहित या अकेली रह रही मां बच्चे के जन्म प्रमाणपत्र के लिए आवेदन करती है तो सिर्फ एक हलफनामा देने पर उसे उस के बच्चे का जन्म प्रमाणपत्र जारी किया जाएगा.

एक केस की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे बच्चों के जन्म प्रमाणपत्र हासिल करने में आने वाली दिक्कतों पर विचार करते हुए यह फैसला दिया था. कोर्ट ने कहा कि अभी तक  याचिकाकर्ता मां को अपने 5 साल के बच्चे का जन्म प्रमाणपत्र नहीं मिल सका है जोकि आगे चल कर बच्चे के लिए समस्या बनेगा. कोर्ट सरकार को निर्देशित करती है कि वह तुरंत उस मां को उस के बच्चे का जन्म प्रमाणपत्र मुहैया कराए. कोर्ट ने कहा कि स्कूल में बच्चे के एडमिशन और पासपोर्ट हासिल करने के लिए आवेदन करते समय पिता का नाम देना जरूरी नहीं है, लेकिन इन दोनों ही मामलों में जन्म प्रमाणपत्र लगाना पड़ता है.

मां की पहचान के बारे में कभी संदेह नहीं रहा. कानून गतिशील होता है और उसे समय के साथ चलना चाहिए. कोर्ट ने कहा कि जब कभी भी एकल संरक्षक या अविवाहित मां अपने गर्भ से जन्मे बच्चे का जन्म प्रमाणपत्र प्राप्त करने के लिए आवेदन करेगी तो जिम्मेदार अधिकारी सिर्फ एक हलफनामा ले कर उसे जन्म प्रमाणपत्र जारी करेंगे.

यह सुनिश्चित करना राज्य का कर्तव्य है

कि कोई भी नागरिक इस कारण परेशानी न भुगते कि उस के मातापिता ने उस के जन्म को रजिस्टर नहीं कराया.

अधिकार और आजादी

हालांकि इस अधिकार और आजादी के बाद भी आम कम पढ़ीलिखी और आर्थिक रूप से दूसरों पर निर्भर औरतें बिनब्याही मां बनने का रिस्क नहीं उठाती हैं. औरतें प्रेम में गर्भधारण करने के बाद प्रेमी पर जल्द से जल्द विवाह करने का दबाव बनाती हैं. कभीकभी प्रेमी उस लड़की से शादी नहीं करना चाहता है और छोड़ कर भाग जाता है. ऐसे में लड़की या तो किसी प्राइवेट डाक्टर के क्लीनिक में गर्भपात करवा लेती है

या महीने ज्यादा हो जाने के कारण यदि गर्भपात

न हो सके तो बच्चा पैदा कर के यहांवहां फेंक देती है.

देशभर में ऐसे सैकड़ों नवजात पुलिस को प्रतिदिन ?ाडि़यों में, नालों में या सुनसान जगहों पर रोते मिलते हैं, जिन्हें उन की मांओं ने पैदा कर के मरने के लिए फेंक दिया. कई नवजात बच्चों को तो कुत्ते नोंच डालते हैं.

दिल्ली सहित देशभर के अनाथाश्रमों में ऐसे दुधमुंहे बच्चों की तादाद बढ़ती जा रही है जो अपनी मांओं द्वारा पैदा कर के फेंक दिए गए. अनेक अनाथाश्रमों ने अपने दरवाजों पर पालने लगा रखे हैं. इन पालनों में आएदिन कोई न कोई नवजात बच्चा पड़ा मिलता है.

साउथ दिल्ली के अनेक छोटेछोटे प्राइवेट अस्पतालों में एक और धंधा डाक्टर, नर्सों, दाइयों और बच्चा बेचने वाले गिरोहों की सांठगांठ में बड़े धड़ल्ले से चल रहा है. इन अस्पतालों में अनब्याही मांओं की डिलिवरी करवाई जाती है और पैदा हुए नवजात को तुरंत बच्चा बेचने वाले गिरोह के सदस्य के हवाले कर दिया जाता है. यह गिरोह शहर के उन अनाथाश्रमों पर नजर रखता है जहां बेऔलाद मांबाप बच्चा गोद लेने के लिए चक्कर काटते हैं.

आसान नहीं प्रक्रिया

‘कारा’ की गाइडलाइन बहुत सख्त होने के चलते बच्चा गोद लेना चूंकि आसान प्रक्रिया नहीं है और इस के लिए कपल को कई साल इंतजार करना पड़ता है, कई कठिन प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है और बच्चा भी उन्हें बड़ी उम्र का मिलता है. ऐसे में बच्चा बेचने वाले गिरोह के सदस्य ऐसे मातापिता से नवजात बच्चों का सौदा तय कर लेते हैं. यह सौदा डेढ़ लाख रुपए से 5 लाख रुपए तक में तय होता है, जिस में से कभीकभी तो बच्चा पैदा करने वाली मां को धनराशि का कुछ हिस्सा दिया जाता है, पर ज्यादातर में नहीं देते हैं.

उस को तो यही बात बड़ी संतोषजनक लगती है कि अनचाहे बच्चे से उसे मुक्ति मिल गई. अस्पताल वाले बच्चे के जन्म प्रमाणपत्र पर उस महिला का नाम चढ़ा देते हैं जो बच्चा खरीदती है.

कानून द्वारा औरत को शादी से पहले या शादी के बाद मां बनने और अपने बच्चे का पूर्ण अभिभावक होने का अधिकार दिए जाने के बावजूद चूंकि भारतीय समाज और परिवार में अभी भी अनब्याही मां को धिक्कार की नजर से देखा जाता है, उस पर छींटाकशी की जाती है, खासतौर पर छोटे शहरों और कसबों में इसलिए अधिकांश औरतें न चाहते हुए भी अपने बच्चे को अपने से अलग करने की पीड़ा ?ोल रही हैं.

उन औरतों की तादाद बहुत कम है जो

धर्म, समाज और परिवार की जकड़न से खुद को मुक्त कर के अपने पैदा किए शिशु के साथ खुशीखुशी जी रही हैं. इस तसवीर को और बेहतर बनाने की कोशिश होनी चाहिए ताकि कोई औरत मां बनने से वंचित न रहे और कोई बच्चा नाजायज न कहलाए.

एक ट्रेन जहां चलती हैं लेडी डौन की

‘‘अरे हटोहटो मु?ो अंदर आने दो… नहीं उतरो आंटी, क्या यही एक ट्रेन है, जो अंतिम है, उतरो, उतर जाओ जगह नहीं है, दूसरी में चढ़ जाना 3 से 4 मिनट में एक लोकल ट्रेन आती है, फिर भी घर जाने की जल्दी में इसी में चढ़ना है…’’ ऐसी कहे जा रही थी, मुंबई की विरार लेडीज स्पैशल में एक युवा महिला, चढ़ने वाली 45 वर्षीय महिला को, जिसे हर रोज इसे सुनना पड़ता है, लेकिन घर का बजट न बिगड़े, इसलिए इतनी मुश्किलों के बाद भी वह जौब कर रही है, हालांकि कोविड के बाद उसे केवल 3 दिन ही औफिस आना पड़ता है, लेकिन इन 3 दिनों में औफिस आना भारी पड़ता है. कई महिलाएं भी उस दबंग महिला की हां में हां मिला रही थीं और उस महिला को उतरने के लिए कह रही थीं.

अबला नहीं सबला है यहां

यहां यह बता दें कि विरार लेडीज स्पैशल रोज चर्चगेट से चल कर हर स्टेशन पर रुकती हुई विरार पहुंचती है, लेकिन उतरने वालों से चढ़ने वालों की संख्या हमेशा अधिक रहती है. गेट के एक कोने में खड़ी महिला गोरेगांव उतरने का इंतजार कर रही थी, लेकिन वह मन ही मन सोच रही थी कि क्या वह उतर पाएगी क्योंकि इस विरार लेडीज स्पैशल में बोरीवली तक की किसी महिला यात्री को चढ़ने या उतरने नहीं दिया जाता क्योंकि बोरीवली लेडीज स्पैशल है, इसलिए विरार महिलाओं के कई गैंग, जो इस बात का इतमिनान करते हैं कि बोरीवली तक उतरने वाली कोई महिला इस ट्रेन में चढ़ी है या नहीं.

4-5 महिला गैंग, जिन में 7-8 महिलाएं हर 1 गैंग में होती हैं. अगर गलती से भी कोई महिला इस लोकल में चढ़ जाती है तो उसे ट्रेन के गैंग विरार तक ले जाते हैं. यहां यह सम?ाना मुश्किल होता है कि अबला कही जाने वाली महिला इतनी सबला कैसे हो गई.

कठिन सफर

असल में मुंबई की लोकल ट्रेन यात्रा के उस एक घंटे में एक महिला ही दूसरी महिला की शत्रु बन जाती है. मायानगरी की भागदौड़ में घरपरिवार के साथ कैरियर को भी संवारने का दबाव महिलाओं पर होता है. सुबह कार्यालय पहुंचने की जल्दी और शाम को घर लौटने की, इस के लिए महिलाएं बहुत कुछ ?ोलती हैं.

इस में सब से दुखदायी है औफिस से घर पहुंचने के लिए मुंबई से विरार की ट्रेन यात्रा, जहां महिला डब्बे में महिलाएं ही दूसरी महिलाओं की शत्रु बन जाती हैं. मुंबई से विरार के बीच की इस ट्रेन यात्रा में महिलाओं के गैंग का बोलबाला रहता है.

ऐसे में कई बार कई महिलाओं ने अपनी नासम?ा से जान तक गवां दी. सुबह निकली महिला चल कर नहीं, स्ट्रेचर पर मृत अवस्था में घर पहुंचती है. यहां सीट भी उन्हीं महिलाओं को मिलती है, जो उस महिला गैंग की सदस्य होती हैं अन्यथा कुछ भी कर लें, आप को मारपीट से ले कर अपनी जान भी गवानी पड़ सकती है.

दमदम मारपीट

ऐसी ही एक घटना घटी पिछले दिनों ठाणे पनवेल लोकल ट्रेन के महिला कोच में. तुर्भे स्टेशन पर सीट खाली होने पर एक महिला यात्री ने दूसरी महिला यात्री को सीट देने की कोशिश की, ऐसे में तीसरी महिला ने उस सीट को कब्जा करने की कोशिश की, पहले तीनों में बहस हुई, बाद में बात इतनी बढ़ी कि वे आपस में मारपीट करने लगीं. कुछ देर बाद मामला इस कदर बढ़ गया कि महिलाओं में बाल खींचना, घूंसा, थप्पड़ तक शुरू हो गए. इस मारपीट में महिला पुलिस आ गई. इस मामले में दोनों महिलाओं ने एकदूसरे के खिलाफ मामला दर्ज कराया. महिला पुलिस सहित करीब 3 महिलाएं इस विवाद में घायल हुईं.

वाशी रेलवे स्टेशन के वरिष्ठ पुलिस निरीक्षक एस कटारे ने जानकारी देते हुए बताया कि सीट को ले कर शुरू हुए विवाद में कुछ महिलाओं ने आपस में मारपीट की थी. इस मारपीट में एक महिला पुलिसकर्मी भी घायल हो गई. उस का इलाज कराया गया. इस के अलावा सरकारी कर्मचारी से मारपीट करने की वजह से एक महिला को गिरफ्तार भी किया गया.

शिकायत नहीं मुंबई लोकल के ट्रेन के इस सफर में बहस, मारपीट, कपडे़ फाड़ना, धक्के देना आदि होते रहते हैं, लेकिन सही तरह से वही महिला इन लोकल्स में सफर कर पाती है, जो झगडे़ से अलग किसी कोने में खड़ी रह कर अपने पसंद के गाने हैड फोन के द्वारा सुनते हुए खुश रहे. इन लोकल्स में सीट मिलना संभव नहीं और कोई आप को सीट छोड़ देने को कहे, तो हंसती हुई तुरंत सीट छोड़ कर खड़ा हो जाना ही ठीक रहता है ताकि आप सही सलामत अपनी जान ले कर घर पहुंच

जानें क्या है फर्जी अनामिका शुक्ला की असली कहानी

आपने पिछले कुछ दिनों में अनामिका शुक्ला नाम की कई फर्जी शिक्षिकाओं का मामला सुना होगा. आखिर कौन है यह अनामिका शुक्ला, इसने क्या फर्जीवाडा किया है? आइए जानते हैं

कौन है असली अनामिका?

अनामिका शुक्ला उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले में रहने वाली एक बेरोज़गार महिला है जो शिक्षिका के पद के लिए 2017 में अप्लाई करती है पर आज तक उसको नौकरी नही मिली है. परंतु अन्य 25 महिलाओं ने अपना नाम अनामिका शुक्ला रख कर सरकारी स्कूलों में नौकरी प्राप्त कर ली. जब यह मामला सामने आया तो असली अनामिका अपने सारे दस्तावेज लेकर शिक्षा विभाग पहुंच गई व अपने असली होने का प्रमाण दिया. असली अनामिका आज तक बेरोज़गार है जबकि फर्जी अनामिकाएं अपने नाम पर एक साथ 25 स्कूलों में पढाकर करोडों रूपए छाप चुकी हैं.

अब नकली अनामिकाओं का क्या हुआ?

जब से इस मामले पर कार्यवाही होनी शुरू हुई है तब से सारी फर्जी अनामिकाओं ने स्कूल आना छोड दिया है. एक महिला ने तो रात को ही अपना इस्तीफा शिक्षा विभाग को दे दिया. फर्जी शिक्षिकाओं ने अपने सारे दस्तावेज अनामिका शुक्ला के नाम से बनवा रखे हैं जो कि सही हैं परंतु जब उनके स्थान जहां कि वो निवासी हैं के बारे में जानकारी निकाली गई तब उनका भेद खुल गया.

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कुछ शिक्षिकाएं तो कभी स्कूल ही नहीं गई लेकिन फिर भी उनके नाम पर सैलरी पूरी आ रही थी. जब इस घोटाले का भांडा फूटा तो किसी ने स्कूल आना छोड दिया तो किसी ने इस्तीफा ही दे दिया.

खतरे में रायबरेली शिक्षा विभाग

यू.पी के रायबरेली शिक्षा विभाग से भी इस घोटाले के पेंच जुडे हुए हैं. शिक्षा विभाग भी शक के घेरे में है क्योंकि जो महिला बेरोजगार बैठी है उसके नाम से फर्जी दस्तावेज बना कर किसी अन्य को कैसे नियुक्त किया जा सकता है. जो शिक्षिका कभी स्कूल ही नहीं गई उसके नाम से कैसे हर महीने सैलरी दी जा रही है. इसके बाद ही शिक्षा विभाग ने आधी से ज्यादा नकली शिक्षिकाओं के नाम काट दिए. तथा कुछ नकली शिक्षिकाएं तो एक दम से ही गायब हो गई, उन्होने स्कूल आना भी छोड दिया.

हमारे हिसाब से रायबरेली के इस शिक्षा विभाग पर भी कडी से कडी कार्यवाही होनी चाहिए ताकि आगे से अन्य फर्जी घोटाले न हो तथा किसी योग्य के साथ अन्याय न हो. ऐसी ही अन्य खबरों की पडताल जान ने के लिए हमारे साथ जुडे रहिए.

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मैं दोबारा किन्नर बन कर ही जन्म लेना चाहती हूं- नाज जोशी

दिल्ली की रहने वाली ट्रांसजेंडर नाज जोशी ने मौरीशस में मिस वर्ल्ड डाइवर्सिटी 2019 में लगातार तीसरी बार जीत हासिल कर भारत का नाम रोशन किया है. वह सामान्य महिलाओं के साथ किसी अंतर्राष्ट्रीय सौंदर्य प्रतियोगिता में जीतने वाली दुनिया की पहली ट्रांसजेंडर भी हैं. आइये तमाम परेशानियों का सामना कर इस मुकाम तक पहुंचने वाली नाज की उपलब्धियों और जीवन में आई चुनौतियों पर डालते हैं एक नजर;

सवाल- आप को जीवन के प्रारम्भिक दिनों में किस तरह के संघर्षों का सामना करना पड़ा था?

मेरा जन्म 31 दिसंबर 1984 को दिल्ली के शाहदरा इलाके में हुआ था. जब मैं 5 साल की थी तो मुझे घर से निकाल दिया गया क्यों कि मैं लड़कियों की तरह व्यवहार करती थी. मांबाप को लगता था कि उन के इस बेटे को दुनिया स्वीकार नहीं करेगी. मैं लड़का कम और लड़की अधिक लगती थी. समाज के तानों के डर से मांबाप ने मुझे मामा के यहां भेज दिया. मामा के यहां पहले से 7 बच्चों का परिवार था जहां मैं आठवीं बन कर गई थी और घर की आर्थिक स्थिति भी ठीक नहीं थी. उन के बच्चे पढ़ते नहीं थे बल्कि काम करते थे. मैं ने मामा जी से कहा कि मैं पढ़ना भी चाहती हूं. उन्होंने मेरा दाखिला स्कूल में करवा दिया मगर साथ में एक ढाबे में काम पर भी लगा दिया.

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मैं सुबह स्कूल जाती थी फिर दोपहर में ढाबे में काम करती. शाम को घर का काम करती और रात को होमवर्क कर थक कर सो जाती. सुबह फिर स्कूल चली जाती. 11 साल की उम्र तक इसी तरह जीवन जिया. मैं खुश थी कि मुझे पढ़ने को मिल रहा है. मगर एक दिन मेरे कजन भाई ने मेरा मौलेस्टेशन किया. मैं काफी इंजुयर्ड हो गई थी. होश आया तो खुद को अस्पताल में पाया. बहुत सारे बैंडेज लगे हुए थे.

मामा ने कहा कि घर में कुछ प्रौब्लम है सो तुम्हे अपने घर नहीं ले जा सकता. यहां से आगे की जर्नी अब तुम्हें खुद ही तय करनी है. उन्होंने किन्नर समुदाय की एक महिला से मेरी मुलाकात कराई और कहा कि अब तुम्हे इन के साथ रहना है. उस महिला से भी मैं ने यही कहा कि मुझे पढ़ना है. उन्होंने स्कूल के साथ मुझे डांस बार में काम पर लगा दिया. मैं कमाने के साथसाथ पढ़ाई करने लगी. डांस बार में हमारा काम सिर्फ लोगों का मनोरंजन करना था. यहां लोग हमें हीनभावना से देखते थे लेकिन किसी भी कस्टमर ने हमारे साथ गलत नहीं किया. हमें गन्दी नजरों से नहीं देखा.

दरअसल कई बार जो जगह गंदी मानी जाती है वहां लोग अच्छे होते हैं और अच्छी जगह में भी गंदगी मिल सकती है जैसे कि बाबाओं साधुसंतों को देखिए. इन के यहां कितने गंदे काम होते हैं.

मैं ने 2013 के दिसंबर में अपनी सर्जरी कराई थी. 2014 में जजमेंट आई कि हमें अपना जेंडर चुनने का हक़ है. तब मैं ने भी मेडिकल और आईकार्ड जमा कर खुद को महिला प्रूव किया. अब मैं महिला हूँ और महिला वाले सारे हक़ मेरे पास हैं. मैं दोबारा भी किन्नर बन कर ही जन्म लेना चाहती हूँ.

सवाल- आप मौडलिंग के फील्ड में कैसे आईं ?

जब मैं 18 साल की हुई तो विवेका बाबाजी जो एक मॉरिश मॉडल हैं, से मेरी मुलाक़ात हुई. वे मेरी दूर की कजन सिस्टर हैं और महाराष्ट्र से बिलॉन्ग करती हैं. उन्होंने मुझे फैशन डिजाइनिंग कोर्स ज्वाइन करने की सलाह दी क्यों कि मुझे कपड़े डिज़ाइन करने का शौक था. उन्होंने मुझे निफ्ट में पढ़ाया. मैं वहां टॉपर रही और 3 साल पढ़ने के बाद मुझे रितु कुमार के यहाँ जॉब मिल गई. 2 साल काम किया पर वहां सेफ वर्क एन्वॉयरन्मेंट नहीं था.

तब मैं ने तय किया कि मैं अपना बुटीक चालू करुँगी. मैं ने शाहदरा में बुटीक खोला मगर लोग अपनी बहुबेटियों को मेरे यहाँ भेजने से कतराते थे क्यों कि मैं किन्नर थी और लोगों को मुझ पर विश्वास नहीं था. उन्हें लगता था कि पता नहीं मैं उन के साथ क्या कर जाउंगी.
बुटीक फ्लॉप होने के बाद मैं ने जिस्म बेचने का धंधा शुरू किया. इस धंधे के दौरान ही एक फोटोग्राफर से मेरी मुलाकात हुई. उन्होंने मुझे मॉडलिंग लाइन में उतारा.

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2008 के आसपास मैं ने मौडलिंग शुरू की. तहलका पत्रिका में मेरी फोटो कवरपेज पर आई. इस के अलावा भी 4- 5 मैगजीन के कवरपेज पर मैं आ चुकी हूं. अब तक 4 ब्यूटी पैजेंट भी जीत चुकी हूं. मैं पहली ऐसी ट्रांसजेंडर मौडल हूं जिसे इतने बड़ेबड़े मौके मिले वरना इस फील्ड में हमारे समुदाय के लोगों को चांस ही नहीं मिलता.

मौडलिंग के दौरान मेरे साथ काम करने वाले बच्चे 18- 19 साल से ज्यादा के नहीं होते थे जब कि मैं काफी मैच्योर थी. तब मैं ने इन्हे अपने फैशन गुरुकुल के तहत फ्री में मॉडलिंग सिखाना शुरू किया. 2015 में मैं ने शादीशुदा महिलाओं के लिए ब्यूटी पैजेंट करवाना शुरू किया. कई तरह के कांटेस्ट करवाए. मैं ने उन महिलाओं से कहा कि मैं आप के लिए काम कर रही हूँ तो आप को भी ट्रांसजेंडर्स के लिए काम करना होगा. उन्होंने ऐसा किया भी. दरअसल मैं गैप खत्म करना चाहती हूं. हमारी जैसी ट्रांसजेंडर्स भी ओरतें ही हैं. दोनों ही समाज में अपनी पहचान खोज रही हैं. दोनों को एकदूसरे का साथ चाहिए.

सवाल- आप के जीवन में किस तरह की मुश्किलें और चुनौतियां आईं ?

मुश्किलें कई तरह की हैं मसलन; आज भी लोग हमें टेढ़ी और खराब नजरों से देखते हैं.
लोग हमारे साथ भेदभाव करते हैं. वे यह नहीं समझते कि हम भी उन के ही अंश हैं. हमें भी किसी ओरत ने ही जन्म दिया है.
हमारे लिए गलत शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है. यह दिल्ली जैसे शहरों में ज्यादा है. खासकर जब लोग हमारी फैमिली के बारे में कुछ भद्दा बोलने लगते हैं तो यह हमारे लिए बहुत दर्दनाक होता है.
लोग हमारे साथ रिश्ता जोड़ना नहीं चाहते. यहाँ तक कि यह कह कर भी शादियां तोड़ दी जाती हैं कि इस का भाई या बहन ट्रांसजेंडर है. हमें घर ढूंढने में भी परेशानी आती है. कोई हमें घर देना नहीं चाहता.
हमलोग भी चाहते हैं कि हमारा कोई हमराज हो. हमारा भी घर बसे. हम भी महिलाएं हैं. पुरुष हमारी तरफ आकर्षित होते हैं. मगर समाज के डर से पुरुष हमें अपनाने का हौसला नहीं जुटा पाते. वे अपने किये वादे नहीं निभाते. हमें सच्चा प्यार नहीं मिल पाता. नतीजा यह होता है कि बहुत सारी किन्नर 40 -45 की उम्र तक आतेआते डिप्रेशन का शिकार होने लगती हैं. मेरी तो इंगगेजमेंट के बाद भी शादी टूट गई. सिर्फ इस वजह से कि मैं एक ट्रांसजेंडर हूँ.

सवाल- अक्सर हम देखते हैं कि किन्नर शादीब्याह के मौकों या फिर चौकचौराहों पर जबरन पैसे वसूली का काम करते हैं. क्या यह गलत नहीं है?

दरअसल यह बात किन्नर पुराण में लिखी है कि हमें मांग कर खाना है. मगर जोरजबरदस्ती की बात बहुत गलत है. कोई शख्स अपनी ख़ुशी से जितना दे उतना ही प्यार से लेना उचित है. किन्नरों को इस तरह जबरदस्ती करता देख कर कभीकभी बहुत शर्मिंदगी महसूस होती है. यह तो पूरी तरह गुंडागर्दी है.

सवाल- आप को अपनी जिंदगी में कुछ कमी महसूस होती है?

समय के साथ मुझे जीवन में सब कुछ मिलता गया मगर एक कमी फिर भी महसूस होती है और वह है किसी हमराज का न होना. कोई भी पुरुष किसी ट्रांसजेंडर का हाथ थामने की हिम्मत नहीं कर पाता. प्यार भले ही कर ले मगर उसे एक मुकाम तक नहीं पहुंचा पाता. आज भी मैं अकेलापन महसूस करती हूँ और यही वजह है कि मैं ने 2018 में 15 दिन की एक बच्ची को गोद लिया. वह एक आईवीएफ बेबी थी जिसे उस के मांबाप ने छोड़ दिया था. सच कहूं तो इस बच्ची ने मुझे अपने परिवार से वापस जोड़ दिया है.

सवाल- आप फ़िलहाल किस तरह की लड़ाई लड़ रही हैं?

मेरी लड़ाई यह है कि मैं लोगों को समझाने का प्रयास करती हूँ कि हमारा समुदाय भी प्यार और सम्मान के काबिल है. हमें भी जीने और समान अधिकार पाने का हक़ है. हमें गन्दी नजरों से देखना बंद किया जाना चाहिए. हमें भी शादी करने या बच्चे गोद लेने का हक़ है.

हमारे समुदाय की बहुत सी महिलाएं जिस्मफिरोशी के काम करने को मजबूर होती है. ऐसा नहीं कि यही काम उन्हें पसंद है मगर वजह यह है कि कहीं न कहीं सामान्य काम करना उन के वश में नहीं. कॉरपोरेट वर्ल्ड या दूसरी सामन्य नौकरियों में उन्हें सेफ वर्क एन्वॉयरन्मेंट नहीं मिल पाता. लोग हमारा मजाक उड़ाते हैं या हमारे साथ गलत व्यवहार करते हैं. चाह कर भी हम ऐसी जगहों पर काम नहीं कर पाते.

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सवाल- क्या ट्रांसजेंडर भी कई तरह के होते हैं?

जी हां ट्रांसजेंडर कई तरह के होते है; कुछ वे होते हैं जिन के जननांग पूरी तरह डेवेलप नहीं हो पाते.
कुछ ऐसे हैं जो खुद को आइडेंटिफाई नहीं कर पाते. उन का जन्म भले ही पुरुष शरीर में हुआ हो मगर वे खुद को स्त्री जैसा महसूस करते हैं. ये बाद में औपरेशन द्वारा अपना लिंग परिवर्तन कराते हैं. इन्हें ट्रांस सेक्सुअल कहा जाता है.
कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हे जबरन किन्नर बनाया जाता है. बचपन में ही उन के जननांग को काट दिया जाता है.

बिना बालों वाली दुल्हन

ये जानकर हैरानी होगी कि बिना बालों के भी कोई दुल्हन इतनी सुन्दर कैसे दिख सकती है, जी हां तमिलनाडु की 28 वर्षीय वैष्णवी पूवेंद्रन पिल्लै एक ऐसी ही दुल्हन बनी. इन्होंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और बतौर इंजीनियर काम भी कर चुकी हैं. दो बार कैंसर से लड़ कर उसे हरा चुकी वैष्णवी ने दुल्हन के जोड़े में फोटो शूट करवाया था, जिसमें वो काफी खूबसूरत दिख रही हैं.

वैष्णवी का परिवार मूल रूप से तमिलनाडू का है लेकिन अभी वैष्णवी अपने परिवार के साथ मलेशिया में हैं.इनका परिवार इन्हें  प्यार से नवी कहकर बुलाता है. नवी इंस्टाग्राम पर भी काफी एक्टिव रहती हैं.सिर्फ इंस्टा ही नहीं बल्कि सोशल मीडिया पर हर जगह एक्टिव रहती हैं.

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हाथों में मेहंदी लगाकर, माथे पर कत्थई कलर की बिंदी, होंठों पर कत्थई कलर की लिपस्टिक, कत्थई कलर की साड़ी में काफी खूबसूरत लग रही हैं वैष्णवी. आप सोचेंगे कि इसमें नया क्या है? तो इस दुल्हन के सर पर न जूड़ा है, न फूलों का गजरा है और ना ही बालों में कोई हेयर स्टाइल क्योंकि वैष्णवी कैंसर पीड़ित महिला हैं, जिसकी वजह से उनके सारे बाल झड़ चुके हैं. उन्होंने अपनी अब तक की ज़िंदगी में दो बार कैंसर को हराया है. एक बार स्तन कैंसर और दूसरी बार लिवर-बैकबोन कैंसर को. वैष्णवी ने दुल्हन बनकर फोटो शूट करवाया लेकिन फोटो शूट में कहीं पर भी अपने सर को ढ़कने की कोशिश नहीं की. फोटो में उनका पूरा सर खुला है और कुछ फोटो में एक पतली सी चुनरी ली है जिसमें उनका सर साफ-साफ दिख रहा है.

हर दुल्हन अपनी शादी में खूबसूरत दिखना चाहती है,लेकिन कैंसर से पीड़ित लोगों के लिए ये काफी मुश्किल होता है.खासतौर पर महिलाओं के लिए इस बिमारी से जूझना आसान नहीं होता क्योंकि ऐसे में व्यक्ति की सोच नकारात्मक होने लगती है और कभी-कभी तो व्यक्ति डिप्रेशन में चला जाता है. कैंसर व्यक्ति को शारीरिक और भावनात्मक तौर पर भी तोड़ कर रख देता है. लेकिन वैष्णवी ने हार नहीं मानी,वो कैंसर से लड़ीं. वैष्णवी के स्तन हटाए जा चुके हैं, बाल जा चुके हैं लेकिन उनकी हिम्मत में कोई कमी नहीं आई है बल्कि वैष्णवी ने दुल्हन के लिबास में फोटो शूट करवाया और उसको इंस्टाग्राम पर भी शेयर किया. वैष्णवी ने एक चैनल को इंटरव्यू में बताया कि घर वालों के मना करने के बावजूद भी सोशल मीडिया पर उन्होंने अपने कैंसर की बातें शेयर की और उन्हें काफी प्यार भी मिला.

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एक दिन नेटफ़्लिक्स पर कोई फिल्म देखते वक्त वैष्णवी के दिमाग में दुल्हन बनकर फोटोशूट करवाने का आइडिया आया और बस उन्होंने कर दिखाया. यह करने से पहले उन्होंने एक बार भी ये नहीं सोचा की लोग क्या कहेंगे..समाज के बारे में भी नहीं सोचा की लोग उनका मजाक बना सकते हैं बल्कि वैष्णवी ने ये बात साबित कर दी आप किसी भी बीमारी से लड़ सकते हैं….फोटो शेयर करने के बाद वैष्णवी को सोशल मीडिया पर काफी प्यार मिला साथ ही उनके इस काम की खूब सराहना भी की गई ऐसी हैं वैष्णवी पूवेंद्रन पिल्लै….जिससे हर किसी को कुछ सीखना चाहिए.

तीन तलाक कानून: मुहरा बनी मुस्लिम महिलाएं

न्ध्विपक्ष के भारी विरोध के बीच आखिरकार तीन तलाक बिल लोक सभा के बाद राज्य सभा में भी पास हो गया और इसी के साथ मुस्लिम महिलाओं के दुख, डर और त्रासदी को मुहरा बना कर मोदी सरकार ने अपनी राजनीति थोड़ी और चमका ली. लोक सभा में जहां बिल के पक्ष में 303 और विपक्ष में केवल 82 वोट पड़े, वहीं राज्य सभा में वोटिंग के दौरान पक्ष में 99 और विरोध में 84 वोट पड़े. राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद अब यह नया कानून बन गया. अब तीन तलाक गैरकानूनी होगा और दोषी को 3 साल जेल की सजा भी भुगतनी पड़ सकती है.

बीते 5 सालों के एनडीए के कार्यकाल में इस बात की पुरजोर कोशिशें होती रहीं कि किसी तरह सामदामदंडभेद से मुसलमानों को बस में किया जा सके. उन के अंदर डर पैदा किया जा सके. दूसरे कार्यकाल में यह साजिश कामयाब हो गई. पहले मुसलमानों को आतंकी बना कर जेलों में ठूंसा गया, फिर मौब लिंचिंग के जरीए उन का उत्पीड़न किया गया, गोरक्षकों से उन्हें पिटवाया और मरवाया गया, उन्हें ‘जय श्रीराम’ का डर दिखाया गया और अब तीन तलाक के मुद्दे पर उन्हें जेल भेजने की पूरी तैयारी हो गई.

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तीन तलाक को संगीन अपराध घोषित किए जाने के बाद तीन तलाक की त्रासदी से गुजर रहीं या तीन तलाक के डर में जी रहीं मुस्लिम महिलाओं में भले ही खुशी की लहर हो या उन्हें लग रहा हो कि बस मोदी सरकार ही उन की सब से बड़ी हमदर्द है, मगर इस की तह में छिपी साजिश और इस के दूरगामी परिणामों का अंदाजा वे नहीं लगा पा रही हैं. सच यह है कि मुस्लिम समाज में स्त्रीपुरुष के बीच फूट पड़ गई है. भाजपा की मंशा भी यही थी. वह हमदर्दी जता कर, आंसू बहा कर एक समाज के निजी घेरे में घुस गई है.

मोदी सरकार ने तीन तलाक देने वाले मुस्लिम पुरुष को अपराधी करार दे कर तीन साल के लिए जेल भेजने की तैयारी तो कर दी, मगर पीडि़त स्त्री को सुरक्षा और आर्थिक सहायता देने की बात कतई नहीं की है. आने वाले समय में ‘मुस्लिम राष्ट्रीय मंच’ के माध्यम से मुस्लिम महिलाओं को कम से कम बच्चे पैदा करने के लिए भी राजी करने का काम किया जाएगा. कहने को तो यह फैमिली प्लानिंग की बातें समझाने की बात करता है, पर सवाल यह है कि सिर्फ मुस्लिम औरतों को ही क्यों यह बातें समझाई जाएं? गरीब हिंदू औरतों को क्यों नहीं?

यह बात भी ध्यान देने वाली है कि सिर्फ मुस्लिम औरतें ही इस देश में असुरक्षित नहीं हैं, बल्कि हिंदू स्त्रियां भी अपने समाज में बेहद असुरक्षित हैं. अगर कोई महिलाओं की सुरक्षा और उन के हक के लिए इतना चिंतित है, वह नारी गरिमा, नारी न्याय और अस्मिता के लिए काम करना चाहता है, तो उसे सभी समाजों की औरतों की सुरक्षा और सम्मान की बात करनी होगी और सब के लिए समान दृष्टि से काम करना होगा. खाप पंचायतों के हाथों सताई जा रही, मारी जा रही औरतों और बच्चियों के प्रति किसी की संवेदनशीलता और हमदर्दी नहीं जागती. उन की सुरक्षा के लिए अब तक क्या किया गया, इस बारे में सवाल किए जाने चाहिए.

इतनी हमदर्दी क्यों

धर्म, जाति के बाहर विवाह करने वाली महिलाओं को मौत के घाट उतार देने वालों के खिलाफ किसी का खून क्यों नहीं खौलता? उन पीडि़ताओं के प्रति किसी जिम्मेदारी का एहसास किसी को क्यों नहीं होता? सरकार यह ऐलान क्यों नहीं करती कि हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजस्थान जैसे राज्यों में पूरी ताकत और दबंगई के साथ चल रही नाजायज और संविधान विरोधी खाप पंचायतों को वह बंद करने जा रही है और पूरे देश में सिर्फ भारत का संविधान चलेगा?

यह आंसू और हमदर्दी सिर्फ मुस्लिम महिलाओं के प्रति ही है, खाप पंचायतों द्वारा औरतों पर अत्याचार के विरुद्ध हरगिज नहीं बोला जा रहा है, क्योंकि इस से पिछड़े वर्गों में उन का वोटबैंक प्रभावित होगा.

इस बारे में डीएमके सांसद कनिमोझी का बयान दर्ज करने लायक है कि ‘तीन तलाक पर बिल लाने में तेजी दिखाने वाली एनडीए सरकार ने ओनर किलिंग को ले कर बिल लाने की बात क्यों नहीं सोची? ओनर किलिंग को ले कर अभी तक क्या कानून बना है? उन्होंने इस बिल को साजिश बताते हुए आरोप लगाया कि भाजपा नेता आजादी की बात करते हैं, लेकिन आज के हालात ऐसे हैं कि देश में खानेपहनने तक की आजादी नहीं है.’

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एआईएमआईएम के नेता असदुद्दीन ओवैसी की बात भी काबिलेगौर है कि नए बिल के मुताबिक अगर पति ने पत्नी को तीन बार तलाक कह दिया तो वह अपराधी करार दे कर जेल में ठूंस दिया जाएगा, मगर उन का निकाह फिर भी नहीं टूटेगा. 3 साल के लिए पति के जेल चले जाने से आखिर महिला और उस के बच्चों का भरणपोषण कौन करेगा? 3 साल बाद जब पति लौट कर आएगा तो क्या वह महिला कहेगी कि बहारो फूल बरसाओ, मेरा महबूब आया है?

ओवैसी की बात शतप्रतिशत ठीक है. आखिर अपने पति को जेल पहुंचा कर पत्नी उस के घर में उस के अन्य परिवारजनों के बीच सुरक्षित कैसे रह सकती है?

सरकार की मंशा स्पष्ट नहीं

यह बात कतई व्यावहारिक नहीं है कि बहू की शिकायत के बाद जिन का बेटा जेल चला जाए, वह परिवार अपनी बहू के साथ उस घर में संयमित व्यवहार करे और उस का भरणपोषण करे. वे तो उस का उत्पीड़न ही करेंगे और उस पर केस वापस लेने का दबाव बनाएंगे. यही नहीं, हो सकता है गुस्से के अतिरेक में वे बहू को जान से ही मार डालें. न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी. ऐसे हालात पैदा कर के तो मुस्लिम औरत को और ज्यादा असुरक्षित बनाया जा रहा है.

गौर करने वाली बात यह है कि तीन तलाक कहने के बाद भी अगर शादी बरकरार रहती है, तो मुस्लिम पुरुष 3 साल जेल की सलाखों के पीछे किस गुनाह की सजा भुगते?

मुस्लिम पुरुष को जेल भेजने वाली मोदी सरकार क्या महिलाओं की सुरक्षा के प्रति सचमुच चिंतित है? अगर वह सचमुच चिंतित है तो महिलाओं को आर्थिक सुरक्षा देने की बात क्यों नहीं करती है? वह ऐसा बिल ले कर क्यों नहीं आई, जिस में यह प्रावधान हो कि तीन तलाक देने वाले पुरुष को मेहर की रकम का 5 गुना ज्यादा पैसा महिला को देना पड़ेगा? इस आर्थिक दंड का डर भी तीन तलाक को रोकने के लिए बहुत था. तीन तलाक को रोकने के लिए मुस्लिम पुरुष को जेल में डालना ही एकमात्र उपाय नहीं है और वह भी उस स्थिति में जब शादी बरकरार है और अपराध हुआ ही नहीं है. कुप्रथाएं समाप्त होनी चाहिए, मगर महिलाओं की सुरक्षा और असुरक्षा का पूरा खयाल रख कर. कुप्रथा को समाप्त करने की बात कह कर सरकार ने मुस्लिम समाज के पर्सनल ला में सेंध लगाई है, जो चाहे सही हो, पर नीयत सही नहीं लगती.

मुस्लिम समाज पूरा जिम्मेदार है

अगर आज कोई मुस्लिम पर्सनल ला में सेंध लगाने में कामयाब हुआ है, अगर मुस्लिम मर्दऔरत के बीच दरार पैदा करने में सफल रहा है, तो इस का जिम्मेदार मुस्लिम समाज खुद है. हर समाज की अपनी कमियां होती हैं और उन कमियों का खमियाजा अधिकतर उस समाज की औरतों को ही भुगतना पड़ता है. हिंदू समाज ने सति प्रथा, बाल विवाह जैसी कमियों को दूर कर लिया है. ये बुराइयां जनजाग्रति के जरीए दूर हुई हैं. मुस्लिम समाज में भी तमाम कमियां हैं, जिन में तीन तलाक और हलाला सब से बड़े मुद्दे हैं. मुस्लिम धर्मगुरुओं ने अपने समाज की औरतों पर यह जुल्म होते रहने दिया है. उन्होंने कभी उन की पीड़ा का समाधान नहीं किया. उन के दर्द को नहीं समझा.

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कमअक्ल मुल्लेमौलवी धर्मग्रंथों में लिखी बातों को तोड़मरोड़ कर पेश करते रहे और पुरुषों के हक में ही फैसले लेते रहे. जब एक बार में तीन दफा ‘तलाक’ शब्द का उच्चारण कर के तलाक देने की बात उन के धर्मग्रंथ में लिखी ही नहीं है, तो उन्होंने क्यों नहीं इस तरीके से तलाक देने पर पाबंदी लगाई? क्यों इस बात का इंतजार करते रहे कि कोई बाहर से आ कर इस पर पाबंदी लगाए? मोदी सरकार ने अभी तीन तलाक पर मुस्लिम पुरुष को जेल भेजने का इंतजाम कर दिया है, दीवानी मामले को फौजदारी का मामला बना दिया है. अब भी अगर मुस्लिम समाज नहीं चेता तो आने वाले वक्त में हलाला मामले में भी ऐसा ही होगा, जब हलाला करने और कराने वाले पुरुष और मुल्लेमौलवी भी जेल में ठूंस दिए जाएंगे. हो सकता है संघ और मोदी सरकार इस से भी बड़ी सजा का प्रावधान करे. इसलिए समय रहते चेत जाने की जरूरत है.

गौरतलब है कि जिस समाज में कुप्रथाओं का बोलबाला हो, औरतों के प्रति अन्याय होता हो वह समाज बहुत जल्दी पिछड़ जाता है. उस में सेंध लग जाती है. आज मुस्लिम समाज को एकजुट हो कर अपनी खामियों और कमियों का विश्लेषण करने की जरूरत है. किसी भी समाज के पर्सनल ला में औरतों के साथ नाइंसाफी की बात नहीं की गई है. मुस्लिम पर्सनल ला में तो हरगिज नहीं है. उस में औरतों को बराबरी का हक दिया गया है. मगर कानून को समझाने वाले हमेशा पुरुषों को ही ज्यादा फायदा पहुंचाने की फिराक में रहते हैं. ऐसे कमअक्ल लोगों की जकड़ से अपने समाज को मुक्त करने की जरूरत मुस्लिम समाज को है.

पुरुष की अनदेखा सोच

यह अमानवीय है कि एक मुस्लिम पुरुष अपनी पत्नी को 3 बार ‘तलाक, तलाक, तलाक’ बोल कर अपनी जिंदगी और अपने घर से दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंकता है. एक औरत जो एक पुरुष से निकाह कर के अपना घर, अपने मातापिता, भाईबहन, नातेरिश्तेदार सबकुछ छोड़ कर आती है, अपनी सेवा और कार्यों से एक पुरुष के घर को सजातीसंवारती है, दिनरात घर के कामों में खटती है, अपना शरीर उस पुरुष को उपभोग के लिए देती है, तमाम कष्ट सह कर उस के बच्चे पैदा करती है, उस औरत को अचानक एक दिन ‘तलाक, तलाक, तलाक’ बोल कर घर से बाहर धकेल दिया जाता है. इस की जितनी भर्त्सना की जाए कम है.

सदियों से इस महादेश में मुस्लिम औरतें इस जुर्म का शिकार हो रही हैं. मुस्लिम समाज में धर्म के ठेकेदारों का डर और दबाव इस कदर हावी है कि न तो उदारवादी मुस्लिम समाज और न ही मुस्लिम औरतें कभी इस जुर्म के खिलाफ एकजुट हो पाईं.

यह पुरुष की दमनकारी सोच और तंग नजरिए की वजह से हुआ. आज के दौर में तो तलाक की ठीक प्रक्रिया से बिलकुल दूर मुस्लिम पुरुष फोन पर, ई मेल पर, व्हाट्सऐप पर, किसी अन्य के द्वारा कहलवा कर एक औरत की हंसतीखेतली जिंदगी को एक झटके में गम और दुश्वारियों के अंधेरे कुएं में धकेल देता है. उसे अचानक घर से बेघर कर देता है. उस के मासूम बच्चों को दरदर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर कर देता है.

मुस्लिम समाज न सिर्फ इस अमानवीय कृत्य को खामोशी से देख रहा है, बल्कि तमाम आलिमफाजिल, मुल्लामौलाना इस का समर्थन भी करते हैं. वे साफ कहते हैं कि अगर आदमी ने 3 बार औरत को तलाक बोल दिया, तो अब वह उस पर हराम है, उसे सबकुछ छोड़ कर अपने घर चले जाना चाहिए.

अब मान लीजिए कि तलाक दी गई औरत के मांबाप मर चुके हों, तो बेचारी अपने बच्चों को ले कर कहां जाएगी? अगर वह पढ़ीलिखी नहीं है, आर्थिक रूप से कमजोर है तो वह अपना और अपने बच्चों का भरणपोषण कैसे करेगी?

पुरुष को ही तलाक का अधिकार क्यों

इस देश में बहुत बड़ी संख्या में मुसलमान औरतें ये सब झेल रही हैं, दरदर की ठोकरें खा रही हैं, खुद का पेट भरने और बच्चों को पालने के लिए पुरुषों के हाथों का खिलौना बन रही हैं. वे यह जुर्म बरदाश्त करने के लिए इसलिए भी मजबूर हैं, क्योंकि मुसलमानों के तमाम धर्मगुरु और लगभग सारे मुल्लामौलवी पुरुष वर्ग से हैं. औरतों का वहां कोई प्रतिनिधित्व है ही नहीं. इन की शह का नतीजा है कि मुस्लिम पुरुष जब चाहे एक बार में 3 बार तलाक बोल कर अपनी बीवी को अकेला और बेसहारा छोड़ देता है.

पढ़ीलिखी और कामकाजी औरतें तो तलाक के बाद अपने प्रयास से अपने पैरों पर खड़ी हो जाती हैं और अपनी व अपने बच्चों की परवरिश कर लेती हैं, मगर आर्थिक रूप से पूरी तरह पति पर आश्रित और बालबच्चेदार औरतों के लिए तलाक के बाद की जिंदगी कितनी कठिन होती है, इस की कल्पना भी रूह को थर्रा देती है.

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कुछ लोग तलाक के बाद औरत को हासिल होने वाली मेहर की रकम का हवाला दे कर कहते हैं कि उस से औरत अपनी बाकी की जिंदगी काटे, लेकिन क्या मेहर की छोटी सी रकम से किसी की जिंदगी कट सकती है? बच्चे पल सकते हैं? सवाल यह भी है कि जब निकाह लड़का और लड़की दोनों की रजामंदी के बाद होता है, तो फिर तलाक का अधिकार सिर्फ पुरुष को ही क्यों है? जब निकाह खानदान वालों, दोस्तों, नातेरिश्तेदारों की मौजूदगी में होता है तो तलाक कायरतापूर्ण तरीके से एकांत में, फोन पर, ईमेल या व्हाट्सऐप पर देने का क्या तुक है?

तीन तलाक और राजनीति

बहुत से इसलामी देशों में तीन तलाक के अन्यायपूर्ण रिवाज को या तो खत्म कर दिया गया है या समय के अनुरूप उस में कई संशोधन हुए हैं, लेकिन भारत में इसे ले कर हठधर्मिता जारी है. मुस्लिम पुरुष समाज इस में कतई कोई बदलाव नहीं चाहता था. तलाक के लिए औरत के लिए औरत की भी रजामंदी हो, तलाक के संबंध में उस से भी संवाद हो, उस के आगे के एकाकी जीवन और बच्चों की परवरिश के लिए जरूरी रकम और सुरक्षा का इंतजाम सुनिश्चित हो, इन सब जरूरी बातों से मुस्लिम पुरुष हमेशा बचता रहा, इसलिए वह तीन तलाक जैसे अमानवीय कृत्य के खिलाफ कभी नहीं बोला.

1985 के शाहबानों प्रकरण के बाद से आज तक मुस्लिम महिलाओं को उन के जीवन के अधिकार के संदर्भ में जानासुना नहीं गया. मुस्लिम महिलाओं के अधिकार की बहस पर पित्तृ सत्तात्मक विचारधारा के पुरुषों ने कब्जा जमा रखा था और उन्होंने हमेशा मुस्लिम पर्सनल ला में किसी भी सुधार की कोशिश को रोकने का प्रयास किया. यही वजह है कि अब बाहर के लोग इन बातों और कमियों का फायदा उठा रहे हैं, घडि़याली आंसू दिखा कर हमदर्दी जता रहे हैं और इसी के नीचे अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं.

मुस्लिम महिलाएं भाजपा के बिछाए जाल में इसलिए आसानी से फंस गई, क्योंकि उन के साथ वहां हमदर्दी दिखाई गई. इस से महिलाओं के अहं को बल मिला. उन्हें पुरुष से बदला लेने का हथियार मिला. मुस्लिम समाज को अपने अंदर व्याप्त कुप्रथाओं को समाप्त करने के लिए झंडा बुलंद करना चाहिए. आखिर अपने घर की सफाई तो घर वालों को ही करनी होगी. कोई बाहरी आ कर आप के घर की सफाई करेगा तो आप की बहुमूल्य चीजें खो जाने का डर तो बना ही रहेगा. कुप्रथाओं का खात्मा जरूरी है, मगर जब राजनैतिक उद्देश्य के लिए ऐसा किया जाता है तो फायदे की जगह नुकसान ही होता है.

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‘प्लास्टिक’ की दुनिया: मौत या दोस्त

प्लास्टिक ज़िंदगी को आसान तो बनाता है लेकिन यह तिलतिल हमें  मौत के घाट उतार रहा है. इसके जिम्मेवार हम खुद हैं. रोज सुबह के बच्चो के टिफ़िन से लेकर रात को सोने से पहले दूध पीने तक हम पूरा दिन प्लास्टिक का इस्तेमाल करते नहीं थकते.किसी न किसी  तरह उसके कणों को निगल रहे हैं हर चीज़ प्लास्टिक से बनी हुई हैं चाहे टीवी का रिमोट, फ्रिज मे रखी कंटेनर, बोतले, क्रेडिट कार्ड, चाय के कप, प्लेट ,चम्मच, बोतल बंद पानी हो हर चीज प्लास्टिक से बनी हैं

प्लास्टिक  का उत्पादन

दुनिया मे हर साल  30  करोड़ टन प्लास्टिक कचरा पैदा  होता हैं .जोकि दुनिया की जनसंख्या के बराबर हैं .सन 1950  से अबतक 800 करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन हुआ हैं अब तक जितना कचरा पैदा हुआ हैं उसका सिर्फ 9% कचरा ही रीसायकल हो पाया हैं व 12%कचरा ही नष्ट हो सका  हैं और 79% कचरा पर्यावरण  मे मिल गया हैं. यही मिला हुआ कचरा हवा, पानी के जरिये हमारे ही शरीर के अंदर पहुंच रहा हैं.

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सागरों को कर रहा दूषित

प्रशांत महा सागर में प्लास्टिक का कचरा सुप की तरह तैर रहा हैं. कचरा नदियों सागर मे जा कर मिल जाता हैं .और निचे  जा कर बैठ जाता हैं जिस कारण वहां औक्सीजन की कमी होती हैं और जीव जन्तु मर जाते हैं ये ही नहीं व्हेल जैसा  विशाल प्राणी भी मौत के घाट उतर रहे हैं.

हर कोई इस बात से वाकिफ हैं की प्लास्टिक का इस्तेमाल खतरनाक हैं क्युकी न तो ये सड़ता हैं और जलाया जाये तो हवा को प्रदूषित   करता हैं. इनके जलने से जहां गैस निकलती हैं. वहीं   यह मिटटी मे पहुंच कर भूमि की उर्वरक शक्ति को भी नष्ट करता  है.

खतरनाक सिंगल यूज प्लास्टिक

सिंगल यूज़ प्लास्टिक सबसे ज्यादा नुकसानदेह है  जो सिर्फ एक बार प्रयोग मे आता है. जैसे चाय के कप ,प्लेट चम्मच पौलीथिन बैग. आपको यह जानकर हैरानी होगी की प्लास्टिक को घुलने मे  500 -1000 साल लग जाते हैं.

प्लास्टिक से होने वाली बीमारी

प्लास्टिक में अस्थिर प्रकृति का जैविक कार्बनिक एस्सटर (अम्ल और अल्कोहल से बना घोल) होता है, जिसकी वजह से कैंसर होता है प्लास्टिक को रंग प्रदान करने के लिए उसमें कैडमियम और जस्ता जैसी विषैली धातुओं के अंश मिलाए जाते हैं. जब इन मे कहानी की वस्तु रखी जाती है तो ये जहरीले तत्त्व धीरे-धीरे उनमें प्रवेश कर जाते हैं. कैडमियम की अल्प मात्रा के शरीर में जाने से उल्टियां, हृदय रोग हो सकता है और जस्ता से  इंसानी मस्तिष्क के ऊतकों का क्षरण होने लगता है जिससे स्मृतिभ्रंश जैसी बीमारियां होती हैं.

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दुनिया में 40 देशों में हैं बैन

दुनिया में 40 देशों में प्लास्टिक प्रतिबंधित हैं. जिसमे फ्रांस, चीन, इटली, रवांडा और अब केन्या जैसे देश भी इसमे शामिल  हैं.

हमारे देश मे 56 लाख टन प्लास्टिक कचरे का उत्पादन करता हैं जिसमे 9205  टन प्लास्टिक को रीसायकल कर दोबारा उपयोग मे लिया जा सका  हैं केन्द्र्य नियंत्रण बोर्ड के अनुसार हर रोज दिल्ली मे सबसे ज्यादा कचरा 690 टन कचरा फैंका जाता हैं व्ही छेने मे 429 ,मुंबई मे 408 टन कचरा फैंका जाता हैं .

परिस्थिति  के असंतुलन को न तो हम खुद समझ पा रहे हैं और न ही सरकार  इसके प्रति कोई ठोस कदम उठा रही हैं अब हालत यह हैं की जल संकट ,जंगलों मे आंग ,पहाड़ो मे तबही  आ रही हैं .ग्लेसियर पिघल रहे हैं गांव से लेकर शहरों  तक उदारीकरण और उपभोक्ता वाद की भेट चढ़ रहे हैं.  पर्यावरण का संकट हमारे लिये चुनौती के रूप मे उभर रहा है .वो दिन दूर नहीं जब बिना ऑक्सीजन मास्क के लोग घर से बाहर कदम भी नहीं रख पाएंगे .

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बढ़ते-कदम, बढ़ते-हाथ

हम समाज से बहुत कुछ सीखते हैं और उसी के सहारे आगे बढ़ते हुए अपनी मंजिल तक पहुंचते हैं. ऐसे में कुछ लोग सामाजिक भेदभाव, गरीबी, बहिष्कार को निर्मूल करने के प्रयास में जुट कर समाज में जाग्रति लाने में जुटे हैं. उन्हीं में शुमार हैं ये हस्तियां:

पूर्णिमा सुकुमारन की अनूठी मुहिम

कोडीहल्ली, बैंगलुरु की पूर्णिमा ने सामाजिक व ह्यूमन वैलफेयर की भावना से ‘अरावनी आई प्रोजैक्ट’ की स्थापना की. इस प्रोजैक्ट में पेंटिग्स द्वारा भावों और विचारों को व्यक्त किया जाता है. पूर्णिमा ने इस प्रोजैक्ट द्वारा ट्रांसजैंडर कम्यूनिटी के लिए, जोकि आम भाषा में हिजड़ा /किन्नर के नाम से जानी जाती है, के लिए पूरी दीवार पेंट की.

किन्नरों का इतिहास 4 हजार वर्ष से भी ज्यादा पुराना है. इन की आबादी करीब 48 लाख है और ये समाज से बाहर ही रहते हैं. इन की इस स्थिति को देख कर पूर्णिमा ने 10 किन्नरों का गु्रप बनाया और फिर उसे भित्ति चित्रण के लिए उत्साहित किया. इस कार्य में स्ट्रीट पेंटिंग्स और दीवारों पर भी पेंटिंग्स शामिल थीं. इस संस्था के साथ और भी लोग जिन में स्त्रीपुरुष दोनों थे, जोड़े गए.

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पूर्णिमा का मानना है कि सामाजिक मुद्दों के बारे में चर्चा करने से उतनी बात नहीं बनती जितनी कि चित्रण द्वारा वही बात दिलोदिमाग पर अंकित होती है. पूर्णिमा ने रैगपिकर्स बच्चों व सैक्सवर्कर्स की बेटियों के साथ भी काम किया. रैगपिकर्स बच्चों के साथ एक लाइब्रेरी पेंट की. सैक्सवर्कर्स की बेटियों के साथ रैडलाइट एरिया की दीवारें भी पेंट कीं. चित्रण द्वारा जाग्रति फैलाने के लिए पूर्णिमा एक पुरुष एक स्त्री का चित्रण कर उन की बराबरी दर्शाते हुए एक स्लोगन लिखवाती हैं. बैंगलुरु के जुविनाइल होम्स में लड़केलड़कियों के साथ तथा स्कूलों में भी छोटे-छोटे प्रोजैक्ट करती हैं.

तनुश्री ने बनाया कतरन को उपयोगी

यों तो महिलाएं अकसर फुरसत के पलों में कुछ न कुछ क्राफ्ट जैसे सिलाई, बुनाई आदि करती हैं, पर इस से आर्थिक संबल जोकि परिवार के उत्थान में सहायक हो, नहीं मिल पाता, जिसे संभव बनाया तनुश्री शुक्ला ने. उन्होंने 2015 में ‘चिंदी’ नामक संस्था स्थापित की.

तनुश्री ने अपने फैमिली गारमैंट प्रोडक्शन में हर शाम बचा व कटा हुआ फैब्रिक फिंकता देखा, इस वेस्ट को चिंदी कह कर फेंक दिया जाता था. यह देख तनुश्री के मन में इस वेस्ट से खूबसूरत और उपयोगी आइटम्स बनाने का विचार आया. इसी विचार पर ‘चिंदी’ संस्था का जन्म हुआ. इस संस्था द्वारा मनखुर्द मुंबई की आर्थिक रूप से कमजोर महिलाओं से काम कराया जाता है.

इस के लिए गारमैंट बनाने वाली फैक्टरियों से टेलरिंग यूनिट्स से टाइअप कर के कतरनों को मंगा कर इस कार्य को विस्तार दिया जाता है. महिलाओं को डिजाइन दे कर तनुश्री हैट, बैग, कुशन कवर, टेबलपोस आदि बनवा कर बाजार तक बिक्री का प्रबंध करती हैं. इस संस्था द्वारा महिलाओं को ट्रेनिंग भी दी जाती है.

तनुश्री ने अनपढ़ और कम पढ़ीलिखी महिलाओं को अपनी स्किल पर गर्व महसूस करने की ओर कदम बढ़वा उन्हें आत्मनिर्भर बनाया. आज बढ़ती पारिवारिक आय व नईनई वस्तुएं बनाने के हुनर से महिला सशक्तीकरण को भी बल मिला है.

बच्चों का भविष्य बनातीं शिखा

कोलकाता की 65 वर्षीय शिखा दास 2000 में मुंबई आईं. घर के काम से फ्री हो कर खाली वक्त में समाज के लिए कुछ करने की इच्छा से 2002 से उन्होंने नौकरानियों और ड्राइवरों के बच्चों को पढ़ाना शुरू किया. परिवार ने भी इस में उन्हें सपोर्ट किया. यहां तक कि कभी उन के घर मेहमान भी आ जाते तो भी इन के कार्य में अवरोध नहीं होता, बल्कि उलटे कुछ मेहमान भी बच्चों को पढ़ाने में मदद कर देते थे. शिखा अपनी बेटी और दामाद के साथ मुंबई में ही रहती हैं.

शिखा क्रिसमस, न्यूईयर, बर्थडे आदि पढ़ने आए बच्चों के साथ सैलिब्रेट करती हैं. हर बच्चे के जन्मदिन पर कोई न कोई गिफ्ट अवश्य देती है. फिर चाहे वह चौकलेट हो, पैंसिल बौक्स हो या कोई बुक. वे कहती हैं कि बच्चों के चेहरों पर बिखरी खुशी देखना उन्हें बहुत अच्छा लगता है. इस से उन्हें बहुत सुकून मिलता है.

कोई खास बात जो आप को याद आती हो? कहने पर उन्होंने बताया, ‘‘एक सचिन नामक बच्चा पहली कक्षा से 10वीं कक्षा तक मेरे पास पढ़ने आता रहा. 10वीं कक्षा में उस के 98% मार्क्स आए. तब मुझे ऐसा फील हुआ जैसे कि मैं ही परीक्षा में इतने नंबरों के साथ उत्तीर्ण हुई हूं.

‘‘एक और बच्चा याद है जोकि बहुत डल था, उसे बारबार याद कराना पड़ता था. उस के साथ मैं ने बहुत मेहनत की. उस का नाम था सुजान सिंह. मगर महते हैं न कि करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान. अत: उस बच्चे का भी बेस स्ट्रौंग होने पर वह अच्छे नंबरों के साथ पास होने लगा था.’’

शिखा दास का चेहरा खुशी और संतुष्टि से चमक रहा था, यह स्पष्ट देखा जा सकता था.

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शिखा ने कामवाली बाइयों को भी पढ़ने के लिए प्रेरित किया ताकि वे अपने बच्चों पर थोड़ा ध्यान दे सकें. उन बाइयों के लिए कापियां, बैनर, पैंसिल, किताबें भी खरीद कर देतीं. शाम के खाली समय में हफ्ते में 3 दिन उन्हें पढ़ा देतीं. वे 16 वर्षों से कमजोर तबके के बच्चों का मार्ग प्रशस्त करने में क्रियाशील हैं. उन्होंने कामवालियों को पढ़ा कर, नारी सशक्तीकरण में कुछ योगदान देने के उद्देश्य से इस ओर कदम बढ़ाया था.

रक्षा का सेवाभाव

हिमाचल में जन्मीं, दिल्ली की निवासी रक्षा टीचिंग जौब (रामजस स्कूल)से अवकाश ग्रहण कर सफदरजंग अस्पताल में जरूरतमंद लोगों की वर्षों से मदद करती आ रही हैं. यह कार्य छोटे स्तर पर प्रारंभ हुआ था. रक्षा अस्पताल में कपड़े, खाद्यसामग्री, दवा आदि भी देती हैं. इन का सेवाभाव व हौसला देख कर बहुत से लोग जिन में युवा भी शामिल हैं, इन के साथ जुड़ गए हैं.

सफदरजंग अस्पताल के पास बनी धर्मशाला में रह रहे मरीजों के रिश्तेदारों, घर वालों जो गरीब होते हैं उन्हें और दूरदूर से आने वाले दूसरे लोगों को भी वे कपड़े आदि बांटती हैं. जो मरीज आर्थिक स्तर पर कमजोर होते हैं और औपरेशन के बाद जिन्हें व्हीलचेयर की जरूरत होती है रक्षा उन्हें सहयोग देती हैं.

रक्षा कहती हैं कि एक व्हीलचेयर पर क्व3,550 खर्च आता है. इस में उन की बेटियां, पड़ोसी और रिश्तेदार अपनी इच्छा से स्वयं ही धनराशि दे कर जरूरतमंदों के लिए सहयोग देते हैं. जहां तक संभव होता है वे अपनी ओर से ही जरूरतमंदों की जरूरत पूरा करने का प्रयास करती हैं.

रक्षा 4 सालों से ब्लड कैंप भी लगवा रही हैं. कैंप लगाने के लिए सफदरजंग अस्पताल अपना स्टाफ भेजता है (ब्लड बैंक का) जिस से यह कार्य सावधानी व सुगमता से हो जाता है. इस तरह जरूरत पड़ने पर मरीज को ब्लड देने की समस्या भी हल हो जाती है.

सेवाभाव में संलग्न रक्षा कहती हैं, ‘‘मैं अपनी शक्ति के अनुसार जरूरतमंदों को सहयोग देने के लिए दृढ़ संकल्प हूं. हमारे, आप के घरों में, कितना कुछ रसोई में वेस्ट होता है, अलमारियों में बेकार में कपड़े टंगे रहते हैं. हम उन्हें जिन्हें यूज ही नहीं कर पाते हैं ऐसी चीजों को जरूरतमंदों में बांट कर उन्हें यूजफुल बनाना सब से बड़ी समाजसेवा है. अपने वेतन से हर माह थोड़े से रुपए निकाल कर किसी भी जरूरतमंद की मदद की जा सकती है. बूंदबूंद से घड़ा भरता है. मेरी यही कोशिश है कि मेरा यह कार्य चलता रहे.’’

अंजू के रौक स्टार्स

सालों से सोशल सैक्टर में कार्यरत अंजू खेमानी ने बधिर लोगों के लिए कुछ करने की इच्छा से डीएडी यानी ड्राम ऐसोसिएशन औफ द डैफ की 2013 में हैदराबाद में स्थापना की. यह संस्था बधिर लोगों को प्रोत्साहित करती है ताकि वे थिएटर में काम कर सकें. अंजू विकलांग लोगों की मानसिक, सामाजिक और आर्थिक परेशानियों को दूर करने में मदद करती हैं. ‘नैशनल स्कूल औफ ड्रामा’ से थिएटर की शिक्षा प्राप्त करने वाली अंजू खेमानी ने साइन लैंग्वेज द्वारा डैफ ऐक्टर्स को डांस सिखाया ताकि वे जनरल पब्लिक से बातचीत कर सके. इस डांसर्स टीम का नाम है- द रौक स्टार्स.

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अंजू ने जब बधिर गु्रप को डांस और ड्रामा सिखाना शुरू किया तब म्यूजिकल बीड्स समझाते वक्त कभी नहीं सोचा था कि इस का परिणाम इतना आश्चर्यजनक व सुखद होगा. गु्रप के बढ़ते कदम देख ही उन्होंने डीएडी की स्थापना की थी.

जब डीएडी के सदस्यों ने संगीत की धुन पर साइनलैंग्वेज से डांस किया तो दर्शक हैरान रह गए कि म्यूजिकल बीड्स को सुनने में अशक्त वे सब एकसाथ कैसे डांस कर पा रहे हैं. इस का आधार थे गुब्बारे. हर डांसर के हाथ में 1 गुब्बारा था, जो म्यूजिकल इंस्ट्रूमैंट के बजने पर अपनी कंपन से बीड्स को समझने में सहायक हो रहा था.

हैदराबाद में इस ग्रुप ने अपने काम से सब को अचंभित कर रखा है. अंजू के इस प्रयास से बधिरों को अपने जीवन में आगे कदम बढ़ाने का मार्ग मिला है.

इन सभी हस्तियों के प्रयासों ने साबित कर दिया है कि बढ़ते कदम बढ़ते हाथ, समाज को मजबूत बनाने में सहायक होते हैं.

महिलाएं नहीं बतातीं अपनी इच्छा

आज भले ही महिलाऐं अपने हुनर और काबिलियत के बल पर हर क्षेत्र में पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर चल रही हो मगर अगर समाज में ओवरऔल कंडीशन देखा जाए तो ज्यादातर महिलाएं खुद को कतार में पीछे खड़ा रखती हैं. वे आगे बढ़ सकती है पर बढ़ती नहीं. अपनी बात रखने या अपनी इच्छा का काम करने से हिचकिचाती हैं. हाल ही में पोंड्स द्वारा किए गए एक सर्वे के मुताबिक महिलाएं लंबे समय से खुद को रोक रही हैं. 10 में से 9 महिलाएं कहती है कि वे अपनी इच्छा की बात कहने या इच्छा का काम करने से खुद को रोकती हैं. पोंड्स द्वारा 2019 में किये गए सर्वे के मुताबिक़ 10 में से 6 महिलाएं खुद को कुछ कहने से रोकती हैं.

खुद को रोकने के  कारण

59% महिलाओं को जज किए जाने का डर होता है. 58% महिलाएं इस बारे में अनिश्चित रहती हैं कि दूसरे क्या प्रतिक्रिया देंगे जब कि 10 में से 5 यानी 52 % महिलाओं को यह चिंता भी होती है कि वह जो कहेंगी उस से दूसरे उन के बारे में नकारात्मक बात सोचने लगेंगे.

जाहिर है मन का डर कि समाज या परिवार क्या सोचेगा और वह क्या प्रतिक्रिया देगा, यह महिलाओं को खुद के फैसले से अपने मन का काम करने से रोकता है.

खुद को रोकने वाले इस संकोच के अनेक रूप और नाम है. इसे भले ही महिलाएं अंदर की आवाज कहें पर वास्तव में यह एक तरह की नकारात्मक सोच है. यह सोच महिलाओं के आगे बढ़ने के मार्ग की सब से बड़ी बाधा है.

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यह सोच रातोंरात जन्म नहीं लेती बल्कि सालों से समाज द्वारा किये जा रहे ब्रेनवाश और समाज के तथाकथित परंपरावादी नियमों में जकड़े जाने और यह बताये जाने का परिणाम है कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं.

नतीजा यह होता है कि महिलाएं अपनी इच्छा का काम करने का हौसला ही नहीं जुटा पाती. उन्हें लगता है कि कुछ गलत हो गया तो पूरा समाज उन के पीछे पड़ जाएगा. व्यंग्य भरे ताने और जलील करती निगाहें उन्हें अंदर तक बेध देंगी.

यही नहीं लगभग आधी यानी 47 प्रतिशत महिलाएं बड़े समूह में प्रश्न पूछने में संकोच करती हैं. इसी तरह 10 में से 4 महिलाएं यानी 40% बॉस को न कहने से खुद को रोकती हैं.

व्यक्तिगत जीवन में 10 में से 4 महिलाएं यानी 40% बाहर जा कर अपने बॉयफ्रेंड के साथ रहने से खुद को रोकती हैं क्यों कि उन्हें डर होता है कि दूसरे लोग इस पर क्या प्रतिक्रिया देंगे.

खुद को क्यों रोकती हैं महिलाएं

बहुत सी औरतों को यह विश्वास नहीं होता कि अगर वे बड़े समूह में कोई प्रश्न पूछती है तो वह काम का होगा भी या नहीं. उन्हें डर होता है कि कहीं उन का मजाक न बन जाए. महिलाएं इस वजह से भी हिचकती हैं क्यों कि उन्हें यह समझ नहीं आता कि दूसरे क्या प्रतिक्रिया देंगे.

कई महिलाओं का कहना होता है कि वे सोचने में बहुत ज्यादा समय लेती हूं जिस से काम करने का अवसर हाथ से निकल जाता है. उन्हें लगता है कि वे जो कुछ भी कहेंगी उस के लिए उन्हें जज किया जा सकता है , दूसरों के सामने छवि पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है.

यह सर्वे स्वतंत्र शोध कंपनी, इप्सोस द्वारा एक सेल्फ एडमिनिस्टर्ड ऑनलाइन सर्वे द्वारा किया गया. यह सर्वे भारत में 18 से 35 साल की महिलाओं के बीच मुंबई ,चेन्नई ,दिल्ली ,कोलकाता ,बेंगलुरु ,चंडीगढ़ ,लखनऊ ,पुणे विजाग और मदुरई में किया गया. (भारत में 16 से 26 अप्रैल ,2019 के बीच 1000 महिलाओं के बीच)

सच तो यह है कि कभी कपड़ों के आधार पर , कभी उन के व्यवहार को देख कर या लड़कों से बातें करता देख या फिर किसी और तरह से समाज हर पल उन्हें जज करता रहता है. बिंदास लड़कियां तो ऐसे लोगों की परवाह नहीं करतीं मगर सामान्य लड़कियों के कदमो पर हमेशा यही डर बेड़ियां डाले रखतीं हैं. कुछ भी करने से पहले उन के दिल में खौफ पैदा हो जाता है कि पता नहीं लोग कैसे जज करें. किस नजर से देखें.

कितने अफसोस की बात है कि 10 वीं और 12 वीं के रिजल्ट के समय समाचारों की सुर्ख़ियों में लड़कियां छाई रहती हैं. स्कूल कौलेजेस में अक्सर वे ही टौप करती हैं. मगर जब बात नौकरी और सैलरी की आती है तो वे पीछे हो जाती हैं. अपना हक़ भी बड़ी सहजता से छोड़ देती हैं.

औनलाइन करियर ऐंड रिक्रूटमेंट सलूशन प्रवाइडर मॉनस्टर इंडिया के हालिया सर्वे से पता चलता है कि देश में महिलाओं की औसत सैलरी पुरुषों के मुकाबले 27 प्रतिशत कम है. पुरुषों की औसत सैलरी जहां 288.68 रुपए प्रति घंटा है, वहीं महिलाओं की 207.85 रुपए प्रति घंटा है. सरकारी नौकरियों को छोड़ कर यह भेदभाव हर क्षेत्र में हैं.

जाहिर है महिलाओं को बचपन से सिखाया जाता है कि पुरुषों की बराबरी न करो. जितना मिल जाए उस में संतोष कर लो. बाहर वालों के आगे ज्यादा बकबक न करो और किसी ऐसे पुरुष के आगे जुबान न खोलो जो आप से बड़ा या सीनियर हो या जिस पर आप निर्भर करती हो. पुरुष स्वामी हैं और आप दासी. कभी भी अपने हक़ की बात न करो ….

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इसी का नतीजा है कि महिलाओं के दिलोदिमाग में यह बात इतनी गहराई से रच बस गई है कि वे अनजाने में भी इसी हिसाब से चलती हैं और कभी अपना मुँह नहीं खोलती.

अपनी मरजी का नहीं कर सकती महिलाएं

एक पुरुष को कभी भी कौन सी नौकरी करनी है इस बात पर अपने घरवालों या बीवी की सहमति की जरुरत नहीं होती. वह अपनी मरजी से नौकरी का चुनाव कर सकता है. उसे किसी की अनुमति की जरुरत नहीं. दूसरी तरफ लड़कियों और महिलाओं को पढ़ाई करने ,काम करने, रोजगार योग्य नए कौशल सीखने के लिए अपने पिता, भाई, पति और कुछ मामलों में समाज तक से अनुमति लेनी पड़ती है.

उषा एक प्राइवेट कंपनी में काम करती है. उस की शादी नवंबर में नौसेना में काम करने वाले एक लड़के से होने वाली है. ज्योति के काम करने पर उसे कोई एतराज नहीं है. लेकिन यह एतराज केवल सरकारी नौकरी करने पर नहीं है. उषा कहती हैं, “ मैं सरकारी नौकरी पाने के लिए प्रयास कर रही हूं लेकिन यह आसान नहीं है. शादी से पहले अपनी प्राइवेट जॉब से इस्तीफ़ा दे दूंगी क्यों कि यही मेरे वुड बी हस्बैंड की मरजी है. ”

कमोबेश यही सोच और स्थिति सभी अविवाहित और विवाहित लड़कियों की रहती है.  पहली प्राथमिकता घरपरिवार और पति होता है. नौकरी और करियर दुसरे स्थान पर होते हैं. हाल तो यह है कि कुछ लड़कियां महज समय बिताने के लिए काम कर लेती है. करियर में अच्छा करना, आगे बढ़ना या लीडर बनना जैसी बातें उन के फ्यूचर प्लान का हिस्सा होती ही नहीं.

ऐसा नहीं कि महिलाओं में योग्यता की कमी होती है. अमेरिका के वाशिंगटन विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों का दावा है कि महिलाओं का मस्तिष्क उन के हमउम्र पुरुषों की तुलना में तीन साल जवां रहता है. इस वजह से महिलाओं का दिमाग लंबे अरसे तक तेज़ चलता है.

इस अध्ययन में 20 से 84 वर्ष की 121 महिलाओं और 84 पुरुषों ने हिस्सा लिया. उन के मस्तिष्क में ग्लूकोज और ऑक्सीजन के प्रवाह को मापने के लिए उन का पीईटी स्कैन किया गया. ऐसा नहीं है कि पुरुषों का दिमाग तेजी से वृद्ध होता है. दरअसल वे दिमागी तौर पर महिलाओं से तीन साल बाद वयस्क होते हैं.

फाइनेंस संबंधी फैसलों पर भी घरवालों और पति पर निर्भरता रिसर्च एजेंसी नीलसन के साथ मिल कर किये गए  डीएसपी विनवेस्टर पल्स 2019 सर्वे में यह बात सामने आई है कि देश में 33% महिलाएं जीवन में किसी भी तरह के निवेश के फैसले खुद लेती हैं जब कि 64% पुरुषों के मामले में यह बात सही साबित होती है. यानी देश में पुरुषों के मुकाबले आधी महिलाएं ही निवेश के फैसले स्वतंत्र रूप से लेती हैं भले ही वे कितना भी क्यों न कमा रही हों. इस सर्वे में देश के आठ शहरों में 4,013 महिलाओं और पुरुषों की राय जानी गई.

ऐसी महिलाएं जो निवेश के फैसले खुद करती हैं उस में उन के पति या मातापिता के प्रोत्साहन का अहम योगदान होता है. करीब 13% महिलाओं ने कहा कि उन्हें पति की मौत या तलाक की वजह से अपने निवेश के फैसले खुद लेने पड़े. 30% महिलाओं के मुताबिक़ वे निवेश इसलिए कर पाईं क्यों कि उन्होंने खुद निवेश करने का फैसला लिया.

जहां तक निवेश की आवश्यकता या मकसद की बात है तो ये तकरीबन एक जैसे ही रहे. मसलन बच्चों की पढ़ाईलिखाई, घर खरीदना, बच्चों की शादी, अच्छा लाइफ स्टाइल आदि मुख्य मकसद के रूप में नजर आये. यह भी पाया गया कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं का अपने बच्चों से जुड़े लक्ष्यों की ओर झुकाव अधिक रहता है.

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पुरुष जहां कार या घर खरीदने का फैसला अधिक लेते हैं वहीं महिलाओं ने सोना,ज्वैलरी, रोजमर्रा की जरूरतों की चीजें और टीवी-फ्रिज जैसे टिकाऊ सामान खरीदने में ज्यादा रूचि दिखाई. अध्ययन में यह बात भी सामने आई कि निवेश के निर्णय लेने वाले 2,160 महिलाओं और 1,853 पुरुषों की उम्र 25 से 60 वर्ष के बीच थी.

सर्वे के मुताबिक जब महिलापुरुष लम्बे समय के निवेश के फैसले मिल कर लेते हैं तब स्थितियां बेहतर होती हैं. महिलाओं में आत्मविश्वास ज्यादा होता है. पैसा और इस से जुड़े तनाव कम होते हैं. ज्यादा अच्छा यही है कि महिला और पुरुष मिल कर ही वित्तीय योजनाएं बनाएं. और केवल वित्तीय योजनाएं ही नहीं बल्कि जिंदगी के सारे अहम् फैसलों पर महिलाओं को अपनी राय देने से बचना नहीं चाहिए. क्यों कि इस तरह वे अपने परिवार और पति के लिए बेहतर कर पाने में सक्षम होंगी.

बिजली मुफ्त औरतें मुक्त

दिल्ली में अरविंद केजरीवाल का 2 बत्ती, 1 टीवी, 1 पंखा, 1 फ्रिज, 1 कूलर, 1 कंप्यूटर के लायक 200 यूनिट तक की बिजली मुफ्त करने का फैसला चतुराईभरा है. 200 यूनिट तक का बिल अब माफ कर दिया गया है. शहर के 45 लाख उपभोक्ताओं को इस से लाभ होगा और बिजली का बिल भुगतान न होने के कारण बिजली इंस्पैक्टरों की धौंस का सामना नहीं करना पड़ेगा.

सरकारी आंकड़ों के हिसाब से वैसे भी 33% घरों में 200 यूनिट से कम बिजली खर्च होती है. अब तक लोग 200 यूनिट के 600-700 ₹ देते थे. इस से पहले खर्च ₹1,200 था जिस की खपत ज्यादा है, वे पक्की बात है कि अब कम बत्ती का इस्तेमाल कर के 200 यूनिट के नीचे रहना चाहेंगे. सब से बड़ी बात यह है जब बत्ती मुफ्त मिल रही है तो घर के सामने खुले तारों पर कांटा डाल कर बत्ती जलाने की आदत भी खत्म हो जाएगी.

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इस पर खर्च 1,400 करोड़ ₹ तक आ सकता है पर 60,000 करोड़ के बजट में यह कोई खास नहीं. खासतौर पर तब जब सरकार को कम बिल भेजने पड़ेंगे. एक बिल छापने, भेजने, पैसा वसूल करने में ही 50 से 100 रुपए लग जाना मामूली बात है. बिजली दफ्तर जा कर बिल जमा कराने में शहरी गरीब जनता को न जाने कितना खर्च करना पड़ता है.

जब सरकार जगहजगह वाईफाई फ्री कर ही रही है कि लोग मोबाइलों का इस्तेमाल कर के हर समय सरकार के फंदे में रहें तो गरीबों को यह छूट देना गलत नहीं है. गरीब औरतों के लिए यह वरदान है कि अब उन की बिजली कटेगी नहीं और वे न रातभर खुले में सोने को मजबूर होंगी और न उन के बच्चे रातभर पढ़ने से रह जाएंगे.

सरकारें बहुत पैसा वैसे भी जनहित के कामों के लिए खर्च करती हैं. हर शहर में पार्क बनते हैं पर पार्क में जाने के लिए पैसे नहीं लिए जाते. सड़कें, गलियां बनती हैं जिन पर चलने की फीस नहीं ली जाती. सस्ते सरकारी स्कूल, कालेज, विश्वविद्यालय हैं जहां बहुत कम पैसों में पढ़ाई होती है. बहुत अस्पतालों में तामझाम का पैसा न ले कर इलाज होता है.

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जो लोग इसे टैक्सपेयर की जेब पर डाका मान रहे हैं यह भूल रहे हैं कि उन के अपने कर्मचारी अब ज्यादा सुरक्षित, सुखी और प्रोडक्टिव हो जाएंगे, क्योंकि वे अंधेरे के खौफ में न रहेंगे.

जनहित काम केवल कांवड़ यात्रा का नहीं होता, पटेल की मूर्ति का नहीं होता, मन की बात का जबरन प्रसारण नहीं होता, बिजलीपानी भी जरूरी है. साफ हवा की तरह गरीब औरतों के लिए थोड़ी सी बिजली मुफ्त हो तो एतराज नहीं. यह उन्हें कटने के खौफ से मुक्त रखेगा.

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