Hindi Stories Online : हैप्पी फैमिली

Hindi Stories Online : मैं  वंदे भारत ट्रेन के एसी चेयर कार कंपार्टमैंट में अपनी सीट पर पहुंची और सामान जमा कर बैठी तो देखा सामने से एक 10-12 साल की लड़की बैगपैक टांगे तेज कदमों से मेरी ही बगल वाली सीट की तरफ आ रही थी जहां एक मोटा व्यक्ति पहले से बैठा था.

बच्ची ने उस आदमी को संबोधित करते हुए तेज आवाज में कहा, ‘‘अंकल, आप मेरी सीट पर बैठे हो. प्लीज आप अपनी सीट पर चले जाओ.’’

वह आदमी उठा नहीं बल्कि लड़की से कहने लगा, ‘‘अरे बेटा मैं यहां बैठ गया हूं अब उठना मुश्किल होगा. मुझे विंडो सीट अच्छी लगती है. यह आंटी की बगल वाली मेरी सीट है. तू उस पर बैठ जा.’’

दरअसल, 3 सीटों की उस रौ में मेरी सीट बीच की थी. मेरी दाईं तरफ विंडो सीट थी जिस पर वह आदमी बैठा था और बच्ची को मेरे लैफ्ट साइड वाली सीट पर बैठने को कह रहा था.

मगर बच्ची अपनी बात पर डटी रही, ‘‘अंकल मैं अपनी सीट पर ही बैठूंगी. आप उठ जाओ प्लीज.’’

मुंह बनाता हुआ वह आदमी उठ गया. लड़की ने जल्दी से अपना सामान जमाया और मेरी तरफ देख कर मुसकराई. फिर पूछने लगी,  ‘‘दीदी, आप भी मसूरी जा रही हो?’’

मैं ने भी प्यार से उसे जवाब देते हुए कहा, ‘‘मैं देहरादून तक जाऊंगी. तुम्हें मसूरी जाना है क्या?’’

‘‘हां जी,’’ उस ने जवाब दिया.

‘‘अकेली जा रही हो?’’ मैं ने फिर पूछा.

‘‘हां जी,’’ उस ने आत्मविश्वास के साथ कहा.

‘‘किसलिए?’’

‘‘मैं वहां पढ़ती हूं.’’

‘‘मगर तुम्हारे साथ कोई नहीं? तुम्हारे मम्मीडैडी?’’

‘‘मम्मीडैडी इस दुनिया में नहीं रहे,’’ उस ने बु?ो स्वर में जवाब दिया.

‘‘उफ, मगर कैसे? अब किस के साथ रहती हो?’’ मैं उस के बारे में सबकुछ जानना चाहती थी.

‘‘एक ट्रेन ऐक्सीडैंट में मेरे मम्मीडैडी और भाभी तीनों चले गए. तब से मैं भैया के साथ रह रही हूं. भैया की शिफ्ट वाली जौब है और कई बार 3-4 दिनों के लिए शहर से बाहर भी जाते रहते हैं, इसलिए भैया ने मसूरी के एक बढि़या स्कूल में मेरा एडमिशन करा दिया ताकि मु?ो घर में अकेला न रहना पड़े और मैं आराम से होस्टल में रह सकूं,’’ उस ने बताया.

‘‘मगर अभी तो स्कूलों में गरमी की छुट्टियां चल रही हैं. वहां तो कोई नहीं होगा,’’ मैं ने सवाल किया.

‘‘वहां बच्चे नहीं होंगे दीदी पर वार्डन तो होंगी न. दरअसल, भैया को 1 सप्ताह के लिए कहीं जाना था. ऐसे में मैं बिलकुल अकेली रह जाती सो भैया ने कहा कि तुम होस्टल ही चली जाओ.’’

‘‘मगर एकदम अकेले यात्रा करने में डर नहीं लगता तुम्हें?’’

‘‘डर कैसा दीदी मैं तो अकसर आतीजाती रहती हूं. शुरुआत में

1-2 बार थोड़ी टैंशन रही थी मगर अब तो आदत हो गई है,’’ उस ने बहुत सहजता से जवाब दिया.

हम बातों में लगे थे और ट्रेन चल चुकी थी. थोड़ी देर में खाने का समय भी हो गया. मैं किसी भी ट्रेन में रहूं अपना खाना हमेशा ले कर चलती हूं.

मैं ने उस लड़की यानी पूजा से पूछा, ‘‘तुम खाना ले कर निकली हो या ट्रेन वाला खाना खाओगी?’’

‘‘मैं तो ट्रेन का खाना ही खा लेती हूं,’’ उस ने जवाब दिया.

 

थोड़ी देर में उस का भी खाना आ गया तो हम ने बातें करते हुए खाना खत्म

किया. थोड़ी ही देर बाद पूजा को तबीयत खराब लगने लगी. हलकी उलटी हुई और लूज मोशन भी होने लगे. मैं सम?ा गई कि उस खाने में कुछ गड़बड़ थी तभी पूजा की तबीयत बिगड़ रही है. मैं ने जल्दी से अपनी दवा वाला डब्बा निकाला. उसे ऐवोमिन और टीजेड दी. उसे आराम आ गया. मैं ने उसे ग्लूकोस पानी भी पिलाया. मेरे बैग में ऐसी चीजें हमेशा होती हैं.

वह मु?ो थैंक्स कहने लगी. मैं ने उस का माथा सहलाते हुए कहा, ‘‘डौंट वरी मैं तुम्हारे साथ हूं,’’ मु?ो उस बच्ची पर सहानुभूति के साथसाथ प्यार भी आ रहा था.

तभी ट्रेन एक ?ाटके से रुक गई. पता किया तो जानकारी मिली कि आगे लाइन में कुछ समस्या है इसलिए ट्रेन कुछ देर बाद चलेगी. समय गुजरता गया और ट्रेन करीब 6 घंटे उसी जगह खड़ी रही. इस तरह ट्रेन देहरादून में जहां दोपहर 1. 45 बजे तक पहुंचनी थी वह 6 बजे के बाद पहुंची. अभी भी ट्रेन की स्पीड स्लो थी.

मैं ने पूजा की तरफ देखा. उस की तबीयत खराब थी और अब रात भी होने लगी थी.

मैं ने पूछा, ‘‘अब क्या करोगी? रात में अकेली होस्टल तक कैसे जाओगी?’’

‘‘कोई नहीं आंटी ट्रेन 8-9 बजे तक पहुंच ही जाएगी. फिर मैं कैब या औटो कर लूंगी,’’ पूजा ने निडरता से कहा मगर मु?ो यह सही नहीं लगा.

मैं ने उस का माथा सहलाते हुए कहा, ‘‘पूजा क्या पता ट्रेन और भी लेट हो जाए और तुम देर रात तक होस्टल पहुंचो. खतरा मोल लेना उचित नहीं. तुम्हारी तबीयत भी ठीक नहीं है. तुम ऐसा करो मेरे साथ मेरे घर चलो. मेरा घर यहीं पास में है. रात में मेरे यहां रुक जाओ फिर कल सोचेंगे आगे क्या करना है.’’

पूजा ने प्यार से मेरी तरफ देख कर मुसकराते हुए कहा, ‘‘मगर आंटी आप को बेवजह मेरे कारण परेशानी होगी.’’

मैं हंस पड़ी, ‘‘ज्यादा दादी अम्मां मत बनो और सीधा उतर चलो मेरे साथ.’’

उस ने फिर कुछ नहीं कहा और सामान उठा कर मेरे पीछेपीछे ट्रेन से उतर गई. मैं ने कैब बुक कर ली. हम दोनों घर पहुंचे. मैं ने हाथमुंह धो कर जल्दी से डिनर बनाया और पूजा के साथ खुद भी खाया.

‘‘आप घर में अकेली रहती हैं?’’ उस ने इधरउधर नजर दौड़ाते हुए पूछा.

‘‘हां मैं फिलहाल अकेली ही रहती हूं,’’ मैं ने जवाब दिया.

‘‘और आप के हस्बैंड?’’ उस ने फिर से सवाल किया.

‘‘मेरा तलाक हो चुका है,’’ मैं ने साफसाफ शब्दों में कहा तो वह एकदम शांत हो गई. मगर उस के दिमाग में अभी भी बहुत से सवाल कुलबुला रहे थे.

‘‘दीदी, आप के घर में और कोई तो होगा मतलब पापामम्मी या भाईबहन? आप उन के साथ नहीं रहतीं?’’

‘‘देखो बेटा मेरे भी पापा नहीं रहे. एक बहन है जो दूसरे शहर में रहती हैं. मेरी मां गांव में रहती हैं. वे थोड़े अलग तरीके से जीने की आदी हैं. मसलन, मिट्टी के चूल्हे पर रोटियां बनाना, खेतखलिहान के बीच रहना, साडि़यां पहनना, अपने घर के सारे काम खुद करना, गाय का दूध, घी आदि उपयोग करना आदि. उन की परवरिश बचपन से ऐसे ही माहौल में हुई है सो उन्हें वैसे ही रहना पसंद है. यहां आ कर उन का दम घुटता है. वहां वे बड़े से खुले घर में रहती हैं पर यहां तीसरे फ्लोर पर मेरा घर है. यहां औरतें साडि़यां नहीं पहनतीं पर वे सिर्फ साड़ी ही पहनती हैं और वह भी अपने अलग स्टाइल में. उन्हें घर में मेड लगाना अच्छा नहीं लगता जबकि मेड के बिना मेरा काम ही नहीं चलता. वहां उन की बहुत सी सहेलियां हैं जिन के साथ वे दिनभर बातें करती हैं मगर यहां सारे घर बंद पड़े होते हैं. यही सब कारण हैं कि उन्हें वहां गांव में ही अच्छा लगता है. कभीकभी वह आ जाती हैं मगर ज्यादा दिन नहीं रुकतीं.’’

‘‘ओके दीदी मैं सम?ा गई. आंटी थोड़े पुराने खयालात की हैं. फिर तो आप भी बचपन में उसी तरह रहते होंगे?’’

‘‘बिलकुल मैं वैसे ही रहती थी. गांव में ही मेरी पढ़ाईलिखाई हुई. फर्क यही है कि मैं ने पढ़ाई ज्यादा कर ली. वैसे हमारी कास्ट में औरतों को ज्यादा पढ़ाया नहीं जाता. मैं पिछड़ी कास्ट की हूं न. हमारी कास्ट में लड़कियों की जल्दी शादी कर दी जाती है. मगर मैं ने तय किया था कि मैं अच्छे से पढ़लिख कर कोई अच्छा काम करूंगी और सैल्फ डिपैंडैंट बनूंगी.’’

‘‘बहुत अच्छी सोच है आप की दीदी और आप की स्किन भी कितनी अच्छी है. भले ही थोड़ी डस्की स्किन है मगर कितनी चमक है.’’

‘‘थैंक यू बेटा.’’

‘‘अच्छा मैं आप को अपनी भाभी का फोटो दिखाती हूं. वे भी बहुत सुंदर थीं,’’ और उस ने अपने पर्स में रखी भाभी की तसवीर दिखाई जो काफी खूबसूरत थी. एकदम गोरा रंग, तेज नैननक्श और प्यारी सी मुसकान. फिर उस ने अपने मम्मीपापा की फोटो दिखाया. फोटो दिखाते समय उस की आंखों में आंसू आ गए तो मैं ने उसे सीने से लगा लिया.

‘‘अब चलो तुम्हें सोने का कमरा दिखा दूं,’’ यह कहते हुए मैं उसे बैडरूम में ले गई.

उस समय हम दोनों ही थके थे सो जल्दी सो गए. सुबह सो कर उठने के बाद पूजा बाहर बालकनी में जा कर मेरे पेड़पौधों और फूलों को देखने लगी जिन्हें मैं ने बहुत प्यार और मेहनत से लगाया था. मेरी बालकनी में कनेर की कई प्रजातियां थीं जिन में 2 बड़े पौधों में ढेर सारे गुलाबी रंग के कनेर के फूल खिले हुए थे. उन के अलावा करीपत्ता, गिलोय, तुलसी, गुलाब, गेंदे और ऐलोवेरा के पौधे भी थे.

वह उन्हें देखती हुई उत्साह से बोली, ‘‘अरे वाह दीदी, आप के यहां तो बहार छाई हुई है.’’

उस के इस कमैंट पर मैं मुसकराए बिना नहीं रह सकी.

‘‘दीदी आप का घर तो बहुत सुंदर है,’’ वह पूरे घर में घूमती हुई बोली.

‘‘सच में?’’

‘‘हां,’’ उस की आंखों में चमक थी.

मैं ने प्यार से उस के माथे पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘अगर यह घर इतना ही सुंदर लग रहा है तो यहीं ठहर जाओ न.’’

‘‘अरे नहीं दीदी. ऐसा कैसे हो सकता है?’’

‘‘क्यों नहीं हो सकता?’’

‘‘क्योंकि मैं यहां रहूंगी तो आप को परेशान करूंगी. वैसे भी आप तो मु?ो जानते भी नहीं.’’

‘‘मैं तो तुम्हें बहुत अच्छी तरह जानती हूं. मु?ो तो तुम बहुत प्यारी लगती हो और यहां रहोगी तो परेशान भी नहीं करोगी बल्कि मेरा मन लगेगा. तुम भी तो होस्टल में अकेली हो और मैं यहां अकेली हूं. हम दोनों एकसाथ रह लेंगे. दोनों एकदूसरे का साथ देंगे, खूब बातें करेंगे, मस्ती करेंगे और अच्छाअच्छा पका कर खाएंगे. क्या तुम्हें यह सब अच्छा नहीं लगेगा? मैं तुम्हें पढ़ा भी दूंगी,’’ मैं ने उसे प्रलोभन दिए.

‘‘दीदी लेकिन भैया क्या कहेंगे?’’ उस की आवाज में चिंता थी.

‘‘भैया से पूछ लो वे क्या कहते हैं. तुम उन्हें बता दो कि होस्टल में अकेली रहने से अच्छा दीदी के साथ रहना है.’’

‘‘अच्छा ठीक है. फिर मैं उन्हें सबकुछ बता देती हूं,’’ कह कर उस ने फोन उठाया और अपने भैया से थोड़ी देर बात कर के मेरे पास आई.

‘‘भैया तो तैयार हो गए दीदी. ठीक है मैं यहां रह जाती हूं. मगर वे कह रहे थे एक बार आप की उन से व्हाट्सएप कौल पर बात करा दूं,’’ उस ने बताया.

‘‘जरूर यह लो,’’ मैं तुरंत तैयार हो गई.

मैं ने व्हाट्सऐप कौल पर उस के भैया से बात की. उस के भैया अधिक उम्र के नहीं थे. घुंघराले बाल, गोरा रंग और अच्छी पर्सनैलिटी. चेहरे से भी शांतसौम्य थे. मैं ने उन्हें सम?ा दिया कि चिंता करने की कोई जरूरत नहीं. पूजा यहां बिलकुल सुरक्षित और अच्छे से रहेगी.

करीब 15-20 दिन पूजा मेरे साथ रही. फिर उस का स्कूल खुल गया तो मैं ने उसे मसूरी पहुंचा दिया. उस के जाने के बाद बहुत दिनों तक मेरा मन नहीं लगा. एक तरह से उस की आदत सी हो गई थी. उधर उस का भी वही हाल था. वह रोज रात में मु?ो फोन करने लगी थी और मु?ो पूरे दिनभर की बातें बताती.

एक दिन कहने लगी, ‘‘जानती हो दीदी आप से मैं वे सब बातें भी कह देती हूं जो भैया को नहीं बता पाती. पता नहीं क्यों आप को हर बात बताने का मन करता है.’’

मैं मुसकराती हुई बोली, ‘‘यही सही है पूजा. तुम अपने मन में कोई भी बात मत रखा करो. जो भी दिल कहे मु?ो बताओ. कोई समस्या हो, कोई अच्छी बात हो या परेशान करने वाली वह सब मु?ो बताओ. मैं तुम्हारी मम्मी जैसी हूं न तो फिर मु?ा से क्या छिपाना?’’

समय गुजरता गया. हम दोनों बहुत क्लोज हो चुके थे. एक दिन पूजा ने मु?ो कौल किया और बोली, ‘‘दीदी भैया आने वाले हैं. हमारी टीचर पेरैंट्स मीटिंग है न. मैं ने उन्हें बुलाया है.’’

‘‘अच्छा यह तो बहुत सही किया,’’ मैं ने कहा.

‘‘भैया कह रहे थे रास्ते में आप से मिलते हुए जाएंगे. पर उन्हें अकेले जाने में थोड़ी ?ि?ाक हो रही थी तो मैं ने कहा कि ठीक है आप यहां आओ. उस के बाद हम दोनों चलेंगे.’’

‘‘हां यह सही रहेगा. तुम दोनों सैटरडेसंडे मेरे यहां रहो. आराम से हम बातें करेंगे, अच्छेअच्छे पकवान बनाएंगे और खाएंगे. कहीं घूमने भी जाएंगे.’’

‘‘वाह दीदी फिर तो मजा आ जाएगा,’’ वह चहक उठी.

अगले सैटरडे पूजा और उस के भैया मयंक मेरे घर आ गए. मयंक ज्यादा बातें नहीं कर रहे थे मगर पूजा का बोलना ही नहीं रुक रहा था. वह भैया को मु?ा से जुड़ी हर बात विस्तार से बता रही थी और मयंक मंदमंद मुसकरा रहे थे.

बाद में जब पूजा थोड़ी देर के लिए बालकनी में गई तो मयंक मु?ा से मेरी पिछली जिंदगी के बारे में पूछने लगे. मैं ने बताया कि कैसे राघव के साथ मेरा तलाक हुआ और कैसे मैं यहां आ कर अकेली रहते हुए जौब करने लगी.

अगले 2 दिन हम तीनों ने साथ में बहुत अच्छा समय बिताया. प्लान के मुताबिक हम देहरादून के सहस्त्रधारा में घूमने भी गए. वहां के खूबसूरत माहौल को देख कर पूजा खिल उठी. मयंक ने बताया कि वे इतने सालों बाद पहली बार पूजा को इतना खुश देख रहे हैं. वे अब पूजा की तरफ से निश्चिंत हो गए थे क्योंकि उस की परवाह के लिए अब मैं भी थी.

एक दिन पूजा छुट्टियों में जब मेरे घर आई तो बहुत गुमसुम सी लगी. मैं ने उस से पूछना चाहा मगर उस ने बात टाल दी. इस तरह करीब 3 दिन बीत गए. मैं ने उस के चेहरे पर मुसकान नहीं देखी जबकि वह ऐसी लड़की थी जो दिन में कई दफा हंसती थी.

एक दिन दोपहर में खाना खा कर जब वह रैस्ट करने कमरे में गई तो मैं उस के पास जा कर बैठ गई. मैं ने उस का हाथ थाम लिया और उस की तरफ ध्यान से देखती हुई बोली, ‘‘बताओ पूजा क्या बात है?’’

‘‘कुछ नहीं दीदी,’’ उस ने फिर से बात टालनी चाही मगर मैं ने उस का माथा सहलाते हुए उसे करीब खींच लिया और सीने से लगाते हुए फिर वही सवाल किया, ‘‘बताओ पूजा मु?ा से कुछ मत छिपाओ. मैं तुम्हारी मां जैसी हूं न. कोई भी प्रोब्लम है तो मु?ो बताओ.’’

अब पूजा अपने जज्बातों को संभाल नहीं सकी और बेतहाशा रोते हुए मु?ा से चिपक गई. फिर थोड़ी देर रोने के बाद सुबकती हुई बोली, ‘‘मेरा अब होस्टल जाने का बिलकुल मन नहीं करता. वहां 3-4 दीदियां हैं जो मु?ो टौर्चर करती हैं. बहुत सताती हैं मुझे. ’’

‘‘वे क्या करती हैं मुझे बताओ पूजा.’’

‘‘कैसे बताऊं दीदी. वे मेरे साथ क्याक्या करती हैं यह मैं किसी से कह ही नहीं पाती. आप को पता है वे मुझे कहती हैं अपने कपड़े खोलो. सारे कपड़े खोल कर हमारे सामने आओ. दीदी पहले दिन जब उन्होंने ऐसा कहा तो मैं बहुत डर गई और कमरा अंदर से बंद कर लिया. मगर वे खिड़की के रास्ते अंदर आ गईं और बैल्ट से मुझे पीटा. उस के बाद कई दिन वह मुझे कपड़े उतारने को कहती रही. एक दिन मेरे पूरे शरीर पर मेहंदी लगा दी तो एक दिन मुझे ब्रा पहना कर घुमाया,’’ कहते हुए पूजा फिर से जोरजोर से रोने लगी.

पूजा की बात सुन कर मैं हैरान रह गई.

‘‘मगर वे तुम्हारे साथ यह सब क्यों करती हैं?’’ मैं ने सवाल किया.

‘‘दीदी मु?ो खुद सम?ा नहीं आता कि वे मेरे साथ यह सब क्यों करती हैं. शायद उन्हें लगता है कि मैं उन के जैसी हाईफाई फैमिली से नहीं हूं. मेरे घर में केवल भैया हैं और वे भी साधारण नौकरी करते हैं. मैं उन के जैसे रोज नए स्टाइलिश कपड़े नहीं पहनती और चुपचाप अपनी पढ़ाई में रहती हूं. इसी वजह से वे मु?ा से चिढ़ती हैं और कमजोर सम?ाती हैं और हां एक बार जब वे देर रात होस्टल लौटीं तो मैं ने यह बात वार्डन से कह दी. शायद वे इसी बात का गुस्सा निकालती हैं और मु?ो इस तरह परेशान करती हैं.’’

‘‘तो तुम ने इस बारे में वार्डन से शिकायत क्यों नहीं की?’’

‘‘दीदी मैं ने की थी शिकायत. मैं ने वार्डन से सिर्फ इतना कहा था कि तीनों मु?ो टौर्चर करती हैं तो वार्डन मु?ो ही डांटने लगीं. दीदी, उन तीनों के पिता बहुत अमीर हैं. वे स्कूल को इकौनोमिक हैल्प भी करते हैं. इसलिए कोई उन से कुछ कहना नहीं चाहता.’’

‘‘तुम चिंता मत करो. इन लड़कियों को तो मैं सबक सिखाऊंगी,’’ मैं ने पूजा को गले से लगाते हुए वादा किया.

थोड़ी देर सोचने के बाद मैं ने अपनी सहेली अमिता को कौल की. वह आईपीएस फिसर थी. अच्छी बात यह थी कि उस की पोस्टिंग मसूरी में ही थी. मैं ने उसे पूजा की सारी बात बताई.

2 दिन बाद ही अमिता पूजा के स्कूल पहुंची. उस ने उन तीनों लड़कियों को बुला कर डांटाडपटा और कानून की भाषा में सब समझा दिया. उन पर कौन सी धाराएं लग सकती हैं और नतीजा कितना बुरा हो सकता है यह भी भलीभांति बताया. एहसास दिला दिया कि पूजा अकेली या कमजोर नहीं और आइंदा उन्होंने पूजा के साथ कुछ भी गलत किया तो अंजाम बहुत भयंकर हो सकता है. अमिता ने वार्डन से बात की और सारा मामला बताया. वार्डन ने भी अपनी गलती सम?ा और वादा किया कि ऐसा फिर कभी नहीं होने दिया जाएगा.

अमिता के रुतबे और सम?ाने के अंदाज का गहरा असर हुआ और इस के बाद पूजा को कभी किसी ने तंग नहीं किया. पूजा अब बहुत खुश रहती थी और उसे लगने लगा था कि मैं उस की हर समस्या का समाधान हूं.

समय गुजरता गया. पूजा मयंक को किसी न किसी बहाने अपने पास मसूरी बुलाती और फिर दोनों मेरे घर आ जाते. फिर तीनों मिल कर कुछ अच्छा वक्त साथ बिताते. पूजा अपनी छुट्टियों में भी मेरे पास आ जाती. इस तरह एकदूसरे से मिलतेमिलाते 2 साल बीत चुके थे. मु?ो मयंक अच्छे लगते थे और मयंक की आंखों में भी मैं ने अपने लिए हमेशा प्यार देखा था. मगर संकोचवश हम दोनों ने आज तक केवल पूजा के इर्दगिर्द रह कर ही उस से जुड़ी बातें ही की थीं. एकदूसरे से किसी और विषय पर या अपनी फीलिंग्स को ले कर कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं हुई.

उस दिन जब पूजा और मयंक मेरे घर में थे तो पूजा ने हम दोनों की तरफ देखते हुए कहा, ‘‘भैया आप लखनऊ में रहते हो, दीदी आप देहरादून में रहते हो और मैं खुद मसूरी में रहती हूं. क्या यह नहीं हो सकता कि हम तीनों एक ही जगह रहें? दीदी क्या मैं आप को मम्मी बुला सकती हूं?’’

पूजा की बात सुनते ही हम सकते में आ गए. मैं ने मयंक की तरफ देखा. वे मंदमंद मुसकरा रहे थे. मु?ो भी हंसी आ गई. पूजा ने हमारी समस्या हल कर दी थी. यह बात तो हम दोनों के मन में भी चल रही थी. बस उसे शब्दों में कहने की हिम्मत नहीं थी. मगर पूजा ने यह काम कर दिया.

मैं ने मयंक की आंखों में स्वीकृति देखी तो पूजा की बात का जवाब देते हुए कहा, ‘‘ठीक है मैं लखनऊ में रहने को तैयार हूं. लखनऊ में हमारा मेन औफिस है. यहां तो मैं ब्रांच औफिस में काम करती हूं और हां तुम मुझे मम्मी जरूर बुला सकती हो.’’

मैं ने और मयंक ने साथ रहने और शादी करने का फैसला कर लिया. मगर मयंक अपनी मां की वजह से असमंजस में थे. मां गांव में रहती थीं और जातपांत का भेदभाव बहुत ज्यादा मानती थीं. मयंक के चेहरे पर कुछ उलझन के भाव मैं ने पढ़ लिए. मैं ने मयंक से कहा कि वे मां की अनुमति ले लें उस के बाद ही हम कोई कदम उठाएंगे. मयंक ने भरोसा दिलाया कि वे इस महीने के अंत तक गांव जाएंगे और मां को तसल्ली से सारी बात समझाएगा.

अगले महीने जब पूजा मेरे घर आई तो फिर से थोड़ी उदास लगी. मैं ने कारण पूछा तो कहने लगी कि उस के भैया ने दादी से बात की थी मगर वे इस शादी के लिए तैयार नहीं हैं.

मैं ने पूजा से पूछा, ‘‘क्या तुम ने अपनी तरफ से दादी से बात की?’’

‘‘नहीं. भैया ही गांव गए थे. मैं तो होस्टल में थी.’’

‘‘ठीक है फिर ऐसा करो कि दादी से अभी बात कर लो.’’

‘‘मगर मैं कहूंगी क्या दीदी?’’ पूजा उल?ान में थी.

‘‘वही कहो जो तुम्हारे दिल में है. बच्चों की बातों में सचाई होती है जिसे अनसुना नहीं किया जा सकता. तुम दादी से अपने मन की बात कहो.’’

पूजा ने मेरी बात मान ली और तुरंत दादी से बात करने के लिए मोबाइल उठा लिया.

‘‘दादी मैं ने अपने लिए मां जैसी भाभी ढूंढ़ ली है प्लीज आप भी उन्हें पसंद कर लो.’’

‘‘मगर बेटा मैं ने बताया न वह हमारे जात की नहीं है. नीची जाति की है. तेरे भैया की उस से शादी नहीं हो सकती,’’ दादी ने फैसला सुना दिया.

‘‘दादी मुझे जाति से कोई मतलब नहीं मुझे तो बस यह पता है कि नेहा दीदी हमेशा मेरे साथ रहती हैं. मेरी हर परेशानी पल में दूर कर देती हैं. मेरे ऊपर कोई मुश्किल आए उस से पहले मुझे बचाने के उपाय कर देती हैं. मेरी सुरक्षा के लिए हमेशा सोचती हैं. मुझे उन के सीने से लग कर लगता है जैसे मैं बहुत सुरक्षित हाथों में हूं. उन के हाथों से खाना खा कर लगता है जैसे अपनी मां खिला रही हैं,’’ पूजा ने अपने दिल की बात कहनी शुरू की.

‘‘बेटा मैं तेरी भावनाएं सम?ा रही हूं मगर…’’ दादी ने बात बीच में ही छोड़ दी.

पूजा की आंखों में आंसू आ गए थे. मैं ने उस के आंसू पोंछ दिए और प्यार से माथा सहलाने लगी.

पूजा की आवाज में दर्द उभर आया था,  ‘‘मगर क्या दादी? दादी आप को पता है

2 साल पहले मेरी फ्रैंड निशा ने सुसाइड कर लिया था. जानते हो क्यों क्योंकि उस की सौतेली मां उसे बहुत सताती थी, बहुत मारतीपीटती थी. दादी उस की जातिधर्म की थी मगर उसे केवल आंसू देती थी, जबकि नेहा दीदी ने हमेशा मेरी आंखों में आंसू आने से पहले ही उन्हें पोंछ दिया है. नेहा दीदी ने हमेशा मु?ो हंसाया है. मां जैसा प्यार दिया है. प्लीज दादी मु?ा से इस मां को मत छीनो. आप जाति देख रही हैं जबकि मुझे सिर्फ प्यार दिखाई देता है. क्या जाति प्यार से बढ़ कर होती है दादी?’’

दादी थोड़ी देर मौन रहीं फिर मुसकराती आवाज में बोलीं, ‘‘बेटा आज मु?ो तेरे शब्दों में छिपे प्यार का एहसास हो गया है. इतनी प्यारी मां से तु?ो दूर कैसे रख सकती हूं. तेरी बातों ने मेरे मन को पिघला दिया है. तू हमेशा अपनी मां जैसी भाभी के साथ खुश रह बस यही चाहती हूं. तू चिंता मत कर मैं आ कर उन दोनों की शादी कराती हूं.’’

पूजा ने दादी के बदले हुए फैसले को सुना तो खुशी से चीख पड़ी. वह मेरे गले लग कर देर तक रोती रही. फिर अपने भैया को कौल कर के बोली, ‘‘भैया दादी मान गई हैं. अब हम तीनों मिल कर बनाएंगे एक हैप्पी फैमिली,’’ बात करते हुए वह मेरी तरफ देख कर मुसकरा रही थी.

मैं सोचने लगी कि सच है बच्चों का मन बिलकुल सच्चा होता है. उन की बात दिल तक पहुंचती है क्योंकि वे दिल से बात रखते हैं. तभी तो हमारी हैप्पी फैमिली का सपना पूरा होने वाला है. मेरी आंखें भी भर आई थीं और दिल में खुशी की लहर दौड़ गई थी.

Hindi Story Collection : उस पार का प्यार

Hindi Story Collection : समिता बेटा, तुम्हारे ऊपर जो बीत रही है, हम लोग सब समझते हैं. मगर बेटी तुम्हारी यह पहाड़ जैसी जिंदगी अकेले कैसे कटेगी और फिर एक छोटे से बेटे की जिम्मेदारी. 1 साल हो गया है शाश्वत को गुजरे हुए. हम लोग तुम्हारे मातापिता हैं, कोई दुश्मन नहीं हैं. हम लोग चाहते हैं कि तुम अब अपनी जिंदगी की एक नई शुरुआत करो,’’ गिरधारीलाल अपनी बेटी को प्यार से सम?ा रहे थे.

‘‘नहीं पापा, मैं दूसरी शादी के बारे में सोच भी नहीं सकती हूं. प्लीज, आप लोग मु?ा पर दबाव न डालें,’’ समिता ने कहा.

समिता की मम्मी बोलीं, ‘‘बेटा, हम लोग तो चाहते थे कि शाश्वत के जाने के बाद तुम अपना ट्रांसफर आगरा करवा लो और अपने मायके आ कर हम लोगों के साथ रहो. लेकिन तुम ने नहीं सुनी और यहीं कानपुर में अपने सासससुर के साथ रहने की जिद पर अड़ गईं. मगर मेरी बच्ची, इतनी लंबी जिंदगी क्या ऐसे ही काट दोगी? बहुत शोक मना लिया. अब कुछ अपनी जिंदगी के बारे में भी सोचो.’’

समिता थोड़ा झल्ला कर बोली, ‘‘मम्मीपापा आप लोग बारबार एक ही बात क्यों बोल रहे

हो? न तो मैं दूसरी शादी करूंगी और न ही मैं यहां से कहीं और जाऊंगी. अब तो यही मेरा घर है और अम्मांबाबूजी की जिम्मेदारी मेरी है. मैं अपनी बाकी की सारी जिंदगी शाश्वत की यादों के सहारे और अपने बेटे समिश्वत के साथ

गुजार लूंगी.’’

समिता के मम्मीपापा दुखी मन से आगरा के लिए चले गए थे. समिता के पति शाश्वत को गुजरे 1 साल बीत चुका था. पति के जाने के बाद भी समिता बेटे समिश्वत के साथ अपने सासससुर के पास ही कानपुर में रहती थी. वह कानपुर के पौलिटैक्निक कालेज में प्रवक्ता के पद पर कार्यरत थी. पति के देहांत के बाद से ही उस के मम्मीपापा को उस की चिंता लगी रहती थी. वे चाहते थे कि समिता एक बार फिर से शादी कर ले और खुशहाल वैवाहिक जिंदगी बिताए पर समिता न तो अपने मायके में रहना चाहती थी और न ही दोबारा शादी करना चाहती थी. समिता ने बड़ी जिद कर के शाश्वत से विवाह किया था जबकि शाश्वत की बीमारी की वजह से समिता के मम्मीपापा इस शादी के लिए बिलकुल तैयार नहीं थे. शादी के मात्र 2 सालों के बाद अब समिता वैधव्य की पीड़ा झेल रही थी. उस के सासससुर ने कभी उसे यहां पर अपने साथ रहने के लिए नहीं कहा. वे तो बस यही चाहते थे कि बहू समिता जिस तरह से भी जहां रहना चाहे, खुशी से रहे.

समिता ने बड़ी हिम्मत से अपने पति के देहांत के बाद अपने बेटे और अपने वृद्ध सासससुर को संभाला था. इतनी बड़ी त्रासदी में जहां समिता का तो सबकुछ ही लुट गया था, वहीं  उस के सासससुर ने भी अपना इकलौता पुत्र असमय ही खो दिया था. वे दोनों बिलकुल टूट गए थे. समिता अपने सासससुर की जीजान से सेवा करती थी. उन की हर छोटी से छोटी आवश्यकता का पूरा ध्यान रखती थी. जब वह कालेज जाती थी तो उस का बेटा समिश्वत अपने दादीदादी के पास ही रहता था. बेटे के असमय देहांत के बाद तो अम्मांबाबूजी के लिए उन का पोता ही उन के जीने का सहारा बन गया था. उस के साथ समय बिताने पर वे अपने सारे गम भूल जाते थे. उन्हें ऐसा लगता था कि जैसे वे अपने बेटे के साथ ही खेल रहे हों.

अब समिश्वत 3 साल का हो गया था. समिता ने उसे अपने घर के बिलकुल पास के स्कूल ‘हैप्पी मौडल स्कूल’ में प्लेगु्रप में दाखिल कर दिया था. दिन तेजी से बीत रहे थे. समिश्वत ने इस साल 5वीं कक्षा उत्तीर्ण कर ली थी. समिता ने अब उसे देहली पब्लिक स्कूल में दाखिल करा दिया था. समिश्वत रोज स्कूल बस से स्कूल जाने लगा था. वह बहुत ही सम?ादार लड़का था. वह जानता था कि उस की मां उसे कितनी मेहनत से पालपोस रही है. अब वह अपनी मां का हाथ बंटाने का भी प्रयास करने लगा था. समिता को ये सब देख कर बहुत सुख महसूस होता था.

‘‘अम्मां, मैं ने आज छुट्टी ले ली है. आज समिश्वत के स्कूल में पेरैंटटीचर्स मीटिंग है. मैं उसे अपने साथ स्कूल ले जा रही हूं. फिर मीटिंग अटैंड कर के समिश्वत को ले कर वापस आती हूं. तब हम सब साथ बैठ कर लंच करेंगे.’’

‘‘समिता बिटिया, तुम मटर निकाल कर मुझे दे दो, मैं तब तक छील देती हूं. तुम्हारे बाबूजी तो नाश्ता करके टहलने चले गए हैं. मेरी तो सुनते नहीं हैं. अब तुम्हीं उन्हें सम?ाओ कि सर्दियां पड़ने लगी हैं तो जरा देर से बाहर जाया करें.’’

तब तक बाबूजी गेट खोल कर घर में प्रवेश कर रहे थे. बोले, ‘‘अरे बहू से मेरी क्या शिकायत हो रही है? बाहर कार में बैठे समिश्वत ने मुझे चुपके से सब बता दिया है और मैं ने भी गेट खोलते समय तुम दोनों को मेरी बात करते सुना है. तुम चाहे जो कहो, मगर समिता तो मेरी ही तरफ रहेगी. तुम बस ऐसे ही चिल्लाती रहो.’’

समिता मुसकराई और बोली, ‘‘बाबूजी, फरवरी की शुरुआत तक थोड़ा देर से ही निकला करिए टहलने के लिए. आप की खांसी की दवा भी तो खत्म होने वाली है. मैं आते समय ले आऊंगी.’’

‘‘वह तो तुम्हीं जानो बहू. मुझे तो कुछ याद रखने की जरूरत ही नहीं पड़ती, तुम जो सारी जिम्मेदारी अपने सिर पर उठाए रहती हो. मेरे कोट में रखे पर्स से कुछ रुपए ले लो और आज समिश्वत को मेरी तरफ  से कुछ खिलौने खरीदवा देना, छठी क्लास में आ गया है मगर कल शाम को मेरे साथ खेलते समय खिलौनों के लिए मुझ से जिद कर रहा था, शरारती कहीं का.’’

समिता स्कूल पहुंच गई थी. क्लास टीचर ने समिता से कहा, ‘‘समिश्वत बेहद गंभीर और अनुशासन में रहने वाला स्टूडैंट है. वह प्रत्येक विषय को गहराई से सम?ाने का प्रयास करता है और अच्छे अंक लाता है. बस थोड़ा चुपचुप रहता है.’’

समिता ने क्लास टीचर को धन्यवाद दिया और समिश्वत को अपने साथ ले कर कार से घर की तरफ रवाना हो गई. समिश्वत ने अपनी मां से कहा, ‘‘मम्मा, कल मैं जब बाबा के साथ खेल रहा था तो वे अचानक हंस पड़े और बोले कि तुम भी अपने डैडी की तरह नटखट हो. शाश्वत भी बचपन में मु?ो खेलते समय बहुत दौड़ाता था. मम्मा, बाबा यह कहतेकहते अपने आंसू पोंछने लगे थे और उन्होंने मु?ो कस कर अपने गले से लगा लिया था.’’

शाश्वत की बातें सुन कर समिता की भी पलकें भीग गईं पर उस ने बड़ी सफाई से उन्हें छलकने से रोक लिया.

‘‘मम्मा, तुम ने कभी यह नहीं बताया कि तुम मेरे डैडी से कब और कैसे मिली थीं क्यों नानाजी तो आगरा में रहते हैं. तुम यहां कानपुर कैसे आईं?’’

‘‘तुम क्या करोगे ये सब जान कर?’’ समिता ने सावधानी से ड्राइव करते हुए समिश्वत के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा.

‘‘अरे मम्मा, अब मैं बड़ा हो गया हूं. तुम डैडी की तारीफ तो बहुत करती हो लेकिन यह तो बताओ कि तुम लोग आपस में कैसे मिले और फिर कैसे तुम लोगों की शादी हुई?’’ समिश्वत ने थोडा शरारत से पूछा.

समिता ने एक गहरी सांस ली और वह आज से 15 साल पहले कानपुर शहर में अपने प्रथम आगमन के बारे में सोचने लगी…

समिता तो आगरा की रहने वाली थी. कानपुर के टैक्स्टाइल संस्थान में पढ़ने के लिए वह अपने पिताजी के साथ कानपुर आई थी. पिताजी उसे वहां होस्टल में छोड़ कर शाम की ट्रेन से आगरा के लिए निकलने वाले थे.

‘‘जी पापा, आप चिंता न करिए, मैं यहां गर्ल्स होस्टल में आराम से रहूंगी. आप निकलिए, नहीं तो आप की ट्रेन छूट जाएगी. सुमित और मम्मी का खयाल रखिएगा.’’

‘‘बेटा, पहली बार तुम घर से बाहर दूसरे शहर में पढ़ने के लिए आई हो तो चिंता तो बनी ही रहेगी लेकिन क्या किया जाए. तुम्हारी पढ़ाई भी तो जरूरी है. तुम्हारा सलैक्शन इस टैक्स्टाइल इंस्टिट्यूट में हो गया तो हम लोगों को बड़ी प्रसन्नता हुई. पूरे यूपी का यह एकमात्र टैक्स्टाइल टैक्नोलौजी इंस्टिट्यूट है. यह कानपुर का ही नहीं पूरे देश का प्रतिष्ठित संस्थान है.’’

‘‘जी पापा, मैं सम?ा रही हूं. मैं यहां पर मन लगा कर पढ़ाई करूंगी और अच्छी रैंक ला कर दिखाऊंगी. फिर कानपुर से आगरा है ही कितनी दूर. मैं छुट्टियों में ट्रेन से आप लोगों के पास आ जाया करूंगी.’’

समिता की आंखें अब भीग चुकी थीं. उस ने सोचा यह तो अच्छा हुआ कि मम्मी नहीं आईं नहीं तो न तो उन के आंसू रुकते और न मेरे.

गिरधारीलाल ने अपनी पलकों से बाहर आने को बेताब आंसुओं को रोकते हुए कहा, ‘‘तो ठीक है बेटा, अब मैं चलता हूं. पैसे बराबर तुम्हारे अकाउंट में डालता रहूंगा.’’

गिरधारीलाल फिर बिना पीछे देखे तेजी से चले गए थे. समिता जानती थी कि आज उस के पापा और मम्मी कितने दुखी हैं. वह भी बहुत दुखी थी लेकिन यहां होस्टल में सारी लड़कियों का यही हाल नहीं था. कुछ लड़कियां तो बेहद प्रसन्न नजर आ रही थीं जैसेकि वे किसी कैद से छूट कर आई हों और अब उन का आजाद पंछी की तरह रहने का बहुप्रतीक्षित सपना हकीकत में बदल रहा हो.

समिता आगरा के दयालबाग इलाके की रहने वाली थी. उस के पिता गिरधारीलाल आगरा में एक सरकारी बैंक की कमला नगर शाखा में क्लर्क थे. उन्होंने कभी अपने बैंक में अधिकारी के कैडर में प्रमोशन के लिए अप्लाई ही नहीं किया था. इस के 2 मुख्य कारण थे. पहला तो वे अपने बच्चों की पढ़ाई के कारण आगरा छोड़ कर कहीं जाना नहीं चाहते थे क्योंकि उन्होंने अपने साथ के अनेक सहकर्मियों को प्रमोशन ले कर देश के विभिन्न राज्यों में ट्रांसफर होते और अकसर घरपरिवार से दूर रहते हुए देखा था. संयोग से उन की बेटी का दाखिला इतने अच्छे संस्थान में हो गया था और उन का बेटा सुमित अभी 11वीं कक्षा में पढ़ रहा था.

समिता ने दूसरे दिन से ही नियमित प्रथम वर्ष की कक्षाएं अटैंड करना शुरू कर दिया था. यहां लड़के और लड़कियों के होस्टल तो अलगअलग थे किंतु पढ़ते सभी लड़केलड़कियां साथसाथ ही थे. समिता देख रही थी कि अभी यहां आए हुए 1 महीना भी नहीं हुआ है और अधिकतर लड़केलड़कियों के आपस में बौयफ्रैंड और गर्लफ्रैंड बन चुके हैं. स्टूडैंट्स शाम को घूमने के लिए भी जोड़ों में ही साथ निकलते थे. कई लड़कों ने समिता की तरफ  भी अपनी दोस्ती का हाथ बढ़ाया लेकिन उस ने कक्षा के भीतर तक की सीमा में दोस्ती को अच्छा सम?ा. उसे यह अच्छी तरह पता था कि यह दोस्ती जब कक्षा की सीमा से बाहर की हो जाती है तो प्राय: नैतिक व सामाजिक वर्जनाओं को तोड़ कर ही दम लेती है.

एक दिन समिता शाम को क्लासरूम से होस्टल जाने के लिए निकली. अभी वह थोड़ी दूर ही जा पाई थी कि एक दुबलापतला लड़का दौड़ते हुए उस के पास पहुंचा. वह हांफ रहा था और उस के हाथ में एक मोबाइल था जो बज रहा था. उस ने समिता की ओर मोबाइल देते हुए कहा, ‘‘आप का फोन क्लास में ही रह गया था. देखिए शायद आप के पापाजी की कौल है.’’

समिता ने फोन ले लिया और अपने पापा से बात करने लगी. इस बीच वह लड़का वहां से चला गया. समिता होस्टल में अपने रूम में लेटे हुए उसी लड़के के बारे में सोच रही थी. इस लड़के को तो मैं ने क्लास में हमेशा सीरियस ही देखा है. यह किसी से ज्यादा बात करता दिखाई नहीं पड़ता है. अभी पिछले टैस्ट में इसे काफी अच्छे नंबर मिले थे. इस का नाम क्या है ? चलो कल उस भले मानुष को थैंक्यू कह दूंगी.

अगले दिन समिता ने उस लड़के के पास जा कर कहा, ‘‘धन्यवाद आप का,

मेरा फोन मुझ तक पहुंचाने के लिए.’’

लड़के ने कहा, ‘‘नहीं इस में धन्यवाद देने जैसी कोई बात नहीं है. मैं ने देखा कि फोन डैस्क पर बज रहा है तो आप तक पहुंचा दिया, बस.’’

‘‘आप का नाम क्या है और आप क्या बौयज होस्टल में नहीं रहते हैं?’’

लड़का थोड़ा मुसकरा कर बोला, ‘‘मेरा नाम शाश्वत है. मैं कानपुर का ही रहने वाला हूं, इसलिए होस्टल में नहीं रहता हूं. मेरा घर यहां से लगभग 10 किलोमीटर की ही दूरी पर है.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है कि आप अपने घर पर रह कर ही यह कोर्स कर रहे हैं. ऐसा मौका तो कम को ही मिलता है. अच्छा ठीक है, क्लास शुरू होने वाली है. मैं अपनी सीट पर जाती हूं.’’

1 सप्ताह तक फिर शाश्वत क्लास में नहीं दिखा. जब वह 1 सप्ताह बाद क्लास में आया तो समिता ने गौर किया कि वह काफी थकाथका सा दिखाई दे रहा है. समिता ने लंच टाइम पर शाश्वत से बात करने की सोची. जब लंच हुआ तो उस ने देखा कि शाश्वत अपना बैग ले कर क्लास से बाहर निकल गया. पीछे से समिता जब क्लास से बाहर आई तो देखा कि वह दूर एक पेड़ के नीचे बैठा फल खा रहा. समिता ठीक उस के पीछे आ कर खड़ी हो गई. शाश्वत उस के होने से अनजान बैठा फल खाता रहा. फिर उस ने अपने बैग से कुछ दवाएं निकालीं और पानी के साथ गटक गया. समिता ये सब देख कर उस के सामने आ गई तो वह एकदम चौंक सा गया.

‘‘अकेलेअकेले फल खाए जा रहे हैं.’’ समिता मुसकरा कर बोली.

शाश्वत शरमा सा गया फिर और फल समिता की ओर बढ़ाता हुआ बोला, ‘‘तुम भी लो न.’’

समिता हाथ के इशारे से मना करती हुई बोली, ‘‘अरे नहीं, मैं तो बस मजाक में कह रही थी. मैं तो बस तुम से यह पूछना चाह रही थी कि तुम पिछले सप्ताह तो बिलकुल गायब ही हो गए थे. अभी तुम टैबलेट्स भी ले रहे थे. क्या हुआ? सब ठीक है न?’’ अचानक दोनों आप से तुम पर आ गए थे.

शाश्वत ने हंसते हुए कहा, ‘‘अरे कुछ नहीं. मैं पिछले सप्ताह थोड़ा बीमार हो गया था. तो डाक्टर ने रैस्ट के लिए कहा था.’’

तब समिता ने चलते हुए कहा, ‘‘ओके, अपना ध्यान रखना.’’

समिता गौर कर रही थी कि यह शाश्वत बाकी स्टूडैंट्स से बिलकुल अलग ही था. बेहद कम बात करना. चुपचाप अपने काम में लगे रहना. बीचबीच में अब्सैट रहने के बावजूद अच्छे नंबर लाना. गुमसुम रहना. उसे अब शाश्वत के बारे में जानने की जिज्ञासा हो गई थी.

एक दिन शाश्वत की बगल वाली सीट का स्टूडैंट नहीं आया था. समिता जा कर वहीं बैठ गई. शाश्वत ने उसे एक नजर देखा, तब तक लेक्चरर ने क्लास में ऐंट्री ले ली थी. शाश्वत उन की तरफ देखने लगा. 4 पीरियड्स के बाद लंच ब्रेक हो गया.

समिता ने शाश्वत से कहा, ‘‘चलो, कैंटीन चलते हैं. मुझे तो बहुत भूख लगी है.’’

शाश्वत झिझकते हुए बोला, ‘‘मगर मैं तो तबीयत ठीक न रहने की वजह से बाहर का बिलकुल नहीं खाता हूं.’’

‘‘उफ, लेकिन चाय या नींबू पानी तो पी ही सकते हो.’’

‘‘हां, वह तो पी सकता हूं.’’

‘‘फिर जल्दी से चलो नहीं तो यहीं पर बातों में समय निकल जाएगा और प्रैक्टिकल क्लासेज शुरू हो जाएंगी.’’

दोनों कैंटीन के एक कोने में रखी टेबल पर बैठ गए.

‘‘और तुम्हारे घर पर कौनकौन हैं?’’ समिता ने बात शुरू की.

‘‘मैं और मेरे मम्मीपापा बस.’’

‘‘अच्छा तो तुम इकलौते बेटे हो अपने मदरफादर के. मेरे तो एक छोटा शैतान भाई है. नाम है सुमित.’’

‘‘चलो अच्छा है कि घर पर इस समय वह तो है तुम्हारे मम्मीपापा के पास नहीं तो वे बेचारे इस समय बिलकुल अकेले होते.’’

‘‘हां, वह तो है. मगर एक बात बताओ तुम यह बीचबीच में गायब क्यों हो जाते हो? क्या घर पर पढ़ाई करते हो टौप करने के लिए? तभी तुम्हारे नंबर अच्छे आते हैं,’’ समिता बोली.

शाश्वत आंखों से मुसकरा दिया और बोला, ‘‘अरे अगर पढ़ाई ही करनी है तो कालेज क्या बुरा है पढ़ने के लिए. मेरी तो मजबूरी है. दरअसल, मेरी तबीयत अकसर खराब हो जाती है. दवा लेने से कुछ दिन ठीक रहता हूं लेकिन कुछ दिन बाद फिर से तबीयत बिगड़ जाती है.’’

‘‘अरे तुम ने किसी अच्छे डाक्टर को नहीं दिखाया और आखिर तुम्हें हो क्या जाता है?’’

शाश्वत ने एक गहरी सांस ली और बोला, ‘‘यह मेरी जिंदगी का एक दुखद पहलू है, जिसे मैं ने आज तक बाहर किसी से भी शेयर नहीं किया है क्योंकि मेरा यह मानना है कि किसी व्यक्ति के जीवन की जो तीव्र, गहन, असाध्य पीढ़ाएं होती हैं वे भी प्रकृति की उसे दी हुई थाती यानी धरोहर होती हैं और इस धरोहर को हृदय की तिजोरी में महफूज रख कर उस के विदीर्ण कर देने वाले दर्द और कसक को केवल स्वयं महसूस करना चाहिए. किसी अन्य से बांटते समय के क्षणों में आप कुछ पलों के लिए उसे विस्मृत हो जाने के भ्रम में हो सकते हैं परंतु इस सा?ा करने की प्रवृत्ति से उस धरोहर की गरिमा को चोट पहुंचती है. जब आप अपने जीवन में उस दर्द की धरोहर को संजो लेते हैं तब वह संजोना और सहेजना ही उस पीड़ा का उपचार अथवा औषधि हो जाता है.’’

समिता स्तब्ध और मौन रह गई थी. तब तक प्रैक्टिकल क्लासेज का टाइम हो चुका था. दोनों सीधे क्लास के लिए चले गए. रात को बिस्तर पर समिता की आंखों से नींद कोसों दूर थी. पीड़ा की ऐसी अद्भुत उल?ा देने वाली व्याख्या उस ने पहली बार सुनी थी. इस युवक के दिल में कितना कुछ उमड़घुमड़ रहा है, जिसे वह स्वयं तक सीमित रखे है.

कुछ दिनों तक तो समिता की शाश्वत से बात करने की हिम्मत ही नहीं हुई. अकसर दोनों का आमनासामना हो जाता था लेकिन केवल हायहैलो तक ही सीमित रह जाता. शाश्वत पूर्ववत कालेज अटैंड करता था और कभीकभी अब्सैंट रहता. पहला सेमैस्टर समाप्त हो गया था. शाश्वत के अंक काफी अच्छे आए थे. सैकंड सेमैस्टर में 4-4 स्टूडैंट्स के गु्रप बना कर 1-1 प्रोजैक्ट हर गु्रप को आवंटित कर दिया गया था. हर ग्रुप में जिस भी स्टूडैंट्स के सब से अधिक अंक आए थे वह उस गु्रप का लीडर था. संयोग से शाश्वत के गु्रप में समिता भी थी. उन के अलावा एक लड़का अमित और एक लड़की रत्ना भी थी.

शाश्वत ने पहले दिन ही अपने गु्रप के सदस्यों से कहा, ‘‘देखो हालांकि अधिक अंक आने के कारण मु?ो इस गु्रप का लीडर बनाया गया है लेकिन इसे एक औपचारिकता ही सम?ा. हमारे गु्रप का प्रत्येक सदस्य इस गु्रप का लीडर है और वह अपने प्रोजैक्ट की बेहतरी के लिए अपने सु?ाव दे सकता है और सब का मार्गदर्शन भी कर सकता है. हम लोग मिल कर इस प्रोजैक्ट को सर्वश्रेष्ठ बनाने की दिशा में कार्य करेंगे. मैं अकसर अपने स्वास्थ्य की वजह से अनुपस्थित रहता हूं लेकिन इस प्रोजैक्ट के संबंध में हर सदस्य मुझ से फोन पर डिस्कस कर सकता है.’’

समिता, रत्ना, अमित और शाश्वत ने प्रोजैक्ट पर कार्य करना आरंभ कर दिया था. समिता देख और सम?ा रही थी कि शाश्वत की हर बात कितनी नपीतुली और सामयिक होती है. जो वह कहना चाहता था, सामने वाले तक ठीक वैसा ही संप्रेषित भी कर पाने में सक्षम था. समिता को पूरा विश्वास था कि उस के गु्रप का प्रोजैक्ट तो टौप करेगा ही करेगा. धीरेधीरे प्रोजैक्ट को कंप्लीट कर के सबमिट करने का समय नजदीक आ रहा था. सारे स्टूडैंट्स बड़े परिश्रम से लगे हुए थे. अब बस थोड़ा ही कार्य शेष बचा था इस प्रोजैक्ट को कंप्लीट करने में. तीन दिन पहले ही शाश्वत ने कालेज आना बंद कर दिया था. पहले दिन तो किसी ने शाश्वत को फोन से संपर्क नहीं किया और सोचा कि शायद कल आ जाएगा लेकिन जब दूसरे दिन भी नहीं आया तो चिंता हुई कि आज का दिन मिला कर केवल 2 ही दिन बचे हैं प्रोजैक्ट को जमा करने में.

मजबूरीवश समिता ने शाश्वत के मोबाइल पर कौल की लेकिन कौल उठी नहीं. फिर उस ने 4-5 बार कौल करने का प्रयास किया लेकिन काल नहीं उठी. समिता कालेज के प्रशासनिक विभाग में गई और संबंधित कर्मचारी से शाश्वत के निवासस्थल का पता मांगा. थोड़ी देर के बाद कर्मचारी ने शाश्वत का पता फाइल से देख कर नोट करवा दिया. क्लासेज समाप्त होने के बाद समिता ने होस्टल के वार्डन को बता कर शाश्वत के घर के लिए एक ओला बुक कर के रवाना हो गई. कैब में उस ने नोट किया हुआ पता दोबारा देखा. पता इस प्रकार था- अमरकांत, सी/401, इन्द्रानगर, कानपुर. नीयर धीरज मार्केट.

कानपुर शहर समिता के लिए अपरिचित था. वह गूगल मैप में भी देखती जा रही थी कि कैब सही रास्ते पर चल रही है या नहीं. सूटरगंज से कैब वीआईपी रोड पर ही चलती हुई कंपनीबाग पहुंची फिर वहां से कानपुर चिडि़याघर होते हुए गुरुदेव पैलेस जाने वाले रोड पर चलने लगी. फिर कैब सीएनजी पंप रोड पर मुड़ गई और 3 किलोमीटर चलने के बाद बाईं ओर इंद्रानगर महल्ला बसा था. सुंदरसुंदर घर और हर गली में 1-1 पार्क बना था. वाटर हार्वेस्टिंग पार्क के निकट ही था शाश्वत का घर. दोमंजिला खूबसूरत घर. बाहर अमरकांत की नेमप्लेट लगी थी. समिता ने कौलबैल दबा दी. एक सभ्रांत से दिखने वाले बुजुर्ग ने लोहे का गेट खोला और प्रश्नवाचक निगाहों से समिता की ओर देखा.

समिता ने अपना परिचय देते हुए कहा, ‘‘अंकल नमस्ते, मैं समिता हूं और मैं शाश्वत की क्लास में ही पढ़ती हूं. शाश्वत 2 दिनों से कालेज नहीं आया और प्रोजैक्ट भी सबमिट होना था तो मैं ने उसे कई बार फोन मिलाया, जब फोन नहीं उठा तो मैं औफिस से पता ले कर चली आई. कैसा है वह?’’

बुजुर्ग ने आंखों के इशारे से समिता को अंदर आने को कहा. समिता को अंदर ले जा कर ड्राइंगरूम में बैठा दिया. फिर वह बुजुर्ग महोदय धीमी आवाज में बोले, ‘‘बेटा, शाश्वत की तबीयत परसों ज्यादा खराब हो गई थी तो हम लोग उसे डाक्टर के पास ले गए थे. डाक्टर ने दवा वगैरह तो दे दी है लेकिन उसे अभी आराम नहीं है. शायद शाश्वत अभी 2-3 दिन और कालेज नहीं आ पाएगा. तुम चाहो तो थोड़ी देर के लिए उस से मिल सकती हो लेकिन उसे अभी ज्यादा स्ट्रैस नहीं होना चाहिए.’’

‘‘जी अंकल, मैं बस 5 मिनट मिल कर फिर चली जाऊंगी.’’

अमरकांत समिता को भीतर ले गए. बैडरूम में शाश्वत एक चादर ओढ़े दूसरी करवट लेटा था. उस की मां उस के पास ही बैड पर बैठी हुई उस के धीरेधीरे पैर दबा रही थीं. समिता ने मां को सिर ?ाका कर नमस्ते की.

अमरकांत ने शाश्वत की मां से कहा, ‘‘यह अपने शाश्वत की क्लास में ही पढ़ती है. समिता नाम है इस का. शाश्वत से मिलने के लिए आई है.’’

बोलने की आवाजें सुन कर शाश्वत ने आंखें खोल दीं और पलट कर देखा तो समिता खड़ी थी. वह अचंभित हो कर मुसकराया और बोला, ‘‘अरे समिता, आओ बैठो, तुम यहां मेरे घर पर आ गई?’’

‘‘मैं ने तुम्हें फोन तो मिलाया लेकिन जब नहीं उठाया तो मजबूरी में मु?ो यहां आना पड़ा वरना मैं आप लोगों को परेशान नहीं करना चाहती थी,’’ समिता ने पहले शाश्वत की ओर देखा और फिर उस के मातापिता को देखते हुए अपनी बात समाप्त की.

अमरकांत बोले, ‘‘अरे नहीं बेटी, यह तुम्हारा ही घर है. जब चाहो आओ.’’

‘‘अच्छा तुम दोनों बातें करो. तब तक मैं चाय बना कर लाती हूं,’’ कहते हुए मां चाय बनाने के लिए किचेन में चली गईं.

अमरकांत भी उठ कर ड्राइंगरूम में चले गए.

समिता बोली, ‘‘अब तबीयत कैसी है तुम्हारी?’’

‘‘तबीयत को क्या हुआ है? मैं बिलकुल ठीक हूं. ये सब तो लगा ही रहता है. अम्मांबाबूजी तो नाहक परेशान होते रहते हैं. तुम बताओ प्रोजैक्ट तो लगभग पूरा हो ही गया था.’’

‘‘अरे कहां, अभी फाइनल टच तो देना रह गया है और तुम्हारे बिना तो…’’ समिता ने बात अधूरी छोड़ दी.

‘‘क्या रह गया है, बताओ

तो मुझे?’’

तब तक मां चाय की ट्रे ले कर अंदर आ गई थीं. उस ने मां से कहा, ‘‘आंटी, मैं 5 मिनट के लिए अपने लैपटौप से इन को कुछ दिखा कर पूछ लूं?’’

‘‘हांहां क्यों नहीं,’’ मां ने कहा.

समिता ने तुरंत लैपटौप निकाला और औन कर दिया. प्रोजैक्ट की फाइल ओपन हो गई थी. शाश्वत ने 5 मिनट के भीतर ही समिता की बताई हुई दिक्कतों को दूर कर दिया और प्रोजैक्ट फाइनल कर दिया.

‘‘यह लो अपना प्रोजैक्ट कंप्लीट हो गया है. अभी तो हो सकता है कि मैं 2-3 दिन और न आ पाऊं तुम यह प्रोजैक्ट सबमिट करा देना और थैंक्स यहां तक आने के लिए.’’

‘‘और तुम्हारा भी थैंक्स कि इसे पूरा करा दिया.‘‘ समिता ने चाय पीते हुए मुसकरा कर कहा.

शाश्वत अपनी मां की ओर देख कर बोला, ‘‘यह तो अच्छा हुआ अम्मां कि समिता अपना लैपटौप ले कर आ गई नहीं तो हम लोगों का प्रोजैक्ट टाइम से सबमिट नहीं हो पाता.’’

इस के बाद समिता वापस होस्टल आ गई. दिन बीतते जा रहे थे. अब समिता और शाश्वत अच्छे दोस्त बन गए थे. लेकिन अभी तक समिता को शाश्वत की बीमारी के बारे में ढंग से कुछ भी पता नहीं था.

एक दिन समिता ने शाश्वत से कहा, ‘‘मैं अकेले तो होस्टल से कहीं बाहर जाती नहीं हूं और तुम हो कि तुम ने मु?ो अपने कानपुर का कुछ भी नहीं दिखाया है अभी तक. तुम अगर मेरे आगरा में होते तो मैं अब तक तुम्हें पूरा आगरा घुमा डालती.’’

‘‘अच्छा अकेले तो तुम खूब निकलती हो. अभी उसी दिन मेरे घर नहीं आ गई थीं?’’

‘‘अरे वह तो जरूरी था इसलिए… वह कोई घूमना थोड़े ही था.’’

‘‘अच्छा ठीक है. शनिवार को मैं तुम्हें अपने इंस्टिट्यूट के बिलकुल पास ही एक अच्छी जगह ले चलूंगा.’’

समिता खुश होते हुए बोली, ‘‘सच, चलो शनिवार का वेट करते हैं.’’

शाश्वत शनिवार को समिता को अपनी बाइक पर बैठा कर गंगा बैराज ले गया. दोनों टहलतेटहलते गंगा के किनारेकिनारे चले जा रहे थे. गंगा के बहते पानी को देख कर समिता थोड़ा रोमांचित और प्रफुल्लित हो रही थी. उस ने ?ाक कर अपने हाथों से पानी को अपनी अंजुलि में ले कर अपने ऊपर और फिर शाश्वत के ऊपर डाल दिया और खिलखिला कर हंस पड़ी.

शाश्वत थोड़ा ?ोंपता हुआ मुसकराया और रेत पर धीरेधीरे चलने लगा.

समिता ने कहा, ‘‘हम लोग तो चलतेचलते काफी दूर आ गए हैं. चलो वापस बैराज चलते हैं और कुछ खाते हैं. मुझे तो भूख लग रही है.’’

‘‘हां ठीक है चलो. मैं भी थकान महसूस कर रहा हूं,’’ शाश्वत के चेहरे पर शिथिलता नजर आ रही थी.

फिर दोनों बैराज से सटे बने गंगा पुल पर आ गए. पुल के किनारों पर और पुल के दोनों छोरों पर दूर तक तमाम आइसक्रीम वाले, भेलपूरी वाले, पानी के बताशे वाले और भी तरहतरह के ठेले लगे हुए थे. प्रेमी जोड़े कुछ अधिक ही थे. उन में आपस में रूठनेमनाने और अठखेलियां करने का क्रम जारी था. कानपुर वालों के लिए तो यही मरीन ड्राइव था. कुछ लोग अपने बच्चों के साथ घूमने आए थे. सब से ज्यादा परेशानी उन्हें ही हो रही थी क्योंकिअपने छोटे बच्चों को इन प्रेमी पंछियों की उन्मुक्त किलोंलों के दृश्यों को देखने से रोकने का कोई उपाय उन्हें सूझ ही नहीं रहा था. परंतु वे मन ही मन अपने पुराने समय को भी कोस रहे थे कि जब अपने चाहने वाले को एक नजर देखना ही बहुत था और एकाध बार बात कर लेने का अवसर मिल जाने को तो नियामत समझा जाता था. स्पर्श, चुंबन और आलिंगन इत्यादि तो बस स्वप्नों में ही हो पाते थे.

आज देखो शादी तो बस एक सामाजिक औपचारिकता भर ही रह गई है.

विवाह पश्चात के कार्य अब विवाहपूर्व ही संपन्न होने लगे हैं और अब सरकारें भी लिव इन रिलेशन को मान्यता दे चुकी हैं. आजकल महीनोंसालों के प्यारमुहब्बत और लिव इन रिलेशन में रहने के बाद भी तलाक के मामले पुराने जमाने की अपेक्षा घटने के बजाय बढ़ते ही जा रहे हैं.’’

गंगा पुल पर समिता ने एक प्लेट भेलपूरी खाई और शाश्वत चुपचाप खड़ा उसे खाते देखता रहा और समिता उसे देख कर मुसकराती रही. अब तो अकसर शाश्वत और समिता कानपुर के विभिन्न दर्शनीय स्थलों को देखने के लिए निकल जाते थे. जैसे गंगा बैराज, जेड स्क्वायर, ब्लू वर्ड, जेके मंदिर, इस्कौन मंदिर, मोती?ाल इत्यादि परंतु समिता ने कभी शाश्वत से उस के निजी जीवन की व्यथा नहीं पूछी थी क्योंकि उस दिन शाश्वत ने ही उसे अपनी पीड़ा अपने तक ही रखने का कारण बताया था.

टैक्स्टाइल इंजीनियरिंग में पढ़ाई का दूसरा वर्ष प्रारंभ हो चुका था. सबकुछ पूर्ववत ही चल रहा था. शाम को समिता ने शाश्वत से कहा, ‘‘शाश्वत, तुम मुझे बारबार उन्हीं जगहों पर घुमाने ले जाते हो. अब तुम्हारे इस कानपुर में देखने के लिए कुछ भी नहीं बचा क्या?’’

शाश्वत कुछ पल सोचता रहा फिर बोला, ‘‘जितनी देखने वाली जगहें थीं सब मैं ने तुम्हें घुमा दी हैं लेकिन अब जब तुम ने नई जगह घुमाने के लिए कह ही दिया है तो इस रविवार को मैं तुम्हें एक नई जगह ले चलता हूं लेकिन अभी से उस के बारे में कुछ नहीं बताऊंगा.’’

रविवार को शाश्वत अपनी बाइक में समिता को बैठा कर कानपुर शहर से 20 किलोमीटर दूर ऐतिहासिक कसबे बिठूर ले गया. वहां पहुंच कर शाश्वत ने समिता से कहा, ‘‘गंगा नदी के किनारे बसे इस बिठूर कसबे का ऐतिहासिक महत्त्व है. नानाराव पेशवा और तातिया टोपे ने अंगरेजों से यहीं पर लोहा लिया था. ?ांसी की रानी लक्ष्मीबाई का बचपन भी यहीं बीता था.’’

उन दोनों ने पेशवा का किला और संग्रहालय देखा फिर वे कुछ दूरी पर बह रही गंगा के किनारे आ गए. यहां पर कोई पक्का घाट नहीं था. दूरदूर तक बालू फैली थी और गंगा नदी बह रही थी. यहां पर शहर के घाटों जैसी कोई भीड़भाड़ नहीं थी. दोनों गंगा के किनारे अपने कपड़ों को समेटे हुए घुटनों तक पानी में बातें करते हुए धीरेधीरे चल रहे थे. दोनों चलतेचलते कब गहराई की तरफ बढ़ते गए उन्हें बातोंबातों में याद ही नहीं रहा. वहां पर कुछ दूरी पर 2-4 ग्रामीण नहा रहे थे. अचानक शाश्वत का पैर एक गहरे गड्ढे में चला गया और वह डूबने लगा. समिता एक सैकंड के लिए स्तब्ध रह गई और चिल्लाई. उधर शाश्वत बाहर निकलने के लिए हाथपैर मार रहा था. उसे तैरना भी नहीं आता था. समिता ने शाश्वत के पास ही छलांग लगा दी. गनीमत से समिता एक अच्छी तैराक थी. उस ने शाश्वत का हाथ कस कर पकड़ लिया और अपनी तरफ खींचते हुए किनारे लाने का प्रयास करने लगी. शाश्वत डूबने से बचने के लिए उसे अपनी ओर खींच रहा था जैसाकि आमतौर पर सभी डूबने वाले किया करते हैं. समिता बड़ी चतुराई से अपने को शाश्वत की पकड़ से बचाते हुए उसे खींच कर किनारे ले आई. तब तक वहीं नहा रहे ग्रामीण भी आ गए थे.

उन में से एक ने कहा, ‘‘हम लोग तो मजे से दूर नहा रहे थे. जब तक हम आते तब तक तो इस लड़की ने छलांग लगा कर इसे बचा लिया. बड़ी दिलेर लड़की है यह.’’

दूसरा आदमी बोला, ‘‘थोड़ी देर सुस्ता लो. फिर सब ठीक हो जाएगा.’’

थोड़ी देर रेत पर दोनों ऐसे ही लेटे रहे. थोड़ा ठीक होने पर दोनों उठ कर बाइक के पास आए. शाश्वत ने कहा, ‘‘आज समिता तुम ने मेरी जान बचा कर मेरी अम्मां और पिताजी को कुछ बरसों के लिए नया जीवन दे दिया.’’

‘‘अरे यार, ऐसी कोई बात नहीं है. मैं ने तो उस समय जो सू?ा वह किया लेकिन तुम तो बड़े उस्ताद हो. अपने साथ मु?ो भी डुबो रहे थे,’’ कह कर वह हंस पड़ी.

शाश्वत ने बाइक स्टार्ट की और दोनों चल दिए. समिता ने कहा, ‘‘अभी तुम कह रहे थे कि तुम्हारे अम्मां और पिताजी को मैं ने कुछ बरसों के लिए नया जीवन दे दिया? मैं तुम्हारी यह बात सम?ा नहीं?’’

शाश्वत बोला, ‘‘आज तुम ने मुझे मौत के मुंह से बचाया है तो अब तुम्हें मेरे अतीत के बारे में सबकुछ जानने का पूरा अधिकार है. मैं तुम्हें अपने जन्म से ले कर आज तक की पूरी कहानी सुनाता हूं. जब मैं अपनी अम्मां के गर्भ में आया तो वे मेरे पिताजी के साथ बहुत ही खुश थीं. हालांकि उस समय भी गर्भवती महिलाओं की जांचें होती थीं लेकिन आजकल जैसी एडवांस जांचें नहीं थीं.

‘‘डाक्टर भी इस गर्भावस्था को एक सामान्य केस ही मान रहे थे. खैर, मेरा जन्म हुआ. सब लोग बेहद खुश थे. प्रसव चूंकि नौर्मल ही हुआ था इसलिए दूसरे दिन ही मु?ो ले कर अम्मां घर आ गई थीं. शाम को जब मैं ने मल त्याग किया तो उस के साथ ही कुछ खून भी आया. अम्मां तो घबरा गईं कि 3 दिन का बच्चा और यह क्या हो रहा है. वे पिताजी के साथ तुरंत डाक्टर के पास पहुंचीं.

‘‘डाक्टर ने कुछ दवाएं दे दीं और मेरे कुछ टैस्ट कराने को कहा. 2 दिन बाद जब टैस्ट की रिपोर्ट आ गई तो डाक्टर ने मेरी अम्मां और पिताजी से कहा, ‘‘इस बच्चे का जीवन अनिश्चित ही रहेगा. इस की मृत्यु कब हो जाएगी कुछ कह नहीं सकता. हो सकता है कि यह बच्चा 10-12 वर्ष तक भी जी जाए. अगर कुछ चमत्कार हो जाए तो यह भी हो सकता है कि 20-25 वर्ष तक खींच ले जाए. कुछ कहा नहीं जा सकता है. इसे गैस्ट्रोइंटेसटाइनल ब्लीडिंग है जोकि पेनक्रीएटिक ट्यूमर की वजह से है. इतने छोटे बच्चे को इस बीमारी से बचाने के लिए कोई औपरेशन भी नहीं किया जा सकता है और केवल दवाओं और इंजैक्शनों से इस बीमारी को रोकने की कोशिश की जा सकती है.

‘‘10-12 साल का होने पर हम लोग इस के औपरेशन के बारे में सोच सकते हैं बशर्ते तब तक ये ट्यूमर कैंसर में तबदील न होने पाएं.

‘‘तब से मैं दवाओं पर ही निर्भर हो गया हूं. शौच के रास्ते से रक्त आना मेरे लिए एक आम बात हो गई थी. मैं काफी कमजोर और थकाथका सा रहता था. मेरे पिताजी ने मेरे इलाज में कोई कमी नहीं रखी. वे मु?ो ले कर मुंबईदिल्ली के बड़ेबड़े अस्पतालों में गए. 12 साल का होने पर मेरे ट्यूमर में कैंसर के भी कुछ लक्षण पाए गए और मुंबई के टाटा मैमोरियल हौस्पिटल के डाक्टरों ने कहा कि ट्यूमर तो हम निकाल देंगे लेकिन औपरेशन के दौरान मेरी मृत्यु भी हो सकती है. तब मेरी अम्मां ने घबरा कर मेरा औपरेशन करवाने का विचार त्याग दिया और मु?ो दवा के सहारे ही जिंन्दा रखने का निर्णय लिया. तब से ले कर आज तक मैं बस कभी थोड़ा ठीक हो जाता हूं तो कभी बीमार हो जाता हूं. मेरा कोई ठिकाना नहीं है कि कब तक जी पाऊंगा. एक तरीके से मैं अब बोनस की जिंदगी जी रहा हूं क्योंकि शायद मेरी मृत्यु तो अब तक हो ही जाती. इसलिए मैं ने तुम से कहा कि आज डूबने से बचाने पर तुम ने मेरे मांबाप को कुछ समय के लिए सहारा दे दिया.’’

होस्टल आ चुका था. समिता ने डबडबाई आंखों से शाश्वत को विदा किया. रात के 2 बज रहे थे. समिता की आंखों से नींद कोसों दूर थी. वह सोच रही थी कि आदमी की जिंदगी कितनी अनिश्चित होती है और मनुष्य बेचारा कितना असहाय. जिन का जीवन आज स्वास्थ्य, धन और प्रतिष्ठा से परिपूर्ण हैं वे भी सुखमय जीवन के लिए आवश्यक सारे संसाधन प्रचुरता से उपलब्ध होने के बाद भी प्रसन्नतापूर्वक नहीं जी पाते हैं. वे आने वाले अनजाने अनिष्ट के डर से वर्तमान समय के सुख को भी डरतेडरते भोग पाते हैं. स्वयं से जुड़े लोग कहीं हम से बिछड़ तो नहीं जाएंगे, कहीं यह न हो जाए, कहीं वह न हो जाए. बस यही सोचते रहते हैं. ये तो एक आम इंसान की कहानी हो गई.

अब यदि किसी को पहले से ही पता हो जाए कि यह विपत्ति आने वाली है तो फिर उस का क्या हाल होगा? शाश्वत और उस के मातापिता तो उस के जन्म के बाद से ही रोज ही जीते और मरते होंगे. हर पल मौत का डर. कब जीवन की डोर टूट जाएगी. जब तक आने वाले अनिष्ट का ज्ञान ही नहीं होता है तो फिर भी मनुष्य थोड़ा तो प्रसन्नतापूर्वक जी ही लेता है लेकिन जब मौत बिलकुल सन्निकट दिखाई देती है, फिर तो हौसला टूट ही जाता है. ये 3 लोगों का परिवार किस तरह से पिछले 20 सालों से हर पल मौत के खौफ में ही जी रहा होगा.

समिता जब इस बार छुट्टियों में अपने घर गई तो अपनी मां से शाश्वत के बारे में जिक्र किया. मां ने जब पूरी कहानी सुनी तो बोलीं, ‘‘यह तो बहुत दुखभरी कहानी तुम ने सुनाई. वो लड़कह तो चला जाएगा लेकिन उस के बाद उस के मांबाप का क्या हाल होगा. वे भी उस के गम में जल्द ही मर जाएंगे. यह तो अच्छा हुआ कि उस के परिवार को सबकुछ पहले से पता है नहीं तो वे अनजाने में किसी लड़की से उस की शादी कर देते तो उस बेचारी की भी जिंदगी बरबाद हो जाती.’’

समिता बोली, ‘‘लेकिन मम्मी, जिन लड़कियों की शादी सबकुछ देखभाल कर की जाती है और फिर भी किसी दुर्घटना या बीमारी से उन के पति की मौत हो जाती है तो फिर क्या किया जा सकता है. मौत का कुछ पता तो होता नहीं है कि किसे, कब, क्यों, कहां और कैसे अपने आगोश में ले लेगी.’’

‘‘वह सब तो बेटा ठीक है लेकिन जानबूझ कर तो कोई मक्खी नहीं निगलता है.’’

समिता खामोश हो कर सोचने लगी थी. समय धीरेधीरे बीत रहा था. समिता पहले की तरह ही शाश्वत से मिलती थी, साथ घूमती थी और कभीकभी उस के घर भी जाती थी. शाश्वत भी पहले की तरह बीचबीच में बीमार हो जाता था. पढ़ाई का अंतिम वर्ष आ गया था. फिर इधर 3 दिनों से शाश्वत कालेज नहीं आ रहा था. रविवार को समिता होस्टल से शाश्वत के घर के लिए ओला बुक कर के चल दी. कानपुर का इंदिरानगर अब समिता के लिए अनजाना नहीं रहा था. पिछले तीन वर्षों में वो कई बार शाश्वत के घर आ चुकी थी. शाश्वत की अम्मां समिता से बहुत अपनत्व से बात करती थीं. घर के सामने कैब से उतर कर उस ने किराया दिया. शाश्वत का घर पार्क फेसिंग था. सामने ही पार्क में बच्चे खेल रहे थे. कुछ बिलकुल छोटे बच्चे अपनी मांओं की गोद में दुबके थे तो कुछ पार्क की नर्ममुलायम मखमली घास में घुटनों के बल चलने की कोशिश कर रहे थे.

बच्चों को देख कर समिता को अपना बचपन याद आ गया. कैसे उम्र इतनी तेजी से भागती है कि बचपन कहीं दूर पीछे छूट जाता है. समिता ने घर का गेट खोला और अंदर प्रवेश कर गई. देखा तो बरामदे में ही अम्मां बैठी साग के लिए बथुआ की पत्तियों को तोड़ कर रख रही थीं.

समिता को देख कर वे खुश हो गईं और बोलीं, ‘‘आओ बिटिया, बैठो मेरे पास. शाश्वत अंदर थोड़ा सो रहा है. दर्द से रातभर बेचारा जागता रहा है.’’

समिता वहीं बरामदे में ही अम्मां की बगल में फर्श पर ही बैठ गई और साग तोड़ने में हाथ बंटाने लगी. समिता बोली, ‘‘अम्मां, अब तो शाश्वत का कैंपस सलैक्शन हो जाएगा तो फिर आप बहू ले आओ तो आप को भी थोड़ा आराम मिले.’’

अम्मां की आंखों में आंसू भर आए और रुंधे गले से बोलीं, ‘‘बिटिया, हम लोग भी जब दूसरे लोगों के घरों में हंसतेखेलते बेटेबहुओं और पोतेपोतियों को देखते हैं तो हमारे कलेजे में एक कसक सी उठती है कि ये सब खुशियां तो हमारे हिस्से में नहीं हैं. न जाने पिछले जन्मों में हम लोगों से क्या कर्म किए हैं जो हम लोग बस

एक आने वाली विपदा के डर में ही जी रहे हैं. तुम्हें तो सब पता है ही बिटिया कि हमारे बेटे को क्या बीमारी है. हम तो वे मांबाप हैं, जो इस के जन्म के बाद से ही ढंग से न हंस पाए और न जी पाए. बस यह डाक्टर वह डाक्टर, यह शहर तो वह शहर. मारेमारे ही घूमते रहे. लेकिन सब बेकार. बस यही गनीमत है कि बेटा अभी तक तो हमारे साथ ही है. उस का मुंह देख कर ही जी रहे हैं हम.’’

समिता ने अम्मां के आंसुओं को पोंछते हुए कहा, ‘‘अम्मां आप धीरज रखो. सोचो कि जिस इंसान के ऊपर ये सब बीत रही है वह कैसे मुसकरा कर ये सब झेल रहा है.’’

अम्मां फफक पड़ीं, ‘‘बिटिया, हमारा बेटा तो जन्म से ये सब देख रहा है. जब यह छोटा था तब तो हम इसे बहला देते थे कि तुम तो मेरे बहादुर बेटे हो. तुम जल्द ही ठीक हो जाओगे लेकिन जैसेजैसे बड़ा हुआ और बीमारी ठीक नहीं हुई तो इसे भी सम?ा आने लगा कि वह और बच्चों जैसा नहीं है. फिर भी बहुत हिम्मत वाला है. हमेशा हम लोगों को दिलासा देता रहता है.’’

एक मां के लिए इस से बढ़ कर तकलीफ और लाचारी की बात और क्या हो सकती है जब मृत्यु उस के कलेजे के टुकड़े को उस की ही आंखों के सामने, क्रूरतापूर्वक अपने पंजों से बस दबोचने के लिए तत्पर बैठी हो. अम्मां की व्यथा और आंसुओं से समिता का मन दुख और करुणा से छलक उठा था. उस दिन उस की हिम्मत शाश्वत से मिलने की नहीं हुई और वह उस से बिना मिले ही होस्टल लौट आई.

कुछ दिनों के बाद शाश्वत को डाक्टर ने चैकअप कर बताया था कि कैंसर धीरेधीरे बढ़ता ही जा रहा है. बेहतरीन से बेहतरीन दवाओं से कुछ समय के लिए कैंसर की ग्रोथ थम जाती लेकिन फिर से बढ़ने लगती.

एक दिन शाश्वत और समिता 25 दिसंबर की छुट्टी के दिन दोपहर को कानपुर के एलन फौरेस्ट के सफारी में एकांत में बैठे थे. सामने विशाल गहरी झील थी, जिस में बत्तखें और कई विदेशी साइबेरियन पक्षी तैर रहे थे या किनारों पर कुनकुनी धूप का मजा ले रहे थे. कुछ मगरमच्छ भी कभीकभी दिखाई दे रहे थे.

शाश्वत ने समिता से कहा, ‘‘सुना है कि तुम गाना बहुत अच्छा गाती हो?’’

‘‘हां गुनगुना लेती हूं लेकिन तुम्हें कैसे पता चला?’’

‘‘वह तुम्हारे होस्टल के कमरे में तुम्हारे साथ रहने वाली पुनीता ने बातोंबातों में बताया था एक दिन. आज एक गीत मु?ो भी सुनाओ न तुम अपनी पसंद का.’’

समिता ने मना नहीं किया और एक फिल्मी गीत गाने लगी:

‘‘अगर मु?ा से मुहब्बत है, मुझे सब अपने गम दे दो इन आंखों का हर एक आंसू मु?ो मेरी कसम दे दो तुम्हारे गम को अपना गम बना लूं तो करार आए तुम्हारा दर्द सीने में छिपा लूं तो करार आए. वो हर शय जो, तुम्हें दुख दे, मुझे मेरे सनम दे दो अगर मुझ से मुहब्बत है…’’

गाना समाप्त हो गया था और शाश्वत बिना कुछ बोले चुपचाप बैठा रह गया था. उसे लग रहा था जैसे समिता गाने के जरीए अपने दिल की बात कह रही हो.

आखिर समिता ने ही चुप्पी तोड़ी, ‘‘शाश्वत, तुम इतने खामोश रहते हो. तुम्हारी बीवी तो तुम से बोर हो जाएगी.’’

शाश्वत ने समिता की ओर देखा फिर बोला, ‘‘क्यों मजे ले रही हो. मेरे अल्पजीवन को जानते हुए कोई क्यों मुझ से शादी करेगा और अगर कोई मुझ से हमदर्दी या मजबूरी में शादी करने को राजी हो भी जाए तो मैं क्यों अपनी शादी कर के किसी मासूम को शीघ्र विधवा बनाने के लिए तैयार हो जाऊंगा?’’

‘‘तुम कह तो ठीक रहे हो बाबू लेकिन यह बताओ कि इस की क्या गारंटी है कि तुम्हारी जिंदगी जल्द ही खत्म हो जाएगी और जो लोग पूरी तरह से स्वस्थ होते हैं वे भी तो कभीकभी विवाह के पश्चात शीघ्र मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं तो इस का मतलब यह है कि मृत्यु के भय से किसी को शादी ही नहीं करनी चाहिए?’’

‘‘फिर वही बात आ जाती है कि जानतेबूझते किसी को भी अपनी या दूसरे की जिंदगी बरबाद करने का कोई हक नहीं है,’’ शाश्वत बोला.

Hindi Fiction Stories : ईवनिंग गाउन

Hindi Fiction Stories : ‘‘क्या यार आज संडे के दिन भी तुम सोने नहीं दे रही हो. मैं तो आज दिनभर लेटा रहने वाला हूं. न तो खुद चैन से रहती हो न ही मुझे रहने देती हो. मौल में जा कर क्या खरीदना है तुम्हें? बस बैठेबैठे यही सोचती रहती हो कि पैसा  कैसे खर्च करें. कभी बचत की भी सोचती हो?’’

‘‘मुझे क्या अपने लिए लेना है? आप के लिए टीशर्ट लेनी है और टुकटुक के लिए लोअर लेना है. वह छोटा हो गया है. उसे पहन कर नीचे खेलने जाता है तो सब बच्चे उसे बहुत चिढ़ाते हैं. रेयांश तो उस के पीछे ही पड़ जाता है. कई बार तो रोरो कर वह घर ही लौट आता है.’’

‘‘नौन स्टौप खर्च. मैं तो खर्चे से परेशान हो जाता हूं. कुछ पता है कल डी मार्ट से ग्रौसरी का सामान आया है उस का बिल साढे 6 हजार रुपए था. छोड़ो यार, अगले वीकैंड में देखेंगे,’’ निर्णय ने टालने के अंदाज में कहा और चादर से मुंह ढक कर लेट गया.

32 वर्षीय निशू एक स्कूल में टीचर है लेकिन चूंकि अस्थाई है इसलिए बहुत कम पैसे मिलते हैं. वह अपने घर पर बच्चों को ट्यूशन भी पढ़ा कर कुछ आमदनी कर लेती है. पति निर्णय कंजूस स्वभाव का है, उस की तनख्वाह तो पूरी की पूरी झटक ही लेता है और ट्यूशन से मिलने वाले पैसे पर भी अपनी आंख गढ़ाए रहता है.

‘‘तुम्हारे पास तो पैसे होंगे, तुम पेपर वाले को दे देना. तुम दूध वाले को पेमैंट कर देना. मैं एटीएम से निकालूंगा तो तुम्हें दे दूंगा,’’ निर्णय कहता पर फिर वह दिन कभी न आता और यदि वह उसे अपने पैसे की याद दिलाती भी है वह कहता है कि मैं कहीं भागा जा रहा हूं और फिर बात आईगई हो जाती.

निशू साधारण परिवार से थी परंतु इस तरह से हरेक चीज के लिए पति से कहना और फिर उन की खिड़की उस के अहम को बहुत चोट पहुंचाती लेकिन शादी को निभाने के लिए वह ये सब चुपचाप बरदाश्त कर लेती. निर्णय की सैलरी कम नहीं है. वह बैंक में कैशियर है परंतु स्वभाव में कंजूसी हद दर्जे की भरी हुई है. वह अच्छी तरह सम?ाती है कि मुंबई जैसे शहर में खर्चे बहुत ज्यादा हैं लेकिन हर समय खर्चे का उलाहना, सुनसुन वह गुस्से से भर उठती है.

निशू का मूड खराब हो गया था. निर्णय ऐसा क्यों करता है. उस ने कितने प्लान बनाए थे. सेल में कितने अच्छे औफर होते हैं. उस के सूट भी घिस गए हैं. सोच रही थी कि 2-3 सूट जरूर खरीद लेगी. लेकिन उस की तो हमेशा की आदत है उस के हर काम में अडंगा लगाना.

निशू ने संडे स्पैशल में आज छोलेभठूरे और टुकटुक के लिए पाश्ता बना कर फिर से आवाज लगाई, ‘‘11 बज चुके हैं नींद पूरी हो गई हो तो उठ जाओ. गरमगरम छोलेभठूरे तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं.’’

जब कोई जवाब नहीं मिला तो निशू गुस्से में किचन से निकल कर बैडरूम में गई और बैड पर जब वैसे ही फैली हुई चादर को देखा तो फिर से बड़बड़ाने लगी, ‘‘उफ, कितनी नींद आती है यार,’’ कहते हुए उस ने चादर खींच दी. उस के नीचे तकिया इस तरह से रखा था कि लगता रहे कि कोई सो रहा है. उस के चेहरे पर पति की इन छोटीछोटी शरारतों से मुसकान आ जाती थी.

निशू मैक्स की सेल की बात भूल कर अपने घर के कामों में लगी हुई थी तभी निर्णय ने पीछे से उसे अपनी बांहों में भर कर कहा, ‘‘मुहतरमा, बंदा आप की सेवा में हाजिर है. आप हुक्म करें?’’

‘‘क्या हुआ बड़े बदलेबदले से नजर आ रहे हो?’’ उस ने ऊपर की तरफ देखते हुए कहा, ‘‘आज सूरज पश्चिम से तो नहीं निकला?’’

‘‘अरे भई सरकार से डरता हूं. आप नाराज हो गईं तो रोटी के भी लाले पड़ जाएंगे. मैं बेचारा आफत का मारा बन जाऊंगा.’’

निर्णय की इन्हीं अदाओं पर री?ा कर निशू सबकुछ भूल जाती. वह किचन में गई और भठूरे तल कर ले आई.

‘‘वाह निशू, क्या छोले बनाए हैं. मजा आ गया. टुकटुक पाश्ता टेस्टी है कि नहीं?’’ निर्णय ने पूछा.

टुकटुक अपनी नन्ही उंगली उठा कर बोला, ‘‘वैरीवैरी टेस्टी.’’

नन्हे टुकटुक के जवाब पर वे दोनों जोर से हंस पड़े तो वह शरमा कर गुस्से की ऐक्टिंग करने लगा.

‘‘निशू, तुम्हें तो किसी फाइव स्टार में शैफ बन जाना चाहिए. लेकिन न बाबा न. बेटा निर्णय तेरा क्या होगा. निशू, अब आ जाओ मैं तुम्हारे लिए तल कर लाता हूं. तुम्हारी तरह परफैक्ट तो नहीं बना सकता.’’

‘‘अब बस भी करो चापलूसी करना. मौल चलने को कहा तो ऐसे ?िड़क दिया जैसे मैं अपने लिए ही केवल सबकुछ खरीदने जा रही हूं. तुम्हारी आदत है हर समय मूड खराब कर के रख देते हो. डेली तो स्कूल और ट्यूशन के कारण फुरसत ही नहीं रहती है संडे को तुम्हें सारा दिन सो कर गुजारना होता है या फिर अपने दोस्तों के साथ. मेरे लिए तुम्हारे पास कभी टाइम रहता है भला?’’

‘‘सारी रात तो तुम्हारी सेवा में रहता हूं जानू,’’ निर्णय मुसकराते हुए बोला.

‘‘हटिए आप को तो टुकटुक के सामने भी शर्म नहीं आती.’’

‘‘निशू, मैं तो बिलकुल रैडी हो कर आया था लेकिन तुम ने इतना हैवी नाश्ता खिला दिया. अब तो मैं और मेरा बिस्तर… खा कर तुम भी आ जाओ. हां, शाम का प्रोग्राम पक्का. वहीं कुछ खा भी लेंगे. अब खुश? अरे यार अब तो मुसकरा दो.’’

निशू उत्साहित हो कर मुसकरा उठी. फिर वह सोचने लगी कि शाम को मौल से क्याक्या खरीदना है, आज नोट कर के जाऊंगी नहीं तो ध्यान से उतर जाता है. घर के बाकी काम निबटातेनिबटाते वह थक कर चूर हो चुकी थी लेकिन उसे भला चैन कहां. दिमाग में स्कूल के पेपर बनाने की टैंशन और करैक्शन का भी काम घूम रहा था. वह मन ही मन तरहतरह की प्लानिंग करती रहती है लेकिन फिर भी 24 घंटे उसे अपने लिए कम लगते हैं. इतना सबकुछ करने के बाद भी अपनी खुशी के लिए 1 घंटे का समय भी नहीं निकाल पाती. इस से अच्छी जिंदगी तो शादी से पहले थी. कोई जिम्मेदारी नहीं. घर आती तो मम्मी के हाथ का गरमगरम खाना, नाश्ता, टिफिन सबकुछ देतीं और वह कैसे उन पर नाराज भी हो जाती थी कि क्या अम्मां रोज परांठे बना कर रख देती हो. मैं परांठे नहीं ले जाऊंगी कहती हुई पैर पटक कर अपना गुस्सा उन पर जाहिर करती थी.

अम्मां उसे मनातीं और फिर उस के बैग में चुपचाप से टिफिन रख दिया करती थीं. वह मां को याद कर मुसकरा उठी.

क्या मस्ती की जिंदगी थी. फ्रैंड्स के साथ पिक्चर, आउटिंग, कभी डोसा खाने जाना तो कभी आइसक्रीम.

शादी के नाम से निशू कितनी खुश थी. कितने सपने सजाए थे. वह तो फिल्मी जिंदगी के ख्वाबों में डूबी हुई हसीन जिंदगी में खोई हुई थी जहां शौपिंग, मूवी, डिनर, सी बीच पर रंगरलियां मनाने के सपने देखती हुई, जितनी उस की अपनी सेविंग थी, सब उस ने शादी की शौपिंग में उड़ा डाली.

निशू लगातार कोशिश कर रही थी कि ऐग्जाम के लिए पेपर सैट कर ले लेकिन उस का मन तो कभी मैक्स की सेल में, तो कभी शाम के डिनर की कल्पना में, तो कभी शादी के पहले की मस्तीभरी जिंदगी में उल?ा हुआ था. तभी उस का मोबाइल बजा. उधर उस की अम्मां थीं. बोली, ‘‘निशू, इतवार को तो फोन कर लिया करो. तुम्हारी आवाज सुनने को तरस जाती हूं. टुकटुक कैसा है?’’

‘‘सब ठीक है अम्मां. बस आप को फोन मिलाने ही वाली थी,’’ उस ने सफाई से झूठ बोल दिया. अपनी उलझनों में वह इतनी बिजी रहती है कि उस का मन ही नहीं होता कि वह किसी से बात करे.

क्या जिंदगी हो गई है. सुबह उठते ही टुकटुक को तैयार करो, टिफिन बनाओ, उसे बस तक छोड़ने जाओ, लौट कर आते ही भागभाग कर नाश्ता बनाओ, उलटेसीधे पेट में डालो. बीचबीच में निर्णय के उलटेसीधे टौंट वाले कमैंट्स सुनो. स्कूल भागो वहां मैडम की चार बातें और उन की टेढ़ी निगाहों का सामना. लौट कर घर पहुंच कर भी वह कमर सीधी भी नहीं कर पाती कि ट्यूशन वाले बच्चे हाजिर हो जाते हैं. फिर शुरू हो जाती है उन की चिखचिख और उन की मम्मियां तो सुभान अल्लाह, आफत कर के रख देती हैं. खुद तो कुछ करना नहीं चाहतीं बस ट्यूटर उन्हें घोल कर पिला दे.

निशू अपने खयालों में ही उल?ा रही. न तो पेपर बना पाई न ही करैक्शन कर पाई और न ही आराम.

‘‘मम्मा, मुझे तैयार करो. पापा ने मौल चलने को बोला था,’’ टुकटुक अपनी पसंदीदा ड्रैस हाथ में पकड़ कर निशू की पीठ पर झेल गया.

निशू वर्तमान में लौटी और आदतन बेटे पर झुंझला उठी और उसे अपने से परे हटा कर जोर से बोली, ‘‘ये कपड़े तुम ने क्यों निकाले?’’

नन्हा मासूम डर कर पीछे हट गया. फिर हिम्मत कर के बोला, ‘‘मम्मा, तैयार क्यों नहीं होतीं? मु?ो मौल के गेम सैक्शन में जा कर गेम खेलना है.’’

निशू जानबूझ कर जोर से बोली, ‘‘तुम्हारे पापा को जब सोने से फुरसत मिले तब न.’’

निशू जानती थी कि निर्णय टाइम पास के लिए मोबाइल पर गेम खेल रहे होंगे. कुछ देर में ही निर्णय आए. बोले, ‘‘1 कप चाय पिला दो यार. तुम अभी तक तैयार नहीं हुई?’’ निशू ने जल्दी से चाय बनाई और कपड़े बदल कर तैयार हो गई.

मौल पहुंच कर निशू सीधा मैन्स सैक्शन में चली गई और निर्णय के लिए 3-4 शर्ट लीं और फिर किड्स सैक्शन से टुकटुक के लिए लोअर और 2 टीशर्ट लीं.

अब निशू वूमंस सैक्शन में गई तो अपने लिए सूट पसंद करने लगी. निर्णय को हर सूट महंगा लग रहा था. कुछ देर तक वह नापसंद करता रहा फिर वे टुकटुक को ले कर गेम सैक्शन में चले गए. बोले, ‘‘जो तुम्हें ठीक लगे वह ले लो.’’

निशू ने अपने लिए 2 सूट पसंद कर लिए. वह वहां से चलने वाली थी तभी शो केस पर उस की निगाहें पड़ीं तो वह देखती रह गई. बहुत प्यारा सा नट का ईवनिंग गाउन जिस पर बीड्स का वर्क लगा था. उस का मन बच्चों की भांति मचल उठा. उस ने पास जा कर उस का प्राइज देखा क्व8 हजार. एक क्षण को वह सोच नहीं पाई कि वह निर्णय से कैसे कहे. फिर जब ध्यान से देखा तो मालूम हुआ कि 50% डिस्काउंट में है. वह बिना पूछे तो ले नहीं सकती थी लेकिन डिस्काउंट देख कर उस की हिम्मत बढ़ गई. क्व16 हजार का इतना सुंदर गाउन उसे आधे प्राइज में मिल रहा है, वह इसे ले कर रहेगी. उस ने निर्णय को फोन किया, ‘‘प्लीज आ जाओ मैं ट्रायलरूम के अंदर गाउन ट्राई कर रही हूं.’’

‘‘मैं बिल करवा रहा हूं. गाउन लेना नहीं तो क्यों ट्राई कर रही हो? सीथे बिलिंग काउंटर पर आओ, यहां लंबी क्यू है. मुझे भूख लग रही है. टुकटुक भी परेशान कर रहा है. जल्दी से आओ.’’

निशू गाउन पहन कर शीशे में अपने को देख कर आत्ममुग्ध हो रही थी. इस समय उसे निर्णय विलेन की तरह दिखाई पड़ रहे थे परंतु वह उन के गुस्से से वाकिफ थी खासकर जब वे भूखे हों. उस ने गाउन जल्दीजल्दी उतारा और वहां स्टाफ से पूछा कि इस की फिटिंग आप करवा देंगे?

‘‘जरूर… जरूर हमारा टेलर है. आप सुबह दीजिएगा, 1 दिन बाद फिटिंग और फिनिशिंग कर के आप को दे देंगे.’’

निशू गाउन के ख्वाबों में खोई हुई खुशी से चहचहा रही थी मानों गाउन उस ने खरीद लिया हो. उस ने अपने लिए जो सूट लिए थे वे निर्णय को बिलिंग के लिए दे दिए. हाथ में सूट पकड़ते ही उन्होंने पहले प्राइज पर नजर डाली फिर बोले, ‘‘औफर में हैं?’’

‘‘हांहां 50% डिस्काउंट है.’’

निर्णय ने बुरा सा मुंह बना लिया, ‘‘न जाने कैसे कलर पसंद करती हो.’’

‘‘आप तो इधर आ गए थे. मैं चारों तरफ आप को ढूंढ़ रही थीं.’’

मु?ो क्या, ‘‘तुम्हें पहनने हैं.’’

निशू मन ही मन में सोच रही थी कि आज तो इन का मूड अच्छा है. अपने लिए कितनी सारी शर्ट लीं. फिर वह उन के करीब जा कर बोली, ‘‘मुझे गाउन बहुत पसंद आया है, प्लीज दिला दो.’’

कुछ देर तक तो निर्णय चुप रहा फिर एकदम से फट पड़ा, ‘‘दिमाग खराब हो गया है? जब तक जोर से न बोलो तुम्हें कुछ समझ नहीं आता.’’

‘‘आप चल कर देख लीजिए, आप को जरूर पसंद आएगा.’’

‘‘नहीं का मतलब नहीं. फालतू बात मत करो. पता है बिल कितने का हुआ है? तुम तो सम?ाती हो कि बस पेड़ हिलाया और नोट ऊपर से बरस पड़े. यहां तो चारों तरफ एक से एक चीज बिखरी पड़ी है. सब से पहले अपनी पौकेट देखनी पड़ती है. तुम औरतों को तो जरा सी छूट दे दो तो एकदम सिर पर चढ़ने लगती हैं.’’

उस का चेहरा उतर गया. वह पति की आदत से अच्छी तरह परिचित थी कि पैसा खर्च करने के बाद से ही बड़बड़ करते हैं. मन में तो आ रहा था कि कह दूं कि आप की शर्ट और टीशर्ट्स सब से ज्यादा हैं और महंगी भी हैं. मेरे सूट तो सस्ते वाले हैं लेकिन बोलना मतलब ?ागड़ा क्योंकि कोई भी इंसान सच नहीं सुनना चाहता. इसलिए वह चुपचाप चल रही थी.

‘‘यहां सैल्फ सर्विस की भीड़ में कौन घुसे. चलो ऊपर रैस्टोरैंट में खाते हैं.’’

निशू का मौन निर्णय को अखर गया. बोला, ‘‘न जाने कब समझेगी. चाहे जितना भी कर दो तुम्हारा मुंह बना ही रहेगा. गाउन दिलवा दो, गाउन दिलवा दो. कहीं भागा जा रहा है गाउन? तुम्हें खुद सोचना चाहिए कि घर खर्च कैसे चल रहा है. 4 पैसे जोड़ेंगे तभी तो मुंबई में अपना घरौंदा ले पाएंगे. तुम्हें रैस्टोरैंट में ले कर खाना खिलाने लाया हूं और तुम हो कि मुंह सुजाए हो.’’

‘‘मेरा टुकटुक क्या खाएगा?’’ कहते हुए निशू ने निर्णय के बराबर में बैठ कर जबरदस्ती अपने चेहरे पर मुसकराहट ओढ़ ली.

‘उफ, गाउन कहीं बिक न जाए,’ मन ही मन निशू अपने में खोई हुई जोड़घटाने में लगी थी कि क्व15 हजार रुपए तो उस ने कब से जोड़ कर रखे हुए हैं, वह डायमंड रिंग खरीदना चाहती थी लेकिन निर्णय नाराज होंगे, इसीलिए नहीं खरीद रही थी. उस का हाथ खाली हो जाएगा तो क्या पहली पर फिर से ट्यूशन के पैसे मिलेंगे. अब वह साफसाफ निर्णय से कह देगी कि यह सब नहीं चलने वाला घर खर्च के लिए उस के पास रुपए नहीं हैं और सब का पेमैंट खुद करो. ट्यूशन के पैसे उस के अपने हैं.

‘‘निशू, तुम्हारा मुंह अभी भी सूजा हुआ है,’’ निर्णय मेनू कार्ड उसे पकड़ा कर बोला, ‘‘आज अपनी पसंद से और्डर करो.’’

निशू को ऐसा महसूस हो रहा था कि निर्णय यहां खाना खिला कर उस पर एहसान कर रहे हैं. उस ने कार्ड देखते हुए कहा, ‘‘मलाईकोफ्ता कैसा रहेगा?’’

‘‘रेट की तरफ भी निगाह मार लिया करो.’’ निशू सिटपिटा उठी. जल्दी से बोल पड़ी, ‘‘रहने दीजिए. टुकटुक के लिए पावभाजी और्डर कर दीजिए.’’

‘‘तो बटरनान खाओगी? मैं तो मजदूर आदमी तंदूरी रोटी से पेट भर लूंगा.’’

एक बार फिर निर्णय के कटाक्ष से निशू का मन आहत हुआ लेकिन निर्णय ऐसा ही है. उस की आंखों के सामने से वह ईवनिंग गाउन हट ही नहीं रहा था. ट्रायलरूम में गाउन पहना हुआ अपना अक्स बारबार उस की आंखों के सामने ?िलमिला रहा था. वह सोचनी लगी कि गाउन तो वह तब पहन लेगी जब निर्णय उस के साथ नहीं जा रहा होगा. अंगूठी तो शायद ही खरीद पाएगी. न ही नौ मन तेल होगा और न ही राधा नाचेगी. वह कल स्कूल से हाफ डे ले कर गाउन ले आएगी और बौक्स में छिपा कर रख देगी. जब कभी निर्णय का मूड अच्छा होगा, तब उसे दिखा देगी. अपने प्लान से संतुष्ट हो कर उस का मन हलका हो गया.

स्कूल से 2 पीरियड पहले जरूरी काम है, कह कर वह मौल के उसी स्टोर पर पहुंच गई. उस की आंखें उसी डिजाइनर ईवनिंग गाउन को तलाश रही थीं लेकिन खरीदने से पहले उस ने दूसरे गाउन पर भी नजर डाली परंतु जो उसे पहली नजर में भा गया, वही उस ने खरीद लिया. आज अकेले इतना महंगा गाउन खरीद कर वह अपने को बहुत स्पैशल समझ रही थी. इस गाउन को खरीद कर उस का अपना अहम संतुष्ट हुआ था. फिटिंग के लिए गाउन दे कर वह मानो आकाश में उड़ रही थी कि कल वह ईवनिंग गाउन उस के पास होगा. बस वह दिन बीतने का इंतजार करने लगी.

शाम को गाउन ला कर बौक्स में छिपा दिया, जिस तक निर्णय की पहुंच न के बराबर थी.  एक दिन निशू गाउन को पहन कर शीशे के सामने खड़ी हो कर अपने को सभी ऐंगल से भरपूर निहार रही थी कि अचानक निर्णय की आहट हुई तो उस ने जल्दीजल्दी अलमारी के अंदर छिपा दिया.

गाउन खरीद कर वह महसूस कर रही थी कि उस का अपना भी अस्तित्व है, वह भी अपने मन का कुछ कर सकती है. अब तो वह जबतब मौका मिलते ही गाउन पहन कर शीशे में स्वयं को देख कर खुश होती, सैल्फी खींचती और पति के डर से डिलीट भी कर देती.

लगभग 8 महीने बीत रहे थे. जब भी गाउन पहनने का अवसर आता तो निर्णय किसी न किसी बहाने से बिना किसी सूचना के आ कर खड़े हो जाते. तब निशू गाउन पहनने का आइडिया ड्रौप कर के मन मसोस कर रह जाती. ऐसे मौके बारबार आए जब उस ने गाउन पहनने का मन बनाया परंतु निर्णय की क्रोधाग्नि के डर से वह फिर उसी बौक्स में छिपा कर रख दिया करती.

कभी कालेज का ऐनुअल फंक्शन तो कभी पड़ोस की शादी तो कभी सोसायटी का न्यू ईयर का प्रोग्राम, वह ललचाई नजरों से गाउन को पहन कर देखा करती. यहां तक कि बारबार देखते रहने से गाउन आउट औफडेट भी लगने लगा था.

निशू सोचने लगी थी कि उस ने व्यर्थ में क्व8 हजार का गाउन खरीद कर रख लिया और निर्णय के गुस्से के बारे में सोच कर, वह कई बार अपनी बेवकूफी पर खीझ भी उठती. ऐसा क्या डरना. एक बार ही बकबक करेगा फिर वह पहन तो पाएगी.

आखिर वह अवसर आ ही गया. बूआ के लड़के श्रेयस की शादी का कार्ड देखते ही निशू खुश हो गई. निर्णय ने जाने से मना कर दिया. उन के बैंक में क्लोजिंग चल रही थी. निशू की खुशी का ठिकाना नहीं था. उस ने मैचिंग नैकलैस और एयररिंग्स खरीद ली. यह पहला मौका होगा जब वह इतना महंगा गाउन पहन कर सब पर रौब जमाएगी. बूआ भी देख लें कि निशू भी किसी से कम नहीं है. वह भी कीमती गाउन खरीद कर पहन सकती है. वह उड़ कर उन लोगों के बीच पहुंच कर अपना गाउन पहन कर अपनी संपन्नता का प्रदर्शन करने के लिए उतावली हो रही थी.

‘‘निर्णय, मैं ने शाम के लिए खाना बना कर रख दिया है. कल कुछ और्डर कर लेना या फिर औफिस की कैंटीन में खा लेना. कल संगीत संध्या होते ही मैं लौट आऊंगी. आप टुकटुक का ध्यान रखना. अपनी मस्ती में बेटे को मत भूल जाना.’’

आज निशू का आत्मविश्वास 7वें आसमान पर था. उसे बूआ की सास का पिछली बार का कमैंट दिल में शूल की तरह चुभ गया था कि निशू 1-2 गाउन खरीद लो, आजकल ये पुरानी साडि़यां कौन पहनता है.

आज जब निशू तैयार हो कर कमरे से बाहर आएगी तो सब लोग उसे देखते ही रह जाएंगे और बूआ तो आंहें ही भरती रह जाएंगी जो हमेशा उसे नीची नजरों से देखा करती हैं. उस ने मैचिंग ब्रेसलेट भी खरीदा था. आज उसे सब से सुंदर दिखना था. वह लगभग तैयार हो गई थी. अपने मेकअप पर टचअप कर रही थी. सभी कोणों से अपने को देख रही थी कि सब परफैक्ट तो है. तभी अम्मां ने दरवाजा खटखटाया, ‘‘निशू जल्दी कर. देख तो जमाई बाबू आए हैं.’’

एकबारगी निशू निर्णय के क्रोध की कल्पना कर के थरथर कांप उठी परंतु फिर उस के मन ने उसे धिक्कारा, क्यों डर रही हो? क्या तुम अपने मन से एक गाउन भी नहीं खरीद सकती? तुम शान से उस के सामने जाओ. यदि वह कुछ बोलता है तो देखा जाएगा.

‘‘निशू जल्दी करो. जमाईजी को भी तैयार होना है.’’

निशू को झटका सा लगा. आंखों में आंसू आ गए थे. बुझे मन से दरवाजा खोल कर बाहर आ गई.

निर्णय अवाक हो कर उसे अपलक निहारते ही रह गए. उन का मुंह खुला का खुला रह गया. कुछ देर बाद बमुश्किल से बोल पाए, ‘‘यह गाउन किस का पहना है? तुम्हारे पास चाहे जितना कुछ हो तुम्हें दूसरों की चीज ही अच्छी लगती है. हर समय मेरी इज्जत खराब करने में लगी रहती हो. कुछ भी हो… बहुत सुंदर लग रही हो, यह गाउन किस का है? एकदम नया लग रहा है.’’

निशू को ऐसा लग रहा था कि अब बम फटा कि तब. वे जरूर कुछ उलटासीधा बोलने वाले हैं. अत: वह तेजी से चलती हुई महिलाओं की भीड़ में शामिल हो गई.

‘‘मेरे कपड़े तो निकाल दो.’’

उस की आवाज निर्णय के कानों में गूंज रही थी लेकिन उस ने आज उस आवाज को अनसुना कर दिया.

इस समय निर्णय को देख कर निशू को बहुत कोफ्त हो रही थी, वह अपना मूड नहीं खराब करना चाह रही थी, मना करने के बावजूद वह यहां क्यों आ गए. एक तरफ वह पति से प्रशंसा भी सुनना चाह रही थी परंतु मन ही मन उन के व्यंग्य और कटाक्षों से बचना भी चाह रही थी. वह स्वयं नहीं सम?ा पा रही थी कि वह निर्णय की नजरों से क्यों बचने का प्रयास कर रही है. वह घबराई हुई थी, आंखें बरसने को बेताब थीं. उस ने आंसुओं से भरी आंखों को सब की नजरें बचा कर पोंछ लिया.

तभी टुकटुक भागता हुआ आया, ‘‘मम्मा, पापा बुला रहे हैं.’’

अम्मां ने भी शायद उस के चेहरे को पढ़ लिया था, ‘‘निशू जमाई बाबू के लिए कपड़े निकाल कर दे दो.’’

‘‘वे निकाल लेंगे.’’

कुछ देर बाद निर्णय तैयार हो कर आ गए. तभी उस की निगाहें पति निर्णय की नजरों से मिल गईं. उन की आंखों में उस के प्रति मुग्धता और प्रशंसा का भाव दिखाई पड़ रहा था.

उसी समय बूआ की निगाह निशू पर पड़ी, ‘‘अरी निशू बड़ा खूबसूरत गाउन पहना है. यह तो बहुत महंगा होगा?’’

‘‘बूआ, ये औफिस के काम से पुणे गए थे, वहीं से ऐनिवर्सरी के लिए यह गाउन ले कर आए थे.’’

अब तो भाभी भला कैसे चुप रहतीं, ‘‘दीदी जीजू तुम्हें बहुत चाहते हैं, तुम्हारे लिए कितना सुंदर और महंगा वाला गाउन ले कर आए हैं. आप के भैया तो 20 साल में कभी एक ब्लाउज भी नहीं ले कर आए.’’

अब तो निशू अपने गाउन की वजह से सारी महिलाओं के बीच में चर्चा के साथ आकर्षण का केंद्र बन चुकी थी. वह अपनी कुशलता और होशियारी पर मुसकरा तो रही थी परंतु निर्णय की अंटशंट बकवास से भी डर रही थी.

तभी निशू की निगाह पड़ी कि निर्णय एक कोने में खड़ेखड़े उसे देख कर मंदमंद मुसकरा रहे थे और नजरें मिलते ही उन्होंने इशारों ही इशारों में उस पर चुंबन की बरसात कर दी. अब उसे अपने पति निर्णय पर बहुत प्यार आ रहा था. वह अपने को नहीं रोक पाई और स्वयं ही उस के कदम पति की ओर बढ़ गए.

निशू ने निर्णय के पास पहुंच कर उन की हथेलियों को कस कर पकड़ लिया.

निर्णय ने उसे प्यार से अपनी बांहों में भर लिया, ‘‘इस ईवनिंग गाउन में एकदम परी लग रही हो.’’

निशू की आंखों में खुशी के आंसू झिलमिला उठे थे. सब की तालियों की आवाज से उन दोनों की तंद्रा भंग हुई तो निशू ने शर्म से अपना मुंह हथेलियों से ढक लिया.

Hindi Stories Online : आप तो ऐसे नहीं थे

Hindi Stories Online : नीरजा को आजकल वीरेन का स्वभाव समझ नहीं आ रहा था. हर समय शीशे के आगे खुद को निहारता रहता है. हर समय एक मुसकान चेहरे पर थिरकती रहती है. कोई देख कर कह नहीं सकता कि उस की बेटी टिम्सी 23 साल की है जिस की जल्द ही शादी होने वाली है.

तभी नीरजा ने देखा वीरेन बाहर बालकनी में खड़ा सैल्फी खींच रहा है. नीरजा एकदम से जा कर बोली, ‘‘अरे वीरेन तुम ने तो टिम्सी को भी मात दे रखी है.’’

एकदम से वीरेन आगबबूला हो उठा, ‘‘अगर तुम्हारे चेहरे पर हर समय मुर्दनी छाई रहती है तो इस का मतलब यह तो नहीं कि मैं भी जीना छोड़ दूं?’’

नीरजा को ऐसी प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं थी. इसलिए पनीली आंखें लिए अंदर चली गई.

पता नहीं वीरेन को क्या हो गया है. पहले वीरेन की पूरी दुनिया नीरजा के इर्दगिर्द घूमती थी. अब ऐसे लगता है कि वीरेन को नीरजा का साथ ही बोरिंग लगता है. अभी होली के आसपास टिम्सी के दफ्तर की छुट्टी थी तो सब लोग शौपिंग के लिए मौल चले गए. जब नीरजा वीरेन के लिए सफेद और ग्रे कपड़े देख रही थी तभी वीरेन ने लाल टीशर्ट और बैगनी रंग की शर्ट खरीदी. नीरजा ने सोचा शायद टिम्सी के मंगेतर उज्ज्वल के लिए ले रहा होगा.

मगर जब दूसरे दिन वीरेन उसी शर्ट को पहनने लगा तो नीरजा बोली, ‘‘यह तुम ने अपने लिए खरीदी थी?’’

वीरेन ने कहा, ‘‘क्यों मैं क्या ऐसे रंग नही पहन सकता हूं?’’

नीरजा असमंजस में देखती रही कि यह वही ही वीरेन है जो पहले ऐसे लोगों को गोविंदा बोलता था.

न जाने क्यों पिछले वर्ष से वीरेन के व्यवहार में अजीबोगरीब परिवर्तन आ रहे हैं. फोन से चिढ़ने वाला, ब्यूटी प्रोडक्ट्स का मजाक उड़ाने वाला अब एकाएक बदल गया है. पहले वह टिम्सी को कितना डांटता था कि खाने के समय मोबाइल से दूरी रखो और अब खुद ही मोबाइल से चिपका रहता है. इस वीरेन से तो नीरजा का परिचय नहीं था.

अगर नीरजा कुछ कहती तो वीरेन कहता, ‘‘पिछले 23 वर्षों तक मैं परिवार के लिए करता रहा हूं. अब बस खुद के लिए जीना चाहता हूं.’’

नीरजा ने कहा भी, ‘‘तुम्हें कब मैं ने किसी चीज के लिए मना किया है?’’

वीरेन बोला, ‘‘नीरजा, जिंदगी की जिम्मेदारियों ने सिर उठाने का मौका ही नही दिया कि मैं कुछ करूं.’’

टिम्सी हंसते हुए बोली, ‘‘पापा, पर इस का मतलब यह तो नहीं कि आप 16 साल के लड़कों जैसे कपड़े पहनोगे.’’

‘‘टिम्सी तुम कब से ऐसी बात करने लगी हो?’’

‘‘पापा, आप को पता है आप के बदले व्यवहार से मम्मी कितनी आहत है? आप का हर समय फोन पर चिपके रहना, नएनए दोस्तों के साथ पार्टी करना, घर से पूरापूरा दिन गायब रहना सब मम्मी को परेशान करता है. अभी तो मैं हूं, जब मैं चली जाऊंगी तब कौन संभालेगा मम्मी को?’’

वीरेन ने बिना कोई जवाब दिए कार की चाबी उठाई और निकल गया.

तभी फोन की घंटी बजी और मोनिका नाम देखते ही वीरेन के चेहरे पर मुसकान आ गई.

वीरेन की मोनिका से करीब 2 वर्ष पहले मुलाकात हुई थी. दोनों एक ही रनिंग ग्रुप के सदस्य थे. दोनो का बचपन एक ही शहर अहमदनगर में बीता था. जब आप को अपने ही शहर का कोई मिलता है तो आप को उस से एक अलग ही अपनापन हो जाता है.

वीरेन की पत्नी नीरजा में जहां हर चीज के लिए नखरा था वहीं मोनिका बहुत लचीली थी. मोनिका के पति की आमदनी न के बराबर ही थी पर फिर भी मोनिका कभी किसी चीज के लिए शिकवा नहीं करती थी. इन छोटीछोटी चीजों के कारण वीरेन उस की तरफ खिंचता चला गया.

नीरजा के बाद मोनिका ही उस की जिंदगी में दूसरी औरत थी जिस से वह अपने दिल की बात कह सकता था. अफेयर जैसा कुछ नहीं था पर फिर भी वीरेन को मोनिका का साथ ताजगी और खुशी देता था.

आज मोनिका और वीरेन को एक मुशायरे में जाना था. जब वीरेन ने हाल में ऐंट्री की तो देखा मोनिका ने उस के लिए एक सीट रोक कर रखी हुई है और साथ में उस के पसंदीदा चने भी रखे हुए हैं.

मोनिका की यही बात उसे पसंद थी. उस का स्वभाव ही देने का था. वह वीरेन की छोटीछोटी बातों का इतना ध्यान रखती थी कि वीरेन का मन भीग जाता.

वीरेन की जब नीरजा से शादी हुई थी तो दोनों ही 24 साल के थे. 1 साल में टिम्सी उन के जीवन में आ गई. नीरजा जहां अमीर परिवार की बेटी थी वहीं वीरेन एक मध्यवर्गीय परिवार का मेहनती बेटा था.

नीरजा और वीरेन जब विवाह के बाद गोरखपुर आए तो नीरजा ने रोरो कर वीरेन का जीवन हलकान कर दिया.

वीरेन को नीरजा की मम्मी को बुलाना पड़ा. नीरज की मम्मी ने पूरी गृहस्थी सजाई और फिर वीरेन को ढेरों नसीहतें दे कर चली गईं. वीरेन को नीरजा से बेहद लगाव था. उस की शरबती आंखों में वह आंसू बरदाश्त नहीं कर सकता था. इसलिए नीरजा को हर ऐशोआराम देने के लिए वीरेन जीतोड़ मेहनत करने लगा.

नीरजा ने कभी वीरेन के मन की थाह लेने की कोशिश नहीं करी. जब टिम्सी 2 साल की थी तो वीरेन की नौकरी छूट गई. तब वीरेन ने नीरजा से कहा, ‘‘नीरू, मेरे दोस्त के स्कूल में टीचर की वैकैंसी है. अगर तुम नौकरी कर लोगी तो हमारे जरूरी खर्चे चल सकते हैं.’’

नीरजा गुस्से में बोली, ‘‘मुझसे नहीं होगी यह मेहनत.’’

वीरेन ने फिर दोस्तों से उधार ले कर कुछ माह तक घर का खर्च चलाया. उस के बाद वीरेन कामयाबी की सीढि़यां चढ़ता चला गया. घर बड़ा होता गया और दूरियां बढ़ती चली गईं.

वीरेन ने एक अच्छा पति और पिता बनने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. पर इस सब में वीरेन बहुत पीछे छूट गया था और उसी वीरेन को पकड़ने के लिए वीरेन की जिंदगी में मोनिका आ गई थी. जब से मोनिका वीरेन की जिंदगी में आई, उस की जिंदगी 20 साल पीछे लौट गई.

शुरुआत में तो नीरजा ने महसूस नहीं किया क्योंकि उस के अधिकतर अपने दोस्तों के साथ तयशुदा प्रोग्राम होते थे पर धीरेधीरे जब वीरेन अधिकतर घर के बाहर समय बिताने लगा तो नीरजा का माथा ठनका.

एक दिन नीरजा की सहेली एकता ने रात के खाने पर बुलाया था. नीरजा जब तैयार होने लगी तो वीरेन बोला, ‘‘मुझे तो आज मुशायरे में जाना है.’’

नीरजा बोली, ‘‘कोई बिजनैस मीटिंग तो है नहीं. मना कर दो अपने दोस्तों को.’’

वीरेन बोला, ‘‘मैं तो हमेशा तुम्हारे हिसाब से चलता हूं, आज तुम मेरे साथ चलो.’’

नीरजा गुस्से में बोली, ‘‘क्या हो गया है तुम्हें वीरेन? क्यों एक छोटे से मुशायरे के लिए ये सब कर रहे हो?’’

वीरेन ने बिना कुछ कहे कार की चाबी उठाई और निकल गया. फिर यह सिलसिला बन गया. दोनों में से कोई भी ?ाकने को तैयार नहीं था. दोनों की राहें जुदा हो गई थीं.

इस से पहले नीरजा और वीरेन कुछ समझ पाते, कोरोना के कारण लौक डाउन हो गया और वीरेन, टिम्सी और नीरजा घर मे फंस गए. वीरेन का हर समय फोन पर चिपके रहना, रंगबिरंगे कपड़े पहनना सब नीरजा के तनबदन में आग लगा देता.

नीरजा कुछ बोल देती तो वीरेन भी पलट कर जवाब दे देता जिस के कारण घर का माहौल खराब हो जाता.

एक  दिन टिम्सी ने पूछ भी लिया, ‘‘पापा, आप तो ऐसे न थे. मम्मी का बिलकुल ध्यान नहीं रखते हो.’’

वीरेन भी चिढ़े स्वर में बोला, ‘‘टिम्सी, तुम चीजों को बस अपनी मम्मी के नजरिए से ही देखती हो. तुम्हारी और तुम्हारी मम्मी की जिंदगी में मैं ने कभी दखलंदाजी नहीं करी तो तुम लोग मेरी में भी न करो.’’

टिम्सी गुस्से में बोली, ‘‘हम लोग ऐसा कुछ करते ही नहीं कि आप को कुछ कहना पढ़ें.’’

‘‘तो मैं ने क्या कर दिया है ऐसा? अब तक तुम लोगों के हिसाब से जिंदगी जी है, जहां कहा वहां घुमाने ले गया पर अब मेरा मन अगर कुछ अलग करने का करता है तो मैं क्या करूं? हां मैं ऐसा नहीं हूं जैसा था, अब मैं अपने लिए जीना चाहता हूं. अपनी सारी जिम्मेदारी पूरी कर ली है अब कुछ अपने लिए करना चाहता हूं.’’

नीरजा और टिम्सी वीरेन के बदले हुए रूप को स्वीकार नहीं कर पा रही थीं. बारबार ऐसा प्रतीत हो रहा था कि घर की दरोदीवार यही कह रही है, ‘‘आप तो ऐसे न थे.’’ मगर वह पक्षी शायद अब पिंजरा खोल कर स्वच्छंद उड़ान भर चुका है.

Hindi Fiction Stories : चेतावनी – मीना आंटी ने अर्चना की समस्या का क्या सामाधान निकाला

Hindi Fiction Stories  : संदीप और अर्चना के प्रति मीना की दिलचस्पी इतनी बढ़ी कि वह उन की परेशानी जानने को आतुर हो उठी, यहां तक कि अर्चना को परेशानी से उबारना मीना की जिद बन गई.

पिछले कुछ दिनों से वे दोपहर 1 से 2 के बीच रोज पार्क में आते. उन दोनों की जोड़ी मुझे बहुत जंचती. युवक कार से और युवती पैदल यहां पहुंचती थी. दोनों एक ही बैंच पर बैठते और उन के आपस में बात करने के ढंग को देख कर कोई भी कह सकता था कि वे प्रेमीप्रेमिका हैं.

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मैं रोज जिस जगह घास पर बैठती थी वहां माली ने पानी दे दिया तो मैं ने जगह बदल ली. मन में उन के प्रति उत्सुकता थी, इसलिए उस रोज मैं उन की बैंच के काफी पास शौल से मुंह ढक कर लेटी हुई थी, जब वे दोनों पार्क में आए.

उन के बातचीत का अधिकांश हिस्सा मैं ने सुना. युवती का नाम अर्चना और युवक का संदीप था. न चाहते हुए भी मुझे उन के प्रेमसंबंध में पैदा हुए तनाव व खिंचाव की जानकारी मिल गई.

नाराजगी व गुस्से का शिकार हो कर संदीप कुछ पहले चला गया. मैं ने मुंह पर पड़ा शौल जरा सा हटा कर अर्चना की तरफ देखा तो पाया कि उस की आंखों में आंसू थे.

मैं उस की चिंता व दुखदर्द बांटना चाहती थी. उस की समस्या ने मेरे दिल को छू लिया था, तभी उस के पास जाने से मैं खुद को रोक नहीं सकी.

मुझ जैसी बड़ी उम्र की औरत के लिए किसी लड़की से परिचय बनाना आसान होता है. बड़े सहज ढंग से मैं ने उस के बारे में जानकारी हासिल की. बातचीत ऐसी हलकीफुलकी रखी कि वह भी जल्दी ही मुझ से खुल गई.

इस सार्वजनिक पार्क के एक तरफ आलीशान कोठियां बनी हैं और दूसरी तरफ मध्यवर्गीय आय वालों के फ्लैट्स हैं. मेरा बड़ा बेटा अमित कोठी में रहता है और छोटा अरुण फ्लैट में.

अर्चना भी फ्लैट में रहती थी. उस की समस्या पर उस से जिक्र करने से पहले मैं उस की दोस्त बनना चाहती थी. तभी जिद कर के मैं साथसाथ चाय पीने के लिए उसे अरुण के फ्लैट पर ले आई.

छोटी बहू सीमा ने हमारे लिए झटपट अदरक की चाय बना दी. कुछ समय हमारे पास बैठ कर वह रसोई में चली गई. चाय खत्म कर के मैं और अर्चना बालकनी के एकांत में आ बैठे. मैं ने उस की समस्या पर चर्चा छेड़ दी.

‘‘अर्चना, तुम्हारी व्यक्तिगत जिंदगी को ले कर मैं तुम से कुछ बातें करना चाहूंगी. आशा है कि तुम उस का बुरा नहीं मानोगी,’’ यह कह कर मैं ने उस का हाथ अपने दोनों हाथों में ले कर प्यार से दबाया.
‘‘मीना आंटी, आप मुझे दिल की बहुत अच्छी लगी हैं. आप कुछ भी पूछें या कहें, मैं बिलकुल बुरा नहीं मानूंगी,’’ उस का भावुक होना मेरे दिल को छू गया.

‘‘वहां पार्क में मैं ने संदीप और तुम्हारी बातें सुनी थीं. तुम संदीप से प्रेम करती हो. वह एक साल के लिए अपनी कंपनी की तरफ से अगले माह विदेश जा रहा है. तुम चाहती हो कि विदेश जाने से पहले तुम दोनों की सगाई हो जाए. संदीप यह काम लौट कर करना चाहता है. इसी बात को ले कर तुम दोनों के बीच मनमुटाव चल रहा है ना?’’ मेरी आवाज में उस के प्रति गहरी सहानुभूति के भाव उभरे.

कुछ पल खामोश रहने के बाद अर्चना ने चिंतित लहजे में जवाब दिया, ‘‘आंटी, संदीप और मैं एकदूसरे के दिल में 3 साल से बसते हैं. दोनों के घर वालों को हमारे इस प्रेम का पता नहीं है. वह बिना सगाई के चला गया तो मैं खुद को बेहद असुरक्षित महसूस करूंगी.’’

‘‘क्या तुम्हें संदीप के प्यार पर भरोसा नहीं है?’’

‘‘भरोसा तो पूरा है, आंटी, पर मेरा दिल बिना किसी रस्म के उसे अकेला विदेश भेजने से घबरा रहा है.’’
मैं ने कुछ देर सोचने के बाद पूछा, ‘‘संदीप के बारे में मातापिता को न बताने की कोई तो वजह होगी.’’
‘‘आंटी, मेरी बड़ी दीदी ने प्रेम विवाह किया था और उस की शादी तलाक के कगार पर पहुंची हुई है. पापामम्मी को अगर मैं संदीप से प्रेम करने के बारे में बताऊंगी तो मेरी जान मुसीबत में फंस जाएगी.’’
‘‘और संदीप ने तुम्हें अपने घरवालों से क्यों छिपा कर रखा है?’’

अर्चना ने बेचैनी के साथ जवाब दिया, ‘‘संदीप के पिता बहुत बड़े बिजनेसमैन हैं. आर्थिक दृष्टि से हम उन के सामने कहीं नहीं ठहरते. मैं एमबीए पूरी कर के नौकरी करने लगूं, तब तक के लिए उस ने अपने मातापिता से शादी का जिक्र छेड़ना टाल रखा है. मेरी एमबीए अगले महीने समाप्त होगा, लेकिन उस के विदेश जाने की बात के कारण स्थिति बदल गई है. मैं चाहती हूं कि वह फौरन अपने मातापिता से इस मामले में चर्चा छेड़े.’’

अर्चना का नजरिया तो मैं समझ गई लेकिन संदीप ने अभी विदेश जाने से पहले अपने मातापिता से शादी का जिक्र छेड़ने से पार्क में साफ इनकार कर दिया था और उस के इनकार करने के ढंग में मैं ने बड़ी कठोरता महसूस की थी. उस ने अर्चना के नजरिए को समझने की कोशिश भी नहीं की थी. मुझे उस का व्यक्तित्व पसंद नहीं आया था. तभी दुखी व परेशान अर्चना का मनोबल बढ़ाने के लिए मैं ने उस की सहायता करने का फैसला लिया था.

मेरा 5 वर्षीय पोता समीर स्कूल से लौट आया तो हम आगे बात नहीं कर सके क्योंकि उस की मांग थी कि उस के कपड़े बदलने, खाना परोसने व खिलाने का काम दादी ही करें.

अर्चना अपने घर जाना चाहती थी पर मैं ने उसे यह कह कर रोक लिया कि बेटी, अगर तुम्हें कोई ऐतराज न हो तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूं. तुम्हारी मां से मिलने का दिल है मेरा.

रास्ते में अर्चना ने उलझन भरे लहजे में पूछा, ‘‘मीना आंटी, क्या संदीप के विदेश जाने से पहले उस के साथ सगाई की रस्म हो जाने की मेरी जिद गलत है?’’

‘‘इस सवाल का सीधा ‘हां’ या ‘न’ में जवाब नहीं दिया जा सकता है,’’ मैं ने गंभीर लहजे में कहा, ‘‘मेरी समझ से इस समस्या के 2 महत्त्वपूर्ण पहलू हैं.’’

‘‘कौनकौन से, आंटी?’’

‘‘पहला यह कि क्या संदीप का तुम्हारे प्रति प्रेम सच्चा है? अगर इस का जवाब ‘हां’ है तो वह लौट कर तुम से शादी कर ही लेगा. दूसरी तरफ वह ‘रोकने’ की रस्म से इसलिए इनकार कर रहा हो कि तुम से शादी करने का इच्छुक ही न हो.’’

‘‘ऐसी दिल तोड़ने वाली बात मुंह से मत निकालिए, आंटी,’’ अर्चना का गला भर आया.

‘‘बेटी, यह कभी मत भूलो कि तथ्यों से भावनाएं सदा हारती हैं. हमारे चाहने भर से जिंदगी के यथार्थ नहीं बदलते,’’ मैं ने उसे कोमल लहजे में समझाया.

‘‘मुझे संदीप पर पूरा विश्वास है,’’ उस ने यह बात मानो मेरे बजाय खुद से कही थी.

‘‘होना भी चाहिए,’’ मैं ने प्यार से उस की पीठ थपथपाई.

‘‘आंटी, मेरी समस्या का दूसरा पहलू क्या है?’’ अर्चना ने मुसकराने की कोशिश करते हुए पूछा.

‘‘तुम्हारी खुशी है. तुम्हारे मन की सुखशांति.’’

‘‘मैं कुछ समझ नहीं, आंटी.’’

‘‘अभी इस बारे में मुझ से कुछ मत पूछो पर मैं तुम्हें विश्वास दिलाती हूं कि संदीप के विदेश जाने में अभी 2 सप्ताह बचे हैं और इस समय के अंदर ही तुम्हारी समस्या का उचित समाधान मैं ढूंढ़ लूंगी.’’

ऐसा आश्वासन पा कर अर्चना ने मुझ से आगे कुछ नहीं पूछा.

अर्चना की मां सावित्री एक आम घरेलू औरत थीं. मेरी 2 सहेलियां उन की भी परिचित निकलीं तो हम जल्दी सहज हो कर आपस में हंसनेबोलने लगे.

मैं ने अर्चना की शादी का जिक्र छेड़ा तो सावित्री ने बताया, ‘‘मीना बहनजी, इस के लिए इस की बूआ ने बड़ा अच्छा रिश्ता सुझाया है पर यह जिद्दी लड़की हमें बात आगे नहीं चलाने देती.’’

‘‘क्या कहती है अर्चना?’’ मैं ने उत्सुकता दर्शाई.

‘‘यही कि एमबीए के बाद कम से कम सालभर नौकरी कर के फिर शादी के बारे में सोचूंगी.’’
‘‘उस के ऐसा करने में दिक्कत क्या है, बहनजी?’’

‘‘अर्चना के पापा इतना लंबा इंतजार नहीं करना चाहते. अपनी बहन का भेजा रिश्ता उन्हें बहुत पसंद है.’’

मैं समझ गई कि आने वाले दिनों में अर्चना पर शादी का जबरदस्त दबाव बनेगा. अर्चना की जिद कि संदीप सगाई कर के विदेश जाए, मुझे तब जायज लगी.

‘‘अर्चना, कल तुम पार्क में मुझे संदीप से मिलाना. तब तक मैं तुम्हारी परेशानी का कुछ हल सोचती हूं,’’ इन शब्दों से उस का हौसला बढ़ा कर मैं अपने घर लौट आई.

अगले दिन पार्क में अर्चना ने संदीप से मुझे मिला दिया. एक नजर मेरे साधारण से व्यक्तित्व पर डालने के बाद संदीप की मेरे बारे में दिलचस्पी फौरन बहुत कम हो गई.

मैं ने उस से थोड़े से व्यक्तिगत सवाल सहज ढंग से पूछे. उस ने बड़े खिंचे से अंदाज में उन के जवाब दिए. यह साफ था कि संदीप को मेरी मौजूदगी खल रही थी.

उन दोनों को अकेला छोड़ कर मैं दूर घास पर आराम करने चली गई.

संदीप को विदा करने के बाद अर्चना मेरे पास आई. उस की उदासी मेरी नजरों से छिपी नहीं रह सकी. मैं ने प्यार से उस का हाथ पकड़ा और उस के बोलने का इंतजार खामोशी से करने लगी.

कुछ देर बाद हारे हुए लहजे में उस ने बताया, ‘‘आंटी, वह सगाई करने के लिए तैयार नहीं है. उस की दलील है कि जब शादी एक साल बाद होगी तो अभी से दोनों परिवारों के लिए तनाव पैदा करने का कोई औचित्य नहीं है.’’

कुछ देर खामोश रहने के बाद मैं ने मुसकराते हुए विषय परिवर्तन किया, ‘‘देखो, परसों मेरे बड़े बेटे अंकित की कोठी में शानदार पार्टी होगी. मेरी पोती शिखा का 8वां जन्मदिन है. तुम्हें उस पार्टी में मेरे साथ शामिल होना होगा.’’

अर्चना ने पढ़ाई का बहाना कर के पार्टी में आने से बचना चाहा पर मेरी जिद के सामने उस की एक न चली. उस की मां से इजाजत दिलवाने की जिम्मेदारी मैं ने अपने ऊपर ले ली थी.

मेरा बेटा अमित व बहू निशा दोनों कंप्यूटर इंजीनियर हैं. उन्होंने प्रेम विवाह किया था. मेरे मायके या ससुराल वालों में दोनों तरफ दूरदूर तक कोई भी उन जैसा अमीर नहीं है.

अमित ने पार्टी का आयोजन अपनी हैसियत के अनुरूप भव्य स्तर पर किया. सभी मेहमान शहर के बड़े और प्रतिष्ठित आदमी थे. उन की देखभाल के लिए वेटरों की पूरी फौज मौजूद थी. शराब के शौकीनों के लिए ‘बार’ था तो डांस के शौकीनों के लिए डीजे सिस्टम मौजूद था.

मेरी छोटी बहू सीमा, अर्चना और मैं खुद इस भव्य पार्टी में मेहमान कम, दर्शक ज्यादा थे. जो एकदो जानपहचान वाले मिले वे भी हम से ज्यादा बातें करने को उत्सुक नहीं थे.

अमित और निशा मेहमानों की देखभाल में बहुत व्यस्त थे. हम ठीक से खापी रहे हैं, यह जानने के लिए दोनों कभीकभी कुछ पल को हमारे पास नियमित आते रहे.

रात को 11 बजे के करीब उन से विदा ले कर जब हम अपने फ्लैट में लौटे, तब तक 80 प्रतिशत से ज्यादा मेहमानों ने डिनर करना भी नहीं शुरू किया था.

पार्टी के बारे में अर्चना की राय जानने के लिए अगले दिन मैं 11 बजे के आसपास उस के घर पहुंच गई थी.

‘‘आंटी, पार्टी बहुत अच्छी थी पर सच कहूं तो मजा नहीं आया,’’ उस ने सकुचाते हुए अपना मत व्यक्त किया.

‘‘मजा क्यों नहीं आया तुम्हें?’’ मैं ने गंभीर हो कर सवाल किया.

‘‘पार्टी में अच्छा खानेपीने के साथसाथ खूब हंसनाबोलना भी होना चाहिए. बस, वहां जानपहचान के लोग न होने के कारण पार्टी का पूरा लुत्फ नहीं उठा सके हम.’’

‘‘अर्चना, हम दूसरे मेहमानों के साथ जानपहचान बढ़ाने की कोशिश करते तो क्या वे हमें स्वीकार करते? मैं चाहूंगी कि तुम मेरे इस सवाल का जवाब सोचसमझ कर दो.’’

कुछ देर सोचने के बाद अर्चना ने जवाब दिया, ‘‘आंटी, वहां आए मेहमानों का सामाजिक व आर्थिक स्तर हम से बहुत ऊंचा था. हमें बराबर का दर्जा देना उन्हें स्वीकार न होता.’’
‘‘एक बात पूछूं?’’

‘‘पूछिए.’’

‘‘क्या ऐसा ही अंतर तुम्हारे व संदीप के परिवारों में नहीं है?’’

‘‘है,’’ अर्चना का चेहरा उतर गया.

‘‘तब क्या तुम्हारे लिए यह जानना जरूरी नहीं है कि उस के घर वाले तुम्हें बहू के रूप में आदरसम्मान देंगे या नहीं?’’

‘‘आंटी, क्या संदीप का प्यार मुझे ये सभी चीजें उन से नहीं दिलवा सकेगा?’’

‘‘अर्चना, कल की पार्टी में अमित की मां, भाईभतीजा व भाई की पत्नी मौजूद थे. लगभग सभी मेहमान हमें पहचानने के बावजूद हम से बोलना अपनी तौहीन सम?ाते रहे. सिर्फ संदीप की पत्नी बन जाने से क्या तुम्हारे अमीर ससुराल वालों का तुम्हारे प्रति नजरिया बदल जाएगा?’’

अनुभव के आधार पर मैं ने एकएक शब्द पर जोर दिया, ‘‘तुम्हें संदीप के घर वालों से मिलना होगा. वे तुम्हारे साथ सगाई करें या न करें पर इस मुलाकात के लिए तुम अड़ जाओ, अर्चना.’’

मेरे कुछ देर तक समझने के बाद बात उस की समझ में आ गई. मेरी सलाह पर अमल करने का मजबूत इरादा मन में ले कर वह संदीप से मिलने पार्क की तरफ गई.

करीब डेढ़ घंटे बाद जब वह लौटी तो उस की सूजी आंखों को देख कर मैं संदीप का जवाब बिना बताए ही जान गई.

‘‘वह अपने घर वालों से तुम्हें मिलाने को नहीं माना?’’

‘‘नहीं, आंटी,’’ अर्चना ने दुखी स्वर में जवाब दिया, ‘‘मैं उस के साथ लड़ी भी और रोई भी पर संदीप नहीं माना. वह कहता है कि इस मुलाकात को अभी अंजाम देने का न कोई महत्त्व है और न ही जरूरत है.’’
‘‘उस के लिए ऐसा होगा पर हम ऐसी मुलाकात को पूरी अहमियत देते हुए इसे बिना संदीप की इजाजत के अंजाम देंगे, अर्चना. संदीप की जिद के कारण तुम अपनी भावी खुशियों को दांव पर नहीं लगा सकतीं,’’ मेरे गुस्से से लाल चेहरे को देख कर वह घबरा गई थी.

डरीघबराई अर्चना को संदीप की मां से सीधे मिलने को राजी करने में मुझे खासी मेहनत करनी पड़ी पर आखिर में उस की ‘हां’ सुन कर ही मैं उस के घर से उठी.

जीवन हमारी सोचों के अनुसार चलने को जरा भी बाध्य नहीं. अगले दिन दोपहर को संदीप के पिता की कोठी की तरफ जाते हुए अर्चना और मैं काफी ज्यादा तनावग्रस्त थे पर वहां जो भी घटा वह हमारी उम्मीदों से कहीं ज्यादा अच्छा था.

संदीप की मां अंजू व छोटी बहन सपना से हमारी मुलाकात हुई. अर्चना का परिचय मुझे उन्हें नहीं देना पड़ा. कालेज जाने वाली सपना ने उसे संदीप भैया की खास ‘गर्लफ्रैंड’ के रूप में पहचाना और यह जानकारी हमारे सामने ही मां को भी दे दी.

संदीप की जिंदगी में अर्चना विशेष स्थान रखती है, अपनी बेटी से यह जानकारी पाने के बाद अंजू बड़े प्यार व अपनेपन से अर्चना के साथ पेश आईं. सपना का व्यवहार भी उस के साथ किसी सहेली जैसा चुलबुला व छेड़छाड़ वाला रहा.

जिस तरह का सम्मान व अपनापन उन दोनों ने अर्चना के प्रति दर्शाया वह हमें सुखद आश्चर्य से भर गया. गपशप करने को सपना कुछ देर बाद अर्चना को अपने कमरे में ले गई.

अकेले में अंजू ने मुझ से कहा, ‘‘मीनाजी, मैं तो बहू का मुंह देखने को न जाने कब से तरस रही हूं पर संदीप मेरी नहीं सुनता. अगला प्रमोशन होने तक शादी टालने की बात करता है. अब अमेरिका जाने के कारण उस की शादी सालभर को तो टल ही गई न.’’

‘‘आप को अर्चना कैसी लगी है?’’ मैं ने बातचीत को अपनी ओर मोड़ते हुए पूछा. ‘‘बहुत प्यारी है. सब से बड़ी बात कि वह मेरे संदीप को पसंद है,’’ अंजू बेहद खुश नजर आईं.

‘उस के पिता बड़ी साधारण हैसियत रखते हैं. आप लोगों के स्तर की शादी करना उन के बस की बात नहीं.’’

‘‘मीनाजी, मैं खुद स्कूलमास्टर की बेटी हूं. आज सबकुछ है हमारे पास. सुघड़ और सुशील लड़की को हम एक रुपया दहेज में लिए बिना खुशीखुशी बहू बना कर लाएंगे.’’

बेटे की शादी के प्रति उन का सादगीभरा उत्साह देख कर मैं अचानक इतनी भावुक हुई कि मेरी आंखें भर आईं.

अर्चना और मैं ने बहुत खुशीखुशी उन के घर से विदा ली. अंजू और सपना हमें बाहर तक छोड़ने आईं.

‘‘कोमल दिल वाली अंजू के कारण तुम्हें इस घर में कभी कोई दुख नहीं होगा अर्चना. दौलत ने मेरे बड़े बेटे का जैसे दिमाग घुमाया है, वैसी बात यहां नहीं है. अब तुम फोन पर संदीप को इस मुलाकात की सूचना फौरन दे डालो. देखें, अब वह सगाई कराने को तैयार होता है या नहीं.’’ मेरी बात सुन कर अब तक खुश नजर आ रही अर्चना की आंखों में चिंता के बादल मंडरा उठे.

संदीप की प्रतिक्रिया मुझे अगले दिन शाम को अर्चना के घर जा कर ही पता चली. मैं इंतजार करती रही कि वह मेरे घर आए लेकिन जब वह शाम तक नहीं आई तो मैं ही दिल में गहरी चिंता के भाव लिए उस से मिलने पहुंच गई.

हुआ वही जिस का मुझे डर पहले दिन से था. संदीप अर्चना से उस दिन पार्क में खूब जोर से झगड़ा. उसे यह बात बहुत बुरी लगी कि मेरे साथ अर्चना उस की इजाजत के बिना क्यों उस की मां व बहन से मिल कर आई.

‘‘मीना आंटी, मैं आज संदीप से न दबी और न ही कमजोर पड़ी. जब उस की मां को मैं पसंद हूं तो अब उसे सगाई करने से ऐतराज क्यों?’’ अर्चना का गुस्सा मेरे हिसाब से बिलकुल जायज था.
‘‘आखिर में क्या कह रहा था संदीप?’’ उस का अंतिम फैसला जानने को मेरा मन बेचैन हो उठा.
‘‘मुझ से नाराज हो कर भाग गया वह, आंटी. मैं भी उसे ‘चेतावनी’ दे आई हूं.’’

‘‘कैसी ‘चेतावनी’?’’ मैं चौंक पड़ी.

‘‘मैं ने साफ कहा कि अगर उस के मन में खोट नहीं है तो वह सगाई कर के ही विदेश जाएगा वरना मैं समझ लूंगी कि अब तक मैं एक अमीरजादे के हाथ की कठपुतली बन मूर्ख बनती रही हूं.’’

‘‘तू ने ऐसा सचमुच कहा?’’ मेरी हैरानी और बढ़ी.

‘‘आंटी, मैं ने तो यह भी कह दिया कि अगर उस ने मेरी इच्छा नहीं पूरी की तो उस के जहाज के उड़ते ही मैं अपने मम्मीपापा को अपना रिश्ता उन की मनपसंद जगह करने की इजाजत दे दूंगी.’’

एक पल को रुक कर अर्चना फिर बोली, ‘‘आंटी, उस से प्रेम कर के मैं ने कोई गुनाह नहीं किया है जो मैं अब शादी करने को उस के सामने गिड़गिड़ाऊं. अगर मेरा चुनाव गलत है तो मेरा उस से अभी दूर हो जाना ही बेहतर होगा.’’

‘‘मैं तुम से पूरी तरह सहमत हूं, बेटी,’’ मैं ने उसे अपनी छाती से लगा लिया और बोली, ‘‘दोस्ती और प्रेम के मामले में जो दौलत को महत्त्व देते हैं वे दोस्त या प्रेमी बनने के काबिल नहीं होते.’’

‘‘आप का बहुत बड़ा सहारा है मुझे. अब मैं किसी भी स्थिति का सामना कर लूंगी, मीना आंटी,’’ उस ने मुझे जोर से भींचा और हम दोनों अपने आंसुओं से एकदूसरे के कंधे भिगोने लगीं.

वैसे अर्चना की प्रेम कहानी का अंत बढि़या रहा. अपने विदेश जाने से एक सप्ताह पहले संदीप मातापिता के साथ अर्चना के घर पहुंच गया. अर्चना की जिद मान कर सगाई की रस्म पूरी कर के ही विदेश जाना उसे मंजूर था.

अगले दिन पार्क में मेरी उन दोनों से मुलाकात हुई. मेरे पैर छू कर संदीप ने पूछा, ‘‘मीना आंटी, मैं सगाई या अर्चना को अपने घर वालों से मिलाना टालता रहा, इस कारण आप ने कहीं यह अंदाजा तो नहीं लगाया कि मेरी नीयत में खोट था?’’

‘‘बिलकुल नहीं,’’ मैं ने आत्मविश्वास के साथ झुठ बोला, ‘‘मैं ने जो किया, वह यह सोच कर किया कि कहीं तुम नासमझ में अर्चना जैसे हीरे को न खो बैठो.’’
‘‘थैंक यू, आंटी,’’ वह खुश हो गया.

एक पल में ही मैं मीना आंटी से डार्लिंग आंटी बन गई. अर्चना मेरे गले लगी तो लगा कि बेटी विदा हो रही है.

Mother’s Day 2025 : क्या उसे औलाद का सुख मिला?

Mother’s Day 2025 : चिकित्सा के उन्नत कहे जाने वाले युग को ऐसा कहा भी जाए या नहीं, कुछ घटनाएं घटते समय यह प्रश्न खड़ा कर देती हैं. वे घटनाएं आएदिन घट कर चिकित्सकों को तो अपना अभ्यस्त बना देती हैं लेकिन उन की कसमसाहट मिनटों, घंटों या कुछ दिनों तक ही सीमित रह जाती है. हद से हद फुरसत के क्षणों में कोई इक्कादुक्का डाक्टर उन्हें अपनी डायरी के पन्नों पर उतार लेता है. परंतु जिन के साथ वे घटी होती हैं उन के सीने में तो दर्द की स्थायी कील गाड़ देती हैं. विद्या दी अदने से मच्छर के कारण हुए डेंगू में अपने 10 वर्षीय बेटे को खो कर अपने सीने में दर्द की ऐसी ही अनगिनत कीलें गाड़ लाई थीं.

विवाह के कई वर्ष बाद, ऐलोपैथी, होम्योपैथी, गंडेतावीज, झाड़फूंक और निरी मन्नतों की बैसाखियों पर चढ़ कर पैदा हुआ था वह. दुख का उत्पीड़न सहती विद्या दी अपना मानसिक संतुलन लगभग खो ही बैठी थीं. 3 बहनों में सब से बड़ी विद्या दी की ऐसी अवस्था देख मझली सारिका ने अपना नवजात शिशु, जो उस की दूसरी संतान था, विद्या दी की गोद में डाल कर उन्हें उन के करोड़ों के व्यवसाय का उत्तराधिकारी दे दिया. बेटे को खो देने के दुख को, बेटा पा कर विद्या दी तहखानों के ढीठ अंधेरों में धकेल आईं. आरंभिक उदास, संकोची सी खुशी कुछ ही दिनों में उन के बुझे हुए चेहरे पर उन्मुक्त हो कर खिलखिला उठी.

इसे विडंबना ही कहेंगे कि तीनों बहनों में छोटी जूही के विवाह के 10 बरस बाद भी संतान का सुख प्राप्त नहीं हुआ था. ताउम्र निसंतान रह जाने से पतिपत्नी ने किसी बालक को गोद ले लेना बेहतर समझा. घर वाले विद्या दी की तरह ही किसी नातेदार के बच्चे को गोद लेने पर जोर देने लगे. परंतु उस दंपती के विचार में उस बच्चे को जिस दिन से उन रिश्तेदारों का अपने मातापिता होना पता चलेगा उसी दिन से वे दोनों उस के नाममात्र के ही मातापिता रह जाएंगे उन्होंने किसी ऐसे अनाथ बच्चे को गोद लेने का निश्चय किया जो उन की गोद में आने के बाद किसी और का न रह जाता हो.

परंतु लोगों ने किसी अनजाने अनाथ को गोद लेने में सैकड़ों भयानक खतरे बता डाले. जैसे, कौन जाने कौन जात का होगा, क्या पता किसी चोरउचक्के का ही खून हो. आंखों का, कानों का, गले का, दिलदिमाग का या फिर सब से बड़ा रोग एड्स ही ले कर आए. अनेक तर्कवितर्कों के बाद सम्मति बनी कि जानीमानी वंशपरंपरा के अभाव में सभ्य, संस्कारी लोग किसी अनजाने बच्चे को गोद नहीं ले सकते. परंतु जूही और उस के पति का निर्णय किसी के बहकाए नहीं बहका. उन्होंने बच्चे को सिर्फ और सिर्फ बच्चा जात का माना. तर्क रखा कि हमारे सभी रिश्तेदार हम से ज्यादा पैसे वाले हैं. ऐसे में हम उन के बच्चे की अधिक सुविधा वाली जिंदगी छीन कर अपना मध्यवर्गीय स्तर दे कर उस के साथ अन्याय ही करेंगे. हम क्यों न किसी ऐसे बच्चे को मातापिता के रिश्ते की सघन छांव दें जिस ने उस छांव के तले क्षणभर गुजारे बगैर ही उसे खो दिया. रही बच्चे के साथ आने वाले संभावित रोगों की बात, तो क्या आज तक किसी का अपना बच्चा कोई रोग ले कर नहीं आया. रोगों का तो आजकल क्या भरोसा, न जाने कितने लोगों को अस्पताल की गलती से एड्स से संक्रमित रोगी का रक्त चढ़ा दिया गया है. उन को एड्स होना तय है फिर वे कौन सी वंशपरंपरा के कहलाएंगे. ऐसे ही अनेक तर्क दे कर एक बड़े अस्पताल की नर्सरी से एक ऐसा शिशु गोद ले लिया गया जिस के मातापिता हमेशा जूही और उस का पति ही सिद्ध होने थे.

हर नवजात अपनी मां के लिए अनचीन्हा, अनदेखा ही होता है. कौन जाने अस्पतालों में स्टाफ की गलती से या कभी जानबूझ कर बच्चे बदल भी दिए जाते हों, कहां पहचान पाती हैं माताएं अपने नवजात को. विज्ञान के अनुसार, शिशु भले अपनी मां के गर्भ में ही उस की आवाज पहचानना सीख जाता हो पर बाहर आने पर वह भी उस के संकेत धीरेधीरे ही दे पाता है.

जूही के अनजाने बच्चे ने भी धीरेधीरे अपनी प्यारी मां को पहचान लेने के संकेत ठीक वैसे ही देने शुरू कर दिए थे जैसे कोई उस की अपनी ही कोख से जन्म ले कर देता. जब वह मातापिता को देख कर अद्भुत रूप भर मुसकराता तो कईकई पूर्व जन्मों से स्वयं को उन का अनन्य हिस्सा साबित कर देता. उस की किलकारियों के संगीत की नूतन धुनें उस दंपती के कानों में ठीक वैसे ही रस घोलतीं जैसे उन के खुद के जन्मे बच्चे की घोल पातीं. जब वह अपनी नन्हीनन्ही कोमल बांहें जूही और उस के पति के गले में पहना देता तो एक से एक नायाब फूलों की माला की रंगत भी पल में फीकी पड़ जाती. जब वह थोड़ा बड़ा हुआ तो उस दंपती को उस के हाथों अपनी वंशपरंपरा सुरक्षित दिखने लगी. उन्हें विश्वास हो गया कि अगर वे किसी संतान को जन्म दे पाते तो उस में और इस नन्हे बच्चे में कोई खास फर्क तो नहीं ही होता. विद्या दी का बेटा विलास और जूही का बेटा अविरल खूब लाड़प्यार में पलने लगे, विशेषकर विद्या दी का बेटा विलास. उस के अधिक लाड़प्यार का पहला कारण विद्या दी के दुख से जुड़ा था. अपने इकलौते बेटे को खो देने के बाद उस के हिस्से का लाड़प्यार वे स्वयं पर ऋण सरीखा समझती थीं, सो उसे विलास पर उड़ेल कर उऋण हो जाना चाहती थीं. दूसरा और शायद अधिक महत्त्वपूर्ण कारण था कि विद्या दी मझली के पति और उस के ससुरालियों को यह दिखा देना चाहती थीं कि उन की अपेक्षा उन के बेटे को उन से अधिक लाड़प्यार दे कर पाल रही हैं.

तीसरा कारण दूसरे से जुड़ा था, यह दिखाने का प्रयास कि उन की अपेक्षा वे उसे अधिक सुखसुविधाओ में पाल रही हैं. इसी धुन में विलास की हर जायजनाजायज बात मान ली जाती. परिणामस्वरूप उस की इच्छाएं दिन पर दिन बढ़ने लगी थीं. वह जो भी चीज जितनी मांगता, उस से अधिक मिलती. यही बात रुपयों पर भी लागू थी. विद्या दी के विवेकहीन प्यार का दुष्परिणाम जल्दी ही सामने आने लगा. विलास का ध्यान पढ़ाईलिखाई से पूरी तरह हट गया था. उस ने पैसे खर्च करना सीखने की उम्र से पहले ही उसे बरबाद करने के सैकड़ों तरीके खोज निकाले. उस ने धीरेधीरे विद्या दी के करोड़ों के कारोबार से अपना हाथ खींचना आरंभ कर दिया. करोड़ों का व्यापार लाखों में सिमटा, लाखों का हजारों में और हजारों से नीचे आने का अर्थ था पूरी तरह सिमटना. ‘जो चीज बढ़ती नहीं, घट जाती है,’ कहावत चरितार्थ हो गई.

विलास की आदतें बिगड़ैल रईसों के जैसी हो गई थीं. पर विद्या दी में उस की जिदें पूरी करने की सामर्थ्य अब नहीं रह गई थी. शुरू में तो पैसों के लिए वह उन से मौखिक लड़ाइयां करता, बाद में उस ने धक्कामुक्की तक करना शुरू कर दिया. एक बार तो जूही और उस के बेटे अविरल के सामने ही उस ने विद्या दी को धक्का दे दिया था. उस दिन अविरल ने ही उन्हें गिरने से बचाया था और विलास को ऐसा न करने के लिए समझाना चाहा था पर वह उसे भी धकिया कर घर से बाहर निकल गया था. उस दिन विद्या दी ने अश्रुविगलित हो कर आंखों ही आंखों में जूही के तथाकथित संस्कारविहीन बेटे को सराहा था. उन की आंखों में ऐसी निरीहता दिखाई दी थी कि जैसे उस गाय की आंखों में जिसे कसाई बस काटना ही चाहता हो. उस दिन विद्या दी अपनी लाचारी पर तो बहुत रोईं परंतु स्वयं के अपने व्यवहार को उस दिन भी दोष नहीं दिया.

मझली बहन सारिका ने जब अपना बेटा विलास विद्या दी को सौंपा था तब विद्या दी सर्वसंपन्न थीं और सारिका सुखसुविधाओं में उन से काफी पीछे. परंतु अब सारिका के पति का व्यापार काफी बढ़ चुका था. अब सारिका स्वयं संपन्नता में रह कर अपने बेटे को पैसेपैसे के लिए लड़ते देख पश्चात्ताप से भर उठती. पैसे की कमी ने विलास को चोरी की लत लगा दी थी. अब उस के घर जो भी आता, वह उस के पर्स का बोझ थोड़ा हलका कर के ही भेजता. हद तो तब हो गई जब विलास ने स्कूल टीचर के पर्स से पैसे उड़ा लिए, एक बार नहीं कईकई बार. अनेक बार चेतावनी देने के बाद भी जब उस ने अपनी गलती को नहीं सुधारा बल्कि मारपिटाई और करने लगा तो प्रिंसिपल ने उसे स्कूल से निकाल दिया. अब उस की आवारगी प्रमाणित थी. उस की बरबादी का मार्ग पूरी तरह तब प्रशस्त हो गया जब विद्या दी के पति को लकवा मार गया और वे बिस्तर पर आ टिके. अथाह दौलत की मालकिन विद्या दी को घर का खर्च चलाने के लिए भी घर का आधा हिस्सा किराए पर देना पड़ा था.

विलास अब पूरी तरह स्वतंत्र था. अपनी आवारगी को अंजाम देने के लिए घर के सामान तक बेच आता. शराब पीता, ड्रग्स लेता, आएदिन लोगों से झगड़ा करता. पड़ोसियों ने उस की आदतों से आजिज आ कर उसे पुलिस के हवाले कर दिया. उस दिन उसे सारिका और उस का पति ही छुड़ा कर लाए, इस वादे के साथ कि वह जेल तक पहुंचने की कोई भी राह फिर कभी नहीं पकड़ेगा. परंतु वादों का स्थायित्व आचरण का अनुगामी होता है. वादा जल्दी ही टूट गया. जूही का बेटा अविरल सत्य से अनभिज्ञ था और वह दंपती अनभिज्ञ हो जाना चाहता था. सत्य की इस सुखद अनभिज्ञता में उन दोनों के चेतन मन तक ने धीरेधीरे सत्य को सचमुच ही धुंधला दिया. पुत्र से प्रेम और भी प्रगाढ़ हो गया. अब तो बस यही सच था कि जूही और उस का पति ही उस बच्चे के सगे मातापिता हैं जिन्होंने उस की राह के सब कांटों को समूल नष्ट कर दिया है. वरना क्या उन्हें उस के सगे मातापिता कहना होगा जिन्होंने निष्ठुरता की हद पार कर के उसे क्षणभर में अनाथ बना कर उस के रास्ते को अंगारों से पाट दिया था.

जूही और उस के पति ने अपने उस तथाकथित वंशहीन, जातिहीन, संस्कारविहीन संभावित रोगों की खान बेटे का पालनपोषण, सूझबूझ भरे मातापिता बन कर किया. उन्होंने अपनी शिक्षा और संस्कारों से उसे आपादमस्तक नहला दिया, अपने मनचाहे व्यवहार की शिक्षा को उस की रगरग में बहना सिखा दिया. कोरे कैनवास जैसे उस मासूम पर उन्होंने अपने मनपसंद दृष्टि लुभाते शीतल रंगों के साथ मनचाहे चित्र उकेरे. एक साधारण से बच्चे को असाधारण प्रयास कर समाज के हर क्षेत्र में मुंहबाए खड़ी प्रतियोगिताओं की कतार में सब से आगे ला खड़ा किया, जैसे किसी देसी आम के पौधे पर किसी बेहतरीन किस्म के आम की कलम लगा कर स्वादिष्ठ फल उतारे जाएं. उन दोनों के संतुलित लाड़प्यार और देखरेख ने उस अबोध के मन की सभी अवांछनीय उमंगों को स्थायी रूप से समाप्त कर दिया. विद्या दी अपनी संस्कारी बहन के निश्चित रूप से संस्कारी निकलने वाले पुत्र को भी अपनी अक्षम्य भूलों के अंधड़ में पाल कर संस्कारी नहीं बना पाई थीं. हर किसी की तरह अति ने उन्हें भी बुरा ही फल दिया था.

एक दिन विलास ने विद्या दी की अनुपस्थिति में उन के बचेखुचे गहनों को निकाल कर बेच दिया और हफ्तों के लिए घर से गायब हो गया. बिस्तर पर पड़े विद्या दी के पति विलास की विलासिता की जीत के आगे अपने जीवन की जंग हार गए. जिस दिन के लिए हिंदू समाज में लोग पुत्र की कामना करते हैं उसी दिन वह उन के साथ नहीं था और जब वह लौटा विद्या दी के पति के सभी कार्य हमेशा के लिए पूरे हो चुके थे. अब घर में विद्या दी और विलास ही रह गए थे. अब बेचने के लिए बरतनों और कपड़ों के सिवा कुछ बचा नहीं था. अपने नशे की आदतों को संतुष्ट करने के लिए विलास उन्हें भी बेच आता. विद्या दी को दबा माल निकालने का आदेश करता, नहीं मानने पर जान से मार डालने की भयावह धमकी देता. उस की सारी बांहें नशे के इंजैक्शन की सुइयों से छिदी रहतीं, घर में जगहजगह उस का संस्कारी खून टपका पड़ा रहता. अब उस के साथ विद्या दी को अपना जीवन खतरे में दिखाई देने लगा था. उन की अमीरी के समय उन की गोद में अपनी संतान डाल जाने वाली बहन ने उन की मुश्किल घड़ी में उन्हें दुखी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. अपने बेटे की बरबादी का दोष उस ने अकेली विद्या दी के सिर ही मढ़ा, किसी क्षण उन्हें अपने बेटे को गोद लेने के पश्चात्ताप से मुक्त नहीं होने दिया.

जूही ने अपने बच्चे को उस के छिन जाने के डर से रहित किसी के उलाहनों से भी इतर हो स्वतंत्र रूप से सिर्फ अपनी तरह पाला. अपनी उपस्थिति से वातावरण को सकारात्मक ऊर्जा से भर देने वाला उस का बेटा अब हट्टाकट्टा जवान हो कर नौसेना में इंजीनियर के पद पर कार्यरत था. उस ने अपने मातापिता को समाज में और भी सम्मानित बना दिया था. विद्या दी एक आवारा, नशेड़ी के साथ अपमानित और मृत्यु से मिलताजुलता जीवन जीने को अभिशप्त थीं. अपमानों और अभिशापों से भरे सैकड़ों दिनों में उस एक दिन विद्या दी के स्नान करते समय विलास ने उन की पुरानी अलमारी का ताला तोड़ लिया. कागजों से मेलजोल तो नहीं था उस का पर कुछ रुपए मिल जाने की फिराक में वह कागजों को उलटनेपलटने लगा. विद्या दी स्नान कर जल्दी ही आ गईं, उन्होंने उस के हाथ से वह फाइल छीननी चाही. फाइल की छीनाझपटी में एक पुराना सा पीला पड़ गया लिफाफा हवा में तैरता हुआ जमीन पर जा गिरा. विद्या दी उसे उठाने के लिए झुकी ही थीं कि विलास ने उन्हें धक्का दे कर वह लिफाफा उठा लिया. धक्का खा कर विद्या दी का सिर दीवार से टकराया और वे जमीन पर गिर गईं. उन की तरफ ध्यान दिए बगैर विलास लिफाफे को खोल कर पढ़ने लगा जिस में उस की सगी मां सारिका का उसे विद्या दी को सौंपने को ले कर पश्चात्ताप से भरा पत्र था जिस में उस ने अपने बेटे को वापस मांगने का विनम्र आग्रह किया था. परंतु विद्या दी का मन विलास से ऐसे जुड़ गया था जैसे जल से मीन. सो उन्होंने उस की वापसी से इनकार कर दिया.

सारिका ने बड़ी बहन की बात तो रखी परंतु कभी उन के घर जा कर, कभी विलास को अपने घर बुला कर उन्हें बताए बिना, किसी जरूरत के भी बिना उसे मुट्ठियां भरभर नोट पकड़ाने शुरू कर दिए. विद्या दी का विलास के लिए अंधा प्यार तो उसे बरबाद कर देने का सब से बड़ा अपराधी था ही, सारिका के कुतर्की व्यवहार ने भी छोटी भूमिका तो नहीं ही निभाई थी उसे आवारा बनाने में. विलास ने पत्र पढ़ लिया था. अब उस के हाथ कुबेर का दूसरा खजाना आ गया था बरबाद करने के लिए. वह विद्या दी से लड़ने के पूर्व कृत्य में उन्हें झंझोड़ने लगा था. पर वे अपने लाड़ले विलास को खो देने और फिर से निसंतान हो जाने के डर से भयभीत हो चुपचाप निकल गई थीं जीवन की जद्दोजहद से.

Hindi Fiction Stories : एक रात की उजास

Hindi Fiction Stories : शाम ढलने लगी थी. पार्क में बैठे वयोवृद्घ उठने लगे थे. मालतीजी भी उठीं. थके कदमों से यह सोच कर उन्होंने घर की राह पकड़ी कि और देर हो गई तो आंखों का मोतियाबिंद रास्ता पहचानने में रुकावट बन जाएगा. बहू अंजलि से इसी बात पर बहस हुआ करती थी कि शाम को कहां चली जाती हैं. आंखों से ठीक से दिखता नहीं, कहीं किसी रोज वाहन से टकरा गईं तो न जाने क्या होगा. तब बेटा भी बहू के सुर में अपना सुर मिला देता था.

उस समय तो फिर भी इतना सूनापन नहीं था. बेटा अभीअभी नौकरी से रिटायर हुआ था. तीनों मिल कर ताश की बाजी जमा लेते. कभीकभी बहू ऊनसलाई ले कर दोपहर में उन के साथ बरामदे मेें बैठ जाती और उन से पूछ कर डिजाइन के नमूने उतारती. स्वेटर बुनने में उन्हें महारत हासिल थी. आंखों की रोशनी कम होने के बाद भी वह सीधाउलटा बुन लेती थीं. धीरेधीरे चलते हुए एकाएक वह अतीत में खो गईं.

पोते की बिटिया का जन्म हुआ था. उसी के लिए स्वेटर, टोपे, मोजे बुने जा रहे थे. इंग्लैंड में रह रहे पोते के पास 1 माह बाद बेटेबहू को जाना था. घर में उमंग का वातावरण था. अंजलि बेटे की पसंद की चीजें चुनचुन कर सूटकेस में रख रही थी. उस की अंगरेज पत्नी के लिए भी उस ने कुछ संकोच से एक बनारसी साड़ी रख ली थी. पोते ने अंगरेज लड़की से शादी की थी. अत: मालती उसे अभी तक माफ नहीं कर पाई थीं. इस शादी पर नीहार व अंजलि ने भी नाराजगी जाहिर की थी पर बेटे के आग्रह और पोती होने की खुशी का इजहार करने से वे अपने को रोक नहीं पाए थे और इंग्लैंड जाने का कार्यक्रम बना लिया था.

उस दिन नीहार और अंजलि पोती के लिए कुछ खरीदारी करने कार से जा रहे थे. उन्होंने मांजी को भी साथ चलने का आग्रह किया था लेकिन हरारत होने से उन्होंने जाने से मना कर दिया था. कुछ ही देर बाद लौटी उन दोनों की निष्प्राण देह देख कर उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ था. उस से अधिक आश्चर्य उन्हें इस बात पर होता है कि इस भयंकर हादसे के 7 साल बाद भी वह जीवित हैं.

उस हादसे के बाद पोते ने उन्हें अपने साथ इंग्लैंड चलने का आग्रह किया था पर उन्होंने यह सोच कर मना कर दिया कि पता नहीं अंगरेज पतोहू के साथ उन की निभ भी पाएगी कि नहीं. लेकिन आज लगता है वह किसी भी प्राणी के साथ निबाह कर लेंगी. कोई तो होता, उन्हें आदर न सही, उलाहने ही देने वाला. आज इतना घोर एकांत तो नहीं सहना पड़ता उन्हें. पोते के बच्चे भी अब लगभग 6-7 साल के होंगे. अब तो संपर्क भी टूट गया. अचानक जा कर कैसे लाड़प्यार लुटाएंगी वह. उन बच्चों को भी कितना अस्वाभाविक लगेगा यह सब. इतने सालों की दूरियां पाटना क्या कोई आसान काम है. उस समय गलत फैसला लिया सो लिया. मालतीजी पश्चात्ताप की माला फेरने लगीं. उस समय ही क्यों, जब नीहार और अंजलि खरीदारी के लिए जा रहे थे तब वह भी उन के साथ निकल जातीं तो आज यह एकाकी जिंदगी का बोझ अपने झुके हुए, दुर्बल कंधों पर उठाए न घूम रही होतीं.

अतीत की उन घटनाओं को बारबार याद कर के पछताने की आदत ने मालतीजी को घोर निराशावादी बना डाला था. शायद यही वजह थी जो चिड़चिड़ी बुढि़या के नाम से वह महल्ले में मशहूर थीं. अपने ही खोल में आवृत्त रह कर दिन भर वह पुरानी बातें याद किया करतीं. शाम को उन्हें घर के अंदर घुटन महसूस होती तो पार्क में आ कर बैठ जातीं. वहां की हलचल, हंसतेखेलते बच्चे, उन्हें भावविभोर हो कर देखती माताएं और अपने हमउम्र लोगों को देख कर उन के मन में अगले नीरस दिन को काटने की ऊर्जा उत्पन्न होती. यही लालसा उन्हें देर तक पार्क में बैठाए रखती थी.

आज पार्क में बैठेबैठे उन के मन में अजीब सा खयाल आया. मौत आगे बढ़े तो बढ़े, वह क्या उसे खींच कर पास नहीं बुला सकतीं, नींद की गोलियां उदरस्थ कर के.

इतना आसान उपाय उन्हें अब तक भला क्यों नहीं सूझा? उन के पास बहुत सी नींद की गोलियां इकट्ठी हो गई थीं.

नींद की गोलियां एकत्र करने का उन का जुनून किसी जमाने में बरतन जमा करने जैसा था. उन के पति उन्हें टोका भी करते, ‘मालती, पुराने कपड़ों से बरतन खरीदने की बजाय उन्हें गरीबों, जरूरतमंदों को दान करो, पुण्य जोड़ो.’

वह फिर पछताने लगीं. अपनी लंबी आयु का संबंध कपड़े दे कर बरतन खरीदने से जोड़ती रहीं. आज वे सारे बरतन उन्हें मुंह चिढ़ा रहे थे. उन्हीं 4-6 बरतनों में खाना बनता. खुद को कोसना, पछताना और अकेले रह जाने का संबंध अतीत की अच्छीबुरी बातों से जोड़ना, इसी विचारक्रम में सारा दिन बीत जाता. ऐसे ही सोचतेसोचते दिमाग इतना पीछे चला जाता कि वर्तमान से वह बिलकुल कट ही जातीं. लेकिन आज वह अपने इस अस्तित्व को समाप्त कर देना चाहती हैं. ताज्जुब है. यह उपाय उन्हें इतने सालों की पीड़ा झेलने के बाद सूझा.

पार्क से लौटते समय रास्ते में रेल लाइन पड़ती है. ट्रेन की चीख सुन कर इस उम्र मेें भी वह डर जाती हैं. ट्रेन अभी काफी दूर थी फिर भी उन्होंने कुछ देर रुक कर लाइन पार करना ही ठीक समझा. दाईं ओर देखा तो कुछ दूरी पर एक लड़का पटरी पर सिर झुकाए बैठा था. वह धीरेधीरे चल कर उस तक पहुंचीं. लड़का उन के आने से बिलकुल बेखबर था. ट्रेन की आवाज निकट आती जा रही थी पर वह लड़का वहां पत्थर बना बैठा था. उन्होंने उस के खतरनाक इरादे को भांप लिया और फिर पता नहीं उन में इतनी ताकत कहां से आ गई कि एक झटके में ही उस लड़के को पीछे खींच लिया. ट्रेन धड़धड़ाती हुई निकल गई.

‘‘क्यों मरना चाहते हो, बेटा? जानते नहीं, कुदरत कोमल कोंपलों को खिलने के लिए विकसित करती है.’’

‘‘आप से मतलब?’’ तीखे स्वर में वह लड़का बोल पड़ा और अपने दोनों हाथों से मुंह ढक फूटफूट कर रोने लगा.

मालतीजी उस की पीठ को, उस के बालों को सहलाती रहीं, ‘‘तुम अभी बहुत छोटे हो. तुम्हें इस बात का अनुभव नहीं है कि इस से कैसी दर्दनाक मौत होती है.’’ मालतीजी की सर्द आवाज में आसन्न मृत्यु की सिहरन थी.

‘‘बिना खुद मरे किसी को यह अनुभव हो भी नहीं सकता.’’

लड़के का यह अवज्ञापूर्ण स्वर सुन कर मालतीजी समझाने की मुद्रा में बोलीं, ‘‘बेटा, तुम ठीक कहते हो लेकिन हमारा घर रेलवे लाइन के पास होने से मैं ने यहां कई मौतें देखी हैं. उन के शरीर की जो दुर्दशा होती है, देखते नहीं बनती.’’

लड़का कुछ सोचने लगा फिर धीमी आवाज में बोला,‘‘मैं मरने से नहीं डरता.’’

‘‘यह बताने की तुम्हें जरूरत नहीं है…लेकिन मेरे  बच्चे, इस में इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि पूरी तरह मौत हो ही जाए. हाथपैर भी कट सकते हैं. पूरी जिंदगी अपाहिजों की तरह गुजारनी पड़ सकती है. बोलो, है मंजूर?’’

लड़के ने इनकार में गरदन हिला दी.

‘‘मेरे पास दूसरा तरीका है,’’ मालतीजी बोलीं, ‘‘उस से नींद में ही मौत आ जाएगी. तुम मेरे साथ मेरे घर चलो. आराम से अपनी समस्या बताओ फिर दोनों एकसाथ ही नींद की गोलियां खाएंगे. मेरा भी मरने का इरादा है.’’

लड़का पहले तो उन्हें हैरान नजरों से देखता रहा फिर अचानक बोला, ‘‘ठीक है, चलिए.’’

अंधेरा गहरा गया था. अब उन्हें बिलकुल धुंधला दिखाई दे रहा था. लड़के ने उन का हाथ पकड़ लिया. वह रास्ता बताती चलती रहीं.

उन्हें नीहार के हाथ का स्पर्श याद आया. उस समय वह जवान थीं और छोटा सा नीहार उन की उंगली थामे इधरउधर कूदताफांदता चलता था.

फिर उन का पोता अंकुर अपनी दादी को बड़ी सावधानी से उंगली पकड़ कर बाजार ले जाता था.

आज इस किशोर के साथ जाते समय वह वाकई असहाय हैं. यह न होता तो शायद गिर ही पड़तीं. वह तो उन्हेें बड़ी सावधानी से पत्थरों, गड्ढों और वाहनों से बचाता हुआ ले जा रहा था. उस ने मालतीजी के हाथ से चाबी ले कर ताला खोला और अंदर जा कर बत्ती जलाई तब उन की जान में जान आई.

‘‘खाना तो खाओगे न?’’

‘‘जी, भूख तो बड़ी जोर की लगी है. क्योंकि आज परीक्षाफल निकलते ही घर में बहुत मार पड़ी. खाना भी नहीं दिया मम्मी ने.’’

‘‘आज तो 10वीं बोर्ड का परीक्षाफल निकला है.’’

‘‘जी, मेरे नंबर द्वितीय श्रेणी के हैं. पापा जानते हैं कि मैं पढ़ने में औसत हूं फिर भी मुझ से डाक्टर बनने की उम्मीद करते हैं और जब भी रिजल्ट आता है धुन कर रख देते हैं. फिर मुझ पर हुए खर्च की फेहरिस्त सुनाने लगते हैं. स्कूल का खर्च, ट्यूशन का खर्च, यहां तक कि खाने का खर्च भी गिनवाते हैं. कहते हैं, मेरे जैसा मूर्ख उन के खानदान में आज तक पैदा नहीं हुआ. सो, मैं इस खानदान से अपना नामोनिशान मिटा देना चाहता हूं.’’

किशोर की आंखों से विद्रोह की चिंगारियां फूट रही थीं.

‘‘ठीक है, अब शांत हो जाओ,’’ मालती सांत्वना देते बोलीं, ‘‘कुछ ही देर बाद तुम्हारे सारे दुख दूर हो जाएंगे.’’

‘…और मेरे भी,’ उन्होंने मन ही मन जोड़ा और रसोईघर में चली आईं. परिश्रम से लौकी के कोफ्ते बनाए. थोड़ा दही रखा था उस में बूंदी डाल कर स्वादिष्ठ रायता तैयार किया. फिर गरमगरम परांठे सेंक कर उसे खिलाने लगीं.

‘‘दादीजी, आप के हाथों में गजब का स्वाद है,’’ वह खुश हो कर किलक रहा था. कुछ देर पहले का आक्रोश अब गायब था.

उसे खिला कर खुद खाने बैठीं तो लगा जैसे बरसों बाद अन्नपूर्णा फिर उन के हाथों में अवतरित हो गई थीं. लंबे अरसे बाद इतना स्वादिष्ठ खाना बनाया था. आज रात को कोफ्तेपरांठे उन्होेंने निर्भय हो कर खा लिए. न बदहजमी का डर न ब्लडप्रेशर की चिंता. आत्महत्या के खयाल ने ही उन्हें निश्चिंत कर   दिया था.

खाना खाने के बाद मालती बैठक का दरवाजा बंद करने गईं तो देखा वह किशोर आराम से गहरी नींद में सो रहा था. उन के मन में एक अजीब सा खयाल आया कि सालों से तो वह अकेली जी रही हैं. चलो, मरने के लिए तो किसी का साथ मिला.

मालती उस किशोर को जगाने को हुईं लेकिन नींद में उस का चेहरा इस कदर लुभावना और मासूम लग रहा था कि उसे जगाना उन्हें नींद की गोलियां खिलाने से भी बड़ा क्रूर काम लगा. उस के दोनों पैर फैले हुए थे. बंद आंखें शायद कोई मीठा सा सपना देख रही थीं क्योंकि होंठों के कोनों पर स्मितरेखा उभर आई थी. किशोर पर उन की ममता उमड़ी. उन्होंने उसे चादर ओढ़ा दी.

‘चलो, अकेले ही नींद की गोलियां खा ली जाएं,’ उन्होंने सोचा और फिर अपने स्वार्थी मन को फटकारा कि तू तो मर जाएगी और सजा भुगतेगा यह निरपराध बच्चा. इस से तो अच्छा है वह 1 दिन और रुक जाए और वह आत्महत्या की योजना स्थगित कर लेट गईं.

उस किशोर की तरह वह खुशकिस्मत तो थी नहीं कि लेटते ही नींद आ जाती. दृश्य जागती आंखों में किसी दुखांत फिल्म की तरह जीवन के कई टुकड़ोंटुकड़ों में चल रहे थे कि तभी उन्हें हलका कंपन महसूस हुआ. खिड़की, दरवाजों की आवाज से उन्हें तुरंत समझ में आया कि यह भूकंप का झटका है.

‘‘उठो, उठो…भूकंप आया है,’’ उन्होंने किशोर को झकझोर कर हिलाया. और दोनों हाथ पकड़ कर तेज गति से बाहर भागीं.

उन के जागते रहने के कारण उन्हें झटके का आभास हो गया. झटका लगभग 30 सेकंड का था लेकिन बहुत तेज नहीं था फिर भी लोग चीखते- चिल्लाते बाहर निकल आए थे. कुछ सेकंड बाद  सबकुछ सामान्य था लेकिन दिल की धड़कन अभी भी कनपटियों पर चोट कर रही थी.

जब भूकंप के इस धक्के से वह उबरीं तो अपनी जिजीविषा पर उन्हें अचंभा हुआ. वह तो सोच रही थीं कि उन्हें जीवन से कतई मोह नहीं बचा लेकिन जिस तेजी से वह भागी थीं, वह इस बात को झुठला रही थी. 82 साल की उम्र में निपट अकेली हो कर भी जब वह जीवन का मोह नहीं त्याग सकतीं तो यह किशोर? इस ने अभी देखा ही क्या है, इस की जिंदगी में तो भूकंप का भी यह पहला ही झटका है. उफ, यह क्या करने जा रही थीं वह. किस हक से उस मासूम किशोर को वे मृत्युदान करने जा रही थीं. क्या उम्र और अकेलेपन ने उन की दिमागी हालत को पागलपन की कगार पर ला कर खड़ा कर दिया है?

मालतीजी ने मिचमिची आंखों से किशोर की ओर देखा, वह उन से लिपट गया.

‘‘दादी, मैं अपने घर जाना चाहता हूं, मैं मरना नहीं चाहता…’’ आवाज कांप रही थी.

वह उस के सिर पर प्यार भरी थपकियां दे रही थीं. लोग अब साहस कर के अपनेअपने घरों में जा रहे थे. वह भी उस किशोर को संभाले भीतर आ गईं.

‘‘तुम्हारा नाम क्या है?’’

‘‘उदय जयराज.’’

अभी थोड़ी देर पहले तक उन्हें इस परिचय की जरूरत महसूस नहीं हुई थी. मृत्यु की इच्छा ने अनेक प्रश्नों पर परदा डाल दिया था, पर जिंदगी के सामने तो समस्याएं भी होती हैं और समाधान भी.

ऐसा ही समाधान मालतीजी को भी सूझ गया. उन्होंने उदय को आदेश दिया कि अपने मम्मीपापा को फोन करो और अपने सकुशल होने की सूचना दो.

उदय भय से कांप रहा था, ‘‘नहीं, वे लोग मुझे मारेंगे, सूचना आप दीजिए.’’

उन्होेंने उस से पूछ कर नंबर मिलाया. सुबह के 4 बज रहे थे. आधे घंटे बाद उन के घर के सामने एक कार रुकी. उदय के मम्मीपापा और उस का छोटा भाई बदहवास से भीतर आए. यह जान कर कि वह रेललाइन पर आत्महत्या करने चला था, उन की आंखें फटी की फटी रह गईं. रात तक उन्होेंने उस का इंतजार किया था फिर पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई थी.

उदय को बचाने के लिए उन्होेंने मालतीजी को शतश: धन्यवाद दिया. मां के आंसू तो रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे.

‘‘आप दोनों से मैं एक बात कहना चाहती हूं,’’ मालतीजी ने भावनाओं का सैलाब कुछ थमने के बाद कहा, ‘‘देखिए, हर बच्चे की अपनी बौद्घिक क्षमता होती है. उस से ज्यादा उम्मीद करना ठीक नहीं होता. उस की बुद्घि की दिशा पहचानिए और उसी दिशा में प्रयत्न कीजिए. ऐसा नहीं कि सिर्फ डाक्टर या इंजीनियर बन कर ही इनसान को मंजिल मिलती है. भविष्य का आसमान हर बढ़ते पौधे के लिए खुला है. जरूरत है सिर्फ अच्छी तरह सींचने की.’’

अश्रुपूर्ण आंखों से उस परिवार ने एकएक कर के उन के पैर छू कर उन से विदा ली.

उस पूरी घटना पर वह पुन: विचार करने लगीं तो उन का दिल धक् से रह गया. जब उदय अपने घर वालों को बताएगा कि वह उसे नींद की गोलियां खिलाने वाली थीं, तो क्या गुजरेगी उन पर.

अब तो वह शरम से गड़ गईं. उस मासूम बचपन के साथ वह कितना बड़ा क्रूर मजाक करने जा रही थीं. ऐन वक्त पर उस की बेखबर नींद ने ही उन्हें इस भयंकर पाप से बचा लिया था.

अंतहीन विचारशृंखला चल पड़ी तो वह फोन की घंटी बजने पर ही टूटी. उस ओर उदय की मम्मी थीं. अब क्या होगा. उन के आरोपों का वह क्या कह कर खंडन करेंगी.

‘‘नमस्ते, मांजी,’’ उस तरफ चहकती हुई आवाज थी, ‘‘उदय के लौट आने की खुशी में हम ने कल शाम को एक पार्टी रखी है. आप की वजह से उदय का दूसरा जन्म हुआ है इसलिए आप की गोद में उसे बिठा कर केक काटा जाएगा. आप के आशीर्वाद से वह अपनी जिंदगी नए सिरे से शुरू करेगा. आप के अनुभवों को बांटने के लिए हमारे इष्टमित्र भी लालायित हैं. उदय के पापा आप को लेने के लिए आएंगे. कल शाम 6 बजे तैयार रहिएगा.’’

‘‘लेकिन मैं…’’ उन का गला रुंध गया.

‘‘प्लीज, इनकार मत कीजिएगा. आप को एक और बात के लिए भी धन्यवाद देना है. उदय ने बताया कि आप उसे नींद की गोलियां खिलाने के बहाने अपने घर ले गईं. इस मनोवैज्ञानिक तरीके से समझाने के कारण ही वह आप के साथ आप के घर गया. समय गुजरने के साथ धीरेधीरे उस का उन्माद भी उतर गया. हमारा सौभाग्य कि वह जिद्दी लड़का आप के हाथ पड़ा. यह सिर्फ आप जैसी अनुभवी महिला के ही बस की बात थी. आप के इस एहसान का प्रतिदान हम किसी तरह नहीं दे सकते. बस, इतना ही कह सकते हैं कि अब से आप हमारे परिवार का अभिन्न अंग हैं.’’

उन्हें लगा कि बस, इस से आगे वह नहीं सुन पाएंगी. आंखों में चुभन होने लगी. फिर उन्होंने अपनेआप को समझाया. चाहे उन के मन में कुविचार ही था पर किसी दुर्भावना से प्रेरित तो नहीं था. आखिरकार परिणाम तो सुखद ही रहा न. अब वे पापपुण्य के चक्कर में पड़ कर इस परिवार में विष नहीं घोलेंगी.

इस नए सकारात्मक विचार पर उन्हें बेहद आश्चर्य हुआ. कहां गए वे पश्चात्ताप के स्वर, हर पल स्वयं को कोसते रहना, बीती बातों के सिर्फ बुरे पहलुओं को याद करना.

उदय का ही नहीं जैसे उन का भी पुनर्जन्म हुआ था. रात को उन्होंने खाना खाया. पीने के पानी के बरतन उत्साह से साफ किए. हां, कल सुबह उन्हेें इन की जरूरत पड़ेगी. टीवी चालू किया. पुरानी फिल्मों के गीत चल रहे थे, जो उन्हें भीतर तक गुदगुदा रहे थे. बिस्तर साफ किया. टेबल पर नींद की गोलियां रखी हुई थीं. उन्होंने अत्यंत घृणा से उन गोलियों को देखा और उठा कर कूड़े की टोकरी में फेंक दिया. अब उन्हें इस की जरूरत नहीं थी. उन्हें विश्वास था कि अब उन्हें दुस्वप्नरहित अच्छी नींद आएगी.

Hindi Story Collection : एक रिक्त कोना – क्यों वह शादी के बंधन से आजाद होना चाहती थी?

Hindi Story Collection :  कितने अकेलेपन में जी रहा था सुशांत. मां के लिए बरसों से उस का नन्हा मन तड़पा था. वही तड़प, वही दर्द, वही जमे आंसू आज शुभा के प्यार की हलकी सी आंच से पिघल कर आंखों से बाहर बह निकले. क्या शुभा सुशांत के मन का रिक्त कोना भर सकी? सुशांत मेरे सामने बैठे अपना अतीत बयान कर रहे थे:

‘‘जीवन में कुछ भी तो चाहने से नहीं होता है. इनसान सोचता कुछ है होता कुछ और है. बचपन से ले कर जवानी तक मैं यही सोचता रहा…आज ठीक होगा, कल ठीक होगा मगर कुछ भी ठीक नहीं हुआ. किसी ने मेरी नहीं सुनी…सभी अपनेअपने रास्ते चले गए. मां अपने रास्ते, पिता अपने रास्ते, भाई अपने रास्ते और मैं खड़ा हूं यहां अकेला. सब के रास्तों पर नजर गड़ाए. कोई पीछे मुड़ कर देखता ही नहीं. मैं क्या करूं?’’

वास्तव में कल उन का कहां था, कल तो उन के पिता का था. उन की मां का था, वैसे कल उस के पिता का भी कहां था, कल तो था उस की दादी का.

विधवा दादी की मां से कभी नहीं बनी और पिता ने मां को तलाक दे दिया. जिस दादी ने अकेले रह जाने पर पिता को पाला था क्या बुढ़ापे में मां से हाथ छुड़ा लेते?

आज उन का घर श्मशान हो गया. घर में सिर्फ रात गुजारने आते हैं वह और उन के पिता, बस.

‘‘मेरा तो घर जाने का मन ही नहीं होता, कोई बोलने वाला नहीं. पानी पीना चाहो तो खुद पिओ. चाय को जी चाहे तो रसोई में जा कर खुद बना लो. साथ कुछ खाना चाहो तो बिस्कुट का पैकेट, नमकीन का पैकेट, कोई चिप्स कोई दाल, भुजिया खा लो.

‘‘मेरे दोस्तों के घर जाओ तो सामने उन की मां हाथ में गरमगरम चाय के साथ खाने को कुछ न कुछ जरूर ले कर चली आती हैं. किसी की मां को देखता हूं तो गलती से अपनी मां की याद आने लगती है.’’

‘‘गलती से क्यों? मां को याद करना क्या गलत है?’’

‘‘गलत ही होगा. ठीक होता तो हम दोनों भाई कभी तो पापा से पूछते कि हमारी मां कहां है. मुझे तो मां की सूरत भी ठीक से याद नहीं है, कैसी थीं वह…कैसी सूरत थी. मन का कोना सदा से रिक्त है… क्या मुझे यह जानने का अधिकार नहीं कि मेरी मां कैसी थीं जिन के शरीर का मैं एक हिस्सा हूं?
‘‘कितनी मजबूर हो गई होंगी मां जब उन्होंने घर छोड़ा होगा…दादी और पापा ने कोई रास्ता ही नहीं छोड़ा होगा उन के लिए वरना 2-2 बेटों को यों छोड़ कर कभी नहीं जातीं.’’

‘‘आप की भाभी भी तो हैं. उन्होंने घर क्यों छोड़ दिया?’’

‘‘वह भी साथ नहीं रहना चाहती थीं. उन का दम घुटता था हमारे साथ. वह आजाद रहना चाहती थीं इसलिए शादी के कुछ समय बाद ही अलग हो गईं… कभीकभी तो मुझे लगता है कि मेरा घर ही शापित है. शायद मेरी मां ने ही जातेजाते श्राप दिया होगा.’’

‘‘नहीं, कोई मां अपनी संतान को श्राप नहीं देती.’’

‘‘आप कैसे कह सकती हैं?’’

‘‘क्योंकि मेरे पेशे में मनुष्य की मानसिकता का गहन अध्ययन कराया जाता है. बेटा मां का गला काट सकता है लेकिन मां मरती मर जाए, बच्चे को कभी श्राप नहीं देती. यह अलग बात है कि बेटा बहुत बुरा हो तो कोई दुआ भी देने को उस के हाथ न उठें.’’

‘‘मैं नहीं मानता. रोज अखबारों में आप पढ़ती नहीं कि आजकल मां भी मां कहां रह गई हैं.’’

‘‘आप खूनी लोगों की बात छोड़ दीजिए न, जो लोग अपराधी स्वभाव के होते हैं वे तो बस अपराधी होते हैं. वे न मां होते हैं न पिता होते हैं. शराफत के दायरे से बाहर के लोग हमारे दायरे में नहीं आते. हमारा दायरा सामान्य है, हम आम लोग हैं. हमारी अपेक्षाएं, हमारी इच्छाएं साधारण हैं.’’

बेहद गौर से वह मेरा चेहरा पढ़ते रहे. कुछ चुभ सा गया. जब कुछ अच्छा समझाती हूं तो कुछ रुक सा जाते हैं. उन के भाव, उन के चेहरे की रेखाएं फैलती सी लगती हैं मानो कुछ ऐसा सुना जो सुनना चाहते थे. आंखों में आंसू आ रहे थे सुशांत की.

मुझे यह सोच कर बहुत तकलीफ होती है कि मेरी मां जिंदा हैं और मेरे पास नहीं हैं. वह अब किसी और की पत्नी हैं. मैं मिलना चाह कर भी उन से नहीं मिल सकता. पापा से चोरीचोरी मैं ने और भाई ने उन्हें तलाश किया था. हम दोनों मां के घर तक भी पहुंच गए थे लेकिन मां हो कर भी उन्होंने हमें लौटा दिया था… सामने पा कर भी उन्होंने हमें छुआ तक नहीं था, और आप कहती हैं कि मां मरती मर जाए पर अपनी संतान को…’’

‘‘अच्छा ही तो किया आप की मां ने. बेचारी, अपने नए परिवार के सामने आप को गले लगा लेतीं तो क्या अपने परिवार के सामने एक प्रश्नचिह्न न खड़ा कर देतीं. कौन जाने आप के पापा की तरह उन्होंने भी इस विषय को पूरी तरह भुला दिया हो. क्या आप चाहते हैं कि वह एक बार फिर से उजड़ जाएं?’’

सुशांत अवाक् मेरा मुंह देखते रह गए थे.

‘‘आप बचपना छोड़ दीजिए. जो छूट गया उसे जाने दीजिए. कम से कम आप तो अपनी मां के साथ अन्याय न कीजिए.’’

मेरी डांट सुन कर सुशांत की आंखों में उमड़ता नमकीन पानी वहीं रुक गया था.

‘‘इनसान के जीवन में सदा वही नहीं होता जो होना चाहिए. याद रखिए, जीवन में मात्र 10 प्रतिशत ऐसा होता है जो संयोग द्वारा निर्धारित किया जाता है, बाकी 90 प्रतिशत तो वही होता है जिस का निर्धारण व्यक्ति स्वयं करता है. अपना कल्याण या अपना सर्वनाश व्यक्ति अपने ही अच्छे या बुरे फैसले द्वारा करता है.

‘‘आप की मां ने समझदारी की जो आप को पहचाना नहीं. उन्हें अपना घर बचाना चाहिए जो उन के पास है…आप को वह गले क्यों लगातीं जबकि आप उन के पास हैं ही नहीं.

‘‘देखिए, आप अपनी मां का पीछा छोड़ दीजिए. यही मान लीजिए कि वह इस संसार में ही नहीं हैं.’’

‘‘कैसे मान लूं, जब मैं ने उन का दाहसंस्कार किया ही नहीं.’’

‘‘आप के पापा ने तो तलाक दे कर रिश्ते का दाहसंस्कार कर दिया था न… फिर अब आप क्यों उस राख को चौराहे का मजाक बनाना चाहते हैं? आप समझते क्यों नहीं कि जो भी आप कर रहे हैं उस से किसी का भी भला होने वाला नहीं है.’’

अपनी जबान की तल्खी का अंदाज मुझे तब हुआ जब सुशांत बिना कुछ कहे उठ कर चले गए. जातेजाते उन्होंने यह भी नहीं बताया कि अब कब मिलेंगे वह. शायद अब कभी नहीं मिलेंगे.

सुशांत पर तरस आ रहा था मुझे क्योंकि उन से मेरे रिश्ते की बात चल रही थी. वह मुझ से मिलने मेरे क्लीनिक में आए थे. अखबार में ही उन का विज्ञापन पढ़ा था मेरे पिताजी ने.

‘‘सुशांत तुम्हें कैसा लगा?’’ मेरे पिता ने मुझ से पूछा.

‘‘बिलकुल वैसा ही जैसा कि एक टूटे परिवार का बच्चा होता है.’’

पिताजी थोड़ी देर तक मेरा चेहरा पढ़ते रहे फिर कहने लगे, ‘‘सोच रहा हूं कि बात आगे बढ़ाऊं या नहीं.’’

पिताजी मेरी सुरक्षा को ले कर परेशान थे…बिलकुल वैसे जैसे उन्हें होना चाहिए था. सुशांत के पिता मेरे पिता को पसंद थे. संयोग से दोनों एक ही विभाग में कार्य करते थे उसी नाते सुशांत 1-2 बार मुझे मेरे क्लीनिक में ही मिलने चले आए थे और अपना रिक्त कोना दिखा बैठे थे.

मैं सुशांत को मात्र एक मरीज मान कर भूल सी गई थी. उस दिन मरीज कम थे सो घर जल्दी आ गई. फुरसत थी और पिताजी भी आने वाले थे इसलिए सोचा, क्यों न आज चाय के साथ गरमागरम पकौडि़यां और सूजी का हलवा बना लूं. 5 बजे बाहर का दरवाजा खुला और सामने सुशांत को पा कर मैं स्तब्ध रह गई.

‘‘आज आप क्लीनिक से जल्दी आ गईं?’’ दरवाजे पर खड़े हो सुशांत बोले, ‘‘आप के पिताजी मेरे पिताजी के पास गए हैं और मैं उन की इजाजत से ही घर आया हूं…कुछ बुरा तो नहीं किया?’’

‘‘जी,’’ मैं कुछ हैरान सी इतना ही कह पाई थी कि चेहरे पर नारी सुलभ संकोच तैर आया था.

अंदर आने के मेरे आग्रह पर सुशांत दो कदम ही आगे बढे़ थे कि फिर कुछ सोच कर वहीं रुक गए जहां खड़े थे.

‘‘आप के घर में घर जैसी खुशबू है, प्यारीप्यारी सी, मीठीमीठी सी जो मेरे घर में कभी नहीं होती है.’’

‘‘आप उस दिन मेरी बातें सुन कर नाराज हो गए होंगे यही सोच कर मैं ने भी फोन नहीं किया,’’ अपनी सफाई में मुझे कुछ तो कहना था न.

‘‘नहीं…नाराजगी कैसी. आप ने तो दिशा दी है मुझे…मेरी भटकन को एक ठहराव दिया है…आप ने अच्छे से समझा दिया वरना मैं तो बस भटकता ही रहता न…चलिए, छोडि़ए उन बातों को. मैं सीधा आफिस से आ रहा हूं, कुछ खाने को मिलेगा.’’

पता नहीं क्यों, मन भर आया मेरा. एक लंबाचौड़ा पुरुष जो हर महीने लगभग 30 हजार रुपए कमाता है, जिस का अपना घर है, बेघर सा लगता है, मानो सदियों से लावारिस हो.

पापा का और मेरा गरमागरम नाश्ता मेज पर रखा था. अपने दोस्तों के घर जा कर उन की मां के हाथों में छिपी ममता को तरसी आंखों से देखने वाला पुरुष मुझ में भी शायद वही सब तलाश रहा था.

‘‘आइए, बैठिए, मैं आप के लिए चाय लाती हूं. आप पहले हाथमुंह धोना चाहेंगे…मैं आप के लिए तौलिया लाऊं?’’

मैं हतप्रभ सी थी. क्या कहूं और क्या न कहूं. बालक की तरह असहाय से लग रहे थे सुशांत मुझे. मैं ने तौलिया पकड़ा दिया तब एकटक निहारते से लगे.

मैं ने नाश्ता प्लेट में सजा कर सामने रखा. खाया नहीं बस, देखते रहे. मात्र चम्मच चलाते रहे प्लेट में.

‘‘आप लीजिए न,’’ मैं ने खाने का आग्रह किया.

वह मेरी ओर देख कर कहने लगे, ‘‘कल एक डिपार्टमेंटल स्टोर में मेरी मां मिल गईं. वह अकेली थीं इसलिए उन्होंने मुझे पुकार लिया. उन्होंने बड़े प्यार से मेरा हाथ पकड़ लिया था लेकिन मैं ने अपना हाथ छुड़ा लिया.’’

सुशांत की बातें सुन कर मेरी तो सांस रुक सी गई. बरसों बाद मां का स्पर्श कैसा सुखद लगा होगा सुशांत को.

सहसा सुशांत दोनों हाथों में चेहरा छिपा कर बच्चे की तरह रो पड़े. मैं देर तक उन्हें देखती रही. फिर धीरे से सुशांत के कंधे पर हाथ रखा. सहलाती भी रही. काफी समय लग गया उन्हें सहज होने में.

‘‘मैं ने ठीक किया ना?’’ मेरा हाथ पकड़ कर सुशांत बोले, ‘‘आप ने कहा था न कि मुझे अपनी मां को जीने देना चाहिए इसलिए मैं अपना हाथ खींच कर चला आया.’’

क्या कहती मैं? रो पड़ी थी मैं भी. सुशांत मेरा हाथ पकड़े रो रहे थे और मैं उन की पीड़ा, उन की मजबूरी देख कर रो रही थी. हम दोनों ही रो रहे थे. कोई रिश्ता नहीं था हम में फिर भी हम पास बैठे एकदूसरे की पीड़ा को जी रहे थे. सहसा मेरे सिर पर सुशांत का हाथ आया और थपक दिया.

‘‘तुम बहुत अच्छी हो. जिस दिन से तुम से मिला हूं ऐसा लगता है कोई अपना मिल गया है. 10 दिनों के लिए शहर से बाहर गया था इसलिए मिलने नहीं आ पाया. मैं टूटाफूटा इनसान हूं…स्वीकार कर जोड़ना चाहोगी…मेरे घर को घर बना सकोगी? बस, मैं शांति व सुकून से जीना चाहता हूं. क्या तुम भी मेरे साथ जीना चाहोगी?’’

डबडबाई आंखों से मुझे देख रहे थे सुशांत. एक रिश्ते की डोर को तोड़ कर दुखी भी थे और आहत भी. मुझ में सुशांत क्याक्या तलाश रहे होंगे यह मैं भलीभांति महसूस कर सकती थी. अनायास ही मेरा हाथ उठा और दूसरे ही पल सुशांत मेरी बांहों में समाए फिर उसी पीड़ा में बह गए जिसे मां से हाथ छुड़ाते समय जिया था.

‘‘मैं अपनी मां से हाथ छुड़ा कर चला आया? मैं ने अच्छा किया न…शुभा मैं ने अच्छा किया न?’’ वह बारबार पूछ रहे थे.

‘‘हां, आप ने बहुत अच्छा किया. अब वह भी पीछे मुड़ कर देखने से बच जाएंगी…बहुत अच्छा किया आप ने.’’

एक तड़पतेबिलखते इनसान को किसी तरह संभाला मैं ने. तनिक चेते तब खुद ही अपने को मुझ से अलग कर लिया.

शीशे की तरह पारदर्शी सुशांत का चरित्र मेरे सामने था. कैसे एक साफसुथरे सचरित्र इनसान को यों ही अपने जीवन से चला जाने देती. इसलिए मैं ने सुशांत की बांह पकड़ ली थी.

साड़ी के पल्लू से आंखों को पोंछने का प्रयास किया तो सहसा सुशांत ने मेरा हाथ पकड़ लिया और देर तक मेरा चेहरा निहारते रहे. रोतेरोते मुसकराने लगे. समीप आ कर धीरे से गरदन झुकाई और मेरे ललाट पर एक प्रगाढ़ चुंबन अंकित कर दिया. फिर अपने ही हाथों से अपने आंसू पोंछ लिए.

अपने लिए मैं ने सुशांत को चुन लिया. उन्हें भावनात्मक सहारा दे पाऊंगी यह विश्वास है मुझे. लेकिन उन के मन का वह रिक्त स्थान कभी भर पाऊंगी ऐसा विश्वास नहीं क्योंकि संतान के मन में मां का स्थान तो सदा सुरक्षित होता है न, जिसे मां के सिवा कोई नहीं भर सकता.

Hindi Moral Tales : मी टाइम

Hindi Moral Tales : द वाई टाइम से ले लेना. खाना ठीक से खाना. फोन औफ मत करना, अपने पास ही साइलैंट मोड पर रख कर अच्छी तरह सोना,’’ अपने टूर के लिए बैग पैक करते हुए अनंत के उपदेश जारी थे और मैं मन ही मन इन 2 दिनों के अपने प्रोग्राम सोच रही थी जो मैं ने अनंत के टूर की डेट पता चलते ही अपनी फ्रैंड्स के साथ बना लिए थे. अनंत अकसर वर्क फ्रौम होम ही करते हैं.

इस बार बड़े दिनों बाद टूर पर जा रहे हैं और मेरी तो छोड़ो, मेरी फ्रैंड्स विभा, गौतमी और मिताली भी अनंत के जाने पर खुश हो रही हैं कि चलो, शुभा अब फ्री तो हुई. इन तीनों के पति औफिस जाते हैं. हमारे बच्चों युग और तनिका की तरह इन के बच्चे भी बाहर हैं. पति दिनभर औफिस तो अब इन का अलग ही रूटीन रहता है.

अनंत घर पर रहते हैं तो मेरा रूटीन अनंत के आसपास घूमता है और वैसे भी अनंत की आदत है कि उन्हें काम करते हुए घर में मेरी उपस्थिति अच्छी लगती है. चाहे दिनभर मीटिंग में व्यस्त रहें, आपस में पूरा दिन बात भी न हो, पर घर में मेरा होना उन्हें अच्छा लगता है.

हां, तो अनंत की सुबह फ्लाइट है, दिल्ली जा रहे हैं. मुंबई से दिल्ली पहुंचने में ज्यादा वक्त नहीं लगता है पर फिर भी इतने निर्देश दिए जा रहे हैं कि पूछिए मत. एक बड़ी टीम उन के अंडर काम करती है तो मैं कई बार कहती भी हूं कि भई मैं तुम्हारी जूनियर नहीं हूं. सुन कर हंस देते हैं. इस बात पर चिढ़ते नहीं हैं. वैसे भी इतने सालों बाद पत्नी की किसी बात पर कोई समझदार पति चिढ़ कर पंगा नहीं लेता.

पैकिंग कर के अनंत ने कहा, ‘‘चलो, फटाफट डिनर करते हैं, जल्दी सोऊंगा, सुबह 5 बजे उठना है.’’

‘‘हां, खाना लगाती हूं.’’

खाना खा ही रहे थे कि तनिका ने फैमिली गु्रप पर वीडियो कौल किया. युग ने भी जौइन किया. तनिका बैंगलुरु और युग देहरादून में पोस्टेड हैं. हलकेफुलके हंसीमजाक के साथ कौल चल रही थी.

तनिका ने मुझे छेड़ा, ‘‘मम्मी, कल से अपने मी टाइम के लिए ऐक्साइटेड हो?’’

बेटियां मां को कितना जानती हैं न. मुझे हंसी आ गई.

युग ने अपनी तरह से मुझे छेड़ा, ‘‘पापा, क्यों जा रहे हो? मम्मी बहुत ऐंजौय करने वाली हैं. उन के चेहरे की चमक देखो. मम्मी, थोड़ा तो उदास हो कर दिखा दो.’’

मैं ने खुल कर ठहाका लगाया. कौल पर मुझे मजा आया, बच्चे दूर हों तो फैमिली कौल्स अच्छी लगती ही हैं. रोज के काम मैं ने जरा जल्दी निबटाए, सुबह जल्दी उठना था. अनंत कितने बजे भी निकलें, मैं उन के लिए हमेशा नाश्ता बनाती हूं. वे कितना भी कहें, एअरपोर्ट पर खा लूंगा, परेशान मत हो पर मुझे पता है कि एअरपोर्ट पर उन्हें कुछ पसंद नहीं आता. सोने लेटे तो मैं आदतानुसार उन की बांह पर सिर रख कर लेट गई, कितना सुकून मिलता है अनंत की बांहों में. फिर सिर उन के सीने पर टिका दिया तो उन्होंने भी सिर उठा कर मेरे बालों को चूम लिया. बोले, ‘‘मिस करोगी?’’

अब वह पत्नी ही क्या जो मौका मिलते ही उलाहने न दे, मैं ने कहा, ‘‘सारा दिन लैपटौप पर ही तो रहते हो, बीचबीच में ही तो अपने काम से रूम से निकलते हो. सोच लूंगी कि अंदर अपना काम कर रहे हो, तुम कौन सा सारा दिन मेरे साथ वक्त बिताते हो.’’

‘‘बाप रे इतनी शिकायतें,’’ कहते हुए अनंत ने मुझे कस कर अपने सीने से लगा लिया. हंस कर पूछा, ‘‘अच्छा, बताओ इतना काम किस के लिए करता हूं?’’

बस, यहीं, यहीं एक पत्नी को अकसर जवाब नहीं सूझता. मुझे भी नहीं सूझा. मैं ने कहा, ‘‘चलो, अब सो जाओ, सुबह जल्दी उठना है.’’

सुबह नाश्ता करते हुए अनंत को मैं ने ध्यान से देखा, कितने अच्छे लगते हैं अनंत. 50 के हो रहे हैं, पर लगते नहीं. ब्लैक टीशर्ट और जीन्स कितनी अच्छी लग रही है उन पर. बाल पहले से थोड़े हलके हो गए हैं पर क्या फर्क पड़ता है. यह सब तो उम्र के साथ होता ही है. मेरे बाल भी अब पहले जैसे कहां रहे.

डाइनिंगटेबल पर मैं अनंत को निहार ही रही थी कि उन्होंने हंसते हुए मुझे देखा, फिर कहा, ‘‘नजर लगाने का इरादा है?’’

मैं ने उठ कर उन के गाल को चूम लिया.

‘‘अरे वाह, जब जा रहा हूं तो प्यार कर रही हो. मी टाइम सोच कर मुझ पर प्यार आया है न?’’

मैं हंस दी. अनंत चले गए. सचमुच थोड़ा टाइम अपने साथ गुजारने का मन था, अपनी मरजी से, अपने मूड से हर काम करने का मन था. 6 बज रहे थे. सोचा, 1 कप चाय पी कर

मैं भी सैर पर चली जाती हूं, खूब लंबी सैर कर के आऊंगी. आज तो जल्दी आने का भी प्रैशर नहीं. हर काम आरामआराम से करूंगी. सोचतीसोचती मैं ड्रैसिंगटेबल के सामने खड़ी हो गई. खुद को ध्यान से देखा. अनंत काफी अच्छे लगते हैं. मैं भी ठीकठाक दिखती हूं. अपनी जोड़ी बढि़या है.

मैं इस समय नाइट गाउन में थी. यह सैक्सी गाउन अनंत की ही पसंद का है. स्लीवलैस, गुलाबी रंग, पारदर्शी. मैं इस में अच्छी लग रही थी. अपनी फिगर पर मेरी पूरी नजर रहती है, बिगड़ने न पाए. चाय बना कर मैं ने अपना मोबाइल फोन उठाया. व्हाट्सऐप खोलते ही इतनी जोर से हंसी आई कि चाय छलकतीछलकती बची. शैतान सहेलियों ने एक बार फिर चारों के गु्रप का नाम बदल दिया था. गु्रप के नाम बदलते रहते हैं. इस बार नाम रखा गया था शुभा का मी टाइम और अनंत का भी एक मैसेज था- आई लव यू. अभी तो अनंत कैब में ही थे, फिर मैं ने भी लव यू टू लिख कर एक किस वाली इमोजी भेज दी. इमोजी आजकल अपना काम अच्छा कर रही हैं. कम शब्दों में काम चल जाता है, फीलिंग्स भी शेयर हो जाती हैं.

आज आराम से सैर की. आते हुए गरमगरम डोसे बनाने वाले उसी ठेले वाले को देखा जिस पर इस समय खूब भीड़ रहती है. रोज मन मारती हुई निकल जाती हूं कि इतनी भीड़ में कौन खड़ा हो कर पार्सल ले और अनंत जिम जाते हैं. वे इस रास्ते पर आते नहीं. आज सोचा, पार्सल की क्या जरूरत है, स्लिंग बैग में पैसे रहते ही हैं, आराम से अपनी बारी का इंतजार करने लगी.

डोसे वाले ने पूछा, ‘‘मैडम, पार्सल?’’

मैं ने कहा, ‘‘नहीं, यहीं.’’

आराम से 2 डोसे खाए, मजा आ गया. मैं 8 बजे तक घूमतीटहलती वापस घर आई. वर्षा बाई 10 तक आती है. घर आते ही लगा, अनंत सोफे पर बैठ कर अपने फोन में बिजी होंगे, मैं फिर ताना मारूंगी कि ‘बस फोन ले कर बैठे रहना. वे सफाई देंगे कि अरे, औफिस का काम भी होता है.

मैं ने सोचा, थोड़ा घर संभाल लेती हूं.

अनंत का टौवेल अभी तक चेयर पर रखा था, इसे धो देती हूं, यों ही उसे सूंघ लिया. अनंत की खुशबू कितनी अच्छी लगती है. उन का रूम ठीक कर देती हूं, बिखरा हुआ सामान इधरउधर करती रही. लंच पर तो मी टाइम गु्रप बाहर जा ही रहा था. फैमिली गु्रप पर सब एकदूसरे से टच में थे ही. अनंत के रूम में जितनी देर रही, उन का ध्यान आता रहा. कितनी मेहनत करते हैं. प्रोग्राम था कि पहले लंच के लिए एक शानदार रेस्तरां जाया जाएगा. हम

चारों बोरीवली में एक ही सोसाइटी में रहती हैं, यहां एक ‘साउथ बांबे’ नाम से साउथ इंडियन खाने के लिए फेमस होटल है जहां हम कई बार आते हैं. कार विभा ही निकालती है. इस एरिया के ट्रैफिक में कार चलाने की पेशैंस उसी में है. यह होटल बहुत चलता है. दूर से ही यहां के सांभर की खुशबू मन खुश कर देती है. दोसे की इतनी वैरायटी है कि क्या कहा जाए. यहां पहले से बुकिंग की हुई थी वरना यहां लंबी लाइन होती है. कार पार्क कर के हम अंदर जाने के लिए बड़ी.

गौतमी ने कहा, ‘‘यार, कितना अच्छा लगता है मी टाइम. कितनी मुश्किल से शुभा को यह टाइम मिलता है. हमारा क्या है, हमारे वाले तो औफिस निकल जाते हैं, बेचारी यही अनंत का यह, अनंत का वह करती रह जाती है. यार. अनंत को बोल वर्क फ्रौम है तो इस का मतलब यह नहीं कि तू घर की चौकीदार है.

अब तक मुझे समझ आ गया था कि मेरी खिंचाई हो रही है. मैं ने कहा, ‘‘बकवास बंद करो. जल्दी चलो, कितनी अच्छी खुशबू आ रही है.’’

हम चारों अपनी रिजर्व्ड टेबल पर बैठ गए. मुझे इन का मेनू देख कर हंसी आई, ‘‘यार, ये डोसे इतनी तरह से कैसे बना लेते हैं? बताओ. पावभाजी डोसा? चीज डोसा? वैसे मैं ने तो आज सुबह भी ठेले वाला डोसा खाया है. मेरा मी टाइम सुबह से स्टार्ट हो चुका है. लग रहा है, क्याक्या न कर डालूं.’’

मिताली ने एक ठंडी सांस ली, ‘‘देखा, ऐसा भी नहीं कि हमारे पति हमें कहीं आनेजाने से टोकते हैं या मना करते हैं पर कहीं जाने के बारे में बात करो तो तुरंत दुमछल्ले की तरह साथ में टंग जाते हैं यार. उन का प्यार भारी पड़ जाता है न कभीकभी? मैं कई बार सुधीश से कहती हूं कि तुम बिजी हो तो मैं चली जाती हूं. बंदा तुरंत कहता है कि अरे, मैं हूं न. मेरे मी टाइम की ऐसीतैसी हो जाती है.’’

हम खुल कर हंसे तो विभा ने कहा, ‘‘अब यही देख ले. पति के साथ आते हैं तो ऐसे ठहाके लगते हैं क्या?’’

मैं ने कहा, ‘‘चल पहले और्डर कर दें?’’

‘हां’ कहतेकहते विभा ने यों ही इधरउधर देखा और जोर से किसी को ‘हाय’ किया. उस के चेहरे की चमक बता रही थी कि उस ने किसी खास दोस्त को देखा है. हम ने उस की नजरों का पीछा किया. पास की ही टेबल पर 3 हमारी ही उम्र के पुरुष बैठे थे. उन में से एक उठ कर आया, ‘‘विभा, क्या हाल हैं? यहां कैसे?’’

‘‘तुम अभी भी उतने ही इंटैलिजैंट हो जैसे कालेज में थे… अरे, होटल में कोई क्या करने आएगा?’’

वह जो भी था जोर से हंसा, ‘‘तुम्हारा सैंस औफ ह्यूमर अभी भी वैसा ही है जैसा कालेज

में था.’’

फिर विभा ने हम तीनों से उस का परिचय करवाया, ‘‘यह सुमित है. हम साथ ही पढ़े हैं, यह भी यहीं मुंबई में ही रहता है.’’

और फिर सुमित ने अपने दोनों साथियों को पास आने का इशारा किया, ‘‘ये मेरे कलीग्स हैं, अरविंद और संजय.’’

हम सब ने एकदूसरे से हाथ मिलाया, परिचय अच्छी तरह से लियादिया गया. विभा काफी बहिर्मुखी है. उसे सब से मिलनेमिलाने में बड़ा मजा आता है. उस ने कहा, ‘‘सुमित, चलो साथ ही बैठ जाते हैं. लंच करते हुए बातें भी हो जाएंगी. बहुत दिन बाद मिले हैं.’’

उन 3 अजनबियों को क्या दिक्कत होनी थी जब सामने से अच्छी कंपनी मिल रही हो, अपनी कंपनी को इसलिए अच्छा कह रही हूं कि मुझे पता है कि हम ठीकठाक दिख रही थीं और हम बातें करने वाला तो ढूंढ़ते ही हैं. फैमिली के बिना यह एक नया बदलाव ठीक लग रहा था.

विभा ने और बड़ा मजाक कर दिया, ‘‘प्लीज फोन कोई मत निकालना. आज शुभा का मी टाइम डे है.’’

और हमारी बातें सुनसुन कर तीनों बहुत हंसे. लंच बड़ा भारी और्डर किया गया. 7 लोग, सब की अलगअलग पसंद. मजा आया.

संजय ने कहा, ‘‘शुभा, तुम्हारी बातें सुन कर लग रहा है कि हमारी पत्नियां भी हमारे बाहर जाने पर ऐसे ही खुश होती होंगी क्या?’’

मिताली ने जवाब दिया, ‘‘और क्या. यह बात लिख कर ले लो. हर पत्नी पति और बच्चों से थोड़ी देर तो छुट्टी चाहती ही है. तुम लोग हमें बहुत नचाते हो.’’

अरविंद ने कहा, ‘‘तुम लोग हमें आज क्यों मिल गईं? हमें तो लग रहा है जैसे हम अपनी पत्नी के साथ रोज रह कर कोई गुनाह कर रहे हैं.’’

मुझे इस बात पर बहुत हंसी आई, फिर  अरविंद से पूछ लिया, ‘‘वैसे आप लोग यहां कैसे? यह तो औफिस टाइम है न?’’

‘‘हम तीनों की पत्नियां भी मायके गई हैं. कल आएंगी. वैसे आप लोग कहां से हैं?आप लोगों की हिंदी तो साफ लग रही है, यूपी से हैं?’’

मैं हंसी, ‘‘अरे वाह, हां मैं नैनी इलाहाबाद से हूं…’’

‘‘प्रयागराज?’’ उस ने मेरी दुखती नस पर हाथ रख दिया था.

मैं ने कहा, ‘‘मैं तो इलाहाबाद में जन्मी, पलीबढ़ी हूं, वहीं लाइफ के 22 साल बीते. हमारे दिल में तो इलाहाबाद बसता है. प्रयागराज बसतेबसते बसेगा.’’

उस ने गहरी सांस ली, ‘‘हां, यह तो सही बात कही. मैं भी नैनी का हूं. रमेश कपड़े वाले हैं न, उन का छोटा बेटा हूं मैं.’’

‘‘क्या? आप की दुकान पर तो मैं कई बार अपने बिट्टू भैया के साथ जाती थी.’’

‘‘क्या? आप बिट्टू की बहन हो?’’

‘‘हां.’’

‘‘लो भाई, आज तो मजा आ गया.’’

अब उसे क्या बताती कभी उस का भाई क्रश था मेरा. मुझे बहुत मजा आया. मैं इस इत्तफाक पर खूब हंसी. सब ही हंसे.

हमारा और्डर आ चुका था. हम ने एकदूसरे के और्डर को टेस्ट भी किया. अब तक टेबल्स साथ जुड़वा ली गई थीं. आज तो जैसे इत्तफाकों का दिन था. खाना खाते पता चला कि संजय और गौतमी की बेटियां बैंगलुरु में एक ही कालेज में पढ़ रही हैं. बातें करने के लिए इतना कुछ था कि खाना खत्म हो गया, बातें खत्म नहीं हुईं. हमें यहां 2 घंटे हो गए थे. अब 3 बज रहे थे. विभा ने जोमैटो से बुकिंग की थी तो उसे डिस्काउंट मिला था. इसलिए बिल उस ने दिया. बाकी सब ने शेयर कर लिया. हम बाहर निकले तब तक एक अच्छी दोस्ती की बौंडिंग हम सब के बीच हो चुकी थी.

विभा ने कहा, ‘‘तुम लोग घर जा रहे हो?’’

‘‘नहीं, लंच टाइम में औफिस से उठ कर आ गए थे. अब औफिस निकलते हैं.’’

‘‘ऐसी क्या नौकरी कर रहे हो जिस में इतनी देर लंच करने का टाइम मिल गया?’’

वे तीनों जोर से हंसे, ‘‘आज बौस नहीं

आए हैं.’’

गौतमी ने कहा, ‘‘थोड़ा प्रोग्राम और बना

लें फिर?’’

अरविंद ने कहा, ‘‘क्या? वैसे हम फ्री हैं.’’

‘‘आनंद हौल में एक पेंटिंग की प्रदर्शनी लगी है, वहीं एक प्ले भी चल रहा है, बर्फ. थ्रिलर है. चलो, बढि़या दिन बिताएं. तभी विभा का मी टाइम का सपना पूरा होगा. क्यों विभा?’’

मैं मचल गई, मेरे मुंह से निकल गया, ‘‘चलो न सब. कितना मजा आएगा. कितना नया दिन बीतेगा.’’

सब तैयार. मैं खुश. और मुझे आज क्या चाहिए था.

वे तीनों सुमित की कार में, हम चारों पहले की तरह विभा की कार से आनंद हौल पहुंचे.

पहली फ्लोर पर प्रदर्शनी थी, दूसरी फ्लोर पर प्ले. तय हुआ कि पुरुष दोनों का टिकट्स ले लेंगे, जिस की बाद में हम पेमैंट कर देंगी क्योंकि

लाइन अभी लंबी थी. हम चारों वौशरूम गईं.

हम ने अपने बाल ठीक किए, मैं अचानक अपने बैग से अपनी लिपस्टिक निकाल कर दोबारा लगाने लगी.

गौतमी को मौका मिल गया, ‘‘क्यों विभा, पहले कभी शुभा को यों दोबारा लिपस्टिक लगाते, बाल ठीक करते, अपनेआप को चारों तरफ से निहारते देखा है क्या?’’

‘‘न भई, आज कुछ कालेजगर्ल वाली हरकत कर रही है यह तो? नैनी वाले से कुछ पुराना याराना तो नहीं है न?’’

‘‘तुम सब बहुत बेकार हो. जरा सा बाल क्या ठीक कर लिए, पीछे पड़ गईं.’’

‘‘फिर लिपस्टिक क्यों ठीक की?’’

मैं हंस दी, ‘‘देखो यार, यह तो मानना

पड़ेगा कि आज कुछ अलग दिन जा रहा है. ऐंजौय करने दो.’’

‘‘वह नैनी वाला तुम्हें देख तो रहा था.’’

‘‘हां, तो आंखें हैं उस की, देखेगा ही.’’

थोड़ी बकवास कर के एकदूसरे को छेड़ कर हम पेंटिंग की प्रदर्शनी की तरफ चल दिए. हम सभी यहां पहली बार आए थे. वहां जा कर हमें समझ आ गया कि बस मुझे और मिताली को ही पेंटिंग्स में रुचि है बाकी सब टाइम पास ही कर रहे हैं. किसी को मौडर्न पेंटिंग समझ नहीं आ रही थी. हम जल्दी वहां से निकल लिए.

सुमित ने पूछा, ‘‘प्ले का टाइम हो रहा है, 1-1 कप चाय या काफी पी लें?’’

इस में ज्यादा सोचने की जरूरत थी ही नहीं. सब को चाय पीनी थी. एक स्टौल पर जा कर सब ने चाय ली और कोने में खड़े हो कर चाय पीने लगे. प्ले के लिए भीड़ बढ़ने लगी थी. मैं और अनंत अकसर प्ले देखते हैं. मुंबई में कई लोगों को प्ले देखने का एक नशा सा है. मैं भी उन  में से एक हूं. कलाकारों को सामने अभिनय करते देखना वाकई बहुत रोमांचक और सुखद अनुभव होता है.

चाय पी कर हम सभी थिएटर में अपनीअपनी सीट पर जा कर बैठ गए. 7 बज

रहे थे, प्ले 9 बजे खत्म होने वाला था. थिएटर देखने वाली जनता भी कुछ अलग होती है. थ्रिलर प्ले में 3 ही कलाकार थे. हमारे साथी पुरुष पहली बार कोई प्ले देख रहे थे. वे ज्यादा उत्साहित थे. सौरभ की ऐक्टिंग तो फिल्मों में देख ही चुके हैं, प्ले में इतना सन्नाटा था कि सूई भी गिरे तो आवाज हो. दम साधे सब ने शो देखा. प्ले इतना बढि़या था कि खत्म होने के बाद भी देर तक तालियां बजती रहीं.

पुरुष साथी तो इतने जोर से तालियां

बजा रहे थे कि विभा ने धीरे से टोका, ‘‘बस

कर दो भाई.’’

एक अच्छा अनुभव ले कर हम सातों बाहर निकल आए, अब फोन नंबर लिएदिए गए.

मिताली ने कहा, ‘‘फिर मिलते हैं, आज का दिन याद रहेगा.’’

संजय ने पूछ लिया, ‘‘फिर मिलें?’’

गौतमी ने कहा, ‘‘हां, कभी ऐसे ही मिल लेंगे. बस हम 7. फैमिली का पुछल्ला रहने देंगे.’’

पुरुष साथियों को तो यह बात बेहद पसंद आई. सब ने तुरंत ‘हां, हां’ की.

हंसतेबोलते एकदूसरे से हाथ मिला कर बाय कहते हुए हम विभा की कार की तरफ बढ़ चलीं. मैं ने कार में बैठते हुए कहा, ‘‘भई, कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसा मी टाइम मिलेगा. वाह, आनंद आ गया. एक दिन तो ऐसा मिलना ही चाहिए यार. है न?’’

गौतमी ने मुझे चिढ़ाया, ‘‘10 बज रहे हैं, बस पूरा दिन आवारागर्दी में बिता दिया तुम ने. तुम्हारा हो गया मी टाइम डे और यहां हमारे  पति हमारा इंतजार कर रहे हैं. अब जा कर कोई कहानी सुनानी पड़ेंगी कि कहां देर हुई.’’

‘‘मुंबई में कहानियों की कहां कमी. अभी बोल दो ट्रैफिक में फंसी हुई हो इतनी देर से. इतना टायर्ड साउंड करो कि उसे ही तुम पर तरस आ जाए. ऐसा करो, अभी कार का शीशा नीचे कर के उसे फोन करो, ट्रैफिक की आवाज वह सुन ही लेगा,’’ मैं ने उसे आइडिया दिया तो उस ने मुझे घूरा, ‘‘नैनी वाले से मिल कर यह हिम्मत आ गई क्या?’’

‘‘बकवास बंद करो और गाड़ी चलाओ,’’ मैं हंस पड़ी. पर वह सचमुच अब वैसा ही कर रही थी जैसा मैं ने आइडिया दिया था. हम तीनों अब उस की ऐक्टिंग देख रहे थे.

घर पहुंच कर मैं ने कपड़े बदले. जल्दी से शौवर लिया. फोन देखा. अनत की, बच्चों की कई कौल्स थीं. मैं उन्हें बीचबीच में मैसेज करती रही थी. कहां हूं, बताती रही थी. अब चैन से बैठ कर फैमिली कौल की. फिर बैड पर आंखें बंद कर लेट गई. आज का दिन कितना सुंदर बीता. एक पूरा दिन अपने लिए अपनी मरजी से. फुल मी टाइम.

फैमिली वीडियो कौल भी हो गई. लंच हैवी किया था, अब रात में सिर्फ फ्रूट्स खाए. सोने से पहले दरवाजा 4 बार चैक किया होगा. वरना अनंत ही देख लेते हैं. ठीक से नींद नहीं आई थी. जो खर्राटे रोज एक शोर लगते हैं, आज उस शोर के बिना सोया नहीं गया.

सुबह फिर वही सैर, आते हुए डोसे खाए. लंच में खिचड़ी, शाम तक कितने दोस्तों, रिश्तेदारों को फोन कर लिया, एक नौवेल भी शुरू कर दिया. शाम को मी टाइम गु्रप आया तो अच्छा लगा. हम सुमित, अरविंद और संजय की कुछ बातों पर हंसते रहे.

गौतमी ने कहा, ‘‘फिर मिलना है कभी इन लोगों से?’’

मैं हंसी, ‘‘देखेंगे. अभी तो कोई मूड नहीं. कल का दिन अच्छा बीता, इस में कोई शक नहीं. पर आगे का अभी नहीं सोचते हैं. अपने पतियों की शराफत का इतना फायदा भी नहीं उठाएंगे कि इन लोगों के साथ प्रोग्राम बनने लगें.’’

सब ने सहमति दी. मैं ने सब के लिए गरमगरम पकौड़े और चाय बनाई. गप्पें मारीं, विभा डांस बहुत अच्छा करती है, उस के साथसाथ गौतमी ने भी म्यूजिक लगा कर डांस किया. मिताली और मैं देखते रहे. ऐसा लग रहा था कि जैसे कालेज की फ्रैंड्स बैठी हैं पर यह सच तो नहीं था. सब पर घरगृहस्थी की जिम्मेदारियां थीं. अपनेअपने पति के औफिस से आने के टाइम सब भाग गईं.

मैं भी बाकी काम निबटा कर के फैमिली कौल में व्यस्त हो गई. सब मेरे मी टाइम के शौक पर, इन 2 दिनों के रूटीन पर हंसते रहे.  सच कह रही हूं, मी टाइम जरूरी है. तनमन की बैटरी रिचार्ज हो जाती है.

Hindi Story Collection : क्यों सरिता को अपना दामाद को बेईमान लगने लगा ?

Hindi Story Collection : बुढ़ापे में बेटाबहू और बेटीदामाद से मानसम्मान, प्यार पा कर शेखर और सरिता को अपनी जिंदगी सुंदर सपने के समान दिख रही थी. लेकिन सपना तो सपना ही होता है. आंख खुलते ही व्यक्ति हकीकत की दुनिया में लौट आता है. बिलकुल ऐसा ही शेखर और सरिता के साथ हुआ.

सु ख क्या होता है इस का एहसास अब प्रौढ़ावस्था में शेखर व सरिता को हो रहा था. जवानी तो संघर्ष करते गुजरी थी. कभी पैसे की किचकिच, कभी बच्चों की समस्याएं.

घर के कामों के बोझ से लदीफदी सरिता को कमर सीधी करने की फुरसत भी बड़ी कठिनाई से मिला करती थी. आमदनी बढ़ाने के लिए शेखर भी ओवरटाइम करता. अपनी जरूरतें कम कर के भविष्य के लिए रुपए जमा करता. सरिता भी घर का सारा काम अपने हाथों से कर के सीमित बजट में गुजारा करती थी.

सेवानिवृत्त होते ही समय जैसे थम गया. सबकुछ शांत हो गया. पतिपत्नी की भागदौड़ समाप्त हो गई. शेखर ने बचत के रुपयों से मनपसंद कोठी बना ली. हरेभरे पेड़पौधे से सजेधजे लान में बैठने का उस का सपना अब जा कर पूरा हुआ था.

बेटा पारस की इंजीनियरिंग की शिक्षा, फिर उस का विवाह सभी कुछ शेखर की नौकरी में रहते हुए ही हो चुका था. पारस अब नैनीताल में पोस्टेड है. बेटी प्रियंका, पति व बच्चों के साथ चेन्नई में रह रही थी. दामाद फैक्टरी का मालिक था.

शेखर ने अपनी कोठी का आधा हिस्सा किराए पर उठा दिया था. किराए की आमदनी, पेंशन व बैंक में जमा रकम के ब्याज से पतिपत्नी का गुजारा आराम से चल रहा था.

घर में सुख- सुविधा के सारे साधन उपलब्ध थे. सरिता पूरे दिन टेलीविजन देखती, आराम करती या ब्यूटी पार्लर जा कर चेहरे की झुर्रियां मिटवाने को फेशियल कराती.

शेखर हंसते, ‘‘तुम्हारे ऊपर बुढ़ापे में निखार आ गया है. पहले से अधिक खूबसूरत लगने लगी हो.’’

शेखर व सरिता सर्दी के मौसम में प्रियंका के घर चेन्नई चले जाते और गरमी का मौसम जा कर पारस के घर नैनीताल में गुजारते.

पुत्रीदामाद, बेटाबहू सभी उन के सम्मान में झुके रहते. दामाद कहता, ‘‘आप मेरे मांबाप के समान हैं, जैसे वे लोग, वैसे ही आप दोनों. बुजर्गों की सेवा नसीब वालों को ही मिला करती हैं.’’

शेखरसरिता अपने दामाद की बातें सुन कर गदगद हो उठते. दामाद उन्हें अपनी गाड़ी में बैठा कर चेन्नई के दर्शनीय स्थलों पर घुमाता, बढि़या भोजन खिलाता. नौकरानी रात को दूध का गिलास दे जाती.

सेवा करने में बहूबेटा भी कम नहीं थे. बहू अपने सासससुर को बिस्तर पर ही भोजन की थाली ला कर देती और धुले कपड़े पहनने को मिलते.

बहूबेटों की बुराइयां करने वाली औरतों पर सरिता व्यंग्य कसती कि तुम्हारे अंदर ही कमी होगी कि तुम लोग बहुओं को सताती होंगी. मेरी बहू को देखो, मैं उसे बेटी मानती हूं तभी तो वह मुझे सुखआराम देती है.

शेखर भी दामाद की प्रशंसा करते न अघाते. सोचते, पता नहीं क्यों लोग दामाद की बुराई करते हैं और उसे यमराज कह कर उस की सूरत से भी भय खाते हैं.

एक दिन प्रियंका का फोन आया. उस की आवाज में घबराहट थी, ‘‘मां गजब हो गया. हमारे घर में, फैक्टरी में सभी जगह आयकर वालों का छापा पड़ गया है और वे हमारे जेवर तक निकाल कर ले गए…’’

तभी शेखर सरिता के हाथ से फोन छीन कर बोले, ‘‘यह सब कैसे हो गया बेटी?’’

‘‘जेठ के कारण. सारी गलती उन्होंने ही की है. सारा हेरफेर वे करते हैं और उन की गलती का नतीजा हमें भोगना पड़ता है,’’ प्रियंका रो पड़ी.

शेखर बेटी को सांत्वना देते रह गए और फोन कट गया.

वह धम्म से कुरसी पर बैठ गए. लगा जैसे शरीर में खड़े रहने की ताकत नहीं रह गई है. और सरिता का तो जैसे मानसिक संतुलन ही खो गया. वह पागलों की भांति अपने सिर के बाल नोचने लगी.

शेखर ने अपनेआप को संभाला. सरिता को पानी पिला कर धैर्य बंधाया कि अवरोध तो आते ही रहते हैं, सब ठीक हो जाएगा.

एक दिन बेटीदामाद उन के घर आ पहुंचे. संकोच छोड़ कर प्रियंका अपनी परेशानी बयान करने लगी, ‘‘पापा, हम लोग जेठजिठानी से अलग हो रहे हैं. इन्हें नए सिरे से काम जमाना पडे़गा. कोठी छोड़ कर किराए के मकान में रहना पडे़गा. काम शुरू करने के लिए लाखों रुपए चाहिए. हमें आप की मदद की सख्त जरूरत है.’’

दामाद हाथ जोड़ कर सासससुर से विनती करने लगा, ‘‘पापा, आप लोगों का ही मुझे सहारा है, आप की मदद न मिली तो मैं बेरोजगार हो जाऊंगा. बच्चों की पढ़ाई रुक जाएगी.’’

शेखर व सरिता अपनी बेटी व दामाद को गरीबी की हालत में कैसे देख सकते थे. दोनों सोचविचार करने बैठ गए. फैसला यह लिया कि बेटीदामाद की सहायता करने में हर्ज ही क्या है? यह लोग सहारा पाने और कहां जाएंगे.

अपने ही काम आते हैं, यह सोच कर शेखर ने बैंक में जमा सारा रुपया निकाल कर दामाद के हाथों में थमा दिया. दामाद ने उन के पैरों पर गिर कर कृतज्ञता जाहिर की और कहा कि वह इस रकम को साल भर के अंदर ही वापस लौटा देगा.
शेखरसरिता को रकम देने का कोई मलाल नहीं था. उन्हें भरोसा था कि दामाद उन की रकम को ले कर जाएगा कहां, कह रहा है तो लौटाएगा अवश्य. फिर उन के पास जो कुछ भी है बच्चों के लिए ही तो है. बच्चों की सहायता करना उन का फर्ज है. दामाद उन्हें मांबाप के समान मानता है तो उन्हें भी उसे बेटे के समान मानना चाहिए.

अपना फर्ज पूरा कर के दंपती राहत का आभास कर रहे थे.बेटे पारस का फोन आया तो मां ने उसे सभी कुछ स्पष्ट रूप से बता दिया.

तीसरे दिन ही बेटाबहू दोनों आकस्मिक रूप से दिल्ली आ धमके. उन्हें इस तरह आया देख कर शेखर व सरिता हतप्रभ रह गए. ‘‘बेटा, सब ठीक है न,’’ शेखर उन के इस तरह अचानक आने का कारण जानने के लिए उतावले हुए जा रहे थे.

‘‘सब ठीक होता तो हमें यहां आने की जरूरत ही क्या थी,’’ तनावग्रस्त चेहरे से पारस ने जवाब दिया.

बहू ने बात को स्पष्ट करते हुए कहा, ‘‘आप लोगों ने अपने खूनपसीने की कमाई दामाद को दे डाली, यह भी नहीं सोचा कि उन रुपयों पर आप के बेटे का भी हक बनता है.’’

बहू की बातें सुन कर शेखर हक्केबक्के रह गए. वह स्वयं को संयत कर के बोले, ‘‘उन लोगों को रुपया की सख्त जरूरत थी. फिर उन्होंने रुपया उधार ही तो लिया है, ब्याज सहित चुका देंगे.’’

‘‘आप ने रुपए उधार दिए हैं, इस का कोई सुबूत आप के पास है. आप ने उन के साथ कानूनी लिखापढ़ी करा ली है?’’

‘‘वे क्या पराए हैं जो कानूनी लिखापढ़ी कराई जाती व सुबूत रखे जाते.’’

‘‘पापा, आप भूल रहे हैं कि रुपया किसी भी इनसान का ईमान डिगा सकता है.’’

‘‘मेरा दामाद ऐसा इनसान नहीं है.’’ सरिता बोली, ‘‘प्रियंका भी तो है वह क्या दामाद को बेईमानी करने देगी.’’

‘‘यह तो वक्त बताएगा कि वे लोग बेईमान हैं या ईमानदार. पर पापा आप यह मकान मेरे नाम कर दें. कहीं ऐसा न हो कि आप बेटीदामाद के प्रेम में अंधे हो कर मकान भी उन के नाम कर डालें.’’

बेटे की बातें सुन कर शेखर व सरिता सन्न रह गए. हमेशा मानसम्मान करने वाले, सलीके से पेश आने वाले बेटाबहू इस प्रकार का अशोभनीय व्यवहार क्यों कर रहे हैं. यह उन की समझ में नहीं आ रहा था.

आखिर, बेटाबहू इस शर्त पर शांत हुए कि बेटीदामाद ने अगर रुपए वापस नहीं किए तो उन के ऊपर मुकदमा चलाया जाएगा.

बेटाबहू कई तरह की हिदायतें दे कर नैनीताल चले गए पर शेखर व सरिता के मन पर चिंताओं का बोझ आ पड़ा था. सोचते, उन्होंने बेटीदामाद की सहायता कर के क्या गलती की है. रुपए बेटी के सुख से अधिक कीमती थोड़े ही थे.

हफ्ते में 2 बार बेटीदामाद का फोन आता तो दोनों पतिपत्नी भावविह्वल हो उठते. दामाद बिलकुल हीरा है, बेटे से बढ़ कर अपना है. बेटा कपूत बनता जा रहा है, बहू के कहने में चलता है. बहू ने ही पारस को उन के खिलाफ भड़काया होगा.

अब शेखर व सरिता उस दिन की प्रतीक्षा कर रहे थे, जब दामाद उन का रुपया लौटाने आएगा और वे सारा रुपया उठा कर बेटाबहू के मुंह पर मार कर कहेंगे कि इसी रुपए की खातिर तुम लोग रिश्तों को बदनाम कर रहे थे न, लो रखो इन्हें.

कुछ माह बाद ही बेटीदामाद का फोन आना बंद हो गया तो शेखरसरिता चिंतित हो उठे. वे अपनी तरफ से फोन मिलाने का प्रयास कर रहे थे पर पता नहीं क्यों फोन पर प्रियंका व दामाद से बात नहीं हो पा रही थी.

हर साल की तरह इस साल भी शेखर व सरिता ने चेन्नई जाने की तैयारी कर ली थी और बेटीदामाद के बुलावे की प्रतीक्षा कर रहे थे.

एक दिन प्रियंका का फोन आया तो शेखर ने उस की खैरियत पूछने के लिए प्रश्नों की झड़ी लगा दी पर प्रियंका ने सिर्फ यह कह कर फोन रख दिया कि वे लोग इस बार चेन्नई न आएं क्योंकि नए मकान में अधिक जगह नहीं है.

शेखरसरिता बेटी से ढेरों बातें करना चाहते थे. दामाद के व्यवसाय के बारे में पूछना चाहते थे. अपने रुपयों की बात करना चाहते थे. पर प्रियंका ने कुछ कहने का मौका ही नहीं दिया.

बेटीदामाद की इस बेरुखी का कारण उन की समझ में नहीं आ रहा था. देखतेदेखते साल पूरा हो गया. एक दिन हिम्मत कर के शेखर ने बेटी से रुपए की बाबत पूछ ही लिया.

प्रियंका जख्मी शेरनी की भांति गुर्रा उठी, ‘‘आप कैसे पिता हैं कि बेटी के सुख से अधिक आप को रुपए प्यारे हैं. अभी तो इन का काम शुरू ही हुआ है, अभी से एकसाथ इतना सारा रुपया निकाल लेंगे तो आगे काम कैसे चलेगा?’’

दामाद चिंघाड़ कर बोला, ‘‘मेरे स्थान पर आप का बेटा होता तो क्या आप उस से भी वापस मांगते? आप के पास रुपए की कमी है क्या? यह रुपया आप के पास बैंक में फालतू पड़ा था, मैं इस रुपए से ऐश नहीं कर रहा हूं, आप की बेटी को ही पाल रहा हूं.’’

पुत्रीदामाद की बातें सुन कर शेखर व सरिता सन्न कर रह गए और रुपए वापस मिलने की तमाम आशाएं निर्मूल साबित हुईं. उलटे वे उन के बुरे बन गए. रुपया तो गया ही साथ में मानसम्मान भी चला गया.

पारस का फोन आया, ‘‘पापा, रुपए मिल गए.’’

शेखर चकरा गए कि क्या उत्तर दें. संभल कर बोले, ‘‘दामाद का काम जम जाएगा तो रुपए भी आ जाएंगे.’’

‘‘पापा, साफ क्यों नहीं कहते कि दामाद ने रुपए देने से इनकार कर दिया. वह बेईमान निकल गया,’’ पारस दहाड़ा.

सरिता की आंखों से आंसू बह निकले, वह रोती हुई बोलीं, ‘‘बेटा, तू ठीक कह रहा है. दामाद सचमुच बेईमान है, रुपए वापस नहीं करना चाहता.’’

‘‘उन लोगों पर धोखाधड़ी करने का मुकदमा दायर करो,’’ जैसे सैकड़ों सुझाव पारस ने फोन पर ही दे डाले थे.

शेखर व सरिता एकदूसरे का मुंह देखते रह गए. क्या वे बेटीदामाद के खिलाफ यह सब कर सकते थे.

चूंकि वे अपनी शर्त पर कायम नहीं रह सके इसलिए पारस मकान अपने नाम कराने दिल्ली आ धमका. पुत्रीदामाद से तो संबंध टूट ही चुके हैं, बहूबेटा से न टूट जाएं, यह सोच कर दोनों ने कोठी का मुख्तियारनामा व वसीयतनामा सारी कानूनी काररवाई कर के पूरे कागजात बेटे को थमा दिए.

पारस संतुष्ट भाव से चला गया.‘‘बोझ उतर गया,’’ शेखर ने सरिता की तरफ देख कर कहा, ‘‘अब न तो मकान की रंगाईपुताई कराने की चिंता न हाउस टैक्स जमा कराने की. पारस पूरी जिम्मेदारी निबाहेगा.’’

सरिता को न जाने कौन सा सदमा लग गया कि वह दिन पर दिन सूखती जा रही थी. उस की हंसी होंठों से छिन चुकी थी, भूखप्यास सब मर गई. बेटीबेटा, बहूदामाद की तसवीरोें को वह एकटक देखती रहतीं या फिर शून्य में घूरती रह जाती.

शेखर दुखी हो कर बोला, ‘‘तुम ने अपनी हालत मरीज जैसी बना ली. बालों पर मेंहदी लगाना भी बंद कर दिया, बूढ़ी लगने लगी हो.’’

सरिता दुखी मन से कहने लगी,‘‘हमारा कुछ भी नहीं रहा, हम अब बेटाबहू के आश्रित बन चुके हैं.’’

‘‘मेरी पेंशन व मकान का किराया तो है. हमें दूसरों के सामने हाथ फैलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी,’’ शेखर जैसे अपनेआप को ही समझा रहे थे.

जब किराएदार ने महीने का किराया नहीं दिया तो शेखर ने खुद जा कर शिकायती लहजे में किराएदार से बात की और किराया न देने का कारण पूछा.

किराएदार ने रसीद दिखाते हुए तीखे स्वर में उत्तर दिया कि वह पारस को सही वक्त पर किराए का मनीआर्डर भेज चुका है.

‘‘पारस को क्यों?’’

‘‘क्योंकि मकान का मालिक अब पारस है,’’ किराएदार ने नया किराया- नामा निकाल कर शेखर को दिखा दिया. जिस पर पारस के हस्ताक्षर थे.

शेखर सिर पकड़ कर रह गए कि सिर्फ मामूली सी पेंशन के सहारे अब वह अपना गुजारा कैसे कर पाएंगे.

‘‘बेटे पर मुकदमा करो न,’’ सरिता पागलों की भांति चिल्ला उठी, ‘‘सब बेईमान हैं, रुपयों के भूखे हैं.’’

शेखर कहते, ‘‘हम ने अपनी संतान के प्रति अपना फर्ज पूरा किया है. हमारी मृत्यु के बाद तो उन्हें मिलना ही था, पहले मिल गया. इस से भला क्या फर्क पड़ गया.’’

सरिता बोली, ‘‘बेटीदामाद, बेटा बहू सभी हमारी दौलत के भूखे थे. दौलत के लालच में हमारे साथ प्यारसम्मान का ढोंग करते रहे. दौलत मिल गई तो फोन पर बात करनी भी छोड़ दी.’’

पतिपत्नी दोनों ही मानसिक वेदना से पीडि़त हो चुके थे. घर पराया लगता, अपना खून पराया हो गया तो अपना क्या रह गया.

एक दिन शेखर अलमारी में पड़ी पुरानी पुस्तकों में से होम्योपैथिक चिकित्सा की पुस्तक तलाश कर रहे थे कि अचानक उन की निगाहों के सामने पुस्तकों के बीच में दबा बैग आ गया और उन की आंखें चमक उठीं.

बैग के अंदर उन्होंने सालों पहले इंदिरा विकासपत्र व किसान विकासपत्र पोस्ट आफिस से खरीद कर रखे हुए थे. जिस का पता न बेटाबेटी को था, न सरिता को, यहां तक कि खुद उन्हें भी याद नहीं रहा था.

मुसीबत में यह 90 हजार रुपए की रकम उन्हें 90 लाख के बराबर लग रही थी. उन के अंदर उत्साह उमड़ पड़ा. जैसे फिर से युवा हो उठे हों. हफ्ते भर के अंदर ही उन्होंने लान के कोने में टिन शेड डलवा कर एक प्रिंटिंग प्रेस लगवा ली. कुछ सामान पुराना भी खरीद लाए और नौकर रख लिए.

सरिता भी इसी काम में व्यस्त हो गई. शेखर बाहर के काम सभांलता तो सरिता दफ्तर में बैठती. शेखर हंस कर कहते, ‘‘हम लोग बुढ़ापे का बहाना ले कर निकम्मे हो गए थे. संतान ने हमें बेरोजगार इनसान बना दिया. अब हम दोनों काम के आदमी बन गए हैं.’’

सरिता मुसकराती, ‘‘कभीकभी कुछ भूल जाना भी अच्छा रहता है. तुम्हारे भूले हुए बचत पत्रों ने हमारी दुनिया आबाद कर दी. यह रकम न मिलती तो हमें अपना बाकी का जीवन बेटीदामाद और बेटाबहू की गुलामी करते हुए बिताना पड़ता. अब हमें बेटीदामाद, बेटाबहू सभी को भुला देना ही उचित रहेगा. हम उन्हें इस बात का एहसास दिला देंगे कि उन की सहायता लिए बगैर भी हम जी सकते हैं और अपनी मेहनत की रोटी खा सकते हैं. हमें उन के सामने हाथ फैलाने की कभी जरूरत नहीं पड़ेगी.’’

सरिता व शेखर के चेहरे आत्म-विश्वास से चमक रहे थे, जैसे उन का खोया सुकून फिर से वापस लौट आया हो.

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