‘‘दीदी, हमारे पास सैकड़ों लोग प्रचार में चलने के लिए तैयार खड़े हैं. लेकिन जिन भाइयों को आप ने गाडि़यां लाने के लिए कहा था, वे अभी तक नहीं आए हैं.’’
‘‘देखो, वे यहां से निकल चुके हैं. बस तुम लोगों तक पहुंचने ही वाले होंगे.’’
‘‘दीदी, यहां गरमी बहुत है. लोग ज्यादा देर तक इंतजार नहीं करेंगे. ये सब सुबह से भूखेप्यासे हैं. घर वापस जाने की जल्दी कर रहे हैं.’’
‘‘नहीं उन को घर मत जाने दो. गाडि़यों में खानेपीने का पूरा इंतजाम है. धूप से बचने के लिए टोपियां और गमछे भी हैं.’’
‘‘ठीक है दीदी, मैं इन लोगों को बताता हूं,’’ और इस के बाद कार्यकर्ता फोन काट देता है. फिर अपने साथियों को समझाते हुए कहता है, ‘‘देखा एक फोन पर दीदी ने हर बात के लिए हां कह दी. कुछ ही देर में गाडि़यां हम तक पहुंच रही हैं.’’ कार्यकर्ता खुश क्योंकि उस का पूरा रोब जो साथियों पर जम गया है.
‘सौ सुनार की तो एक लुहार की’ या ‘कभी नाव गाड़ी पर तो कभी गाड़ी नाव पर’ ये कहावतें ऐसे ही नहीं बनाई गई हैं. इन का अपना कुछ न कुछ मर्म और अर्थ होता है. गांव में एक कहावत और प्रचलित है ‘बारह साल के बाद तो घूरे के भी दिन बहुरते हैं.’
इन सभी का अर्थ करीबकरीब एक सा है कि उपेक्षित से उपेक्षित वस्तु की भी कभी न कभी कीमती लगती ही है. इन चुनावों में यह बात साफ देखने को मिली. नेता हमेशा कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करते रहे हैं. उन्हें चुनाव के समय कार्यकर्ताओं का महत्त्व पता चलता है अब कार्यकर्ता भी इस बात को समझ चुके हैं, इसीलिए वे भी चुनाव के समय नेता को अपनी धौंस दिखाने से नहीं चूकते. 16वीं लोक सभा चुनाव में कार्यकर्ताओं की इस धौंस को काफी करीब से देखा गया. यह केवल 1-2 नेताओं की बात नहीं है, हर नेता को इस तरह कार्यकर्ताओं की धौंस सहनी पड़ी.