फिल्म समीक्षाः कागर

निर्देशक: मकरंद माने

कलाकार: रिंकू राजगुरूशुभंकर तावड़े, शशांक शिंदे, शांतनु गांगने व अन्य

अवधिदो घंटे, दस मिनट

रेटिंगतीन स्टार

मराठी फिल्म ‘‘रिंगणे’’के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्मकार मकरंद माने इस बार देश की कुल्सित राजनीति के चेहरे और रक्तरंजित राजनीति के चेहरे को बेनकाब करती फिल्म ‘‘कागर’’ लेकर आए हैं. इसमें चुनाव के चलते राजनीतिक प्रचार, कार्यकर्ताओं द्वारा किया जा रहा प्रचार,राजनीतिक उठापटक,  राजनीतिक शत्रुता, शतरंजी चालें और गुरू जी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते बहते रक्त के बीच रानी व युवराज की प्रेम कहानी भी है. मगर गुरूजी की राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते अंततः युवराज का भी रक्त बहता है.

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कहानीः

कहानी शुरू होती है मुंबई से, युवराज (शुभंकर तावड़े) अपने तीन साथियों के साथ महाराष्ट्र के वीराई नगर से मुंबई में मुख्यमंत्री के बंगले वर्षा पर आता है और बंगले पर मुख्यमंत्री के पी ए गुप्ते को प्रभाकर देशमुख उर्फ गुरूजी (शशांक शिंदे) द्वारा दिया गया बैग देकर चल देता है, तभी उनमें से एक वापस लौटकर गुप्ते को एक लिफाफा पकड़ाता है. इस लिफाफे के बारे में युवराज भी नहीं जान पाता. युवराज के कहने पर गुप्ते व गुरूजी के बीच बात होती है, जिससे यह बात साफ होती है कि इस बार गुरूजी के इशारे पर विधायक का चुनाव लड़ने के लिए भैयाजी (शातंनु गांगने) को टिकट मिलेगी. दूसरे दिन से वीराई नगर में भैयाजी चुनाव प्रचार करने लगते हैं. इस प्रचार में युवराज व उसके साथियों के साथ-साथ गुरूजी की बेटी प्रियदर्शनी देशमुख उर्फ रानी (रिंकू राजगुरू) भी हिस्सा लेती है. इससे विधायक भावदया नाराज होते हैं. हर कोई हैरान है कि पिछले 15 सालों से भावदया के साथ रहने वाले गुरूजी ने अचानक एक नए युवा भैयाजी के कैसे खडे हो गए, इस पर गुरूजी कहते हैं कि बदलाव चाहिए. युवा पीढ़ीको आगे लाना चाहिए.

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