सच्ची घटना पर आधारित एक कैदी की जीवन पर बनी ड्रामा फिल्म ‘लखनऊ सेंट्रल’ में एक कैदी की मनोदशा को बारीकी से दिखने की कोशिश की गयी है, जिसमें उसका जेल से भागने की इच्छा, ‘फीलगुड फैक्टर’ और एक अच्छा ‘ह्यूमन बीइंग’ आदि सब कुछ दिखाया गया है. फिल्म पूरी तरह से फरहान अख्तर के कन्धों पर थी. जिसे फरहान ने पूरी मेहनत से निभाया है, इसमें साथ दिया डायना पेंटी ने. उन्होंने अपने कद काठी के अनुसार एक एनजीओ वर्कर की भूमिका, जितना मिला, उसे अच्छी तरह से निभाया है.

निर्देशक रंजीत तिवारी ने फिल्म को अधिक सच्चाई के करीब दिखाने की कोशिश में थोड़ी ‘डार्क’ और ‘लेंदी’ फिल्म बनायी है, इंटरवल तक फिल्म ठीक थी बाद में कुछ धीमी गति होने की वजह से थोड़ी उबाऊ लगी. फिल्म के पटकथा की लम्बाई को कम करने से फिल्म थोड़ी और अच्छी बन पाती.

कहानी

किशन मोहन गिरहोत्रा (फरहान खान) जो उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद का रहने वाला है और एक अच्छा सिंगर है, अपना बैंड तैयार कर विश्व में अपना नाम कमाना चाहता है. उसके पिता छोटे शहर में रहकर इतना बड़ा सपना देखने से मना करते हैं, पर वह सुनता नहीं. और एक दिन एक आईएएस की हत्या का झूठा आरोप उस पर लगाकर उसे फांसी की सजा ऐलान कर लखनऊ सेंट्रल जेल भेज दिया जाता है. एनजीओ वर्कर गायत्री कश्यप (डायना पेंटी) जो अधिकतर जेल में कैदियों को सुधारने का काम करती है, उसे यहां कैदियों की एक बैंड बनाने के लिए कहा जाता है, जो 15 अगस्त को परफार्म करेगी. आज तक लखनऊ सेंट्रल जेल से कभी कोई कैदियों का बैंड तैयार नहीं हुआ क्योंकि यहां सारे ‘हार्ड कोर क्रिमिनल्स’ रहते हैं, जो या तो आजीवन कारावास भुगत रहे हैं या फांसी की सजा पाने वाले है. यहां का जेलर रोनित राय बहुत कड़क है और सुरक्षा की दृष्टिकोण से वह किसी भी अपराधी को बैंड बनाने की इजाजत नहीं  देना चाहता, लेकिन प्रदेश के मुख्यमंत्री और आई जी के कहने पर उसे अनुमति देनी पड़ती है और 5 कैदियों की एक अच्छी बैंड बनती है, लेकिन इसके पीछे की मंशा चालाक जेलर समझ जाता है, लेकिन प्रूव नहीं कर पाता. इसी उतार–चढ़ाव के बीच कहानी अंजाम तक पहुंचती है.

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