चीन की एक बहुत पुरानी और प्रसिद्ध कहावत है, ‘हजार मील की यात्रा एक छोटे से कदम से शुरू होती है.’ भारतीय सिनेमा ने भी 1913 में दादा साहेब फाल्के के छोटे, लेकिन दृढ़तापूर्ण कदम से एक सदी का सफर तय कर लिया है. इस दौरान भारतीय फिल्म उद्योग कहां से कहां पहुंच गया. शुरुआत से ले कर अब तक सिनेमा में युगांतकारी बदलाव आए हैं. अगर कहें कि उस की दिशा और दशा ही बदल गई तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी.
हिंदी सिनेमा के बारे में एक आम धारणा है कि यह कुछ बनेबनाए फार्मूलों पर ही चलता है. यह बात सरसरी तौर पर सही भी है. हिंदी सिनेमा के शुरुआती दौर से ले कर अब तक प्रयोगात्मक फिल्में भी बनती रही हैं. बाैंबे टौकीज की ‘अछूत कन्या’, वी शांताराम की ‘दो आंखें बारह हाथ’, ‘नवरंग’, सुनील दत्त की ‘यादें’, बिमल दा की ‘दो बीघा जमीन’, गुलजार की ‘कोशिश’ आदि कई फिल्मों के विषय आम मसाला फिल्मों से हट कर थे.
‘यादें’ में तो केवल एक ही कलाकार थे सुनील दत्त, इस वजह से इसे गिनीज बुक औफ वर्ल्ड रिकौर्ड्स में भी शामिल किया गया था, लेकिन यह कहने में कोई गुरेज नहीं होगा कि हिंदी सिनेमा में सब से ज्यादा प्रयोग पिछले कुछ वर्षों में हुए हैं, यानी कि कंटैंट से ले कर फिल्मों के प्रस्तुतिकरण तक.
अनुराग कश्यप, दिबाकर बनर्जी, आर बाल्कि, इम्तियाज अली, विशाल भारद्वाज, तिग्मांशु धूलिया, रजत कपूर, ओमप्रकाश मेहरा, राजकुमार हिरानी आदि निर्देशकों ने अलग तरह की फिल्में बनाईं और वे काफी सफल भी हुए. इस पूरी यात्रा के दौरान सिनेमा ने समाज को कई तरह से प्र्रभावित किया.
कहा जाता है कि समाज पर सिनेमा का काफी प्रभाव पड़ता है और सिनेमा भी समाज से बहुतकुछ ग्रहण करता है. खासकर फिल्मों ने लोगों की जीवनशैली और फैशन को जबरदस्त तरीके से प्रभावित किया है, लेकिन एक बात जो सिनेमा भी अब तक नहीं बदल पाया, वह है पत्नी के प्रति पति की सोच में बदलाव.
दूसरे शब्दों में कहा जाए तो तमाम कोशिशों के बावजूद फिल्में पुरुष मानसिकता को बदल पाने में कामयाब नहीं हो पाईं, खासकर जब बात आती है, पति और पत्नी के रिश्तों की.
हालांकि फिल्मों में काफी पहले से ही स्त्रीपुरुष या फिर कहें कि प्रेमीप्रेमिका या पतिपत्नी के संबंधों को बड़े गरिमामय और संतुलित तरीके से दिखाया जाता रहा है. उर्दू के प्रख्यात साहित्यकार राजेंद्र सिंह बेदी ने 1970 में एक बहुत खूबसूरत फिल्म बनाई थी ‘दस्तक’, जिस में संजीव कुमार और रेहाना सुल्तान मुख्य भूमिकाओं में थे.
इस फिल्म को 3 राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिले थे. एक रैडलाइट एरिया की पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म कई मानवीय पहलुओं का चित्रण संवेदनशील तरीके से करती है. इन में से एक रिश्ता पतिपत्नी का भी है. फिल्म के क्लाइमैक्स में संजीव कुमार अपने दुर्व्यवहार के लिए पत्नी रेहाना सुल्तान से माफी मांगते हैं.
इसी तरह 1978 में एक फिल्म आई थी ‘घर’, जिस में रेखा और विनोद मेहरा मुख्य भूमिकाओं में थे. गैंगरेप की शिकार एक महिला के सदमे को केंद्र में रख कर बनाई गई यह फिल्म, पतिपत्नी के रिश्तों की संवेदनशील गाथा है. पति के रूप में विनोद मेहरा पूरी संवेदनशीलता के साथ सदमे में जीने वाली पत्नी को संभालने की कोशिश करते हैं और उसे सदमे से बाहर निकालने की भी पूरी कोशिश करते हैं.
2008 में यशराज बैनर की एक फिल्म आई ‘रब ने बना दी जोड़ी’, जिस में शाहरुख खान और अनुष्का शर्मा नायकनायिका थे. इस फिल्म में शाहरुख अपनी पत्नी अनुष्का की खुशी के लिए पुरुष होने के अभिमान को किनारे रख कर सबकुछ करने को तैयार रहते हैं.
ऐसी सैकड़ों फिल्में आई हैं, जिन में पति और पत्नी या स्त्री और पुरुष समान धरातल पर खड़े 2 मनुष्य हैं. लिंग को ले कर किसी प्रकार का कोई भेदभाव या श्रेष्ठताबोध नहीं है, लेकिन क्या ऐसा समाज में देखने को मिलता है? सामान्य तौर पर इस का उत्तर ‘नहीं’ में ही मिलेगा.
अगर कुछ अपवादों को छोड़ दें तो आज भी एक आम हिंदुस्तानी परिवार का पति अपनी पत्नी में एक आज्ञाकारी मां की छवि को देखना पसंद करता है, जो उस की हर जरूरत का ध्यान रखे. अगर इस में कुछ कमी होती है, तो पत्नी को ही झेलना पड़ता है. वह अपनी पत्नी को अपनी बराबरी पर रख कर नहीं देख पाता, भले ही चाहे ऐसा अनजाने में होता हो.
हालांकि बहुत सारे पुरुष सैद्धांतिक रूप से स्त्रीपुरुष को बराबर मानते हैं, लेकिन यह बात व्यवहार के धरातल पर खरी नहीं उतर पाती.
अब सवाल उठता है कि सिनेमा पुरुषों, खासकर पतियों की मानसिकता बदल पाने में सफल क्यों नहीं रहा? दरअसल, फिल्मों का इतिहास भारत में महज 100 साल पुराना है और हमारी सामाजिक संरचना हजारों साल पुरानी है. एक आम भारतीय परिवार में लड़कों का लालनपालन ही इस तरीके से होता है कि जानेअनजाने उन में एक श्रेष्ठताबोध पैदा हो जाता है और फिल्में अभी इस मानसिकता को बदल पाने में सक्षम साबित नहीं हुई हैं.
देश में अभी भी आमतौर पर फिल्मों को मनोरंजन के साधन के रूप में ही देखा जाता है. हालांकि कईर् फिल्में शिक्षित करने और संदेश देने की कोशिश भी करती हैं और कुछ हद तक इस में सफल भी होती हैं. मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि व्यक्ति आमतौर पर साहित्य, सिनेमा या प्रसार माध्यमों से चीजें अपनी सुविधानुसार ग्रहण करता है. जिन चीजों को अपनाने में उसे ज्यादा कोशिश नहीं करनी पड़ती, उसे वह स्वीकार लेता है, लेकिन जिन्हें अपनाने के लिए उसे अधिक कोशिश करनी पड़ती है, उस के प्रति उस का रवैया उदासीन हो जाता है. इसीलिए व्यक्ति फिल्मों के फैशन, अपराध आदि का तो आसानी से अनुसरण कर लेता है, लेकिन उच्च मानवीय मूल्यों को अपनाने में वह उदासीन हो जाता है.
फिल्म ‘चक दे इंडिया’ के निर्देशक शिमित अमीन का कहना है, ‘फिल्मों का लोगों पर कितना असर पड़ता है, इसे जांचने का कोई पैमाना नहीं है. मगर उन का कुछ तो असर जरूर होता है. मुझे लगता है कि इस असर को पहचानने के लिए हमें कुछ समय चाहिए होता है.
जैसे, आज हम कुछ हद तक जानते हैं कि 70 और 80 के दशक में आई फिल्मों का क्या असर दिखा. किसी फिल्म के आने के तुरंत बाद हमें जो प्रतिक्रियाएं मिलती हैं, वे थोड़ी सतही हो सकती हैं. उन के एक बहुत ही अस्थायी प्रभाव का हम अंदाजा लगा सकते हैं. वैसे बाकी चीजों की तरह हर फिल्म में कोई न कोई संदेश या फिर दुनिया के बारे में कोई न कोई नजरिया तो जरूर होता है. हो सकता है वे भी दर्शकों को कहीं पर छूते हों.’
फिल्म ‘चक दे इंडिया’ के बाद हौकी स्टिक की बिक्री में अचानक तेजी आ गई थी. इस बात पर शिमित कहते हैं कि दरअसल, फिल्म के साफसाफ प्रभाव को रेखांकित करना बहुत मुश्किल काम है.
‘चक दे इंडिया’ के बाद दुकानों से ज्यादा हौकियां खरीदी गईं, मगर साइकिल रेस दिखाने वाली फिल्म ‘जो जीता वही सिकंदर’ के बाद क्या अधिकतर लड़कियां साइकिल चलाने लगी थीं? मुझे लगता है खेल हो या किन्हीं मूल्यों को अपनाने की बात, फिल्में लोगों को ऐसा कुछ करने के लिए बाध्य नहीं कर सकतीं. यही बात पत्नी के प्रति पुरुषों के व्यवहार के बदल पाने में फिल्मों की असफलता के संबंध में भी लागू होती है.