किसी भी सस्पेंस थ्रिलर का मजा उसके सस्पेंस में ही होता है, लिहाजा सस्पेंस खोलकर फिल्म की समीक्षा या पोस्टमार्टम करना दर्शकों का मजा किरकिरा कर देता है. हाँ, फिल्म TE3N के टाइटल का सस्पेंस यही है कि इसमें तीन लोग है, जॉन विस्वास, फादर मार्टिन दास और सरिता सरकार. जो एक किडनैपिंग केस की अपने अपने पूर्वग्रहों से लैस होकर पड़ताल कर रहे हैं.

फिल्म TE3N के शुरुआती क्रेडिट रोल्स से अंदाजा हो जाता है कि यह फिल्म भी काफी मेहनत और रिसर्च करके किसी सफल कोरियन फिल्म मोंटाज (मोंगटाजू) का भारतीय रूपांतरण करके बनाई गयी है. सुजोय घोष ने फिल्म के रीमेक राइट्स खरीदे और उसमें अपनी सुपर हिट फिल्म कहानी की थोड़ी सी रेसिपी और बहुत सारा बंगाल मिलाकर हिंदी दर्शकों के स्वादानुसार तैयार कर रिभु दासगुप्ता से पेश करवाया है.

फिल्म शुरू होते ही आपको फिल्म कहानी के परिवेश में ले जाती हैं. जहाँ बंगाल के पोलिस स्टेशन से एक कथा रफ़्तार पकडती है और हावड़ा ब्रिज होते हुए अपने अंजाम तक पहुँचती हैं. जॉन विश्वास (इस किरदार को बिग बी ने अपनी बदली सी बौडी लैंग्वेज से उम्दा बनाया है) अपनी 8 पहले किडनैप हुई ग्रांड डॉटर के लिए इन्साफ की आस में रोज पुलिस स्टेशन के चक्कर लगा रहे हैं. वहीँ इस केस से जुड़े इन्स्पेक्टर मार्टिन दास (नवाज़ुद्दीन सिद्धिकी) अपने कई किलो के गिल्ट के साथ पुलिस की वर्दी उतारकर पुलिस से पादरी बन चुके हैं. फिर भी उन्हें उनका अतीत और अपराधबोध रातभर करवटे बदलने पर मजबूर किये है. वहीँ सरिता सरकार (विद्या बालन अपने कैमियों को एक्सटेंड करती हुई) को मार्टिन और जौन दोनों से सहानुभूति है. इस केस की वह तीसरी कड़ी हैं.

बहरहाल 8 साल पहले जिस पैटर्न पर बच्ची की किडनैपिंग हुई थी, आज वही पैटर्न दोहराया जा रहा है. इस बार मनोहर (सब्स्याची चक्रवर्ती) की ग्रांड डाटर किडनैप हुई है. जॉन को लगता है इस बार वह अपनी नातिन के कातिल और किडनैपर को पकड़ लेगा. मार्टिन को दोबारा मौका मिला है अपनी गलती सुधारने का. कहानी इसी गुत्थी को कैसे सुलझाती है, यही फिल्म का रोचक पहलू है.

अच्छी बात

अच्छी बात यह है कि आखिर तक आपको फिल्म बांधे रखती है और बार कन्फ्यूज करती है कि असली अपराधी कौन है. हाँ, अगर बहुत ध्यान से फिल्म देखी और सुनी जाए तो अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं सस्पेंस की दीवार के पीछे कौन छिपा है. बंगाल की खूबसूरत लोकेशन एक किरदार की तरह स्क्रीनप्ले से तारतम्य बनाए रखती हैं.

इंटरवल के बाद फिल्म तेजी पकड़ती है और अंत तक स्क्रीन और कुर्सी से चिपकाए रखती है. अमिताभ बच्चन अपने टॉप फॉर्म में हैं. विद्या बिना शोरशराबे के साथ अपना नपातुला काम कर जाती हैं. और नवाज़ फिल्म लांच बॉक्स की तरह एक कॉमिक रिलीफ बनकर आतेजाते रहते हैं. किडनैपिंग को लेकर जो डर और रोमांच रचा गया है,  दर्शकों तक पहुंचता रहता है. हाउसफुल सरीखी नॉनसेंस फिल्मों के सदमे से उबरने के लिए बतौर एंटीडोट फिल्म तीन की एक खुराक ली जा सकती है.

गन्दी बात

गन्दी बात यह है कि फिल्म जैसे जैसे बढ़ती है आपको ढेर सारी फिल्मों का फ्लैश बैक देने लगती है. खास तौर से कोरियन फिल्मों की जो चेज और ट्विस्ट की परंपरा होती है वो इसमें भी मौजूद है. याद कीजिये भट्ट कैम्प की मर्डर २, कहानी. जज्बा 2 और वजीर.

 

तीन किरदारों के मजबूत अभिनय पर टिकी फिल्म TE3N स्क्रीनप्ले के मामले में हिचकोले खाने लगती है. कई बार ख़ास तौर से फर्स्ट हाफ में लगता फिल्म को फॉरवर्ड किया जाए. नवाज़ का किरदार उनके पिछले किरदारों की तुलना में काफी उलझा हुआ है. वह तय नहीं कर पाते कि उन्हें दर्शकों को अपने वन लाइनर पंच से हंसाना है या फिर अपराध बोध की आग में जलना है.

इस मामले में फिल्म ज़ज़्बा में इरफ़ान का किरदार यह कमी नहीं खलने देता था. हालांकि इस कमी की वजह नवाज नहीं बल्कि किरदार की लिखावट रही होगी. सहायक कलकारों में जॉन की पत्नी पद्मावती राव और सब्स्याची के किरदारों को ज्यादा कसा नहीं गया है जबकि ये दोनों किरदार इमोशनल और थ्रिलर पॉइंट से बहुत इंटेंस ड्रामा रच सकते थे. थ्रिलर फिल्मों में आम तौर पर उत्सुकता पैदा करने वाला बैकग्राउंड म्यूजिक कमजोर है और एक रीमिक्स गाना खलता है. एन्ड रोल का बढ़िया गीत बीच फिल्म  में प्लेस किया जाता तो शायद बेहतर होता.

बाकी ममता बनर्जी को बड़ा सा थैंक्स कहकर जिस तरह फिल्म बंगाल को भुनाती है, कहानी को उतना नहीं भुना पाती. कुछ मिसिंग सा लगता है. और रही बात कोरियन फिल्मों की भारतीयकरण या बंगालीकरण करने की तो यह काम हॉलीवुड वाले भी ओल्ड बॉयज़ और इंटरनल अफेयर्स की तर्ज़ पर कर ही रहे हैं. आखिर फिल्मों का बिजनेस सेन्स भी कोई चीज है.

आखिरी बात

 एक बार देख सकते हैं TE3N. वर्ना टीवी पर तो प्रीमियर हो ही जायेगा लेकिन तब तक आपका कोई खुराफ़ाती दोस्त या अखबार वाला फिल्म का सस्पेंस खोल दे शिकायत भी न कीजिएगा.

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