Kids Nicknames:  जब मैं 4-5 साल की थी, मेरी दादी मुझे ‘गोलू’ बुलाती थीं. स्कूल से लौटते समय थकान और परेशानी के बावजूद दादी की यह पुकार मेरे सारे दुख भुला देती. यह सिर्फ नाम नहीं था, यह उन का प्यार और अपनापन था. मगर बड़े होने के बाद जब मुझे इस नाम से पुकारा जाने लगा तो मुझे सुन कर झिझक होती थी क्योंकि अब मैं गोलू यानी मोटी नहीं कहलाना चाहती थी.

मुझे लगता था कि इस से बेहतर मेरा कोई दूसरा प्यारा सा निक नेम होता तो ज्यादा अच्छा रहता क्योंकि निक नेक बचपन के प्यार के साथसाथ अपनापन जताने का भी तरीका लगता है मुझे. बचपन में किसी भी बच्चे की दुनिया उस के घर के आंगन से शुरू होती है, जहां मां की ममता, पिता का साया, दादीदादा की कहानियां और भाईबहनों की शरारतें होती हैं.

इसी स्नेहिल संसार में जन्म लेते हैं निकनेम यानी उपनाम जो सिर्फ नाम नहीं बल्कि प्यार का दूसरा नाम होते हैं. गोलू, चिंटू, बबलू, मुन्नी, सोनू, पिंकी इन नामों में कोई तर्क नहीं होता, लेकिन इन में सच्चा प्रेम और अपनापन होता है. ये नाम हमारे रिश्तों की जान होते हैं ऐसे रिश्ते जो औपचारिकता नहीं, भावना में जीते हैं.

बड़े होने पर झिझक क्यों जैसेजैसे हम बड़े होते हैं, इन नामों से घबराने के पीछे केवल ‘इमेज’ की चिंता नहीं होती. इस के अलावा कई और भावनात्मक और सामाजिक कारण भी होते हैं जैसे: इमेज की चिंता: हम समाज में अपनी प्रोफैशनल या गंभीर पहचान बनाना चाहते हैं. बचपन का निकनेम हमें बचपन की याद दिलाता है, जिस से हम दूरी बनाने लगते हैं.

मजाक बनने का डर: कभीकभी उपनाम इतना अलग या बचकाना होता है कि लोग चिढ़ाते हैं.

निजता की सीमा: कुछ नाम इतने निजी होते हैं कि केवल करीबी लोगों से सुनना अच्छे लगते हैं.

बीते अनुभवों से जुड़ी पीड़ा: अगर किसी नाम से जुड़ी कोई नकारात्मक या दुखद स्मृति हो तो वह नाम व्यक्ति को असहज कर देता है.

स्वछवि में बदलाव: हम अपनी नई पहचान लेखक, डाक्टर या प्रोफैशनल के रूप में बनाना चाहते हैं, मगर पुराने उपनाम कभीकभी नई छवि से मेल नहीं खाते.

विदेश बनाम भारत में सामाजिक अंतर

विदेशों में लोग बचपन के उपनाम को सहजता से स्वीकार करते हैं. वहां इसे मजाक या शर्म के बजाय अपनापन और व्यक्तिगत पहचान के रूप में देखा जाता है.

भारत में सामाजिक रूप से औपचारिकता और इमेज पर अधिक ध्यान दिया जाता है. बचकाने नामों को सार्वजनिक रूप से लेना ‘सिर झुकाने’ जैसा लगता है. समाज की तुलना, व्यंग्य और प्रतिष्ठा की भावना कारण बनती है कि लोग झिझकते हैं.

मातापिता के लिए सुझाव

– प्यार के साथ सम्मान दें. उपनाम स्नेहिल हो, अपमानजनक न हो.

– शारीरिक या मानसिक विशेषताओं पर आधारित नाम से रखने बचें.

– नाम में मिठास रखें, मजाक नहीं.

– प्राइवेसी का ध्यान रखें. कुछ नाम केवल घर की दीवारों तक सीमित रखें.

निकनेम क्या रखें और क्या न रखें

क्या रखें

– प्यार और स्नेह से प्रेरित नाम.

– बच्चों की पसंद शामिल करें.

– सकारात्मक अर्थ वाला नाम.

– आसान उच्चारण वाला और याद रखने योग्य.

– केवल करीबी परिवार या दोस्तों तक सीमित.

– भावनात्मक जुड़ाव और यादों से प्रेरित.

क्या न रखें

– अपमानजनक या चिढ़ाने वाला नाम.

– बच्चों की असहजता के बावजूद नाम चुनना.

– शारीरिक दोष या कमजोरियों पर आधारित नाम.

– जटिल, लंबा या अजीब नाम.

– सार्वजनिक रूप से मजाक बनाने वाला नाम.

– किसी पुरानी नकारात्मक स्मृति से जुड़ा नाम.

निकनेम से जुड़ी झिझक को कम करने के उपाय

– नाम के पीछे की भावना को समझें.

– इसे अपनी कहानी का हिस्सा मानें.

– अपनों को नाम का अधिकार दें.

– निकनेम को विशेषता समझें, कमजोरी नहीं.

– हलके अंदाज में ह्यूमर अपनाएं

– बच्चों को यह दृष्टिकोण सिखाएं.

– सोशल सर्कल में सीमाएं तय करें.

तो अगली बार जब कोई आप को गोलू, पिंकी या शोनू, कहे तो झेंपिए नहीं. मुसकराइए क्योंकि वह सिर्फ नाम नहीं, वह आप का रिश्ता बोल रहा है. यह आप को आप की जड़ों और प्यार से जोड़ता है. असली परिपक्वता तब है जब हम अपने भीतर के बच्चे को भी सहेजना जानें.

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