‘पीकू’ फिल्म में पीकू का किरदार देख कर दर्शकों के मुंह से यही निकला कि घरघर पीकू बसती है यानी पीकू जैसी लड़कियां हमारे समाज में पाई जाती हैं, जो आप को मांबाप की सेवा करती उन्हीं के घर पर मिलेंगी. हम यह नहीं कह रहे कि पीकू जैसी सेवा अपने बुजुर्ग मांबाप के लिए करना गलत है. पर यह भी जरूरी है कि पीकू बन कर अपनी जिंदगी को खराब न करें क्योंकि उस चक्कर में मांबाप भी परेशान होंगे.

कई साल पहले आई इस फिल्म की बात करें तो इस के 2 किरदार हमारे मन में कई सवाल छोड़ जाते हैं. कई बार हमें पीकू सही लगती है, तो कई बार भास्कर बनर्जी. चूंकि फिल्म को कौमेडी टच दिया गया है, इसलिए यह अंत में उन जरूरी सवालों से बच जाती है, जिन का हमें असल जिंदगी में सामना करना पड़ता है.

क्या सेवा करने के कारण अपना कैरियर, अपनी मरजी से कुछ करने की आजादी और शादी न करने का फैसला लेना सही है? क्या गैरतमंद लड़की पूरी जिंदगी अपने भैयाभाभी, बहन के तानों को सहते हुए काटना पसंद करेगी? मान लीजिए कि आप का भाई, भाभी, बहन या अन्य परिवार के सगेसंबंधी आप के बूढ़े या लाचार मां या बाप को नहीं देख सकते, तो क्या आप अपनी पूरी लाइफ उन की देखभाल में गुजार देंगी? क्या पूरी जिंदगी उन्हीं की अजीब इच्छाओं या दवादारू के पीछे ही उल?ा रहे?

बड़ा सवाल है कि उन के चले जाने के बाद आप की स्थिति क्या होगी? क्या आप को भी उन की तरह एक पीकू चाहिए होगी या फिर आप के पास इतना पैसा है कि आप बिना किसी के सहारे अपनी पूरी जिंदगी गुजार देंगी? क्या सभी पीकुओं के पास पैसा या अन्य सुखसुविधाएं होंगी? ये सवाल पीकू कई लोगों के मन में छोड़ गई थी पर समाज ने कुछ सीखा है लगता नहीं.

सेवा जरूरी या कैरियर

एक बेटी के ऐसे मातापिता की सेवा करने के पीछे अपना कैरियर और सुख गंवाया जो हर समय चूंचूं करते फिरते रहे गलत है और यह अनावश्यक भी. कई मांबाप ऐसे होते हैं कि अपने सिवा उन्हें कोई नहीं दिखता. दूसरी ओर बुजुर्ग मातापिता की आदतों से खिन्न बेटी का व्यवहार समाज में अभद्र होता जाता है. वह अपने कुलीग्स, दोस्तों, नौकरों या अजनबी लोगों से भी अशिष्ट व्यवहार करने लगती है.

35 वर्षीय शेखर ने अपना पूरा जीवन मां की सेवा करने के लिए समर्पित कर दिया, वह मां जिस ने शेखर के और 2 बड़े भाइयों को भी जन्म दिया था, लेकिन बड़े भाइयों और उन की पत्नियों ने मां का वह हाल किया कि वह अब बिस्तर पर है. घर के सारे कामकाज से ले कर बाहर का राशन व सब्जी लाने का सारा काम, कामवाली की तरह लगे रहने वाली शेखर की मां ही किया करती थी.

शेखर को यह नागवार गुजरा और उस ने अपनी कंपनी से रिजाइन दे कर फ्रीलांसिंग पर घर बैठे काम करना शुरू कर दिया और मां की सेवा के लिए अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया.

शादी न करने का फैसला

शेखर ने अपना कैरियर तो चौपट किया ही साथ ही नौजवान होने के बावजूद उस ने शादी न करने का बड़ा फैसला भी लिया. अब अगर उस से कोई पूछ बैठता कि शादी की या नहीं तो इस पर शेखर की प्रतिक्रिया होती कि फिर मां की सेवा कौन करेगा? उम्र ज्यादा होने पर अब वह चाहे भी तो उस की शादी नहीं हो पाएगी और अगर हो भी गई तो क्या उस की पत्नी भी भाभियों की तरह ही मां के साथ दुर्व्यवहार करने लगेगी?

क्या शेखर की यह सोच जायज है? क्या शेखर ने सोचा है कि मां के जाने के बाद जब वह खुद बिस्तर पर पड़ जाएगा, तो उस की सेवा कौन करेगा या फिर उस ने जीवन में इतना कमा लिया है कि नौकर रख कर भी वह आजीवन अपनी सेवा कराएगा?

क्या शेखर को शादी कर अपनी हमसफर को पहले ही स्थिति साफ कर देनी नहीं चाहिए थी? शादी कर अपनी पत्नी को बताना चाहिए था कि मां की सेवा भी करनी पड़ेगी. क्या दुनिया की सारी लड़कियां शेखर की भाभियों की तरह ही होती हैं?

शेखर की तरह ही ऐसे कई घरों में पीकू भी हैं, जो अपना पूरा जीवन अपने बुजुर्ग मातापिता की सेवा में लगा देती हैं. क्या ऐसा करना सही है? कुछ मांएं तो बिलकुल स्वार्थी हो जाती हैं कि बेटी की शादी न करतीं और फिर उन की देखभाल न करें. वे हर लड़के को भगा देती हैं. कुछ शादी के बाद तलाक तक दिला देती हैं.

नर्क से बदतर जिंदगी

जून, 2012 में 2 सगी बहनों को 8 साल खुद की कैद से बाहर निकाला गया. पासपड़ोस के लोग उस समय हक्केबक्के रह गए, जब उन दोनों को हंसतेखेलते 8 सालों से नहीं देखा था. इन दोनों बहनों के पास से बदबू आ रही थी और दोनों ही चलने में असमर्थ हो गई थीं. दोनों इतनी कमजोर थीं क्योंकि कई महीनों से उन्होंने खाने का स्वाद चखना तो दूर बल्कि देखा व सूंघा तक नहीं था. मानसिक हालत तो ऐसे में खराब होनी ही थी.

अब इस कहानी को 8 साल पहले रिवर्स करें तो पाएंगे कि ममता की शादी हो जाने के बाद उस के कुछ सालों बाद पिता भी चले गए. थोड़े दिनों बाद ही गृहक्लेशों के कारण ममता की जिंदगी नर्क से भी बदतर हो गई और बेटे के जन्म के बाद पतिपत्नी का तलाक हो गया. ममता अपने मायके बूढ़ी मां के पास आ गई साथ में छोटी बहन का भी उसे सहारा मिल गया.

बिखर जाती है जिंदगी

अब कहानी यहां से नया टर्न लेती है. धीरेधीरे मानसिक तनाव झेलते इस पूरे परिवार के बुरे दिन शुरू हो गए थे. ममता की हालत व बिखरी लाइफ को देख कर नीरजा भी अवसादग्रस्त हो गई. यहां अब तक कमाने का कोई जरीया नहीं बचा था. हां, सालों में कोई रिश्तेदार मेहरबान होता तो कुछ मदद कर जाता पर कब तक.

बूढ़ी मां का सहारा बनती दोनों बेटियां खुद ही बिस्तर पर पड़ गईं. बेटे के भविष्य की भी चिंता को ममता ने घर कर लिया था पर दूसरी बहन मानसिक रूप से विक्षिप्त होने के चलते उस ने कोई कदम नहीं उठाया और न ही अपनी बहन को उबारा. ममता ने खुद बरबाद होना ज्यादा सही सम?ा. अगर वह थोड़ी हिम्मत दिखाती तो शायद हंसतेखेलते परिवार की ऐसी दुर्दशा नहीं होती.

आज अगर देखें तो 10 परिवारों में करीब

2 परिवार आप को ऐसे मिल जाएंगे जहां बेटा या बेटी की उम्र 35 से 40 वर्ष होगी और उस ने अपना सारा जीवन मां या बाप की देखरेख में समर्पित कर दिया है. ये उम्र ज्यादा हो जाने पर खुद से शादी न करने का फैसला कर लेते हैं या इन्हें शादी के औफर आने बंद हो जाते हैं. अगर औफर आए भी तो बेमेल लोगों के आते हैं, जो लोगों को नागवार गुजरते हैं.

अगर ममता ने ठोस कदम उठाया होता तो वह अपनी मां, बेटे और बहन सभी के लिए मिसाल कायम कर सकती थी. क्या ममता का यह फैसला सही साबित हुआ, अंत तो आप सब के सामने ही है. दोनों बहनों ने कैसे हार कर अपनेआप को कैद कर लिया था.

ब्लैकमेलिंग से नहीं चलते रिश्ते

अकसर वृद्ध होते मांबाप इकलौती बेटी को सैलफिश कह कर अपनी नाजायज मांगें मनवा लेते हैं. इंसानी रिश्तों में ब्लैकमेलिंग अपनाना उचित नहीं है.

अपनी बात मनवाने के लिए जिद्द इख्तियार करना भी ठीक नहीं कहा जा सकता है. किसी बात पर एकराय होने के लिए उस पर स्वस्थ बहस होनी चाहिए. साथ में यह भी देखा जाना चाहिए कि उस से किसी पक्ष का नुकसान न हो.

जहां मां या बाप में से एक की मृत्यु हो चुकी हो कई बार बड़ों के मन में यह बात बैठा दी जाती है कि उन की देखभाल के लिए उन के मातापिता ने दूसरी शादी नहीं की. वे बच्चों को ऐसे तर्क दे कर चुप करा देते हैं और अपनी बात मनवाते हैं. यह ब्लैकमेलिंग बेटियों को मानसिक शिकार बना देती है. वे अपना खुद का रखरखाव करना छोड़ देती हैं.

मेरे बाद क्या, गलत सोच

कई युवा यह सोचते हैं कि उन के अलावा परिजनों की देखभाल कोई और नहीं कर सकता या वे शादी कर लेंगे तो अकेले मां या बाप का क्या होगा. जरूरी नहीं कि आप के पार्टनर को आप के परिजनों की चिंता न हो. आप अपने पेरैंट्स को शादी के बाद भी अपने साथ रख सकते हैं.

इस के लिए आप को अपने पार्टनर को कनविंस करना होगा. ‘गोलमाल 3’ फिल्म एक बढि़या उदाहरण है, जिस में 2 अकेले बुजुर्ग अपने परिवारों को एकसाथ लाने का फैसला करते हैं, इस फैसले से परिवार में कुछ समय के लिए मतभेद हो सकते हैं लेकिन यह भविष्य को ले कर रास्ता दिखाता है.

थोड़ा एडजस्ट करें, प्लीज

जब बेटी अकेली हो तो बात दूसरी, पर कई बार बहन या भाई, मांबाप की जिम्मेदारी अविवाहित बेटी पर डाल कर कन्नी काट लेते हैं. उन की अनचाही बातें पूरी करते फिरते. खैर, यह फिल्म थी. अगर युवतियां अपना कैरियर, लाइफस्टाइल, शादी जैसे अहम फैसले अपने बुजुर्गों के लिए बदल रही हैं, तो थोड़ा ऐडजस्ट उन्हें भी करना पड़ेगा.

जीवन 2 तरीके से जीया जा सकता है. सूखी लकड़ी की तरह कठोर हो कर या हरी लकड़ी की तरह लचीला हो कर. पहले तरीके से दूसरों और खुद को तकलीफ और तनाव ही मिलेगा पर दूसरे तरीके से बेहतर परिणाम निकलने की गुजाइंस बढ़ जाती है. कई मांबाप अपने कमाए पैसे की धौंस पर बेटियों को सही निर्णय नहीं लेने देते. हर बेटी को अपने पूरे जीवन को देख कर फैसले लेने चाहिए.

बोझ न बनें

बारबार दिखाई जाने वाली अभिताभ बच्चन व हेमामालिनी की फिल्म ‘बागबान’ में 4 बच्चों के बावजूद भी उन के मांबाप को अलगथलग रहना पड़ता है. उन 2 बुजुर्गों की जिम्मेदारी इकट्ठे कोई नहीं उठाना चाहता तो वहीं तब वह बुजुर्ग रिटायर होने के बाद भी हिम्मत नहीं हारता और अपनी लिखी खुद की कहानी पर ही किताब लिखने का फैसला करता है.

यानी हम यहां सम?ा सकते हैं कि वह किसी पर भी बो?ा नहीं बनता. इस फिल्म से भी कई निराश लोगों को हिम्मत मिल सकती है क्योंकि एक उम्र के बाद खुद बुजुर्गों को लग सकता है कि वे परिवार पर बो?ा बन गए हैं. यह सोच युवा पीढ़ी के मन में भी आ सकती है. उस से बचने के लिए बुजुर्ग परिवार की मदद कर सकते हैं.

जीवन में अकेले होने पर कई बार तनाव भी घर कर जाता है. ऐसी परिस्थितियों से बचने के लिए बुजुर्ग अपना मन अपने नातीपोते के कामों व उन में लगा सकते हैं. इस से परिवार को भी मदद मिलेगी. अपनी समस्याओं को खुद निबटाएं न कि सब को अपनी समस्या के चलते फांस कर रखें. किसी पर कभी बो?ा न बनें.

बुढ़ापे में कोई क्लब जौइन करना, सोशल होना, दोस्त बनाना, सुबहशाम टहलने जाना बुजुर्गों का मन बहलाने के काम आ सकता है. हमारा शरीर एक मशीन की तरह है, इस का चलना बंद हो गया तो कई पार्ट्स में परेशानी हो सकती है. इन तरीकों से बुजुर्ग परिवार का छोटामोटा काम करने के साथ ही अपना मन भी लगा सकेंगे.

युवाओं को समझना जिम्मेदारी

इस से एक कदम आगे बढ़ कर बुजुर्ग युवतियों को जीवन का मूल्य सम?ाएं. बुजुर्ग पीढ़ी अपने जीवन का बड़ा हिस्सा जी चुकी होती है, इसलिए उन्हें युवाओं को अपने हिसाब से जीने की सलाह देनी चाहिए. बेटियां मांबाप के जोश में कई बार शादी न करते, कैरियर को सैक्रीफाइज करने जैसे कई बड़े फैसले ले लेती हैं, लेकिन बुजुर्गों को अपने अनुभव का हवाला देते हुए उन्हें सम?ाना चाहिए कि ऐसे फैसले बाद में पछतावे की वजह बनते हैं.

सरकार भी दे ध्यान

बुजुर्गों के लिए सामाजिक सुरक्षा बढ़ाए जाने की जरूरत है. उन के लिए बेहतर पैंशन, वृद्धाश्रम, सस्ता अनाज जैसी सुविधाएं बढ़ानी चाहिए. यूरोप के कई देशों में सरकारें सामाजिक सुरक्षा के नाम पर बड़ी रकम खर्च करती हैं. भारत में परिवारों के टूटने का दौर तेजी से बढ़ा है. इस से भी बुजुर्ग अलगथलग पड़ जाते हैं, इसलिए भी सरकार को बुजुर्गों के लिए सुविधाएं बढ़ानी चाहिए ताकि किसी बेटी को अपनी जवानी न खोनी पड़े.

धर्म उठाता है फायदा

भारत में अकसर बच्चों को श्रवण कुमार, राम आदि की कहानियां सुना कर आज्ञाकारी और भक्त बनने को प्रेरित किया जाता है. यह विचार धर्र्म से प्रेरित है. धर्म ने ही सिखाया है कि मातापिता की सेवा श्रवण कुमार की तरह करनी चाहिए. कई बार तो मातापिता तीर्थ यात्राओं जैसे चारधाम आदि की भी मांग करते हैं.

तीर्थयात्रा के अलावा मातापिता के मरने पर उन का श्राद्ध, बरसी, पिंडदान करना जैसे धर्म संस्कार बेटियों से करवा कर उन्हें नकली बनावटी सम्मान दे दिया जाता है. आत्मा की शांति, अगले जन्म के नफेनुकसान दिखा कर अनेक कर्मकांड बेटियों से करवाए जाते हैं और यह दोहरा बोझ बन जाता है.

इन सब चक्करों में न पड़ कर और

किसी दबाव में न आ कर समझदारी से कदम उठाना चाहिए.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...