ऐ दिले नादां: क्या पूरी हुई अनवर की प्रेम कहानी

मेसी मुझे जयपुर से पुष्कर जाने वाली टूरिस्ट बस में मिला था. मैं अकेला ही सीट पर बैठा था. उस वक्त वे तीनों बस में प्रविष्ट हुए. एक सुंदर विदेशी लड़की और 2 नवयुवक अंगरेज. लड़की और उस का एक साथी तो दूसरी सीट पर जा कर बैठे, वह आ कर मेरे बाजू वाली सीट पर बैठ गया. मैं ने उस की तरफ मुसकरा कर देखा तो उस ने भी जबरदस्ती मुसकराने की कोशिश करते हुए देखा.

‘‘यू आर फ्रौम?’’ मैं ने सवाल किया.

‘‘स्पेन,’’ उस ने उत्तर दिया, ‘‘मेरा नाम क्रिस्टियानो मेसी है. वह लड़की मेरे साथ स्पेन से आई है. उस का नाम ग्रेटा अजीबला है और उस के साथ जो लड़का बैठा है वह अमेरिकी है, रोजर फीडर.’’

लड़की उस के साथ स्पेन से आई थी और अब अमेरिकी के साथ बैठी थी. इस बात ने मुझे चौंका दिया. मैं ने गौर से उस का चेहरा देखा. उस का चेहरा सपाट था और वह सामने देख रहा था. मैं ने लड़की की तरफ नजर डाली तो रोजर ने उसे बांहों में ले रखा था और वह उस के कंधे पर सिर रखे अपनी जीभ उस के कान पर फेर रही थी. विदेशी लोगों के लिए इस तरह की हरकतें सामान्य होती हैं. अब हम भारतीयों को भी इस तरह की हरकतों में कोई आकर्षण अनुभव नहीं होता है बल्कि हमारे नवयुवक तो आजकल उन से भी चार कदम आगे हैं.

रोजर और गे्रटा आपस में हंसीमजाक कर रहे थे. मजाक करतेकरते वे एकदूसरे को चूम लेते थे. उन की ये हरकतें बस के दूसरे मुसाफिरों के ध्यान का केंद्र बन रही थीं. लेकिन मेसी को उन की इन हरकतों की कोई परवा नहीं थी. वह निरंतर उन की तरफ से बेखबर सामने शून्य में घूरे जा रहा था. या तो वह जानबूझ कर उन की तरफ नहीं देख रहा था या फिर वह उन्हें, उन की हरकतों को देखना नहीं चाहता था. मेसी का चेहरा सपाट था मगर चेहरे पर एक अजीब तरह की उदासी थी.

‘‘तुम ने कहा, गे्रटा तुम्हारे साथ स्पेन से आई है?’’

‘‘हां, हम दोनों एकसाथ एक औफिस में काम करते हैं. हम ने छुट्टियों में इंडिया की सैर करने की योजना बनाई थी और हम 4 साल से हर महीने इस के लिए पैसा बचाया करते थे. जब हमें महसूस हुआ, काफी पैसे जमा हो गए हैं तो हम ने दफ्तर से 1 महीने की छुट्टी ली और इंडिया आ गए.’’

उस की इस बात ने मुझे और उलझन में डाल दिया था. दोनों स्पेन से साथ आए थे और इंडिया की सैर के लिए बरसों से एकसाथ पैसा जमा कर रहे थे. इस से स्पष्ट प्रकट होता है कि उस के और ग्रेटा के क्या संबंध हैं. ग्रेटा उस वक्त रोजर के साथ थी जबकि उसे मेसी के साथ होना चाहिए था. मगर वह जिस तरह की हरकतें रोजर के साथ कर रही थी इस से तो ऐसा प्रकट हो रहा था जैसे वे बरसों से एकदूसरे को जानते हैं, एकदूसरे को बेइंतिहा प्यार करते हैं या फिर एकदूसरे से गहरा प्यार करने वाले पतिपत्नी हैं.

‘‘क्या ग्रेटा और रोजर एकदूसरे को पहले से जानते हैं?’’ मैं ने उस से पूछा.

‘‘नहीं,’’ मेसी ने उत्तर दिया, ‘‘ग्रेटा को रोजर 8 दिन पूर्व मिला. वह उसी होटल में ठहरा था जिस में हम ठहरे थे. दोनों की पहचान हो गई और हम लोग साथसाथ घूमने लगे…और एकदूसरे के इतना समीप आ गए…’’ उस ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी.

मैं एकटक उसे देखता रहा.

‘‘ये पुष्कर क्या कोई धार्मिक पवित्र स्थान है?’’ मेसी ने विषय बदल कर मुझ से पूछा.

‘‘पता नहीं, मुझे ज्यादा जानकारी नहीं. मैं मुंबई से हूं. अमृतसर से आते हुए 2 दिन के लिए यहां रुक गया था. एक दिन जयपुर की सैर की. आज पुष्कर जा रहा हूं. साथ ही ये बस अजमेर भी जाएगी,’’ मैं ने उत्तर दिया.

‘‘हम लोग दिल्ली, आगरा में 8 दिन रहे. जयपुर में 8 दिन रहेंगे. वहां से मुंबई जाएंगे. वहां 3-4 दिन रहने के बाद गोआ जाएंगे और फिर गोआ से स्पेन वापस,’’ मेसी ने अपनी सारी भविष्य की यात्रा की योजना सुना दी और आगे कहा, ‘‘सुना है पुष्कर एक पवित्र स्थान है, जहां मंदिर में विदेशी पर्यटक हिंदू रीतिरिवाज से शादी करते हैं. हम लोग इसीलिए पुष्कर जा रहे हैं. वहां ग्रेटा और रोजर हिंदू रीतिरिवाज से शादी करेंगे?’’ मेसी ने बताया.

‘‘लेकिन शादी तो गे्रटा को तुम से करनी चाहिए थी. तुम ने बताया कि तुम ने यहां आने के लिए एकसाथ 4 सालों तक पैसे जमा किए हैं और तुम दोनों एकसाथ काम करते हो.’’

‘‘ये सच है कि इस साल हम शादी करने वाले थे,’’ मेसी ने ठंडी सांस भर कर बताया, ‘‘इसलिए साथसाथ भारत की सैर की योजना बनाई थी. हम बरसों से पतिपत्नी की तरह रह रहे हैं मगर…’’

‘‘मगर क्या?’’ मैं ने प्रश्नभरी नजरों से मेसी की ओर देखा.

‘‘अब ग्रेटा को रोजर पसंद आ गया है,’’ उस ने एक ठंडी सांस ली, ‘‘तो कोई बात नहीं, ग्रेटा की इच्छा, मेरे लिए दुनिया में उस की खुशी से बढ़ कर कोई चीज नहीं है.’’

मेसी की इस बात पर मैं उस की आंखों में झांकने लगा. उस की आंखों से एक पीड़ा झलक रही थी. मैं ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा. वह 28-30 साल का एक मजबूत कदकाठी वाला युवक था. लेकिन जिस तरह बातें कर रहा था और उस के चेहरे के जो भाव थे, आंखों में जो पीड़ा थी मुझे तो वह कोई असफल भारतीय प्रेमी महसूस हो रहा था. उस की प्रेमिका एक पराए पुरुष के साथ मस्ती कर रही है लेकिन वह फिर भी चुपचाप तमाशा देख रहा है, पे्रमिका की खुशी के लिए…इस बारे में सोचते हुए मेरे होंठों पर एक मुसकराहट रेंग गई. यह प्रेम की भावना है. जो भावना भारतीय प्रेमियों के दिल में होती है वही भावना मौडर्न कहलाने वाले यूरोपवासी के दिल में भी होती है. दिल के रिश्ते हर जगह एक से होते हैं. सच्चा और गहरा प्यार हर इंसान की धरोहर है, उसे न तो सीमा में कैद किया जा सकता है और न देशों में बांटा जा सकता है.

जब मेसी ये सारी बातें बता रहा था तो वह एक असफल प्रेमी तो लग ही रहा था, अपनी प्रेमिका से कितना प्यार करता है, उस की बातों से स्पष्ट झलक रहा था साथ ही उस की भावनाओं से एक सच्चे प्रेमी, आशिक का त्याग भी टपक रहा था. बस चल पड़ी. इस के बाद हमारे बीच कोई बात नहीं हो सकी. मगर वह कभीकभी अपनी स्पेनी भाषा में कुछ बड़बड़ाता था जो मेरी समझ में नहीं आता था लेकिन जब मैं ने एक बार उस की आंखों में आंसू देखे तो मैं चौंक पड़ा और मुझे इन आंसुओं का और उस की बड़बड़ाहट का मतलब भी अच्छी तरह समझ में आ गया. आंसू प्रेमिका की बेवफाई के गम में उस की आंखों में आ रहे थे और जो वह बड़बड़ा रहा था, मुझे विश्वास था उस की अपनी बेवफा प्रेमिका से शिकायत के शब्द होंगे. ग्रेटा और रोजर की मस्तियां कुछ ज्यादा ही बढ़ गई थीं. मैं तो पूरे ध्यान से उन की मस्तियां देख रहा था. वह भी कभीकभी मुड़ कर दोनों को देख लेता था लेकिन जैसे ही वह ग्रेटा और रोजर को किसी आपत्तिजनक स्थिति में पाता था, झटके से अपनी गरदन दूसरी ओर कर लेता था. जबकि मैं उन की आपत्तिजनक स्थिति से न सिर्फ पूरी तरह आनंदित हो रहा था बल्कि पहलू बदलबदल कर उन की हरकतों को भी देख रहा था.

पुष्कर आने से पूर्व हम ने एकदूसरे से थोड़ी बातचीत की. एकदूसरे के मोबाइल नंबर और ईमेल लिए, इस के बाद वे तीनों पुष्कर में मुझ से जुदा हो गए क्योंकि पुष्कर में बस 2-3 घंटे रुकने वाली थी. पुष्कर में एक बड़ा सा स्टेडियम है जहां पर हर साल प्रसिद्ध पुष्कर मेला लगता है. इस में ऊंटों की दौड़ भी होती है. वहां मैं ने कई विदेशी जोड़ों को देखा, जिन के माथे पर टीका लगा हुआ था और गले में फूलों का हार था. पुष्कर घूमने के लिए आने वाले विदेशी पर्यटक बड़े शौक से हिंदू परंपरा के अनुसार विवाह करते हैं. उन का वहां हिंदू परंपरा अनुसार विवाह कराया जाता है फिर चाहे वह विवाहित हों या कुंवारे हों.

वापसी में भी वे हमारे साथ थे. मेसी मेरे बाजू में आ बैठा और ग्रेटा और रोजर अपनी सीट पर. तीनों के माथे पर बड़ा सा टीका लगा हुआ था और गले में गेंदे के फूलों का हार था जो इस बात की गवाही दे रहा था कि रोजर और ग्रेटा ने वहां पर हिंदू परंपरा के अनुसार शादी कर ली है. वापसी में बस अजमेर रुकी. मेसी भी मेरे साथ आया. जब वह उस स्थान के बारे में पूछने लगा तो मैं ने संक्षिप्त में ख्वाजा गरीब नवाज के बारे में बताया.

लौट कर बोला, ‘‘यहां बहुत लोग कह रहे थे कि कुछ इच्छा है तो मांग लो, शायद पूरी हो जाए.’’

‘‘तुम ने कुछ मांगा?’’ मैं ने मुसकरा कर पूछा.

‘‘हां,’’ उस का चेहरा गंभीर था.

‘‘क्या?’’

‘‘हम ने अपना प्यार मांगा?’’

‘‘प्यार? कौन?’’

‘‘ग्रेटा.’’

एक शब्द में उस ने सारी कहानी कह दी थी. और उस की इस बात से यह साफ प्रकट हो रहा था कि वह गे्रटा को कितना प्यार करता है. वही गे्रटा जो कुछ दिन पूर्व तक तो उस से प्यार करती थी, इस से शादी भी करना चाहती थी…लेकिन यहां उसे रोजर मिल गया. रोजर उसे पसंद आ गया तो अब वह रोजर के साथ है. यह भी भूल गई है कि मेसी उसे कितना प्यार करता है. वे एकदूसरे को सालों से जानते हैं. सालों से एकदूसरे से प्यार करते हैं और शादी भी करने वाले थे. लेकिन पता नहीं उसे रोजर में ऐसा क्या दिखाई दिया या रोजर ने उस पर क्या जादू किया, अब वह रोजर के साथ है. रोजर से प्यार करती है. मेसी के प्यार को भूल गई है. यह भूल गई है कि वह मेसी के साथ भारत की सैर करने के लिए आई है. वह मेसी, जिसे वह चाहती है और जो उसे दीवानगी की हद तक चाहता है. सुना है कि विदेशों में प्यार नाम की कोई चीज ही नहीं होती है. प्यार के नाम पर सिर्फ जरूरत पूरी की जाती है. जरूरत पूरी हो जाने के बाद सारे रिश्ते खत्म हो जाते हैं.

शायद गे्रटा भी मेसी से अभी तक अपनी जरूरत पूरी कर रही थी. जब उस का दिल मेसी से भर गया तो वह अपनी जरूरत रोजर से पूरी कर रही है. लेकिन मेसी तो इस के प्यार में दीवाना है. बस वाले हमारा ही इंतजार कर रहे थे. हम बस में आए और बस चल पड़ी. रोजर और ग्रेटा एकदूसरे की बांहों में समाते हुए एकदूसरे का चुंबन ले रहे थे. वह पश्चिम का एक सुशिक्षित युवक दिल के हाथों कितना विवश हो गया है और अपने दिल के हाथों मजबूर हो कर स्वयं को धोखा देने वाली की बातें करने लगा है. गंडेतावीज भी पहनने लगा है जो अजमेर की दरगाह पर थोक के भाव में मिलते हैं.

जयपुर में वे अपने होटल के पास उतर गए, मैं अपने होटल पर. उस ने मेरा फोन नंबर व ईमेल आईडी ले लिया और कहा कि वह मुझे फोन करता रहेगा. मैं रात में ही मुंबई के लिए रवाना हो गया और उस को लगभग भूल ही गया. 8 दिन बाद अचानक उस का फोन आया.

‘‘हम लोग मुंबई में हैं और कल गोआ जा रहे हैं.’’

‘‘अरे तो पहले मुझ से क्यों नहीं कहा. मैं तुम से मिलता. आज या कल तुम से मिलूं?’’

‘‘आज हम एलीफैंटा गुफा देखने जाएंगे और कल गोआ के लिए रवाना होना है. इस से कल भी मुलाकात संभव नहीं.’’

‘‘गे्रटा कैसी है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘रोजर के साथ बहुत खुश है,’’ उस का स्वर उदास था.

इस के बाद उस का गोआ से एक बार फोन आया, ‘‘हम गोआ में हैं. बहुत अच्छी जगह है. इतना अच्छा समुद्री तट मैं ने आज तक नहीं देखा. मुझे ऐसा महसूस हो रहा है मानो मैं अपने देश या यूरोप के किसी देश में हूं. 4 दिन के बाद मैं स्पेन चला जाऊंगा. गे्रटा भी मेरे साथ स्पेन जाएगी. लेकिन वह दूसरे दिन न्यूयार्क के लिए रवाना हो जाएगी. वहां रोजर उस का इंतजार कर रहा होगा. वह हमेशा के लिए स्पेन छोड़ देगी. अब वे दोनों वहां के रीतिरिवाज के अनुसार शादी करने वाले हैं.’’ उस की बात सुन कर मैं ने ठंडी सांस ली, ‘‘कोई बात नहीं मेसी, गे्रटा को भूल जाओ, कोई और गे्रटा तुम्हें मिल जाएगी. तुम गे्रटा को प्यार करते हो न. तुम्हारे लिए तो गे्रटा की खुशी से बढ़ कर कोई चीज नहीं है. गे्रटा की खुशी ही तुम्हारी खुशी है,’’ मैं ने समझाया.

‘‘हां,अनवर यह बात तो है,’’ उस ने मरे स्वर में उत्तर दिया. इस के बाद उस से कोई संपर्क नहीं हो सका. एक महीने के बाद जब एक दिन मैं ईमेल चैक कर रहा था तो अचानक उस का ईमेल मिला : ‘गे्रटा अमेरिका नहीं जा सकी. रोजर ने उस से शादी करने से इनकार कर दिया. वह कई दिनों तक बहुत डिस्टर्ब  रही. अब वह नौर्मल हो रही है. ‘हम लोग अगले माह शादी करने वाले हैं. अगर आ सकते हो तो हमारी शादी में शामिल होने जरूर आओ. मैं सारे प्रबंध करा दूंगा.’ उस का ईमेल पढ़ कर मेरे होंठों पर एक मुसकराहट रेंग गई. और मैं उत्तर में उसे मुबारकबाद और शादी में शामिल न हो सकने का ईमेल टाइप करने लगा.

पहचान: क्या रूपाली को पसंद आया भाभी का उपहार

बड़ी जेठानी ने माथे का पसीना पोंछा और धम्म से आंगन में बिछी दरी पर बैठ गईं. तभी 2 नौकरों ने फोम के 2 गद्दे ला कर तख्त पर एक के ऊपर एक कर के रख दिए. दालान में चावल पछोरती ननद काम छोड़ कर गद्दों को देखने लगी. छोटी चाची और अम्माजी भी आंगन की तरफ लपकीं. बड़ी जेठानी ने गर्वीले स्वर में बताया, ‘‘पूरे ढाई हजार रुपए के गद्दे हैं. चादर और तकिए मिला कर पूरे 3 हजार रुपए खर्च किए हैं.’’

आसपास जुटी महिलाओं ने सहमति में सिर हिलाया. गद्दे वास्तव में सुंदर थे. बड़ी बूआ ने ताल मिलाया, ‘‘अब ननद की शादी में भाभियां नहीं करेंगी तो कौन करेगा?’’ ऐसे सुअवसर को खोने की मूर्खता भला मझली जेठानी कैसे करती. उस ने तड़ से कहा, ‘‘मैं तो पहले ही डाइनिंग टेबल का और्डर दे चुकी हूं. आजकल में बन कर आती ही होगी. पूरे 4 हजार रुपए की है.’’

घर में सब से छोटी बेटी का ब्याह था. दूरपास के सभी रिश्तेदार सप्ताहभर पहले ही आ गए थे. आजकल शादीब्याह में ही सब एकदूसरे से मिल पाते हैं. सभी रिश्तेदारों ने पहले ही अपनेअपने उपहारों की सूची बता दी थी, ताकि दोहरे सामान खरीदने से बचा जा सके शादी के घर में.

अकसर रोज ही उपहारों की किस्म और उन के मूल्य पर चर्चा होती. ऐसे में वसुंधरा का मुख उतर जाता और वह मन ही मन व्यथित होती.

वसुंधरा के तीनों जेठों का व्यापार था. उन की बरेली शहर में साडि़यों की प्रतिष्ठित दुकानें थीं. सभी अच्छा खाकमा रहे थे. उस घर में, बस, सुकांत ही नौकरी में था. वसुंधरा के मायके में भी सब नौकरी वाले थे, इसीलिए उसे सीमित वेतन में रहने का तरीका पता था. सो, जब वह पति के साथ इलाहाबाद रहने गई तो उसे कोई कष्ट न हुआ.

छोटी ननद रूपाली का विवाह तय हुआ तो उसे बड़ी प्रसन्नता हुई, क्योंकि रूपाली की ससुराल उसी शहर में थी जहां उस के बड़े भाई नियुक्त थे. वसुंधरा पुलकित थी कि भाई के घर जाने पर वह ननद से भी मिल लिया करेगी. वैसे भी रूपाली से उसे बड़ा स्नेह था. जब वह ब्याह कर आई थी तो रूपाली ने उसे सगी बहन सा अपनत्व दिया था. परिवार के तौरतरीकों से परिचित कराया और कदमकदम पर साथ दिया.

शादी तय होने की खबर पाते ही वह हर महीने 5 सौ रुपए घरखर्च से अलग निकाल कर रखने लगी. छोटी ननद के विवाह में कम से कम 5 हजार रुपए तो देने ही चाहिए और अधिक हो सका तो वह भी करेगी. वेतनभोगी परिवार किसी एक माह में ही 5 हजार रुपए अलग से व्यय कर नहीं सकता. सो, बड़ी सूझबूझ के साथ वसुंधरा हर महीने 5 सौ रुपए एक डब्बे में निकाल कर रखने लगी.

1-2 महीने तो सुकांत को कुछ पता न चला. फिर जानने पर उस ने लापरवाही से कहा, ‘‘वसुंधरा,  तुम व्यर्थ ही परेशान हो रही हो. मेरे सभी भाई जानते हैं कि मेरा सीमित वेतन है. अम्मा और बाबूजी के पास भी काफी पैसा है. विवाह अच्छी तरह निबट जाएगा.’’

वसुंधरा ने तुनक कर कहा, ‘‘मैं कब कह रही हूं कि हमारे 5-10 हजार रुपए देने से ही रूपाली की डोली उठेगी. परंतु मैं उस की भाभी हूं. मुझे भी तो कुछ न कुछ उपहार देना चाहिए.’’

‘‘जैसा तुम ठीक समझो,’’ कह कर सुकांत तटस्थ हो गए.

वसुंधरा को पति पर क्रोध भी आया कि कैसे लापरवाह हैं. बहन की शादी है और इन्हें कोई फिक्र ही नहीं. इन का क्या? देखना तो सबकुछ मुझे ही है. ये जो उपहार देंगे उस से मेरा भी तो मान बढ़ेगा और अगर उपहार नहीं दिया तो मैं भी अपमानित होऊंगी, वसुंधरा ने मन ही मन विचार किया और अपनी जमापूंजी को गिनगिन कर खुश रहने लगी.

जैसा सोचा था, वैसा ही हुआ. रूपाली के विवाह के एक माह पहले ही उस के पास 5 हजार रुपए जमा हो गए. उस का मन संतोष से भर उठा. उस ने सहर्ष सुकांत को अपनी बचत राशि दिखाई. दोनों बड़ी देर तक विवाह की योजना की कल्पना में खोए रहे.

विवाह में जाने से पहले बच्चे के कपड़ों का भी प्रबंध करना था. वसुंधरा पति के औफिस जाते ही नन्हे मुकुल के झालरदार झबले सिलने बैठ जाती. इधर कई दिनों से मुकुल दूध पीते ही उलटी कर देता. पहले तो वसुंधरा ने सोचा कि मौसम बदलने से बच्चा परेशान है. परंतु जब 3-4 दिन तक बुखार नहीं उतरा तो वह घबरा कर बच्चे को डाक्टर के पास ले गई. 2 दिन दवा देने पर भी जब बुखार नहीं उतरा तो डाक्टर ने खूनपेशाब की जांच कराने को कहा. जांच की रिपोर्ट आते ही सब के होश उड़ गए. बच्चा पीलिया से बुरी तरह पीडि़त था. बच्चे को तुरंत नर्सिंग होम में भरती करना पड़ा.

15 दिन में बच्चा तो ठीक हो कर घर आ गया परंतु तब तक सालभर में यत्न से बचाए गए 5 हजार रुपए खत्म हो चुके थे. बच्चे के ठीक होने का संतोष एक तरफ था तो दूसरी ओर अगले महीने छोटी ननद के विवाह का आयोजन सामने खड़ा था. वसुंधरा चिंता से पीली पड़ गई. एक दिन तो वह सुकांत के सामने फूटफूट कर रोने लगी. सुकांत ने उसे धीरज बंधाते हुए कहा, ‘‘अपने परिवार को मैं जानता हूं. अब बच्चा बीमार हो गया तो उस का इलाज तो करवाना ही था. पैसे इलाज में खर्च हो गए तो क्या हुआ? आज हमारे पास पैसा नहीं है तो शादी में नहीं देंगे. कल पैसा आने पर दे देंगे.’’

वसुंधरा ने माथा ठोक लिया, ‘‘लेकिन शादी तो फिर नहीं होगी. शादी में तो एक बार ही देना है. किसकिस को बताओगे कि तुम्हारे पास पैसा नहीं है. 10 साल से शहर में नौकरी कर रहे हो. बहन की शादी के समय पर हाथ झाड़ लोगे तो लोग क्या कहेंगे?’’

बहस का कोई अंत न था. वसुंधरा की समझ में नहीं आ रहा था कि वह खाली हाथ ननद के विवाह में कैसे शामिल हो. सुकांत अपनी बात पर अड़ा था. आखिर विवाह के 10 दिन पहले सुकांत छुट्टी ले कर परिवार सहित अपने घर आ पहुंचा. पूरे घर में चहलपहल थी. सब ने वसुंधरा का स्वागत किया. 2 दिन बीतते ही जेठानियों ने टटोलना शुरू किया, ‘‘वसुंधरा, तुम रूपाली को क्या दे रही हो?’’

वसुंधरा सहम गई मानो कोई जघन्य अपराध किया हो. बड़ी देर तक कोई बात नहीं सूझी, फिर धीरे से बोली, ‘‘अभी कुछ तय नहीं किया है.’’

‘पता नहीं सुकांत ने अपने भाइयों को क्या बताया और अम्माजी से क्या कहा,’ वसुंधरा मन ही मन इसी उलझन में फंसी रही. वह दिनभर रसोई में घुसी रहती. सब को दिनभर चायनाश्ता कराते, भोजन परोसते उसे पलभर का भी कोई अवकाश न था. परंतु अधिक व्यस्त रहने पर भी उसे कोई न कोई सुना जाता कि वह कितने रुपए का कौन सा उपहार दे रही है. वसुंधरा लज्जा से गड़ जाती. काश, उस के पास भी पैसे होते तो वह भी सब को अभिमानपूर्वक बताती कि वह क्या उपहार दे रही है.

वसुंधरा को सब से अधिक गुस्सा सुकांत पर आता जो इस घर में कदम रखते ही मानो पराया हो गया. पिछले एक सप्ताह से उस ने वसुंधरा से कोई बात नहीं की थी. वसुंधरा ने बारबार कोशिश भी की कि पति से कुछ समय के लिए एकांत में मिले तो उन्हें फिर समझाए कि कहीं से कुछ रुपए उधार ले कर ही कम से कम एक उपहार तो अवश्य ही दे दें. विवाह में आए 40-50 रिश्तेदारों के भरेपूरे परिवार में वसुंधरा खुद को अत्यंत अकेली और असहाय महसूस करती. क्या सभी रिश्ते पैसों के तराजू पर ही तोले जाते हैं. भाईभाभी का स्नेह, सौहार्द का कोई मूल्य नहीं. जब से वसुंधरा ने इस घर में कदम रखा है, कामकाज में कोल्हू के बैल की तरह जुटी रहती है. बीमारी से उठे बच्चे पर भी ध्यान नहीं देती. बच्चे को गोद में बैठा कर दुलारनेखिलाने पर भी उसे अपराधबोध होता. वह अपनी सेवा में पैसों की भरपाई कर लेना चाहती थी.

वसुंधरा मन ही मन सोचती, ‘अम्माजी मेरा पक्ष लेंगी. जेठानियों के रोबदाब के समक्ष मेरी ढाल बन जाएंगी. रिश्तेदारों का क्या है. विवाह में आए हैं, विदा होते ही चले जाएंगे. उन की बात का क्या बुरा मानना. शादीविवाह में हंसीमजाक, एकदूसरे की खिंचाई तो होती ही है. घरवालों के बीच अच्छी अंडरस्टैंडिंग रहे, यही जरूरी है.’

परंतु अम्माजी के हावभाव से किसी पक्षधरता का आभास न होता. एक नितांत तटस्थ भाव सभी के चेहरे पर दिखाई देता. इतना ही नहीं, किसी ने व्यग्र हो कर बच्चे की बीमारी के बारे में भी कुछ नहीं पूछा. वसुंधरा ने ही 1-2 बार बताने का प्रयास किया कि किस प्रकार बच्चे को अस्पताल में भरती कराया, कितना व्यय हुआ? पर हर बार उस की बात बीच में ही कट गई और साड़ी, फौल, ब्लाउज की डिजाइन में सब उलझ गए. वसुंधरा क्षुब्ध हो गई. उसे लगने लगा जैसे वह किसी और के घर विवाह में आई है, जहां किसी को उस के निजी सुखदुख से कोई लेनादेना नहीं है. उस की विवशता से किसी को सरोकार नहीं है.

वसुंधरा को कुछ न दे पाने का मलाल दिनरात खाए जाता. जेठानियों के लाए उपहार और उन की कीमतों का वर्णन हृदय में फांस की तरह चुभता, पर वह किस से कहती अपने मन की व्यथा. दिनरात काम में जुटी रहने पर भी खुशी का एक भी बोल नहीं सुनाई पड़ता जो उस के घायल मन पर मरहम लगा पाता.

शारीरिक श्रम, भावनात्मक सौहार्द दोनों मिल कर भी धन की कमी की भरपाई में सहायक न हुए. भावशून्य सी वह काम में लगी रहती, पर दिल वेदना से तारतार होता रहता. विवाह धूमधाम से संपन्न हुआ.

सभी ने बढ़चढ़ कर इस अंतिम आयोजन में हिस्सा लिया. विदा के समय वसुंधरा ने सब की नजर बचा कर गले में पड़ा हार उतारा और गले लिपट कर बिलखबिलख कर रोती रूपाली के गले में पहना दिया.

रूपाली ससुराल में जा कर सब को बताएगी कि छोटी भाभी ने यह हार दिया है, हार 10 हजार रुपए से भला क्या कम होगा. पिताजी ने वसुंधरा की पसंद से ही यह हार खरीदा था. हार जाने से वसुंधरा को दुख तो अवश्य हुआ, पर अब उस के मन में अपराधबोध नहीं था. यद्यपि हार देने का बखान उस ने सास या जेठानी से नहीं किया, पर अब उस के मन पर कोई बोझ नहीं था. रूपाली मायके आने पर सब को स्वयं ही बताएगी. तब सभी उस का गुणगान करेंगे. वसुंधरा के मुख पर छाए चिंता के बादल छंट गए और संतोष का उजाला दमकने लगा.

रूपाली की विदाई के बाद से ही सब रिश्तेदार अपनेअपने घर लौटने लगे थे. 2 दिन रुक कर सुकांत भी वसुंधरा को ले कर इलाहाबाद लौट आए. कई बार वसुंधरा ने सुकांत को हार देने की बात बतानी चाही, पर हर बार वह यह सोच कर खामोश हो जाती कि उपहार दे कर ढिंढोरा पीटने से क्या लाभ? जब अपनी मरजी से दिया है, अपनी चीज दी है तो उस का बखान कर के पति को क्यों लज्जित करना. परंतु स्त्रीसुलभ स्वभाव के अनुसार वसुंधरा चाहती थी कि कम से कम पति तो उस की उदारता जाने. एक त्योहार पर वसुंधरा ने गहने पहने, पर उस का गला सूना रहा. सुकांत ने उस की सजधज की प्रशंसा तो की, पर सूने गले की ओर उस की नजर न गई.

वसुंधरा मन ही मन छटपटाती. एक बार भी पति पूछे कि हार क्यों नहीं पहना तो वह झट बता दे कि उस ने पति का मान किस प्रकार रखा. लेकिन सुकांत ने कभी हार का जिक्र नहीं छेड़ा.

एक शाम सुकांत अपने मित्र  विनोद के साथ बैठे चाय पी रहे  थे. विनोद उन के औफिस में ही लेखा विभाग में थे. विनोद ने कहा, ‘‘अगले महीने तुम्हारे जीपीएफ के लोन की अंतिम किस्त कट जाएगी.’’

सुकांत ने लंबी सांस ली, ‘‘हां, भाई, 5 साल हो गए. पूरे 15 हजार रुपए लिए थे.’’ संयोग से बगल के कमरे में सफाई करती वसुंधरा ने पूरी बात सुन ली. वह असमंजस में थी. सोचा कि सुकांत ने जीपीएफ से तो कभी लोन नहीं लिया. लोन लिया होता तो मुझ को अवश्य पता होता. फिर 15 हजार रुपए कम नहीं होते. सुकांत में तो कोई गलत आदतें भी नहीं हैं, न वह जुआ खेलता है न शराब पीता है. फिर 15 हजार रुपए का क्या किया. अचानक वसुंधरा को याद आया कि 5 साल पहले ही तो रूपाली की शादी हुई थी.

वसुंधरा अपनी विवशता पर फूटफूट कर रोने लगी. काश, सुकांत ने उसे बताया होता. उस पर थोड़ा विश्वास किया होता. तब वह ननद की शादी में चोरों की तरह मुंह छिपाए न फिरती. हार जाने का गम उसे नहीं था. हार का क्या है, अपने लौकर में पड़ा रहे या ननद के पास, आखिर उस से रहा नहीं गया. उस ने सुकांत से पूछा तो उस ने बड़े निरीह स्वर में कहा, ‘‘मैं ने सोचा, मैं बताऊंगा तो तुम झगड़ा करोगी,’’ फिर जब वसुंधरा ने हार देने की बात बताई तो सुकांत सकते में आ गया. फिर धीमे स्वर में बोला, ‘‘मुझे क्या पता था तुम अपना भी गहना दे डालोगी. मैं तो समझता था तुम बहन के विवाह में 15 हजार रुपए देने पर नाराज हो जाओगी,’’ वसुंधरा के मौन पर लज्जित सुकांत ने फिर कहा, ‘‘वसुंधरा, मैं तुम्हें जानता तो वर्षों से हूं किंतु पहचान आज सका हूं.’’

वसुंधरा को अपने ऊपर फक्र हो रहा था, पति की नजरों में वह ऊपर जो उठ गई थी.

मेडिक्लेम खरीद रहे हैं तो इन 9 बातों पर दें ध्यान

हम सभी अपनी हेल्थ को लेकर हमेशा चिंतित रहते हैं. चाहे बूढ़े मां बाप हो या छोटे बच्चें सबकी बीमारी में अस्पताल में होने वाला खर्च आपकी सेविंग पर बड़ा असर डालते है. उम्र से संबंधित रोग ऐसे हैं जिन्हें आप रोक नहीं सकते. दूसरी और युवा अपनी लाइफ स्टाइल के कारण अलग तरह के रोगों का शिकार हो रहे हैं. अगर आपने पूरी तैयारी नहीं की है तो मेडिकल का खर्च आपकी बचत साफ कर देगा.

मेडिकल के इस तरह के खर्चों के लिए हेल्थ इंश्योरेंस बहुत जरूरी है. इसमें दो तरह की पॉलिसी होती है. एक अकेले व्यक्ति के लिए और दूसरी पूरे परिवार के लिए. परिवार के लिए किए गए मेडिक्लेम की पॉलिसी का कोई भी सदस्य उपयोग कर सकता है.

अगर आप मेडिक्लेम पॉलिसी खरीद रहें हैं तो इन बातों का जरूर ध्यान रखें

1. पॉलिसी में अस्पताल में भर्ती होने और बाद के खर्च की सुविधा हो

2. कैशलेस सेवा के लिए हॉस्पिटल की लंबी सूची हो, आपके शहर के नामी हॉस्पिटल उस सूची में हों

3. इंश्योरेंस कंपनी की तरफ से 24*7 सहयोग की सेवा हो

4. क्लेम निपटाने की प्रक्रिया आसान हो

5. इनकम टैक्स छूट का लाभ हो, सेक्शन 80 (डी) के तहत इनकम टैक्स में छूट

6. कमरों के किराए पर किसी तरह की लिमिट न हो

7. क्रिटिकल इलनेस प्लान की सुविधा. इसमें कैंसर, टूटी जांघों, जलने और ह्दय से संबंधित रोगों को कवर किया जाता है

8. जीवन भर रिन्यूवल की सुविधा, हर साल रिन्यूवल छूट पर भी ध्यान दें

9. क्लेम जल्दी निपटाने की सुविधा

आजकल अधिकतर कंपनियां हेल्थ इंश्योरेंस ऑनलाइन खरीदने का विकल्प दे रही हैं. कंपनियों की वेबसाइट पर जाकर आप आसानी से प्रीमियम कैल्कुलेट कर सकते हैं. इसके लिए आपको उम्र और परिवार के सदस्यों की जानकारी देनी होगी. आप ऑनलाइन प्रीमियम का पेमेंट भी कर सकते हैं. इसके बाद पॉलिसी की आपको ईमेल और आपके पते पर भेज दी जाती है. पॉलिसी पसंद नहीं आने पर आप 15 दिन के भीतर उसे लौटा भी सकते हैं.

Senco Teej Special: तीज के मौके पर पत्नी को दें ये खास गिफ्ट

पति पत्नी के रिश्तों में त्योहार सबसे बड़ा महत्व रखता है. इन्ही त्योहार में से एक तीज का त्योहार है, जिसे बड़े धूमधाम से सेलिब्रेट किया जाता है. इस त्योहार में महिलाएं सोलह श्रृंगार करती हैं और अपने पति के लिए व्रत रखती है. लेकिन क्या पति को भी अपनी पत्नियों को तोहफा देकर शुक्रिया अदा नहीं करना चाहिए. इसीलिए सेन्को लाया है तीज के मौके पर लेटेस्ट गोल्ड एंड डायमंड्स सेट का कलेक्शन, जिसे आप गिफ्ट करके अपनी खूबसूरत पत्नी का दिल जीत सकते हैं.

सेन्को के इस खास कलेक्शन में आपको मिलेंगे एक से बढ़कर एक गोल्ड एंड डायमंड के हैवी नेकलेस, ईयरिंग और झुमके, कंगन, रिंग्स और बहुत कुछ…

सेन्को तीज स्पेशल कॉन्टेस्ट…

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प्रायश्चित्त- भाग 2: क्या प्रकाश को हुआ गलती का एहसास

‘एक परिवार टूटता है तो कितने सपने टूटते हैं, कितने अरमान बिखरते हैं, पता है तुझे? प्रेम, जिस प्रेम की तू दुहाई दे रही है वह प्रेम नहीं, भ्रम है तेरा. कोरी वासना है. ऐसे पुरुष कायर होते हैं, न वे पत्नी के होते हैं न प्रेमिका के. प्रेम में कोई इतना स्वार्थी कैसे हो सकता है? किसी के अरमानों की लाश पर अपने प्रेम का महल खड़ा करेगी तू. अपना किया किसी न किसी रूप में एक दिन अपने ही सामने आता है, पछताएगी तू,’ मां एक लंबी सांस ले कर फिर बोलीं, ‘कोई भी निर्णय लेने से पहले सोच ले, कहीं ऐसा न हो कि अपमान और तिरस्कार के दर्द को धोने के लिए तेरे पास प्रायश्चित्त के आंसू भी कम पड़ जाएं, पर मैं जानती हूं कि इसे तू समझ नहीं सकेगी. तू समझना ही नहीं चाहती. मेरी बात मान ले और एक बार प्रकाश की पत्नी से मिल कर आ.’

निशा तो नहीं गई, पर एक दिन निशा की मां माया प्रकाश की पत्नी रजनी से मिलने पहुंच गईं. रजनी को देख कर माया पलकें झपकाना भी भूल गईं. उन का मुंह खुला का खुला रह गया. रजनी कितनी सुंदर थी. निशा और रजनी की क्या तुलना, क्या यही देख कर प्रकाश निशा की ओर आकृष्ट हुआ.

‘बेटा, मैं निशा की मां हूं. पता है तुझे निशा और प्रकाश…’ वे आगे कुछ कह न सकीं. ‘पता है,’ सारी पीड़ा को मन के कुएं में डाल कर रजनी ने मानो मुसकराहट के आवरण से चेहरा ढक दिया हो. ‘और तू चुप है?’

‘और क्या करूं, मां?’ उस के  मुख से ‘मां’ का संबोधन सुन माया चकित थीं. रजनी बोलती रही, ‘प्यार कोई किला तो नहीं है न जिस के चारों ओर पहरा लगाया जाए या उसे जीतने के लिए जान की बाजी लगा दी जाए, आखिर कुछ तो होगा ही निशा में जो मेरा प्रकाश मुझ से छीन ले गई.’

‘बेटा, तुम ने प्रकाश से बात की?’ ‘मुझे उन से कोई बात नहीं करनी, वे कोई भी निर्णय लेने के लिए आजाद हैं. मां, वह प्यार क्या जिसे झली फैला कर भीख की तरह मांगा जाए. अधिकार तो दिया जाता है, जो छीना जाए उस अधिकार में प्यार कहां? आप चिंतित न हों.’

‘कैसे चिंतित न होऊं, एक मां हूं मैं, किसी की दुनिया उजाड़ कर बेटी की मांग सजाऊं? सारा दोष निशा का है.’ ‘निशा को क्यों दोष दे रही हैं आप, वह तो न मुझ से मिली है न मुझे जानती है, वह मेरी दुश्मन कैसे हो सकती है. दोष है तो मेरे समय का.’

‘और प्रकाश? प्रकाश का कोई कुसूर नहीं?’ ‘है मां, लेकिन, उसे सजा देने वाली मैं कौन होती हूं. अब तो उन्होंने मुझ से माफी मांगने का अपना अधिकार भी खो दिया है. कहीं पानी का बहाव पत्थर डालने से रुका है, वह तो उसी वेग से उछल कर बहने के लिए दिशा तलाश लेता है.’

रजनी के कहे शब्दों को माया समझ न सकीं. उन्हें लगा कि पति के विद्रोह ने इसे विक्षिप्त कर दिया है. उन्होंने मन ही मन फैसला किया कि उसे एक बार प्रकाश से मिलना होगा, जहां निशा न हो.

एक दिन निशा की अनुपस्थिति में प्रकाश आया. खुद पर नियंत्रण न रख सकीं और बोलीं, ‘बेटा, मैं एक मां हूं. तुम्हारा, निशा का, रजनी का, किसी का बुरा कैसे सोच सकती हूं, पर न्यायअन्याय के बारे में तो सोचना पड़ेगा न. माना कि निशा नादान है, प्यार ने उसे अंधा बना दिया है, उस ने आज तक जिस चीज पर उंगली रखी वह उसे मिली है. खोना क्या होता है, इस का उसे एहसास नहीं है. पर तुम तो समझदार हो, अपने अच्छेबुरे की अक्ल है तुम में. अपनी जिम्मेदारी समझ. तुम अकेली रजनी और 2 छोटेछोटे बच्चे किस के भरोसे छोड़ आए हो. क्या प्यार की खाई में इतने नीचे जा गिरे हो कि आसमान भी धुंधला दिखाई पड़ रहा है.’

प्रकाश की आंखें भर आईं. वे बोले, ‘मां, मैं सब समझता हूं. मैं मानता हूं कि मुझ से भूल हो गई. मैं ने रजनी की कीमत पर निशा की कामना नहीं की थी. मैं तो निशा और रजनी दोनों से माफी मांगने को तैयार हूं. निशा तो शायद माफ भी कर दे, पर रजनी, वह तो इस विषय में क्या, किसी भी विषय में मुझ से बात करने को तैयार नहीं. पत्थर बन गई है वह. मेरी क्षमायाचना का उस पर कोई असर नहीं होता. अगर मैं उस के कदमों पर गिर भी पड़ूं तो भी वह मुझे माफ नहीं करेगी, बेहद स्वाभिमानी औरत है वह,’ लाचारी प्रकाश के शब्दों में समाती गई. वे फिर बोले, ‘वक्त ने आज मुझे जिंदगी के उस चौराहे पर ला कर खड़ा कर दिया है, जहां की हर डगर निशा तक जाती है, सिर्फ निशा तक. अब तो न मुझे रजनी से बिछुड़ने का गम है न निशा से मिलने की खुशी.’

वक्त गुजरता गया. रजनी से तलाक मिल गया और प्रकाश का ब्याह निशा से हो गया. उस के बाद रजनी बच्चों को ले कर पता नहीं कहां चली गई. किसी को कुछ पता नहीं. न वह अपने मायके गई न ससुराल. उस के बगैर जीना इतना मुश्किल होगा, प्रकाश ने सोचा न था. प्रकाश चाह कर भी पूरी तरह खुद को रजनी से जुदा न कर सके. कई बार निशा झंझला कर कहती, ‘अगर उस रिश्ते का मातम मनाना था तो मुझ से ब्याह करने की क्या आवश्यकता थी. कोशिश तो करो, समय के साथ सबकुछ भुला सकोगे.’

‘क्या भुला सकूंगा, निशा मैं, यह कि 8 साल पहले अपना सबकुछ छोड़ कर एक भोलीभाली लड़की मेरे कदमों के पीछेपीछे चली आई थी, यह कि मैं ने अग्नि के सामने जीवनभर साथ निभाने की कसमें खाई थीं. कैसे भूल जाऊं उस की सिंदूर से भरी मांग, कैसे भूल जाऊं उस के हाथों की लाल चूडि़यां. किसी का सुखचैन लूट कर किसी की खुशियों पर डाका डाल कर तुम्हारा दामन खुशियों से भरा है मैं ने. मैं इतना निर्मोही कैसे हो गया? कैसे भूल जाऊं कि जो घरौंदा मैं ने और रजनी ने मिल कर बनाया था उसे मैं ने अपने ही हाथों नोच कर फेंक दिया और क्या कुसूर था उन 2 मासूम बच्चों का? क्या अधिकार था मुझे उन से खुशियां छीनने का? क्या कभी मैं इन तमाम बातों से अपने को मुक्त कर पाऊंगा?’

प्रायश्चित्त- भाग 3: क्या प्रकाश को हुआ गलती का एहसास

‘प्रकाश, क्या होता जा रहा है तुम्हें, संभालो खुद को. सत्य से सामना करने का साहस जुटाओ. बीता कल अतीत की अमानत होता है, उस के सहारे आज को नहीं जिया जा सकता. एक बुरा सपना समझ कर सबकुछ भूलने का प्रयास करो.’

‘काश कि यह सब एक सपना होता निशा, अफसोस तो यह है कि यह सब एक हकीकत है. मेरे जीवन का एक हिस्सा है.’

प्रकाश के दर्द को जान कर निशा खामोश थी, उस ने इस घटना को अपने जीवन की सब से बड़ी भूल के रूप में स्वीकार कर लिया था. वह समझती थी कि इंसान खुद को परिस्थितियों के अनुरूप नहीं ढाल पाता तो परिस्थितियां ही उसे अपने अनुरूप ढाल लेती हैं, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. रमिता का आगमन भी प्रकाश को सामान्य न कर सका. उस की बालसुलभ क्रियाएं भी उन्हें लुभा न सकीं. शायद कुछ पाने से ज्यादा कुछ खोने का गम था उन्हें.

प्रकाश के दिल की तड़प अब निशा के दिल को भी तड़पा जाती. तभी तो उस ने एक दिन कहा, ‘अगर रमिता में तुम्हें दीपक और ज्योति नजर आते हैं तो हम रजनी को ढूंढें़गे, उसे समझबुझ कर बच्चों को अपने पास ले आएंगे.’

‘नहीं निशा, अब मुझ में साहस नहीं है, रजनी के सामने जा कर खड़े होने का. और फिर रजनीरूपी बेल जिस वृक्ष से लिपटी है वह दीपक और ज्योति ही तो हैं. मैं उस की जड़ों को झकझरना नहीं चाहता. मैं रजनी के जीवन की बचीखुची रोशनी भी उस से छीनना नहीं चाहता.’

निशा का पूरा ध्यान रमिता की परवरिश की ओर लग गया. वक्त गुजरता गया. प्रकाश पहले से ज्यादा गुमसुम रहने लगे. हां, रमिता के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निभाना उन्हें बखूबी आ गया था. वे नहीं चाहते थे कि प्रायश्चित्त की जो आग उन के दिल में सुलग रही है, उस की आंच भी रमिता तक पहुंचे. जिंदगी के 17-18 साल यों ही बीत गए.

रजनी नाम का जख्म समय के साथ भर तो गया, पर निशान अब भी बाकी था. 2 वर्षों पहले रजनी का एक खत प्रकाश के नाम आया. निशा ने उसे उलटपलट कर देखा, पर फिर प्रकाश को थमा दिया. पत्र सामने खुला पड़ा था, नजरें पत्र की लिखावट पर फिसलती चली गईं.

‘प्रकाश, तुम्हारे दोनों बच्चे अब बड़े हो गए हैं, ज्योति डाक्टर बन गई है और अपनी पसंद के लड़के से शादी कर रही है. तुम्हारा बेटा दीपक अब मुझे ले कर विदेश में बसना चाहता है. मैं जानती हूं, तुम्हारे हृदय के भीतर छिपा इन का पिता इन से मिलने को तड़प रहा होगा. अब मैं तुम से नाराज भी नहीं हूं. सच मानो, मैं ने तो तुम्हें कब का माफ कर दिया है.’

‘रजनी.’

नीचे पता लिखा हुआ था और साथ में ज्योति की शादी का कार्ड भी था.

प्रकाश ने कार्ड सहित पत्र निशा की ओर बढ़ा दिया.

‘नहीं निशा, मैं नहीं कर सकता रजनी का सामना. उस का दिल बहुत बड़ा है. वह कह सकती है कि उस ने मुझे माफ कर दिया. लेकिन मैं कैसे माफ कर दूं अपनेआप को? मेरी सजा यही है कि मैं उम्रभर तड़पता रहूं और यही होगा मेरे पापों का प्रायश्चित्त भी.’

‘तब से ले कर आज तक प्रायश्चित्त ही तो करती आ रही हूं मैं और आप भी. अब और कितना?’ सिसक उठी निशा.

भूलीबिसरी घटनाओं की यादें आआ कर दिमाग के दरवाजे को खटखटाती रहीं. मन अतीत की गलियों में पता नहीं कब तक भटकता रहा कि अचानक शांताबाई की आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘बहूजी, आज और कितनी देर तक इस कमरे में रहेंगी आप? नाश्ता तैयार है,’’ निशा हड़बड़ा गई, स्वयं को व्यवस्थित करते हुए बोली, ‘‘साहब कहां हैं?’’

‘‘उन के पास तो कोई बैठा है, उसी से बातें कर रहे हैं.’’

‘‘कौन है?’’

‘‘क्या पता, आवाज तो दामादजी जैसी है,’’ शांताबाई ने लापरवाही से कहा.

‘‘और तू अब बता रही है मुझे,’’ निशा उठ खड़ी हुई.

‘‘मैं तो आप को यह बताने आई थी कि आप को रमिता दीदी बुला रही हैं.’’

‘‘अच्छाअच्छा ठीक है, तू जा अपना काम कर.’’

मां को देखते ही रमिता बिफर पड़ी, ‘‘मां, वह क्या करने यहां आया है? कह दो उस से चला जाए यहां से, मैं उस की सूरत भी नहीं देखना चाहती.’’

‘‘हां, बेटा, ठीक है, तुम्हारे पापा उस से बात कर रहे हैं न, जो उचित होगा वही करेंगे. कोई भी निर्णय बिना कुछ सोचेसमझे मत लो.’’

रमिता ने नजर उठा कर देखा, सामने पापा खड़े थे और उन के पीछे सिर झकाए खड़ा था तुषार.

‘‘गलती हर इंसान से होती है, बेटी, पर अपनी गलती को स्वीकार कर लेने का साहस बहुत कम लोगों में होता है. अपने किए पर तुषार खुद शर्मिंदा है. वह मानता है कि वह भटक गया था. उसे अफसोस है कि उस ने तुम्हारा दिल दुखाया है. जन्मों के रिश्तों को पलों में मत टूट जाने दो, रमिता. मान लो बेटा कि तूफान तुम्हारे दिलों के द्वार पर दस्तक दे कर वापस लौट गया है. उठो रमिता और माफ कर दो तुषार को. आज वह तुम्हें मनाने आया है, अगर आज वह चला गया तो शायद लौट कर कभी न आए. मैं नहीं चाहता कि तुम दोनों रूठने और मनाने की सीमा पार कर जाओ. आज वह चल कर तुम्हारे पास आया है, इस का अर्थ यह नहीं कि वह सिर्फ दंड का अधिकारी है,’’ प्रकाश का गला बोलतेबोलते भर्रा उठा, स्वर थरथराने लगे, ‘‘उसे माफ कर दो, रमिता, नहीं तो पछतावे की आग से तुम भी नहीं बच सकोगी, सबकुछ जल कर राख हो जाएगा. प्यार भी और नफरत भी. कुछ भी नहीं बचेगा.’’

रमिता हैरान थी. आज जिंदगी में पहली बार पापा को इतना कुछ कहते सुन रही थी. पापा तुषार का पक्ष ले रहे हैं? मगर क्यों?

रमिता ने पलट कर प्रश्नभरी नजर मां पर डाली.

निशा भी प्रकाश से सहमत थी, मानो उस की निगाहें कह रही हों, ‘कुछ बातों को समझना इतना जरूरी नहीं होता रमिता जितना उन पर अमल करना.’

रमिता के कदम तुषार की ओर बढ़ चले. निशा ने आगे बढ़ कर नन्ही अंकिता को तुषार की गोद में दे दिया. रमिता जाते समय पलटपलट कर अपने मातापिता को देखती रही.

निशा और प्रकाश भी रमिता और तुषार को आंखों से ओझल होने तक देखते रहे. दोनों की आंखें अनायास ही छलक उठीं.

प्रायश्चित्त- भाग 1: क्या प्रकाश को हुआ गलती का एहसास

निशा के दिल और दिमाग में शून्यता गहराती जा रही थी. रोतेरोते रमिता का चेहरा लाल पड़ गया था, आंखों की पलकें सूज आई थीं. अपनी औलाद की आंखों में इतने सारे दुख की परछाइयां देख कर कौन मां विचलित नहीं हो जाएगी. इसलिए निशा का तड़प उठना भी स्वाभाविक ही था. वह एक बार रमिता को देखती, तो एक बार उस की गोद में पड़ी उस मासूम बच्ची अंकिता को जो दुनियादारी से बेखबर थी.

2 वर्षों पहले ही कितनी धूमधाम से निशा ने रमिता और तुषार का ब्याह किया था. दोनों एकदूसरे को पसंद करते थे. एकदूसरे से प्रेम करते थे, फिर.अचानक निशा की नजर दरवाजे पर खड़ी शांताबाई पर पड़ी.

‘‘क्या है, तू यहां खड़ीखड़ी क्या कर रही है?’’ घूरते हुए निशा ने शांताबाई से कहा, ‘‘तुझ से दूध मांगा था न मैं ने बच्ची के लिए. और, मेरे नहाने के लिए पानी गरम कर दिया तू ने?’’

‘‘दूध ही तो लाई हूं, बहूजी, और पानी भी गरम कर दिया है.’’ ‘‘ठीक है, अब जा यहां से,’’ शांताबाई से दूध की बोतल छीन कर निशा बोली, ‘‘अब खड़ेखड़े मुंह क्या देख रही है. जा, जा कर अपना काम कर,’’ निशा अकारण ही झंझला पड़ी उस पर.

‘‘बहूजी, फूल तोड़ दूं?’’ ‘‘और क्या, रोज नहीं तोड़ती क्या?’’ निशा अच्छी तरह जानती थी कि शांता क्यों किसी न किसी बहाने यहीं चक्कर काटते रहना चाहती है.

सुबह जब रमिता आई तो प्रकाश वहीं बाहर बरामदे में बैठे चाय पी रहे थे. कोई नई बात नहीं थी, वैसे भी रमिता हर  3-4 दिन में मां की अदालत में तुषार के खिलाफ कोई न कोई मुकदमा ले कर हाजिर रहती और फैसला भी उसी के पक्ष में होता. कभी यह कि, तुषार आजकल लगातार औफिस से घर देर से आता है, तो कभी यह कि तुषार फिल्म दिखाने का वादा कर के समय पर नहीं आया, तो कभी यह कि तुषार मेरा जन्मदिन भूल गया.

इन बातों को उस की मां निशा ने भले ही महत्त्व दिया हो, पर पिता प्रकाश हर बात हंसी में उड़ा देते. अकसर यही होता कि शाम को तुषार आता, सारे गिलेशिकवे छूमंतर और दोनों हंसतेमुसकराते वापस अपने घर चले जाते. पर आज बात कुछ और ही थी. प्रकाश की आंखें अखबार पर मंडरा रही थीं, पर कान कमरे में चल रहे मांबेटी के संवाद पर ही लगे रहे.

‘‘बस, मां, अब और नहीं. अब यह न कहना कि झगड़ा तुम ने ही शुरू किया होगा या तुम्हें तो समझता करना ही नहीं आता. मैं अब उस घर में कभी कदम नहीं रखूंगी. मैं तो कभी सोच भी नहीं सकती कि तुषार के दिल में मेरे सिवा किसी और का भी खयाल रहता है. बताओ मां, मेरे प्यार में ऐसी कौन सी कमी थी जो तुषार… मैं ने अपनी आंखों से उस लड़की की बांहों में बांहें डाले तुषार को बाजार में घूमते और फिर सिनेमाघर में जाते देखा है,’’ सिसकती हुई रमिता बोली, ‘‘मां, मैं तुषार से बहुत प्यार करती हूं, मैं उस के बिना जी नहीं सकती.’’

बेटी की बातें सुन कर निशा खामोश रह गई. प्रकाश बेचैनी से उस के उत्तर का इंतजार कर रहे थे. क्या निशा के पास रमिता के प्रश्न का कोई जवाब है? ‘‘कैसे बाप हो तुम? बेटी रोरो कर बेहाल हुई जा रही है और तुम्हारे पास उस के लिए सहानुभूति के बोल भी नहीं हैं.’’

प्रकाश ने देखा निशा की भी आंखें नम थीं और गला भरा हुआ था. ‘‘बैठो,’’ प्रकाश ने उस का हाथ पकड़ कर अपने करीब बैठा लिया और बोले, ‘‘कुछ देर के लिए उसे अकेला छोड़ दो. अभी वह बहुत परेशान है. वक्त हर समस्या का समाधान ढूंढ़ लेता है,’’ इतना कह कर प्रकाश की नजरें फिर अखबार के शब्दजाल में खो गईं.

प्रकाश की इन्हीं दार्शनिक बातों से निशा विचलित हो उठती है. निशा ने प्रकाश की चश्मा चढ़ी गंभीर आंखों को घूरा और मन ही मन सोचने लगी कि कहां से लाते हैं ये इतना धैर्य. ‘‘ऐसे क्या देख रही हो?’’ बिना देखे ही न जाने कैसे आभास हो गया उन्हें निशा के घूरने का.

‘‘कुछ नहीं,’’ ठहर कर बोली वह, ‘‘जो दर्द मुझे इस कदर तड़पा रहा है उस से आप इतने अनजान कैसे हो? सबकुछ परिस्थितियों के हवाले कर के इतना निश्ंिचत कैसे रहा जा सकता है?’’

‘‘निशा, कभीकभी जीवन में कुछ ऐसा घटता है जिस पर इंसान का वश नहीं रहता, कुछ नहीं कर सकता वह,’’ प्रकाश निशा के मन का तनाव कम करना चाहते थे.

‘‘तो आप का मतलब यह है कि हम यों ही हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें,’’ निशा बड़बड़ाती हुई कमरे की ओर बढ़ चली, ‘‘तुम पुरुष भी कैसे होते हो, गंभीर से गंभीर समस्या से भी मुंह मोड़ कर बैठ जाते हो.’’

उस कमरे में पहुंचते ही निशा के मन ने मन से ही प्रश्न किया, ‘तुम्हें सुनाई देती है किसी के सपने टूटने की आवाज? क्या होता है अरमानों का बिखरना, कैसे लुटती है किसी की दुनिया, क्या तुम जानती हो या नहीं जानती?’

निशा अपने भीतर की आवाज सुन कर सोचने लगी कि आज क्या होता जा रहा है उसे? 24 साल पहले की गई भूल का एहसास उसे आज क्यों हो उठा? तो क्या उस के किए की सजा उस की बच्ची को मिलेगी. अपनी गलतियों को याद कर उस की आंखों से अश्रुधारा बह निकली. मन को नियंत्रित करने के सारे प्रयास विफल सिद्ध हुए. वक्त ने उसे अतीत के दलदल में धकेल दिया और वह उस में हर पल धंसती चली गई थी.

याद आ रहा था उसे मां का तमतमाया हुआ चेहरा. उस दिन उस ने मां को अपने और प्रकाश के विषय में सबकुछ बताया था. मां के शब्द उस के कानों में ऐसे गूंज रहे थे मानो कल की बात हो. ‘निशा, तू जानती है न बेटा, कि प्रकाश शादीशुदा है.’

‘हां मां,’  बात काटते हुए निशा बोली, ‘पर यह कहां का इंसाफ है कि एक इंसान जिस रिश्ते को स्वीकार ही नहीं करता, उस का बोझ ढोता रहे और फिर उस की पत्नी रजनी, वह खुद नहीं रहना चाहती प्रकाश के साथ.’

‘बेटा, रिश्ते कोई पतंग की डोर तो नहीं कि एक हाथ से छूटी और दूसरे ने लूट ली. और वह क्यों ऐसा चाहेगी, कभी सोचा है तू ने? एक पत्नी अपने पति के साथ कब रहना नहीं चाहती, जानना चाहती है तू, इसलिए नहीं कि वह उस से ज्यादा किसी और को चाहता है, बल्कि इसलिए कि उस ने उस के विश्वास को तोड़ा है. एक मर्यादा का उल्लंघन किया है,’ थोड़ा ठहर कर वे बोलीं.

ग्रहण- भाग 2: मां के एक फैसले का क्या था अंजाम

लेकिन प्रमोद को तो जैसे इस सब से कोई मतलब ही नहीं था. वह शादी से 1 दिन पहले घर आया. सुबह बरात जानी थी और रात को उस ने मुझ से कहा, ‘मां, तुम्हारी जिद और झूठे अहं की वजह से मेरी जिंदगी बरबाद होने वाली है. तुम चाहो तो अब भी सबकुछ ठीक हो सकता है. तुम सिर्फ एक बार, सिर्फ एक बार प्रभा से मिल लो. अगर मैं ने उस से शादी न की तो न मैं खुश रहूंगा, न कविता और न प्रभा. मुझ से अपनी ममता का बदला इस तरह चुकाने को न कहो, मां.’

मैं गुस्से से फुफकार उठी, ‘अगर तुझे अपनी मरजी से जीना है तो जहां चाहे शादी कर ले. पर याद रख, जिस क्षण तू उस कलमुंही के साथ फेरे ले रहा होगा, तब से मैं तेरे लिए मर चुकी होऊंगी.’

फिर मैं हलवाई के पास से मिट्टी के तेल का कनस्तर उठा लाई और प्रलाप करते हुए कहा, ‘ले प्रमोद, मैं खुद ही तेरे रास्ते से हट जाती हूं.’

प्रमोद ने मुझे रोका. वह रो रहा था. मैं उस के आंसुओं को देख कर पिघली नहीं, बल्कि विजयी ढंग से मुसकराई.

अगले दिन बरात में दूल्हा के अलावा बाकी सब मस्ती में झूम रहे थे, गा रहे थे, नाच रहे थे.

उन की शादी के बाद मैं चाहती थी कि वे दोनों कहीं घूमने जाएं. पर प्रमोद ने मना कर दिया. 2 दिनों बाद वह वापस मुंबई चला गया. मैं भी कविता के साथ उस की नई गृहस्थी बसाने गई. हम दोनों ने बड़े चाव से पूरे घर को सजाया.

सप्ताहभर बाद जब मैं पूना लौटी तो मन बड़ा भराभरा सा था, लग रहा था जैसे बरसों से देखा एक सपना पूरा हो गया. मेरे गुड्डेगुड्डी का घर बस गया.

उस वक्त मैं ने यह सोचा ही नहीं कि जीतेजागते इंसान गुड्डेगुडि़या जैसे नहीं होते. अगर सोचा होता तो कविता आधी रात को अकेली आ कर मुझ से यह सवाल न पूछती…

अचानक मेरी तंद्रा भंग हुई तो कहा, ‘‘कविता, तुम कल दिल्ली नहीं जाओगी. हम दोनों भोपाल जाएंगी,’’ मैं ने निर्णायक स्वर में कहा.

‘‘इस से क्या होगा, अम्मा?’’

‘‘देख कविता, प्रमोद तेरा पति है. उसे अब वही करना होगा जो तू चाहती है. शादी से पहले वह क्या करता था, मुझे इस से मतलब नहीं. पर अब…’’

‘‘अम्मा, आप ने उन दोनों की शादी क्यों नहीं की? न मुझे बीच में लातीं, न…’’ उस ने प्रतिवाद किया.

‘‘वह लड़की प्रमोद के लायक नहीं है,’’ मैं ने शुष्क स्वर में कहा.

‘‘क्यों नहीं है, अम्मा? वह भी पढ़ीलिखी है, सुशील है. सिर्फ इसलिए आप ने उसे नहीं स्वीकारा कि वह पैसे वाले घर की नहीं है, या…?’’ उस ने मेरे मर्म पर चोट की.

‘‘कविता, तुम्हें पता नहीं है, तुम क्या कह रही हो, मैं और कुंती बहुत पहले तुम दोनों की शादी तय कर चुकी थीं. शादीब्याह में खानदान का भी महत्त्व होता है, बेटी.’’

‘‘अम्मा, अगर मुझे पता होता कि आप ने इस शादी के लिए प्रमोद से जबरदस्ती की थी तो मैं कभी तैयार न होती. आप को भी तो पता था कि मैं फैशन डिजाइनिंग सीखने विदेश जाना चाहती थी. आप दोनों सहेलियों की वजह से प्रमोद भी दुखी हुए और मैं भी. आप ने ऐसा क्यों किया?’’ कविता फूटफूट कर रोने लगी.

मेरा दिल दहल उठा. मैं ने बड़े प्यार से उस का सिर सहलाते हुए कहा, ‘‘न रो बेटी, मैं वादा करती हूं कि तुझे तेरा पति वापस ला दूंगी.’’

पर उस की हिचकियां कम न हुईं. शायद उसे अब मुझ पर विश्वास नहीं रहा था.

पूना से मुंबई और फिर वहां से भोपाल…हम दोनों ही थक कर चूर हो चुकी थीं. मुझे पता था कि प्रभा ‘भारत कैमिकल्स’ में काम करती है. एक बार प्रमोद ने ही बताया था. वे दोनों भोपाल के इंजीनियरिंग कालेज में साथसाथ पढ़ते थे.

प्रमोद छुट्टियों में जब भी घर आता, प्रभा का जिक्र जरूर करता. पर मेरा उस से मिलने का कभी मन न हुआ. हमेशा यही लगता कि वह मेरे प्रमोद को मुझ से दूर ले जाएगी.

स्टेशन के ही विश्रामगृह में नहाधो कर हम एक रिकशा में बैठ कर ‘भारत कैमिकल्स’ के दफ्तर में पहुंचीं. वहां जा कर पता चला कि पिछले कुछ दिनों से प्रभा दफ्तर ही नहीं आ रही.

आखिरकार दफ्तर के एक चपरासी से प्रभा के घर का पता ले कर हम वहां चल पड़ीं. कविता पूरे रास्ते शांत थी. लग रहा था, जैसे वह इस नाटक की पात्र नहीं, बल्कि दर्शक है. प्रभा के घर के सामने रिकशे से उतरने के बाद कविता ने कहा, ‘‘अम्मा, आप अंदर जाइए. मैं यहीं बरामदे में बैठती हूं.’’

मैं ने घर की घंटी बजाई. 15-16 साल की एक लड़की ने दरवाजा खोला. मैं ने सीधे सवाल किया, ‘‘प्रमोद है?’’

वह चौंक गई. फिर संभल कर बोली, ‘‘वे तो दीदी के साथ अस्पताल गए हैं, आप अंदर आइए न.’’

उस की आवाज इतनी विनम्र थी कि मैं अंदर जा कर बैठ गई. घर सादा सा था, पर साफसुथरा था. वह मेरे लिए पानी ले कर आई और बोली, ‘‘मैं प्रभा दीदी की बहन हूं, विभा.’’

मैं ने अपना परिचय देने के बजाय फिर से सवाल पूछा, ‘‘प्रमोद यहां कब से है?’’

‘‘वे 2 दिनों पहले आए थे. मां जब से अस्पताल में भरती हुईं, तब से…’’ उस की आवाज भारी हो गई. फिर संयत स्वर में उस ने पूछा, ‘‘आप प्रमोदजी की मां हैं न? उन्होंने आप की तसवीर दिखाई थी.’’

‘‘घर में और कौनकौन हैं?’’

‘‘दीदी, मैं, छोटा भाई और मां.’’

विभा से छोटा भाई, यानी अभी स्कूल में ही होगा. मैं उठने ही लगी थी कि विभा बोल पड़ी, ‘‘आप बैठिए. मैं आप के लिए चाय बना कर लाती हूं, फिर प्रमोदजी को यहां बुला लाऊंगी. अस्पताल यहां से ज्यादा दूर नहीं है.’’

‘‘बाहर मेरी बहू बैठी है, उसे भी अंदर बुला लाओ,’’ मुझे इतनी देर में पहली बार कविता का ध्यान आया.

‘‘जी, अच्छा,’’ कहती हुई विभा बाहर चली गई.

‘‘कविता के चेहरे से लग रहा था कि वह बहुत असहज महसूस कर रही है. विभा हम दोनों के लिए चाय और नाश्ता ले आई. उस के अंदर जाते ही कविता शुरू हो गई, ‘‘अम्मा, हम वापस चलते हैं. प्रमोद को बुरा लगेगा.’’

‘‘क्या बुरा लगेगा? मैं उस की मां हूं, तुम उस की पत्नी हो, बुरा तो हमें लगना चाहिए,’’ मैं ने गुस्से में कहा.

विभा तैयार हो कर आ गई, ‘‘आप लोग यहां बैठिए. मैं अभी उन्हें बुला कर लाती हूं.’’

‘‘नहीं, हम भी चलेंगे,’’ मैं उठ खड़ी हुई.

वह अचकचा गई, ‘‘आप क्यों…’’

‘‘चलो कविता,’’ मैं ने उसे भी उठने का इशारा किया. एक बार मैं जो तय कर लेती थी, कर के ही रहती थी. प्रमोद तो जानता ही था कि मैं कितनी जिद्दी हूं.

विभा अस्पताल पहुंच कर कुछ तेज कदमों से चलने लगी. वार्ड के बाहर तख्ती लगी थी, ‘कैंसर के मरीजों के लिए’. वह निसंकोच अंदर चली गई. कुछ मिनटों बाद प्रमोद लगभग दौड़ता हुआ बाहर आया, ‘‘मां, आप यहां?’’

ग्रहण- भाग 1: मां के एक फैसले का क्या था अंजाम

शाम से ही तेज हवा चल रही थी, घंटेभर बाद मूसलाधार बारिश होने लगी और बिजली चली गई. मेरे पति गठिया की वजह से ज्यादा चलफिर नहीं पाते थे. दफ्तर से आतेजाते बुरी तरह थक जाते थे. मैं ने घर की सारी खिड़कियां बंद कीं और रसोई में जा कर खिचड़ी बनाने लगी. अंधेरे में और कुछ बनाने की हिम्मत ही नहीं थी.

साढ़े 8 बजे ही हम दोनों खापी कर सोने चले गए. पंखा न चलने की वजह से नींद तो नहीं आ रही थी, लेकिन उठने का मन भी नहीं कर रहा था. मेरी आंख अभी लगी ही थी कि किसी के दरवाजा खटखटाने की आवाज से उठ बैठी. टौर्च जला कर देखा, साढ़े 9 बजे थे. सोचा कि इस वक्त कौन होगा? आजकल तो मिलने वाले, परिचित भी कभीकभार ही आते हैं और वह भी छुट्टी के दिन.

मैं धीरे से उठी. टौर्च की रोशनी के सहारे टटोलतेटटोलते दरवाजे तक पहुंची.

मेरे पति पीछे से आवाज लगा रहे थे, ‘‘शांता, जरा देख कर खोलना, पहले कड़ी लगा कर देख लेना, इस इलाके में आजकल चोरियां होने लगी हैं.’’

मैं ने दरवाजे के पास पहुंच कर चिल्ला कर पूछा, ‘‘कौन है?’’

2 क्षण बाद धीरे से आवाज आई, ‘‘अम्मा, मैं हूं, कविता.’’

कविता, मेरी बहू. मेरे इकलौते लाड़ले बेटे प्रमोद की पत्नी. मेरी घनिष्ठ सहेली कुंती की बेटी. 10 महीने पहले ही तो मैं ने बड़े चाव से उन की शादी रचाई थी. मैं ने हड़बड़ा कर दरवाजा खोल दिया.

बरसात में भीगीभागी कविता एक हाथ में सूटकेस और कंधे पर बैग लिए खड़ी थी.

‘‘कविता, इतनी रात गए? प्रमोद भी आया है क्या?’’

उस ने ‘नहीं’ में सिर हिलाया और अंदर आ गई. मेरा दिल धड़क उठा, ‘‘वह ठीक तो है न?’’

‘‘हां,’’ उस ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया.

‘‘वह कहां…मेरा मतलब है, प्रमोद क्यों नहीं आया?’’

‘‘वे भोपाल गए हैं?’’ वह शांत स्वर में बोली.

‘‘भोपाल?’’ मैं चौंक गई, ‘‘किसी से मिलने या दफ्तर के काम से?’’

‘प्रभा से मिलने गए हैं,’’ उस का स्वर इतना ठंडा था कि लगा, मेरे सीने पर बर्फ की छुरी चल गई हो.

‘‘प्रभा,’’ मैं कुछ जोर से बोली. उसी समय बिजली आ गई. कविता ने बात बदलते हुए कहा, ‘‘अम्मा, मैं भीग गई हूं, कपड़े बदल कर आती हूं.’’

वह सूटकेस खोल कर कपड़े निकालने लगी और फिर नहाने चली गई. मैं वहीं बैठ गई. अंदर से पति लगातार पूछ रहे थे, ‘‘शांता, कौन आया है?’’

फिर वे खुद ही उठ कर बाहर चले आए, ‘‘क्या बहू आई है? कुछ झगड़ा हुआ क्या प्रमोद के साथ?’’

‘‘पता नहीं, कह रही थी कि प्रमोद भोपाल गया है प्रभा से मिलने,’’ मैं धीरे से बोली.

‘‘मुझे पता था, एक दिन यही होगा. किस ने तुम से कहा था प्रमोद के साथ जबरदस्ती करने को? तुम्हारी जिद और झूठे अहं ने एक नहीं, 3-3 लोगों की जिंदगी खराब कर दी. लो, अब भुगतो,’’ वे बड़बड़ाते हुए वापस चले गए.

कविता कपड़े बदल कर आई. अचानक मुझे खयाल आया कि वह भूखी होगी. वह सुबह की गाड़ी से चली होगी. पता नहीं रास्ते में कुछ खाया भी होगा या नहीं. वह जिस हालत में थी, लग तो नहीं रहा था कि कुछ खाया होगा.

मैं ने फ्रिज से उबले आलू निकाल कर फटाफट तल दिए और मसाले में छौंक दिए. फिर डबलरोटी को सेंक कर उस के सामने रख दिए. वह चुपचाप खाने लगी. मुझे ऐसा लग रहा था, जैसे वह अपने सीने में एक तूफान छिपाए बैठी हो.

मैं ने उस का बिस्तर सामने वाले कमरे में लगा दिया. वह हाथ धो कर आई तो मैं ने मुलायम स्वर में कहा, ‘‘कविता, तुम थक गई होगी, सो जाओ. कल सवेरे बात करेंगे.’’

‘‘कल सवेरे मैं, मां के पास दिल्ली चली जाऊंगी.’’

‘‘इतनी जल्दी?’’ मैं अचकचा गई.

‘‘मैं तो यहां आप से सिर्फ यह पूछने आई हूं कि आप ने मेरे साथ ऐसा क्यों किया?’’ उस की सवालिया निगाहें मुझ पर तन गईं.

‘‘बेटी, मैं ने सोचा था…’’

‘‘आप ने सोचा कि मुझ से शादी करने के बाद प्रमोद प्रभा को भूल जाएंगे, पर सच तो यह है कि वे एक क्षण भी उस को भुला नहीं पाए.’’

‘‘क्या तुम्हें प्रभा के बारे में सब पता है?’’ मैं ने डरतेडरते पूछा.

‘‘हां, प्रमोद ने शादी के पहले ही मुझे सबकुछ बता दिया था. इधर आप की जिद थी, उधर मेरी मां की. उस वक्त तो मैं ने भी यही सोचा था कि शादी के बाद वे सब भूलने लगेंगे. पर…’’

‘‘क्या प्रमोद ने तेरे साथ कुछ…’’

‘‘नहीं अम्मा, वैसे तो वे बहुत अच्छे हैं. पर प्रभा उन पर कुछ इस तरह हावी है कि वे मेरे साथ कभी सामान्य नहीं रहते.’’

मुझे प्रमोद पर गुस्सा आने लगा. इस तरह कविता को अकेले छोड़ कर भोपाल जाने का क्या मतलब?

मुझे सालभर पहले प्रमोद का कहा याद आया, ‘अम्मा, कविता को दूसरे अच्छे घर के लड़के मिल जाएंगे. पर प्रभा का मेरे अलावा और कोई नहीं है. उस के पिता नहीं हैं, मां बीमार रहती हैं. छोटे भाईबहन…’

‘तो क्या प्रभा से तुम इसलिए शादी करना चाहते हो कि उस का कोई नहीं? मैं तो उसे बहू के रूप में स्वीकार नहीं कर सकती.’

‘मां,’ प्रमोद ने दयनीय स्वर में प्रतिवाद किया था.

‘देख प्रमोद, तेरी शादी कविता से ही होगी. मैं अपनी बचपन की सहेली कुंती को वचन दे चुकी हूं. फिर शादीब्याह में खानदान भी तो देखना पड़ता है. कविता के पिता की 2 फैक्टरियां हैं, एक होटल है. तेरा कितना अरसे से फैक्टरी लगाने का मन है. शादी के बाद चुटकियों में तेरा काम हो जाएगा.’

‘मां, मैं किसी और के पैसे से नहीं, अपने पैसों से फैक्टरी लगाऊंगा. फिर इतनी जल्दी क्या है? अभी 3 साल ही तो हुए हैं मुझे इंजीनियर बने हुए.’

‘मैं कुछ नहीं जानती. अगर तू ने ज्यादा जिद की तो मैं आत्महत्या कर लूंगी. वैसी भी सहेली के सामने जलील होने से तो अच्छा है मर जाऊं.’

फिर मैं ने सचमुच भूख हड़ताल शुरू कर दी थी, तब मजबूरी में प्रमोद को मेरी बात माननी पड़ी.

प्रमोद के ‘हां’ कहने भर से मैं खुश हो कर शादी की तैयारी में जुट गई. कविता के लिए साडि़यां मैं ने अपनी पसंद से लीं. नई डिजाइन के गहने बनवाए. मेरे सारे दूरदराज के रिश्तेदार सप्ताहभर पहले आ गए.

ग्रहण- भाग 3: मां के एक फैसले का क्या था अंजाम

मेरे पीछे खड़ी कविता शायद उसे दिखी नहीं. पर मुझे प्रमोद के पीछे आती एक दुबलीपतली, कंधे तक कटे बालों वाली सांवली, लेकिन अच्छे नैननक्श वाली लड़की दिख ही गई. मैं समझ गई कि यही प्रभा है.

प्रमोद के कुछ कहने से पहले मैं फट पड़ी, ‘‘तुम्हें कुछ खयाल भी है कि तुम्हारा घरबार है, पत्नी है, मां है, और…’’

‘‘मुझे सब पता है, मां. मैं भूलना चाहता हूं तो भी आप भूलने कहां देती हैं? आप जरा धीरे बोलिए, यह अस्पताल है,’’ उस के स्वर में कड़वाहट थी. वह पहली बार मुझ से इस ढंग से बोल रहा था.

अचानक विभा बाहर दौड़ती हुई आई. ‘‘दीदी, जल्दी अंदर चलो. मां को होश आ गया है.’’

प्रभा और प्रमोद तेजी से अंदर भागे. मेरे कदम भी उसी दिशा में बढ़ गए. कविता भी मेरे पीछे चली आई.

कमरे में एक कृशकाय महिला बड़े प्यार से प्रमोद का हाथ थामे बैठी थी. मुझे देख कर प्रमोद ने कुछ हड़बड़ाते हुए कहा, ‘‘आप इतने दिनों से मेरी मां से मिलने को कह रही थीं. देखिए, वे आप से मिलने आई हैं.’’

मुझे देख कर उस महिला की आंखों में आंसू उभर आए. वह हौले से बोली, ‘‘बहनजी, मैं मरने से पहले आप से एक बार मिलना चाहती थी. आप का बेटा प्रमोद मेरे लिए देवदूत जैसा है. पता नहीं, प्रभा ने ऐसा क्या कर्म किए हैं, जो उसे प्रमोद जैसा…’’ उन की आवाज आंसुओं में धुल गई.

मैं हतप्रभ सी खड़ी रही. अचानक प्रभा की मां का ध्यान कविता की ओर गया, ‘‘यह कौन है, बेटा?’’

प्रमोद ने तुरंत धीरे से कह डाला, ‘‘मेरी मौसेरी बहन है, मां के साथ आई है.’’

कविता के चेहरे का रंग लाल हो उठा. वह एक झटके में कमरे से बाहर निकल गई. उस के पीछेपीछे मैं भी बाहर जा पहुंची. वार्ड के बाहर एक कुरसी पर बैठ कर वह सिसकियां भरने लगी.

मेरी लाड़ली बहू रो रही थी और मेरा गुस्सा लगातार बढ़ रहा था. दो कौड़ी की महिला के सामने प्रमोद ने कविता को जलील किया, उस की यह हिम्मत?

प्रमोद वार्ड से बाहर आया और मेरे पास न आ कर सीधे कविता के पास पहुंचा और रूंधे स्वर से बोला, ‘‘मुझे माफ कर दो. मैं ने तुम्हें जलील करने के इरादे से ऐसा नहीं कहा था. उस वक्त मुझे कुछ और नहीं सूझा. दरअसल, प्रभा की मां मेरी शादी के बारे में नहीं जानती. उस की जिंदगी में एकमात्र आशा की किरण प्रभा से मेरी शादी है. इस वक्त जब वह कैंसर के अंतिम चरण से गुजर रही है, मैं अपनी शादी की बात बता कर समय से पहले उसे मारना नहीं चाहता. तुम समझ रही हो न?’’

कविता की सिसकियां धीरेधीरे रुकने लगीं. प्रमोद उसे बता रहा था, ‘‘मुझे प्रभा की मां से बहुत प्यार मिला है. मैं घर से दूर था. मुझे कभी उन्होंने घर की कमी न खटकने दी. मैं बीमार पड़ता तो पूरा परिवार दिनरात मेरी सेवा करता. प्रभा से मैं ने खुद विवाह का प्रस्ताव रखा था. इस पर भी मेरी शादी के बाद उस ने मुझे एक बार भी गलत नहीं कहा.

‘‘क्या इस परिवार के प्रति मेरा कोई कर्तव्य नहीं है? मुझ से ये लोग किसी चीज की आशा नहीं रखते. पर अगर मैं इस वक्त इन का साथ नहीं दूंगा तो खुद की नजरों में गिर जाऊंगा. कविता, मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है. मैं ने तो तुम से कहा था कि मैं 3-4 दिनों बाद वापस आऊंगा. फिर भी तुम्हें सब्र क्यों न हुआ?’’

कविता का रोना रुक चुका था. वह गंभीर स्वर में बोली, ‘‘मुझे माफ कर दो, प्रमोद, मैं ने तुम्हें गलत समझा. दरअसल, शादी से पहले जब तुम मुझ से मिले थे और प्रभा के बारे में बताया था, तभी मुझे समझ जाना चाहिए था. मैं तो बेकार में ही तुम दोनों के बीच आ गई.

‘‘तुम्हारी जरूरत मुझ से ज्यादा प्रभा और उस के परिवार को है. तुम चाहो तो अब भी अपनी गलती सुधार सकते हो. मैं तुम्हें आजाद करती हूं, प्रमोद. मैं दिल्ली लौट जाऊंगी और फैशन डिजाइनर बनने का सपना साकार करूंगी.’’

मैं हक्कीबक्की खड़ी रह गई. मुझे लग रहा था, मेरा अस्तित्व है ही नहीं, मेरे बनाए गुड्डेगुड्डी अब इंसानों की भाषा में बोलने लगे थे.

‘‘कविता, इतनी जल्दी कोई निर्णय मत लो. शादी कोई खेल नहीं है,’’ प्रमोद कठोर स्वर में बोला.

‘‘हां, वाकई खेल नहीं है. पर मैं अब और कठपुतली नहीं बन सकती,’’ कविता दृढ़ स्वर में बोली.

प्रभा और विभा हमारे पास आ गईं. प्रभा शांत स्वर में बोली, ‘‘आप लोग घर चलिए. खाना खा कर जाइएगा.’’

घर आ कर प्रभा और विभा ने फटाफट खाना तैयार किया. बिना एक भी शब्द कहे हम सब ने खाना खाया.

रात घिर आई थी. प्रभा ने बाहर वाले कमरे में हम सब के सोने का इंतजाम किया. प्रभा का व्यवहार देख कर मैं चकित रह गई. शांत, सुशील, कहीं से ऐसा नहीं लगा कि वह मुझ से नाराज है. उसे तो निश्चित ही पता होगा कि प्रमोद ने उस से शादी क्यों नहीं की? रात को मैं प्रमोद से कुछ न कह पाई, क्योंकि प्रभा का भाई अरुण हमारे कमरे में सोने चला आया और कविता प्रभा के साथ अंदर वाले कमरे में.

मुझे सारी रात नींद न आई. मैं जिंदगी में पहली बार अपने को पराजित महसूस कर रही थी, पर फिर भी हार मानने को तैयार न थी.

सवेरे उठते ही कविता ने घोषणा कर दी, ‘‘मैं आज ही दिल्ली चली जाऊंगी.’’

मैं ने प्रमोद से कहा, ‘‘देख बेटा, कविता को रोक ले. तू उसे अपने साथ मुंबई ले जा.’’

‘‘अम्मा, उसे कुछ दिनों के लिए दिल्ली हो आने दो. अब तुम हमारी जिंदगी में दखल न ही दो तो अच्छा है. हमारी जिंदगी है, हम रोते या हंसते हुए इसे काट लेंगे. आप जो करना चाहती थीं, वह तो हो ही गया. मैं जब जानबुझ कर गड्ढे में गिरा हूं तो शिकायत क्यों करूं?’’

प्रमोद भी उसी शाम की गाड़ी से मुंबई लौटना चाहता था. उस ने मुझे भी पूना तक का टिकट ला दिया. मेरे चलते समय प्रभा सामने आई ही नहीं. पता नहीं क्यों, मेरा दिल उस सहनशील लड़की के लिए कसक उठा. विभा और अरुण हमें स्टेशन तक छोड़ने आए.

कविता की गाड़ी पहले छूटनी थी. वह विभा से भावुक स्वर में बोली, ‘‘अपनी दीदी से कहना, मैं उस के बीच की दीवार नहीं हूं. जिंदगी में रोशनी के हकदार हम सभी हैं,’’ फिर प्रमोद से कहा, ‘‘इस बार तुम निर्णय स्वयं लेना.’’

प्रमोद ने संयत हो कर कहा, ‘‘इस समय तुम भावना में बह रही हो. कोई भी रिश्ता इतनी आसानी से काट कर फेंका नहीं जा सकता. तुम सोच कर जवाब देना, मैं इंतजार करूंगा.’’

फिर कविता ने मेरी तरफ देख कर हाथ जोड़ दिए. प्रमोद ने मुझे महिला डब्बे में बैठा दिया और खुद मुंबई जाने के लिए बसस्टैंड की तरफ बढ़ गया.

ज्यों ही गाड़ी चली, मुझे चक्कर सा आने लगा कि यह मैं ने क्या कर दिया? अपने स्वार्थ के लिए 3 युवाओं को दुखी कर दिया. ये तीनों अब कभी खुश नहीं हो पाएंगे, इन के सपनों के एक हिस्से में ग्रहण लग गया…और वह ग्रहण मैं हूं. मैं फूटफूट कर रोने लगी. आखिरकार मैं हार गई, मैं हार गई.

 

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