लेखिका- नमिता दुबे
भले ही मानसी की अपनी पहचान थी, लेकिन शहर के सोशल सर्किल में मांपापा विभा के अभिभावक के रूप में मशहूर थे.
‘‘जानती हो विभा, जब मैं अकेले बैंगलुरु में रहती थी तब मु झे तुम से काफी ईर्ष्या होती थी. मैं तुम्हें देखदेख के कुंठित हो उठती थी.’’
‘‘क्या? मु झ से ईर्ष्या? मैं ने ऐसा क्या किया है दीदी जीवन में?’’ विभा ने हैरान हो कर पूछा.
‘‘तुम ने जिंदगी में रिश्ते बनाए हैं विभा… यह हर किसी के बस की बात नहीं होती है. तुम में साहस है कि तुम अपनी परवाह किए बिना अपनेआप को पूर्णत: समर्पित कर दो. हां, मेरी आज अपनी एक पहचान है विभा, मैं ने यही पहचान सर्वथा चाही थी. तुम स्वयं से पूछो, क्या तुम्हें जीवन से वही चाहिए जो मु झे?’’
काफी देर शांत रहने के बाद विभा ने सिर ‘न’ में हिलाया, ‘‘फिर तुम मु झ से क्यों जलती थीं दीदी?’’ उस ने कुतुहल से पूछा.
‘‘बस तुम्हारी बातें सुनसुन कर… नित घूमनाफिरना, मिलनाजुलना. हालांकि ये सब सम झ में ज्यादा नहीं आता पर फिर भी तुम्हें देख ईर्ष्या होती थी.’’
‘‘मैं तो बिलकुल बच्ची थी, दीदी,’’ विभा ने एक दुखी मुसकान के साथ कहा.
‘‘मैं बहुत बाद में सम झी विभा,’’ मानसी ने विभा का हाथ पकड़ते हुए कहा, ‘‘मु झे ईर्ष्या तुम से नहीं थी. मु झे ईर्ष्या तुम्हारे जीवन से थी , इस बात से थी कि तुम ने जो जीवन से चाहा वह तुम्हें मिल गया पर जो मैं चाहती थी वह मु झ से काफी दूर था. इसलिए मैं ने मन कड़ा कर अपना सबकुछ अपने कैरियर को बनाने में दे दिया.’’
दोनों कुछ देर शांत रहीं. चांद आसमान में काफी ऊपर तक चढ़ गया था.
‘‘पर मु झे कहां कुछ मिला दीदी?’’ विभा ने थके स्वर में बोला.
‘‘हुआ क्या है विभा? किस बात ने इतना दुखी कर दिया है तुम्हें?’’ यह कह मानसी ने उसे गले लगा लिया.
बस इतने भर से उस के मन का बांध फूट पड़ा और वह 1-1 कर सब बताती चली गई…
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कैसे अभय के होने के कुछ वक्त बाद उस के ससुर, अशोकजी की तबीयत खराब होने लग गई. विभोर का ट्रांसफर दूसरे शहर में हो गया. छोटे बच्चे और पिता की बिगड़ती हालत के कारण उस ने अकेले ही वहां रहना उचित सम झा. विभा और उस की ननद शीला ने खूब सेवा की पर उन्हें बचाया नहीं जा सका.
इस दौरान काफी जोरआजमाइश के बाद विभोर का स्थानांतरण वापस पटना हुआ पर आर्थिक स्थिति बिगड़ गई. जब विभा प्रैगनैंट हुई तो विभोर ने अबौर्शन की सलाह दी. तब शीला ने सम झाबु झा कर विभोर को मनाया था. कुछ वक्त सब ठीक रहा, लेकिन जब शीला ने ससुराल से ज्यादा मायके रहना शुरू कर दिया तो सभी को आश्चर्य हुआ. विभा को ज्ञात था कि शीला जीजी और जीजाजी के संबंध बहुत मधुर नहीं हैं. उसे डर लगा कि मायके में ज्यादा समय देने के कारण कहीं वह जीजी से रुष्ट न हो जाएं. फिर आखिरकार एक दिन टूट कर शीला ने बता ही दिया कि वह वापस नहीं जाएगी. कोर्टकचहरी में पैसा बहा सो अलग. मां की तबीयत फिर खराब होने लगी. रोजरोज के तनाव, पैसों को ले कर झगड़े से तंग आ कर आखिर विभा बच्चों को ले कर घर आ गई.
एक लंबे वक्त तक दोनों बहनें एकदूसरे से लिपटी रहीं, ‘‘तुम ने पहले कुछ क्यों
नहीं बताया विभा?’’
‘‘परिस्थिति ही कुछ ऐसी थी,’’ उस ने एक ठंडी सांस छोड़ते हुए कहा, ‘‘और क्या बताती दीदी?’’ एक रूखी हंसी हंसते हुए उस ने कहना जारी रखा, ‘‘तुम कह रही थीं कि मैं रिश्ते निभाती हूं. अब देखो न दीदी आज जब मेरे परिवार को मेरी सब से ज्यादा जरूरत थी, मैं परिस्थितियों से घबरा कर भाग आई.’’
‘‘विभा, विषम परिस्थितियों से जू झते हुए हर किसी के लिए आवश्यक हो जाता है कि कभीकभी थोड़ी दूरी बना ली जाए. तुम वहां रहती तो बच्चों पर भी गलत प्रभाव पड़ता.’’
‘‘हमारी कई दिन से बात नहीं हुई है दीदी.’’ उस ने घबराई हुई आवाज में कहा, ‘‘अगर मेरे साथ भी शीला जीजी जैसा हुआ तो…’’
‘‘बेकार की बातें मत सोचो विभा. वह तुम्हें याद कर रहा होगा पर नहीं चाहता कि तुम कोई दबाव महसूस करो. तुम ने उसे बताया कि वापस कब जा रही हो?’’ तभी अचानक कुछ सोचते हुए उस ने पूछा, ‘‘तुम वापस तो जा रही हो न?’’
‘‘हां, दीदी,’’ उस ने दृढ़तापूर्वक जवाब दिया. ‘‘वह मेरा घर है.’’
कुछ दिन बाद जब विभा वापस अपने घर लौटी तब मानसी भी उस के साथ गई.
‘‘भाभी,बड़ी देर लगा दी. अब संभालो अपनी गृहस्थी. एक चीज नहीं मिलती थी मु झे, विभोर ने पागल कर दिया,’’ शीला रोते हुए विभा के गले लग गई थी.
काफी देर तक ननदभाभी ऐसे ही खड़ी रहीं. विभोर गाड़ी से सामान निकालने में व्यस्त था और बच्चे दादी के कमरे की ओर दौड़ गए थे. मानसी भी उन के पीछे हो ली. उस ने वह मौन संवाद देखा था, जब विभोर उन्हें घर से लेने आया था. बिन कुछ कहे ही विभाविभोर ने एकदूसरे से माफी मांग ली थी. बच्चे पापा क गले लग गए थे. थोड़ेबहुत शिष्टाचार के बाद वे लोग निकल पड़े थे.
मानसी यों तो विभा को संबल देने आई थी पर उस के आने का एक कारण और था. उसे बस सही मौके की तलाश थी. शाम को खाना शीला ने ही बनाया था, ‘‘तुम थक गई होंगी, भाभी’’ कह कर उस ने विभा को कुछ नहीं करने दिया.
उन सब के आपसी प्रेम को देख कर मानसी को बड़ी खुशी हुई. रात को जब सब सोने चले गए, मानसी बगीचे में टहलने निकल गई. अब उस के पास कुछ ही दिन थे, फिर उसे वापस जाना होगा. वह विचारों में मग्न थी कि तभी किसी के वहां होने का एहसास हुआ. उस ने पलट कर देखा तो शीला खड़ी थी. दोनों में शुरू में इधरउधर की बातें होती रहीं…
‘‘जब पापा…’’ कहतेकहते रुक गई थी शीला, ‘‘तब उन के पास विभा ही थी.’’
मानसी ने उस की आंखों में वेदना को देखा.
‘‘फिर विभोर का इतना दूर होना, वापस आने पर…’’ उस ने बात अधूरी छोड़ दी.
मगर मानसी सम झ गई कि वह क्या कहना चाहती है.
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‘‘अच्छा हुआ जो आप आ गईं. लंबे अरसे बाद मैं ने विभा का यह रूप देखा है.’’
शीला के इस कथन पर मानसी के अधरों पर स्वत: ही मुसकान खेल गई.
उसी रात मानसी और शीला ने निकट भविष्य के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण निर्णय
ले लिए.
1 वर्ष बाद मानसी, मम्मीपापा के पास जा रही है. इस बार उस की यात्रा एकांत में नहीं है. कुछ माह में ही शीला ने देश की सर्वोच्च साहित्यिक संस्थान में अपनी जगह बना ली. अब वह देशभर में लिटरेरी इवेंट्स करवाती है. संभवत: शीघ्र ही वह इंटरनैशनल कम्युनिटी में भी इवेंट्स और्गेनाइज करे. गत वर्ष की घटनाएं मानसी के मन में उभरने लगी.
उस ने कितना सही फैसला लिया था शीला को और्गेनाइजर बनाने का. उस निर्णय का इतना प्रभावपूर्ण परिणाम निकलेगा इस की कल्पना तो उस ने भी नहीं की थी. जब विभा ने उसे सबकुछ बताया था तभी उस ने सोच लिया था कि वह शीला की जितनह बन पड़ेगी उतनी मदद करेगी. उस रात जब शीला उस से बात करने आई, उसे ऐसी अनुभूति हुई मानो यदि स्वयं मानसी ने कभी दबाव में आ कर आननफानन में विवाह कर लिया होता तो वह भी यों ही बिखर गई होती. तभी उस ने निश्चय कर लिया था कि वह शीला की हरसंभव सहायता करेगी. इसी उद्देश्य से वह उसे अपने साथ दिल्ली ले आई.
विभा और विभोर की गृहस्थी वापस पटरी पर आ गई. शीला को काम संभाले कुछ ही सप्ताह हुए थे कि अशोकजी ने जग को अलविदा बोल दिया. जाने से पहले उन्होंने बड़ी सहृदयता से मानसी का धन्यवाद किया था. उन को प्रसन्न करने में मानसी का भी योगदान था, इतना भर उस के लिए बहुत था.
आज जब वह पटना जा रहे हैं, इस के पीछे सिर्फ परिवार से मिलना ही इकलौता
उद्देश्य नहीं है. एक तो उन की एक गोष्ठी है, जिसे शीला संभाल रही है और जिस में मानसी अपनी रचना पढ़ने वाली है. दूसरी और अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस गोष्ठी से एकत्रित राशि एक संस्था जिस से कि हाल ही में विभा जुड़ी है, उस के द्वारा एक सेहतगाह को जाएगी. इस सैनेटोरियम में उन बुजुर्गों की देखभाल होती है, जिन का कोई नहीं है या जिन की देखभाल का जिम्मा उन का परिवार उठा नहीं सकता या उठाना नहीं चाहता.
‘यदि हमें पता हो कि जिंदगी में क्या चाहिए तो उसे पा लेने की यात्रा तनिक सरल हो जाती है,’ मानसी के मन में खयाल आया. वह ट्रेन के बाहर फैली सुंदर धूप को निहार रही थी. ‘यदि नहीं भी पता हो, तो कदाचित यात्रा आरंभ होने पर उस का एहसास हो जाता है. यह यात्रा होती तो सब की एकांत में ही है पर कभीकभी 2 लोग ऐसे मिल जाते हैं, जो अपना एकांत आपस में बांट सकते हैं. वह रिश्ता सिर्फ एक ही हो ऐसा तो आवश्यक नहीं. कभी हमें जीवन में सहारा एक दोस्त से मिलता है, कभी परिवार से, कभी किसी अजनबी से भी. हरकोई अपना जीवन सिर्फ किसी एक रिश्ते के पीछे भागने में लगा दें, यह तो बुद्धिमत्ता नहीं होगी.’
मानसी को पता है बहुत से लोग आज भी अपने जीवन का आधार किसी अन्य को बनाना ही जीवन का महत्त्व सम झते हैं. हो सकता है ऐसा करना आसान होता हो या हो सकता यह दुष्कर हो, परंतु जीवन में सभी का एक ही मार्ग हो, यह तो संभव नहीं. उसे उम्मीद है कि लोग यह धीरेधीरे सम झने लगेंगे और फिर शीलाओं को यों टूट, बिखर कर पुन: खुद को तलाशने की जरूरत नहीं होगी.
‘‘एक अच्छी शिक्षिका होने के नाते उस की
ख्याति दिनबदिन बढ़ती जा रही थी. विद्यार्थी ही नहीं
शिक्षक भी उस की बुद्धि का लोहा मानते थे….’’
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