Family Kahani: बुआजी – क्या बुआजी पैसे से खुशियां या औलाद खरीद पायी

Family Kahani: जगजीत सिंह, चित्रा सिंह की गजल टेप पर चल रही थी ‘…अपनी सूरत लगी पराई सी, जब कभी हम ने आईना देखा…’ मैं ने जैसे ही ड्राइंगरूम का दरवाजा खोला तो देखा कि सामने बूआजी टेबल पर छोटा शीशा लिए बैठी हैं. शायद वे अपने सिर के तीनचौथाई सफेद बालों को देख रही थीं या फिर शीशे पर जमी वर्षों की परत को हटा कर अपनी जवानी में झांकना चाह रही थीं.

तभी गली में से फल वाले की आवाज पर वे अतीत से वर्तमान में आती हुई बोलीं, ‘‘अरे फल वाले, जरा रुकना. पपीता है क्या?’’ फल वाला शायद रोज ही आता होगा. वह तुरंत बोला, ‘‘बूआजी, आज पपीता छोटा नहीं है. सब बड़े साइज के हैं और आप बड़ा लेंगी नहीं,’’ कहता हुआ वह जवाब की प्रतीक्षा किए बिना ही चलता रहा.

यह सुन कर बूआजी अपनेआप से ही कहने लगीं, ‘अरे भई, क्या करूं, एक समय था कि घर में टोकरों के हिसाब से फल आया करते थे. अब न खाने वाले हैं और न ही वह वक्त रहा.’ मैं सफदरजंग कालोनी, दिल्ली में बूआजी के फ्लैट के ऊपर वाले फ्लैट में रहती थी. मैं ने फल वाले को रोका और नीचे उतर आई. मैं जब भी किसी काम से नीचे उतरती तो अकसर बूआजी से बोल लेती थी, क्योंकि दिल्ली जैसे महानगर में किसी से थोड़ी सी आत्मीयता व ममतामयी संरक्षण का मिल पाना अपनेआप में बहुत बड़ी बात थी.

पहली बार बूआजी की और मेरी मुलाकात इसी फल वाले की रेहड़ी पर हुई थी. एक बार जब मैं अपने मायके से लौटी तो देखा कि आज यह कोई नया चेहरा दिखाई पड़ रहा है. चेहरे पर अनुभवी परछाईं के साथसाथ कष्टों के चक्रव्यूह में आत्मविश्वास भी नजर आ रहा था. संपन्नता की छाप भी स्पष्ट नजर आ रही थी, क्योंकि घर आधुनिक सुखसुविधाओं व विदेशी सामान से सुसज्जित था. बस, घर में कमी थी तो केवल इंसानों व बच्चों की किलकारियों की. उम्र 60-65 के बीच थी. तब इन्होंने पूछा था, ‘बेटी, क्या आप लोग यहां नए आए हो?’

इस पर मैं ने कहा था, ‘नमस्ते बूआजी, मैं तो यहां पर कई दिनों से रह रही हूं. कुछ दिनों के लिए मायके गई थी. कल ही मायके से आई हूं.’ मायके में 15 दिन मैं ने अपनी बूआजी के साथ गुजारे थे. इन की शक्लसूरत मेरी बूआ से मिलती थी, इसीलिए तो मेरे मुंह से अनायास ‘बूआजी’ निकल गया था. इस के बाद तो ये सब्जी वाले, फल वाले, नौकर, आसपास के फ्लैट वालों सभी के लिए जगत कुमारी से बूआजी बन गईं. बहुत जल्द ही उन के साथ हम सभी के घनिष्ठ संबंध स्थापित हो गए.

मेरे पति व दोनों बच्चे भी उन्हें बूआजी कहने लगे. स्कूल से आतेजाते बच्चों से बूआजी बड़े प्यार से बतियाती थीं. उन से मिलना मेरी भी दिनचर्या में शामिल हो गया था. मेरे पति भी आतेजाते फूफाजी को देख आते थे और कामकाज के लिए भी पूछ आते थे. बूआजी बड़ी व्यवहारकुशल व खुले दिमाग की औरत थीं. बूआजी में आत्मविश्वास को बनाए रखने की प्रबल इच्छाशक्ति थी. परंतु फिर भी दिल के एक कोने में अकेलेपन का एहसास व आंसुओं का सागर उमड़ ही आता था.

इसी अकेलेपन के एहसास के कारण वे अपने भविष्य को इतना असुरक्षित पाती थीं. फूफाजी को भी असुरक्षित भविष्य की भयावह कल्पना ने ही इतना मानसिक तनाव से ग्रसित कर दिया था कि वे पिछले 2 साल से पक्षाघात का शिकार बन, अपनी जिंदगी का बोझ ढो रहे थे. बूआजी भी कहां स्वस्थ थीं. वे भी दमे की मरीज थीं, दिन में दोचार बार ‘पफ’ लेती थीं. उन का रक्तचाप भी कम ही रहता था.

वह कभीकभी दोपहर की चाय के लिए मुझे अपने पास बुला लिया करती थीं. मैं उस समय सभी कामों से निवृत्त होती थी. सो, साथसाथ बैठ कर चाय पी लेती थी. एक दिन मैं ने उन से कहा, ‘बूआजी, आप 24 घंटे का एक नौकर रख लीजिए न.’ मेरी बात सुन बूआजी बोलीं, ‘अरे बेटा, ये जो काम करने वाली हैं न, इन से मेरा काम तो चल ही जाता है. और रही बात तेरे फूफाजी की, तो उन की देखभाल के लिए स्वास्थ्य केंद्र से 90 रुपए रोज पर श्याम आता ही है. सुबह 8 बजे से रात 8 बजे तक यह फूफाजी का सारा काम देखता है.

सुबह का नाश्ता, खाना, नहलाना, कसरत, दवा आदि सभी तो कराता है. रही बात रात की, तो रात को मैं स्वयं देख लेती हूं. हमें श्याम का डर नहीं क्योंकि स्वास्थ्य केंद्र में इस का नामपता सब दर्ज है. बेटी, आजकल वैसे भी नौकर रखना इतना आसान नहीं है. आएदिन घरेलू नौकरों द्वारा की गई चोरीडकैती की घटनाएं सुनने को मिलती रहती हैं. दिल्ली में वैसे भी ऐसी वारदातें होती रहती हैं. अरे भई, ऐसे ही कट जाएगी जिंदगी, पता नहीं, कब हम दो में से एक रह जाएं.’

बातें करतेकरते अकसर उन का गला भर आता व आंखों में आंसू आ जाते. पर पलकों की जैसे इन आंसुओं को सोखने की आदत सी हो गई हो. तभी फोन की घंटी बज उठी. बूआजी के बात करने से लगता था जैसे पुरानी मित्रता हो. वे बोलीं, ‘‘इन का क्या ठीक होना, वही हाल है,’’ फिर रुक कर बोलीं, ‘‘अरे, क्या करना है, अभी तो यहां भी 2 कमरे तो बंद ही रहते हैं, कोई आ जाए तो खुल जाते हैं,’’ कहतेकहते उन का गला भर आया. फोन पर बातचीत चालू थी. बूआजी बोलीं, ‘‘अरे अपने लिए तो वही डिफैंस कालोनी है जहां दो आदमियों की शक्ल नजर आ जाए, कोई दो घड़ी बोल ले.

फल, सब्जी, डाक्टर, टैक्सी सब यहां फोन पर उपलब्ध हैं. मुझे उस कोठी को छोड़ कर इस फ्लैट में आने का कोई गम नहीं है. मुझे यहां बड़ा आराम है.’’ फिर मेरी तरफ देख कर हंसते हुए बोलीं, ‘‘और मुझे यहां एक अपनी बेटी, प्यारेप्यारे बच्चे और बेटे जैसे दामाद का सहारा जो मिल गया है.’’ लगता था आज उन की बातें लंबी चलेंगी, सो मैं उन्हें फिर आने का इशारा करते हुए उठ कर चली गई. मैं घर आ कर सोचने लगी कि शायद बूआजी डिफैंस कालोनी में कोठी बेच कर इस छोटे से फ्लैट में आई हैं.

मगर फिर भी कितनी खुश नजर आती हैं. किसी ने सच ही कहा है कि ‘पैसा जवानी की जरूरत और बुढ़ापे की ताकत होता है.’ उन के आत्मविश्वास के पीछे यह ताकत तो थी ही, पर क्या वे पैसे की ताकत से खुशियां, शांति या औलाद का प्यार खरीद पाईं? हम जैसे गैरों से अगर वे चुटकी भर खुशी का एहसास कर पाईं तो वह केवल अपनी व्यवहारकुशलता से. तभी अचानक बेटी के जाग जाने से मेरे विचारों के क्रम में बदलाव आ गया. मैं उसे प्यार से सहलाते हुए दूध गरम करने के लिए उठ गई.

रात को खाना खाते समय सोमेश (पति) ने पूछा, ‘‘फूफाजी की तबीयत कैसी है? 3-4 दिन से मेरी उन से बात नहीं हो पाई है.’’ इस पर मैं बोली, ‘‘फूफाजी की तबीयत का क्या ठीक, क्या खराब. कोई खास फर्क नहीं…वैसे बूआजी ने इमरजैंसी के लिए कोर्डलैस घंटी तो लगा ही रखी है.’’ वैसे तो इस महानगर के कोलाहल में हर आवाज दब कर रह जाती है, पर बूआजी से कुछ लगाव होने की वजह से हम उन की आवाजों का ध्यान भी रखते थे. वे बारबार श्याम को आवाजें लगाती थीं, ‘श्याम, फूफाजी को मंजन करा दो… श्याम, फूफाजी को चाय पिला दो… फूफाजी को कसरत करानी है…अब फूफाजी को दवा दे दो, अब उन्हें सुला कर खाना खा आओ,’ उन के इन संवादों से हमें फूफाजी की उपस्थिति का भान होता रहता था. 

तभी लंबी घंटी ने हमें चौंका दिया. मेरे पति जल्दीजल्दी दोदो सीढि़यां एकसाथ उतर कर नीचे पहुंचे. मैं भी घर बंद कर के नीचे पहुंची. घड़ी पर नजर पड़ी, तो देखा, साढ़े 8 बज रहे थे. श्याम भी जा चुका था. हम ने बूआजी का इतना घबराया चेहरा पहली बार देखा, उन की सांस फूल रही थी. हमारे पूछने पर वे बोलीं, ‘‘बेटी, आज मुझे इन की हालत कुछ ठीक नहीं लग रही है. मैं ने डाक्टर को भी फोन कर दिया है. मन में अजीब सा डर लग रहा है, इसीलिए तुम लोगों को बुला लिया.’’

इस पर हम दोनों बोले, ‘‘यह क्या कह रही हैं आप. यदि हमें नहीं बुलाएंगी तो और किसे बुलाएंगी?’’ तभी घंटी बजी. दरवाजा खोला तो देखा सामने डाक्टर साहब खड़े थे. उन्होंने फूफाजी को देखा व बोले, ‘‘श्रीमती जगत, मैं आज भी वही कहूंगा जो हर बार कहता आया हूं. इस बीमारी का कोई भी इलाज नहीं, न ही मरीज की गिरती व सुधरती हालत पर कोई टिप्पणी की जा सकती है. निकल जाए तो 6 महीने, न निकले तो 6 घंटे भी नहीं. आप हिम्मत रखो, मैं आप का दर्द समझता हूं,’’ कह कर डाक्टर चले गए. 

डाक्टर के जाने के बाद मैं ने कहा, ‘‘बूआजी, यदि आप कहें तो मैं आप के साथ नीचे ही सो जाऊं?’’ इस पर उन की आंखें फिर भर आईं और बोलीं, ‘‘हां बेटी, आज तुम नीचे ही सो जाओ. न जाने आज क्यों मेरा दिल घबरा रहा है.’’ मैं अपने पति को बच्चों के पास भेज कर स्वयं बूआजी के साथ फूफाजी के कमरे में ही लेट गई. वे बड़े प्यार से फूफाजी के सिर पर हाथ फेर कर उन्हें सहलाती रहीं. फूफाजी देखने में आज भी आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे. डाक्टर फूफाजी को नींद की दवा भी दे गए थे.

फूफाजी साफ नहीं बोलते थे, बस ‘अऽऽ’ कर के चिल्लाते थे और रात की शांति में तो उन की आवाज बहुत तेज सुनाई पड़ती थी. थोड़ी देर बाद जब फूफाजी की आंख लग गई तो बूआजी आ कर मेरे पास जमीन पर लेट गईं, पर नींद उन की आंखों से कोसों दूर थी. छत के पंखे से टकटकी लगाए जैसे अपने अतीत के एकएक पल को अपने में समेट लेना चाहती थीं.

मुझे लगने लगा कि आज बूआजी अपनी जिंदगी के बीते एकएक पल को मेरे साथ बांटना चाहती हैं. तभी वे बोलीं, ‘‘बेटी, मैं शुरू से इस तरह अकेली नहीं थी. शादी हुई तो तेरे फूफाजी जैसे सुंदर तन व मन वाले व्यक्ति को पति के रूप में पा कर अपनेआप को धन्य समझने लगी. सासससुर के अलावा एक छोटी ननद थी. घर में संपन्नता की न आज कमी है न उस समय थी. हमारी पीतल की फैक्टरी थी जो मानो सोना उगलती थी. तेरे फूफाजी अपने पिता के इकलौते बेटे होने के कारण उन के बहुत लाड़ले थे. इन्हें घूमनेफिरने का बहुत शौक था. 2 साल में ही पूरे भारत की सैर कर ली.

मैं इन के प्यार में इस कदर डूब गई थी कि मुझे कभी अपने मायके की याद नहीं आती थी. ममतामयी सासससुर ने मेरे सिर किसी भी तरह की गृहस्थी की कोई जिम्मेदारी नहीं डाली थी. घर में इतने नौकरचाकर थे कि कभी खाना खा कर थाली उठाने की भी नौबत नहीं आई. डिफैंस कालोनी में 600 गज में कोठी बनी थी. 2 साल बाद एक सुंदर सी बिटिया ने जन्म लिया. घर में उन किलकारियों का बेसब्री से इंतजार था.

‘‘तुम्हारे फूफाजी की खुशियों का तो ठिकाना ही न रहा था. हम ने बेटी का नाम मंजुला रखा. उस की दादी ने उस की देखभाल के लिए एक आया और रख दी थी. 2 साल कैसे निकले, पता ही नहीं चला कि बेटे अनुराग का पदार्पण हो गया. अब तो घर की खुशियों में चारचांद लग गए थे. दिन पंख लगा कर उड़ने लगे. दादी अनुराग का 10वां जन्मदिन मना कर रात को खुशीखुशी ऐसी सोईं कि फिर वापस कभी न उठ पाईं. गृहस्थी का सारा बोझ मुझ पर आ पड़ा.

सास को गए अभी 2 ही साल हुए थे कि दिल का दौरा पड़ने से ससुर भी कभी न जागने वाली नींद सो गए. अब इन पर ही फैक्टरी की पूरी जिम्मेदारी आ गई.’’ शायद बूआजी आज अपनी बातों को विराम नहीं देना चाहती थीं. मुझे भी उन की बातें सुन कर जैसे अनुभव का अनमोल खजाना मिल रहा था. वे आगे बोलीं, ‘‘दोनों बच्चे पढ़लिख कर बड़े हो गए. बेटी विवाह लायक हो गई थी. सो, मैं उसे जल्दी ही प्रणयसूत्र में बांधना चाहती थी. एक दिन घरबैठे ही बंगलौर से एक अच्छा रिश्ता आ गया व कुछ ही दिनों में हम ने उस की शादी कर दी.

अनुराग का मन था कि वह आगे की शिक्षा अमेरिका से प्राप्त करे तो तुम्हारे फूफाजी ने उस का भी प्रबंध कर दिया. बेटी अपनी सुखसंपन्न गृहस्थी में लीन एक बेटे की मां बन गई और अनुराग 3 साल के लिए अमेरिका चला गया,’’ कहतेकहते बूआजी का जैसे बरसों से रुका आंसुओं का सैलाब न जाने क्यों आज ही बह जाना चाहता था. रोतेरोते उन की सिसकियां बंध गईं.

थोड़ी देर रुक कर वे फिर भारी मन से बोलीं, ‘‘बेटी, मैं व तेरे फूफाजी अनुराग के आने के दिन गिन रहे थे कि एक दिन अचानक उस का पत्र आया जिस में उस ने लिखा था कि वर्ल्ड बैंक में नौकरी लग जाने की वजह से वह सालभर और घर नहीं आ सकता. इसलिए पिताजी से कहना कि वे फैक्टरी का काम कम कर दें. समझदार को इशारा ही काफी होता है. तेरे फूफाजी ने जब अनुराग का पत्र पढ़ा तो जैसे उन्हें कोई करंट सा लगा हो. धड़ाम से पलंग पर लेट गए.

उस दिन के बाद कई बार मुझे उन की बातों से लगने लगा कि जैसे ये अपने बुढ़ापे के बारे में अपनेआप को काफी असुरक्षित महसूस करने लगे हैं. ‘‘हर दोचार महीने में मंजुला व दामाद आ जाया करते थे. एक दिन अनुराग का फिर पत्र आया जिस में उस ने लिखा था कि ‘मेरे साथ नैना नामक लड़की काम करती है और मैं भारत आ कर आप लोगों की आज्ञा से उस से शादी करना चाहता हूं. मैं 2 महीने की छुट्टी पर घर आ रहा हूं. नैना का भी घर लखनऊ में है.’

‘‘तुम्हारे फूफाजी को व मुझे कोई एतराज नहीं था, सोचा, चलो अच्छा हुआ कि लड़की भारतीय तो है. अब हम बड़े उत्साह से उस की शादी की तैयारियों में जुट गए थे. हम ने मंजुला को भी बुला लिया था. हम ने बड़ी धूमधाम से शादी की. तुम्हारे फूफाजी और मैं बहुत खुश थे. शादी के बाद एक महीना कब गुजर गया, पता ही नहीं चला. अनुराग व नैना के वापस जाने की तारीख भी नजदीक आ रही थी.

केवल 7 दिन बचे थे. फिर आखिरकार उन के जाने का दिन भी आ ही गया. हम दोनों अनुराग व नैना को विदा कर घर लौटे कि उसी दिन से घर में नीरवता छा गई. तुम्हारे फूफाजी ने खाट पकड़ ली. ‘‘मैं ने वकील के साथ मिल कर फैक्टरी बेच दी, साथ ही कोठी को भी बेच दिया और इस फ्लैट में आ गई. एक बार बेटेबहू ने कहा भी कि आप लोग अमेरिका ही आ जाओ पर मैं ने कहा कि हम वहां एअरकंडीशनर की कैद में नहीं रह सकते.

तुम दोनों तो काम पर चले जाया करोगे, सो मुझ से इन की देखभाल अकेले नहीं होगी. और अपने जीतेजी मैं इन्हें किसी भी नर्सिंगहोम में नहीं छोड़ूंगी, मेरे बाद तुम्हारी जो मरजी हो सो करना. ‘‘दोनों साल में एकाध बार आ जाते हैं. उन के एक बेटी है. बहू को तो दुनियाभर का भ्रमण करना पड़ता है, श्रीलंका, जापान, जरमनी, स्वीडन वगैरावगैरा. अब तो उन्होंने अमेरिकी नागरिकता भी स्वीकार कर ली है. पूरी तरह से वहीं बस गए हैं.’’

बातों ही बातों में मैं ने घड़ी देखी तो पाया कि सुबह के 5 बज गए हैं. तभी फूफाजी ने जोर से एक हिचकी ली और शांत हो गए. बूआजी ने उठ कर देखा और हिम्मत के साथ उन की आंखें बंद कर मुंह पर कपड़ा ढक दिया और बहुत धीरे से बोलीं, ‘‘फूफाजी नहीं रहे.’’ मैं ने ऊपर से इन्हें बुलाया व सभी रिश्तेदारों को फोन से सूचना करवा दी. बूआजी मेरे पति से बोलीं, ‘‘सोमेश बेटे, 11 बजे तक इंतजार कर लो, यदि लोग पहुंच जाएं तो ठीक अन्यथा गाड़ी बुला कर विद्युत शव दाहगृह में ले जा कर अंतिम संस्कार कर आना.’’ शायद बूआजी को अपने बेटे अनुराग के पहुंच पाने की कोई उम्मीद न थी.

तभी अचानक उन को कुछ याद आ गया. वे कुछ तेज कदमों से चलती हुई मेरे पति के पास पहुंचीं. फिर उन्होंने पति के कान में कुछ कहा तो वे तुरंत फोन की तरफ लपक कर कहीं फोन मिलाने लगे. उन के फोन मिलाने के थोड़ी देर बाद ही एक गाड़ी घर के दरवाजे पर आ कर रुकी. उस में से उतर कर डाक्टर साहब ने घर में प्रवेश किया. इस तरह फूफाजी के नेत्रदान की अंतिम इच्छा को पूरा करते हुए मानो बूआजी की बहती अविरल अश्रुधारा कह रही हो कि ये अनुभवी, प्यार बरसाने वाले नेत्र तो जिंदा रहेंगे. 

दुनिया पर प्यार लुटाने वाली बूआजी का स्वयं का प्यार का स्रोत लुट चुका था. बूआजी की टेप पर चलती गजल मुझे फिर याद आ गई मानो वह उन्हीं के लिए ही गाई गई हो, ‘अपनी सूरत भी लगने लगी पराई सी, जो आईना देखा…’ Family Kahani

Parivarik Kahani: कमाऊ बीवी- आखिर क्यों वसंत ने की बीवी की तारीफ?

Parivarik Kahani: प्राय: कमाऊ बीवी का पति होना बड़ी अच्छी बात समझी जाती है. हम भी इसी गलतफहमी में रहते अगर अपने पड़ोसी प्रदीप की पत्नी को एक दफ्तर में नौकरी न मिली होती. हमारे तथा प्रदीप के घर के बीच केवल पतली लकड़ी की दीवार है. वह भी न होने के बराबर है. इधर बजने वाला अलार्म उन्हें जगा देता है और उन के मुन्ने की चीखपुकार हमारी नींद हराम कर देती है.

हमें याद है, जिस दिन प्रदीप की पत्नी सुनीता के नाम नियुक्तिपत्र आया था प्रदीप और उन के तीनों बच्चे महल्ले के हर घर में यह शुभ समाचार देने दौड़ पड़े थे. यह भी अच्छी तरह याद है कि मिठाई का स्वाद महल्ले भर की ईर्ष्या के कसैलेपन को दबा नहीं पाया था.

सुनीता का दफ्तर घर से काफी दूर पड़ता था. इसलिए उसे समय से दफ्तर पहुंचने के लिए 9 बजते ही घर से निकलना पड़ता था. जिस दिन पहली बार वह दफ्तर के लिए बनठन कर घर से निकली तो पूरे महल्ले की छाती पर सांप लोट गए थे. रसोई में उलझी हुई अपनी पत्नी को जब हम ने सुनीता

के दफ्तरगमन का यह दृश्य दिखलाया तो अनजाने ही हमारी मुद्रा में यह भाव तैर आया कि ‘कितने खुशनसीब हैं आप के पड़ोसी जिन्हें इतनी सुघड़, सुंदर और कमाऊ पत्नी मिली है.’ हमारी पत्नी ने शायद हमारी मुद्रा पढ़ ली थी. एक फीकी मुसकान हम पर डाल कर वह फिर से अपने काम में जुट गई.

नईनई नौकरी के उत्साह में कुछ दिन सब ठीकठाक चलता रहा और पूरे महल्ले के पेट में दर्द होता रहा कि दोनों की नौकरी के साथसाथ आखिर गृहस्थी के काम कैसे ठीकठाक चल रहे हैं? हम खुद यह रहस्य जानने के लिए बेताब थे कि सुबह का खाना निबटा कर और तीनों बच्चों को स्कूल के लिए तैयार कर के दोनों किस तरह समय से दफ्तर रवाना हो जाते हैं.

पर अभी एक महीना भी न बीता था कि लकड़ी की दीवार के दूसरी ओर का तनाव अनायास ही प्रकट होने लगा.

सुबह के 9 बजे थे. अचानक प्रदीप का तेज स्वर सुनाई पड़ा, ‘‘सुनीता, देखो बबली ने अपना फ्राक गंदा कर डाला है. जरा इस का फ्राक बदलती जाना.’’

‘‘मुझे आज वैसे ही देर हो रही है. आप ही बदल लीजिएगा,’’ सुनीता का स्वर सुनाई पड़ा.

‘‘भई, अच्छी मुसीबत है. मुझे भी तो समय से दफ्तर पहुंचना होता है. बरतनों की सफाई और बच्चों को तैयार कर के स्कूल भेजने के चक्कर में हर दिन दफ्तर देर से पहुंच रहा हूं. दिन चढ़ते ही सजनेसंवरने लग जाती हो, इस के बजाय, तुम्हें घर के काम निबटाने की फिक्र करनी चाहिए,’’ प्रदीप का स्वर आक्रोश और व्यंग्य में डूबा हुआ था.

‘‘तो क्या आप चाहते हैं कि मैं घर के ही कपड़ों में बिना हाथमुंह धोए दफ्तर निकल जाऊं? घर के काम के लिए तो आप को महरी लगानी ही पड़ेगी. और फिर मैं क्या अपने शौक या शान के लिए नौकरी कर रही हूं? यह सबकुछ तो आप को मुझे नौकरी के लिए भेजने से पहले सोचना चाहिए था,’’ सुनीता शायद रोआंसी हो उठी थी.

इस के बाद के संवाद स्पष्ट नहीं सुने जा सके, पर हम ने देखा कि अगले ही दिन से प्रदीप के घर सुबह ही सुबह एक महरी आने लगी थी.

प्रदीप के परिवार की आर्थिक स्थिति भले ही दृढ़ हो गई हो पर कुछ समय पूर्व सुनाई पड़ने वाले कहकहे अब बंद हो चले थे. बच्चे अब डांट ज्यादा खाने लगे थे और खाली समय में इधरउधर डोलते दिखाई पड़ने लगे थे.

प्रदीप की तबीयत खराब हुई. वह दफ्तर से 3-4 दिन की छुट्टी ले कर घर पर आराम करने लगे. मिजाजपुर्सी के लिए हम ने उन के घर के भीतर कदम रखा तो घर की अव्यवस्था देख कर हैरान हो गए. बच्चों के फाड़े हुए कागज सारे घर में बिखरे हुए थे. एक ओर मैले कपड़ों का ढेर लगा हुआ था. हर कोने में जूठे बरतन बिखरे हुए थे. प्रदीप लिहाफ ओढ़े हुए थे. उस लिहाफ का गिलाफ शायद पिछले कई महीनों से धुला नहीं था.

हमारे सूक्ष्म निरीक्षण को ताड़ कर प्रदीप कुछ शर्मिंदगी के साथ बोला, ‘‘इधर 2-1 दिन से महरी भी बीमार है. सबकुछ अस्तव्यस्त पड़ा है और फिर आप जानते ही हैं कि सुनीता भी…’’

‘‘जी हां, जी हां, जहां पतिपत्नी दोनों नौकरी करते हों वहां घर की देखभाल में कमी आ जाती है,’’ हम ने कह तो दिया पर लगा कि ऐसा नहीं कहना चाहिए था. इसलिए तुरंत हम ने जोड़ा, ‘‘फिर भी ऐसी कोई खास अस्तव्यस्तता तो दिखाई नहीं देती. बच्चे तो हर घर में ऐसा ही किया करते हैं.’’

प्रदीप के मुंह पर एक फीकी मुसकान आ गई. तकिया पीठ के पीछे लगा कर, पलंग पर बैठते हुए बोला, ‘‘आप को भले ही न दिखाई देता हो पर सबकुछ अस्तव्यस्त हो गया है, मेरे भाई. जब से सुनीता ने नौकरी शुरू की है, यह घर घर न रह कर सराय बन गया है. सराय की भी अपनी एक व्यवस्था होती है. अब यही देखिए, आप मेरा हाल पूछने आए हैं, पर मैं आप को एक कप चाय भी नहीं पिलवा सकता.’’

हमें लगा कि शायद प्रदीप अस्वस्थता के कारण भावुक हुए जा रहे हैं. क्या पता चाय पीने का ही मन हो. हम कह बैठे, ‘‘इतनी सी बात के लिए आप परेशान न हों. अभी चाय ले कर आता हूं. कुछ खिचड़ी या दलिया वगैरह लेना चाहें तो बनवा लाऊं?’’

पर प्रदीप ने हमारा हाथ पकड़ कर हमें उठ कर जाने से रोक लिया. वह खुद किन्हीं विचारों में खो गए. कुछ देर की चुप्पी के बाद करुण स्वर में वह अपनी बीमारी का रहस्य हमें बताने लगे, ‘‘मैं बीमारवीमार कुछ नहीं हूं. हलका  सा जुकाम था. मैं 3 दिन की छुट्टी ले कर लेट गया.’’

वह चुप हो गए और हम प्रश्नसूचक दृष्टि से उन्हें देखने लगे.

उन्होंने फिर कहना शुरू किया, ‘‘मैं तो महज यही देखना चाहता था कि सुनीता मेरी बीमारी और अपनी नौकरी में से किसे अधिक महत्त्वपूर्ण समझती है? पर उस के लिए नौकरी ही सबकुछ बन गई है. मेरी कोई परवा ही नहीं.’’

प्रदीप का मर्ज हमारी पकड़ में आ चुका था. पुरुष होने का खोखला अहंकार उन्हें पीडि़त किए हुए था. वह पत्नी की नौकरी का आर्थिक लाभ भी उठाना चाहते थे और उस की नौकरी को शौक से ज्यादा महत्त्व देने को भी तैयार नहीं थे.

‘‘तो क्या आप चाहते थे कि आप की पत्नी अपने दफ्तर से छुट्टी ले कर घर पर आप की तीमारदारी करे?’’ हम ने सवाल कर डाला.

‘‘हां, इतनी सी तो बात थी. आखिर, इस में उस की नौकरी तो न चली जाती. मुझे भी संतोष हो जाता कि…’’ प्रदीप ने वाक्य अधूरा ही छोड़ दिया.

‘‘कि सुनीता को अपनी नौकरी से ज्यादा फिक्र आप की है,’’ हम ने वाक्य पूरा करते हुए एक सवाल और पूछ लिया, ‘‘अच्छा प्रदीप, एक बात का ईमानदारी से जवाब देना. आप की जगह सुनीता घर पर लेटी होती तो क्या आप दफ्तर से छुट्टी ले कर बैठ गए होते?’’

‘‘जी हां, जी, मैं शायद…’’ प्रदीप को शायद जवाब नहीं सूझ रहा था.

‘‘हां, हां, कहिए. आप शायद…’’ हम मुसकरा रहे थे.

‘‘मैं शायद…’’ कहतेकहते  ही प्रदीप भी मुसकरा उठे और लिहाफ छोड़ पलंग से उठ खड़े हुए.

‘‘क्यों, अब आप कहां चल दिए?’’ उन्हें रसोईघर की तरफ बढ़ते देख हम ने पूछा.

‘‘भई, 5 बज चुके हैं न. दफ्तर से थकी हुई सुनीता आती ही होगी. गैस पर चाय का पानी रख दूं. तीनों इकट्ठे चाय पीएंगे,’’ कहते हुए वह रसोईघर में घुस गए.

अचानक हमारा मन बड़ी जोर से ठहाका लगाने को हुआ, पर दरवाजे पर नजर पड़ते ही हम ने खुद को रोक लिया. दरवाजे पर सुनीता अपने थके हुए चेहरे पर मुसकान लाने की कोशिश में क्षणभर के लिए ठिठक गई थी. Parivarik Kahani

व्यंग्य- वसंतकुमार भट्ट

Social Hindi Story: तभी तो कह रही हूं

Social Hindi Story: लड़कियों की मकान मालकिन कम वार्डेन नीलिमा ने रोज की तरह दरवाजे पर ताला लगा दिया और बोलीं, ‘‘लड़कियो, मैं बाहर की लाइट बंद कर रही हूं. अपनेअपने कमरे अंदर से ठीक से बंद कर लो.’’

एक नियमित दिनचर्या है यह. इस में जरा भी दाएंबाएं नहीं होता. जैसे सूरज उगता और ढलता है ठीक उसी तरह रात 10 बजते ही दालान में नीलिमा की यह घोषणा गूंजा करती है.

उन का मकान छोटामोटा गर्ल्स होस्टल ही है. दिल्ली या उस जैसे महानगरों में कइयों ने अपने घरों को ही थोड़ीबहुत रद्दबदल कर छात्रावास में तबदील कर दिया है. दूरदराज के गांवों, कसबों और शहरों से लड़कियां कोई न कोई कोर्स करने महानगरों में आती रहती हैं और कोर्स पूरा होने के साथ ही होस्टल छोड़ देती हैं. इस में मकान कब्जाने का भी कोई अंदेशा नहीं रहता.

15 साल पहले नीलिमा ने अपने मकान का एक हिस्सा पढ़ने आई लड़कियों को किराए पर देना शुरू किया था. उस काम में आमदनी होने के साथसाथ उन के मकान ने अब कुछकुछ गर्ल्स होस्टल का रूप ले लिया है. आय होने से नीलिमा का स्वास्थ्य और आत्मविश्वास तो अवश्य सुधरा लेकिन बाकी रहनसहन में ठहराव ही रहा. हां, उन की बेटी के शौक जरूर बढ़ते गए. अब तो पैसा जैसे उस के सिर चढ़कर बोल रहा है. घर में ही हमउम्र लड़कियां हैंपर वह तो जैसे किसी को पहचानती ही नहीं.

सुरेखा और मीना एम.एससी.

गृह विज्ञान के फाइनल में हैं. पिछले साल जब वे रांची से आई थीं तो विचलित सी रहती थीं. जानपहचान वालों ने उन्हें नीलिमा तक पहुंचाया.

‘‘1,500 रुपए एक कमरे का…एक कमरे को 2 लड़कियां शेयर करेंगी…’’ नीलिमा की व्यावसायिकता में क्या मजाल जो कोई उंगली उठा दे.

‘‘ठीक है,’’ सुरेखा और मीना के पिताजी ने राहत की सांस ली कि किसी अनजान लड़की से शेयर नहीं करना पड़ेगा.

‘‘खाने का इंतजाम अपना होगा. वैसे यहां टिफिन सिस्टम भी है. कोई दिक्कत नहीं है,’’ नीलिमा बताती जाती हैं.

सबकुछ ठीकठाक लगा. अब तो वे दोनों अभ्यस्त हो गई हैं. गर्ल्स होस्टल की जितनी हिदायतें और वर्जनाएं होती हैं, सब की वे आदी हो चुकी हैं.

‘‘नो बौयफ्रेंड एलाउड,’’ यह नीलिमा की सब से अलार्मिंग चेतावनी है.

सुरेखा और मीना के बगल के कमरे में देहरादून से आई दामिनी और अर्चना हैं. दोनों ग्रेजुएशन कर रही हैं. इंगलिश आनर्स कहते उन के चेहरे पर ऐसे भाव आते हैं जैसे इंगलैंड से सीधे आई हैं और सारा अंगरेजी साहित्य इन के पेट में हो.

दोनों कमरों के बीच में एक छोटा सा कमरा है जिस में एक गैस का चूल्हा, फिल्टर, फ्रिज और रसोई का छोटामोटा सामान रखा है. बस, यही वह स्थान है जहां देहरादूनी लड़कियां मात खा जाती हैं.

सुरेखा नंबर एक कुक है. जबतब प्रस्ताव रख देती है, ‘‘चाइनीज सूप पीना हो तो 20-20 रुपए जमा करो.’’

दामिनी और अर्चना बिके हुए गुलामों की तरह रुपए थमा देतीं. निर्देशों पर नाचतीं. सुरेखा अब सुरेखा दीदी बन गई है. अच्छाखासा रुतबा हो गया है. अकसर पूछ लिया करती है, ‘‘कहां रही इतनी देर तक. आंटी नाराज हो रही थीं.’’

‘‘आंटी का क्या, हर समय टोकाटाकी. अपनी बेटी तो जैसे दिखाई ही नहीं देती,’’ दामिनी भुनभुनाती.

ऊपर की मंजिल में भी कमरे हैं. वहां भी हर कमरे में 2-2 लड़कियां हैं. उन की अपनी दुनिया है पर आंटी की आवाज होस्टल के हर कोने में गूंजा करती है.

आज छुट्टी है. लड़कियां देर तक सोएंगी. जवानी की नींद जो है. नीलिमा एक बार झांक गई हैं.

‘‘ये लड़कियां क्या घोड़े बेच कर सो रही हैं,’’ बड़बड़ाती हुई नीलिमा सुरेखा के कमरे के पास से गुजरीं.

सुरेखा की नींद खुल गई. उसे उन की यह बेचैनी अच्छी लगी.

‘‘अपनी बेटी को उठा कर देखें ये… बस, यहीं घूमती रहती हैं,’’ सुरेखा ढीठ हो लेटी रही. जैसे ऐसा कर के ही वह नीलिमा को कुछ जवाब दे पा रही हो.

उधर होस्टल गुलजार होने लगा. गुसलखाने के लिए चिल्लपौं मची. फिर सबकुछ ठहर गया. कुछ कार्यक्रम बने. मीना की चचेरी बहन लक्ष्मीनगर में रहती है. वहीं लंच का कार्यक्रम था इसलिए सुरेखा और मीना भी चली गईं.

एकाएक दामिनी ने चमक कर अर्चना से कहा, ‘‘चल, बाहर से फोन करते हैं. अरविंद को बुला लेंगे. फिल्म देखने जाएंगे.’’

‘‘अरविंद को बुलाने की क्या जरूरत.’’

‘‘लेकिन अब कौन सा शो देखा जाएगा. 6 से 9 के ही टिकट मिल सकते हैं,’’ अर्चना ने घड़ी देखते हुए कहा.

‘‘तो क्या हुआ?’’ दामिनी लापरवाही से बोली.

‘‘नहीं पागल, आंटी नाराज होंगी…. लौटने में समय लग जाएगा.’’

‘‘ये आंटी बस हम पर ही गुर्राती हैं. अपनी बेटी के लक्षण इन को नहीं दिखते. रोज एक गाड़ी आ कर दरवाजे पर रुकती है… आंटी ही कौन सा दूध की धुली हैं… बड़ी रंगीन जिंदगी रही है इन की.’’

अर्चना, दामिनी और अरविंद ‘दिल से’ फिल्म देखने हाल में जा बैठे. खूब बातें हुईं. अरविंद दामिनी की ओर झुकता जाता. सांसें टकरातीं. शो खत्म हुआ.

कालिज तक अरविंद दोनों को छोड़ने आया था. वहां से दोनों टहलती हुई होस्टल के गेट तक आ गईं. गेट खोलने को हलका धक्का दिया. चूं…चूं… की आवाज हुई.

‘‘तैयार हो जाओ डांट खाने के लिए,’’ अर्चना ने फुसफुसा कर कहा.

‘‘ऊंह, क्या फर्क पड़ता है.’’

गेट खुलते ही सामने नीलिमा घूमते हुए दिखीं. सकपका गईं दोनों लड़कियां.

‘‘आंटी, नमस्ते,’’ दोनों एकसाथ बोलीं.

‘‘कहां गई थीं?’’

‘‘बहुत मन कर रहा था, ‘दिल से’ देखने का,’’ अर्चना ने मिमियाती सी आवाज में कहा.

‘‘यही शो मिला था फिल्म देखने को?’’

‘‘आंटी, प्रोग्राम देर से बना,’’ दामिनी ने बात संभालने की कोशिश की.

‘‘मैं कुछ नहीं जानती. होस्टल का डिसीपिलिन बिगाड़ती हो. आज ही तुम्हारे घर पत्र डालती हूं,’’ नीलिमा यह कहती हुई अपने कमरे की ओर चली गईं.

दामिनी कमरे में आते ही धम से बिस्तर में धंस गई और अर्चना गुसलखाने में चली गई.

‘‘कुछ खानावाना भी है या अरविंद के सपनों में ही रहेगी,’’ अर्चना ने दामिनी को वैसे ही पड़ी देख कर पूछा.

दामिनी वैसे ही मेज पर आ गई. राजमा, भिंडी की सब्जी और चपातियां. दोनों ने कुछ कौर गले के नीचे उतारे. पानी पिया.

‘हेमलेट’ के नोट्स ले कर अर्चना दिन गंवाने का अपराधबोध कुछ कम करने का प्रयास करने लगी. उसे पढ़ता देख दामिनी भी रैक में कुछ टटोलने लगी. सभी के कमरों की लाइट जल रही है.

‘‘जाऊंगी, सौ बार कहती हूं मैं जाऊंगी,’’ आंटी के कमरे की ओर से आती आवाज सन्नाटे को चीरने लगी.

बीचबीच में ऐसा कुछ होता रहता है. इस की भनक सभी लड़कियों को है. आज संवाद एकदम स्पष्ट है.

बेटी की आवाज ऊंची होते देख आंटी को जैसे सांप सूंघ गया. वह खामोश हो गईं. बेटी भी कुछ बड़बड़ा कर चुप हो गई.

सुबह रात्रि के विषाद की छाया आंटी के चेहरे पर साफ झलक रही है. नियमत: वह होस्टल की तरफ आईं पर बिना कुछ कहेसुने ही चली गईं.

फाइनल परीक्षा अब निकट ही है. सुरेखा और मीना प्रेक्टिकल के बोझ से दबी रहती हैं. देहरादूनी लड़कियों को उन्हें देख कर ही पता चला कि गृहविज्ञान कोई मामूली विषय नहीं है. उस पर इस विषय के कई अभ्यास देखे तो आंखें खुल गईं. विषय के साथसाथ सुरेखा और मीना भी महत्त्वपूर्ण हो गईं.

आजकल दामिनी भी सैरसपाटा भूल गई है पर दिल के हाथों मजबूर दामिनी बीचबीच में अरविंद के साथ प्रोग्राम बना लेती है. पिछले दिनों उस के बर्थ डे पर अरविंद एंड पार्टी ने उसे सरप्राइज पार्टी दी. बड़े स्टाइल से उन्हें बुलाया. वहां जा कर दोनों चकरा गईं. सुनहरी पन्नियों की बौछार, हैपी बर्थ डे…हैपी बर्थ डे की गुंजार.

रात के 11 बज रहे हैं. दामिनी और अर्चना ‘शेक्सपियर इज ए ड्रामाटिस्ट’ पर नोट्स तैयार कर रही हैं. दोनों के हाथ तेजी से चल रहे हैं. बगल के कमरे से छन कर आती रोशनी बता रही है कि सुरेखा और मीना भी पढ़ रही होंगी. यहां पढ़ने के लिए रात ही अधिक उपयुक्त है. एकदम सन्नाटा रहता है और एकदूसरे के कमरे की दिखती लाइट एक प्रतिद्वंद्विता उत्पन्न करती है.

बाहर से कुछ बातचीत की आवाज आ रही है. आंटी की बेटी आई होगी. धीरेधीरे सब की श्रवण शक्ति बाहर चली गई. पदचाप…खड़…एक असहज सन्नाटा.

‘‘…अब आ रही है?’’ आंटी तेज आवाज में बोलीं, ‘‘फिर उस के साथ गई थी. मैं ने तुझे लाख बार समझाया है पर क्या तेरा भेजा फिर गया है?’’

‘‘आप मेरी लाइफ स्टाइल में इंटरफेयर क्यों करती हैं? ये मेरी लाइफ है. मैं चाहे जिस तरह जिऊं.’’

‘‘तू जिसे अपना लाइफ स्टाइल कह रही है वह एक मृगतृष्णा है, जहां सिर्फ तुझे भटकाव ही मिलेगा. तू मेरी औलाद है और मैं ने दुनिया देखी है इसलिए तुझे समझा रही हूं. तू समझ नहीं रही है…’’

‘‘मैं कुछ नहीं समझना चाहती. और आप समझा रही हैं…मेरा मुंह आप मत खुलवाओ. पापा से आप की दूसरी शादी…. पता नहीं पहले वाली शादी थी भी या…’’

‘‘चुप, बेशर्म, खबरदार जो अब आगे एक शब्द भी बोला,’’ आज नीलिमा अप्रत्याशित रूप से बिफर गईं.

‘‘चुप रहने से क्या सचाई बदल जाएगी?’’

‘‘तू क्या सचाई जानती है? पिता का साया नहीं था. 6 भाईबहनों के परिवार में मैं एकमात्र कमाने वाली थी. तब का जमाना भी बिलकुल अलग था. लड़कियां दिन में भी घर से बाहर नहीं निकलती थीं और मैं रात की शिफ्ट में काम करती थी. कुछ मजबूर थी, कुछ मैं नादान… यह दुनिया बड़ी खौफनाक है बेटी, तभी तो कह रही हूं…’’

नीलिमा रो रही हैं. वे हताश हो रही हैं. उन की व्यथा को सब लड़कियों ने जाना, समझा. सब ने फिर एकदूसरे को देखा किंतु आज वे मुसकराईं नहीं. Social Hindi Story

कहानी- सरोजिनी नौटियाल

Motivational Story: नई सुबह- क्या हुआ था कुंती के साथ

Motivational Story: शाम से ही कुंती परेशान थी. हर बार तो गुरुपूर्णिमा के अवसर पर रमेशजी साथ ही आते थे पर इस बार वे बोले, ‘‘जरूरी मुकदमों की तारीखें आ गई हैं, मैं जा नहीं पाऊंगा. तुम चाहो तो चली जाओ. वृंदाजी को भी साथ ले जाओ. यहां से सीधी बस जाती है. 5 घंटे लगते हैं. वहां से अध्यक्ष मुकेशजी का फोन आया था, सब लोग तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं.’’

‘‘पर जब तुम चल ही नहीं रहे हो तब मेरा जाना क्या उचित है?’’

‘‘तुम देख लो, बरसों से आश्रम में साल में 2 बार हम जाते ही हैं,’’ रमेशजी बोले.

तब कुंती ने वृंदाजी से बात की थी. वे तो जाने को पहले से ही तैयार थीं. वे स्वामी प्रेमानंदजी से मिलने वृंदावन पहले भी हो आई थीं. वहीं उन के बड़े गुरु महाराजजी का आश्रम था. वे बहुत गद्गद थीं, बोलीं, ‘‘बहुत ही भव्य आश्रम है. वहां विदेशी भी आते हैं. सुबह से ही रौनक हो जाती है. सुबह प्रार्थना होती है, भजन होते हैं फिर कीर्तन होता है. लोग मृदंग ले कर नाचते हैं.
कुंती, सच एक बार तू भी मेरे साथ चलना. ये अंगरेज तो भावविभोर ही हो जाते हैं. वहीं पता लगा था, इस बार गुरुपूर्णिमा पर स्वामी प्रेमानंदजी ही वहां अपने आश्रम पर आएंगे. बड़े महाराज का विदेश का कार्यक्रम बन रहा है. स्वामी प्रेमानंदजी तो बहुत ही बढि़या बोलते हैं. क्या गला है, लगता है, मानो जीवन का सार ही उन के गले में उतर आया है,’’ वृंदाजी बहुत प्रभावित थीं.

कुंती को बस में अच्छा नहीं लग रहा था. कहां तो वह हमेशा रमेशजी के साथ ही कार से जाती थी, किसी दूसरे का रत्ती भर एहसान नहीं. ठहरने की भी अच्छी जगह मिल जाती थी. सोनेठहरने की जगह अच्छी मिल जाए तो प्रवास अखरता नहीं.

पर इस बार उन्हें आते ही सब के साथ बड़े हौल में ठहरा दिया गया था. वहां, वह थी, वृंदाजी थीं तथा 10 महिलाएं और थीं. फर्श पर सब के बिस्तर लगे हुए थे. टैंटहाउस के सामान से उसे चिढ़ थी. उस ने मुकेश भाई से बात कर अपने लिए आश्रम की ही चादरें मंगवा ली थीं. उस ने अपना बिस्तर ढंग से जमाया, वहीं पास में अटैची रख ली थी. कुछ महिलाएं उज्जैन, इंदौर से आई थीं.

कुछ को तो वह पहचानती थी, कुछ नई थीं. तभी रमेशजी का फोन आ गया था. पूछ रहे थे कि रास्ते में तकलीफ तो नहीं हुई? वह क्या कहती, कहां अपनी कार, कहां रोडवेज की बस में यात्रा, तकलीफ तो होनी ही थी, पर अब कहने का क्या मतलब. वह चुप ही रह गई. तभी बाहर से वृंदाजी ने आ कर कहा, ‘‘बाहर जानकी बाई आई हैं, तुम्हें बुला रही हैं.’’

‘‘वे कब आईं?’’

‘‘कल ही कार से आ गई थीं. वे दूर वाले कौटेज में ठहरी हैं.’’

‘‘हूं. वे कार से आई हैं, उन्हें कौटेज में ठहराया गया है, हमें इस हौल में. तभी बताने आई हैं, चलती हूं,’’ वह धीरे से बोली. बाहर कुरसियां लगी हुई थीं, जानकी बाई वहीं बैठी थीं. आश्रम में सभी उन को जानते थे. जब बड़े महाराजजी थे तब जानकी बाई का ही सिक्का चलता था. वे बड़े महाराजजी की शिष्या थीं. वे एक प्रकार से आश्रम पर अपना अधिकार समझती थीं.

कुंती को देखते ही बोलीं, ‘‘तू कब आई, कुंती?’’

‘‘अभी दोपहर में.’’

‘‘तो मेरे ही पास आ जाती, वहां बहुत जगह है.’’

‘‘पर आप के साथ…’’

‘‘सुशील है, उस के दोस्त हैं, इतनी दूर से आते हैं, तो लोग आ ही जाते हैं. पर तू तो ऐडजस्ट हो जाती.’’

‘‘आप की मेहरबानी, पर मेरे साथ वृंदाजी भी आई हैं. हम लोग बस से आए हैं. वहीं से सब पास रहेगा. आप के पास तो गाड़ी है. हमें आनेजाने में यहां से दिक्कत ही होगी, हम वहीं ठीक हैं,’’ कुंती ने कहा. तभी छीत स्वामी उधर ही आ गए थे. वे रसीद बुक ले कर भेंट राशि जमा कर रहे थे.

‘‘भाभीजी, आप आ गईं, अच्छा ही हुआ, वकील साहब का फोन आ गया था. रास्ते में कोई दिक्कत तो नहीं आई, मैं ने उन्हें बता दिया था, समाधि के पास ही बड़े हौल में ठहरा दिया है. वहां टौयलेट है, पंखे भी हैं. रसोईघर पास ही है. हम लोग वहीं हैं.’’

‘‘हां, वह सब तो ठीक है,’’ कुंती बोली.

‘‘स्वामी प्रेमानंदजी कब तक आएंगे?’’ वृंदाजी ने पूछा.

‘‘सुबह तक तो आना ही है, उन का फोन आ गया था. वह प्रवास पर ओंकारेश्वर में थे, रास्ते में दोएक जगह रुकेंगे. इस बार कुंभ का मेला है, वहां भी अपना पंडाल लगेगा. उस की व्यवस्था भी देखते हुए आएंगे,’’ छीत स्वामी बोले. आश्रम में भारी भीड़ थी. गांव वालों में भारी उत्साह था.

भंडारे में सामूहिक भोजन तो होता ही है. छोटामोटा जरूरत का सामान बिक जाता है. अब गांवों में शहर वालों के लिए और्गेनिक फूड की जरूरत को देखते हुए दुकानें भी लग जाती हैं. बाहर चाय की दुकानें लग गई थीं. बच्चों के झूले और गुब्बारे वाले भी आ गए थे. पास का दुकानदार आश्रम की और बड़े महाराज की तसवीर फ्रेम करा कर बेच रहा था. जहां कार्यक्रम होना था वहां लाउडस्पीकर पर अनूप जलोटा, हरिओम शरण के गीत बज रहे थे.

पास के स्कूल के समाजसेवी अध्यापकजी बच्चों की टोली के साथ इधर ही आ गए थे, वे झंडियां लगा रहे थे. आसपास के बुजुर्ग सुबह से ही अपनाअपना बैग ले कर आ गए थे, वे बाहर कुरसियों पर बैठे थे. वे लोग बड़े महाराजजी के जमाने से आश्रम में आ रहे थे. एक  प्रकार से आज मानो उन का यहां अधिकार ही हो गया था. वे बारबार सेवकों से चाय मंगवा रहे थे. लग रहा था, आज के वे ही स्वामी हैं. जो भी नया अतिथि आ रहा था, वह पहले उन से ही मिलता था, झुकता, उन के पांव छूता फिर आगे बढ़ता, फिर समाधि पर जाता. सब के पास अपनीअपनी बातें थीं.

बड़े महाराज की ख्याति आसपास के गांवों में थी. उन के जाने के बाद यहां एक समिति बन गई थी. मुकेश भाई अध्यक्ष बने, पर वे सशंकित रहे, कल कोई आ गया तो? फिर अचानक उन को स्वामी प्रेमानंद मिल गए थे, उन्होंने निमंत्रण दे दिया. वे तब से यहां आने लग गए.

स्वामी प्रेमानंद का आश्रम वृंदावन में था. वे भक्तिमार्गी थे, जबकि यहां बड़े महाराजजी ज्ञानमार्गी थे, भक्ति मार्ग की यहां तब चर्चा ही नहीं होती थी. आश्रम में जमीन बहुत थी. बड़े महाराज के जाने के बाद स्थान खाली हो गया था. दूरदूर तक भक्त फैले हुए थे. हरिद्वार से संत आए थे, कह रहे थे बड़े महाराज उन्हीं के संप्रदाय के थे. प्रेमानंद तो दूसरे संप्रदाय का है. उस के अपने गुरु हैं. उस का यहां क्या लेनादेना? आसपास के संत, भगवाधारी प्रेमानंद के साथ थे, समिति के पदाधिकारी भी प्रेमानंद के साथ हो गए.

लोगों ने प्रेमानंद को ही यहां का स्वामी मान लिया था. समिति बनी हुई थी, जो बड़े महाराज बना गए थे. पर समिति के लोग प्रेमानंद के इशारे पर नाच रहे थे. उस ने यहां आते ही यहां के कर्मचारियों में पैसा बांटा, धार्मिक कर्मकांड किए. उस का गला बहुत अच्छा था. वह बहुत जल्दी लोकप्रिय हो गया. अब आश्रम में बड़े महाराजजी की समाधि थी, जहां चढ़ावा आता, उन की कुटिया थी, पर उस के बाहर स्वामी प्रेमानंद का शासन था. जहां गुड़ की भेली होती है वहां चींटे आ ही जाते हैं. यहां बहुत महंगी जमीन थी, चढ़ावा भी बहुत था. स्वामी प्रेमानंद जम गए थे. अपनी ओर से उन्होंने कई धार्मिक आयोजन किए.

छीत स्वामी ग्रामसेवक थे, बहुत कमा लिया था. जब शिकायतें हुईं, वे स्वैच्छिक रिटायर हो कर मुक्त हो गए थे. वे ही यहां स्वामी प्रेमानंद के पहले गृहस्थ शिष्य बन गए थे. प्रेमानंद के वे विश्वसनीय थे, वे ही आश्रम के कैशियर हो गए थे. प्रेमानंद का मोबाइल उन के ही पास रहता था. उन्हें उन के बारे में पूरी खबर रहती थी.

रमेशजी का बड़े महाराज से बहुत स्नेह था. वे उन के समय में दोचार महीने में एक बार आ ही जाते थे. अब तो आना कम हो गया है पर उन की धार्मिक भावना उन्हें कचोटती रहती है. समिति के अध्यक्ष मुकेशजी ही स्वामी प्रेमानंद के साथ उन के घर गए थे ताकि पहले की तरह आनाजाना शुरू हो जाए.

आश्रम के नए निर्माण पर उन्होंने पैसा भी लगाया था. वे जब भी आते थे, कौटेज में ही उन के ठहरने की व्यवस्था होती थी पर आज जब वे नहीं आए, उन्होंने कुंती को बस से भेज दिया. छीत स्वामी ने उन्हें सूचित कर दिया कि सभी महिलाओं को पूरी सुविधा से सुरक्षित रखा गया है. सुबह तक स्वामीजी आ जाएंगे, तभी पूजा है. 12 बजे भंडारा है, उस के बाद वापसी की बस मिल जाएगी. कोई दिक्कत नहीं होने पाएगी.

आश्रम के बाहर ही कुंती को जगन्नाथजी मिल गए थे. वे अपनी पत्नी के साथ आए हुए थे. वे बता रहे थे कि वे यहां पिछले 50 साल से आ रहे हैं. तब यहां एक छोटी सी कुटिया थी जहां बड़े स्वामीजी विराजते थे. तब वहां बहुत कम लोग आते थे. सुबह एक बस आती थी. वह आगे निमोदा तक जाती थी. वहीं से वह दोपहर में लौटती थी. वहां से आगे बस मिलती थी. पर अब तो सब बदल गया है.

जमीन तो तब भी यही थी, पर अब जमीनों का भाव बहुत बढ़ गया है. अब तो एक बीघा जमीन भी 50 लाख रुपए की है. अब आश्रम में झगड़ा पूजापाठ को ले कर नहीं, संपत्ति को ले कर है. तभी उधर कौटेज से भगवा वेश में काली दाढ़ी पर हाथ फिराता हुआ एक संन्यासी पास आता दिखाई दिया. कुंती उसे देख कर चौंकी, वह उस के पांव छूने के लिए आगे बढ़ गई.

‘‘रहने दे, कुंती, रहने दे, यह साधुसंत नहीं है,’’ जगन्नाथजी धीरे से बोले.

‘‘पर यह तो…,’’ कुंती ने टोका.

‘‘यह तो प्रेमानंदजी का पुराना ड्राइवर है.’’

‘‘ड्राइवर!’’ कुंती चौंक गई.

‘‘हां, ड्राइवर क्या उन का बिजनैस पार्टनर है. मैं तो यहां 7 दिन पहले ही आ गया था, पर पता लगा कौटेज में यही एक माह से ठहरा हुआ है. एक महिला भी है, पर वह बहुत कम बाहर निकलती है. सुना यही है, इस ने या इस के बेटे ने महोबा में कोई कत्ल कर दिया है, या इस के परिवार के साथ कुछ घटना ऐसी ही घटी है. कुछ सही पता नहीं, यही यहां रुका हुआ है. आश्रम का मेहमान है.’’

‘‘किसी ने मना नहीं किया?’’ कुंती ने टोका.

‘‘मना कौन करता? समिति के सभी लोग स्वामी प्रेमानंद के हो गए हैं. मुकेश भाई को प्रेमानंद ने फोन कर दिया था. छीत स्वामी ही सारी व्यवस्था देख रहे हैं. अब तो दान भी यहां बहुत आने लग गया है. बड़े महाराज के जमाने में बहुत ही कम लोग आते थे, अब तो भीड़ रहती है.

‘‘समाधि के आसपास इमारतें बनेंगी. ठेकेदार आया है. कल भंडारा है. 10 हजार आदमी होंगे. भंडारा दिन भर चलेगा. लोगों में श्रद्धा है. चढ़ावा कल ही लाखों में आ जाएगा. खर्च है क्या, हिसाब सब प्रेमानंद ही रखते हैं. 2-4 महात्माओं को वे साथ ले आते हैं. उन्हें हजारों की भेंट दिलवा देते हैं फिर वे महात्मा उन्हें भेंट दिलवा देते हैं. अब धर्म तो रहा नहीं. धंधा ही सब जगह हो गया है.’’

‘‘पर यह ड्राइवर?’’ कुंती ने टोका.

‘‘यही बता रहा था, यह उन का बिजनैस पार्टनर है. इन की बसें चलती हैं. कह रहा था, जो नई बड़ी गाड़ी प्रेमानंद के पास है वह इसी ने दी है.’’ कुंती अवाक् थी. रमेशजी ने तो कभी यह बात उसे नहीं बताई. वे तो वकील हैं. संस्था के उपाध्यक्ष भी हैं. शायद जानते होंगे, तभी नहीं आए, फिर मुझे क्यों भेज दिया? सवाल पर सवाल उस के मन में उभर रहे थे. गांवों की औरतें गीत गाते हुए आने लग गई थीं.

पास ही व्यायामशाला में जोरशोर से धार्मिक आयोजन शुरू हो गया था. लाउडस्पीकर पर कोई भक्त बारबार कह रहा था, स्वामी प्रेमानंद सुबह तक आ जाएंगे. उन के साथ उज्जैन से भी साधुसंन्यासी आ रहे हैं. लोगों में उत्सुकता थी.

‘जगन्नाथजी तो कह रहे थे, वे रात को ही आ जाएंगे. फिर माइक पर बारबार यह क्यों बोला जा रहा है, वे सुबह आएंगे,’ कुंती चौंकी. भोजन बाहर ही बड़े आंगन में हो गया था. बहुत भीड़ थी. जैसेतैसे उस हौल में आई. उस फर्श पर बिछे गदेले पर लेट गई. वृंदाजी तो लगभग सो गई थीं.

घर पर बड़ा सा बैडरूम और यहां इस फर्श पर नींद थकावट के बाद भी नहीं आ रही थी. टैंटहाउस के 2 गद्दे उस ने बिछा लिए थे, बिस्तर भी पंखे के नीचे लगा लिया था. पर नींद को न आना था, न ही आई. वह उठ कर बाहर बरामदे की बैंच पर बैठ गई. दूर रसोईघर में देखा, लोग जग रहे हैं. लगा, वहां चाय बन रही है. उठी और रसोईघर की तरफ बढ़ गई. वहां छीत स्वामी अब तक जगे हुए थे.

‘‘अरे, आप सोए नहीं?’’ वह बोली.

‘‘अभी कहां से, मैं तो घर चला गया था, तभी वहां स्वामीजी का फोन आ गया था. बोले, हम लोग आ रहे हैं. आधे घंटे में पहुंच जाएंगे. व्यवस्था तो पहले से ही थी, पर चायदूध का इंतजाम देखना था. चला आया, पर आप तो विश्राम करो,’’ वे हंसते हुए बोले. ‘तो जगन्नाथजी सही कह रहे थे,’ कुंती बड़बड़ाई, ‘चलो, बाद में भीड़ हो जाएगी, महाराज से अभी ही मिलना हो जाएगा.’

वह आश्वस्त सी हुई. भीतर सब सो रहे थे. वह भी भीतर आ कर लेट गई. अभी झपकी लगी ही थी कि कारों के हौर्न व शोरशराबे से उस की नींद खुल गई. लगता है स्वामीजी आ गए हैं. वह उठी और दरवाजे के पास आ कर खड़ी हो गई. 2-4 गाडि़यां थीं. सामान था, जो उतारा जा रहा था. वहीं पेड़ के नीचे स्वामी आत्मानंद खड़ा हुआ था.

‘‘और आत्मानंद, कैसे हो?’’ स्वामी प्रेमानंद ने उस के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा.

‘‘सब आप की कृपा है.’’

‘‘भदोही कहला दिया है. पुलिस कप्तान अपना ही शिष्य है. वह कह रहा था, भंडारे की परसादी सब जगह जानी होगी. घबराओ मत, वारंट अभी तामील नहीं होगा. तुम पहले वहां जा कर रामभरोसी को पुटलाओ, काबू में करो. गवाह वही है. वह फूट गया तो फिर तुम्हारा कुछ नहीं होगा. यहां तो कोई दिक्कत नहीं हुई. समिति अपनी ही है. जब झंझट निबट जाए तो यहीं आ जाना. यहां के लोग बहुत धार्मिक हैं.’’

‘‘हां महाराज, सब  आप की कृपा है.’’

‘‘और सब ठीक है, देवीजी को तकलीफ तो नहीं हुई?’’ वे मुसकराते हुए बोले.

‘‘प्रसन्न हैं, आप मिल लें, आप की ही प्रतीक्षा में हैं.’’

‘‘तभी तो आधी रात को आया हूं,’’ वे हंसे. स्वामी प्रेमानंद सीधे कौटेज की ओर बढ़ गए, वहां देवीजी उन की ही प्रतीक्षा में थीं. आत्मानंद बाहर ही पेड़ के नीचे बैठ गया था. वह बैठा हुआ निश्ंिचत भाव से बीड़ी पी रहा था. कुंती अवाक् थी, यह क्या हो गया, क्या वह कोई सपना देख रही है या कुछ और. जब बड़े महाराज थे तब आश्रम कैसा था, अब क्या हो गया है? यह आत्मानंद उस का पति है या कुछ और.

उसे लगा उसे चक्कर आ जाएगा, वह निढाल सी बैंच पर ही पसर गई. सुबह पूजा होगी. प्रेमानंद के पांव पखारे जाएंगे. वह झूमझूम कर बड़े महाराज की प्रशंसा में गीत गाएंगे. लोग नाचेंगे. प्रार्थना होगी. कहा जाएगा, बड़े महाराजजी की समाधि की पूजा होगी. हजारों आदमियों का भंडारा होगा. कहा जाता है, भंडारा मुफ्त का भोजन होता है, पर गरीब से गरीब भी रोटी मुफ्त की नहीं खाता, वह भी भेंट करता है. यह भंडारा रहस्य है. हिसाब सब समिति के पास, समिति का हिसाब स्वामी प्रेमानंद के पास.

‘क्यों? तुम्हें अब भी मिलना है प्रेमानंद से?’ कुंती अपने ही सवाल पर घबरा गई थी. कौटेज के बाहर की लाइट बंद हो गई थी. अंदर हलकी नीली रोशनी थी. रोशनदान से प्रकाश बाहर आ रहा था. आत्मानंद उसी तरह बैठा हुआ बीड़ी फूंक रहा था. कुंती किस से कहे, क्या कहे, भीतर आई, वृंदा को जगाया. वृंदा गहरी नींद में थी. कुछ समझी, कुछ नहीं समझी. ‘‘तू भी कुंती…फालतू परेशान है, यह तो होता ही रहता है. इस पचड़े में हम क्यों पड़ें, चुप रह, सो जा, अब यहां नहीं आएंगे,’’ कह कर वह फिर सो गई. कुंती पगलाई सी बाहर बैठी थी. तभी उसे सामने से आते हुए छीत स्वामी दिखाई पड़े. उस ने उन्हें रोका.

‘‘भाई साहब, आप से एक बात कहनी है.’’

‘‘क्या?’’ वे चौंके.

‘‘भाई साहब, स्वामी प्रेमानंदजी आधी रात में सीधे उस कौटेज में…’’

‘‘तो क्या हुआ, वे स्वामीजी की भक्त हैं, इन दिनों परेशानी में हैं, उन की पूजा करती हैं. आप ज्यादा परेशान न हों, सोइए,’’ यह कह वे आगे बढ़ गए. सुबह उठते ही उस ने सोचा, रमेशजी को सारी बात बताई जाए पर वह फोन करती उस के पहले ही रमेशजी का फोन आ गया था.

‘‘क्या बात है, छीत स्वामी का फोन था, तुम रात भर सोईं नहीं, पागलों की तरह बाहर बैंच पर बैठी रहीं?’’

‘‘पर तुम मेरी सुनो तो सही,’’ कुंती बोली.

‘‘क्या सुनना, हर बात का गलत अर्थ ही निकालती हो, तुम नैगेटिव बहुत हो, दोपहर की बस से आ जाना, वहां सभी लोग तुम से नाराज हैं. मुकेश भाई बता रहे थे, तुम किसी पत्रकार से बात कर रही थीं. मेरी बात सुनो, चुप ही रहो, खुद परेशानी में पड़ोगी, मुझे भी परेशानी में डालोगी. उस इलाके के पचासों मुकदमे मेरे पास हैं. मुझे तंग मत करो.’’

‘‘पर वह ड्राइवर तो…तुम बात तो पूरी सुनो.’’

‘‘कह तो दिया है, जितना तुम ने जाना है वह ज्ञान अपने पास ही रखो. मैं नहीं चाहता, मैं किसी बड़ी परेशानी में पडूं. जो भी बस मिले, तुरंत वृंदाजी के साथ लौट आओ,’’ उधर से फोन कट गया था. कुंती अवाक् थी. उस के हजारों सवाल जो तारों की तरह टूटटूट कर गिर रहे थे, उसे किसी गहरे अंधेरे में खींच कर ले जा रहे थे, ‘क्या यही धर्म अब बच गया है? हम क्यों किसी दूसरे के पांवों में रेंगने वाले कीड़े की तरह हो कर रह गए हैं? बस, आलपिनों का ढेर मात्र ही हैं जो हर चुंबक की तरफ आ कर खिंचा चला जाता है. फिर हाथ में कुछ नहीं आता है, इस के विपरीत अपना आत्मविश्वास भी चला जाता है.

अपनी रोशनी, अपना विवेक है, मैं कब तक किस कामना की पूर्ति के लिए मारीमारी फिरूंगी?’ वह अपने सवाल पर खुद चकित थी. यह पहले हम ने क्यों नहीं सोचा? चारों तरफ से आया हुआ अंधेरा अचानक हट गया था. वह अपनी नई सुबह की नई रोशनी में अपनेआप को देख रही थी. वह लौटने के लिए अपनी अटैची संभालने में लग गई थी. Motivational Story

Hindi Sad Story: रेखाएं- कैसे टूटा अम्मा का भरोसा

Hindi Sad Story: ‘‘छि, मैं सोचती थी कि बड़ी कक्षा में जा कर तुम्हारी समझ भी बड़ी हो जाएगी, पर तुम ने तो मेरी तमाम आशाओं पर पानी फेर दिया. छठी कक्षा में क्या पहुंची, पढ़ाई चौपट कर के धर दी.’’ बरसतेबरसते थक गई तो रिपोर्ट उस की तरफ फेंकते हुए गरजी, ‘‘अब गूंगों की तरह गुमसुम क्यों खड़ी हो? बोलती क्यों नहीं? इतनी खराब रिपोर्ट क्यों आई तुम्हारी? पढ़ाई के समय क्या करती हो?’’ रिपोर्ट उठा कर झाड़ते हुए उस ने धीरे से आंखें ऊपर उठाईं, ‘‘अध्यापिका क्या पढ़ाती है, कुछ भी सुनाई नहीं देता, मैं सब से पीछे की लाइन में जो बैठती हूं.’’

‘‘क्यों, किस ने कहा पीछे बैठने को तुम से?’’

‘‘अध्यापिका ने. लंबी लड़कियों को  कहती हैं, पीछे बैठा करो, छोटी लड़कियों को ब्लैक बोर्ड दिखाई नहीं देता.’’

‘‘तो क्या पीछे बैठने वाली सारी लड़कियां फेल होती हैं? ऐसा कभी नहीं हो सकता. चलो, किताबें ले कर बैठो और मन लगा कर पढ़ो, समझी? कल मैं तुम्हारे स्कूल जा कर अध्यापिका से बात करूंगी?’’

झल्लाते हुए मैं कमरे से निकल गई. दिमाग की नसें झनझना कर टूटने को आतुर थीं. इतने वर्षों से अच्छीखासी पढ़ाई चल रही थी इस की. कक्षा की प्रथम 10-12 लड़कियों में आती थी. फिर अचानक नई कक्षा में आते ही इतना परिवर्तन क्यों? क्या सचमुच इस के भाग्य की रेखाएं…

नहींनहीं. ऐसा कभी नहीं हो सकेगा. रात को थकाटूटा तनमन ले कर बिस्तर पर पसरी, तो नींद जैसे आंखों से दूर जा चुकी थी. 11 वर्ष पूर्व से ले कर आज तक की एकएक घटना आंखों के सामने तैर रही थी.

‘‘बिटिया बहुत भाग्यशाली है, बहनजी.’’

‘‘जी पंडितजी. और?’’ अम्मां उत्सुकता से पंडितजी को निहार रही थीं.

‘‘और बहनजी, जहांजहां इस का पांव पड़ेगा, लक्ष्मी आगेपीछे घूमेगी. ननिहाल हो, ददिहाल हो और चाहे ससुराल.’’

2 महीने की अपनी फूल सी बिटिया को मेरी स्नेहसिक्त आंखों ने सहलाया, तो लगा, इस समय संसार की सब से बड़ी संपदा मेरे लिए वही है. मेरी पहलीपहली संतान, मेरे मातृत्व का गौरव, लक्ष्मी, धन, संपदा, सब उस के आगे महत्त्वहीन थे. पर अम्मां? वह तो पंडितजी की बातों से निहाल हुई जा रही थीं.

‘‘लेकिन…’’ पंडितजी थोड़ा सा अचकचाए.

‘‘लेकिन क्या पंडितजी?’’ अम्मां का कुतूहल सीमारेखा के समस्त संबंधों को तोड़ कर आंखों में सिमट आया था.

‘‘लेकिन विद्या की रेखा जरा कच्ची है, अर्थात पढ़ाईलिखाई में कमजोर रहेगी. पर क्या हुआ बहनजी, लड़की जात है. पढ़े न पढ़े, क्या फर्क पड़ता है. हां, भाग्य अच्छा होना चाहिए.’’

‘‘आप ठीक कहते हैं, पंडितजी, लड़की जात को तो चूल्हाचौका संभालना आना चाहिए और क्या.’’

किंतु मेरा समूचा अंतर जैसे हिल गया हो. मेरी बेटी अनपढ़ रहेगी? नहींनहीं. मैं ने इंटर पास किया है, तो मेरी बेटी को मुझ से ज्यादा पढ़ना चाहिए, बी.ए., एम.ए. तक, जमाना आगे बढ़ता है न कि पीछे.

‘‘बी.ए. पास तो कर लेगी न पंडितजी,’’ कांपते स्वर में मैं ने पंडितजी के आगे मन की शंका उड़ेल दी.

‘‘बी.ए., अरे. तोबा करो बिटिया, 10वीं पास कर ले तुम्हारी गुडि़या, तो अपना भाग्य सराहना. विद्या की रेखा तो है ही नहीं और तुम तो जानती ही हो, जहां लक्ष्मी का निवास होता है, वहां विद्या नहीं ठहरती. दोनों में बैर जो ठहरा,’’ वे दांत निपोर रहे थे और मैं सन्न सी बैठी थी.

यह कैसा भविष्य आंका है मेरी बिटिया का? क्या यह पत्थर की लकीर है, जो मिट नहीं सकती? क्या इसीलिए मैं इस नन्हीमुन्नी सी जान को संसार में लाई हूं कि यह बिना पढ़ेलिखे पशुपक्षियों की तरह जीवन काट दे.

दादी मां के 51 रुपए कुरते की जेब में ठूंस पंडितजी मेरी बिटिया का भविष्यफल एक कागज में समेट कर अम्मां के हाथ में पकड़ा गए.

पर उन के शब्दों को मैं ने ब्रह्मवाक्य मानने से इनकार कर दिया. मेरी बिटिया पढ़ेगी और मुझ से ज्यादा पढ़ेगी. बिना विद्या के कहीं सम्मान मिलता है भला? और बिना सम्मान के क्या जीवन जीने योग्य होता है कहीं? नहीं, नहीं, मैं ऐसा कभी नहीं होने दूंगी. किसी मूल्य पर भी नहीं.

3 वर्ष की होतेहोते मैं ने नन्ही निशा का विद्यारंभ कर दिया था. सरस्वती पूजा के दिन देवी के सामने उसे बैठा कर, अक्षत फूल देवी को अर्पित कर झोली पसार कर उस के वरदहस्त का वरदान मांगा था मैं ने, धीरेधीरे लगा कि देवी का आशीष फलने लगा है. अपनी मीठीमीठी तोतली बोली में जब वह वर्णमाला के अक्षर दोहराती, तो मैं निहाल हो जाती.

5 वर्ष की होतेहोते जब उस ने स्कूल जाना आरंभ किया था, तो वह अपनी आयु के सभी बच्चों से कहीं ज्यादा पढ़ चुकी थी. साथसाथ एक नन्हीमुन्नी सी बहन की दीदी भी बन चुकी थी, लेकिन नन्ही ऋचा की देखभाल के कारण निशा की पढ़ाई में मैं ने कोई विघ्न नहीं आने दिया था. उस के प्रति मैं पूरी तरह सजग थी.

स्कूल का पाठ याद कराना, लिखाना, गणित का सवाल, सब पूरी निष्ठा के साथ करवाती थी और इस परिश्रम का परिणाम भी मेरे सामने सुखद रूप ले कर आता था, जब कक्षा की प्रथम 10-12 बच्चियों में एक उस का नाम भी होता था.

5वीं कक्षा में जाने के साथसाथ नन्ही ऋचा भी निशा के साथ स्कूल जाने लगी थी. एकाएक मुझे घर बेहद सूनासूना लगने लगा था. सुबह से शाम तक ऋचा इतना समय ले लेती थी कि अब दिन काटे नहीं कटता था.

एक दिन महल्ले की समाज सेविका विभा के आमंत्रण पर मैं ने उन के साथ समाज सेवा के कामों में हाथ बंटाना स्वीकार कर लिया. सप्ताह में 3 दिन उन्हें लेने महिला संघ की गाड़ी आती थी जिस में अन्य महिलाओं के साथसाथ मैं भी बस्तियों में जा कर निर्धन और अशिक्षित महिलाओं के बच्चों के पालनपोषण, सफाई तथा अन्य दैनिक घरेलू विषयों के बारे में शिक्षित करने जाने लगी.

घर के सीमित दायरों से निकल कर मैं ने पहली बार महसूस किया था कि हमारा देश शिक्षा के क्षेत्र में कितना पिछड़ा हुआ है, महिलाओं में कितनी अज्ञानता है, कितनी अंधेरी है उन की दुनिया. काश, हमारे देश के तमाम शिक्षित लोग इस अंधेरे को दूर करने में जुट जाते, तो देश कहां से कहां पहुंच जाता. मन में एक अनोखाअनूठा उत्साह उमड़ आया था देश सेवा का, मानव प्रेम का, ज्ञान की ज्योति जलाने का.

पर आज एका- एक इस देश और मानव प्रेम की उफनतीउमड़ती नदी के तेज बहाव को एक झटका लगा. स्कूल से आ कर निशा किताबें पटक महल्ले के बच्चों के साथ खेलने भाग गई थी. उस की किताबें समेटते हुए उस की रिपोर्ट पर नजर पड़ी. 3 विषयों में फेल. एकएक कापी उठा कर खोली. सब में लाल पेंसिल के निशान, ‘बेहद लापरवाह,’ ‘ध्यान से लिखा करो,’  ‘…विषय में बहुत कमजोर’ की टिप्पणियां और कहीं कापी में पूरेपूरे पन्ने लाल स्याही से कटे हुए.

देखतेदेखते मेरी आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा. यह क्या हो रहा है? बाहर ज्ञान का प्रकाश बिखेरने जा रही हूं और घर में दबे पांव अंधेरा घुस रहा है. यह कैसी समाज सेवा कर रही हूं मैं. यही हाल रहा तो लड़की फेल हो जाएगी. कहीं पंडितजी की भविष्यवाणी…

और निशा को अंदर खींचते हुए ला कर मैं उस पर बुरी तरह बरस पड़ी थी.

दूसरे दिन विभा बुलाने आईं, तो मैं निशा के स्कूल जाने की तैयारी में व्यस्त थी.

‘‘क्षमा कीजिए बहन, आज मैं आप के साथ नहीं जा सकूंगी. मुझे निशा के स्कूल जा कर उस की अध्यापिका से मिलना है. उस की रिपोर्ट काफी खराब आई है. अगर यही हाल रहा तो डर है, उस का साल न बरबाद हो जाए. बस, इस हफ्ते से आप के साथ नहीं जा सकूंगी. बच्चों की पढ़ाई का बड़ा नुकसान हो रहा है.’’

‘‘आप का मतलब है, आप नहीं पढ़ाएंगी, तो आप की बेटी पास ही नहीं होगी? क्या मातापिता न पढ़ाएं, तो बच्चे नहीं पढ़ते?’’

‘‘नहीं, नहीं बहन, यह बात नहीं है. मेरी छोटी बेटी ऋचा बिना पढ़ाए कक्षा में प्रथम आती है, पर निशा पढ़ाई में जरा कमजोर है. उस के साथ मुझे बैठना पड़ता है. हां, खेलकूद में कक्षा में सब से आगे है. इधर 3 वर्षों में ढेरों इनाम जीत लाई है. इसीलिए…’’

‘‘ठीक है, जैसी आप की मरजी, पर समाज सेवा बड़े पुण्य का काम होता है. अपना घर, अपने बच्चों की सेवा तो सभी करते हैं…’’

वह पलट कर तेजतेज कदमों से गाड़ी की ओर बढ़ गई थी.

घर का काम निबटा कर मैं स्कूल पहुंची. निशा की अध्यापिका से मिलने पर पता चला कि वह पीछे बैठने के कारण नहीं, वरन 2 बेहद उद्दंड किस्म की लड़कियों की सोहबत में फंस कर पढ़ाई बरबाद कर रही थी.

‘‘ये लड़कियां किन्हीं बड़े धनी परिवारों से आई हैं, जिन्हें पढ़ाई में तनिक भी रुचि नहीं है. पिछले वर्ष फेल होने के बावजूद उन्हें 5वीं कक्षा में रोका नहीं जा सका. इसीलिए वे सब अध्यापिकाओं के साथ बेहद उद््दंडता का बरताव करती हैं, जिस की वजह से उन्हें पीछे बैठाया जाता है ताकि अन्य लड़कियों की पढ़ाई सुचारु रूप से चल सके,’’ निशा की अध्यापिका ने कहा.

सुन कर मैं सन्न रह गई.

‘‘यदि आप अपनी बेटी की तरफ ध्यान नहीं देंगी तो पढ़ाई के साथसाथ उस का जीवन भी बरबाद होने में देर नहीं लगेगी. यह बड़ी भावुक आयु होती है, जो बच्चे के भविष्य के साथसाथ उस का जीवन भी बनाती है. आप ही उसे इस भटकन से लौटा सकती हैं, क्योंकि आप उस की मां हैं. प्यार से थपथपा कर उसे धीरेधीरे सही राह पर लौटा लाइए. मैं आप की हर तरहसे मदद करूंगी.’’

‘‘आप से एक अनुरोध है, मिस कांता. कल से निशा को उन लड़कियों के साथ न बिठा कर कृपया आगे की सीट पर बिठाएं. बाकी मैं संभाल लूंगी.’’

घर लौट कर मैं बड़ी देर तक पंखे के नीचे आंखें बंद कर के पड़ी रही. समाज सेवा का भूत सिर पर से उतर गया था. समाज सेवा पीछे है, पहले मेरा कर्तव्य अपने बच्चों को संभालना है. ये भी तो इस समाज के अंग हैं. इन 4-5 महीने में जब से मैं ने इस की ओर ध्यान देना छोड़ा है, यह पढ़ाई में कितनी पिछड़ गई है.

अब मैं ने फिर पहले की तरह निशा के साथ नियमपूर्वक बैठना शुरू कर दिया. धीरेधीरे उस की पढ़ाई सुधरने लगी. बीचबीच में मैं कमरे में जा कर झांकती, तो वह हंस देती, ‘‘आइए मम्मी, देख लीजिए, मैं अध्यापिका के कार्टून नहीं बना रही, नोट्स लिख रही हूं.’’

उस के शब्द मुझे अंदर तक पिघला देते, ‘‘नहीं बेटा, मैं चाहती हूं, तुम इतना मन लगा कर पढ़ो कि तुम्हारी अध्यापिका की बात झूठी हो जाए. वह तुम से बहुत नाराज हैं. कह रही थीं कि निशा इस वर्ष छठी कक्षा हरगिज पास नहीं कर पाएगी. तुम पास ही नहीं, खूब अच्छे अंकों में पास हो कर दिखाओ, ताकि हमारा सिर पहले की तरह ऊंचा रहे,’’ उस का मनोबल बढ़ा कर मैं मनोवैज्ञानिक ढंग से उस का ध्यान उन लड़कियों की ओर से हटाना चाहती थी.

धीरेधीरे मैं ने निशा में परिवर्तन देखा. 8वीं कक्षा में आ कर वह बिना कहे पढ़ाई में जुट जाती. उस की मेहनत, लगन व परिश्रम उस दिन रंग लाया, जब दौड़ते हुए आ कर वह मेरे गले में बांहें डाल कर झूल गई.

‘‘मां, मैं पास हो गई. प्रथम श्रेणी में. आप के पंडितजी की भविष्यवाणी झूठी साबित कर दी मैं ने? अब तो आप खुश हैं न कि आप की बेटी ने 10वीं पास कर ली.’’

‘‘हां, निशा, आज मैं बेहद खुश हूं. जीवन की सब से बड़ी मनोकामना पूर्ण कर के आज तुम ने मेरा माथा गर्व से ऊंचा कर दिया है. आज विश्वास हो गया है कि संसार में कोई ऐसा काम नहीं है, जो मेहनत और लगन से पूरा न किया जा सके. अब आगे…’’

‘‘मां, मैं डाक्टर बनूंगी. माधवी और नीला भी मेडिकल में जा रही हैं.’’

‘‘बाप रे, मेडिकल. उस में तो बहुत मेहनत करनी पड़ती है. हो सकेगी तुम से रातदिन पढ़ाई?’’

‘‘हां, मां, कृपया मुझे जाने दीजिए. मैं खूब मेहनत करूंगी.’’

‘‘और तुम्हारे खेलकूद? बैडमिंटन, नैटबाल, दौड़ वगैरह?’’

‘‘वह सब भी चलेगा साथसाथ,’’ वह हंस दी. भोलेभाले चेहरे पर निश्छल प्यारी हंसी.

मन कैसाकैसा हो आया, ‘‘ठीक है, पापा से भी पूछ लेना.’’

‘‘पापा कुछ नहीं कहेंगे. मुझे मालूम है, उन का तो यही अरमान है कि मैं डाक्टर नहीं बन सका, तो मेरी बेटी ही बन जाए. उन से पूछ कर ही तो आप से अनुमति मांग रही हूं. अच्छा मां, आप नानीजी को लिख दीजिएगा कि उन की धेवती ने उन के बड़े भारी ज्योतिषी की भविष्यवाणी झूठी साबित कर के 10वीं पास कर ली है और डाक्टरी पढ़ कर अपने हाथ की रेखाओं को बदलने जा रही है.’’

‘‘मैं क्यों लिखूं? तुम खुद चिट्ठी लिख कर उन का आशीर्वाद लो.’’

‘‘ठीक है, मैं ही लिख दूंगी. जरा अंक तालिका आ जाने दीजिए और जब इलाहाबाद जाऊंगी तो आप के पंडितजी के दर्शन जरूर करूंगी, जिन्हें मेरे भाग्य में विद्या की रेखा ही नहीं दिखाई दी थी.’’

आज 6 वर्ष बाद मेरी निशा डाक्टर बन कर सामने खड़ी है. हर्ष से मेरी आंखें छलछलाई हुई हैं.

दुख है तो केवल इतना कि आज अम्मां नहीं हैं. होतीं तो उन्हें लिखती, ‘‘अम्मां, लड़कियां भी लड़कों की तरह इनसान होती हैं. उन्हें भी उतनी ही सुरक्षा, प्यार तथा मानसम्मान की आवश्यकता होती है, जितनी लड़कों को. लड़कियां कह कर उन्हें ढोरडंगरों की तरह उपेक्षित नहीं छोड़ देना चाहिए.

‘‘और ये पंडेपुजारी? आप के उन पंडितजी के कहने पर विश्वास कर के मैं अपनी बिटिया को उस के भाग्य के सहारे छोड़ देती, तो आज यह शुभ दिन कहां से आता? नहीं अम्मां, लड़कियों को भी ईश्वर ने शरीर के साथसाथ मन, मस्तिष्क और आत्मा सभी कुछ प्रदान किया है. उन्हें उपेक्षित छोड़ देना पाप है.’’

‘‘तुम भी तो एक लड़की हो, अम्मां, अपनी धेवती की सफलता पर गर्व से फूलीफूली नहीं समा रही हो? सचसच बताना.’’

पर कहां हैं पुरानी मान्यताओं पर विश्वास करने वाली मेरी वह अम्मां? Hindi Sad Story

लेखक-रानी दर

Drama Story: मोहभंग – मायके में क्या हुआ था सीमा के साथ

Drama Story: बारबार मुझे अपनेआप पर ही क्रोध आ रहा है कि क्यों गई थी मैं वहां. यह कोई एक बार की तो बात है नहीं, हर बार यही होता है. पर हर बार चली जाती हूं. आखिर मायके का मोह जो होता है, पर इस बार जैसा मोहभंग हुआ है, वह मुझे कुछ निर्णय लेने के लिए जरूर मजबूर करेगा.

मैं उठ कर बैठ जाती हूं. थर्मस से पानी निकाल कर पीती हूं.

‘‘कौन सा स्टेशन है?’’ मैं सामने बैठी महिला से पूछती हूं.

‘‘बरेली है शायद. कहां जा रही हैं आप?’’

‘‘दिल्ली,’’ मैं सपाट सा उत्तर देती हूं.

‘‘किस के घर जा रही हैं?’’ फिर प्रश्न दगा.

‘‘अपने घर.’’

एक पल की खामोशी के बाद वह महिला पुन: पूछती है, ‘‘कानपुर में कौन रहता है आप का?’’

‘‘मायका है,’’ मैं संक्षिप्त सा उत्तर देती हूं.

‘‘कोई काम था क्या?’’

‘‘हां, शादी थी भाई की?’’ कह कर मैं मुंह फेर लेती हूं.

‘‘तब तो बहुत मजे रहे होंगे,’’ वह बातों का सिलसिला पुन: जोड़ती है.

मेरा मन आगे बातें करने का बिलकुल नहीं था. बहुत सिरदर्द हो रहा था.

‘‘आप के पास कोई दर्द की गोली है? सिरदर्द हो रहा है,’’ मैं उस से पूछती हूं.

‘‘नहीं, बाम है. लीजिएगा?’’

‘‘हूं. दीजिए.’’

‘‘शादीविवाह में अनावश्यक शोरगुल से सिरदर्द हो ही जाता है. मैं पिछले साल बहन की शादी में गई थी. सिर तो सिर, मेरा तो पेट भी खराब हो गया था,’’ वह अपने थैले में से बाम निकाल कर देती है.

मैं उसे धन्यवाद दे बाम लगा कर चुपचाप सो जाती हूं.

उन बातों को याद कर के मेरा सिर फिर से दर्द करने लगता है. भुलाना चाह कर भी नहीं भूल पाती. बारबार वही दृश्य आंखों के सामने तैरने लगते हैं.

‘यहीं की दी हुई तो साड़ी पहनती हो तुम. क्या जीजाजी कभी तुम्हें साड़ी नहीं दिलाते?’ छोटी बहन रेणु कहती है.

‘सुनो जीजी, मामी के आगे यह मत बताना कि जीजाजी लेखापाल ही हैं. हम ने उन्हें शाखा प्रबंधक बता रखा है, समझीं.’

‘क्यों? झूठ क्यों बोला?’ मैं चिहुंक कर पूछती हूं.

‘अरे, तुम्हारी तो कोई इज्जत नहीं, पर हमारी तो है न. पिताजी ने सभी को यही बता रखा है,’ मुझ से 5 वर्ष छोटी रेणु एक ही वाक्य में समझा गई कि अब मेरी इस घर में क्या इज्जत है.

मेरे मन में कहीं कुछ चटक सा जाता है. वैसे यह चटकन तो हर वर्ष मायके आने पर होती है, पर इस बार इतने रिश्तेदार जुटे हैं कि इन के सामने इतनी बेइज्जती सहन नहीं होती मुझ से. मैं उठ कर ऊपर चली जाती हूं.

ऊपर की सीढि़यों पर ताई मिल जाती हैं, ‘क्यों बेटी, अकेली ही आई है इस बार. छोटे से मुन्ने को भी छोड़ आई? न तेरा दूल्हा ही आया है. क्या बात है, बेटी?’

‘कुछ नहीं, ताईजी, बस, दफ्तर का काम था कुछ. फिर मुन्ना उन के बगैर रहता ही नहीं है. छमाही परीक्षा भी है, इसीलिए छोड़ आई,’ मैं पिंड छुड़ा कर भागती हूं.

छोटी बहन रेणु यहां भी आ धमकती है, ‘अरे, तुम यहां बैठी हो. तैयार नहीं हुईं अभी तक? तुम्हें तो आरती करनी है. देखो, 4 बज गए. औरतें आने लगी हैं.’

‘चल रही हूं. चिल्ला मत,’ मैं उसे डांट देती हूं.

‘हूं. पता नहीं क्या समझती हो अपने को. कुछ काम नहीं होता. शादी के बाद एकदम बौड़म हो गई हो तुम तो.’

‘तुम से होता है? बातें बनाने के अलावा कोई काम है तेरे पास?’ मैं बिफर पड़ती हूं.

वह बड़बड़ करती हुई नीचे उतर जाती है. न जाने मां को क्याक्या भड़काती है.

‘क्या बात है सीमा, 4 बज रहे हैं, घुड़चढ़ी का समय हो रहा है. तुम से अभी थाल भी नहीं सजाया गया आरती के लिए? किसी भी काम का होश नहीं रहता इसे,’ मां औरतों के सामने डांटती हैं.

‘क्यों सीमा, जमाई बाबू नहीं आए?’ बड़ी मामी पूछती हैं.

मां व्यंग्य से मुसकरा कर मुंह पीछे कर लेती हैं. मैं चुपचाप बिना कुछ उत्तर दिए थाल उठा कर भीतर कमरे में आ जाती हूं.

सारा काम हो चुका था. बरात लड़की वालों के यहां जा चुकी थी. मैं निढाल हो कर धम से चारपाई पर लेट जाती हूं कि रेणु की आवाज सुनाई पड़ती है, ‘हाय जीजी, तुम अभी से सो गईं क्या? कितना काम पड़ा है.’

‘मुझे नींद आ रही है, रेणु. कुछ तू ही कर ले बहन. मेरा सिर फटा जा रहा है.’

वह बड़बड़ करती चली गई. यद्यपि यह मेरा मायका था, जहां मैं ने जिंदगी के 19 वर्ष काटे थे. फिर भी न जाने क्यों आज इतना पराया लग रहा था. सुबह से न किसी ने खाने के लिए पूछा, न मैं ने खाया ही. यही घर है वह जहां मैं हर समय फ्रिज में से कुछ न कुछ निकाल कर खाती रहती थी. मुझे लगता है कि मैं ने सच ही यहां आ कर गलती की है. राकेश नहीं आए, ठीक ही हुआ.

‘जरा उधर खिसक सीमा, मुन्ने को सुला दूं. इसे ओढ़ा ले. देख, हलकीहलकी सर्दी पड़ने लगी है और तू कैसे लेट गई? कुछ खायापिया भी नहीं है,’ दीदी के करुण स्वर से मैं पिघल गई. मुझ में और दीदी में सिर्फ ढाई वर्ष का ही अंतर है. दीदी की शादी कोलकाता में हुई है. जीजाजी का रेशमी साडि़यों का काफी बड़ा व्यापार है.

दीदी ने मुझ से दोबारा कहा, ‘सीमा, तू कुछ खा ले बहन. और तेरे पति क्यों नहीं आए?’

‘जानबूझ कर क्यों पूछती हो, दीदी. तुम्हें लेने तो बड़े भैया गए थे. मुझे लेने कौन गया? सिर्फ कार्ड डाल दिया. यह तो कहो, मैं आ गई. तुम्हारे सामने मेरी क्या कीमत है?’ मैं ने कहा.

‘हां, सीमा, मेरे साथ भी पहले कुछ ऐसा ही व्यवहार किया जाता था. शादी से पहले मुझे मां कितना डांटती थीं, पर  अब सब उलटा हो गया है.’

‘तुम बड़े घर जो ब्याही हो, भई. मेरे पति बैंक में सिर्फ लेखापाल हैं. तुम्हारे पति की मासिक आय 20 हजार है, तो मेरे पति की सिर्फ 2 हजार. अंतर नहीं है क्या?’

‘नहीं सीमा, रो मत. राकेश कितना सुशील है, तुझे पता नहीं है. तेरे जीजाजी एक तो मुझ से 10 वर्ष बड़े हैं, रुचियों में कितना अंतर है. हर समय इन्हें पैसा ही पैसा चाहिए. न घर की चिंता और न बच्चों की. घर में हर समय बड़ेबड़े व्यापारी आते रहते हैं. नौकरों के बावजूद पूरे दिन रसोई में घुसी रहती हूं. यह भी कोई जिंदगी है? तू तो हर शाम राकेश के साथ घूमने चली जाती है. मुझे तो महीने बाद घर से निकलना होता है इन के साथ. देख, शादी में आए हैं, पर दिन भर पड़े सोते रहते हैं. अभी राकेश होता, तो दौड़दौड़ कर काम करता, मजमा लगा देता. कुछ नहीं तो हमें घुमा ही लाता. कुंआरे में मुझे घूमने की कितनी हसरत थी, पर सब धरी रह गई.’

कुछ देर रुक कर दीदी फिर बोलीं, ‘मैं पिछले वर्ष दिल्ली आई थी तेरे घर. 2 दिन रही. सच, राकेश ने कितना आदर दिया, इधर घुमाया, उधर घुमाया, खूब हंसाहंसा कर मन लगा दिया. तुम तो मियांबीवी हो और एक बच्चा. एक हम हैं कि पूरी गृहस्थी है, 2 छोटी ननदें, देवर, सास सभी की जिम्मेदारी है. कैसी बंध गई हूं मैं? पैसा होगा तेरे जीजाजी के पास बैंक में, पर मैं तो देख, पूरी चौधराइन बन गई. तू मुझ से केवल ढाई वर्ष छोटी है, पर नायिका जैसी लगती है अब भी,’ दीदी मेरी ओर निहारने लगीं.

‘ले देख, यह साड़ी पहन ले. तेरे ऊपर बहुत खिलेगी,’ कहते हुए दीदी ने गुलाबी रेशमी साड़ी मुझे दी.

‘मैं इतनी भारी साड़ी का क्या करूंगी?’ मैं झिझकी.

‘यह क्या हो रहा है?’ अचानक मां की आवाज सुन कर मैं ठिठक गई.

‘सीमा, तू यहां क्या कर रही है? इतना काम पड़ा है. कौन निबटाएगा. उठ, जा जल्दी से कर, फिर बैठियो. और यह साड़ी किस की है?’

‘जीजी की है. मुझे दे रही हैं,’ मैं ने उठते हुए उत्तर दिया.

‘अरे, इतनी भारी साड़ी का सीमा क्या करेगी? तू ही रख ले. तेरे यहां तो रिश्तेदारी काफी बड़ी है. आनाजाना लगा रहता है. क्यों दे रही है इसे?’ मां ने दीदी को समझाया.

मेरा मुंह तमतमा गया, पर चुपचाप काम में लग गई. सारा काम निबटा कर मैं फिर से लेट गई. विवाह की थकान से मेरा बदन चूरचूर हो रहा था.

दूसरे दिन बहू भी आ गई थी. उधर राकेश का फोन भी आ चुका था कि सीमा को भेजो. यद्यपि काम के कारण अम्मां मुझे रोकना चाहती थीं, पर मैं नहीं रुकी. मां ने बड़ी दीदी को विदा कर दिया था. जीजाजी को जल्दी थी. जीजाजी के चलने पर मां ने पूछा, ‘अब कब दर्शन देंगे?’

‘बस जी, अब क्या दर्शन देंगे? एक बार के दर्शन में हमारा लाखों का नुकसान हो जाता है,’ जीजाजी ने चांदी की डिबिया से पान निकाल कर खाते हुए कहा, ‘दर्शन देने वाले तो राकेश बाबू थे. बारबार दर्शन देते थे. जाने अब कहां लोप हो गए.’

मैं जीजाजी का कटाक्ष अच्छी तरह समझ चुकी थी. जीजी ने डांटते हुए कहा, ‘क्यों तंग करते हो उसे?’

जीजाजी के जाने के बाद मेरी भी जाने की बारी थी. शाम की गाड़ी से मुझे भी जाना था. मेरा सामान बंध चुका था. पिताजी ने पूछा, ‘अब राकेश की तरक्की कब होगी?’

‘पता नहीं,’ मैं ने धीरे से उत्तर दिया.

‘पता रखा कर. कुछ लोगों से मिलोजुलो. रेखा को देख. तेरे साथ ही विवाह हुआ था. बैंक में ही था. अफसर हो गया. कोशिश ही नहीं करते तुम लोग.’

मां ने ताना मारा, ‘रीमा को देख कितनी सुखी है. कितना पैसा, कोठी सभी कुछ है.’

‘मां, हमें क्या कमी है. हम भी तो मजे में हैं.’

‘वो मजे हमें दीख रहे हैं,’ मां ने कटाक्ष किया.

मैं नहीं जानती थी कि यह मां की सहानुभूति है या उन की गरिमा आहत होती है मेरे आने से. उन्हें मैं मखमल में टाट का पैबंद सा लगती हूं. जबतब राकेश को ले कर मुझे जलील करना शुरू कर देती हैं. बड़े भैयाभाभी सदा राकेश को ही पसंद करते हैं, पर मां को स्वभाव से क्या मतलब? जीजाजी चाहे कितनी बेइज्जती करें मां की, वे उन से ही खुश रहती हैं. पैसा जो है, उन के पास.

भैया मुझे छोड़ने स्टेशन आए थे. मैं मां की बातें याद कर के रोने लगी थी.

‘देख सीमा, मां और पिताजी की बातों का बुरा न मानना. पत्र जरूर डालना. राकेश क्यों नहीं आए, मुझे पता है. मैं जब दिल्ली आऊंगा तब मिलूंगा,’ भैया गाड़ी में बिठा कर चले गए थे.

अचानक एक सहानुभूति भरा स्वर मेरे कानों में पड़ा. मैं एकदम से वर्तमान में लौट आई.

‘‘अब आप का सिरदर्द कैसा है? चाय पिएंगी क्या?’’ थर्मस से चाय निकालते हुए सामने बैठी महिला बोली.

‘‘ठीक हूं,’’ मैं उठ बैठती हूं. उस के हाथ से शीशे के गिलास में चाय ले कर पूछती हूं, ‘‘कौन सा स्टेशन है?’’

‘‘बस, 1 घंटे का रास्ता और है. दिल्ली आ रही है. पूरी रात आप बेचैन सी रहीं.’’

‘‘हूं, तबीयत ठीक नहीं थी न,’’ मैं मुसकराने का प्रयास करती हूं.

‘‘कितने बच्चे हैं आप के?’’ वह पूछती है.

‘‘जी, सिर्फ एक.’’

‘‘उसे क्यों छोड़ आईं. लगता है दादादादी का प्यारा होगा,’’ वह मेरी ओर मुसकरा कर देखती है.

‘‘हूं. अब नहीं छोड़ूंगी कभी,’’ राकेश और मुन्ने की शक्ल बारबार मेरी आंखों के सामने तैरने लगती है. रहरह कर मुन्ने की याद आने लगती है. जाने कैसा होगा वह, राकेश ने कैसे रखा होगा उसे? बस, घंटे भर की तो बात है.

मैं उतावली हो जाती हूं उन दोनों से मिलने के लिए.

आखिर मैं उन को छोड़ कर क्यों गई थी? मायके का मोह छोड़ना होगा मुझे. इस से पहले कि मुझे वे घटनाएं फिर याद आएं, मैं नीचे से टोकरी खींच शादी की मिठाई निकाल कर सामने वाली महिला को देती हूं और सबकुछ बिसरा कर उन से बातों में लीन हो जाती हूं. Drama Story

लेखक- कृष्णा गर्ग

Cooking Benefits: एक पंथ दो काज – शौक के साथ वर्कआउट भी

Cooking Benefits: खाना बनाने का शौक होना काफी अच्छी बात है क्योंकि इस से एक तो आप के घर का काम हो रहा है, दूसरा इस से आप को वर्कआउट के लिए जिम जाने की जरूरत नहीं है क्योंकि कुछ गतिविधियां जो खाना पकाने के दौरान की जाती हैं, वे निश्चित रूप से व्यायाम के रूप में गिनी जा सकती हैं. जैसेकि खाना पकाने के दौरान शरीर को विभिन्न गतिविधियों के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है, मसलन खड़े रहना, चलना, झुकना और वस्तुओं को उठाना.

इस के आलावा एक डिश तैयार करने में जो मेहनत लगती है या फिर उस से संबधित जो भी सामान चाहिए होता है उसे खरीदने के लिए दुकान तक जाना तक भी व्यायाम के रूप में गिना जा सकता है. इस के आलावा खाना पकाने के दौरान शरीर को विभिन्न गतिविधियों के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है, जैसेकि खड़े रहना, चलना, झुकना और वस्तुओं को उठाना, मसाला पीसना, आटा गूंधना वगैरह.

आप सब्जियों को काटते समय, फल धोते समय या डिश तैयार करते समय अपने शरीर को स्ट्रैच करते हैं. जो ऐक्सरसाइज का काम करता है.

इस तरह खाना पकाना एक ऐसी गतिविधि है जो व्यायाम के रूप में गिना जा सकता है. यह एक अच्छा तरीका हो सकता है, जो कम से कम फिजिकल ऐक्टिविटी प्रदान करता है और यह आप की हैल्थ में इंप्रूवमैंट कर सकता है.

खाना बनाने के कई लाभ हैं

सक्रिय रूप से खड़े रहना : खाना बनाना एक टाइम कंज्यूमिंग काम है जिस के लिए हम कई घंटे खड़े रहते हैं. ऐसा करना हमारी मांसपेशियों को सक्रिय रखता है और हृदय गति को बढ़ाता है.

खाना बनाने से हम ऐक्टिव बने रहते हैं : रसोई में इधरउधर चलना पड़ता है, जो आप को शारीरिक रूप से सक्रिय भी रखता है. इस से बौडी में फुरती बनी रहती है.

झुकना भी एक ऐक्सरसाइज है : खाना पकाने के लिए आप को अकसर झुकना पड़ता है, जैसेकि सामग्री को लेने के लिए या बर्तन धोने के लिए, आटा गूंधने के दौरान भी आप को झुकना पड़ता है. खाना पकाने के लिए आप को अकसर भारी वस्तुओं को उठाना पड़ता है, जैसेकि खाने की सामग्री, बर्तन वगैरह. इस से भी ऐक्सरसाइज होती है.

कैलोरी बर्न होती है

खाना पकाने के दौरान आप कैलोरी बर्न करते हैं, जो वजन कम करने में मदद कर सकता है. बाहर से खाना मंगाने के बजाय, जब आप के पास कुछ खाली समय हो, तब खाना पकाने की कोशिश करें. 30 मिनट तक खाना पकाने से लगभग 57-84 कैलोरी बर्न हो सकती है या शरीर के वजन के प्रति किलोग्राम लगभग 1 कैलोरी बर्न हो सकती है.

रोटी सेंकना भी एक ऐक्सरसाइज है

जब आप आटा गूंध कर रोटी सेंकते  हैं तो यह आप को 125 कैलोरी तक जलाने में मदद कर सकती है. यह एक इजी ऐक्टिविटी है जिसे हम में से अधिकांश लोग अकसर अपने घर के नौकरों को सौंप देते हैं. यह अपनेआप में एक ऐक्सरसाइज है. आटा गूंधने के लिए आप को झुकना पड़ता है और अपनी बांहों को काम में लगाना पड़ता है. यह आप को 50 कैलोरी तक जलाने में मदद कर सकता है.

मसल्स को मजबूत करना

खाना पकाने के दौरान आप विभिन्न मांसपेशियों का उपयोग करते हैं, जो आप की मांसपेशियों को मजबूत कर सकता है.

हार्ट ठीक रहता है

खाना पकाने के दौरान आप की हृदय गति बढ़ती है, जो दिल के स्वास्थ्य के लिए काफी फायदेमंद है.

खाना बनाने से मैंटल स्ट्रैस कम होता है

हम किसी तनाव से गुजर रहे होते हैं या फिर किसी बात को ले कर बहुत परेशान होते हैं, डिप्रैशन फील कर रहे होते हैं, उस समय पर अगर हम खाना बनाने लग जाएं तो कुछ समय के लिए सारा तनाव भूल जाते हैं. इस तरह खाना पकाने से स्ट्रैस कम हो सकता है और मानसिक स्थिति को बेहतर बनाया जा सकता है.

खाना बनाते समय किन कामों से करें ऐक्सरसाइज

आटा अपने हाथ से गूंधें. इस से उंगलियों और हथेलियों की काफी अच्छी ऐक्सरसाइज होती है और इस से कपल टर्नल सिंड्रोम जैसी बीमारियों से भी आराम मिलता है.

सब्जी काटना, घिसना भी एक ऐक्सरसाइज है, इसलिए ये काम मेड से कराने के बजाय खुद करें.

अपने हाथ से रोटी बेलें. इस से हाथों की ऐक्सरसाइज होती रहेगी.

किचन में भरी बर्तन और बाल्टी आदि उठाने से भी मसल्स मजबूत होती हैं. घंटों एक जगह पर खड़े हो कर खाना बनाने से पैरों में मजबूती आती है और बौडी लचीली बनती है.

Zoned Out: बार-बार खो जाते हैं? जानें मनोवैज्ञानिक कारण

Zoned Out: मुंबई की 23 वर्षीय सिमरन को शर्मिंदगी का सामना उस वक्त करना पड़ा, जब उन के मैनेजर ने उन्हें मीटिंग की कोर विषय को अपने औफिस कलीग्स को समझाने की बात कही. असल में सिमरन ने मीटिंग की पूरी बात को ठीक से सुना ही नहीं, क्योंकि वह जोन आउट की शिकार हो गई थी. ऐसे में उस का अपने कलीग्स के साथ चर्चा करना मुश्किल लग रहा था. इस के लिए उस ने पूरी मीटिंग की रिकौर्डिंग को फिर से सुनी और चर्चा की.

पिछले कुछ दिनों से वह महसूस कर रही है कि वह सिर्फ आधे से 1 घंटा भी किसी मीटिंग में अपना ध्यान लगा नहीं पा रही है. बातें सुनतेसुनते अचानक बीच में वह कहीं खो सी जाती है. यह अधिकतर 4 से 5 मिनट के लिए होता है, लेकिन उस दौरान हुई बातचीत को वह सुनती नहीं, बाद में कुछ पूछने पर वह खुद को ब्लैंक महसूस करती है.

वह खुद को ले कर कई बार परेशान हो चुकी है, क्योंकि उस का इस तरह से बेमन हो जाना, उस के कैरियर ग्रोथ में ठीक नहीं. इसलिए वह कई बार मनोवैज्ञानिक के पास जा कर सलाह ले चुकी है.

जोन आउट कोई बड़ी समस्या नहीं

असल में जोन आउट का मतलब होता है मानसिक रूप से ध्यान का इधरउधर भटक जाना या अपने आसपास हो रही चीजों से ध्यान हट जाना. यह केवल सिमरन के साथ ही नहीं, स्कूल या कालेज जाने वाले छात्र भी जोन आउट के शिकार हो जाते हैं और अकसर क्लास में अपना ध्यान नहीं लगा पाते. कहां क्या चर्चा हो रही है, वे ठीक से नहीं सुनते और टीचर के कुछ पूछने पर वे ब्लैंक फेस कर क्लासरूम में खड़े हो जाते हैं.

इस बारें में नवी मुंबई की मदरहुड हौस्पिटल्स की कंसल्टेंट साइकोलौजिस्ट सिद्धि एन यादव कहती हैं कि यह तब होता है, जब आप किसी काम से थक गए हों, बोर हो गए हों, तनाव में हों या ज्यादा सोच में हों. इस दौरान आप सामने देख कर भी कुछ नहीं समझते, बातों पर ध्यान नहीं देते या किसी बातचीत का हिस्सा मिस कर देते हैं. ऐसे समय में दिमाग थोड़ी देर के लिए औफ हो जाता है, जैसे औटोमेटिक मोड पर चला गया हो. यह अकसर लंबी मीटिंग, क्लास या मोबाइल चलाते समय होता है.

आप वहां मौजूद होते हैं, लेकिन मन कहीं और होता है. कभीकभी ऐसा होना ठीक है, लेकिन अगर यह बारबार हो रहा है, तो यह थकावट, चिंता या ध्यान की समस्या का संकेत हो सकता है.

मनोवैज्ञानिक कारण

मनोचिकित्सक सिद्धि कहती हैं कि जब तनाव, चिंता या भावनाएं अधिक हो जाती हैं, तब दिमाग खुद को बचाने के लिए कुछ देर के लिए डिसकनैक्ट कर लेता है. इसे आमतौर पर डिसोसिएशन भी कहते हैं, क्योंकि हमारा मन परेशान करने वाली बातों से खुद को दूर कर लेता हैं. यह समस्या एसीएचडी (अटैंसन डेफिसिट हाइपर अक्ट्रिव्ह डिसऔर्डर) और पीटीएसडी (पोस्ट ट्रोमैटिक स्ट्रैस डिसऔर्डर) या डिप्रैशन जैसी स्थितियों में देखी जाती है. इसलिए अगर ऐसा बारबार होता है, तो किसी मनोचिकित्सक से सलाह लेना जरूरी होता है.

बदली है सोच

यहां यह समझना जरूरी है कि पहले लोग दूसरों को खुश करने के लिए न नहीं कह पाते थे और खुद को परेशानी में डालते थे. उन के कहीं बुलाने पर वे बेमन वहां पहुंच जाते थे और वहां हो रही बातचीत को वे अनसुना करते रहते थे, लेकिन अब लोग अपने मन की सुनते हैं और न बोलने से कतराते नहीं, अपनी खुशी को वे समझते है, ऐसा होने के वजह कई होते है.

जोन आउट को कम करने के तरीके

  • मानसिक स्वास्थ्य को ले कर जागरूकता.
  • सेल्फ केयर यानि खुद की देखभाल को अहमियत.
  • थेरैपी और काउंसलिंग की सुविधा.
  • काम और जीवन में संतुलन की समझ आदि.

मल्टीटास्किंग कुछ हद तक जिम्मेदार

साइकोलौजिस्ट कहते हैं कि मल्टीटास्किंग भी इस का एक कारण हो सकता है. एकसाथ कई काम करने से मानसिक थकावट और तनाव बढ़ सकता है, जिस से लोग अपनी सीमाओं को समझ नहीं पाते. बर्नआउट के मामलों में बढ़ोत्तरी के चलते अब बहुत से लोग समझने लगे हैं कि धीमा चलना न कहना और एक समय में एक काम पर ध्यान केंद्रित करना जरूरी है.

यह स्वार्थ नहीं है, बल्कि यह आत्मसम्मान, माइंडफुलनैस और सेल्फ केयर का संकेत है. जोन आउट होना दर्शाता है कि आप का दिमाग ब्रेक चाहता है और किसी कार्य पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रहा है.

रोकने के उपाय

-अच्छी नींद लें.

-बीचबीच में थोड़ा आराम करें.

-गहरी सांस लें, मैडिटेशन करें.

-खूब पानी पिएं और स्क्रीन टाइम कम करें.

-एक समय में एक ही काम करें.

-ध्यान भटकने लगे, तो वापस लाने की कोशिश करें.

-नियमित वर्कआउट करें आदि.

जोन आउट से बाहर निकलने के तरीके

  • माइंडफुलनैस और व्यायाम करें.
  • सांस पर ध्यान दें या आसपास की चीजों का नाम लें.
  • डायरी लिखें.
  • पजल गेम्स खेलें.
  • बातचीत में हिस्सा लें.
  • फोकस बढ़ाने वाली ऐक्टिविटी करें आदि.

प्रैगनेंसी के दौरान जोन आउट

मनोचिकित्सक सिद्धि कहती हैं कि प्रैगनैंसी के दौरान जोन आउट होने की संभावना अधिक होती है, जिस से अधिकतर स्त्रियां घबरा जाती हैं, जबकि यह सामान्य है, यह कोई कमजोरी नहीं.

कुछ वजह निम्न हैं :

गर्भावस्था के दौरान ध्यान भटकना, भूलना या मन का सुस्त होना आम बात है, जिसे प्रैगनैंसी ब्रेन या मौमनेशिया भी कहा जाता है.

हार्मोनल बदलाव

ऐस्ट्रोजन और प्रोजेस्ट्रोन में तेज वृद्धि दिमाग के कार्य में और न्यूरोट्रांसमीटर संतुलन में बदलाव लाती है, जिस से थकावट और फोकस में कमी आती है.

नींद में बाधा

प्रैगनैंसी में अच्छी नींद में कठिनाई हो सकती है, जिस से दिन में नींद और ध्यान की कमी होती है.

मानसिक भार और व्याकुलता

गर्भवती महिलाएं स्वास्थ्य, भविष्य और बच्चे को ले कर चिंतित रहती हैं. सर्वेक्षण के अनुसार प्रैगनैंसी मस्तिष्क की ग्रे मैटर को प्रभावित करती है, खासकर उन हिस्सों को जो भावनाओं और सामाजिक समझ से जुड़ी होती हैं. अगर यह ज्यादा समय तक हो रहा हो या डिप्रैशन जैसी समस्या लगे तो डाक्टर की सलाह लें.

प्रैगनैंसी के दौरान माइंड को ऐक्टिव रखें

* मूड को ठीक रखने के लिए हर दिन टहलना जरूरी.

* ध्यान और याददाश्त बढ़ाने के लिए ब्रैन गेम्स.

* रंग भरना या आर्ट बनाना.

* संगीत सुनना.

* गहरी सांस लेना.

* बर्थ प्लान बनाना वगैरह.

अगर अधिक समय तक समस्या चल रही है, तो जिस में काम या घर की जिम्मेदारी निभाने में समस्या का होना, बारबार भूलने की आदत से परेशानी का होना, ऐंग्जाइटी, डिप्रैशन या थकावट महसूस हो रही है, तो काउंसलर की सलाह अवश्य लें.

इस प्रकार जोन आउट कोई मानसिक बीमारी नहीं, अपने लाइफस्टाइल में बदलाव कर इसे हटाया जा सकता है. इस के बावजूद भी अगर समस्या है, तो सायकोलौजिस्ट की सुझाव लेने से कतराएं नहीं, क्योंकि अधिक बढ़ जाने पर यह किसी अन्य मानसिक रोग को जन्म दे सकती है.

Family Story in Hindi: हरिराम- क्या बच पाई शशांक की गहस्थी?

Family Story in Hindi: शशांक अपने आफिस में काम कर रहा था कि चपरासी ने आ कर कहा, ‘‘साहब, आप को बनर्जी बाबू याद कर रहे हैं.’’

उत्पल बनर्जी कंपनी के निदेशक थे. पीठ पीछे उन्हें सभी बंगाली बाबू कह कर संबोधित करते थे. कंपनी विद्युत संयंत्रों की आपूर्ति, स्थापना और रखरखाव का काम करती थी. कंपनी के अलगअलग प्रांतों में विद्युत निगमों के साथ प्रोजेक्ट थे. शशांक इस कंपनी में मैनेजर था.

‘‘यस सर,’’ शशांक ने बनर्जी साहब के कमरे में जा कर कहा.

‘‘आओ शशांक,’’ इतना कह कर उन्होंने उसे बैठने का इशारा किया.

शशांक के दिमाग में खतरे की घंटी बज उठी. उसे लगा कि उस की हालत उस बकरे जैसी है जिसे पूरी तरह सजासंवार दिया गया है और बस, गर्दन काटने के लिए ले जाना बाकी है. शशांक ने अपने चेहरे पर कोई भाव नहीं आने दिया और चुपचाप कुरसी पर बैठ गया.

‘‘तुम्हारा फरीदाबाद का प्रोजेक्ट कैसा चल रहा है?’’

‘‘सर, बहुत अच्छा चल रहा है. निर्धारित समय पर काम हो रहा है और भुगतान भी ठीक समय से हो रहा है.’’

‘‘बहुत अच्छा है. मुझे तुम से यही उम्मीद थी, पर मैं तुम्हें ऐसा काम देना चाहता हूं जो सिर्फ तुम ही कर सकते हो.’’

शशांक चुपचाप बैठा अपने निदेशक मि. बनर्जी को देखता रहा. उसे लगा कि बस, गर्दन पर तलवार गिरने वाली है.

‘‘शशांक, तुम्हें तो पता है कि लखनऊ वाले प्रोजेक्ट में कंपनी की बदनामी हो रही है. भुगतान बंद हो चुका है. हमें पैसा वापस करने का नोटिस भी मिल चुका है. मैं चाहता हूं कि तुम वह काम देखो.’’

‘‘लेकिन वह काम तो जतिन गांगुली देख रहे हैं,’’ शशांक ने कहा.

‘‘मैं ने फैसला किया है कि अब कंपनी के हित में लखनऊ का प्रोजेक्ट तुम देखोगे और जतिन गांगुली फरीदाबाद का प्रोजेक्ट संभालेगा.’’

शशांक की इच्छा हुई कि कह दे कि उस के साथ इसलिए ज्यादती हो रही है क्योंकि वह बंगाली नहीं है. उस ने सोचा कि कंपनी अध्यक्ष से जा कर मिले पर उसे याद आया कि कंपनी अध्यक्ष सेनगुप्ता साहब भी बंगाली हैं. वह भी बंगाली का ही साथ देंगे.

शशांक अपने केबिन में जाने से पहले अपनी सहकर्मी वंदना के केबिन पर रुका.

‘‘वंदना, चलो काफी पीते हैं. मुझे तुम से कुछ पर्सनल बात करनी है.’’

काफी पीतेपीते शशांक ने उसे सारी बात बता दी.

‘‘अगले 3 माह में प्रमोशन के लिए निर्णय लिए जाएंगे. यह मामला जतिन गांगुली के प्रमोशन का है. लखनऊ प्रोजेक्ट की जो उस ने हालत की है, उस से प्रमोशन तो दूर उसे कंपनी से निकाल देना चाहिए,’’ वंदना ने कहा.

‘‘क्या मैं सेनगुप्ता साहब से मिलूं?’’

‘‘नहीं, उस से फायदा नहीं होगा. तुम्हें लखनऊ जाना पडे़गा पर फरीदाबाद प्रोजेक्ट की फाइलों की सूची बना कर, आज की स्थिति की रिपोर्र्ट बना कर तुम जतिन गांगुली के दस्तखत ले लेना और उस की कापी सेनगुप्ता साहब को भेज देना. प्रोजेक्ट में गड़बड़ होने पर वे लोग तुम्हें दोष दे सकते हैं,’’ वंदना ने सुझाव दिया.

कुछ समय तक दोनों के बीच खामोशी छाई रही.

‘‘शशांक, तुम से एक बात पूछना चाहती हूं. मुझे दोस्त समझ कर सचसच बताना,’’ वंदना बोली.

‘‘क्या बात है?’’

‘‘कहीं तुम्हारे और तुम्हारी पत्नी सरिता के बीच तनाव तो नहीं?’’

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’

‘‘पिछले हफ्ते तुम फरीदाबाद प्रोजेक्ट की मीटिंग में थे तब शाम को 8 बजे सरिता का फोन मेरे घर पर आया था. तुम्हारे बारे में पूछ रही थी.’’

शशांक को अपनी पत्नी पर क्रोध आ गया. पर उस ने कहा, ‘‘उस दिन मैं उसे बताना भूल गया था. इसलिए वह परेशान होगी.’’

‘‘शशांक, प्रोजेक्ट और प्रमोशन के बीच में अपने परिवार को मत भूलो,’’ वंदना ने गंभीरता से कहा.

‘‘आज कोई मीटिंग नहीं थी क्या? जल्दी आ गए,’’ सरिता ने शशांक के घर पहुंचने पर व्यंग्य भरे लहजे में पूछा.

शशांक के मन में क्रोध भरा हुआ था. वह बिना जवाब दिए अपने कमरे में चला गया.

‘‘मुझे लखनऊ वाले प्रोजेक्ट पर काम दिया गया है. कल ही मैं 1 सप्ताह के लिए लखनऊ जा रहा  हूं,’’ उस     ने रात को खाना खाते हुए सरिता से कहा.

‘‘अकेले जा रहे हो? क्या तुम्हारी प्यारी दोस्त वंदना नहीं जा रही है?’’

शशांक को लगा कि उस के संयम की सीमा पार हो चुकी है और वह अभी सरिता के गाल पर तमाचा लगा देगा. पर वह आग्नेय नेत्रों से सरिता को देख कर आधा खाना खा कर ही उठ गया.

दूसरे दिन लखनऊ पहुंच कर शशांक कंपनी के अतिथिगृह में ठहरा, जहां उस की  मुलाकात अतिथिगृह के प्रभारी हरिराम से हुई.

‘‘नमस्ते साहब,’’ हरिराम ने हाथ जोड़ कर कहा.

शशांक ने अनुमान लगाया कि हरिराम की उम्र करीब 50-55 की होगी. हट्टाकट्टा शरीर पर साफ कुरता- पायजामा, ठीक  से संवारे गए सफेद बाल, दाढ़ीमूंछ साफ, करीब 5 फुट 8 इंच ऊंचाई लिए हरिराम आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक लग रहा था.

कमरे में जा कर शशांक ने लखनऊ पहुंचने पर सरिता को फोन किया.

रात को खाना खातेखाते शशांक ने हरिराम से उस के बारे में पूछा.

‘‘साहब, मेरे पिता इस अतिथिगृह में थे. मैं बचपन से उन की सहायता करता था. बीच में 10 साल के लिए मुंबई गया था, एक कारखाने में काम करने. पिता की अचानक मृत्यु हो गई. मां अकेली थीं, इसलिए मुंबई छोड़ कर लखनऊ आना पड़ा. पिछले 10 साल से इसी अतिथिगृह में आप सब की सेवा कर रहा हूं.’’

‘‘तुम्हारे परिवार में कौनकौन हैं?’’

‘‘बस, मैं अकेला हूं,’’ कह कर वह दूसरे कमरे में चला गया. शायद वह इस बारे में बात नहीं करना चाहता था.

दूसरे दिन शशांक प्रोेजेक्ट आफिस गया तो उसे चारों ओर से अपनी कंपनी की आलोचना ही सुनने को मिली. उत्तर प्रदेश विद्युत निगम के अधिकारियों ने एक ही बात की रट लगाई कि पैसा वापस करो और दफा हो जाओ यहां से. उस की कंपनी के ज्यादातर कर्मचारी नदारद थे.

लज्जित शशांक गुस्से से भरा शाम को अतिथिगृह वापस लौटा. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि स्थिति से कैसे निबटा जाए. उसे कुछ समय के लिए सब से विरक्ति सी हुई. उस का मन किया कि कंपनी को त्यागपत्र भेज कर, दूर पहाड़ों में चला जाए.

खाना खा कर वह टहलने के लिए निकल पड़ा. 1 घंटे के बाद वापस आ कर सोने की तैयारी करने लगा. एकाएक उसे खयाल आया कि उस का पर्स जिस में करीब 5 हजार रुपए थे, गायब है. उस ने अपनी पैंट की जेब, बाथरूम आदि में ढूंढ़ा पर पर्स नहीं मिला.

उस ने सोचा कि कहीं यह करामात हरिराम ने तो नहीं कर दिखाई.

शशांक ने हरिराम को बुला कर बहुत डांटा, धमकाया और पर्स वापस करने के लिए कहा.

हरिराम चुपचाप खड़ा रहा. उस की आंखों में आंसू आ गए. वह कुछ नहीं बोला.

‘‘मैं तुम्हें सुबह तक का समय देता हूं. यदि तुम ने मेरा पर्स वापस नहीं किया तो मैं तुम्हें पुलिस के हवाले कर दूंगा.’’

शशांक रात को अपने कमरे में बैठा काफी देर तक सोचता रहा कि इस नई समस्या से कैसे निबटा जाए. सोने के लिए लेटा तो उसे तकिया टेढ़ामेढ़ा लगा. तकिया उठाया तो उस के नीचे पर्र्स था. शशांक को याद आया कि उस ने इस डर से पर्स तकिए के नीचे छिपा दिया था कि कहीं हरिराम उसे चुरा न ले.

शशांक को खुद पर शर्म महसूस हुई. वह हरिराम के कमरे में गया और उसे अपने कमरे में बुला कर लाया. शशांक ने हरिराम को बताया कि वह किस परेशानी में यहां आया था. किस तरह वह क्षेत्रवाद, भाषावाद का शिकार हो रहा है. इसी परेशानी में उस से यह अपराध हो गया, जिस के लिए वह शर्मिंदा है.

‘‘साहब, यह बडे़ दुख की बात है कि हम पहले हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, बंगाली, मराठी आदि हैं और बाद में भारतीय. इस सोच ने हमारे देश की प्रगति में बहुत बड़ी बाधा डाली हुई है.’’

शशांक को किसी हिंदू से बाबरी मसजिद के बारे में यह विचार सुन कर आश्चर्य हुआ. उसे लगा कि उस के सामने एक सच्चा भारतीय खड़ा है.

‘‘पर क्या किया जा सकता है, हरिराम?’’ उस के मुंह से निकला.

‘‘क्या आप कर्म पर विश्वास करते हैं?’’

‘‘हां, बिलकुल.’’

‘‘आप यह क्यों नहीं सोचते कि इस लखनऊ वाले प्रोजेक्ट ने आप को अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने का अवसर दिया है? उत्तर प्रदेश विद्युत निगम के अधिकारी हमारी कंपनी के शत्रु नहीं हैं. आप को उन की समस्याओं का समाधान करना चाहिए.’’

‘‘हरिराम, तुम ठीक कहते हो. अब रात बहुत हो गई है, थोड़ा सो लेते हैं.’’

अगले दिन शशांक ने अपनी कंपनी के कर्मचारियों से मिल कर भविष्य की कार्यप्रणाली तय की. इस के बाद उस ने उत्तर प्रदेश विद्युत निगम के अध्यक्ष से मिल कर 3 महीने का समय मांग लिया और उन्हें यह आश्वासन भी दिया कि वह लखनऊ से बाहर नहीं जाएगा.

शशांक सुबह नाश्ते के बाद प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए रवाना हो जाता था और रात को काफी देर के बाद वापस आता था. इस से कंपनी के कर्मचारियों में नई जान आ गई.

एक दिन शशांक रात को आया तो अतिथिगृह में ताला लगा था. वह पास के बगीचे में टहलने के लिए चला गया. वहीं उसे हरिराम अकेले एक बैंच पर सिर झुकाए बैठा मिल गया.

‘‘हरिराम, तुम यहां क्या कर रहे हो?’’

हरिराम ने उसे देखा और फिर यह कहते हुए कि आओ, शशांक बाबू, बैठो, उस ने शशांक का हाथ पकड़ कर अपने पास बिठा दिया.

शशांक ने हरिराम के मुंह से शराब की गंध महसूस की.

‘‘जानते हो यह कौन है?’’ हरिराम ने शशांक को एक तसवीर दिखाते हुए कहा.

शशांक ने देखा, तसवीर में एक महिला, 4-5 साल के बच्चे के साथ थी.

‘‘यह सीता है, मेरी पत्नी और यह रमेश है, मेरा बेटा. मैं मुंबई में काम करता था. अपनी सीता पर शक करता था. रोज उसे पीटता था. वह बेचारी कब तक जुल्म सहती. एक दिन मुझे छोड़ कर बेटे के साथ कहीं चली गई,’’ कह कर हरिराम ने सिर झुका लिया.

‘‘तुम ने उन्हें ढूंढ़ने की कोशिश नहीं की?’’

‘‘बहुत ढूंढ़ा, बहुत खोजा पर कहीं पता नहीं चला. आज आप की मेमसाहब का फोन आया था. परिवार के बिना जिंदगी गुजारना बहुत कठिन है साहब. इस का दर्द मैं जानता हूं,’’ कह कर वह फूटफूट कर रोने लगा.

दूसरे दिन सुबह नाश्ते के समय हरिराम ने संकोच के साथ कहा, ‘‘साहब, कल नशे में कुछ गुस्ताखी हो गई हो तो माफ कीजिएगा.’’

दिन भर शशांक, हरिराम और अपनी जिंदगी के बारे में सोचता रहा. उस का और सरिता का कालिज का 3 साल तक प्यार, एक परिवार का सपना, विवाह, उस का काम में व्यस्त होना, कंपनी में प्रमोशन के लिए भागदौड़, सरिता की शिकायतें, अहं का टकराव फिर लड़ाई, उस का तंग आ कर सरिता पर हाथ उठाना, सरिता की आत्महत्या की धमकी, हमेशा एक तनाव भरी जिंदगी जीना.

‘नहीं, हमारी पे्रम कहानी का यह अंत नहीं होना चाहिए,’ शशांक के अंतर्मन से यह आवाज निकली और शाम को उस ने सरिता को फोन किया.

‘‘हेलो,’’ फोन सरिता ने उठाया था.

‘‘हेलो, क्या कर रही हो?’’ शशांक ने नम्र स्वर में पूछा.

‘‘यों ही बैठी हूं.’’

‘‘सरिता, मैं तुम से एक बात कहना चाहता हूं. मैं यहां लखनऊ में तुम्हारे बिना बहुत अकेला महसूस कर रहा हूं.’’

एक क्षण को सरिता के मन में आया कि बोले वंदना को बुला लो, पर दूसरे क्षण उस का अपनेआप पर नियंत्रण न रहा और वह फूटफूट कर रो पड़ी.

शशांक की आंखों में भी आंसू आ गए.

‘‘सरु, क्या तुम यहां आ सकती हो?’’

‘‘मैं कल ही पहुंच रही हूं, शशांक,’’ सरिता ने रोतेरोते कहा.

शशांक दूसरे दिन शाम को कमरे में दाखिल हुआ तो सरिता उस का इंतजार कर रही थी.

‘‘शशांक, मुझे माफ कर दो.’’

शशांक ने सरिता को गले से लगा लिया.

‘‘गलती मेरी ज्यादा है. मैं काम के जनून में तुम्हें नजरअंदाज करने लगा था. मैं ने तुम्हें बहुत दुख दिया है न सरू ?’’

रात को खाना खाने के बाद हरिराम ने सरिता से कहा, ‘‘मेमसाहब, आप के आने से साहब बहुत खुश हैं. इन्होंने आज 2 रोटियां ज्यादा खाई हैं,’’ फिर उस ने शशांक से कहा, ‘‘साहब, कल छुट्टी है. आप मेमसाहब को बड़ा इमामबाड़ा, बारादरी, गोमती नदी का किनारा आदि जगह घुमा कर लाइए. हां, शाम को अमीनाबाद से इन के लिए चिकन की साड़ी खरीदना मत भूलिएगा.’’

दूसरे दिन इमामबाड़ा की भूलभुलैया में दोनों एकदूसरे का हाथ पकड़ कर रास्ता खोजते रहे. शशांक और सरिता को लगा कि उन के कालिज के दिन लौट आए हैं.

शाम को गोमती के किनारे बने पार्क में बैठेबैठे सरिता ने शशांक के कंधे पर सिर रख दिया और आंखें बंद कर लीं.

‘‘सरू, तुम्हें पता है, मुझ में आए इस बदलाव का जिम्मेदार कौन है…इस का जिम्मेदार हरिराम है,’’ उस ने सरिता के बालों को सहलाते हुए उस शाम की घटना बता दी.

शशांक दूसरे दिन प्रोजेक्ट पर पहुंचा तो वह खुद को बहुत हलका महसूस कर रहा था. उस ने पाया कि उस में कुछ कर दिखाने की इच्छाशक्ति पहले से दोगुनी हो गई है.

इधर सरिता ने हरिराम के कमरे में जा कर कहा, ‘‘काका, आप के कारण मेरी खोई हुई गृहस्थी, मेरा परिवार मुझे वापस मिला है. मैं आप की जिंदगी भर ऋणी रहूंगी. मैं अब आप को काका कह कर बुलाऊंगी.’’

हरिराम ने भावुक हो कर सरिता के सिर पर हाथ फेरा.

‘‘काका, अब मैं यहीं रहूंगी और खाना मैं बनाऊंगी आप आराम करना.’’

‘‘नहीं बिटिया, मेरा काम मत छीनो. हां, अपनेआप को व्यस्त रखो और कुछ नया करना सीखो.’’

सरिता ने चित्रकला सीखनी शुरू कर दी. शशांक के प्रयासों से लखनऊ प्रोजेक्ट में पहले धीमी और फिर तेज प्रगति होने लगी. उत्तर प्रदेश विद्युत निगम ने कंपनी को भुगतान शुरू कर दिया. यही नहीं, उस प्रोजेक्ट के विस्तार का काम भी उस की कंपनी को मिल गया.

1 माह के बाद सरिता ने हरिराम से कहा, ‘‘काका, आप के कारण मुझे अपनी गलतियों का एहसास हो रहा है. मैं दिल्ली में बिलकुल खाली रहती थी. इस कारण मेरा दिमाग गलत विचारों का कारखाना बन गया था. बजाय शशांक की परेशानी समझने के मैं अपने पति पर शक करने लगी थी.’’

हरिराम के लाख मना करने पर भी सरिता ने उस का एक बड़ा चित्र बनाया.

इधर दिल्ली में कंपनी अध्यक्ष      मि. सेनगुप्ता के सामने निदेशक मि. उत्पल बनर्जी पसीनापसीना हो रहे थे.

‘‘मि. बनर्जी, आप को पता है कि हरियाणा विद्युत निगम ने कंपनी को फरीदाबाद प्रोजेक्ट के लिए कोर्ट का नोटिस भेजा है?’’

‘‘सर, शशांक बहुत गड़बड़ कर के गया है. उस ने कोई कागज न गांगुली को और न मुझे दिया है. बिना कागज के तो….’’

‘‘मि. बनर्जी, आप मुझे क्या बेवकूफ समझते हैं?’’

‘‘नहीं सर, आप तो…’’

‘‘मि. बनर्जी, सारी गड़बड़ आप के दिमाग में है. आप आदमी का मूल्यांकन उस के काम से नहीं बल्कि उस के बंगाली होने या न होने से करते हैं.’’

‘‘मेरे पास उन फाइलों और रिपोर्टों की पूरी सूची है जो शशांक, जतिन गांगुली को दे कर गया है.’’

‘‘यस सर.’’

‘‘आप और गांगुली 1 सप्ताह के अंदर फरीदाबाद वाले प्रोजेक्ट को रास्ते पर लाइए या अपना त्यागपत्र दीजिए.’’

‘‘सर, 1 सप्ताह में…’’

‘‘आप जा सकते हैं.’’

1 सप्ताह के बाद मि. उत्पल बनर्जी और मि. गांगुली कंपनी से निकाले जा चुके थे. मि. सेनगुप्ता ने शशांक को फोन कर के कंपनी की इज्जत की खातिर फरीदाबाद प्रोजेक्ट का अतिरिक्त भार लेने को कहा.

‘‘हरिराम, तुम ने ठीक कहा था. ईमानदारी और मेहनत से काम करने पर हर व्यक्ति की प्रतिभा का मूल्यांकन होता है,’’ शशांक दिल्ली के लिए विदा लेते समय बोला.

‘‘काका, आप की बहुत याद आएगी,’’ सरिता बोली.

1 माह बाद फरीदाबाद प्रोजेक्ट भी ठीक हो गया और शशांक को दोहरा प्रमोशन दे कर कंपनी का जनरल मैनेजर बना दिया गया. उस ने हरिराम को अपने प्रमोशन की खबर देने के लिए फोन किया तो पता चला कि हरिराम नौकरी छोड़ कर कहीं चला गया है.

शाम को शशांक ने हरिराम के बारे में सरिता को बताया तो वह गंभीर हो गई, फिर बोली, ‘‘हरिराम काका शायद अपने बिछुड़े  परिवार की तलाश में गए होंगे या शांति की तलाश में.’’

आज 3 साल बाद शशांक कंपनी में निदेशक है. सरिता ने चित्रकला का स्कूल खोला है. उन की बैठक में हरिराम का सरिता द्वारा बनाया हुआ चित्र लगा है. family story in hindi

लेखक- डा. कृष्ण कांत

Festival Special: किचन का मेकओवर क्यों जरूरी है, पढ़ें खास वजहें

Festival Special: हम रोजाना किचन का इस्तेमाल करते हैं. वहां रखे सामानों में से कुछ चीजें ऐसी होती हैं जो सालोंसाल हम इस्तेमाल करते रहते हैं, लेकिन इन का लंबे समय तक इस्तेमाल करना सेहत के लिए अच्छा नहीं है और कई बार चीजें इतनी पुरानी हो जाती हैं कि दिखने में भी वे बेकार लगती हैं और इन को इस्तेमाल करना अनकंफर्टेबल भी हो जाता है.

लेडीज तो फिर भी ये चीजें यूज करती रहती हैं लेकिन जब हस्बैंड या भाई किचन में आते हैं और इन टूटीफूटी चीजों को बेतरीके और बेतरतीब से देखते हैं तो उलटे पांव भाग खड़े होते हैं.

इसलिए अगर आप भी चाहती हैं कि घर के जैंट्स भी किचन में आप की हैल्प करें, तो किचन को इस लायक बनाना आप की ही जिम्मेदारी है.

आइए, जानें कैसे कुछ कुछ समय में अपनी किचन में क्या बदलाव लाएं कि लोग वहां से भागे नहीं बल्कि उन का भी किचन में काम करने का मन मचल उठे :

पुराने बर्तनों के हैंडल ढीले या टूटे हुए न हों

पुराने बर्तनों के हैंडल ढीले या टूटे हुए होना एक आम समस्या है और यह खाना बनाते समय काफी खतरनाक हो सकता है. इस से बर्तन गिर सकता है, गरम खाना फैल सकता है या जलने का खतरा हो सकता है. ऐसे बर्तन को तुरंत इस्तेमाल करना बंद कर दें. यह भले ही आप का पसंदीदा बर्तन हो, लेकिन सुरक्षा सब से पहले है.

गैस पाइप की ऐक्सपायरी डेट चैक कर लें

ज्यादातर गैस पाइप पर उस की मैन्युफैक्चरिंग डेट या चेंज बीफोर की तारीख छपी होती है. वैसे भी आमतौर पर गैस पाइप की लाइफ 18 से 24 महीने (डेढ़ से 2 साल) ही होती है. अगर आप को पाइप पर कोई ऐसी तारीख दिखती है जो इस अवधि से ज्यादा पुरानी हो गई है, तो उसे बदल देना चाहिए. कुछ पाइपों पर सीधे ऐक्सपायरी डेट भी लिखी हो सकती है. इस के अनुसार इन्हें बदल दें.

पाइप में दरारें या कट होना, पाइप का सख्त या कड़ा हो जाना, पाइप का रंग बदलना या फीका पड़ना, पाइप पर तेल या ग्रीस के दाग होना, पाइप से गैस की गंध आना जैसे कोई भी चीज नजर आएं तो पाइप को तुरंत बदल दें.

नौनस्टिक पैन को बदलना जरूरी

खाना बनाने में नौनस्टिक पैन का इस्तेमाल बढ़ गया है लेकिन ऐसे बर्तनों को लंबे समय तक अगर इस्तेमाल करें तो इन की कोटिंग निकलने लगती है और ये बर्तन खाना बनाने लायक नहीं बचते. ऐसे में इन को किचन से दूर करना सही विकल्प है क्योंकि ये सेहत के लिए हानिकारक हो सकते हैं. पुराने और घिसे हुए कुकवेयर, जैसे पैन और अन्य बर्तनों को समयसमय पर बदलना चाहिए.

नौनस्टिक कोटिंग का उखड़ना या स्क्रैच होना खाना पकाने की गुणवत्ता को प्रभावित कर सकता है, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है. इसलिए इन्हें समयसमय पर बदल लें. साथ ही कोटिंग उतरे हुए बर्तनों में खाना बनाने से खाना उन में चिपकता है और जलने लगता है, जिस वजह से हरकोई उन में खाना नहीं बना सकता. आपका हाथ उन कोटिंग उतरे बर्तनों पर सैट होगा पर हरकोई उन्हें इस्तेमाल कर लेंगे यह जरूरी नहीं है, इसलिए उन्हें बदल दें.

चौपिंग बोर्ड का खराब होना

कई बार आप ने देखा होगा कि जिस चौपिंग बोर्ड पर आप सब्जी काटती हैं वह आप को ठीक लगता है लेकिन कोई और उसे हाथ भी नहीं लगाना चाहता क्योंकि आप का चौपिंग बोर्ड शायद अब उस लायक रहा ही नहीं.

दरअसल, किचन में सब्जी और फल काटने के लिए जो टूल इस्तेमाल किए जाते हैं जैसे चौपिंग बोर्ड, यह अधिक इस्तेमाल से भी खराब नहीं होता है. ऐसे में इन्हें लोग लंबे समय तक किचन में रखते हैं. वैसे इस की शैल्फलाइफ 1 साल से अधिक नहीं होती तो इतने समय बाद इसे किचन से दूर कर दें. वैसे भी चौपिंग बोर्ड को समयसमय पर बदलना आवश्यक है, खासकर तब जब इस में खरोंच या दरारें आ गई हों. दरारें और खरोंच के बीच बैक्टीरिया या छोटे कीड़े अपना घर बना सकते हैं.

प्लास्टिक के फूड स्टोरेज कंटेनर

समय के साथ प्लास्टिक के कंटेनर दागदार हो सकते हैं और उन में गंध आ सकती है या वे कमजोर पड़ सकते हैं. खाने की स्वच्छता और ताजगी बनाए रखने के लिए इन्हें साल में एक बार बदल देना चाहिए. अगर आप ज्यादा टिकाऊ विकल्प चाहते हैं, तो कांच का कंटेनर बेहतरीन विकल्प है.

बर्तन साफ करने वाले स्पंज भी बदबू मारने लगते हैं

रसोई की महत्वपूर्ण चीजों में बर्तन साफ करने वाले स्पंज शामिल हैं जिन से बर्तन साफ किए जाते हैं. इन से काउंटरटौप या गैस चूल्हे भी साफ किए जाते हैं. ऐसे में इन में बैक्टीरिया होना लाजिमी है. इन स्पंज को हर 2 हफ्तों में बदलना सही होगा.

गंदा और पुराना स्पंज खाना पकाने के उपकरण को संक्रमित कर सकता है. साथ ही, यह हमेशा गीला रहता है, जिस के कारण इस में आसानी से बैक्टीरिया पनपने लगते हैं.

किचन टौवेल

किचन टौवेल का नियमित उपयोग खाने के बचे हुए अंश और गंदगी को समेटने के लिए किया जाता है. इसे हर रोज धोना चाहिए और पुराना होने पर बदलना चाहिए. इस टौवेल से हम अपने हाथ भी पोंछते हैं और साफ बर्तन भी पोंछते हैं. लेकिन यह गंदे होंगे तो साफ बर्तन ही नहीं, बल्कि आप के हाथ भी स्मैली हो जाएंगे और ऐसी किचन में जाने से पहले कोई भी 10 बार सोचेगा. इसलिए इसे साफ रखें और समयसमय पर बदल दें.

डस्टबीन पर नजर रखें

अगर आप को लगता है कि बस डस्टबीन का पौलिथीन चैंज कर लेना ही काफी है, तो आप गलत हैं.

डस्टबीन बदले काफी समय हो गया है, यह पुराना हो गया, टूट तो नहीं रहा और उस में बैक्टीरिया तो नहीं पनप रहा, अगर ऐसा कुछ नहीं है तब भी साल में 1 बार डस्टबीन बदल लें. यह बहुत ज्यादा महंगा नहीं है.

कैबिनेट भी रिपेयर करा लें

अधिक समय से रसोईघर में कोई ध्यान नहीं दिया जाता है, तो किचन के कैबिनेट टूटने लगते हैं. इसलिए समय पर रिनोवेट कर लेना चाहिए. इस से किचन का लुक भी अच्छा होगा.

कौफी मेकर है काम की चीज

हस्बैंड काफी पीने के शौकीन हैं और दिन कई बार वे आप को कौफी बनाने को ले कर परेशान करते हैं तो इस का हल है. इस बार आप अपनी किचन के लिए एक कौफी मेकर खरीदें. बेसिक से ले कर ऐडवांस तक कई तरह के कौफी मेकर उपलब्ध हैं. आप अपनी जरूरत के हिसाब से चुनें. कौफी मेकर को किचन आइलैंड के किसी भी कोने में लगाएं और जब भी आप के हस्बैंड का मन करेगा वे आप को तंग नहीं करेंगे बल्कि खुद भी कौफी पीएंगे और आप को भी पीने देंगे.

मल्टीकुकर को किचन में जगह दें

मल्टीकुकर किचन में जरूर होना चाहिए क्योंकि इस में खाना बनाना आसान है. यह कई विशेषताओं और अटैचमेंट के साथ आते हैं जो सब्जियों और अन्य चीजों को भाप में पकाने में मदद करते हैं. आप को बस सामग्री और पानी डालना होगा, टाइमर चुनना होगा और बिना किसी परेशानी के खाना बन कर तैयार हो जायेगा. इस में आयल भी कम लगता है. इसे किसी भी कैबिनेट में स्टोर करें या डेली यूज के लिए किचन आइलैंड पर रखें.

वैजिटेबल पीलर और ग्रेटर (छीलने और कद्दूकस करने वाला)

इन की धार समय के साथ कम हो जाती है, जिस से काम मुश्किल हो जाता है. इसलिए इन्हें समयसमय पर बदलें.

मापने वाले कप और चम्मच (प्लास्टिक वाले)

प्लास्टिक के कप और चम्मच समय के साथ खराब हो सकते हैं. उन पर दाग लग सकते हैं या टूट सकते हैं, इसलिए इन्हें साल में 1 बार बदलना अच्छा है.

सिलिकौन स्पैटुला

सिलिकौन स्पैटुला का लगातार इस्तेमाल इन के घिसने और टूटने का कारण बन सकता है. इसलिए जब स्पैटुला घिस जाता है, तो उसे बदलना चाहिए. अगर इन का रंग बदल गया है, ये चिपचिपे हो गए हैं या टूट रहे हैं, तो इन्हें हर साल बदलना चाहिए.

चाकू को नजरअंदाज न करें

अगर आप चाकू का बहुत उपयोग करते हैं और यह बारबार धार लगाने के बाद भी तेज नहीं हो रहा, तो साल में 1 बार बदलने पर विचार करें.

चकलाबेलन भी बदलना जरूरी है

अगर चकले पर बहुत ज्यादा गहरे कट या दरारें आ गई हैं, तो उन में आटा या खाने के कण फंस सकते हैं, जिस से बैक्टीरिया पनप सकते हैं. ऐसे में इसे बदलना बेहतर है. इस के आलावा अगर चकले की सतह घिस कर या टेढ़ी हो कर असमान हो गई है, तो रोटी बेलना मुश्किल हो जाएगा और वह ठीक से गोल नहीं बनेगी.

कई बार लकड़ी के चकले से अजीब सी गंध आने लगी है जो धोने पर भी नहीं जाती, तो इस का मतलब है कि उस में नमी या बैक्टीरिया जमा हो गए है. ऐसे में नया चकलाबेलन लेना अच्छा रहेगा.

पुराने सामान का अंबार न लगाएं

कई लोगों की आदत होती है कि वे नया सामान ले लेते हैं लेकिन फिर भी पुराना सामान नहीं फेंकते. इस से किचन में बेमतलब के सामानों का अंबार लग जाता है, जो दिखने में बुरा तो लगता ही है साथ ही बारबार नए सामान की जगह वहीं पुराना सामान हाथ में आता है तो असुविधा होती है. इसलिए पुराना सामान फेंक कर ही नया सामान लें वार्ना नया सामान लेने का भी कोई फायदा नहीं होगा. Festival Special

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