Hindi Stories Online : कालगर्ल – क्यों पायल का दीवाना हो गया था वह

Hindi Stories Online : मैं दफ्तर के टूर पर मुंबई गया था. कंपनी का काम तो 2 दिन का ही था, पर मैं ने बौस से मुंबई में एक दिन की छुट्टी बिताने की इजाजत ले ली थी. तीसरे दिन शाम की फ्लाइट से मुझे कोलकाता लौटना था. कंपनी ने मेरे ठहरने के लिए एक चारसितारा होटल बुक कर दिया था. होटल काफी अच्छा था. मैं चैकइन कर 10वीं मंजिल पर अपने कमरे की ओर गया.

मेरा कमरा काफी बड़ा था. कमरे के दूसरे छोर पर शीशे के दरवाजे के उस पार लहरा रहा था अरब सागर. थोड़ी देर बाद ही मैं होटल की लौबी में सोफे पर जा बैठा. मैं ने वेटर से कौफी लाने को कहा और एक मैगजीन उठा कर उस के पन्ने यों ही तसवीरें देखने के लिए पलटने लगा. थोड़ी देर में कौफी आ गई, तो मैं ने चुसकी ली. तभी एक खूबसूरत लड़की मेरे बगल में आ कर बैठी. वह अपनेआप से कुछ बके जा रही थी. उसे देख कर कोई भी कह सकता था कि वह गुस्से में थी.

मैं ने थोड़ी हिम्मत जुटा कर उस से पूछा, ‘‘कोई दिक्कत?’’

‘‘आप को इस से क्या लेनादेना? आप अपना काम कीजिए,’’ उस ने रूखा सा जवाब दिया.

कुछ देर में उस का बड़बड़ाना बंद हो गया था. थोड़ी देर बाद मैं ने ही दोबारा कहा, ‘‘बगल में मैं कौफी पी रहा हूं और तुम ऐसे ही उदास बैठी हो, अच्छा नहीं लग रहा है. पर मैं ने ‘तुम’ कहा, तुम्हें बुरा लगा हो, तो माफ करना.’’

‘‘नहीं, मुझे कुछ भी बुरा नहीं लगा. माफी तो मुझे मांगनी चाहिए, मैं थोड़ा ज्यादा बोल गई आप से.’’ इस बार उस की बोली में थोड़ा अदब लगा, तो मैं ने कहा, ‘‘इस का मतलब कौफी पीने में तुम मेरा साथ दोगी.’’ और उस के कुछ बोलने के पहले ही मैं ने वेटर को इशारा कर के उस के लिए भी कौफी लाने को कहा. वह मेरी ओर देख कर मुसकराई. मुझे लगा कि मुझे शुक्रिया करने का उस का यही अंदाज था. वेटर उस के सामने कौफी रख कर चला गया. उस ने कौफी पीना भी शुरू कर दिया था.

लड़की बोली, ‘‘कौफी अच्छी है.’’

उस ने जल्दी से कप खाली करते हुए कहा, ‘‘मुझे चाय या कौफी गरम ही अच्छी लगती है.’’

मैं भी अपनी कौफी खत्म कर चुका था. मैं ने पूछा, ‘‘किसी का इंतजार कर रही हो?’’

उस ने कहा, ‘‘हां भी, न भी. बस समझ लीजिए कि आप ही का इंतजार है,’’ और बोल कर वह हंस पड़ी. मैं उस के जवाब पर थोड़ा चौंक गया. उसी समय वेटर कप लेने आया, तो मुसकरा कर कुछ इशारा किया, जो मैं नहीं समझ पाया था.

मैं ने लड़की से कहा, ‘‘तुम्हारा मतलब मैं कुछ समझा नहीं.’’

‘‘सबकुछ यहीं जान लेंगे. क्यों न आराम से चल कर बातें करें,’’ बोल कर वह खड़ी हो गई.

फिर जब हम लिफ्ट में थे, तब मैं ने फिर पूछा, ‘‘तुम गुस्से में क्यों थीं?’’

‘‘पहले रूम में चलें, फिर बातें होंगी.’’ हम दोनों कमरे में आ गए थे. वह अपना बैग और मोबाइल फोन टेबल पर रख कर सोफे पर आराम से बैठ गई. मैं ने फिर उस से पूछा कि शुरू में वह गुस्से में क्यों थी, तो जवाब मिला, ‘‘इसी फ्लोर पर दूसरे छोर के रूम में एक बूढ़े ने मूड खराब कर दिया.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘बूढ़ा 50 के ऊपर का होगा. मुझ से अननैचुरल डिमांड कर रहा था. उस ने कहा कि इस के लिए मुझे ऐक्स्ट्रा पैसे देगा. यह मेरे लिए नामुमकिन बात थी और मैं ने उस के पैसे भी फेंक दिए.’’ मुझे तो उस की बातें सुन कर एक जोर का झटका लगा और मुझे लौबी में वेटर का इशारा समझ में आने लगा था. फिर भी उस से नाम पूछा, तो वह उलटे मुझ से ही पूछ बैठी, ‘‘आप मुंबई के तो नहीं लगते. आप यहां किसलिए आए हैं और मुझ से क्या चाहते हैं?’’

‘‘मैं तो बस टाइम पास करना चाहता हूं. कंपनी के काम से आया था. वह पूरा हो गया. अब जो मरजी वह करूं. मुझे कल शाम की फ्लाइट से लौटना है. पर अपना नाम तो बताओ?’’

‘‘मुझे कालगर्ल कहते हैं.’’

‘‘वह तो मैं समझ सकता हूं, फिर भी तुम्हारा नाम तो होगा. हर बार कालगर्ल कह कर तो नहीं पुकार सकता. लड़की दिलचस्प लगती हो. जी चाहता है कि तुम से ढेर सारी बातें करूं… रातभर.’’

‘‘आप मुझे प्रिया नाम से पुकार सकते हैं, पर आप रातभर बातें करें या जो भी, रेट तो वही होगा. पर बूढ़े वाली बात नहीं, पहले ही बोल देती हूं,’’ लड़की बोली. मैं भी अब उसे समझने लगा था. मुझे तो सिर्फ टाइम पास करना था और थोड़ा ऐसी लड़कियों के बारे में जानने की जिज्ञासा थी. मैं ने उस से पूछा, ‘‘कुछ कोल्डड्रिंक वगैरह मंगाऊं?’’

‘‘मंगा लो,’’ प्रिया बोली, ‘‘हां, कुछ सींक कबाब भी चलेगा. तब तक मैं नहा लेती हूं.’’

‘‘बाथरूम में गाउन भी है. यह तो और अच्छी बात है, क्योंकि हमाम से निकल कर लड़कियां अच्छी लगती हैं.’’

‘‘क्यों, अभी अच्छी नहीं लग रही क्या?’’ प्रिया ने पूछा.

‘‘नहीं, वह बात नहीं है. नहाने के बाद और अच्छी लगोगी.’’ मैं ने रूम बौय को बुला कर कबाब लाने को कहा. प्रिया बाथरूम में थी. थोड़ी देर बाद ही रूम बौय कबाब ले कर आ गया था. मैं ने 2 लोगों के लिए डिनर भी और्डर कर दिया. इस के बाद मैं न्यूज देखने लगा, तभी बाथरूम से प्रिया निकली. दूधिया सफेद गाउन में वह सच में और अच्छी दिख रही थी. गाउन तो थोड़ा छोटा था ही, साथ में प्रिया ने उसे कुछ इस तरह ढीला बांधा था कि उस के उभार दिख रहे थे. प्रिया सोफे पर आ कर बैठ गई.

‘‘मैं ने कहा था न कि तुम नहाने के बाद और भी खूबसूरत लगोगी.’’

प्रिया और मैं ने कोल्डड्रिंक ली और बीचबीच में हम कबाब भी ले रहे थे. मैं ने कहा, ‘‘कबाब है और शबाब है, तो समां भी लाजवाब है.’’

‘‘अगर आप की पत्नी को पता चले कि यहां क्या समां है, तो फिर क्या होगा?’’

‘‘सवाल तो डरावना है, पर इस के लिए मुझे काफी सफर तय करना होगा. हो सकता है ताउम्र.’’ ‘‘कल शाम की फ्लाइट से आप जा ही रहे हैं. मैं जानना चाहती हूं कि आखिर मर्दों के ऐसे चलन पर पत्नी की सोच क्या होती है.’’

‘‘पर, मेरे साथ ऐसी नौबत नहीं आएगी.’’

‘‘क्यों?’’

मैं ने कहा, ‘‘क्योंकि मैं अपनी पत्नी को खो चुका हूं. 27 साल का था, जब मेरी शादी हुई थी और 5 साल बाद ही उस की मौत हो गई थी, पीलिया के कारण. उस को गए 2 साल हो गए हैं.’’

‘‘ओह, सो सौरी,’’ बोल कर अपनी प्लेट छोड़ कर वह मेरे ठीक सामने आ कर खड़ी हो गई थी और आगे कहा, ‘‘तब तो मुझे आप का मूड ठीक करना ही होगा.’’ प्रिया ने अपने गाउन की डोरी की गांठ जैसे ही ढीला भर किया था कि जो कुछ मेरी आंखों के सामने था, देख कर मेरा मन कुछ पल के लिए बहुत विचलित हो गया था. मैं ने इस पल की कल्पना नहीं की थी, न ही मैं ऐसे हालात के लिए तैयार था. फिर भी अपनेआप पर काबू रखा. तभी डोर बैल बजी, तो प्रिया ने अपने को कंबल से ढक लिया था. डिनर आ गया था. रूम बौय डिनर टेबल पर रख कर चला गया. प्रिया ने कंबल हटाया, तो गाउन का अगला हिस्सा वैसे ही खुला था.

प्रिया ने कहा, ‘‘टेबल पर मेरे बैग में कुछ सामान पड़े हैं, आप को यहीं से दिखता होगा. आप जब चाहें इस का इस्तेमाल कर सकते हैं. आप का मूड भी तरोताजा हो जाएगा और आप के मन को शायद इस से थोड़ी राहत मिले.’’

‘‘जल्दी क्या है. सारी रात पड़ी है. हां, अगर कल दोपहर तक फ्री हो तो और अच्छा रहेगा.’’

इतना कह कर मैं भी खड़ा हो कर उस के गाउन की डोर बांधने लगा, तो वह बोली, ‘‘मेरा क्या, मुझे पैसे मिल गए. आप पहले आदमी हैं, जो शबाब को ठुकरा रहे हैं. वैसे, आप ने दोबारा शादी की? और आप का कोई बच्चा?’’

वह बहुत पर्सनल हो चली थी, पर मुझे बुरा नहीं लगा था. मैं ने उस से पूछा, ‘‘डिनर लोगी?’’

‘‘क्या अभी थोड़ा रुक सकते हैं? तब तक कुछ बातें करते हैं.’’

‘‘ओके. अब पहले तुम बताओ. तुम्हारी उम्र क्या है? और तुम यह सब क्यों करती हो?’’

‘‘पहली बात, लड़कियों से कभी उम्र नहीं पूछते हैं…’’

मैं थोड़ा हंस पड़ा, तभी उस ने कहना शुरू किया, ‘‘ठीक है, आप को मैं अपनी सही उम्र बता ही देती हूं. अभी मैं 21 साल की हूं. मैं सच बता रही हूं.’’

‘‘और कुछ लोगी?’’

‘‘अभी और नहीं. आप के दूसरे सवाल का जवाब थोड़ा लंबा होगा. वह भी बता दूंगी, पर पहले आप बताएं कि आप ने फिर शादी की? आप की उम्र भी ज्यादा नहीं लगती है.’’ मैं ने उस का हाथ अपने हाथ में ले लिया और कहा, ‘‘मैं अभी 34 साल का हूं. मेरा कोई बच्चा नहीं है. डाक्टरों ने सारे टैस्ट ले कर के बता दिया है कि मुझ में पिता बनने की ताकत ही नहीं है. अब दूसरी शादी कर के मैं किसी औरत को मां बनने के सुख के लिए तरसता नहीं छोड़ सकता.’’ इस बार प्रिया मुझ से गले मिली और कहा, ‘‘यह तो बहुत बुरा हुआ.’’

मैं ने उस की पीठ थपथपाई और कहा, ‘‘दुनिया में सब को सबकुछ नहीं मिलता. पर कोई बात नहीं, दफ्तर के बाद मैं कुछ समय एक एनजीओ को देता हूं. मन को थोड़ी शांति मिलती है. चलो, डिनर लेते हैं.’’ डिनर के बाद मुझे आराम करने का मन किया, तो मैं बैड पर लेट गया. प्रिया भी मेरे साथ ही बैड पर आ कर कंबल लपेट कर बैठ गई थी. वह मेरे बालों को सहलाने लगी.

‘‘तुम यह सब क्यों करती हो?’’ मैं ने पूछा.

‘‘कोई अपनी मरजी से यह सब नहीं करता. कोई न कोई मजबूरी या वजह इस के पीछे होती है. मेरे पापा एक प्राइवेट मिल में काम करते थे. एक एक्सीडैंट में उन का दायां हाथ कट गया था. कंपनी ने कुछ मुआवजा दे कर उन की छुट्टी कर दी. मां भी कुछ पढ़ीलिखी नहीं थीं. मैं और मेरी छोटी बहन स्कूल जाते थे. ‘‘मां 3-4 घरों में खाना बना कर कुछ कमा लेती थीं. किसी तरह गुजर हो जाती थी, पर पापा को घर बैठे शराब पीने की आदत पड़ गई थी. जमा पैसे खत्म हो चले थे…’’ इसी बीच रूम बौय डिनर के बरतन लेने आया और दिनभर के बिल के साथसाथ रूम के बिलों पर भी साइन करा कर ले गया.

प्रिया ने आगे कहा, ‘‘शराब के कारण मेरे पापा का लिवर खराब हुआ और वे चल बसे. मेरी मां की मौत भी एक साल के अंदर हो गई. मैं उस समय 10वीं जमात पास कर चुकी थी. छोटी बहन तब छठी जमात में थी. पर मैं ने पढ़ाई के साथसाथ ब्यूटीशियन का भी कोर्स कर लिया था. ‘‘हम एक छोटी चाल में रहते थे. मेरे एक रिश्तेदार ने ही मुझे ब्यूटीपार्लर में नौकरी लगवा दी और शाम को एक घर में, जहां मां काम करती थी, खाना बनाती थी. पर उस पार्लर में मसाज के नाम पर जिस्मफरोशी भी होती थी. मैं भी उस की शिकार हुई और इस दुनिया में मैं ने पहला कदम रखा था,’’ बोलतेबोलते प्रिया की आंखों से आंसू बहने लगे थे.

मैं ने टिशू पेपर से उस के आंसू पोंछते हुए कहा, ‘‘सौरी, मैं ने तुम्हारी दुखती रगों को बेमतलब ही छेड़ दिया.’’

‘‘नहीं, आप ने मुझे कोई दुख नहीं पहुंचाया है. आंसू निकलने से कुछ दिल का दर्द कम हो गया,’’ बोल कर प्रिया ने आंसू पोंछते हुए कहा, ‘‘पर, यह सब मैं अपनी छोटी बहन को सैटल करने के लिए कर रही हूं. वह भी 10वीं जमात पास कर चुकी है और सिलाईकढ़ाई की ट्रेनिंग भी पूरी कर ली है. अभी तो एक बिजली से चलने वाली सिलाई मशीन दे रखी है. घर बैठेबैठे कुछ पैसे वह भी कमा लेती है.

‘‘मैं ने एक लेडीज टेलर की दुकान देखी है, पर सेठ बहुत पगड़ी मांग रहा है. उसी की जुगाड़ में लगी हूं. यह काम हो जाए, तो दोनों बहनें उसी बिजनेस में रहेंगी…’’ फिर एक अंगड़ाई ले कर उस ने कहा, ‘‘मैं आप को बोर कर रही हूं न? आप ने तो मुझे छुआ भी नहीं. आप को मुझ से कुछ चाहिए तो कहें.’’ मैं ने कहा, ‘‘अभी सारी रात पड़ी है, मुझे अभी कोई जल्दी नहीं. जब कोई जरूरत होगी कहूंगा. पर पार्लर से होटल तक तुम कैसे पहुंचीं?’’

‘‘पार्लर वाले ने ही कहा था कि मैं औरों से थोड़ी अच्छी और स्मार्ट हूं, थोड़ी अंगरेजी भी बोल लेती हूं. उसी ने कहा था कि यहां ज्यादा पैसा कमा सकती हो. और पार्लरों में पुलिस की रेड का डर बना रहता है. फिर मैं होटलों में जाने लगी.’’ इस के बाद प्रिया ने ढेर सारी बातें बताईं. होटलों की रंगीन रातों के बारे में कुछ बातें तो मैं ने पहले भी सुनी थीं, पर एक जीतेजागते इनसान, जो खुद ऐसी जिंदगी जी रहा है, के मुंह से सुन कर कुछ अजीब सा लग रहा था. इसी तरह की बातों में ही आधी रात बीत गई, तब प्रिया ने कहा, ‘‘मुझे अब जोरों की नींद आ रही है. आप को कुछ करना हो…’’ प्रिया अभी तक गाउन में ही थी. मैं ने बीच में ही बात काटते हुए कहा, ‘‘तुम दूसरे बैड पर जा कर आराम करो. और हां, बाथरूम में जा कर पहले अपने कपड़े पहन लो. बाकी बातें जब तुम्हारी नींद खुले तब. तुम कल दिन में क्या कर रही हो?’’

‘‘मुझ से कोई गुस्ताखी तो नहीं हुई. सर, आप ने मुझ पर इतना पैसा खर्च किया और…’’

‘‘नहींनहीं, मैं तो तुम से बहुत खुश हूं. अब जाओ अपने कपड़े बदल लो.’’ मैं ने देखा कि जिस लड़की में मेरे सामने बिना कुछ कहे गाउन खोलने में जरा भी संकोच नहीं था, वही अब कपड़े पहनने के लिए शर्मसार हो रही थी. प्रिया ने गाउन के ऊपर चादर में अपने पूरे शरीर को इतनी सावधानी से लपेटा कि उस का शरीर पूरी तरह ढक गया था और वह बाथरूम में कपड़े पहनने चली गई. थोड़ी देर बाद वह कपड़े बदल कर आई और मेरे माथे पर किस कर ‘गुडनाइट’ कह कर अपने बैड पर जा कर सो गई. सुबह जब तक मेरी नींद खुली, प्रिया फ्रैश हो कर सोफे पर बैठी अखबार पढ़ रही थी.

मुझे देखा, तो ‘गुड मौर्निंग’ कह कर बोली, ‘‘सर, आप फ्रैश हो जाएं या पहले चाय लाऊं?’’

‘‘हां, पहले चाय ही बना दो, मुझे बैड टी की आदत है. और क्या तुम शाम 5 बजे तक फ्री हो? तुम्हें इस के लिए मैं ऐक्स्ट्रा पैसे दूंगा.’’

‘‘सर, मुझे आप और ज्यादा शर्मिंदा न करें. मैं फ्री नहीं भी हुई तो भी पहले आप का साथ दूंगी. बस, मैं अपनी बहन को फोन कर के बता देती हूं कि मैं दिन में नहीं आ सकती.’’ प्रिया ने अपनी बहन को फोन किया और मैं बाथरूम में चला गया. जातेजाते प्रिया को बोल दिया कि फोन कर के नाश्ता भी रूम में ही मंगा ले. नाश्ता करने के बाद मैं ने प्रिया से कहा, ‘‘मैं ने ऐलीफैंटा की गुफाएं नहीं देखी हैं. क्या तुम मेरा साथ दोगी?’’

‘‘बेशक दूंगी.’’

थोड़ी देर में हम ऐलीफैंटा में थे. वहां तकरीबन 2 घंटे हम साथ रहे थे. मैं ने उसे अपना कार्ड दिया और कहा, ‘‘तुम मुझ से संपर्क में रहना. मैं जिस एनजीओ से जुड़ा हूं, उस से तुम्हारी मदद के लिए कोशिश करूंगा. यह संस्था तुम जैसी लड़कियों को अपने पैरों पर खड़ा होने में जरूर मदद करेगी. ‘‘मैं तो कोलकाता में हूं, पर हमारी ब्रांच का हैडक्वार्टर यहां पर है. थोड़ा समय लग सकता है, पर कुछ न कुछ अच्छा ही होगा.’’ प्रिया ने भरे गले से कहा, ‘‘मेरे पास आप को धन्यवाद देने के सिवा कुछ नहीं है. इसी दुनिया में रात वाले बूढ़े की तरह दोपाया जानवर भी हैं और आप जैसे दयावान भी.’’ प्रिया ने भी अपना कार्ड मुझे दिया. हम दोनों लौट कर होटल आए. मैं ने रूम में ही दोनों का लंच मंगा लिया. लंच के बाद मैं ने होटल से चैकआउट कर एयरपोर्ट के लिए टैक्सी बुलाई. सामान डिक्की में रखा जा चुका था. जब मैं चलने लगा, तो उस की ओर देख कर बोला, ‘‘प्रिया, मुझे तुम्हें और पैसे देने हैं.’’

मैं पर्स से पैसे निकाल रहा था कि इसी बीच टैक्सी का दूसरा दरवाजा खोल कर वह मुझ से पहले जा बैठी और कहा, ‘‘थोड़ी दूर तक मुझे लिफ्ट नहीं देंगे?’’

‘‘क्यों नहीं. चलो, कहां जाओगी?’’

‘‘एयरपोर्ट.’’

मैं ने चौंक कर पूछा, ‘‘एयरपोर्ट?’’

‘‘क्यों, क्या मैं एयर ट्रैवल नहीं कर सकती? और आगे से आप मुझे मेरे असली नाम से पुकारेंगे. मैं पायल हूं.’’ और कुछ देर बाद हम एयरपोर्ट पर थे. अभी फ्लाइट में कुछ वक्त था. उस से पूछा, ‘‘तुम्हें कहां जाना है?’’

‘‘बस यहीं तक आप को छोड़ने आई हूं,’’ पायल ने मुसकरा कर कहा.

मैं ने उसे और पैसे दिए, तो वह रोतेरोते बोली, ‘‘मैं तो आप के कुछ काम न आ सकी. यह पैसे आप रख लें.’’ ‘‘पायल, तुम ने मुझे बहुत खुशी दी है. सब का भला तो मेरे बस की बात नहीं है. अगर मैं एनजीओ की मदद से तुम्हारे कुछ काम आऊं, तो वह खुशी शानदार होगी. ये पैसे तुम मेरा आशीर्वाद समझ कर रख लो.’’ और मैं एयरपोर्ट के अंदर जाने लगा, तो उस ने झुक कर मेरे पैरों को छुआ. उस की आंखों से आंसू बह रहे थे, जिन की 2 बूंदें मेरे पैरों पर भी गिरीं. मैं कोलकाता पहुंच कर मुंबई और कोलकाता दोनों जगह के एनजीओ से लगातार पायल के लिए कोशिश करता रहा. बीचबीच में पायल से भी बात होती थी. तकरीबन 6 महीने बाद मुझे पता चला कि एनजीओ से पायल को कुछ पैसे ग्रांट हुए हैं और कुछ उन्होंने बैंक से कम ब्याज पर कर्ज दिलवाया है. एक दिन पायल का फोन आया. वह भर्राई आवाज में बोली, ‘सर, आप के पैर फिर छूने का जी कर रहा है. परसों मेरी दुकान का उद्घाटन है. यह सब आप की वजह से हुआ है. आप आते तो दोनों बहनों को आप के पैर छूने का एक और मौका मिलता.’

‘‘इस बार तो मैं नहीं आ सकता, पर अगली बार जरूर मुंबई आऊंगा, तो सब से पहले तुम दोनों बहनों से मिलूंगा.’’ आज मुझे पायल से बात कर के बेशुमार खुशी का एहसास हो रहा है और मन थोड़ा संतुष्ट लग रहा है.

Famous Hindi Stories : साथी

Famous Hindi Stories :  वे 9 थे. 9 के 9 गूंगे-बहरे. वे न तो सुन सकते थे, न ही बोल सकते थे. पर वे अपनी इस हालत से न तो दुखी थे, न ही परेशान. सभी खुशी और उमंग से भरे हुए थे और खुशहाल जिंदगी गुजार रहे थे. वजह, सब के सब पढ़ेलिखे और रोजगार से लगे हुए थे. अनंत व अनिल रेलवे की नौकरी में थे, तो विकास और विजय बैंक की नौकरी में. प्रभात और प्रभाकर पोस्ट औफिस में थे, तो मुकेश और मुरारी प्राइवेट फर्मों में काम करते थे. 9वां अवधेश था. वह फलों का बड़े पैमाने पर कारोबार करता था.

अवधेश ही सब से उम्रदराज था और अमीर भी. जब उन में से किसी को रुपएपैसों की जरूरत होती थी, तो वे अवधेश के पास ही आते थे. अवधेश भी दिल खोल कर उन की मदद करता था. जरूरत पूरी होने के बाद जैसे ही उन के पास पैसा आता था, वे अवधेश को वापस कर देते थे. वे 9 लोग आपस में गहरे दोस्त थे और चाहे कहीं भी रहते थे, हफ्ते के आखिर में पटना की एक चाय की दुकान पर जरूर मिलते थे. पिछले 5 सालों से यह सिलसिला बदस्तूर चल रहा था.

वे सारे दोस्त शादीशुदा और बालबच्चेदार थे. कमाल की बात यह थी कि उन की पत्नियां भी मूक और बधिर थीं. पर उन के बच्चे ऐसे न थे. वे सामान्य थे और सभी अच्छे स्कूलों में पढ़ रहे थे.

सभी दोस्त शादीसमारोह, पर्वत्योहार में एकदूसरे के घर जाते थे और हर सुखदुख में शामिल होते थे. वक्त की रफ्तार के साथ उन की जिंदगी खुशी से गुजर रही थी कि अचानक उन सब की जिंदगी में एक तूफान उठ खड़ा हुआ.

इस बार जब वे लोग उस चाय की दुकान पर इकट्ठा हुए, तो उन में अवधेश नहीं था. उस का न होना उन सभी के लिए चिंता की बात थी. शायद यह पहला मौका था, जब उन का कोई दोस्त शामिल नहीं हुआ था.

वे कई पल तक हैरानी से एकदूसरे को देखते रहे, फिर अनंत ने इशारोंइशारों में अपने दूसरे दोस्तों से इस की वजह पूछी. पर उन में से किसी को इस की वजह मालूम न थी.

वे कुछ देर तक तो खामोश एकदूसरे को देखते रहे, फिर अनिल ने अपनी जेब से पैड और पैंसिल निकाली और उस पर लिखा, ‘यह तो बड़े हैरत की बात है कि आज अवधेश हम लोगों के बीच नहीं है. जरूर उस के साथ कोई अनहोनी हुई है.’

लिखने के बाद उस ने पैड अपने दोस्तों की ओर बढ़ाया. उसे पढ़ने के बाद प्रभात ने अपने पैड पर लिखा,

‘पर क्या?’

‘इस का तो पता लगाना होगा.’

‘पर कैसे?’

‘अवधेश को मैसेज भेजते हैं.’

सब ने रजामंदी में सिर हिलाया. अवधेश को मैसेज भेजा गया. सभी दोस्त मैसेज द्वारा ही एकदूसरे से बातकरते थे, जब वे एकदूसरे से दूर होते थे. पर मैसेज भेजने के बाद जब घंटों बीत गए और अवधेश का कोई जवाब न आया, तो सभी घबरा से गए.

सभी ने तय किया कि अवधेश के घर चला जाए. अवधेश का घर वहां से तकरीबन 5 किलोमीटर दूर था.

अवधेश के आठों दोस्त उस के घर पहुंचे. उन्होंने जब उस के घर का दरवाजा खटखटाया, तो अवधेश की पत्नी आभा ने दरवाजा खोला. दरवाजे पर अपने पति के सारे दोस्तों को देखते ही आभा की आंखें आंसुओंसे भरती चली गईं.

आभा को यों रोते देख उन के मन  में डर के बादल घुमड़ने लगे. उन्होंने इशारोंइशारों में पूछा, ‘अवधेश है घर पर?’

आभा ने सहमति में सिर हिलाया, फिर उन्हें ले कर अपने बैडरूम में आई. बैडरूम में अवधेश चादर ओढ़े आंखें बंद किए लेटा था.

आभा ने उसे झकझोरा. उस ने सभी दोस्तों को अपने कमरे में देखा, तो उस की आंखों में हैरानी के भाव उभरे. वह उठ कर बिछावन पर बैठ गया. पर उस की आंखों में उभरे हैरानी के भाव कुछ देर ही रहे, फिर उन में वीरानी झांकने लगी. वह खालीखाली नजरों से अपने दोस्तों को देखने लगा. ऐसा करते हुए उस के चेहरे पर उदासी और निराशा के गहरे भाव छाए हुए थे.

उस के दोस्त कई पल तक बेहाल अवधेश को देखते रहे, फिर विजय ने उस से इशारोंइशारों में पूछा, ‘यह तुम ने अपना क्या हाल बना रखा है? हुआ क्या है? आज तुम हम से मिलने भी नहीं आए?’

अवधेश ने कोई जवाब नहीं दिया. वह बस खालीखाली नजरों से उन्हें देखता रहा. उस के बाकी दोस्तों ने भी उस की इस बेहाली की वजह पूछी, पर वह खामोश रहा.

अपनी हर कोशिश में नाकाम रहने पर उन्होंने आभा से पूछा, तो उस ने पैड पर लिखा, ‘मुझे भी इन की खामोशी और उदासी की पूरी वजह मालूम नहीं, जो बात मालूम है, उस के मुताबिक इन्हें अपने कारोबार में घाटा हुआ है.’

‘क्या यह पहली बार हुआ है?’ विकास ने अपने पैड पर लिखा.

‘नहीं, ऐसा कई बार हुआ है, पर इस से पहले ये कभी इतना उदास और निराश नहीं हुए.’

‘फिर, इस बार क्या हुआ है?’

‘लगता है, इस बार घाटा बहुत ज्यादा हुआ है.’

‘यही बात है?’ लिख कर विकास ने पैड अवधेश के सामने किया.

पर अवधेश चुप रहा. सच तो यह था कि कारोबार में लगने वाले जबरदस्त घाटे ने उस की कमर तोड़ दी थी और वह गहरे डिप्रैशन का शिकार हो गया था.

जब सारे दोस्तों ने उस पर मिल कर दबाव डाला, तो अवधेश ने पैड पर लिखा, ‘घाटा पूरे 20 लाख का है.’

जब अवधेश ने पैड अपने दोस्तों के सामने रखा, तो उन की भी आंखें फटने को हुईं.

‘पर यह हुआ कैसे…?’ अनंत ने अपने पैड पर लिखा.

एक बार जब अवधेश ने खामोशी तोड़ी, तो फिर सबकुछ बताता चला गया. उस ने एक त्योहार पर बाहर से 20 लाख रुपए के फलों की बड़ी खेप मंगवाई थी. पर कश्मीर से आने वाले फलों के ट्रक बर्फ खिसकने के चलते 15 दिनों तक जाम में फंस गए और फल बरबाद हो गए.

‘तो क्या तुम ने इतने बड़े सौदे का इंश्योरैंस नहीं कराया था?’

‘नहीं. चूंकि यह कच्चा सौदा है, सो इंश्योरैंस कंपनियां अकसर ऐसे सौदे का इंश्योरैंस नहीं करतीं.’

‘पर ट्रांसपोर्ट वालों पर तो इस की जिम्मेदारी आती है. क्या वे इस घाटे की भरपाई नहीं करेंगे?’

‘गलती अगर उन की होती, तो उन पर यह जिम्मेदारी जाती, पर कुदरती मार के मामले में ऐसा नहीं होता.’

‘और जिन्होंने यह माल भेजा था?’

‘उन की जिम्मेदारी तो तभी खत्म हो जाती है, जब वे माल ट्रकों में भरवा कर रवाना कर देते है.’

‘और माल की पेमेंट?’

‘पेमेंट तो तभी करनी पड़ती है, जब इस का और्डर दिया जाता है. थोड़ीबहुत पेमेंट बच भी जाती है, तो माल रवाना होते ही उस का चैक भेज दिया जाता है.’

‘पेमेंट कैसे होती है?’

‘ड्राफ्ट से.’

‘क्या तू ने इस माल का पेमेंट कर दिया था?’

‘हां.’

‘ओह…’

‘तू यहां घर पर है. दुकान और गोदाम का क्या हुआ?’

‘बंद हैं.’

‘बंद हैं, पर क्यों?’

‘तो और क्या करता. वहां महाजन पहुंचने लगे थे?’

‘क्या मतलब?’

‘इस सौदे का तकरीबन आधा पैसा महाजनों का ही था.’

‘यानी 10 लाख?’

‘हां.’

इस खबर से सब को सांप सूंघ गया. कमरे में एक तनावभरी खामोशी छा गई. काफी देर बाद अनंत ने यह खामोशी तोड़ी. उस ने पैड पर लिखा, ‘पर इस तरह से दुकान और गोदाम बंद कर देने से क्या तेरी समस्या का समाधान हो जाएगा?’

‘पर दुकान खोलने पर महाजनों का तकाजा मेरा जीना मुश्किल कर देगा.’

‘ऐसे में वे तकाजा करना छोड़ देंगे क्या?’

‘नहीं, और मेरी चिंता की सब से बड़ी वजह यही है. उन में से कुछ तो घर पर भी पहुंचने लगे हैं. अगर कुछ दिन तक उन का पैसा नहीं दिया गया, तो वे कड़े कदम भी उठा सकते हैं.’

‘जैसे?’

‘वे अदालत का दरवाजा खटखटा सकते हैं. मुझे जेल भिजवा सकते हैं.’

मामला सचमुच गंभीर था. बात अगर थोड़े पैसों की होती, तो शायद वे कुछ कर सकते थे, पर मामला 20 लाख रुपयों का था. सो उन का दिमाग काम नहीं कर रहा था. पर इस बड़ी समस्या का कुछ न कुछ हल निकालना ही था, सो अनंत ने लिखा, ‘अवधेश, इस तरह निराश होने से कुछ न होगा. तू ऐसा कर कि महाजनों को अगले रविवार अपने घर बुला ले. हम मिलबैठ कर इस समस्या का कोई न कोई हल निकालने की कोशिश करेंगे.’

अगले रविवार को अवधेश के सारे दोस्त उस के ड्राइंगरूम में थे. 4 महाजन भी थे. अवधेश एक तरफ पड़ी कुरसी पर चुपचाप सिर झुकाए बैठा था. उस के पास ही उस की पत्नी आभा व 10 साला बेटा दीपक खड़ा था. थोड़ी देर पहले आभा ने सब को चाय पिलाई थी. आभा के बहुत कहने पर महाजनों ने चाय को यों पीया था, जैसे जहर पी रहे हों.

थोड़ी देर तक सब खामोश बैठे थे. वे एकदूसरे को देखते रहे, फिर एक महाजन, जिस का नाम महेशीलाल था, बोला, ‘‘अवधेश, तुम ने हमें यहां क्यों बुलाया है और ये लोग कौन हैं?’’

दीपक ने उसकी बात इशारों में अपने पिता को समझाई, तो अवधेश ने पैड पर लिखा, ‘ये मेरे दोस्त हैं और मैं इन के जरीए आप के पैसों के बारे में बात करना चाहता हूं.’

महाजनों ने बारीबारी से उस की लिखी इबारत पढ़ी, फिर वे चारों उस के दोस्तों की ओर देखने लगे. बदले में अनंत ने लिख कर अपना और दूसरे लोगों का परिचय उन्हें दिया. उन का परिचय पा कर महाजन हैरान रह गए. एक तो यही बात उन के लिए हैरानी वाली थी कि अवधेश की तरह उस के दोस्त भी मूक और बधिर थे. दूसरे, वे इस बात से हैरान थे कि सब के सब अच्छी नौकरियों में लगे हुए थे.

चारों महाजन कई पल तक हैरानी से उन्हें देखते रहे, फिर महेशीलाल ने लिखा, ‘हमें यह जान कर खुशी भी हुई और हैरानी भी कि आप अपने दोस्त की मदद करना चाहते हैं. पर हम करोबारी हैं. पैसों के लेनदेन का कारोबार करते हैं. सो, आप के दोस्तों ने कारोबार के लिए हम से जो पैसे लिए थे, वे हमें वापस चाहिए.’

‘आप अवधेश के साथ कितने दिनों से यह कारोबार कर रहे हैं?’ अनंत ने लिखा.

‘3 साल से.’

‘क्या अवधेश ने इस से पहले कभी पैसे लौटाने में आनाकानी की? कभी इतनी देर लगाई?’

‘नहीं.’

‘तो फिर इस बार क्यों? इस का जवाब आप भी जानते हैं और हम भी. अवधेश का माल जाम में फंस कर बरबाद हो गया और इसे 20 लाख रुपए का घाटा हुआ. आप लोगों के साथ यह कई साल से साफसुथरा कारोबार करता रहा है. अगर इस ने आप लोगों की मदद से लाखों रुपए कमाए हैं, तो आप ने भी इस के जरीए अच्छा पैसा बनाया है. अब जबकि इस पर मुसीबत आई है, तब क्या आप का यह फर्ज नहीं बनता कि आप लोग इस मुसीबत से उबरने में इस की मदद करें? इसे थोड़ी मुहलत और माली मदद दें, ताकि यह इस मुसीबत से बाहर आ सके?’

यह लिखा देख चारों महाजन एकदूसरे का मुंह देखने लगे, फिर महेशीलाल ने लिखा, ‘हम कारोबारी हैं और कारोबार भावनाओं पर नहीं, बल्कि लेनदेन पर चलता है. अवधेश को घाटा हुआ है तो यह उस का सिरदर्द है, हमें तो अपना पैसा चाहिए.’

‘कारोबार भावनाओं पर ही चलता है, यह गलत है. हम भी अपने बैंक से लोगों को कर्ज देते हैं. अगर किसानों की फसल किसी वजह से बरबाद हो जाती है, तो हम कर्ज वसूली के लिए उन्हें कुछ समय देते हैं या फिर हालात काफी बुरे होने पर कर्जमाफी जैसा कदम भी उठाते हैं.

‘आप अगर चाहें, तो अवधेश के खिलाफ केस कर सकते हैं, उसे जेल भिजवा सकते हैं. पर इस से आप को आप का पैसा तो नहीं मिलेगा. दूसरी हालत में हम आप से वादा करते हैं कि आप का पैसा डूबेगा नहीं. हां, उस को चुकाने में कुछ वक्त लग सकता है.’

कमरे का माहौल अचानक तनाव से भर उठा. चारों महाजन कई पल तक एकदूसरे से रायमशवरा करते रहे, फिर महेशीलाल ने लिखा, ‘हम अवधेश को माली मदद तो नहीं, पर थोड़ा समय जरूर दे सकते हैं.’

‘थैंक्यू.’

थोड़ी देर बाद जब महाजन चले गए, तो दोस्तों ने अवधेश की ओर देखा और पैड पर लिखा, ‘अब तू क्याकहता है?’

अवधेश ने जो कहा, उस के अंदर की निराशा को ही झलकाता था. उस का कहना था कि समय मिल जाने से क्या होगा? उन महाजनों का पैसा कैसे लौटाया जाएगा? उस का कारोबार तो चौपट हो गया है. उसे जमाने के लिए पैसे चाहिए और पैसे उस के पास हैं नहीं.

‘हम तुम्हारी मदद करेंगे.’

‘पर कितनी, 5 हजार… 10 हजार. ज्यादा से ज्यादा 50 हजार, पर इस से बात नहीं बनती.’

इस के बाद भी अवधेश के दोस्तों ने उसे काफी समझाया. उसे उस की पत्नी और बच्चों के भविष्य का वास्ता दिया, पर निराशा उस के अंदर यों घर कर गई थी कि वह कुछ करने को तैयार न था.

आखिर में दोस्तों ने अवधेश की पत्नी आभा से बात की. उसे इस बात के लिए तैयार किया कि वह कारोबार संभाले. उन्होंने ऐसे में उसे हर तरह की मदद करने का वादा किया. कोई और रास्ता न देख कर आभा ने हां कर दी.

बैठ चुके कारोबार को खड़ा करना कितना मुश्किल है, यह बात आभा को तब मालूम हुई, जब वह ऐसा करने को तैयार हुई. वह कई बार हताश हुई, कई बार निराश हुई, पर हर बार उस के पति के दोस्तों ने उसे हिम्मत बंधाई.

उन से हिम्मत पा कर आभा दिनरात अपने कारोबार को संभालने में लग गई. फिर पर्वत्योहार के दिन आए. आभा ने फलों की एक बड़ी डील की. उस की मेहनत रंग लाई और उसे 50 हजार रुपए का मुनाफा हुआ.

इस मुनाफे ने अवधेश के निराश मन में भी उम्मीद की किरण जगा दी और वह भी पूरे जोश से कारोबार में लग गया. किस्तों में महाजनों का कर्ज उतारा जाने लगा और फिर वह दिन भी आ गया, जब उन की आखिरी किस्त उतारी जानी थी.

इस मौके पर अवधेश के सारे दोस्त इकट्ठा थे. जगह वही थी, लोग वही थे, पर माहौल बदला हुआ था. पहले अवधेश और आभा के मन में निराशा का अंधेरा छाया हुआ था, पर आज उन के मन में आशा और उमंग की ज्योति थी.

महाजन अपनी आखिरी किस्त ले कर ड्राइंगरूम से निकल गए, तो आभा अवधेश के दोस्तों के सामने आई और उन के आगे हाथ जोड़ दिए. ऐसा करते हुए उस की आंखों में खुशी के आंसू थे.

अवधेश ने पैड पर लिखा, ‘दोस्तो, मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि आप लोगों का यह एहसान कैसे उतारूंगा.’

उस के दोस्त कई पल तक उसे देखते रहे, फिर अनंत ने लिखा, ‘कैसी बातें करता है तू? दोस्त दोस्त पर एहसान नहीं करते, सिर्फ  दोस्ती निभाते हैं और हम ने भी यही किया है.’

थोड़ी देर वहां रह कर वे सारे दोस्त कमरे से निकल गए. आभा कई पल तक दरवाजे की ओर देखती रही, फिर अपने पति के सीने से लग गई.

Payal Kapadia : कांस तक का सफरनामा

Payal Kapadia : पायल कपाडि़या का जन्म उस मुंबई में हुआ, जो बांबे हुआ करता था. 1980 के दशक में जन्मी कपाडि़या आर्थिक उदारीकरण के दौर में बड़ी हुईं. यह वह वक्त था जब देश और खुद उन का शहर मुंबई कई परिवर्तनों से गुजर रहे थे. इस के बाद तकनीक का आगाज हुआ और हर चीज पर मानो पंख लग गए.

इस के बावजूद कपाडि़या के घर में तेजी से अधिक ठहराव को महत्त्व दिया जाता था और इसी महौल में कपाडि़या के सपनों ने आकार लिया. उन के मातापिता ने उन्हें जिज्ञासा की अहमियत सिखाई, अपने सपनों को साकार करने का हौसला दिया और कला के विभिन्न स्वरूपों को अपनाने की छूट दी. यह सीख उन के व्यक्तित्व में आज भी बारीकी से झलकती है.

‘‘मुझे करैक्टर और स्थानिकता आज भी अपनी ओर खींचते हैं,’’ कपाडि़या ने मुझे बताया. हम दोनों दक्षिण मुंबई के एक ईरानी रैस्टोरैंट कैफे डे ला पैक्स में नाश्ता करते  हुए बात कर रहे थे. कपाडि़या का घर वहां से ज्यादा दूर नहीं था.

कपाडि़या की मां नलिनी मालिनी जानीमानी कलाकार हैं, जिन का सिंधी परिवार बंटवारे के वक्त कराची से मुंबई आ कर बसा था. मां मालिनी का प्रभाव कपाडि़या पर बहुत छोटी उम्र से ही पड़ने लगा, ‘‘एक कलाकार मां का होना सौभाग्य है,’’ कपाडि़यां मानती हैं.
यहां तक कि कांस फिल्म महोत्सव में ग्रैंड प्रिक्स पुरस्कार से सम्मानित उन की फिल्म ‘आल वी इमेजिन एज लाइट’ उन की मां के सालों पहले के एक प्रयोगात्मक काम से प्रेरित है, जो कश्मीरीअमेरिकी कवि आगा शाहिद अली से प्रभावित था.

बचपन में कपाडि़या ने अपना बहुत सारा वक्त मां के स्टूडियो में बिताया. वे बताती हैं, ‘‘मैं स्कूल के बाद सीधे मां के स्टूडियो पहुंच जाती थी,’’ मां ने उन के लिए एक ‘मनोरंजन की पेटी’ बना दी ताकि वे व्यस्त रहें.

‘‘आखिरकार वे एक कामकाजी महिला. उस पेटी में पेंट्स, पेस्टल्स, इंक, ओरिगामी और कार्ड हुआ करते थे. बहुत सारी खिचपिच. वह आज भी मेरे पास है,’’ कपाडि़या ने हंसते हुए बताया.

कपाडि़या का कहना है कि उन में चित्रकारी का कोई खास हुनर नहीं था. यानी वे अंगरेजी भाषा में जिन्हें गिफ्टेड आर्टिस्ट कहा जाता है वैसी नहीं थीं, बल्कि मां के नजरिए से उन्हें इस बात में यकीन हुआ कि हर चीज को किस तरह रचनात्मक ढंग से परखा जा सकता है.

कपाडि़या ने याद किया कि एक दिन किचन का पाइप फट गया और पूरे फर्श पर पानी भर गया. कपाडि़या ने कहा, ‘‘मेरी मां यह बताने लगीं कि उस पानी पर लाइट किस तरह करतब कर रही थी और कैसे मैं अपनी कल्पना से कला का निर्माण कर सकती हूं,’’
कपाडि़या ने सीखा कि जिंदगी के हर पहलू में खूबसूरती मौजूद है, बस हमारा नजरिया तय करता है कि क्या हम उस का दीदार कर सकते हैं.

कपाडि़या ने अपने गुजराती पिता से तफरी करना और नईनई जगहों को जाननासमझना सीखा. वे बताती हैं, ‘‘गुजराती में हम इसे ‘राकदोइंग’ कहते हैं,’’
अकसर कपाडि़या पिता के साथ सप्ताहांत में जलेबी और सब्जी खरीदने मंडी जाती थीं. वे कहती हैं, ‘‘मेरी मां के लाख मना करने पर भी वे हमेशा जोश में आ कर बहुत सारी खरीदारी कर लेते थे.’’

कपाडि़या के पिता मनोविश्लेषक थे. इसलिए सपनों का अध्ययन उन के काम का अभिन्न हिस्सा था. उन्होंने कपाडि़या और उन की बड़ी बहन को हट कर सोचने के लिए प्रेरित किया. उन के पिता किस्सागोई में माहिर थे और मुंबई में उन के जीवन की कहानियां, कभीकभी बनावटी होने पर भी मजेदार होती थीं.

कपाडि़या बताती हैं, ‘‘पिता की कहानियों में मुंबई हमेशा ही बड़ा रूमानी शहर मालूम होता था. मुझ में भी यह थोड़ा झलकता है.’’

कपाडि़या के फिल्मी कैरियर की जमीन इसी तरह तैयार हुई. मां उन्हें अकसर फिल्म दिखाने ले जातीं. कपाडि़या ने मां के साथ मां के फिल्म निर्माता दोस्तों, आनंद पटवर्धन और मधुश्री दत्ता की पिक्चरें देखीं.

कपाडि़या बताती हैं, ‘‘मैं उन फिल्मों को बहुत समझ तो नहीं पाती थी लेकिन स्क्रीनिंग के बाद अकसर सवालजवाब का सैशन होता था जिस में क्राफ्ट पर बातें होती थीं. इन चर्चाओं ने मेरे दिमाग पर असर डाला.’’

इस बीच कपाडि़या की मां ने अपने काम का दायरा बढ़ा लिया. यह 1990 के दशक के मध्य की बात है. मालिनी और उन के दोस्त का घर से काम करना कपाडि़या के लिए सहज बात थी. कपाडि़या ने कहा, ‘‘उन का बजट बड़ा नहीं था और वे लोग किराए पर कोई स्टूडियो नहीं ले सकते थे. वे टीवी पर वीएचएस टेप देख कर लौग बनाते थे और हर फिल्म को शौट दर शौट रिकौर्ड करते थे. कपाडि़या के लिए वह सब बहुत रहस्यमयी था जब तक कि मां ने नहीं बताया कि वे फिल्म एडिटिंग कर रहे हैं. कपाडि़या ने कहा, ‘‘यह उन के द्वारा रचित काम का वह पक्ष था जो मेरे काम में भी नजर आता है.’’

मालिनी अपने काम को ले कर बहुत अनुशासित थीं. कपाडि़या ने बताया, ‘‘चाहे कुछ भी हो जाए, चाहे वे बीमार हों, वे हमेशा काम करती रहती थीं. उन से मैं ने परिश्रम करना सीखा. मैं भी इसे बहुत मान्यता देती हूं,’’
कपाडि़या ने बताया, ‘‘जब आप खुद का काम कर रहे होते हैं, खासकर एक महिला हो कर खुद का काम करते हैं, तब आप अन्य कामों में बहुत आसानी से फंस सकते हैं. लेकिन मेरी मां ने हमेशा यह सुनिश्चित किया कि ऐसा न हो.’’

बांबे के मुंबई बन जाने से पहले यह शहर एक मुश्किल दौर से गुजरा और इस दौर की शहर पर अमिट छाप पड़ी. बाबरी मस्जिद गिरा दिए जाने और मुंबई में शृंखलाबद्ध बम धमाकों के बाद, 1992 और 1993 के बीच बांबे में सांप्रदायिक हिंसा हुई.
हिंसा में सैंकड़ो लोगों की मौत हुई और हजारों घायल हुए. 1995 में शिवसेना और भारतीय जनता पार्टी ने मिल कर सरकार बनाई. इस के बाद जल्द बांबे का नाम बदल कर मुंबई कर दिया गया.

इस दौरान कपाडि़या की उम्र बहुत कम थी और वे इन सब बातों के मायने नहीं समझ सकती थीं. वे मुंबई से दूर अपनी बड़ी बहन के साथ आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में स्थित ऋषि वैली स्कूल में पढ़ रही थीं. उन्हें वह स्कूल तुरंत पसंद आ गया, ‘‘वहां 9वीं कक्षा तक परीक्षा नहीं ली जाती थी,’’ उन्होंने बताया.

इस कोएड स्कूल की स्थापना दार्शनिक जिद्दू कृष्णमूर्ति ने 1926 में की थी. यहां देश के अलगअलग भागों से आए विद्यार्थी पढ़ते हैं और इन विद्यार्थियों में कपाडि़या ने अपना समुदाय पाया. स्कूल के शैक्षिक वातावरण ने रचनात्मकता को निखारा. कपाडि़या को याद है कि स्कूल के शिक्षक कला के प्रति बेहद संवेदनशील थे और कला के प्रति झुकाव रखने वाले विद्यार्थियों की मदद करने में आगे रहते थे, ‘‘स्कूल के प्रति उन का लगाव इतना बढ़ गया कि छुट्टियों में भी वे स्कूल में ही अपने दोस्तों के बीच रहना चाहती थीं,’’ उन्होंने बताया.

जब कपाडि़या कालेज की विद्यार्थी के रूप में मुंबई लौटीं, तो वह शहर के साथ पुराना जुड़ाव महसूस नहीं कर सकीं. कला क्षेत्र की अनिश्चितता उन्हें परेशान कर रही थी. वे कहती हैं, ‘‘मैं खुद से यह सवाल कर रही थी कि क्या मैं इस काम के सहारे जीवनयापन कर पाऊंगी.’’

कपाडि़या ने सैंट जेवियर कालेज में अर्थशास्त्र का अध्ययन किया ताकि वे उन नीतिगत बदलावों का अध्ययन कर सकें, जो भारत को बदल रहे थे. उन्होंने बताया कि उन के शिक्षकों ने उन्हें अर्थशास्त्र को एक सिद्धांत तक सीमित न रख कर रोजमर्रा के जीवन के हिस्से के रूप में समझना सिखाया.
समाजशास्त्र के प्रोफैसर फादर अरुण डिसूजा ने कपाडि़या को मुंबई में हो रहे बदलावों को देखने का नजरिया दिया.

ग्रैजुएशन पूरा करने के बाद कपाडि़या ने सोफिया कालेज से मीडिया अध्ययन का कोर्स किया. यहां लेखक जैरी पिंटो पत्रकारिता पढ़ाते थे. पिंटो का उन पर खासा असर हुआ. पिंटो के दिए एक असाइनमैंट के चलते कपाडि़या का मुंबई के उत्तरपश्चिम सबअर्बन से वास्ता पड़ा.
यहीं से शहर के साथ उन के संबंध का एक नया अध्याय प्रारंभ हुआ. वे कहती हैं, ‘‘अब मैं मुंबई को उस तरह से नहीं देख रही थी जिस तरह यहां रहने वाले उसे देखते हैं, बल्कि शहर को ले कर मेरे अंदर बड़ी जिज्ञासा पैदा हो गई थी.’’

इस दौरान कपाडि़या ने फिल्मों के प्रति अपने रुझान को आगे बढ़ाते हुए मुंबई के फिल्म महोत्सव में वालंटियर के रूप में भाग लेना शुरू किया. ऐसे ही एक महोत्सव में उन्होंने पुणे स्थित सरकारी संस्थान, ‘फिल्म एंड टैलिविजन इंस्टिट्यूट औफ इंडिया’ के छात्रों द्वारा बनाई फिल्में देखीं.

इंडियन डाइरैक्टर पायल कपाड़िया कांस फिल्म फैस्टिवल 2024 में. क्लेजिंग सेरेमनी : 'पाल्मे डी' ओर विनर्स. कांस (फ्रांस), 25 मई 2024.
इंडियन डाइरैक्टर पायल कपाड़िया कांस फिल्म फैस्टिवल 2024 में. क्लेजिंग सेरेमनी : ‘पाल्मे डी’ ओर विनर्स. कांस (फ्रांस), 25 मई 2024. फोटो : रोक्को स्पेजिनि/आर्किवियो स्पेजियानी/मोंडाडोरी पोर्टफोलियो गैटी इमेजेस द्वारा

कपाडि़या बताती हैं, ‘‘फिल्में प्रयोगात्मक थीं और इन का नैरेटिव भी सीधा नहीं था, ये स्वप्निल थीं,’’ कपाडि़या को इन के निर्माताओं की आजादी ने बहुत उत्साहित किया, ‘‘मैं सिनेमा को एक अलग नजरिए से देखने लगी और यही वक्त था जब मुझे समझ आया कि मैं फिल्में बनाना चाहती हूं.’’

खुशकिस्मती से कपाडि़या को घर में किसी विरोध का सामना नहीं करना पड़ा. वे बताती हैं, ‘‘मुझे इसलिए संघर्ष नहीं करना पड़ा क्योंकि मेरी मां ने मुझ से पहले अपना रास्ता चुन कर एक मिसाल पहले ही बना दी थी.’’

एफटीआईआई में दाखिले की कपाडि़या की पहली कोशिश असफल रही लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी. उन्होंने फिल्म निर्माता शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर के प्रोडक्शन हाउस में नौकरी कर ली. डूंगरपुर मुंबई स्थित गैर लाभकारी संस्था फिल्म ‘हेरिटेज फाउंडेशन’ भी चलाते हैं.
कपाडि़या की एक प्रोफैसर डूंगरपुर के प्रोडक्शन हाउस में काम कर रही थीं. कपाडि़या ने बताया कि डूंगरपुर उस वक्त विज्ञापन फिल्में बना रहे थे और फीचर फिल्म बनाने की कोशिश में थे, ‘‘तब मुझे नहीं पता था कि सेट में होने का एहसास कैसा होता है. वह बहुत कठिन काम था और मैं ने वहां बहुत कुछ सीखा,’’
उन्होंने फिल्म निर्माण कला के महत्त्वपूर्ण पहलुओं की जानकारी हासिल की, जैसे कौस्ट्यूम डिजाइन, सेट डिजाइन, लोकेशन खोजना और अलगअलग भूमिकाओं के लिए कलाकारों का चयन करना.

जब कपाडि़या की प्रोफैसर फिल्म निर्माता अनुष्का शिवदासानी ने डूंगरपुर की कंपनी छोड़ी और नई कंपनी शुरू की तो कपाडि़या उन के साथ हो लीं. वे कहती हैं, ‘‘वह एक छोटी कंपनी थी इसलिए मेरे पास बहुत सारी जिम्मेदारियां आ गईं और इस के चलते मैं बहुत कुछ सीख सकी.’’

4 साल बाद 2012 में कपाडि़या ने एफटीआईआई में दोबारा आवेदन किया. लेकिन इस बार वे निर्देशन का अध्ययन करना चाहती थीं. देश से बाहर जा कर पढ़ाई करने में उन की कोई दिलचस्पी नहीं थी. वे कहती हैं, ‘‘ऐसा इसलिए क्योंकि मुझे लगता था कि मुझे वहां वे संपर्क नहीं मिलेंगे जो मैं यहां बनाना चाहती हूं,’’ कपाडि़या को इस बार दाखिला मिल गया.

जब मैं ने उन से पूछा कि क्या यह संस्थान उन की अपेक्षाओं पर खरा उतरा तो उन का कहना था, ‘‘शुरू में मुझे लगा कि मैं सीखने में पीछे हूं,’’ फिर कुछ देर की चुप्पी के बाद उन्होंने बताया, ‘‘लेकिन बाद में मुझे एहसास हुआ कि ऐसे संस्थानों से आप को खुद ही सीखना होता है. यहां आए छात्र अलग पृष्ठभूमि के थे और हम सब एकसाथ तैयार हो रहे थे.’’

कपाडि़या का काम जिस में 4 शौर्ट फिल्में और 2 फीचर फिल्म शामिल हैं, उन में संगीत सा एहसास है. वे मानती हैं कि ऐसा एफटीआईआई के असर के चलते हुआ है.

उन्होंने याद किया कि वहां छात्र जापानी कविता हाइकू का अध्ययन उन की छवि निर्माण की क्षमता के लिए करते थे. एक बार एक प्रोफैसर ने छात्रों को जापानी उपन्यासकार यासुनारी कुवाबाटा और उन के कहानी संग्रह ‘पाम औफद हैंड स्टोरीज’ से परिचित कराया.
वह उन की 146 लघु कहानियों का संकलन है. कपाडि़या बताती है कि वे सभी कहानियां किसी एक नैरेटिव का हिस्सा न हो कर छोटेछोटे क्षणों में घटी घटनाओं का गुलदस्ता थीं. लेकिन एकसाथ मिल कर वे छोटी कहानियां एक व्यापक विस्तार वाला नैरेशन बनाते थे. कपाडि़या फिल्मों को भी इसी तरह समझने लगीं.

कपाडि़या के पूर्व अनुभव की बदौलत उन के लिए चीजें सहज थी लेकिन वे बताती हैं कि एफटीआईआई एक पुरुष प्रधान स्पेस है और यहां एक औरत को हमेशा खुद को साबित करना पड़ता है. कपाडि़या को याद है कि दाखिले के इंटरव्यू में उन की कुछ महिला दोस्तों से पूछा गया था कि जब आगे चल कर उन्हें शादी ही कर लेनी है तो उन्हें दाखिला देने का फायदा क्या है.

2015 में एफटीआईआई में असंतोष फूट गया. इस ने कपाडि़या के नजरिए, उन के सिनेमा और उन के उद्देश्य को भी बदल दिया. उस साल जून में सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने अभिनेता और नेता गजेंद्र चौहान को एफटीआईआई का अध्यक्ष नियुक्त किया.
छात्रों ने आरोप लगाया कि चौहान, जो दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले लोकप्रिय धारावाहिक ‘महाभारत’ में युधिष्ठिर की भूमिका के लिए जाने जाते हैं, ने यह पद अपनी साख के कारण नहीं, बल्कि सत्तारूढ़ बीजेपी के साथ अपनी निकटता के कारण हासिल किया है. आने वाले दिनों में तनाव बढ़ गया और छात्रों ने हड़ताल कर दी. छात्र 4 महीने से अधिक समय तक हड़ताल पर रहे. कपाडि़या उन में से एक थीं.

कपाडि़या ने बताया कि इस वक्त तक बात बहुत आगे जा चुकी थी. 2013 में एफटीआईआई के कुछ छात्रों ने अनंत पटवर्धन की डाक्यूमैंट्री ‘जय भीम कामरेड’ की स्क्रीनिंग का आयोजन किया था, जो 1997 में मुंबई की रमाबाई कालोनी में दलित प्रदर्शनकारियों की पुलिस द्वारा हत्याओं पर आधारित थी.
खबरों के मुताबिक, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सदस्यों ने कुछ आयोजकों की पिटाई कर दी, जिस से हंगामा मच गया. उस घटना के 2 साल बाद हुई चौहान की नियुक्ति पर टकराव तेज हो गया.

कपाडि़या के मुताबिक, हड़ताल में बहुत सारी बातें होती हैं. वे बताती है, ‘‘हर शाम हम कई घंटो के लिए मिलते थे. दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों ने भी एकजुटता का इजहार किया. प्रोफैसरों और कलाकारों से भी काफी समर्थन मिला.’’

कपाडि़या ने बताया कि वह देश के उच्च शिक्षा संस्थानों में उबाल का दौर था. जनवरी 2016 के अंत में, जब हैदराबाद सैंट्रल यूनिवर्सिटी के दलित पीएचडी छात्र रोहित वेमुला ने आत्महत्या कर ली, तो जातिगत भेदभाव के खिलाफ देशव्यापी विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया.
फरवरी में जेएनयू के 5 छात्रों को गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें देशद्रोही कहा गया. आंदोलनों की लहर चल पड़ी.

कपाडि़या का व्यक्तित्व इस दौरान विकसित हुआ. उन के इन अनुभवों ने उन्हें फिल्म निर्माण की भाषा दी, ‘‘जो मेरे नजरिए और मेरी राजनीति से प्रेरित है,’’ एफटीआईआई की हड़ताल खत्म करने के लिए पुलिस बुलाई गई.
35 छात्रों के खिलाफ दायर एफआईआर में कपाडि़या का भी नाम था. उन्हें अनुशासनात्मक काररवाई का सामना करना पड़ा. उन की छात्रवृत्ति रोक दी गई और जब वे एक फौरेन ऐक्सचैंज प्रोग्राम के लिए चुनी गईं, तो उन्हें उस में भाग लेने से प्रतिबंधित कर दिया गया.

पायल के काम में परिवार, राजनीति और स्थानिकता का प्रभाव साफ दिखता है. लक्सबौक्स
पायल के काम में परिवार, राजनीति और स्थानिकता का प्रभाव साफ दिखता है. लक्सबौक्स

लेकिन अब व्यक्तिगत सफलता से भी बड़ी कोई चीज दांव पर थी, ‘‘बात यह है कि हम वैसे भी सबकुछ खो देते,’’ कपाडि़या ने कहा, ‘‘अगर जिस मुद्दे के खिलाफ हम हड़ताल कर रहे थे, वह नहीं उठता, तो हम एफटीआईआई की भावना को मिटा देते. हम अपनी फिल्मों में जिस स्वतंत्रता की बात करते थे, जिन विषयों को हम उठाना चाहते थे और जिन फिल्म निर्माताओं को हम आमंत्रित करना चाहते थे, सब खत्म हो जाता.’’

चौहान 2017 में अपनी सेवानिवृत्ति तक एफटीआईआई के अध्यक्ष बने रहे. लेकिन कपाडि़या को लगा कि हड़ताल एक ‘बौद्धिक जीत’ थी जिस ने संस्थान को छात्रों की आवाज सुनने के लिए मजबूर किया. उन्होंने कहा, ‘‘हमें अपने सार्वजनिक संस्थानों की रक्षा करनी होगी.’’

2024 में, जब कपाडि़या ने कांस पुरस्कार जीता, तो पत्रकारों ने टिप्पणी के लिए चौहान से संपर्क किया. उन्होंने कहा, ‘‘मुझे गर्व है कि जब वह एफटीआईआई में कोर्स कर रही थी, उस समय मैं चेयरमैन था.’’

कपाडि़या के काम में परिवार, राजनीति और स्थानिकता का तनाव साफ दिखाई देता है. उन्होंने एफटीआईआई में अध्ययन के समय ‘आफ्टरनून क्लाउड्स (2017),’ ‘वाटरमैलन फिश एंड हाफ घोस्ट (2014)’ जैसी लघु फिल्में बनाई हैं जो यूट्यूब पर उपलब्ध हैं. उन के पात्र अकसर प्रेतआत्माओं से घिरे और डरे रहते हैं. उन की फिल्म ‘आल वी इमेजिन एज लाइट’ में उन का यह भाव मुखर रूप से प्रकट है.

फिल्म 'आल वी इमेजिन एज लाइट' में पायल की सोच मुखर रूप में दिखती है. लक्सबौक्स
फिल्म ‘आल वी इमेजिन एज लाइट’ में पायल की सोच मुखर रूप में दिखती है. लक्सबौक्स

कपाडि़या के विचार उन के अपने अनुभवों को निखरे हैं. वे अपनी नानी के बेहद करीब थीं जो अपने जीवन के आखिरी दिनों में अपनी याद्दाश्त खोने लगी थीं. कपाडि़या ने उन्हें एक डायरी रखने के लिए प्रेरित किया. कपाडि़या याद करती हैं कि नानी की डायरी में नाना जयराम का अकसर जिक्र होता था गोया वह वहीं मौजूद हों, जबकि उन के नाना का देहांत 4 दशक पहले हो चुका था.
कपाडि़या अपने नाना से कभी नहीं मिली थीं. लेकिन उन्हें मां ने बताया था कि नाना नानी का वैवाहिक जीवन खुशहाल नहीं था. कपाडि़या ने कहा, ‘‘मेरे मन में ये बातें घर कर गईं. ये ऐसे पुरुष हैं जो कभी नहीं छूटते. यदि उन की फोटो न भी हो तो वे भूत की तरह आसपास मौजूद रहते है. मेरी जानने वाली औरतों के जीवन में ऐसे भूत पुरुषों की उपस्थिति के बारे में मैं विचार करने लगी.’’

2021 में कपाडि़या ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी तरफ तब खींचा जब उन की पहली लंबी डाक्यूमैंट्री ‘ए नाइट औफ नोइंग नथिंग’ ने कांस फिल्म महोत्सव में पुरस्कार जीता.

यह कहानी एफटीआईआई की एक काल्पनिक युवा छात्रा द्वारा अपने प्रेमी को लिखे गए पत्रों के माध्यम से कही गई है, जिस के मातापिता उस के संबंध के खिलाफ हैं क्योंकि छात्रा दूसरी जाति से है. पत्रों के माध्यम से फिल्म में उन छात्र आंदोलनों को दर्शाया गया है, जिन्होंने दमनकारी संरचना के खिलाफ आवाज उठाई.

फिल्म, एफटीआईआई में हुई हड़ताल को रिकौर्ड करने के मकसद से शुरू की गई थी क्योंकि मुख्यधारा के मीडिया में इसे गलत तरीके से पेश किया जा रहा था. कपाडि़या ने मुझे बताया, ‘‘मीडिया विभाग को लगा कि हमें भी यह बताना चाहिए कि असल में क्या चल रहा है.
आखिरकार, हम एक फिल्म स्कूल हैं. अंत तक हमारे पास एक बहुत बड़ा संग्रह बन गया था,’’ अन्य संस्थानों में छात्रों के नेतृत्व वाले विरोध प्रदर्शनों की फुटेज आसानी से उपलब्ध हो गई थी.

कपाडि़या ने इस बात पर विचार किया कि वीडियो के साथ क्या करना है. उन को प्रेरणा मिली उन फैसलों से जो उन के बैचमेट्स स्नातक की तैयारी में ले रहे थे.
कपाडि़या याद करती हैं, ‘‘मुंबई आ कर काम की तलाश करने और यह सब कैसा होगा, इस बारे में घबराहट होती थी,’’ संस्थान के एकांत में पनप रहे रिश्ते धर्म या जाति के अंतर के कारण मातापिता की अस्वीकृति के कारण बिखर रहे थे.

कपाडि़या को लगता है कि यह सब देश की बदलती राजनीति के कारण हैं. उन्होंने कहा, ‘‘मैं ने इस पल को कैद करने की जरूरत के बारे में सोचना शुरू किया और कैंपस को फिल्माना शुरू कर दिया क्योंकि वे

पुरानी परंपराओं को तोड़ कर नई परंपराएं स्थापित करने में लगे थे. मैं हम सभी को उसी तरह फिल्माना चाहती थी जैसे हम असल में हैं. मैं भी इस में शामिल हूं.’’

2019 में कपाडि़या को लगा कि वे जो फिल्म बनाना चाहती थीं, उसे समझने के लिए वे भावनात्मक रूप से तैयार हैं. उन्होंने राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार विजेता लेखक और निर्देशक हिमांशु प्रजापति, जो एफटीआईआई के पूर्व छात्र भी हैं, के साथ मिल कर पटकथा लिखी. उन्होंने कहानी को बुनने के लिए पुरानी तसवीरों, अखबारों की कतरनों, दोस्तों से उधार ली गई फुटेज और काल्पनिक पत्रों का इस्तेमाल किया. उन्होंने खुद को एक नीलकंठ पक्षी जैसा माना जो ‘अपना घोंसला बनाने के लिए अलगअलग चीजें और विचार इकट्ठा कर रही थी.’

कपाडि़या ने मुझे बताया कि उनके दोस्तों ने उन का खूब साथ दिया. उन के सब से नजदीकी साथियों में उन के साथी एवं एफटीआईआई में उन के सीनियर, राणाबीर दास हैं.
कपाडि़या ने बताया, ‘‘संवाद और सिनेमा के मामले में राणा और मैं दोनों एक साथ बड़े हुए हैं. हम फिल्मों पर खूब चर्चा करते थे और नए फिल्म निर्माताओं की खोज करते थे. हमारी राजनीतिक सोच भी विकसित हो रही थी, खासतौर पर हड़ताल और उस से निबटने के तरीकों को ले कर.’’

प्रैस कौन्फ्रेंस-कांस, फ्रांस-25 मई (बाईं से दाईं तरफ दूसरी) पायल कपाड़िया, 'आल वी इमेजिन एज लाइट' के लिए 'ग्रैंड पिक्स' अवार्ड विजेता, साथ में कनी कुश्रुति, दिव्या प्रभा और छाया कदम फ्रांस के कांस में 25 मई 2024 को 77वें कांस फिल्म फैस्टिवल के पैलेस औफ फैस्टिवल्स में पाल्मे डी' और विनर्स प्रैस कौन्फ्रैंस के दौरान. फोटो : क्रिस्टी स्पैरो/गैटी इमेजेस
प्रैस कौन्फ्रेंस-कांस, फ्रांस-25 मई (बाईं से दाईं तरफ दूसरी) पायल कपाड़िया, ‘आल वी इमेजिन एज लाइट’ के लिए ‘ग्रैंड पिक्स’ अवार्ड विजेता, साथ में कनी कुश्रुति, दिव्या प्रभा और छाया कदम फ्रांस के कांस में 25 मई 2024 को 77वें कांस फिल्म फैस्टिवल के पैलेस औफ फैस्टिवल्स में पाल्मे डी’ और विनर्स प्रैस कौन्फ्रैंस के दौरान. फोटो : क्रिस्टी स्पैरो/गैटी इमेजेस

दास ने ‘आल वी इमेजिन एज लाइट’ की सिनेमैटोग्राफी की है, जो मुंबई के एक अस्पताल में काम करने वाली 3 महिलाओं के इर्दगिर्द घूमती है. जिन में 2 नर्स हैं, और तीसरी खाना बनाने वाली है. फिल्म लिखने के दौरान वे और दास भरपूर मौनसून में लोकल ट्रेन या पैदल ही शहर घूमने निकल पड़ते थे.
फिल्म का नीला रंग इन यात्राओं का परिणाम है. दास की दृश्यदृष्टि ने कपाडि़या की पटकथा को आकार दिया. उन्होंने कहा, ‘‘मैं थोड़ा लिखती, दास को देती और फिर वे तसवीरों के साथ वापस आते. मुझे वाकई लगता है कि यह प्रक्रिया मेरे लिए सही है.’’

‘आल वी इमेजिन एज लाइट’ का विचार कपाडि़या को तब आया जब उन के पिता अस्पताल में भर्ती थे. जब वे गलियारों, प्रतीक्षा कक्षों और वार्डों के बीच घूमती थीं, तो नर्सों की बातचीत सुनती थीं. कपाडि़या को एक वर्दी पहने महिला के विरोधाभास में दिलचस्पी हुई, जिसे सार्वजनिक स्थान पर अपनी आंतरिक उथलपुथल को दबाने के लिए मजबूर होना पड़ता है. आखिरकार, ये मुखौटे हम सभी की जिंदगी का हिस्सा हैं, लेकिन कुछ पेशे, जैसेकि नर्सिंग, इन की और भी ज्यादा मांग करते हैं. कपाडि़या ने कहा, ‘‘दूसरों की देखभाल करते समय आप की अपनी व्यक्तिगत चिंताएं ओझल हो जाती हैं.’’

इस फिल्म को बनाने में 5 साल लगे, जिस में 3 साल का प्रीप्रोडक्शन भी शामिल है. फिल्म में 3 मुख्य किरदारों के दैनिक संबंधों को बेहद अंतरंगता के साथ दिखाया गया है.
इस के साथ यह फिल्म मुंबई की हलचलों को भी सामने लाती है. फिल्म नाजुक प्रतिरोध और महिलाओं के बीच दोस्ती को दर्शाती है. कपाडि़या ने कहा, ‘‘मुझे निश्चित रूप से लगा कि एक महिला होने के नाते, एक खास नजरिया था जो मैं चाहती थी. मैं यह भी चाहती थी कि पात्रों को एक निश्चित स्वायत्तता मिले.’’

कपाडि़या चाहती थीं कि फिल्म सिनेमाघरों में रिलीज हो. उन्होंने कहा, ‘‘मुझे इस धारणा पर यकीन नहीं था कि यह एक आर्ट फिल्म है और इसे आम लोग नहीं देख सकते. यह धारणा सच नहीं है और अभिजात वर्ग की बनाई हुई है,’’ कांस में जीत ने इस फिल्म का रिलीज होना आसान बना दिया.

इस फिल्म ने कपाडि़या को उन पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रहों से सामना कराया, जिन्हें उन्होंने अनजाने में स्वीकार लिया था. कपाडि़या ने कहा, ‘‘जब मैं छोटी थी, तो मैं बड़ी उम्र की महिलाओं और उन के व्यवहार की आलोचना करती थी. और जब मैं बड़ी हुई, तो मैं छोटी उम्र की महिलाओं की आलोचना करती थी.’’

उन्होंने उन विचित्र परंपराओं को उठाया जिन में महिलाओं को लगातार एकदूसरे के खिलाफ खड़ा किया जाता है, ‘‘मुझे लगता है कि एक डर है कि अगर महिलाएं एकजुट हो गईं, तो यह सभी के लिए एक बड़ी समस्या होगी.’’

इस फिल्म ने कपाडि़या को खुद की उन कमजोरियों से रूबरू होने का अवसर दिया जिस के चलते वे ऐसी संरचनाओं को ध्वस्त करने में सफल हुईं. उन्होंने कहा कि विभिन्न पीढि़यों की महिलाओं को एकदूसरे से बहुत कुछ सीखना है. ‘लेकिन यह तभी संभव है जब सभी एकदूसरे को स्वीकार करें.’

लेखक-  जेन बोरजिस 

Family Issue : मैं जेठानी और सास के सास बहू के सीरियल से परेशान हूं, मैं क्या करूं?

Family Issue :  अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है, तो ये लेख अंत तक जरूर पढ़ें…

सवाल-

मैं 29 वर्षीय शादीशुदा महिला हूं. हम संयुक्त परिवार में रहते हैं. सासससुर के अलावा घर में जेठजेठानी, उन के 2 बच्चे व मेरे पति सहित कुल 8 सदस्य रहते हैं. ससुर सेवानिवृत्त हो चुके हैं. मुख्य समस्या घर में सासूमां और जेठानी के धारावाहिक प्रेम को ले कर है. वे सासबहू टाइप धारावाहिकों, जिन में अतार्किक, अंधविश्वास भरी बातें होती हैं, को घंटों देखती रहती हैं और वास्तविक दुनिया में भी हम से यही उम्मीद रखती हैं. इस से घर में कभीकभी अनावश्यक तनाव का माहौल पैदा हो जाता है.

इन की बातचीत और बहस में भी वही सासबहू टाइप धारावाहिकों के पात्रों का जिक्र होता है, जिसे सुनसुन कर मैं बोर होती रहती हूं. कई बार मन करता है कि पति से कह कर अलग फ्लैट ले लूं पर पति की इच्छा और अपने मातापिता के प्रति उन का आदर और प्रेम देख कर चुप रह जाती हूं. सम  झ नहीं आता, क्या करूं?

जवाब-

सासबहू पर आधारित धारावाहिक टीवी चैनलों पर खूब दिखाए जाते हैं. बेसिरपैर की काल्पनिक कहानियों और सासबहू के रिश्तों को इन धारावाहिकों में अव्यावहारिक तरीके से दिखाया जाता है.

पिछले कई शोधों व सर्वेक्षणों में यह प्रमाणित हो चुका है कि परिवारों में तनाव का कारण सासबहू के बीच का रिश्ता भी होता है और इस में आग में घी डालने का काम इस टाइप के धारावाहिक कर रहे हैं. ये धारावाहिक न सिर्फ परिवार में तनाव को बढ़ा रहे हैं, बल्कि भूतप्रेत, ओ  झातांत्रिक, डायन जैसे अंधविश्वास को भी बढ़ावा दे रहे हैं.

काल्पनिक दुनिया व अंधविश्वास में यकीन रखने वाले लोगों में एक तरह का मनोविकार भी देखा गया है, जो इन चीजों को देखसुन कर ही इन्हें सही मानने लगते हैं. ऐसे लोगों की मानसिकता बदलना टेढ़ी खीर होता है. अलबत्ता, इस के लिए आप को धीरेधीरे प्रयास जरूर करना चाहिए.

दिल्ली प्रैस की पत्रिकाएं समाज में व्याप्त ढकोसलों, पाखंडों व अंधविश्वासों के खिलाफ शुरू से मुहिम चलाती आई हैं और अब महिलाएं समाज में व्याप्त ढकोसलों, पाखंडों का विरोध करने लगी हैं.

फिलहाल आप खाली समय में उपयुक्त वक्त देख कर सास और जेठानी को इस के गलत प्रभावों के बारे में बता सकती हैं. आप को उन के मन में यह बात बैठानी होगी कि इस से घर में तनाव का माहौल रहता है और इस का सब से ज्यादा गलत प्रभाव बच्चों और उन के भविष्य पर पड़ता है और वे वैज्ञानिक सोच से भटक कर तथ्यहीन और बेकार की चीजों को सही मान कर भटक सकते हैं. आप अपने ससुर से भी इस में दखल करने को कह सकती हैं.

बेहतर होगा कि खाली समय को ऊर्जावान कार्यों की तरफ लगाएं और उन्हें भी इस के लिए प्रेरित करें. उन्हें पत्रपत्रिकाएं व अच्छा साहित्य पढ़ने को दें. कुप्रथाओं, परंपराओं, अंधविश्वास के गलत प्रभावों को तार्किक ढंग से बताएं ताकि उन की आंखों की पट्टी खुल जाए और वे इस टाइप के धारावाहिकों को देखना बंद कर दें.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz   सब्जेक्ट में लिखे…  गृहशोभा-व्यक्तिगत समस्याएं/ Personal Problem

Nuclear Family : लाइफ बनाए आसान

Nuclear Family : आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं जो संयुक्त परिवार जिस में 1 या 2 युवा जोड़े और उन के मांबाप एक छत के नीचे एक किचन को शेयर करते हुए रहते हैं, की तारीफ करते हैं. सभी संयुक्त परिवार कभी न कभी टूटते ही हैं पर केवल परंपरा के नाम पर उन्हें ढोना गलत है. युवाओं को जिस आजादी और कैरियर बढ़ाने के लिए माहौल चाहिए वह आमतौर पर ज्यादा भरे घर में नहीं मिलता.

वर्तमान दौर में लड़कालड़की को बचपन से ही एकसमान परवरिश मिल रही है. समय के साथसाथ सोच बदलती गई और आज लड़कियां पढ़लिख कर ऊंचाई के उस मुकाम पर पहुंच गईं जहां उन्होंने अपनी काबिलीयत से अपनी अलग पहचान तो बना ही ली, साथ ही वे आत्मनिर्भर भी बन गई हैं. अपनी उच्च शिक्षा को या अपने टेलैंट को 4 दीवारों के भीतर रख कर दायित्वों के बोझ तले दबाना उन्हें आज की पीढ़ी को कतई मंजूर नहीं.

संयुक्त परिवार में अकसर युवतियों को अपनी प्रतिभा दिखाने के अवसर आसानी से प्राप्त नहीं होते, बहुत प्रयासों के बाद अगर वे कुछ करती भी हैं तो उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. न्यूक्लियर फैमिली में सपनों को पंख लग सकते हैं, अपने ही हौसले से बस उड़ान भरने की देर है. संयुक्त परिवार से अलग हो कर रहने का अर्थ यह कदापि नहीं कि परिवार से नाता टूट गया बल्कि दोनों परिवार आपस में जुड़े भी रहते हैं और अपने हिसाब से जीवनयापन करने के लिए स्वतंत्र भी रहते हैं. एकदूसरे के कार्यप्रणाली में जब कोई हस्तक्षेप नहीं करता तो रिश्तों की मधुरता बरकरार रहती है.

टैंशन से मुक्ति

जब मातापिता बच्चों को पूर्णरूप से स्वतंत्रता देते हैं तो उन के बहूबेटे भी न्यूक्लियर फैमिली में रहते हुए भी अपने दायित्व को बखूबी समझते हैं. समयसमय पर अपने मातापिता का चैकअप, उन की हर आवश्यकता को पूरा करना, दोनों परिवारों को लगने वाला सामान एकसाथ लाना यह सब वे स्वयं ही बिना कहे करना जानते हैं. त्योहारों पर पूरा परिवार एकत्रित होता है. जब थोड़ा समय ही साथ रहने का मौके आता है तो वह समय हंसीखुशी साथ बिताया जाता है, किसी तरह के तनाव की गुंजाइश नहीं रहती.

बेटेबहू समयसमय पर आर्थिक सहयोग करते रहते हैं. रिश्तेदारी में कुछ मांगलिक प्रसंग आते हैं तो वे मातापिता की आवश्यकताओं की पूरी व्यवस्था करना जानते हैं. बचपन की परवरिश के चलते आपसी प्रेम तो रहता ही है रिश्तेदारों और समाज में अपनी प्रतिष्ठा बरकरार रखने के लिए भी वे मातापिता का घर सभी सुविधाओं से परिपूर्ण रखते हैं. समयसमय पर उस घर की भी वे मरम्मत करवाते रहते हैं.

आपसी मनमुटाव के चलते जबरन संयुक्त परिवार की गाड़ी को खींच कर चलने से कब कौन सा पहिया निकल कर गिर जाए कहा नहीं जा सकता इसलिए स्थितियां बेकाबू हों उस से पहले बेहतर होगा खुशीखुशी न्यूक्लियर फैमिली की ओर अपने कदम बढ़ाए. इस से रिश्ते मजबूत होंगे. हाथों की उंगलियों की तरह स्वतंत्र भी रहेंगे और समय पड़ने पर बंद मुट्ठी की तरह ताकतवर भी. अपने हिसाब से न्यूक्लियर फैमिली में अरमानों के आशियाने को संवरते और मुसकराते हुए देखा है.

स्वयं को निखारने के मिलते अवसर

न्यूक्लियर फैमिली में यंग वाइफ्स को अपने भीतर छिपी कला को उजागर करने के स्वच्छंद जीवनयापन करने के अवसर आसानी से मिल जाते हैं. घरेलू कामकाज में अपना कीमती समय गंवाने से बेहतर वे आय के नएनए स्रोत खोजती हैं और उन्हें अंजाम भी देती हैं. घरेलू कामकाज हैल्पर की सहायता से आसानी से हो ही जाते हैं. परिवार में 2-3 सदस्य रहते हैं.

सभी एकदूसरे की व्यस्तता और रुचि को समझते हैं, अनावश्यक रूप से कोई भी किसी के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करता. कला के अनेक पर्याय हैं, न्यूक्लियर फैमिली में सीमित कामकाज रहने से महिलाओं को अपनी रुचि को विकसित करने का पर्याप्त समय और सुविधाएं आसानी से मिल जाती हैं और जब हम अपनी रुचि को अंजाम देते हुए आगे बढ़ते हैं तो आत्मसंतुष्टि के साथ ही अपनी अलग पहचान भी बनती है जिस से असीमित खुशी मिलती है.

मानसिक संतुष्टि

आज की उच्च शिक्षित लड़कियां अच्छे पैकेज के साथ जौब कर रही हैं, औफिस में उन्हें काफी जिम्मेदारी से अपने कार्यों को अंजाम देना पड़ता है, किंतु बदले में लाखों रुपए मिलने से उन्हें उन कार्यों को करने में अधिक थकान महसूस नहीं होती. मेहनत और जोश से आगे बढ़ते हुए उन की पदोन्नति भी होती रहती है, जिस से उन्हें अपने सफल होने का एहसास बना रहता है, साथ ही उन की शिक्षा भी सार्थक होती है, जिस की उन्हें संतुष्टि रहती है.

अपने हक का पैसा अपने पास रहने से उन्हें अपनी इच्छाओं को पूरा करने की भी आजादी रहती है. अधिकांश खुशियों का पूरा होना रुपयों पर भी निर्भर करता है. जो महिलाएं आत्मनिर्भर हैं वे अपने भविष्य की योजनाओं के प्रति भी सजग रहती हैं, उन्हें किसी तरह की चिंता नहीं रहती जिस के चलते वे मानसिक रूप से स्वस्थ व खुश दिखाई देती हैं.

मन को लुभाती आजादी

आज के युग में छोटेछोटे बच्चों को भी रोकटोक पसंद नहीं, हरकोई अपनी जिंदगी को अपने हिसाब से अपने अरमानों को पूरा करते हुए बिताना चाहता है. संयुक्त परिवार में पारिवारिक सदस्यों द्वारा अलगअलग तरीके से दबाव बना रहता है, साथ ही मेहमानों की आवाजाही लगी रहती है, जिस के कारण खुल कर जीने के मार्ग नहीं मिलते. मन की कुंठा अनेक बीमारियों को न्योता देती है.

कार्यभार चाहे जितना भी रहे किंतु उसे अपने हिसाब से अंजाम देने से सुकून मिलता है और हम जितना सोचते हैं उस से अधिक और बेहतर करने का प्रयास करते हैं. इस के विपरीत किसी के दबाव में आ कर काम करते समय तनाव तो महसूस होता ही है, जो कार्य करते हैं उस में भी रुचि नहीं रहती तो अतिरिक्त कुछ करने का प्रश्न ही नहीं उठता. आजादी विकास की अनेक राहों को प्रशस्त करती है.

खुशी के अनेक पर्याय उपलब्ध

रोजमर्रा की दिनचर्या से कई बार बोरियत महसूस होने लगती है. हर व्यक्ति अपने जीवन में कुछ नयापन लाना चाहता है. समयसमय पर कुछ बदलाव से तनमन के भीतर ऊर्जा भर जाती है जिस से हम तरोताजा महसूस करते हैं. न्यूक्लियर फैमिली में छूट्टी मिलते ही बड़ी आसानी से घूमनेफिरने के प्रोग्राम बना लिए जाते हैं, प्रकृति के सान्निध्य में बिताएं खूबसूरत लमहें मनमस्तिष्क को तो प्रसन्न करते ही हैं, साथ ही हम नए उत्साह से काम करने के लिए भी तैयार हो जाते है. हमउम्र साथियों के साथ मेलजोल होता रहता है. हम जब चाहें जैसा चाहें घर में अपने परिजनों या साथियों को बुला कर पार्टी का लुत्फ उठा सकते हैं, जिस में किसी तरह की कोई समस्या नहीं होती न ही किसी से इजाजत लेने की आवश्यकता रहती है. खुशियों के अनेक द्वार यहां खुले रहते हैं.

परस्पर संबंधों में मजबूती

कई बार अन्य पारिवारिक सदस्यों के कारण मैरिड लाइफ प्रभावित होती है. न्यूक्लियर फैमिली में पतिपत्नी दोनों ही रहने से एकदूसरे को भरपूर समय दे सकते हैं, आपसी भावनाओं को तवज्जो दी जाती है, साथ ही अंतरंग संबंध सुदृढ़ रहते हैं. बच्चों को भी स्वावलंबी बनाने में आसानी होती. वे अनुशासन में रहना सीखते हैं. मातापिता बच्चे को पर्याप्त समय दे सकते हैं, उस की पढ़ाईलिखाई पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं, अन्य गतिविधियों में भी ऐसे बच्चे आगे रहते हैं क्योंकि अभिभावकों का पूरा ध्यान उन पर रहता है.

घरेलू कामकाज में समस्या

संयुक्त परिवार में सभी सदस्यों की किचन एक होती है जिस से अनेक कठिनाइयों का सामना परिवार के हर मैरिड यंग को करना पड़ता है. खानपान से संबंधित सब की पसंद अलगअलग होती है. सभी की पसंद का बनाए, यह संभव नहीं होता इसलिए कई बार मन मसोस कर रहना पड़ता है.

कोई चाह कर भी अपने बच्चों को उन की पसंद की डिश बना कर नहीं खिला पाते क्योंकि कुछ भी बनाना हो तो सब के लिए बनाना जरूरी हो जाता है. ऐसे में महिलाएं इतना समय किचन में गंवाना पसंद नहीं करतीं और बच्चों को बाहर की चीजें खिला देती हैं जिस से उन का स्वास्थ्य प्रभावित होता है.

कई बार किसी एक पर कार्य का बोझ अधिक आ जाता है तो कोई सदस्या बिलकुल ही लापरवाही बरतता है और किसी भी काम में सहयोग करना जरूरी नहीं सम?ाता. इस से रिश्तों में दरार आ जाती है. किचन में एकसाथ काम करते हुए अनेक दिक्कतों का सामना करना पड़ता है.

आर्थिक रूप से कठिनाइयां

न्यूक्लियर फैमिली में अनावश्यक रूप से होने वाले खर्च पर नियंत्रण रहता है. संयुक्त परिवार में किसी के ऊपर आर्थिक व्यय का बोझ अधिक आता है. संकोचवश स्पष्ट रूप से कोई कुछ बोल नहीं पाता पर ऐसी स्थिति के चलते मन ही मन घुटन होती रहती है.

वहीं दूसरी ओर कोई सदस्य अपनी व्यक्ति गत तिजोरी भारीभरकम करने में लगा रहता है. घरेलू वातावरण में अदृश्य रूप से अशांति बनी रहती है जो मानसिक रूप से अस्वस्थ करती है. न्यूक्लियर फैमिली में इन सब बातों की समस्या नहीं आती.

अनावश्यक व्यय से बचाव न्यूक्लियर फैमिली में एक यंग वाइफ के हाथों घर की बागडोर रहती है जिस से उसे खानपान से ले कर हर आवश्यक वस्तु कितनी लगने वाली है इस का अनुमान रहता है जिस कारण अनावश्यक रूप से व्यय की संभावना नहीं रहती, साथ ही महिलाओं में यह आदत होती कि वे अपनी व्यक्तिगत पूंजी या अन्य वस्तुओं को बहुत संभाल कर रखती हैं.

संयुक्त परिवारों में वस्तु घर में सभी

सदस्यों की होती है इसलिए उसे हिफाजत से रखने का दायित्व किसी एक का नहीं होता तो लापरवाही बरती जाती है. किचन में खाद्यसामग्री का अनुमान लगाना मुश्किल रहता है. ऐसे में अन्न की बरबादी भी बहुत होती है और अनावश्यक व्यय भी बढ़ता है.

Happy Hormones : कैसे हैक करें हैप्पी हारमोन

Happy Hormones :  अच्छा महसूस करने के लिए अच्छा माहौल और संगत के साथसाथ हैप्पी हारमोंस यानी सैरोटोनिHappy Hormonesन, डोपामाइन, ऐंडोर्फिन और औक्सीटोसिन की भी आवश्यकता होती है. ये हारमोन अवसाद और चिंता को कम करते हुए खुशी और आनंद को बढ़ावा देने में मदद करते हैं.

आखिर क्या कमी है मेरे पड़ोस में रहने वाली सुनीता को, सबकुछ तो है उस के पास.

2-2 मकान, बड़ीबड़ी गाडि़यां, ढेरों महंगे कपड़े, गहने आदि. मगर आजकल वह गहरे अवसाद से गुजर रही है. सबकुछ होते हुए भी खुश नहीं है. बातबात पर गुस्सा करना, चिड़चिड़ाना, किसी काम में मन न लगना उस के व्यवहार का हिस्सा बन गया है. जब भी उस से कुछ पूछो या कोई बात या हंसीमजाक करो तो कहती है अभी मेरा मूड औफ है. बाद में बात करना घर के लोग और दोस्त सम?ा नहीं पा रहे हैं कि आखिर सुनीता ऐसा क्यों कर रही है. शायद यह हैप्पी हारमोंस की कमी का संकेत है.

आजकल बिगड़ते लाइफस्टाइल और मोबाइल के ज्यादा इस्तेमाल से मानसिक सेहत बिगड़ रही है जिस के कारण हैप्पी हारमोंस की कमी हो रही है. इस के चलते हमें तनाव और अवसाद हो रहा है. हैप्पी हारमोंस हमारी मैंटल हैल्थ को प्रोटैक्ट करते हैं.

अच्छे मूड के लिए अपने हैप्पी हारमोन को कुछ सरल गतिविधियां जैसे व्यायाम कर के, खाना बना कर या खा कर या संगीत सुन कर या अपनों संग बातचीत या गपशप या हंसीमजाक कर हैक कर सकते है, ये गतिविधियां आप के फीलगुड हारमोन के उत्पादन को बढ़ाने में मदद कर सकती हैं.

क्या होते हैं हारमोन

हारमोन आप के शरीर में विभिन्न ग्लैंड्स द्वारा निर्मित कैमिकल होते हैं. ये ब्लड सर्कुलेशन से पूरे शरीर में ट्रैवल करते हैं या इन का संचार होता है और कई शारीरिक प्रक्रियाओं में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं जोकि शरीर को स्वस्थ बनाए रखते है

क्या होते हैं हैप्पी हारमोन

शरीर में मौजूद हैप्पी हारमोंस खुश रहने में आप की मदद करते हैं. शरीर में समयसमय पर रिलीज होने वाले हारमोन ही किसी व्यक्ति को खुशी और गम का एहसास कराते हैं. जब किसी व्यक्ति के साथ कुछ अच्छा होता है तो यही हैप्पी हारमोंस ब्रेन या दिमाग को मैसेज देते हैं, जिस के बाद व्यक्ति को अंदर से खुशी मिलती है. जैसे भूख, प्यास, चोट, तनाव और गुस्से को हम महसूस तभी कर पाते हैं जब हारमोंस ब्रेन को मैसेज पास करता है ठीक उसी प्रकार हैप्पीनैस हारमोंस भी होते हैं जो कुछ अच्छा होने पर ब्रेन को मैसेज देते हैं और हमें अंदर से खुशी मिलती है.

कौनकौन से हैं हैप्पी हारमोन

डोपामाइन: इसे हैप्पी हारमोन के नाम से जाना जाता है. यह हारमोन आप को अच्छा महसूस कराता है. इस का उत्पादन शरीर में तब बढ़ता है जब हम कुछ सुखद अनुभव करते हैं.

सैरोटोनिन: इसे ‘फीलगुड हारमोन के नाम से जानते हैं. सैरोटोनिन चिंता और अवसाद को दूर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. वहीं व्यायाम, बाहर समय बिताने और रात को अच्छी नींद लेने से सैरोटोनिन के उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है.

ऐंडोर्फिन: आमतौर पर यह व्यायाम/ ऐक्सरसाइज से जुड़ा होता है. हार्ट ऐक्सरसाइज जैसे भागनादौड़ना, सीढि़यां चढ़नाउतरना, तेजतेज चलना, साइक्लिंग करना आदि ऐंडोर्फिन बढ़ाने के सर्वोत्तम तरीकों में से एक है. यह शक्तिशाली हारमोन प्राकृतिक रूप से दर्द को कम करने में मदद करता है.

औक्सीटोसिन: इसे लव हारमोन के नाम से जाना जाता है. यह बौंडिंग और अटैचमैंट में अपनी भूमिका दिखता है. चाइल्ड बर्थ और नर्सिंग के दौरान यह महिलाओं के शरीर में काफी तेजी से बढ़ता है. यह हारमोन किसी के स्पर्श से भी बढ़ता है जिस में हाथ पकड़ना, पालतू जानवर के साथ खेलना, परिवार के करीब होना और उन्हें गले लगा कर प्यार जताना, किस करना, मालिश और सैक्स आदि शामिल है.

अपने लाइफस्टाइल में कुछ जरूरी बदलाव कर के आप इन हारमोंस के उत्पादन को बढ़ा सकती हैं.

ऐक्सरसाइज करने के लिए समय निकालें

नियमित रूप से ऐक्सरसाइज करने से कई सारे स्वास्थ्य लाभ मिलते हैं. ऐक्सरसाइज आप के मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य पर भी सकारात्मक प्रभाव डालती है जैसे रनिंग, वाकिंग, योग आदि. ऐक्सरसाइज ऐंडोर्फिन हैप्पी हारमोन को रिलीज करने में मदद करती है.

ऐक्सरसाइज केवल ऐंडोर्फिन को ही नहीं बढ़ाती बल्कि यह डोपामाइन और सैरोटोनिन के स्तर को भी तेजी से बूस्ट होने में मदद करती है. इसी के साथ यदि आप किसी प्रकार के दर्द से पीडि़त हैं या ऐक्सरसाइज करते हुए आप को दर्द महसूस हो रहा है, तो ब्रेन ऐंडोर्फिन के साथ इंटरैक्ट करता है और आप के दर्द के एहसास को कम कर सकता है.

मैडिटेशन करना है जरूरी

यह स्ट्रैस कम करने के साथसाथ नींद की गुणवत्ता को भी बढ़ा देता है. जब हम तनाव से घिरे रहते हैं तो शरीर में डोपामाइन और सैरोटोनिन का प्रोडक्शन काफी कम हो जाता है जो आप के शारीरिक स्वास्थ्य और मूड को बुरी तरह प्रभावित करता है. मैडिटेशन करते वक्त डोपामाइन का प्रोडक्शन बढ़ जाता है. ऐसे में मैडिटेशन का अभ्यास स्ट्रैस रिलीज करते हुए हैप्पी हारमोंस को बढ़ाने में मदद करेगा.

रहें उन के पास जिन से करते हैं प्यार

प्यार से बात करना या फिर छूना भी शरीर में हैप्पी हारमोन बढ़ाता है. इसलिए इसे बढ़ाने के लिए आप उन लोगों के पास रहें जो आप को प्यार करते हैं. इस के अलावा उन लोगों के साथ या पास रहें जिन से आप दिल खोल कर बात कर सकें, अपनी हर बात शेयर कर सकें.

6 से 7 घंटे की नींद लें

6-7 घंटे की नींद आप के स्ट्रैस को कम करने के साथसाथ आप को बेहतर महसूस करवाने में भी मदद कर सकती है. यह आप के ब्रेन को शांत और हैल्दी रखने के साथसाथ मानसिक बीमारियों से बचाने और आप को बेहतर महसूस कराने में भी मदद कर सकती है.

कौमेडी मूवी या वीडियो देखें

कौमेडी मूवी या फिर वीडियो देखें. इस से आप को मन खुश रहेगा और आप बेहतर महसूस करेंगे. दरअसल, खुश रहना आप को अंदर से बेहतर महसूस कराता है और फील गुड हारमोन को बढ़ावा देता है. इस से स्ट्रैस हारमोन में कमी आती है और मूड स्विंग्स और डिप्रैशन जैसी समस्याओं में कमी आने लगती है. इस के अलावा आप खुश रहने के लिए म्यूजिक सुनें और क्रिएटिव कामों में मन लगाएं.

डाइट में शामिल करें ये चीजें

पंपकिन और सनफ्लौवर सीड्स, बादाम, अखरोट, मूंगफली जैसे नट्स और सीड्स में ट्रिप्टोफेन नामक ऐमिनो ऐसिड होता है जिस से सैरोटोटिन का उत्पादन होता है, साथ ही मैगनीशियम भी सैरोटोटिन बढ़ाता है. इस के लिए पालक का सेवन भी किया जा सकता है.

चौकलेट खाएं

डार्क चौकलेट शरीर में डोपामाइन बढ़ाने में मदद करती है. यह असल में फील गुड हारमोन है जो आप को बेहतर महसूस कराने में मदद करता है. इस के अलावा यह शरीर में स्ट्रैस हारमोन यानी कोर्टिसोल को कम करता है और हैप्पी हारमोन को बढ़ाने में मदद करती है.

खाने में विटामिन डी बढ़ाएं

हैप्पी हारमोन को बढ़ाने के लिए आप को विटामिन डी से भरपूर फूड्स का सेवन करना चाहिए जैसे मशरूम या मछली खा सकते हैं. इन के अलावा ड्राई फूट्स में भी विटामिन डी होते हैं जोकि हैप्पी हारमोंस को बढ़ावा देते हैं. ये अवसाद की भावना को कम करते हैं, मूड स्विंग्स में कमी लाते हैं और शरीर में हैप्पी हारमोन का संचार करते हैं. यदि आप के शरीर में विटामिन डी की कमी है तो डाक्टर की सलाह पर इस कमी को पूरा करने के लिए सप्लिमैंट्स भी ले सकते हैं.

Moral Stories in Hindi : मोहरा – क्यों गुस्से में था भवानीराम

Moral Stories in Hindi : ‘‘अरे गणपत, आजकल देख रहा हूं, तेरे तेवर बदलेबदले लग रहे हैं,’’ आखिर भवानीराम ने कई दिनों से मन में दबी बात कह ही डाली.

गणपत ने कोई जवाब नहीं दिया. जब काफी देर तक कोई जवाब न मिला तो थोड़ी नाराजगी से भवानीराम बोले, ‘‘क्यों रे गणपत, कुछ जवाब क्यों नहीं दे रहा है. गूंगा हो गया है क्या?’’

‘‘हम गांव के सरपंच हैं,’’ गणपत ने धीरे से उत्तर दिया.

‘‘हां, तू सरपंच है, यह मैं ने कब कहा कि तू सरपंच नहीं है पर तुझे सरपंच बनाया किस ने?’’ कहते हुए भवानीराम ने गणपत को घूरते हुए देखा. गणपत की भवानीराम से आंखें मिलाने की हिम्मत नहीं हो रही थी. यह देख भवानीराम फिर बोले, ‘‘बोल, तुझे सरपंच किस ने बनाया. आजकल तुझे क्या हो गया है. चल, इस कागज पर अंगूठा लगा.’’

‘‘नहीं, आप ने हम से अंगूठा लगवालगवा कर प्रशासन को खूब चूना लगाया है,’’ उलटा आरोप लगाते हुए गणपत बोला.

‘‘किस ने कान भर दिए तेरे?’’ भवानीराम नाराजगी से बोले, ‘‘चल, लगा अंगूठा.’’

‘‘कहा न, नहीं लगाएंगे,’’ गणपत अकड़कते हुए बोला.

‘‘क्या कहा, नहीं लगाएगा?’’ गुस्से से भवानीराम बोले, ‘‘यह मत भूल कि तू आज मेरी वजह से सरपंच बना है. मैं कहता हूं चुपचाप अंगूठा लगा दे.’’

‘‘कहा न मैं नहीं लगाऊंगा,’’ कह कर गणपत ने एक बार फिर इनकार कर दिया.

भवानीराम को इस से गुस्सा आया और बोले, ‘‘अच्छा, हमारी बिल्ली हमीं से म्याऊं. ठीक है, मत लगा अंगूठा, मैं भी देखता हूं तू कैसे सरपंचगीरी कर पाता है.’’

भवानीराम का गुस्से से तमतमाया चेहरा देख कर गणपत एक क्षण भी नहीं रुका और वहां से चला गया. भवानीराम गुस्से से फनफनाते रहे. भवानीराम ने सोचा, ‘निश्चित ही इस के किसी ने कान भर दिए हैं वरना यह आज इस तरह का व्यवहार न करता, आज जो कुछ वह है, उन की बदौलत ही तो है.’ पूरे गांव में भवानीराम का दबदबा था. एक तो वे गांव के सब से संपन्न किसान थे साथ ही राजनीति से भी जुड़े हुए थे. वे चुनाव से पहले ही सरपंच बनने के लिए जमीन तैयार करने लगे थे. मगर ऐन चुनाव के समय घोषणा हुई कि गांव के सरपंच पद के लिए इस बार अनुसूचित जाति का व्यक्ति ही मान्य होगा, तो इस से भवानीराम के सारे अरमानों पर पानी फिर गया. अब उन्हें एक ऐसे व्यक्ति की तलाश थी जो उन की हां में हां मिलाए और सरपंच पद पर कार्य करे. अंतत: उन्हें ऐसा मुहरा अपने ही घर में मिल गया. यह था गणपत, जो उन के यहां खेती एवं पशुओं की देखरेख का काम करता था. अत: भवानीप्रसाद ने उसे बुला कर कहा, ‘‘गणपत, हम तुम्हें ऊंचा उठाना चाहते हैं, तुम्हारा उधार करना चाहते हैं. अत: हम तुम्हें गांव का सरपंच बनाना चाहते हैं.’’

‘‘सच मालिक,’’ पलभर के लिए गणपत की आंखें चमकीं. फिर वह इनकार करते हुए बोला, ‘‘नहीं मालिक, चुनाव लड़ने के लिए मेरे पास पैसा कहां है?’’

‘‘हां, तुम ठीक कहते हो. लेकिन तुम्हें तो खड़ा होना है, क्योंकि तुम अनुसूचित जाति से हो. मैं सामान्य होने के कारण खड़ा नहीं हो सकता. अत: मेरी जगह तुम खड़े होओगे और पैसा मैं लगाऊंगा.’’

‘‘सच मालिक,’’ खुशी से गणपत की आंखें चमक उठीं.

‘‘हां गणपत, मैं तुम्हें सरपंच बनाऊंगा. कल तुम्हें फौर्म भरने शहर चलना है,’’ कह कर भवानीराम ने गणपत को मना लिया. गणपत भी खुशीखुशी मान गया. फिर गांव में जोरशोर से प्रचार शुरू हो गया. मगर मुख्य लड़ाई गणपत और राधेश्याम में थी. भवानीराम ने गणपत को जिताने के लिए अपनी सारी ताकत झोंक दी. इधर राधेश्याम भी एड़ीचोटी का जोर लगा रहा था. दलितों की इस लड़ाई में उच्चवर्ग के लोग आनंद ले रहे थे. प्रचार में दोनों ही एकदूसरे से कम नहीं पड़ रहे थे, जिस चौपाल पर कभी पंचों के फैसले हुआ करते थे, आज वहां राजनीति के तीर चल रहे थे. टीवी, इंटरनैट ने गांव को इतना जागरूक बना दिया था कि जरा सी खबर विस्फोट का काम कर रही थी. गणपत लड़ जरूर रहा था, मगर प्रतिष्ठा भवानीराम की दांव पर लगी हुई थी. गांव वाले अच्छी तरह जानते थे कि जीतने के बाद गणपत सरपंच जरूर कहलाएगा, मगर असली सरपंच भवानीराम होंगे. गांव की पंचायत में बैठ कर वे ही फैसला लेंगे. गणपत तो उन का मुहरा बन कर रहेगा.

राजनीति की यह हवा गांव के वातावरण को दूषित कर रही थी, यह बात गांव के बुजुर्ग अच्छी तरह समझ रहे थे. जिस गांव में कभी शांति, अमन और भाईचारा था, वहां सभी अब एकदूसरे की जान के दुश्मन बन गए थे. आखिर तनाव के माहौल में चुनाव संपन्न हुए. प्रतिष्ठा की इस लड़ाई में गणपत जीत गया, लेकिन यह जीत गणपत की नहीं, भवानीराम की थी. गांव वाले गणपत को नहीं असली सरपंच भवानीराम को ही मानते हैं. मगर 8 दिन तक जीत की खुमारी भवानीराम के सिर से नहीं उतरी. उधर, अब गणपत नौकर नहीं सरपंच हो गया था. गांव की पंचायत में वह कुरसी पर बैठने लगा था, लेकिन भवानीराम भी उस के साथ रहता. वह अपनी गाड़ी में बैठा कर गणपत को शहर की मीटिंग में ले जाता था.

ऐसे ही 3 साल बीत गए. भवानीराम के कारण पंचायत को जो पैसा मिला, उस से निर्माण कार्य भी करवाए गए. गणपत से अंगूठा लगवा कर भवानीराम शासकीय योजनाओं को चूना भी लगाता रहा. मगर पंचायत में राधेश्याम के चुने पंच बगावत भी करते रहे. भवानीराम ने किसी की परवा नहीं की, क्योंकि गांव वाले व स्वयं भवानीराम जानते थे कि गणपत तो उन का मुहरा है. जब चाहें उस से कहीं भी अंगूठा लगवा सकते हैं. भवानीराम द्वारा गणपत से अंगूठा लगवा कर शासन का पैसा डकारने पर राधेश्याम के पंच गणपत पर चढ़ बैठे. उन्होंने सलाह ही नहीं दी बल्कि चिल्ला कर कहा,‘‘तुम कब तक भवानीराम के मुहरे बने रहोगे. तुम उन का मुहरा मत बनो, कहीं वे एक दिन तुम्हें जेल की हवा न खिला दें.’’ गणपत अंगूठा लगाने के अलावा कुछ नहीं जानता था. अत: उस की हालत सांपछछूंदर जैसी हो गई थी. एक तो पंचायत के सदस्य उस पर आक्रमण करते रहे, दूसरा शहर में जब भी पंचायत में जाता था, तब वह अपना मजबूत पक्ष नहीं रख पाता था. भवानीराम उस के साथ होते, तो अवश्य मजबूती से पक्ष रखते थे. मगर शासन ने यह निर्णय लिया जब भी शहर की मीटिंग में सरपंच को बुलाया जाए, तब सरपंच आए, उस का प्रतिनिधि या अन्य कोई सरपंच के साथ न आए. ऐसे में गणपत की हालत पतली रहती थी.

इधर भवानीराम के प्रति गणपत के मन में विद्रोह के अंकुर फूट रहे थे. वह अवसर की प्रतीक्षा में था कि कैसे भवानीराम से अपना पिंड छुड़ाए, क्योंकि अभी तक सब उसी पर उंगली उठा रहे थे. आज इसी का नतीजा था कि उस ने भवानीराम से पिंड छुड़ा लिया था. जब गणपत घर पहुंचा तो उस की पत्नी रामकली बोली, ‘‘क्या कहा मालिक ने?’’ ‘‘उन से संबंध तोड़ आया हूं रामकली. मैं उन के कारण बदनाम हो रहा था. सभी मुझे कह रहे थे कि भवानीराम के साए से बचो, तुम्हें बदनाम कर देंगे. जेल की हवा खिला देंगे. तब मैं ने सोचा क्यों न भवानीराम से संबंध तोड़ लूं.’’

‘‘और तुम ने लोगों की बात मान ली,’’ रामकली समझाते हुए बोली, ‘‘लोगों का क्या है, उन्हें तो बदनाम करने में मजा आता है. यह मत भूलो कि भवानीराम के कारण ही आप सरपंच बने हैं, जिन्होंने 3 साल में गांव में खूब काम भी करवाए हैं. एक बात कह देती हूं, भवानीराम से पंगा ले कर आप ने अच्छा नहीं किया, क्योंकि उन के पास आप के खिलाफ वे सारे सुबूत हैं, जिन पर आप ने अंगूठा लगाया है. वे आप को कानूनी पचड़े में फंसा सकते हैं. मेरी मानो तो जा कर भवानीरामजी से माफी मांग आओ.’’

‘‘यह तुम कह रही हो रामकली?’’ गुस्से से गणपत बोला, ‘‘शासन को कितना चूना लगाया है उन्होंने, यह तुम नहीं समझोगी.’’

‘‘मैं नहीं, तुम भी नहीं समझ रहे हो. एक तो तुम्हें आता कुछ नहीं है. अत: एक बार फिर कहती हूं, भवानीरामजी आप को कानूनी मुश्किल में डाल सकते हैं. सोच लो.’’

रामकली की बात सुन कर गणपत सोच में पड़ गया. रामकली उस जैसी अंगूठाछाप नहीं है. वह कुछ पढ़ीलिखी होने के साथ अक्ल भी रखती है. भवानीराम से उस की दुश्मनी उलटी भी पड़ सकती है. यह तो उस ने कभी सोचा ही नहीं था. शासकीय गबन में भवानीराम उसे जेल भी पहुंचा सकते हैं. 3 साल तो उस ने निकाल दिए हैं. अब 2 साल बचे हैं. वे भी निकल जाएंगे. जातेजाते भवानीराम ने उन्हें धमकी देते हुए कहा भी था, ‘मत लगा अंगूठा. कैसे सरपंचगीरी करता है, देखता हूं.’

‘‘क्या सोच रहे हो?’’ रामकली उसे चुप देख कर बोली. ‘‘हां, तुम ठीक कहती हो, रामकली. लोगों के बहकावे में आ कर मुझे मालिक से पंगा नहीं लेना चाहिए था. मैं अभी जाता हूं और मालिक से माफी मांग आता हूं. साथ ही उस कागज पर अंगूठा भी तो लगाना है मुझे,’’ कह कर गणपत बाहर निकल गया. रामकली व्यंग्य से मुसकराती रह गई.

Famous Hindi Stories : तबादला – क्या सास के व्यवहार को समझ पाई माया

Famous Hindi Stories : टैक्सी दरवाजे पर आ खड़ी हुई. सारा सामान बंधा हुआ तैयार रखा था. निशांत अपने कमरे में खड़ा उस चिरपरिचित महक को अपने अंदर समेट रहा था जो उस के बचपन  की अनमोल निधि थी.

निशांत के 4 वर्षीय बेटे सौरभ ने इसी कमरे में घुटनों के बल चल कर खड़े होना और फिर अपनी दादी की उंगली पकड़ कर पूरे घर में घूमना सीखा. निशांत की पत्नी माया एक विदेशी कंपनी में काम करती थी. वह सुबह 9 बजे निकलती तो शाम को 6 बजे ही वापस लौटती. ऐसे में सौरभ अपनी दादी के हाथों ही पलाबढ़ा था.  नौकर टिक्कू के साथ उस की खूब पटती थी, जो उसे कभी कंधे पर बिठा कर तो कभी उस को 3 पहियों वाली साइकिल पर बिठा कर सैर कराता. अकसर शाम को जब माया लौटती तो सौरभ घर में ही न होता और माया बेचैनी से उस का इंतजार करती. किंतु जब टिक्कू के कंधे पर चढ़ा सौरभ घर लौटता तो नीचे कूद कर सीधे दादी की गोद में जा बैठता और तब माया का पारा चढ़ जाता. दादी के कहने पर सौरभ माया के पास जाता तो जरूर किंतु कुछ इस तरह मानो अपनी मां पर एहसान कर रहा हो. ऐसे में माया और भी चिढ़ जाती, मन ही मन इसे अपनी सास की एक चाल समझती.

लगभग 7 वर्ष पूर्व जब माया इस घर में बहू बन कर आई थी तो जगमगाते सपनों से उस का आंचल भरा था. पति के हृदय पर उस का एकछत्र साम्राज्य होगा, हर स्त्री की तरह उस का भी यही सपना था. किंतु उस के पति निशांत के हृदय के किसी कोने में उस की मां की मूर्ति भी विराजमान थी, जिसे लाख प्रयत्न करने पर भी माया वहां से निकाल कर फेंक न सकी. माया के हृदय की कुढ़न ने घर में छोटेमोटे झगड़ों को जन्म देना शुरू कर दिया, जिन्होंने बढ़तेबढ़ते लगभग गृहकलह का रूप ले लिया. इस सारे झगड़ेझंझटों के बीच में पिस रहा था निशांत, जो सीधासादा इंसान था. वह आपसी रिश्तों को शालीनता से निभाने में विश्वास रखता था. अकसर वह माया को समझाता कि ‘मां भावुक प्रकृति की हैं, केवल थोड़े मान, प्यार से ही संतुष्ट हो जाएंगी.’

किंतु माया ने सास को अपनी मां के रूप में नहीं, प्रतिद्वंद्वी के रूप में स्वीकारा. इन 7 वर्षों ने निशांत की मां को एक हंसतेबोलते इंसान से एक मूर्ति में परिवर्तित कर दिया. अपने चारों ओर मौन का एक कवच सा लपेटे मां टिक्कू की मदद से सारे घर की साजसंभाल करतीं. उन के हृदय के किसी कोने में आशा का एक नन्हा दीप अभी भी जल रहा था कि शायद कभी माया के नारी हृदय में छिपी बेटी की ममता जाग उठे और वह उन के गले लग जाए.

किंतु माया की बेरुखी मां के हृदय पर नित्य कोई न कोई नया प्रहार कर जाती  और वे आंतरिक पीड़ा से तिलमिला कर अपने कमरे में चली जातीं. भरी आंखें छलकें और बेटा उन्हें देख ले, इस से पहले ही वे उन्हें पोंछ डालतीं और एक गंभीर मुखौटा चेहरे पर चढ़ा लेतीं. समय इसी तरह बीत रहा था कि एक दिन निशांत को स्थानांतरण का आदेश मिला. शाम को मां के पास बैठ उन के दोनों हाथ अपने हाथों में थाम उस ने खिले चेहरे से मां को बताया, ‘‘मां, मेरी तरक्की हुई है और तबादला भी हो गया है.’’

मां चौंक उठीं, ‘‘बदली भी हो गई है?’’

‘‘हां,’’ निशांत उत्साह से भर कर बोला,  ‘‘मुंबई जाना होगा. दफ्तर की तरफ से मकान भी मिलेगा और गाड़ी भी. तुम खुश हो न, मां?’’

‘‘हां, बहुत खुश हूं,’’ निशांत के सिर पर मां ने हाथ फेरा. आंखें मानो वात्सल्य से छलक उठीं और निशांत संतुष्ट हो कर उठ गया. किंतु शाम को जब माया लौटी तो यह खबर सुन कर झुंझला उठी, ‘‘क्या जरूरत थी यह प्रस्ताव स्वीकार करने की? हमें यहां क्या परेशानी है…मेरी नौकरी अच्छीभली चल रही है, वह  छोड़नी पड़ेगी. तुम्हारी तनख्वाह जितनी बढ़ेगी, उस से कहीं ज्यादा नुकसान मेरी नौकरी छूटने का होगा. फिर मुंबई नया शहर है, आसानी से वहां नौकर नहीं मिलेगा. टिक्कू हमारे साथ जा नहीं सकेगा क्योंकि दिल्ली में उस के मांबाप हैं. मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूं, कैसे उलटेसीधे फैसले कर के बैठ जाते हैं आप.’’

पर्स वहीं मेज पर पटक परेशान सी माया सोफे पर ही पसर गई. थोड़ी देर बाद टिक्कू चाय ले आया.

‘‘मां को चाय दी?’’ निशांत के पूछने पर टिक्कू बोला, ‘‘जी, साहब. मांजी अपनी चाय कमरे में ले गईं.’’

‘‘सुन टिक्कू,’’ माया बोल उठी, ‘‘साहब की बदली मुंबई हो गई है, तू चलेगा न हमारे साथ? सौरभ तेरे बिना नहीं रहेगा.’’

‘‘साहब मुंबई जा रहे हैं?’’ टिक्कू का चेहरा उतर गया, ‘‘फिर मैं क्या करूंगा? मेरा बाप मुझे इतनी दूर नहीं भेजेगा.’’

‘‘तेरी पगार बढ़ा देंगे,’’ माया त्योरी चढ़ा कर बोली, ‘‘फिर तो भेजेगा न तेरा बाप?’’

‘‘नहीं बीबीजी, पगार की बात नहीं, मेरी मां भी बीमार रहती है.’’

‘‘तो ऐसा कह, कि तू ही जाना नहीं चाहता,’’ माया गुस्से से भरी वहां से उठ गई.

फिर अगले कुछ दिन बड़ी व्यस्तता के बीते. निशांत को 1 महीने बाद ही मुंबई पहुंचना था. सो, यह तय हुआ कि माया 1 महीने का जरूरी नोटिस दे कर नौकरी से इस्तीफा दे दे और निशांत के साथ ही चली जाए, जिस से दोबारा आनेजाने का चक्कर न रहे. निशांत ने पत्नी को समझाया, ‘‘सौरभ अभी छोटा ही है, वहां किसी स्कूल में दाखिला मिल जाएगा. मांजी तो साथ होंगी ही, जैसे यहां सबकुछ संभालती हैं, वहां भी संभाल लेंगी. बाद में कोई नौकर भी ढूंढ़ लेंगे, जिस से कि मां पर ही सारे काम का बोझ न पड़े.’’

इन्हीं सारे फैसलों के साथ दिन गुजरते गए. घर में सामान की पैकिंग का काम शुरू हो गया. निशांत के औफिस की ओर से एक पैकिंग कंपनी को आदेश दिया गया था कि वे लोग सारा सामान पैक कर के ट्रक द्वारा मुंबई भेजेंगे. घर की जरूरतों का लगभग सारा सामान पैक हो चुका था. फर्नीचर, डबलबैड, रसोई का सामान, फ्रिज, टीवी आदि बड़ेबड़े लकड़ी के बक्सों में बंद हो कर ट्रक में लादा जा रहा था. अब बचा था तो केवल अपनी निजी जरूरत कासामान, जैसे पहनने के कपड़े आदि, जो उन्हें अपने साथ ही ले जाने थे. कुछ ऐसा सामान भी था जो अब उन के काम का नहीं था, जैसे मिट्टी के तेल का स्टोव, लकड़ी का तख्त, कुछ पुराने बरतन आदि. इन्हें वे टिक्कू के लिए छोड़े जा रहे थे. गृहस्थी में चाहेअनचाहे न जाने ऐसा कितना सामान इकट्ठा हो जाता है, जो इस्तेमाल न किए जाने पर भी फेंकने योग्य नहीं होता. ऐसा सारा सामान वे टिक्कू को दे रहे थे. आखिर 6 साल से वह उन की सेवा कर रहा था, उस का इतना हक तो बनता ही था.

माया की इच्छा थी कि मकान किराए पर चढ़ा दिया जाए. किंतु निशांत ने मना कर दिया, ‘‘दिल्ली में मकान किराए पर चढ़ा कर किराएदार से वापस लेना कितना कठिन होता है, मैं अच्छी तरह समझता हूं. इसीलिए अपने एक मित्र के भतीजे को एक कमरा अस्थायी तौर पर रहने के लिए दे रहा हूं, जिस से मकान की देखभाल होती रहे.’’ उस लड़के का नाम विपिन था, भला सा लड़का था. 2 महीने पहले ही पढ़ाई के लिए दिल्ली आया था. बेचारा रहने की जगह ढूंढ़ रहा था, साफसुथरा कमरा पा कर खुश हो गया. इन सब झंझटों से छुट्टी पा कर निशांत मां के कमरे में गया और बोला, ‘‘लाओ मां, तुम्हारा सामान मैं पैक करता हूं.’’ किंतु मां किसी मूर्ति की तरह गंभीर बैठी थीं, शांत स्वर में बोलीं, ‘‘मैं नहीं जाऊंगी, बेटा.’’

‘‘क्या?’’ निशांत मानो आसमान से गिरा, ‘‘क्या कहती हो मां? हम तुम्हें यहां अकेला छोड़ कर जाएंगे भला?’’

‘‘अकेली कहां हूं बेटा,’’ मां भरेगले से बोलीं, ‘‘टिक्कू है, विपिन है.’’

‘‘लेकिन, वे सब तो गैर हैं. अपने तो हम हैं, जिन्हें तुम्हारी देखभाल करनी है. हम तुम्हें कैसे अकेला छोड़ दें?’’

‘‘अपना क्या और पराया क्या?’’ मां की आवाज मानो हृदय की गहराइयों से फूट रही थी, ‘‘जो प्यार करे, वही अपना, जो न करे, वह पराया.’’

‘‘नितांत सादगी से कहे गए मां के इस वाक्य की मार से निशांत मानो तिलमिला उठा. वह बोझिल हृदय से बोला, ‘‘माया के दोषों की सजा मुझे दे रही हो, मां?’’

‘‘नहीं रे, ऐसा क्यों सोचता है? मैं तो तेरे सुख की राह तलाश रही हूं.’’

‘‘तुम्हारे बिना कैसा सुख, मां?’’ और निशांत कमरे से बाहर निकल गया. माया को जब यह पता चला तो अपने चिरपरिचित व्यंग्यपूर्ण अंदाज में बोली, ‘‘अब यह आप का कौन सा नया नाटक शुरू हो गया?’’

‘‘किस बात का नाटक?’’ मां का स्वर दृढ़ था, ‘‘सीधी सी बात है, मैं नहीं जाना चाहती.’’

‘‘लेकिन क्यों?’’

‘‘क्या मेरी इच्छा का कोई मूल्य नहीं?’’

‘‘यह इच्छा की बात नहीं है, मुझे परेशान करने की आप की एक और चाल है. आप खूब समझती हैं कि टिक्कू साथ जा नहीं रहा, सौरभ आप के बिना रहता नहीं. उस नई जगह में मुझे अकेले सब संभालने में कितनी परेशानी होगी, इसीलिए आप मुझ से बदला ले रही हैं.’’

‘‘बदला तो मैं गैरों से भी नहीं लेती माया, फिर तुम तो मेरी अपनी हो, बेटी हो मेरी. जिस दिन तुम्हारी समझ में यह बात आ जाए, मुझे लेने आना. तब चलूंगी तुम्हारे साथ,’’ इतना कह कर मां कमरे से बाहर चली गईं. रात को निशांत के कमरे से माया की ऊंची आवाज बाहर तक सुनाई दे रही थी, ‘‘सारी दुनिया को दिखाना है कि हम उन को साथ नहीं ले जा रहे…हमारी बदनामी होगी, इस का भी खयाल नहीं.’’ माया का व्यवहार अब निशांत की सहनशक्ति की सीमाएं तोड़ रहा था. आखिर उस ने साफ बात कह ही डाली, ‘‘दरअसल, तुम्हें चिंता मां की नहीं, बल्कि इस बात की है कि वहां नौकर भी नहीं होगा और मां भी नहीं. फिर घर का सारा काम तुम कैसे संभालोगी. तुम्हारी सारी परेशानी इसी एक बात को ले कर है.’’

अंत में तय यह हुआ कि अगले दिन सुबह जब सौरभ सो कर उठे तो उसे समझाया जाए कि दादी को साथ चलने के लिए राजी करे. उन की उड़ान का समय शाम 5 बज कर 40 मिनट का था और मां के सामान की पैकिंग के लिए इतना समय काफी था. दूसरे दिन सुबह होते ही अपनी उनींदी आंखें मलतामलता सौरभ दादी की गोद में जा बैठा, ‘‘दादीमां, जल्दी से तैयार हो जाओ.’’

‘‘तैयार हो जाऊं, भला क्यों?’’ सौरभ के दोनों गाल चूमचूम कर मां निहाल हुई जा रही थीं.

‘‘मैं तुम्हें मुंबई ले जाऊंगा.’’ मां की समझ में सारी बात आ गई. धीरे से सौरभ को गोद से नीचे उतार कर बोलीं, ‘‘पहले जा कर मंजन करो और दूध पियो.’’ सौरभ उछलताकूदता कमरे से बाहर भाग गया. थोड़ीथोड़ी देर में निशांत व माया किसी न किसी बहाने से मां के कमरे में यह देखने के लिए आतेजाते रहे कि वे अपना सामान पैक कर रही हैं या नहीं. किंतु मां के कमरे में सबकुछ शांत था. वे तो रसोई में मिट्टी के तेल वाले स्टोव पर उन लोगों के लिए दोपहर का खाना बनाने में व्यस्त थीं. वे निशांत और सौरभ की पसंद की चीजें टिक्कू की मदद से तैयार कर रही थीं. जो थोड़ेबहुत पुराने बरतन उन लोगों ने छोड़े थे, उन्हीं से वे अपना काम चला रही थीं. मां को पता भी न चला कि कितनी देर से निशांत रसोई के दरवाजे पर खड़ा उन्हें देख रहा है. माया भी उसी के पीछे खड़ी थी. सहसा मां की दृष्टि उन पर पड़ी और एक पल को मानो उन का उदास चेहरा खिल उठा.

‘‘ऐसे क्यों खड़े हो तुम दोनों?’’ मां पूछ बैठीं.

‘‘क्या आप माया को माफ नहीं कर सकतीं? ’’ बुझे स्वर में निशांत ने पूछा.

‘‘आज तक और किया ही क्या है, बेटा?’’ मां बोलीं, ‘‘लेकिन बिना किसी प्रयत्न के अनायास मिला प्यार मूल्यहीन हो जाता है. इस तथ्य को समझो बेटा. तुम्हारे और सौरभ के बिना रहना मेरे लिए भी आसान नहीं है, लेकिन इस समय शायद इसी में हम सब की भलाई है. अकेले घर संभालने में माया को परेशानी तो होगी, लेकिन धीरेधीरे सीख जाएगी.’’ टिक्कू के हाथ में खाने की प्लेटें दे कर मां रसोई से बाहर आईं. हाथ धो कर उन्होंने अपने कमरे में बिछे लकड़ी के तख्त पर खाना लगा दिया. आलू, पूरी देखते ही सौरभ खुश हो गया. मीठे में मां ने सेवइयां बनाई थीं, जो निशांत और माया दोनों को पसंद थीं. सब लोग एकसाथ खाना खाने बैठे. मां के हाथ का खाना अब न जाने कब मिले, यह ध्यान आते ही मानो निशांत के गले में पूरी का कौर अटकने लगा. किसी तरह 2-4 कौर खा कर वह पानी का गिलास ले कर उठ गया.

टैक्सी में सामान रखा जा रहा था. मां निर्विकार भाव से मूर्ति बनी बैठी थीं. उन के पैरों के पास टिक्कू बैठा हुआ था. कभी वह अपने साहब को देखता और कभी मांजी को, मानो समझना चाह रहा हो कि जो कुछ भी हो रहा है, वह अच्छा है या बुरा. मां के पांव छूते समय निशांत के हृदय की पीड़ा उस के चेहरे पर साफ उभर आई. वह भरे गले से बोला, ‘‘मैं हर महीने आऊंगा मां, चाहे एक ही दिन के लिए आऊं.’’ मां ने उस के सिर पर हाथ फेरा, ‘‘तुम्हारा घर है बेटा, जब जी चाहे आओ, लेकिन मेरी चिंता मत करना.’’

‘‘क्या आप सचमुच ऐसा सोचती हैं कि यह संभव है?’’ कहतेकहते निशांत का स्वर भर्रा उठा.

मां के पैरों के पास बैठा टिक्कू उठ कर निशांत के सामने आ गया और दोनों हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘आप मांजी की चिंता न करें साहब, मैं हूं न, सब संभाल लूंगा. आप हर महीने खुद ही आ कर देख लेना.’’ एक भरपूर नजर टिक्कू पर डाल सहसा निशांत ने उसे अपने से चिपटा लिया. उस पल, उस घड़ी माया उस की दृष्टि में नगण्य हो उठी.

लेखिका- प्रमिला बहादुर

Hindi Kahaniyan : खूबसूरत – क्यों दुल्हन का चेहरा देखकर हैरान था असलम

Hindi Kahaniyan : असलम ने धड़कते दिल के साथ दुलहन का घूंघट उठाया. घूंघट के उठते ही उस के अरमानों पर पानी फिर गया था. असलम ने फौरन घूंघट गिरा दिया. अपनी दुलहन को देख कर असलम का दिमाग भन्ना गया था. वह उसे अपने ख्वाबों की शहजादी के बजाय किसी भुतहा फिल्म की हीरोइन लग रही थी. असलम ने अपने दांत पीस लिए और दरवाजा खोल कर बाहर निकल गया.

बड़ी भाभी बरामदे में टहलते हुए अपने रोते हुए मुन्ने को चुप कराने की कोशिश कर रही थीं. असलम उन के पास चला गया.

‘‘मेरे साथ आइए भाभी,’’ असलम भाभी का हाथ पकड़ कर बोला.

‘‘हुआ क्या है?’’ भाभी उस के तेवर देख कर हैरान थीं.

‘‘पहले अंदर चलिए,’’ असलम उन का हाथ पकड़ कर उन्हें अपने कमरे में ले गया.

‘‘यह दुलहन पसंद की है आप ने मेरे लिए,’’ असलम ने दुलहन का घूंघट झटके से उठा कर भाभी से पूछा.

‘‘मुझे क्या पता था कि तुम सूरत को अहमियत दोगे, मैं ने तो सीरत परखी थी,’’ भाभी बोलीं.

‘‘आप से किस ने कह दिया कि सूरत वालों के पास सीरत नहीं होती?’’ असलम ने जलभुन कर भाभी से पूछा.

‘‘अब जैसी भी है, इसी के साथ गुजारा कर लो. इसी में सारे खानदान की भलाई है,’’ बड़ी भाभी नसीहत दे कर चलती बनीं.

‘‘उठो यहां से और दफा हो जाओ,’’ असलम ने गुस्से में मुमताज से कहा.

‘‘मैं कहां जाऊं?’’ मुमताज ने सहम कर पूछा. उस की आंखें भर आई थीं.

‘‘भाड़ में,’’ असलम ने झल्ला कर कहा.

मुमताज चुपचाप बैड से उतर कर सोफे पर जा कर बैठ गई. असलम ने बैड पर लेट कर चादर ओढ़ ली और सो गया. सुबह असलम की आंख देर से खुली. उस ने घड़ी पर नजर डाली. साढ़े 9 बज रहे थे. मुमताज सोफे पर गठरी बनी सो रही थी.

असलम बाथरूम में घुस गया और फ्रैश हो कर कमरे से बाहर आ गया.

‘‘सुबहसुबह छैला बन कर कहां चल दिए देवरजी?’’ कमरे से बाहर निकलते ही छोटी भाभी ने टोक दिया.

‘‘दफ्तर जा रहा हूं,’’ असलम ने होंठ सिकोड़ कर कहा.

‘‘मगर, तुम ने तो 15 दिन की छुट्टी ली थी.’’

‘‘अब मुझे छुट्टी की जरूरत महसूस नहीं हो रही.’’

दफ्तर में भी सभी असलम को देख कर हैरान थे. मगर उस के गुस्सैल मिजाज को देखते हुए किसी ने उस से कुछ नहीं पूछा. शाम को असलम थकाहारा दफ्तर से घर आया तो मुमताज सजीधजी हाथ में पानी का गिलास पकड़े उस के सामने खड़ी थी.

‘‘मुझे प्यास नहीं है और तुम मेरे सामने मत आया करो,’’ असलम ने बेहद नफरत से कहा.

‘‘जी,’’ कह कर मुमताज चुपचाप सामने से हट गई.

‘‘और सुनो, तुम ने जो चेहरे पर रंगरोगन किया है, इसे फौरन धो दो. मैं पहले ही तुम से बहुत डरा हुआ हूं. मुझे और डराने की जरूरत नहीं है. हो सके तो अपना नाम भी बदल डालो. यह तुम पर सूट नहीं करता,’’ असलम ने मुमताज की बदसूरती पर ताना कसा.

मुमताज चुपचाप आंसू पीते हुए कमरे से बाहर निकल गई. इस के बाद मुमताज ने खुद को पूरी तरह से घर के कामों में मसरूफ कर लिया. वह यही कोशिश करती कि असलम और उस का सामना कम से कम हो.

दोनों भाभियों के मजे हो गए थे. उन्हें मुफ्त की नौकरानी मिल गई थी. एक दिन मुमताज किचन में बैठी सब्जी काट रही थी तभी असलम ने किचन में दाखिल हो कर कहा, ‘‘ऐ सुनो.’’

‘‘जी,’’ मुमताज उसे किचन में देख कर हैरान थी.

‘‘मैं दूसरी शादी कर रहा हूं. यह तलाकनामा है, इस पर साइन कर दो,’’ असलम ने हाथ में पकड़ा हुआ कागज उस की तरफ बढ़ाते हुए कहा.

‘‘क्या…?’’ मुमताज ने हैरत से देखा और सब्जी काटने वाली छुरी से अपना हाथ काट लिया. उस के हाथ से खून बहने लगा.

‘‘जाहिल…,’’ असलम ने उसे घूर कर देखा, ‘‘शक्ल तो है ही नहीं, अक्ल भी नहीं है तुम में,’’ और उस ने मुमताज का हाथ पकड़ कर नल के नीचे कर दिया.

मुमताज आंसुओं को रोकने की नाकाम कोशिश कर रही थी. असलम ने एक पल को उस की तरफ देखा. आंखों में उतर आए आंसुओं को रोकने के लिए जल्दीजल्दी पलकें झपकाती हुई वह बड़ी मासूम नजर आ रही थी.

असलम उसे गौर से देखने लगा. पहली बार वह उसे अच्छी लगी थी. वह उस का हाथ छोड़ कर अपने कमरे में चला गया. बैड पर लेट कर वह देर तक उसी के बारे में सोचता रहा, ‘आखिर इस लड़की का कुसूर क्या है? सिर्फ इतना कि यह खूबसूरत नहीं है. लेकिन इस का दिल तो खूबसूरत है.’

पहली बार असलम को अपनी गलती का एहसास हुआ था. उस ने तलाकनामा फाड़ कर डस्टबिन में डाल दिया.

असलम वापस किचन में चला आया. मुमताज किचन की सफाई कर रही थी.

‘‘छोड़ो यह सब और आओ मेरे साथ,’’ असलम पहली बार मुमताज से बेहद प्यार से बोला.

‘‘जी, बस जरा सा काम है,’’ मुमताज उस के बदले मिजाज को देख कर हैरान थी.

‘‘कोई जरूरत नहीं है तुम्हें नौकरों की तरह सारा दिन काम करने की,’’ असलम किचन में दाखिल होती छोटी भाभी को देख कर बोला.

असलम मुमताज की बांह पकड़ कर अपने कमरे में ले आया, ‘‘बैठो यहां,’’  उसे बैड पर बैठा कर असलम बोला और खुद उस के कदमों में बैठ गया.

‘‘मुमताज, मैं तुम्हारा अपराधी हूं. मुझे तुम जो चाहे सजा दे सकती हो. मैं खूबसूरत चेहरे का तलबगार था. मगर अब मैं ने जान लिया है कि जिंदगी को खूबसूरत बनाने के लिए खूबसूरत चेहरे की नहीं, बल्कि खूबसूरत दिल की जरूरत होती है. प्लीज, मुझे माफ कर दो.’’

‘‘आप मेरे शौहर हैं. माफी मांग कर आप मुझे शर्मिंदा न करें. सुबह का भूला अगर शाम को वापस आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते,’’ मुमताज बोली.

‘‘थैंक्स मुमताज, तुम बहुत अच्छी हो,’’ असलम प्यार से बोला.

‘‘अच्छे तो आप हैं, जो मुझ जैसी बदसूरत लड़की को भी अपना रहे हैं,’’ कह कर मुमताज ने हाथों में अपना चेहरा छिपा लिया और रोने लगी.

‘‘पगली, आज रोने का नहीं हंसने का दिन है. आंसुओं को अब हमेशा के लिए गुडबाय कह दो. अब मैं तुम्हें हमेशा हंसतेमुसकराते देखना चाहता हूं.

‘‘और खबरदार, जो अब कभी खुद को बदसूरत कहा. मेरी नजरों में तुम दुनिया की सब से हसीन लड़की हो,’’ ऐसा कह कर असलम ने मुमताज को अपने सीने से लगा लिया.

मुमताज सोचने लगी, ‘अंधेरी रात कितनी भी लंबी क्यों न हो, मगर उस के बाद सुबह जरूर होती है.’

लेखिका- सायरा बानो मलिक

Best Hindi Stories : एस्कॉर्ट और साधु

Best Hindi Stories :  मानस डाइनिंग टेबल पर बैठा हुआ नाश्ते का इंतजार कर रहा था, पर विद्या की पूजा थी कि खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी. घर के मंदिर से घंटी की आवाजें लगातार मानस के कानों से टकरा रही थीं, पर इन सब से मानस को कोफ्त हो रही थी.

‘‘लगता है, आज भी औफिस की कैंटीन में ही नाश्ता करने पड़ेगा… और फिर मेरे लिए तो यह रोज का ही किस्सा है,’’ बुदबुदाते हुए उठा था मानस.

रोज बाहर नाश्ता करना मानस के रूटीन में आ गया था. इस सब की वजह उस की पत्नी विद्या ही थी. वह पूजापाठ में इतनी तल्लीन रहती कि सवेरे जल्दी उठने के बाद भी वह अपने पति को नाश्ता नहीं दे पाती थी.

विद्या का मानना था कि पूजापाठ इनसान को जीवन में जरूर करना चाहिए, क्योंकि इस से उस की अगली जिंदगी तय होती है और अगले जन्म में इनसान को पैसा, गाड़ी, मकान वगैरह का भरपूर सुख मिलता है.

ऐसा नहीं था कि विद्या कोई अनपढ़गंवार थी, बाकायदा उस ने यूनिवर्सिटी से बीए तक की पढ़ाई की थी, पर अपने घर के माहौल का उस पर ऐसा गहरा असर पड़ा था, जिस ने उसे धर्मभीरु बना दिया था.

अपने और मानस के कपड़ों के रंग के चुनाव विद्या दिन के मुताबिक करती थी, मसलन सोमवार को सफेद, मंगलवार को लाल से ले कर शनिवार को काले कपड़े पहनने तक के टाइम टेबल के मुताबिक ही चलती थी.

इतने तक तो कोई बात नहीं थी, मानस सहन कर लेता था, पर असली समस्या जब आती, जब मानस औफिस के काम से थका हुआ घर आता और रात को अपनी पत्नी से उस की देह की डिमांड कर के अपनी थकान मिटाना चाहता था, पर अकसर विद्या का कोई न कोई व्रत होता, कहीं एकादशी या कहीं किसी मन्नत पूरी करने के लिए व्रत या कहीं कोई साप्ताहिक व्रत.

अगर जानेअनजाने में मानस का हाथ भी उसे छू जाता, तो विद्या तुरंत ही जा कर गंगाजल पी लेती थी. कोई भी मर्द अपने पेट की आग को तो मार सकता है, पर अगर कई दिनों तक सैक्स का सुख नहीं मिले तो उसे अपने जिस्म की गरमी को सहन कर पाना उस के लिए नामुमकिन सा हो जाता है. ऐसा ही हाल मानस का था. विद्या के बहुत ज्यादा धार्मिक होने के चलते वह अनदेखा सा महसूस करता था.

प्यार में साथ नहीं मिलने पर कभीकभी बेचारा मानस अपने शरीर के उफान को दबा कर रह जाता और रातभर करवटें बदलता रहता. लिहाजा, अगले दिन औफिस में भी वह सुस्त रहता और कभीकभी काम लेट हो जाने के चलते उसे डांट भी पड़ जाती थी.

औफिस के बाकी साथियों का चेहरा जहां खिला हुआ रहता था, वहीं मानस का चेहरा बुझाबुझा सा रहता था.

‘‘क्या बात है मानस? आजकल तुम बुझेबुझे से रहते हो?’’ मानस के साथ काम करने वाली लिली ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं लिली… बस थोड़ी घरेलू समस्याएं हैं… इसीलिए थोड़ा परेशान रहता हूं.’’

‘‘कोई बात नहीं, धीरेधीरे सब सही हो जाएगा,’’ लिली ने कहा.

लिली का इस तरह से मानस के बारे में हालचाल पूछना, मानस को बहुत अच्छा लगा था.

अगले दिन औफिस से छुट्टी के समय मानस के मोबाइल पर लिली का फोन आया.

‘‘अरे मानस… अगर तुम मुझे लिफ्ट दे दो, तो मुझे घर जाने में आसानी रहेगी… दरअसल, मेरी स्कूटी पंक्चर हो गई है.’’

‘‘क्यों नहीं… बाहर आ जाओ… मैं तो पार्किंग स्टैंड पर ही खड़ा हूं.’’

मानस जब लिली को घर छोड़ने जा रहा था, तब लिली का साथ उसे बहुत अच्छा लग रहा था, ‘‘आओ… मानस अंदर आओ…

एकएक कप चाय हो जाए,’’ लिली ने मुसकरा कर जब चाय का औफर दिया, तो मानस उस के साथ अंदर ड्राइंगरूम में आ गया.

ड्राइंगरूम में लिली का पति पहले से बैठा हुआ था.

‘‘इन से मिलो… ये हैं मेरे पति राकेश. और राकेश, ये हैं मेरे औफिस के साथी मानस गोस्वामी,’’ लिली ने एकदूसरे का परिचय कराया.

‘‘आप लोग बैठो… मैं आप लोगों के लिए चाय बना कर लाती हूं,’’ कह कर लिली चाय बनाने चली गई और मानस और राकेश बैठ कर बातें करते रहे.

कुछ देर बाद मानस ने लिली के घर से विदा ली. वापसी में वह सोच रहा था कि लिली का पति कितना खुशकिस्मत है, जो इतनी मौडर्न और खूबसूरत बीवी मिली है और एक मैं हूं, औफिस से घर आओ तो भी मैडम पूजापाठ में या सत्संग में बिजी होती हैं, रात में भी उस के ध्यान करने का समय होता है… मेरी भी कोई जिंदगी है…’’

मानस ने औफिस में भी लोगों को अपनी पत्नी की तारीफ करते हुए सुना था कि कैसे उन की पत्नियां उन के खानेपीने का खयाल रखती हैं और खुद भी सजसंवर कर रूमानी मूड में रहती हैं.

जब मर्द को घर से प्यार नहीं मिलता, तब वह बाहर की दुनिया में प्यार तलाशता है. ऐसा ही हाल मानस का हो गया था और पिछले कुछ दिनों में लिली ने जो उस से निकटता बढ़ाई थी, उस से तो मानस को यह ही महसूस होने लगा था कि लिली उस से प्यार करती है.

‘पर भला वह क्यों मुझ से प्यार करने लगी… लिली के पास तो खुद ही एक  हैंडसम पति है,’ अपनेआप से बात करता हुआ मानस सोच रहा था.

‘तो क्या हुआ… आजकल तो नाजायज संबंध बनाना आम बात है और फिर लिली भी तो मुझ से निकटता दिखाती है. अगर मेरे हाथ उस के नाजुक अंगों से छू भी जाएं, तो भी वह बुरा नहीं मानती है… यह प्यार ही तो है… अब मैं इस वैलेंटाइन डे पर लिली से अपने प्यार का इजहार कर ही दूंगा,’ मन ही मन सोच रहा था मानस और जब वैलेंटाइन डे आया, तो एक प्यार भरा मैसेज टाइप कर के मानस ने लिली के मोबाइल पर भेज दिया और लिली के जवाब का इंतजार करने लगा.

जवाब तो नहीं आया, उलटा लिली जरूर आई और सब औफिस वालों के सामने मानस को खूब खरीखोटी सुनाई.

‘‘मैं तो आप को शरीफ आदमी समझ कर आप से बात करने लगी थी… मुझे क्या पता था कि आप किसी और ताक में हैं… आज के बाद मेरी तरफ नजर उठा कर भी मत देखिएगा, नहीं तो ठीक नहीं होगा,’’ गुस्से में लाल होती हुई लिली ने कहा.

जब मानस ने बहाना बनाया कि गलती से किसी दूसरे का मैसेज लिली पर फौरवर्ड हो गया था, तब जा कर बात शांत हुई थी.

उसी औफिस में मानस और लिली का एक कौमन दोस्त रहता था. विजय नाम का वह इनसान भी कभी लिली से प्यार किया करता था, पर लिली की शादी हो जाने के बाद से उस का लिली से अफेयर चलाने का कोई भी चांस खत्म हो गया था.

लिली को इस तरह से मानस द्वारा मैसेज किया जाना विजय को रास नहीं आया और उस ने मन ही मन मानस को सबक सिखाने की बात सोची.

औफिस के बाद विजय ने मानस का हमराज बनना चाहा कि क्यों मानस ने ऐसी हरकत की है, तो मानस गुस्से से फट गया, ‘‘अरे यार, किसी चीज की भी हद होती है…

अब भूखा आदमी अगर खाना ढूंढ़ने बाहर जाए, तो भला इस में क्या गलत है, मुझे घर में शारीरिक संतुष्टि नहीं मिलती, इसलिए मुझे लगा कि बाहर कहीं दांव आजमाना चाहिए… इसीलिए भावनाओं में बह गया मैं और उसे मैसेज कर बैठा.’’

‘‘यार, मेरी पत्नी भी कुछ इसी तरह की थी… आएदिन नखरे किया करती थी… मैं भी परेशान हुआ… फिर मैं ने इस समस्या का एक हल निकाल लिया,’’ तिरछी मुसकराहट के साथ विजय कह रहा था.

‘‘हल निकाला… क्या बीवी ही बदल दी तू ने क्या?’’ मानस ने पूछा.

‘‘बीवी नहीं बदली… पर खुद को बदल लिया…’’ विजय ने मोबाइल पर एक फोन नंबर दिखाते हुए कहा.

‘यह एक मसाज सैंटर चलाने वाले दलाल का नंबर है… जब मुझे मजा करना होता है, तब मैं इस नंबर पर फोन लगाता हूं और यह एक ऐस्कौर्ट को एक तय जगह या होटल या कभीकभी कार में ही भेज देता है…’’

‘‘ऐस्कौर्ट यानी… तू मुझे धंधे वाली के पास जाने को कह रहा है?’’

‘‘अरे नहीं… आजकल बड़े घर की लड़कियां अपने मजे और शौक के लिए ऐस्कौर्ट का काम करती हैं…’’ विजय ने अपना ज्ञान बघारा.

शाम को जब थका हुआ मानस घर आया, तो विद्या धार्मिक चैनल देख रही थी और जब मानस ने उस से चाय बना लाने के लिए कहा, तो वह बोली, ‘‘अरे, अभी थोड़ा रुक जाओ… देखते नहीं कि गुरुजी ‘समस्त कष्ट निवारण यज्ञ’ का तरीका बता रहे हैं… ऐसा करो, तुम खुद ही बना लो और एक कप मुझे भी दे देना.’’

झक मार कर मानस बैडरूम में चला गया.

रात हुई तो मानस ने बढि़या खुशबू वाला इत्र लगाया. दुकानदार ने दावा किया था कि इसे इस्तेमाल करेंगे, तो औरत आप से किसी बेल की तरह चिपकी रहेगी…

मानस ने विद्या के होंठों को चूमना चाहा, तो वह तुरंत ही पीछे हट गई और बोली, ‘‘नहीं, मुझे तंग मत करो… कल मेरा व्रत है… इसलिए यह सब आज नहीं. और सुनो… परसों मैं ने ‘समस्त कष्ट निवारण यज्ञ’ का आयोजन किया है, जिस के लिए मैं ने एक आचार्यजी से बात कर ली है. वे सुबह ही आ जाएंगे और 4-5 घंटे कार्यक्रम चलेगा… आप भी घर में ही रहना.’’

विद्या की बातें सुन कर मानस को गुस्सा आ गया, ‘‘नहीं, मैं तो घर में नहीं रुक पाऊंगा. तुम्हें जो करना है, करो. और अब जो मुझे करना है, वह मैं करूंगा,’’ और यह कह कर वह मुंह फेर कर सोने लगा.

अगली सुबह औफिस में जैसे ही विजय से मुलाकात हुई, वैसे ही मानस ने उस से कहा, ‘‘भाई मेरे शरीर में बहुत दर्द हो रहा है. लग रहा है, मुझे भी मसाज कराना पड़ेगा… जरा वह मसाज सैंटर वाला नंबर मुझे भी देना… मैं भी ऐंजौय करना चाहता हूं.’’

विजय ने शरारती ढंग से देखते हुए मानस को नंबर दिया और मानस ने उस नंबर पर बात की.

दलाल ने मानस को बताया कि कल उसे ठीक 12 बजे एक मैसेज आएगा, जिस पर पहुंचने का पता होगा और साथ ही एक अकाउंट नंबर भी लिखा होगा, जिस पर उसे एडवांस पेमेंट करनी होगी, तभी मसाज की सुविधा मिल पाएगी.

मानस ने सारी बात मान ली और अगले दिन बेसब्री से 12 बजने का इंतजार करने लगा.

उधर, विद्या ने भी ‘समस्त कष्ट निवारण यज्ञ’ रखवाया था. सुबह होते ही वह उसी की तैयारी करने में बिजी हो गई, जबकि मानस के अंदर बेचैनी बढ़ती जा रही थी.

ठीक 12 बजे मानस के मोबाइल पर एक मैसेज आया, जिस में एक एकाउंट नंबर था और एक होटल का नाम भी था, जहां पहुंचने पर उसे पहले से बुक एक कमरे में जाना था, जहां उसे मसाज की सुविधा दी जानी थी.

मानस को होटल के कमरे तक पहुंचने में कोई दिक्कत नहीं हुई और वह बेसब्री से ऐस्कौर्ट का इंतजार करने लगा.

वह समय भी आ गया, जब कमरे के अंदर एक लड़की आई. उसे देख कर मानस के पसीने छूट गए.

‘‘भला इतनी खूबसूरत लड़की भी ऐसा काम कर सकती है… पर, मुझे क्या, मैं ने भी तो पूरे 10,000 रुपए दिए हैं इस के लिए… अब तो मुझे वसूलना भर है,’’ ऐसा सोच कर मानस किसी भूखे भेडि़ए की तरह उस लड़की पर टूट पड़ा.

अभी मजा लेते हुए मानस को कुछ ही समय हुआ था कि होटल के कमरे का दरवाजा अचानक से खुल गया और 2 आदमी अंदर घुंस आए, जिन में से एक के हाथ में मोबाइल था और वे लगातार मानस और उस लड़की का वीडियो बनाने में लगा हुआ था.

मानस चौंक पड़ा था और वह लड़की अपने कपड़े पहनने लगी थी.

‘‘तुम ने ठीक पहचाना… इस मोबाइल में तुम्हारी पूरी फिल्म बन गई है… अब ये हम पर है कि इसे हम किसकिस को दिखाएं… इंटरनैट पर डालें या तुम्हारे घरपरिवार वालों को दे दें… या तुम्हारे औफिस में इसे सब के मोबाइलों पर भेज दें… फैसला तुम्हारे हाथ में है,’’ उन में से एक आदमी बोला.

अचानक से मानस का माथा ठनका, ‘‘आखिरकार ऐसा क्यों कर रहे हो तुम लोग…’’ मानस चीखा.

‘‘एक लाख रुपए के लिए… नहीं तो यह वीडियो अभी वायरल कर दिया जाएगा… पैसे दो और यह वीडियो हम तुम्हारे सामने ही डिलीट कर देंगे.’’

मानस ने देखा कि कमरे में सिर्फ वे 2 आदमी ही खड़े थे. वह लड़की वहां से जा चुकी थी. मानस को समझते देर नहीं लगी कि यह पूरा एक ही गैंग है और इन्हें बिना पैसे दिए इन से छुटकारा पाना मुमकिन नहीं होगा, इसलिए उस ने बिना देर किए पूरे 50,000 रुपए नैटबैंकिंग की मदद से उन दोनों द्वारा बताए गए अकाउंट नंबर पर ट्रांसफर कर दिए और बाकी के 50,000 रुपए का चैक काट दिया.

उन दोनों आदमियों ने भी शराफत दिखाते हुए वह वीडियो मानस के सामने ही डिलीट कर दिया.

अपना पैसा लुटा कर भारी मन से घर लौटने लगा था मानस. जब वह घर पहुंचा, तो वहां का दृश्य देख कर उस के हाथपैर फूल गए.

कमरे में चारों तरफ धुआं फैला हुआ था और विद्या एक कोने में सिर नीचे किए बैठी थी.

मानस ने विद्या से पूछा, तो पता चला कि जो साधु ‘समस्त कष्ट निवारण यज्ञ’ कराने के लिए घर में आया था, उस ने यज्ञ के बहाने घर में नशीला धुआं भर दिया, जिस से विद्या बेहोश होने लगी और तब वह साधु घर में रखी हुई कीमती चीजें, नकदी और गहने ले कर चंपत हो गया.

विद्या रो रही थी. मानस भी दुखी था और सोच रहा था कि अति हर चीज की बुरी होती है.

विद्या की पूजा की अति ने ही आज हम दोनों को इस मुकाम तक पहुंचा दिया है.

पर भला अपने लुटने की बात मानस विद्या से कैसे कहता, सो दोनों एकदूसरे के आंसू पोंछते रहे.

विद्या ने इतना जरूर कहा कि आज के बाद वह किसी साधु को घर में नहीं घुसाएगी. उस की आंखों पर तना हुआ अंधविश्वास का परदा हट रहा था.

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