फीनिक्स: भाग-2

पिछला भाग- फीनिक्स: भाग-1

 कहानी- मेहा गुप्ता

मुझे, इसलिए नहीं कि वह सुंदर नहीं था, बल्कि मेरी नजर में पर्फैक्ट मैच नहीं था वह मेरी सलोनी के लिए.

करीब 20 मिनट बाद मेरी भेजी रिक्वैस्ट पर उस का रिप्लाई आया ‘ऐक्सैप्टेड.’ उस ने कीबोर्ड पर खटखट कर चैट करने के बजाय तुरंत मुझे वीडियो कौल की.

‘‘कहां खो गई थी मेरी स्वीटी, कितना ढूंढ़ा मैं ने तुझे?’’

‘‘मैं फेसबुक पर नहीं थी और मेरा मोबाइल खो जाने के कारण सारे कौंटैक्ट्स डिलीट हो गए थे,’’ मैं जानती थी कि मैं ने बड़ा घिसापिटा सा बहाना बनाया है.

‘‘तू अभी मुंबई में ही है औरकभी मुझ से संपर्क करने की कोशिश नहीं की. इतना पराया कर दिया अपनी सलोनी को?’’ उस की बातें जारी थीं. वही अदाएं, चेहरे पर वही नूर, शब्दों को जल्दीजल्दी बोलने की उस की आदत, उत्साह से लबरेज.

‘‘मैं अगले हफ्ते जयपुर आ रही हूं. मिल के बात करते हैं,’’ बस इतना कह पाई मैं. आंसुओं ने मेरे स्वर को अवरुद्ध कर दिया था.

फोन रखने के बाद भी मेरा मन उस में ही अटका रहा. शाम को भी मैं फिर उस के अकाउंट पर गई. उस ने ढेरों फोटो अपलोड कर रखे थे. उस के घूमने के, पार्टियों के, शादी समारोहों के. कुल मिला कर ये सब फोटो उस की संपन्नता और खुशी को बयां कर रहे थे.

‘‘कहां अटकी हुई है आज तू? कितनी देर से गाड़ी में तेरा इंतजार कर रही हूं,’’ मेरी कुलीग जो मेरी पूल पार्टनर भी है की आवाज ने मेरी तंद्रा को भंग किया.

‘‘तू निकल जा… मैं मार्केट से थोड़ा काम निबटाते हुए आऊंगी,’’ कह मैं ने घड़ी की तरफ नजर डाली. 5 बज रहे थे. मैं ने सलोनी के बच्चों के लिए चौकलेट्स, उस के लिए पर्स आदि लिया. घर लौटते हुए मैं ने एक थैला सब्जी भी खरीद ली, क्योंकि मुझे 2 दिनों के लिए बाहर जाना था. ऐसे में मैं कई ग्रेवी वाली सब्जियां बना कर जाती थी. रोटी अमन बना लेते थे. इस से मेरे पति और बेटे का मेरे पीछे से काम निकल जाता था.

अगले दिन मैं सुबह की फ्लाइट से जयपुर के लिए निकल गई. जयपुर एअरपोर्ट से बाहर निकलते ही अपने वादे के अनुसार सलोनी एक बड़े से गुलदस्ते के साथ खड़ी थी, जिस में मेरी पसंद के सफेद गुलाब थे. जब भी हम दोनों में अनबन हो जाती थी तो हम दोनों में से कोई भी बिना दंभ के दूसरी को सफेद गुलाब उपहार में दे अपनी लड़ाई का अंत करती थी.

‘‘सोनाली मेरी जानेमन… बिलकुल नहीं बदली है तू,’’ उस ने लगभग चिल्ला कर कहा. आसपास खड़े सभी लोग उस की तरफ देखने लगे पर दुनिया की उस ने कभी परवाह नहीं की थी. जो उसे जंचता वही करती.

वही गरमाहट थी आज भी उस के व्यवहार में. जब वह बोलती थी तो उस की जबान ही नहीं हर अंग बोल उठता था.

‘‘बिलकुल नहीं बदली सैक्सी तू तो,’’ हमेशा इस तरह के उपनामों से बुलाती थी वह मुझे. मुझ से यह कहते हुए वह मुझ से लिपट गई. अपने कंधों पर उस के आंसुओं को महसूस कर रही थी मैं.

उस ने अपनी काली चमचमाती गाड़ी निकाली, एअरपोर्ट की पार्किंग की भीड़ को चीरती हुई गाड़ी मालवीय रोड पर आगे बढ़ने लगी. जयपुर के चप्पेचप्पे से परिचित थी मैं. समय के साथ कितना कुछ बदल गया था.

गाड़ी एक बड़े बंगले के एहाते में आ कर रुकी. सफेद रंग के लैदर के आरामदायक सोफे, चमकते पीतल और कांसे के बड़ेबड़े आर्टइफैक्ट्स, दीवारों पर लगी पेंटिंग्स और परदों का चयन उस के वैभव का बखान तो कर ही रहा था, साथ में मकानमालिक की कला के प्रति रुचि और हुनर को भी दर्शा रहा था.

‘‘तूने अपने घर को बहुत ही मन से सजाया है. मुझे खुशी है कि तुझ में यह हुनर अभी भी जिंदा है.’’

सलोनी ने अपने चिरपरिचित अंदाज में अपना कौलर ऊपर कर कंधे उचका दिए. शायद वह मेरे कहने का मंतव्य नहीं समझ पाई थी.

चायनाश्ते के बाद उस ने अपनी मेड को खाने का मेन्यू बताया और उस के बाद हम उस के घर के बाहर बगीचे में लगी कुरसियों पर

बैठ गए.

हमारी बातों का सिलसिला शुरू हो गया. उस ने कानों और हाथों में बड़े से सौलिटेर और हाथों में अपेक्षाकृत छोटे आकार के डायमंड के कंगन पहन रखे थे.

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‘‘तू तो जैसे किसी डायमंड की ब्रैंड ऐंबैसेडर हो… कितना चमक रही है… मैं बहुत खुश हूं तुझे देख कर. जो तूने अपनी जिंदगी से चाहा था तुझे सब

मिल गया.’’

‘‘तूने भी तो अपने सपनों को जीया है. आज अपनी मेहनत के दम पर तू इस मुकाम पर पहुंची है. एक प्रतिष्ठित बैंक में इतने उच्च पद पर कार्यरत है तू.’’

‘‘मुझे भी बहुत खुशी है तेरा यह रूप देख कर. वही आत्मविश्वास से दीप्त मुखमंडल, देहयष्टि में वही कमनीयता… कोई बोलेगा तुझे देख कर

कि एक जवान बेटे की

मां हो.’’

‘‘पर तू इतनी बेडौल क्यों हो गई है?’’

‘‘लगना चाहिए न कि खातेपीते घर के हैं. अरे भई यह तो हम मारवाडि़यों की शान है. लाखों की भीड़ में भी पहचान लिए जाते हैं,’’ उस ने अपने पेट पर हाथ फिराते हुए ऐसे नाटकीय अंदाज में कहा कि मैं खुद को हंसने से न रोक पाई.

‘‘चल अंदर चल कर बैठते हैं. अंधेरा गहराने को है और फिर सुनील भी आते ही होंगे… एसी औन कर दूं. इन्हें आने से पहले हौल चिल्ड चाहिए नहीं तो गरमी के मारे दिमाग का तापमान बढ़ जाता है.’’

कुछ ही पलों में सुनील भी घर आ गया. हम लोगों के बीच कुछ औपचारिक बातचीत हुई. डिनर के दौरान भी उस के हाथ में महंगा मोबाइल सैट था और उस की फोन कौल्स लगातार चालू थीं. वह खाना खाते हुए भी तेज आवाज में फोन पर बातें कर रहा था. मैं मन ही मन अमन की तुलना सुनील से करने लगी. अमन की आवाज इतनी धीमी होती कि पास बैठा व्यक्ति भी न सुन पाए. यही तो फर्क है कम पढ़े और पढ़ेलिखे व्यक्ति में… जाने क्या देखा सलोनी ने इस में और जाने कैसे वह इस की हरकतों को बरदाश्त करती है. मैं मन ही मन खीज उठी.

मगर मैं ने महसूस किया कि सलोनी बहुत खुश थी. उस ने मीठे में गुलाबजामुन मंगवा रखे थे. सुनील के नानुकुर करने पर भी एक गुलाबजामुन अपने हाथ से उस के मुंह में डाल दिया. शायद पैसा इंसान की सारी कमियों को ढक देता है.

सलोनी ने आज स्वयं के सोने की व्यवस्था भी गैस्टरूम में कर ली थी. करीब 9 बजे वह

2 कप कौफी के लिए कमरे में आई. कपों में कौफी और शक्कर डली थी, ‘‘चल फेंटी हुए कौफी बना कर पीते हैं. जब से तेरा साथ छूटा है मैं तो जैसे कौफी का स्वाद ही भूल गई हूं,’’ हम चम्मच से कौफी घोलते हुए पुराने दिनों को याद करने लगे.

‘‘तेरी पसंद तो बहुत लाजवाब हो गई है,’’ मैं ने उस के सुंदर मगों को देखते हुए कहा,  ‘‘तू सारा समय शौपिंग में ही लगी रहती है क्या?’’

‘‘कहां यार… बुटीक से समय ही नहीं मिल पाता है.’’

‘‘तेरा बुटीक भी है?’’ मैं उछल पड़ी.

‘‘हां, और सच पूछो तो अभी तो उस का ही सहारा है,’’ मैं ने पूरे दिन में पहली बार उस के चेहरे पर हलकी सी उदासी देखी.

‘‘मैं कुछ समझी नहीं सलोनी?’’

‘‘हाल ही में चल रही टी-20 सीरीज में लगाए गए सट्टे में सुनील को करोड़ों का घाटा हो गया है.’’

‘‘पर तू सुनील को सट्टा क्यों खेलने देती है? तू जानती है न सट्टा खेलने वालों का क्या हाल होता है? जानबूझ कर अपना और अपने बच्चों का भविष्य दांव पर लगा रही हो. यह तो जुआ है. इस से तो इज्जत की दो सूखी रोटियां खानी ज्यादा बेहतर है.’’

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फीनिक्स: भाग-1

 कहानी- मेहा गुप्ता

सूर्यकी पीली रेशमी किरणों ने पेड़ों के पत्तों के बीच से छनछन कर मेरी बालकनी में आना शुरू कर दिया है. यह मेरे लिए दिन का सब से खूबसूरत वक्त होता है. बालकनी में खड़ी हो सामने पार्क में देखती हूं तो कोई वहां बने जौगिंग पाथ पर दौड़ लगा कर पिछले दिन खाए जंक फूड से पाई कैलोरी को जलाने में जुटा है तो कोई सांसों को अंदरबाहर ले अपने जीवन की तमाम विसंगतियों से झूझने के लिए खुद को सक्षम बनाने में.

मेरी मां ने इन गतिविधियों को अमीरों के चोंचले नाम दे रखा है. कहती हैं छोटीछोटी जरूरतों के लिए अगर नौकरों पर निर्भर न रहें तो ये सब करने की नौबत ही न आए. हम लोग जब कुएं से पानी खींच कर लाया करती थीं तो वही हमारे लिए जौगिंग होती थी और चूल्हे की लौ को तेज करने के लिए जोर से फूंक देतीं तो वही प्राणायाम.

अब मां को कैसे समझाऊं कि जमाना बदल गया है, जमाने की सोच बदल गई है.जबकि मैं खुद कई मामलों में जमाने से बहुत पीछे हूं. मसलन, खाने के मामले में मैं रैस्टोरैंट जा कर पिज्जाबर्गर खाने से बेहतर घर की दालरोटी खाना पसंद करती हूं. बाहर का खाना मुझे सेहत और पैसे की बरबादी लगता है.

वैस्टर्न आउटफिट्स न पहन कर सलवारकमीज वह भी दुपट्टे के साथ पहनती हूं और सब से मुख्य बात सोशल मीडिया से गुरेज करती हूं. अब तक मुझे यह निहायत दिखावा, छलावा और समय की बरबादी लगता था पर इस बार अपनी सोलमेट से मिलने के लालच ने मुझे फेसबुक के गलियारों में भटकने को मजबूर कर ही दिया.

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मैं ने फेसबुक पर अपना अच्छा सा फोटो लगा अपना प्रोफाइल डाल दिया और सलोनी, जयपुर टाइप कर के क्लिक कर दिया. क्लिक करते ही सलोनी नाम से लगभग 50 प्रोफाइल स्क्रीन पर आ गए. मैं 1-1 कर के सारे फोटो जूम कर देखने लगी. लगभग 15वां प्रोफाइल मेरी सलोनी का था.

मैं ने बिना समय गंवाए फ्रैंड रिक्वैस्ट भेज दी और उस के जवाब का इंतजार करने लगी. जब से मेरा जयपुर जाने का प्लान बना था मेरा मन सलोनी से मिलने को तड़प उठा था.

जयपुर का पर्याय है मेरे लिए सलोनी… सिर्फ सहेली ही नहीं सोलमेट थीं हम दोनों. जयपुर के महारानी कालेज में मेरा ऐडमिशन

हुआ था और मैं सुमेरपुर जैसे छोटे कसबे की देशी गर्ल वहां आ गई. अजनबियों की भीड़ में सलोनी ने ही मेरा संबल बन मेरा हाथ थामा था. उस की मम्मी ने कई रूम, पेइंगगैस्ट के तौर पर लड़कियों को दे रखे थे, इसलिए मैं भी होस्टल

के अत्याधुनिक माहौल को अलविदा कह वहीं रहने चली गई थी. वहीं पर सलोनी द्वारा मेरी ग्रूमिंग भी हुई थी.

सादी नहीं बोलो शादी, मैडम नहीं मैम, इस दुपट्टे को दोनो कंधों पर के दोनों तरफ नहीं, बल्कि एक पर डालो, और भी न जाने क्याक्या…

मुझ में बहुत जल्दी इतना बदलाव आया कि मेरे इस नए रूप को देख कर मुझ से ज्यादा वह प्रसन्न थी. गुरुदक्षिणा में मैं उसे फुजूलखर्ची से परहेज कर थोड़ा सेविंग करने के लिए कहती थी पर वह मेरी कही हर बात हवा में उड़ा देती थी. मुझे नहीं लगता उस ने मुझे कभी सीरियसली लिया हो. सदा एकदूसरे का साथ देने को तत्पर थीं हम, पर कोई गलत कदम उठाने पर एकदूसरे को समझाने या डांटने का पूरा हक भी दे रखा था हम ने एकदूसरे को.

नाम के अनुरूप ही वह रूप और गुणों की स्वामिनी थी. हर वक्त चहकती फिरती. फिर हम दोनों के बीच दूरी आ गई. शायद मैं ने स्वयं ही सलोनी से खुद को दूर कर लिया था. उस के लिए एक बहुत ही संभ्रांत परिवार से रिश्ता आया था. वह थी ही इतनी सुंदर कि कोई भी उस पर फिदा हो जाए. लड़का सिर्फ 12वीं कक्षा तक पढ़ा था और श्यामवर्णी होने के साथसाथ बेडौल भी था.

कितना समझाया था मैं ने उसे, ‘‘कहां गए तेरे सारे सपने? तू अपनी इंटीरियर डिजाइनर की डिगरी उस के पीछे लगाई अपनी अपार मेहनत सब यों ही बरबाद कर देगी? वहां तेरे टेलैंट की कोई कद्र नहीं होगी.’’

मगर तब शायद सुनील की चकाचौंध ने, उस की महंगी गाडि़यों ने, उस के ठाटबाट ने सलोनी और उस के परिवार वालों की अकल पर परदा डाल दिया था. हम दोनों ही साधारण परिवार से थीं पर मेरे और उस के जिंदगी के

प्रति दृष्टिकोण, खुशियों की परिभाषा में बहुत अंतर था.

‘‘सलोनी तुझे लगता है तू शादी के बाद नौकरी कर पाएगी? कितने अरमान थे तेरे अपने भविष्य को ले कर,’’ एक दिन शादी की तैयारियों के बीच उस की साडि़यों की पैकिंग करते हुए मैं ने उस से पूछा था.

‘‘इसे नौकरी करने की जरूरत क्यों पड़ेगी भला… लाखों में खेलेगी मेरी लाडो…

नौकरी तो मध्य परिवार के लोग अपनी बहुओं से करवाते हैं. ये तो खानदानी लोग हैं. शहर में नाम है इन के परिवार का. भला ये लोग अपनी नाक क्यों कटवाएंगे अपने घर की बहूबेटियों से नौकरी करवा कर.’’

मैं आंटी से कहना चाहती थी कि जरूरी नहीं है औरत आर्थिक जरूरतों के चलते कमाए. उसे अपने आत्मसम्मान के लिए, आत्मविश्वास को बनाए रखने के लिए, समाज में अपना वजूद बनाए रखने के लिए भी आत्मनिर्भर बनना चाहिए पर मुझे पता था आंटी के लिए इन बातों का कोई अर्थ नहीं… और सलोनी वह तो जैसे स्वप्नलोक में विचरण कर रही थी.

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मेरी शादी अपनी पसंद के इनकम टैक्स औफिसर से हुई थी. पर मेरे पति अमन अपने उसूलों के बहुत पक्के और सादा जीवन उच्च विचारों के साथ जीने में विश्वास रखते थे. हमारी शादी भी बहुत साधारण तरीके से हुई थी. शादी में आई सलोनी ने अमन से मिल कर मुझे छेड़ा भी था कि वाह, क्या जोड़ी है… अच्छा है दोनों की खूब जमेगी.

मैं विचारों में खोई स्क्रीन को स्क्रोल कर उस के नएपुराने सभी फोटो देखने में जुटी थी. उस के स्टेटस पर कपल फोटो लगा था. मुझे उस के कंधे पर हाथ रखे हुए सुनील कांटे सा चुभा था कि हु बंदर के गले में मोतियों की माला, बड़बड़ाते हुए मैं ने अपना मुंह बिचकाया. वह आदमी पहली नजर में ही बेहद नापसंद था.

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अटूट बंधन: भाग-4

विशू ने देखा, छत पर अनगिनत दरारें, कहींकहीं तो दरार इतनी चौड़ी कि धूप का कतरा नीचे आ रहा है. साथ वाले कमरे की तो आधी छत ही गिर गई है. उस के ऊपर खुला आकाश. सिहर उठा वह, वहां बैठ बाबा अध्ययन किया करते थे, दूसरे कोने में उस के पढ़ने की मेज थी.

‘‘अम्मा, छत तो कभी भी गिर सकती है.’’

‘‘हां बेटा, पर करें क्या? दीनू को लाला की चीनी मिल में काम मिला था. 10वीं भी पास न कर पाया. बल्कि मुन्नी की बुद्धि अच्छी है, 10वां पास कर लिया. सोचा था, थोड़ाथोड़ा जोड़ छत की मरम्मत करवा लेंगे पर एक ट्रक ने टक्कर मार दी, आधा पैर काटना पड़ा. बैसाखी पर चलता है वह अब. नौकरी चली गई तो दानेदाने को तरस गए. तब बहू और मुन्नी ने सलाह कर चाय की दुकान खोली. उस से रूखासूखा ही सही, दो रोटी शाम को मिल जाती हैं.’’

स्तब्ध हो गया. उस किशोरी सी बहू के प्रति मन में आदर भर उठा. इतनी बड़ी दुर्घटना के बाद पति को दुत्कार उस से पल्ला नहीं झाड़ा, उस के साथ रही, उस को, उस के परिवार को सहारा दिया.

अपनी छोटी सी सीमित क्षमता के अनुसार और रीमा? इतनी बड़ी नौकरी, इतनी संपन्नता, उसी का ही दिया इतना सुख, आराम, संपन्नता में जरा सा अंतराल आएगा, सोच कर ही इतनी गुस्से में आ गई कि पति को ताने देते नहीं हिचकी. और यह छोटी सी निर्धन अनपढ़ लड़की.

मुन्नी पानी ले आई. नल का ताजा पानी. वर्षों से मिनरल वाटर छोड़ सादा पानी नहीं पीता है विशू. पर आज निश्चिंत हो कर नल का पानी पी गया और लगा बहुत देर से प्यासा था.

‘‘दीनू है कहां?’’

‘‘चौधरी के बेटे ने सड़क पर पैट्रोल पंप खोला है, तेल भराने जो गाडि़यां आती हैं उन में से कोईकोई सफाई भी करवाते हैं तो उस ने दीनू को लगा दिया है. कभीकभी 30-40 रुपए कमा लेता है, कभीकभी एकदम खाली हाथ. बेटा, तू हाथमुंह धो ले. मुन्नी ताजे पानी से बालटी भर दे. धुला तौलिया निकाल दे.’’

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‘‘अम्मा, सड़क पर गाड़ी खड़ी है. मैं अंदर ले आता हूं.’’

निर्मला की आंखें फटी की फटी रह गईं, ‘‘तू गाड़ी लाया है.’’

‘‘हां, अम्मा.’’

आत्मग्लानि और अपराधबोध से विशू का मन भारी हो रहा था. आज लग रहा है कि उस दिन वह गलत था, बाबा कहते थे, ‘धनवान बनो या न बनो पर बच्चा, इंसान बनो, आदमी धन नहीं मन से बड़ा होना चाहिए.’ पर उन के दिए सारे संस्कारों को ठेंगा दिखा कर उस ने उस उपदेश को कभी न अपनाया. अपना स्वार्थ तो पूरा हो ही गया.

तभी वह सजग हुआ, सोचा, अरे, उस के पास अपना बचा ही क्या है, एक नाम और नाम के पीछे जुड़ा सरनेम ‘तिवारी’ छोड़ सारे अभ्यास, आत्मजन, घरद्वार, यहां तक कि सोच भी तो रीमा की है. उस के मम्मीपापा, उन के उपदेश, रीमा के भाईबहन, उस की आदतें, उठनाबैठना, समाज में परिचय तक रीमा का दिया है, रीमा का पति, मिस्टर सिन्हा का दामाद, गौतम साहब का जीजा.

पंडित केशवदास तिवारी का तो कोई अस्तित्व ही नहीं रहा क्योंकि अपने सुपुत्र विश्वनाथ तिवारी ने स्वयं अपना अस्तित्व खो दिया. मिस्टर सिन्हा का दामाद, रीमा का पति नाम से ही तो जाना जाता है तो फिर पंडितजी का नाम चलेगा कैसे?

विशू ने गाड़ी ला कर खड़ी की. निर्मला ने आ कर गाड़ी को बड़ी ही सावधानी से छुआ, मुख पर गर्व का उजाला, ‘‘तेरे बाबा देख कर कितना खुश होते रे, मुन्ना.’’

अचानक ही विशू को लगा कि क्या होता अगर वह कैरियर के पीछे ऐसे सांस बंद कर न दौड़ता. बाबा सदा कहते थे सहज, सरल व आदरणीय बने रहने के लिए. पर उस ने तो स्वयं ही अपने जीवन को जटिल, इतना तनावपूर्ण बना लिया. वह मेधावी था, शिक्षा पूरी कर कोई नौकरी कर लेता, काम पर जाता फिर अपने आंगन में अपने प्रियजनों के बीच लौट खापी कर चैन की नींद सो जाता, खेतों की हरियाली, कोयल की कूक और माटी की सुगंध की चादर ओढ़. पर नहीं, उस ने जो दौड़ शुरू की है दूसरों को पीछे छोड़ आगे और आगे जा कर आकाश छूने की, उस में कोई विरामचिह्न है ही नहीं. बस, सांस रोक कर दौड़ते रहो, दौड़ते रहो, गिर गए तो मर गए. दूसरे लोग तुम को रौंद आगे निकल जाएंगे.

आज इस निर्धन, थकेहारे परिवार को देख एक नए संसार की खोज मिली उस को. यहां पलपल जीवित रहने की लड़ाई लड़ते हुए भी ये लोग कितने सुखी हैं, कितनी शांति है आम की घनी छाया के नीचे, एकदूसरे के प्रति कितना लगाव है. कोई भी बुरा समय आए तो कैसे सब मिलजुल कर उस को मार भगाने को एकजुट हो जाते हैं. उस के जीवन में संपन्नता के साथ वह सबकुछ, सारी सफलताएं हैं जो आज के तथाकथित उच्चाकांक्षी लोगों का सपना हैं पर आज रीमा ने आंखों में उंगली डाल दिखा दिया कि उस के प्रति समर्पण किसी का भी नहीं.

‘‘चल बेटा, खाना खा ले. थोड़ा आराम कर के जाना. दिन रहते ही घर लौटना, समय ठीक नहीं. दीनू लौट कर दुखी होगा कि भैया से भेंट नहीं हुई.’’

एकएक शब्दों में उस मां, जिसे वह सौतेली मानता था, का स्नेह, ममता और संतान की चिंता देख विशू अंदर तक भीग उठा.

‘‘मैं नहीं जा रहा. कई दिनों की छुट्टी ले कर आया हूं. घर में रहूंगा.’’

बुरी तरह चौंकी निर्मला, ‘‘क्या, अरे रहेगा कहां? देख रहा है घरद्वार की दशा, कहां सोएगा, कहां उठेगाबैठेगा और नहानाधोना?’’

‘‘तुम लोग कैसे करते हो?’’

‘‘पागल मत बन. हमारी बात मान और…’’

‘‘क्यों? क्या मैं कोई आसमान से उतर कर आया हूं?’’

हंस पड़ी निर्मला. विशू ने देखा इतना आंधीतूफान झेल कर भी निर्मला की हंसी में आज भी वही शुद्ध पवित्र हृदय झांकता है, वही मीठी सहज सरल हंसी, ‘‘कर लो बात. तेरा घरद्वार है, रहेगा क्यों नहीं? पर तेरे रहने लायक भी तो हो.’’

‘‘तभी तो रहना है मुझे…इस को रहने लायक बनाने के लिए.’’

‘‘क्या कह रहा है तू?’’

‘‘अम्मा, नासमझ था जो अपनी जड़ अपने हाथों काट गया था. पर मजबूत जड़ काट कर भी नहीं कटती. एक टुकड़ा भी रह जाए तो पेड़ फिर से लहलहा उठता है. अम्मा, मैं समझ गया हूं कि मैं आज तक सोने के हिरन के पीछे दौड़ता रहा जो लुभाता जरूर है पर किसी का भी अपना नहीं होता. बस, तुम मुझे वह करने दो जो मुझे करना है.’’

‘‘वह क्या है, लल्ला?’’

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‘‘इस मकान को मजबूत, पक्का घर बनाना है, 3 कमरे, 1 हाल, बिजली, पानी की व्यवस्था, रसोई, बाथरूम की सुविधा और आज से चाय की दुकान बंद. पंडितजी की बहूबेटी सड़क चलते लोगों को चाय बेचेंगी, यह तो बड़ी लज्जा की बात है. वहां एक बहुत बड़ी परचून की दुकान होगी. एक नौकर होगा, दीनू उस में बैठेगा.’’

‘‘पर वह तो… बहुत पैसों का…’’

‘‘अम्मा, याद है तुम बचपन में कहती थीं कि तेरा बेटा लाखों का नहीं करोड़ों का है. तुम पैसों की चिंता क्यों करती हो. मैं हूं तो.’’

रो पड़ी निर्मला, ‘‘मेरे बच्चे…’’

‘‘चलो अम्मा, रोटी खिलाओ, भूख लगी है.’’

मन एकदम नीले आकाश में जलहीन छोटेछोटे बादलों के टुकड़ों जैसा हलका हो गया. उसे चिंता नहीं इस समय पर्स में 35 हजार रुपए पड़े ही हैं, काम शुरू करने में परेशानी नहीं होगी. बीमा के 20 लाख रुपए हैं ही. उसे पता है कि वह 1 हफ्ता भी खाली नहीं बैठेगा. दूसरे लोगों की नजर वर्षों से उस पर है. उस की योग्यता और काम की निष्ठा से सब ललचाए बैठे हैं.

देश और विदेश की कंपनियों के कर्णधार, कई औफर इस समय भी उस के हाथ में हैं. बस, स्वीकार करने की देर है और वह करेगा भी. पर इस बार देश नहीं विदेश में ही जाने का मन बना लिया है. जहां रीमा की परछाईं भी नहीं हो. घर के ऊपर अपने लिए एक बड़ा सा पोर्शन बना लेगा जहां से हरेहरे खेत, गाती कोयल, आम के बाग और गांव के किनारेकिनारे बहती यमुना नदी दिखाई पड़ेगी.

एक बार जिस पेड़ की जड़ काट कर गया था, उस की जड़ के बचे हुए टुकड़े से पेड़ फिर लहलहाता वटवृक्ष बन गया है. अब दोबारा से उस जड़ को नहीं काटेगा. वर्ष में एक बार मां, भाईबहन के पास अवश्य आएगा.

बहुत दिनों बाद लौकी की सब्जी, चूल्हे की आंच में सिंकी गोलमटोल करारीकरारी रोटी पेट भर खा कर वह मूंज की बनी चारपाई पर दरी और साफ धुली चादर के बिछौने पर पड़ते ही सो गया. बहुत दिनों बाद गहरी, मीठी नींद आई है उसे.

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अटूट बंधन: भाग-2

‘‘माफी मांगूंगा, मैं?’’

‘‘अरे, यह बस फौर्मेलिटी है. दो शब्द कह देने में क्या जाता है? उम्र में पिता समान हैं और मालिक हैं.’’

‘‘कभी नहीं…’’

पंडितजी का खून जाग उठा विशू की धमनियों में. वह पंडितजी जो आज भी न्याय, निष्ठा, सदाचार, सपाटबयानी व सत्यवचन के लिए जाने जाते हैं, उन की प्रथम संतान, इतना नहीं गिर सकती.

‘‘प्रश्न ही नहीं उठता माफी मांगने का. गलत वे हैं, मैं नहीं. माफी उन को मुझ से मांगनी चाहिए.’’

फिर से जल उठी रीमा, ‘‘तो तुम त्यागपत्र वापस नहीं लोगे, माफी नहीं मांगोगे?’’

‘‘नहीं, कभी नहीं…’’

‘‘ठीक,’’ अनपढ़ गंवार महिलाओं की तरह मुंह बिदका कर रीमा चीखी, ‘‘तो अब मजे करो, बीवी की रोटी तोड़ो, उस की कमाई पर मौजमस्ती करो.’’

विशू का मुंह खुला का खुला रह गया. क्या स्वार्थ का नग्न रूप देख रहा है वह. पहले तो यही रीमा प्रेम में समर्पण, त्याग और मधुरता की बात करती थी पर उस के स्वार्थ पर चोट लगते ही क्या रूपांतरण हो गया. विशू की नजरों में सब से सुंदर मुख आज कितना भयंकर और कुरूप हो उठा है. वह अपलक उसे देखता रहा.

क्रोध में भुनभुनाती रीमा तैयार हुई. डट कर नाश्ता किया, गैराज से अपनी गाड़ी निकाल औफिस चली गई. अब लंच में लौटेगी बच्चों को स्कूल से ले कर 2 बजे. 3 बजे फिर जा कर फिर लौटेगी 5 बजे. रोज का यही रुटीन है उस का.

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रीमा के जाने के बाद एक अलसाई अंगड़ाई ले विशू उठ बैठा. घड़ी ठीक 10 बजा रही थी. चलो, अब पूरे 4 घंटे हैं उस के हाथ में सोचविचार कर निर्णय लेने को. फ्रैश हो कर आते ही संतो ने ताजी चाय ला कर स्टूल पर रखी. उस ने चाय पी. रीमा से पूरी तरह मोहभंग हो चुका है. आज वह स्वयं समझा गई उस का रिश्ता बस स्वार्थ का रिश्ता है. इन्हीं सब उलझनों में फंसा वह अतीत में खो गया.

अपने पिता को वह कभीकभी आर्थिक चिंता करते देखता था तब निर्मला यानी सौतेली मां कभी डांट कभी प्यार जता उन को साहस जुटाती थी कि चिंता क्यों करते हो जी, सब समस्या का हल हो जाएगा. कभी भी आर्थिक दुर्बलता को ले कर पिता को ताने देते या व्यंग्य करते नहीं सुना. न ही कभी अपने लिए कुछ मांग करते.

अपनी मां की तो स्मृति भी नहीं है मन में, डेढ़ वर्ष की उम्र से ही उस ने निर्मला को अपनी मां ही जाना है और निर्मला ने भी उसे पलकों पर पाला है. दीनू से बढ़ कर प्यार किया है. उस का भी तो बाबा से वही रिश्ता था जो रीमा का उस के साथ है. फिर निर्मला हर संकट में बाबा के साथ रही, साहस जुटाया, मेहनत कर के सहयोग दिया और रीमा ने आज…उस की रोटी का एक कौर भी नहीं खाया अभी, फिर भी अपनी कमाई का ताना दे गई.

पति के मानसम्मान का कोई मूल्य नहीं, जो उसे पूरी तरह मिट्टी में मिलाने, माफी मंगवाने ले जा रही थी, उस झूठे और बेईमान जालान के पास. उस ने उस के आत्मसम्मान की प्रशंसा नहीं की. एक बार भी साहस नहीं बढ़ाया कि ठीक किया, चिंता क्यों करते हो, मेरी नौकरी तो है ही. दूसरी नौकरी मिलने तक मैं सब संभाल लूंगी. वाह, क्या कहने उच्च समाज की अति उच्च पद पर कार्यरत पत्नी की.

आज रीमा ने 13 वर्ष से पति से सारे सुख, सामाजिक प्रतिष्ठा, सम्मान, अपने हर शौक की पूर्ति, आराम, विलास का जीवन सबकुछ एक झटके में उठा कर फेंक दिया, अपनी जरा सी असुविधा की कल्पना मात्र से. एक बार भी नहीं सोचा कि पति के पास कितनी योग्यता है, कितना अनुभव है, और अपने क्षेत्र में कितना नाम है. वह दो दिन भी नहीं बैठेगा. दसियों कंपनी मालिक हाथ फैलाए बैठे हैं उसे खींच लेने के लिए, देश ही नहीं विदेशों में भी. और उस की सब से प्रिय पत्नी उस की तुलना कर गई डोनेशन वाले सड़कछाप एमबीए लोगों के साथ. बस, अब और नहीं. पार्लर ने जो सुंदर मुख दिया है रीमा को वह मुखौटा हटा कर उस के अंदर का भयानक स्वार्थी, क्रूर मुख स्वयं ही दिखा गई है वह आज. उस का सारा मोह भंग हो चुका है.

अपने ही प्रोफैसर की बेटी रीमा को पाने के लिए वह स्वयं कितना स्वार्थी बन गया था, आज उस बात का उसे अनुभव हुआ. एमबीए के खर्चे के लिए उस निर्धन परिवार के मुंह की रोटी 5 बीघा खेत तक बिकवा दिया.

पिता पर दबाव डाला. अपने 2 छोटेछोटे बच्चों की चिंता कर के भी सौतेली मां निर्मला ने एक बार भी बाबा को नहीं रोका. और उस ने इन 13 वर्षों में उधर पलट कर भी नहीं देखा क्योंकि उसे बहाना मिल गया था. जब नौकरी पा कर बाबा को सहायता करने का समय आया तब सब से पहले रीमा से शादी कर के अपने परिवार से पल्ला झाड़ने का बहाना खोजने लगा और मिल भी गया.

निष्ठावान स्वात्तिक ब्राह्मण पंडितजी ने ठाकुर की बेटी को अपने घर की बहू के रूप में नहीं स्वीकारा और वह खुश हो रिश्ता तोड़ आया. असल में उस के अंतरमन में भय था, आशंका थी कि इस निर्धन परिवार से जुड़ा रहा तो कमाई का कुछ हिस्सा अवश्य ही चला जाएगा इस परिवार के हिस्से. जब कि पिता छोड़ औरों से उस का खून का रिश्ता है ही नहीं. और पिता के प्रति भी क्या दायित्व निभाया.

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दिल्ली से 40 मिनट या 1 घंटे का रास्ता है फूलपुर गांव का. ‘फूलपुर’ वह भी हाईवे के किनारे. गांव के चौधरी का बेटा महेंद्र मोटर साइकिल ले कर आया था उसे लेने. गेट पर ही मिल गया. एक जरूरी मीटिंग थी, इस के बाद ही प्रमोशन की घोषणा होने वाली थी. रीमा औफिस न जा कर घर में ही सांस रोके बैठी थी. वह औफिस ही निकल रहा था कि महेंद्र ने पकड़ा.

‘विशू, जल्दी चल पंडितजी नहीं रहे. अभी अरथी नहीं उठी, तू जाएगा तब उठेगी.’

उस के दिमाग में प्रमोशन की मीटिंग चल रही थी. इस समय यह झूठझमेला. खीज कर बोला, ‘दीनू है तो.’

मुंह खुल गया था महेंद्र का, ‘क्या कह रहा है, तू बड़ा बेटा है और तेरे पिता थे वे…’

‘देख, मेरे जीवन का प्रश्न है. आज मैं नहीं जा सकता, जरूरी काम है. आ जाऊंगा. तू जा.’

महेंद्र के खुले हुए मुंह के सामने वह औफिस चला गया था. 8 वर्ष पुरानी बात हो गई.

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तालमेल: भाग-2

आप मेरे रहने न रहने की परवाह मत करिए जीजाजी, बस जब फुरसत मिले ऋतु को कंपनीदे दिया करिए.’’

घर में वैसी ही महक थी जैसी कभी रचना की रसोई से आया करती थी. ऋतु डब्बा ले कर आई ही थी कि तभी घंटी बजी.

‘‘लगता है ड्राइवर आ गया.’’

गोपाल ने बढ़ कर दरवाजा खोला और ऋतु से डब्बा ले कर ड्राइवर को पकड़ा दिया.

‘‘खाने की खुशबू से मुझे भी भूख लग आई है ऋतु.’’

‘‘आप डाइनिंगटेबल के पास बैठिए, मैं अभी खाना ला रही हूं,’’ कह ऋतु ने फुरती से मेज पर खाना रख दिया. राई और जीरे से

बघारी अरहर की दाल और भुनवा आलू, लौकी का रायता.

‘‘आप परोसना शुरू करिए जीजाजी,’’ उस ने रसोई में से कहा, ‘‘मैं गरमगरम चपातियां ले कर आ रही हूं.’’

‘‘तुम भी आओ न,’’ गोपाल ने चपातियां रख कर वापस जाती ऋतु से कहा.

‘‘बस 1 और आप के लिए और 1 अपने लिए और चपाती बना कर अभी आई. मगर आप खाना ठंडा मत कीजिए.’’

‘‘तुम्हें यह कैसे मालूम कि मैं बस 2 ही चपातियां खाऊंगा?’’ गोपाल ने ऋतु के आने के बाद पूछा, ‘‘और भी तो मांग सकता हूं?’’

‘‘सवाल ही नहीं उठता. चावल के साथ आप 2 से ज्यादा चपातियां नहीं खाते और अरहर की दाल के साथ चावल खाने का मोह भी नहीं छोड़ सकते. मुझे सब पता है जीजाजी,’’ ऋतु ने कुछ इस अंदाज से कहा कि गोपालसिहर उठा. वाकई उस की पसंद के बारे में ऋतु को पता था. खाने में बिलकुल वही स्वाद था जैसा रचना के बनाए खाने में होता था. खाने के बाद रचना की ही तरह ऋतु ने अधभुनी सौंफ भी दी.

गोपाल ने कहना चाहा कि रचना के जाने के बाद पहली बार लगा है कि खाना खाया है, रोज तो जैसे जीने के लिए पेट भरता है. और जीना तो खैर है ही मनु के लिए, पर कह न पाया.

‘‘टीवी देखेंगे जीजाजी?’’

तो ऋतु को मेरी खाना खाने के बाद थोड़ी देर टीवी देखने की आदत का भी पता है, सोच गोपाल बोला, ‘‘अभी तो घर जाऊंगा साली साहिबा. स्वाद में ज्यादा खा लिया है. अत: नींद आ रही है.’’ हालांकि खाते ही चल पड़ना शिष्टाचार के विरुद्ध था, लेकिन न जाने क्यों उस ने ज्यादा ठहरना मुनासिब नहीं समझा.

‘‘आप अपनी नियमित खुराक से कभी ज्यादा कहां खाते हैं जीजाजी, मगर नींद आने वाली बात मानती हूं. कल भी आधी रात तक रोके रखा था हम ने आप को.’’

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‘‘तो फिर आज जाने की इजाजत है?’’

‘‘इस शर्त पर कि कल फिर आएंगे.’’

‘‘कल तो हैड औफिस यानी दिल्ली जा रहा हूं.’’

‘‘कितने दिनों के लिए?’’

‘‘1 सप्ताह तो लग ही जाएगा… आ कर फोन करूंगा.’’

‘‘फोन क्या करना स्टेशन से सीधे यहीं आ जाइएगा. सफर से आने के बाद पेट भर घर का खाना खा कर आप कुछ देर सोते हैं और फिर औफिस जाते हैं. आप बिना संकोच आ जाना. मैं तो हमेशा घर पर ही रहती हूं गोलू जीजाजी.’’

गोपाल चौंक पड़ा. रचना उसे गोलू कहती थी यह ऋतु को कैसे मालूम, लेकिन प्रत्यक्ष में उस की बात को अनसुना कर के वह विदा ले कर आ गया. घर आ कर भी वह इस बारे में सोचता रहा. रचना कभी भी कुंआरी ऋतु से अपने

पति के बारे में बात करने वाली नहीं थी. उस का और ऋतु का परिवार एक सरकारी आवासीय कालोनी के मकान में ऊपरनीचे रहता था. मनु तो ज्यादातर ऋतु की मम्मी के पास ही रहता था. रचना भी उस के औफिस जाने के बाद नीचे चली जाती थी और जिस रोज ऋतु के पापा उस के औफिस से लौटने के पहले आ जाते थे तो उसे अपने पास ही बरामदे में बैठा लेते थे, ‘‘यहीं बैठ जाओ न गोपाल बेटे, तुम्हारे बहाने हमें भी एक बार फिर चाय मिल जाएगी.’’

छुट्टी के रोज अकसर सब लोग पिकनिक पर या कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम देखने जाते थे. कई बार रचना के यह कहने पर कि आंटीजी और ऋतु फलां फिल्म देखना चाह रही हैं, वह किराए पर वीसीआर ले आता था और ऋतु के घर वाले फिल्म देखने ऊपर आ जाते थे. ऋतु का आनाजाना तो खैर लगा ही रहता था. दोनों में थोड़ीबहुत नोकझोंक भी हो जाती थी. लेकिन ऐसा कुछ नहीं था जिसे देख कर लगे कि

ऋतु उस में हद से ज्यादा दिलचस्पी ले रही है. तो फिर अब और वह भी शादी के बाद ऋतु ऐसा व्यवहार क्यों कर रही है? माना कि राहुल व्यस्त है और नवविवाहिता ऋतु के साथ उतना समय नहीं बिता पा रहा जितना उसे बिताना चाहिए, लेकिन वह ऋतु की अवहेलना भी तो नहीं कर रहा? ऋतु को समझना होगा और वह भी बगैर उस से मिले.

गोपाल दिल्ली से 2 दिन बाद ही लौट आया, मगर उस ने ऋतु से संपर्क नहीं किया. 1 सप्ताह के बाद ऋतु को फोन किया.

‘‘आप कब आए जीजाजी?’’

‘‘कल रात को.’’

‘‘तो फिर आप घर क्यों नहीं आए? मैं ने कहा था न,’’ ऋतु ठुनकी.

‘‘रात के 11 बजे मैं सिवा अपने घर के कहीं और नहीं जाता,’’ उस ने रुखाई से कहा.

‘‘यह भी तो आप ही का घर है. अभी आप कहां हैं?’’

‘‘औफिस में.’’

‘‘वह क्यों? टूर से आने के बाद आराम नहीं किया?’’

‘‘रात भर कर तो लिया. अभी मैं एक मीटिंग में जा रहा हूं ऋतु. तुम से फिर बात करूंगा,’’ कह कर फोन बंद कर दिया.

शाम को ऋतु का फोन आया, मगर उस ने मोबाइल बजने दिया. कुछ देर के बाद फिर ऋतु ने फोन किया, तब भी उस ने बात नहीं की.मगर घर आने पर उस ने बात कर ली.

‘‘आप कौल क्यों रिसीव नहीं कर रहे थे जीजाजी?’’ ऋतु ने झुंझलाए स्वर में पूछा.

‘‘औफिस में काम छोड़ कर पर्सनल कौल रिसीव करना मुझे पसंद नहीं है.’’

‘‘आप अभी तक औफिस में हैं?’’

‘‘हां, दिल्ली जाने की वजह से काफी काम जमा हो गया है. उसे खत्म करने के लिए कई दिनों तक देर तक रुकना पड़ेगा.’’

‘‘खाने का क्या करेंगे?’’

‘‘भूख लगेगी तो यहीं मंगवा लेंगे नहीं तो घर जाते हुए कहीं खा लेंगे.’’

‘‘कहीं क्यों यहां आ जाओ न जीजाजी.’’

‘‘मेरे साथ और भी लोग रुके हुए हैं ऋतु और हम जब इकट्ठे काम करते हैं तो खाना भी इकट्ठे ही खाते हैं. अच्छा, अब मुझे काम करने दो, शुभ रात्रि.’’

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उस के बाद कई दिनों तक यही क्रम चला और फिर ऋतु का फोन आया कि चंडीगढ़ से पापा आए हुए हैं और आप से मिलना चाहते हैं. अंकल से मिलने का लोभ गोपाल संवरण न कर सका और शाम को उन से मिलने ऋतु के घर गया. कुछ देर के बाद ऋतु खाना बनाने रसोई में चली गई.

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तालमेल: भाग-3

‘‘तुम ने क्या नौकरी बदल ली है गोपाल?’’ अंकल ने पूछा.

‘‘नहीं अंकल.’’

‘‘ऋतु बता रही थी कि अब तुम बहुत व्यस्त रहते हो. पहले तो तुम समय पर घर आ जाते थे.’’

‘‘तरक्की होने के बाद काम और जिम्मेदारियां तो बढ़ती ही हैं अंकल.’’

‘‘तुम्हारी बढ़ी हुई जिम्मेदारियों में मैं एक और जिम्मेदारी बढ़ा रहा हूं गोपाल,’’ अंकल ने आग्रह किया, ‘‘ऋतु का खयाल भी रख लिया करो. राहुल बता रहा था कि तुम्हारे मिलने पर उसे थोड़ी राहत महसूस हुई थी, लेकिन तुम भी एक बार आने के बाद व्यस्त हो गए और ऋतु ने अपने को एकदम नकारा समझना शुरू कर दिया है. असल में मैं राहुल के फोन करने पर ही यहां आया हूं. अगले कुछ महीनों तक उस पर काम का बहुत ही ज्यादा दबाव है और ऐसे में ऋतु का उदास होना उस के तनाव को और भी ज्यादा बढ़ा देता है. अत: वह चाहता था कि मैं कुछ अरसे के लिए ऋतु को अपने साथ ले जाऊं, लेकिन मैं और तुम्हारी आंटी यह मुनासिब नहीं समझते. राहुल के मातापिता ने साफ कहा था कि राहुल की शादी इसलिए जल्दी कर रहे हैं कि पत्नी उस के खानेपहनने का खयाल रख सके. ऐसे में तुम्हीं बताओ हमारा उसे ले जाना क्या उचित होगा? मगर बेचारी ऋतु भी कब तक टीवी देख कर या पत्रिकाएं पढ़ कर समय काटे? पासपड़ोस में कोई हमउम्र भी नहीं है.’’

‘‘वह तो है अंकल, लेकिन मेरा आना भी अकसर तो नहीं हो सकता,’’ उस ने असहाय भाव से कहा.

‘‘फिर भी उस से फोन पर तो बात कर ही सकते हो.’’

‘‘वह तो रोज कर सकता हूं.’’

‘‘तो जरूर किया करो बेटा, उस का अकेलापन कुछ तो कम होगा,’’ अंकल ने मनुहार के स्वर में कहा.

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घर लौटने के बाद गोपाल को भी अकेलापन खलता था. अत: वह ऋतु को रोज रात को फोन करने लगा. वह जानबूझ कर व्यक्तिगत बातें न कर के इधरउधर की बातें करता था, चुटकुले सुनाता था, किव्ज पूछता था. एक दिन जब किसी बात पर ऋतु ने उसे फिर गोलू जीजाजी कहा तो वह पूछे बगैर न रह सका, ‘‘तुम्हें यह नाम कैसे मालूम है ऋतु, रचना के बताने का तो सवाल ही नहीं उठता?’’

ऋतु सकपका गई, ‘‘एक बार आप दोनों को बातें करते सुन लिया था.’’

‘‘छिप कर?’’

‘‘जी,’’ फिर कुछ रुक कर बोली, ‘‘उस रोज छिप कर आप की और पापा की बातें भी सुनी थीं जीजाजी. आप कह रहे थे कि आप शादी करेंगे, मगर तब जब मनु भी अपनी अलग दुनिया बसा लेगा. उस में तो अभी कई साल हैं जीजाजी, तब तक आप अकेलापन क्यों झेलते हैं? मैं ने तो जब से आप को देखा है तब से चाहा है, तभी तो आप की हर पसंदनापसंद मालूम है. अब जब आप भी अकेले हैं और मैं भी तो क्यों नहीं चले आते आप मेरे पास?’’

‘‘तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है ऋतु,’’ गोपाल चिल्लाया, ‘‘6 फुट के पति के रहते खुद को अकेली कह रही हो?’’

‘‘6 फुट के पति के पास मेरे लिए 6 पल भी नहीं हैं जीजाजी. घर बस नहाने, सोने को आते हैं, आपसी संबंध कब बने थे, याद नहीं. अब तो बात भी हांहूं में ही होती है. शिकायत करती हूं, तो कहते हैं कि अभी 1-2 महीने तक या तो मुझे यों ही बरदाश्त करो या मम्मीपापा के पास चली जाओ. आप ही बताओ यह कोई बात हुई?’’

‘‘बात तो खैर नहीं हुई, लेकिन इस के सिवा समस्या का कोई और हल भी तो नहीं है.’’

‘‘है तो जो मैं ने अभी आप को सुझाया.’’

‘‘एकदम अनैतिक…’’

‘‘जिस से किसी पर मानसिक अथवा आर्थिक दुष्प्रभाव न पड़े और जिस से किसी को सुख मिले वह काम अनैतिक कैसे हो गया?’’ ऋतु ने बात काटी, ‘‘आप सोचिए मेरे सुझाव पर जीजाजी.’’

गोपाल ने सोचा तो जरूर, लेकिन यह कि ऋतु को भटकने से कैसे रोका जाए? राहुल जानबूझ कर तो उस की अवहेलना नहीं कर

रहा था और फिर यह सब उस ने शादी से पहले भी बता दिया था, लेकिन ऋतु से यह अपेक्षा करना कि वह संन्यासिनी का जीवन व्यतीत

करे उस के प्रति ज्यादती होगी. ऋतु को नौकरी करने या कोई कोर्स करने को कहना भी

मुनासिब नहीं था, क्योंकि मनचले तो हर जगह होते हैं और अल्हड़ ऋतु भटक सकती थी. इस से पहले कि वह कोई हल निकाल पाता, उस की मुलाकात अचानक राहुल से हो गई. राहुल उस के औफिस में फैक्टरी के लिए सरकार से कुछ अतिरिक्त सुविधाएं मांगने आया था.

गोपाल उसे संबंधित अधिकारी के पास ले गया और परस्पर परिचय करवाने के बाद बोला, ‘‘जब तक उमेश साहब तुम्हारी याचिका पर निर्णय लेते हैं, तुम मेरे कमरे में चलो राहुल, कुछ जरूरी बातें करनी हैं.’’

राहुल को असमंजस की स्थिति में देख कर उमेश हंसा, ‘‘बेफिक्र हो कर जाइए. गोपाल बाबू के साथ आए हैं, तो आप का काम तो सब से पहले करना होगा. कुछ

देर के बाद मंजूरी के कागज गोपाल बाबू के कमरे में पहुंचवा दूंगा.’’

राहुल के चेहरे पर राहत के भाव उभरे.

‘‘अगर वैस्ट वाटर पाइप को लंबा करने की अनुमति मिल जाती है तो मेरी कई परेशानियां खत्म हो जाएंगी जीजाजी और मैं काम समय से कुछ पहले ही पूरा कर दूंगा. अगर मैं ने यह प्रोजैक्ट समय पर चालू करवा दिया न तो मेरी तो समझिए लाइफ बन गई. कंपनी के मालिक दिनेश साहब हरेक को उस के योगदान का श्रेय देते हैं. वे मेरी तारीफ भी जरूर करेंगे जिसे सुन कर कई और बड़ी कंपनियां भी मुझे अच्छा औफर दे सकती हैं,’’ राहुल ने गोपाल के साथ चलते हुए बड़े उत्साह से बताया.

‘‘यानी तुम फिर इतने ही व्यस्त हो जाओगे?’’

‘‘एकदम तो नहीं. इस प्रोजैक्ट को सही समय पर चालू करने के इनाम में दिनेश साहब 1 महीने की छुट्टी और सिंगापुर, मलयेशिया वगैरह के टिकट देने का वादा कर चुके हैं. जब तक किसी भी नए प्रोजैक्ट की कागजी काररवाई चलती है तब तक मुझे थोड़ी राहत रहती है. फिर प्रोजैक्ट समय पर पूरा करने का काम चालू.’’

‘‘लेकिन इस व्यस्तता में ऋतु को कैसे खुश रखोगे?’’

‘‘वही तो समस्या है जीजाजी. नौकरी वह करना नहीं चाहती और मुझे भी पसंद नहीं है. खैर, किसी ऐसी जगह घर लेने जहां पासपड़ौस अच्छा हो और फिर साल 2 साल में बच्चा हो जाने के बाद तो इतनी परेशानी नहीं रहेगी. मगर समझ में नहीं

आ रहा कि फिलहाल क्या करूं? इस पाइप लाइन की समस्या को ले कर पिछले कुछ दिनों से इतने तनाव में था कि उस से ठीक से बात भी नहीं कर पा रहा. ऋतु स्वयं को उपेक्षित फील करने लगी है.’’

‘‘पाइप लाइन की समस्या तो समझो हल हो ही गई. तुम अब ऋतु को क्वालिटी टाइम दो यानी जितनी देर उस के पास रहो उसे महसूस करवाओ कि तुम सिर्फ उसी के हो, उस की बेमतलब की समस्याओं या बातों को भी अहमियत दो.’’

‘‘यह क्वालिटी टाइम वाली बात आप ने खूब सुझाई जीजाजी, यानी सौ बरस की जिंदगी से अच्छे हैं प्यार के दोचार दिन.’’

‘‘लेकिन एक एहसास तुम्हें उसे और करवाना होगा राहुल कि उस की शख्सीयत फालतू नहीं है, उस की तुम्हारी जिंदगी में बहुत अहमियत है.’’

‘‘वह तो है ही जीजाजी और यह मैं उसे बताता भी रहता हूं, लेकिन वह समझती ही नहीं.’’

‘‘ऐसे नहीं समझेगी. तुम कह रहे थे न कि दिनेश साहब सार्वजनिक रूप से तुम्हारे योगदान की सराहना करेंगे. तब तुम इस सब का श्रेय अपनी पत्नी को दे देना. बात उस तक भी पहुंच ही जाएगी…’’

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‘‘उद्घाटन समारोह में तो वह होगी ही. अत: स्वयं सुन लेगी और बात झूठ भी नहीं

होगी, क्योंकि जब से ऋतु मेरी जिंदगी में आई है मैं चाहता हूं कि मैं खूब तरक्की करूं और उसे सर्वसुख संपन्न गृहस्थी दे सकूं.’’

गोपाल ने राहत की सांस ली. उस ने राहुल को व्यस्तता और पत्नी के प्रति दायित्व निभाने का तालमेल जो समझा दिया था.

Serial Story: गुंडा (भाग-3)

मेरी ने उस का हाथ थामा, ‘‘नीरू, मुझे घर जाना है, जरूरी काम है. तू चलेगी क्या मेरे साथ?’’ मेरी अब उस की बहुत अच्छी दोस्त बन चुकी थी.

रास्ते में मेरी ने कहा, ‘‘नीरू, मैं बहुत दिन से एक बात कहना चाह रही थी, मगर डर रही थी कि कहीं तुम बुरा न मान जाओ. मेरा विचार है कि सगाई से पहले एक बार आनंद के बारे में पुनर्विचार कर लो. उस के और तुम्हारे स्वभाव में जमीनआसमान का अंतर है. वह जो दिखता है वह है नहीं और तुम्हारा मन बिलकुल साफ है.’’

‘‘जिसे मैं शांत, गंभीर और नेक व्यक्ति मानती थी उस में अब मुझे पैसोें का गरूर, अपनेआप को सब से श्रेष्ठ और दूसरों को तुच्छ समझने की प्रवृत्ति, दूसरों के दुखदर्द के प्रति संवेदनशून्यता आदि खोट क्यों दिखाई दे रहे हैं? शायद यह मेरी ही नजरों का फेर हो.’’ नीरू की आंखों में आंसू आ गए. उसे मंगल की याद आई. उस ने आंसू पोंछे.

मेरी समझ गई. उस ने मन में सोचा, ‘अब तुम ने आनंद को ठीक पहचाना.’

‘‘मेरी, मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि जब बात सगाई तक पहुंच गई है अब मैं क्या कर क्या सकती हूं?’’

‘‘सगाई तो क्या, बात अगर शादी के मंडप तक भी पहुंच जाती है और तुझे लगता है कि तू उस के साथ सुखी नहीं रह सकती, तेरा स्वाभिमान कुचला जाएगा, तो ऐसे रिश्ते को ठुकराने का तुझे पूरा हक है,’’ मेरी उसे घर छोड़ कर चली गई.

2 दिन तक नीरजा कालेज नहीं गई. उसे कुछ भी करने की इच्छा नहीं हो रही थी. अगले दिन तो वह और भी बेचैन हो उठी थी. उस का दम घुट रहा था. शाम होतेहोते वह और भी बेचैन हो उठी.

‘‘मां, थोड़ी देर वाकिंग कर के आती हूं.’’

‘‘मैं साथ चलूं?’’

‘‘नहीं मां, यों ही जरा चल के आऊंगी तो थोड़ा ठीक लगेगा,’’ वह चप्पल पहन कर निकल गई.

नीरू की मां जानती थी कि उसे कोई चीज बेचैन कर रही है. छोटीमोटी बात होगी तो वापस आ कर ठीक हो जाएगी. ऐसीवैसी कोई बात होगी तो वह अवश्य उस के साथ चर्चा करेगी. वे अपने काम में लग गईं.

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थोड़ी देर चलते रहने के बाद उस ने देखा कि वह किसी जानेपहचाने रास्ते से जा रही है. वह रुक गई. उसे अचानक ध्यान आया कि वह मेघा के घर के आसपास खड़ी है. उस के कदम मेघा के घर की ओर बढ़ गए. फाटक खोल कर उस ने अंदर प्रवेश किया. चारों ओर शांति थी. वहां चंदू की बाइक नहीं थी. ‘चलो, अच्छा है घर पर नहीं है. मेघा और उस की मां से थोड़ी देर बात कर के उस की मनोस्थिति में थोड़ा बदलाव आएगा.’

‘तनाव मुक्त हो कर आज रात वह मां से खुल कर बात कर सकेगी.’ दरवाजा बंद था. उस ने घंटी बजाने को हाथ उठाया ही था कि अंदर से आवाज आई, ‘‘नहीं मेघा, यह नहीं हो सकता.’’ अरे, यह तो चंदू की आवाज है.

‘‘क्यों भैया, क्यों नहीं हो सकता? मैं जानती हूं कि तुम उस से बहुत प्यार करते हो.’’

‘‘हांहां, तू तो सब जानती है, दादी है न मेरी.’’

‘‘हंसी में बात को मत उड़ाओ भैया. अगर तुम नीरू से नहीं कह सकते तो बोलो, मैं बात करती हूं.’’

‘‘नहींनहीं मेघा, खबरदार ऐसा कभी न करना. मैं जानता हूं कि वह किसी और की अमानत है तो फिर मैं कैसे…’’

‘‘चलो, एक बात तो साफ है कि आप उस से…’’

‘‘मगर इस से क्या होता है मेघा? वह किसी और से प्यार करती है, दोचार दिन में उस की सगाई होने वाली है और फिर शादी.’’

अब नीरू की समझ में आ रहा था कि शायद वे लोग उस की बात कर रहे थे.

‘‘भैया, आप से किस ने कह दिया कि नीरजा आनंद से प्यार करती है. यह तो केवल घटनाओं का क्रम है. वह उस के साथ खुश नहीं रह पाएगी.’’

‘‘यह तू कैसे कह सकती है?’’ चंदू ने झुंझलाते हुए कहा.

‘‘दोनों के स्वभाव में जमीनआसमान का अंतर है. आनंद स्वार्थी और अहंभावी है. वह वह नहीं है जो दिखता है. वह और भी खतरनाक है.’’

‘‘मैं सब जानता हूं मेघा, मगर अब कुछ नहीं हो सकता. सब से बड़ी बात यह है कि मैं कालेज में बदनाम हूं. धनवान भी नहीं हूं.’’

‘‘मगर मैं जानती हूं कि तुम कितने अच्छे हो. दूसरों की भलाई के लिए कुछ भी कर सकते हो.’’

‘‘मैं तेरा भाई हूं न, इसलिए तुझे ऐसा लगता है. मेघा अब छोड़ न यह सब. उस को शांति से आनंद के साथ आनंदपूर्वक जीने दे. इस समय तू मुझे जाने दे. मेरी गाड़ी अब तक ठीक हो गई होगी,’’ चंदू ने कहा.

घर की खिड़की से बचती हुई नीरू घर के पिछवाड़े की तरफ चली गई.

घर पहुंचने के बाद मां ने देखा कि अब वह तनावमुक्त थी, पर किसी आत्ममंथन में अभी भी उलझी हुई है. उन्होंने कुछ नहीं कहा. नीरू चुपचाप रात का खाना खाने के बाद अपने कमरे की बत्ती बुझा कर बालकनी में आ कर बैठ गई. बाहर चांदनी बिछी हुई थी.

वह जैसे किसी तंद्रा में थी. उस की आंखों के सामने तरहतरह की घटनाएं आ रही थीं, जिन में वह कभी आनंद को देख रही थी तो कभी चंदू को. जिसे सीधा, सरल, उत्तम और सहृदय मानती रही वह किस रूप में सामने आया और जिसे गुंडा, मवाली, फूलफूल पर मंडराने वाला भंवरा मानती आई है उस का स्वभाव कितना नरमदिल, दयालु और मददगार है, मगर उस ने चंदू को कभी उस नजरिए से नहीं देखा.

मेरी ने कई बार उसे समझाया भी कि चंदू साफ दिल का इंसान है जो अन्याय बरदाश्त नहीं कर सकता.

कोई लड़कियों को छेड़ता है, किसी बच्चे या बूढ़े को सताता है तो उस से लड़ाई मोल लेता है. वह लड़कियों के पीछे नहीं भागता, बल्कि उस के शक्तिशाली व्यक्तित्व और चुलबुलेपन से आकर्षित हो कर लड़कियां ही उसे घेरे रहती हैं. आज क्या बात हो गई उस के सामने सबकुछ साफ हो गया. शायद उस की आंखों पर लगा आनंद की नकली शालीनता का चश्मा उतर गया था.

‘ये क्या किया मैं ने. क्या मेरी पढ़ाई मुझे इतना ही ज्ञान दे पाई? मेरे संस्कार क्या इतने ही गहरे थे? मुझे सही और गलत की पहचान क्यों नहीं है? क्या मेरी ज्ञानेंद्रियां इतनी कमजोर हैं कि वे हीरे और कांच में फर्क नहीं कर पातीं? क्या मैं इतनी भौतिकवादी हो गई हूं कि मुझे आत्मा की शुद्धता और पवित्रता के बजाय बाहरी चमकदमक ने अधिक प्रभावित कर दिया.

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‘मेघा सही कहती थी कि वह आनंद के साथ कभी खुश नहीं रह पाएगी. न वह ऐश्वर्य में पलीबढ़ी है, न उसे पाना चाहती है. वह ऐसी सीधीसादी साधारण लड़की है जो एक शांतिपूर्ण, तनावमुक्त जिंदगी जीना चाहती है. वह अपने पति और परिवार से ढेर सारा प्यार पाना चाहती है.’

अचानक उस ने जैसे कुछ निश्चय कर लिया कि वह उस व्यक्ति से हरगिज शादी नहीं करेगी, जिस में संवेदनशीलता नहीं है, आर्द्रता नहीं है, जो भौतिकवादी है. फिर चाहे वह करोड़पति हो या अरबपति, उस का पति कदापि नहीं बन सकता. वह उस गुंडे, मवाली से ही शादी करेगी जो दिल का सच्चा है, नरमदिल और मानवतावादी है. वह जितना बिंदास दिखता है उतना ही परिपक्व और जीवन के प्रति गंभीर है. उसे पूरा विश्वास है कि उस की जिंदगी ऐसे व्यक्ति की छत्रछाया में बड़ी शांति से गुजर जाएगी. ऐसा निश्चय करने के बाद नीरजा को बड़े चैन की नींद आई.

ये घर बहुत हसीन है: भाग-3

सहसा आर्यन का फ़ोन बज उठा. आर्यन सब भूल जूस का गिलास टेबल पर रख बच्चे से बातें करने लगा.
रात को अकेले बिस्तर पर लेटी हुई वान्या विचित्र मनोस्थिति से गुज़र रही थी. ‘कभी लगता है आर्यन जैसा प्यार करने वाला न जाने कैसे मिल गया? लेकिन अगले ही पल स्वयं को छला हुआ महसूस करती हूं. सिर से पांव तक प्रेम में डूबा आर्यन एक फ़ोन के आते ही सब कुछ बिसरा देता है? क्या है यह सब?’ आर्यन की पदचाप सुन वान्या आंखें मूंदकर सोने का अभिनय करते हुए चुपचाप लेटी रही. आर्यन ने लाइट औफ़ की और वान्या से लिपटकर सो गया.

अगले दिन भी वान्या अन्यमनस्क थी. स्वास्थ्य भी ठीक नही लग रहा था उसे अपना. सारा दिन बिस्तर पर लेटी रही. आर्यन बिज़नस का काम निपटाते हुए बीच-बीच में हाल पूछता रहा. वान्या के घर से फ़ोन आया. अपने मम्मी-पापा को उसने अपने विषय में कुछ नहीं बताया, लेकिन उनकी स्नेह भरी आवाज़ सुन वह और भी बेचैन हो उठी.

रात को आर्यन खाने की दो प्लेटें लगाकर उसके पास बैठ गया. टीवी औन किया तो पता लगा कि अगले दिन ‘जनता कर्फ़्यू’ की घोषणा हो गयी है.

“अब क्या होगा? लगता है पापा का कहा सच होने वाला है. वे आज ही फ़ोन पर कह रहे थे कि लौकडाउन कभी भी हो सकता है.” वान्या उसांस लेते हुए बोली.

आर्यन ने उसके दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिए, “घबराओ मत तुम्हें कोई काम नहीं करना पड़ेगा. प्रेमा कहीं दूर थोड़े ही रहती है कि लौकडाउन में आएगी नहीं. तुम क्यों उदास हो रही हो? लौकडाउन हो भी गया तो हम दोनों साथ-साथ रहेंगे सारा दिन….मस्ती होगी हमारी तो!”

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वान्या को अब कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. पानी पीकर सोने चली गयी. मन की उलझन बढ़ती ही जा रही थी. ‘पहले क्या मैं कम परेशान थी कि यह जनता कर्फ़्यू ! लौकडाउन हुआ तो अपने घर भी नहीं जा सकूंगी मैं. आर्यन से फ़ोन के बारे में कुछ पूछूंगी और उसने कह दिया कि हां, मेरी पहले भी शादी हो चुकी है. तुम्हें रहना है तो रहो, नहीं तो जाओ. जो जी में आये करो तो क्या करूंगी? यहां इतने बड़े घर में कैसी पराई सी हो गयी हूं. आर्यन का प्रेम सच है या ढोंग?’ अजीब से सवाल बिजली से कौंध रहे थे वान्या के मन-मस्तिष्क में.
अपने आप में डूबी वान्या सोच रही थी कि इस विषय में कहीं से कुछ पता लगे तो उसे चैन मिल जाये. ‘कल प्रेमा से सफ़ाई करवाने के बहाने पूरे घर की छान-बीन करूंगी, शायद कोई सुराग हाथ लग जाये.’ सोच उसे थोड़ा चैन मिला तो नींद आ गयी.

अगले दिन सुबह से ही प्रेमा को हिदायतें देते हुए वह सारे बंगले में घूम रही थी. आर्यन मोबाइल में लगा हुआ था. दोस्तों के बधाई संदेशों का जवाब देते हुए कुछ की मांग पर विवाह के फ़ोटो भी भेज रहा था. वान्या को प्रेमा के साथ घुलता-मिलता देख उसे एक सुखद अहसास हो रहा था.
इतना विशाल बंगला वान्या ने पहले कभी नहीं देखा था. जब दो दिन पहले उसने बंगले में इधर-उधर खड़े होकर खींची अपनी कुछ तस्वीरें सहेलियों को भेजी थीं तो वे आश्चर्यचकित रह गयीं थीं. उसे ‘किले की महारानी’ संबोधित करते हुए मैसेजेस कर वे रश्क कर रहीं थी. इतने बड़े बंगले का मालिक आर्यन आखिर उस जैसी मध्यमवर्गीया से सम्बन्ध जोड़ने को क्यों राज़ी हो गया? और तो और कोरोना के बहाने शादी की जल्दबाजी भी की उसने.

वान्या का मन बेहद अशांत था. प्रेमा के साथ-साथ घर में घूमते हुए लगभग दो घंटे हो चुके थे. रहस्यमयी निगाहों से वह घर को टटोल रही थी. बैडरूम के पास वाले एक कमरे में चम्बा की सुप्रसिद्ध कशीदाकारी ‘नीडल पेंटिंग’ से कढ़ी हुई हीर-रांझा की खूबसूरत वौल हैंगिंग में उसे आर्यन और अपनी सौतन दिख रही थी. पहली बार लौबी में घुसते ही दीवार पर टंगी मौडर्न आर्ट की जिस पेंटिंग के लाल, नारंगी रंग उसे उसे रोमांटिक लग रहे थे, वही अब शंका के फनों में बदल उसे डंक मार रहे थे. बैडरूम में सजी कामलिप्त युगल की प्रतिमा, जिसे देख परसों वह आर्यन से लिपट गयी थी आज आंखों में खटक रही थी. ‘क्या कोई अविवाहित ऐसा सामान सजाने की बात सोच सकता है? शादी तो यूं हुई कि चट मंगनी पट ब्याह, ऐसे में भी आर्यन को ऐसी स्टेचू खरीदकर सजाने के लिए समय मिल गया….हैरत है!’ घर की एक-एक वस्तु आज उसे काटने को दौड़ रही थी. ‘कैसा बेकार सा है यह मनहूस घर’ वह बुदबुदा उठी.

लगभग सारे घर की सफ़ाई हो चुकी थी. केवल एक ही कमरा बचा था, जो अन्य कमरों से थोड़ा अलग, ऊंचाई पर बना था. पहाड़ के उस भाग को मकान बनाते समय शायद जान-बूझकर समतल नहीं किया गया होगा. बाहर से ही छत से थोड़ा नीचे और बाकी मकान से ऊपर उस कमरे को देख वान्या बहुत प्रभावित हुई थी. प्रेमा का कहना था कि उस बंद कमरे में कोई आता-जाता नहीं इसलिए साफ़-सफ़ाई की कोई आवश्यकता नहीं है, लेकिन वान्या तो आज पूरा घर छान मारना चाहती थी. उसके ज़ोर देने पर प्रेमा झाड़ू, डस्टर और चाबी लेकर कमरे की ओर चल दी. लकड़ी की कलात्मक चौड़ी लेकिन कम ऊंचाई वाली सीढ़ी पर चढ़ते हुए वे कमरे तक पहुंच गए. प्रेमा ने दरवाज़े पर लटके पीतल के ताले को खोला और दोनों अन्दर आ गए.

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कमरे में अखरोट की लकड़ी से बनी एक टेबल और लैदर की कुर्सी रखी थी. काले रंग की वह कुर्सी किसी भी दिशा में घूम सकती थी. पास ही ऊंचे पुराने ढंग के लकड़ी के पलंग पर बादामी रंग की याक के फ़र से बनी बहुत मुलायम चादर बिछी थी. कुछ फ़ासले पर रखी एक आराम कुर्सी और कपड़े से ढके प्यानो को देख वान्या को वह कमरा रहस्य से भरा हुआ लगने लगा. दीवार पर घने जंगल की ख़ूबसूरत पेंटिंग लगी थी. वान्या पेंटिंग को देख ही रही थी कि दीवार के रंग का एक दरवाज़ा दिखाई दिया. ‘कमरे के अन्दर एक और कमरा’ उसका दिमाग चकरा गया. तेज़ी से आगे बढ़कर उसने दरवाज़े को धक्का दे दिया. चरर्र की आवाज़ करता हुआ दरवाज़ा खुल गया.

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ये घर बहुत हसीन है: भाग-2

अचानक तिपाही पर रखा आर्यन का मोबाइल बज उठा. ‘वंशिका कौलिंग’ देखा तो याद आया यह सुरभि दीदी की बेटी का नाम है. वान्या ने फ़ोन उठा लिया. उसके हैलो कहते ही किसी बच्चे की आवाज़ सुनाई दी, “पापा कहां है?”

दीदी के बच्चे तो बड़े हैं. यह तो किसी छोटे बच्चे की आवाज़ है, सोचते हुए वान्या बोली, “किस से बात करनी है आपको? यह नंबर तो आपके पापा का नहीं है. दुबारा मिलाकर देखो, बच्चे!”
“आर्यन पापा का नाम देखकर मिलाया था मैंने….आप कौन हो?” बच्चा रुआंसा हो रहा था.
वान्या का मुंह खुला का खुला रह गया. इससे पहले कि वह कुछ और बोलती आर्यन बाथरूम से आ बाहर आ गया. “किसका फ़ोन है?” पूछते हुए उसने वान्या के हाथ से मोबाइल ले लिया और तोतली आवाज़ में बातें करने लगा.
निराश वान्या कपड़े हाथ में लेकर बाथरूम की ओर चल दी. ‘किसने किया होगा फ़ोन? आर्यन भी जुटा हुआ है उससे बातें करने में. क्या आर्यन की पहले शादी हो चुकी है? हां, लगता तो यही है. तलाक़ हो चुका है शायद. मुझे बताया भी नहीं….यह तो धोखा है!’ वान्या अपने आप में उलझती जा रही थी.
आधुनिक सुख-सुविधाओं से लैस कमरे के आकार का बाथरूम जिसके वह सपने देखती थी, उसकी निराशा को कम नहीं कर रहा था. एअर फ्रैशनर की भीनी-भीनी ख़ुशबू, हल्की ठंड और गरम पानी से भरा बाथटब! जी चाह रहा था कि अभी आर्यन आ जाये और अठखेलियां करते हुए उसे कहे कि ‘फ़ोन उसके लिए नहीं था, किसी और आर्यन का नंबर मिलाना चाहता था वह बच्चा. मुझे पापा कब बनना है, यह तो तुम बताओगी….!’ वान्या फूट-फूट कर रोने लगी.

बाहर आई तो डायनिंग टेबल पर नाश्ते के लिए आर्यन उसकी प्रतीक्षा कर रहा था. ऊंची बैक वाली गद्देदार काले रंग की कुर्सियां वान्या को कोरी शान लग रहीं थी. वान्या के बैठते ही आर्यन उसके बालों से नाक सटाकर लम्बी सांस लेता हुआ बोला, “कौन सा शैम्पू लगाया है? कहीं यह ख़ुशबू तुम्हारे बालों की तो नहीं? महक रहा हूं अन्दर तक मैं!”

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वान्या को आर्यन की शरारती मुस्कान फिर से मोहने लगी. सब कुछ भूल वह इस पल में खो जाना चाहती थी. “जल्दी से खा लो. अभी प्रेमा सफ़ाई कर रही है. उसे जल्दी से वापिस भेज देंगे….अपना बैड-रूम तो तुमने देखा ही नहीं अब तक. कब से इंतज़ार कर रहा है मेरा बिस्तर तुम्हारा ! ” आर्यन का नटखट अंदाज़ वान्या को मदहोश कर रहा था.

नाश्ता कर वान्या बैडरूम में पहुंच गयी. शानदार कमरे में कदम रखते ही रोमांस की ख़ुमारी बढ़ने लगी. “मुझे ज़रूर ग़लतफहमी हुई है, आर्यन के साथ कोई हादसा हुआ होता तो वह प्यार के लम्हों को जीने के लिए इतना बेताब न दिखता. उसका इज़हार तो उस आशिक़ जैसा लग रहा है, जिसे नयी-नयी मोहब्बत हुई हो.” सोचते हुए वान्या बैड पर लेट गयी. फ़ोम के गद्दे में धंसे-धंसे ही मखमली चादर पर अपना गाल रख सहलाने लगी. प्रेमा और नरेंद्र के जाते ही आर्यन भी कमरे में आ गया. खड़े-खड़े ही झुककर वान्या की आंखों को चूम मुस्कुराते हुए उसे अपने बाहुपाश में ले लिया.
“कैसा है यह मिरर? कुछ दिन पहले ही लगवाया है मैंने?” बैड के पास लगे विंटेज कलर फ़्रेम के सात फुटिया मिरर की ओर इशारा करते हुए आर्यन बोला.
दर्पण में स्वयं को आर्यन की बाहों में देख वान्या के चेहरे का रंग भी आईने के फ़्रेम सा सुर्ख़ हो गया.
प्रेमासिक्त युगल एकाकार हो एक-दूसरे की आगोश में खोए-खोए कब नींद की आगोश में चले गए, पता ही नहीं लगा.

सायंकाल प्रेमा ने घंटी बजाई तो उनकी नींद खुली. ग्रीन-टी बनवाकर अपने-अपने हाथों में मग थामे दोनों घर के पीछे की ओर बने गार्डन में रखी बेंत की कुर्सियों पर जाकर बैठ गए. वहां रंग-बिरंगे फूल खिले थे. कतार में लगे ऊंचे-ऊंचे पेड़ों की शाखाएं हवा चलने से एक-दूसरे के साथ बार-बार लिपट रहीं थीं. सभी पेड़ों पर भिन्न आकार के फल लटक रहे थे, रंग हरा ही था सबका. वान्या की उत्सुक निगाहों को देख आर्यन बताने लगा, “मेरे राइट हैंड साइड वाले चार पेड़ आलूबुखारे के और आगे वाले तीन खुबानी के हैं. अभी कच्चे हैं, इसलिए रंग हरा दिख रहा है. दीदी की बेटी को बहुत पसंद है कच्ची खुबानी. हमारी शादी में नहीं आ सकी, वरना खूब एंजौय करतीं.”

“अपने बच्चों को साथ क्यों नहीं लाईं दीदी? वे दोनों आ गए तो बच्चे भी आ सकते थे. दीदी की बेटी नाम वंशिका है न? सुबह इसी नाम से कौल आई तो मैंने अटैंड कर ली, पर वह तो किसी और का था. किस बच्चे के साथ बात कर रहे थे तुम?” वान्या का मस्तिष्क फिर सुबह वाली घटना में जाकर अटक गया.
“तुम्हें देखते ही शादी करने को मन मचलने लगा था मेरा. दीदी से कह दिया था कि कोई आ सकता है तो आ जाये, वरना मैं अकेले ही चला जाऊंगा बारात लेकर! सबको लाना पौसिबल नहीं हुआ होगा तो जीजू को लेकर आ गयीं देखने कि वह कौन सी परी है जिस पर मेरा भाई लट्टू हो गया!”
आर्यन का मज़ाक सुन वान्या मुस्कुराकर रह गयी.

“एक मिनट…..शायद प्रेमा ने आवाज़ दी है, वापिस जा रही होगी, मैं दरवाज़ा बंद कर अभी आया.” वान्या की पूरी बात का जवाब दिए बिना ही आर्यन दौड़ता हुआ अन्दर चला गया.

कुछ देर तक जब वह लौटकर नहीं आया तो वान्या उस बच्चे के विषय में सोचकर फिर संदेह से घिर गयी. व्याकुलता बढ़ने लगी तो बगीचे से ऊपर की ओर जाती हुई सफ़ेद रंग की घुमावदार लोहे की सीढ़ियों पर चढ़ गयी. ऊपर खुली छत थी, जहां से दूर तक का दृश्य साफ़ दिखाई दे रहा था. ऊंची-ऊंची फैली हुई पहाड़ियों पर पर पेड़ों के झुरमुट, सर्प से बलखाते रास्ते और छोटे-बड़े मकान. मकानों की छतों का रंग अधिकतर लाल या सलेटी था. सभी मकान एक-दूसरे से कुछ दूरी पर थे. ‘क्या ऐसी ही दूरी मेरे और आर्यन के बीच तो नहीं? साथ हैं, लेकिन एक फ़ासला भी है. क्या राज़ है उस फ़ोन का आखिर?’ वान्या सोच में डूबी थी. सहसा दबे पांव आकर आर्यन ने अपने हाथों से उसकी आंखें बंद कर दीं.

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“तुम ही तो आर्यन….! कब आये छत पर?”

“हो सकता है यहां मेरे अलावा कोई और भी रहता हो और तुम्हें कानों कान ख़बर भी न हो.” आर्यन शरारत से बोला.
“और कौन होगा?” वान्या घबरा उठी.

“अरे कितनी डरपोक हो यार….यहां कौन हो सकता है?” वान्या की आंखों से हाथों को हटा उसकी कमर पर एक हाथ से घेरा बनाकर आर्यन ने अपने पास खींच लिया. “चलो, छत पर और आगे. तुम्हें यहां से ही कुछ सुन्दर नज़ारे दिखाता हूं.”

आर्यन से सटकर चलते हुए वान्या को बेहद सुकून मिल रहा था. उसकी छुअन और ख़ुशबू में डूब वान्या के मन में चल रही हलचल शांत हो गयी. दोनों साथ-साथ चलते हुए छत की मुंडेर तक जा पहुंचे. देवदार के बड़े-बड़े शहतीरों को जोड़कर बनाई गयी मुंडेर की कारीगरी देखते ही बनती थी. ‘काश! इन शहतीरों की तरह मैं और आर्यन भी हमेशा जुड़े रहें.’ वान्या सोच रही थी.

“देखो वह सामने सीढ़ीदार खेत, पहाड़ों पर जगह कम होने के कारण बनाये जाते हैं ऐसे खेत…..और दूर वहां रंगीन सा गलीचा दिख रहा है? फूलों की खेती होती है उधर.”

कुछ देर बाद हल्का कोहरा छाने लगा. आर्यन ने बताया कि ये सांवली घटायें हैं जो अक्सर शाम को आकाश के एक छोर से दूसरे तक कपड़े के थान सी तन जाती हैं. कभी बरसती हैं तो कभी सुबह सूरज के आते ही अपने को लपेट अगले दिन आने के लिए वापिस चली जाती हैं.”
सूरज ढलने के साथ अंधेरा होने लगा तो दोनों नीचे नीचे आ गए. घर सुन्दर बल्बों और शैंडलेयर्स से जगमग कर रहा था. वान्या का अंग-अंग भी आर्यन के प्रेम की रोशनी से झिलमिला रहा था. सुबह वाली बात मन के अंधेरे में कहीं गुम सी हो गयी थी.

प्रेमा के खाना बनाकर जाने के बाद आर्यन वान्या को डायनिंग रूम के पास बने एक कमरे में ले गया. कमरे की अलमारी में महंगी क्रौकरी, चांदी के चम्मच, नाइफ़ और फ़ोर्क आदि वान्या को बेहद आकर्षित कर रहे थे, लेकिन थकान से शरीर अधमरा हो रहा था. कमरे में बिछे गद्देदार सिल्वर ग्रे काउच पर वह गोलाकार मुलायम कुशन के सहारे कमर टिकाकर बैठ गयी. आर्यन ने कांच के दो गिलास लिए और पास रखे रेफ़्रीजरेटर से एप्पल जूस निकालकर गिलासों में उड़ेल दिया. वान्या ने गिलास थामा तो पैंदे पर बाहर की ओर क्रिस्टल से बने गुलाबी कमल के फूल की सुन्दरता में खो गयी.
“फूल तो ये हैं….कितने खूबसूरत !” कहते हुए आर्यन ने अपने ठंडे जूस में डूबे अधरों से वान्या के होठों को छू लिया. वान्या मदहोश हो खिलखिला उठी.
“जूस में भी नशा होता है क्या? मैं अपने बस में कैसे रहूं?” आर्यन वान्या के कान में फुसफुसाया.
“नशा तो तुम्हारी आंखों में है.” कांपते लबों से इतना ही कह पायी वान्या और आंखें मूंद लीं.

आगे पढें- रात को अकेले बिस्तर पर लेटी हुई वान्या विचित्र मनोस्थिति…

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ये घर बहुत हसीन है: भाग-4

छोटा सा वह कमरा खिलौनों से भरा हुआ था, उनमें अधिकतर सौफ़्ट टौयज़ थे. पास ही आबनूस का बना एक वार्डरोब था, वान्या ने अचंभित होकर वार्डरोब खोलने का प्रयास किया, लेकिन वह खुल नहीं रहा था. पीतल के हैंडल को कसकर पकड़ जब उसने अपना पूरा दम लगाया तो वार्डरोब झटके से खुल गया और तेज़ धक्का लगने के कारण अन्दर से कुछ तस्वीरें निकलकर गिर गयीं. वान्या ने झुककर एक फ़ोटो उठाया तो सन्न रह गयी. आर्यन एक विदेशी लड़की के साथ बर्फ़ पर स्कीइंग कर रहा था. गर्म लम्बी जैकेट, कैप, आंखों पर गौगल्स और हाथों में दस्ताने पहने दोनों बेहद खुश दिख रहे थे. बदहवास सी वह अन्य तस्वीरें उठा ही रही थी कि प्रेमा की आवाज़ सुनाई दी, “मेम साब, इस कमरे में क्या कर रहीं हैं आप?”

वान्या ने झटपट सारी तस्वीरें वार्डरोब में वापिस रख दीं. “यहां की सफ़ाई करनी होगी. मोबाइल के ज़माने में यहां कौन सी फ़ोटो रखी हैं? सामान को निकालकर इस रैक को साफ़ कर लेते हैं.” अपने को संयत कर वान्या ने वार्डरोब की ओर इशारा कर दिया.

“नहीं, ऐसा मत कीजिये. आप जल्दी-जल्दी मेरे साथ अब नीचे चलिए. साहब आ गए तो….!”

“साहब आ गए तो क्या हो जायेगा? घर साफ़ करना है या नहीं?” वान्या बेचैनी और गुस्से से कांपने लगी.

“साहब कितने खुश हैं आपके साथ. यहां आ गए तो….दुखी हो जायेंगे. मेम साब आप चलिए न नीचे….मैं

नहीं करूंगी आज यहां की सफ़ाई.” वान्या का हाथ पकड़ खींचते हुए प्रेमा कातर स्वर में बोली.

“नहीं जाऊंगी मैं यहां से…..बताओ मुझे कि यहां आकर क्यों दुखी हो जायेंगे साहब.”

“सुरभि मेम साब ने मुझे आपको बताने से मना किया था, लेकिन अब आप ही मेरी मालकिन हो. जैसा आप कहोगी मैं करुंगी. ऐसा करते हैं इस छोटे कमरे से निकलकर बाहर वाले बड़े कमरे में चलते हैं.”

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बड़े कमरे में आकर वान्या पलंग पर बैठ गयी. प्रेमा ने दरवाज़े को चिटकनी लगाकर बंद कर दिया और वान्या के पास आकर धीमी आवाज़ में कहना शुरू किया, “मेम साब, यह कमरा आर्यन साहब के बड़े भाई का है. उन दोनों की उम्र में तीन साल का फ़र्क था, लेकिन प्यार वे पिता की तरह करते थे आर्यन साहब को. आपको पता होगा कि साहब के मां-पिताजी को गुजरे कई साल हो चुके हैं. बड़े भाई ने अपने पिता का धंधा अच्छी तरह संभाल लिया था. एक बार जब बड़े साहब काम के सिलसिले में देश से बाहर गए तो वहां अंग्रेज लड़की से प्यार कर बैठे. शादी भी कर ली थी दोनों ने. अंग्रेज मैडम डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहीं थी,

इसलिए साहब के साथ यहां नहीं आयीं थीं. साहब वहां आते-जाते रहते थे. एक साल बाद उनका बेटा भी हो गया. बड़े साहब बच्चे को यहां ले आये थे. यह बात आज से कोई ढाई-तीन साल पहले की है. उस टाइम आर्यन साहब पढ़ाई कर रहे थे और मुम्बई में रह रहे थे. जब पिछले साल अंग्रेज मैडम की पढ़ाई पूरी हुई तो बड़े साहब उनको हमेशा के लिए लाने विदेश गए थे. वहां….बहुत बुरा हुआ मेम साब.” प्रेमा अपने सूट के दुपट्टे से आंसू पोंछ रही थी. वान्या की प्रश्नभरी आंखें प्रेमा की ओर देख रही थी.
“मेम साब, बर्फ़ पर मौज-मस्ती करते हुए अचानक साहब तेज़ी से फिसल गए और वे लड़खड़ा कर गिरे तो अंग्रेज मैडम भी गिरीं, क्योंकि दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़े थे. लुढ़कते-लुढ़कते दोनों नीचे तक आ गए और जब तक लोग अस्पताल ले जाते, बहुत देर हो चुकी थी. साथ-साथ हाथ पकड़े हुए चले गए दोनों इस दुनिया से. उनका बेटा कृष अब सुरभि दीदी के पास रहता है.”

वान्या दिल थामकर सब सुन रही थी. रुंधे गले से प्रेमा का बोलना जारी था. “मेम साब, इस दुर्घटना के बाद जब सुरभि दीदी यहां आईं थीं तो कृष आर्यन साहब को देखकर लिपट गया और पापा, पापा कहकर बुलाने लगा, क्योंकि बड़े साहब और छोटे साहब की शक्ल बहुत मिलती थी. ये देखो….!” प्रेमा ने प्यानों पर ढका कपड़ा उठा दिया. प्यानों की सतह पर एक पोस्टर के आकार वाली फ़ोटो चिपकी थी जिसमें आर्यन और बड़ा भाई एक-दूसरे के गले में हाथ डाले हंसते हुए दिख रहे थे. दोनों का चेहरा एक-दूसरे से इतना मिल रहा था कि किसी को भी जुड़वां होने का भ्रम हो जाये.

“मेम साब, अभी आप कह रही थीं न कि मोबाइल के टाइम में भी ऐसे फ़ोटो? ये बड़े साहब ने पोस्टर बनवाने के लिए रखे हुए थे. बहुत शौक था बड़े-बड़े फ़ोटो से उन्हें घर सजाने का.” प्रेमा आज जैसे एक-एक बात बता देना चाहती थी वान्या को.
“ओह! अच्छा एक बात बताओ, कृष ने आर्यन से अपनी मम्मी के बारे में कुछ नहीं पूछा ?” वान्या व्यथित होकर बोली.
“नहीं, अपनी मां के साथ तो वह तब तक ही रहा जब दो महीने का था. बताया था न मैंने कि बड़े साहब ले आये थे उसको यहां. कभी-कभी साहब के साथ जाता था तभी मिलता था उनसे. वैसे भी वे छह महीने की ट्रेनिंग पर थीं और कहती थीं कि अभी बच्चा मुझे मम्मी न कहे सबके सामने. कृष कोई दीदी-वीदी समझता होगा शायद उनको.”

वान्या सब सुनकर गहरी सोच में डूब गयी. कुछ देर तक शांत रहने के बाद प्रेमा फिर बोली, “मेम साब, जब आपका रिश्ता पक्का नहीं हुआ था और साहब आपसे मिलकर आये थे तो आपकी फ़ोटो साहब ने मुझे और मेरे पति को दिखाई थी. हमें उन्होंने आपके बारे में बताते हुए कहा था कि इनका चेहरा जितना भोला-भाला लग रहा है, बातों से भी उतनी मासूम हैं. वैसे स्कूल में टीचर हैं, समझदार हैं, मेरे पास रुपये-पैसे की तो कोई कमी नहीं है. मुझे ज़रुरत है तो उसकी जो मेरा साथ दे, मेरे अकेलेपन को दूर कर दे, जिसके सामने अपना दर्द बयां कर सकूं. मैंने इनको तुम्हारी मेम साब बनाने का फ़ैसला कर लिया है….!”
वान्या प्रेमा के शब्दों में अभी भी खोयी हुई थी. प्रेमा के “मेम साब अब नीचे चलते हैं” कहते ही वह गुमसुम सी सीढियां उतरने लगी.

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प्रेमा के वापिस चले जाने के बाद वह आर्यन के साथ लंच कर आराम करने बैडरूम में आ गयी. वान्या को प्यार से अपनी ओर खींचते हुए आर्यन बोला, “रात में बहुत नींद आ रही थी, अब नहीं सोने दूंगा.”
“लेकिन एक शर्त है मेरी.” वान्या आर्यन के सीने पर सिर रखकर बोली.
“कहो न ! कोई भी शर्त मानूंगा तुम्हारी.” वान्या के चेहरे से अपना चेहरा सटा आर्यन बोला.”
“कोरोना के हालात ठीक होने के बाद हम दीदी के पास चलेंगे और अपने बेटे कृष को हमेशा के लिए अपने साथ ले आयेंगे.”
आर्यन की सांस जैसे वहीं थम गयी. “प्रेमा ने बताया न !” भर्राये गले से वह इतना ही बोल सका.
वान्या ने मुस्कुराकर ‘हां’ में सिर हिला दिया.
आर्यन वान्या को अपने सीने से लगाये ख़ामोश होकर भी बहुत कुछ कह रहा था. वान्या को प्रेम में डूबे युगल की मूर्ति आज बेहद ख़ूबसूरत लग रही थी. मन ही मन वह कह उठी, ‘बेकार नहीं, मनहूस नहीं….ये घर बहुत हसीन है!’

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