Monsoon Fashion : मौनसून में ऐसे दिखें फैशनेबल और स्टाइलिश

Monsoon Fashion : मौनसून तन और मन दोनों को ही सुकून देने वाला मौसम होता है, पर बारिश के मौसम में सब से बड़ी समस्या आउटफिट को ले कर होती है क्योंकि बारिश के कारण चारों तरफ कीचड़ और मिट्टी का बोलबाला रहता है, इस के अतिरिक्त भीग जाने की भी संभावना रहती है जिस के कारण लुक और महंगे कपड़े दोनों ही खराब हो जाते हैं.

निम्न टिप्स की मदद से आप बारिश में भी फैशनेबल और स्टाइलिश दिख सकते हैं :

ब्राइट ऐक्सैसरीज का करें प्रयोग : आउटफिट पहनने के बाद यदि आप को अपना लुक डल या म्यूटेड लग रहा है तो आप कलरफुल स्टौल, ग्लिटर स्कार्फ, कलरफुल हैट, एक स्टेटमैंट बैग या ब्राइट शूज को अपने आउटफिट का हिस्सा बनाएं. ये ऐक्सैसरीज आउटफिट की डलनैस को ओवरलैप कर देंगी और आप का लुक एकदम बदल जाएगा.

वाटरप्रूफ मैटीरियल चुनें : बारिश में अकसर भीग जाने की संभावना रहती है इसलिए मौनसून के मौसम में आप ऐसे फैब्रिक का आउटफिट चुनें जो वाटरप्रूफ हो. इस के लिए आप वाटरप्रूफ कौटन, नायलोन, पौलिएस्टर और सीक्वैंस जैसे फैब्रिक का चयन कर सकते हैं. ये भीगने के बाद भी बहुत जल्दी सूख जाते हैं और भीग जाने के बाद भी अपने वास्तविक रूप में ही रहते हैं.

पार्टी फंक्शन के लिए सीक्वैंस बहुत उपयुक्त रहता है क्योंकि यह दिखने में भी अच्छा लगता है और सूखता भी बहुत जल्दी है.

ब्रीदेबल हों कपड़े

कौटन, लिनेन, खादी और रेयान जैसे फैब्रिक से बने ड्रैसेज का चयन करें. ये भीग जाने पर जल्दी सूखते तो हैं ही साथ ही शरीर पर चिपकते भी नहीं हैं. इन दिनों ऐसे कपड़े पहनें जिन में हवा का आगमन हो सके ताकि भीग जाने पर आप इन के ऊपर से जैकेट आदि कैरी कर सकें ताकि आप का लुक भी न बिगड़े और आप स्टाइलिश भी दिख सकें.

डार्क कलर का चयन करें

लाइट कलर के स्थान पर डार्क कलर्स में एक तो कीचड़ के दागधब्बे नहीं दिखते दूसरा ये भीगने पर पारदर्शी भी नहीं होते जिस से आप की पर्सनैलिटी भद्दी नहीं दिखती. इसलिए मौनसून में मैरून, नेवी ब्लू, ग्रे, ब्लैक और डार्क ग्रीन जैसे रंगों का प्रयोग करें. इस से आप फैशनेबल भी दिखेंगी और स्टाइलिश भी.

व्हाइट, क्रीम, पीच, सी ग्रीन और पिंक जैसे हलके रंगों का प्रयोग करने से बचें क्योंकि इन रंगों के आउटफिट भीगने पर शरीर से चिपक जाते हैं, दूसरा दागधब्बे भी बहुत जल्दी लग जाते हैं जिन्हें साफ करना भी काफी मुश्किल होता है.

मोटे फैब्रिक हैं अनुकूल

शिफौन, जौर्जेट, और्गेंडी, वाइल जैसे पतले फैब्रिक और सिल्क जैसे महंगे फैब्रिक से बने आउटफिट के स्थान पर कौटन, नायलोन और हौजरी मैटीरियल से बने आउटफिट का चयन करें. ये भीगने पर आप के शरीर से चिपक कर आप के लुक को खराब नहीं करेंगे.

रखें इन बातों का भी ध्यान

● बहुत महंगी ड्रैसेज इन दिनों पहनने से बचें.

● कैपरी, शौर्ट्स, मिडी, वन पीस और को और्डसैट इस मौसम के लिए उपयुक्त रहते हैं. ये कम लंबाई वाले होते हैं जिस से इन में दागधब्बे लगने का डर नहीं रहता.

● यदि आप ने किसी फंक्शन में महंगी साड़ी या आउटफिट को पहना है तो उसे प्रयोग करने के बाद तुरंत ड्राईक्लीन करवा कर रखें ताकि मिट्टी के दागधब्बे साफ हो जाएं.

● प्योर लेदर के शूज और हैंड बैग को कैरी करने से बचें क्योंकि ये बहुत महंगे आते हैं और भीग जाने पर खराब हो जाते हैं.

● बाहर जाते समय अपने साथ छतरी या रेनकोट और एक छोटा तौलिया अवश्य रखें ताकि बारिश के समय इन का प्रयोग किया जा सके.

● प्योर सिल्क बनारसी साड़ी या लहंगे के स्थान पर सेमी बनारसी का प्रयोग करें ताकि भीगने पर भी ये खराब न हों.

Secret Love : मेरी भाभी मुझसे संबंध बनाना चाहती हैं, ताकि वो मां बन सकें… मैं क्या करूं?

Secret Love : अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है, तो ये लेख अंत तक पढ़ें

सवाल

मैं विवाहित पुरुष हूं. विवाह को 8 वर्ष हो गए हैं. 7 साल का एक बच्चा है. मैं बच्चे व पत्नी से बहुत प्यार करता हूं. मेरी समस्या मेरी दूर के रिश्ते की भाभी को ले कर है. उन के विवाह को 10 वर्ष हो गए हैं लेकिन वे अभी तक मां बनने का सुख हासिल नहीं कर पाई हैं. मैडिकल जांच में भाभी के पति में कमी पाई गई है. भाभी चाहती हैं कि मैं उन का साथ दूं ताकि वे मां बनने का सुख हासिल कर सकें. मुझे समझ नहीं आ रहा कि मैं क्या करूं, सलाह दें.

जवाब

आप अपने वैवाहिक जीवन में सुखी हैं तो फिर बैठे बिठाए अपने वैवाहिक जीवन को क्यों बरबाद करना चाहते हैं. आप की भाभी का मां बनने को ले कर आप से जो प्रस्ताव है वह पूरी तरह से गलत है. ऐसा करने से आप की हंसती खेलती गृहस्थी बरबाद हो जाएगी.

जहां तक भाभी के मां बनने का सवाल है उस के लिए मैडिकल औप्शन उपलब्ध है जैसे आईवीएफ. वे इस उपाय को अपना सकती हैं. इस से आप की खुशहाल गृहस्थी में भी कोई आंच नहीं आएगी और आप की भाभी मां बनने का सुख हासिल भी कर सकेंगी. आप भूल कर भी अपनी भाभी के प्रस्ताव को न स्वीकारें. इस से न केवल आप पति पत्नी के रिश्ते में दरार आएगी, बल्कि आप के अपने दूर के भाई से भी संबंध बिगड़ते देर नहीं लगेगी.

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संध्या की आंखों में नींद नहीं थी. बिस्तर पर लेटे हुए छत को एकटक निहारे जा रही थी. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे, जिस से वह आकाश के चंगुल से निकल सके. वह बुरी तरह से उस के चंगुल में फंसी हुई थी. लाचार, बेबस कुछ भी नहीं कर पा रही थी. गलती उस की ही थी जो आकाश को उसे ब्लैकमेल करने का मौका मिल गया. वह जब चाहता उसे एकांत में बुलाता और जाने क्याक्या करने की मांग करता. संध्या का जीना दूभर हो गया था. आकाश कोई और नहीं उस का देवर ही था. सगा देवर. एक ही घर, एक ही छत के नीचे रहने वाला आकाश इतना शैतान निकलेगा, संध्या ने कल्पना भी नहीं की थी. वह लगातार उसे ब्लैकमेल किए जा रहा था और वह कुछ भी नहीं कर पा रही थी. बात ज्यादा पुरानी नहीं थी. 2 माह पहले ही संध्या अपने पति साहिल के साथ यूरोप ट्रिप पर गई थी. 50 महिलापुरुषों का गु्रप दिल्ली इंटरनैशनल एअरपोर्ट से रवाना हुआ.

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Famous Hindi Stories : प्रोफाइल पिक्चर

Famous Hindi Stories : उसएक रौंग कौल ने जैसे मेरी बेरंग जिंदगी को रंगीन बना दिया. वीराने में जैसे बहार आ गई. मेरा दिल एक आजाद पंछी की तरह ऊंची उड़ान भरने लगा.

ये सब उस रौंग कौल वाले रंजीत की वजह से था. उस की आवाज में न जाने कैसी कशिश थी कि न चाहते हुए भी मैं उस की कौल का इंतजार करती रहती थी. जिस दिन उस की कौल नहीं आती, मैं तो जैसे बेजान सी हो जाती थी. उस की कौल मेरे लिए नई ऊर्जा का काम करती थी.

गुड मौर्निंग से ले कर गुड नाइट तक न जाने कितनी कौल्स आ जाती थीं उस की. उस की खनकती आवाज मेरे कानों में शहनाई सी बजाती थी. मीठीमीठी बातें रस सी घोल जाती थीं. रंजीत मुझे अपनी सारी बातें बताने में जरा भी नहीं हिचकिचाता था. और एक मैं थी, जो चाहते हुए भी सारी बात नहीं बता पाती थी. मेरे अंदर की हीनभावना कुछ बोलने ही नहीं देती थी.

रंजीत ने मुझे बताया था कि वह एक आर्मी अफसर था, पैर में दुश्मन की गोली लगने की वजह से उस का पैर काट दिया गया था. यह बात बताने में भी वह बिलकुल शरमाया नहीं था, बल्कि बड़े गर्व से बताया था.

2 दिन हो गए थे रंजीत की कौल आए हुए. ये 2 दिन 2 सालों के समान थे. वह मुझ से नाराज था. उस का नाराज होना शायद जायज भी था.

उस ने सिर्फ इतना ही तो कहा था मुझ से कि लता व्हाट्सऐप पर अपनी प्रोफाइल

पिक्चर लगा दो. मैं ने उसे डांटते हुए कहा था कि मेरी मरजी मैं लगाऊं या न लगाऊं. तुम कौन होते हो मुझे और्डर देने वाले? रंजीत चुप हो गया था.

रंजीत अपने प्रोफाइल पिक्चर रोजरोज बदलता था. सुंदरसुंदर फोटो लगाता था. आर्मी ड्रैस के फोटो में तो वह बहुत ही जंचता था.

मैं ने सोचा रंजीत को खुश करने के लिए प्रोफाइल फोटो लगा ही देती हूं. लगाने से पहले मैं ने अपनेआप को फिर एक बार आईने में निहारा.

आंखों के नीचे कालापन उस पर चढ़ा मोटे लैंस का चश्मा, चेहरे पर हलकी रेखाएं, दागधब्बे, तिल, पेट पर चरबी, कमर पर सिलवटें, मोटी छोटी सी नाक, सिर के बालों में से झांकती सफेदी. ‘नहींनहीं’ मैं अपना फोटो कैसे लगा सकती हूं, सोच मैं ने फोटो लगाने का इरादा बदल दिया.

रंजीत को कैसे समझाती मेरा फोटो लगाने लायक है ही नहीं. काश, रंजीत मेरी मजबूरी समझ पाता और नाराज नहीं होता. सारा दिन मोबाइल हाथ में पकड़ेपकड़े रंजीत की कौल का इंतजार करती रही.

अचानक मेरा मोबाइल बजा. मानो कई जलतरंगें एक साथ बज उठी हों. रंजीत का नंबर फ्लैश होने लगा. मेरी आंखें खुशी से चमक उठीं.

मैं ने बिना देर किए फोन उठा लिया. उधर से वही दिलकश आवाज, जिसे सुन कर कानों को सुकून सा मिलता था, ‘‘मेरी कौल का इंतजार कर रही थीं न.’’ रंजीत ने शरारती आवाज में पूछा.

‘‘नहीं तो,’’ मैं ने झूठ कहा.

‘‘कर तो रही थीं पर मानोगी नहीं… फोन हाथ में ही पकड़ा हुआ था… तुरंत उठा लिया… और क्या सुबूत चाहिए,’’

रंजीत ने हंसते हुए कहा.

‘‘कल कौल क्यों नहीं की?’’ मैं ने गुस्सा होते हुए पूछा.

‘‘अरे, मैं अपना फुल चैकअप कराने गया था. उस में टाइम तो लगता ही है.’’

‘‘क्या हुआ तुम्हें?’’ मैं ने घबराते हुए पूछा.

‘‘कुछ नहीं हुआ… 40 के बाद कराते रहना चाहिए… तुम भी अपना चैकअप कराती रहा करो,’’ रंजीत ने नसीहत देते हुए कहा.

‘‘अच्छा यह बताओ तुम्हारी रिपोर्ट आ गई? सब ठीक तो है न रंजीत? कुछ छिपा तो नहीं रहे हो?’’

‘‘रिपोर्ट आ गई है. सब नौर्मल है. थोड़ा ब्लड प्रैशर बढ़ा हुआ था. उस की दवा खा रहा हूं. चिंता की कोई बात नहीं है,’’ रंजीत बोला.

मैं ने रात को ही व्हाट्सऐप पर गुलाब के फूलों वाली प्रोफाइल पिक्चर लगा दी. रंजीत को गुलाब के फूल बहुत पसंद थे. व्हाट्सऐप पर तो सिर्फ गुडमौर्निंग और गुड नाइट ही होती थी. बाकी बातें तो फोन पर ही होती थीं.

समय पंख लगा कर उड़ रहा था. 1 महीना कब बीत गया, पता ही नहीं चला. मैं अपनेआप को आईने में देखती तो 16 साल की लड़की की तरह शरमा जाती. गाल सिंदूरी हो जाते. चेहरा चमकने लगता.

लताजी के गाने सुनती तो साथ में गुनगुनाने लगती. कभीकभी तो

अपनेआप ही पैर भी थिरकने लगते थे. यह मुझे क्या होता जा रहा था… शायद रंजीत की दोस्ती का खुमार था.

रंजीत ने फोन पर मिलने की अनुमति मांग कर मुझे उलझन में डाल दिया था. उस समय तो मैं ने कह दिया था, सोच कर बताऊंगी,पर मैं तय ही नहीं कर पा रही थी कि उस का फोन आएगा तो मुझे क्या कहना है.

मोबाइल बजने लगा. कांपते हाथ से उठाया. मेरे हैलो बोलने से पहले ही रंजीत ने बोलना शुरू कर दिया, ‘‘लता हम को अब मिल ही लेना चाहिए… जिंदगी का कोई भरोसा नहीं है. आज है, कल न रहे.’’

‘‘ऐसा क्यों कह रहे हो? कुछ हुआ है क्या? मैं ने कुछ रुंधी आवाज में पूछा.’’

‘‘नहीं, कुछ नहीं हुआ,’’ रंजीत हंसते हुए बोला, ‘‘इतने दिनों से बस फोन पर ही बातें कर रहे हैं. एक बार मिलना भी तो चाहिए… अब आमनेसामने ही बातें करेंगे.’’

रंजीत ने खुद ही जगह और टाइम तय कर दिया, ‘‘और हां तुम तो मुझे पहचान ही लोगी, एक पैर वाला वहां मेरे सिवा कोई दूसरा नहीं होगा.’’

‘‘पता तुम गुलाबी साड़ी पहन कर आना, पहचानने में आसानी होगी.’’

‘‘गुलाबी साड़ी?’’ मैं ने जोर दे कर कहा.

‘‘गुलाबी नहीं तो किसी और रंग की पहन लेना,’’ रंजीत ने कहा, ‘‘लता कल 4 बजे मैं तुम्हारा इंतजार करूंगा और हां, अब मैं फोन नहीं करूंगा. आमनेसामने ही बातें करेंगे.’’

मैं कुछ बोल पाती उस से पहले ही उस ने फोन काट दिया. यह रंजीत को क्या हो गया है? मिलने के लिए इतनी जिद क्यों कर रहा है? मेरी बात तो उस ने सुनी ही नहीं, अपना ही राग अलापता रहा.

‘‘गुलाबी साड़ी,’’ मुझे मेरे अतीत में खींच ले गई…

मां ने बताया, मुझे देखने लड़के वाले आ रहे हैं. लड़के का नाम मनोज था, जो इंजीनियर था. मां ने गुलाबी साड़ी देते हुए कहा, ‘‘यह साड़ी पहन लेना रूप निखर कर आएगा.’’

अब मां को कौन समझाए, रूपरंग जैसा है वैसा ही रहेगा. मां उबटन लगाने के लिए भी दे गईं. मां चाह रही थीं किसी भी तरह मैं पसंद आ जाऊं और मेरे हाथ पीले हो जाएं.

शाम को मनोज और उस के मातापिता मुझे देखने के लिए आए. वही दिखावा, चाय की ट्रे ले कर मैं लड़के वालों के सामने उपस्थित हुई. मेरे साथ मेरी छोटी बहन उमा भी थी. उन्होंने 1-2 प्रश्न भी मुझ से पूछे.

मनोज अपने पिता के कान में कुछ फुसफुसाया. देखने मुझे आया था पर नजर उमा पर गड़ाए था. उस की मंशा मैं कुछकुछ समझ

गई थी.

मनोज के पिता मां से बोले, ‘‘हमारे लड़के को आप की छोटी बेटी पसंद है. आप चाहें तो हम अभी शकुन कर देते हैं.’’

मां उठ खड़ी हुई और फिर साफ इनकार करते हुए बोलीं, ‘‘पहले हम बड़ी बेटी का रिश्ता तय करेंगे उस के बाद छोटी बेटी का,’’ और हाथ जोड़ते हुए चले जाने को कहा.

मां अपनी जिद पर अड़ी रहीं. मैं ने उन्हें बहुत समझाया कि जिस की शादी पहले हो रही है होने दो. बड़ी मुश्किल से मां को समझाबुझा कर उमा की शादी मनोज से करवा दी.

मुझे तो जैसे शादी के नाम से ही नफरत सी हो गई थी. मैं ने शादी न करने का फैसला कर लिया. मैं बारबार अपनी नुमाइश नहीं लगाना चाहती थी. मां ने मुझे बहुत समझाया पर मैं अपनी जिद पर अड़ी रही. पढ़ाई पूरी कर के मैं ने एक स्कूल में नौकरी कर ली. मां मेरी शादी की हसरत लिए हुए इस दुनिया से चली गईं.

मैं जिस अतीत से पीछा छुड़ाना चाहती थी, आज वह फिर एक बार मेरे सामने पंख फैला खड़ा हो गया था.

मोबाइल बजते ही मैं अतीत से बाहर आ गई. फोन मेरी छोटी बहन उमा

का था, ‘‘दीदी कैसी हो? आप से बात किए बहुत दिन हो गए… अब तो आप के स्कूल में छुट्टियां चल रही होंगी. कुछ दिनों के लिए यहां आ जाओ… आप का मन भी बदल जाएगा… दीदी आप बोल क्यों नहीं रहीं?’’

‘‘तुम बोलने दोगी तब तो बोलूंगी,’’ मैं ने हंसते हुए कहा.

उमा अपने को मेरा दोषी मानती थी, इसलिए अकसर खुद ही फोन कर लेती थी. मां के जाने के बाद उस के फोन भी आने कम हो गए थे.

घड़ी में 3 बजने का संकेत दिया. मैं बेमन से उठी… रंजीत से मिलने के लिए तैयारी करने लगी.

औटो कर के रंजीत की तय करी जगह पहुंच गई. रंजीत को मेरी आंखें ढूंढ़ने लगीं. उसे ढूंढ़ने में ज्यादा देर नहीं लगी. सामने ही एक कुरसी पर रंजीत बैठा था. पास ही बैसाखी रखी हुई थी. हाथ में गुलाब का ताजा फूल था.

मैं एक पेड़ की ओट में खड़ी हो कर रंजीत को देखने लगी. इस उम्र में भी वह बहुत ही आकर्षक लग रहा था. गोरा रंग, बड़ीबड़ी आंखें, चौड़ा सीना, लंबा कद, काले सफेद खिचड़ी वाले बाल, जो उस की मासूमियत और बढ़ा रहे थे.

रंजीत को देख कर मेरे अंदर दबी हीनभावना फिर से जाग्रत हो गई. मन में अजीबअजीब से खयाल आने लगे. रंजीत मुझे देख कर क्या सोचेगा? इस औरत से मिलने के लिए बेचैन था, जिस का न रूप न रंग. मैं ने रंजीत की तरफ से खुद ही सोच लिया.

नहींनहीं, मैं रंजीत के सामने नहीं जा सकती… दूसरी बार नापसंदी का बोझ नहीं झेल पाऊंगी और फिर रंजीत से मिले बिना मैं घर लौट आई. मुझे मालूम था रंजीत बहुत गुस्सा होगा.

घर पहुंची ही थी कि मोबाइल बज उठा. पर्स में से कांपते हाथ से मोबाइल निकाला. दिल जोरजोर से धड़क रहा था. मेरे हैलो बोलने से पहले ही रंजीत गुस्से बोला, ‘‘तुम आई क्यों नहीं?’’

झूठ बोलते हुए मैं ने दबी आवाज में कहा, ‘‘पड़ोस में एक सहेली का ऐक्सिडैंट हो गया था. वहीं थी मैं.’’

‘‘बताना तो था मुझे या वो भी जरूरी नहीं समझा,’’ गुस्से से झल्लाते हुए रंजीत ने फोन काट दिया.

मैं समझ गई रंजीत बहुत ही नाराज है मुझ से. शायद आज मैं ने अपना सब से अच्छा दोस्त खो दिया. भरी आंखों से आंसू गालों तक लुढ़क गए.

सुबह उठ कर सब से पहले व्हाट्सऐप देखा. रंजीत का गुडमौर्निंग नहीं आया था. रोज बदलने वाली प्रोफाइल पिक्चर भी नहीं बदली थी. पूरे दिन में रंजीत ने 1 बार भी व्हाट्सऐप चैक नहीं किया. पूरा दिन निकल गया रंजीत के फोन का इंतजार करते हुए. अब तो रात भी आधी बीत चुकी थी.

मैं ने सोच लिया था सुबह उठ कर सब से पहले रंजीत को फोन कर के माफी मांगूंगी… उसे मना लूंगी. वह फोन नहीं कर रहा तो क्या हुआ? मैं तो उसे कर सकती हूं.

रात जैसेतैसे कटी. सुबह उठते ही व्हाट्सऐप खोल कर देखा. जल्दी में अपना चश्मा

लगाना भी भूल गई, धुंधला सा दिखाई दिया. लगता है रंजीत ने अपनी प्रोफाइल पिक्चर भी बदली है और एक मैसेज भी भेजा है. मेरी आंखें चमक उठी. जान में जान आ गई.

मैं ने जल्दी से अपना चश्मा साइड में रखे स्टूल से उठा कर लगाया और फोटो देखने लगी. यह क्या? रंजीत के फोटो पर फूलों का हार? दिल धक्क से रह गया. जल्दी से मैसेज पढ़ना शुरू किया… आज शाम 4 बजे उठावनी की रम्म है… रंजीत को हार्टअटैक…

इस से ज्यादा पढ़ने की हिम्मत नहीं हुई. आंखें पथरा सी गईं. कलेजा मुंह को आने लगा, दिल जोरजोर से धड़कने लगा… जोर की हिचकी के साथ चीख निकल गई.

‘‘रंजीत मुझे छोड़ कर ऐसे नहीं जा सकते हो… प्लीज एक बार लौट आओ… मैं गुलाबी साड़ी पहन कर ही आऊंगी… हम आमनेसामने बातें करेंगे. मैं तुम से मिलने आऊंगी,’’ विलाप करती रही, फूटफूट कर रोती रही, न कोई देखने वाला न कोई सुनने वाला.

हाय री विडंबना… मेरा अतीत फिर सामने पंख फैलाए दस्तक दे रहा था.

फिर वही बेरंग जिंदगी, उजड़ा चमन, सूनापन, बेजान सा मोबाइल, धूल खाता रेडियो, सबकुछ पहले जैसा… इस सब की जिम्मेदार सिर्फ मैं ही तो थी…

Short Story : महिला सशक्तीकरण के 3 तल्ले

Short Story : पूरे देश में महिलाओं का सशक्तीकरण आंदोलन जोरशोर से चल रहा था. कहीं छोटीछोटी गोष्ठियों तो कहीं बड़ीबड़ी सभाओं के द्वारा महिलाओं को सशक्तीकरण के लिए जाग्रत किया जा रहा था. एक दिन हम भी महिला सशक्तीकरण आंदोलन की अध्यक्षा नीलम का भाषण सुनने उन की सभा में पहुंच गए. यह तो अनादिकाल से ही चला आ रहा है कि जहां महिलाएं हों, उन के पीछेपीछे पुरुष पहुंच ही जाते हैं. लेकिन हम इस परंपरा के तहत महिलाओं की सभा में नहीं पहुंचे थे. हमें तो अपने लेख के लिए कुछ सामग्री चाहिए थी, जो जीवंत सत्य और यथार्थपरक हो.

नीलम मंच से कह रही थीं, ‘‘बहनो, इस पुरुष जाति ने युगोंयुगों से हम पर अत्याचार किए हैं. कभी अहिल्या को शाप दे कर शिला बना दिया, तो कभी सीता को घर से निकाल दिया. हद तो तब हो गई बहनो, जब भरी सभा में कौरवों ने द्रौपदी का चीरहरण कर लिया. बहनो, इस पुरुषप्रधान समाज में आज भी यही हो रहा है. हम इसे बरदाश्त करने वाली नहीं. क्या बहनो, हमें यह सब बरदाश्त करना चाहिए?’’ ‘‘नहींनहीं बिलकुल नहीं,’’ भीड़ से जोरदार आवाज आई. फिर जोरदार तालियां बजीं. कुछ महिलाओं ने खड़े हो कर ‘नीलम जिंदाबाद’, के नारे भी लगाए.

‘‘बहनो, दुख तो इस बात का है कि इन मर्दों ने आज भी महिलाओं को दोयम दर्जे का बना रखा है. कोई 4 बीवियां रखने का अधिकार रखता है, तो कोई चुटकी बजाते ही तलाक दे देता है. बहनो, तुम्हीं बताओ हमें 4 पति रखने का अधिकार क्यों नहीं? महंगाई के इस जमाने में एक पति की आमदनी से ढंग से घर का खर्च चलता है क्या? 4 पति होंगे तो हमें 4 गुना खर्च करने को मिलेगा कि नहीं? हमें सरकार के सामने यह मांग रखनी चाहिए कि औरत को भी एक से अधिक पति रखने का कानूनी अधिकार मिलना चाहिए.’’

नीलम की यह बात सुन कर हमें लगा कि ये बहक गई हैं. अब इन का विरोध होगा. लेकिन हमारी सोच के विपरीत भीड़ से उन को जबरदस्त समर्थन प्राप्त हुआ. एक दबंग महिला ने उठ कर कह ही दिया, ‘‘बिलकुल ऐसा होना चाहिए. जिन के पति कम कमाते हैं उन्हें तो तुरंत एक पति और कर लेना चाहिए.’’

उस दबंग महिला की बात सुन कर वहां खड़े अनेक मर्द वहां से इसलिए खिसक लिए कि कहीं उन की पत्नी दूसरे पति की तलाश में तो नहीं निकल पड़ी. नीलम के क्रांतिकारी विचारों को सुन कर अपना दिल उन का साक्षात्कार लेने को मचल उठा. हम शाम को ही उन के घर पहुंच गए. उन्होंने अपने पति का परिचय कराते हुए कहा, ‘‘इन से मिलिए, ये मेरे दूसरे पति हैं. ये पहले मेरे स्टैनो हुआ करते थे. पहले पति को तलाक देने के बाद मैं ने इन से प्रेम विवाह कर लिया. मेरा बड़ा बेटा बस इन से 4 साल छोटा है.’’

महिला सशक्तीकरण की बात आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा, ‘‘देखिए भाई साहब, समाज में महिलाओं के साथ कितना अन्याय हो रहा है. बालिका भू्रण हत्या, अबोध बालिकाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं, शिक्षा में भेदभाव, नौकरियों में भेदभाव, धर्म के नाम पर बुरके से ढांकना, यह सब अन्याय और अत्याचार नहीं तो और क्या है? यह सब बंद होना चाहिए.’’

हम नीलम के विचारों से बड़े प्रसन्न हुए. फिर हम ने पत्रकार के अंदाज में पूछा, ‘‘लेकिन नीलमजी, यह सब कैसे होगा?’’

‘‘यह सब होगा. महिलाओं को जागरूक कर के होगा. उन्हें शिक्षा प्रदान कर के होगा. हर बालिका को स्कूल भेज कर होगा.’’

उसी समय एक 12-13 साल की लड़की वहां कपप्लेट उठाने के लिए आई. जब हम ने नीलमजी से उस के बारे में पूछा तो वे बोलीं, ‘‘नौकरानी की बेटी है. जिस दिन वह बीमार पड़ती है, तो अपनी बेटी को काम पर भेज देती है. अब इन नौकरों की क्या कहें, बड़े नालायक होते जा रहे हैं. कुछ काम तो करना नहीं चाहते, पढ़नालिखना तो बहुत दूर की बात है. इन जाहिलों को कोई नहीं सुधार सकता.’’ नीलमजी का असली चेहरा हमारे सामने आ गया था. अब हम ने वहां से उठना ही बेहतर समझा. लेकिन हम ने यह सोच लिया था कि महिलाओं के सशक्तीकरण आंदोलन की तह में पहुंच कर ही रहना है. आखिर देशविदेश में इतने आंदोलन होने के बावजूद महिलाएं सशक्त क्यों नहीं बन सकीं? हमारे कविगणों को यह कहने के लिए मजबूर क्यों होना पड़ा कि अबला तेरी यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी?

शहरों से अधिक हमारी आबादी गांवों में बसती है, इसलिए हम चल पड़े गांव की ओर. भरी दोपहरी में एक आम के पेड़ की छांव मेंएक चौधराइन चौधरी को दोपहर का खाना खिला रही थीं. चौधरी हाथ पर रोटी रखे बड़े मजे से आम की चटनी के साथ खा रहे थे. हमें देख कर कुछ सकपका गए, ‘अतिथि देवो भव:’ का खयाल कर के उन्होंने हमें छांव में बैठने की जगह दी.

फिर पूछा, ‘‘तो क्या सेवा करूं थारी?’’

‘‘चौधरी साहब, महिला सशक्तीकरण पर मैं चौधराइनजी से कुछ प्रश्न पूछना चाहता हूं.’’

चौधरी ने चौधराइन से कहा, ‘‘चौधराइन, ये शहरी बाबू शक्तिवक्ति पर कुछ पुच्छड़ चाहें, बता दिए कुछ इन्हें.’’

‘‘बताओ तो क्या बताऊं?’’ चौधराइन हम से बोलीं, तो हम ने 10-15 मिनट चौधराइन को विषय समझाया.

तब चौधराइन बोलीं, ‘‘देखो शहरी बाबू, बड़ीबड़ी बातें तो हमारी समझ में न आवें. हम तो इतना जाणे कि हमारा मरद चाहे हमें कितना भी मारेछेत्ते, है तो वह अपना ही. घर में 4 बरतन हों तो खड़केंगे ही. शहरवालियों को मैं कुछ न कैती, वे तो फैशन करे घूमे सै. कोईकोई तो कईकई खसम रखे सै. हम तो अपने मरद के खूंटे से बंधीं सै. अरे हां, हमारे मरद के खिलाफ कुछ न कहयो, नहीं तो हम से बुरी कोई न होवे.’’

‘‘अरी तू बावली होरी सी? वे तेरे सै बात करणे की खातिर आए और तू झगड़ा कर रई. ले उठा अपने बरतनभांडे और जा घर कू. और शहरी बाबू तुम बुरा मत मानियो इस की बातों का. हम गांव वाले क्या जानें इन सब बलाओं को, जो सरकार कर दे वही ठीक है.’’

चौधराइन हमें खरीखरी सुना कर चली गई थीं. ऐसा लगता था कि वे गांव में बसने वाली 70% महिलाओं का प्रतिनिधित्व कर रही थीं. चौधराइनजी की बातें सुन कर हमें नीलमजी की बातें फीकी लगने लगी थीं. अब हम ने कालेज गोइंग छात्रा के विचार लेना भी जरूरी समझा. आखिर वे हमारे देश की भावी पीढ़ी का नेतृत्व करने वाली में से हैं, जो एक बहुत बड़ा तबका है. इन्हीं के हाथों में भावी महिला समाज है. अकस्मात हमारी मुलाकात एक विश्वविद्यालय की छात्रा से हो गई. महिला सशक्तीकरण शब्द का प्रयोग करने पर उस ने हमें अनपढ़ समझा. महिला सशक्तीकरण का सही उच्चारण न कर पाने के कारण उस ने अंगरेजी की बैसाखी का सहारा लिया और कहा, ‘‘सर, यू नो, वूमन इंपावरमैंट तो तभी होगा न जब हम को बिलकुल फ्री कर दिया जाएगा. यू नो, वी आर ऐवरीवेयर इन बाउंडेशन. उस की चेन को तोड़ना होगा. लड़की किस से मैरिज करना चाहती है, यह मौम और डैड का मैटर नहीं होना चाहिए. यू नो, लाइफ पार्टनर के साथ तो हमें रहना है, मौम और डैड को तो नहीं.’’

मुझे छात्रा की बातों में दम नजर आ रहा था. वह आगे बोली, ‘‘सैकंड थिंग इज दिस, हर वूमन को अपने पैरों पर जरूर स्टैंड करना चाहिए. यदि हसबैंड धोखा देना चाहे तो उस के धोखा देने से पहले हमें उसे किक आउट कर देना चाहिए. यह तभी होगा जब हम सैल्फ डिपैंड होंगी. जहां तक संबंधों की बात है यह हमारा निजी मामला है यानी पर्सनल मैटर. हम किस से संबंध बनाएं यह हमारी मरजी. मैं खुद लिव इन रिलेशनशिप में रह रही हूं. किसी को इस बात से क्या परेशानी जब मेरी मौम और डैड को कोई प्रौब्लम नहीं? मेरी मौम और डैड को मेरे बारे में सब पता है. हम एकदूसरे से कुछ भी छिपा कर नहीं रखते. सब बातों पर खुल कर चर्चा करते हैं. यही तो है वूमन इंपावरमैंट.’’

हम उस छात्रा के खुलेपन और जिंदादिली के कायल हो गए. उस से मुलाकात कर हम महिला सशक्तीकरण आंदोलन के तीसरे तल्ले तक पहुंच चुके थे, जिस का वर्णन हम ने आप के सामने कर दिया. मेरी दृष्टि में तीनों तल्लों की महिलाओं ने अपने स्तर से सशक्त प्रदर्शन किया. आप को किस के विचार अच्छे लगे? इस प्रश्न को आप पर छोड़ता हूं एक सार्थक बहस के लिए. प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा.

Family Drama : सिर्फ कहना नहीं है

Family Drama :  अलकाऔर संदीप को कोरोना से ठीक हुए 2 महीने हो चुके थे पर अजीब सी कमजोरी थी जो जाने का नाम ही नहीं ले रही थी. कहां तो रातदिन भागभाग कर पहली मंजिल से नीचे किचन की तरफ जाने के चक्कर कोई गिन ही नहीं सकता था पर अब तो अगर उतर जाती तो वापस ऊपर बैडरूम तक आने में नानी याद आ जाती.

संदीप ने तो ऊपर ही बैडरूम में अपना थोड़ाथोड़ा वर्क फ्रौम होम शुरू कर दिया था. थक जाते तो फिर आराम करने लगते. पर अलका क्या करे. हालत संभलते ही अपना चूल्हाचौका याद आने लगा था. अलका और संदीप एक हौस्पिटल में 15 दिन एडमिट रहे थे. बेटे सुजय का विवाह रश्मि से सालभर पहले ही हुआ था. दोनों अच्छी  कंपनी में थे. अब तो काफी दिनों से वर्क फ्रौम होम कर रहे थे. सुंदर सा खूब खुलाखुला सा घर था, नीचे किचन और लिविंगरूम था, 2 कमरे थे जिन में से एक सुजय और रश्मि का बैडरूम था और दूसरा रूम अकसर आनेजाने वालों के काम आ जाता. सुजय से बड़ी सीमा जब भी परिवार के साथ आती, उसी रूम में आराम से रह लेती. सीमा दिल्ली में अपनी ससुराल में जौइंट फैमिली में रहती थी और खुश थी. अब तक किचन की जिम्मेदारी पूरी तरह से अलका ने ही संभाल रखी थी. वह अभी तक स्वस्थ रहती तो उसे कोई परेशानी भी नहीं थी. मेड के साथ मिल कर सब ठीक से चल जाता.

आज बहुत दिन बाद अलका किचन में आई तो आहट सुन कर जल्दी से रश्मि भागती सी आई, ‘‘अरे मम्मी, आप क्यों नीचे उतर आई, कल भी आप को चक्कर आ गया था… पसीना पसीने हो गई थीं. मु?ो बताइए, क्या चाहिए आप को?’’

‘‘नहीं, कुछ चाहिए नहीं, बहुत आराम कर लिया, थोड़ा काम शुरू करती हूं,’’ कहतेकहते अलका की नजर चारों तरफ दौड़ी, उसे ऐसा लगा जैसे यह उस की किचन नहीं वह किसी और की किचन में खड़ी है.

अलका के चेहरे के भाव सम?ा गई रश्मि, बोली, ‘‘मम्मी, आप सब तो बहुत लंबे हो. मैं तो आप सब से लंबाई में बहुत छोटी हूं, मेरे हाथ ऊपर रखे डब्बों तक पहुंच ही नहीं पाते थे… और भी जो सैटिंग थी वह मु?ो सूट नहीं कर रही थी.  अत: मैं ने अपने हिसाब से किचन नए तरीके से सैट कर ली. गलत तो नहीं किया न?’’

क्या कहती अलका… शौक सा लगा उसे किचन का बदलाव देख कर… उस की सालों की व्यवस्था जैसे किसी ने अस्तव्यस्त कर दी… जहां जीवन का लंबा समय बीत गया, वह जगह जैसे एक पल में पराई सी लगी. मुंह से बोल ही न फूटा.

रश्मि ने दोबारा पूछा, ‘‘मम्मी, क्या

सोचने लगीं?’’

अकबका गई अलका. बस किसी तरह इतना ही कह पाई, ‘‘कुछ नहीं, तुम ने तो बहुत काम कर लिया सैटिंग का… तुम्हारे सिर तो खूब काम आया न.’’

‘‘आप दोनों ठीक हो गए… बस, काम का क्या है, हो ही जाता है.’’

अलका थोड़ी देर जा कर सोफे पर बैठी रही. रश्मि उस के पास ही अपना लैपटौप उठा लाई थी. थोड़ी बातें भी बीचबीच में करती जा रही थी.

अनमनी हो आई थी अलका, ‘‘जा कर थोड़ा लेटती हूं,’’ कह कर चुपचाप धीरेधीरे चलती हुई अपने बैडरूम में आ कर लेट गई.

उस का उतरा चेहरा देख संदीप चौंके,

‘‘क्या हुआ?’’

अलका ने गरदन हिला कर बस ‘कुछ नहीं’ का इशारा कर दिया पर अलका के चेहरे के भाव देख संदीप उस के पास आ कर बैठ गए, ‘‘थकान हो रही है न ऊपरनीचे आनेजाने में? अभी यह कमजोरी रहेगी कुछ दिन… अभी किसी काम के चक्कर में मत पड़ो. पहले पूरी तरह  से ठीक हो जाओ, काम तो सारी उम्र होते ही रहेंगे.’’

अलका ने कुछ नहीं कहा बस आंखें बंद कर चुपचाप लेट गई. लड़ाई?ागड़ा, चिल्लाना, गुस्सा करना उस के स्वभाव में न था. उस ने खुद संयुक्त परिवार में बहू बन कर सारे दायित्व खुशीखुशी संभाले थे और सब से निभाया था. पर एक ही ?ाटके में किचन का पूरी तरह बदल जाना उसे हिला गया था.

कोरोना के शिकार होने के दिन तक जिस किचन का सामान वह अंधेरे में भी ढूंढ़ सकती थी, वहां तो आज कुछ भी पहचाना हुआ नहीं था, कैसे चलेगा? उस समय तो संदीप और उस की तबीयत बहुत गंभीर थी, दोनों को लग रहा था कि बचना मुश्किल है, सुजय और रश्मि ने रातदिन एक कर दिए थे. जब से हौस्पिटल से घर आए हैं, दोनों रातदिन सेवा कर रहे हैं. संदीप को तो कपड़े पहनने में भी कमजोरी लग रही थी. सुजय ही हैल्प करता है उन की. शरीर का दर्द दोनों को कितना तोड़ गया है, वही जानते हैं.

हौस्पिटल में बैड पर लेटेलेटे भी अलका को घरगृहस्थी की चिंता सता रही थी कि क्या होगा, कैसे होगा, रश्मि को तो कुछ आता भी नहीं… यह सच था कि रश्मि को कुकिंग ठीक से नहीं आती थी पर इन दिनों गूगल पर, यू ट्यूब पर देखदेख कर उस ने सब कुछ बनाया था, उन की बीमारी में उन की डाइट का बहुत ज्यादा ध्यान रखा था. अलका की पसंद का खाना सीमा को फोन करकर के पूछपूछ कर बनाया था. सीमा उस समय आ नहीं पाई थी. वह परेशान होती तो रश्मि ही उसे तसल्ली देती, वीडियो कौल करवा देती.

अचानक विचारों ने एक करवट सी ली. आज किचन में जो बदलाव देख कर मन में टूटा सा था, अब जुड़ता सा लगा जब ध्यान आया कि जब रश्मि बहू बन कर आई तो उसे अलका ने और बाकी सब लोगों ने यही तो कहा था कि यह तुम्हारा घर है, इसे अपना घर सम?ा कर आराम से बिना संकोच के रहो तो वह तो अपना घर सम?ा कर ही तो पूरे मन से हर चीज कर रही है.

ये जो किचन में उस ने सारे बदलाव कर दिए, अपना घर ही तो सम?ा होगा न… किसी दूसरे की किचन में कोई इस तरह से अधिकार नहीं जमा सकता न… बहू को सिर्फ यह कहने से थोड़े ही काम चलता है कि यह तुम्हारा घर है, जो चाहे करो, उसे करने देने से रोकना नहीं है… यह उस का भी तो घर है… अलका सोच रही थी कि उसे कुछ परेशानी होगी, वह प्यार से अपनी परेशानी बता देगी, नहीं तो सब ऐसे ही चलने देगी जैसे रश्मि घर चला रही है. सिर्फ कहना नहीं है, उसे पूरा हक देना है अपनी मरजी से जीने का, घर को अपनी सहूलियतों के साथ चलाने का.

अचानक अलका के मन में न जाने कैसी ताकत सी महसूस हुई.

वह फिर नीचे जाने के लिए खड़ी हो गई कि जा कर अब आराम से देखती हूं कि कहां क्या सामान रख दिया है बहू रानी ने… नए हाथों में नई सी व्यवस्था देखने के लिए अब की बार वह मुसकराते हुए सीढि़यां उतर रही थी.

Moral Stories in Hindi : संधि प्रस्ताव – क्या विश्वानंद बच पाया

Moral Stories in Hindi : अर्पिता अपने पति मलय का सामान सहेज रही थी. उसे उस के कागजों के बीच एक फोटो मिली जिस में एक दंपती और 2 लड़के थे. अर्पिता ने ध्यान से देखा तो छोटे बच्चे का चेहरा मलय जैसा लग रहा था. उस ने औफिस से लौटने पर मलय से उस फोटो के बारे में पूछा तो उस ने बताया कि फोटो में उस के माता, पिता, बड़े भाई और वह स्वयं है. अर्पिता ने कहा, ‘‘अरे, तुम्हारा भाई भी है, पर तुम तो अपने चाचा के साथ रहते थे न, तो इन सब का क्या हुआ?’’

पहले तो वह टालमटोल करता रहा पर जब अर्पिता रूठ कर बैठ गई तो नईनवेली पत्नी से वह उस रहस्य को ज्यादा देर छिपा न सका.

उस ने बताया, ‘‘यथार्थ घर का बड़ा बेटा था. वह परिवार में सब की आशाओं का केंद्र था. परिवार के गर्व का कारण था. होता भी क्यों न, मम्मा हों या पापा या छोटा भाई, उसे सब की चिंता रहती थी. वह मुसकरा देता, बस. कम बोलना उस की प्रकृति थी. पता ही नहीं चलता कि उस के मन में क्या चल रहा है, वह क्या सोच रहा है. पर उसे सब पता रहता था कि क्या समस्या है, किस को उस की आवश्यकता है. मम्मा के तो हृदय का टुकड़ा था वह. आज के युग में बच्चे जरा सा अपने पैरों पर खड़े हो ते ही अपना संसार रच लेते हैं और उस में विस्मृत हो जाते हैं, लेकिन यथार्थ के लिए दूसरों का दुख सदा निज आकांक्षाओं पर भारी था.

‘‘जब वह 4 वर्ष की इंजीनियरिंग की डिगरी ले कर घर लौट रहा था तो मेरी मां सुनीता की प्रसन्नता का ठिकाना न था. उन का बेटा घर आ रहा था, सोने पर सुहागा यह कि वह इंजीनियर बन कर आ रहा था. सुनीता ने मेरे पिता तपन से कहा, ‘सुनिए, यथार्थ को नौकरी मिलते ही हम उस की शादी की बात करेंगे.’

‘‘तपन ने हंसते हुए कहा, ‘खयालीपुलाव पकाने में तुम्हारा जवाब नहीं. अभी तो यथार्थ को सिर्फ इंजीनियरिंग की डिगरी मिली है. पहले उसे नौकरी तो मिलने दो.’

‘‘अभी तो वे न जाने किनकिन सतरंगी सपनों की गलियों में भटकतीं कि तपन ने आ कर कहा, ‘सुनीता, ट्रेन का समय तो निकल गया, यथार्थ आया नहीं?’

‘‘तपन ने कहा, ‘मैं पहले ही पूछ चुका हूं, अब तो गाड़ी को आए भी एक घंटा हो गया है.’ फिर चिंतातुर हो कर वे बोले, ‘यथार्थ का मोबाइल स्विचऔफ आ रहा है.’

‘‘सुनीता ने घबरा कर कहा, ‘पर कल तो उस ने कहा था कि रात को चल कर सुबह पहुंच जाऊंगा. भोपाल फोन करिए. मालूम पड़े कि वह चला भी कि नहीं. कहीं बीमार तो नहीं पड़ गया, मेरा बच्चा.’

‘‘तपन ने कहा, ‘मैं सब मालूम कर चुका हूं, वह कल रात में वहां से चल दिया था.’

‘‘फिर सुनीता का श्वेत पड़ता चेहरा देख कर कुछ सुनीता और कुछ स्वयं को समझाते हुए वे बोले, ‘अरे, जानती तो हो उसे अपना ध्यान कहां रहता है, मोबाइल चार्ज नहीं किया होगा और दिल्ली का ट्रैफिक तो ऐसे ही है, फंस गया होगा कहीं जाम में.’

‘‘दोनों मन ही मन मना रहे थे कि यही सच हो. पर घड़ी की निरंतर आगे बढ़ती निष्ठुर सुइयां उन की सोच को झुठलाने को ठाने बैठी थीं. समय के साथसाथ उन की आशा को अनहोनी की आकांक्षा के काले बादल ढंकते चले जा रहे थे. पलपल कर के घंटे और दिन बीत गए. हर जगह पता किया, यथार्थ के जानने वालों को फोन किया पर कहीं से कोई सुराग नहीं मिल रहा था. किसी अनहोनी का भय सुरसा सा मुंह फैलाता जा रहा था.

‘‘यथार्थ के घर न आने का समाचार जानने वालों में आग के समान फैल गया और लोग आग में हाथ सेंकने से बाज न आए. जितने मुंह उतनी बातें. कोई कहता, किसी लड़की के चक्कर में पड़ गया होगा. आजकल तो यह आम बात है. उसी में किसी प्रतिद्वंद्वी ने ठिकाने लगा दिया होगा. कोई कहता लूटपाट का चक्कर होगा.

‘‘2 दिन बीत जाने के बाद सभी ने यही राय दी कि पुलिस की सहायता ली जाए. तपन ने वह भी किया पर कोई पता न चला. बीतते दिनों के साथ उन की आशा की किरण धूमिल पड़ने लगी थी.

‘‘एक दिन तपन को कूरियर से एक पत्र मिला. उस में लिखा था, ‘आप का बेटा जीवित है.’ उन के हृदय में आशा की बुझती लौ को मानो तेल मिल गया. उन्होंने हाथ जोड़ कर प्रकृति को धन्यवाद दिया और सुनीता को यह समाचार दिया. उन्होंने भी तुरंत ही प्रकृति को धन्यवाद दिया. लेकिन शायद धन्यवाद देने में दोनों ने कुछ जल्दबाजी दिखा दी थी. आगे के समाचार ने उन्हें यथार्थ के जीवित होने की पुष्टि तो की पर आगे जो लिखा था वह कोई कम बड़ा आघात न था. उस में लिखा था कि उन का बेटा योगी आश्रम में है और उस ने आश्रम में दीक्षा ले ली है.

‘‘सुनीता बोलीं, ‘यह किसी ने झूठ लिखा है. अरे, मेरे यथार्थ ने मुझ से फोन पर बात कर के आने को कहा था और अचानक उस ने आश्रम में दीक्षा ले ली? यह नहीं हो सकता. उस का दीक्षा लेने का मन होता तो कभी तो हम से जिक्र करता. वह तो हम से अपने मन की हर बात कहता है.’

‘‘‘अब तो सच वहां जा कर ही मालूम होग, सुनीता,’ तपन ने चिंतातुर वाणी में कहा.

‘‘आश्रम के द्वार पर ही सुनीता, तपन और उन के साथ आए यथार्थ के मामा राजन और तपन के अभिन्न मित्र विकास को रोक दिया गया. तपन ने वह पत्र दिखाया जिस में लिखा था कि उन के हृदय के टुकड़े ने आश्रम में दीक्षा ले ली है.

‘‘वहां स्वामीजी के कुछ शिष्य थे. उन्होंने उन के आने का उद्देश्य पूछा. सुनीता ने कहा, ‘हम अपने बेटे को लेने आए हैं.’

‘‘इस पर वहां का मुख्य कार्यकर्ता अखिलानंद बोला, ‘पर उन्होंने दीक्षा ले ली है. अब वे आप के बेटे नहीं हैं, बल्कि यहां के दीक्षित प्रशिक्षु हैं. कुछ समय बाद वे संत की उपाधि पा जाएंगे.’

‘‘यह सुन कर सुनीता व्यग्र हो गईं. उन्होंने कहा, ‘ऐसे कैसे आप मेरे बेटे को मुझ से छीन सकते हैं? आप कौन होते हैं यह कहने वाले कि वह मेरा बेटा नहीं है?’

‘‘तपन ने कहा, ‘वह एक पढ़ालिखा इंजीनियर है. अभी तो उसे अपना कैरियर बनाना है. अभी कोई आयु है दीक्षा लेने की?’

‘‘इस पर विकास ने कहा, ‘अरे तपन, इन लोगों से बहस करने से क्या लाभ, पहले यथार्थ से मिलो, दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा.’

‘‘‘आप उन से नहीं मिल सकते,’ अखिलानंद ने कहा.

‘‘‘अरे, मेरा बेटा है और हम ही नहीं मिल सकते, आप कौन होते हैं हमें रोकने वाले?’

‘‘तभी अखिलानंद के एक साथी ने आ कर उस के कान में कुछ कहा. फिर अखिलानंद ने तपन से कहा, ‘आप लोग खुश हो जाएं स्वामीजी ने आज्ञा दी है कि आप लोगों को विश्वानंदजी से मिलवा दिया जाए.’

‘‘‘ये विश्वानंद कौन हैं, हम उन से मिलना नहीं चाहते. हमें, बस, अपने बेटे से मिलना है.’

‘‘‘जी, आप के जो बेटे थे उन का ही सांसारिक नाम त्याग कर नया नाम विश्वानंद रखा गया है.’

‘‘सुनीता को यह स्वीकार नहीं था. उन्होंने कहा, ‘आप के कहने से उस का नाम बदल जाएगा क्या? उस का नाम कानूनीरूप से यथार्थ है और वही रहेगा.’

‘‘तपन ने बात को विराम देते हुए कहा, ‘चलिए, पहले आप हमें उस से मिलवाइए.’

‘‘आखिलानंद और उस का वह साथी उन्हें आश्रम के पिछवाड़े एक गर्भकक्ष में ले गए जहां अंधकार पांव पसारे था. बस, एक रोशनदान से प्रकाश की रश्मियां घुसपैठ करने को प्रयासरत थीं वरना दिन या रात का निर्णय कठिन हो जाता.

‘‘अखिलानंद ने आवाज दी, ‘विश्वानंद, देखो कुछ लोग तुम से मिलना चाहते हैं.’

‘‘बैठे हुए व्यक्ति को देख कर आगंतुक कुछ क्षण तो हतप्रभ रह गए. कहां जींस पहने, बालों में जेल लगाए सुंदरस्मार्ट यथार्थ और कहां बाल मुंडाए गेरुए वस्त्र पहने यह युवक. पर मां की दृष्टि तो सात परदों में भी अपने बेटे को पहचान लेती है. उस ने यथार्थ को देख कर कहा, ‘बेटा, इन लोगों ने तुम्हारा यह क्या हाल किया है?’

‘‘‘आप कौन?’ यथार्थ ने सुनीता को देख कर कहा.

‘‘सुनीता को लगा मानो किसी ने उस के गाल पर तमाचा जड़ दिया हो. उस ने कहा, ‘मैं तेरी मम्मा, बेटू.’

‘‘‘मेरी कोई मां नहीं,’ यथार्थ ने कहा. उस की आंखें लाल हो रही थीं. वह आंखें नीची कर के बात कर रहा था.

‘‘तपन ने कहा, ‘बेटा, तुझे क्या हो गया है. मैं तेरा पापा, ये मम्मा, जरा होश में तो आ.’

‘‘पर यथार्थ ने उन की ओर दृष्टि नहीं उठाई. वह नीची दृष्टि किए हुए एक ही बात कह रहा था, ‘मैं किसी को नहीं जानता, मेरी कोई मां नहीं, कोई पिता नहीं.’

‘‘सुनीता ने उस का हाथ थामा तो उस ने झटक दिया और बोला, ‘मैं एक संत हूं. मैं सांसारिक लोगों से नहीं मिलता. मुझ से दूर रहें.’

‘‘‘बेटा, मैं तेरी मां हूं. इन लोगों ने तुझे बहका दिया है.’

‘‘इस पर वह खोईखोई वाणी में बोला, ‘मेरी मांपिता सब ऊपर वाला है. इस नश्वर संसार में मेरा कोई नहीं.’

‘‘सुनीता रो पड़ीं. वे तपन से बोलीं, ‘देखो, मेरे बेटे को क्या हो गया है. यह मुझे ही नहीं पहचान रहा है. जरूर इस पर किसी ने कोई जादूटोना कर दिया है.’ वे यथार्थ को हिलाने लगीं, अखिलानंद ने उन्हें रोक दिया, ‘आप इन्हें छू नहीं सकतीं. ये पवित्र आत्मा हो गए हैं.’

‘‘सुनीता बिगड़ गईं, ‘मैं, जिस ने उसे जन्म दिया है उस की मां, उसे छू नहीं सकती?’ उन्होंने यथार्थ से कहा, ‘बोल बेटा, बता दे इन्हें कि मैं तेरी मां हूं.’ पर वे लोग उन्हें और तपन वगैरा को जबरदस्ती बाहर ले आए और बोले, ‘बस, इस से ज्यादा आप उन से नहीं मिल सकते.’

‘‘विवशता में उन्हें वहां से आना पड़ा पर अपना बेटा कैसे खो सकते थे वे. दूसरे दिन अपने साथ 15-20 लोगों को ले कर वे फिर आश्रम गए. पर इस बार उन्हें अंदर जाने से ही रोक दिया गया. तपन के साथ यथार्थ के मित्र शिशिर और पवन भी थे. वे दोनों गुस्से में आ गए. उन्होंने जबरदस्ती अंदर जाने का प्रयास किया. उधर, स्वामीजी के शिष्यों का समूह बाहर आ गया. वे लोग इन्हें रोकने लगे जिस में आपस में हाथापाई की स्थिति आ गई. इसी हाथापाई में पवन को चोट लग गई और खून बहने लगा.

‘‘जब इन लोगों का अंदर जाने का प्रयास असफल हो गया, तो ये लोग वहीं धरना दे कर बैठ गए. और नारे लगाने लगे, ‘मेरा बेटा वापस दो, स्वामी जी हायहाय, धर्म के नाम पर धांधली नहीं चलेगी’ आदि.

‘‘इन के चारों ओर लोगों की भीड़ लग गई. जब आश्रम वालों ने देखा कि ये नहीं हट रहे हैं तो उन्होंने पुलिस को बुला लिया.

‘‘पुलिस ने स्वामीजी की शिकायत पर धरने वालों को हटाने का प्रयास किया तो इन लोगों ने आश्रम के विरुद्ध शिकायत की. इस पर पुलिस ने पूछताछ की. पर जब यथार्थ से पुलिस ने पूछा तो उस ने साफसाफ कह दिया कि वह अपनी इच्छा से आया है.

‘‘पुलिस इंस्पैक्टर ने तपन से कहा, ‘देखिए, आप का बेटा वयस्क है और यदि वह अपनी इच्छा से आश्रम में रह रहा है तो हम कुछ नहीं कर सकते.’

‘‘‘पर आश्रम वालों ने उस का ब्रेनवाश किया है, उसे बहका कर फंसाया है.’

‘‘‘जी, मैं सब समझ रहा हूं पर इस का कोई साक्ष्य नहीं है.’

‘‘तपन ने कहा, ‘पर आप हमें अपने ढंग से अपने बेटे को वापस लेने दीजिए.’

‘‘इंस्पैक्टर ने कहा, ‘देखिए तपनजी, मैं आप को अपने हाथ में कानून नहीं लेने दे सकता.’

‘‘सुनीता ने कहा, ‘यह कैसी बात है कि आप जानते हैं कि उन्होंने मेरे बेटे को बरगलाया है, वे गलत हैं और हम सही, फिर भी हमें ही रोक रहे हैं?’

‘‘‘देखिए, मन से हम आप के साथ हैं पर हम विवश हैं. कानून की सीमा के बाहर कुछ भी करना या करने देना हमारे लिए संभव नहीं. आप जो भी करें, कानून के अनुसार करें. कृपया आप लोग चले जाएं वरना हमें आप को जबरदस्ती हटाना पड़ेगा.’

‘‘तपन के साथ आए उन के मित्र ने उन्हें समझाया, ‘देखो, अगर पुलिस के चक्कर में पड़ गए तो हम दूसरी झंझटों में उलझ जाएंगे और यथार्थ को वापस कभी नहीं ला पाएंगे. इस से तो अच्छा है कि कुछ उपाय सोचो उसे वापस लाने का.’

‘‘‘‘पर मेरे बच्चे को हुआ क्या है? चलो, किसी झाड़फूंक वाले का पता करें,’ सुनीता ने कहा.

‘‘राजन ने कहा, ‘दीदी, टोटका नहीं, इन्होंने कोई नशा दिया है और इस का ब्रेनवाश किया है. देखा नहीं, उस की आंखें कैसी लाललाल थीं और वह अपनी सुध में नहीं लग रहा था.’

‘‘‘पर मेरे बच्चे ने इन का क्या बिगाड़ा था?’

‘‘‘कुछ नहीं, इन्हें अपना प्रचारप्रसार करने के लिए मेधावी और आकर्षक व्यक्तित्व के युवा चाहिए. ये इसी तरह मेधावी मगर सीधेसाधे बच्चों को फंसाते हैं.’

‘‘तपन ने कहा, ‘पर हम इन की चाल कामयाब नहीं होने देंगे. हम अपने बच्चे को लिए बिना वापस नहीं जाएंगे.’

‘‘तपन और सुनीता ने बहुत हाथपैर मारे, धरतीआकाश एक कर दिया पर वे दोबारा अपने बेटे की एक झलक भी नहीं पा सके. पता नहीं उसे उन लोगों ने कहां भेज दिया.

‘‘तपन ने पुलिस से संपर्क किया पर पुलिस ने भी पल्ला झाड़ दिया. वे एसपी तक के पास गए पर उन्होंने भी कहा, ‘देखिए, आप का बेटा वयस्क है और जब वह कह रहा है कि वह अपनी इच्छा से वहां रहना चाहता है तो हम उस में क्या कर सकते हैं?’

‘‘सुनीता ने कहा, ‘पर उन लोगों ने उसे कोई नशा दिया है, उस पर जादूटोना किया है. वरना जिस लड़के ने एक दिन पहले मुझ से कहा कि वह घर आ रहा है, अचानक आश्रम कैसे पहुंच गया?’

‘‘‘और तो और, उन लोगों ने उसे एक तहखाने में बंद कर रखा है यदि वह अपने मन से गया है तो उसे बंद तहखाने में किसी कैदी की तरह रखने की आवश्यकता क्या है?’ तपन ने कहा.

‘‘‘देखिए, आप की बात ठीक है पर जब हमारे इंस्पैक्टर गए थे तो आप का बेटा आश्रम में ही था. और उस ने स्वयं उन से कहा कि वह अपनी इच्छा से आश्रम में रहना चाहता है,’ एसपी ने कहा, ‘और बिना किसी साक्ष्य के हम क्या कर सकते हैं?’

‘‘सुनीता बोलीं, ‘आप टैस्ट करवाइए. वे मेरे बेटे को कोई नशा अवश्य देते हैं क्योंकि जब वह हम से मिला तो उस ने एक बार भी मेरी ओर नहीं देखा और अनायास ही उस की दृष्टि मुझ से मिली तो उस ने तुरंत हटा ली. पर मैं ने उस क्षणांश में ही देख लिया कि उस की आंखें लाल थीं और चढ़ी हुई थीं. वह सामान्य तो बिलकुल नहीं था.’

‘‘पर पुलिस ने साक्ष्य के अभाव में या संभवतया किसी दबाव में सहायता करने से मना कर दिया.

‘‘तपन को याद आया प्रभास. उस ने सोचा कि अभी तक उस ने क्यों नहीं सोचा प्रभास के बारे में. वह तो जनादेश चैनल में प्रोड्यूसर है. वह उस की सहायता कर सकता है. मीडिया साक्ष्य एकत्र करने में लग गई. पर प्रहरी इतने दृढ़ थे कि उन के दुर्ग में सेंध लगाना सरल न था. मीडिया ने साक्ष्य प्राप्त भी किए कि आश्रम में अफीम आती है. उस का अभियान धीरेधीरे सफलता के सोपान चढ़ रहा था कि अचानक एक दिन प्रभास के औफिस पर हमला हो गया और कई बहुमूल्य कैमरे आदि नष्ट कर दिए गए. फिर पता नहीं क्या हुआ कि प्रभास ने उस केस में धीरेधीरे रुचि लेनी बंद कर दी. एक दिन तपन ने उस से पूछा तो उलटे वह उन्हीं को समझाने लगा, ‘मेरी मानो तो तुम उसे भूल जाओ, जब तुम्हारा बेटा ही संन्यास लेना चाहता है तो क्या कर सकते हो, शायद प्रकृति यही चाहती है.’

‘‘सब ओर से हार कर तपन फिर स्वामीजी की शरण में गए उन से अपने बेटे की भीख मांगने. स्वामीजी ने मिलने से मना कर दिया. सब ओर से निराश हो कर तपन वापस लौटने को उठ खड़े हुए. तभी अखिलानंदजी से उन के साथी ने आ कर धीरे से कुछ कहा. अखिलानंद ने कहा, ‘आप खुश हो जाएं कि स्वामीजी को बेटे के प्रति आप की व्याकुलता देख कर दया आ गई.’

‘‘‘तो क्या वे यथार्थ को हमारे पास वापस भेज देंगे?’ तपन ने अधीर होते हुए पूछा.

‘‘‘नहीं, विश्वानंद तो हमारे आश्रम का अभिन्न अंग हैं. उन के प्रभावी व्यक्तित्व, ओजपूर्ण वाणी, और हिंदी व अंगरेजी दोनों में ही समानरूप से भाषण देने की क्षमता ने तो हम भक्तों की संख्या कई गुना बढ़ा दी है. वे तो हमारे लिए अनमोल हीरा हैं,’ अखिलानंद ने यथार्थ को दीक्षा देने का रहस्य उजागर किया. तपन की आशा की किरण फिर धूमिल होने लगी.

‘‘कुछ क्षण ठहर कर अखिलानंद बोले, ‘हां, यदि आप चाहें तो एक तरीका है अपने बेटे के पास रहने का?’

‘‘‘वह क्या?’ तपन ने कुछ न समझते हुए पूछा.

‘‘‘आप भी हमारे आश्रम में सेवा करें. दीक्षा ले कर अपनी संपत्ति आश्रम को दान कर दें. भगवत भजन करें. आराम से रहें और भक्तों के हृदय पर राज करें,’ अखिलानंद ने तपन के सामने प्रस्ताव रखा.

‘‘इस में दोनों का हित निहित था. सो, दोनों इस संधि प्रस्ताव से सहमत हो गए.

‘‘तपन का छोटा बेटा मलय, जो पायलट का प्रशिक्षण ले रहा था, इस सब से सहमत नहीं था. सो, उस ने अपने चाचा के साथ रहने का निर्णय ले लिया.’’

मलय के मुख से इस संधि प्रस्ताव के बारे में सुन कर अर्पिता हतप्रभ थी. 

लेखिका- अलका प्रमोद

Hindi Story Online : गली नंबर 10 – कौनसी कड़वी याद थी उसे के दिल में

Hindi Story Online :  चेहरे पर ओढ़ी खामोशी, आंखों का आकर्षण बरबस मुझे उस की ओर खींच ले गया था. उस से मिलने की चाह में एकएक पल बिताना मुश्किल हो रहा था. लेकिन यह कैसी बेबसी थी कि उस की आंखों का दर्द देख कर भी मैं सिर्फ महसूस करता रह गया, बेबस सा.

उस के व्यक्तित्व ने मुझे ऐसा प्रभावित कर रखा था कि घंटों तो क्या, अगर पूरे दिन भी इंतजार करना पड़ता तो भी मैं कुछ बुरा महसूस नहीं करता. एक अजीब रूमानी आकर्षण ने मुझे अपने पाश में ऐसा जकड़ लिया था कि मैं अपने खुद के अस्तित्व से भी उदासीन रहने लगा था. हर ‘क्यों’ का उत्तर अगर मिल जाता तो दुनिया ही रुक गई होती. पर पार्क की बैंच पर बैठ कर किसी की प्रतीक्षा करने का अनोखा आनंद तो वही जान सकता है जो ऐसे पलों से गुजरा हो.

पिछले जमाने की रहस्यमयी फिल्मों की नायिका सी यह लड़की मुझे शहर की एक सड़क पर दिखी थी. पता नहीं क्यों, पहली नजर में ही मैं उस के प्रति आकर्षित हो गया था और यह स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं कि मैं ने उस के बाद, उस रास्ते के अनगिनत चक्कर काटे थे. मन में पक्की उम्मीद थी कि एक न एक दिन तो वह फिर मिलेगी और ऐसा ही हुआ. एकदो बार फिर आमनासामना हुआ और पता नहीं कैसे, उसे भी यह एहसास हो गया कि मैं वहां उसी के लिए चक्कर काटा करता हूं. शायद इसीलिए उस ने, थोड़ी चोरी से, मेरी और देखना शुरू कर दिया था. बस, कहानी यहीं से शुरू हुई थी.

बातचीत की हालत में पहुंचने में काफी समय लगा और जब मिलने के वादे तक पहुंचे तो वह भी हफ्ते में सिर्फ एक दिन, मंगलवार और समय दोपहर का. मुझे लगा कि शायद उसे उस दिन घर से निकलने में आसानी होती होगी. वैसे, मंगलवार को मेरी भी सिर्फ 2 ही क्लास होती थीं, इसलिए कालेज से जल्दी निकल पाना आसान था. जगह तय हुई यही पार्क…मैं तो कालेज से निकल कर, तेजतेज कदमों से सीधा पार्क जा पहुंचता और पहले से तय बैंच पर जा कर बैठ जाता. वह देर से आए या जल्दी, मेरी आंखें पार्क के गेट पर टिकी रहतीं. उस का वह गेट से घुसना, धरती पर नजर बिछाए हौलेहौले चलना और फिर निकट आ कर आधा इंच मुसकराना, मुझे बहुत मोहक लगता था.

हम एक ही बैंच पर पासपास बैठे होते पर उस की ओर से कोई ऐसी क्रिया होती नहीं लगती थी जो प्यार का संदेश दे सके. वह कम बोलती थी, मैं ही बकबक करता रहता था. मैं ने अपने अतीत, वर्तमान और भविष्य की योजनाएं तक सबकुछ उस को बता डाली थीं. पर उस के बारे में मैं अब तक कुछ जान पाने में सफल नहीं हो सका था. मैं जब भी उस से उस के बारे में कोई प्रश्न करता तो वह अनजान सी आसमान की तरफ देखने लगती. उस के चेहरे पर छाया सांध्यकालीन शून्य और रहस्यमय हो जाता.

अपने इस तथाकथित ‘अचीवमैंट’ को निकट मित्रों से साझा कर डालना स्वाभाविक था. पर जब मैं ने उन्हें यह बताया कि मेरे प्यार का सफर एक बिंदु पर ही अटका हुआ है तो वे सब के सब सलाहकार बन गए.

एक ने कहा –

‘अगर वह प्यार न करती होती तो चल कर पार्क तक आती ही क्यों.’

बात ठीक लगी.

दूसरे ने कहा –

‘अच्छे संस्कारों वाली होगी. शी वोंट कम रनिंग ऐंड ले डाउन विद यू.’

यह बात अनजाने ही मन को सुख का एहसास करा गई.

तीसरे ने कहा-

‘ऐसा करो, एक दिन पार्क में तुम देर से जाओ. अगर वह बैठ कर तुम्हारी प्रतीक्षा करती रही तो पक्का है कि वह तुम्हें प्यार करती है. और अगर उठ कर वापस चली गई, तो समझ लेना कि यह सब खेल था.’

यह बात सब को जम गई. सब की सहमति से आने वाले मंगलवार को ही यह निर्णायक प्रयोग करने का निर्णय ले लिया गया.

गिनगिन कर दिन काटे. आखिर, मंगलवार आया. क्लास में क्या पढ़ाया जा रहा था, मुझे कोई ज्ञान नहीं. देर करनी थी, सो, बैठा रहा. जैसे ही निर्णायक घड़ी आई, मैं भारीभारी पैर उठाता पार्क की ओर चल दिया. मित्रों ने मुझे ऐसे विदा किया जैसे मैं श्मशान घाट जा रहा हूं.

मुझे नहीं मालूम था कि दिल इतनी तेज भी धड़क सकता है. पार्क के गेट की ओर बढ़ते हुए मेरे हाथपैर लगभग कांप रहे थे पर, जैसे ही मेरी दृष्टि ने पार्क के भीतर प्रवेश किया, दिल बल्लियों उछल पड़ा. वह पार्क की उसी बैंच पर बैठी अपने पैर के अंगूठे से जमीन पर कुछ रेखाचित्र बना रही थी.

मेरी गति में अचानक तेजी आ गई. मैं लगभग भागता हुआ बैंच तक जा पहुंचा. वह मुसकराई और एक ओर खिसक कर मेरे बैठने के लिए ज्यादा जगह बना दी.

मन के भीतर अब तक पनपते अपनेपन की जगह अब अधिकार भाव ने ले ली थी. इसलिए बैंच पर बैठते ही मैं ने उस का हाथ अपने दोनों हाथों के बीच दबा लिया. वह सकुचाई जरूर, पर प्रतिरोध नहीं किया.

मेरे मन का विश्वास अब चरम पर था. मैं ने बिना किसी हिचकिचाहट के सीधेसीधे उस से प्रश्न कर दिया, ‘‘शादी करोगी मुझ से?’’

वह कुछ बोली नहीं. सिर झुकाए बैठी पैर के अंगूठे से जमीन पर रेखाचित्र बनाती रही.

मैं उतावला हो रहा था. मैं ने अपना प्रश्न दोहराया, ‘‘बोलो, शादी करोगी मुझ से?’’

वह सिर झुकाएझुकाए ही धीरे से बोली, ‘‘इस के लिए आप को हमारी मम्मी से मिलना होगा.’’

मेरा मन बेकाबू हो उठा था, ‘‘हां…हां, क्यों नहीं. बोलो, कब, कहां?’’

वह थोड़ी देर कुछ सोचती रही, फिर बोली, ‘‘पूछ कर बताऊंगी.’’

इतना कह कर वह एकदम उठी और चल दी. गेट के पास पहुंच कर उस ने एक बार मुड़ कर मेरी ओर देखा और बाहर चली गई.

अब मेरा एकएक दिन मुश्किल से कट रहा था, अगले मंगलवार के इंतजार में.

आखिर वह दिन आया. अब समस्या थी कि दोपहर तक का समय कैसे काटा जाए. कालेज जाने का कोईर् फायदा लग नहीं रहा था. सो, सड़कों के चक्कर काटकाट कर सूरज के चढ़ने को निहारता रहा.

समय होते ही मैं पार्क की ओर भागा.

मैं जब पार्क में पहुंचा तो यह देख कर थोड़ी निराशा हुई कि बैंच अभी खाली पड़ी थी. खैर, मैं अपनी उसी जगह जा कर बैठ गया जहां मैं अकसर बैठा करता था. मेरी नजर गेट पर ही टिकी रही.

जैसेजैसे समय बीत रहा था, एक अनजान सा डर मुझे परेशान किए था. तभी एक गरीब सा दिखने वाला आदमी मेरी ओर बढ़ने लगा. वह जैसे ही पास आया उस ने एक मुड़ा हुआ कागज मेरी ओर बढ़ाया. कंपकंपाते हाथों से वह कागज मैं ने उस से लिया और जल्दी से खोल कर पढ़ा. उस में लिखा था –

‘आप इन के साथ चले आएं. ये आप को पहुंचा देंगे.’

जो कुछ हो रहा था उस ने मुझे सारी हालत पर विचार करने को मजबूर कर दिया था. पहले मैं ने उस आदमी को गौर से देखा. यह वही आदमी था जिस के रिकशे पर वह पार्क आयाजाया करती थी. तब मैं ने उस आदमी को आगे चलने का इशारा किया और मैं उस के पीछे हो लिया.

मैं इस सड़क पर कभी बहुत आगे तक गया नहीं था, इसलिए मुझे पता नहीं था कि यह सड़क आगे जा कर एक पतली गली जैसी हो जाती है. छोटीछोटी ढेरों दुकानें, खुली नालियां

और एकदूसरे को धकियाती भीड़. मुझे लगा कि शायद सफाई कर्मचारियों को

इस रास्ते का पता मालूम नहीं होगा.

थोड़ा आगे जा कर रिकशा रुक गया. रिकशे वाले ने एक गहरी सांस ली और बोला, ‘‘बाबू साहब, रिकशा इस के आगे न जा पाएगा. दस कदम आगे चल कर बाईं ओर की गली नंबर 10 में मुड़ जाइएगा. 2 कोठियां छोड़ कर एक जीना ऊपर जाता दिखेगा. बस, उस में चढ़ जाइएगा, मैडम मिल जाएंगी.’’

मैं ने उसे पैसे देने की कोशिश की, पर उस ने लिए नहीं. जहां कहीं मैं इस समय था वह जगह ऐसी लग रही थी जैसे यह शहर का हिस्सा है ही नहीं. जगहजगह टूटे प्लास्टर वाले रंगबिरंगे मकान लगभग वैसे ही लग रहे थे जैसे माचिस की ढेर सारी डब्बियां एकदूसरे के ऊपर रख दी गई हों. हर मकान के बाहर, धूप में सूखते मैलेकुचैले कपड़े और दीवारों पर चिपकी पान की पीक के अलावा जगहजगह पी हुई बीड़ीसिगरेटों के बचे टुकड़े बिखरे पड़े थे.

अब मुझे डर लगने लगा था, पर फिर भी, पैर अनजाने ही आगे बढ़ते चले जा रहे थे. तभी सामने की दीवार पर एक जंग खाई टीन की पट्टी लगी दिखाई दी, जिस पर लगभग मिटता हुआ सा लिखा था- ‘गली नंबर-10.’ मैं उस ओर मुड़ गया.

गली के मुहाने पर ही पड़ी प्लास्टिक की कुरसी पर एक पुलिसमैन बैठा दिखाई दिया. उसे पुलिसमैन मानने में तनिक शंका हो रही थी. पैंट से बाहर निकली मुड़ीतुड़ी कमीज, मुंह में भरी पान की पीक, बिना धुला सा चेहरा. पर हां, हाथ में डंडा जरूर था.

वह मेरी ओर देख कर मुसकराया. मैं ने भी मुसकरा कर मुसकराहट का उत्तर दे दिया. मुझे मुसकराते देख वह इतनी जोर से हंसा कि उस के मुंह में भरी पीक उछल कर उस की कमीज पर आ गिरी. मुझे यह सब देख उबकाई सी आने लगी, इसलिए मैं तेजी से आगे बढ़ गया.

रिकशे वाले द्वारा बताई सीढ़ी सामने थी. एकदम पतला सा जीना था और जीने की दीवारें बहुत ही ज्यादा गंदी थीं. छोटीछोटी सीढि़यों पर पैर तो मैं ने रख दिए पर मन में ‘आगे जाऊं या पीछे’ की उलझन और बढ़ गई. सोच रहा था ‘नर्क में भी अप्सराएं रहती हैं, ऐसा तो कभी किसी ने बताया नहीं. या कहीं, मेरे साथ कोई उपहास प्रायोजित तो नहीं किया गया है.’ अपनी सुरक्षा का डर भी जोर पकड़ने लगा था. तभी सामने एक दरवाजा आ गया. दरवाजे के बाजू में लिखा था ‘नं.-3.’

मेरा हाथ दरवाजा खटखटाने को आगे बढ़ गया. भीतर से किसी महिला की आवाज आई, ‘‘खुला है, तशरीफ ले आइए.’’

पसोपेश की हालत में होते हुए भी पैर आगे बढ़ ही गए. अब मैं एक बड़े कमरे में खड़ा था. कमरे में कई दरवाजे खुल रहे थे जिन पर परदे पड़े हुए थे. सामने वाली दीवार के साथ एक तख्त बिछा हुआ था जिस पर गहरे रंग की चादर बिछी थी और इधरउधर 2-3 मसनद जैसे तकिए भी लगे थे. मसनदों का रंग भी चादर की तरह सुर्ख था.

तख्त पर एक अधेड़ उम्र की महिला बैठी थी जिस के दोनों हाथ किसी कड़ी चीज को काटने में व्यस्त थे और आंखें मेरे ऊपर गड़ी हुई थीं. वे बहुत धीरे से बोलीं, ‘‘बैठिए.’’

मैं ने इधरउधर देखा. बेंत से बनी कई कुरसियां पड़ी थीं. मैं ने एक कुरसी खींची और उस पर बैठ गया.

मेरी नजर महिला पर कम, इधरउधर के वातावरण पर ज्यादा थी. मैल की आगोश में लिपटी दीवारें, कमरों के दरवाजों पर झूलते सिल्की परदों से मेल नहीं खा रही थीं.

मन घबराने लगा था. तभी वे महिला जो शायद उस की मम्मी ही रही होंगी, धीरे से बोलीं, ‘‘क्या सोच रहे हो, हम ने आप को यहां क्यों बुलाया. किसी बेहतर जगह भी तो बुला सकते थे. पर…पर वह हमारी नजर में आप के साथ धोखा होता.’’

इस के बाद वे थोड़ी देर चुप रहीं. फिर कुछ बैठी सी आवाज में बोलीं, ‘‘धोखा दे कर, बाद में उस का अंजाम भुगतना अब हमारे बूते का नहीं रह गया है बरखुरदार.’’

यह कहतेकहते शायद उन का गला भर आया था, इसलिए वे चुप हो गईं. ऐसा लग रहा था जैसे कुछ पुरानी यादें उन के जेहन में उतर आई थीं.

मैं चुप ही रहा.

सुपारी काटने में व्यस्त उन के हाथों

की गति पहले से तेज हो गई थी.

शायद वे अपने मन के आवेश को कड़ी सुपाड़ी के ऊपर उतारने की कोशिश कर रही थीं. वे अचानक फिर से बोलीं, ‘‘आंखें बूढ़ी हो गईं एक ऐसे मर्द का दीदार करने की ख्वाहिश में जिस में इतनी हिम्मत हो कि वह औरत के जिस्म के सौदागरों को चुनौती दे सके.’’ उन की तकलीफ मुझे झकझोरने लगी थी.

वे शायद अपने आंसू रोकने की कोशिश कर रही थीं. थोड़ी देर चुप रहीं. फिर वे बोलीं, ‘‘यहां तक आने की हिम्मत दिखाई है तुम ने. तो सुनो, गौर से सुनो, यहां रह रही सैकड़ों लड़कियों की कराहती आवाजें जो चीखचीख कर पूछ रही हैं कि इन का क्या कुसूर था. कुसूर तो कमबख्त वक्त का था जिस ने इन्हें बदनाम कोख में ला पटका.’’

मेरे चिंतन पर प्रश्नचिह्न लग गया था.

मेरे कानों में सैकड़ों कराहते नारी स्वर गूंजने लगे थे. मेरी आंखें गीली हो आई थीं.

वे फिर बोलीं. इस बार उन की आवाज में कुछ उत्तेजना सी थी, ‘‘साहबजादे, अगर एक मासूम को इस नरक से निकालने का हौसला रखते हो तो जाओ अपने मांबाप, घरखानदान वालों से पूछो कि क्या वे गली नंबर-10 के कोठे नंबर-3 की एक लड़की को अपने घर की बहू बनाने को तैयार हैं.’’

मैं खामोश था.

वे चुप थीं.

थोड़ी देर चुप रह कर वे तनिक धीमी आवाज में बोलीं, ‘‘अगर वे हां कर दें तो हमें खबर कर देना. हम बेटी को दुलहन बना कर खुद छोड़ने आ जाएंगे.’’

वे थोड़ा सा चुप हुईं और फिर कराहती सी आवाज में बोलीं, ‘‘और अगर ‘न’ कर दें तो तुम फिर कभी इस ओर मत आना. ये बदनाम गलियां हैं. बेकार में बदनाम हो जाओगे.’’

वे बहुत थकी सी लगने लगी थीं. वे धीरेधीरे उठीं और बिना मेरी ओर देखे पीछे के कमरे के अंदर चली गईं.

अब एकदम सन्नाटा हो गया था.

मैं कुरसी पर बैठा अपनी चेतना लौटने का इंतजार करता रहा. फिर मैं भी कुरसी से उठा और धीरेधीरे बाहर की ओर चल दिया.

मुझे लग रहा था कि कमरे के दरवाजे पर पड़े परदे के पीछे से याचनाभरी

2 आंखें मेरा पीछा कर रही हैं.

मैं कितनी ही कोशिशें करने के बाद  घर वालों से कुछ न कह सका और न कभी फिर वह लड़की ही मिली. दिनदहाड़े आगरा घूमनेफिरने के बाद टैक्सी वाला तारीफों के पुल बांधते हुए हमें एक दुकान में यह कह कर ले गया कि यहां आगरा की प्रसिद्ध वस्तुएं फिक्स रेट पर मिलती हैं. दुकान के पहले छोर में हैंडीक्राफ्ट के आइटम रखे थे, जिन के दाम और क्वालिटी पहली नजर में हमें बाजार की अपेक्षा उचित लगे. हम ने कुछ आइटम खरीद लिए.

दुकान पर हमारा भरोसा जमता देख, दुकानदार आग्रह कर के हमें दुकान के दूसरे छोर में ले गया जहां हैंडलूम के आइटम थे.

हमारे लाख मना करने के बाद कि हमारे पास खरीदारी के लिए पैसे ही नहीं हैं, वह बोला, ‘‘अरे साहब, पैसे कौन मांग रहा है. आप आइटम तो पसंद कीजिए. जितने का भी सामान हो उस का सिर्फ 40 फीसदी दे जाइए, हम सामान पार्सल से आप के घर भेज देंगे. डाक का खर्च हमारा रहेगा, बाकी पैसे दे कर पार्सल छुड़ा लेना.’’

हमारे नानुकुर करने के बाद भी वह एक साड़ी मेरी मिसेज को दिखाते हुए बोला, ‘‘बहनजी, यह बांस (बैंबू)

की साड़ी आगरा की प्रसिद्ध साड़ी

है, इसे जरूर ले जाइए, कीमत मात्र 1,200 रुपए.’’

मैं ने पत्नी को एकदो साड़ी खरीदने की सहमति दे डाली. फिर क्या था, मोहतरमा ने 6 साडि़यां पैक करा डालीं.

दुकानदार ने प्रत्येक साड़ी के कोने में हमारे हस्ताक्षर करा लिए ताकि साडि़यों के बदले जाने की गुंजाइश न रहे. दुकानदारी के तरीके से प्रभावित हो कर हम इतने निश्ंिचत हो गए कि बिल की काउंटरफाइल में लिखी शर्तों को पढ़े  बगैर हम ने उन की शर्तों पर साइन कर दिए. सारी जेबें खंगालने के बाद 3 हजार रुपए अदा कर के हम अपने घर को विदा हो लिए.

घर पहुंचने के एक हफ्ते के अंदर पार्सल भी पहुंच गया. डाकिया बाकी के 3 हजार रुपए के अलावा 125 रुपए डाकखर्च भी मांगने लगा. हमारे यह कहने पर कि डाकखर्च तो दुकानदार ने दे दिया होगा, वह बोला, ‘‘नहीं, बकाया डाकखर्च देने पर ही मैं पार्सल आप को दे सकता हूं.’’ 125 रुपए के पीछे 3 हजार फंसते देख हम ने पार्सल छुड़ा लिया.

हम ने पार्सल खोला. हस्ताक्षरयुक्त साडि़यां पा कर तसल्ली हुई. आगरा की निशानी के नाम पर बड़े उत्साह से पहनने के बाद एक ही धुलाई में साडि़यों का सारा आकर्षण भी धुल गया. इस ठगी की कटु याद आज भी मुझे कचोटती है.

लेखक-सुबोध मिश्र

Best Hindi Stories : औप्शंस – क्या शैली को मिला उसका प्यार

Best Hindi Stories : कभी-कभी जिंदगी में वही शख्स आप को सब से ज्यादा दुख पहुंचाता है, जिसे आप सब से ज्यादा प्यार करते हैं. विसंगति यह कि आप उस से कुछ कह भी नहीं पाते, क्योंकि आप को हक ही नहीं उस से कुछ कहने का. जब तक रिश्ते को नाम न दिया जाए कोई किसी का क्या लगता है? कच्चे धागों सा प्यार का महल एक झटके में टूट कर बिखर जाता है.

‘इन बिखरे एहसासों की किरचों से जख्मी हुए दिल की उदास दहलीज के आसपास आप का मन भटकता रह जाता है. लमहे गुजरते जाते हैं पर दिल की कसक नहीं जाती.’ एक जगह पढ़ी ये पंक्तियां शैली के दिल को गहराई से छू गई थीं. आखिर ऐसे ही हालात का सामना उस ने भी तो किया था. किसी को चाहा पर उसी से कोई सवाल नहीं कर सकी. चुपचाप उसे किसी और के करीब जाता देखती रही.

‘‘हैलो आंटी, कहां गुम हैं आप? तैयार नहीं हुईं? हमें चलना है न मंडी हाउस, पेंटिंग प्रदर्शनी में मम्मी को चीयर अप करने?’’ सोनी बोली.

‘‘हां, बिलकुल. मैं आ रही हूं मेरी बच्ची’’, शैली हड़बड़ा कर उठती हुई बोली.

आज उस की प्रिय सहेली नेहा के जीवन का बेहद खास दिन था. आज वह पहली दफा वर्ल्ड क्लास पेंटिंग प्रदर्शन में हिस्सा ले रही थी.

हलके नीले रंग का सलवार सूट पहन कर वह तैयार हो गई.

अब तक सोनी स्कूटी निकाल चुकी थी. बोली, ‘‘आओ आंटी, बैठो.’’

वह सोनी के पीछे बैठ गई. स्कूटी हवा से बातें करती मिनटों में अपने नियत स्थान पर

पहुंच गई.

शैली बड़े प्रेम से सोनी को देखने लगी. स्कूटी किनारे लगाती सोनी उसे बहुत स्मार्ट और प्यारी लग रही थी.

सोनी उस की सहेली नेहा की बेटी थी. दिल में कसक लिए घर बसाने की इच्छा नहीं हुई थी शैली की. तभी तो आज तक वह तनहा जिंदगी जी रही थी. नेहा ने सदा उसे सपोर्ट किया था. नेहा तलाकशुदा थी, दोनों सहेलियां एकसाथ रहती थीं. नेहा का रिश्ता शादी के बाद टूटा था और शैली का रिश्ता तो जुड़ ही नहीं सका था.

पेंटिंग्स देखतेदेखते शैली नेहा के साथ काफी आगे निकल गई. नेहा की एक पेटिंग क्व1 लाख 70 हजार में बिकी तो शैली ने हंस कर कहा, ‘‘यार, मुझे तो इस पेटिंग में ऐसा कुछ भी खास नजर नहीं आ रहा.’’

‘‘वही तो बात है शैली,’’ नेहा मुसकराई, ‘‘किसी शख्स को कोई पेंटिंग अमूल्य नजर आती है तो किसी के लिए वही आड़ीतिरछी रेखाओं से ज्यादा कुछ नहीं होती. जरूरी है कला को समझने की नजरों का होना.’’

‘‘सच कहा नेहा. कुछ ऐसा ही आलम जज्बातों का भी होता है न. किसी के लिए जज्बातों के माने बहुत खास होते हैं तो कुछ के लिए इन का कोई मतलब ही नहीं होता. शायद जज्बातों को महसूस करने वाला दिल उन के पास होता ही नहीं है.’’

शैली की बात सुन कर नेहा गंभीर हो गई. वह समझ रही थी कि शैली के मन में कौन सा तूफान उमड़ रहा है. यह नेहा ही तो थी जिस ने सालों विराज के खयालों में खोई शैली को देखा था और दिल टूटने का गम सहती शैली को फिर से संभलने का हौसला भी दिया था. शैली ने आज तक अपने जज्बात केवल नेहा से ही तो शेयर किए थे.

नेहा ने शैली का कंधा थपथपाते हुए कहा, ‘‘नो शैली. उन यादों को फिर से खुद पर हावी न होने दो. बीता कल तकलीफ देता है. उसे कभी याद नहीं करना चाहिए.’’

‘‘कैसे याद न करूं नेहा जब उसी कल ने मेरे आज को बेस्वाद बना दिया. उसे

कैसे भूल सकती हूं मैं? जानती हूं कि जिस विराज की खातिर आज तक मैं सीने में इतना दर्द लिए जी रही हूं, वह दुनिया के किसी कोने में चैन की नींद सो रहा होगा, जिंदगी के सारे मजे ले रहा होगा.’’

‘‘तो फिर तू भी ले न मजे. किस ने मना किया है?’’

‘‘वही तो बात है नेहा. उस ने हमारे इस प्यार को महसूस कर के भी कोई अहमियत नहीं दी. शायद जज्बातों की कोई कद्र ही नहीं थी. मगर मैं ने उन जज्बातों की बिखरी किरचों को अब तक संभाले रखा है.’’

‘‘तेरा कुछ नहीं हो सकता शैली. ठंडी सांस लेती हुई नेहा बोली तो शैली मुसकरा पड़ी.

‘‘चल, अब तेरी शाम खराब नहीं होने दूंगी. अपनी प्रदर्शनी की सफलता का जश्न मना ले. आखिर रिश्तों और जज्बातों के परे भी कोई जिंदगी होती है न,’’ नेहा ने कहा.

शैली और नेहा बाहर आ गईं. सोनी किसी लड़के से बातें करने में मशगूल थी. मां को देख उस ने लड़के को अलविदा कहा और इन दोनों के पास लौट आई.

‘‘सोनी, यह कौन था?’’ नेहा ने पूछा.

‘‘ममा, यह मेरा फ्रैंड अंकित था.’’

‘‘खास फ्रैंड?’’

‘‘ऐसा कुछ नहीं है ममा. बट हां, थोड़ा खास है,’’ कह कर वह हंस पड़ी.

तीनों ने रात का खाना बाहर ही खाया.

रात में सोते वक्त शैली फिर से पुरानी यादों में खो गई. एक समय था जब उस के सपनों में विराज ही विराज था. शालीन, समझदार और आकर्षक विराज पहली नजर में ही उसे भा गया था. मगर बाद में पता चला कि वह शादीशुदा है. शैली क्या करती? उस का मन था कि मानता ही नहीं था.

नेहा ने तब भी उसे टोका था, ‘‘यह गलत है शैली. शादीशुदा शख्स के बारे में तुम्हें कुछ सोचना ही नहीं चाहिए.’’

तब, शैली ने अपने तर्क रखे थे, ‘‘मैं क्या करूं नेहा? जो एहसास मैं ने उसे के लिए

महसूस किया है वह कभी किसी के लिए नहीं किया. मुझे उस के विवाहित होने से क्या वास्ता? मेरा रिश्ता तो भावनात्मक स्तर पर है दैहिक परिधि से परे.’’

‘‘पर यह गलत है शैली. एक दिन तू भी समझ जाएगी. आज के समय में कोई इस तरह के रिश्तों को नहीं मानता.’’

नेहा की यह बात आज शैली के जीवन की हकीकत थी. वह वाकई समझ गई थी. कितने अरसे तक दिलोदिमाग में विराज को सजाने के बाद शैली को महसूस हुआ था कि भले ही विराज को उस की भावनाओं का एहसास था, प्यार के सागर में उस ने भी शैली के साथ गोते लगाए थे, मगर वह इस रिश्ते में बंधने को कतई तैयार नहीं था. तभी तो बड़ी सहजता से वह किसी और के करीब होने लगा और ठगी सी शैली सब चुपचाप देखती रही, न वह कुछ बोल सकी और न ही सवाल कर सकी. बस उदासी के साए में गुम होती गई. अंत में उस ने वह औफिस भी छोड़ दिया.

आज इस बात को कई साल बीत चुके थे, मगर शैली के मन की कसक नहीं गई थी. ऐसा नहीं था कि शैली के पास विकल्पों की कमी थी. नए औफिस में पहली मुलाकात में ही उस का इमीडिएट बौस राजन उस से प्रभावित हो गया था. हमेशा उस की आंखें शैली का पीछा करतीं. आंखों में प्रशंसा और आमंत्रण के भाव होते पर शैली सब इगनोर कर अपने काम से काम रखने का प्रयास करती. कई बार शैली को लगा जैसे वह कुछ कहना चाहता है. मगर शैली की खामोशी देख ठिठक जाता. उधर शैली का कुलीग सुधाकर भी शैली को प्रभावित करने की कोशिश में लगा रहता था. मगर दिलफेंक और बड़बोला सुधाकर उसे कभी रास नहीं आया.

शैली के पड़ोस में रहने वाला आजाद जो विधुर था, मगर देखने में स्मार्ट लगता

था, अकसर शैली से मिलने के बहाने ढूंढ़ता. कभी भाई की बच्ची को साथ ले कर घर आ धमकता तो कभी औफिस तक लिफ्ट देने का आग्रह करता. एक दिन जब शैली उस के घर गईं तो संयोगवश वह अकेला था. उसे मौका मिल गया और उस ने शैली से अपनी भावनाओं का इजहार कर दिया.

शैली कुछ कह नहीं सकी. आजाद की कई बातें वैसे भी शैली को पसंद नहीं थीं. उस पर विराज को भूल कर आजाद को अपनाने का हौसला उस में बिलकुल भी नहीं था. मन का वह कोना अब भी किसी गैर को स्वीकारने को तैयार नहीं था. शैली कुछ बोली नहीं, मगर उस दिन के बाद वह आजाद के सामने पड़ने से बचने का प्रयास जरूर करने लगी.

वक्त ऐसे ही गुजरता जा रहा था. शैली कभी आकर्षण की

नजरों से तो कभी ललचाई नजरों से पीछा छुड़ाने का प्रयास करती रहती.

कुछ दिन बाद जब राजन ने उस से 2 दिनों के बिजनैस ट्रिप पर साथ चलने को कहा तो शैली असमंजस में पड़ गई. वैसे इनकार करने का मन वह पहले ही बना चुकी थी, पर सीनियर से साफ इनकार करते बनता नहीं. सो सोमवार तक का समय मांग लिया. वह जानती थी कि इस ट्रिप में भले ही कुछ लोग और होंगे, मगर राजन को उस के करीब आने का मौका मिल जाएगा. उसे डर था कि कहीं राजन ने भी आजाद की तरह उस का साथ मांग लिया तो वह क्या जवाब देगी?

देर रात तक शैली पुरानी बातें सोचती रही. फिर पानी पीने उठी तो देखा बाहर बालकनी में सोनी खड़ी किसी से मोबाइल पर बातें कर रही है. थोड़ी देर तक वह उसे बातें करता देखती रही, फिर आ कर सो गई.

अगली रात फिर शैली ने गौर किया कि

11 बजे के बाद सोनी कमरे से बाहर निकल कर बालकनी में खड़ी हो कर बातें करने लगी. शैली समझ रही थी कि ये बातें उसी खास फ्रैंड के साथ हो रही हैं.

सोनी के हावभाव और पहनावे में भी बदलाव आने लगा था. कपड़ों के मामले में वह काफी चूजी हो गई थी. अकसर मोबाइल पर लगी रहती. अकेली बैठी मुसकराती या गुनगुनाती रहती. शैली इस दौर से गुजर चुकी थी, इसलिए सब समझ रही थी.

एक दिन शाम को शैली ने देखा कि सोनी बहुत उदास सी घर लौटी और फिर कमरा बंद कर लिया. वह फोन पर किसी से जोरजोर से बातें कर रही थी. नेहा उस दिन रात में देर से घर लौटने वाली थी. शैली को बेचैनी होने लगी तो वह सोनी के कमरे में घुस गई, देखा सोनी उदास सी औंधे मुंह बैड पर पड़ी हुई है. प्यार से माथा सहलाते हुए शैली ने पूछा, ‘‘क्या हुआ डियर, परेशान हो क्या?’’

सोनी ने उठते हुए न में सिर हिलाया.

शैली ने देखा कि उस की आंखें आंसुओं से

भरी है. अत: शैली ने उसे सीने से लगाते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ, किसी फ्रैंड से झगड़ा हो गया है क्या?’’

सोनी ने हां में सिर हिलाया.

‘‘उसी खास फ्रैंड से?’’

‘‘हां. सिर्फ झगड़ा नहीं आंटी, हमारा ब्रेकअप भी हो गया है, फौरएवर. उस ने मुझे

डंप किया… कोई और उस की जिंदगी में आ गई और मैं…’’

‘‘आई नो बेटा, प्यार का अकसर ऐसा ही सिला मिलता है. अब तुझ से कैसे

कहूं कि उसे भूल जा? यह भी मुमकिन कहां

हो पाता है? यह कसक तो हमेशा के लिए रह जाती है.’’

‘‘नो वे आंटी, ऐसा नहीं हो सकता. उसे मेरे बजाय कोई और अच्छी लगने लगी है, तो क्या मेरे पास औप्शंस की कमी है? बस आंटी, आज के बाद मैं दोबारा उसे याद भी नहीं करूंगी. हिज चैप्टर हैज बीन क्लोज्ड इन माई लाइफ. आप ही बताओ आंटी, यदि वह मेरे बगैर रह सकता है तो क्या मैं किसी और के साथ खुश नहीं रह सकती?’’

शैली एकटक सोनी को देखती रही. अचानक लगा जैसे उसे अपने सवाल का

जवाब मिल गया है, मन की कशमकश समाप्त हो गई है.

अगले दिन उस का मन काफी हलका था. वह जिंदगी का एक बड़ा फैसला ले चुकी थी. उसे अब अपनी जिंदगी में आगे बढ़ना था. औफिस पहुंचते ही राजन ने उसे बुलाया. शैली को जैसे इसी पल का इंतजार था.

राजन की आंखों में सवाल था. उस ने पूछा, ‘‘फिर क्या फैसला है तुम्हारा?’’

शैली ने सहजता से मुसकरा कर जवाब दिया, ‘‘हां, मैं चलूंगी.’’

Short Stories In Hindi : आई इन्वाइटेड ट्रबल

Short Stories In Hindi : शादी से पहले लगभग हर लड़की अपने भावी जीवन के बारे में कुछ सपने देखती है. उन सपनों में दुख नाम मात्र को भी नहीं होते. मैं भी उन्हीं लड़कियों में से एक थी.

शादी से पहले जब मैं ये सपने देखती तो उन में एक सपना मु?ो बारबार आता और वह

था मेरे भावी पति के पास एक एसयूवी का होना, जिस में 7 जने बैठ सकें. ऐसा सपना देखते

समय आंखों के सामने वही फिल्मी दृश्य आते, जिन में नायक और नायिका तथा 2 लड़के और

3 लड़कियां एक कार में मस्ती करते या गाते हुए जा रहे होते या नायिका स्वयं कार चला रही होती. मन के एक कोने में स्वयं कार चलाने की इच्छा भी दबी हुई थी.

संयोग से जिस व्यक्ति से मेरा रिश्ता तय हुआ उस का वेतन अच्छा था. मेरी बड़ी बहन खुशी से बोली, ‘‘अब मेरी बहन गहनों से लदी रहेगी.’’

मैं ने मन ही मन कहा कि क्या दकियानूसी बात कर दी. गहने लादने से क्या लाभ. यह क्यों नहीं कहती कि एसयूवी में घूमूंगी.

शादी के बाद पहली ही रात पति ने बड़े उत्साह से बताया कि उन की बुक कराई मारुति की आई-10 कार शीघ्र ही आने वाली है. मेरा सारा उत्साह ठंडा हो गया और सपने टूटने लगे.

मेरी चिरकाल से संजोई इच्छा को जान कर पति ने तसल्ली दी कि दोनों की अगली पदोन्नति पर एसयूवी भी आ जाएगी. सपने फिर से शुरू हो गए.

मै हर समय यही सोचती रहती कि कौन सी कार लेनी ठीक रहेगी, कौन सा रंग अच्छा होगा इत्यादिइत्यादि. जब किसी महिला को एसयूवी भी चलाते देखती तो उसे बहुत स्मार्ट मानती. कभी किसी ऐसी महिला से परिचय कराया जाता, जो पुराने फैशन की और सादी सी लगती तो मैं नाक सिकोड़ लेती पर मु?ो जैसे ही पता चलता कि वह एसयूवी भी चलाती है तो उस के प्रति मेरे विचार तुरंत बदल जाते. मु?ो वह बड़ी बोल्ड, आधुनिक व स्मार्ट नजर आती. सोचने लगती, वह दिन कब आएगा जब मैं भी ऐसी महिलाओं की श्रेणी में आ जाऊंगी.

एक बार किसी विशेष स्थान पर टैक्सी कर के जाना पड़ा. रास्ते में एक  लड़की कार चला कर जा रही थी. मु?ो ऐसा लगा मानो वह आधुनिक व स्वतंत्र हो और मु?ो एकदम फूहड़ और परतंत्र सम?ा रही हो. उसे क्या पता, थोड़े समय पश्चात मैं भी उस की तरह कार चलाऊंगी.

आखिर कुछ वर्षों की प्रतीक्षा के बाद वह दिन भी आया जब हम ने एसयूवी खरीदी. पर इस खुशी के साथ मन में एक कसक थी. हमारी सारी जमापूंजी उस में लग गईर् थी. आई-10 तो बेचनी ही पड़ी, साथ ही कुछ रुपए भी उधार लेने पड़े. हमारे वर्ग के दूसरे लोग तो बड़े खुश नजर आते थे. क्या उन के दिलों में भी ऐसी कोई कसक थी?

मैं ने एसयूवी भी चलानी शुरू कर दी. अब जब भी 4 महिलाओं के बीच होती, घुमाफिरा कर बात इस बिंदु पर ले आती कि मैं भी एसयूवी चलाती हूं और किसी को भी छोड़ दूंगी हालांकि अभी स्टेयरिंग व्हील के आगे बैठने पर दिल इतने जोर से धड़कता था कि इंजन की आवाज उस के आगे मंद लगती.

एक दिन मैं मुख्य सड़क पर एसयूवी चला रही थी. एक बस मेरे आगे थी और एक पीछे. मेरे हौर्न बजाने पर अगली बस ने बड़ी तमीज से मु?ो आगे जाने की राह दे दी. पिछली आदरपूर्वक धीमी हो गई. मैं साथ बैठे पति से बोली, ‘‘लोग यों ही दिल्ली के बस चालकों को बदनाम करते हैं कि अंधाधुंध गाड़ी चलाते हैं. देखो न कैसे सलीके वाले चालक हैं.’’

पति से रहा न गया और बोले, ‘‘देवीजी, आप की कार के बाहर मैं ने 2 बड़े डैंटों के निशान लगे देखे हैं. आखिर उन्हें भी तो अपनी जान व नौकरी प्यारी. ये आप ने पिछले सप्ताह ही मारे थे. डैंटरपैंटर 3 हजार का ऐस्टीमेट दे रहा है. ये लोग ठुकी गाड़ी को ठीक कर आप की पहली ठुकाई का इंश्योरैंस नहीं देना चाहते.

एक बार मैं अकेली कहीं कार चला कर जा रही थी. चौराहे पर लालबत्ती थी और मैं सब से आगे थी. पता नहीं, किस सोच में थी कि अचानक अपने पीछे कारों की लाइन की पोंपों सुन कर चौंक गई. हरी बत्ती हो चुकी थी और मैं ने ध्यान ही नहीं दिया था. आगे बढ़ी तो एक टैक्सी वाला फर्र से पास से गुस्से से बकता हुआ निकल गया कि मैडम, तुसीं तो स्कूटी ले लो.

सुबह बच्चों को स्कूल छोड़ने जाती व दोपहर को उन्हें वापस लाती तो अधिक ध्यान इसी ओर रहता कि कोई जानपहचान का मिल जाए तो देख ले कि मैं भी भारीभरकम कार चला लेती हूं. सुबह जाते समय कोई पड़ोसी न देख रहा होता तो लगता क्या सुस्त लोग हैं, अभी तक बिस्तरों पर पसरे हुए हैं.

एक बार हरीश बाबू शाम को मिलने आए तो बोले, ‘‘भाई साहब, दोहरी बधाई हो, एक तो एसयूवी खरीदने की, दूसरी भाभीजी के कार चलाना सीख लेने की. इतनी पावरफुल गाड़ी संभालना आसान नहीं है.’’

‘‘भई, जल्द ही तीसरी मुबारक भी देने आओगे… मेरे साइकिल खरीदने की नौबत जल्द ही आने वाली है क्योंकि तुम्हारी भाभी तो एसयूवी छोड़ती ही नहीं.’’

मेरा छोटा भाई विदेश से आया तो अगले ही दिन बड़े चाव व शान से अपना मोबाइल कैमरा दिखाते हुए बोला, ‘‘दीदी, चलिए आपका वीडियो बना लूं. किंतु इस के लिए आप को थोड़ा ऐक्शन में होना पड़ेगा.’’

‘‘अरे, यहां ऐक्शन की क्या कमी है,’’ मैं शान से बोली, ‘‘चलो, मैं एसयूवी चलाती हूं, तुम वीडियो बना लेना.’’

भाई ने अचकचा कर देखा. उस समय अपनी धुन में मस्त मैं ने सोचा कि इतनी जल्दी एसयूवी चलानी सीख ली है, शायद इसीलिए हैरान हो रहा है. थोड़ी देर बाद मैं एक भड़कीला टौप व जींस पहन तैयार हो कर उंगली में चाबी का गुच्छा घुमाती हुई आ गई तो उस बेचारे के लिए वीडियो खींचने के अलावा और कोई चारा न रहा.

ओहो, कार को भी आज ही नखरा

दिखाना था. नई कार और ?ाटक?ाटक कर चले, वह भी वीडियो खिंचवाने के समय. खैर,

जैसेतैसे एक सुंदर मोड़ से धीरेधीरे एसयूवी चलाती हुई, मुसकराती हुई, कैमरे के आगे से निकली तो ऐसा लग रहा था जैसे किसी फिल्म की शूटिंग हो रही हो और मेरा पुराना सपना साकार हो गया हो.

मु?ो एसयूवी कंट्रोल करना आता है, इस प्रचार के लिए रिश्तेदारों से भी मिलने जाती. महिला क्लब जाना होता तो रास्ते में

6-7 सहेलियों को लेती जाती. कोई घर मिलने आता तो उसे मैट्रो स्टेशन तक एसयूवी में छोड़ने जरूर जाती.

एक दिन पतिदेव ने हिसाब लगा कर बताया कि डीजल के खर्चे के कारण घर का बजट डगमगाने लगा है और सुना है डीजल अभी और महंगा होने वाला है. बात तो बिलकुल ठीक थी, पर मेरी सहेलियों को क्या पता था. कहीं आनाजाना होता तो औपचारिकता को ताक में रख कर कह देतीं, ‘‘भई मनीषा, जाते समय हमें भी घर से लेती जाना.’’

अब तो आन का प्रश्न था, ले जाना पड़ता. वैसे भी अब मेरे पास सब से ज्यादा

गौसिप होतीं क्योंकि जब मेरे पास चाबी होती तो 6-7 नईपुरानी फ्रैंड्स अपनी कार छोड़ कर साथ चलने को तैयार हो जातीं.

20 मील की दूरी पर रहते एक दूर के रिश्तेदार के यहां शादी पर गए तो उन्होंने शिकायत की, ‘‘एसयूवी तुम्हारे पास है, फिर भी तुम कल दोपहर महिला संगीत पर नहीं पहुंचीं, कितनी बुरी बात है. हम तो सोच रहे थे कि तुम पीहू (होने वाली ब्राइड) को लहंगे सहित एसयूवी में तो लाओगी तो वह खिल उठेगी.’’

अब तो कार अधिक चलाने से पीठ अधिक दुखने लगती है. मुसीबत लगती है कि सुबह सारे काम छोड़ कर पूरी सोसायटी के बच्चों को स्कूल छोड़ने जाओ और दोपहर को आराम के समय उन्हें लेने जाओ. डीजल की महंगाई देखते हुए स्कूल बस ही ठीक रहेगी और मेरा सिरदर्द भी दूर होगा. बच्चों को भी मजा आता क्योंकि उन की कैब में एयरकंडीशनर तो था नहीं.

मेरी मौसी मेरे पास आईं तो बीमार पड़ गईं. अकसर डाक्टर के पास जाने को मु?ो ही एसयूवी के साथ हाजिर होना पड़ता क्योंकि उन के साथ उन की आया और मेरा मौसेरा भाई भी होता और फिर भला एसयूवी किसलिए सीखी थी. यदि ऐसे समय किसी की सेवा न कर सकी तो एसयूवी होेने का फायदा ही क्या. उबेर न ले लेते वे.

एक दिन सुबह पतिदेव ने फरमाया, ‘‘आज शाम किसी को जल्दी मिलने जाना है.

दफ्तर की बस से आते देर लग जाएगी, तुम एसयूवी ले कर शाम को दफ्तर पहुंच जाना.’’

वहां मेरी गाड़ी को पार्किंग ही नहीं मिली और पूरे 20 मिनट मैं इधरउधर भीड़ में उसे चलाती रही. छोटी गाडि़यां आराम से निकल भी रही थीं और पार्क भी हो रही थीं.

पैट्रोल और महंगा हो गया है. कहीं जाना हो तो पहला विचार यह आता है कि दूरी कितनी है, कितने का पैट्रोल फुंकेगा. क्या जाना इतना जरूरी है.

अब रिश्तेदार मिलने आते हैं 1-2 नहीं 4-5 आ जाते हैं. जब वे लौटने लगते हैं तो मुझे कहना पड़ता, ‘‘चलिए, मैट्रो स्टेशन तक मैं भी आप के साथ चलती हूं. मेरी भी सैर हो जाएगी. (चाहे धूप ही चमक रही हो.)’’

हालत यह है कि हम तो खाली पेट चल सकते हैं, पर एसयूवी को खाली पेट लाख धक्के मारिए, वहीं अड़ी रहेगी, गुर्राती रहेगी.

उस दिन दोपहर के भोजन पर 5-6 मेहमान आए. उन के जाने तक थक कर चूर हो चुकी थी, पर बच्चों की छुट्टी का समय हो रहा था, उन्हें लाना था. भरी दोपहरी में कार चला रही थी.

2-4 डैंट पड़ जाने के कारण उस में कुछ न कुछ खराबी का खटका भी लगा रहता है. कितनी सुखी थी मैं, जब मु?ो एसयूवी चलानी नहीं आती थी और आई-10 ही ठीक थी.

तभी तेजी से एक उबेर गुजरी, जिस में एक महिला बैठी थी. मु?ो लगा, क्या रानियों की तरह ठाट से पीछे बैठी है. न कार की खराबी का खटका, न पैट्रोल की सूई का ध्यान. मु?ो अब वह महिला अधिक आधुनिक, शांत व स्मार्ट लग रही थी.

Love Story : हमारा कालेज – क्या पुनीत की हुई स्नेहा

Love Story : पुनीतअग्रवाल आज अपनी बीए प्रथम वर्ष की परीक्षा के बाद पहली बार अपने डिग्री कालेज गया था. वह बीए द्वितीय वर्ष में पहुंच चुका था. पुनीत बहुत ही मिलनसार और व्यवहारिक छात्र था. अपने कालेज में वह सबसे तेज था. पढ़ने में और खेलने में उसका शानी नहीं था. उसी दिन उसी के कालेज में उस दिन प्रोफेसरों/टीचरों की 26 जनवरी के संबंध में एक बैठक प्रिंसिपल साहब ने बुलाई थी. उसमें कुछ होशियार बच्चों को भी बुलाया गया था जिनमें पुनीत का भी नाम था.

लगभग 2 बजे आहूत किए गए लड़कों ने पुनीत के साथ ही कालेज के मीटिंग हाल में प्रवेश किया. सभी अध्यापकगण भी धीरेधीरे आ गए और 26 जनवरी को भव्य तरीके से मनाने की बात प्रिंसिपल को बताकर उस पर चर्चा की. कई अध्यापकों ने अपनेअपने मन्तक दिए. प्रिंसिपल साहब ने पुनीत का नाम लेकर कहा कि पुनीत बेटा तुम भी अपनी राय दो. पुनीत ने खड़े होकर कहा कि इस बार सर ?ांडा अवरोहण के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम पहले कराया जाए फिर लोग उस के बाद अपनी कविताएं एवं वक्तव्य दें.

वहां कई लड़कियों को भी बैठक में आहूत किया गया था जिनमें स्नेहा अग्रवाल जो बीए प्रथम वर्ष की छात्रा थी उसको उसकी बीए द्वितीय वर्ष की सहेलियां अपने साथ लेकर लाई थीं. सभी से स्नेहा का परिचय कराया गया और उसे भी अपनी राय गणतंत्र दिवस के मौके पर कार्यक्रम के लिए देने को कहा गया. स्नेहा भी तेजतर्रार मेधावी छात्रा थी. उसने इंटर कालेज में प्रथम और अपने कालेज में टौप किया था तथा वह संगीत व नृत्य की भी छात्रा थी. उसने कहा कि सर ठीक है. हम लोग भी एक सांस्कृतिक कार्यक्रम 26 जनवरी पर प्रस्तुत करेंगे.

बात तय हो गई और सभी उपस्थितजनों का आभार प्रिंसिपल साहब ने कह कर कहा कि अभी एक माह है आप लोग तैयारी प्रारम्भ कर दें. कालेज की पढ़ाई भी प्रारम्भ हो चुकी थी और संगीत की क्लास भी चलने लगी थी. स्नेहा ने पहली बार संगीत की क्लास में एक बहुत ही सुंदर गीत प्रस्तुत कर संगीत की टीचर का मन मोह लिया. उनकी क्लास जब समाप्त हुई तो लड़कियां बाहर निकलने लगीं.

स्नेहा जैसे ही बाहर निकली, पुनीत अपने मित्रों के साथ सामने आ गया. स्नेहा ने नमस्ते की तो पुनीत ने पूछा आप बीए प्रथम वर्ष में हैं क्या? स्नेहा ने हां में अपना सिर हिला दिया और मुड़कर अपनी सहेलियों के साथ चली गई. स्नेहा बहुत खूबसूरत थी और पढ़ने में भी बहुत तेज थी. थोड़ी दूर अपनी सहेलियों के साथ आगे बढ़ कर स्नेहा ने ऐसे ही पलटकर एक बार पुनीत को देखना चाहा तो जैसे ही वह पलटी देखा पुनीत मुड़ कर उसे ही देख रहा था, अचानक उसे अपनी तरफ देखते हुए स्नेहा हड़बड़ा गई और आगे की तरफ गिरतेगिरते बची. सहेलियों ने क्या हुआ कहते हुए उसे संभाला.

धीरेधीरे पुनीत और स्नेहा की मुलाकात लगभग रोजाना ही कालेज में जाती थी और कुछ वार्त्तालाप भी हो जाया करता था. अकसर दोनों की मुलाकात कालेज लाइब्रेरी में हो जाया करती. आखिर दोनों ही पढ़ने में मेधावी थे. स्नेहा ने भी पुनीत के बारे में पता लगाया तो उसे मालूम हुआ कि पढ़ाई में पुनीत भी बहुत तेज है और अपने कालेज की वौलीबाल टीम का कैप्टन भी है तथा बैडमिंटन भी बहुत अच्छा खेलता है. स्नेहा भी बैडमिंटन प्लेयर थी. कभीकभी स्नेहा भी बैडमिंटन फील्ड पर चली जाती थी.

एक दिन स्नेहा को बैडमिंटन फील्ड में खड़े होकर मैच देखते हुए पुनीत ने देखा जो बैडमिंटन फील्ड में अपने दोस्तों के साथ बैडमिंटन खेल रहा था, तो खेल छोड़कर स्नेहा के पास आ गया. आते ही स्नेहा से पुनीत ने पूछ ही लिया कि स्नेहाजी आप भी बैडमिंटन खेलती हैं क्या?

स्नेहा ने हां में जबाव दिया तो पुनीत के आश्चर्य का ठिकाना न रहा. उसने कहा कि अरे वाह यह तो बहुत अच्छा है पढ़ाई के साथसाथ खेल में भी रुचि गुड और मुसकराते हुए उसे भी एक राकेट थमा दिया. अब सिंगल प्लेयर के रूप में दोनों खेलने लगे. स्नेहा का गेम देखकर पुनीत सम?ा गया कि स्नेहा भी बैडमिंटन की बारीकियां व नियम जानती है. उस दिन स्नेहा का पहला दिन था, अपने नए कालेज में गेम के मैदान में, जिससे वह थोड़ी नर्वस थी. पुनीत ने तीसरा गेम भी जीत लिया.

दूसरा स्नेहा ने जीता था. पहला और तीसरा गेम जीतने के कारण पुनीत को विजयी घोषित किया गया. स्नेहा ने भी उन्हें शाबासी दी और चली गई. 26 जनवरी करीब आ गयी थी. आज 23 जनवरी थी. सांस्कृतिक कार्यक्रम की तैयारी पूर्णरूप से स्नेहा के ऊपर थी. उस दिन उसने लगभग 7 लड़कियों के साथ मिलकर अपना प्रदर्शन संगीत टीचर के सामने बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया. उधर पुनीत ने अपने दोस्तों को 26 जनवरी पर एक अच्छाखासा भाषण क्लास में दिया जिस पर खूब तालियां बजीं और दोतीन दोस्तों ने भी अपनाअपना भाषण तैयार कर लिया था.

इसी बीच कक्षा में प्रोफेसर मिश्राजी का आगमन हुआ. किसी को याद ही नहीं रहा कि यह पीरियड प्रोफेसर मिश्राजी का है. सभी उनको देखते ही अपनीअपनी जगह पर बैठ गए. आधी क्लास होने के बाद सबने अपनेअपने भाषण का प्रदर्शन अपने प्रोफेसर साहब के सामने किया.

प्रोफेसर मिश्राजी ने सभी को बधाईयां दी. आज शाम को दोपहर बाद कालेज में वौलीबाल का मैच होना था. सभी विद्यार्थी धीरेधीरे वौलीबाल का मैच देखने के लिए मैदान में एकत्रित होने लगे. पुनीत भी सभी लड़कों के साथ बौलीबाल मैदान में पहुंच गया. बरसात लगभग समाप्त हो चुकी थी इसलिए फील्ड पर दूरदूर तक कहीं पानी नहीं भरा था. सभी खिलाड़ी कपड़े उतार कर हाफ पैंट और बनियान में फील्ड पर उतर गए. दोनों तरफ से 6-6 लड़के अपनीअपनी टीम घोषित कर खड़े हो गए. एम.ए. के छात्र रामनगीना सिंह ने सीटी लेकर पोल की बगल में खड़ा होकर सीटी बजाई.

इतने में स्नेहा भी अपनी सहेलियों के साथ गेम देखने आ गई. पुनीत से आंखों ही आंखों में नमस्ते हुई और फिर वह सीमेंट की बनी बेंच पर बैठ गई. गेम प्रारंभ हो गया. दोनों टीमों के खिलाड़ी बड़ी मेहनत से खेल रहे थे. मौका मिलते ही पुनीत स्नेहा की तरफ देख लेता था. तीन गेम हुए जिनमें एक वीरेंद्र सिंह की टीम जीती और 2 गेम पुनीत की टीम ने जीत लिए. बाहर निकल कर सभी छात्र अपनेअपने कपड़े पहनने लगे. पुनीत के कपड़े उसी बेंच पर रखे थे जहां स्नेहा बैठी थी. उस की सहेलियां जा चुकी थीं, मगर स्नेहा अब भी वहीं बैठी थी.

पुनीत को बिना शर्ट के अपनी तरफ आता देखकर स्नेहा लजा गई. उसे नहीं पता था कि जिस बेंच पर वह बैठी है उसी पर पुनीत के कपड़े रखे हैं. पुनीत ने पास आकर कपड़ों की तरफ इशारा किया और फिर बेंच पर रखे अपने कपड़े उठाकर पहनने लगा. पुनीत ने कपड़े पहन कर  स्नेहा से चलने को कहा. दोनों बात करतेकरते हुए कालेज के गेट के करीब आ गए और वहां से अपनेअपने घर की तरफ रवाना हो गए.

आज मौसम में ठंडक थी. धूप नहीं निकली थी. ज्यादा विद्यार्थी कालेज में नहीं दिखाई दे रहे थे. कक्षाएं भी कम लगीं. पुनीत आज अकेला था.

उधर से स्नेहा भी आज अकेली ही आ रही थी. दोनों ने एकदूसरे को देखा तो पता चला कि दोनों की ही कक्षाएं नहीं हैं. दोनों बात करते हुए कालेज की कैंटीन में चाय पीने आ गए. पुनीत ने स्नेहा से उस के घर का हालचाल पूछा और घर में कितने मेम्बर हैं आदि की जानकारी लेने लगा.

स्नेहा ने बताया कि मेरे मांपिताजी के अलावा एक छोटा भाई और एक छोटी बहन और है. इस प्रकार सब 5 लोग घर में रहते हैं और उन की कपड़ों की चौक में बहुत बड़ी दुकान विजय वस्त्रालय के नाम से है.

पुनीत ने बताया कि आप की दुकान से ही हम लोगों के यहां कपड़े खरीदे जाते हैं. दुकान के ऊपर ही स्नेहा का घर भी बना था जहां वह रहती थी. पुनीत के पिता भी एजी आफिस में सेक्सन औफिसर थे. यह जानकर स्नेहा को बड़ी खुशी हुई और पुनीत के भाईबहनों के बारे में पूछा तो पुनीत ने बताया कि एक छोटा भाई व एक छोटी बहन और हैं जो जूनियर हाई स्कूल की छात्रा व छात्र हैं.

पुनीत और स्नेहा दोनों एक ही जाति के थे यानी दोनों अग्रवाल फैमिली से थे इसलिए उनमें और ज्यादा घनिष्ठता से बात होने लगी. पुनीत कैंटीन की पेमेंट कर स्नेहा के साथ ही घर चल दिया क्योंकि दोनों के घर में आधा किलोमीटर का ही अंतर था. पहले स्नेहा का घर था बाद में पुनीत का. स्नेहा का घर आ गया था. स्नेहा की दुकान की बगल से ही ऊपर जाने की सीढि़यां बनी थीं.

स्नेहा ने पुनीत को मां से मिलवाने का आफर दिया तो पुनीत इनकार न कर सका और स्नेहा के साथ वह भी ऊपर चला गया. ऊपर पहुंचते ही स्नेहा ने पुनीत का परिचय अपने कालेज के मेधावी छात्र के रूप में कराया.

स्नेहा की मां ने पुनीत की काफी अवभगत की और चायनाश्ता बड़े चाव से कराया. उस के बाद स्नेहा की मां ने पुनीत से उस के पिताजी एवं माताजी का नाम पूछा. जब पुनीत ने पिताजी व माताजी का नाम बताया तो स्नेहा की मां ने कहा कि आपकी मां तो समाजसेविका हैं, मैं उन्हें बहुत दिनों से जानती हूं और आपके पिताजी एजी औफिस में औफिसर हैं व वसंत पंचमी भी कुछ दिन बाद आने होने वाली थी तो स्नेहा की मां ने कहां कि मैं वसंत पंचमी वाले दिन आपके घर आऊंगी. आप अपनी मां को बता देना. पुनीत ने उन के पैर छुए और स्नेहा के साथ नीचे सड़क पर आ गया. पुनीत ने स्नेहा से कहा कि मां के साथ आप भी आना. उस दिन रविवार रहेगा. स्नेहा ने कहा ठीक है और फिर पुनीत पैदल ही घर के लिए चल पड़ा.

26 जनवरी को सुबह 7 बजे ही पुनीत और स्नेहा कालेज पहुंच गए. सुबह 9 बजे ?ांडा फहराया गया और फिर सब हाल में आ गए. हाल काफी बड़ा था. सारी कुर्सियां भर गई थीं पहले सांस्कृतिक कार्यक्रम आरंभ हुआ. स्नेहा व उसकी सहेलियों ने बहुत सुंदर देशभक्ति का गीत सुनाया. उस के पश्चात भाषणबाजी का कार्यक्रम आरम्भ हुआ. पुनीत ने बहुत सुन्दर और अद्भुत भाषण गणतंत्र दिवस पर दिया जिसके लिए उसे भी प्रतीकचिह्न से सम्मानित किया गया. तदोपरान्त वौलीबाल का मैच प्रारम्भ हुआ और पुनीत की टीम ने लगातार तीनों मैच जीते.

सभी प्रतिभागियों को प्रिंसिपल साहब ने शाबाशी दी और प्रतीकचिह्न देकर सम्मानित किया. इस प्रकार 26 जनवरी का दिन बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया गया. दोपहर बाद कालेज की छुट्टी हो गई. सभी अध्यापक व बच्चे अपनेअपने घर चले गए. पुनीत और स्नेहा भी पैदल साथसाथ घर चल पड़े.

रास्ते में स्नेहा ने पुनीत से कहा कि बहुत अच्छा कालेज है और प्रिंसिपल साहब व अध्यापकगण बहुत ही अच्छा व्यवहार छात्रछात्राओं से करते हैं. पुनीत ने कहा कि हमारा कालेज प्रदेश का एक अच्छा कालेज माना जाता है. स्नेहा ने घर पहुंच कर पुनीत से कहा कि आओ चाय पीकर चले जाना, लेकिन काफी देर हो गई थी तो पुनीत ने कहा कि फिर कभी और अपने घर चला गया. पुनीत रास्ते में सोचता हुआ जा रहा था.

उसे स्नेहा का गीत बहुत मधुर लगा था. कहीं न कहीं पुनीत स्नेहा को मन ही मन चाहने लगा था क्योंकि उसकी नजर में स्नेहा एक मेधावी छात्रा के साथसाथ बहुत ही सुल?ो विचारों की भी थी.

आज रविवार का दिन था यानी वसंत पंचमी का. सभी अपने कार्यों में व्यस्त थे. लगभग 11 बजे स्नेहा अपनी मां के साथ पुनीत के घर आ गई. गेट पर घंटी बजी तो पुनीत के छोटे भाई ने गेट खोला और उन्हें हाल में ले गया. पुनीत की मां ने आकर प्रसन्नतापूर्वक नमस्कार किया और हालचाल पूछने के साथ अपनी बेटी को चायपानी आदि लाने को कहा.

स्नेहा ने बड़े आदर के साथ पुनीत की मां के पैर छूकर आशीर्वाद लिया. थोड़ी देर में पुनीत भी हाल में आ गया. न चाहते हुए भी पुनीत की नजर स्नेहा पर से हट नहीं रही थी. आज स्नेहा बहुत सुंदर लग रही थी. पीले सलवार सूट में थोड़ी देर बाद पुनीत की मां ने पुनीत से कहा स्नेहा को अपने कमरे में ले जाओ, घर आदि दिखाओ. स्नेहा पुनीत के साथ चली गई.

इधर बातचीत के दौरान स्नेहा की मां ने हाथ जोड़ कर कहा कि बहनजी हम लोग बहुत दिनों से एकदूसरे को जानते है एकदूसरे की सहेलियां हैं, अब हम चाहते हैं कि यह रिश्ता संबंधी बन कर निभाया जाए. मैं आपनी बिटिया स्नेहा की शादी आपके पुनीत बेटे के साथ करना चाहती हूं.

इतने में पुनीत के पिताजी भी हाल में आ गए और नमस्ते करने के बाद वे भी बैठकर उन लोगों के साथ चाय पीने लगे. पुनीत की मां ने उस के पिता को स्नेहा की मां की मंशा बताई तो वे यह बात सुनकर बहुत खुश हुए क्योंकि वे भी पुनीत के लिए एक सुंदरसुशील पढ़ीलिखी लड़की ढूंढ़ रहे थे. स्नेहा को पहले भी अपने मुहल्ले में देखा था. पुनीत की मां की बात सुनकर तो तुरंत ही हां कर दी और हाथ जोड़कर स्नेहा की मां की तरफ देखते हुए बोले कि बहनजी हमें अपने बेटे पुनीत के लिए आपकी स्नेहा जैसी ही बहू चाहिए थी. हमें यह रिश्ता मंजूर है.

बात हो रही थी कि पुनीत और स्नेहा भी कमरे में आ गए और कमरे में आते समय उन लोगों ने शादी की बात सुन ली थी दोनों ने एकदूसरे की तरफ देखा स्नेहा मानो शर्म से लाल हो गयी. दोनों ने भी एकदूसरे को अपनी रजामंदी दे दी और एकदूसरे को देखकर मुसकरा दिए.

नवरात्रि में ही परीक्षा आदि की कार्यवाही पूर्ण कर ली गई और नवंबर में दोनों की शादी भी धूमधाम से संपन्न हो गई. पुनीत और स्नेहा की इस प्यार भरी शादी में उन के कालेज के सभी दोस्त, अध्यापकगण, प्रोफेसर सर आदि सभी सम्मिलित हुए. पुनीत और स्नेहा वरवधू के रूप में बहुत ही ज्यादा खूबसूरत लग रहे थे. दोनों बहुत खुश थे. उन की इसी खुशी को देखते हुए वहां एकत्रित कालेज के सभी लोगों के बीच में से प्रोफेसर मिश्रा सर ने कहा कि किसी भी कालेज को आदर्श कालेज बनाने में छात्रछात्राओं का बहुत बड़ा योगदान होता है.

उन की इस बात को सुनकर पुनीत और स्नेहा एकसाथ बोल पड़े कि सर हमारा कालेज है ही अच्छा, जहां इतने अच्छे लोग मिलते हैं. कहते हुए पुनीत ने मुसकरा कर स्नेहा की तरफ देखा. उस की इस बात पर वहां उपस्थित सभी लोग हंस पड़े. स्नेहा भी मंदमंद मुसकरा उठी.

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