Family Story in Hindi: हरिराम- क्या बच पाई शशांक की गहस्थी?

Family Story in Hindi: शशांक अपने आफिस में काम कर रहा था कि चपरासी ने आ कर कहा, ‘‘साहब, आप को बनर्जी बाबू याद कर रहे हैं.’’

उत्पल बनर्जी कंपनी के निदेशक थे. पीठ पीछे उन्हें सभी बंगाली बाबू कह कर संबोधित करते थे. कंपनी विद्युत संयंत्रों की आपूर्ति, स्थापना और रखरखाव का काम करती थी. कंपनी के अलगअलग प्रांतों में विद्युत निगमों के साथ प्रोजेक्ट थे. शशांक इस कंपनी में मैनेजर था.

‘‘यस सर,’’ शशांक ने बनर्जी साहब के कमरे में जा कर कहा.

‘‘आओ शशांक,’’ इतना कह कर उन्होंने उसे बैठने का इशारा किया.

शशांक के दिमाग में खतरे की घंटी बज उठी. उसे लगा कि उस की हालत उस बकरे जैसी है जिसे पूरी तरह सजासंवार दिया गया है और बस, गर्दन काटने के लिए ले जाना बाकी है. शशांक ने अपने चेहरे पर कोई भाव नहीं आने दिया और चुपचाप कुरसी पर बैठ गया.

‘‘तुम्हारा फरीदाबाद का प्रोजेक्ट कैसा चल रहा है?’’

‘‘सर, बहुत अच्छा चल रहा है. निर्धारित समय पर काम हो रहा है और भुगतान भी ठीक समय से हो रहा है.’’

‘‘बहुत अच्छा है. मुझे तुम से यही उम्मीद थी, पर मैं तुम्हें ऐसा काम देना चाहता हूं जो सिर्फ तुम ही कर सकते हो.’’

शशांक चुपचाप बैठा अपने निदेशक मि. बनर्जी को देखता रहा. उसे लगा कि बस, गर्दन पर तलवार गिरने वाली है.

‘‘शशांक, तुम्हें तो पता है कि लखनऊ वाले प्रोजेक्ट में कंपनी की बदनामी हो रही है. भुगतान बंद हो चुका है. हमें पैसा वापस करने का नोटिस भी मिल चुका है. मैं चाहता हूं कि तुम वह काम देखो.’’

‘‘लेकिन वह काम तो जतिन गांगुली देख रहे हैं,’’ शशांक ने कहा.

‘‘मैं ने फैसला किया है कि अब कंपनी के हित में लखनऊ का प्रोजेक्ट तुम देखोगे और जतिन गांगुली फरीदाबाद का प्रोजेक्ट संभालेगा.’’

शशांक की इच्छा हुई कि कह दे कि उस के साथ इसलिए ज्यादती हो रही है क्योंकि वह बंगाली नहीं है. उस ने सोचा कि कंपनी अध्यक्ष से जा कर मिले पर उसे याद आया कि कंपनी अध्यक्ष सेनगुप्ता साहब भी बंगाली हैं. वह भी बंगाली का ही साथ देंगे.

शशांक अपने केबिन में जाने से पहले अपनी सहकर्मी वंदना के केबिन पर रुका.

‘‘वंदना, चलो काफी पीते हैं. मुझे तुम से कुछ पर्सनल बात करनी है.’’

काफी पीतेपीते शशांक ने उसे सारी बात बता दी.

‘‘अगले 3 माह में प्रमोशन के लिए निर्णय लिए जाएंगे. यह मामला जतिन गांगुली के प्रमोशन का है. लखनऊ प्रोजेक्ट की जो उस ने हालत की है, उस से प्रमोशन तो दूर उसे कंपनी से निकाल देना चाहिए,’’ वंदना ने कहा.

‘‘क्या मैं सेनगुप्ता साहब से मिलूं?’’

‘‘नहीं, उस से फायदा नहीं होगा. तुम्हें लखनऊ जाना पडे़गा पर फरीदाबाद प्रोजेक्ट की फाइलों की सूची बना कर, आज की स्थिति की रिपोर्र्ट बना कर तुम जतिन गांगुली के दस्तखत ले लेना और उस की कापी सेनगुप्ता साहब को भेज देना. प्रोजेक्ट में गड़बड़ होने पर वे लोग तुम्हें दोष दे सकते हैं,’’ वंदना ने सुझाव दिया.

कुछ समय तक दोनों के बीच खामोशी छाई रही.

‘‘शशांक, तुम से एक बात पूछना चाहती हूं. मुझे दोस्त समझ कर सचसच बताना,’’ वंदना बोली.

‘‘क्या बात है?’’

‘‘कहीं तुम्हारे और तुम्हारी पत्नी सरिता के बीच तनाव तो नहीं?’’

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’

‘‘पिछले हफ्ते तुम फरीदाबाद प्रोजेक्ट की मीटिंग में थे तब शाम को 8 बजे सरिता का फोन मेरे घर पर आया था. तुम्हारे बारे में पूछ रही थी.’’

शशांक को अपनी पत्नी पर क्रोध आ गया. पर उस ने कहा, ‘‘उस दिन मैं उसे बताना भूल गया था. इसलिए वह परेशान होगी.’’

‘‘शशांक, प्रोजेक्ट और प्रमोशन के बीच में अपने परिवार को मत भूलो,’’ वंदना ने गंभीरता से कहा.

‘‘आज कोई मीटिंग नहीं थी क्या? जल्दी आ गए,’’ सरिता ने शशांक के घर पहुंचने पर व्यंग्य भरे लहजे में पूछा.

शशांक के मन में क्रोध भरा हुआ था. वह बिना जवाब दिए अपने कमरे में चला गया.

‘‘मुझे लखनऊ वाले प्रोजेक्ट पर काम दिया गया है. कल ही मैं 1 सप्ताह के लिए लखनऊ जा रहा  हूं,’’ उस     ने रात को खाना खाते हुए सरिता से कहा.

‘‘अकेले जा रहे हो? क्या तुम्हारी प्यारी दोस्त वंदना नहीं जा रही है?’’

शशांक को लगा कि उस के संयम की सीमा पार हो चुकी है और वह अभी सरिता के गाल पर तमाचा लगा देगा. पर वह आग्नेय नेत्रों से सरिता को देख कर आधा खाना खा कर ही उठ गया.

दूसरे दिन लखनऊ पहुंच कर शशांक कंपनी के अतिथिगृह में ठहरा, जहां उस की  मुलाकात अतिथिगृह के प्रभारी हरिराम से हुई.

‘‘नमस्ते साहब,’’ हरिराम ने हाथ जोड़ कर कहा.

शशांक ने अनुमान लगाया कि हरिराम की उम्र करीब 50-55 की होगी. हट्टाकट्टा शरीर पर साफ कुरता- पायजामा, ठीक  से संवारे गए सफेद बाल, दाढ़ीमूंछ साफ, करीब 5 फुट 8 इंच ऊंचाई लिए हरिराम आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक लग रहा था.

कमरे में जा कर शशांक ने लखनऊ पहुंचने पर सरिता को फोन किया.

रात को खाना खातेखाते शशांक ने हरिराम से उस के बारे में पूछा.

‘‘साहब, मेरे पिता इस अतिथिगृह में थे. मैं बचपन से उन की सहायता करता था. बीच में 10 साल के लिए मुंबई गया था, एक कारखाने में काम करने. पिता की अचानक मृत्यु हो गई. मां अकेली थीं, इसलिए मुंबई छोड़ कर लखनऊ आना पड़ा. पिछले 10 साल से इसी अतिथिगृह में आप सब की सेवा कर रहा हूं.’’

‘‘तुम्हारे परिवार में कौनकौन हैं?’’

‘‘बस, मैं अकेला हूं,’’ कह कर वह दूसरे कमरे में चला गया. शायद वह इस बारे में बात नहीं करना चाहता था.

दूसरे दिन शशांक प्रोेजेक्ट आफिस गया तो उसे चारों ओर से अपनी कंपनी की आलोचना ही सुनने को मिली. उत्तर प्रदेश विद्युत निगम के अधिकारियों ने एक ही बात की रट लगाई कि पैसा वापस करो और दफा हो जाओ यहां से. उस की कंपनी के ज्यादातर कर्मचारी नदारद थे.

लज्जित शशांक गुस्से से भरा शाम को अतिथिगृह वापस लौटा. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि स्थिति से कैसे निबटा जाए. उसे कुछ समय के लिए सब से विरक्ति सी हुई. उस का मन किया कि कंपनी को त्यागपत्र भेज कर, दूर पहाड़ों में चला जाए.

खाना खा कर वह टहलने के लिए निकल पड़ा. 1 घंटे के बाद वापस आ कर सोने की तैयारी करने लगा. एकाएक उसे खयाल आया कि उस का पर्स जिस में करीब 5 हजार रुपए थे, गायब है. उस ने अपनी पैंट की जेब, बाथरूम आदि में ढूंढ़ा पर पर्स नहीं मिला.

उस ने सोचा कि कहीं यह करामात हरिराम ने तो नहीं कर दिखाई.

शशांक ने हरिराम को बुला कर बहुत डांटा, धमकाया और पर्स वापस करने के लिए कहा.

हरिराम चुपचाप खड़ा रहा. उस की आंखों में आंसू आ गए. वह कुछ नहीं बोला.

‘‘मैं तुम्हें सुबह तक का समय देता हूं. यदि तुम ने मेरा पर्स वापस नहीं किया तो मैं तुम्हें पुलिस के हवाले कर दूंगा.’’

शशांक रात को अपने कमरे में बैठा काफी देर तक सोचता रहा कि इस नई समस्या से कैसे निबटा जाए. सोने के लिए लेटा तो उसे तकिया टेढ़ामेढ़ा लगा. तकिया उठाया तो उस के नीचे पर्र्स था. शशांक को याद आया कि उस ने इस डर से पर्स तकिए के नीचे छिपा दिया था कि कहीं हरिराम उसे चुरा न ले.

शशांक को खुद पर शर्म महसूस हुई. वह हरिराम के कमरे में गया और उसे अपने कमरे में बुला कर लाया. शशांक ने हरिराम को बताया कि वह किस परेशानी में यहां आया था. किस तरह वह क्षेत्रवाद, भाषावाद का शिकार हो रहा है. इसी परेशानी में उस से यह अपराध हो गया, जिस के लिए वह शर्मिंदा है.

‘‘साहब, यह बडे़ दुख की बात है कि हम पहले हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई, बंगाली, मराठी आदि हैं और बाद में भारतीय. इस सोच ने हमारे देश की प्रगति में बहुत बड़ी बाधा डाली हुई है.’’

शशांक को किसी हिंदू से बाबरी मसजिद के बारे में यह विचार सुन कर आश्चर्य हुआ. उसे लगा कि उस के सामने एक सच्चा भारतीय खड़ा है.

‘‘पर क्या किया जा सकता है, हरिराम?’’ उस के मुंह से निकला.

‘‘क्या आप कर्म पर विश्वास करते हैं?’’

‘‘हां, बिलकुल.’’

‘‘आप यह क्यों नहीं सोचते कि इस लखनऊ वाले प्रोजेक्ट ने आप को अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने का अवसर दिया है? उत्तर प्रदेश विद्युत निगम के अधिकारी हमारी कंपनी के शत्रु नहीं हैं. आप को उन की समस्याओं का समाधान करना चाहिए.’’

‘‘हरिराम, तुम ठीक कहते हो. अब रात बहुत हो गई है, थोड़ा सो लेते हैं.’’

अगले दिन शशांक ने अपनी कंपनी के कर्मचारियों से मिल कर भविष्य की कार्यप्रणाली तय की. इस के बाद उस ने उत्तर प्रदेश विद्युत निगम के अध्यक्ष से मिल कर 3 महीने का समय मांग लिया और उन्हें यह आश्वासन भी दिया कि वह लखनऊ से बाहर नहीं जाएगा.

शशांक सुबह नाश्ते के बाद प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए रवाना हो जाता था और रात को काफी देर के बाद वापस आता था. इस से कंपनी के कर्मचारियों में नई जान आ गई.

एक दिन शशांक रात को आया तो अतिथिगृह में ताला लगा था. वह पास के बगीचे में टहलने के लिए चला गया. वहीं उसे हरिराम अकेले एक बैंच पर सिर झुकाए बैठा मिल गया.

‘‘हरिराम, तुम यहां क्या कर रहे हो?’’

हरिराम ने उसे देखा और फिर यह कहते हुए कि आओ, शशांक बाबू, बैठो, उस ने शशांक का हाथ पकड़ कर अपने पास बिठा दिया.

शशांक ने हरिराम के मुंह से शराब की गंध महसूस की.

‘‘जानते हो यह कौन है?’’ हरिराम ने शशांक को एक तसवीर दिखाते हुए कहा.

शशांक ने देखा, तसवीर में एक महिला, 4-5 साल के बच्चे के साथ थी.

‘‘यह सीता है, मेरी पत्नी और यह रमेश है, मेरा बेटा. मैं मुंबई में काम करता था. अपनी सीता पर शक करता था. रोज उसे पीटता था. वह बेचारी कब तक जुल्म सहती. एक दिन मुझे छोड़ कर बेटे के साथ कहीं चली गई,’’ कह कर हरिराम ने सिर झुका लिया.

‘‘तुम ने उन्हें ढूंढ़ने की कोशिश नहीं की?’’

‘‘बहुत ढूंढ़ा, बहुत खोजा पर कहीं पता नहीं चला. आज आप की मेमसाहब का फोन आया था. परिवार के बिना जिंदगी गुजारना बहुत कठिन है साहब. इस का दर्द मैं जानता हूं,’’ कह कर वह फूटफूट कर रोने लगा.

दूसरे दिन सुबह नाश्ते के समय हरिराम ने संकोच के साथ कहा, ‘‘साहब, कल नशे में कुछ गुस्ताखी हो गई हो तो माफ कीजिएगा.’’

दिन भर शशांक, हरिराम और अपनी जिंदगी के बारे में सोचता रहा. उस का और सरिता का कालिज का 3 साल तक प्यार, एक परिवार का सपना, विवाह, उस का काम में व्यस्त होना, कंपनी में प्रमोशन के लिए भागदौड़, सरिता की शिकायतें, अहं का टकराव फिर लड़ाई, उस का तंग आ कर सरिता पर हाथ उठाना, सरिता की आत्महत्या की धमकी, हमेशा एक तनाव भरी जिंदगी जीना.

‘नहीं, हमारी पे्रम कहानी का यह अंत नहीं होना चाहिए,’ शशांक के अंतर्मन से यह आवाज निकली और शाम को उस ने सरिता को फोन किया.

‘‘हेलो,’’ फोन सरिता ने उठाया था.

‘‘हेलो, क्या कर रही हो?’’ शशांक ने नम्र स्वर में पूछा.

‘‘यों ही बैठी हूं.’’

‘‘सरिता, मैं तुम से एक बात कहना चाहता हूं. मैं यहां लखनऊ में तुम्हारे बिना बहुत अकेला महसूस कर रहा हूं.’’

एक क्षण को सरिता के मन में आया कि बोले वंदना को बुला लो, पर दूसरे क्षण उस का अपनेआप पर नियंत्रण न रहा और वह फूटफूट कर रो पड़ी.

शशांक की आंखों में भी आंसू आ गए.

‘‘सरु, क्या तुम यहां आ सकती हो?’’

‘‘मैं कल ही पहुंच रही हूं, शशांक,’’ सरिता ने रोतेरोते कहा.

शशांक दूसरे दिन शाम को कमरे में दाखिल हुआ तो सरिता उस का इंतजार कर रही थी.

‘‘शशांक, मुझे माफ कर दो.’’

शशांक ने सरिता को गले से लगा लिया.

‘‘गलती मेरी ज्यादा है. मैं काम के जनून में तुम्हें नजरअंदाज करने लगा था. मैं ने तुम्हें बहुत दुख दिया है न सरू ?’’

रात को खाना खाने के बाद हरिराम ने सरिता से कहा, ‘‘मेमसाहब, आप के आने से साहब बहुत खुश हैं. इन्होंने आज 2 रोटियां ज्यादा खाई हैं,’’ फिर उस ने शशांक से कहा, ‘‘साहब, कल छुट्टी है. आप मेमसाहब को बड़ा इमामबाड़ा, बारादरी, गोमती नदी का किनारा आदि जगह घुमा कर लाइए. हां, शाम को अमीनाबाद से इन के लिए चिकन की साड़ी खरीदना मत भूलिएगा.’’

दूसरे दिन इमामबाड़ा की भूलभुलैया में दोनों एकदूसरे का हाथ पकड़ कर रास्ता खोजते रहे. शशांक और सरिता को लगा कि उन के कालिज के दिन लौट आए हैं.

शाम को गोमती के किनारे बने पार्क में बैठेबैठे सरिता ने शशांक के कंधे पर सिर रख दिया और आंखें बंद कर लीं.

‘‘सरू, तुम्हें पता है, मुझ में आए इस बदलाव का जिम्मेदार कौन है…इस का जिम्मेदार हरिराम है,’’ उस ने सरिता के बालों को सहलाते हुए उस शाम की घटना बता दी.

शशांक दूसरे दिन प्रोजेक्ट पर पहुंचा तो वह खुद को बहुत हलका महसूस कर रहा था. उस ने पाया कि उस में कुछ कर दिखाने की इच्छाशक्ति पहले से दोगुनी हो गई है.

इधर सरिता ने हरिराम के कमरे में जा कर कहा, ‘‘काका, आप के कारण मेरी खोई हुई गृहस्थी, मेरा परिवार मुझे वापस मिला है. मैं आप की जिंदगी भर ऋणी रहूंगी. मैं अब आप को काका कह कर बुलाऊंगी.’’

हरिराम ने भावुक हो कर सरिता के सिर पर हाथ फेरा.

‘‘काका, अब मैं यहीं रहूंगी और खाना मैं बनाऊंगी आप आराम करना.’’

‘‘नहीं बिटिया, मेरा काम मत छीनो. हां, अपनेआप को व्यस्त रखो और कुछ नया करना सीखो.’’

सरिता ने चित्रकला सीखनी शुरू कर दी. शशांक के प्रयासों से लखनऊ प्रोजेक्ट में पहले धीमी और फिर तेज प्रगति होने लगी. उत्तर प्रदेश विद्युत निगम ने कंपनी को भुगतान शुरू कर दिया. यही नहीं, उस प्रोजेक्ट के विस्तार का काम भी उस की कंपनी को मिल गया.

1 माह के बाद सरिता ने हरिराम से कहा, ‘‘काका, आप के कारण मुझे अपनी गलतियों का एहसास हो रहा है. मैं दिल्ली में बिलकुल खाली रहती थी. इस कारण मेरा दिमाग गलत विचारों का कारखाना बन गया था. बजाय शशांक की परेशानी समझने के मैं अपने पति पर शक करने लगी थी.’’

हरिराम के लाख मना करने पर भी सरिता ने उस का एक बड़ा चित्र बनाया.

इधर दिल्ली में कंपनी अध्यक्ष      मि. सेनगुप्ता के सामने निदेशक मि. उत्पल बनर्जी पसीनापसीना हो रहे थे.

‘‘मि. बनर्जी, आप को पता है कि हरियाणा विद्युत निगम ने कंपनी को फरीदाबाद प्रोजेक्ट के लिए कोर्ट का नोटिस भेजा है?’’

‘‘सर, शशांक बहुत गड़बड़ कर के गया है. उस ने कोई कागज न गांगुली को और न मुझे दिया है. बिना कागज के तो….’’

‘‘मि. बनर्जी, आप मुझे क्या बेवकूफ समझते हैं?’’

‘‘नहीं सर, आप तो…’’

‘‘मि. बनर्जी, सारी गड़बड़ आप के दिमाग में है. आप आदमी का मूल्यांकन उस के काम से नहीं बल्कि उस के बंगाली होने या न होने से करते हैं.’’

‘‘मेरे पास उन फाइलों और रिपोर्टों की पूरी सूची है जो शशांक, जतिन गांगुली को दे कर गया है.’’

‘‘यस सर.’’

‘‘आप और गांगुली 1 सप्ताह के अंदर फरीदाबाद वाले प्रोजेक्ट को रास्ते पर लाइए या अपना त्यागपत्र दीजिए.’’

‘‘सर, 1 सप्ताह में…’’

‘‘आप जा सकते हैं.’’

1 सप्ताह के बाद मि. उत्पल बनर्जी और मि. गांगुली कंपनी से निकाले जा चुके थे. मि. सेनगुप्ता ने शशांक को फोन कर के कंपनी की इज्जत की खातिर फरीदाबाद प्रोजेक्ट का अतिरिक्त भार लेने को कहा.

‘‘हरिराम, तुम ने ठीक कहा था. ईमानदारी और मेहनत से काम करने पर हर व्यक्ति की प्रतिभा का मूल्यांकन होता है,’’ शशांक दिल्ली के लिए विदा लेते समय बोला.

‘‘काका, आप की बहुत याद आएगी,’’ सरिता बोली.

1 माह बाद फरीदाबाद प्रोजेक्ट भी ठीक हो गया और शशांक को दोहरा प्रमोशन दे कर कंपनी का जनरल मैनेजर बना दिया गया. उस ने हरिराम को अपने प्रमोशन की खबर देने के लिए फोन किया तो पता चला कि हरिराम नौकरी छोड़ कर कहीं चला गया है.

शाम को शशांक ने हरिराम के बारे में सरिता को बताया तो वह गंभीर हो गई, फिर बोली, ‘‘हरिराम काका शायद अपने बिछुड़े  परिवार की तलाश में गए होंगे या शांति की तलाश में.’’

आज 3 साल बाद शशांक कंपनी में निदेशक है. सरिता ने चित्रकला का स्कूल खोला है. उन की बैठक में हरिराम का सरिता द्वारा बनाया हुआ चित्र लगा है. family story in hindi

लेखक- डा. कृष्ण कांत

Festival Special: किचन का मेकओवर क्यों जरूरी है, पढ़ें खास वजहें

Festival Special: हम रोजाना किचन का इस्तेमाल करते हैं. वहां रखे सामानों में से कुछ चीजें ऐसी होती हैं जो सालोंसाल हम इस्तेमाल करते रहते हैं, लेकिन इन का लंबे समय तक इस्तेमाल करना सेहत के लिए अच्छा नहीं है और कई बार चीजें इतनी पुरानी हो जाती हैं कि दिखने में भी वे बेकार लगती हैं और इन को इस्तेमाल करना अनकंफर्टेबल भी हो जाता है.

लेडीज तो फिर भी ये चीजें यूज करती रहती हैं लेकिन जब हस्बैंड या भाई किचन में आते हैं और इन टूटीफूटी चीजों को बेतरीके और बेतरतीब से देखते हैं तो उलटे पांव भाग खड़े होते हैं.

इसलिए अगर आप भी चाहती हैं कि घर के जैंट्स भी किचन में आप की हैल्प करें, तो किचन को इस लायक बनाना आप की ही जिम्मेदारी है.

आइए, जानें कैसे कुछ कुछ समय में अपनी किचन में क्या बदलाव लाएं कि लोग वहां से भागे नहीं बल्कि उन का भी किचन में काम करने का मन मचल उठे :

पुराने बर्तनों के हैंडल ढीले या टूटे हुए न हों

पुराने बर्तनों के हैंडल ढीले या टूटे हुए होना एक आम समस्या है और यह खाना बनाते समय काफी खतरनाक हो सकता है. इस से बर्तन गिर सकता है, गरम खाना फैल सकता है या जलने का खतरा हो सकता है. ऐसे बर्तन को तुरंत इस्तेमाल करना बंद कर दें. यह भले ही आप का पसंदीदा बर्तन हो, लेकिन सुरक्षा सब से पहले है.

गैस पाइप की ऐक्सपायरी डेट चैक कर लें

ज्यादातर गैस पाइप पर उस की मैन्युफैक्चरिंग डेट या चेंज बीफोर की तारीख छपी होती है. वैसे भी आमतौर पर गैस पाइप की लाइफ 18 से 24 महीने (डेढ़ से 2 साल) ही होती है. अगर आप को पाइप पर कोई ऐसी तारीख दिखती है जो इस अवधि से ज्यादा पुरानी हो गई है, तो उसे बदल देना चाहिए. कुछ पाइपों पर सीधे ऐक्सपायरी डेट भी लिखी हो सकती है. इस के अनुसार इन्हें बदल दें.

पाइप में दरारें या कट होना, पाइप का सख्त या कड़ा हो जाना, पाइप का रंग बदलना या फीका पड़ना, पाइप पर तेल या ग्रीस के दाग होना, पाइप से गैस की गंध आना जैसे कोई भी चीज नजर आएं तो पाइप को तुरंत बदल दें.

नौनस्टिक पैन को बदलना जरूरी

खाना बनाने में नौनस्टिक पैन का इस्तेमाल बढ़ गया है लेकिन ऐसे बर्तनों को लंबे समय तक अगर इस्तेमाल करें तो इन की कोटिंग निकलने लगती है और ये बर्तन खाना बनाने लायक नहीं बचते. ऐसे में इन को किचन से दूर करना सही विकल्प है क्योंकि ये सेहत के लिए हानिकारक हो सकते हैं. पुराने और घिसे हुए कुकवेयर, जैसे पैन और अन्य बर्तनों को समयसमय पर बदलना चाहिए.

नौनस्टिक कोटिंग का उखड़ना या स्क्रैच होना खाना पकाने की गुणवत्ता को प्रभावित कर सकता है, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है. इसलिए इन्हें समयसमय पर बदल लें. साथ ही कोटिंग उतरे हुए बर्तनों में खाना बनाने से खाना उन में चिपकता है और जलने लगता है, जिस वजह से हरकोई उन में खाना नहीं बना सकता. आपका हाथ उन कोटिंग उतरे बर्तनों पर सैट होगा पर हरकोई उन्हें इस्तेमाल कर लेंगे यह जरूरी नहीं है, इसलिए उन्हें बदल दें.

चौपिंग बोर्ड का खराब होना

कई बार आप ने देखा होगा कि जिस चौपिंग बोर्ड पर आप सब्जी काटती हैं वह आप को ठीक लगता है लेकिन कोई और उसे हाथ भी नहीं लगाना चाहता क्योंकि आप का चौपिंग बोर्ड शायद अब उस लायक रहा ही नहीं.

दरअसल, किचन में सब्जी और फल काटने के लिए जो टूल इस्तेमाल किए जाते हैं जैसे चौपिंग बोर्ड, यह अधिक इस्तेमाल से भी खराब नहीं होता है. ऐसे में इन्हें लोग लंबे समय तक किचन में रखते हैं. वैसे इस की शैल्फलाइफ 1 साल से अधिक नहीं होती तो इतने समय बाद इसे किचन से दूर कर दें. वैसे भी चौपिंग बोर्ड को समयसमय पर बदलना आवश्यक है, खासकर तब जब इस में खरोंच या दरारें आ गई हों. दरारें और खरोंच के बीच बैक्टीरिया या छोटे कीड़े अपना घर बना सकते हैं.

प्लास्टिक के फूड स्टोरेज कंटेनर

समय के साथ प्लास्टिक के कंटेनर दागदार हो सकते हैं और उन में गंध आ सकती है या वे कमजोर पड़ सकते हैं. खाने की स्वच्छता और ताजगी बनाए रखने के लिए इन्हें साल में एक बार बदल देना चाहिए. अगर आप ज्यादा टिकाऊ विकल्प चाहते हैं, तो कांच का कंटेनर बेहतरीन विकल्प है.

बर्तन साफ करने वाले स्पंज भी बदबू मारने लगते हैं

रसोई की महत्वपूर्ण चीजों में बर्तन साफ करने वाले स्पंज शामिल हैं जिन से बर्तन साफ किए जाते हैं. इन से काउंटरटौप या गैस चूल्हे भी साफ किए जाते हैं. ऐसे में इन में बैक्टीरिया होना लाजिमी है. इन स्पंज को हर 2 हफ्तों में बदलना सही होगा.

गंदा और पुराना स्पंज खाना पकाने के उपकरण को संक्रमित कर सकता है. साथ ही, यह हमेशा गीला रहता है, जिस के कारण इस में आसानी से बैक्टीरिया पनपने लगते हैं.

किचन टौवेल

किचन टौवेल का नियमित उपयोग खाने के बचे हुए अंश और गंदगी को समेटने के लिए किया जाता है. इसे हर रोज धोना चाहिए और पुराना होने पर बदलना चाहिए. इस टौवेल से हम अपने हाथ भी पोंछते हैं और साफ बर्तन भी पोंछते हैं. लेकिन यह गंदे होंगे तो साफ बर्तन ही नहीं, बल्कि आप के हाथ भी स्मैली हो जाएंगे और ऐसी किचन में जाने से पहले कोई भी 10 बार सोचेगा. इसलिए इसे साफ रखें और समयसमय पर बदल दें.

डस्टबीन पर नजर रखें

अगर आप को लगता है कि बस डस्टबीन का पौलिथीन चैंज कर लेना ही काफी है, तो आप गलत हैं.

डस्टबीन बदले काफी समय हो गया है, यह पुराना हो गया, टूट तो नहीं रहा और उस में बैक्टीरिया तो नहीं पनप रहा, अगर ऐसा कुछ नहीं है तब भी साल में 1 बार डस्टबीन बदल लें. यह बहुत ज्यादा महंगा नहीं है.

कैबिनेट भी रिपेयर करा लें

अधिक समय से रसोईघर में कोई ध्यान नहीं दिया जाता है, तो किचन के कैबिनेट टूटने लगते हैं. इसलिए समय पर रिनोवेट कर लेना चाहिए. इस से किचन का लुक भी अच्छा होगा.

कौफी मेकर है काम की चीज

हस्बैंड काफी पीने के शौकीन हैं और दिन कई बार वे आप को कौफी बनाने को ले कर परेशान करते हैं तो इस का हल है. इस बार आप अपनी किचन के लिए एक कौफी मेकर खरीदें. बेसिक से ले कर ऐडवांस तक कई तरह के कौफी मेकर उपलब्ध हैं. आप अपनी जरूरत के हिसाब से चुनें. कौफी मेकर को किचन आइलैंड के किसी भी कोने में लगाएं और जब भी आप के हस्बैंड का मन करेगा वे आप को तंग नहीं करेंगे बल्कि खुद भी कौफी पीएंगे और आप को भी पीने देंगे.

मल्टीकुकर को किचन में जगह दें

मल्टीकुकर किचन में जरूर होना चाहिए क्योंकि इस में खाना बनाना आसान है. यह कई विशेषताओं और अटैचमेंट के साथ आते हैं जो सब्जियों और अन्य चीजों को भाप में पकाने में मदद करते हैं. आप को बस सामग्री और पानी डालना होगा, टाइमर चुनना होगा और बिना किसी परेशानी के खाना बन कर तैयार हो जायेगा. इस में आयल भी कम लगता है. इसे किसी भी कैबिनेट में स्टोर करें या डेली यूज के लिए किचन आइलैंड पर रखें.

वैजिटेबल पीलर और ग्रेटर (छीलने और कद्दूकस करने वाला)

इन की धार समय के साथ कम हो जाती है, जिस से काम मुश्किल हो जाता है. इसलिए इन्हें समयसमय पर बदलें.

मापने वाले कप और चम्मच (प्लास्टिक वाले)

प्लास्टिक के कप और चम्मच समय के साथ खराब हो सकते हैं. उन पर दाग लग सकते हैं या टूट सकते हैं, इसलिए इन्हें साल में 1 बार बदलना अच्छा है.

सिलिकौन स्पैटुला

सिलिकौन स्पैटुला का लगातार इस्तेमाल इन के घिसने और टूटने का कारण बन सकता है. इसलिए जब स्पैटुला घिस जाता है, तो उसे बदलना चाहिए. अगर इन का रंग बदल गया है, ये चिपचिपे हो गए हैं या टूट रहे हैं, तो इन्हें हर साल बदलना चाहिए.

चाकू को नजरअंदाज न करें

अगर आप चाकू का बहुत उपयोग करते हैं और यह बारबार धार लगाने के बाद भी तेज नहीं हो रहा, तो साल में 1 बार बदलने पर विचार करें.

चकलाबेलन भी बदलना जरूरी है

अगर चकले पर बहुत ज्यादा गहरे कट या दरारें आ गई हैं, तो उन में आटा या खाने के कण फंस सकते हैं, जिस से बैक्टीरिया पनप सकते हैं. ऐसे में इसे बदलना बेहतर है. इस के आलावा अगर चकले की सतह घिस कर या टेढ़ी हो कर असमान हो गई है, तो रोटी बेलना मुश्किल हो जाएगा और वह ठीक से गोल नहीं बनेगी.

कई बार लकड़ी के चकले से अजीब सी गंध आने लगी है जो धोने पर भी नहीं जाती, तो इस का मतलब है कि उस में नमी या बैक्टीरिया जमा हो गए है. ऐसे में नया चकलाबेलन लेना अच्छा रहेगा.

पुराने सामान का अंबार न लगाएं

कई लोगों की आदत होती है कि वे नया सामान ले लेते हैं लेकिन फिर भी पुराना सामान नहीं फेंकते. इस से किचन में बेमतलब के सामानों का अंबार लग जाता है, जो दिखने में बुरा तो लगता ही है साथ ही बारबार नए सामान की जगह वहीं पुराना सामान हाथ में आता है तो असुविधा होती है. इसलिए पुराना सामान फेंक कर ही नया सामान लें वार्ना नया सामान लेने का भी कोई फायदा नहीं होगा. Festival Special

Hindi Motivational Story: इसी को कहते हैं जीना

Hindi Motivational Story: ‘‘नेहा, क्या तुम ने कभी यह सोचा है कि तुम अकेली क्यों हो? हर इनसान तुम से दूर क्यों भागता है?’’

नेहा चुपचाप मेरा चेहरा देखने लगी.

‘‘किसी भी रिश्ते को निभाने में तुम्हारा कितना योगदान होता है, क्या तुम ने कभी महसूस किया है? जहां कहीं भी तुम्हारी दोस्ती होती है वहां तुम्हारा समावेश उतना ही होता है जितना तुम पसंद करती हो. कोई तुम्हारे काम आता है तो उसे तुम अपना अधिकार ही मान कर चलने लगती हो. जिन से तुम दोस्ती करती हो उन्हें अपनी जरूरत के अनुसार इस्तेमाल करती हो और काम हो जाने के बाद धन्यवाद बोलना भी जरूरी नहीं समझती हो…लोग तुम्हारे काम आएं पर तुम किसी के काम आओ यह तुम्हें पसंद नहीं है, क्योंकि तुम्हें लोगों से ज्यादा मिलनाजुलना पसंद नहीं है. जो तुम्हारे काम आते हैं उन से तुम हफ्तों नहीं मिलतीं तो सिर्फ इसलिए कि स्कूल के बाद तुम्हें अपने घर को साफ करवाना जरूरी होता है.

‘‘अच्छा, यह बताओ कि तुम्हारे घर में कितने लोग हैं जो रोज इतनी साफसफाई करवाती हो. साफ घर हर रोज इस तरह साफ करती हो मानो दीवाली आने वाली हो. आता कौन है तुम्हारे घर पर? न तुम्हारे मांबाप आते हैं न सासससुर…पति न जाने किस के साथ कहां चला गया, तुम खुद भी नहीं जानतीं.’’

आंखें और भी फैल गईं नेहा की.

‘‘जरा सोचो, नेहा, तुम कब किसी के काम आती हो. कब तुम अपने कीमती समय में से समय निकाल कर किसी का सुखदुख पूछती हो…कितना बनावटी आचरण है तुम्हारा. मुंह पर जिस की तारीफ करती हो पीठ पीछे उसी की बुराई करने लगती हो. क्या तुम्हें प्रकृति से डर नहीं लगता? सोने से पहले क्या कभी यह सोचती हो कि आज रात अगर तुम मर जाओ तो क्या तुम कोई कर्ज साथ नहीं ले जाओगी?’’

‘‘किस का कर्ज है मेरे सिर पर? मुझे तो किसी का कोई रुपयापैसा नहीं देना है.’’

‘‘रुपएपैसे के आगे भी कुछ होता है, जो कर्ज की श्रेणी में आता है.

‘‘रुपएपैसे के एहसान को तो इनसान पैसे से चुका सकता है मगर उन लोगोें का बदला कैसे चुकाया जा सकता है जहां  लगाव, हमदर्दी और अपनत्व का कर्ज हो. जिस ने मुसीबत में तुम्हें सहारा दिया उस का कभी हालचाल भी नहीं पूछती हो तुम.’’

‘‘किस की बात कर रहे हो तुम?’’

‘‘इस का मतलब तुम पर किस के एहसान का कर्ज है यह भी तुम्हें याद नहीं.’’

मैं नेहा का मित्र हूं और हमारी मित्रता का कोई भी भविष्य मुझे अब नजर नहीं आ रहा. मित्रता तो एक तरह का निवेश है. प्यार दो तो प्यार मिलेगा. आज तुम किसी के काम आओ तो कल कोई तुम्हारे काम आएगा. नेहा तो सूखी रेत है जिस पर चाहो तो मन भर पानी बरसा दो वह फिर भी गीली नहीं हो सकती.

अफसोस हो रहा है मुझे खुद पर और नेहा पर भी. खुद पर इसलिए कि मैं  नेहा का मित्र हूं और नेहा पर इसलिए कि क्या उसे कोई किनारा मिल पाएगा कभी? क्या वह रिश्ता निभाना सीख पाएगी कभी?

नेहा से मेरी जानपहचान शर्माजी के घर हुई थी. शर्माजी हमारे विभाग में वरिष्ठ अधिकारी हैं और बड़े सज्जन पुरुष हैं. शर्माजी की पत्नी ललिताजी भी बड़ी मिलनसार और ममतामयी महिला हैं. मैं कुछ फाइलें उन्हें दिखाने उन के घर गया था, क्योंकि वह कुछ दिन से बीमार चल रहे थे.

हम दोनों के सामने चाय रख कर ललिताजी जल्दी से निकल गई थीं. टिफिन था उन के हाथ में.

‘‘भाभीजी बच्चों को टिफिन देने गई हैं क्या?’’

‘‘अरे, बच्चे कहां हैं यहां हमारे,’’ शर्माजी बोले, ‘‘दोनों बेटे अपनीअपनी नौकरी पर बाहर हैं. यहां तो हम बुड्ढाबुढि़या ही हैं. तुम्हें क्या हमारी उम्र इतनी छोटी लग रही है कि हमारे बच्चे स्कूल जाते होंगे.

‘‘मेरी पत्नी समाज सेवा में भी विश्वास करती है. यहां 2 घर छोड़ कर कोई बीमार है…उसी को खाना देने गई है. अकेली लड़की है. बीमार है, बस, उसी की देखभाल करती रहती है. क्या करे बेचारी? अपने बच्चे तो दूर हैं न. उन की ममता उसी पर लुटा कर खुश हो लेती है.’’

तब पहली बार नेहा के बारे में जाना था. स्कूल में टीचर है और पति कुछ समय पहले कहीं चला गया था. शादी को 2-3 साल हो चुके हैं. कोई बच्चा नहीं है. अकेली रहती है, इसलिए ललिताजी उस से दोस्ती कर के उस की मदद करती रहती हैं और समय का सदुपयोग भी.

अभी हम फाइलें देख ही रहे थे कि ललिताजी वापस चली आईं और अपने साथ नेहा को भी लेती आई थीं.

‘‘बहुत तेज बुखार है इसे. मैं साथ ही ले आई हूं. बारबार उधर भी तो नहीं न जाया जाता.’’

ललिताजी नेहा को दूसरे कमरे में सुला आई थीं और अब शर्माजी को समझा रही थीं,  ‘‘देखिए न, अकेली बच्ची वहां पड़ी रहती तो कौन देखता इसे. बेचारी के मांबाप भी दूर हैं न…’’

‘‘दूर कहां हैं…हम हैं न उस के मांबाप…हर शहर में हमारी कम से कम एक औलाद तो है ही ऐसी जिसे तुम ने गोद ले रखा है. इस शहर में नहीं थी सो वह कमी भी दूर हो गई.’’

‘‘नाराज क्यों हो रहे हैं…जैसे ही बुखार उतर जाएगा वह चली जाएगी. आप भी तो बीमार हैं न…आप का खानापीना भी देखना है. 2-2 जगह मैं कै से देखूं.’’

मैं ने भी उसी पल उन्हें ध्यान से देखा था. बहुत ममतामयी लगी थीं वह मुझे. बहुत प्यारी भी थीं.

लगभग 4 घंटे उस दिन मैं शर्माजी के घर पर रहा था और उन 4 घंटों में शर्मा दंपती का चरित्र पूरी तरह मेरे सामने चला आया था. बहुत प्यारी सी जोड़ी है उन की.  ललिताजी तो ऐसी ममतामयी कि मानो पल भर में किसी की भी मदद करने को तैयार. शर्माजी पत्नी की इस आदत पर ज्यादातर खुश ही रहते.

मेरे साथ भी मां जैसा नाता बांध लिया था ललिताजी ने. सचमुच कुछ लोग इतने सीधेसरल होते हैं कि बरबस प्यार आने लगता है उन पर.

‘‘देखो बेटा, मनुष्य को सदा इस  भावना के साथ जीना चाहिए कि मेरा नाम कहीं लेने वालों की श्रेणी में तो नहीं आ रहा.’’

‘‘मांजी, मैं समझा नहीं.’’

‘‘मतलब यह कि मुझे किसी का कुछ देना तो नहीं है न, कोई ऐसा तो नहीं जिस का कर्ज मेरे सिर पर है, रात को जब बिस्तर पर लेटो तब यह जरूर याद कर लिया करो. किसी से कुछ लेने की आस कभी मत करो. जब भी हाथ उठें देने के लिए उठें.’’

मंत्रमुग्ध सा देखता रहता मैं  ललिताजी को. जब भी उन से मिलता था कुछ नया ही सीखता था. और उस से भी ज्यादा मैं यह सीखने लगा था कि नेहा के करीब कैसे पहुंचा जाए. नेहा अपना कोई न कोई काम लिए ललिताजी के पास आ जाती और मैं उस के लिए कुछ सोचने लगता.

‘‘बहुत अच्छी लड़की है, पढ़ीलिखी है, मेरा जी चाहता है उस का घर पुन: बस जाए.’’

‘‘मांजी, उस का पति वापस आ गया तो. ऐसी कोई तलाक जैसी प्रक्रिया तो नहीं गुजरी न दोनों में. पुन: शादी के बारे में कैसे सोचा जा सकता है.’’

शर्माजी के घर से शुरू हुई हमारी जानपहचान उन के घर के बाहर भी जारी रही और धीरेधीरे हम अच्छे दोस्त बन गए.

ललिताजी से मिलना कम हो गया और हर शाम मैं और नेहा साथसाथ रहने लगे. मार्च का महीना था जिस वजह से आयकर रिटर्न का काम भी नेहा ने मुझे सौंप दिया. कभी नया राशन कार्ड बनाना होता और कभी पैन कार्ड का चक्कर. उस के घर की किस्तें भी हर महीने मेरे जिम्मे पड़ने लगीं. 2-3 महीने में नेहा के सारे काम हो गए. कभीकभी मुझे लगता, मैं तो उस का नौकर ही बन गया हूं.

कुछ दिन और बीते. एक दिन पता चला कि ललिताजी को भारी रक्तस्राव की वजह से आधी रात को अस्पताल में भरती कराना पड़ा. शर्माजी छुट्टी पर चले गए. उन के  बच्चे दूर थे इसलिए उन्हें परेशान न कर वह पतिपत्नी सारी तकलीफ खुद ही झेल रहे थे.

मेरा परिवार भी दूर था सो कार्यालय के बाद मैं भी अस्पताल चला आता था, उन के पास.

नेहा अस्पताल में नहीं दिखी तो सोचा, हो सकता है वह ललिताजी का घर संभाल रही हो. ललिताजी का आपरेशन हो गया. मैं छुट्टी ले कर उन के आसपास ही रहा. नेहा कहीं नजर नहीं आई. एक दिन शर्माजी से पूछा तो वह हंस पड़े और बताने लगे :

‘‘जब से तुम उस के काम कर रहे हो तब से वह मुझ से या ललिता से मिली कब है, हमें तो अपनी सूरत भी दिखाए उसे महीना बीत गया है. बड़ी रूखी सी है वह लड़की.’’

मुझ में काटो तो खून नहीं. क्या सचमुच नेहा अब इन दोनों से मिलती- जुलती नहीं. हैरानी के साथसाथ अफसोस भी होने लगा था मुझे.

ललिताजी अभी बेहोशी में थीं और शर्माजी उन का हाथ पकड़े बैठे थे.

‘‘ललिता का तो स्वभाव ही है. कोई एक कदम इस की तरफ बढ़ाए तो यह 10 कदम आगे बढ़ कर उस का साथ देती है. हम नएनए इस शहर में आए थे. यह लड़की एक शाम फोन करने आई थी. उस का फोन काम नहीं कर रहा था… गलती तो ललिता की ही थी… किसी की भी तरफ बहुत जल्दी झुक जाती है.’’

स्तब्ध था मैं. अगर मुझ से भी नहीं मिलती तो किस से मिलती है आजकल?

4 दिन और बीत गए. मैं आफिस के बाद हर शाम अस्पताल चला जाता. मुझे देखते ही ललिताजी का चेहरा खिल जाता. एक बार तो ठिठोली भी की उन्होंने.

‘‘बेचारा बच्चा फंस गया हम बूढ़ों के चक्कर में.’’

‘‘आप मेरी मां जैसी हैं. घर पर होता और मां बीमार होतीं तो क्या उन के पास नहीं जाता मैं?’’

‘‘नेहा से कब मिलते हो तुम? हर शाम तो यहां चले आते हो?’’

‘‘वह मिलती ही नहीं.’’

‘‘कोई काम नहीं होगा न. काम पड़ेगा तो दौड़ी चली आएगी,’’ ललिताजी ने ही उत्तर दिया.

शर्माजी कुछ समय के लिए घर गए तब ललिताजी ने इशारे से पास बुलाया और कहने लगीं, ‘‘मुझे माफ कर देना बेटा, मेरी वजह से ही तुम नेहा के करीब आए. वह अच्छी लड़की है लेकिन बेहद स्वार्थी है. मोहममता जरा भी नहीं है उस में. हम इनसान हैं बेटा, सामाजिक जीव हैं हम… अकेले नहीं जी सकते. एकदूसरे की मदद करनी पड़ती है हमें. शायद यही वजह है, नेहा अकेली है. किसी की पीड़ा से उसे कोई मतलब नहीं है.’’

‘‘वह आप से मिलने एक बार भी नहीं आई?’’

‘‘उसे पता ही नहीं होगा. पता होता तो शायद आती…और पता वह कभी लेती ही नहीं. जरूरत ही नहीं समझती वह. तुम मिलना चाहो तो जाओ उस के घर, इच्छा होगी तो बात करेगी वरना नहीं करेगी… दोस्ती तक ही रखना तुम अपना रिश्ता, उस से आगे मत जाना. इस तरह के लोग रिश्तों में बंधने लायक नहीं होते, क्योंकि रिश्ते तो बहुत कुछ मांगते हैं न. प्यार भी, स्नेह भी, अपनापन भी और ये सब उस के पास हैं ही नहीं.’’

शर्माजी आए तो ललिताजी चुप हो गईं. शायद उन के सामने वह अपने स्नेह, अपने ममत्व को ठगा जाना स्वीकार नहीं करना चाहती थीं या अपनी पीड़ा दर्शाना नहीं चाहती थीं.

3-4 दिन और बीत गए. ललिताजी घर आ चुकी थीं. नेहा एक बार भी उन से मिलने नहीं आई. लगभग 3 दिन बाद वह लंच में मुझ से मिलने मेरे आफिस चली आई. बड़े प्यार से मिली.

‘‘कहां रहीं तुम इतने दिन? मेरी याद नहीं आई तुम्हें?’’ जरा सा गिला किया था मैं ने.

‘‘जरा व्यस्त थी मैं. घर की सफाई करवा रही थी.’’

‘‘10 दिन से तुम्हारे घर की सफाई ही चल रही है. ऐसी कौन सी सफाई है भई.’’

मन में सोच रहा था कि देखते हैं आज कौन सा काम पड़ गया है इसे, जो जबान में मिठास घुल रही है.

‘‘क्या लोगी खाने में, क्या मंगवाऊं?’’

खाने का आर्डर दिया मैं ने. इस से पहले भी जब हम मिलते थे खाना मैं ही मंगवाता था. अपनी पसंद का खाना मंगवा लिया नेहा ने. खाने के दौरान कभी मेरी कमीज की तारीफ करती तो कभी मेरी.

‘‘शर्माजी और ललिताजी कैसी हैं? शर्माजी छुट्टी पर हैं न, कहीं बाहर गए हैं क्या?’’

‘‘पता नहीं, मैं ने बहुत दिन से उन्हें देखा नहीं.’’

‘‘अरे भई, तुम इस देश की प्रधानमंत्री हो क्या जो इतना काम रहता है तुम्हें. 2 घर छोड़ कर तो रहते हैं वह…और तुम्हारा इतना खयाल भी रखते हैं. 10 दिन से वह तुम से मिले नहीं.’’

‘‘मेरे पास इतना समय नहीं होता. 2 बजे तो स्कूल से आती हूं. 4 बजे बच्चे ट्यूशन पढ़ने आ जाते हैं. 7 बजे तक उस में व्यस्त रहती हूं. इस बीच काम वाली बाई भी आ जाती है…’’

‘‘किसी का हालचाल पूछने के लिए आखिर कितना समय चाहिए नेहा. एक फोन काल या 4-5 मिनट में जा कर भी इनसान वापस आ जाता है. उन के और तुम्हारे घर में आखिर दूरी ही कितनी है.’’

‘‘मुझे बेकार इधरउधर जाना अच्छा नहीं लगता और फिर ललिताजी तो हर पल खाली रहती हैं. उन के साथ बैठ कर गपशप लगाने का समय नहीं होता मेरे पास.’’

नेहा बड़ी तल्खी में जवाब दे रही थी. खाना समाप्त हुआ और वह अपने मुद्दे पर आ गई. अपने पर्स से राशन कार्ड और पैन कार्ड निकाल उस ने मेरे सामने रख दिए.

‘‘यह देखो, इन दोनों में मेरी जन्मतिथि सही नहीं लिखी है. 7 की जगह पर 1 लिखी गई है. जरा इसे ठीक करवा दो.’’

हंस पड़ा मैं. इतनी हंसी आई मुझे कि स्वयं पर काबू पाना ही मुश्किल सा हो गया. किसी तरह संभला मैं.

‘‘तुम ने क्या सोचा था कि तुम्हारा काम हो गया और अब कभी किसी की जरूरत नहीं पड़ेगी. मत भूलो नेहा कि जब तक इनसान जिंदा है उसे किसी न किसी की जरूरत पड़ती है. जिंदा ही क्यों उसे तो मरने के बाद भी 4 आदमी चाहिए, जो उठा कर श्मशान तक ले जाएं. राशन कार्ड और पैन कार्ड जब तक नहीं बना था तुम्हारा मुझ से मिलना चलता रहा. 10 दिन से तुम मिलीं नहीं, क्योंकि तुम्हें मेरी जरूरत नहीं थी. आज तुम्हें पता चला इन में तुम्हारी जन्मतिथि सही नहीं तो मेरी याद आ गई …फार्म तुम ने भरा था न, जन्मतिथि तुम ने भरी थी…उस में मैं क्या कर सकता हूं.’’

‘‘यह क्या कह रहे हो तुम?’’ अवाक्  तो रहना ही था नेहा को.

‘‘अंधे को अंधा कैसे कहूं…उसे बुरा लग सकता है न.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब साफ है…’’

उसी शाम ललिताजी से मिलने गया. उन्हें हलका बुखार था. शर्माजी भी थकेथके से लग रहे थे. वह बाजार जाने वाले थे, दवाइयां और फल लाने. जिद कर के मैं ही चला गया बाजार. वापस आया और आतेआते खाना भी लेता आया. ललिताजी के लिए तो रोज उबला खाना बनता था जिसे शर्माजी बनाते भी थे और खाते भी थे. उस दिन मेरे साथ उन्होंने तीखा खाना खाया तो लगा बरसों के भूखे हों.

‘‘मैं कहती थी न अपने लिए अलग बनाया करें. उबला खाना खाया तो जाता नहीं, उस पर भूखे रह कर कमजोर भी हो गए हैं.’’

ललिताजी ने पहली बार भेद खोला. दूसरे दिन से मैं रोज ही अपना और शर्माजी का खाना पैक करा कर ले जाने लगा. नेहा की हिम्मत अब भी नहीं हुई कि वह एक बार हम से आ कर मिल जाती. हिम्मत कर के मैं ने सारी आपबीती उन्हें सुना दी. दोनों मेरी कथा सुनने के बाद चुप थे. कुछ देर बाद शर्माजी कहने लगे, ‘‘सोचा था, प्यारी सी बच्ची का साथ रहेगा तो अच्छा लगेगा. उसे हमारा सहारा रहेगा हमें उस का.’’

‘‘सहारा दिया है न हमें प्रकृति ने. बच्ची का सहारा तो सिर्फ हम ही थे… बदले में सहारा देने वाला मिला है हमें… यह बच्चा मिला है न.’’

ललिताजी की आंखें नम थीं, मेरी बांह थपथपा रही थीं वह. मेरा मन भी परिवार के साथ रहने को होता था पर घर दूर था. मुझे भी तो परिवार मिल गया था परदेस में. कौन किस का सहारा था, मैं समझ नहीं पा रहा था. दोनों मुझे मेरे मातापिता जैसे ही लग रहे थे. वे मुझे सहारा मान रहे थे और मैं उन्हें अपना सहारा मान रहा था, क्योंकि शाम होते ही मन होता भाग कर दोनों के पास चला जाऊं.

क्या कहूं मैं? अपनाअपना तरीका है जीने का. कुदरत ने लाखों, करोड़ों जीव बनाए हैं, जो आपस में कभी मिलते हैं और कभी नहीं भी मिलते. नेहा का जीने का अपना तरीका है जिस में वह भी किसी तरह जी ही लेगी. बस, इतना मान सकते हैं हम तीनों कि हम जैसे लोग नेहा जैसों के लिए नहीं बने, सो कैसा अफसोस? सोच सकते हैं कि हमारा चुनाव ही गलत था. कल फिर समय आएगा…कल फिर से कुछ नया तलाश करेंगे, यही तो जीवन है, इसी को तो कहते हैं जीना. Hindi Motivational Story

Crime Story: पाखंड का अंत- बिंदु ने कैसे किया बाबा का खुलासा

Crime Story: बिंदु के मातापिता बचपन में ही गुजर गए थे, पर मरने से पहले वे बिंदु का रिश्ता भमुआपुर के चौधरी हरिहर के बेटे बिरजू से कर गए थे.

उस समय बिंदु 2 साल की थी और बिरजू 5 साल का. बिंदु के मातापिता के मरने के बाद उसे उस के चाचा ने पालापोसा था.

बिंदु के चाचा बहुत ही नेकदिल इनसान थे. उन्होंने बिंदु को शहर में रख कर पढ़ायालिखाया था. यही वजह थी कि 17वें साल में कदम रख चुकी बिंदु 12वीं पास कर चुकी थी.

बिरजू के घर से गौने के लिए कई प्रस्ताव आए, लेकिन बिंदु के चाचा ने उन्हें साफ मना कर दिया था कि वे गौना उस के बालिग होने के बाद ही करेंगे.

उधर बिरजू भी जवान हो गया था. उस का गठीला बदन देख कर गांव की कई लड़कियां ठंडी आहें भरती थीं. पर  बिरजू उन्हें घास तक नहीं डालता था.

‘‘अरे, हम पर भले ही नजर न डाल, पर शहर जा कर अपनी जोरू को तो ले आ,’’ एक दिन चमेली ने बिरजू का रास्ता रोकते हुए कहा.

‘‘ले आऊंगा. तुझे क्या? चल, हट मेरे रास्ते से.’’

‘‘क्या तेरी औरत के संग रहने की इच्छा नहीं होती? कहीं वो तो नहीं है तू…?’’ चमेली ने एक आंख दबा कर कहा, तो उस की हमउम्र सहेलियां खिलखिला कर हंस पड़ीं.

‘‘चमेली, ज्यादा मत बन. मैं ने कह तो दिया, मुझे इस तरह की बातें पसंद नहीं हैं,’’ कहते हुए बिरजू ने आंखें तरेरीं, तो वे सब भाग गईं.

उधर बिंदु की गदराई जवानी व अदाएं देख कर स्कूल के लड़के उस के आसपास मंडराते रहते थे.

गोरा बदन, आंखें बड़ीबड़ी, उभरी हुई छाती… जब बिंदु अपने बालों को झटकती, तो कई मजनू आहें भरने लगते.

बिंदु को भी सजनासंवरना भाने लगा था. जब कोई लड़का उसे प्यासी नजरों से देखता, तो वह भी तिरछी नजरों से उसे निहार लेती.

बिंदु के रंगढंग और बिरजू के घर वालों के बढ़ते दबाव के चलते उस के चाचा ने गौने की तारीख तय कर दी और उसी दिन बिरजू आ कर अपनी दुलहन को ले गया.

शहर में पलबढ़ी बिंदु को गांव में आ कर थोड़ा अजीब तो लगा, पर बिरजू को पा कर वह सबकुछ भूल गई.

बिंदु को बहुत चाहने वाला पति मिला था. दिनभर खेत में जीतोड़ मेहनत कर के जब शाम को बिरजू घर आता, तो बिंदु उस का इंतजार करती मिलती.

रात होते ही मौका पाकर बिरजू बिंदु को अपनी मजबूत बांहों में कस कर अपने तपते होंठ उस के नरम गुलाबी होंठों पर रख देता था.

कब 2 साल बीत गए, पता ही नहीं चला. बिंदु और बिरजू अपनी हसीन दुनिया में खोए हुए थे कि एक दिन बिंदु की सास अपने पति से पोते की चाहत जताते हुए बोलीं, ‘‘बहू के पैर अभी तक भारी क्यों नहीं हुए?’’

सचाई तो यह थी कि यह बात घर में सभी को चुभ रही थी.

‘‘सुनो,’’ एक दिन बिरजू ने बिंदु के लंबे बालों को सहलाते हुए पूछा, ‘‘हमारा बच्चा कब आएगा?’’

‘‘मुझे क्या मालूम… यह तो तुम जानो,’’ कहते हुए बिंदु शरमा गई.

‘‘मां को पोते का मुंह देखने की बड़ी तमन्ना है.’’

‘‘और तुम्हारी?’’

‘‘वह तो है ही, मेरी जान,’’ बिरजू ने बिंदु को खुद से सटाते हुए कहा और बत्ती बुझा दी.

‘‘मुझे लगता है, बहू में कोई कमी है. 3 साल हो गए ब्याह हुए और अभी तक गोद सूनी है. जबकि अपने बिरजू के साथ ही गोपाल का गौना हुआ था, वह तो 2 बच्चों का बाप भी बन गया है,’’ एक दिन पड़ोस की काकी घर आईं और बोलीं.

बिंदु के कानों तक जब ऐसी बातें पहुंचतीं, तो वह दुखी हो जाती. वह भी यह सोचने पर मजबूर हो जाती कि आखिर हम पतिपत्नी तो कोई ‘बचाव’ भी नहीं करते, फिर क्या वजह है कि

3 साल होने पर भी मैं मां नहीं बन पाई?

इस बार जब वह अपने मायके गई, तो उस ने लेडी डाक्टर से अपनी जांच कराई. पता चला कि उस की बच्चेदानी की दोनों नलियां बंद हैं. इस वजह से बच्चा ठहर नहीं रहा है.

यह जान कर बिंदु घबरा गई.

‘‘क्या अब मैं कभी मां नहीं बन पाऊंगी?’’ डाक्टर से पूछने पर बिंदु का गुलाबी चेहरा पीला पड़ गया.

‘‘ऐसी बात नहीं है. आजकल विज्ञान ने बहुत तरक्की कर ली है. तुम जैसी औरतें भी मां बन सकती हैं,’’ डाक्टर ने कहा, तो बिंदु को चेहरा खिल उठा.

गांव आ कर उस ने बिरजू को सारी बात बताई और कहा, ‘‘तुम्हें मेरे साथ कुछ दिनों के लिए शहर चलना होगा.’’

‘‘शहर तो हम लोग बाद में जाएंगे, पहले तुम आज शाम को बंगाली बाबा के आश्रम में जा कर चमत्कारी भभूत का प्रसाद ले आना. सुना है कि उस के प्रसाद से कई बांझ औरतों के बच्चे हो गए हैं,’’ बिरजू बोला.

‘‘यह तुम कैसी अनपढ़ों वाली बातें कर रहे हो? तुम्हें ऐसा करने को किस

ने कहा?’’

‘‘मां ने.’’

बिंदु ने कहा, ‘‘देखिए, मांजी तो पुराने जमाने की हैं, इसलिए वे इन बातों पर भरोसा कर सकती हैं, पर हम तो जानते हैं कि ये बाबा वगैरह एक नंबर के बदमाश होते हैं. भोलीभाली औरतों को चमत्कार के जाल में फंसा कर…

‘‘नहीं, मैं तो नहीं जाऊंगी किसी के पास,’’ बिंदु ने बहुत आनाकानी की, पर उस की एक न सुनी गई.

बिंदु समझ गई कि अगर उस ने सूझबूझ से काम नहीं लिया, तो उस का घरसंसार उजड़ जाएगा. उस ने मजबूती से हालात का सामना करने की ठान ली.

बाबा के आश्रम में पहुंच कर बिंदु ने 2-3 औरतों से बात की, तो उस का शक सचाई में बदल गया.

उन औरतों में से एक ने उसे बताया, ‘‘बाबा मुझे अपने आश्रम के अंदरूनी हिस्से में ले गया, जहां घना अंधेरा था.’’

‘‘फिर क्या हुआ तुम्हारे साथ?’’

‘‘पहले तो बाबा ने मुझे शरबत जैसा कुछ पीने को दिया. शरबत पी कर मैं बेहोश हो गई और जब मैं होश में आई, तो ऐसा लगा जैसे मैं ने बहुत मेहनत का काम किया हो.’’

‘‘और भभूत?’’

‘‘वह पुडि़या यह रही,’’ कहते हुए महिला ने हाथ आगे बढ़ा कर भभूत की पुडि़या दिखाई, तो बिंदु पहचान गई कि वह केवल राख ही है.

अगले दिन बिंदु फिर आश्रम में गई, तभी एक सास अपनी जवान बहू को ले कर वहां आई. उसे भी बच्चा नहीं ठहर रहा था.

बाबा ने उसे अंदर आने को कहा. उस के बाद बिंदु की बारी थी, पर जैसे ही वह औरत बाबा के साथ अंदर गई, बिंदु भी नजर बचा कर अंदर घुस गई.

बाबा ने उस औरत को कुछ पीने को दिया. जब वह बेहोश हो गई, तो बाबा ने उस के कपड़े हटा कर…

बिंदु यह सब देख कर हैरान रह गई. उस ने इरादे के मुताबिक अपने कपड़ों में छिपाया हुआ कैमरा निकाला और कई फोटो खींच लिए.

वह औरत तो बेहोश थी और बाबा वासना के खेल में मदहोश था. भला कैमरे की फ्लैश पर किस का ध्यान जाता.

कुछ दिनों बाद बिंदु ने भरी पंचायत में थानेदार के सामने वे फोटो दिखाए. इस से पंचायत में खलबली मच गई.

बाबा को उस के चेलों समेत हवालात में बंद कर दिया गया, पर तब तक अपने झूठे चमत्कार के बहाने वह न जाने कितनी ही औरतों की इज्जत लूट चुका था. खुद संरपच की बेटी विमला भी

उस पाखंडी के हाथों अपनी इज्जत लुटा चुकी थी.

पूरे गांव में बिंदु के हौसले और उस की सूझबूझ की चर्चा हो रही थी. जिस ने न केवल अपनी इज्जत बचा ली थी, बल्कि गांव की बाकी मासूम युवतियों की जिंदगी बरबाद होने से बचा ली थी.

शहर जा कर बिंदु ने डाक्टर से अपना इलाज कराया और महीनेभर बाद गांव लौटी.

तीसरे महीने जब वह उलटी करने के लिए गुसलखाने की तरफ दौड़ी, तो बिरजू की मां व पूरे घर वालों का चेहरा खुशी से खिल उठा. Crime Story

Best Family Story: अपना पराया

Best Family Story: ‘‘भैया, आप तो जानते हैं कि बीना को दिल की बीमारी है, वह दूसरे का तो क्या, अपना भी खयाल नहीं रख पाती है और मेरा टूरिंग जौब है. हमारा मां को रखना संभव नहीं हो पाएगा.’’

‘‘भैया, मैं मां को रख तो लेती लेकिन महीनेभर बाद ही पिंकी, पम्मी की परीक्षाएं प्रारंभ होने वाली हैं. घर भी छोटा है. इसलिए चाह कर भी मैं मां को अपने साथ रख पाने में असमर्थ हूं.’’

दिनेश और दीपा से लगभग एक सा उत्तर सुन कर दीपेश एकाएक सोच नहीं पा रहे थे कि वे क्या करें? पुत्री अंकिता की मई में डिलीवरी है. उस के सासससुर के न होने के कारण बड़े आग्रह से विदेशवासी दामाद आशुतोष और अंकिता ने उन्हें कुछ महीनों के लिए बुलाया था, टिकट भी भेज दिए थे. अनुपमा का कहना था कि 6 महीनों की ही तो बात है, कुछ दिन अम्माजी भैया या दीदी के पास रह लेंगी.

इसी आशय से उन्होंने दोनों जगह फोन किए थे किंतु दोनों जगह से ही सदा की तरह नकारात्मक रुख पा कर वे परेशान हो उठे थे. अनु अलग मुंह फुलाए बैठी थी.

‘‘अम्माजी पिछले 30 वर्षों से हमारे पास रह रही हैं और अब जब 6 महीने उन्हें अपने पास रखने की बात आई तो एक की बीवी की तबीयत ठीक नहीं है और दूसरे का घर छोटा है. हमारे साथ भी इस तरह की अनेक परेशानियां कई बार आईं पर उन परेशानियों का रोना रो कर हम ने तो उन्हें रखने के लिए कभी मना नहीं किया,’’ क्रोध से बिफरते हुए अनु ने कहा.

दिनेश सदा मां के प्रति अपनी जिम्मेदारी से कोई न कोई बहाना बना कर बचता और जब भी दीपेश कहीं जाने का प्रोग्राम बनाते तो वह बनने से पूर्व ही ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता था. यदि वे मां को साथ ले भी जाना चाहते तो वे कह देतीं, ‘‘बेटा, इस उम्र में अब मुझ से घूमनाफिरना नहीं हो पाएगा. वैसे भी तुम्हारे पिता की मृत्यु के पश्चात मैं ने बाहर का खाना छोड़ दिया है. इसलिए मैं कहीं नहीं जाऊंगी.’’

वे मां को कभी भी अकेला छोड़ कर कहीं जा नहीं पाए और न ही मां ने ही कभी अपने मन से उन्हें कहीं घूमने जाने को कहा. उन्हें याद नहीं आता कि वे कभी अनु को कहीं घुमाने ले गए हों. आज अंकिता ने उन्हें बुलाया है तब भी यही समस्या उठ खड़ी हुई है. पोती को ऐसी हालत में अकेली जान कर इस बार मां ने भी उन्हें जाने की इजाजत दे दी थी लेकिन दिनेश और दीपा के पत्रों ने उन की समस्या को बढ़ा दिया था.

अनु जहां इन पत्रों को पढ़ कर क्रोधित हो उठी थी वहीं मां अपराधबोध से ग्रस्त हो उठी थीं. उन की समस्या को देख कर मां ने आग्रहयुक्त स्वर में कहा था, ‘‘तुम लोग चले जाओ, बेटा, मैं अकेली रह लूंगी, 6 महीने की ही तो बात है, श्यामा नौकरानी मेरे पास सो जाया करेगी.’’

अनु और मां का रिश्ता भले ही कड़वाहट से भरपूर था पर समय के साथ उन में आपस में लगाव भी हो गया था. शायद इसीलिए मां के शब्द सुन कर पहली बार अनु के मन में उन के लिए प्रेम उमड़ आया था किंतु वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे? इस उम्र में उन्हें अकेले छोड़ने का उस का भी मन नहीं था. यही हालत दीपेश की भी थी. एक ओर पुत्री का मोह उन्हें विवश कर रहा था तो दूसरी ओर कर्तव्यबोध उन के पैरों में बेडि़यां पहना रहा था.

अभी वे सोच ही रहे थे कि पड़ोसी रमाकांत ने घर में प्रवेश किया और उन की उदासी का कारण जान कर बोले, ‘‘बस, इतनी सी समस्या के कारण आप लोग परेशान हैं. हम से पहले क्यों नहीं कहा? वे जैसी आप की मां हैं वैसी ही हमारी भी तो मां हैं. आप दोनों निश्ंिचत हो कर बेटी की डिलीवरी के लिए जाइए, मांजी की जिम्मेदारी हमारे ऊपर छोड़ दीजिए. उन्हें कोई परेशानी नहीं होगी.

6 महीने तो क्या, आप चाहें तो और भी रह सकते हैं, बारबार तो विदेश जाना हो नहीं पाता, अत: अच्छी तरह घूमफिर कर ही आइएगा.’’

रमाकांतजी की बातें सुन कर मांजी का चेहरा खिल उठा, मानो उन के दिल पर रखा बोझ उतर गया हो और उन्होंने स्वयं रमाकांत की बात का समर्थन कर उन्हें जाने के लिए प्रोत्साहित किया.

पुत्री का मोह उन से वह करवा गया था जो वे पिछले 30 वर्षों में नहीं कर पाए थे. 2 दिन बाद ही वे न्यूयार्क के लिए रवाना हो गए. वे पहली बार घर से बाहर निकले पर फिर भी मन में वह खुशी और उमंग नहीं थी. उन्हें लगता था कि वे अपना मन वहीं छोड़ कर कर्तव्यों की बेडि़यों में बंधे जबरदस्ती चले आए हैं. यद्यपि वे हर हफ्ते ही फोन द्वारा मां का हालचाल लेते रहते थे लेकिन उन्हें यही बात बारबार चुभचुभ कर लहूलुहान करती रहती थी कि आवश्यकता के समय उन के अपनों ने उन का साथ नहीं दिया.

यहां तक कि उन की भावनाओं को समझने से भी इनकार कर दिया. वहीं, उन के पड़ोसी मित्र रमाकांत उन की अनुपस्थिति में सहर्ष मां की जिम्मेदारी उठाने को तैयार हो गए. वे समझ नहीं पा रहे थे कौन अपना है कौन पराया, खून के रिश्ते या आपसी आवश्यकताओं को निभाते दिल के रिश्ते…

कैसे हैं ये खून के रिश्ते जिन में एकदूसरे के लिए प्यार, विश्वास यहां तक कि सुखदुख में साथ निभाने की कर्तव्यभावना भी आज नहीं रही है. वे मानवीय संवेदनाए, भावनाएं कहां चली गईं जब एकदूसरे के सुखदुख में पूरा परिवार एकजुट हो कर खड़ा हो जाता था. दिनेश और दीपा उन की मजबूरी को क्यों नहीं समझ पाए. वे अंकिता के पास महज घूमने तो जा नहीं रहे थे कि अपना प्रोग्राम बदल देते या कैंसिल कर  देते. मां सिर्फ उन की ही नहीं, उन दोनों की भी तो हैं. जब वे पिछले 30 वर्षों से उन की देखभाल कर रहे हैं तो मात्र कुछ महीने उन्हें अपने पास रखने में उन दोनों को भला कौन सी परेशानी हो जाती? सुखदुख, हारीबीमारी, छोटीमोटी परेशानियां तो सदा इंसान के साथ लगी रहती हैं, इन से डर कर लोग अपने कर्तव्यों से मुख तो नहीं मोड़ लेते?

न्यूयार्क पहुंचने के 15 दिन बाद ही दीपेश और अनुपमा नानानानी बन सुख से अभिभूत हो उठे. अंकिता की पुत्री आकांक्षा को गोद में उठा कर एकाएक उन्हें लगा कि उन की सारी मनोकामनाएं पूरी हो गई हैं.

अंकिता उन की इकलौती पुत्री थी, उन की सारी आशाओं का केंद्रबिंदु थी. उस का विवाह आशुतोष से इतनी दूर करते हुए बहुत सी आशंकाएं उन के मन में जगी थीं पर अपने मित्र रमाकांत के समझाने व अंकिता की आशुतोष में रुचि देख कर बेमन से विवाह तो कर दिया था पर जानेअनजाने दूरी के कारण उस से न मिल पाने की बेबसी उन्हें कष्ट पहुंचा ही देती थी. लेकिन अब बेटी का सुखी घरसंसार देख कर उन की आंखें भर आईं.

आकांक्षा भी थोड़ी बड़ी हो चली थी अत: आशुतोष और अंकिता सप्ताहांत में उन्हें कहीं न कहीं घुमाने का कार्यक्रम बना लेते. स्टैच्यू औफ लिबर्टी के सौंदर्य ने उन का मन मोह लिया था, एंपायर स्टेट बिल्ंिडग को देख कर वे चकित थे, उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि 102 मंजिली इमारत, वह भी आज से 67-68 वर्ष पूर्व कोई बना सकता है और इतनी ऊंची इमारत भी कहीं कोई हो सकती है.

टाइम स्क्वायर की चहलपहल देख कर लगा सचमुच ही किसी ने कहा है कि न्यूयार्क कभी सोता नहीं है, वहीं मैडम तुसाद म्यूजियम में मोम की प्रतिमाएं इतनी सजीव लग रही थीं कि विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वे मोम की बनी हैं. वहां की साफसफाई, गगनचुंबी इमारतों, चौड़ी सड़कों व ऐलीवेटरों पर तेजी से उतरतेचढ़ते लोगों को देख कर वे अभिभूत थे, वहां जीवन चल नहीं रहा था बल्कि दौड़ रहा था.

आशुतोष और अंकिता ने मम्मीपापा के लिए वाश्ंिगटन और नियाग्रा फौल देखने के लिए टिकट बुक करने के साथ होटल की बुकिंग भी करवा दी थी. उन के साथ वे दोनों भी जाना चाहते थे पर आकांक्षा के छोटी होने के कारण नहीं जा पाए. वाश्ंिगटन में जहां केनेडी स्पेस म्यूजियम देखा वहीं वाइटहाउस तथा सीनेट की भव्य इमारत ने आकर्षित किया. वार मैमोरियल, लिंकन और रूजवैल्ट मैमोरियल ने यह सोचने को मजबूर किया कि यहां के लोग इतने आत्मकेंद्रित नहीं हैं जितना कि उन्हें प्रचारित किया जाता रहा है. अगर ऐसा होता तो ये मेमोरियल नहीं होते.

नियाग्रा फौल की खूबसूरती तो देखते ही बनती थी. हमारे होटल का कमरा भी फैल व्यू पर था. यहां आ कर अनु तो इतनी अभिभूत हो गई कि उस के मुंह से बस एक ही बात निकलती थी, ‘मेरी सारी शिकायतें दूर हो गईं. जिंदगी का मजा जो हम पहले नहीं ले पाए, अब ले रहे हैं. मन करता है इस दृश्य को आंखों में भर लूं और खोलूं ही नहीं.’ उस का उतावलापन देख कर ऐसा लगता था मानो वह 20-25 वर्ष की युवती बन गई है, वैसी ही जिद, प्यार और मनुहार, लगता था समय ठहर जाए. पर ऐसा कब हो पाया है? समय की अबाध धारा को भला कोई रोक पाया है?

देखतेदेखते उन के लौटने के दिन नजदीक आते जा रहे थे. उन्होंने अपने रिश्तेदारों के लिए उपहार खरीदने प्रारंभ कर दिए. एक डिपार्टमैंटल स्टोर से दूसरे डिपार्टमैंटल स्टोर, एक मौल से दूसरे मौल के चक्कर काटने में ही सुबह से शाम हो जाती थी. सब के लिए उपहार खरीदना वास्तव में कष्टप्रद था लेकिन इतनी दूर आ कर सब के लिए कुछ न कुछ ले जाना भी आवश्यक था. वैसे भी विदेशी वस्तुओं के आकर्षण से भारतीय अभी मुक्त नहीं हो पाए हैं. यह बात अनु के बेतहाशा शौपिंग करने से स्पष्ट परिलक्षित भी हो रही थी.

एकदो बार तो दीपेश ने उसे टोका तो वह बोली, ‘‘जीवन में पहली बार तो घर से निकली हूं, कम से कम अब तो अपने अरमान पूरे कर लेने दो, वैसे भी इतनी अच्छी चीजें भारत में कहां मिलेंगी?’’

अब उसे कौन समझाता कि विकेंद्रीकरण के इस युग में भारत भी किसी से पीछे नहीं है. यहां का बाजार भी इस तरह की विभिन्न वस्तुओं से भरा पड़ा है. लेकिन इन्हीं वस्तुओं को हम भारत में महंगी या अनुपयोगी समझ कर नहीं खरीदते हैं.

अंकिता और आशुतोष के सहयोग से खरीदारी का काम भी पूरा हो गया. अंत में रमाकांत और उन की पत्नी विभा के लिए उपहार खरीदने की उन की पेशकश पर अंकिता को आश्चर्यचकित देख कर वे बोले, ‘‘बेटी, वे पराए अवश्य हैं लेकिन तुम यह क्यों भूल रही हो कि इस समय तुम्हारी दादी की देखभाल की जिम्मेदारी निभा कर उन्होंने अपनों से अधिक हमारा साथ दिया है वरना हमारा तुम्हारे पास आना भी संभव न हो पाता. परिवार के सदस्यों के लिए उपहार ले जाना मेरी नजर में रस्मअदायगी है लेकिन उन के लिए उपहार ले जाना मेरा कर्तव्य है.’’

लौटने पर अभी व्यवस्थित भी नहीं हो पाए थे कि भाई दिनेश और बहन दीपा सपरिवार आ गए, क्रोध भी आया कि यह भी नहीं सोचा कि 6 महीने के पश्चात घर लौटने पर फिर से व्यवस्थित होने में समय लगता है. दीपेश के चेहरे पर गुस्सा देख अनु ने उन्हें किनारे ले जा कर धीरे से कहा, ‘‘गुस्सा थूक दीजिए. यह सोच कर खुश होने का प्रयत्न कीजिए कि कम से कम इस समय तो सब ने आ कर हमारा मान बढ़ाया है. आप बड़े हैं भूलचूक माफ कर बड़प्पन दिखाइए.’’

अनु की बात सुन कर दीपेश ने मन के क्रोध को दबाया सकारात्मक सोच से उन का स्वागत किया. खुशी तो उन्हें इस बात पर हो रही थी कि सदा झुंझलाने वाली अनु सब को देख कर अत्यंत खुश थी. शायद, उसे अपने विदेश प्रवास का आंखों देखा हाल सुनाने के लिए कोई तो चाहिए था या इतने दिनों तक घरपरिवार के झंझटों से मुक्त रहने तथा मनमाफिक भ्रमण करने के कारण उस का तनमन खुशियों से ओतप्रोत था और अपनी इसी खुशी में सभी को सम्मिलित कर वह अपनी खुशी दोगुनी करना चाहती थी.

‘‘मैं ने और अनु ने काफी सोचविचार के पश्चात तुम सभी के लिए उपहार खरीदे हैं, आशा है पसंद आएंगे,’’ शाम को फुरसत के क्षणों में दीपेश ने सूटकेस खोल कर प्रत्येक को उपहार पकड़ाते हुए कहा.

अटैची खाली हो चुकी थी. उस में एक पैकेट पड़ा देख कर सब की निगाहें उसी पर टिकी थीं. उसे उठा कर अनु को देखते हुए दीपेश ने कहा, ‘‘यह उपहार रमाकांत और विभा भाभी के लिए है, जा कर उन्हें दे आओ.’’

‘‘लेकिन उन के लिए उपहार लाने की क्या आवश्यकता थी?’’ अम्मा ने प्रश्नवाचक नजरों से पूछा.

‘‘अम्मा, शायद तुम भूल गईं कि तुम्हारे अपने जो तुम्हें कुछ माह भी अपने पास रखने को तैयार नहीं हुए थे, उस समय रमाकांत और उन की पत्नी विभा ने न केवल हमारी समस्या को समझा बल्कि तुम्हारी देखभाल की जिम्मेदारी उठाने को भी सहर्ष तैयार हो गए. अम्मा, तुम्हारी निगाहों में उन की भलमनसाहत की भले ही कोई कीमत न हो या तुम्हारे लिए वे आज भी पराए हों पर मेरे लिए आज रमाकांत पराए हो कर भी मेरे अपनों से बढ़ कर हैं,’’ कहते हुए दीपेश के स्वर में न चाहते हुए भी कड़वाहट आ गई.

अनु उपहार ले कर रमाकांत और विभा भाभी को देने चली गई थी. सच बात सुन कर सब के चेहरे उतर गए थे. दीपेश जानते थे कि उन के अपने उन से उपहार प्राप्त कर के भी खुश नहीं हैं क्योंकि वे उन के प्रेम से लाए उपहारों को पैसे के तराजू पर तौल रहे हैं जबकि रमाकांत और विभा उन से प्राप्त उपहारों को देख कर फूले नहीं समा रहे होंगे क्योंकि उन्हें उन से कोई अपेक्षा नहीं थी. उन्होंने एक मां की सेवा कर मानवीय धर्म निभाया है. Best Family Story

Friendship Story: वहां आकाश और है

Friendship Story: अचानक शुरू हुई रिमझिम ने मौसम खुशगवार कर दिया था. मानसी ने एक नजर खिड़की के बाहर डाली. पेड़पौधों पर झरझर गिरता पानी उन का रूप संवार रहा था. इस मदमाते मौसम में मानसी का मन हुआ कि इस रिमझिम में वह भी अपना तनमन भिगो ले.

मगर उस की दिनचर्या ने उसे रोकना चाहा. मानो कह रही हो हमें छोड़ कर कहां चली. पहले हम से तो रूबरू हो लो.

रोज वही ढाक के तीन पात. मैं ऊब गई हूं इन सब से. सुबहशाम बंधन ही बंधन. कभी तन के, कभी मन के. जाओ मैं अभी नहीं मिलूंगी तुम से. मन ही मन निश्चय कर मानसी ने कामकाज छोड़ कर बारिश में भीगने का मन बना लिया.

क्षितिज औफिस जा चुका था और मानसी घर में अकेली थी. जब तक क्षितिज घर पर रहता था वह कुछ न कुछ हलचल मचाए रखता था और अपने साथसाथ मानसी को भी उसी में उलझाए रखता था. हालांकि मानसी को इस बात से कोई आपत्ति नहीं थी और वह सहर्ष क्षितिज का साथ निभाती थी. फिर भी वह क्षितिज के औफिस जाते ही स्वयं को बंधनमुक्त महसूस करती थी और मनमानी करने को मचल उठती थी.

इस समय भी मानसी एक स्वच्छंद पंछी की तरह उड़ने को तैयार थी. उस ने बालों से कल्चर निकाल उन्हें खुला लहराने के लिए छोड़ दिया जो क्षितिज को बिलकुल पसंद नहीं था. अपने मोबाइल को स्पीकर से अटैच कर मनपसंद फिल्मी संगीत लगा दिया जो क्षितिज की नजरों में बिलकुल बेकार और फूहड़ था.

अत: जब तक वह घर में रहता था, नहीं बजाया जा सकता था. यानी अब मानसी अपनी आजादी के सुख को पूरी तरह भोग रही थी.

अब बारी थी मौसम का आनंद उठाने की. उस के लिए वह बारिश में भीगने के लिए आंगन में जाने ही वाली थी कि दरवाजा खटखटाने की आवाज आई.

इस भरी बरसात में कौन हो सकता है. पोस्टमैन के आने में तो अभी देरी है. धोबी नहीं हो सकता. दूध वाला भी नहीं. तो फिर कौन है? सोचतीसोचती मानसी दरवाजे तक जा पहुंची.

दरवाजे पर वह व्यक्ति था जिस की वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी.

‘‘आइए,’’ उस ने दरवाजा खोलते हुए कुछ संकोच से कहा और फिर जैसे ही वह आगंतुक अंदर आने को हुआ बोली, ‘‘पर वे तो औफिस चले गए हैं.’’

‘‘हां, मुझे पता है. मैं ने उन की गाड़ी निकलते देख ली थी,’’ आगंतुक जोकि उन के महल्ले का ही था ने अंदर आ कर सोफे पर बैठते हुए कहा.

यह सुन कर मानसी मन ही मन बड़बड़ाई कि जब देख ही लिया था तो फिर क्यों चले आए हो… वह मन ही मन आकाश के बेवक्त यहां आने पर कु्रद्ध थी, क्योंकि उन के आने से उस का बारिश में भीगने का बनाबनाया प्रोग्राम चौपट हो रहा था. मगर मन मार कर वह भी वहीं सोफे पर बैठ गई.

शिष्टाचारवश मानसी ने बातचीत का सिलसिला शुरू किया, ‘‘कैसे हैं आप? काफी दिनों बाद नजर आए.’’

‘‘जैसा कि आप देख ही रहीं… बिलकुल ठीक हूं. काम पर जाने के लिए निकला ही था कि बरसात शुरू हो गई. सोचा यहीं रुक जाऊं. इस बहाने आप से मुलाकात भी हो जाएगी.’’

‘‘ठीक किया जो चले आए. अपना ही घर है. चायकौफी क्या लेंगे आप?’’

‘‘जो भी आप पिला दें. आप का साथ और आप के हाथ हर चीज मंजूर है,’’ आकाश ने मुसकरा कर कहा तो मानसी का बिगड़ा मूड कुछ हद तक सामान्य हो गया, क्योंकि उस मुस्कराहट में अपनापन था.

मानसी जल्दी 2 कप चाय बना लाई. चाय के दौरान भी कुछ औपचारिक बातें होती रहीं. इसी बीच बूंदाबांदी कम हो गई.

‘‘आप की इजाजत हो तो अब मैं चलूं?’’ फिर आकाश के चेहरे पर वही मुसकराहट थी.

‘‘जी,’’ मानसी ने कहा, ‘‘फिर कभी फुरसत से आइएगा भाभीजी के साथ.’’

‘‘अवश्य यदि वह आना चाहेगी तो उसे भी ले आऊंगा. आप तो जानती ही हैं कि उसे कहीं आनाजाना पसंद नहीं,’’ कहतेकहते आकाश के चेहरे पर उदासी छा गई.

मानसी को लगा कि उस ने आकाश की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो, क्योंकि वह जानती थी कि आकाश की पत्नी मानसिक रूप से अस्वस्थ है और इसी कारण लोगों से बात करने में हिचकिचाती है.

‘‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं?’’ अगले दिन भी जब उसी मुसकराहट के साथ आकाश ने पूछा तो जवाब में मानसी भी मुसकरा दी और दरवाजा खोल दिया.

‘‘चाय या कौफी?’’

‘‘कुछ नहीं… औपचारिकता करने की आवश्यकता नहीं. आज भी तुम से दो घड़ी बात करने की इच्छा हुई तो फिर चला आया.’’

‘‘अच्छा किया. मैं भी बोर ही हो रही थी,’’ मानसी जानती थी कि उन्हें यह बताने की आवश्यकता नहीं थी कि क्षितिज कहां है, क्योंकि निश्चय ही वे जानते थे कि वे घर पर नहीं हैं.

इस तरह आकाश के आनेजाने का सिलसिला शुरू हो गया वरना इस महल्ले में किसी के घर आनेजाने का रिवाज कम ही था. यहां अधिकांश स्त्रियां नौकरीपेशा थीं या फिर छोटे बालबच्चों वाली. एक वही अपवाद थी जो न तो कोई जौब करती थी और न ही छोटे बच्चों वाली थी.

मानसी का एकमात्र बेटा 10वीं कक्षा में बोर्डिंग स्कूल में पढ़ता था. अपने अकेलेपन से जूझती मानसी को अकसर अपने लिए एक मित्र की आवश्यकता महसूस होती थी और अब वह आवश्यकता आकाश के आने से पूरी होने लगी थी, क्योंकि वे घरगृहस्थी की बातों से ले कर फिल्मों, राजनीति, साहित्य सभी तरह की चर्चा कर लेते थे.

आकाश लगभग रोज ही आफिस जाने से पूर्व मानसी से मिलते हुए जाते थे और अब स्थिति यह थी कि मानसी क्षितिज के जाते ही आकाश के आने का इंतजार करने लग जाती थी.

एक दिन जब आकाश नहीं आए तो अगले दिन उन के आते ही मानसी ने पूछा, ‘‘क्या हुआ, कल क्यों नहीं आए? मैं ने कितना इंतजार किया.’’

आकाश ने हैरानी से मानसी की ओर देखा और फिर बोले, ‘‘क्या मतलब? मैं ने रोज आने का वादा ही कब किया है?’’

‘‘सभी वादे किए नहीं जाते… कुछ स्वयं ही हो जाते हैं. अब मुझे आप के रोज आने की आदत जो हो गई है.’’

‘‘आदत या मुहब्बत?’’ आकाश ने मुसकरा कर पूछा तो मानसी चौंकी, उस ने देखा कि आज उन की मुसकराहट अन्य दिनों से कुछ अलग है.

मानसी सकपका गई. पर फिर उसे लगा कि शायद वे मजाक कर रहे हैं. अपनी सकपकाहट से अनभिज्ञता का उपक्रम करते हुए वह सदा की भांति बोली, ‘‘बैठिए, आज क्षितिज का जन्मदिन है. मैं ने केक बनाया है. अभी ले कर आती हूं.’’

‘‘तुम ने मेरी बात का जवाब नहीं दिया.’’ आकाश फिर बोले तो उसे बात की गंभीरता का एहसास हुआ.

‘‘क्या जवाब देती.’’

‘‘कह दो कि तुम मेरा इंतजार इसलिए करती हो कि तुम मुझे पसंद करती हो.’’

‘‘हां दोनों ही बातें सही हैं.’’

‘‘यानी मुहब्बत है.’’

‘‘नहीं, मित्रता.’’

‘‘एक ही बात है. स्त्री और पुरुष की मित्रता को यही नाम दिया जाता है,’’ आकाश ने मानसी की ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा.

‘‘हां दिया जाता है,’’ मानसी ने हाथ को हटाते हुए कहा, ‘‘क्योंकि साधारण स्त्रीपुरुष मित्रता का अर्थ इसी रूप में जानते हैं और मित्रता के नाम पर वही करते हैं जो मुहब्बत में होता है.’’

‘‘हम भी तो साधारण स्त्रीपुरुष ही हैं.’’

‘‘हां हैं, परंतु मेरी सोच कुछ अलग है.’’

‘‘सोच या डर?’’

‘‘डर किस बात का?’’

‘‘क्षितिज का. तुम डरती हो कि कहीं उसे पता चल गया तो?’’

‘‘नहीं, प्यार, वफा और समर्पण को डर नहीं कहते. सच तो यह है कि क्षितिज तो अपने काम में इतना व्यस्त है कि मैं उस के पीछे क्या करती हूं, वह नहीं जानता और यदि मैं न चाहूं तो वह कभी जान भी नहीं पाएगा.’’

‘‘फिर अड़चन क्या है?’’

‘‘अड़चन मानसिकता की है, विचारधारा की है.’’

‘‘मानसिकता बदली जा सकती है.’’

‘‘हां, यदि आवश्यकता हो तो… परंतु मैं इस की आवश्यकता नहीं समझती.’’

‘‘इस में बुराई ही क्या है?’’

‘‘बुराई है… आकाश, आप नहीं जानते हमारे समाज में स्त्रीपुरुष की दोस्ती को उपेक्षा की दृष्टि से देखने का यही मुख्य कारण है. जानते हो एक स्त्री और पुरुष बहुत अच्छे मित्र हो सकते हैं, क्योंकि उन के सोचने का दृष्टिकोण अलग होता है. इस से विचारों में विभिन्नता आती है. ऐसे में बातचीत का आनंद आता है, परंतु ऐसा नहीं होता.’’

‘‘अकसर एक स्त्री और पुरुष अच्छे मित्र बनने के बजाय प्रेमी बन कर रह जाते हैं और फिर कई बार हालात के वशीभूत हो कर एक ऐसी अंतहीन दिशा में बहने लगते हैं जिस की कोई मंजिल नहीं होती.’’

‘‘परंतु यह स्वाभाविक है, प्राकृतिक है, इसे क्यों और कैसे रोका जाए?’’

‘‘अपने हित के लिए ठीक उसी प्रकार जैसे हम ने अन्य प्राकृतिक चीजों, जिन से हमें नुकसान हो सकता है, पर नियंत्रण पा लिया है.’’

‘‘यानी तुम्हारा इनकार है,’’ ऐसा लगता था आकाश कुछ बुझ से गए थे.

‘‘इस में इनकार या इकरार का प्रश्न ही कहां है? मुझे आप की मित्रता पर अभी भी कोई आपति नहीं है बशर्ते आप मुझ से अन्य कोई अपेक्षा न रखें.’’

‘‘दोनों बातों का समानांतर चलना बहुत मुश्किल है.’’

‘‘जानती हूं फिर भी कोशिश कीजिएगा.’’

‘‘चलता हूं.’’

‘‘कल आओगे?’’

‘‘कुछ कह नहीं सकता.’’

सुबह के 10 बजे हैं. क्षितिज औफिस चला गया है पर आकाश अभी तक नहीं आए. मानसी को फिर से अकेलापन महसूस होने लगा है.

‘लगता है आकाश आज नहीं आएंगे. शायद मेरा व्यवहार उन के लिए अप्रत्याशित था, उन्हें मेरी बातें अवश्य बुरी लगी होंगी. काश वे मुझे समझ पाते,’ सोच मानसी ने म्यूजिक औन कर दिया और फिर सोफे पर बैठ कर एक पत्रिका के पन्ने पलटने लगीं.

सहसा किसी ने दरवाजा खटखटाया. मानसी दरवाजे की ओर लपकी. देखा दरवाजे पर सदा की तरह मुसकराते हुए आकाश ही थे. मानसी ने भी मुसकरा कर दरवाजा खोल दिया. उस ने आकाश की ओर देखा. आज उन की वही पुरानी चिरपरिचित मुसकान फिर लौट आई थी.

इसी के साथ आज मानसी को विश्वास हो गया कि अब समाज में स्त्रीपुरुष के रिश्ते की उड़ान को नई दिशाएं अवश्य मिल जाएंगी, क्योंकि उन्हें वहां एक आकाश और मिल गया है.

Hindi Moral Story: पिघलती बर्फ- क्यों स्त्रियां स्वयं को हीन बना लेती हैं?

Hindi Moral Story: “आज ब्रहस्पतिवार को तूने फिर सिर धो लिया. कितनी बार कहा है कि ब्रहस्पतिवार को सिर मत धोया कर, लक्ष्मीजी नाराज हो जाती हैं,” मां ने प्राची को टोकते हुए कहा.

“मां सिर चिपचिपा रहा था,” मां की बात सुन कर धीमे स्वर में अपनी बात कह प्राची मन ही मन बुदबुदाई, ‘सोमवार, बुधवार और गुरुवार को सिर न धोओ. शनिवार, मंगलवार, गुरुवार को बाल न कटवाओ क्योंकि गुरुवार को बाल कटवाने से धन की कमी तथा मंगल व शनिवार को कटवाने से आयु कम होती है. वहीं, शनि, मंगल और गुरुवार को नाखून काटने की भी मां की सख्त मनाही थी. कोई वार बेटे पर तो कोई पति पर और नहीं, तो लक्ष्मीजी का कोप… उफ, इतने बंधनों में बंधी जिंदगी भी कोई जिंदगी है.

“कल धो लेती, किस ने मना किया था पर तुझे तो कुछ सुनना ही नहीं है. और हां, आज शाम से तुझे ही खाना बनाना है.” प्राची मां की यह बात सुन कर मन के चक्रव्यूह से बाहर आई.

ओह, यह अलग मुसीबत…सोमवार से तो मेरे एक्जाम हैं. सब मैं ही करूं, भाई तो हाथ लगाएगा नहीं, यह सोच कर प्राची ने सिर पकड़ लिया.

‘अब क्या हो गया?’ मां ने उसे ऐसा करते देख कर कहा.

‘मां सोमवार से तो मेरे एक्जाम हैं,’ प्राची ने कहा.

‘तो क्या हुआ, कौन सा तुझे डिप्टी कलैक्टर बनना है?’

‘मां, क्या जब डिप्टी कलैक्टर बनना हो, तभी पढ़ाई करनी चाहिए, वैसे नहीं. वैसे भी, मुझे डिप्टी कलैक्टर नहीं बनना, मुझे डाक्टर बनना है और मैं बन कर दिखाऊंगी,” कहते हुए प्राची ने बैग उठाया और कालेज के लिए चल दी.

‘नखरे तो देखो इस लड़की के, सास के घर जा कर नाक कटाएगी. अरे, अभी नहीं सीखेगी तो कब सीखेगी. लड़की कितनी भी पढ़लिख जाए पर रीतिरिवाजों को तो मानना ही पड़ता है.” प्राची के उत्तर को सुन कर सरिता बड़बड़ाईं.

प्राची 10वीं कक्षा की छात्रा है. वह विज्ञान की विद्यार्थी है. सो, उसे इन सब बातों पर विश्वास नहीं है. मां को जो करना है करें पर हमें विवश न करें. पापा भी उन की इन सब बातों से परेशान रहते हैं लेकिन घर की सुखशांति के लिए उन्होंने यह सब सहना सीख लिया है. ऐसा नहीं था कि मां पढ़ीलिखी नहीं हैं, वे सोशल साइंस में एमए तथा बीएड थीं लेकिन शायद उन की मां तथा दादी द्वारा बोए बीज जबतब अंकुरित हो कर उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर करते थे. प्राची ने मन ही मन निर्णय कर लिया था कि चाहे जो हो जाए वह अपने मन में इन बीजों को पनपने नहीं देगी.

प्राची के एक्जाम खत्म हुए ही थे कि एक दिन पापा नई कार मारूति स्विफ्ट ले कर घर आए. अभी वह और भाई विजय गाड़ी देख ही रहे थे कि मां नीबू और हरीमिर्च हाथ में ले कर आईं. उन्होंने नीबू और हरीमिर्च हाथ में ले कर गाड़ी के चारों ओर चक्कर लगाया तथा गाड़ी पर रोली से स्वास्तिक का निशान बना कर उस पर फूल मालाएं तथा कलावा चढ़ा कर मिठाई का एक पीस रखा. उस के बाद मां ने नारियल हाथ में उठाया…

“अरे, नारियल गाड़ी पर मत फोड़ना,” अचानक पापा चिल्लाए.

“तुम मुझे बेवकूफ समझते हो. गाड़ी पर नारियल फोडूंगी तो उस जगह गाड़ी दब नहीं जाएगी,” कहते हुए मां ने गाड़ी के सामने पहले से धो कर रखी ईंट पर नारियल फोड़ कर ‘ जय दुर्गे मां’ का उद्घोष करते हुए ‘यह गाड़ी हम सब के लिए शुभ हो’ कह कर गाड़ी के सात चक्कर न केवल खुद लगाए बल्कि हम सब को भी लगाने के लिए भी कहा.

“तुम लगा ही रही हो, फिर हमारे लगाने की क्या आवश्यकता है,” पापा ने थोड़ा विरोध करते हुए कहा.

“आप तो पूरे नास्तिक हो गए हो. आप ने देखा नहीं, टीवी पर लड़ाकू विमान राफेल लाने गए हमारे रक्षामंत्री ने फ्रांस में भी तो यही टोटके किए थे.”

मां की बात सुन कर पापा चुप हो गए. सच, जब नामी व्यक्ति ऐसा करेंगे तो इन बातों पर विश्वास रखने वालों को कैसे समझाया जा सकता है.

समय बीतता गया. मां की सारी बंदिशों के बावजूद प्राची को मैडिकल में दाखिला मिल ही गया. लड़की होने के कारण मां उसे दूर नहीं भेजना चाहती थीं, किंतु इस बार पापा चुप न रह सके. उन्होंने मां से कहा, “मैं ने तुम्हारी किसी बात में दखल नहीं दिया. किंतु आज प्राची के कैरियर का प्रश्न है, इस बार मैं तुम्हारी कोई बात नहीं सुनूंगा. मेरी बेटी मैडिकल की प्रतियोगी परीक्षा में सफल हुई है, उस ने सिर्फ हमारा ही नहीं, हमारे पूरे खानदान का नाम रोशन किया है. उसे उस की मंजिल तक पहुंचाने में सहायता करना हमारा दायित्व है.”

मां की अनिच्छा के बावजूद पापा प्राची को इलाहाबाद मैडिकल कालेज में पढ़ने के लिए ले कर गए. पापा जब उसे होस्टल में छोड़ कर वापस आने लगे तब वह खुद को रोक न पाई, फूटफूट कर रोने लगी थी.

“बेटा, रो मत. तुझे अपना सपना पूरा करना है न, बस, अपना ख़याल रखना. तुझे तो पता है तेरी मां तुझे ले कर कितनी आशंकित हैं,” पापा ने उसे समझाते हुए उस के सिर पर हाथ फेरा तथा बिना उस की ओर देखे चले गए. शायद, वे अपनी आंखों में आए आंसुओं को उस से छिपाना चाहते थे.

पापा के जाने के बाद प्राची निशब्द बैठी थी. बारबार उस के मन में आ रहा था कि वह दुखी क्यों है? आखिर उस की ही इच्छा तो उस के पापा ने उस की मां के विरुद्ध जा कर पूरी की है. अब उसे पापा के विश्वास पर खरा उतरना होगा. प्राची ने स्वयं से ही प्रश्न किया तथा स्वयं ही उत्तर भी दिया.

“मैं, अंजली. और तुम?’ अंजली ने कमरे में प्रवेश करते ही कहा.

“मैं, प्राची.”

“बहुत प्यारा नाम है. उदास क्यों हो? क्या घर की याद आ रही है?”

प्राची ने निशब्द उस की ओर देखा.

“मैं तुम्हारा दर्द समझ सकती हूं. जब भी कोई पहली बार घर छोड़ता है तब उस की मनोदशा तुम्हारी तरह ही होती है. पर धीरेधीरे सब ठीक हो जाएगा. सारी बातों को दिल से निकाल कर बस यह सोचो, हम अपना कैरियर बनाने के लिए यहां आए हैं.”

“तुम सच कह रही हो,” प्राची ने चेहरे पर मुसकान लाते हुए कहा.

“अच्छा, अब मैं चलती हूं. थोड़ा फ्रेश हो लूं. अपने कमरे में जा रही थी कि तुम्हारा कमरा खुला देख कर तुम्हारी ओर नजर गई, सोचा मिल तो लूं अपनी नई आई सखी से. मेरा कमरा बगल वाला है. रात्रि 8 बजे खाने का समय है, तैयार रहना. अपना यह बिखरा सामान आज ही समेट लेना, कल से कालेज जाना है,” अंजली ने कहा.

अंजली के जाते ही प्राची अपना सामान अलमारी में लगाने लगी. तभी मोबाइल की घंटी बज उठी. फोन मां का था. “बेटा, तू ठीक है न? सच, अकेले अच्छा नहीं लग रहा है. बहुत याद आ रही है तेरी.”

“मां, मुझे भी…’ कह कर वह रोने लगी.

“तू लौट आ,” मां ने रोते हुए कहा.

“प्राची, क्या हुआ? अगर तू ऐसे कमजोर पड़ेगी तो पढ़ेगी कैसे? नहीं बेटा, रोते नहीं हैं. तेरी मां तो ऐसे ही कह रही है.” पापा ने मां के हाथ से फोन ले कर उसे ढाढस बंधाते हुए कहा.

“अरे, तुम अभी बात ही कर रही हो, खाना खाने नहीं चलना.”

“बस, अभी…पापा, मैं खाना खाने जा रही हूं, आ कर बात करती हूं.”

मेस में उन की तरह कई लड़कियां थीं. अंजली ने सब को नमस्ते की. उस ने भी अंजली का अनुसरण किया. सभी ने उन का बेहद अपनेपन से स्वागत करते हुए एकदूसरे का परिचय प्राप्त किया. सब से परिचय करने के बाद अंजली ने एक टेबल की कुरसी खिसकाते हुए उसे बैठने का इशारा किया और स्वयं भी बैठ गई. अभी वे बैठी ही थीं कि उन के सामने वाली कुरसी पर 2 लड़कियां आ कर बैठ गईं. अंजली और प्राची ने उन का खड़े हो कर अभिवादन किया.

उन दोनों ने उन्हें बैठने का आदेश देते हुए उन का परिचय प्राप्त करते हुए तथा अपना परिचय देते हुए साथसाथ खाना खाया. रेखा और बबीता सीनियर थीं. वे बहुत आत्मीयता से बातें कर रही थीं. खाना भी ठीक लगा. खाना खा कर जब वह अपने कमरे में जाने लगी तो रेखा ने उस के पास आ कर कहा, “प्राची और अंजली, तुम दोनों नईनई आई हो, इसलिए कह रही हूं, हम सब यहां एक परिवार की तरह ही रह रहे हैं, तुम कभी स्वयं को अकेला मत समझना. हंसीमजाक में अगर कोई तुम्हें कुछ कहे तो सहजता से लेना. दरअसल, कुछ सीनियर्स, जूनियर की खिंचाई कर ही लेते हैं.”

“रेखा दी और प्राची, ये खाओ बेसन के लड्डू. मां ने साथ में रख दिए थे,” अंजलि ने एक प्लेट उन के आगे बढ़ाते हुए कहा.

“बहुत अच्छे बने हैं,” एकएक लड्डू उठा कर खाते हुए प्राची और रेखा ने कहा.

रेखा दीदी और अंजली का व्यवहार देख कर एकाएक प्राची को लगा कि जब ये लोग रह सकती हैं तो वह क्यों नहीं. मन में चलता द्वंद्व ठहर गया था. अंजली ने बताया, सुबह 8 बजे नाश्ते का समय है.

अपने कमरे में आ कर प्राची अब काफी व्यवस्थित हो गई थी. तभी मां का फोन आ गया…”मैन, चिंता मत करो, मैं ठीक हूं. यहां सब अच्छे हैं,” प्राची ने सारी घटनाएं उन्हें बताते हुए कहा.

“ठीक है बेटा, पर ध्यान से रहना. आज के जमाने में किसी पर भरोसा करना उचित नहीं है. कल तेरा कालेज का पहला दिन है. हनुमान जी की फोटो किसी उचित स्थान पर रख कर उन के सामने दिया जला कर, उन से आशीर्वाद ले कर जाना.”

“जी मां.”

ढेरों ताकीदें दे कर मां ने फोन रख दिया था. समय बीतता गया. वह कदमदरकदम आगे बढ़ती गई. पढ़ते समय ही उस की दोस्ती अपने साथ पढ़ने वाले जयदीप से हो गई. एमबीबीएस खत्म होने तक वह दोस्ती प्यार में बदल गई. लेकिन अभी उन की मंजिल विवाह नहीं थी. प्राची को गाइनोलौजिस्ट बनना था जबकि जयदीप को जरनल सर्जरी में एमएस करना था.

उस के एमबीबीएस करते ही मां उस पर विवाह के लिए दबाव बनाने लगी किंतु उस ने अपनी इच्छा बताते हुए विवाह के लिए मना कर दिया. रैजीडैंसी करते हुए उन्होंने पीजी की तैयारी प्रारंभ कर दी. कहते हैं, जब लक्ष्य सामने हो, परिश्रम भरपूर हो तो मंजिल न मिले, ऐसा हो नहीं सकता. पीजी की डिग्री मिलते ही उन्हें दिल्ली के प्रसिद्ध अपोलो अस्पताल में जौब मिल गया.

उस के जौब मिलते ही मां ने विवाह की बात छेड़ी तो प्राची ने जयदीप से विवाह की इच्छा जाहिर की.

पहले तो मां बिगड़ीं, बाद में मान गईं लेकिन फिर भी उन के मन में संदेह था कि वह बंगाली परिवार में एडजस्ट कर पाएगी कि नहीं. उन्होंने उन दोनों को मिलने के लिए बुलाया. जयदीप आखिर उस के मांपापा को पसंद आ ही गया.

प्राची मंगली थी, सो, मां ने पंडितजी को बुलवा कर उन की कुंडली मिलवाई तो पता चला कि जयदीप मंगली नहीं है. पंडितजी की बात सुन कर मां चिंताग्रस्त हो गई थीं.

“पंडितजी, प्राची के मंगल को शांत करने का कोई उपाय है?”

“प्राची का उच्च मंगल लड़के का अनिष्ट कर सकता है. विवाह से पूर्व प्राची का पीपल के पेड़ से विवाह करा दें, तो मंगलीदोष दूर हो जाएगा या फिर वह 29 वर्ष की उम्र के बाद विवाह करे,” पंडितजी ने मां की चिंता का निवारण करते हुए कहा.

मां ने प्राची को पंडितजी की बात बताई तो वह भड़क गई तथा उस ने पीपल के वृक्ष से विवाह के लिए मना कर दिया.

“बेटी, शायद तुझे पता न हो, विश्वसुंदरी तथा मशहूर हीरोइन ऐश्वर्या राय बच्चन ने भी अपने मांगलिक दोष को दूर करने के लिए पीपल के वृक्ष से विवाह किया था,” मां ने प्राची को समझाने की कोशिश करते हुए कहा.

“मां, क्या ऐश्वर्या ने ठीक किया था? माना उस ने ठीक किया था, तो यह कोई आवश्यक नहीं कि मैं भी वही करूं जो ऐश्वर्या ने किया. मेरी अपनी सोच है, समझ है, स्वयं पर दृढ़विश्वास है. दुर्घटनाएं या जीवन में उतारचढ़ाव तो हर इंसान के जीवन में आते हैं. ऐसी परिस्थितियों से स्वयं को उबारना, जूझना तथा जीवन में संतुलन बना कर चलना ही इंसान का मुख्य ध्येय होना चाहिए, न कि टोनेटोटकों में इंसान अपनी आधी जिंदगी या ऊर्जा बरबाद कर स्वयं भी असंतुष्ट रहें तथा दूसरों को भी असंतुष्ट रखें,” प्राची ने शांत स्वर में कहा.

“बेटा, हमारे समाज में कुछ मान्यताएं ऐसी हैं जिन्हें मानने से किसी का कुछ नुकसान नहीं होता, लेकिन किसी के मन को शांति मिल जाए, तो उसे मानने में क्या बुराई है. मैं ने तेरी जिद के कारण, अपने मन को मार कर तेरी खुशी के लिए तेरे विजातीय विवाह को स्वीकार कर लिया जबकि हमारे खानदान में आज तक ऐसा नहीं हुआ. ऐसे में तू क्या अपनी मां की छोटी सी इच्छा पूरी नहीं कर सकती. मैं तेरे भले के लिए कह रही हूं. तेरा भारी मंगल तेरे जयदीप की जान भी ले सकता है,” मां ने अपना आखिरी हथियार आजमाने की कोशिश करते हुए कहा.

“मां, मैं आप से बहुत प्यार करती हूं. आप को दिल से धन्यवाद देती हूं कि आप ने मेरी खुशी के लिए हमारे विवाह की स्वीकृति दी, लेकिन जिन मान्यताओं पर मुझे विश्वास नहीं है, उन्हें मैं कैसे मान लूं. पीपल के वृक्ष से विवाह कर के क्या ताउम्र मैं अपने व्यक्तित्व के अपमान की अग्नि में नहीं जलती रहूंगी? क्या जबजब मुझे अपना यह कृत्य याद आएगा तबतब मुझे ग्लानि या हीनभावना के विषैले डंक नहीं डसेंगे? अगर जयदीप मांगलिक होता और मैं मांगलिक नहीं होती तब क्या जयदीप को भी हमारा समाज पीपल के वृक्ष से विवाह करने के लिए कहता? क्या यह स्त्री के स्त्रीत्व या उस की गरिमा का अपमान नहीं है? स्त्री के साथ कोई अनहोनी हो जाए तो कोई बात नहीं लेकिन पुरुष के साथ कोई हादसा न हो, इस के लिए ऐसे ढकोसले… हमारा समाज जीवन में आई हर विपत्ति के लिए सदा स्त्री को ही क्यों कठघरे में खड़ा करता है? स्त्री हो कर भी क्या आप ने कभी सोचा है?

“नहीं मां, नहीं. शायद, हम स्त्रियों का तो कोई आत्मसम्मान है ही नहीं. होगा भी कैसे, जब हम स्त्रियों को ही स्वयं पर विश्वास नहीं है. तभी तो हम स्त्रियां अनुमानित विपदा को टालने के लिए व्यर्थ के ढकोसलों- व्रत, उपवास, यह न करो, वह न करो आदि में न केवल स्वयं लिप्त रहतीं हैं बल्कि अपने बच्चों को भी मानने के लिए विवश कर उन के विश्वास को कमजोर करने से नहीं चूकतीं.

“मैं आप की खुशी और आप के मन की शांति के विवाह के लिए 2 वर्ष और इंतजार कर सकती हूं पर पीपल के वृक्ष से विवाह कर स्वयं को स्वयं की नजरों नहीं गिरने दूंगी. मुझे अपने प्यार पर विश्वास है, वह मेरी बात कभी नहीं टालेगा.”

“किंतु तेरे मंगली होने की बात मुझे तेरी सासससुर को बतानी होगी. कहीं ऐसा न हो कि बाद में वे हम पर इस बात को छिपाने का दोष लगा दें.”

“जैसा आप उचित समझें,” कह कर प्राची उठ कर चली गई.

“तुम्हारी जिद्दी बेटी को समझाना बहुत मुश्किल है. पंडितजी सही कह रहे हैं. इस का मंगल उच्च है, तभी इस में इतनी निडरता और आत्मविश्वास है. अगर लड़के वालों को कोई आपत्ति नहीं है, तो कर देते हैं विवाह,” पापा ने उस के उठ कर जाते ही मां से कहा.

“कहीं लड़के का अनिष्ट…” मां के चेहरे पर चिंता की लकीरें झलक आई थीं.

“कैसी बातें कर रही हो तुम? तुम ही कहतीं थीं कि तुम्हारे पिताजी सदा कहते थे कि अच्छाअच्छा सोचो, तो अच्छा होगा. हमारे नकारात्मक विचार हमें सदा चिंतित तो रखते ही हैं, किसी कार्य की सफलता के प्रति हमारी दुविधा के प्रतीक भी हैं. वहीं, सकारात्मक विचार हमें सकारात्मक ऊर्जा से भर कर हमारे कार्य को सफल बनाने में सहायक होते हैं. तुम चिंता मत करो, हमारी प्राची में हौसला है, विश्वास है, उस का कभी अनिष्ट नहीं होगा. अब हमें विवाह की तैयारी करनी चाहिए,” पापा ने मां को समझाते हुए कहा.

“जैसा आप उचित समझें, लेकिन अगर हम जयदीप के मातापिता से इस संदर्भ में बात कर लें तो मेरी सारी दुविधा समाप्त हो जाएगी.”

ठीक है, मैं समय ले लेता हूं,” कहते हुए दिनेश फोन करने लगे.

जयदीप के मातापिता से मिलते ही सरिता ने अपने मन की बात कही.

“बहनजी, हम इन बातों को नहीं मानते. मेरा और विजय का विवाह आज से 30 वर्ष पूर्व बिना कुंडली मिलाए हुआ था. हम ने सफल वैवाहिक जीवन बिताया. मेरा तो यही मानना है अगर हमारे विचार मिलते हैं, हमें एकदूसरे पर विश्वास है तो हम जीवन में आई हर कठिनाई का सामना कर सकते हैं. जो होना होगा वह होगा ही, व्यर्थ के ढकोसलों में पड़ कर हम अपने मन को कमजोर ही करते हैं,” शीला ने कहा.

शीला की बात सुन कर सरिता के मनमस्तिष्क में प्राची के शब्द भी गूंजने लगे- ‘ममा, हम स्त्रियां स्वयं को इतना हीन क्यों बना लेती हैं? जीवन में आई हर विपदा को अपने क्रूर ग्रहों का कारण मान कर सदा कलपते रहना उचित तो नहीं है. एकाएक उस के मन में व्याप्त नकारात्मकता की जगह सकारात्मकता ने ले ली.

उस की सकारात्मक सोच ने उस में उर्जा का ऐसा संचार कर दिया था कि अब उसे भी लगने लगा कि व्यक्ति अपनी निष्ठा, लगन, परिश्रम और आत्मविश्वास से कठिन से कठिन कार्य में भी सफलता प्राप्त करने के साथ जीवन में आई हर चुनौती का सामना करने में सक्षम रह सकता है. इस के साथ ही उन के मन पर वर्षो से चढ़ी ढोंग और ढकोसलों की जमी बर्फ पिघलने लगी थी. उन्होंने प्राची और जयदीप के संबंध को तहेदिल से स्वीकार कर विवाह की तैयारियां शुरू कर दीं. Hindi Moral Story

Ravi Kishan: इस रोल को करने पर पिता ने खूब पीटा था, जानिए क्या थी वजह

Ravi Kishan: कहते हैं कि जहां चाह वहां राह यानि जब कुछ करने की ख्वाहिश दिल से होती है तो रास्ते अपनेआप बन जाते हैं. भोजपुरी फिल्मों के ऐक्टर और नेता रवि किशन के साथ भी 10 साल की उम्र में कुछ ऐसा ही हुआ और उन को घर छोड़ कर मुंबई भागना पड़ा.

हाल ही में आईफा अवार्ड में किरण राव निर्देशित फिल्म ‘लापता लेडीज’ के लिए आईफा अवार्ड मिलने के दौरान रवि किशन ने पुरानी यादों को ताजा करते हुए बताया,”लोग चल चल कर तरक्की की सीढ़ियों तक पहुंचते हैं, मैं रेंगरेंग कर यहां तक पहुंचा हूं.”

ऐक्टिंग की शुरुआत

रवि किशन के अनुसार,”मैं बचपन से ही ऐक्टर बनना चाहता था. ऐक्टिंग का एक भी मौका नहीं छोड़ता था. एक बार मुझे अपने गांव में रामलीला में सीता का किरदार निभाने का मौका मिला. मैं ने खुशीखुशी वह रोल निभाया. सभी को मेरा काम अच्छा लगा. लेकिन यह बात जब मेरे पिताजी को पता चली तो वह गुस्से से लालपीले हो गए क्योंकि वे ऐक्टिंग के सख्त खिलाफ थे और इसीलिए उन्होंने मुझे इतना पीटा कि मुझे घर से भागना पड़ा.”

रवि ने बताया,”मेरी मां को भी पता था कि मेरे पिता बहुत गुस्से वाले हैं और वे किसी भी हद तक जा सकते हैं, इसलिए उन्होंने मुझे कुछ पैसे दिए और घर छोड़ कर भागने के लिए कह दिया क्योंकि मेरी मां को डर था कि कहीं पिताजी गुस्से में मेरी जान न ले लें. मुंबई आ कर मेरा ऐक्टिंग सफर शुरू हुआ. मैं ने हिंदी के अलावा भोजपुरी, तमिल, तेलुगू, कन्नड़ आदि भाषा की कई फिल्मों में काम किया.

“अब तक मैं 750 फिल्में कर चुका हूं. आज मुझे लग रहा है कि जो होता है अच्छे के लिए होता है, क्योंकि उस दिन अगर मेरे पिताजी मुझे नहीं मारते, पिताजी के डर से मैं मुंबई नहीं आता तो आज मैं दर्शकों के सामने अवार्ड नहीं ले रहा होता. फिल्म ‘लापता लेडीज’ के लिए, जिस के लिए मैं किरण राव का शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने मुझे ‘लापता लेडीज’ में काम करने का मौका दिया.

अगर रवि किशन के वर्कफ्रंट की बात करें तो वे ‘सन औफ सरदार 2’ में एक खास भूमिका में नजर आएंगे, जिस की शूटिंग लगभग पूरी हो चुकी है और फिल्म रिलीज के लिए तैयार है.

Kaun Banega Crorepati 17: अमिताभ बच्चन और विकास बहल ने बताया, क्यों जरूरी है ज्ञान के साथ ‘अकड़’

KBC 17: सोनी ऐंटरटेनमेंट टेलीविजन ने अपने मशहूर क्विज शो ‘कौन बनेगा करोड़पति (KBC) सीजन 17’ के लिए एक नया प्रेरणादायक अभियान लौंच किया है, जिस का शीर्षक है, ‘जहां अक्ल है, वहां अकड़ है.”

यह कैंपेन आज के भारत की सोच और आत्मविश्वास को दर्शाता है, जिस में ज्ञान को आत्मगौरव और आत्मविश्वास का असली आधार माना गया है.

इस अभियान का निर्देशन फिल्म निर्देशक विकास बहल ने किया है और इसे उन के प्रोडक्शन हाउस Good Co. द्वारा क्रिएट और ऐग्जीक्यूट किया गया है. यह कैंपेन साफ तौर पर यह संदेश देता है कि असली गर्व संपत्ति में नहीं, बल्कि ज्ञान में होता है. यह सोच केबीसी की वर्षों पुरानी विरासत को आगे बढ़ाते हुए एक बार फिर दर्शाती है कि ज्ञान ही वह ताकत है जो नए भारत को संबल और आत्मबल प्रदान करती है.

गौरतलब है कि इस बार केबीसी की होस्टिंग को ले कर अटकलें लगाई जी रही थी कि इस बार बच्चन साहब यह शो होस्ट करेंगे या नहीं, लेकिन अब सारे अटकलों पर पूर्णविराम लग गया है. बच्चन साहब केबीसी के प्रोमोज में एक बार फिर सोनी चैनल पर नजर आ रहे हैं.

इस बार डायरेक्टर विकास बहल भी केबीसी कैंपेन के अभियान में अमितजी के साथ अभियान का हिस्सा बन कर फूले नहीं समा रहे, जिस के चलते इस शो और अमितजी के लिए अपनी भावना प्रस्तुत करते हुए विकास बहल ने कहा, “कौन बनेगा करोड़पति हमेशा से केवल एक क्विज शो नहीं रहा है, बल्कि यह भारत की बदलती सोच का दर्पण रहा है. आज का भारत आत्मनिर्भर है क्योंकि ज्ञान उसे साहस, आत्मविश्वास और अर्जित सम्मान देता है. और जब आप के पास अक्ल होती है, तो थोड़ीबहुत अकड़ या कहें ‘स्वैग’ आना स्वाभाविक है. यह घमंड नहीं, बल्कि यह विश्वास है कि मैं भी कर सकता हूं. साथ ही मैं इस बात के लिए भी खुश हूं कि मुझे केबीसी में अमितजी के साथ काम करने का मौका मिला.

अमिताभ बच्चन ने इस अवसर पर कहा, “कौन बनेगा करोड़पति हमेशा से ज्ञान और उस से मिलने वाले आत्मसम्मान का उत्सव रहा है. इस वर्ष का कैंपेन ‘जहां अक्ल है, वहां अकड़ है’ इस भावना को बेहद खूबसूरती से सामने लाता है और लोगों को अपने बौद्धिक सामर्थ्य पर गर्व करने और आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है.”

‘कौन बनेगा करोड़पति सीजन 17’ का प्रसारण 11 अगस्त से हर सोमवार से शुक्रवार रात 9 बजे होगा, केवल सोनी ऐंटरटेनमेंट टेलीविजन और SonyLIV पर. KBC 17

Esha Deol: जुड़ीं सांते स्पा क्यूज़ीन से, स्वाद और सेहत की जुगलबंदी

Esha Deol: धर्मेंद्र और हेमा मालिनी की बेटी ईशा देओल ने अपने अभिनय करियर में धूम,युवा,नो एंट्री,जैसी कई हिट फिल्में देने के बाद अपने सफल करियर के दौरान शादी करके अभिनय को अलविदा कर दिया था. लेकिन 2022 में सीरीज रुद्र द एज ऑफ डार्कनेस और 2023 में हंटर टूटेगा नहीं तोड़ेगा के साथ अभिनय में वापसी की .अब ईशा देओल अभिनय क्षेत्र में पूरी तरह सक्रिय है.साथ ही ईशा देओल एक हेल्दी पार्टनर शिप के तहत‌,साते स्पा क्यूंजीन की ब्रांड एम्बेसडर बन कर एक हेल्दी पार्टनरशिप जो वेलनेस, जागरूकता और खाने के क्रिएटिव अंदाज़ पर टिकी है.

अब हेल्दी खाना भी बनेगा स्टाइल स्टेटमेंट, क्योंकि बॉलीवुड की ग्लैमर क्वीन, ऑथर और वेलनेस वॉरियर ईशा देओल अब औफिशियली जुड़ गई हैं सांते स्पा क्यूज़ीन के साथ – एक ऐसा नाम जो हेल्दी खाने को मजेदार बनाने में माहिर है.

ईशा देओल खुद एक बैलेंस्ड और हेल्दी लाइफस्टाइल को फॉलो करती हैं, और इसलिए उनका सांते स्पा क्यूज़ीन के साथ ये जुड़ाव बिलकुल ऑर्गेनिक है. यहां ना सिर्फ टेस्ट है, बल्कि तंदुरुस्ती, सस्टेनेबिलिटी और आत्मा को सुकून देने वाला खाना भी है.

ईशा कहती हैं, “मेरे लिए खाना सिर्फ भूख मिटाना नहीं है ये जिंदगी का उत्सव है. सांते स्पा क्यूज़ीन से मुझे एक नैचरल कनेक्शन मिला, क्योंकि यहां का खाना क्रिएटिव भी है, हेल्दी भी और गिल्ट-फ्री भी.यही तो असली तंदुरुस्ती है – ज़ायके के साथ सुकून.

सांते स्पा क्यूज़ीन, जो कि प्लांट-बेस्ड, ग्लूटन-फ्री, कीटो-फ्रेंडली और वेगन ऑप्शन्स के लिए जाना जाता है, हेल्दी खाने के ट्रेंड को सिर्फ फॉलो नहीं करता, बल्कि लीड करता है.

सांते स्पा क्यूज़ीन की फाउंडर सोनल बर्मेचा ने कहा, “ईशा देओल हमारे मिशन को बखूबी रिप्रेज़ेंट करती हैं.वो हेल्दी लाइफ को जीती हैं और उनकी एनर्जी और एलीगेंस हमारे ब्रांड को एक नया आयाम देंगे.

ग्रोथ पार्टनर्स एग्नेलोराजेश अठाईदे और कैलाश बियानी ने कहा…

“सांते स्पा क्यूज़ीन सिर्फ एक रेस्टोरेंट नहीं है— ये एक मूवमेंट है. और ईशा देओल का जुड़ना हमारे इस सफर को और भी स्ट्रॉन्ग और इंस्पायरिंग बना देगा.

तो अब हेल्दी खाना भी बनेगा टेस्टी अफेयर.

सांते स्पा क्यूज़ीन में आइए और ऐसा खाना ट्राय कीजिए जो सीजनल इंग्रीडिएंट्स से बना हो, स्वाद में जबरदस्त हो और शरीर, मन और आत्मा तीनों को खुश कर दे.

क्योंकि यहां सिर्फ खाना नहीं मिलता — जिंदगी का असली स्वाद मिलता है!

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