Relationship Tips : मै 5 साल से रिलेशनशिप में हूं, पर मै बोर हो गया हूं, क्या ब्रेकअप कर लेना चाहिए?

Relationship Tips : अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है, तो ये लेख अंत तक पढ़ें

सवाल

मैं अपनी गर्लफ्रैंड के साथ 5 साल से रिलेशनशिप में हूं. वह बहुत अच्छी है. मेरी सारी बातें मान जाती है. मेरा खयाल भी बहुत रखती है लेकिन पता नहीं क्यों कुछ दिनों से मेरा दिमाग कुछ इधरउधर दौड़ रहा है. शायद मैं इस रिलेशनशिप से बोर हो गया हूं. क्या ऐसा सिर्फ मेरे साथ हो रहा है या रिलेशनशिप जो लंबे समय से चल रही हो उस में बोरियत होने लगती है. क्या मुझे ब्रेकअप कर लेना चाहिए या मैं गलत सोच रहा हूं और गलत दिशा में जा रहा हूं? मुझे सही रास्ता सुझाएं ताकि मैं कुछ गलत फैसला न ले लूं.
जवाब

आप कहीं बेवजह रिश्ता तोड़ने में तो नहीं लगे. आप को ऐसी गर्लफ्रैंड मिली जो आप का हर तरह से खयाल रखती है, आप की हर बात मानती है तो आप उसे टेकन फौर ग्राटेंड ले रहे हैं. गर्लफ्रैंड आप को नखरे दिखाती, आप की हर बात काटती, आप के प्रति बेपरवाह होती, क्या यह चाहते हैं आप?

अरे, आप को तो खुश होना चाहिए कि आप को इतनी अच्छी लड़की मिली है. खुश होना चाहिए आप को जो इतनी केयर करने वाली गर्लफ्रैंड आप के पास है वरना गर्लफ्रैंड क्याक्या नहीं नखरे उठवातीं अपने ब्रौयफ्रैंड से.

पता नहीं क्यों ब्रेकअप का खयाल आप के जेहन में आया. अपने मन की कुछ उल?ाने हैं तो उन पर विचार कीजिए. किसी भी रिश्ते में ताजगी बनाए रखने का एक ही तरीका है एकदूसरे को भरपूर समय देना. आप का समय आप के पार्टनर के लिए किसी कीमती तोहफे से भी ज्यादा होता है जो उसे सारे जहां की खुशियां दे सकता है. अगर आप का पार्टनर आप के साथ समय बिताने को बेताब रहता है तो फिर आप लकी हैं क्योंकि समय से कीमती कुछ नहीं. इतने प्यारे साथी को भूल से भी न जाने दें. ब्रेकअप करने की एक और महत्त्वपूर्ण वजह होती है आपस में एकदूसरे को सम्मान न देना. लेकिन आप के रिश्ते में आप का पार्टनर आप को हर तरह से सम्मान देता है तो फिर आप को ऐसे रिश्ते को खत्म करने से पहले एक बार सोच लेना चाहिए.

इंसान की फितरत बड़ी खराब होती है. जिंदगी में सब अच्छा चल रहा होता है तो हमें कुछ खालीखाली सा लगने लगता है. ऐसे में कोई दूसरा विकल्प तलाशने लगते हैं लेकिन यह बिलकुल गलत है.

कई बार पार्टनर के साथ ट्यूनिंग मैच नहीं होना या फिर आदतें अलगअलग होना इस की वजह हो सकती है. पसंदनापसंद एक सी नहीं होती. लेकिन आप के केस में ऐसा कुछ भी नहीं है. आप का अपनी गर्लफ्रैंड से रिश्ता आप के लिए सब से अच्छा तोहफा है. इसे तोड़ें नहीं, बल्कि सहेज लें.

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‘‘विकलांगता मेरी पहचान नहीं’’ : IAS अफसर इरा सिंघल

Ira Singhal : इरा सिंघल अपनी यादों में जितना पीछे जा कर सोच सकती हैं, सोचती हैं और बताती हैं कि वे हमेशा से ऐसा कैरियर बनाना चाहती थीं जिस से वे लोगों की जिंदगियों को छू सकें. रीढ़ की हड्डी से जुड़ी एक बीमारी से पीडि़त होने के कारण उन की खुद की दैनिक गतिविधियों पर प्रतिबंध थे. इस वजह से वे लगभग हर दिन अस्पताल के चक्कर लगाती थीं. ‘‘मैं जब से जन्मी थी, उस समय से ही डाक्टरों के पास जा रही हूं’’, उन्होंने मुझ से कहा जब हम गुवाहाटी से अरुणाचल भवन में चाय पीते हुए बात कर रहे थे. तब मरीजों पर डाक्टरों के प्रभाव को देख कर इरा ने सोचा कि वे चिकित्सा क्षेत्र में अपना कैरियर बनाएंगी.

90 के दशक की शुरुआत में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ ने इरा को नए रास्ते पर ला खड़ा कर दिया. उस समय वे उत्तर प्रदेश के मेरठ में सोफिया गर्ल्स स्कूल में एक युवा छात्रा थीं. यह नागरिक अशांति का समय था जिस ने उन पर एक स्थाई और गहरी छाप छोड़ी.

इरा बताती हैं, ‘‘मेरी स्कूली शिक्षा के विशेषरूप से ये 2 साल ऐसे थे जब मैं केवल 6 महीने ही स्कूल गई क्योंकि बाकी के महीनों में मेरे शहर में कर्फ्यू लगा हुआ था.’’

इरा अपने स्कूली दिनों उन लोगों से प्रेरित थीं जिन के फैसले रोजमर्रा की हकीकतों को आकार देते थे. जब वे अपनी नागरिक शास्त्र की पाठ्यपुस्तक में प्रशासनिक अधिकारियों की भूमिकाओं के बारे में पढ़ रही थीं, तब वे सीधे तौर पर देख पा रही थीं कि वे किसी भी संकट के समय में कितनी जिम्मेदारियों को उठाते हैं.

इरा ने याद करते बताया, ‘‘जमीन पर जो हो रहा था और जो मैं किताबों में पढ़ रही थी, एकदूसरे को उस से जोड़ना आसान था. आप को लोगों के साथ काम करने को मिलता है और आप को सचमुच जमीन पर जा कर बदलाव लाने का मौका मिलता. यही 2 ऐसी चीजें थीं जिन्हें मैं करना चाहती थी.’’

खुद की राह बनाई

इरा ने साहस और संकल्प के साथ अपनी खुद की राह बनाई है. भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS)  उन की सफल शुरुआत काफी चुनौतियों से भरी थी. इरा ने 2010 से 2014 के बीच बारबार प्रयास कर कठिन सिविल सेवा परीक्षा को सफलता से पार किया. लेकिन हर साल जिन सेवाओं के लिए वे योग्य थीं उन्होंने उन्हें पद देने से इनकार कर दिया क्योंकि वे विकलांगता के साथ जी रही थीं.

इरा को अपने अधिकारों को हासिल करने के लिए कानूनी लड़ाई तक लड़नी पड़ी, जिस में उन्हें जीत भी हासिल हुई. 2015 में वे चौथी और आखिरी बार सिविल सेवा परीक्षा में शामिल हुईं. वे भारत की पहली विकलांगता के साथ जीने वाली व्यक्ति बनीं, जिन्होंने उच्चतम रैंक प्राप्त की. बाद में उन्होंने आईएएस प्रशिक्षण में भी टौप किया और राष्ट्रपति से स्वर्ण पदक प्राप्त किया. वे वर्तमान में अरुणाचल प्रदेश की राजधानी ईटानगर में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय में स्वास्थ्य सचिव के रूप में कार्यरत हैं.

लोकसेवक के रूप में अपने काम के साथसाथ इरा लैंगिक समानता और विकलांगता अधिकारों की भी मुखर समर्थक हैं. उन्होंने अपने बचपन के सपने को कभी भुलाया नहीं. अपनी पदवी का उपयोग समाज में बदलाव लाने के लिए किया. हालांकि यह सबकुछ बहुत आसान नहीं रहा.

इरा कहती हैं, ‘‘एक विकलांग लड़की के रूप में आप की समस्या यह होती है कि आप को हर बार अपनी काबिलीयत साबित करनी पड़ती है. आप को बारबार यह साबित करना पड़ता है कि आप एक मौका पाने की हकदार हैं.’’

एक ऐसे क्षेत्र में काम करते हुए जिस में आज भी पुरुषों का वर्चस्व है, इरा बिना डरे आगे बढ़ रही हैं. वे बताती हैं, ‘‘हमारे समाज में महिलाओं को लगातार बताया जाता है कि उन्हें क्या नहीं करना चाहिए. ऐसे कई ‘चाहिए’ होते हैं जैसेकि आप को कैसा व्यवहार करना चाहिए.’’ इरा ने कहा, ‘‘मेरा सुझाव है कि एक भी ऐसा ‘चाहिए’ मत सुनो जो सिर्फ आप के लिंग से जुड़ा हुआ हो.’’

इरा का बचपन एक संयुक्त परिवार में बीता. उन के रिश्तेदार, चचेरे भाईबहन और दादादादी सभी लोग पास में ही रहते थे. उन के पिता एक स्वतंत्र मूल्यांकन सलाहकार के तौर पर काम करते हैं और उन की मां भी पिता के साथ काम करती हैं.

इरा के परिवार ने उन की विकलांगता को कभी मुद्दा नहीं बनाया. इसे स्वीकार किया गया, लेकिन उन के हुनर पर इस का साया नहीं पड़ने दिया.

‘‘मेरी दिव्यांगता कभी छिपी हुई नहीं थी या फिर कोई ऐसी चीज नहीं थी जिस के बारे में कोई बात ही न करता हो. यह बात बस इतनी थी कि इसे ले कर शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं है क्योंकि यह ऐसी चीज नहीं है जो आप की जिंदगी जीने के तरीके को बाधित नहीं करती,’’ इरा ने बताया.

इरा का मानना है कि बहुत सारे मातापिता यह गलती करते हैं कि वे अपने बच्चे की कमजोरियों पर ज्यादा ध्यान देते हैं बजाय इस के कि वे बच्चे की क्षमताओं को बढ़ावा देने में मदद करें.

इरा कहती हैं, ‘‘अकसर ऐसा होता है कि विकलांगता ही आप की पहचान बना दी जाती है. लेकिन मेरे मामले में हमेशा यह मेरी पहचान का महज एक हिस्सा भर रही. मेरी पूरी पहचान नहीं, मेरे लिए जो मानदंड तय किए गए वे मेरी क्षमताओं के आधार पर थे न कि मेरी विकलांगता के आधार पर.’’

इरा खुशीखुशी बताती हैं कि उन के मातापिता ने हमेशा दूरदर्शी सोच को महत्त्व दिया. इरा कहती है, ‘‘मेरे पिता बेहद प्रगतिशील, संतुलित और सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति हैं. आप अपने मातापिता नहीं चुन सकते. मैं किस्तम वाली थी.’’

इरा अपने मातापिता की वजह से खुद को किस्मत वाली मानती हैं. राजेन्द्र और अनिता सिंघल ने हमेशा आधुनिक सोच रखी. इरा का कहना है, ''आप अपने मातापिता नहीं चुन सकते. मैं भाग्यशाली हूं.' साभार :अरुण शर्मा/ एचटी फोटो
इरा अपने मातापिता की वजह से खुद को किस्मत वाली मानती हैं. राजेन्द्र और अनिता सिंघल ने हमेशा आधुनिक सोच रखी. इरा का कहना है, ”आप अपने मातापिता नहीं चुन सकते. मैं भाग्यशाली हूं.’ साभार :अरुण शर्मा/ एचटी फोटो

क्षमताओं के आधार पर पहचान

इरा कहती हैं, ‘‘मेरी विकलांगता ने क्या किया? मैं खेलों में अच्छी नहीं थी? तो ठीक है, खेलों में अच्छे मत बनो. किसी और चीज में अच्छे बन सकते हो, बनो. मैं एक बहुत अच्छी डांसर हूं.’’

इरा अपनी कक्षा के टौप रैंकर्स में शामिल रहती थीं. उन के शिक्षक उन्हें नियमित रूप से नेतृत्व की जिम्मेदारियां देते थे. इरा ने कहा, ‘‘हम अभी भी ऐसे देश में हैं जहां मातापिता ऐसे बच्चों को आदर्श मानते हैं जो परीक्षाओं में सब से ज्यादा नंबर लाते हैं. इसी वजह से मेरी भी परवरिश सामान्य रूप से हुई. यह माने नहीं रखता था कि क्लास में मेरी हाइट सब से कम थी या फिर मैं विकलांग थी.’’

इरा बताती हैं कि वित्तीय स्थिति मजबूत होने से उन्हें काफी लाभ मिला. जो बच्चे आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हैं और विकलांग हैं उन के लिए मुश्किलें असहनीय रूप से ज्यादा होती हैं. उन्होंने कहा, ‘‘हमारा सिस्टम, हमारा पूरा बुनियादी ढांचा, बहुत ज्यादा चुनौतियों से भरा हुआ है. लोग इस के बारे में सोचते ही नहीं हैं. किसी भी विकलांग बच्चे के लिए स्कूल परिसर में प्रवेश करना ही बहुत कठिनाइयों और चुनौतियों से भरा हुआ है.’’

एक दशक से ज्यादा समय तक मेरठ में रहने के बाद इरा का परिवार दिल्ली आ गया. इरा की जिंदगी में सिविल सेवा का सपना कुछ समय के लिए पीछे छूट गया. हालांकि बचपन का सपना कहीं न कहीं जेहन में बना रहा लेकिन अब वे इसे पूरा करने के लिए उतनी मुस्तैदी से इस के पीछे नहीं भाग रही थीं.

इरा जब 11वीं कक्षा में पहुंचीं और उन्हें आगे पढ़े जाने वाले विषयों का चयन करना था, तब वे जीव विज्ञान चुनना चाहती थीं ताकि वे चिकित्सा के क्षेत्र में कैरियर बना सकें. उन के इस निर्णय पर उन के पिता ने उन्हें पुनर्विचार करने के लिए राजी किया. उन का कहना था कि जबकि तुम खुद एक मरीज जैसी दिखती हो, कोई तुम्हारे पास अपना इलाज कराने नहीं आएगा.

इरा ने बताया कि उन के पिता की यह बात निर्दयी नहीं, बल्कि यथार्थवादी थी और उन्हें भी वह तर्क सही लगा.

आर्मी पब्लिक स्कूल, धौला कुंआ (दक्षिण पश्चिम दिल्ली) से स्नातक करने के बाद इरा ने इंजीनियरिंग की डिगरी हासिल की.

इरा कहती हैं, ‘‘मैं शायद दुनिया की सब से खराब इंजीनियर हूं.’’

प्रगति के आधार पर लक्ष्य तय किए

इंजीनियरिंग के प्रति इरा की अनिच्छा ने उन्हें कई और रास्ते दिखाए. दिल्ली की नेताजी सुभाष यूनिवर्सिटी औफ टैक्नोलौजी जिसे पहले नेताजी सुभाष इंस्टिट्यूट औफ टैक्नोलौजी के नाम से जाना जाता था में पढ़ाई के दौरान इरा को कालेज फेस्ट और कई समितियों में काम करने के बाद एहसास हुआ कि उन की रुचि और क्षमता प्रबंधन कार्यों में है. इस के चलते उन्होंने स्नातक पूरा करने के बाद फैकल्टी औफ मैनेजमैंट स्टडीज से एमबीए की डिगरी प्राप्त की.

इरा को पहली नौकरी मुंबई स्थित कैडबरी इंडिया के औफिस में मिली, जिसे अब मांडेलेज इंडिया फूड्स के नाम से जाना जाता है. उन्होंने वहां लगभग ढाई साल काम किया. हालांकि वे हर दिन 20 घंटे तक जुटी रहती थीं लेकिन काम में मजा आता था और साथ काम करने वालों से भी बनती थी.

मगर इरा अपनी आरामदायक कौरपोरेट लाइफ में बेचैनी महसूस कर रही थीं. वे कहती हैं, ‘‘मैं ने सोचना शुरू किया कि इतनी मेहनत का क्या फायदा जब दुनिया में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो कहे कि मेरी मेहनत की वजह से उस की जिंदगी, उस के परिवार की जिंदगी या फिर उस का भविष्य बेहतर हुआ है.’’ और तभी इरा ने फैसला किया कि वे नौकरी छोड़ कर सिविल सेवा की परीक्षा देंगी.

इरा ने पूरी गंभीरता से संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) की तैयारी में खुद को झोंक दिया. उन्होंने कभी यह नहीं गिना कि कितने घंटे पढ़ाई की. इस के बजाय उन्होंने अपने लिए पाठ्यक्रम की प्रगति के आधार पर लक्ष्य तय किए.

‘‘अगर आप तय कर लें कि मैं आज 10 चैप्टर खत्म करूंगी तो आप पढ़ाई के घंटों पर नहीं बल्कि अपनी वास्तविक उपलब्धि पर ध्यान देते हैं,’’ उन्होंने कहा, ‘‘वे 5 घंटे भी हो सकते हैं, 2 घंटे भी और 10 घंटे भी.’’

इरा कहती हैं कि जब छात्र अपनी पढ़ाई को समय के आधार पर मापते हैं तो इस का असर उलटा भी हो सकता है. उन्होंने कहा, ‘‘आप एक ही पेज को घंटों तक घूर सकते हैं और ऐसा करने के बाद आप सोचेंगे कि मुझे यह विषय बिलकुल पसंद नहीं है, बहुत ज्यादा बोरिंग है. मुझे यह टीचर पसंद नहीं है, मुझे सब से नफरत है. आप जिंदगी से चिढ़ने लगेंगे.’’

इस का मतलब यह नहीं है कि इरा ने कभी टालमटोल नहीं की या फिर ध्यान भटकाने वाले मौके नहीं आए. उन्होंने कहा, ‘‘मैं बेहद जिम्मेदार भी हूं और जबरदस्त टालमटोल करने वाली भी. मैं जिम्मेदारी की सीमा तक टालमटोल करती हूं.’’

भारत की सब से कठिन परीक्षाओं में से एक में टौप करने वाली इरा ने हैरान करने वाली बात कही. वे खुद को प्रतिस्पर्धी नहीं मानतीं और उन्हें पता है कि यह सुन कर लोग चौंक सकते हैं. उन्होंने कहा, ‘‘मेरा एकमात्र उद्देश्य यह होता था कि क्या इतनी मेहनत मुझे अंदर ले जा सकती है?’’ अगर उन्हें उन की पसंद की नौकरी या फिर विश्वविद्यालय में प्रवेश मिल जाता था जो उन्हें चाहिए होता था तो फिर वे अपने नंबरों या रैंक को ले कर बहुत ज्यादा परेशान नहीं होती थीं.

इस के बजाय इरा को जो मान्यता चाहिए थी वह बाहर नहीं बल्कि अंदर की थी. वे कहती हैं, ‘‘इस सब में सब से अहम व्यक्ति आप खुद होते हैं- क्या आप खुद पर गर्व करते हैं? क्या आप खुद के होने और अपने काम से खुश हैं? बस, यही वह चीज थी, मैं जिस की खोज में थी.’’

एक चुनौतीपूर्ण यात्रा

जिस सफर की शुरुआत खुशनुमा और उल्लासपूर्ण माहौल में होनी चाहिए थी, इरा के लिए वह एक चुनौतीपूर्ण यात्रा के तौर पर शुरू हुआ.

इरा ने अपने पहले ही प्रयास में सिविल सेवा परीक्षा पास कर ली थी. वे भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) या भारतीय विदेश सेवा (IFS) में शामिल होने के लिए उत्साहित थीं. लेकिन जब रिजल्ट आया तब वे भारतीय राजस्व सेवा (IRS) के लिए ही योग्य थीं. परिणाम से विचलित हुए बिना उन्होंने अपने अगले प्रयास की तैयारी शुरू कर दी.

अपने अगले प्रयास के लिए इरा जब पूरी तरह से पढ़ाई में डूबी हुई थीं, तभी उन्हें कुछ फोन कौल्स आई जिन्होंने उन्हें उलझन में डाल दिया.

इरा ने याद करते हुए बताया, ‘‘कुछ लोगों ने फोन कर के पूछा कि क्या आप को पता है आप के साथ क्या हुआ है? इस से मेरी जिज्ञासा बढ़ गई और मैं ने इस मामले की तह तक जाने का फैसला किया.’’

सिविल सेवा के लिए आवेदन करने वाले उम्मीदवार अपनी विकलांगता बताते हैं और यह भी बताते हैं कि वे कौनकौन सी योग्यताएं पूरी कर सकते हैं. इरा ने बताया कि उन्होंने साफ कहा कि वे लगभग सभी सेवाओं के लिए जरूरी योग्यताएं पूरी करने में सक्षम थीं. इरा ने भी अपने आवेदन में सभी सेवाओं के आवश्यक योग्यता मानदंडों को पूरा करने का जिक्र किया था. जल्द ही उन्हें पता चल गया कि उन की दिव्यांगता के आधार पर इस सर्विस से खारिज किया जा रहा है और यही कारण है कि भारतीय राजस्व सेवा (IRS) में चयन के बाद भी उन्हें पदभार ग्रहण करने की अनुमति नहीं दी गई.

इरा के अनुसार, ‘‘दरअसल, इस स्थिति का मतलब था कि मैं यह काम कर सकती हूं क्योंकि मैं आवश्यक सभी योग्यताओं को पूरा कर रही थी.’’

‘‘मगर हमें आप की विकलांगता पसंद नहीं है, इसलिए हम आप को सेवा में नहीं लेंगे.’’

इरा के मुताबिक, इस में कोई लौजिक ही नहीं था. जब इरा ने इस बारे में दूसरे और लोगों से बात की तो उन्हें पता चला कि यह भेदभाव सिर्फ उन के साथ ही नहीं हो रहा कई अन्य उम्मीदवार भी इस तरह के व्यवहार का सामना कर रहे हैं.

2012 में इरा ने सैंट्रल ऐडमिनिस्ट्रेटिव ट्राइब्यूनल (CAT) में एक मुकदमा दायर किया. यह सरकारी सेवाओं में भरती संबंधित शिकायतों का निबटारा करने वाली एक विशेष संस्था है. एक विकलांग होने के नाते, जिसे आर्थिक संसाधनों की पहुंच प्राप्त थी, इरा ने इस लड़ाई को सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि एक व्यापक जिम्मेदारी के रूप में लिया.

अपना पक्ष रखते हुए इरा ने कहा, ‘‘भारत में बीमारी भी गरीबी का एक पहलू है और जो लोग पहले से ही उस स्थिति से जूझ रहे हैं, उन्हें बारबार उसी वजह से नकारा जा रहा है, जबरन पीछे धकेला जा रहा है.’’

इरा का मामला लंबा खिंचता गया. इसी दौरान इरा ने परीक्षा के कई दौर पूरे किए लेकिन हर बार वही मुश्किल सामने आई. परीक्षा में पास होने के बाद उन की रैंक भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) के लिए पर्याप्त नहीं थी और बाकी सेवाएं उन्हें नियुक्ति देने से इनकार कर रही थीं.

अंतत: 2014 में ट्रिब्यूनल ने फैसला इरा के पक्ष में सुनाया. उस के कुछ समय बाद तक भी कोई बदलाव नहीं हुआ. जब इरा ने संबंधित कार्यालयों से अपनी नियुक्ति को ले कर पूछताछ की तो उन को फैसले की एक प्रति भेजने के लिए कहा गया. उन्होंने वह भी भेज दी. इस के जवाब में और अधिक गहरा सन्नाटा छा गया. उन्हें चिंता होने लगी कि सरकारी विभाग इस फैसले को चुनौती देने के लिए अपील दाखिल न कर दे.

एक दोस्त ने इरा को चौथी बार सिविल सेवा परीक्षा देने के लिए प्रोत्साहित किया. अब तक वे इस पूरी प्रक्रिया के चलते बुरी तरह से थक चुकी थीं. यह बात उन्होंने मजाक में लेकिन आधे सच के साथ कही, ‘‘अगर आप किसी की जिंदगी बरबाद करना चाहते हैं तो उसे बस इतना कह दीजिए कि तुम बहुत होशियार हो, सिविल सेवा की परीक्षा दो. यह मानसिक, शारीरिक, आर्थिक, भावनात्मक हर तरह से एक यातना है.’’

12 सितंबर, 2017 को नई दिल्ली में समावेशी भारत शिखर सम्मेलन- 2017 के उद्धाटन के अवसर पर इरा सिंघल संबोधित करती हुई. साभार : सामाजिक न्याय एवं आधिकारिता मंत्रालय/विकिमीडिया कामन्स
12 सितंबर, 2017 को नई दिल्ली में समावेशी भारत शिखर सम्मेलन- 2017 के उद्धाटन के अवसर पर इरा सिंघल संबोधित करती हुई. साभार : सामाजिक न्याय एवं आधिकारिता मंत्रालय/विकिमीडिया कामन्स

मेहनत का इनाम पहचान नहीं बल्कि एक मकसद था

अपनी बात को समझने के लिए इरा ने एक सिविल सेवा अभ्यर्थी के जीवन का उदाहरण दिया. वे कहती हैं, ‘‘जब आप 20 के दशक में एक कमरे में बंद होते हैं, जहां बारबार एक सी चीजें ही दोहराते हैं क्योंकि ज्यादातर लोग सिविल सेवा के लिए एक से ज्यादा प्रयास करते हैं. उस दौरान बिलकुल भी समझ नहीं आता कि आप कहां गलती कर रहे हैं. सिविल सेवा एक ऐसा महासागर है, जिस में आप बस डूब रहे होते हैं. यही वह उम्र होती है जब आप के अधिकांश दोस्त अपने कैरियर और रिश्तों की नींव रख रहे होते हैं और अपनी जिंदगी को नया आकार दे रहे होते हैं. यह सचाई इस संघर्ष को और कठिन बनाती है.’’

इरा कहती हैं कि शुरुआत में हो रही हिचक के बाद भी वे डटी रहीं. मुख्य परीक्षा से 2 दिन पहले जो इस परीक्षा का दूसरा चरण है, इरा को एक पत्र मिला जिस में उन्हें परीक्षा खत्म होने के दूसरे दिन बाद अपने पद को जौइन करने का निर्देश दिया गया था.

लंबी लड़ाई के बाद इरा ने भारतीय राजस्व सेवा (IRS) में कस्टम्स और ऐक्साइज विभाग में सहायक आयुक्त के रूप में कार्यभार संभाला. कुछ दिनों बाद जब सिविल सेवा के लिए आयोजित होने वाली परीक्षा के परिणाम घोषित हुए तो वे राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आ गईं. उन्होंने देशभर में पहला स्थान (All India Rank One) प्राप्त किया, जिस के बाद उन्हें जल्द ही भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) में नियुक्त कर दिया गया.

इरा के लिए उन की मेहनत का इनाम पहचान नहीं बल्कि एक मकसद था. उन्होंने कहा, ‘‘सिविल सेवा पास करने का पूरा इरादा किसी को कुछ साबित करना नहीं था बल्कि लोगों की मदद करना था. बस ऐसा कुछ करना जिस से मैं बदलाव ला सकूं.’’

प्राइवेट सैक्टर में किए काम के छोटे से कार्यकाल के दौरान इरा ने आज की तुलना में कहीं ज्यादा पैसा कमाया. उन्होंने बताया, ‘‘अगर मैं अभी तक कौरपोरेट सैक्टर में बनी रहती तो आज जितना कमा रही हूं उस से 15-20 गुना तो ज्यादा कमाती ही.’’

वे कहती हैं कि वहां काम के घंटे तय होते थे, छुट्टियां निश्चित थीं और निजी जीवन को पेशेवर जीवन से भी अलग रखा जा सकता था.

कौरपोरेट सैक्टर में चाहे जितनी भी सुखसुविधाएं हों, आईएएस बनने से जो संतोष होता है, उस की बात ही अलग होती है.

इरा कहती हैं, ‘‘यहां जो फैसले आप लेते हैं, उन का असर बड़े स्तर पर होता है. आप बहुत सारी चीजों को प्रभावित कर सकते हैं और भारत की विकास यात्रा में सहभागी बनने के लिए भी आप के पास कहीं ज्यादा मौके होते हैं. यहां तक कि छोटे स्तर पर भी सीखने, अनुभव करने और दुनिया की लगभग हर चीज को महसूस करने के जितने मौके यहां मिलते हैं वे बहुत ज्यादा और बड़े हैं.’’

एक आईएएस अधिकारी के तौर पर इरा की पहली पोस्टिंग उत्तरी दिल्ली के उप मंडल मजिस्ट्रेट (Sub-Divisional Magistrate, SDM) के रूप में हुई. इस दौरान कुछ एनजीओ ने उन से संपर्क कर अवैध फैक्टरियों में बंधुआ मजदूरी के लिए मजबूर किए जा रहे बच्चों से जुड़ी जानकारी दी. उन्होंने संबंधित कई विभागों और दूसरे हितधारकों के साथ मिल कर छापेमारी की योजना बनाई जिस से कि उन बच्चों को बचाया जा सके. न्यूज रिपोर्ट्स के अनुसार, इरा की सक्रिय भूमिका से 300 से अधिक बच्चों को रिहा कराया गया.

ऐसा ही एक और मौका आया जब ट्रांसजैंडर समुदाय के साथ काम करने वाला एक गैरसरकारी संगठन उन से मिलने आया. इरा जब उस संगठन के पास पहुंचीं तो उन्होंने वहां 100-200 से अधिक ट्रांसजैंडर लोगों से मुलाकात की.

इस मुलाकात को याद करते हुए इरा ने कहा, ‘‘यह मेरी जिंदगी में अब तक का एकमात्र ऐसा वक्त था जब दर्शकों ने अपनी परेशानियां मु?ा से बताईं और मेरे पास उन के लिए कोई समाधान नहीं था. उन की जिंदगी में जो कुछ भी गलत था उस में उन की गलती नहीं थी और उसे सुधारने के लिए उन के पास कुछ भी नहीं था. मैं वहां से यह सोच कर निकली कि हम एक समाज के रूप में कितने क्रूर हैं.’’

इस मुलाकात के कुछ दिनों बाद बैठक में शामिल रहे कुछ ट्रांसजैंडर लोग इरा के कार्यालय पहुंचे और एक दुकान शुरू करने में उन से मदद मांगी. मांगी गई मदद के बदले में इरा ने उन्हें अपने दफ्तर में ही नौकरी देने का प्रस्ताव दिया. इस के तुरंत बाद 2 ट्रांस महिलाएं अनुबंध के आधार पर इरा के दफ्तर की रिसैप्शन पर काम करने लगीं.

चूंकि हर तरह के दस्तावेज बनवाने के लिए लोगों को एसडीएम कार्यालय आना ही होता है, इरा को लगा कि फ्रंट डैस्क की जिम्मेदारी ट्रांस महिलाओं को सौंपना लोगों को मजबूर करेगा कि वे उन से सम्मान के साथ पेश आएं. उन्होंने कहा, ‘‘उन्हें लोगों को आ कर आप से मदद मांगनी होती है तो यह उन की जिम्मेदारी बन जाती है कि वे आप को एक इंसान के रूप में और अपने बराबर का समझें तथा अच्छा व्यवहार करें. यही एक चीज वहां होने वाली उस बातचीत के तरीके को बदल देती है, उस शक्ति संतुलन को बदल देती है.’’

पिछले 2 वर्षों से इरा अरुणाचल प्रदेश में स्वास्थ्य सचिव के पद पर तैनात हैं. वे इस से पहले भी उत्तर पूर्वी क्षेत्र विकास मंत्रालय (Ministry of Development of North
Eastern Region)  में असिस्टैंट सैक्रेटरी के रूप में उत्तर पूर्वी राज्यों में काम कर चुकी हैं.

इरा ने कहा, ‘‘मुझे लगता है कि लोग हर जगह एकजैसे ही होते हैं. सांस्कृतिक रूप से चीजें भिन्न हो सकती हैं लेकिन सब की जरूरतें एकजैसी ही होती हैं. दिल्ली की तुलना में अरुणाचल में चुनौतियां बहुत अलग हैं.’’

इरा का मानना है कि अरुणाचल प्रदेश के लोगों को सरकार के सामने अधिक मुखरता से अपनी मांगें रखनी चाहिए साथ ही अपने अधिकारों को ले कर भी और अधिक जागरूक होना चाहिए. उन की मुख्य चिंताओं में से एक है बुनियादी ढांचे के विकास में बढ़ावा देना. उन्होंने कहा, ‘‘दिल्ली में आधारभूत संरचना पहले से मौजूद है. वहां आप को उसी पर आगे काम करना होता है. दिल्ली की समस्याएं ऐसी हैं, जिन के समाधान ही नहीं होते हैं, जबकि यहां यानी अरुणाचल में समस्याओं के समाधान हैं.’’

इरा अपने प्रशासनिक कार्यों के साथसाथ विकलांगजनों के लिए समान अवसरों को बढ़ावा देने के प्रयासों में भी सक्रिय रूप से शामिल हैं. वे सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के विकलांगजन विभाग की ब्रैंड ऐंबेसेडर थीं, साथ ही मतदान प्रक्रिया को अधिक समावेशी और सुलभ बनाने के लिए भारत निर्वाचन आयोग के राष्ट्रीय पैनल की सदस्य भी हैं.

2018 में वे केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (CBSE) की  विकलांग बच्चों के लिए परीक्षा नीति तैयार करने वाली टीम का हिस्सा थीं. इस के अलावा वे विकलांगजनों के लिए सरकारी नीतियों में सुधार के लिए भी व्यापक रूप से काम कर रही हैं.

विकलांग बच्चों के प्रति मातापिता के नजरिए में भी बदलाव आया है

इरा का कहना है कि उन के कानूनी मामले से मिली सार्वजनिक और मीडिया की जागरूकता ने सरकार को विकलांगजनों की भरती प्रक्रिया की दोबारा समीक्षा करने के लिए प्रेरित किया. इसी दौरान विकलांग बच्चों के प्रति मातापिता के नजरिए में भी सकारात्मक बदलाव आया है जो एक स्वागतयोग्य कदम है.

इरा को सिविल सेवा में आए हुए लगभग

1 दशक हो गया है. अब तक एक विकलांग महिला होने की वजह से उन के सामने चुनौतियां जरूर आईं लेकिन वे हर मुश्किल का डट कर सामना करती हैं.

इरा कहती हैं, ‘‘हमारी तरह की महिलाओं को सिस्टम से स्वीकार्यता पाने के लिए बहुत ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ता क्योंकि हमारे पहले भी काफी अधिकारी महिलाएं थीं जिन्होंने उस लड़ाई को झेला और हमारे लिए रास्ता आसान किया.’

यूपीएससी प्रारंभिक परीक्षा में बैठने से पहले अभ्यर्थी नई दिल्ली के एक परीक्षा केन्द्र के बाहर इंतजार करते हुए. साभार : संचिता खन्ना/एचटी फोटो
यूपीएससी प्रारंभिक परीक्षा में बैठने से पहले अभ्यर्थी नई दिल्ली के एक परीक्षा केन्द्र के बाहर इंतजार करते हुए. साभार : संचिता खन्ना/एचटी फोटो

आधिकारिक संस्थानों में भेदभाव अब भी बहुत आम है

फिर भी भारत में अब तक एक भी महिला को कैबिनेट सचिव के पद पर नियुक्त नहीं किया गया है जो देश की सब से वरिष्ठ सिविल सेवा की जिम्मेदारी होती है. यह बात इरा ने बहुत गौर से नोट की. उन्होंने बताया कि आधिकारिक संस्थानों में भेदभाव अब भी बहुत आम है. सरकार में जो लोग आते हैं वे भी इसी समाज से आते हैं. समाज की जैसी मानसिकता होती है, वही दफ्तरों में भी दिखाई देती है. लोग औफिस की सोच घर नहीं ले जाते, बल्कि घर की सोच औफिस ले कर आते हैं.

इरा के कुछ बहुत अच्छे वरिष्ठ रहे हैं लेकिन उन्हें ऐसे लोग भी मिले जो बहुत नकारात्मक हैं पर उन की उच्च पदवी के कारण उन की योग्यता को नजरअंदाज कर पाना मुश्किल होता है. लेकिन पूर्वाग्रह अब भी मौजूद हैं.

इरा कहती हैं, ‘‘मैं कई अन्य विकलांग महिलाओं को जानती हूं, जिन के साथ हालात बहुत मुश्किलों से भरे रहे हैं.’’

इरा अब घमंडी और तुच्छ दृष्टिकोण से प्रभावित नहीं होती हैं. अकसर ऐसा होता है कि उन के कार्यालय में आने वाले लोग स्वाभाविक रूप से कमरे में मौजूद पुरुषों से बात करने लगते हैं. जिन से वे बात कर रहे होते हैं भले ही वे सभी उन के अधीनस्थ ही क्यों न हों. ऐसी स्थितियों में इरा पूरे अधिकार के साथ खुद को सामने रखती हैं, लेकिन इन बातों पर ज्यादा समय नहीं गंवातीं.

इरा कहती हैं, ‘‘ऐसे माइंडसैट से निबटने के 2 तरीके हैं- एक, आप उसे ध्यान में रखें और उस पर बवाल करें और फिर उसे अपने काम पर हावी होने दें, दूसरा, तरीका यह है कि आप उसे नजरअंदाज करें और जो आप का काम है वह करते रहें.’’

Hindi Folk Tales : चिड़िया हुई फुर्र – शेखर और शिवानी के बीच क्यों आई दूरियां

Hindi Folk Tales : शिवानी ने औफिस से आ कर ड्राइंगरूम में अपना बैग रखा. उस की मम्मी राधा और छोटा भाई विपिन अपनेअपने मोबाइल में लगे थे. दोनों ने थकीहारी शिवानी पर नजर भी नहीं डाली.

राधा ने मोबाइल से नजरें हटाए बिना ही कहा, ‘‘शिवानी, वंदना से कहना चाय मेरे लिए भी बनाए.’’

शिवानी को कोफ्त सी हुई. वह किचन में गई, तो खाना बनाने वाली मेड वंदना ने पूछा, ‘‘दीदी, चाय बना लूं?’’

‘‘हां, मां के लिए भी. खाने में क्या बना

रही हो?’’

‘‘भैया ने छोलेभूठरे बनाने के लिए कहा है.’’

‘‘क्या? फिर?’’

तभी राधा उठ कर किचन में आ गई, ‘‘क्यों वंदना क्या चुगलखोरी कर रही है? खाना बनाना ही तेरा काम है… जो कहा जाएगा चुपचाप

बनाना पड़ेगा.’’

‘‘हां मांजी, बना तो रही हूं.’’

शिवानी ने विपिन के पास जा कर कहा, ‘‘रोज इतना हैवी खाना बनवाते हो, कुछ अपनी हैल्थ का ध्यान करो. पेट देखा है अपना, कितना बढ़ रहा है. यह नुकसानदायक है, 25 के भी नहीं हो… रोज इतना हैवी खाना मुझ से भी नहीं खाया जाता है. कभी तो हलकी दालसब्जी बन सकती है.’’

राधा गुर्राई, ‘‘शिवानी, सुनाने की जरूरत नहीं है, पता है तेरा घर है, तेरी कमाई से चलता है तो इस का मतलब यह नहीं है कि हम अपनी मरजी से खापी नहीं सकते.’’

‘‘मां, हर बात का गलत मतलब निकालती हो आप, उस के भले के लिए ही कह रही हूं.’’

‘‘तू अपना भला कर, हम अपना देख लेंगे,’’ कह कर पैर पटकती हुई राधा घर से बाहर सैर करने चली गई.

शिवानी जानती थी अब वे रोज की तरह

1 घंटा अपनी हमउम्र सहेलियों के साथ गुप्पें मार कर आएंगी. आजकल जमघट तो जमता नहीं पर 1-2 तो मिल ही जाती हैं. थोड़ी देर बाद शिवानी का 7 साल का बेटा पार्थ खेल कर आ गया. शिवानी उसे फ्रैश होने के लिए कह कर उस का दूधनाश्ता अपने बैडरूम में ही ले गई. पार्थ को अपने पास ही बैठा कर वह अपनी कमर सीधी करने लेट गई, पार्थ से स्क्ूल और उस के दोस्तों की बातें करती रही.

थोड़ी देर बाद शिवानी ने विपिन से जा कर कहा, ‘‘कल पार्थ का मैथ का टैस्ट है. आज जरा उस की पढ़ाई देख लो. मैं आज बहुत थक गई हूं. औफिस में बहुत काम था आज.’’

‘‘नहीं दीदी, मैं मोबाइल पर फिल्म देख रहा हूं, मेरा मूड नहीं है.’’

शिवानी चुपचाप किचन में गई. वंदना काम खत्म कर ही चुकी थी, कहने लगी, ‘‘दीदी, मैं यहां ज्यादा दिन काम नहीं कर पाऊंगी.’’

‘‘क्यों, वंदना? क्या हुआ?’’

‘‘मांजी बहुत किटकिट करती हैं, भैया बहुत काम बताते हैं. सुबह आप के औफिस जाने के बाद कि फालतू काम करवाती हैं. भैया के लिए दिनभर के नाश्ते बनवा कर रखती हैं. यहीं बहुत टाइम चला जाता है मेरा, दूसरे घरों के लिए रोज लेट होती हूं.’’

‘‘नहीं वंदना, तुम्हें काम तो यहां करना ही है. बस जो कहें करती रहो, मैं तुम्हारे पैसे बढ़ा दूंगी. यही कर सकती हूं मैं.’’

वंदना कुछ नहीं बोली. उसे शिवानी से मन ही मन सहानुभूति थी. शिवानी आ कर फिर लेट गई. पार्थ ने अपना स्कूल बैग खोल लिया था. उस का स्कूल अब पहले की तरह चलने लगा था और औनलाइन क्लासें कभीकभार ही होती थीं. वह सोच रही थी, उस के अपने मां, भाई से ज्यादा तो घर में काम करने वाली मेड उस की स्थिति समझती है.

वह वंदना जैसी ईमानदार मेड को हटाने की स्थिति में नहीं थी. उसे औफिस में देर हो जाती है तो वही पार्थ का खानापीना मन से देखती है. राधा और विपिन तो घर में रहने के बावजूद अपनी एक भी जिम्मेदारी नहीं समझते.

वह सोच रही थी जीवन में कुछ गलत तो हो ही गया है, अब वह कैसे ठीक करे उसे.

3 साल पहले वह और शेखर अलग हो गए थे. शेखर पार्थ से मिलने उस की अनुपस्थिति में आता रहता था या वीडियो चैट करता रहता था जो राधा और विपिन को सहन नहीं होता था. लेकिन शिवानी ने स्पष्ट और कड़े शब्दों में कह रखा था कि शेखर के साथ कोई दुर्व्यवहार न हो. लौकडाउन के बाद जब शेखर पार्थ को बाहर घुमानेफिराने, खिलानेपिलाने ले जाता था, दोनों मुंह बना कर बस बैठे रहते थे. शिवानी को अच्छा लगता था जब वह पार्थ को शेखर के साथ समय बिताने के बाद खुश देखती थी.

शेखर के साथ उस का वैवाहिक जीवन बहुत अच्छा बीता था. फिर कुछ

समय पहले जब उस के पिता की अचानक हृदयाघात से मृत्यु हो गई तो वह अपनी जिम्मेदारी समझ कर मां और भाई के खर्चे उठाने लगी थी. विपिन तब पढ़ रहा था. शिवानी और शेखर दोनों ही अच्छे पदों पर कार्यरत थे. दोनों ही खूबसूरत फ्लैट में अपना जीवन हंसीखुशी जी रहे थे. राधा स्वभाव से लालची किस्म की महिला थीं. उन्होंने बिना शिवानी से पूछे अपना दादर स्थित फ्लैट किराए पर दे दिया और अपने अकेलेपन की दुहाई दे कर शिवानी के साथ ही रहना शुरू कर दिया.

शेखर ने इस में भी कोई आपत्ति नहीं की. उसके मातापिता लखनऊ में रहते थे. साल में एकाध बार मुंबई आते थे और एक बार जब वे आए, राधा उन के साथ बहुत ही रुखाई और बदतमीजी से पेश आई… अपनी बेटी की कमाई की चर्चा करती रही.

शेखर के मातापिता चुपचाप जल्दी लौट गए. वे बेटे के घर में कोई लड़ाईझगड़ा नहीं चाहते थे, पर शेखर का मूड बहुत खराब हुआ. शेखर और शिवानी की आपस में बहुत बहस हुई. यह बात एक दिन में खत्म नहीं हुई, अकसर ऐसा होने लगा. राधा जब अपने सामान की लिस्ट शिवानी को पकड़ातीं, शेखर शिवानी से कहता, ‘‘शिवू, मुझे कोई आपत्ति नहीं है, पर क्या तुम्हें नहीं लगता तुम्हारी मां और भाई तुम्हारी शराफत का फायदा उठाने लगे हैं?’’

शिवानी ने कहा था, ‘‘पर मैं क्या करूं, उन का ध्यान रखना फर्ज है न मेरा.’’

‘‘ठीक है, जैसा तुम्हें ठीक लगे पर जब भी हम दोनों की बहस होती है तुम्हारी मां के चेहरे पर एक विजयी मुसकान दिखती है मुझे.’’

‘‘नहीं शेखर, ऐसा कैसे हो सकता है?’’

शेखर ने फिर कुछ नहीं कहा था, लेकिन यह सच था कि राधा और विपिन ने घर के माहौल में इतनी कड़वाहट भर दी थी कि एक दिन शेखर घर से यह कह कर चला गया, ‘‘शिवू, मैं तुम्हें अपनी जिम्मेदारियों से भागने को नहीं कहता पर ये दोनों अब हमें बेवकूफ समझने लगे हैं जो तुम्हें नहीं दिख रहा है. उन की मांगें दिनबदिन बढ़ती जा रही हैं. मैं उन के हाथों बेवकूफ नहीं बन सकता, अपना घर किराए पर दे कर यहां क्यों रहते हैं? वहीं रहें. तुम आर्थिक सहायता करती रहो, तुम्हारे पिता का पैसा भी मिला है तुम्हारी मां को… वे आर्थिक रूप से इतनी भी बुरी हालत में नहीं हैं और विपिन चाहे तो अब कुछ कर सकता है… मेरा अपने ही घर में दम घुटता है… मैं किराए के फ्लैट में शिफ्ट कर रहा हूं, तुम्हें मेरी जब भी जरूरत हो, मैं यहीं हूं,’’ शेखर अपना सामान ले कर चला गया.

शेखर अपना सामान ले कर चला गया था. राधा ने चहकते स्वर में कहा था, ‘‘गया घमंडी आदमी, अब हम सब चैन से रहेंगे. तुम अकेली नहीं हो, तुम्हारी मां, भाई, बेटा है तुम्हारे साथ.’’

उसे भी उस समय शेखर पर गुस्सा आया था कि क्या होता अगर वह साथ रह कर एडजस्ट कर लेता. अगर शेखर के मातापिता, बहनभाई ऐसे साथ में रहते तो क्या वह तब भी सब के साथ एडजस्ट न करती, सह सोच कर उसे भी बहुत गुस्सा आ गया था.

दोनों फोन पर कभीकभी एकदूसरे का हाल पता कर लेते थे और पार्थ से मिलने शेखर आता रहता था. पता नहीं कितनी बातें सोच कर शिवानी की आंखों से आंसू अकसर बहते रहते थे. वह अच्छे पद पर थी, उस के पास पैसे भी थे. उसे किसी चीज की कमी नहीं थी पर एक उदासी उस के मन पर हर समय छाई रहती थी. राधा और विपिन की एकएक हरकत अब वह नोट करने लगी थी.

उसे साफ समझ आने लगा था कि मां की नजर में वह एक सोने की चिडि़या है जिस के पैसों पर मांबेटा बस ऐश कर रहे हैं. राधा खूब औनलाइन शौपिंग करती थी, और विपिन भी. उसे कोई काम करने का शौक नहीं था. वह एक नंबर का कामचोर और आलसी लड़का था. नहीं, वह सारा जीवन ऐसे तो नहीं बिता सकती, अपनी लालची मां और कामचोर भाई के हाथों बेवकूफ बनते हुए. कुछ तो करना पड़ेगा, पर क्या करे, राधा तो कुछ कहने से पहले ही रोनाधोना शुरू कर देती थीं, इमोशनल ब्लैकमेलिंग में कोई कसर नहीं छोड़ती थीं.

अगले दिन शिवानी औफिस से लेट आई तो उस ने पूछा, ‘‘पार्थ कहां है?’’

राधा ने मुंह बनाते हुए कहा, ‘‘वह आया था, ले गया है पार्थ को बाहर, हुंह.’’

शिवानी को अच्छा लगा. आज उसे आने में बहुत देर हो गई थी. अच्छा हुआ पार्थ बाहर है अपने पिता के साथ.

राधा के साथ विपिन भी शुरू हो गया, ‘‘दीदी, बंद कर दो पार्थ का उस के साथ जाना. पता नहीं पार्थ को क्याक्या सिखाता होगा वह आदमी.’’

शिवानी को भाई पर बहुत तेज गुस्सा आया पर वह बोली कुछ नहीं. पार्थ जब आया तो उस के हाथों में खूब सारे शौपिंग बैग्स थे. शेखर पार्थ को बिल्डिंग के नीचे ही छोड़ कर चला गया.

शिवानी के दिल में शेखर को देखने की एक हूक सी उठी. उस ने बालकनी से झंका पर वह जा चुका था. पार्थ के शौपिंग बैग्स टेबल पर रखते ही राधा उन्हें खोलखोल कर देखने लगीं. शिवानी भी वहीं खड़ी थी.

पार्थ चहकचहक कर बता रहा था, ‘‘मम्मी, बहुत मजा आया. अगली बार आप भी साथ चलना.’’

शिवानी की नजर आइसक्रीम पर पड़ी, मैंगो डिलाइट. शेखर को उस की पसंद का ध्यान था. उस की आंखें भर आईं. राधा और विपिन खानेपीने की चीजों पर हाथ साफ करने में जुटे थे. अब शिवानी को दोनों को देख कर कुछ नफरत सी हुई, लालची, खुदगर्ज, स्वार्थी मां और भाई. वह पार्थ के साथ अपने रूम में चली गई और देर रात तक पता नहीं क्याक्या सोचती रही.

अगली सुबह राधा ने कहा, ‘‘आज विपिन के साथ दादर जा रही हूं, वहां का

किराएदार खाली कर रहा है फ्लैट. एक चक्कर लगाती हूं कि अगली बार देने से पहले कुछ काम तो नहीं करवाना है.’’

शिवानी ने राहत की सांस ली. उन काजाना उसे आज कुदरत का दिया मौका लगा. दोनों चले गए.

शिवानी ने अपना और पार्थ का कुछ जरूरी सामान पैक किया. पार्थ के स्कूल जा कर उस की क्लासटीचर अनुपमा से मिली. अनुपमा शिवानी की सारी स्थिति से परिचित थी. शिवानी अनुपमा से कुछ देर बातें करती रही, फिर अपनी कार में पार्थ को बैठा कर आगे बढ़ गई.

शाम तक बाहर खापी कर, बाजारों में घूम कर मांबेटा आए तो घर में ताला लगा था, राधा बड़बड़ाईं, ‘‘उफ, अब क्या करें? आज तो शिवानी सुबह घर पर थी, मैं चाबी ले जाना ही भूल गई… और वैसे भी विपिन देख यह कोई दूसरा ताला है न?’’

‘‘हां मां, यह दूसरा ताला है. सामने वाले फ्लैट की आंटी से पूछ लो क्या पता दीदी ने चाबी वहां दी हो.’’

सामने वाले फ्लैट की डोरबैल बजाई. नेहा जिसे हमेशा शिवानी से सहानुभूति भी, जो उस के जीवन की हर उठापटक से परिचित थी, ने रुखे स्वर में राधा को बताया, ‘‘शिवानी ने कहा है, आप अपने दादर वाले फ्लैट में पहुंच जाइए. वह आप दोनों का सामान वहीं पहुंचवा देगी, वह पार्थ के साथ चली गई है.’’

राधा को तेज झटका लगा. पूछा, ‘‘कहां चली गई? किस के पास?’’

‘‘यह तो मुझे नहीं पता.’’

राधा ने विपिन को हैरानी से देखा… स्वार्थी रिश्तों का पिंजरा तोड़ कर सोने की चिडि़या तो फुर्र हो गई थी.

Social Story : राजेश ने कम्मो के साथ क्या किया?

Social Story : कम्मो ने रसोई का काम निबटाया और राजेश के कमरे में आ गई. वे टैलीविजन पर खबरें देख रहे थे.

‘‘मैं जा रही हूं बाबूजी, 9 बजने वाले हैं,’’ कम्मो ने कहा.

‘‘ठीक है कम्मो, जरा देखभाल कर घर जाया करो रात को. आजकल ऐसा ही जमाना है.’’

‘‘बाबूजी, मुझे अकेले कोई डर नहीं लगता. मैं ऐसे लोगों से बखूबी निबटना जानती हूं,’’ कम्मो ने राजेश की ओर देखते हुए कहा और कमरे से बाहर निकल गई.

कुछ देर बाद राजेश उठे और दरवाजा बंद कर बिस्तर पर बैठ गए.

राजेश की उम्र 62 साल हो चुकी थी. 2 साल पहले वे एक सरकारी महकमे से अफसर रिटायर हुए थे. परिवार में पत्नी कमला और 2 बेटे विकेश और विजय थे. दोनों बेटों को पढ़ालिखा कर इंजीनियर बनाया. दोनों ने बेंगलुरु में नौकरी कर ली. दोनों की शादी कर दी गई और वे अपनी पत्नियों के साथ खूब मजे में रह रहे थे.

जब तक पत्नी कमला का साथ रहा, राजेश को कुछ भी कमी महसूस न हुई. नौकरी के दौरान खूब पैसा कमाया. बड़ा 4 कमरों का मकान बना लिया. पिछले साल एक दिन कमला को हार्ट अटैक हुआ और अस्पताल पहुंचने से पहले ही दम तोड़ दिया.

कमला के मरने के बाद राजेश बिलकुल अकेले हो गए. दिन तो किसी तरह कट जाता, पर रात काटनी बहुत मुश्किल हो जाती.

विकेश और विजय ने बारबार फोन कर के उन को अपने पास बुला लिया. दोनों के घर एकएक महीना बिता कर वे फिर यहां अपने मकान में आ गए.

सुबह का नाश्ता, सफाई, पोंछा व कपड़ों की धुलाई का काम जमुना करती थी. दोपहर व शाम का खाना शांति बनाती थी.

एक दिन राजेश ने कहा था, ‘जमुना, मैं चाहता हूं कि तुम किसी ऐसी काम वाली को ढूंढ़ दो जो सुबह

9 बजे से रात के 8 बजे तक रहे. सुबह नाश्ते से रात के खाने तक के सारे काम कर सके.’

‘ठीक है बाबूजी, मैं तलाश करूंगी,’ जमुना ने कहा था.

एक दिन सुबह जमुना एक औरत को ले कर आई.

जमुना ने कहा, ‘बाबूजी, यह कम्मो है. जब मैं ने यहां काम के बारे में बताया तो यह तैयार हो गई. यह सुबह 9 बजे से रात के 8 बजे तक रहेगी.’

राजेश ने कम्मो की तरफ देखा. सांवला रंग, गदराया बदन, मोटीमोटी आंखें. उम्र तकरीबन 30-32 साल. माथे पर बिंदी और मांग में सिंदूर.

अगले दिन सुबह कम्मो आई तो राजेश अखबार पढ़ रहे थे.  कम्मो ने ‘नमस्ते बाबूजी’ कहा.

‘आओ कम्मो,’ राजेश ने उसे देखते हुए कहा, ‘बैठो.’

कम्मो वहां रखी कुरसी पर बैठ गई.

‘कम्मो, जरा अपने बारे में कुछ बताओ?’  राजेश ने पूछा.

‘बाबूजी, मेरा नाम कामिनी है, पर सभी मुझे कम्मो कहते हैं. मैं बिहार में पटना के पास ही एक गांव की रहने वाली हूं. मैं ने 10वीं तक पढ़ाई की है. मैं ने अपने मातापिता को नहीं देखा. वे दोनों मजदूरी करते थे. एक दिन एक मकान का लैंटर टूट गया तो उस में दब कर दोनों मर गए. मकान मालिक ने मेरे मामा को

3 लाख रुपए दे दिए थे तब मेरी उम्र

5 साल थी. मामामामी ने ही पाला है.

‘18 साल की उम्र में मामा ने मेरी शादी पास के ही एक गांव में कर दी. शादी के 3 महीने बाद मेरे पति की सड़क हादसे में मौत हो गई. कुछ समय बाद देवर मोहन के साथ मेरी शादी हो गई. वह शहर में एक फैक्टरी में काम करता था. रोज सुबह चला जाता और शाम को लौटता था.

‘मेरी सास नहीं थी. एक दिन दोपहर का खाना खा कर मैं आराम कर रही थी तो अचानक ही ससुर ने मुझे दबोच लिया. मैं ने बहुत मना किया, पर वह नहीं माना. मैं ने इस बारे में पति मोहन को बता दिया.

‘उन दोनों की लड़ाई हो गई. इस लड़ाई में ससुर के हाथ से मोहन की हत्या हो गई. ससुर को पुलिस ने पकड़ लिया. मैं वहां उस घर में अकेली कैसे रहती, इसलिए मैं अपने मामामामी के पास लौट गई.

‘कुछ महीने बाद एक आदमी मामा के घर आया. वह आदमी मेरी तरफ ही देख रहा था. मामा ने मुझे बताया कि यह किशनलाल है. मुजफ्फरनगर का रहने वाला है. यह सब्जी बेचने का काम करता है. इस की घर वाली को पीलिया हो गया था. इलाज कराने पर भी वह बच नहीं सकी. घर में 20 साल का बेटा कमल है. वह 7वीं क्लास तक ही पढ़ सका, किसी दुकान पर नौकरी करता है.

‘मामा ने एक मंदिर में मेरी शादी किशनलाल से कर दी. मैं अपने पति के साथ यहां आ गई. मुझे बाद में पता चला कि मेरे मामा ने इस शादी के लिए 40,000 रुपए लिए थे.

‘मेरी शादी कर के मामा बहुत खुश था कि रुपए भी मिल गए और छाती पर बैठी मुसीबत भी टल गई.

‘एक दिन मुझे पता चला कि मेरे ससुर को हत्या के जुर्म में उम्रकैद की सजा हो गई है. यहां सब ठीकठाक चल रहा था. पहले तो मेरा पति कभीकभार शराब पी कर आता था, पर धीरेधीरे उसे रोज पीने की आदत पड़ गई. वह जुआ भी खेलने लगा था.

‘पति ने रेहड़ी लगानी बंद कर दी. मंडी वालों का कर्ज सिर पर चढ़ गया था. घर में जो जमापूंजी, जेवर वगैरह रखे थे, मंडी वालों को दे कर पीछा छुड़ाया. इस के बाद मैं ने घरों में काम करना शुरू कर दिया,’ कम्मो ने अपने बारे में बताया.

‘ठीक है कम्मो, अब तुम घर का काम संभालो.’

‘बाबूजी, इतनी देर तक अपनी दुखभरी कहानी सुना कर मैं ने आप के सिर में दर्द कर दिया न? आप कहें तो सब से पहले मैं आप के लिए बढि़या सी चाय बना दूं?’ कम्मो ने हंसते हुए कहा था. राजेश मना नहीं कर सके थे.

कम्मो ने घर में काम करना शुरू कर दिया. सुबह नाश्ते से ले कर रात के खाने तक सभी काम बहुत सलीके से करती थी. उसे राजेश के यहां काम करते हुए 2 महीने हो चुके थे.

अकसर फर्श की सफाई करते हुए जब कम्मो पोंछा लगाती तो उस के उभार ब्लाउज से बाहर निकलने को

हो जाते.

राजेश कुरसी पर बैठे हुए अखबार पढ़ रहे होते तो उन की नजरें उभारों पर टिक जातीं. वे इधरउधर देखने की कोशिश करते, पर फिर भी उन की नजर कम्मो की गदराई जवानी पर आ कर ठहर जाती. वे अखबार की आड़ ले कर एकटक उसे देखते रहते.

कम्मो भी यह सब जानती थी कि बाबूजी क्या देख रहे हैं. वह चुपचाप अपने काम में लगी रहती मानो उसे कुछ पता ही न हो.

एक दिन कम्मो ने राजेश से कहा, ‘‘बाबूजी, कमल के पापा की तबीयत ठीक नहीं चल रही है. उस को किसी अच्छे डाक्टर को दिखाना पड़ेगा.’’

‘‘क्या हो गया है उसे?’’

‘‘भूख नहीं लगती. कमजोरी भी आ गई है. महल्ले का डाक्टर कह रहा था कि शराब पीने के चलते गुरदे खराब हो रहे हैं.’’

‘‘जब इतनी शराब पीएगा तो गुरदे तो खराब होंगे ही.’’

‘‘बाबूजी, मुझे कुछ पैसे दे दीजिए.’’

‘‘कितने पैसे चाहिए?’’

‘‘5,000 रुपए दे दीजिए. डाक्टर की फीस, टैस्ट, दवा वगैरह में इतने तो लग ही जाएंगे.’

‘‘ठीक है, रात को जब घर जाएगी तो मुझ से लेती जाना.’’

कम्मो ने चेहरे पर मुसकान बिखेर कर कहा, ‘‘बाबूजी, आप बहुत अच्छे इनसान हैं जो हम जैसे गरीबों की कभी भी मदद कर देते हो.’’

‘‘जब तुम यहां इतना अच्छा काम कर रही हो तो मेरा भी फर्ज बनता है कि मैं तुम्हारी मदद करूं,’’ राजेश ने कम्मो की तरफ देखते हुए कहा.

कुछ दिन बाद राजेश का एक पुराना दोस्त मदनलाल दिल्ली से आया. वह उन का पुराना साथी था. वह भी सरकारी नौकरी से रिटायर हुआ था.

कम्मो चाय व कुछ खाने का सामान ले कर आई और मेज पर सजा कर

चली गई.

चाय पीतेपीते मदनलाल ने कहा, ‘‘यार राजेश, यह नौकरानी तो एकदम पटाखा है. कहां से ढूंढ़ कर लाए हो?’’

‘‘बस अपनेआप ही मिल गई.’’

‘‘तुम्हारी किस्मत तो बहुत ही तेज है डियर, जो ऐसी जबरदस्त नौकरानी मिल गई. एकदम हीरोइन लगती है. अगर

मैं तुम्हारी जगह होता तो ऐसी मस्त नौकरानी से खूब मजे लेता. अरे भाई, हमारे पास रुपएपैसे की कमी नहीं है. हमारी औलादें खूब मजे में हैं. वे बढि़या नौकरी पर हैं. हम क्यों और किस के लिए कंजूसी करें? हमें भी तो अपनी बाकी जिंदगी हंसीखुशी और मजे में गुजारनी चाहिए.’’

राजेश ने कोई जवाब नहीं दिया. कुछ देर बाद कम्मो चाय के खाली बरतन उठाने आई तो मदनलाल उस की तरफ एकटक देखता रहा.

‘‘अच्छा राजेश डियर, मैं चलता हूं,’’ एक घंटे बाद मदनलाल बोला.

‘‘वापस दिल्ली कब जाना है?’’

‘‘शाम को ही लौट जाऊंगा. अगर तुम रात को कम्मो को यहीं रोक सको तो मैं भी रुक जाऊंगा.’’

‘‘यार, लगता है कि तुम मेरी नौकरानी को भगा कर ही रहोगे.’’

‘‘यह तुम्हें छोड़ कर कहीं नहीं जाएगी, क्योंकि तुम जैसे इनसान बहुत कम हैं जो किसी की मजबूरी का फायदा नहीं उठाते. यह भी हो सकता है कि यह किसी दिन तुम्हारी मजबूरी का फायदा उठा ले.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘मैं क्या बताऊं, यह तो समय ही बताएगा,’’ मदनलाल ने कहा और हंसते हुए राजेश से विदा ली.

रात का खाना खा कर राजेश आराम कुरसी पर बैठे थे. उन के दिमाग में मदनलाल की बातें घूमने लगीं. उन

की आंखों के सामने कम्मो का हंसतामुसकराता चेहरा, गदराया बदन, ब्लाउज से बाहर निकलते उभार आने लगे. दिल और दिमाग में अजीब सी बेचैनी होने लगी. वे आराम कुरसी पर सिर पकड़ कर बैठ गए.

कुछ देर बाद कम्मो ने कमरे में आ कर कहा, ‘‘क्या हुआ बाबूजी? लगता है, आप की तबीयत खराब है.’’

‘‘सिर में दर्द हो रहा है,’’ राजेश ने झूठ बोल दिया.

‘‘मैं आप का सिर दबा देती हूं. आप बिस्तर पर लेट जाइए. माथे पर बाम भी लगा देती हूं.’’

राजेश बिस्तर पर लेट गए. कम्मो ने उन के माथे पर बाम लगाते हुए कहा, ‘‘बाबूजी, यह सिरदर्द ज्यादा सोचने से होता है, आप ज्यादा न सोचा कीजिए. भला आप को क्या कमी है? आप को किस बात की चिंता है? फिर इतना क्यों सोचते हैं आप?’’

राजेश के एक हाथ की उंगलियां कम्मो की कमर पर चलने लगीं.

‘‘बाबूजी, यह क्या कर रहे हैं आप?’’ कम्मो ने राजेश की ओर देखते हुए कहा.

‘‘कुछ नहीं कम्मो, आज मन बहुत बेचैन हो गया है,’’ राजेश ने धड़कते दिल से कम्मो को अपनी ओर खींच लिया. कम्मो ने मना नहीं किया.

कुछ देर बाद कम्मो ने कमरे से बाहर निकलते हुए कहा, ‘‘अच्छा बाबूजी, अब मैं चलती हूं.’’

‘‘ठीक है, जाओ,’’ राजेश ने कहा और बिस्तर पर लेटेलेटे वे बहुत देर तक उन पलों के बारे में सोचते रहे जो अभी कम्मो के साथ बिताए थे.

सुबह कम्मो आई तो एकदम नौर्मल थी. रात की घटना की कोई नाराजगी उस के चेहरे पर न थी.

यह देख राजेश को तसल्ली हुई कि कम्मो नाराज नहीं है.

एक रात कम्मो ने घर जाने से पहले राजेश के पास आ कर कहा, ‘‘बाबूजी, आप से एक बात कहनी थी.’’

‘‘हांहां, कहो.’’

‘‘पहले यह बताइए कि आप की तबीयत तो ठीक है न? कहो तो आप का सिर दबा दूं?’’ कम्मो ने राजेश की ओर देखा.

राजेश ने उसे अपनी तरफ खींच लिया. कुछ देर बाद कम्मो बिस्तर से उठ कर जाने लगी तो राजेश ने पूछा, ‘‘तुम कुछ कह रही थी न कम्मो?’’

‘‘हां बाबूजी, कमल फलों की रेहड़ी लगाना चाहता है. अगर आप कुछ मदद कर दें तो वह रेहड़ी लगा लेगा.’’

‘‘कितने रुपए में लग जाएगी रेहड़ी?’’

‘‘तकरीबन 15,000 रुपए…’’

‘‘ठीक है, कल ले जाना रुपए.’’

‘‘बाबूजी, आप बहुत अच्छे इनसान हैं,’’ कम्मो ने कहा और मुसकराते हुए चली गई.

एक महीने बाद काम करतेकरते कम्मो को अचानक उलटी हो गई.

राजेश ने कम्मो को बुला कर पूछा, ‘‘क्या बात है कम्मो? तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘बाबूजी लगता है कि मैं पेट से हो गई हूं. मुझे महीना भी नहीं हुआ है.’’

‘‘तुम डाक्टर से चैकअप कराओ. शाम को नर्सिंग होम में चली जाना. नर्सिंग होम से सीधे अपने घर पहुंच जाना. मुझे मोबाइल पर बता देना जैसा भी डाक्टर बताता है.’

रात को राजेश को कम्मो ने सूचना दे दी कि वह पेट से हो गई है.

अगले दिन सुबह जब कम्मो काम करने आई तो राजेश ने उसे अपने कमरे में बुलाया.

कम्मो बोली, ‘‘बाबूजी, आप ने मेरे साथ संबंध बनाए तो उसी के चलते मैं पेट से हो गई हूं. अब मेरे पेट में आप का बच्चा पल रहा है.’’

‘‘कम्मो, यह तुम कैसे कह सकती हो कि यह मेरा ही बच्चा है, यह तुम्हारे पति का भी तो हो सकता है.’’

‘‘बाबूजी, कमल का पापा तो

3 महीने से मेरे पास आया ही नहीं, वह बीमार रहता है.’’

‘‘कम्मो, मेरा कहा मानोगी…’’

‘‘कहिए बाबूजी?’’

‘‘तुम अपना बच्चा गिरवा लो.’’

‘‘नहीं बाबूजी, मैं बच्चा नहीं गिराऊंगी. मैं हत्या नहीं कराऊंगी. चाहे यह बेटा हो या बेटी, मैं इसे पालपोस कर बड़ा करूंगी.

‘‘मेरा कहना मान लो कम्मो, तुम बच्चा गिरा दो.’’

‘‘नहीं बाबूजी, आप मुझे ऐसी सलाह न दें. इस के पैदा होने पर मैं सभी को बता दूंगी कि इस का पापा कौन है, क्योंकि इस की शक्ल आप से मिलेगी.’’

‘‘अगर मुझ से शक्ल न मिली तो…?’’

‘‘तो मैं इतनी भोली भी नहीं हूं जो चुपचाप बैठ जाऊंगी. मैं सब से पहले इस बच्चे का डीएनए टैस्ट कराऊंगी और मीडिया को बता दूंगी कि यह बच्चा भी आप की जायदाद का वारिस है,’’ कम्मो ने राजेश की ओर देखते हुए कहा. उस के चहरे पर मुसकान थी.

यह सुन कर राजेश को पसीना आ गया. वे तो कम्मो को बहुत भोली समझ रहे थे, पर यह तो जरूरत से ज्यादा समझदार व चालाक है. इस ने तो उसे ही जाल में फंसा दिया है.

राजेश ने कहा, ‘‘सुनो कम्मो, जो होना था हो गया. अब तुम यह बताओ कि इस मुसीबत से बचने के लिए मैं तुम्हें कितने रुपए दे दूं?’’

‘‘बाबूजी, मुझे आप पर तरस आता है. आप बस 5 लाख रुपए दे दो. मैं बच्चा गिरवा दूंगी.’’

‘‘5 लाख रुपए…? क्या कह रही हो तुम? पागल हो गई हो क्या?’’

‘‘बाबूजी, मैं नहीं उस रात तो आप पागल हो गए थे जिस का नतीजा मेरे पेट में पल रहा है.’’

‘‘मैं तुम्हें 5 लाख तो नहीं, 50,000 रुपए दे सकता हूं.’’

‘‘बाबूजी, आप की इज्जत और आप के इस बच्चे की कीमत महज 50,000 ही है क्या?’’

इस के बाद सौदेबाजी हुई और कम्मो 2 लाख रुपए लेने पर मान गई.

राजेश ने दोपहर को बैंक से 2 लाख रुपए निकाल कर कम्मो को दे दिए.

‘‘बाबूजी, मैं कल ही सफाई करा लूंगी. इस के बाद 5-7 दिन मुझे आराम भी करना पड़ेगा.’’

‘‘कोई बात नहीं, तुम अपने घर पर आराम कर लेना.’’

‘‘मैं किसी दूसरी कामवाली को

भेज दूंगी, ताकि आप को कोई परेशानी न हो.’’

‘‘तुम किसी को न भेजना. मैं कुछ दिन के लिए बेंगलुरु चला जाऊंगा अपने बेटे के पास,’’ राजेश ने कुढ़ते हुए कहा.

कम्मो चुपचाप काम में लग गई.

राजेश ठगे से कुरसी पर बैठ गए. उन को अपने किए पर पछतावा हो रहा था. अपनी इज्जत बचाने के लिए उन्हें

2 लाख रुपए देने पड़े. कम्मो ने उस रात की भरपूर कीमत वसूली है.

कुछ दिन बेटे के पास बेंगलुरु में रहने के बाद फिर वापस यहीं लौटना है. यहां लौट कर फिर अकेलापन घेर लेगा. अब तो इस अकेलेपन को दूर करने का कुछ न कुछ उपाय करना ही होगा.

अगले दिन से ही राजेश ने अखबार व इंटरनैट पर ऐसे वैवाहिक विज्ञापन देखने शुरू कर दिए जिन में विधवा, छोड़ी गई व तलाकशुदा औरतों को जीवनसाथी की तलाश थी. उन को लग रहा था कि बाकी की जिंदगी अकेले बिना साथी के काटना बहुत मुश्किल होगा.

Hindi Online Story : शर्त – जब श्वेता की मतलब की शादी बनी उसके गले की फांस

Hindi Online Story : आजलगभग 16 साल बाद श्वेता ने सलोनी की तसवीर फेसबुक पर देखी और श्वेता फिर से छलांग लगा कर कालेज वाली छुईमुई उमराव जान बन गई. अदअसल 2 दशक पहले श्वेता और सलोनी अभिन्न मित्र थीं. दोनों के घरों में कोई समानता नहीं थी. सलोनी का राजमहल सा घर जो शहर की सब से पौश कालोनी कवि नगर में स्थित था वहीं श्वेता का छोटा सा घर निम्नवर्गीय कालोनी विजय नगर में था, पर इन सब बातों के बावजूद श्वेता और सलोनी की दोस्ती कलकल बहते हुए पानी की तरह चलती रही.

सलोनी जहां सांवले रंग, साधारण नैननक्श पर गजब के आत्मविश्वास की स्वामिनी थी वहीं श्वेता गौर वर्ण, भूरी आंखें, तीखे नैननक्श की मलिका थी. दोनों एकदूसरे के न केवल रंगरूप में, बल्कि आचारविचार में भी बिलकुल विपरीत थीं. जहां सलोनी बेहद बिंदास और दिल की साफ थी वहीं श्वेता थोड़ी सी सिमटी हुई और खुद में खोई रहती थी.

श्वेता मन ही मन अपने जीवनस्तर की तुलना सलोनी से करती और खुद को सदा कमतर पाती थी. पर उसे पूरा विश्वास था कि उस के राजसी रूपसौंदर्य के कारण वह किसी अमीर खानदान की ही बहू बनेगी और श्वेता के घर वह बडे़ और अमीर लोगों के तौरतरीके का अनुकरण करने ही जाती थी.

आज सलोनी का जन्मदिन था और सभी सहेलियां कानपुर के पांचसितारा होटल में इकट्ठा हुई थीं. वहीं पर सलोनी ने अपनी सब सहेलियों की मुलाकात विभोर से कराई, जो उस के पिता के मित्र का बेटा था और इंजीनियरिंग की पढ़ाई कानुपर के सरकारी कालेज से कर रहा था. विभोर 5 फुट 10 इंच लंबा आकर्षक नौजवान था.

जैसेकि आमतौर पर होता है, सब लड़कियों ने पूरा होटल सिर पर उठा रखा था बस श्वेता ही थी जो चुपचाप सहमी सी एक कोने में बैठी हुई थी.

विभोर ने मुसकराते हुए सलोनी से कहा, ‘‘ये छुईमुई कौन हैं, बिलकुल उमराव जान लग रही हैं.’’

सलोनी खींच कर श्वेता को वहीं ले गई और बोली, ‘‘यह छुईमुई श्वेता है और मेरी सब से पुरानी और करीबी दोस्त.’’

फिर खाना और्डर होने लगा. ऐसेऐसे व्यंजन जिन के नाम भी श्वेता ने नहीं सुने थे. वह और घबरा गई. तभी विभोर श्वेता की बगल में आ कर बैठ गया और मेनू कार्ड उस के हाथों से ले लिया. फिर धीमे से उस के कानों में बोला, ‘‘जो मैं और्डर करूंगा तुम भी वही करना.’’

यह सुन कर श्वेता की जान में जान आ गई. विभोर ने श्वेता जैसी कोई लड़की अब  तक देखी नहीं थी. उस की अपनी मां, बहनें बहुत ही अलग किस्म की थीं. यह छुईमुई जैसी लड़की से उस का पहला परिचय था. बातबात पर चेहरे का लज्जा से लाल हो जाना, दुपट्टे के कोने से खेलना, पसीनापसीना होना और बिना किसी प्रसाधन के भी इतना सुंदर दिखना, विभोर का यह पहला तजरबा था.

वापसी में श्वेता को घर जाने की जल्दी थी तो वह औटो के लिए निकल गई, तभी पीछे से विभोर आया और बोला, ‘‘छुईमुई तुम मेरे साथ चलो, मेरे कालेज का रास्ता वहीं से है.’’

श्वेता घबरा कर चुप खड़ी रही तो विभोर हंस कर बोला, ‘‘तुम्हें घर के बाहर ही उतार दूंगा, कौफी पीने के लिए घर के अंदर नहीं आऊंगा.’’

श्वेता चुपचाप बैठ गई और मोटरसाइकिल हवा से बातें करने लगी. एक अजीब सी खुशी और दुविधा में घिरी श्वेता घर पहुंची. विभोर पहला ऐसा लड़का था, जिस ने इतना बेबाक हो कर उस से बात की. खोईखोई सी वह अपने पलंग पर लेट गई और विभोर का उसे छुईमुई कहना उस की तुलना उमराव जान से करना, सबकुछ ने उस के दिल के तार झंकृत कर दिए और उस की आंखों में इंद्रधनुषी रंग उतर आए, जिन के सपने वह बचपन से देखती आई थी.

श्वेता अब अपने रखरखाव का ध्यान पहले से अधिक रखने लगी थी और अब उस का अधिकतर समय सलोनी के घर ही व्यतीत होता था.

दरअसल, श्वेता विभोर को देखने के बहाने अपना डेरा सलोनी के घर जमाए रहती थी और यह बात सलोनी भी जानती थी. इसलिए उस ने एक दिन श्वेता से कह भी दिया, ‘‘श्वेता विभोर हर किसी से ऐसे ही मजाक करता रहता है, बहुत खिलंदड़ स्वभाव का है वह.’’

मगर श्वेता को लगा कि विभोर श्वेता के चारों ओर उमराव जान कह कर मंडराता रहता है, इसलिए सलोनी जलती है क्योंकि विभोर हमेशा सलोनी को काला हीरा कह कर चिढ़ाता है.

देखते ही देखते 2 वर्ष साल गए और श्वेता, विभोर और सलोनी की दोस्ती ऐसे ही चलती रही. विभोर ने कभी भी श्वेता से अपने प्यार का इजहार नहीं किया पर प्यार का क्या कभी इजहार करा जाता है, यह तो महसूस किया जाता है और श्वेता तो पिछले 2 सालों से श्वेता विभोर के प्यार में भीगी हुई थी. उसे तो मानो अपनी मंजिल मिल गई थी.

उधर विभोर को जहां एक तरफ श्वेता की खामोशी और घबराहट बहुत आकर्षक लगती थी वहीं सलोनी का आत्मविश्वास, उस की हर बात को मूक सहमति न दे कर तर्कवितर्क करना उसे प्रभावित करता था.

विभोर ने श्वेता से कोई वादा नहीं किया था पर श्वेता को पूरा विश्वास था कि विभोर उस का हाथ मांगने आएगा. कालेज खत्म हो गया था तो सलोनी ने अपने पापा का बिजनैस जौइन कर लिया था और श्वेता ने विभोर के प्रस्ताव का इंतजार करना आरंभ कर दिया.

विभोर और श्वेता फोन से एकदूसरे से लगातार संपर्क में थे. इस बीच विभोर की नौकरी लग गई पर वह अधिक खुश नहीं था, उसे और आगे बढ़ना था. श्वेता हर बार विभोर को फोन पर यह सुनाती थी कि उस के लिए बहुत सारे विवाह के प्र्रस्ताव आ रहे हैं पर विभोर को समझ नहीं आ रहा था कि श्वेता ये सब उसे क्यों बताती रहती है.

एक दिन झंझला कर उस ने फोन पर बोल भी दिया, ‘‘कैसी दोस्त हो तुम श्वेता मैं अपनी नौकरी के कारण परेशान हूं और तुम्हें बस विवाह की पड़ी है. हां मालूम है मुझे तुम बहुत खूबसूरत हो तो रोका किस ने है तुम्हें कर लो न शादी,’’ और फिर फोन काट दिया.

श्वेता को लगा कि विभोर असुरक्षित महसूस कर रहा है कि कहीं उस का विवाह कहीं और न हो जाए, पर मन ही मन श्वेता खुश थी कि चलो विभोर अब जल्द ही सिर के बल दौड़ा आएगा.

एक दिन अचानक शाम को सलोनी का फोन आया, उसे अर्जेंट बुलाया था. वहां जा कर देखा तो पता चला सलोनी उड़ीउड़ी सी घूम रही है, श्वेता को देखते ही बोली, ‘‘शुक्र है तुम आ गई, यार आज मेरा रोका है और सुनेगी किस के साथ?’’

श्वेता वहीं धम से बैठ गई और फिर बोली, ‘‘सलोनी यह कैसा मजाक है, विभोर तो अभी विवाह के बारे में सोच भी नहीं सकता है… उस ने मुझ से खुद बोला था.’’

सलोनी हंसते हुए बोली, ‘‘अरे पगली तू बहुत भोली है, विभोर ने अपनी एक नई यूनिट आरंभ करी है और उस में मेरे पापा ने 50% पैसा लगाया है तथा उस यूनिट का बेसिक प्लान मेरा था तो दोनों के पापा ने सोचा जब एकसाथ काम ही करना है तो फिर जिंदगी भी एकसाथ क्यों न गुजारी जाए.’’

श्वेता कड़वाहट से चिल्ला कर बोली, ‘‘यह क्यों नहीं बोलती कि तुम ने अपने पैसों से उसे खरीद लिया है.’’

सलोनी श्वेता की बात सुन कर सकते में आ गई पर फिर भी संयत स्वर में बोली, ‘‘श्वेता, विभोर का अपना निर्णय है, उस ने सुंदरता से अधिक अपनी तरक्की को महत्त्व दिया है, तुम बहुत सुंदर हो श्वेता पर जिंदगी में आगे बढ़ने के लिए काबिलीयत और स्मार्टनैस भी चाहिए, जो शायद उसे मुझ में नजर आई होगी.’’

श्वेता ने कहा, ‘‘यह नहीं हो सकता, विभोर मेरे अलावा और किसी से शादी नहीं कर सकता है और मैं तुम से हर बात में बेहतर हूं.’’

सलोनी बोली, ‘‘यह हो चुका है श्वेता, जरूरी नहीं है सब लोग रूप के ही दीवाने हों. कुछ लोग रूप से अधिक बुद्धि को भी महत्त्व देते हैं, मेरे ही कारण विभोर यह नया यूनिट लगा पाया है.’’

श्वेता बोली, ‘‘सलोनी अपने पापा के वैभव पर तुम्हें बहुत घमंड है न और इसी धन के बल पर तुम ने विभोर को हथिया लिया है पर मेरी भी यह बात सुन लो, अब रूपरंग के साथसाथ यह वैभव और धन भी मेरा दास बन कर रहेगा, यह मेरी शर्त है तुम से.’’

सलोनी मुसकराते हुए बोली, ‘‘तुम्हारी सोच गलत है श्वेता पर देखेंगे अगर कभी जिंदगी के किसी मोड़ पर टकराए तो.’’

उस दिन के बाद श्वेता ने सलोनी और विभोर नामक अध्याय अपनी जिंदगीरूपी किताब  से हमेशा के लिए खत्म कर दिया था पर वह अपनी शर्त नहीं भूली थी बस उस की जिंदगी का एक ही मकसद था किसी भी कीमत पर धनवान बनना, इस कारण वह एक के बाद एक मध्यवर्गीय रिश्ते नकारती रही और जहां श्वेता का मन करता था वहां दहेज की लंबी लिस्ट देख कर उस के घर वालों के पसीने छूट जाते. घर वाले श्वेता के रवैए से परेशान हो गए थे.

देखते ही देखते श्वेता ने 30 साल भी पूरे कर लिए. इसी बीच एक दिन श्वेता एक दूर की रिश्तेदारी में विवाह में सम्मिलित होने गई थी. वहीं पर उसे राजेश्वरी ने अपने बेटे विकास के लिए पसंद कर लिया. विकास खानदानी रईस था और बहुत अच्छे पद पर कार्यरत था, पर दिखने में बहुत ही साधारण था. विकास की पहली बीबी की 1 साल पहले मृत्यु हो गई थी और उस के 5 और 7 साल के 2 बच्चे थे.

जब यह रिश्ता आया तो श्वेता के मां और बाबूजी बोले, ‘‘सगी बेटी है सौतेली नहीं, पैसा हुआ तो क्या हुआ, है तो पूरे 38 साल का. न बाबा न ऐसा महल नहीं चाहिए और फिर 2-2 बच्चे भी हैं.’’

मगर श्वेता ने आगे बढ़ कर इस रिश्ते को स्वीकार कर लिया. वह अपने एकाकी जीवन से ऊब चुकी थी और यह पहला ऐसा रिश्ता था जो उसे पसंद आया था. उसे विकास के बच्चों या विकास से कोई मतलब नहीं था, उसे मतलब था विकास के रुतबे से, पैसों से.

आज विवाह के 10 साल बीत गए थे, जिस धन के लिए श्वेता ने विवाह किया था   वह यहां पर भरपूर था. दोनों बच्चे होस्टल में थे और विकास उस की आंखों के इशारे पर उठता और बैठता था. फिर भी एक टीस थी श्वेता के मन में जो जबतब उसे मायूस कर देती थी.

विकास उसे हाथोंहाथ रखता था पर फिर भी दोनों का रिश्ता पतिपत्नी का नहीं, दास मालिक का सा लगता था. श्वेता जैसी खूबसूरत पत्नी पा कर विकास धन्य हो उठा था, वह हमेशा श्वेता की खूबसूरती का उपासक ही बना रहा. पति बनने की कोशिश कभी न करी. दोनों बच्चों के साथ श्वेता ने हमेशा एक सम्मानजनक दूरी बना कर रखी थी. श्वेता और विकास के अपना कोई बच्चा कभी नहीं हो पाया था पर इस का भी श्वेता को कभी अफसोस नहीं हुआ था. बच्चा न होने के कारण श्वेता के शरीर पर मांस की एक परत भी नहीं चढ़ी थी, जैसी वह 10 साल पहले लगती थी वैसी ही आज भी लगती थी और आईने में यह देख कर श्वेता की गरदन घमंड से तन जाती थी.

ऐसे ही एक दिन श्वेता ने अचानक फेसबुक पर सलोनी को देखा और उस की तसवीर देख कर उसे असीम आनंद आ गया. सलोनी बेहद अनाकर्षक लग रही थी पर विभोर अभी भी जस का तस बना हुआ था, फिर से श्वेता के मन में टीस सी उठी. यह विभोर नाम की टीस ही थी जो उसे सामान्य होने नहीं देती थी.

और फिर नियति जैसे खुद ही सलोनी और विभोर को उस के सामने खींच लाई. विभोर को अपने व्यापार के सिलसिले में ही कोई फाइल पास करवानी थी, जो विकास की मदद से ही हो सकती थी.

जैसे ही दफ्तर में विकास को पता चला कि सलोनी, श्वेता के शहर की ही है और उस की मित्र भी थी तो फौरन विकास ने उन्हें अपने घर पर आमंत्रित कर लिया. श्वेता भले ही ऊपर से भुनभुना रही थी पर अंदर से बेहद खुश थी, चलो अब तो वह सलोनी को अपना राजपाट दिखा पाएगी, विभोर को भी तो पता चले कि उस ने क्या खोया है और किस कांच के टुकड़े को वह हीरा समझ कर ले गया है. बहुत घमंड था न सलोनी को अपनी योग्यता और स्मार्टनैस पर, परंतु आज सलोनी भी देख लेगी कि जीवन के तराजू में मेरे वैभव, मेरी सुंदरता का पलड़ा भारी है.

विभोर और सलोनी समय से कुछ पहले ही आ गए थे. दोनों पुराने दिनों को याद करने लगे पर श्वेता ऐसा व्यवहार कर रही थी जैसे उसे कुछ भी याद न हो.

श्वेता ने ही सलोनी से कहा, ‘‘क्या हाल बना रखा है सलोनी तुम ने… तुम पहले से तीन गुना हो गई हो, जिम नहीं जाती हो क्या?’’ और फिर बड़ी अदा से अपना साड़ी का पल्ला ठीक करते हुए कनखियों से विभोर की तरफ देखने लगी पर विभोर की आंखों में सलोनी के लिए प्यार और सम्मान देख कर वह राख हो गई.

सलोनी हंसते हुए बोली, ‘‘श्वेता, मां बनने के बाद तो वजन बढ़ ही जाता है. जब तुम्हारे खुद के बच्चे होंगे न तो पता चलेगा.’’

ऐसा लगा मानो श्वेता के मुंह पर किसी ने सफेदी पोत दी हो और फिर सलोनी अपने बच्चों का प्रशस्ति गान करने लगी.

तभी श्वेता को ध्यान आया उसे तो विकास के बच्चों के बारे में कुछ भी नहीं पता.  वह बस विकास की पत्नी ही बनी रही, उस ने उन बच्चों की मां बनने की पहल कभी नहीं की.

श्वेता ने फिर खाने की मेज पर सब को बुलाया, उसे पूरी उम्मीद थी कि सलोनी और विभोर उस के खाने की अनदेखी नहीं कर पाएंगे. पर यहां भी श्वेता को निराशा ही हाथ लगी. सलोनी अधिकतर व्यंजनों को देख कर बोली, ‘‘श्वेता, तुम्हारे व्यंजनों को देख कर विकास की सेहत का राज समझ आ गया.’’

विकास की बढ़ती हुई तोंद की तरफ उन दोनों का इशारा था. श्वेता कट कर रह गई.

श्वेता को समझ नहीं आ रहा था उस का रूप, उस का वैभव क्यों सलोनी और विभोर को प्रभावित नहीं कर पा रहा, विभोर उस की खूबसूरती पर ध्यान क्यों नहीं दे रहा है? विभोर और सलोनी के रिश्ते में बहुत सुंदर तालमेल था जो श्वेता के वैवाहिक रिश्ते से नदारद था, क्योंकि श्वेता ने तो विवाह बस धन के लिए किया था खाने के बाद विभोर और विकास कार्य संबंधी बातों के लिए बगीचे में बैठ गए. सलोनी को अपने वैभव से दमकते ड्राइंगरूम में बैठा कर, श्वेता कौफी लेने के लिए चली गई.

कौफी पीतेपीते सलोनी 2 मिनट रुकी. श्वेता को लगा शायद अब वह उस की मेहमाननवाजी की प्रशंसा करेगी पर सलोनी खिलखिलाकर बोली, ‘‘श्वेता, तुम्हें अपनी शर्त याद है क्या अभी भी? लगता है तुम ने शर्त जीत ली है.’’

श्वेता ने कोई जवाब नहीं दिया पर उस के मन को पता था कि वह फिर से शर्त हार गई है. उसे पता था कि वह खूबसूरत है पर बस अपने लिए.

‘‘उस ने विकास से शादी बस सलोनी से बराबरी के लिए की है पर सलोनी अब भी उस से कहीं आगे है, क्योंकि एक पत्नी की सफलता उस के रंगरूप में नहीं उस के पति और बच्चों के साथ उस के रिश्तों की गहराई और गरमाहट से झलकती है, जो श्वेता के विवाह में कहीं नहीं थी.

सलोनी खिलखिलाती हुई बगीचे की तरफ चली गई. श्वेता को लग रहा था उस की बेमतलब की शर्त ने उस की जिंदगी को ऐसे मोड़ पर ला कर खड़ा कर दिया, जिस की शायद कोई मंजिल ही नहीं है.

Latest Hindi Stories : स्मिता – क्या बेटी की बीमारी का इलाज ढूंढ पाए सारा और राजीव

Latest Hindi Stories : ‘‘यह कितनी कौंप्लिकेटेड प्रेग्नैंसी है,’’ राजीव ने तनाव भरे स्वर में कहा.

सारा ने प्रतिक्रिया में कुछ नहीं कहा. उस ने कौफी का मग कंप्यूटर के कीबोर्ड के पास रखा. राजीव इंटरनेट पर सर्फिंग कर रहा था. सारा ने एक बार उस की तरफ देखा, फिर उस ने मौनिटर पर निगाह डाली और वहां खडे़खडे़ राजीव के कंधे पर अपनी ठुड्डी रखी तो उस की घनी जुल्फें पति के सीने पर बिखर गईं.

नेट पर राजीव ने जो वेबसाइट खोल रखी थी वह हिंदी की वेबसाइट थी और नाम था : मातृशक्ति.

साइट का नाम देखने पर सारा उसे पढ़ने के लिए आतुर हो उठी. लिखा था, ‘प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक सिगमंड फ्रायड ने भी माना है कि आदमी को जीवन में सब से ज्यादा प्रेरणा मां से मिलती है. फिर दूसरी तरह की प्रेरणाओं की बारी आती है. महान चित्रकार लियोनार्डो दि विंची ने अपनी मां की धुंधली याद को ही मोनालिसा के रूप में चित्र में उकेरा था. इसलिए आज भी वह एक उत्कृष्ट कृति है. नेपोलियन ने अपने शासन के दौरान उसे अपने शयनकक्ष में लगा रखा था.’

वेबसाइट पढ़ने के बाद कुछ पल के लिए सारा का दिमाग शून्य हो गया. पहली बार वह मां बन रही थी इसीलिए भावुकता की रौ में बह कर वह बोली, ‘‘दैट्स फाइनल, राजीव, जो भी हो मेरा बच्चा दुनिया में आएगा. चाहे उस को दुनिया में लाने वाला चला जाए. आजकल के डाक्टर तो बस, यही चाहते हैं कि वे गर्भपात करकर के  अच्छाखासा धन बटोरें ताकि उन का क्लीनिक नर्सिंग होम बन सके. सारे के सारे डाक्टर भौतिकवादी होते हैं. उन के लिए एक मां की भावनाएं कोई माने नहीं रखतीं. चंद्रा आंटी को गर्भ ठहरने पर एक महिला डाक्टर ने कहा था कि यह प्रेग्नैंसी कौंप्लिकेटेड होगी या तो जच्चा बचेगा या बच्चा. देख लो, दोनों का बाल भी बांका नहीं हुआ.’’

‘‘यह जरूरी तो नहीं कि तुम्हारा केस भी चंद्रा आंटी जैसा हो. देखो, मैं अपनी इकलौती पत्नी को खोना नहीं चाहता. मैं संतान के बगैर तो काम चला लूंगा लेकिन पत्नी के बिना नहीं,’’ कहते हुए राजीव ने प्यार से अपना बायां हाथ सारा के सिर पर रख दिया.

‘‘राजीव, मुझे नर्वस न करो,’’ सारा बोली, ‘‘कल सुबह मुझे नियोनो- टोलाजिस्ट से मिलने जाना है. दोपहर को मैं एक जेनेटिसिस्ट से मिलूंगी. मैं तुम्हारी कार ले जाऊंगी क्योंकि मेरी कार की बेल्ट अब छोटी पड़ रही है. और हां, पापा को ईमेल कर दिया?’’

‘‘पापा बडे़ खुश हैं. उन को भी तुम्हारी तरह यकीन है कि पोती होगी. उन्होंने साढे़ 8 महीने पहले उस का नाम भी रख दिया, स्मिता. कह रहे थे कि स्मिता की स्मित यानी मुसकराहट दुनिया में सब से सुंदर होगी,’’ राजीव ने बताया तो सारा के गालों का रंग और भी सुर्ख हो गया.

‘‘मिस्टर राजीव बधाई हो, आप की पहली संतान लड़की हुई है,’’ नर्स ने बधाई देते हुए कहा.

पुलकित मन से राजीव ने नर्स का हाथ स्नेह से दबाया और बोला, ‘‘थैंक्स.’’

राजीव अपनी बेचैनी को दबा नहीं पा रहा था. वह सारा को देखने के लिए प्रसूति वार्ड की ओर चल दिया.

सारा आंखें मूंदे लेटी हुई थी. किसी के आने की आहट से सारा ने आंखें खोल दीं, फिर अपनी नवजात बेटी की तरफ देखा और मुसकरा दी.

‘‘मुझे पता नहीं था कि बेटियां इतनी सुंदर और प्यारी होती हैं,’’ यह कहते हुए राजीव ने बेटी को हाथों में लेने का जतन किया.

तभी बच्ची को जोर की हिचकी आई. फिर वह जोरजोर से सांसें लेने लगी. यह देख कर पतिपत्नी की सांस फूल गई. राजीव जोर से चिल्लाया, ‘‘डाक्टर…’’

आधे मिनट में लेडी डाक्टर वंदना जैन आ गईं. उन्होंने बच्ची को देख कर नर्स से कहा, ‘‘जल्दी से आक्सीजन मास्क लगाओ.’’

अगले 10 मिनट बाद राजीव और सारा की नवजात बेटी को अस्पताल के नियोनोटल इंटेसिव केयर यूनिट में भरती किया गया. उस बच्ची के मातापिता कांच के बाहर से बड़ी हसरत से अपनी बच्ची को देख रहे थे. तभी नर्स ने आ कर सारा से कहा कि उसे जच्चा वार्ड के अपने बेड पर जा कर आराम करना चाहिए.

सारा को उस के कमरे में छोड़ राजीव सीधा डा. अतुल जैन के चैंबर में पहुंचा, जो उस की बेटी का केस देख रहे थे.

‘‘मिस्टर राजीव, अब आप की बेटी को सांस लेने में कोई दिक्कत नहीं आएगी. लेकिन वह कुछ चूस नहीं सकेगी. मां का स्तनपान नहीं कर पाएगी. उस का जबड़ा छोटा है, होंठों एवं गालों की मांसपेशियां काफी सख्त हैं. बाकी उस के जिनेटिक, ब्रेन टेस्ट इत्यादि सब सामान्य हैं,’’ डा. अतुल जैन ने बताया.

‘‘आखिर मेरी बेटी के साथ समस्या क्या है?’’

‘‘अभी आप की बेटी सिर्फ 5 दिन की है. अभी उस के बारे में कुछ भी नहीं कह सकते. हो सकता है कि कल कुछ न हो. चिकित्सा के क्षेत्र में कभीकभी ऐसे केस आते हैं जिन के बारे में पहले से कुछ कहा नहीं जा सकता. वैसे आज आप की बेटी को हम डिस्चार्ज कर देंगे,’’ डा. अतुल ने कहा.

राजीव वार्ड में सारा का सामान समेट रहा था. स्मिता को नियोनोटल इंटेसिव केयर में सिर्फ 2 दिन रखा गया था. अब वह आराम से सांस ले रही थी.

‘‘आप ने बिल दे दिया?’’ नर्स ने पूछा.

‘‘हां, दे दिया,’’ सारा ने जवाब दिया.

नर्स ने नन्ही स्मिता के होंठों पर उंगली रखी और बोली, ‘‘मैडम, आप को इसे ट्यूब से दूध पिलाना पडे़गा. बोतल से काम नहीं चलेगा. यह बच्ची मानसिक रूप से कमजोर पैदा हुई है.’’

राजीव और सारा ने कुछ नहीं कहा. नर्स को धन्यवाद बोल कर पतिपत्नी कमरे से बाहर निकल गए.

घर आ कर सारा ने स्मिता के छोटे से मुखडे़ को गौर से देखा. फिर वह सोचने लगी, ‘आखिर इस के होंठों और गालों में कैसी सख्ती है?’

राजीव ने सारा को एकटक स्मिता को ताकते हुए देखा तो पूछा, ‘‘इतना गौर से क्या देख रही हो?’’

सारा कुछ नहीं बोली और स्मिता में खोई रही.

2 दिन बाद डा. अतुल जैन ने फोन कर राजीव व सारा को अपने नर्सिंग होम में बुलाया.

‘‘आप की बेटी की समस्या का पता चल गया. इसे ‘मोबियस सिंड्रोम’ कहते हैं,’’ डा. अतुल जैन ने राजीव और सारा को बताया.

‘‘यह क्या होता है?’’ सारा ने झट से पूछा.

‘‘इस में बच्चे का चेहरा एक स्थिर भाव वाले मुखौटे की तरह लगता है. इस सिंड्रोम में छठी व 7वीं के्रनिकल नर्व की कमी होती है या ये नर्व अविकसित रह जाती हैं. छठी क्रेनिकल नर्व जहां आंखों की गति को नियंत्रित करती है वहीं 7वीं नर्व चेहरे के भावों को सक्रिय करती है,’’ अतुल जैन ने विस्तार से स्मिता के सिंड्रोम के बारे में जानकारी दी.

‘‘इस से मेरी बेटी के साथ क्या होगा?’’ सारा ने बेचैनी से पूछा.

‘‘आप की स्मिता कभी मुसकरा नहीं सकेगी.’’

‘‘क्या?’’  दोनों के मुंह से एकसाथ निकला. हैरत से राजीव और सारा के मुंह खुले के खुले रह गए. किसी तरह हिम्मत बटोर कर सारा ने कहा, ‘‘क्या एक लड़की बगैर मुसकराए जिंदा रह सकती है?’’

डा. जैन ने कोई जवाब नहीं दिया. राजीव भी निरुत्तर हो गया था. वह सारा की गोद में लेटी स्मिता के नन्हे से होंठों को अपनी उंगलियों से छूने लगा. उस की बाईं आंख से एक बूंद आंसू का निकला. इस से पहले कि सारा उस की बेबसी को देखती, राजीव ने आंसू आधे में ही पोंछ लिया.

16 माह की स्मिता सिर्फ 2 शब्द बोलती थी. वह पापा को ‘काका’ और ‘मम्मी’ को ‘बबी’ उच्चारित करती. उस ने ‘प’ का विकल्प ‘क’ कर दिया और ‘म’ का विकल्प ‘ब’ को बना दिया. फिर भी राजीव और सारा हर समय अपनी नौकरी से फुरसत मिलते ही अपनी स्मिता के मुंह से काका और बबी सुनने को बेताब रहते थे.

6 साल की स्मिता अब स्कूल में पढ़ रही थी. लेकिन कक्षा में वह पीछे बैठती थी और हर समय सिर झुकाए रहती थी. उस की पलकों में हर समय आंसू भरे रहते थे. एक छोटी सी बच्ची, जो मन से मुसकराना जानती थी लेकिन  उस के होंठ शक्ल नहीं ले पाते थे. उस पर सितम यह कि उस के सहपाठी दबे मुंह उसे अंगरेजी में ‘स्माइललैस गर्ल’ कहते थे.

इस दौरान राजीव और सारा मुंबई विश्वविद्यालय छोड़ कर अपनी बेटी स्मिता को ले कर जोधपुर आ गए और विश्वविद्यालय परिसर में बने लेक्चरर कांप्लेक्स में रहने लगे. राजीव मूलत: नागपुर के अकोला शहर से थे और पहली बार राजस्थान आए थे.

स्मिता का दाखिला विश्वविद्यालय के करीब ही एक स्कूल में करा दिया गया. वह मानसिक रूप से एक औसत छात्रा थी.

उस दिन बड़ी तीज थी. विश्व- विद्यालय परिसर में तीज का उत्साह नजर आया. परिसर के लंबेचौडे़ लान में एक झूला लगाया गया. परिसर में रहने वालों की छोटीबड़ी सभी लड़कियां सावन के गीत गाते हुए एकदूसरे को झुलाने लगीं. स्मिता भी अपने पड़ोस की हमउम्र लड़कियों के साथ झूला झूलने पहुंची. लेकिन आधे घंटे बाद वह रोती हुई सारा के पास पहुंची.

‘‘क्या हुआ?’’ सारा ने पूछा.

‘‘मम्मी, पूजा कहती है कि मैं बदसूरत हूं क्योंकि मैं मुसकरा नहीं सकती,’’ स्मिता ने रोते हुए बताया.

‘‘किस ने कहा? मेरी बेटी की मुसकान दुनिया में सब से खूबसूरत होगी?’’

‘‘कब?’’

‘‘पहले तू रोना बंद कर, फिर बताऊंगी.’’

‘‘मम्मी, पूजा ने मेरे साथ चीटिंग भी की. पहले झूलने की उस की बारी थी, मैं ने उसे 20 मिनट तक झुलाया. जब मेरी बारी आई तो पूजा ने मना कर दिया और ऊपर से कहने लगी कि तू बदसूरत है इसलिए मैं तुझे झूला नहीं झुलाऊंगी,’’ स्मिता ने एक ही सांस में कह दिया और बड़ी हसरत से मम्मी की ओर देखने लगी.

बेटी के भावहीन चेहरे को देख कर सारा को समझ में नहीं आया कि वह हंसे या रोए. उस के मन में अचानक सवाल जागा कि क्या मेरी स्मिता का चेहरा हंसी की भाषा कभी नहीं बोल पाएगा. नहीं, ऐसा नहीं होगा. एक दिन जरूर आएगा और वह दिन जल्दी ही आएगा, क्योंकि एक पिता ऐसा चाहता है…एक मां ऐसा चाहती है और एक भाई भी ऐसा ही चाहता है.

एक दिन सुबह नहाते वक्त स्मिता की नजर बाथरूम में लगे शीशे पर पड़ी. शीशा थोड़ा ऊपर था. वह टब में बैठ कर या खड़े हो कर उसे नहीं देख सकती थी. सारा जब उसे नहलाती थी तब पूरी कोशिश करती थी कि स्मिता आईना न देखे. लेकिन आज सारा जैसे ही बेटी को नहलाने बैठी तो फोन आ गया. स्मिता को टब के पास छोड़ कर सारा फोन अटेंड करने चली गई.

स्मिता के मन में एक विचार आया. वह टब पर धीरे से चढ़ी. अब वह शीशे में साफ देख सकती थी. लेकिन अपना सपाट और भावहीन चेहरा शीशे में देख कर स्मिता भय से चिल्ला उठी, ‘‘मम्मी…’’

सारा बेटी की चीख सुन कर दौड़ी आई, बाथरूम में आ कर उस ने देखा तो शीशा टूटा हुआ था. स्मिता टब में सहमी बैठी हुई थी. उस ने गुस्से में नहाने के शावर को आईने पर दे मारा था.

‘‘मम्मी, मैं मुसकराना चाहती हूं. नहीं तो मैं मर जाऊंगी,’’ सारा को देखते ही स्मिता उस से लिपट कर रोने लगी. सारा भी अपने आंसू नहीं रोक पाई.

‘‘मेरी बेटी बहुत बहादुर है. वह एक दिन क्या थोडे़ दिनों में मुसकराएगी,’’ सारा ने उसे चुप कराने के लिए दिलासा दी.

स्मिता चुप हो गई. फिर बोली, ‘‘मम्मी, मैं आप की तरह मुसकराना चाहती हूं क्योंकि आप की मुसकराहट से खूबसूरत दुनिया में किसी की मुसकराहट नहीं है.’’

राजीव शिमला से वापस आए तो सारा ने पूछा, ‘‘हमारी बचत कितनी होगी, राजीव?’’

‘‘क्या तुम प्लास्टिक सर्जरी के बारे में सोच रही हो,’’ राजीव ने बात को भांप कर कहा.

‘‘हां.’’

‘‘चिंता मत करो. कल हम स्मिता को सर्जन के पास ले जाएंगे,’’ राजीव ने कहा.

‘‘सिस्टर, तुम देखना मेरी मुसकराहट मम्मी जैसी होगी. जो मेरे लिए दुनिया में सब से खूबसूरत मुसकराहट है,’’ एनेस्थिसिया देने वाली नर्स से आपरेशन से पहले स्मिता ने कहा.

स्मिता का आपरेशन शुरू हो गया. सारा की सांस अटक गई. उस ने डरते हुए राजीव से पूछा, ‘‘सुनो, उसे आपरेशन के बाद होश आ जाएगा न? कभीकभी मरीज कोमा में चला जाता है.’’

‘‘चिंता मत करो. सब ठीक होगा,’’ राजीव ने मुसकराते हुए जवाब दिया ताकि सारा का मन हलका हो जाए.

डा. अतुल जैन ने स्मिता की जांघों की ‘5वीं नर्व’ की शाखा से त्वचा ली क्योंकि वही त्वचा प्रत्यारोपण के बाद सक्रिय रहती है. इस से ही काटने और चबाने की क्रिया संभव होती है. राजीव और सारा का बेटी के प्रति प्यार रंग लाया. आपरेशन के 1 घंटे बाद स्मिता को होश आ गया. लेकिन अभी एक हफ्ते तक वे अपनी बेटी का चेहरा नहीं देख सकते थे.

काफी दिनों तक राजीव पढ़ाने नहीं जा पाया था. आज सुबह 10 बजे वह पूरे 2 महीने बाद लाइफ साइंस के अपने विभाग गया था. आज ही सुबह 11 बजे स्मिता को अस्पताल से छुट्टी मिली. रास्ते में उस ने सारा से कहा, ‘‘मम्मी, मुझे कुछ अच्छा सा महसूस हो रहा है.’’

यह सुन कर सारा ने स्मिता के चेहरे को गौर से देखा तो उस के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा. स्मिता जब बोल रही थी तब उस के होंठों ने एक आकार लिया. सारा ने आवेश में स्मिता का चेहरा चूम लिया. उस ने तुरंत राजीव को मोबाइल पर फ ोन किया.

फोन लगते ही सारा चिल्लाई, ‘‘राजीव, स्मिता मुसकराई…तुम जल्दी आओ. आते वक्त हैंडीकैम लेते आना. हम उस की पहली मुसकान को कैमरे में कैद कर यादों के खजाने में सुरक्षित रखेंगे.’’

उधर राजीव इस बात की कल्पना में खो गया कि जब वह अपनी बेटी को स्मिता कह कर बुलाएगा तब वह किस तरह मुसकराएगी.

Hindi Kahaniyan : बदलते जमाने का सच

Hindi Kahaniyan: ‘‘हैलो,’’ प्रियांशु ने मुसकरा कर नैनी की ओर देखा.

‘‘हैलो,’’ नैनी भी उसे देख कर मुसकराई.

‘‘तुम्हारा प्रोजैक्ट बन गया क्या?’’

‘‘नहीं, मेरा लैपटौप खराब हो गया है. ठीक होने के लिए दिया है. एक घंटे के लिए अपना लैपटौप दोगे मुझे?’’

‘‘क्यों नहीं, कब चाहिए?’’ प्रियांशु ने पूछा.

‘‘कल दोपहर में आ कर ले जाऊंगी. लंच भी तुम्हारे साथ करूंगी. संडे है न, कोई न कोई नौनवैज तो बनाओगे ही.’’

‘‘बिलकुल. क्या खाना पसंद करोगी, चिकन या मटन?

‘‘जो तुम्हें पसंद हो. वैसे, तुम्हारा प्राजैक्ट बन गया क्या?’’

‘‘हां, देखना चाहोगी?’’

‘‘हां, क्यों नहीं. कल आने के बाद,’’ नैनी ‘बायबाय’ कहते हुए चली गई. प्रियांशु भी अपने र्क्वाटर पर लौट आया.

प्रियांशु और नैनी एक कंपनी में साथसाथ काम करते थे. उन के क्वार्टर भी अगलबगल में थे. दोनों अभी कुंआरे थे. साथसाथ काम करने के चलते अकसर उन में बातचीत होती रहती थी. दोनों के विचार मिलते थे और दोस्ती के लिए इस से ज्यादा चाहिए भी क्या.

दूसरे दिन प्रियांशु मटन ले कर लौटा ही था कि नैनी आई.

‘‘बहुत जल्दी आ गई तुम नैनी?’’ प्रियांशु ने लान में रखी कुरसी पर बैठने का इशारा किया और खुद मटन रखने रसोईघर में चला गया.

‘‘तुम्हारा हाथ बंटाने पहले आ गई,’’ कह कर नैनी मुसकराई.

नैनी की यही अदा प्रियांशु को उस का दीवाना बनाए हुई थी.

‘‘अभी चाय ले कर आता हूं, फिर इतमीनान से खाना बनाएंगे,’’ कह कर प्रियांशु रसोईघर में चला गया.

प्रियांशु के पिताजी किसान थे. उस से बड़ी एक बहन थी जिस की शादी हो चुकी थी. उस से एक छोटा भाई महीप था जो मैडिकल इम्तिहान की तैयारी कर रहा था. पिता के ऊपर काफी कर्ज हो गया था.

अब प्रियांशु कर्ज चुकाने और छोटे भाई महीप को पढ़ाने का खर्चा उठा रहा था. पिताजी उस की शादी में तिलक की एक मोटी रकम वसूलना चाहते थे. रिश्ते तो कई जगह से आए थे, पर उन की डिमांड ज्यादा होने के चलते कहीं शादी तय नहीं हो पा रही थी. इधर उस की बहन अपनी ननद के लिए लड़का ढूंढ़ रही थी. उस की ननद नाटे कद की थी और किसी तरह मैट्रिक पास हो गई थी. रंगरूप साधारण था, पर प्रियांशु के पिताजी की डिमांड को उस के समधी पूरा करने के लिए तैयार हो गए थे.

नैनी के पिताजी की मौत उस के बचपन में ही हो गई थी. कोई भाई नहीं था. मां ने उस की पढ़ाई के लिए कौनकौन से पापड़ न बेले थे. बाद में उस ने ऐजुकेशन लोन ले कर पढ़ाई पूरी की थी. अब लोन चुकाना और मां की देखभाल की जिम्मेदारी उस पर थी.

प्रियांशु जब रसोईघर में गया था तब उस का मोबाइल फोन बाहर ही छूट गया था. अचानक फोन बजने लगा तो नैनी ने प्रियांशु को पुकारा, पर चाय बनाने में बिजी होने के चलते उस की आवाज प्रियांशु के कानों तक न पहुंची.

नैनी ने फोन रिसीव किया तो उधर से आवाज आई. कोई औरत थी.

‘‘हैलो, आप कौन बोल रही हैं?’’ नैनी ने पूछा.

‘प्रियांशु कहां है? मैं उन की बहन बोल रही हूं. आप कौन हैं?’

‘‘मैं प्रियांशु की कलीग हूं, बगल में ही रहती हूं.’’

‘अच्छा, तुम नैनी हो क्या?’

‘‘हां जी, आप मुझे कैसे जानती हैं?’’ नैनी ने हैरान हो कर पूछा.

‘प्रियांशु ने बताया था. अब तुम उस का पीछा करना छोड़ दो. उस की शादी मेरी ननद से तय हो गई है,’ उधर से एक तीखी आवाज आई.

‘‘अच्छा जी… प्रियांशु अभी रसोईघर में हैं. वे आ जाते हैं तो उन्हें आप को फोन करने के लिए कहती हूं,’’ नैनी ने अपनेआप को संभालते हुए कहा.

प्रियांशु ने अपनी बहन की ननद के बारे में कुछ दिनों पहले बताया था. वह कुछ परेशान सा लग रहा था. उस की बातों से लग रहा था कि उस की बहन अपनी ननद के लिए उस के पीछे पड़ी थी. कहती थी कि यह शादी हो जाती है तो उसे मुंहमांगा दहेज मिलेगा. साथ ही, उस की ननद हमेशा के लिए उस के साथ रहेगी, पर प्रियांशु को यह रिश्ता बिलकुल पसंद नहीं था.

नैनी यह तो नहीं जानती थी कि प्रियांशु से उस का क्या रिश्ता है, पर उन दोनों को एकदूसरे का साथ बहुत भाता था. प्रियांशु जब कभी औफिस से गैरहाजिर होता था तो वह उसे बहुत याद करती. आज उसे पता चला कि प्रियांशु ने घर में उस की चर्चा की है, पर इस संबंध में उस ने कभी कुछ बताया न था. अभी वह इसी उधेड़बुन में थी कि प्रियांशु आ गया.

‘‘तुम्हारा फोन था. बधाई, तुम्हारी शादी तय हो गई,’’ नैनी ने मुसकराने की कोशिश करते हुए कहा.

प्रियांशु चाय की ट्रे लिए खड़ा था. लगा, गिर जाएगा. किसी तरह अपनेआप को संभालते हुए वह बैठा. यह सुन कर उस का मन बैठता चला गया. तो क्या सच ही उस की शादी तय हो गई? क्या यह उस की बहन की चाल तो नहीं? अगर ऐसा है तो जरूर ही उस की ननद होगी. पर वे लोग उस से बिना पूछे ऐसा कैसे कर सकते हैं.

‘‘क्या सोच रहे हो? बहन से पूछ लो कि कब सगाई है. मुझे तो ले नहीं चलोगे. कहोगे तब भी मैं न चलूंगी. तुम्हारी बहन ने चेताया है, तुम्हारा पीछा छोड़ दूं,’’ नैनी बोल रही थी. वह सुन रहा था. लंच का सारा मजा किरकिरा हो गया था.

दूसरे दिन प्रियांशु गांव में था. उस ने पिताजी के पैर छुए.

‘‘अच्छा हुआ कि तू आ गया बेटा. अब हम कर्ज से जल्दी ही उबर जाएंगे. तुम्हारा रिश्ता तय हो गया है सरला से. वही तुम्हारी बहन की ननद. कद में तुम से थोड़ी छोटी जरूर है, पर घर के कामों में माहिर है. सुशील इतनी कि हर कोई उस के स्वभाव की तारीफ करता है. तुम्हारी बहन का भी काफी जोर था.’’

प्रियांशु ने कुछ न कहा. वह पिताजी की बहुत इज्जत करता था. उन के हर आदेश का पालन करना अपना फर्ज समझता था. वह उन की भावनाओं को चोट नहीं पहुंचाना चाहता था. उसे अपनी बहन से भी उतना ही लगाव था.

पर उसे क्या मालूम था कि जिन मातापिता और बहन की वह इतनी इज्जत करता था उन के लिए उस की भावनाओं का कोई मोल नहीं था. उस ने कई मौकों पर नैनी का जिक्र किया था. उस की तारीफ की थी.

एक समझदार मातापिता और बहन के लिए इतना इशारा कम न था. कई बार उस ने सरला से शादी न करने की इच्छा जाहिर की थी. इस के बावजूद उन्होंने उस की शादी सरला से तय कर दी थी. सच तो यह था कि कहीं उस की शादी तय नहीं हुई थी, उसे सरेबाजार बेचा गया था.

रात में पिताजी ने साथ खाने पर बुलाया. उन्होंने खबर भिजवा कर बेटी को भी बुलवा लिया था. उस का छोटा भाई महीप भी आ गया था. सब के सामने पिताजी सगाई की तारीख तय करना चाहते थे.

जब सभी इकट्ठा हुए तो पिताजी ने बात छेड़ी. अब तक गांव में कई लोगों से उन्होंने प्रियांशु की बात की थी. लायक बेटे की यही पहचान है. पिता ने जो फैसला ले लिया, उस पर बेटे ने कोई टिप्पणी नहीं की. गांव के लोग ऐसे ही उस के परिवार को आदर्श नहीं मानते.

‘‘तो प्रियांशु, तुम को कब छुट्टी मिलेगी? उसी समय सगाई की तारीख तय करूंगा,’’ पिता ने कहा.

‘‘लेकिन पिताजी, आप ने भैया से पूछ लिया है या खुद ही रिश्ता तय कर दिया,’’ छोटे भाई महीप ने पूछा.

‘‘प्रियांशु आजकल के लड़कों जैसा नहीं है जो हर बात पर मातापिता की बात का विरोध करते हैं. प्रियांशु जानता है कि उस के पिता जो भी करेंगे, उस के और परिवार के फायदे में करेंगे,’’ पिताजी अचानक महीप के बीच में पड़ने से खीज गए थे.

‘‘इस का मतलब यह हुआ कि भैया को आप बलि का बकरा समझते हैं. भैया ने कई बार सरला से शादी के प्रति अनिच्छा जाहिर की?है. क्या दीदी यह नहीं जानतीं? क्या मां को यह पता नहीं?

‘‘मां को तो आप ने कभी मान दिया ही नहीं. जिंदगीभर उन्हें दबा कर रखा. आप ने सब पर अनुशासन के नाम पर हिटलरशाही चलाई. लेकिन अब मैं ऐसा न होने दूंगा. शादीब्याह किसी सामान की खरीदफरोख्त नहीं है जिसे जब चाहे और जिस को चाहे खरीदबेच दो.’’

महीप की बात सुन कर पिताजी हैरान रह गए. आज पहली बार उन्हें महीप की नालायकी पर दुख हुआ.

पिताजी कुछ बोलते, इस के पहले ही मां ने कहा, ‘‘जिंदगीभर इन्होंने अपनी चलाई है… अब भी यही करना चाहते हैं. किसी ने प्रियांशु से पूछा कि उस की इच्छा क्या है.’’

‘‘अगर भैया को कोई एतराज नहीं है तो मैं अपनी कही बात वापस ले लूंगा,’’ महीप ने कहा.

‘‘दीदी, तुम से तो मैं ने अपनी इच्छा कई बार बताई. लेकिन तुम मेरी इच्छा का मान क्या रखोगी, उलटे नैनी को तुम ने धमकाया कि वह मेरा पीछा करना छोड़ दे,’’ यह कहते हुए प्रियांशु दुखी था. पर पिता दीनानाथ ने पासा पलटते देख बात को बदला. उन्हें लगा कि इतना बड़ा दहेज उन के हाथों से निकला जा रहा है.

पिता बोले, ‘‘पर बेटा, तुम ने तो बताया था कि नैनी हमारी बिरादरी की नहीं है. हम से छोटी जाति की है तो क्या हमारी बिरादरी में लड़कियों की कमी है, जो अपने से निचली बिरादरी में शादी कर के पूरे समाज में अपनी नाक कटाए?

‘‘यह भी तो सोचो कि छोटी जाति की बहू हमारे जैसी संस्कारवान होगी भला? फिर उस से पैदा हुई औलाद भी तो संस्कारहीन होगी.’’

‘‘आप कैसी बातें करते हैं बाबूजी… आप से किस ने कहा कि आप से छोटी जाति की लड़कियां संस्कारहीन होती हैं? आप ने यह कभी सोचा है कि ऐसा कह कर आप उस की जाति की बेइज्जती कर रहे हैं. यही सोच तो हमारे समाज में कोढ़ बनी हुई है. आप किसी के बारे में बिना कुछ जाने ऐसी बात कैसे कर सकते हैं?

‘‘मैं यह कहूं कि वे छोटी समझी जाने वाली जातियां नहीं, बल्कि हम खुद संस्कारहीन हैं तो बड़ी बात न होगी, क्योंकि वे लोग अपने से बड़ी जातियों की हमेशा इज्जत करते हैं, जबकि हम बिना किसी वजह के केवल जाति के आधार पर उन्हें नीच, संस्कारहीन और न जाने क्याक्या कहते रहते हैं.

‘‘मैं ने ऊंची जाति के कहे जाने वाले लोगों की करतूतें भी खूब देखी हैं. अब इस बात पर चर्चा न करें तो ही अच्छा.’’

जब दीनानाथ ने बात बनते न देखी तो उन्हें गांव के ज्योतिषी याद आए. वे बोले, ‘‘इस संबंध में ज्योतिषी से राय ले लेनी चाहिए. हमारे परिवार में आज तक कोई भी शादी बिना लड़केलड़की की कुंडली मिलाए नहीं हुई है. जब दोनों के गुण मिलते हैं तभी पतिपत्नी की जिंदगी सुख से भरी रहती है, वरना पूरी जिंदगी दुख में ही गुजर जाती है.’’

अभी रात ज्यादा नहीं हुई थी. गांव के गोवर्धन पांडे शादीब्याह में कुंडलियां मिलाते थे. गांव के लोग उन्हें अच्छा ज्योतिषी समझते थे. गांव वालों के हाथ देख कर और उन के ग्रह के नाम पर हवन करा कर उन की रोजीरोटी बिना कोई काम किए आराम से चलती थी. किसी की शादी करानी हो तो कुंडलियां मिलान करा देना और रोकनी हो तो

उन में कई अड़ंगे डाल देना उन के लिए बाएं हाथ का खेल था. जैसा जजमान वैसा काम.

बाबूजी की उन से खूब पटती थी. दोनों साथसाथ पढ़े भी थे. बचपन के दोस्त भी थे इसलिए राह से भटके बेटे को राह पर लाने का काम भी ज्योतिषी से बढि़या कौन कर सकता था.

दीनानाथ बोले, ‘‘मैं अभी ज्योतिषी को बुला लाता हूं. वे जो कहेंगे वही होगा,’’ फिर किसी से कुछ कहे बगैर वे ज्योतिषी को बुलाने चले गए.

गोवर्धन पांडे ने अभीअभी खाना खाया था और अब सोने की तैयारी कर रहे थे. जब इतनी रात को दीनानाथ को आते देखा तो उन्हें अहसास हो गया कि कोई ग्रहनक्षत्र का चक्कर हैं. वे खुश हो कर बोले, ‘‘आओ यार, इतनी रात में आने की कोई खास वजह लगती है. बताओ, क्या बात है?’’

दीनानाथ ने आपबीती सुनाई और किसी तरह बेटे को राह पर लाने को कहा.

ज्योतिषी ने हंसते हुए कहा, ‘‘बस, इतनी सी बात है. चिंता न करो. ऐसे बहके लड़कों को राह पर लाना तो मेरे लिए पलभर का काम है… अब बताओ, तुम्हारा काम हो जाएगा तो दक्षिणा में मुझे क्या मिलेगा.’’

‘‘जो तुम मांगोगे पांडे, दूंगा. बस, किसी तरह बेटे को मेरे समधी की बेटी से शादी के लिए राजी करा दो.’’

दीनानाथ जब घर से बाहर निकले तो ज्योतिषी गोवर्धन पांडे अपनी पत्नी से बोले, ‘‘अब चिंता मत करो पंडाइन, भगवान चाहेगा तो तुम्हारे कंगन बनने का जुगाड़ जल्दी ही हो जाएगा. किवाड़ बंद कर लो. आने में देर हो जाएगी.’’

ज्योतिषी गोवर्धन पांडे को देख कर प्रियांशु ने नाकभौं सिकोड़ ली. वह ज्योतिषी को बचपन से ही जानता था. इस ने कइयों के घर में झगड़ा कराया था. कितनों का घर उजाड़ा था. जरूरत पड़ने पर ओझागुनी होने का भी ढोंग रचता था. जब कोई बीमार पड़ता तो पड़ोसी द्वारा भूत चढ़ाने की बात बताता और उन्हें भगाने के नाम पर खूब पैसे वसूलता.

गोवर्धन पांडे ने जब दोनों की जन्मकुंडली मांगी तो प्रियांशु बोला कि नैनी की जन्मकुंडली नहीं बनी है और जन्मतिथि के नाम पर एक गलत तिथि बता दी.

ज्योतिषी बहुत देर तक पोथीपतरा देखते रहे और एक कागज पर कुछ लिखते रहे. आखिर में वे बोले, ‘‘लड़कालड़की के गुण बिलकुल उलटे हैं. शादी होते ही वरवूध में से किसी एक की मृत्यु का योग है.’’

‘‘आप ने अपनी कुंडली देखी है ज्योतिषी चाचा?’’ महीप ने पूछा, ‘‘अगर देखी होती तो चाची आप को रोज जलीकटी न सुनातीं.’’

गोवर्धन पांडे की पत्नी झगड़ालू थीं. किसी न किसी पड़ोसी से रोज ही बातबात पर लड़ जातीं. ज्योतिषी को तो बीच में पड़ते ही गालीगलौज करने लगतीं. सारा गांव यह बात जानता था.

‘‘महीप, तुम चुप रहो. अपने से बड़ों की इज्जत करो,’’ बाबूजी बोले तो वह चुप हो गया.

‘‘बोलने दो दीनानाथ, अभी बच्चा है… धीरेधीरे सब सीख जाएगा,’’ ज्योतिषी गोवर्धन पांडे बोले.

इसी बीच बहन बीच में आ गई. वह बोली, ‘‘प्रियांशु, तुम्हीं सोचो, क्या ऐसी शादी करोगे जिस में किसी की मौत होने का डर हो? मैं तो कहती हूं कि अपनी ऊंची जाति, पिता की भावनाओं और परिवार के रीतिरिवाज, और हम पर लदे कर्ज का ध्यान रखते हुए मेरी ननद से शादी कर लो.’’

‘‘बाबूजी, क्या आप को नहीं लगता कि ज्योतिषी पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं? इन्होंने कुंडली नहीं, बल्कि शादी काटने की गणित बिठाई है. क्या आज तक कोई किसी का भविष्य जान पाया है? क्या राम की शादी के समय कुंडली का विचार नहीं किया गया था?

‘‘ज्योतिषी चाचा को तो मैं ने नैनी की गलत जन्मतिथि बताई थी. उस की कोई भी जन्मतिथि दी जाएगी, इन्हें अपशकुन का ही योग दिखाई पड़ेगा.

‘‘मैं सरला के बारे में नहीं जानता. मैं यह भी नहीं जानता कि वह मुझ से शादी करना चाहती भी है या नहीं. उसे भी मेरे साथ जबरन जोड़ने की कोशिश सभी लोग कर रहे हैं, पर मैं नैनी को बहुत दिनों से जानता हूं. वह एक समझदार और सुलझी हुई पढ़ीलिखी लड़की है. उस के विचार मुझ से मिलते हैं, मन मिलता है. हमारे दिल में एकदूसरे के लिए प्यार है.

‘‘मैं जानता हूं कि आप, दीदी और ज्योतिषी चाचा मिल कर साजिश रच रहे हैं. कम से कम बाबूजी आप से और दीदी से मुझे ऐसी उम्मीद नहीं थी,’’ प्रियांशु कह कर चुप हुआ तो भाई महीप और मां ने उस का पक्ष लेते हुए कहा, ‘‘इस की शादी नैनी से ही होगी.’’

‘‘आप चिंता न करें बाबूजी, नैनी और मैं मिल कर कर्ज चुका देंगे,’’ प्रियांशु को अहसास हो गया कि पिताजी दहेज के लालच में यह सब कर रहे हैं.

अब दीनानाथ को समझ आ गया था कि उन से बड़ी भूल हुई है. उन्होंने बहुत बड़ा पाप किया था. अपने बेटे के खिलाफ ही साजिश रची थी. अब वह वक्त नहीं रहा, जब धर्म, जाति और कुंडली के नाम पर बेमेल सोच वाले लोगों को जबरन शादी के बंधन में बांध दिया जाता है.

दीनानाथ बोले, ‘‘बेटा, बाप हो कर भी मैं तुम से माफी मांगता हूं. मुझ से गलती हुई है. शादीब्याह गुड्डेगुडि़या का खेल नहीं है. इस में 2 लोग एकदूसरे के साथ जिंदगीभर के लिए बंधते हैं. पतिपत्नी को जाति नहीं, बल्कि दिल और विचार एकदूसरे के साथ जोड़ते हैं.

‘‘मुझे तुम्हारा रिश्ता तय करते वक्त इस बात का खयाल रखना चाहिए था. दहेज के लालच ने मुझे अंधा बना दिया था. पहले तो लगा कि महीप उद्दंड है, पर उस पर मुझे अब गर्व हो रहा है. उस ने मेरी आंखें खोलने की कोशिश की थी, पर मेरी आंखें न खुलीं.

‘‘कल मैं नैनी की मां से तुम्हारे लिए उस का हाथ मांगने खुद जाऊंगा. साथ ही, तुम्हारी बहन की नादानी के लिए नैनी से भी माफी मांग लूंगा,’’ कहते हुए उन्होंने प्रियांशु को गले लगा लिया.

बहन ने कहा, ‘‘मेरी गलती के लिए आप क्यों माफी मांगेंगे बाबूजी? मैं भी आप के साथ चलूंगी.’’

बदलते जमाने का यही सच था.

Hindi Moral Tales : तेरे-मेरे सपने – क्या बरकरार रह पाई नैना और रिया की दोस्ती

Hindi Moral Tales : रिया और नैना एक इन्फ्रास्ट्रक्चर कंपनी में साथ काम करती थीं. दोनों ने जौइनिंग एकसाथ की थी. दोनों सिविल इंजीनियर थीं. रिया के मामा और नैना का नेटिव प्लेस एक था. इन समानताओं ने दोनों को बहुत जल्द दोस्त बना दिया. रिया सिविल इंजीनियरिंग ग्रैजुएशन में टौपर थी. उस के सपने ऊंचे थे. उसे लंबेलंबे पुल और ऊंची इमारतें बनानी थीं, कुछ ऐसा जो पहले न बना हो, सब से ऊंचा, सब से मुश्किल. वह आंखें बंद कर के, हाथ फैला कर जब अपने सपने सुनाने लगती तो सुनने वाला एक अलग ही स्वप्नलोक में पहुंच जाता और नैना उस की पीठ पर हाथ फेरते हुए उसे बांहों में भर लेती और कहती, ‘‘बैस्ट औफ लक, रिया. तुम्हारे सारे सपने पूरे हों,’’

नैना औसत छात्रा रही थी. उस के पेरैंट्स जल्द उस की शादी कर देना चाहते थे लेकिन उस ने अपनी जिद से बैंक से लोन ले कर अपनी पढ़ाई पूरी की क्योंकि वह अपनी शर्तों के अनुसार जीना चाहती थी, अपने पैरों पर खड़े हो कर, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के पश्चात शादी कर के अपने पति और बच्चों के साथ शांतिपूर्ण जिंदगी बिताना चाहती थी.

रिया का स्वभाव मर्दाना था, बातबात में टैंपर होना, सभी की बुराई करना, कलीग और बौस पर हावी होने की कोशिश करना आदिआदि. दूसरी तरफ नैना बहुत ही घरेलू टाइप की महिला थी, तरहतरह की रैसिपी उसे आती थीं, दागधब्बे कैसे हटाए जाते हैं, घर को मेंटेन कैसे किया जाता है, फैशन में क्या चल रहा है उसे सब पता होता. देख कर कोई कह नहीं सकता था कि नैना सिविल इंजीनियर है और बहुराष्ट्रीय कंपनी में इतने बड़े पद पर कार्यरत है.

नैना की यह एडिशनल क्वालिटी थी जिस के कारण औरत मान कर उसे औफिस में अकसर हलके काम दिए जाते थे. हालांकि अब धीरेधीरे लोगों को नैना का पोटैंशियल समझ आने लगा था. किसी प्रोजैक्ट में खंबों के बीच दूरी कितनी होगी, बीम की मोटाई क्या रखनी होगी, लोहे के सरिए कितने चाहिए होंगे, नैना के ये एस्टीमेशन कभी गलत नहीं होते थे. रिया झट से इस एस्टीमेशन को थ्योरी और कैलकुलैटर से प्रूव कर देती थी. इस तरह दोनों की दोस्ती दिनोंदिन प्रगाढ़ होती जा रही थी. कलीग उन से जलते थे, उन्हें चिढ़ाते थे, उन्हें लड़ाने की कोशिशें करते थे.

रिया शौर्टटैंपर्ड थी, लेकिन नैना उसे समझाती कि गलत क्या है, समलैंगिकता अब भारत में गुनाह तो है नहीं, अगर मैं शिव के साथ इंगेज नहीं होती तो अभी तक तुम्हें प्रपोज कर चुकी होती. रिया हंस देती. रिया के पेरैंट्स के अलावा सिर्फ नैना वह शख्स है जिस की कोई भी बात रिया को बुरी नहीं लगती. सैकड़ों ऐसी हसीन शामें घटित हुईं जब दोनों दोस्त अपने सुखदुख को एकदूसरे से शेयर करती थीं. इस तरह रिया और नैना की दोस्ती की मिसाल दी जाने लगी.

नैना को बहुत जल्द औफिस में तरक्की मिलने लगी थी तो दूसरी ओर रिया को छोटेछोटे प्रोजैक्ट कठिन लगते थे. उस की टेबल पर पैंडिंग्स फाइलें बढ़ती चली जा रही थीं. करे तो करे क्या? रिया को किताबी नौलेज तो बहुत थी पर लेबर और सप्लायर्स से कैसे डील किया जाए, यह उसे नहीं पता था. रिया कितना भी बचने की कोशिश करे लेकिन कोई न कोई पंगा फंस ही जाता था. उसे नैना की तरक्की से ईर्ष्या होती थी जिस से अतिरिक्त प्रयास के कारण वह कोई न कोई गलती कर जाती थी.

एक दिन बेतवा नदी के पुल वाली साइट पर लेबर को बिना काम के 50 हजार रुपए पेमैंट करने पड़ गए क्योंकि सीमेंट की बोरियां समय पर नहीं पहुंची थीं. सीमेंट मंगाने का सुझाव रिया का था, क्योंकि इस तरह टैंपरेरी स्ट्रक्चर को बनाने के लिए जो सीमेंट मंगाई जानी थी उस से कुल 5 लाख रुपए की बचत होने वाली थी. रिया को औफिस आने से पहले ही पंगे का पता चल चुका था, रिया ने अभी अपना डैस्कटौप खोला ही था कि बौस यानी सदानंद का बुलावा आ गया.

‘‘रिया, तुम कब अपनी जिम्मेदारी समझोगी? बात 50 हजार या 5 लाख रुपए की नहीं है. यह देखो,’’ सदानंद ने ईमेल की कौपी रिया के हाथों में दी.

राष्ट्रीय राजमार्ग मंत्रालय से एक दिन के काम के डिले का कारण पूछा गया था. रिया की आंखें फटी की फटी रह गईं.

‘‘तुम जानती नहीं हो, झांसी-खजुराहो सिक्सलाइन हाईवे किस कदर सरकार की प्रायोरिटी में है और हम यहां बनने वाले डिफैंस कौरिडोर के कौंट्रैक्ट के भी दावेदार हैं, तुम कंपनी का भट्टा बैठा दोगी. अभी 3 दिन और काम नहीं लग पाएगा, लेबर तो एडजस्ट कर देंगे लेकिन डिले का क्या होगा, कौन है इस का जिम्मेदार? मुंबई औफिस को भी रिपोर्ट करनी होगी,’’ सदानंद बोले.

फिर नैना से आगे के प्लान पर चर्चा करते हुए सदानंद ने रिया को वहां से चले जाने के लिए कहा.

बहुत बड़ी इंसल्ट थी रिया के लिए यह. रिया को अपनी पढ़ाई पर बहुत घमंड था, अपने आगे नैना को उस ने कभी कुछ नहीं समझा था. बहुत देर अपने औफिस में रिया सुबकती रही और तब नैना ने उसे सांत्वना दी.

‘‘कैरियर पर जो दाग लग गया वह कैसे धुलेगा,’’ रिया ने कहा.

‘‘डौंट वरी. मैं हूं न,’’ और फिर नैना ने रिया को इस तरह बांहों में भर लिया जैसे गौरैया अपने बच्चों को अपने पंखों में समेट लेती है. नैना अकसर अमेरिकी लेखक लेस ब्राउन को कोट करते हुए कहती थी, ‘‘दूसरों को उन के सपने साकार करने में मदद करें, आप के सपने अपनेआप पूरे होने लगेंगे.’’

रिया और नैना आज एक अच्छी दोस्त थीं. एक के बाद एक, दोनों मिल कर प्रोजैक्ट पूरे करती चली जा रही थीं. नैना को काम कर के खुशी मिलती थी तो रिया को हर जगह अपना नाम चाहिए होता था.

झांसी से मऊरानीपुर तक 200 मीटर से छोटे सारे पुल बना लिए गए थे. रिया चहक कर बताती कि उस ने बनाए हैं. फाइलों पर रिया ने अपने नाम डलवा रखे थे, नैना सिर्फ हंस कर रह जाती थी.

बहुत ही मजबूत बने हैं सारे पुल, सुंदरता में ब्रिटिश आर्किटैक्चर को मात करते हैं, डायनैमिक लोड, लाइव लोड और डैड लोड तीनों में आगे हैं. रिया अपने कलीग्स को बताती और जब कलीग्स उसे बधाई देने लगते तो रिया इठला कर कहती, ‘‘ये चूहे जैसे काम, उस के स्टेटस के नहीं हैं, उसे कुछ बड़ा करना है, स्टैच्यू औफ यूनिटी, बांद्रा वर्ली सीलिंक, सिग्नेचर ब्रिज, चिनाब ब्रिज जैसा कुछ करना है मुझे.’’

ये बातें जब नैना के कानों में पड़ती थीं तो दुख होता था उसे. सत्य क्या है सिर्फ नैना या रिया जानते थे. सही है कि रिया ने बहुत से डिजाइन, कैलकुलेशन किए थे. सदर बाजार के एक कौफीहाउस में वे घंटों बैठा करती थीं. पर नैना ने क्रिटिसाइज कर के ठीक किया था, उन्हें व्यावहारिक बनाया था. नैना ने रात और दिन नहीं देखा था इस प्रोजैक्ट को पूरा करने में, रिया सिरदर्द का बहाना कर के पड़ी रहती थी. एसी की ठंडी हवा में इस प्रोजैक्ट को समय पर पूरा करने के लिए नैना को अनेक बार अकेले रात को 12 बजे तक खुद गाड़ी ड्राइव कर के साइट से घर लौटना पड़ता था.

इस प्रोजैक्ट में रिया और नैना की दोस्ती आर्किटैक्ट अंकित से हुई जोकि चारबाग बंदरगाह के लिए काम कर रहा था. रिया के दिल की घंटी बज उठी थी. यही उस का ड्रीम प्रोजैक्ट व ड्रीम बौय है. नैना तो पहले से शिव के साथ इंगेज थी. लेकिन फिर भी रिया को डर लगा रहता था कि नैना उस के दोस्त को हथिया न ले. नैना, रिया की इन कोशिशों को बचकानी हरकतें समझ कर माफ कर देती थी.

नैना पूरी कोशिश करती थी रिया को उस का प्यार मिल जाए, उस के हिस्से का काम निबटाती थी ताकि उसे अंकित से बात करने का समय मिल सके. एक बार रिया अंकित से मिलने दिल्ली गई और नैना ने उस के हिस्से का औफिस का काम निबटाया ताकि बौस उसे छुट्टी दे दें और इन एहसानों का बदला नैना को यह

मिला था.

इस प्रोजैक्ट के कारण शिव के साथ उस की इंगेजमैंट टूटने के कगार पर आ गई थी. शिव की शिकायत थी कि नैना उसे समय नहीं देती. आखिर नैना ने औफिस से एक लंबी छुट्टी ली शिव के साथ डेट करने के लिए. सिक्किम के झरनों और घाटियों में एक प्रीवैडिंग हनीमून उन्होंने प्लान किया था.

15 दिनों बाद, सिक्किम से लौट कर नैना ने देखा कि औफिस का दृश्य बदला हुआ था. रिया अपनी जगह नहीं थी. नैना रिया के लिए बहुत ही सुंदर स्वर्णिम पृष्ठभूमि के साथ पश्मीना सिल्क पर बना हुआ थांका ले कर आई थी. नैना को विश्वास था कि इस से रिया की जिंदगी में खुशियों की बहार आ जाएगी, उस के सारे सपने पूरे होंगे.

पता चला कि रिया को औफिस में डिवाइडिड केबिन की जगह व्यक्तिगत केबिन मिल गया था. रिया की सैलरी बढ़ा कर नैना से भी ज्यादा कर दी गई थी और उसे अब इस प्रोजैक्ट के सब से बड़े पुल ‘बेतवा’  का डायरैक्टर बना दिया गया था.

नैना ने कमरे में प्रवेश किया. रिया ने पेपर पर लाइन खींचते हुए उस का हालचाल लिया और फिर काम में व्यस्त हो गई.

रिया की टीम में नैना को कोई जगह नहीं दी गई थी. रिया की टीम में अभिषेक और सुमित थे जो कभी उन के दुश्मन और औफिस में मुख्य प्रतिद्वंद्वी हुआ करते थे. अपने नए प्रोजैक्ट पर रिया, नैना की छांव भी नहीं पड़ने देना चाहती थी. उसे लगता था कि नैना ने पिछले प्रोजैक्ट में जितनी हैल्प नहीं की उस से अधिक एहसान जमाती रही है.

आज केवल रिया की दोस्ती सदानंद से थी. हर काम में बौस सदानंद, रिया को ही पहले भेजते थे. नैना को धीरे से रिया ने व्हाट्सऐप और फेसबुक पर भी ब्लौक कर दिया था. रिया का आरोप था कि नैना उस की तरक्की से ईर्ष्या करने लगी है. नैना को बहुत ही बुरा लगता था. धीरेधीरे नैना डिप्रैशन में जाने लगी थी. आखिरकार शिव की सलाह पर नैना ने बहुराष्ट्रीय कंपनी की इस हाई प्रोफाइल जौब को छोड़ कर एक छोटी रीजनल लैवल की रियल स्टेट कंपनी में कम वेतन पर काम शुरू कर दिया.

नैना की कंपनी इन दिनों झांसी में कालोनियां डैवलप कर रही थी. देखते ही देखते 4 साल निकल गए. नैना की कंपनी और समाज में इज्जत थी. शहर की पावरफुल बिजनैस वुमेन थी वह. एक दिन अभिषेक नैना से मिलने आया. वह नैना की कंपनी से फ्लैट खरीद रहा था. रिया के बारे में पूछने पर उस ने बताया, ‘‘नैना के औफिस छोड़ने के 3 माह बाद ही उसे बेतवा साइट से हटा कर हाईवे के टोल बैरियर की साइट पर लगाना पड़ा लेकिन वहां भी वह असफल हुई.’’

Breastfeeding शिशु के लिए कितनी जरूरी, जानें यहां

Breastfeeding : स्तनों का संबंध केवल स्त्री से ही क्यों जोड़ा गया है? वह इसलिए कि बिना स्तन के स्त्री संपूर्ण नहीं. स्तनों के बिना स्त्री का व्यक्तित्व अधूरा है. बेशक महिला स्तन पुरुषों के लिए आकर्षण का केंद्र होते हैं अर्थात यौन आकर्षण का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा होते हैं लेकिन जब कोई स्त्री मां बनती है तो उस की सारी ऊर्जा स्तनों तक जाती है. जब तक उस के स्तनों तक उस की उर्जा नहीं पहुंचती तब तक वह मां नहीं बनती. महिला के स्तन स्त्रीत्व और मातृत्व का प्रतीक होने के साथसाथ महिला के समग्र स्वास्थ्य का महत्त्वपूर्ण अंग भी होते हैं.

स्त्री के स्तन धनात्मक ध्रुव एवं पुरुष के स्तन ऋणात्मक ध्रुव हैं. एक पुरुष स्त्री से विवाह करता है ताकि उसे पत्नी मिले लेकिन एक स्त्री पुरुष से विवाह करती है ताकि वह मां बन सके. उस का मौलिक रुझान बच्चा प्राप्त करना ही होता है. बिन मां बने उस का पूरा अस्तित्व ही खो जाता है.

प्रजनन प्रणाली का महत्त्वपूर्ण अंग

पुरुष और महिला दोनों में ही स्तन होते हुए भी महिला स्तनों में उभार होता है. ये प्रजनन प्रणाली का एक महत्त्वपूर्ण अंग हैं जो शिशु के स्तनपान के लिए दूध का उत्पादन करते हैं. इन में दूध उत्पादन के लिए दूधग्रंथियां होती हैं. महिला स्तन प्रजनन तंत्र से जटिल रूप से जुड़े होते हैं.

मगर पश्चिमी देशों की देखादेखी हमारे देश में भी बच्चों को सीधे स्तनों से दूध न पिलाने का फैशन हो गया है जोकि बहुत खतरनाक है. इस का अर्थ मानें तो स्त्री कभी अपनी सृजनात्मकता के केंद्र पर नहीं पहुंच सकेगी. जब एक पुरुष किसी स्त्री से प्रेम करता है तो वह उस के स्तनों को प्रेम कर सकता है. लेकिन उन्हें मां नहीं कह सकता. मां तो केवल स्त्री का बच्चा ही कहेगा न.

प्रकृति ने स्त्री को स्तन दिए हैं मां बन कर बच्चे का भरणपोषण करने के लिए लेकिन आज की स्त्री किराए की कोख की सुविधा के चलते प्रथम तो स्वयं मां ही नहीं बनना चाहती और अगर मां बनती भी है तो बच्चे को स्तनपान कराने की इच्छा नहीं रखती क्योंकि अधिकतर स्त्रियां सोचती हैं कि स्तनपान कराने से उन की फिगर खराब हो जाएगी. ऐसी सोच रखने वाली मांएं न तो अपनी फिगर मैंनटेन कर पाती हैं और न ही बच्चे के साथ पूरी तरह भावनात्मक रूप से जुड़ पाती हैं. उस पर मां और बच्चे को बीमारियां होने की भी संभावना अधिक रहती है.

क्या आप जानते हैं कि स्तनपान बच्चे के लिए कितना आवश्यक है?

स्तनपान पहले 6 महीने तक बच्चे को आवश्यक भरपूर पोषक तत्त्व प्रदान करता है एवं उस के बाद जब बच्चे को ठोस आहार देना शुरू करते हैं तब भी स्तनपान से बच्चे को पूर्ण पोषण मिलता है.

स्तन के दूध में ऐंटीबौडी होते हैं जो रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं और संक्रमण से बचाते हैं.

स्तन का दूध पचाने में आसान विकल्प है जिस से बच्चे को उलटी या दस्त नहीं लगते.

स्तनपान शिशु के दिमाग का विकास बहुत अच्छे से करता है.

स्तन का दूध अस्थमा, ऐलर्जी, मधुमेह तथा मोटापा जैसी अनेक बीमारियों से लड़ने की क्षमता प्रदान करता है. बीमारियों के कम होने के कारण शिशुओं के अस्पताल में भरती दर में कमी तथा शिशु मृत्यु दर में कमी.

मां का दूध विटामिन, खनिज और ऐंटीऔक्सिडैंट का अनूठा स्त्रोत है.

इस से कार्बोहाइड्रेट, लैक्टोज, प्रोटीन और विटामिन की सही मात्रा प्राप्त होती है

गर्भावस्था के दौरान स्त्रियों का वजन बढ़ जाता है. ऐसे में स्तनपान स्त्री को फिर से गर्भावस्था के पहले के शारीरिक वजन पर लाने में मददगार साबित होता है.

स्तनपान से स्तन कैंसर दर कम होती है.

करण जौहर ला रहे हैं 20 सेलिब्रिटीज के साथ नया रियलिटी शो ”THE TRAITORS”

The Traitors show का फौर्मेट धोखा , भरोसा, रणनीति और गेम प्ले है. इस शो में बीस सेलिब्रिटी हिस्सा ले रहे है . जो दिमागी तौर पर दूसरे प्रतियोगी को पूरी तरह धोखा देकर मानसिक तौर पर उस प्रतियोगी का खून करेंगे और फिर वो शो से आउट हो जाएगा. इस शो में खिलाड़ियों को अपने दिमाग का इस्तेमाल करके सामाजिक गतिविधियों और चालाकी के साथ सामने वाले का दिमाग पढ़ कर सामने वाले प्रतियोगी को अपने फेवर में लेकर शक पैदा करना है और उसको हराना है.

शतरंज के खेल की तरह इसमें भी सारे प्रतियोगी एक दूसरे को मार देते नजर आएंगे. इस शो की शूटिंग राजस्थान के रॉयल सूर्यगढ़ पैलेस में हो रही है, जिसमें फिल्म इंडस्ट्री टी वी इंडस्ट्री और सोशल मीडिया से जुड़ी कई जानी मानी हस्तियां भाग ले रही हैं जैसे आशीष विद्यार्थी, राज कुंद्रा, करण कुंद्रा, जैस्मिन भसीन, अंशुला कपूर, महीप कपूर ,जन्नत जुबेर, रफ्तार रैपर, सुधांशु पांडे, मुकेश छाबरा कास्टिंग डायरेक्टर, ऊर्फी जावेद आदि कई सेलिब्रिटीज इस शो का हिस्सा बन रहे हैं.

इस शो का आखरी हिस्सा सबसे दिलचस्प होगा. जिसमें अगर वफादार खिलाड़ी सब गद्दारों को पकड़ लेगा तो इनाम की राशि उनमें आपस में बट जाएगी. लेकिन अगर कोई भी गद्दार अंत में बच जाता है तो वह पूरी रकम अकेले ही जीत जाएगा. अर्थात यह शो ईमानदारी पर नहीं बेईमानी पर केंद्रित है. जिसका विजेता वही होगा जो सबसे ज्यादा गद्दार और बेईमान है.

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