Best Social Story: एक और सच- क्या बदल गया था जीतेंद्र

Best Social Story: एक आदमी को सुख से जीने के लिए क्या-क्या चाहिए? आदमी का आदमी पर भरोसा, संबंधों में सहानुभूति, एकदूसरे का लिहाज, ठीक से जीने लायक आमदनी, जीवन की सुरक्षा, चैन की सांस ले सकने की आजादी, भयमुक्त वातावरण.

पर लूटमार, चोरीडकैती, हत्या, अपहरण, दंगाफसाद, बलात्कार और छलप्रपंच भरे इस वातावरण में क्या यह सब आम आदमी को नसीब है? लोग सुख से जिएं, इस की किसी को फिक्र है? नेता, जनप्रतिनिधि, अफसर सब के सब अपनेअपने जुगाड़ में जुटे हुए हैं. लोगों को जीने लायक मामूली सुविधाएं भी नहीं मिल रहीं.

हबड़तबड़ में स्टेशन की तरफ भागती जा रही अमिला यही सब लगातार सोचे जा रही है. गाड़ी न निकल जाए. निकल गई तो गांव के स्कूल तक कैसे पहुंचेगी. अफसर आ रहे हैं. अंबेडकर गांव में खानापूर्ति के लिए रोज अफसरों के दौरे होते रहते हैं. गांव पूरी तरह संतृप्त होना चाहिए. हुं, खाक संतृप्त होगा. कभी राजीव गांधी ने कहा था, सरकार गांवों के लिए 1 रुपया यानी 100 पैसा भेजती है पर वहां तक पहुंचतेपहुंचते वह 10 पैसे ही रह जाते हैं. 90 पैसे बीच की सरकारी मशीन खा जाती है. कैसे विकास हो देश का? पर इस के लिए जिम्मेदार कौन हैं? नेतागण, बिचौलिए, भ्रष्ट नौकरशाही और कहीं न कहीं हमसब.

अजीब दिमाग होता है आदमी का. हर वक्त सोचविचार, मन में उठापटक, तर्कवितर्क. शहर से दूर इस गांव में तबादला कर दिया गया अमिला का. अफसरों से खूब गिड़गिड़ाई कि सर, बच्चा छोटा है. सास बहुत बूढ़ी हैं. कामकाज नहीं कर पातीं. ससुर को लकवा है. पति दूर के जिले में सरकारी सेवा में हैं. परिवार को देखने वाली मैं अकेली…मुझ पर रहम कीजिए, सर.

लेकिन पैसा ऐंठू, रिश्वतखोरों को कहीं किसी पर रहम आता है? झिड़क दिया अमिला को, ‘हर कोई शहर में रहना चाहता है. उस के लिए एक से एक बहाने. सब को यहीं, शहर में रखेंगे तो गांव में कौन जाएगा पढ़ाने? मैं जाऊं? तबादला न स्वीकार हो तो नौकरी छोड़ दीजिए. हम दूसरी अध्यापिका रख लेंगे. कोई कमी है क्या? सरकारी नौकरी के लिए हर कोई तैयार बैठा रहता है. बी.टी.सी. और बी.एड. वाले रोज धरनाप्रदर्शन कर रहे हैं कि उन्हें नौकरी नहीं दी जा रही, हम उन में से किसी को बुला लेंगे, आप अपना घरपरिवार संभालिए. हमें क्या फर्क पड़ता है?’

सच कह रहे हैं. अफसरों को क्या फर्क पड़ता है? फर्क तो काम करने वाले कर्मचारी को पड़ता है. तकलीफें तो उन्हें झेलनी पड़ती हैं. परेशान तो वे होते हैं. बाहर निकल आई थी दफ्तर से अमिला.

रामकिशन चपरासी पीछेपीछे खैनी हथेली पर रगड़ता भागाभागा आया था, ‘क्या टीचरजी, आप भी बस…इतने सालों से मास्टरी कर रही हैं और सरकारी अफसरों के कायदे नहीं जान पाईं. अरे, इन से काम कराने का एक ही तरीका है मैडम, इन्हें खुश करिए. और सरकारी देवता सिर्फ 2 प्रकार के भोग से ही खुश होते हैं, कैश या काइंड.’

जमीन में गड़ सी गई अमिला. कैश या काइंड. घर में कैश होता तो प्राइमरी स्कूल की इस अपमान भरी नौकरी में गांवगांव क्यों मारीमारी डोलती…घर- परिवार बरबाद करती…जीवन का जोखिम उठाती…

और काइंड…उस जैसी जवान युवती से ये अफसर और क्या चाहेंगे? सुनीता ने अपना तबादला काइंड से ही रुकवाया था. दबे स्वर में उसी ने अमिला से भी कहा था, ‘कहो तो बात करें?’

‘नहीं,’ स्पष्ट इनकार कर दिया था अमिला ने. सबकुछ मंजूर पर पति के प्रति ईमानदारी की कीमत पर कुछ भी मंजूर नहीं. औरत के पास और ऐसा होता ही क्या है जिस पर वह गर्व कर सके? एक यही तो.

पति सुमेर 2 सप्ताह में 1 दिन को घर आते हैं. बाकी दिन उसी कसबे में किराए के एक कमरे में हाथ से खाना और चाय बनाते हैं. गैस का छोटा चूल्हा ले रखा है. कभीकभार सड़क के ढाबे पर भी खा लेते हैं. सरकारी नौकरी है, छोड़ते भी नहीं बनती. परिवार है पर परिवार के सुख से वंचित.

‘कुछ करिए न…गांव तक टे्रन से सुबहसुबह जाने में बहुत परेशानी होती है. कभीकभी टे्रन लेट हो जाती है, राजधानी के कारण कहीं बीच के स्टेशन पर रोक दी जाती है. स्कूल लेट पहुंचने पर प्रधान आंखें तरेरता है,’ रात को अमिला ने सुमेर से कहा.

अमिला ने बताया कि कसबे के स्टेशन से 4 किलोमीटर पैदल चल कर गांव पहुंचना पड़ता है. सीधा कोई रास्ता नहीं है. खेतों के बीच से पगडंडी जाती है. खेतों में बाजरा, ज्वार, अरहर, गन्ने की फसलों के बीच से निकलने में बहुत खतरा रहता है. आतेजाते कभी भी बदमाश दबोच कर खेतों में घसीट कर ले जा सकते हैं. कई केस हो चुके हैं. अकसर लड़कियों, युवतियों की लाशें मिलती हैं खेतों में क्षतविक्षत.

आसपास के गांव अपहरण उद्योग के लिए बदनाम हैं. दबंग लोग अपने घरों में दूरदूर से पकड़ कर लाई गई ‘पकड़ें’ रखते हैं. फिरौती मिल जाए तो छोड़ देते हैं न मिले तो मार कर कुएं में डाल देते हैं. पुलिस ही नहीं, आसपास के सब लोग जानते हैं पर सब का पैसा बंधा हुआ है. गांवों के लोग डर के कारण मुंह नहीं खोलते. नेता, पत्रकार और अफसर उन दबंगों के यहां दावत उड़ाने और ऐश करने आते रहते हैं. वे लोग उन की हर तरह की सेवा करते हैं.

सुन कर सुमेर परेशान जरूर हुए पर कुछ कर सकने में लाचार ही रहे. सोच कर बोले, ‘किसी तरह यह साल तो निकालना ही पड़ेगा, किसी नेता या अफसर से जुगाड़ निकालने की कोशिश करूंगा, शायद अगले साल तक कुछ कर पाऊं.’

‘और तब तक अगर मेरे साथ कुछ घट गया तो?’ अमिला परेशान हो उठी, ‘जब से उस खूनी कुएं के बारे में सुना है, सचमुच बहुत भय लगता है.’

झल्ला पड़े सुमेर, ‘15 दिन बाद घर आता हूं और तुम यही रोना ले कर बैठ जाती हो. ट्रेन से उस गांव जाने वाली तुम कोई अकेली तो हो नहीं. और भी सवारियां उतरती होंगी उस गांव की. सब के संगसाथ आयाजाया करो. ऐसे कौन खा जाएगा तुम्हें?’ कहने को कह तो गए सुमेर पर सोचते भी रहे, कहीं सचमुच अगर अमिला के साथ कुछ ऐसावैसा हो गया तो? कितनी बदनामी होगी. पर करें तो क्या करें?

टे्रन में बैठी अमिला सारी स्थितियों पर सोचती रही. कुढ़ती और गुस्से से उबलती भी रही. सहसा उसे हेडमास्टर जितेंद्र की बात याद आई, ‘बहुत मत सोचा करो अमिला. यह दुनिया ऐसे ही चलेगी. हमारेतुम्हारे सोचने से कुछ नहीं होगा. मस्त रहा करो.’

जितेंद्र ही हैं जिन से वह अपने मन की बात कह लेती है. अपने भय और आतंक, अपनी आर्थिक परेशानियां, परिवार की कठिनाइयां बोलबता लेती है. पति तो 15 दिन में 1 दिन को आते हैं. उन से क्या कहे वह?

‘‘हम अध्यापकों को इस नौकरी में कितनी जलालत भोगनी पड़ती है. इस के बावजूद अगर हम इसे छोड़ें तो हजार हमारी जगह काम करने को तैयार हैं. इसी का लाभ उठाती है व्यवस्था,’’ जितेंद्रजी बोले, ‘‘हर सरकारी योजना को जनता के बीच पहुंचाना हमारा काम है. पोलियो ड्राप्स इतवार को पिलाइए, ‘स्कूल चलो’ आंदोलन हम चलाएं, ग्रामीणों को स्वच्छता का महत्त्व हम बताएं, वृक्षारोपण हम कराएं, साक्षरता अभियान चलाना हमारी जिम्मेदारी, मिड डे मील हमारी जिम्मेदारी, स्कूल की साफसफाई हमारी जिम्मेदारी, मुफ्त पुस्तकें बंटें हमारी जिम्मेदारी, बच्चे स्कूल न आएं तो घरघर जा कर उन्हें स्कूल में बुला कर लाएं, यह भी हमारा काम.

गांधी जयंती हो या नेहरू दिवस, बुद्ध जयंती हो या अंबेडकर जयंती, हर मौके पर गण्यमान्य अतिथियों को बुला कर भाषण हमें कराने हैं. उन के चायनाश्ते का प्रबंध करना हमारी जिम्मेदारी, पर पैसा कहां से आए? इस सवाल पर सब एकदूसरे पर टालते हैं. प्रधानजी पैसा नहीं देते. आता है तो अपने पास रख लेते हैं. उन से कौन लड़े? है हम में ताकत? अफसरों से शिकायत करो तो कहते हैं, हम क्या जानें, वह आप की समस्या है, आप जानिए.’’

सहसा रुक कर हेडमास्टर जितेंद्र फिर बोले, ‘‘अब बड़ेबड़े शिक्षाधिकारी इस अंबेडकर गांव में आ रहे हैं. हर तरह गांव संतृप्त हुआ या नहीं, इस का मुआयना करने…हम ने शिक्षा अधिकारी से जा कर कहा, ‘सर, प्रधानजी न तो इमारत की मरम्मत का पैसा दे रहे हैं न रंगाईपुताई के लिए. बच्चों को पीने के पानी तक की कोई व्यवस्था नहीं हो पा रही. स्कूल में श्यामपट्ट तक नहीं है. लिखने के लिए चौक या खडि़या मिट्टी तक नहीं मिलती. स्कूल के दरवाजे लोग उखाड़ कर ले गए हैं. आवारा जानवर रात को स्कूल में घुस कर बैठते हैं. उन का गोबर हमें पहले साफ करना पड़ता है तब स्कूल चल पाता है, इस पर बच्चों के मांबाप एतराज करते हैं, कहते हैं. बच्चे सफाई नहीं करेंगे…हमें चपरासी मिलता नहीं है. कौन करे यह सब…’

‘‘जानती हो शहर के अफसर ने क्या कहा? बोले, ‘आप लोग जो वेतन पाते हैं वह किसलिए? उस में से करिए आप लोग. हम तो पैसा प्रधान को देते हैं, उस से मिलबैठ कर आप किसी तरह यह सब कराइए… और हां, मिड डे मील पर जरूर ध्यान दीजिए. किसी बच्चे ने शिकायत की तो समझ लीजिए…’ ’’

‘‘लेकिन सर, मिड डे मील तो हम हफ्ते में 1-2 दिन ही दे पाते हैं. प्रधान न सामग्री देते हैं न जलावन के लिए कुछ. न बर्तन देते हैं. क्या करें?

‘‘अफसर कहते हैं, हम कुछ नहीं जानते, हमें सबकुछ चाकचौबंद मिलना चाहिए.’’

जितेंद्र ने गुस्से से कहा, ‘‘आने दीजिए इस बार. सब कह देंगे बड़े अफसरों से. फिर जो होगा, देखा जाएगा,’’ उन का चेहरा क्रोध से तमतमा गया था.

‘‘नहीं, जितेंद्रजी, ऐसा हरगिज मत करिएगा,’’ अमिला घबरा गई थी. कुछ सोच कर बोली थी, ‘‘आप अपने गांव से उस गांव तक मोटरसाइकिल पर आते हैं. रास्ते में वह खूनी कुआं पड़ता है. आसपास के सारे गांव अपहरण उद्योग के लिए बदनाम हैं. आप को वह जालिम प्रधान कभी भी रास्ते में पकड़वा लेगा. आप को कुछ हो गया तो मैं इस गांव में किस के भरोसे नौकरी कर पाऊंगी? प्रधानजी की कैसी नजरें मुझे घूरती हैं, यह आप भी जानते हैं और मैं भी. किसी भी दिन अनहोनी घट सकती है.’’

‘‘सब की ऐसी की तैसी,’’ जितेंद्रजी ने दिलासा दी, ‘‘अपने गांव में मेरी भी कुछ इज्जत है. अगर तुम पर जरा भी कोई आंच आई तो सैकड़ों लोगों को अपने गांव से ला कर यहां बवाल मचवा दूंगा.’’

‘‘उस सब की नौबत ही क्यों आने दी जाए? अक्ल से काम लें हम लोग,’’ अमिला ने कहा.

‘‘अक्ल से क्या काम लें, बताओ? प्रधानजी के पास मिड डे का अनाज और सामग्री आती है. वह हमें बहुत कम देते हैं. मीनू के अनुसार एक दिन भी हम बच्चों को नहीं खिला पाते. स्कूल की मरम्मत के लिए पैसा आया, प्रधान ने हड़प लिया. न गिरती इमारत की मरम्मत हो सकी, न दरवाजेखिड़कियां लग सकीं और न रंगाईपुताई हो सकी. यहां तक कि बच्चों के लिए मुफ्त बांटने को जो किताबें आईं वे तक गांव की स्टेशनरी की दुकान पर बेच दी गईं.

‘‘हेडमास्टर का एकमात्र कमरा है. उस में प्रधान ने अपने जानवरों का भूसा भरवा दिया है. पाठशाला एक प्रकार से पशुशाला बन गई है. शिकायत नहीं करेंगे तो अफसर चेतेंगे कैसे? सारा दोष हम पर मढ़ दिया जाएगा कि हम नकारा हैं और पैसा खा गए. सरकारी अफसर किसी को नहीं नापेंगे…हम मास्टरों को नाप देंगे… सस्पेंड तो करेंगे ही, संभव है नौकरी से निकाल बाहर करें. शिकायत के अलावा और कौन सा रास्ता है?’’

अमिला को लगा, जितेंद्रजी कहते तो सच हैं पर सच का नतीजा वह भी जानते हैं और अमिला भी. जिस प्रधान के खिलाफ गांव में कोई चुनाव लड़ने तक की हिम्मत नहीं करता, जिस के पास हथियारबंद लोगों की पूरी फौज रहती है, जो आसपास के इलाके में कुख्यात है, जिस की चारों तरफ तूती बोलती है, जिस के खिलाफ कोई जबान तक नहीं खोलता, जिस के पास अफसर और नेताओं का जमावड़ा लगा रहता है, दावतें उड़ती रहती हैं, आसपास की लड़कियों को ला कर रात को ऐश और जश्न होते हैं, उस दबंग के खिलाफ अमिला या जितेंद्र जैसे मामूली लोगों की क्या हैसियत है कि वे कुछ कह पाएं. पर यह भी सच है कि यह अंबेडकर गांव है और सरकारी आदेश है कि गांव हर तरह से संतृप्त होना चाहिए. अफसर मुआयने पर आ रहे हैं. क्या हो?

स्कूल की सफाई और रंगाईपुताई जितेंद्रजी को अपने पैसे से करानी पड़ी. खाद और बीज का जो पैसा घर पर रखा था, उसे लगाना पड़ा. अमिला ने कहा, ‘‘सर, पूरे खर्चे का हिसाब लगाइए, कुछ मैं भी करूं, यह सिर्फ आप की ही जिम्मेदारी क्यों हो?’’

‘‘तुम रहने दो, अमिला. मुझे तुम्हारी हालत अच्छी तरह पता है,’’ जितेंद्रजी मुसकराए, ‘‘कुछ भी हो, मैं इस बार अफसरों के आने पर पूरी स्थिति सब के सामने रख दूंगा, फिर चाहे मुझे नौकरी से ही हाथ क्यों न धोना पड़े,’’ उन की आवाज में जो दृढ़ता थी, उस से अमिला सचमुच सहम गई थी. अगर उन्होंने ऐसा किया तो नतीजे की वह कल्पना कर सकती थी.

दबी जबान बोली, ‘‘अच्छी तरह सोच लीजिए…आएदिन प्रधानजी और गांव के छुटभैए नेता बेकसूर लोगों को सब के सामने बेइज्जत करते रहते हैं. हम लोगों की बेइज्जती करते उन्हें क्या देर लगेगी?’’

‘‘जो होगा, देखा जाएगा, पर सहने की भी एक सीमा होती है, अमिला. हम कहां तक सहें? इस का प्रतिकार किसी न किसी को, एक न एक दिन करना ही पड़ेगा. फिर हम ही क्यों न करें? और इसी मौके पर क्यों न करें? रोजरोज मरने से एक दिन मरना ज्यादा अच्छा है, अमिला. हमें हिम्मत से काम लेना चाहिए.’’

‘‘जिस हिम्मत का परिणाम हमें पहले से पता हो उसे दिखाने का क्या औचित्य है जितेंद्रजी?’’ अमिला ने कहा जरूर पर जितेंद्र अपने गुस्से को भीतर ही भीतर दबाते रहने का प्रयत्न करते रहे.

सफाई का प्रबंध, बच्चों के वस्त्रों की स्थिति, मिड डे मील, पीने के पानी की व्यवस्था, इमारत का रखरखाव, बच्चों की पढ़ाईलिखाई का स्तर सब की जांचपड़ताल की जाने लगी. बाहर से आए अफसर बिगड़ गए, ‘‘बहुत बुरी स्थिति है. आप लोग करते क्या रहते हैं?’’

जवाब में जितेंद्रजी ने सब के बीच सबकुछ कह दिया. अंत में उन्हीं लोगों से पूछा, ‘‘आप ही बताइए, इन स्थितियों में हम लोग क्या करें?’’

एक सहायक शिक्षाधिकारी तमक कर आगे बढ़ आए, ‘‘बहाने मत बनाइए मास्टर साहब, हम लोग सब जानते हैं, आप लोग क्या गुलगपाड़ा करते रहते हैं. स्कूल आते नहीं. अपने खेतों पर काम करते या करवाते रहते हैं. शिक्षामित्रों से काम चलाऊ पढ़ाई कराते रहते हैं या अपनी एवज में 500-700 रुपए में अध्यापक रख लेते हैं और उस से बच्चों को यह अधकचरा पढ़वाते रहे हैं. हमें सारी खबर रहती है आप लोगों की. प्रधानजी हमें एकएक खबर, एकएक सूचना लिख कर देते रहते हैं.’’

कुछ देर बाद जितेंद्रजी को भीतर अकेले में बुला लिया गया. प्रधानजी मुसकराए, ‘‘रात को गांव में अधिकारी यहां मौजमस्ती और खानेपीने के लिए रुकेंगे. अपनी मास्टरनी से कहो, उन की सेवा में रहे रात को.’’

‘‘नहीं, अमिलाजी नहीं रुक सकेंगी यहां, सर…’’ जितेंद्र ने बारीबारी हर किसी चेहरे की तरफ देखा, ‘‘उन का बच्चा छोटा है और घर पर बूढ़ी सास उस बच्चे को नहीं संभाल सकतीं. पति बाहर दूसरे शहर में रहते हैं.’’

‘‘हम कुछ नहीं सुनना चाहते,’’ प्रधानजी गरजे, ‘‘अगर उसे नौकरी करनी है तो रात को हमारे इन अफसरों और मेहमानों की सेवा के लिए रुकना ही पड़ेगा. तुम अकेले उस का स्वाद चखते रहे हो…हम लोगों को भी उस का मजा लेने दो.’’

पता नहीं जितेंद्र को अचानक क्या हो गया. एक झन्नाटेदार चांटा जड़ दिया प्रधान के चेहरे पर. बस, फिर क्या था. जितेंद्र पर तमाम लोग एकदम टूट पड़े. उन्हें मारतेपीटते बाहर चबूतरे तक ले आए. वहां स्कूल के सारे बच्चे मौजूद थे. अमिला बुरी तरह घबरा गई. वे लोग लगातार लातघूंसे, थप्पड़मुक्के और जूतों से जितेंद्र की पिटाई कर रहे थे. अमिला तो एकदम हतबुद्ध. उस की समझ में नहीं आ रहा था कि भीतर ऐसा क्या हुआ जो यह नौबत आ गई.

सारे बच्चों के बीच उन लोगों ने जितेंद्र को मुरगा बना दिया. एक दबंग ने पीछे से ऐसी लात मारी कि वह मुंह के बल गिर पड़े.

कुछ ही देर में अफसरों और नेताओं की गाड़ियां चली गईं. अमिला जितेंद्र के पास बैठी सिसकती रही. Best Social Story

Hindi Sad Story: सूनापन- जिंदगी में ऋतु को क्या अफसोस रह गया था

Hindi Sad Story: सुबह से ही ऋतु उदास थीं. वे बारबार घड़ी की तरफ देखतीं. उन्हें ऐसा महसूस होता कि घड़ी की सूइयां आगे खिसकने का नाम ही नहीं ले रहीं. मानो घर की दीवारें भी घूरघूर कर देख रही हों और फर्श नाक चढ़ा कर चिढ़ाता हुआ कह रहा हो, ‘देखो, हूं न बिलकुल साफसुथरा, चमक रहा हूं न आईने की तरह और तुम देख लो अपना चेहरा मुझ में, शायद तुम्हारे चेहरे के तनाव से बनी झुर्रियां इस में साफ नजर आएं.’ और वे ज्यादा देर घर की काटने को दौड़ती हुई दीवारों के बीच न बैठ पाईं.

वे एक किताब ले कर बाहर लौन में आ कर बैठ गईं. बाहर चलती हवाएं बालों को जैसे सहला रही थीं किंतु मन था कि पुस्तक से बारबार विचलित हो जाता. वे लगीं शून्य में ताकने और पहुंच गईं 20 वर्ष पीछे. सबकुछ उन की नजरों के सामने घूम रहा था.

बेटा 10 वर्ष और बिटिया मात्र 7 वर्ष की थी उस वक्त. छुट्टी का दिन था और वे चीख रही थीं अपने छोटेछोटे 2 बच्चों पर, सारा घर फैला पड़ा था, इधर खिलौने, उधर किताबें, गीला तौलिया बिस्तर पर और जूते शू रैक से बाहर फर्श पर. ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे घर में अलमारियों से बाहर निकल कर सामान की सूनामी आ गई हो. वे थीं बहुत सफाईपसंद. सो, वह दृश्य देख उन से रहा न गया और चीख पड़ीं अपने बच्चों पर, ‘घर है या कूड़ेदान? कहां कदम रख कर चलूं, कुछ समझ नहीं आ रहा. न जाने बच्चे हैं कि शैतान…’

दोनों बच्चे बेचारे उन की चीख सुन कर सहम गए और ‘सौरी मम्मा, सौरी मम्मा’ कह रहे थे. फिर भी वे उन्हें डांट रही थीं, कह रही थीं, ‘क्या मैं तुम्हारी नौकरानी हूं? तुम लोग अपना सामान जगह पर क्यों नहीं रखते?’ बेटी मिन्ना डर कर झटझट सामान जगह पर रखने लगी थी और बेटा अपनी कहानियों की किताबें जमा रहा था.

हां, उन के पति अनूप जरूर नाराज हो गए थे उन के चीखने से. वे कहने लगे थे, ‘ऋतु, यह घर है, होटल नहीं. घर में 4 लोग रहेंगे तो थोड़ा तो बिखरेगा ही. यह सुन कर ऋतु और भी ज्यादा नाराज हो गईं और अपने पति को टोकते हुए कह रही थीं, ‘तुम्हारी स्वयं की ही आदत है घर को फैलाने की. वरना, क्या तुम बच्चों को न टोकते’

अनूप ने धड़ से अपने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया था और ऋतु ने छुट्टी का पूरा दिन अलमारियां और बच्चों के खिलौने व किताबें जमाने में बिता दिया था. वे लाख सोचतीं कि छुट्टी के दिन बच्चों को कुछ न कहूंगी, घर बिखरा पड़ा रहे मेरी बला से, किंतु सफाई की आदत से मजबूर हो उन से रहा ही न जाता और अब यह हर छुट्टी के दिन का रूटीन बन गया था. बच्चे भी सुनसुन कर शायद ढीठ हो गए थे और बड़े होते जा रहे थे.

अनूप कभी कहते कि तुम अपना ध्यान कहीं दूसरी जगह भी लगाओ, बच्चों को करने दो वे जो करना चाहें. किंतु ऋतु को तो घर में हर चीज अपनी जगह पर चाहिए थी और पूरी तरह से व्यवस्थित भी. सो, लगी रहतीं अकेली वे उसी में और अंदर ही अंदर कुढ़ती भी रहतीं. एक तरफ से उन का कहना भी सही था कि हम महंगेमहंगे सामान घर में लाते हैं इसीलिए न कि घर अच्छा लगे, न कि कूड़ेदान सा. किंतु हर बात की एक अपनी सीमा होती है. सो, अनूप चुप रहने में ही अपनी भलाई समझते.

ऋतु अपना दिल मानो घर में ही लगा बैठी थीं. विवाह के बाद एक ही साल में बेटे का जन्म हो गया और ऋतु ने अपना पूरा ध्यान बेटे की परवरिश व गृहस्थी को संभालने में लगा दिया था. उम्र बढ़ती जा रही थी, साथ ही साथ, बच्चे भी. घर पहले की अपेक्षा व्यवस्थित रहने लगा था.

वक्त मानो पंख लगा उड़ता जा रहा था और ऋतु के चेहरे की झुर्रियों की संख्या दिनप्रतिदिन बढ़ती जा रही थी और साथ ही मन में बढ़ती कड़वाहट भी. उन्होंने अपना पूरा ध्यान सिर्फ घर को सजाने, बच्चों को पढ़ाने, उन्हें अच्छे संस्कार देने व अनुशासित करने में ही लगा दिया. इन सब के चलते शायद वे यह भी भूल गईं कि खुशी भी एक शब्द होता है और कई बार हमें दूसरों की खुशियों के लिए अपनी आदतों को छोड़ आपस में सामंजस्य बैठाना पड़ता है.

खैर, जिंदगी ठीक ही चल रही थी. बिलकुल साफसुथरा एवं व्यवस्थित घर, अनुशासित बच्चे और रोज रूटीन से काम करते घर के सभी सदस्य. जब घर में मेहमान आते तो तारीफ किए बिना न रहते उन के घर की व बच्चों की. बस, ऋतु को तो वह तारीफ एक अवार्ड के समान लगती. उन के जाने के बाद वे फूली न समातीं और कहती न थकतीं, ‘देखो, सारा दिन टोकती हूं और लगी रहती हूं घर में, तभी तो सभी तारीफ करते हैं.’

वक्त बीतता गया. बच्चे और बड़े हो गए. बेटा मैडिकल की पढ़ाई पूरी कर अमेरिका चला गया और बेटी विवाह कर विदा हो गई. अब ऋतु रह गईं बिलकुल अकेली. कामवाली एक बार सुबह आ कर घर साफ कर देती तो पूरा दिन वह साफ ही रहता. कोई न बिखेरने वाला, न ही घर की व्यवस्था बिगाड़ने वाला.

सूना घर ऋतु को काटने को दौड़ता. अनूप रिटायर हो गए. वे अपनी किताबों में ही मस्त रहते. ऋतु रह गईं नितांत अकेली. मन भी न लगता, किताबों में अपना ध्यान लगाने की कोशिश करतीं किंतु शांत होते ही एक ही सवाल आता मन में. ‘अब कोई नहीं, घर बिखेरने वाला, क्यों न मैं खेली अपने बच्चों के साथ जब उन्हें मेरी जरूरत थी, क्यों न पढ़ीं कहानियां उन के लिए, घर बिखरा था तो क्यों न रहने दिया, कौन से रोज ही मेहमान आते थे जिन की चिंता में अपने बच्चों के साथ खुशनुमा माहौल न रहने दिया घर का?’

अब घर में तो चिडि़या भी पर नहीं मारती, क्या करूं इस घर का? कभीकभी परेशान हो अपनी बेटी मिन्ना को फोन करतीं, किंतु वह भी हांहूं में ही बात करती. वह तो खुद अपने बच्चों में व्यस्त होती. बेटा अपनी रिसर्च में व्यस्त होता. ऋतु अपने जिस घर को देख कर फूली न समाती थीं, उसी की सूनी दीवारें उन्हें कोसती थीं और कहतीं, ‘लो, बिता लो हमारे साथ वक्त.’

ये सारी बातें याद कर ऋतु उदास थीं. अब, उन्हें अपनी भूल का एहसास हो रहा था. अब वे छोटे बच्चों की माओं से मिलतीं तो कहतीं, ‘‘वक्त बिताओ अपने बच्चों के साथ, उन्हें कहानियां सुनाओ, बच्चे बन जाओ उन के साथ, आप इस के लिए तैयार रहो कि बच्चों का घर है तो बिखरा ही रहेगा. घर को गंदा भी न रखो, किंतु उसी घर में ही न लगे रहो.

घर तो हम बच्चों के बड़े होने पर भी मेंटेन कर सकते हैं किंतु बच्चे एक बार बड़े हो गए तो उन के बचपन का वक्त वापस न आएगा, और रह जाओगी मेरे ही तरह उन कड़वी यादों के साथ, जिन से शायद तुम खुद ही डरोगी.’’ ऋतु अब कहती हैं कि बच्चों को तो बड़े हो कर चिडि़या के बच्चों की तरह उड़ ही जाना है, किंतु उन के साथ बिताए पलों की यादों को तो हम संजो कर खुश हो सकते हैं जो नहीं हैं मेरे पास अब, मुझे काटने को आता है यह सूनापन. Hindi Sad Story

Bag Packing Skills: ट्रैवल से पहले जानें सूटकेस पैक करने की स्मार्ट स्किल्स

Bag Packing Skills: सुमित जब भी काम के सिलसिले में बाहर जाता है, पहले उनकी माँ सूटकेस पैक करती थी, शादी के बाद अब उनकी पत्नी सुमन पैक कर दिया करती है, ऐसे कई साल बीत गए. एक दिन जब सुमित को बाहर जाना था, ऑफिस से घर आकर उन्होंने देखा कि सुमन बीमार है, लेकिन उनका सूटकेस पैक कर रखा हुआ है, सुमित अपनी पत्नी की हाल – चाल पूछते हुए काम पर निकल  गया और दवाइयाँ ठीक से लेने की सलाह भी दी.

वहां जा कर उन्हें पता चला कि सुमन ने उनके शेविंग किट को पैक नहीं किया, उन्होंने फोन उठाया और बिना उसकी हाल चाल पूछे उस पर बरस पड़ा, आखिर उससे इतनी बड़ी भूल कैसे हो गई, जबकि वह हमेशा अच्छे से सामान को पैक कर देती है, सुमन को पहले तो अपनी भूल का पश्चाताप हुआ, लेकिन गुस्सा भी आया कि एक दिन उसके बीमार पड़ने पर क्या वह अपना समान खुद पैक नहीं कर सकता था, वह मन ही मन उसे कोसती रही.

अपना काम खुद करें

ये सही है कि कई घरों में खासकर बेटों के बाहर जाने पर उनके पेरेंट्स उनके समानो की पैकिंग करने लगते है, क्योंकि उन्हे अपना समान पैक करना नहीं आता, लड़का है कहकर उन्हे उस काम को सीखने की कला भी वे नहीं सीखाते, लड़का भी इसे सीखने की कोशिश नहीं करता, जो बाद में उनके लिए समस्या बन जाती है.

पैकिंग नहीं मुश्किल 

अपना सूटकेस खुद पैक करने की कला एक महत्वपूर्ण कौशल है, जो यात्रा के दौरान बहुत उपयोगी होता है. इसे छोटी उम्र से ही सीख लेना जरूरी है, ताकि बाद में कोई समस्या न हो. यह आपको अधिक स्वतंत्र और आत्मविश्वासपूर्ण बनाता है, और यह सुनिश्चित करता है कि आपके पास अपनी यात्रा के लिए आवश्यक सभी चीजें मौजूद हैं.

ये किसी की भी लाइफ में बहुत महत्वपूर्ण है, इतना ही नहीं जब आप अपना सूटकेस खुद पैक करते हैं, तो आप अपनी यात्रा की योजना बनाने और आवश्यक वस्तुओं को इकट्ठा करने के लिए जिम्मेदार होते हैं.

रोमा जब ऑफिस के काम से बाहर गई, तो उसकी माँ ने सामान की पैैकिंग की थी, वहां जाकर उसे ये पता नहीं लग पा रहा था कि मां ने टूथब्रश कहाँ पॅकिंग की है, उसे फोन कर माँ से पता करना पड़ा. खुद पैक करने पर आपकी आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास में वृद्धि होती है, जिसे अधिकतर लड़के नजरअंदाज करते है, कुछ सुझाव निम्न है,

सूची बनाएं

  • यात्रा पर जाने से पहले, आवश्यक वस्तुओं की एक सूची बनाएं.
  • इसमें कपड़े, टॉयलेटरीज, दवाएं और यात्रा दस्तावेज शामिल होने चाहिए.
  • इससे आपको व्यवस्थित रहने और कुछ भी भूलने से बचने में मदद मिलेगी.

कपड़ों को रोल करें

  • कपड़ों को रोल करने से जगह बचती है और सिलवटें भी कम होती हैं.
  • शर्ट, पैंट, और टी-शर्ट को रोल करके सूटकेस में रखें.
  • सूट और ब्लेज़र को हाफ फोल्ड में रखें, ताकि सिलवटें कम हों.
  • सूट को मोड़ने के लिए, आप टिश्यू पेपर या ड्राई क्लीनिंग बैग का भी उपयोग कर सकते हैं.

पैकिंग क्यूब्स का उपयोग करें

  • पैकिंग क्यूब्स कपड़ों को अलग-अलग रखने और उन्हें व्यवस्थित रखने में मदद करते हैं.
  • आप कपड़े, मोज़े, अंडरवियर आदि के लिए अलग-अलग क्यूब्स का उपयोग कर सकते हैं, जो मार्केट या औनलाइन में आसानी से मिल जाता है.

भारी वस्तुओं को नीचे रखें

  • जूते, किताबें और अन्य भारी वस्तुओं को सूटकेस के नीचे रखें.
  • इससे सूटकेस को संतुलित रखने में मदद मिलेगी

नाजुक वस्तुओं को सुरक्षित रखें

  • नाजुक वस्तुओं को प्लास्टिक के थैलों या बबल रैप में लपेटकर सूटकेस के बीच में रखें.
  • इससे उन्हें यात्रा के दौरान नुकसान होने से बचाया जा सकेगा.

टॉयलेटरीज़ और तरल पदार्थों को अलग रखें

टॉयलेटरीज़ और तरल पदार्थों को उनके मुंह को प्लास्टिक टेप से सील कर एक अलग वाटरप्रूफ बैग में रखें, इससे रिसाव होने की स्थिति में अन्य वस्तुओं को नुकसान होने से बचाया जा सकें.

वजन का ध्यान रखें

सुनिश्चित करें कि आपका सूटकेस की वजन अधिक न हो, इससे आपको इसे कैरी करने में कठिनाई होगी.

अंतिम मिनट की पैकिंग से बचें

  • यात्रा से कुछ दिन पहले ही अपने सूटकेस को पैक करना शुरू कर दें.
  • इससे अंतिम समय में होने वाली घबराहट से बचने में मदद मिलेगी.
  • सूटकेस को अच्छी तरह से बंद करें
  • सूटकेस को बंद करते समय, यह सुनिश्चित करें कि सभी ज़िप और बकल सुरक्षित रूप से बंद हो.
  • इससे आपके सामान को यात्रा के दौरान खोने या चोरी होने से बचाया जा सकेगा.
  • यात्रा के दौरान सूटकेस को व्यवस्थित रखें
  • यात्रा के दौरान, अपने सूटकेस को नियमित रूप से व्यवस्थित करते रहें.
  • इससे आपको अपने सामान को आसानी से ढूंढने में मदद मिलेगी.

इस प्रकार जब आप अपना सूटकेस खुद पैक करते हैं, तो आप यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि आपके पास आवश्यक सभी चीजें हैं, और आप किसी भी अप्रत्याशित स्थिति के लिए तैयार हैं, इससे यात्रा के दौरान होने वाले तनाव को कम करने में मदद मिलती है और आप एक अच्छी और माइन्ड फ्री जर्नी कर सकते है. Bag Packing Skills

Ronit Roy: सूखी रोटी खाने से बचाया, रोनित रॉय को आज भी याद है वो शख्स

Ronit Roy: जिंदगी में हम चाहे कितनी ही तरक्की कर ले, लेकिन वह शख्स हमें हमेशा याद रहता है जो हमारे बुरे वक्त में काम आया होता है. फिर उस शख्स का भले ही हमारे लिए छोटा सा ही योगदान क्यों ना हो, लेकिन वह हमारे दिल से कभी नहीं जाता. तभी तो कहते हैं बुरे वक्त में अच्छे लोगों की पहचान होती है. इस बात से बॉलीवुड के कई एक्टर इत्तेफाक रखते होंगे , जिन्होंने अच्छा खासा बुरा वक्त देखकर कामयाबी हासिल की है.

प्रसिद्ध टीवी और फिल्म एक्टर रोनित रॉय ने ऐसे ही एक बंदे का जिक्र अपनी इंटरव्यू के दौरान किया जिसने रोनित रॉय की उस वक्त मदद की थी जब उनको खाने के लाले पड़े हुए थे, मल्टी टैलेंटेड रोनित रॉय सिर्फ एक्टर ही नहीं है बल्कि उनका सिक्योरिटी का भी काम जोरो पर है, जिसके चलते रोनित रॉय पिछले दिनों सैफ अली खान के ऊपर अटैक हुए हादसे के बाद उनके सिक्यूरिटी गार्ड के रूप में सैफ  अली के साथ साए की  तरह थे.

आज पैसों में खेल रहे रोनित रॉय का एक समय ऐसा भी था, जब उनके पास इतने पैसे भी नहीं होते थे कि वह दो टाइम का खाना खा सके. इसी वजह से संघर्ष के उन दिनों में रोनित राय  सिर्फ रात को ही खाना खाते थे.

अपने इसी संघर्ष भरे सफर के बारे में एक इंटरव्यू में बताते हुए रोनित रॉय ने उस बंदे का जिक्र किया जिसने बिना किसी स्वार्थ के रोनित रॉय को खाना खिलाया था, इस बात का जिक्र करते हुए रोनित रॉय की आंखों में आंसू भर आए, भीगी आंखों को पोछते हुए रोनित रॉय ने बताया , कि संघर्ष के दिनों में जबकि उनके पास सिर्फ चार-पांच हजार रुपए महीने के होते थे उस दौरान अपनी भूख शांत करने के लिए बांद्रा स्टेशन के पास एक ढाबा में जो वहां का प्रसिद्ध ढाबा है रात को खाना खाने जाया करते थे.

रोनित रॉय के अनुसार मैं रोज रात को वहां खाना खाने जाता था क्योंकि दिन में खाने के लिए पैसे नहीं होते थे. इसलिए सिर्फ एक टाइम रात को ही खाना खाता था . जिसमें मै काली मसूर दाल दो रोटी और पालक पनीर दो रोटी मैं अल्टरनेट डेज में खाया करता था. एक दिन मेरे पास पैसे कम थे तो मैंने आर्डर लेने आए बंदे से कहा कि वह मुझे दो रोटी थोड़ा प्याज दे दे, वो बंदा दो रोटी लेकर वापस आया तो साथ में काली दाल भी ले कर आया, तो मैंने उससे कहा मैंने दाल तो नहीं मंगवाई, तो उस बंदे ने कहा दाल मेरी तरफ से आप खा लो, क्योंकि आज आपका दाल और रोटी का दिन है.

उस की बात सुनकर मेरा दिल भर आया, क्योंकि वह जमीन से जुड़ा हुआ बंदा आसमान को छूने वाली सोच रखता था. उसने बिना किसी लालच के मुझे जो काली दाल रोटी के साथ रोटी खिलाई वो मुझे आज भी याद है. मैं अपने आप को खुशनसीब मानता हूं कि मेरी जिंदगी में ऐसे जमीन से जुड़े सच्चे लोगों का बहुत बड़ा योगदान रहा है जिसकी वजह से ही आज मैं इस मुकाम पर खड़ा हूं.

Sonam Bajwa: बागी 4 में धमाकेदार डांस एंथम के लिए तैयार, मचाएंगी बवाल

Sonam Bajwa: पंजाब की शान कहलाने वाली सोनम बावेजा जो कि 2012 में मिस इंडिया प्रतियोगिता का हिस्सा बनने के बाद सोनम में पंजाबी फिल्म  बेस्ट ऑफ लक से पंजाबी फिल्मों से शुरुआत की और बाद में तमिल फिल्म कपाल करने के बाद सोनम ने पंजाबी फिल्मों में ही अपना एक्टिंग कैरियर स्थापित कर लिया ,लेकिन 2025 में हिंदी फिल्म

हाउसफुल 5 से बॉलीवुड में एंट्री करने के बाद सोनम बाजवा ने फैंस के दिलों पर छा जाना शुरू कर दिया है.अपनी सादगी और स्टाइलिश तड़के के साथ उन्होंने स्क्रीन पर जो जादू बिखेरा है, वो अब बॉक्स ऑफिस तक पहुंच गया है. और अब उनकी आने वाली फिल्मों पर सबकी नजरें टिकी हैं जो कि बागी 4, दीवानियत और बॉर्डर 2 है.

लेकिन फैंस की एक्साइटमेंट तब और बढ़ गई जब सोनम ने अपने इंस्टाग्राम स्टोरी में एक BTS (बिहाइंड द सीन्स) धमाका कर दिया. उन्होंने बताया कि वो बागी 4 के लिए एक मेगा डांस नंबर शूट कर रही हैं और वो भी किसी और के नहीं बल्कि मास्टर गणेश आचार्य के साथ.सोनम ने खुलासा किया कि ये उनका बचपन का सपना था कि वो एक फुल-ऑन डांस सॉन्ग करें और अब वो सपना आखिरकार सच हो गया.

सोनम बाजवा अपने इस आइटम डांस को लेकर बेहद एक्साइटेड है ,साथ ही गणेश आचार्य के कोरियोग्राफ में डांस करने को लेकर बहुत खुश भी है, सोनम के अनुसार आज मै अपनी डांस शूटिंग को लेकर बेहद एक्साइटेड हूं क्योंकि “आज बागी के लिए एक गाना शूट हुआ है … और गणेश सर के साथ काम करना सपना था.उन्होंने इसे कोरियोग्राफ किया है और मैं बहुत एक्साइटेड हूं.

बचपन से सपना था एक डांस सॉन्ग करने का और अब वह पूरा हो रहा है! पिछले कुछ दिनों से शूटिंग चल रही है और सब बहुत अच्छा जा रहा है , जिस वजह से मैं सुपर एक्साइटेड हूं.

खबरों की मानें तो ये सॉन्ग मुंबई में 3 दिनों तक एक भव्य सेट पर शूट किया गया है और ये गाना सिर्फ गाना नहीं, बल्कि आंखों के लिए एक विजुअल ट्रीट बनने वाला है.  Sonam Bajwa

Ahaan Panday: कजिन्स संग रहते हैं सैयारा स्टार, जानें क्या है ये ‘को-लीविंग’?

Ahaan Panday: ‘सैयारा’ के हिट होते ही अहान पांडे रातोरात फेमस चेहरा बन चुके हैं. अहान पांडे, 80ज के हिट एक्टर चंकी पांडे के भाई चिकी पांडे के बेटे और अनन्या पांडे के कजिन हैं. अहान पांडे की वह बातचीत काफी चर्चा में है, जिसमें वह कहते हैं कि उनकी और अंकल चंकी पांडे की फेमिली एक ही घर में रहती है. उनके इस स्टेटमेंट से पता चलता है कि टीनेजर्स या यूथ को घर में सही एनवॉयरमेंट मिले तो उन्हें ‘को-लीविंग’ से एतराज नहीं होगा.

अहान ने क्या कहा, समझें

अहान पांडे के आलीशान घर में चार फ्लोर्स है, जहां वह अपनी बहन और कजिन्स के साथ खेलते-कूदते बड़े हुए. अपनी बहन अलाना पांडे से बातों के दौरान उन्होंने कहा कि जब तक वह 14 साल के थे, फ्लैट के कॉरिडोर में बने कमरे में रहते थे. उन्होंने यह भी शेयर किया कि पहली बार 15 साल की उम्र में उन्होंने अपनी बहन के साथ स्मोकिंग की और इसके लिए उनकी बहन अलाना ने ही उन्हें उकसाया था. अहान की बातें इस ओर इशारा करती हैं कि अगर टीनेजर्स को अपने घर में स्पेस मिले तो वह कम उम्र में अलग रहने के बजाय ‘को-लीविंग’ में रहने को प्राइओरिटी देंगे.

‘कॉ-लीविंग’ को ‘जॉइंट फेमिली’ से कंफ्यूज मत करें

‘जॉइंट फेमिली’ में एक व्यक्ति ‘हेड ऑफ द फेमिली’ होता है और पूरे घर में उसी की बात चलती है. फेमिली मेंबर्स चाहे न चाहे उनकी बातों को मानते हैं. इससे परिवार में तनाव का माहौल पैदा होता है, जो अंतत: बटवारे का रूप ले लेता है. इसके ठीक विपरीत को-लीविंग के कंसेप्ट में परिवार में एक मुखिया नहीं होता.

मसलन दादा जी के तीन बेटे एक घर में रहते हुए अपनी-अपनी न्यूक्लियर फेमिली की जिम्मेदारियों को प्राइओरिटी देते हैं. इससे ताऊजी और चाचाजी का एक-दूसरे की फेमिली में दखलदांजी का लेवल सीमित होता है. देखा गया है कि  ‘जॉइंट फैमिली’ में झगड़े की शुरुआत की दो वजहें होती हैं.

पुरुषों के बीच हर फेमिली मेंबर के खर्च और घर चलाने में उनके योगदान की तुलना होती है तो महिलाओं के बीच कलह का विषय होता है कि आज खाना क्या और कैसे बनगा. ‘को-लीविंग’ में यह स्थिति नहीं होती. एक ही घर में रहने वाला हर परिवार अपनी आय के हिसाब से घर चलाता है और अपनी पसंद का खाना खाता है.

साथ रहने के लिए अपनाएं ‘कॉ-लीविंग’

कई फेमिलीज में टीनेजर्स, अपने पैरेंट्स को छोड़कर दोस्तों के साथ अलग रहने लगे हैं ताकि वह अपनी जिंदगी बिना किसी रोक-टोक के अपने हिसाब से एंजॉय कर सकें. हालांकि वह इस बात से कतई अनजान नहीं होते हैं कि ज्यादातर दोस्त मौकापरस्त होते हैं, जो किसी न किसी स्वार्थ की वजह से आसपास मंडराते हैं इसलिए जेनरेशन जेड भी फेमिली की जरूरत को समझती है.

आज के टीनेजर्स और यूथ में एक बात सबसे अच्छी है कि इनके पैरेंट्स की भले ही आपस में नहीं बनती हो, कजिन्स खासकर फर्स्ट कजिन्स के साथ इनकी खूब बनती है. यह अपने रिश्ते को लेकर स्पष्ट होते हैं, अपने चचेरे भाई-बहनों को स्पेस देते हैं और जरूरत के समय उनके साथ खड़े होते हैं. सही मायने में ये सच्चे बेस्ट फ्रेंड जैसे होते हैं.

‘को-लीविंग’ के लिए घर को थोड़ा चेंज करें

आर्किटेक्ट की मदद से घर के टीनेजर्स के कमरे को एक स्टूडियो अपार्टमेंट की तरह डेवलप कराएं. इनके कमरे में एक किचन हो जिसके पास एक आईलैंड हो. आईलैंड, किचन में एक ऊंची टेबल की तरह का स्पेस होता है, जिसमें कुछ ड्राअर्स बने होते हैं, इस आईलैंड के साथ कुछ चेयर्स लगी होती हैं ताकि यूथ अपने दोस्तों, गर्लफ्रेंड या बॉयफ्रेंड के साथ बातें करते हुए फूड या टेबल गेम्स एंजॉय कर सकें. कमरे के किचन में एक हाईक्वालिटी की चिमनी जरूर लगवाएं ताकि कमरे में कुकिंग की स्मेल न फैले.

कॉ- लीविंग के और भी हैं फायदें

70 या इससे अधिक आयु के दोस्त भी साथ में रह सकते हैं, क्योंकि इनके बेटे-बेटी अपनी जॉब की वजह से और अपने बच्चों की जिम्मेदारियों में बहुत बिजी हो जाते हैं.

अकेलेपन से होने वाले डिप्रेशन से बचाव

एक घर में रहने की वजह से युवा भी पारिवारिक जिम्मेदारियों में अपना योगदान देते हैं. मसलन पापा के बिजनेस का अकाउंट्स देखना, मां को शॉपिंग के लिए जाना, घर में आने-जाने वाले रिलेटिव्स को महत्व देना, जिन तकलीफों को पैरेंट्स शेयर नहीं कर पाते हैं, वह साथ में रहने से समझ में आती हैं, पैरेंट्स के घरेलू कामों में योगदान करना जो कि फैमिली सिस्टम को समझने के लिए भी जरूरी है.

फैमिली सिस्टम पर ऐश्वर्या का इंटरव्यू

एक विदेशी एंकर ने तंज भरे लहजे में पूर्व मिस वर्ल्ड ऐश्वर्या राय से सवाल किया था, क्या यह सच है कि आप पैरेंट्स के साथ रहती हैं? क्या इंडिया में बड़े हो चुके बच्चों का पैरेंट्स के साथ रहना कॉमन है? इस पर ऐश्वर्या राय का स्मार्ट जवाब था- हां, अपने पैरेंट्स के साथ रहना अच्छा लगता है.

इंडिया में पैरेंट्स के साथरहना कॉमन है, क्योंकि हमें पैरेंट्स के साथ डिनर करने के लिए अपॉइंटमेंट लेने की जरूरत नहीं पड़ती है. दरअसल, इंडियन या कहें तो एशियन फेमिली सिस्टम में किशोर और युवा बच्चे अपने पैरेंट्स के साथ रहते हैं, लेकिन पिछले एक दशक से अनमैरिड टीनेजर्स या यूथ की बड़ी संख्या न्यूक्लियर फेमिली से अलग रहने में यकीन करने लगी है.

ऐसे में 27 साल के एक्टर अहान पांडे का यह कहना कि वह अपने चाचा-चाची और कजन्स के साथ एक घर में रहते हैं, यूथ के मन की उन परतों को सामने लाता है जिसके अनुसार कुछ आजादी मिले, तो ये घर के बाहर किराए के घर का रुख नहीं करेंगे.  Ahaan Panday

Sad Story: लमहे पराकाष्ठा के- रूपा और आदित्य की खुशी अधूरी क्यों थी

Sad Story: लगातार टैलीफोन की घंटी बज रही थी. जब घर के किसी सदस्य ने फोन नहीं उठाया तो तुलसी अनमनी सी अपने कमरे से बाहर आई और फोन का रिसीवर उठाया, ‘‘रूपा की कोई गुड न्यूज?’’ तुलसी की छोटी बहन अपर्णा की आवाज सुनाई दी.

‘‘नहीं, अभी नहीं. ये तो सब जगह हो आए. कितने ही डाक्टरों को दिखा लिया. पर, कुछ नहीं हुआ,’’ तुलसी ने जवाब दिया.

थोड़ी देर के बाद फिर आवाज गूंजी, ‘‘हैलो, हैलो, रूपा ने तो बहुत देर कर दी, पहले तो बच्चा नहीं किया फिर वह व उस के पति उलटीसीधी दवा खाते रहे और अब दोनों भटक रहे हैं इधरउधर. तू अपनी पुत्री स्वीटी को ऐसा मत करने देना.

इन लोगों ने जो गलती की है उस को वह गलती मत करने देना,’’ तुलसी ने अपर्णा को समझाते हुए आगे कहा, ‘‘उलटीसीधी दवाओं के सेवन से शरीर खराब हो जाता है और फिर बच्चा जनने की क्षमता प्रभावित होती है. भ्रू्रण ठहर नहीं पाता. तू स्वीटी के लिए इस बात का ध्यान रखना. पहला एक बच्चा हो जाने देना चाहिए. उस के बाद भले ही गैप रख लो.’’

‘‘ठीक है, मैं ध्यान रखूंगी,’’ अपर्णा ने बड़ी बहन की सलाह को सिरआंखों पर लिया.

अपनी बड़ी बहन का अनुभव व उन के द्वारा दी गई नसीहतों को सुन कर अपर्णा ने कहा, ‘‘अब क्या होगा?’’ तो बड़ी बहन तुलसी ने कहा, ‘‘होगा क्या? टैस्टट्यूब बेबी के लिए ट्राई कर रहे हैं वे.’’

‘‘दोनों ने अपना चैकअप तो करवा लिया?’’

‘‘हां,’’ अपर्णा के सवाल के जवाब में तुलसी ने छोटा सा जवाब दिया.

अपर्णा ने फिर पूछा, ‘‘डाक्टर ने क्या कहा?’’

तुलसी ने बताया, ‘‘कमी आदित्य में है.’’

‘‘तो फिर क्या निर्णय लिया?’’

‘‘निर्णय मुझे क्या लेना था? ये लोग ही लेंगे. टैस्टट्यूब बेबी के लिए डाक्टर से डेट ले आए हैं. पहले चैकअप होगा. देखते हैं क्या होता है.’’

दोनों बहनें आपस में एकदूसरे के और उन के परिवार के सुखदुख की बातें फोन पर कर रही थीं.

कुछ दिनों के बाद अपर्णा ने फिर फोन किया, ‘‘हां, जीजी, क्या रहा? ये लोग डाक्टर के यहां गए थे? क्या कहा डाक्टर ने?’’

‘‘काम तो हो गया…अब आगे देखो क्या होता है.’’

‘‘सब ठीक ही होगा, अच्छा ही होगा,’’ छोटी ने बड़ी को उम्मीद जताई.

‘‘हैलो, हैलो, हां अब तो काफी टाइम हो गया. अब रूपा की क्या स्थिति है?’’ अपर्णा ने काफी दिनों के बाद तुलसी को फोन किया.

‘‘कुछ नहीं, सक्सैसफुल नहीं रहा. मैं ने तो रूपा से कह दिया है अब इधरउधर, दुनियाभर के इंजैक्शन लेना बंद कर. उलटीसीधी दवाओं की भी जरूरत नहीं, इन के साइड इफैक्ट होते हैं. अभी ही तुम क्या कम भुगत रही हो. शरीर, पैसा, समय और ताकत सभी बरबाद हो रहे हैं. बाकी सब तो जाने दो, आदमी कोशिश ही करता है, इधरउधर हाथपैर मारता ही है पर शरीर का क्या करे? ज्यादा खराब हो गया तो और मुसीबत हो जाएगी.’’

‘‘फिर क्या कहा उन्होंने?’’ अपनी जीजी और उन के बेटीदामाद की दुखभरी हालत जानने के बाद अपर्णा ने सवाल किया.

‘‘कहना क्या था? सुनते कहां हैं? अभी भी डाक्टरों के चक्कर काटते फिर रहे हैं. करेंगे तो वही जो इन्हें करना है.’’

‘‘चलो, ठीक है. अब बाद में बात करते हैं. अभी कोई आया है. मैं देखती हूं, कौन है.’’

‘‘चल, ठीक है.’’

‘‘फोन करना, क्या रहा, बताना.’’

‘‘हां, मैं बताऊंगी.’’

फोन बंद हो चुका था. दोनों अपनीअपनी व्यस्तता में इतनी खो गईं कि एकदूसरे से बात करे अरसा बीत गया. कितना लंबा समय बीत गया शायद किसी को भी न तो फुरसत ही मिली और न होश ही रहा.

ट्रिन…ट्रिन…ट्रिन…फोन की घंटी खनखनाई.

‘‘हैलो,’’ अपर्णा ने फोन उठाया.

‘‘बधाई हो, तू नानी बन गई,’’ तुलसी ने खुशी का इजहार किया.

‘‘अरे वाह, यह तो बड़ी अच्छी न्यूज है. आप भी तो नानी बन गई हैं, आप को भी बधाई.’’

‘‘हां, दोनों ही नानी बन गईं.’’

‘‘क्या हुआ, कब हुआ, कहां हुआ?’’

‘‘रूपा के ट्विंस हुए हैं. मैं अस्पताल से ही बोल रही हूं. प्रीमैच्यौर डिलीवरी हुई है. अभी इंटैंसिव केयर में हैं. डाक्टर उन से किसी को मिलने नहीं दे रहीं.’’

‘‘अरे, यह तो बहुत गड़बड़ है. बड़ी मुसीबत हो गई यह तो. रूपा कैसी है, ठीक तो है?’’

‘‘हां, वह तो ठीक है. चिंता की कोई बात नहीं. डाक्टर दोनों बच्चियों को अपने साथ ले गई हैं. इन में से एक तो बहुत कमजोर है, उसे तो वैंटीलेटर पर रखा गया है. दूसरी भी डाक्टर के पास है. अच्छा चल, मैं तुझ से बाद में बात करती हूं.’’

‘‘ठीक है. जब भी मौका मिले, बात कर लेना.’’

‘‘हां, हां, मैं कर लूंगी.’’

‘‘तुम्हारा फोन नहीं आएगा तो मैं फोन कर लूंगी.’’

‘‘ठीक है.’’

दोनों बहनों के वार्त्तालाप में एक बार फिर विराम आ गया था. दोनों ही फिर व्यस्त हो गई थीं अपनेअपने काम में.

‘‘हैलो…हैलो…हैलो, हां, क्या रहा? तुम ने फोन नहीं किया,’’ अपर्णा ने अपनी जीजी से कहा.

‘‘हां, मैं अभी अस्पताल में हूं,’’ तुलसी ने अभी इतना ही कहा था कि अपर्णा ने उस से सवाल कर लिया, ‘‘बच्चियां कैसी हैं?’’

‘‘रूपा की एक बेटी, जो बहुत कमजोर थी, नहीं रही.’’

‘‘अरे, यह क्या हुआ?’’

‘‘वह कमजोर ही बहुत थी. वैंटीलेटर पर थी.’’

‘‘दूसरी कैसी है?’’ अपर्णा ने संभलते व अपने को साधते हुए सवाल किया.

‘‘दूसरी ठीक है. उस से डाक्टर ने मिलवा तो दिया पर रखा हुआ अभी अपने पास ही है. डेढ़ महीने तक वह अस्पताल में ही रहेगी. रूपा को छुट्टी मिल गई है. वह उसे दूध पिलाने आई है. मैं उस के साथ ही अस्पताल आई हूं,’’ तुलसी एक ही सांस में कह गई सबकुछ.

‘‘अरे, यह तो बड़ी परेशानी की बात है. रूपा नहीं रह सकती थी यहां?’’ अपर्णा ने पूछा.

‘‘मैं ने डाक्टर से पूछा तो था पर संभव नहीं हो पाया. वैसे घर भी तो देखना है और यों भी अस्पताल में रह कर वह करती भी क्या? दिमाग फालतू परेशान ही होता. बच्ची तो उस को मिलती नहीं.’’

डेढ़ महीने का समय गुजरा. रूपा और आदित्य नाम के मातापिता, दोनों ही बहुत खुश थे. उन की बेटी घर आ गई थी. वे दोनों उस की नानीदादी के साथ जा कर उसे अस्पताल से घर ले आए थे.

रूपा के पास फुरसत नहीं थी अपनी खोई हुई बच्ची का मातम मनाने की. वह उस का मातम मनाती या दूसरी को पालती? वह तो डरी हुई थी एक को खो कर. उसे डर था कहीं इसे पालने में, इस की परवरिश में कोई कमी न रह जाए.

बड़ी मुश्किल, बड़ी मन्नतों से और दुनियाभर के डाक्टरों के अनगिनत चक्कर लगाने के बाद ये बच्चियां मिली थीं, उन में से भी एक तो बची ही नहीं. दूसरी को भी डेढ़ महीने बाद डाक्टर ने उसे दिया था. बड़ी मुश्किल से मां बनी थी रूपा. वह भी शादी के 10 साल बाद. वह घबराती भी तो कैसे न घबराती. अपनी बच्ची को ले कर असुरक्षित महसूस करती भी तो क्यों न करती? वह एक बहुत घबराई हुई मां थी. वह व्यस्त नहीं, अतिव्यस्त थी, बच्ची के कामों में.

उसे नहलानाधुलाना, पहनाना, इतने से बच्चे के ये सब काम करना भी तो कोई कम साधना नहीं है. वह भी ऐसी बच्ची के काम जिसे पैदा होते ही इंटैंसिव केयर में रखना पड़ा हो. जिसे दूध पिलाने जाने के लिए उस मां को डेढ़ महीने तक रोज 4 घंटे का आनेजाने का सफर तय करना पड़ा हो, ऐसी मां घबराई हुई और परेशान न हो तो क्यों न हो.

रूपा का पति यानी नवजात का पिता आदित्य भी कम व्यस्त नहीं था. रोज रूपा को इतनी लंबी ड्राइव कर के अस्पताल लाना, ले जाना. घर के सारे सामान की व्यवस्था करना. अपनी मां के लिए अलग, जच्चा पत्नी के लिए अलग और बच्ची के लिए अलग. ऊपर से दवाएं और इंजैक्शन लाना भी कम मुसीबत का काम है क्या. एक दुकान पर यदि कोई दवा नहीं मिली तो दूसरी पर पूछना और फिर भी न मिलने पर डाक्टर के निर्देशानुसार दूसरी दवा की व्यवस्था करना, कम सिरदर्द, कम व्यस्तता और कम थका देने वाले काम हैं क्या? अपनी बच्ची से बेइंतहा प्यार और बेशुमार व्यस्तता के बावजूद उस में अपनी बच्ची के प्रति असुरक्षा व भय की भावना नहीं थी बिलकुल भी नहीं, क्योंकि उस को कार्यों व कार्यक्षेत्रों में ऐसी गुंजाइश की स्थिति नहीं के बराबर ही थी.

रूपा और आदित्य के कार्यों व दायित्वों के अलगअलग पूरक होने के बावजूद उन की मानसिक और भावनात्मक स्थितियां भी इसी प्रकार पूरक किंतु, स्पष्ट रूप से अलगअलग हो गई थीं. जहां रूपा को अपनी एकमात्र बच्ची की व्यवस्था और रक्षा के सिवा और कुछ सूझता ही नहीं था, वहीं आदित्य को अन्य सब कामों में व्यस्त रहने के बावजूद अपनी खोई हुई बेटी के लिए सोचने का वक्त ही वक्त था.

मनुष्य का शरीर अपनी जगह व्यस्त रहता है, दिलदिमाग अपनी जगह. कई स्थितियों में शरीर और दिलदिमाग एक जगह इतने डूब जाते हैं, इतने लीन हो जाते हैं, खो जाते हैं और व्यस्त हो जाते हैं कि उसे और कुछ सोचने की तो दूर, खुद अपना तक होश नहीं रहता जैसा कि रूपा के साथ था. उस की स्थिति व उस के दायित्व ही कुछ इस प्रकार के थे कि उस का उन्हीं में खोना और खोए रहना स्वाभाविक था किंतु आदित्य? उस की स्थिति व दायित्व इस के ठीक उलट थे, इसलिए उसे अपनी खोई हुई बेटी का बहुत गम था. उस का गम तो सभी को था मां, नानी, दादी सभी को. कई बार उस की चर्चा भी होती थी पर अलग ही ढंग से.

‘‘उसे जाना ही था तो आई ही क्यों थी? उस ने फालतू ही इतने कष्ट भोगे. इस से तो अच्छा था वह आती ही नहीं. क्यों आई थी वह?’’ अपनी सासू मां की दुखभरी आह सुन कर आदित्य के भीतर का दर्द एकाएक बाहर आ कर बह पड़ा.

कहते हैं न, दर्द जब तक भीतर होता है, वश में होता है. उस को जरा सा छेड़ते ही वह बेकाबू हो जाता है. यही हुआ आदित्य के साथ भी. उस की तमाम पीड़ा, तमाम आह एकाएक एक छोटे से वाक्य में फूट ही पड़ी और अपनी सासू मां के निकले आह भरे शब्द ‘जाना ही था तो आई ही क्यों थी’ उस के जेहन से टकराए और एक उत्तर बन कर बाहर आ गए. उत्तर, हां एक उत्तर. एक मर्मात्मक उत्तर देने. अचानक ही सब चौंक कर एकसाथ बोल उठे. रूपा, नानी, दादी सब ही, ‘‘क्या दिया उस ने?’’

‘‘अपना प्यार. अपनी बहन को अपना सारा प्यार दे दिया. हम सब से अपने हिस्से का सारा प्यार उसे दिलवा दिया. अपने हिस्से का सबकुछ इसे दे कर चली गई. कुछ भी नहीं लिया उस ने किसी से. जमीनजायदाद, कुछ भी नहीं. वह तो अपने हिस्से का अपनी मां का दूध भी इसे दे कर चली गई. अपनी बहन को दे गई वह सबकुछ. यहां ताकि अपने हिस्से का अपनी मां का दूध भी.’’

सभी शांत थीं. स्तब्ध रह गई थीं आदित्य के उत्तर से. हवा में गूंज रहे थे आदित्य के कुछ स्पष्ट और कुछ अस्पष्ट से शब्द, ‘चली गई वह अपने हिस्से का सबकुछ अपनी बहन को दे कर. यहां तक कि अपनी मां का दूध भी…’ Sad Story

लेखक- डा. शशि मंगल

Family Story: टूटे हुए पंखों की उड़ान- अर्चना ने क्या चुना परिवार या सपना

Family Story: गली में घुसते ही शोरगुल के बीच लड़ाईझगड़े और गालीगलौज की आवाजें अर्चना के कानों में पड़ीं. सड़ांध भरी नालियों के बीच एक संकरी गली से गुजर कर उस का घर आता था, जहां बरसात में मारे बदबू के चलना मुश्किल हो जाता था.

दुपट्टे से नाक ढकते हुए अर्चना ने घर में कदम रखा, तो वहां का नजारा ही दूसरा था. आंगन के बीचोंबीच उस की मां और पड़ोस वाली शीला एकदूसरे पर नाक फुलाए खड़ी थीं. यह रोज की बात थी, जब किसी न किसी बात पर दोनों का टकराव हो जाता था.

मकान मालिक ने किराए के लालच में कई सारे कोठरीनुमा कमरे बनवा रखे थे, मगर सुविधा के नाम पर बस एक छोटा सा गुसलखाना और लैट्रिन थी, जिसे सब किराएदार इस्तेमाल करते थे.

वहां रहने वाले किराएदार आएदिन किसी न किसी बात को ले कर जाहिलों की तरह लड़ते रहते थे. पड़ोसन शीला तो भद्दी गालियां देने और मारपीट करने से भी बाज नहीं आती थी.

गुस्से में हांफती, जबान से जहर उगलती प्रेमा घर में दाखिल हुई. पानी का बरतन बड़ी जोर से वहीं जमीन पर पटक कर उस ने सिगड़ी जला कर उस पर चाय का भगौना रख दिया.

‘‘अम्मां, तुम शीला चाची के मुंह क्यों लगती हो? क्या तुम्हें तमा करके मजा आता है? काम से थकहार कर आओ, तो रोज यही सब देखने को मिलता है. कहीं भी शांति नहीं है,’’ अर्चना गुस्से से बोली.

‘‘हांहां, तमाशा तो बस मैं ही करती हूं न. वह तो जैसे दूध की धुली है. सब जानती हूं… उस की बेटी तो पूरे महल्ले में बदनाम है. मक्कार औरत नल में पानी आते ही कब्जा जमा कर बैठ जाती है. उस पर मुझे भलाबुरा कह रही थी.

‘‘अब तू ही बता, मैं कैसे चुप रहूं?’’ चाय का कप अर्चना के सामने रख कर प्रेमा बोली.

‘‘अच्छा लाडो, यह सब छोड़. यह बता कि तू ने अपनी कंपनी में एवांस पैसों की बात की?’’ यह कहते हुए प्रेमा ने बेटी के चेहरे की तरफ देखा भी नहीं था अब तक, जो दिनभर की कड़ी मेहनत से कुम्हलाया हुआ था.

‘‘अम्मां, सुपरवाइजर ने एडवांस पैसे देने से मना कर दिया है. मंदी चल रही है कंपनी में,’’ मुंह बिचकाते हुए अर्चना ने कहा, फिर दो पल रुक कर उस ने कुछ सोचा और बोली, ‘‘जब हमारी हैसियत ही नहीं है तो क्या जरूरत है इतना दिखावा करने की. ननकू का मुंडन सीधेसादे तरीके से करा दो. यह जरूरी तो नहीं है कि सभी रिश्तेदारों को कपड़ेलत्ते बांटे जाएं.’’

‘‘यह क्या बोल रही है तू? एक बेटा है हमारा. तुम बहनों का एकलौता भाई. अरी, तुम 3 पैदा हुईं, तब जा कर वह पैदा हुआ… और रिश्तेदार क्या कहेंगे? सब का मान तो रखना ही पड़ेगा न.’’

‘‘रिश्तेदार…’’ अर्चना ने थूक गटका. एक फैक्टरी में काम करने वाला उस का बाप जब टीबी का मरीज हो कर चारपाई पर पड़ गया था, तो किसी ने आगे आ कर एक पैसे तक की मदद नहीं की. भूखे मरने की नौबत आ गई, तो 12वीं का इम्तिहान पास करते ही एक गारमैंट फैक्टरी में अर्चना ने अपने लिए काम ढूंढ़ लिया.

अर्चना के महल्ले की कुछ और भी लड़कियां वहां काम कर के अपने परिवार का सहारा बनी हुई थीं. अर्चना की कमाई का ज्यादातर हिस्सा परिवार का पेट भरने में ही खर्च हो जाता था. घर की बड़ी बेटी होने का भार उस के कंधों को दबाए हुए था. वह तरस जाती थी अच्छा पहननेओढ़ने को. इतने बड़े परिवार का पेट पालने में ही उस की ज्यादातर इच्छाएं दम तोड़ देती थीं.

कोठरी की उमस में अर्चना का दम घुटने लगा, सिगड़ी के धुएं ने आंसू ला दिए. सिगड़ी के पास बैठी उस की मां खांसते हुए रोटियां सेंक रही थी.

‘‘अम्मां, कितनी बार कहा है गैस पर खाना पकाया करो… कितना धुआं है,’’ दुपट्टे से आंखमुंह पोंछती अर्चना ने पंखा तेज कर दिया.

‘‘और सिलैंडर के पैसे कहां से आएंगे? गैस के दाम आसमान छू रहे हैं. अरी, रुक जा. अभी धुआं कम हो जाएगा, कोयले जरा गीले हैं.’’

अर्चना उठ कर बाहर आ गई. कतार में बनी कोठरियों से लग कर सीढि़यां छत पर जाती थीं. कुछ देर ताजा हवा लेने के लिए वह छत पर टहलने लगी. हवा के झोंकों से तनमन की थकान दूर होने लगी.

टहलते हुए अर्चना की नजर अचानक छत के एक कोने पर चली गई. बीड़ी की महक से उसे उबकाई सी आने लगी. पड़ोस का छोटेलाल गंजी और तहमद घुटनों के ऊपर चढ़ाए अपनी कंचे जैसी गोलगोल आंखों से न जाने कब से उसे घूरे जा रहा था.

छोटेलाल कुछ महीने पहले ही उस मकान में किराएदार बन कर आया था. अर्चना को वह फूटी आंख नहीं सुहाता था. अर्चना और उस की छोटी बहनों को देखते ही वह यहांवहां अपना बदन खुजाने लगता था.

शुरू में अर्चना को समझ नहीं आया कि वह क्यों हर वक्त खुजाता रहता है, फिर जब वह उस की बदनीयती से वाकिफ हुई, तो उस ने अपनी बहनों को छोटेलाल से जरा बच कर रहने की हिदायत दे दी.

‘‘यहां क्या कर रही है तू इतने अंधेरे में? अम्मां ने मना किया है न इस समय छत पर जाने को. चल, नीचे खाना लग गया है,’’ छोटी बहन ज्योति सीढि़यों पर खड़ी उसे आवाज दे रही थी.

अर्चना फुरती से उतर कर कमरे में आ गई. गरम रोटी खिलाती उस की मां ने एक बार और चिरौरी की, ‘‘देख ले लाडो, एक बार और कोशिश कर के देख ले. अरे, थोड़े हाथपैर जोड़ने पड़ें, तो वह भी कर ले. यह काम हो जाए बस, फिर तुझे तंग न करूंगी.’’

अर्चना ने कमरे में टैलीविजन देखती ज्योति की तरफ देखा. वह मस्त हो कर टीवी देखने में मगन थी. ज्योति उस से उम्र में कुल 2 साल ही छोटी थी. मगर अपनी जवानी के उठान और लंबे कद से वह अर्चना की बड़ी बहन लगती थी.

9वीं जमात पास ज्योति एक साड़ी के शोरूम में सेल्सगर्ल का काम करती थी. जहां अर्चना की जान को घरभर के खर्च की फिक्र थी, वहीं ज्योति छोटी होने का पूरा फायदा उठाती थी.

‘‘अम्मां, ज्योति भी तो अब कमाती है. तुम उसे कुछ क्यों नहीं कहती?’’

‘‘अरी, अभी तो उस की नौकरी लगी है, कहां से ला कर देगी बेचारी?’’ मां की इस बात पर अर्चना चुप हो गई.

‘‘ठीक है, मैं फिर से एक बार बात करूंगी, मगर कान खोल कर सुन लो अम्मां, यह आखिरी बार होगा, जब तुम्हारे इन फुजूल के रिवाजों के लिए मैं अपनी मेहनत की कमाई खर्च करूंगी.’’

‘‘हांहां, ठीक है. अपनी कमाई की धौंस मत जमा. चार पैसे क्या कमाने लगी, इतना रोब दिखा रही है. अरे, कोई एहसान नहीं कर रही है हम पर,’’ गुस्से में प्रेमा का पारा फिर से चढ़ने लगा.

एक कड़वाहट भरी नजर अपनी मां पर डाल कर अर्चना ने सारे जूठे बरतन मांजने के लिए समेटे.

बरतन साफ कर अर्चना ने अपना बिस्तर लगाया और सोने की कोशिश करने लगी, उसे सुबह जल्दी उठना था, एक और जद्दोजेहद भरे दिन के लिए. वह कमर कस के तैयार थी. जब तक हाथपैर चलते रहेंगे, वह भी चलती रहेगी. उसे इस बात का संतोष हुआ कि कम से कम वह किसी के सामने हाथ तो नहीं फैलाती.

अर्चना के होंठों पर एक संतुष्टि भरी फीकी मुसकान आ गई और उस ने आंखें मूंद लीं. Family Story

Family Kahaniyan: दहेज- अलका के घरवाले क्यों परेशान थे

Family Kahaniyan: डाक्टर के केबिन से बाहर निकल कर राहुल सिर पकड़ कर बैठ गया. उस की मम्मी आईं और उस से पूछने लगीं, ‘‘डाक्टर ने ऐसा क्या कह दिया कि तू अपना सिर पकड़ कर बैठ गया?’’

राहुल बोला, ‘‘मम्मी, अलका डाक्टर बन गई है.’’

‘‘कौन अलका?’’ मम्मी ने हैरान हो कर पूछा.

‘‘वही अलका, जिस से दहेज में 5 लाख रुपए न मिलने की वजह से हम फेरों के समय बरात वापस ले आए थे.’’

‘‘पर बेटा, शादी के लिए तो उस ने ही मना किया था,’’ मम्मी बोलीं.

‘‘और क्या करती वह? ताऊजी और पापा ने उस समय उस के पापा को इतना जलील किया था कि उस ने शादी करने से मना कर दिया,’’ राहुल बोला.

‘‘पर बेटा, तू इतना परेशान क्यों हो गया है?’’

‘‘मम्मी, मैं ने तो बस यही कहा था, ‘डाक्टर, हमें तो अलका की हाय खा गई. शादी को 12-13 साल हो गए, पर औलाद का मुंह देखने को तरस गए. हर बार किसी न किसी वजह से पेट गिर जाता है. इस बार खुश थे कि अब हम औलाद का मुंह देख लेंगे, पर यह समस्या आ गई.’

‘‘हमारी डाक्टर ने अलका का नाम लिया और कहा कि अब वे ही कुछ कर सकती हैं.’’

‘‘मम्मी, अलका रिपोर्ट देखतेदेखते बोली, ‘जिस लड़की की बरात फेरों के समय वापस लौट जाए, वह कभी दुआ तो नहीं देगी.’

‘‘फिर उस ने सिर उठा कर मेरी तरफ देखा. उस की शक्ल देख कर मेरी बोलती बंद हो गई.

‘‘आगे और कोई बात होती कि तभी नर्स ने आ कर तैयारी शुरू कर दी. अलका उठ कर चलने लगी, फिर मेरी पीठ को सहलाते हुए बोली, ‘डरो मत, मैं डाक्टर पहले हूं, अलका बाद में.’’’

पर राहुल की मम्मी कुछ और ही सोच रही थीं, इसलिए उन्होंने बेटे की बात पर कोई गौर नहीं किया.

थोड़ी देर बाद मम्मी ने पूछा, ‘‘क्या अलका शादीशुदा है?’’

राहुल बोला, ‘‘नहीं मम्मी. लेकिन आप यह क्या पूछ रही हैं?’’

‘‘बेटा सोच, उस ने अभी तक शादी क्यों नहीं की? उस से कह दे कि बच्चे को बचाने की कोशिश करे. बहू न बचे, तो कोई बात नहीं.’’

राहुल चीखा, ‘‘आप कितनी बेरहम हैं. मैं वही गलती दोबारा नहीं करूंगा. एक बार ताऊजी और पापा के खिलाफ नहीं बोल कर मुझे अलका जैसी लड़की से हाथ धोना पड़ा था. मुझे अपनी बीवी और बच्चा दोनों चाहिए.’’

उधर डाक्टर अलका  के सामने लेटी कविता जिंदगी और मौत के बीच झूल रही थी. वह उस शख्स की बीवी थी, जो अलका के साथ होने वाले फेरों पर अपनी बरात वापस ले गया था.

डाक्टर अलका के सामने उस दिन का एकएक सीन घूम गया, जिस ने उन की जिंदगी बदल दी थी.

राहुल और अलका मंडप के नीचे बैठे हुए थे कि तभी राहुल के पापा की आवाज गूंजी थी, ‘रुक जाओ…’

फिर वे अलका के पापा से बोले थे, ‘5 लाख रुपए का इंतजाम और करो. अब फेरे तभी होंगे, जब आप 5 ख रुपए का इंतजाम कर लोगे.’

अलका और उस के परिवार वाले सभी चौंक कर रह गए थे. अलका के पापा और चाचा दोनों राहुल के पापा के सामने गिड़गिड़ा रहे थे, पर उन का एक ही राग था कि 5 लाख रुपए का इंतजाम करो, नहीं तो बरात वापस ले जाएंगे.

इसी बीच राहुल के ताऊजी बोले थे, ‘अरे समधीजी, आप के लिए गर्व की बात होनी चाहिए कि आप की 12वीं पास लड़की को सरकारी नौकरी वाला लड़का मिल रहा है… ऊपर से यह सांवली भी है. आप 5 लाख रुपए का इंतजाम कर लें, फिर सारी कमियां छिप जाएंगी.’

फिर पापा राहुल से बोले थे, ‘उठ बेटा, हम वापस चलते हैं.’

बहुत देर से चुपचाप सुन रही अलका उठी और दहाड़ी, ‘अरे, यह क्या उठेगा, मैं ही उठ जाती हूं.

‘मैं अब यह शादी नहीं करूंगी. आप शौक से बरात ले जाएं. लेकिन मेरे पापा का जो अब तक खर्च हुआ है, सब दे कर जाएं.’

फिर अलका अपने चाचा से बोली थी, ‘चाचाजी, आप पुलिस को बुलाइए.’

अब तक जो शेर की तरह दहाड़ रहे थे, वे भीगी बिल्ली बन गए थे. वे अलका पर शादी के लिए दबाव डालने लगे थे, पर अलका ने शादी करने से साफ मना कर दिया और बरात लौट गई थी.

कमरे में आ कर अलका रोने लगी थी. उस की बूआ पास आ गई थीं. वह उन से लिपट कर रोने लगी और बोली थी, ‘बूआ, मैं और पढ़ना चाहती हूं.’

बूआ ने अपने भाई से कहा था, ‘भैया, मैं ने पहले ही कहा था कि अभी अलका की उम्र ही क्या हुई है… पर आप को तो बस नौकरीपेशा लड़के का लालच आ गया. देख लिया नतीजा…

‘भैया, मेरे कोई बच्चा नहीं है, इसलिए अलका की जिम्मेदारी मुझे सौंप दो. इसे मैं अपने साथ ले जाऊंगी. मैं इसे आगे पढ़ाऊंगी.’

इस के बाद बूआ अलका को अपने साथ ले गई थीं. उस समय वह 12वीं जमात विज्ञान से कर रही थी, तभी पीएमटी का इश्तिहार आया था. अलका ने पीएमटी का इम्तिहान देने की इच्छा जाहिर की, तो उस की बूआ ने उस की इच्छा पूरी की.

अलका ने बहुत मेहनत की. अब उस का एक ही मकसद था कि कुछ कर के दिखाना है. उस की मेहनत रंग लाई और उस का पीएमटी में चयन हो गया.

अलका को पता था कि बूआ भी माली रूप से कमजोर थीं, लेकिन बूआ ने किसी तरह उसे डाक्टरी पढ़ने के लिए बाहर भेज दिया था.

अलका को बाद में पता चला था कि उस की बूआ ने उस के दाखिले के लिए अपने कुछ जेवर बेचे थे, इसलिए उस ने अपने सहपाठियों से कहा कि उस के लिए कुछ ट्यूशन बता दें, जिस से वह अपनी बूआ को कुछ राहत दे सके.

अलका के सहपाठी उस के काम आए. उन्हीं में डाक्टर विश्वास भी थे. उन्होंने कुछ ट्यूशन बता दिए. बस, यहीं से अलका की निकटता डाक्टर विश्वास से बढ़ने लगी और उस हद तक पहुंच गई, जहां दोनों एकदूसरे के बिना नहीं रह पा रहे थे.

3 साल बाद अलका एक नर्सिंगहोम की मालकिन थी. इस नर्सिंगहोम की मालकिन बनने में भी डाक्टर विश्वास ने ही मदद की थी.

अब अलका इतनी काबिल डाक्टर हो गई थी कि बिगड़े केस भी ठीक कर देती थी. कविता का केस भी तभी अलका के पास आया, जब दूसरे डाक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए थे.

डाक्टर अलका के लिए यह सब से मुश्किल केस था, क्योंकि अगर वह अपने काम में नाकाम हुई तो लोग यही कहेंगे कि अलका ने अपना बदला ले लिया. उस का कैरियर भी चौपट हो जाएगा, जबकि उस को पता था कि उस के सामने लेटी औरत का कोई कुसूर नहीं था.

अलका को बारबार पसीना आ रहा था. उस की ऐसी हालत देख कर नर्स बोली, ‘‘डाक्टर क्या हुआ? आप अपनेआप को संभालो.’’

अलका बोली, ‘‘डाक्टर विश्वास को फोन लगाओ.’’

थोड़ी देर बाद जब नर्स ने कहा कि डाक्टर विश्वास कुछ ही देर में पहुंचने वाले हैं, तब जैसे अलका को हिम्मत मिली. अब उस के लिए कविता एक आम मरीज थी. 2 घंटे बाद जब बच्चे के रोने की आवाज गूंजी, तब सब खुशी से उछल पड़े.

बाकी काम अपने सहायकों पर छोड़ कर डाक्टर अलका डाक्टर विश्वास के साथ बाहर निकल गई.

कविता 3 दिन अस्पताल में रही. राहुल और अलका की मुलाकात नहीं हुई या राहुल ही खुद अलका से कन्नी काट लेता था.

3 महीने बीत गए थे. अलका अस्पताल जाने की तैयारी कर रही थी कि तभी एक आवाज ने उसे चौंकाया. उस ने आवाज की तरफ देखा और बोली, ‘‘अरे कविताजी, आप?’’

अपने बच्चे को डाक्टर अलका की गोद में सौंपते हुए कविता बोली, ‘‘मुझे सब पता चल गया है, जो इन्होंने आप के साथ किया था.’’

‘‘मैं तो अब सबकुछ भूल गई हूं, क्योंकि आज मैं जिस मुकाम पर खड़ी हूं, तब मैं सोचती हूं कि अगर उस समय मेरी शादी हो गई होती, तब मैं इस मुकाम पर नहीं पहुंच पाती.’’

‘‘पर इन्होंने जो किया, वह गलत किया.’’

‘‘हां, मुझे भी उस समय बुरा लगा था कि राहुल ने अपने पापा का विरोध नहीं किया था. तब मुझे लगा कि अगर मेरी शादी राहुल के साथ हो जाती, तो हो सकता है कि बाद में भी दहेज ही मेरी मौत की वजह बन जाए, इसलिए मैं ने शादी के लिए मना कर दिया.’’

फिर अलका ने कविता से पूछा, ‘‘क्या अब भी राहुल ऐसे ही हैं?’’

‘‘नहीं, अब वे बदल गए हैं. मुझे आप के अस्पताल की नर्स ने बताया कि उस दिन भी इन की मम्मी ने दबाव डाला था कि डाक्टर से कह दे कि अगर बचाने की बात हो, तो बहू को नहीं, बल्कि बच्चे को बचा ले. तब इन्होंने मम्मी को डांट दिया था.

‘‘इन्होंने अपनी मां से कहा था कि एक बार पापा की बात का विरोध न कर के अलका जैसी लड़की को खो बैठा हूं, पर वह गलती अब दोबारा नहीं करूंगा.

‘‘तब मुझे यह पता नहीं था कि वह लड़की आप हैं.’’

बात को मोड़ देते हुए अलका ने पूछा, ‘‘इस बच्चे का क्या नाम रखा?’’

‘‘विश्वास,’’ कविता बोली.

तभी डाक्टर विश्वास वहां आए. अपना नाम सुन कर वे बोले, ‘‘मेरा नाम क्यों लिया जा रहा है?’’

कविता ने बताया, ‘‘हम ने अपने बच्चे का नाम आप के नाम पर रखा है.’’

डाक्टर विश्वास बोले, ‘‘अरे, विश्वास नाम मत रखो, वरना मेरी तरह कुंआरा ही रह जाएगा.’’

‘‘देखो, कैसे ताना मार रहे हैं,’’ अलका बोली, ‘‘आज से पहले कभी इन्होंने प्रपोज नहीं किया? और आज प्रपोज किया है, तो ताना भी मार रहे हैं. अब मुझे क्या सपना आया था कि आप से केवल दोस्ती नहीं है, कुछ और भी है.’’

डाक्टर विश्वास के बोलने से पहले ही कविता बोली, ‘‘बहुत खूब. दोनों ने प्रपोज भी किया और ताना भी मारा. अब शादी की तारीख भी तय कर लो.’’

‘शादी की तारीख तो हमारे बड़े तय करेंगे,’ वे दोनों एकसाथ बोले.

कुछ दिन बाद अलका और विश्वास की शादी की तारीख तय हो गई. राहुल और कविता उन के खास मेहमान थे. Family Kahaniyan

Hindi Love Story: अधूरा सा इश्क- क्या था अमन का फैसला

Hindi Love Story: यादों के झरोखे पर आज फिर किसी ने दस्तक दी थी. न चाहते हुए भी अमन का मन उस और खींचता चला गया. अपनी बेटी का आंसुओं से भीगा हुआ चेहरा उसे बारबार कचोट रहा था.

“विनय, मुझे माफ कर दो, मैं तुम से शादी नहीं कर सकती. मैं अपने पापा को धोखा नहीं दे सकती. मैं उन का गुरूर हूं…उन के भरोसे को मैं तोड़ नहीं सकती. हो सके तो मुझे माफ कर देना.”

देर रात श्रेया के कमरे की जलती हुई लाइट को देख अमन के कदम उस ओर बढ़ गए थे. श्रेया की हिचिकियों की आवाजें बाहर तक आ रही थीं. अमन दरवाजे पर कान लगाए खड़ा था. फोन पर उधर किसी ने क्या कहा अमन यह तो नहीं सुन पाया पर श्रेया के शब्द सुन कर उस के पैर कमरे के बाहर ही जम गए. कितना गुस्सा आया था उसे…पिताजी के खिलाफ जा कर उस ने श्रेया का कालेज में दाखिला कराया था और वह…

“आग और भूसे को एकसाथ नहीं रखा जाता. वैसे भी इसे दूसरे घर जाना है. कल कोई ऊंचनीच हो गई तो मुझ से मत कहना.”

अपने बाबा की बात सुन श्रेया संकोच और शर्म से गड़ गई थी. तब अमन ने कितने विश्वास के साथ कहा था,”पिताजी, मुझे श्रेया पर पूरा भरोसा है. वह मेरा सिर कभी झुकने नहीं देगी.”

श्रेया रोतेरोते सो गई. अमन उसे सोता हुआ देख रहा था. उस की छोटी सी गुड़िया कब इतनी बड़ी हो गई… तकिया आंसुओं से गीला हो गया था. बिस्तर के बगल में रखे लैंप की रौशनी में उस का मासूम चेहरा देख अमन का कलेजा मुंह को आ गया. कितना थका सा लग रहा था उस का चेहरा मानों वह मीलों का सफर तय कर के आई हो. कितनी मासूम लग रही थी वह.

उस की श्रेया किसी लड़के के चक्कर में…अभी उस ने दुनिया ही कहां देखी है? आजकल के ये लड़के बाप के पैसों से घुमाएंगेफिराएंगे और फिर छोड़ देंगे. श्रेया के मासूम चेहरे को देख अमन को किसी की याद आ गई. सच मानों तो इतने सालों के बाद भी वह उस चेहरे को भूल नहीं पाया था.

उसे लगा आज किसी ने उसे 25 साल पीछे ला कर खड़ा कर दिया हो. न जाने कितनी ही रातें उस ने उस के खयालों में बिता दी थीं. उस के जाने से कुछ नहीं बदला था, रात भी आई थी…चांद भी आया था पर बस नींद नहीं आई थी.

कितनी बार…हां, न जाने कितनी ही बार वह नींद से जाग कर उठ जाता.तब एक बात दिमाग में आती, जब खयाल और मन में घुमड़ते अनगिनत सवाल और बवाल करने लगे तब तुम आ जाओ. तुम्हारा वह सवाल जनून बन जाएगा और बवाल जीवन का सुकून…आज सोचता हूं तो हंसी आती है. बावरा ही तो था वह…बावरे से मन की यह न जानें कितनी बावरी सी बातें थीं. कोई रात ऐसी नहीं थी जब वह साथ नहीं होती. हां, यह बात अलग थी कि वह साथ हो कर भी साथ नहीं होती. अमन को कभीकभी लगता था कि उस के बिना तो रात में भी रात न होती. शायद इसी को तो इश्क कहते हैं… इतने साल बीत जाने पर भी वह उस को माफ नहीं कर पाया था.

सच कहा है किसी ने मन से ज्यादा उपजाऊ जगह कोई नहीं होती क्योंकि वहां जो कुछ भी बोया जाए उगता जरूर है चाहे वह विचार हो, नफरत हो या प्यार. कुछ ख्वाहिशें बारिश की बूंदों की तरह होती हैं जिन्हें पाने की जीवनभर चाहत होती है. उस चाहत को पाने में हथेलियां तो भीग जाती हैं पर हाथ हमेशा खाली रहता है. उस का प्यार इतना कमजोर था कि वह हिम्मत नहीं कर पाई. बस, कुछ सालों की ही तो बात थी…

“कैसी लग रही हूं मैं..?” खुशी ने मुसकराते हुए अमन से पूछा था. अमन उस के चेहरे में खो सा गया था. लाल सुर्ख जोड़े और मेहंदी लगे हाथों में वस और भी खूबसूरत लग रही थी. वह उसे एकटक देखता रहा और सोचता रहा कि मेरा चांद किसी और की छत पर चमकने को तैयार था.

“तुम हमेशा की तरह खूबसूरत…बहुत खूबसूरत लग रही हो.”

“सच में…”

“क्या तुम्हें मेरी बात पर भरोसा नहीं, कोई गवाह चाहिए तुम्हें…”

अमन की आंखों में न जाने कितने सवाल तैर रहे थे. ऐसे सवाल जिन का जवाब उस के पास नहीं था. खुशी ने अचकचा कर अपनी आंखें फेर लीं और भरसक हंसने का प्रयास करने लगी. अमन उस मासूम हंसी को कभी नहीं भूल सकता था. न जाने क्या सोच कर वह एकदम से चुप हो गया. उस समय वे दोनों कमरे में अकेले थे. बारात आने वाली थी.सब तैयारी में इधरउधर दौड़भाग रहे थे. कमरे में एक अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ था.

शायद बारात आ गई थी. भीड़ का शोर बढ़ता जा रहा और खुशी के चेहरे पर बेचैनी भी…वह तेजी से अपनी उंगलियों में दुपट्टे को लपेटती और फिर ढीला छोड़ देती. कुछ था जो उस के हाथों से छूटने जा रहा था पर….खुशी सोच रही थी कि माथे का सिंदूर रिश्ते की निशानी हो सकती है पर क्या प्यार की भी? तब खुशी ने ही बोलना शुरू किया, “अमन, शायद तुम्हें मुझ से, अपने जीवन से शिकायत हो. शायद तुम्हें लगे कुदरत ने हमारा साथ नहीं दिया पर एक बार खिड़की से बाहर उन चेहरों को देखो जो मेरी खुशी के लिए कितने दिनों से दौड़भाग रहे हैं. मेरे पापा से मिल कर देखो, खुशी उन की आंखों से बारबार छलक रही है और मेरी मां… वह भी कितनी खुश है.

“क्या अगर आज हम ने उन की मरजी के खिलाफ जा कर चुपचाप शादी कर ली होती, इतने लोगों को दुख पहुंचा कर हम नए जीवन की शुरुआत कर पाते? तुम्हें शायद मेरी बातें आज न समझ में आए पर एक न एक दिन तुम्हें लगेगा कि मैं गलत नहीं थी. हो सके तो मुझे भूल जाना…”

“भूल जाना…” आसानी से कह दिया था खुशी ने यह सब पर क्या यह इतना आसान था? अमन मुसकरा कर रह गया. उस की मुसकराहट में खुशी को न पा पाने का गम, अपने बेरोजगार होने की मजबूरी बारबार साल रही थी. आज खुशी जिन लोगों का दिल रखने की कोशिश कर रही थी, क्या किसी ने उस का दिल रखने की कोशिश की? खुशी की बहनें जयमाल के लिए खुशी को ले कर चली गईं. अमन काफी देर तक उस स्थान को देखता रहा जहां खुशी बैठी थी. उस के वजूद की खुशबू वह अभी तक महसूस कर रहा था.

खुशी सिर्फ उस के जीवन से नहीं जा रही थी, उस के साथ उस की खुशियां, उस के होने का मकसद को भी ले कर चली गई थी. वह तेजी से उठा और भीड़ में गुम हो गया.

“अरे अमन, वहां क्यों खड़े हो? यहां आओ न… फोटो तो खिंचवाओ,” खुशी की मां ने हुलस कर कहा और वह झट से दोस्तों के साथ मंच पर चढ़ गया. न जाने क्यों खुशी का चेहरा उतर गया था. एक अजीब सा तनाव और गुस्सा अमन के चेहरे पर था, जैसे किसी बच्चे से उस का पसंदीदा खिलौना छीन लिया गया हो. अमन खुशी के पति के पीछे जा कर खड़ा हो गया, जैसे वह खुद को बहला रहा था. जिस जगह पर आज खुशी का पति बैठा है इस जगह पर तो उसे होना चाहिए था.

आज उस का मन यादों के भंवर में घूम रहा था. याद है, आज भी उसे खुशी से वह पहली मुलाकात… फरवरी की गुलाबी ठंड शीतल हवा के झोंके चेहरे से टकरा कर एक अजीब सी मदहोशी में डुबो रहे थे. बादलों से झांकता सूरज बारबार आंखमिचौली कर रहा था.

तभी सामने से आती एक सुंदर सी लड़की जिस ने पीले सलवारकमीज पर चांदी की चूड़ियां डाल रखी थीं, उस पर नजरें टिक गईं. हाथ की कलाई में बंधी घड़ी को उस ने बेचैनी से देखा. शायद उसे क्लास के लिए आज देर हो गई थी. उस के चेहरे पर बिखरी हुई लटें किसी का भी मन मोह लेने में सक्षम थी, हर पल उस के कदम अमन की ओर बढ़ते जा रहे थे और उस के हर बढ़ते हुए कदम के साथ अमन का दिल जोरजोर से धङकने लगा था. सांसें थम सी गई थीं, चेहरा घबराहट से लाल हो गया था. शायद यह उम्र का असर था या फिर कुछ और, उस की निगाहों की कशिश उसे अपनी ओर खींचने को मजबूर करती थीं. उसे रोज देखने की आदत न जाने कब मुहब्बत में बदल गई.

वे घंटों एकदूसरे के साथ सीढ़ियों पर बैठे रहते थे, उन के मौन के बीच भी कोई था जो बोलता था. एकदूसरे का साथ उन्हें अच्छा लगता था. आज भी उस रास्ते से जब वह गुजरता तो लगता वह उन सीढ़ियों पर बैठा उस का इंतजार कर रहा है और वह अपनी सहेलियों के बीच घिरी कनखियों से उस के चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रही है.

यहीं…हां, यहीं तो उस ने अपनी शादी का कार्ड पकड़ाया था. न जाने क्यों उस की बोलती और चमकती आंखों में लाल डोरे उभर आए थे. कुछ खोईखोई सी लग रही थी वह… उस दिन भी तो उस ने उस का पसंदीदा रंग पहन रखा था. यह इत्तिफाक था या फिर कुछ और वह आज तक समझ नहीं पाया…

हाथों में वही चांदी की चूड़ियां… लाल सुर्ख कार्ड को उस ने अपनी झुकी पलकों और कंपकंपाते हाथों के साथ अमन को पकड़ाया. पता नहीं वह भ्रम था या फिर कुछ और… उस के गुलाबी होंठ कुछ कहने के लिए फड़फड़ाए थे पर…हिरनी सी चंचल आंखों से में एक अजीब सा सूनापन था. खालीपन तो उस की आंखों में भी था…

“आओगे न…” इन 2 शब्दों ने उस के कानों तक आतेआते न जाने कितने मीलों का सफर तय किया था. सच ही तो है, हम सब एक सफर में ही तो हैं.

“तुम…तुम सचमुच चाहती हो मैं आऊं?”

आंसू की 2 बूंदें उस कार्ड पर टप से टपक पङे और वह मेरे बिना कोई जवाब दिए दूर बहुत दूर चली गई. कितना गुस्सा आया था उस दिन… एक बार… हां, एक बार भी नहीं सोचा उस ने मेरे बारे में…क्या वह मेरा इंतजार नहीं कर सकती थीं? कितनी शामें मैं ने उस की उस पसंदीदा जगह पर इंतजार किया था पर वह नहीं आई. शायद उसे आना भी नहीं था. खिड़की से झांकता पेड़ मुझ से बारबार पूछता कि क्या वह आएगी? पर नहीं, पार्क में पड़ी लकड़ी की वह बैंच…

आज भी उस बैंच पर गुलमोहर के फूल गिरते हैं, जिन्हें वह अपने नाजुक हाथों में घुमाघुमा अठखेलियां करती थी. बारिश की बूंदें जब उस के चेहरे को छू कर मिट्टी में लोट जाती तब वह उस की सोंधी खुशबू से पागल सी हो जाती. बरगद का वह विशाल पेङ जहां वह अमन के साथ घंटों बैठ कर भविष्य के सपने बुनती, आज भी उस का इंतजार कर रहा था. अपनी नाजुक कलाइयों से वह उस विशाल पेङ को बांधने का निर्रथक प्रयास करती, उस का वह बचपना आज भी अमन को गुदगुदा देता.

अमन सोच रहा था कि शब्द और सोच इंसान की दूरियां बढ़ा देते हैं और कभी हम समझ नहीं पाते और कभी समझा नहीं पाते. कल वह खुशी को समझ नहीं पाया था और आज वह श्रेया को नहीं समझ पा रहा. उस ने तो सिर्फ उतना ही देखा और समझा जितना वह देखना और समझना चाहता था. जिंदगीभर उसे खुशी से शिकायतें रहीं पर एक बार भी उस ने यह सोचा कि खुशी को भी तो उस से शिकायतें हो सकती हैं? वह भी तो उस के पिता से मिल कर उन्हें समझा सकता था? खुशी का दिया जख्म उसे आज तक टीस देता था पर आज श्रेया के प्यार के बारे में जान कर भी वह कुछ नहीं करेगा?

क्या उस नए जख्म को बरदाश्त कर पाएगा? खुशी और श्रेया न जाने क्यों उसे आज एक ही नाव पर सवार लग रहे थे, जो दूसरों का दिल रखने के चक्कर में अपना दिल रखना कब का भूल चुके थे.

सच कहा था उस दिन खुशी ने कि एक दिन मुझे उस की बातें समझ में आएंगी. अमन की आंखें बोझिल हो रही थीं, वह थक गया था अपने विचारों से लड़तेलड़ते…उस की पत्नी नींद के आगोश में थी. अमन खिड़की के पास आ कर खड़ा हो गया. बाहर तेज बारिश हो रही थी. हवा के झोंके ने अमन के तन को भिगो दिया. पानी की तेज धार में पत्ते धूल गए थे और कहीं न कहीं अमन की गलतफहमियां भी… वह निश्चय कर चुका था कि बेशक उस की जिंदगी में खुशी नहीं आ पाई थी मगर मेरी श्रेया किसी की नफरत का शिकार नहीं बनेगी…वह कल ही उस से बात करेगा. Hindi Love Story

लेखिका- डा. रंजना जायसवाल

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें