लेखिका- सरला अग्रवाल
विभा ने जब रिचा से इस विषय पर बात की तो पहले तो वह सकपका गई, फिर बोली, ‘‘रोज ही कोई न कोई समस्या घेरे रहती है, समझ में नहीं आता, कब क्या करूं. पर 6 महीने वाली बात गलत है, मुश्किल से महीनाभर पहले ही तो कपड़ा आया है.’’
‘‘तुम अपने कार्यों को व्यवस्थित कर के किया करो. गृहिणी दफ्तर नहीं जाती, किंतु उस का कार्यक्षेत्र तो सब से अधिक विस्तृत होता है. इस में कहीं अधिक योजना की आवश्यकता होती है, ताकि हर कार्य समय से कुछ पूर्व ही हो जाए और घर के सदस्यों को किसी प्रकार की परेशानी या तनाव गृहिणी के प्रति न रहे.’’विभा ने यह भी देखा था कि हर रोज सुबह नहाने के बाद अलमारी में से कपड़े निकालते समय भी मां और बेटे में अकसर तकरार होती है. उस ने रिचा से इस समस्या को सुलझाने की भी हिदायत दी.एक दिन दोपहर को जब विक्की खेलने की जिद करने लगा तो विभा ने उसे 2 घंटे का गणित का पेपर सैट कर के दे दिया. जब 2 घंटे बाद उस ने विक्की की कौपी जांची तो यह देख कर बहुत प्रसन्न हुई कि विक्की ने 50 में से 50 अंक प्राप्त किए हैं. वह बोली, ‘‘बहुत बढि़या, शाबाश विक्की, पढ़ाई में तो तुम अच्छे हो, तो परीक्षा में इतने कम नंबर क्यों आए?’’
विक्की हंसता हुआ ताईजी से लिपट गया और उन की पप्पी लेता हुआ बोला, ‘‘मुझे अपने साथ ले चलिए, प्लीज ताईजी.’’ विभा उस की मानसिकता देख कर सोच में पड़ गई थी, ‘यह बच्चा अपने मातापिता से दूर क्यों जाना चाहता है? और अपने साथ ले जाना ही क्या इस समस्या का सही निदान है?’
दिन के 12 बजे का समय था. विक्की रिचा के पास जा कर चिल्लाया, ‘‘बड़ी जोर की भूख लगी है. खाना कब दोगी?’’
‘‘क्या खाएगा? मुझे खा ले तू तो, सारा दिन बस ‘भूखभूख’ चिल्लाता रहता है. अभी सुबह तो पेट भर कर नाश्ता किया है, कुछ देर पहले ही फ्रिज में से मिठाई के 3 टुकड़े निकाल कर खा चुका है. मैं सब देख रही थी बच्चू, अब फिर भूखभूख. मुझे भी तो नहानाधोना होता है. चल जा कर पढ़ कुछ देर,’’ रिचा विक्की पर झल्ला पड़ी.
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‘‘हमेशा डांटती रहती हो, अब भूख लगी है तो क्या करूं? पैसे दे दो, बाजार से समोसे खा कर आऊंगा.’’
‘‘यह कह न, कि समोसे खाने का मन है,’’ रिचा चिल्लाई, ‘‘देखिए न दीदी, कितना चटोरा हो गया है. पिछली बार जब मां के पास गई थी तो वहां पर छोटी बहन अपने घर से समोसे बना कर लाती थी. यह अकेला ही खाली कर देता था. देखो न, कितना मोटा होता जा रहा है, खाखा कर सांड हो रहा है.’’
‘‘रिचा, अपनी जबान पर लगाम दो. बच्चे के लिए कैसेकैसे शब्द मुंह से निकालती हो. यह यही सब सीखेगा. जो सुनेगा, वही बोलेगा. जो देखेगा, वही करेगा. पढ़ाई की जो बात तुम ने इस से कही है, वह सजा के रूप में कही है. इसे स्वयं ले कर बैठो, रोचक ढंग से पढ़ाई करवाओ. कैसे नहीं पढ़ेगा? दिमाग तो इस का अच्छा है,’’ विभा दबे स्वर में बोली ताकि विक्की उस की बात सुन न सके. पर इतनी देर में विक्की अपने लिए मिक्सी में मीठी लस्सी बना चुका था. वह खुशी से बोला, ‘‘ताईजी, लस्सी पिएंगी?’’ वह गिलास हाथ में लिए खड़ा था.
‘‘नहीं बेटे, मुझे नहीं पीनी है, तुम पी लो.’’
‘‘ले लीजिए न, मैं अपने लिए और बना लूंगा, दही बहुत सारा है अभी.’’
‘‘नहीं विक्की, मेरा मन नहीं है,’’ विभा ने उस के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.
‘‘दीदी, मेरी बहनों के बच्चों के साथ रह कर इसे भी बाजार के छोलेभटूरे, आलू की टिकिया, चाट, समोसे वगैरा खाने की आदत पड़ गई है. उन के बच्चे हर समय ही वीडियो गेम खेलते हैं, अनापशनाप खर्च करते हैं, पर हम तो इतना खर्च नहीं कर सकते. इतना समझाती हूं, पर यह माने तब न. इसी कारण तो अब मैं दिल्ली जाना ही नहीं चाहती.’’ ‘‘बस, शांत हो जाओ. विक्की को चैन से लस्सी पीने दो. उसे समझाने का तुम्हारा तरीका ही गलत है,’’ विभा चिढ़ कर बोली.
‘‘अब आप भी मेरे ही पीछे लग गईं?’’ रिचा फूटफूट कर रोने लगी, ‘‘मेरा बच्चा ही जब मेरा नहीं रहा तो मैं औरों से क्या आशा करूं?’’ विभा ने सोचा, ‘इसी प्रकार तो नासमझ माताएं अपने बच्चों से हाथ धो बैठती हैं. बच्चों का मनोविज्ञान, उन की इच्छाअनिच्छा, उन के आत्मसम्मान व स्वाभिमान के विषय में तो कुछ समझती ही नहीं हैं. बस, अपनी ही हांकती रहती हैं. सोचती यही हैं कि उन के बच्चे को घर के और लोग ही बिगाड़ रहे हैं, जबकि इस कार्य में उन का स्वयं का हाथ भी कुछ कम नहीं होता.’ ‘‘बढ़ता बच्चा है, छुट्टियों के दिनों में कुछ तो खाने का मन करता ही है. कुछ नाश्ते का सामान, जैसे लड्डू, मठरी, चिड़वा वगैरा बना कर रख लो,’’ विभा ने अगले दिन कहा.
‘‘तो क्या मैं उसे खाने को नहीं देती? जब कहता है, तुरंत ताजी चीज बना कर खिलाती हूं.’’
‘‘वह तो ठीक है रिचा, पर हर समय तो गृहिणी का हाथ खाली नहीं होता न, फिर बनाने में भी कुछ देर तो लग ही जाती है. नाश्ता घर में बना रखा हो तो वह स्वयं ही निकाल कर ले सकता है. मैं आज मठरियां बनाए देती हूं.’’
‘‘अभी गैस खाली है नहीं, खाना भी तो बनाना है,’’ रिचा ने बेरुखी से कहा.
‘‘ठीक है, जब कहोगी तभी बना दूंगी,’’ विभा रसोई से खिसक ली. व्यर्थ की बहसबाजी में पड़ना उस ने उचित न समझा. वैसे भी अगले दिन तो उसे अपने घर जाना ही था. कौन कब तक किसी की समस्याओं से जूझ सकता है? पर जब कोई व्यक्ति हठधर्मी पर ही उतर आए और अपनी ही बात पर अड़ा रहे तो उस का क्या किया जा सकता है?
‘बच्चे तो ताजी मिट्टी के बने खिलौने होते हैं, उन पर जैसे नाकनक्शे एक बार बना दो, हमेशा के लिए अंकित हो जाते हैं. संस्कार डालने का कार्य तो केवल मां ही करती है. चंचल प्रकृति के बच्चों को कैसे वश में रखा जा सकता है, यह भी केवल मां ही अधिक समझ सकती है,’ विभा ने सोचा. ‘‘ताईजी, मुझे पत्र लिखोगी न?’’ विक्की ने प्यार से विभा के गले में बांहें डालते हुए पूछा.
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‘‘हां, अवश्य,’’ विभा हंस पड़ी.
‘‘वादा?’’ प्रश्नवाचक निगाहों से विक्की ने उन की ओर देखा.
‘‘वादा. पर तुम अब खूब मन लगा कर पढ़ोगे, पहले यह वादा करो.’’
‘‘वादा, ताईजी, आप बहुत अच्छी हैं. अब मैं मन लगा कर पढ़ूंगा.’’
‘‘खूब मन लगा कर पढ़ना, अच्छे नंबर लाना, मां का कहना मानना और अगली छुट्टियों में हमारे घर जरूर आना.’’
‘‘ठीक,’’ विक्की ने आगे बढ़ कर ताईजी की पप्पी ली. आने वाले निकट भविष्य के सुखद, सुनहरे सपनों की दृढ़ता व आत्मविश्वास उस के नेत्रों में झलकने लगा था. ‘‘मेरे बच्चे, खूब खुश रहो,’’ विभा ने विक्की को गले से लगा लिया. तभी रेलगाड़ी ने सीटी दी. विक्की के पिताजी ने उसे ट्रेन से नीचे उतर आने के लिए आवाज दी.
‘‘ताईजी, आप मत जाइए, प्लीज,’’ विक्की रो पड़ा.
‘‘बाय विक्की,’’ विभा ने हाथ हिलाते हुए कहा. गाड़ी स्टेशन से खिसकने लगी थी. विक्की प्लेटफौर्म पर खड़ा दोनों हाथ ऊपर कर हिला रहा था, ‘‘बाय, ताईजी, बाय.’’ उस की आंखों से आंसू बह रहे थे.
‘‘विक्की, अपना वादा याद रखना,’’ ताईजी ने जोर से कहा.
‘‘वादा ताईजी,’’ उस ने प्रत्युत्तर दिया. गाड़ी की गति तेज हो गई थी. विभा अपने रूमाल से आंसुओं को पोंछने लगी.
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