सक्सेसर: भाग 5- पति के जाने के बाद क्या हुआ निभा के साथ

जो चंदन उस की नजरों में गंवार और ऐं वैं ही था, आज उस की बातों से अत्यंत सुलझा हुआ व समझदार दिखाई पड़ रहा था. उस के बात करने के ढंग और उस की मदद के लिए उठे हुए उस के हाथ को देख कर वह गदगद हो उठी थी. उस के व्यवहार ने उस के दिल को छू लिया था.

चंदन का अनुमान सही निकला था…निशीथ ने लौ ट्रिब्यूनल में कंपनी का नाम बदल कर अपने नाम कर लेने की एप्लीकेशन लगा रखी थी और निश्चल के शेयर्स पर अपना कब्जा करने के लिए बोर्ड औफ डाइरैक्टर्स को अपनी तरफ मिलाने के लिए उन को तरहतरह का प्रलोभन देने में लगा हुआ था.

पावर औफ एटौर्नी के कैंसिल होते ही निशीथ के कान खड़े हो गए थे और अब उस के सुर बदलने लगे. लेकिन वह अंदर ही अंदर बोर्ड मैंबर्स से मिल रहा था और अपने को निश्चल का सक्सेर बता रहा था. निश्चल की जगह वह खुद मैनेजिंग डाइरैक्टर बनने के लिए गुटबंदी की कोशिश में लगा हुआ था. लोगों के सामने निभा को अयोग्य बता कर समय बिताने के प्रयास में लगा हुआ वह चाह रहा था कि किसी तरह लौ ट्रिब्यूनल में कंपनी उस के नाम रजिस्टर हो जाए. फिर एकएक को वह देख लेगा…

इधर, घर में निभा को अपनी तरफ मिलाने के लिए उस की चापलूसी करता रहता. अब भैया तो लौट कर आएंगें नहीं. अब सबकुछ उसे ही करना है.

वह सब से कहता फिर रहा था कि निभा भाभी तो एक घरेलू महिला हैं, वे भला कंपनी की एबीसीडी क्या जानें. इसीलिए तो उन्होंने पावर औफ एटौर्नी मुझे दे रखी है.

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‘…मैं तो भाभी का सेवक हूं. भैया की अमानत संभाल रहा हूं. रिनी और मिनी को तो विदेश में पढ़ने के लिए भेजूंगा. हर समय यही सोचता रहता हूं और यही चाहता हूं कि मेरी भाभी को भैया की कमी न महसूस होने पाए. अब वह उन दोनों के लिए कभी कुछ तो कभी कुछ खिलौना या कपड़ा ले कर आया करता. लेकिन निभा अब उस की नीयत को अच्छी तरह समझ चुकी थी, इसलिए उस के भुलावे में आने का सवाल ही न था.

अखिल दास ने बोर्ड मैंबर्स की मीटिंग बुला ली जिस में नए मैनेजिंग डाइरैक्टर को भी चुना जाना था. बड़ी गहमागहमी थी. चंदन और अखिल दास के सहयोग से वह अब कंपनी के कामकाज को अच्छी तरह समझ चुकी थी. लेकिन निशीथ आसानी से कंपनी अपने हाथ से जाने नहीं दे सकता था, इसलिए उस ने एक कागज पर निश्चल के दस्तखत के साथ बोर्ड औफ डाइरैक्टर्स के सामने रखा, जिस के अनुसार, निश्चल के 51 फीसदी शेयर्स और कंपनी निशीथ की हो जाएगी और वे चाहते थे कि कंपनी के मैनेजिंग डाइरैक्टर निशीथ ही बने. विल के अनुसार, निश्चल के शेयर्स, जमीनजायदाद और कंपनी का मालिक निशीथ ही होगा. बैठक बहुत हंगामेदार हुई और केस लौ ट्रिब्यूनल को सौंप दिया गया.

बोर्ड मैंबर्स निभा को निश्चल की उत्तराधिकारी मानते हुए उसे ही डाइरैक्टर चुनना चाहते थे लेकिन कानूनी दांवपेच में उलझ कर मामला लौ ट्रिब्यूनल से कोर्ट में पहुंच गया और विल की सचाई सिद्ध करने के लिए सिविल कोर्ट पहुंच गया था. परंतु चंदन के अकाट्य तर्कों के आगे निशीथ के वकील कहीं नहीं टिक पाए थे और लगभग 3 वर्षों के लंबे अंतराल के बाद निभा के हक में फैसला हुआ.

निभा ने खुशी के मारे अपनी गर्म हथेलियां चंदन के हाथों पर रख दीं, “चंदन, तुम्हें धन्यवाद देने के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं हैं. मैं आजीवन तुम्हारी एहसानमंद रहूंगी.”

“निभा, आज पहले दिन औफिस जा रही हो. लो, दहीशक्कर से मुंह मीठा कर के जाओ.“ वह आश्चर्य से भर उठी थी…ये रिश्ते भी कितने स्वार्थी होते हैं. वह औफिस आई तो गेट को फूलों से सजा हुआ देख, उसे अच्छा लगा था. उस के लिए रेड कार्पेट बिछाई गई थी. फूलों की वर्षा के साथ वैलकम सौंग गाया गया. केबिन के बाहर नेमप्लेट पर ‘निभा सिंह’ और नीचे मैनेजिंग डाइरैक्टर देख उस की आंखें नम हो गई थीं.

वह फाइल पर साइन करती जा रही थी परंतु उस का मन चंदन में ही उलझा हुआ था. उस ने ईमानदारी से चैक साइन कर के जब उसे दिया तो उस ने उस का हाथ पकड़ लिया था, ”निभा प्लीज, यह एक दोस्त की तरफ से भेंट समझ लो.”

वह उसे एकटक निहारती रह गई थी, “चंदन, तुम शादी क्यों नहीं कर लेते?”

“बस, दिल में कोई बसा है.”

“तो उस से अपने दिल की बात कह दो.”

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“हिम्मत नहीं जुटा पाता, यदि उस ने ना कर दी तो…”

चंदन का जादू उस के सिर पर चढ़ता जा रहा था. वह हर पल उस की आंखों में अपने लिए प्यार ढूंढा करती लेकिन उस की सूनी आंखों में सिवा उदासी और खालीपन के कुछ न दिखता.

वह रात में लेटी, तो उस का मन चंदन की बातों में उलझा था. चंदन…चंदन…चंदन. उसे क्या होता जा रहा है… वह मन ही मन मुसकरा उठी थी. उस ने चंदन को अपना हमसफर बनाने का निश्चय कर लिया था. उस ने चंदन को फोन किया, “कल शाम को डिनर पर आ सकते हो?”

“आप बुलाएं और हम न आएं, ऐसा कभी हो ही नहीं सकता.”

अगले दिन… “मैडम नहीं, केवल निभा कहो चंदन.”

“मैं तो कब से इस पल का इंतजार कर रहा था.”

चंदन ने सब के सामने उस की हथेलियों को हमेशा के लिए अपनी मुट्ठी में बंद कर लिया था.

सक्सेसर: भाग 1- पति के जाने के बाद क्या हुआ निभा के साथ

लखनऊ के एक पौश इलाके गोमतीनगर में निश्चल कपूर ने अपनी मेहनत के बलबूते आलीशान तीनमंजिली कोठी बनवाई. और चंद वर्षों के अंदर ही उन्होंने समृद्ध और प्रतिष्ठित लोगों के बीच अपना स्थान बना लिया. लेकिन कोरोना की दूसरी लहर के कहर ने सबकुछ बदल दिया.

“निश्चल, प्लीज मास्क ठीक से लगाओ. तुम्हारी नाक खुली हुई है. मास्क ठुड्डी पर लटका कर किसे धोखा दे रहे हो?”

“माई डियर निभा, तुम मेरी फिक्र छोड़ अपनी फिक्र करो. मुझ जैसे हट्टेकट्टे तंदुरुस्त इंसान को देख कर कोरोना खुद ही डर कर भाग जाएगा,” जोर का ठहाका लगाते हुए पत्नी निभा की ओर फ्लाइंग किस उछालते हुए वे गाड़ी स्टार्ट कर औफिस चले गए थे.

निभा जब भी कोरोना नियमों की बात करती, निश्चल उसे हंस कर टाल देते. इधर एक हफ्ता भी नहीं बीता कि निश्चल को हलका बुखारखांसी हुई. निभा टैस्ट करवाने को कहती रही लेकिन निश्चल ने उस की एक न सुनी और गोलियां निगल कर औफिस जाते रहे. जब सांस लेने में दिक्कत होने लगी तो भी जबरदस्ती करने पर टैस्ट करवाया और पौजिटिव रिपोर्ट आते ही एंबुलैंस में निश्चल को हौस्पिटल जाते देख कर पूरा परिवार सदमे में आ गया. उन्हें यथार्थ सुपर स्पैशलिटी हौस्पिटल में एडमिट करवा दिया गया. चूंकि वे कोरोना पौजिटिव थे, इसलिए उन के छोटे भाई निशीथ दूसरी गाड़ी में अलग से गए और एडमिट करवा कर घर लौट आए थे.

यद्यपि सब लोग सदमे में थे परंतु फिर भी सब के मन में आशा की किरण थी कि निश्चल जल्दी ही स्वस्थ हो कर आ जाएंगे. लेकिन 3-4 दिन ही बीते थे कि निभा भी पौजिटिव हो गई और तब तक कोरोना अपना विकराल रूप धारण कर चुका था. पूरे दिन की जद्दोजेहद के बाद बहुत मुश्किलों में रात 11 बजे उन्हें बैड मिल पाया था. निश्चल के सीटी स्कैन में उन के लंग्स तक इन्फैक्शन पहुंच गया था, इसलिए वे आईसीयू में रखे गए थे.

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मोबाइल फोन ही ऐसा माध्यम था जिस के द्वारा किसी से संपर्क किया जा सकता था. 3-4 दिनों तक तो वह निश्चल और परिवार के संपर्क में रही, फिर वह अपनी बीमारी में उलझती चली गई. वह खुद ही अपना होश खोती चली गई. अपनी सांसों के लिए संघर्ष करते रहने में वह सबकुछ भूलती चली गई. आईसीयू में औक्सीजन मास्क लगाए हुए वह अकेलेपन से जूझती रही थी. उस के चारों तरफ उस का कोई अपना नहीं दिखाई पड़ता था. कभी उसे प्यास लगती, तो सिस्टर की ओर आसभरी नजरों से देखती- ‘सिस्टर, मुझे प्यास लग रही है.’ उस समय यह अनुभूति हुई कि पानी की एक बूंद भी कितनी मूल्यवान है क्योंकि सिस्टर के लिए तो बहुत सारे सीरियस मरीज होते थे जिन को देखना उन के लिए ज्यादा जरूरी होता था.

एक रात उसे बहुत ठंड लग रही थी. सिस्टर दूर कुरसी पर बैठी जम्हाई ले रही थी. उस ने डूबती हुई आवाज में सिस्टर को आवाज दी थी परंतु कमजोर तन से इतनी धीमी आवाज निकल रही थी कि कोई बिलकुल उस के करीब हो, तभी सुनसमझ सकता था. सिस्टर भी तो आखिर इंसान ही थी, वह सारी रात ठंड से ठिठुरती रही थी. मुंह में औक्सीजन मास्क लगा हुआ था. मास्क निकालते ही सांसें उखड़ने को बेताब हो उठती थीं. उन्हीं दिनों यह एहसास हुआ था कि एकएक सांस कितनी मूल्यवान है. उस मर्मांतक पीड़ा को याद कर वह आज भी कांप उठती है…

लगभग 2 महीने तक वह जीवन मौत के झूले में झूलती हुई कभी आईसीयू तो कभी बाहर एकएक सांस के लिए संघर्ष करती हुई, डाक्टर और नर्सों के अथक परिश्रम के फलस्वरूप कोरोना से जंग जीतने में सफल हो गई और अपने घर आ गई. परंतु, पोस्टकोविड के कारण वह नित नई परेशानियों व तकलीफों से गुजर रही थी. न ही वह अपनी नन्ही परियों को ढंग से प्यार कर पा रही थी और न ही निश्चल की आवाज उसे सुनाई पड़ रही थी. जब भी वह निश्चल को फोन लगाती, तो निशीथ भैया उठाते. वे अकसर आते और किसी न किसी कागज पर उस के दस्तखत करवा कर ले जाया करते.

जब एक दिन वह फफक कर रो पड़ी कि निश्चल कहां हैं, वे क्यों नहीं दिखाई पड़ रहे? तो मम्मी जी ने बताया कि निश्चल तो कोविड से जंग में हार गए. अब पोंछ दो माथे का सिंदूर. तुम्हारा सुहाग उजड़ चुका है. सहसा वह विश्वास ही न कर पाई थी, लेकिन समझ में आते ही वह रोतेरोते बेहोश हो गई थी. उस का ब्लडप्रैशर 100 से नीचे चला गया था. डाक्टर आए. वह रोतीबिलखती रही थी. वह सोच ही नहीं पा रही थी कि निश्चल के बिना वह कैसे जीवित रह पाएगी. 2 नन्हीं मासूम बेटियां… वह क्या करेगी, कैसे जिएगी…. इस समय वह तन से तो टूटी थी ही, अब मन से भी टूट चुकी थी. उस को अपने जीवन के चारों ओर घना अंधकार पसरा दिखाई दे रहा था.

निश्चल ने बिजनैस से उस को बिलकुल अलगथलग रखा था. एक बार वह औफिस पहुंच गई थी तो उन्हें बिल्कुल भी पसंद नहीं आया था. वह उस पर बहुत नाराज भी हुए थे. औफिस से उसे बस इतना वास्ता था कि …इस कागज पर अपना साइन कर दो, तो कभी चैक पर साइन कर दो… वह भी अधिकतर ऐसा समय होता जब वे औफिस जाने के लिए जल्दी में होते. वह दस्तखत कर के उन्हें पकड़ा देती. कभी क्या लिखा है, यह जाननेसमझने की न ही इच्छा हुई और न ही जरूरत ही समझी थी उस ने.

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सास सुनैना उसे हिम्मत बंधाती रहतीं. उसे बेटी की तरह ही प्यार करतीं. समयसमय पर दवाई, फल, दूध, खाना आदि सब उस के कमरे में पहुंचा देतीं.

“निभा, निश्चल तो अब लौट कर नहीं आने वाला लेकिन वह जो अपने प्रतिरूप नन्हीं परियों की जिम्मेदारी तुम्हें सौंप कर गया है, उन्हें संभालो. अपनी घरगृहस्थी में अपना मन लगाओ.’ सास ने कहा तो वह सुनैना जी के गले से लग कर फूटफूट कर रो पड़ी थी. उस की सिसकी नहीं रुक रही थी.

“निभा, तुम ठीक हो गईं, यह इन बेटियों के लिए अच्छा है. निश्चल तो तुझे मझधार में छोड़ कर चला ही गया.” बहुत ही कारुणिक दृश्य था. निशा भी फूटफूट कर रो पड़ी, बोली, “भाभी अपने को संभालो.”

थोड़े दिनों बाद एक दिन निशीथ औफिस से आ कर बोले, ”भाभी, भैया तो अब लौट कर आने वाले नहीं. रोजरोज आप से साइन करवाने के चक्कर में अकसर जरूरी काम अटक जाता है. आप ‘पावर औफ अटौर्नी’ मुझे दे दें तो फिर हर समय आप के पास दौड़ नहीं लगानी पड़ेगी और काम भी नहीं रुका करेगा.”

उस ने तुरंत कागज पर साइन कर के भैया को दे दिया था.

आगे पढ़ें- आखिर कब तक वह अपने कमरे की…

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सक्सेसर: भाग 2- पति के जाने के बाद क्या हुआ निभा के साथ

उस की मां भी उस से मिलने के लिए आई थीं. उन्होंने उसे समझाया कि इस तरह से जिंदगी थोड़े ही कटेगी. अपनी मासूम बच्चियों में मन लगाओ, अपने भविष्य के बारे में सोचो. अभी तुम्हारी उम्र ही क्या हुई है, मात्र 32 वर्ष. आजकल तो इतनी उम्र में लड़कियां शादी कर रही हैं. मां उसे अपने साथ कुछ दिनों के लिए ले जाना चाहती थीं लेकिन वह तो किसी के सामने ही नहीं जाना चाहती थी. वे रोती हुई लौट गई थीं.

आखिर कब तक वह अपने कमरे की छतों पर नजर गड़ाए शून्य में निहारती रहती. वह अपने कमरे से बाहर निकल कर ड्राइंगरूम में आई तो वहां का नया फर्नीचर और रेनोवेशन देख कर आश्चर्य से भर उठी. घर में इतना बड़ा हादसा हो चुका है, घर का मालिक इस दुनिया से विदा हो गया है और ऐसी हालत में ड्रांइगरूम का सौंदर्यीकरण… वह निशीथ से पूछ बैठी थी- “इस समय रिनोवेशन?” उस के पूछते ही निशीथ का चेहरा सफेद पड़ गया और वह सकपका कर बोला, “भाभी, यह सब तो भैया की ही प्लानिंग थी और उन्होंने ही सब और्डर कर रखा था. मैं ने सोचा कि उन की योजना का सम्मान किया जाना चाहिए.“ और वह उस से नजरें चुरा कर तेजी से अपने कमरे की ओर चला गया था.

निभा की आंखें छलछला उठी थीं. निश्चल ने तो इस बारे में उस से कभी कुछ नहीं बताया. अब उसे अपना घर ही बदला बदला सा दिखाई पड़ रहा था. सबकुछ अनजाना, अनपहचाना सा लग रहा था. बस, बदला नहीं था तो उस का अपना कमरा.

वह देख रही थी कि जब से उस ने निशीथ को ‘पॉवर औफ एटौर्नी’ दी थी, उस के प्रति सब की निगाहें बदल सी गई थीं.

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“मम्मी जी, मैं जब से हौस्पिटल से लौट कर आई हूं, सुदेश काका मुझे नहीं दिखाई पड़ रहे हैं?”

मम्मी ने बताया, “निश्चल ने उसे बहुत सिर चढ़ा रखा था. एक दिन निशीथ के साथ वे बहस करते चले जा रहे थे. बस, उस को गुस्सा आ गया. अपने देवर को तो जानती ही हो कि उस की नाक पर गुस्सा रक्खा रहता है, उस ने कह दिया, ‘निकल जाओ और अपना मनहूस चेहरा यहां फिर मत दिखाना.’ वे भी चिल्ला कर बोले थे, ‘मालिक, हम तो बड़े भैया की वजह से यहां पर बने हुए थे, वरना मेरा लड़का तो मुझे कब से बुला रहा है.“ और वे अपना सामान ले कर चले गए, फिर लौट कर न तो फोन किया, न ही आए.”

यह सब सुन कर निभा दुखी हो गई थी. काका उन लोगों के दाहिने हाथ की तरह से थे, वे हर समय किसी भी काम के लिए तैयार रहते थे.

वह किचेन में गई तो उस का भी रंगरूप बदल चुका था. अब उस ने मौन रहना ही ठीक समझा. जहां उस का राजपाट था, अब वहां की मालकिन निशा बन चुकी थी. वह बच्चों के लिए दूध बनाने लगी तो बोर्नविटा नहीं दिखाई दिया. ”निशा, बोर्नविटा नहीं दिखाई दे रहा, उस का डब्बा कहां रखा है?”

“भाभी, बोर्नविटा तो खत्म हो गया है, कोई जरूरी थोड़े ही है कि बोर्नविटा डाल कर ही दूध पिया जाए. सादा दूध दे दीजिए.“ उस के भीतर कुछ दरक सा गया था.

उस ने चुपचाप बच्चों को दूध दिया और अपने कमरे में जा कर निश्चल की फोटो के सामने फफक पड़ी थी. जब नन्हें हाथों से रिनी और मिनी ने उस के आंसू पोछे तो उस ने दोनों को बांहों में भर लिया था.

नया नौकर प्रकाश निशा और मम्मीजी को पहचानता था लेकिन निभा को नहीं. निभा ने आवाज दी, “प्रकाश, बाजार से बोर्नविटा और 2 किलो सेब ले आना.”

“जी मैडम, रुपए दे दीजिए.“

वह यहांवहां बगलें झांकने लगी थी, तभी निशा तेजी से आई और एक फाइल उसे पकड़ा कर बोली, “प्रकाश, सर को पहले औफिस में यह फाइल दे कर आओ.”

निभा विस्फरित नेत्रों से सब देखती रह गई थी. वह मन ही मन कहने लगी, ‘प्लीज निश्चल, कुछ रास्ता दिखाइए ऐसे जिंदगी कैसे कटेगी…’

अगली सुबह प्रकाश बोर्नविटा का डब्बा और सेब की थैली उस को देते हुए बोला, “मैडमजी बोलीं हैं कि जो सामान चाहिए, एक दिन पहले बता दिया करिए, तभी आ पाएगा.“

यदि निशा या मम्मी जी कहतीं तो शायद उसे इतना बुरा न लगता लेकिन प्रकाश के यह कहने पर वह व्यथित हो उठी थी.

उसे घर आए लगभग 6 महीने से ज्यादा बीत चुका था. वह अपने लिए चाय बना रही थी. तभी निशा उसे सुनाने के लिए कह रही थी, ‘मम्मी जी, भाभी को समझा देना, अब भाईसाहब नहीं हैं और कोविड के कारण काम पहले जैसा नहीं चल रहा है, इसलिए अपनी राजशाही न दिखाया करें, सोचसमझ कर सामान मंगाया करें.’

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उस के दिल पर आघात पर आघात लगता जा रहा था. बच्चों के लिए बोर्नविटा नहीं, फल नहीं…

वह अपने कमरे में उदास बैठी थी. तभी मम्मी जी ने आवाज दी, “निभा, आज बूआ जी आ रही हैं. कोई हलके रंग का सूट पहन लेना. वे पुराने खयालों की हैं. माथे पर बिंदी भी मत लगाना.” समझदार के लिए इशारा काफी होता है. उस दिन उस ने अपने वार्डरोब से सारी रंगबिरंगी साड़ियां और सूट हटा दिए. फिर वह रो पड़ी… निश्चल, जब इतनी जल्दी आप को जाना था तो मेरे जीवन में इतने सारे रंग क्यों भर दिए थे.

अब तो सिलसिला चल निकला था. कभी बूआ तो कभी ताई तो कभी चाची- मिलने के नाम पर उसे रुलाने को आया करती थीं. वह कुछ नौर्मल होने की कोशिश करती कि फिर कोई आ धमकता और फिर वही गमगीन माहौल…

मम्मी जी का भी रवैया बदल गया था, “निभा, अब तुम निश्चल की विधवा हो. थोड़ा समझदारी से पहनाओढा करो. अब तुम्हारे हाथों में रंगबिरंगी चूड़ियों को देख कर लोग क्या कहेंगे. विधवा हो विधवा की तरह रहा करो.”

वे व्यंग्यबाण चला उस के अंतर्मन को लहुलुहान कर बाहर निकल रही थीं तभी निश्चल की बड़ी मौसी आ गईं. वे मम्मी जी पर नाराज हो कर बोलीं, “कैसी बात करती हो सुनैना, फूल सी बच्ची को ऐसा बोलते तुम्हारा जी नहीं दुखता?“ उन्होंने मम्मी जी के सामने ही उस के माथे पर बिंदी लगा दी थी और कहा, ”बेटी, तुम जैसे पहले रहतीं थीं वैसे ही रहा करो. सुनैना को तो तेरे से ज्यादा दूसरों की फिक्र हो रही है.” निभा उन के गले लग कर घंटों सिसकती रही थी.

आगे पढ़ें- सुबह के समय निशीथ निभा के कमरे में….

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प्रेम तर्पण: भाग 1- क्यों खुद को बोझ मान रही थी कृतिका

लेखिका- कीर्ति दीक्षित

डाक्टर ने जवाब दे दिया था, ‘‘माधव, हम से जितना बन पड़ा हम कर रहे हैं, लेकिन कृतिकाजी के स्वास्थ्य में कोईर् सुधार नहीं हो रहा है. एक दोस्त होने के नाते मेरी तुम्हें सलाह है कि अब इन्हें घर ले जाओ और इन की सेवा करो, क्योंकि समय नहीं है कृतिकाजी के पास. हमारे हाथ में जितना था हम कर चुके हैं.’’

डा. सुकेतु की बातें सुन कर माधव के पीले पड़े मुख पर बेचैनी छा गई. सबकुछ सुन्न सा समझने न समझने की अवस्था से परे माधव दीवार के सहारे टिक गया. डा. सुकेतु ने माधव के कंधे पर हाथ रख कर तसल्ली देते हुए फिर कहा, ‘‘हिम्मत रखो माधव, मेरी मानो तो अपने सगेसंबंधियों को बुला लो.’’ माधव बिना कुछ कहे बस आईसीयू के दरवाजे को घूरता रहा. कुछ देर बाद माधव को स्थिति का भान हुआ. उस ने अपनी डबडबाई आंखों को पोंछते हुए अपने सभी सगेसंबंधियों को कृतिका की स्थिति के बारे में सूचित कर दिया.

इधर, कृतिका की एकएक सांस हजारहजार बार टूटटूट कर बिखर रही थी. बची धड़कनें कृतिका के हृदय में आखिरी दस्तक दे कर जा रही थीं. पथराई आंखें और पीला पड़ता शरीर कृतिका की अंतिम वेला को धीरेधीरे उस तक सरका रहा था. कृतिका के भाई, भाभी, मौसी सभी परिवारजन रात तक दिल्ली पहुंच गए. कृतिका की हालत देख सभी का बुरा हाल था. माधव को ढाड़स बंधाते हुए कृतिका के भाई कुणाल ने कहा, ‘‘जीजाजी, हिम्मत रखिए, सब ठीक हो जाएगा.’’

तभी कृतिका को देखने डाक्टर विजिट पर आए. कुणाल और माधव भी वेटिंगरूम से कृतिका के आईसीयू वार्ड पहुंच गए. डा. सुकेतु ने कृतिका को देखा और माधव से कहा, ‘‘कोई सुधार नहीं है. स्थिति अब और गंभीर हो चली है, क्या सोचा माधव तुम ने ’’ ‘‘नहींनहीं सुकेतु, मैं एक छोटी सी किरण को भी नजरअंदाज नहीं कर सकता. तुम्हीं बताओ, मैं कैसे मान लूं कि कृतिका की सांसें खत्म हो रही हैं, वह मर रही है, नहीं वह यहीं रहेगी और उसे तुम्हें ठीक करना ही होगा. यदि तुम से न हो पा रहा हो तो हम दूसरे किसी बड़े अस्पताल में ले जाएंगे, लेकिन यह मत कहो कि कृतिका को घर ले जाओ, हम उसे मरने के लिए नहीं छोड़ सकते.’’

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सुकेतु ने माधव के कंधे को सहलाते हुए कहा, ‘‘धीरज रखो, यहां जो इलाज हो रहा है वह बैस्ट है. कहीं भी ले जाओ, इस से बैस्ट कोई ट्रीटमैंट नहीं है और तुम चाहते हो कि कृतिकाजी यहीं रहेंगी, तो मैं एक डाक्टर होने के नाते नहीं, तुम्हारा दोस्त होने के नाते यह सलाह दे रहा हूं. डोंट वरी, टेक केयर, वी विल डू आवर बैस्ट.’’

माधव को कुणाल ने सहारा दिया और कहा, ‘‘जीजाजी, सब ठीक हो जाएगा, आप हिम्मत मत हारिए,’’ माधव निर्लिप्त सा जमीन पर मुंह गड़ाए बैठा रहा. 3 दिन हो गए, कृतिका की हालत जस की तस बनी हुई थी, सारे रिश्तेदार इकट्ठा हो चुके थे. सभी बुजुर्ग कृतिका के बीते दिनों को याद करते उस के स्वस्थ होने की कामना कर रहे थे कि अभी इस बच्ची की उम्र ही क्या है, इस को ठीक कर दो. देखो तो जिन के जाने की उम्र है वे भलेचंगे बैठे हैं और जिस के जीने के दिन हैं वह मौत की शैय्या पर पड़ी है. कृतिका की मौसी ने हिम्मत करते हुए माधव के कंधे पर हाथ रखा और कहा, ‘‘बेटा, दिल कड़ा करो, कृतिका को और कष्ट मत दो, उसे घर ले चलो.

‘‘माधव ने मौसी को तरेरते हुए कहा, ‘‘कैसी बातें करती हो मौसी, मैं उम्मीद कैसे छोड़ दूं.’’

तभी माधव की मां ने गुस्से में आ कर कहा, ‘‘क्यों मरे जाते हो मधु बेटा, जिसे जाना है जाने दो. वैसे भी कौन से सुख दिए हैं तुम्हें कृतिका ने जो तुम इतना दुख मना रहे हो,’’ वे धीरे से फुसफुसाते हुए बोलीं, ‘‘एक संतान तक तो दे न सकी.’’ माधव खीज पड़ा, ‘‘बस करो अम्मां, समझ भी रही हो कि क्या कह रही हो. वह कृतिका ही है जिस के कारण आज मैं यहां खड़ा हूं, सफल हूं, हर परेशानी को अपने सिर ओढ़ कर वह खड़ी रही मेरे लिए. मैं आप को ज्यादा कुछ नहीं कहना चाहता इसलिए आप चुप ही रहो बस.’’

कृतिका की मौसी यह सब देख कर सुबकते हुए बोलीं, ‘‘न जाने किस में प्राण अटके पड़े हैं, क्यों तेरी ये सांसों की डोर नहीं टूटती, देख तो लिया सब को और किस की अभिलाषा ने तेरी आत्मा को बंदी बना रखा है. अब खुद भी मुक्त हो बेटा और दूसरों को भी मुक्त कर, जा बेटा कृतिका जा.’’ माधव मौसी की बात सुन कर बाहर निकल गया. वह खुद से प्रश्न कर रहा था, ‘क्या सच में कृतिका के प्राण कहीं अटके हैं, उस की सांसें किसी का इंतजार कर रही हैं. अपनी अपलक खुली आंखों से वह किसे देखना चाहती है, सब तो यहीं हैं. क्या ऐसा हो सकता है

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‘हो सकता है, क्यों नहीं, उस के चेहरे पर मैं ने सदैव उदासी ही तो देखी है. एक ऐसा दर्द उस की आंखों से छलकता था जिसे मैं ने कभी देखा ही नहीं, न ही कभी जानने की कोशिश ही की कि आखिर ये कैसी उदासी उस के मुख पर सदैव सोई रहती है, कौन से दर्द की हरारत उस की आंखों को पीला करती जा रही है, लेकिन कोईर् तो उस की इस पीड़ा का साझा होगा, मुझे जानना होगा,’ सोचता हुआ माधव गाड़ी उठा कर घर की ओर चल पड़ा. घर पहुंचते ही कृतिका के सारे कागजपत्र उलटपलट कर देख डाले, लेकिन कहीं कुछ नहीं मिला. कुछ देर बैठा तो उसे कृतिका की वह डायरी याद आई जो उस ने कई बार कृतिका के पास देखी थी, एक पुराने बकसे में कृतिका की वह डायरी मिली. माधव का दिल जोरजोर से धड़क रहा था.

कृतिका का न जाने कौन सा दर्द उस के सामने आने वाला था. अपने डर को पीछे धकेल माधव ने थरथराते हाथों से डायरी खोली तो एक पन्ना उस के हाथों से आ चिपका. माधव ने पन्ने को पढ़ा तो सन्न रह गया. यह पत्र तो कृतिका ने उसी के लिए लिखा था :

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प्रेम तर्पण: भाग 2- क्यों खुद को बोझ मान रही थी कृतिका

लेखिका- कीर्ति दीक्षित

‘प्रिय माधव,

‘मैं जानती हूं कि मैं तुम्हारे लिए अबूझ पहेली ही रही. मैं ने कभी तुम्हें कोई सुख नहीं दिया, न प्रेम, न संतान और न जीवन. मैं तुम्हारे लायक तो कभी थी ही नहीं, लेकिन तुम जैसे अच्छे पुरुष ने मुझे स्वीकार किया. मुझे तुम्हारा सान्निध्य मिला यह मेरे जन्मों का ही फल है, लेकिन मुझे दुख है कि मैं कभी तुम्हारा मान नहीं कर पाई, तुम्हारे जीवन को सार्थक नहीं कर पाई. तुम्हारी दोस्त, पत्नी तो बन गई लेकिन आत्मांगी नहीं बन पाई. मेरा अपराध क्षम्य तो नहीं लेकिन फिर भी हो सके तो मुझे क्षमा कर देना माधव, तुम जैसे महापुरुष का जीवन मैं ने नष्ट कर दिया, आज तुम्हारा कोई तुम्हें अपना कहने वाला नहीं, सिर्फ मेरे कारण.

‘मैं जानती हूं तुम ने मेरी कोई बात कभी नहीं टाली इसलिए एक आखिरी याचना इस पत्र के माध्यम से कर रही हूं. माधव, जब मेरी अंतिम विदाईर् का समय हो तो मुझे उसी माटी में मिश्रित कर देना जिस माटी ने मेरा निर्माण किया, जिस की छाती पर गिरगिर कर मैं ने चलना सीखा. जहां की दीवारों पर मैं ने पहली बार अक्षरों को बुनना सीखा.

जिस माटी का स्वाद मेरे बालमुख में कितनी बार जीवन का आनंद घोलता रहा. मुझे उसी आंगन में ले चलना जहां मेरी जिंदगी बिखरी है. ‘मैं समझती हूं कि यह तुम्हारे लिए मुश्किल होगा, लेकिन मेरी विनती है कि मुझे उसी मिट्टी की गोद में सुलाना जिस में मैं ने आंखें खोली थीं. तुम ने अपने सारे दायित्व निभाए, लेकिन मैं तुम्हारे प्रेम को आत्मसात न कर सकी. इस डायरी के पन्नों में मेरी पूरी जिंदगी कैद थी, लेकिन मैं ने उस का पहले ही अंतिम संस्कार कर दिया, अब मेरी बारी है, हो सके तो मुझे क्षमा करना.

‘तुम्हारी कृतिका.’

माधव सहम गया, डायरी के कोरे पन्नों के सिवा कुछ नहीं था, कृतिका यह क्या कर गई अपने जीवन की उस पूजा पर परदा डाल कर चली गई, जिस में तुम्हारी जिंदगी अटकी है. आज अस्पताल में हरेक सांस तुम्हें हजारहजार मौत दे रही है और हम सब देख रहे हैं. माधव ने डायरी के अंतिम पृष्ठ पर एक नंबर लिखा पाया, वह पूर्णिमा का नंबर था. पूर्णिमा कृतिका की बचपन की एकमात्र दोस्त थी. माधव ने खुद से प्रश्न किया कि मैं इसे कैसे भूल गया. माधव ने डायरी के लिखा नंबर डायल किया.

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‘‘हैलो, क्या मैं पूर्णिमाजी से बात कर रहा हूं, मैं उन की दोस्त कृतिका का पति बोल रहा हूं,‘‘

दूसरी तरफ से आवाज आई, ‘‘नहीं मैं उन की भाभी हूं. दीदी अब दिल्ली में रहती हैं.’’ माधव ने पूर्णिमा का दिल्ली का नंबर लिया और फौरन पूर्णिमा को फोन किया, ‘‘नमस्कार, क्या आप पूर्णिमाजी बोली रही हैं.’‘

‘‘जी, बोल रही हूं, आप कौन ’’

‘‘जी, मैं माधव, कृतिका का हसबैंड.’’

पूर्णिमा उछल पड़ी, ‘‘कृतिका. कहां है, वह तो मेरी जान थी, कैसी है वह  कब से उस से कोई मुलाकात ही नहीं हुई. उस से कहिएगा नाराज हूं बहुत, कहां गई कुछ बताया ही नहीं,’’ एकसाथ पूर्णिमा ने शिकायतों और सवालों की झड़ी लगा दी. माधव ने बीच में ही टोकते हुए कहा, ‘कृतिका अस्पताल में है, उस की हालत ठीक नहीं है. क्या आप आ सकती हैं मिलने ’’ पूर्णिमा धम्म से सोफे पर गिर पड़ी, कुछ देर दोनों ओर चुप्पी छाई रही. माधव ने पूर्णिमा को अस्पताल का पता बताया. ‘‘अभी पहुंचती हूं,’’ कह कर पूर्णिमा ने फोन काट दिया और आननफानन में अस्पताल के लिए निकल गई. माधव निर्णयों की गठरी बना कर अस्पताल पहुंच गया. कुछ ही देर बाद पूर्णिमा भी वहां पहुंच गई. डा. सुकेतु की अनुमति से पूर्णिमा को कृतिका से मिलने की आज्ञा मिल गई.

पूर्णिमा ने जैसे ही कमरे में प्रवेश किया, कृतिका को देख कर गिरतेगिरते बची. सौंदर्य की अनुपम कृति कृतिका आज सूखे मरते शरीर के साथ पड़ी थी. पूर्णिमा खुद को संभालते हुए कृतिका की बगल में स्टूल पर जा कर बैठ गई. उस की ठंडी पड़ती हथेली को अपने हाथ से रगड़ कर उसे जीवन की गरमाहट देने की कोशिश करने लगी. उस ने उस के माथे पर हाथ फेरा और कहा, ‘‘कृति, यह क्या कर लिया तूने  कौन सा दर्द तुझे खा गया  बता मुझे कौन सी पीड़ा है जो तुझे न तो जीने दे रही है न मरने. सबकुछ तेरे सामने है, तेरा परिवार जिस के लिए तू कुछ भी करने को तैयार रहती थी, तेरा उन का सगा न होना यही तेरे लिए दर्द का कारण हुआ करता था, लेकिन आज तेरे लिए वे किसी सगे से ज्यादा बिलख रहे हैं. इतने समझदार पति हैं फिर कौन सी वेदना तुझे विरक्त नहीं होने देती.’’ कृति की पथराई आंखें बस दरवाजे पर टिकी थीं, उस ने कोई उत्तर नहीं दिया.

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पूर्णिमा कृति के चेहरे के भावों को पढ़ने की कोशिश कर रही थी, कुछ देर उस की आंखों में उस की पीड़ा खोजते हुए पूर्णिमा ने धीरे से कहा, ‘‘शेखर, कृति की पथराई आंख से आंसू का एक कतरा गिरा और निढाल हाथों की उंगलियां पूर्णिमा की हथेली को छू गईं. पूर्णिमा ठिठक गई, अपना हाथ कृतिका के सिर पर रख कर बिलख पड़ी, तू कौन है कृतिका, यह कैसी अराधना है तेरी जो मृत्यु शैय्या पर भी नहीं छोड़ती, यह कौन सा रूप है प्रेम का जो तेरी आत्मा तक को छलनी किए डालता है.’’ तभी आवाज आई, ‘‘मैडम, आप का मिलने का समय खत्म हो गया है, मरीज को आराम करने दीजिए.’’

पूर्णिमा कृतिका के हाथों को उम्मीदों से सहला कर बाहर आ गई और पीछे कृतिका की आंखें अपनी इस अंतिम पीड़ा के निवारण की गुहार लगा रही थीं. उस की पुतलियों पर गुजरा कल एकएक कर के नाचने लगा था. कृतिका नाम मौसी ने यह कह कर रखा था कि इस मासूम की हम सब माताएं हैं कृतिकाओं की तरह, इसलिए इस का नाम कृतिका रखते हैं. कृतिका की मां उसे जन्म देते ही इस दुनिया से चल बसी थीं. मौसी उस 2 दिन की बच्ची को अपने साथ लेआई थीं, नानी, मामी, मौसी सब ने देखभाल कर कृतिका का पालन किया था. जैसेजैसे कृतिका बड़ी हुई तो लोगों की सहानुभूति भरी नजरों और बच्चों के आपसी झगड़ों ने उसे बता दिया था कि उस के मांबाप नहीं हैं. परिवार में प्राय: उसे ले कर मनमुटाव रहता था. कई बार यह बड़े झगड़े में भी तबदील हो जाता, जिस के परिणामस्वरूप मासूम छोटी सी कृतिका संकोची, डरी, सहमी सी रहने लगी. वह लोगों के सामने आने से डरती, अकसर चिड़चिड़ाया करती, लोगों की दया भरी दलीलों ने उस के भीतर साधारण हंसनेबोलने वाली लड़की को मार डाला था.

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प्रेम तर्पण: भाग 3- क्यों खुद को बोझ मान रही थी कृतिका

लेखिका- कीर्ति दीक्षित

कभी उसे बच्चे चिढ़ाते कि अरे, इस की तो मम्मी ही नहीं है ये बेचारी किस से कहेगी. मासूम बचपन यह सुन कर सहम कर रह जाता. यह सबकुछ उसे व्यग्र बनाता चला गया. बस, हर वक्त उस की पीड़ा यही रहती कि मैं क्यों इस परिवार की सगी नहीं हुई, धीरेधीरे वह खुद को दया का पात्र समझने लगी थी, अपने दिल की बेचैनी को दबाए अकसर सिसकसिसक कर ही रोया करती.

युवावस्था में न अन्य युवतियों की तरह सजनेसंवरने के शौक, न हंसीठिठोली, बस, एक बेजान गुडि़या सी वह सारे काम करती रहती. उस के दोस्तों में सिर्फ पूर्णिमा ही थी जो उसे समझती और उस की अनकही बातों को भी बूझ लिया करती थी. कृतिका को पूर्णिमा से कभी कुछ कहने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी. पूर्णिमा उसे समझाती, दुलारती और डांटती सबकुछ करती, लेकिन कृतिका का जीवन रेगिस्तान की रेत की तरह ही था.

कृतिका के घर के पास एक लड़का रोज उसे देखा करता था, कृतिका उसे नजरअंदाज करती रहती, लेकिन न जाने क्यों उस की आंखें बारबार कृतिका को अपनी ओर खींचा करतीं, कभी किसी की ओर न देखने वाली कृतिका उस की ओर खिंची चली जा रही थी.

उस की आंखों में उसे खिलखिलाती, नाचती, झूमती जिंदगी दिखने लगी थी, क्योंकि एक वही आंखें थीं जिन में सिर्फ कृतिका थी, उस की पहचान के लिए कोई सवाल नहीं था, कोई सहानुभूति नहीं थी. कृतिका के कालेज में ही पढ़ने आया था शेखर. कृतिका अब सजनेसंवरने लगी थी, हंसने लगी थी. वह शेखर से बात करती तो खिल उठती. शेखर ने उसे जीने का नया हौसला और पहचान से परे जीना सिखाया था. पूर्णिमा ने शेखर के बारे में घर में बताया तो एक नई कलह सामने आई. कृतिका चुपचाप सब सुनती रही. अब उस के जीवन से शेखर को निकाल दिया गया. कृतिका फिर बिखर गई, इस बार संभलना मुश्किल था, क्योंकि कच्ची माटी को आकार देना सहज होता है.

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कृतिका में अब शेखर ही था, महीनों कृतिका अंधेरे कमरे में पड़ी रही न खाती न पीती बस, रोती ही रहती. एक दिन नौकरी के लिए कौल लैटर आया तो परिवार वालों ने भेजने से इनकार कर दिया, लेकिन इस बार कृतिका अपने संकोच को तिलांजलि दे चुकी थी, उस ने खुद को काम में इस कदर झोंक दिया कि उसे अब खुद का होश नहीं रहता  परिवार की ओर से अब लगातार शादी का दबाव बढ़ रहा था, परिणामस्वरूप सेहत बिगड़ने लगी. उस के लिए जीवन कठिन हो गया था, पीड़ा ने तो उसे जैसे गोद ले लिया हो, रातभर रोती रहती. सपने में शेखर की छाया को देख कर चौंक कर उठ बैठती, उस की पागलों की सी स्थिति होती जा रही थी.

अब कृतिका ने निर्णय ले लिया था कि वह अपना जीवन खत्म कर देगी, कृतिका ने पूर्णिमा को फोन किया और बिलखबिलख कर रो पड़ी, ‘पूर्णिमा, मुझ से नहीं जीया जाता, मैं सोना चाहती हूं.’ पूर्णिमा ने झल्ला कर कहा, ‘हां, मर जा और उन लोगों को कलंकित कर जा जिन्होंने तुझे उस वक्त जीवन दिया था जब तेरे ऊपर किसी का साया नहीं था, इतनी स्वार्थी कैसे और कब हो गई तू  तू ने जीवन भर उस परिवार के लिए क्याक्या नहीं किया, आज तू यह कलंक देगी उपहार में ’

कृतिका ने बिलखते हुए कहा, ‘मैं क्या करूं पूर्णिमा, शेखर मेरे मन में बसता है, मैं कैसे स्वीकार करूं कि वह मेरा नहीं, मैं तो जिंदगी जानती ही नहीं थी वही तो मुझे इस जीवन में खींच कर लाया था. आज उसे जरा सी भी तकलीफ होती है तो मुझे एहसास हो जाया करता है, मुझे अनाम वेदना छलनी कर जाती है, मैं तो उस से नफरत भी नहीं कर पा रही हूं, वह मेरे रोमरोम में बस रहा है.’ पूर्णिमा बोली, ‘कृतिका जरूरी तो नहीं जिस से हम प्रेम करें उसे अपने गले का हार बना कर रखें, वह हर पल हमारे साथ रहे, प्रेम का अर्थ केवल साथ रहना तो नहीं. तुझे जीना होगा यदि शेखर के बिना नहीं जी सकती तो उस की वेदना को अपनी जिंदगी बना ले, उस की पीड़ा के दुशाले से अपने मन को ढक ले, शेखर खुद ब खुद तुझ में बस जाएगा. तुझ से उसे प्रेम करने का अधिकार कोई नहीं छीन सकता.

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कृतिका को अपने प्रेम को जीने का नया मार्ग मिल गया था, शेखर उस की आत्मा बन चुका था, शेखर की पीड़ा कृतिका को दर्द देती थी, लेकिन कृतिका जीती गई, सब के लिए परिवार की खुशी के लिए माधव से कृतिका का विवाह हो गया. माधव एक अच्छे जीवनसाथी की तरह उस के साथ चलता रहा, कृतिका भी अपने सारे दायित्वों को निभाती चली गई, लेकिन उस की आत्मा में बसी वेदना उस के जीवन को धीरेधीरे खा रही थी और वही पीड़ा उसे आज मृत्यु शैय्या तक ले आई थी, उसे ब्रेन हैमरेज हो गया था.

रात हो चली थी. नर्स ने आईसीयू के तेज प्रकाश को मद्धम कर दिया और कृतिका की आंखों में नाचता अतीत फिर वर्तमान के दुशाले में दुबक गया. पूर्णिमा ने माधव से कहा कि कृतिका को आप उस के घर ले चलिए मैं भी चलूंगी, मैं थोड़ी देर में आती हूं. पूर्णिमा ने घर आ कर तमाम किताबों, डायरियों की खोजबीन कर शेखर का फोन नंबर ढूंढ़ा और फोन लगाया, सामने से एक भारी सी आवाज आई, ‘‘हैलो, कौन ’’

‘‘हैलो, शेखर ’’

‘‘जी, मैं शेखर बोल रहा हूं.’’

‘‘शेखर, मैं पूर्णिमा, कृतिका की दोस्त.’’

कुछ देर चुप्पी छाई रही, शेखर की आंखों में कृतिका तैर गई. उस ने खुद को संभालते हुए कहा, ‘‘पूर्णिमा… कृतिका… कृतिका कैसी है ’’ पूर्णिमा रो पड़ी, ‘‘मर रही है, उस की सांसें उसी शेखर के लिए अटकी हैं जिस ने उसे जीना सिखाया था, क्या तुम उस के घर आ सकोगे कल ’’ शेखर सोफे पर बेसुध सा गिर पड़ा मुंह से बस यही कह सका, ‘‘हां.’’ कृतिका को ऐंबुलैंस से घर ले आया गया. घर के सामने लोगों की भीड़ जमा हो गई, सब की आंखों में उस माटी में खेलने वाली वह गुडि़या उतर आई, दरवाजे के पीछे छिप जाने वाली मासूम कृति आज अपनी वेदनाओं को साकार कर इस मिट्टी में छिपने आई थी.

दरवाजे पर लगी कृतिका की आंखों से अश्रुधार बह निकली, शेखर ने देहरी पर पांव रख दिया था, कृतिका की पुतलियों में जैसे ही शेखर का प्रतिबिंब उभरा उस की अंतिम सांसों के पुष्प शेखर के कदमों में बिखर गए और शेखर की आंखों से बहती गंगा ने प्रेम तर्पण कर कृतिका को मुक्त कर दिया.

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प्यार झुकता नहीं

लेखक- चितरंजन भारती

“एक जरूरी बात बतानी थी सुजाता” पटना से उसकी सहेली श्वेता बोल रही थी- “अरूण
को कोरोना हुआ है. बहुत सताया था न तुम्हें. अब भुगत रहा है.”
“पर मुझे क्या” वह लापरवाही से बोली- “अब तो तलाक की औपचारिकता भर रह गई
है. उसे मुझे भरण-पोषण का खर्च देना ही होगा.”
“और क्या! वह पीएमसीएच में भर्ती है. अब उसकी अकल ठिकाने लग जाएगी. अस्पताल
में अपनी साँसें गिन रहा है वो. ऑक्सीजन दिया जा रहा है उसे.”
“क्या बोली, अस्पताल में भर्ती है! होम कोरेन्टाइन में नहीं है वो?”
“नहीं, सिरियस कंडीशन थी. तभी तो हॉस्पीटल जाना पड़ गया.”

हाथ का काम छोड़ वह एकदम धम्म से बैठ गई. मोबाइल फोन गिरते-गिरते बचा. अरे,
ये क्या हुआ! उसने तो ऐसी उम्मीद नहीं की थी. वह तो बस इतना चाहती थी कि वह अपने
पुराने घर का मोह छोड़ किसी फ्लैट में शिफ्ट करे. वहाँ वह स्वतंत्रतापुर्वक रहेगी और घूमे-
फिरेगी. मगर अरूण ने बात का बतंगण बना दिया था. और उससे साफ-साफ कह दिया कि
उसको रहना है, तो रहे. अन्यथा कहीं और जाए. मैं अपनी माँ और छोटे भाई को छोड़ कहीं नहीं
जाने वाला. बाद में वह उसपर संदेह करने और बात-बात में उल्टे-सीधे आरोप लगाने लगा था.
यह विवाद इतना बढ़ गया कि उसका घर में रहना दूभर हो गया था. इसलिए वह तीन साल के
मुन्ने को ले अपने मायके सासाराम चली आई थी.

अरूण ने साफ-साफ कह दिया कि जब वह गई है, तो उसे बुलाने वाला भी नहीं. भैया
उससे बात करने गये, तो वह बोला- “ऐसी भी क्या जिद, जो घर छोड़ चली गई! माँ ने मुझे
किस तकलीफ से बड़ा किया है, यह मैं ही जानता हूँ. मैं उसे छोड़ नहीं सकता. हाँ, उसे छोड़
सकता हूँ. आप कह दीजिए कि वह तलाक के पेपर भेज दे. मैं साइन कर दूँगा.”
भैया भी उसे उल्टा-पुल्टा बोल वापस हो गये थे. और वकील से मिलकर उसके तलाक के
दस्तावेज तैयार करने लग गये थे.
साल भर से उसके तलाक का केस चल रहा है. वह उससे भरण-पोषण का खर्च भी
चाहती थी. और इसलिये अभी तक फैसला नहीं हुआ है. मगर ये क्या हो रहा है. अरूण के न
रहने से तो मुन्ना अनाथ हो जाएगा. और वह भी क्या कर लेगी? सोचा था कि कहीं कोई
नौकरी पकड़ लेगी. मगर नौकरी मिलना इतना आसान है क्या! और तलाकशुदा, परित्यक्ता औरत
को समाज किस नजर से देखता है, यह इतने दिनों में ही जान चुकी है.
वैसे सच तो यही है कि अरूण उसका काफी ख्याल रखता था. उसकी हर इच्छाओं को
मान दिया. मगर बाद में कभी विवाद होने पर खरी-खोटी भी सुनाने लगता था. मुन्ने के जन्म
के समय के बाद तो उसमें और परिवर्तन आने लगे थे. पता नहीं क्यों उसे शंका होने लगी थी
कि वह उसे अपनी माँ से अलग करना चाहती है. उस समय उसे भी तो इतना आभास नहीं था
कि बात बढ़ भी सकती है. और वह पलट कर जवाब देने से चूकती नहीं थी.

जिस सुख की तलाश में वह अपने घर आई थी, उसे कहाँ मिल पाया था. घर के सारे
दायित्वों को जैसे उसी पर मढ़ दिया गया है. और वह किचन की महाराजिन बन कर रह गई है.
भाभी तो जैसे उसे पाकर और निश्चिंत हो अपनी नौकरी करती और आराम फरमाती हैं. उधर
भैया भी कठोर हो गये हैं. किसी ने उनके कान भर दिये कि अब तो पैतृक संपत्ति में हिस्सा
बँटाने वाली आ गई है. पहले शाम को जब वह आते, तो मुन्ने के लिए कोई खिलौना या
चॉकलेट लाना नहीं भूलते थे. मगर अब वह खाली हाथ घर में घुसते और मुन्ने को घूरते हुए
अपने कमरे में चले जाते थे. एकाध बार उसने ‘मामा-मामा’ कहते उनके पीछे लगने की कोशिश
की, तो उसे बुरी तरह झिड़क दिया था. और तब से मुन्ना उनसे दूर ही रहता है. उसका बालपन
और चंचलता जैसे लुप्त हो गई है.
अब समय बीतने के साथ महसूस होता था कि कहीं कुछ गलत हो गया है. मगर अहं
किसी को झुकने देने को तैयार नहीं था. संवादहीनता तो थी ही. और बात जब तलाक के केस-
मुकदमों की हो गई, तो रही-सही आस की डोर भी टूट गई थी. जिस सुख की तलाश में वह यहाँ
आई थी, वह तो वक्त के कठोर मार से न जाने कहाँ गुम हो गया था.
मगर जब से उसने सुना है कि अरूण कोरोनाग्रस्त हो अस्पताल में भर्ती है, उसकी बेचैनी
बढ़ गई है. नहीं, वह उसे ऐसे कैसे छोड़ सकती है. वृद्धा सासू-माँ से अपना ही काम नहीं
सम्हलता, उसे कहाँ सम्हालेगी. छोटा भाई अभी किशोर ही है. ऐसे में उसे करना क्या चाहिए,
यह उसे असमंजस में डाले हुए था. उसकी आँखों में नींद नहीं थी. ऐसे समय में उसे कुछ करना
चाहिए कि नहीं.
यहाँ तो इस महामारी में लोग अनदेखे, अनजाने लोगों के लिए समाज-सेवा कर रहे हैं.
तो क्या वह अपने अकेले, असहाय परिचित की, अपने पति की सेवा नहीं कर सकती! वह तो
उसकी पत्नी रह चुकी है. क्या हुआ, यदि वह अपने अहं को थोड़ा झुका ही ले. मुन्ने के जन्म
के वक्त उसने कितनी दौड़-धूप की थी और रात-दिन एक कर दिया था. मुन्ने के जन्म के वक्त
उसका कहा उसे अभी तक याद है कि ‘डिलिवरी के बाद तुम्हारा ही नहीं, मेरा भी पुनर्जन्म हुआ
है सुजाता. तुम्हारे बिना तो मैं अकेले रहने की सोच भी नहीं सकता.’ और आज वह अस्पताल
में अकेले पड़ा है, तो क्या उसके बारे में उसे विचार नहीं करनी चाहिए. नहीं, उसे देखने-सम्हालने
के लिए उसे जाना ही चाहिए. इसी से वह मुक्ति पायेगी. उसके ठीक होने तक वहीं रह ले, तो
क्या बुरा है. इसमें किसी को कुछ कहने-सुनने का अवसर भी नहीं मिलेगा. आखिर वह किसी
अशक्त, बीमार की सेवा ही तो करना चाह रही है.
उसने सुबह-सुबह उठकर चुपचाप तैयारी कर ली और माँ से कहा- “अरूण बीमार है.
उसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है. यह सुनकर मेरा मन घबरा रहा है. मैं उसे देखने जा
रही हूँ.”

“तुम होश में तो हो! वहाँ तुम्हें कौन पूछेगा?” माँ बोली- “बात इतनी आगे बढ़ चुकी है
और तुम अपनी बेइज्जती कराने जा रही हो. इस समय लॉकडाउन है. गाड़ी-वाड़ी भी नहीं चल
रही है. जाओगी कैसे?”
“मैंने स्पेशल पास के लिये ऑनलाइन आवेदन किया था. और वह बनकर आ गया है.
और मैंने एक कार को भाड़े पर बुलाया है.”
अचानक बाहर कार के हॉर्न की आवाज सुनाई पड़ी, तो वह मुन्ने के साथ बाहर निकल
कार में बैठ कर माँ से बोली- “माँ, चिंता नहीं करना. एक पवित्र काम से जा रही हूँ. इसके लिए
मना नहीं करना.”
सासाराम से पटना की दो सौ मील की दूरी चार घंटे में पूरी कर जब वह शाम को
अरूण के कंकड़बाग स्थित निवास पर पहुँची, तो वहाँ सन्नाटा सा छाया था. उसकी सास उसे
देखते ही रो पड़ी और मुन्ने को गोद में लपककर उठा कलेजे से लगा लिया.
“भैया तो पीएमसीएच में तीन दिन से ऐडमिट हैं” देवर रघु बोला- “उनकी हालत ठीक
नहीं है.”
“मुझे अभी उन्हें देखने जाना है” वह बोली- “तुम मेरे साथ चलो.”
“अरे, कुछ खा-पी लो” सासू माँ बोली- “लंबी यात्रा कर आई हो. थकी होगी.”
“नहीं माँ, मुझे अभी देखने जाना होगा. मेरा मन बेचैन हो रहा है.” वह अधीर होती हुई
बोली- “आप मुन्ने को देख लेंगी. मैं मुन्ने को अस्पताल नहीं ले जाने वाली.”
“मुन्ने की चिंता मत करो. उसे मैं सम्हाल लूँगी.” वह बोलीं- “ठीक है, चली जाना. मगर
हाथ-मुँह धो कपड़े तो बदल लो. तबतक मैं चाय बना लाती हूँ.”
चाय पीकर वह देवर रघु के साथ बाहर निकली और ऑटो को भाड़े पर कर उसमें बैठ
गई. तबतक रघु ने अरूण को उसके आने की सूचना दे दी थी.
अरूण पीएमसीएच के कोरोना वार्ड में भर्ती था. डॉक्टर से मिलकर उसने उससे मिलने
की इच्छा व्यक्त की. डॉक्टर बोला- “अभी वह थोड़े बेहतर हैं. आप उनसे मिल सकती हैं. मगर
कोरोना वार्ड में पीपीई-किट्स पहनकर जाना होगा.”
उसने तुरंत पीपीई-किट्स पहना और नर्स द्वारा इंगित बेड के पास पहुँच गई. अरूण
काफी कमजोर हो चुका था. उसे ऑक्सीजन दिया गया था, जिससे उसका ऑक्सीजन लेवल
सामान्य पर आ गया था. मगर कोरोना बीमारी से संबंधित दूसरी जटिलताएँ तो थी ही. उसे
देखते ही अरूण के आँसू निकलने लगे थे.
“अब मैं आ गई हूँ.” वह उसे आश्वस्त करती बोली- “निश्चिंत रहो.तुम्हें कुछ नहीं होगा”
“मैं यहाँ मर जाऊँगा सुजाता” अरूण कराहते हुए बोला- “रोज मैं मरते हुए लोगों को यहाँ
से बाहर जाते देखता हूँ. मैं मरना नहीं चाहता. मुझे इस नर्क से बाहर निकालो. मैं घर जाना
चाहता हूँ.”

“मैं डॉक्टर से बात कर उनसे निवेदन करूँगी कि वह तुम्हें घर जाने की इजाजत दे दें.
अब मैं आ गई हूँ. और घर पर भी इलाज संभव है.”
डॉक्टर से बात करने पर वह बोले- “हाँ, खतरा तो टल गया है. होम आइसोलेशन कर भी
इनका इलाज किया जा सकता है. अगर घर में रखकर इनकी बेहतर देखभाल की जाए, तो
जल्दी स्वस्थ हो जाएँगे. आप चाहती हैं इन्हें ले जाना, तो मुझे इन्हें रिलिज करने में कोई
आपत्ति नहीं होगी.”
उसने पहले अपनी सास को फोन किया- “माँ जी, आप अरूण का कमरा तैयार रखिये. मैं
इन्हें लेकर घर आ रही हूँ.” इसके बाद रघु को फोन कर कहा कि वह तैयार रहे. उसके भैया को
घर ले जाने के लिए वह अस्पताल से बाहर निकल रही है.
“अरे, भैया ठीक हो गये!” रघु चकित होते पूछ बैठा- “देखा आपने. आपके आते ही वह
ठीक हो गये ना!”
“अभी ठीक नहीं हुए, बस खतरे से बाहर हुए हैं. ” वह गंभीर हो बोली- “पूरी तरह ठीक
तो वह घर पर ‘होम आइसोलेशन’ से होंगे.”
सुजाता ने रघु का सहयोग ले अरूण को सहारा दे एम्बुलेंस में सावधानी से बैठाया और
ड्राईवर को चलने का इशारा कर खुद बैठ गई.
घर पहुँचते ही अरूण को देख उसकी सास की रूलाई फूट पड़ी, तो वह उन्हें समझाते हुए
बोली- “अभी रोने का समय नहीं, उनके देखभाल का समय है. अब मैं आ गई हूँ, तो इन्हें ठीक
होना ही है. मैं इन्हें पूरी तरह स्वस्थ करूँगी.”
“तुम इसे अस्पताल से वापस ले आई, यही क्या कम है” वह बोलीं- “मैं तुम्हें क्या
आशीष दूँ बहू, जो तुम मेरे बेटे के साथ हो. अब यह ठीक हो जायेगा.”
अरूण को उसके कमरे में शिफ्ट करने के बाद वह बोली- “इनके कमरे में आने-जाने से
आपलोग परहेज रखेंगे. बात करनी हो, तो मास्क लगाकर दूर से ही बात कर लिया करें. और
जैसा कि डॉक्टर ने कहा है, आपलोग इनसे संबंधित कोई भी काम करने के उपरांत हाथों को
सैनिटाइज करें और साबुन से हाथ धो ले लिया करें. और हाँ, अब आप मुन्ने का ख्याल रखिये.
मैं उनके ठीक होने तक डॉक्टर के निर्देशानुसार उन्हीं का काम और देखभाल किया करूँगी. और
इसलिये आपलोग मुझसे भी सुरक्षित दूरी बनाकर रहिये.”
सुबह उठते ही अरूण के ध्यान-प्राणायम-योग से लेकर उसके पीने के गर्म पानी, काढ़ा
और भाप लेने की वह व्यवस्था करती. इसके बाद उसके स्नान-पौष्टिक भोजन आदि की
व्यवस्था कर उसे निश्चिंत कर ही वह अपने पर ध्यान देती थी. उसके उपयोग में आने वाले
कपड़ों चादर-तौलिया आदि तक को अच्छी तरह साबुन और गर्म पानी से धुलाई कर उसे सूखने
को देती. इसके उपरांत वह खुद के नहाने-धोने की व्यवस्था में लग जाती थी. अरूण के प्रति
निश्चिंत होने के बाद ही वह किचन का रूख करती थी.

पंद्रह दिनों की निरंतर सेवा-सुश्रुशा से अरूण के स्वास्थ्य में तेजी से सुधार हुआ था.
सोलहवें दिन उसने स्वयं के साथ उसका भी कोरोना-चेक करवाया था. अरूण कोरोना पोजिटिव
से निगेटिव हो चुका था. मगर अब सुजाता स्वयं संक्रमित हो कोरोना के चक्कर में आ चुकी थी.
“तुम घबराना नहीं सुजाता” अरूण उसे दिलासा देते हुए कहने लगा- “जैसे तुमने मेरी
सेवा की. उसी प्रकार मैं तुम्हारी देखभाल करूँगा. तुमने मुझे सेवा का अर्थ बताया. अब मैं उसे
पूरा करूँगा.”
और अब सुजाता होम आइसोलेशन में थी. मुन्ना हरदम अरूण की गोद में चढ़ा रहता
था. सुजाता की जरूरतों का सभी ख्याल रखते और उसके ठीक होने में हर संभव मदद पहुँचा रहे
थे. घर का सारा काम सभी मिल-जुलकर ऐसा निबटाते कि समय का पता ही नहीं चला कि कब
बीत गया.
अगले पखवाड़े जब उसकी जाँच हुई, तो वह निगेटिव हो चुकी थी.
“तुमने मुझे बचा लिया अरूण” वह मुस्कुराकर बोली, तो अरूण निश्चिंत भाव से बोला-
“मैंने तो सिर्फ अपने कर्तव्य का पालन किया है सुजाता. सच तो यही है कि तुम मुझे मृत्यु के
मुँह से वापस खींच लाई हो. तुम्हारे प्यार के वजह से मैं जिंदा बच गया.”
तभी अप्रत्याशित ढंग से अरूण के वकील का फोन आ गया- “आप स्वस्थ होकर घर
लौट आए, यह जानकर खुशी हुई है. इतने दिन आपको जानकारी नहीं दी थी. दरअसल आपका
केस जटिल हो गया है. अभी तो लॉकडाउन चल रहा है. लॉकडाउन खत्म होने पर संभवतः
इसकी सुनवाई अगले महीने की किसी तारिख को हो.”
“अब उसकी कोई जरूरत नहीं वकील साहब” अरूण हँसते हुए मुन्ने को प्यार करते, उसे
देखते हुए बोला- “अब हमें अपनी गलतफहमियों का अहसास हो गया है. अब हमें तलाक नहीं
चाहिए. मेरी जिंदगी मुझे वापस मिल गई है. इस कोरोना ने अहसास दिलाया कि अंततः हमें
अपना परिवार ही सुरक्षा प्रदान करता है. आप तलाक को कैंसिल कराने के लिए आवेदन कर दें.”
सुजाता का मौन जैसे उसे सहमति प्रदान कर रहा था. और अब वह सुजाता से मुखातिब
हो कह रहा था- “प्यार को झुकना ही होता है. अपनों की खातिर, अपने परिवार के खातिर यह
प्यार झुकना सिखाता है. इस कोरोना ने मुझे यही सीख दी है कि अपना परिवार कितना
महत्वपूर्ण है. अंत में वही काम आता है.”
सभी की आँखों में खुशी के आँसू थे.

GHKKPM: सम्राट के लिए पाखी बनी पारो! दिया जलाकर गाया ये गाना

स्टार प्लस के सीरियल ‘गुम है किसी के प्यार में’ (Ghum Hai Kisikey Pyaar Meiin) में इन दिनों नए-नए ट्विस्ट देखने को मिल रहे हैं. जहां विराट और सई हनीमून पर धीरे-धीरे एक-दूसरे के करीब आ रहे हैं तो वहीं चौह्वाण परिवार सम्राट का बेसब्री से इंतजार करता नजर आ रहा है. इसी बीच विराट के प्यार में पागल पाखी भी सम्राट के लिए पारो बनी नजर आई. आइए आपको दिखाते हैं वायरल वीडियो…

 सम्राट के इंतजार में पारो बनी पाखी

 

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अब तक आपने देखा कि सई और विराट की बढ़ती नजदीकियों के बीच सम्राट की धमाकेदार एंट्री हो चुकी है, जिसका खुलासा बौलीवुड एक्ट्रेस रेखा जी ने किया था. वहीं सम्राट की एंट्री होते ही पाखी विराट को भूलती नजर आ रही हैं. दरअसल, हाल ही में पाखी यानी एक्ट्रेस ऐश्वर्या शर्मा (Aishwarya Sharma) का एक वीडियो सोशलमीडिया पर वायरल हो रहा है, जिसमें देवदास (Devdas) की पारो की तरह पाखी दीया लेकर अपने प्यार की राह ताकती हुए नजर आ रही हैं. फैंस ये वीडियो देखने के बाद मजेदार रिएक्शन दे रहे हैं.

 

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ये भी पढे़ं- पाखी के बाद परितोष हुआ अनुपमा और परिवार के खिलाफ, कही ये बात

सम्राट से होगा विराट-सई का सामना

 

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अपकमिंग एपिसोड में आप देखेंगे कि सई, विराट को सम्राट के मिलने की बात कहेगी. साथ ही वह उसे अनाथ आश्रम ले जाएगी. जहां उसकी मुलाकात सम्राट से होगी, जिसके बाद विराट उसे चौह्वाण परिवार के पास वापस ले जाएगा. हालांकि सम्राट, पाखी को तलाक देने की बात कहते हुए विराट को उसकी जिम्मेदारी देता नजर आएगा, जिससे सई के पैरों तले जमीन खिसक जाएगा.

इसी बीत खबरे हैं कि पाखी को उसका हक देने के लिए सई अपने प्यार की कुर्बानी देगी, जिसके बाद देखना होगा कि सीरियल की कहानी में कौनसा नया मोड़ आता है.

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पाखी के बाद परितोष हुआ अनुपमा और परिवार के खिलाफ, कही ये बात

सीरियल अनुपमा में इन दिनों हाई वोल्टेज ड्रामा देखने को मिल रहा है. जहां काव्या, अनुपमा को पाखी से दूर करने की कोशिश कर रही है तो वहीं परितोष का बदला व्यवहार पूरे शाह परिवार को हैरान कर रहा है. इसी बीच अपकमिंग एपिसोड में परितोष अनुपमा और वनराज को उनकी परवरिश का कर्ज चुकाने की बात कहेगा. आइए आपको बताते हैं क्या होगा शो में आगे…

काव्या के पास जाती है अनुपमा

अब तक आपने देखा कि काव्या डांस कौम्पिटिशन में पाखी का साथ छोड़कर चली जाती है, जिसके बाद अनुपमा पाखी का साथ देकर उसके साथ डांस करती है. शाह परिवार मां-बेटी को साथ देखकर खुश हो जाता है. इस दौरान काव्या दोनों को साथ देखकर गुस्से में नजर आती है. वहीं डांस खत्म होने के बाद पाखी सभी के सामने अनुपमा से माफी मांगती है तो दूसरी तरफ अनुपमा काव्या को हाथ पकड़कर स्टेज पर ले जाती है, जिसे देखकर पूरा शाह परिवार डर जाता है.

 

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ये भी पढ़ें- पाखी ने अनुपमा से मांगी माफी तो गुस्से से लाल हुई काव्या

परितोष कहेगा ये बात

 

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अपकमिंग एपिसोड में आप देखेंगे कि अनुपमा, काव्या और पाखी के साथ कौम्पिटिशन की ट्रौफी शेयर करती है तो वहीं घर आकर पूरा परिवार काव्या को खरी खोटी सुनाता है. दूसरी तरफ दिन प्रतिदिन परितोष का बदला व्यव्हार अनुपमा और वनराज को हैरान कर देगा. दरअसल, परितोष, पूरे परिवार के सामने वनराज से कहेगा कि इस घर में किसी भी उड़ने की आजादी नहीं है, जिसे सुनकर वनराज कहेगा कि उसे पर और आसमान उन्होंने ही दिए हैं. वहीं ये बात सुनकर परितोष कहेगा कि वो उन्हें बता दें कि कितना खर्चा हुआ वो ब्याज के साथ सारे पैसे वापस दे देंगे, जिसके बाद अनुपमा उसे शांत रहने को कहेगी लेकिन वनराज गुस्से में कहेगा है कि वो पैसे वापस लौटाना चाहता है तो वो अपनी मां के आंसुओं, उसके पसीनों और बॉ-बाबू जी की दुआओं का कर्ज चुकाए, जिसके बाद अनुपमा बड़ा फैसला लेते हुए परितोष और किंजल को घर से जाने के लिए कहेगी.

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नीम और एलोवेरा का करें इस्तेमाल और पाएं खूूबसूरत स्किन केयर

हर मौसम में हमारी स्किन का टाइप थोड़ा बदल जाता है इसलिए हमें समय समय पर अपने स्किन केयर रूटीन में थोड़े बहुत बदलावों को शामिल करते रहना चाहिए. मानसून के मौसम में आपको पिंपल्स और एक्ने की समस्या हो जाती है इसलिए इस मौसम की संभव समस्याओं से बचने के लिए नीम और एलो वेरा का कॉम्बिनेशन बहुत बेहतर रहने वाला है. आप नीम से बनी चीजों जैसे ऑयल को अगर एलो वेरा जेल का प्रयोग करेंगी तो आपकी स्किन को मौसम भी प्रभावित नहीं कर पाएगा. इसलिए आइए जानते हैं इस मौसम में अगर आप अपने स्किन केयर रूटीन में नीम और एलो वेरा जेल को शामिल करती हैं तो आपको क्या क्या लाभ मिल सकते हैं.

 आपकी स्किन को पॉलिटेंट्स से बचाते हैं :

बारिश के मौसम में अधिक मात्रा में जर्म्स और बैक्टीरिया तो हो ही जाते हैं साथ में धूल मिट्टी भी अधिक फैल जाती है इसलिए आपकी स्किन को धूल और मिट्टी से साफ रखने के लिए और अपनी स्किन को सूद करने के लिए एलो वेरा और नीम एक बहुत अच्छा काम करते है. नीम के अंदर एंटी इन्फ्लेमेटरी और एंटी बैक्टेरियल गुण होते हैं जो आपकी स्किन को जर्म्स आदि से भी दूर रखते हैं.

 आपकी स्किन को नरिश करने में भी लाभदायक :

नीम आपकी स्किन को आवश्यक पोषण प्रदान करता है जिससे आपकी स्किन हेल्दी रहती है. नीम के कारण आपकी स्किन का ऑयल भी मेंटेन रहता है जिससे आपकी स्किन अधिक ऑयली नहीं होती है. इसलिए यह आपकी स्किन को अच्छे से क्लींज करने के साथ साथ नरिश भी करता है.

 आपकी स्किन को डेमेज होने से बचाते हैं :

नीम और एलो वेरा जेल में विटामिन ए, सी और ई होते हैं जिनमें कुछ ऐसे एंटी ऑक्सीडेंट्स होते हैं जो आपकी स्किन को फ्री रेडिकल्स से होने वाले डेमेज के कारण बचाते हैं. इन गुणों के कारण अपनी स्किन सेल्स द्वारा रिलीज किए जाने वाले वेस्ट से होने वाले डेमेज से भी बच जाती है.

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 स्किन को ब्रेक आउट होने से बचाते हैं :

नीम और एलो वेरा के कॉम्बिनेशन से आपकी स्किन ब्रेक आउट होने से बचती है क्योंकि यह आपकी स्किन में होने वाले एक्सेस ऑयल को नियंत्रित करता है जिसकी वजह से आपको पिंपल्स आदि होते हैं. अगर आपकी स्किन में ऑयल इक्कठा नहीं होगा और आपकी स्किन क्लीन भी रहेगी जिससे पिंपल्स आदि नहीं होते हैं.

 आपकी स्किन के ओवर ऑल टेक्सचर को बढ़ाते हैं :

यह दोनों इंग्रेडिएंट्स एक साथ मिलने पर आपके स्किन के ओवर ऑल टेक्सचर को इंप्रूव करते हैं. यह आपकी स्किन पर रेडनेस आदि आने से भी बचाते हैं और आपकी स्किन पर सर्फेस बिल्ड अप होने से भी रोकते हैं. इस प्रकार आपकी स्किन की गुणवत्ता बहुत अधिक बढ़ जाती है.

 आपकी स्किन को हाइड्रेट करते हैं :

जब मौसम में नमी होती है तो आपकी स्किन भी डिहाइड्रेटेड रहती है और आप भी अधिक पानी नहीं पी पाती है लेकिन नीम और एलो वेरा को स्किन केयर में शामिल करना आपकी स्किन के प्राकृतिक हाइड्रेशन को बूस्ट करता है. यह इंग्रेडिएंट्स आपकी स्किन को ग्रीसी होने से भी बचाते हैं.

 स्किन इंफेक्शन से बचाते हैं :

नीम में ऐसे एंटी बैक्टेरियल गुण होते हैं जो आपकी स्किन को किसी भी तरह के इंफेक्शन से बचाने में लाभदायक माने जाते हैं. अगर आप बारिश के पानी में भीग जाती हैं तो इस समय होने वाले बैक्टेरियल इंफेक्शन से बचने के लिए आपको नीम के पानी में नहा लेना चाहिए.

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निष्कर्ष

नीम और एलो वेरा जेल दोनों में ही ऐसे विटामिन और एंटी ऑक्सीडेंट्स मौजूद होते हैं जो आपकी स्किन के लिए बहुत अधिक लाभदायक होते हैं इसलिए इस मौसम में आप को इन दोनों ही इंग्रेडिएंट्स का प्रयोग जरूर करना चाहिए.

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