Online Story 2025 : मोह का जाल

Online Story 2025 :  ‘‘तनु बेटा, जा कर तैयार हो जा. वे लोग आते ही होंगे,’’ मां ने प्यारभरी आवाज में मनुहार करते हुए कहा. ‘‘मां, मैं कितनी बार कह चुकी हूं कि मैं विवाह नहीं करूंगी. मुझे पसंद नहीं है यह देखने व दिखाने की औपचारिकता. मां, मान भी लो कि यह रिश्ता हो गया, तो क्या मैं सुखी वैवाहिक जीवन बिता पाऊंगी? जब भी उन्हें पता चलेगा कि मैं एक गंभीर बीमारी से ग्रस्त हूं तो क्या वे मुझे…’’ मैं आवेश में कांपती आवाज में बोली.

‘‘बेटा, तू ने मन में भ्रम पाल लिया है कि तुझे गंभीर बीमारी है. प्रदूषण के कारण आज हर 10 में से एक व्यक्ति इस बीमारी से पीडि़त है. दमा रोग आज असाध्य नहीं है. उचित खानपान, रहनसहन व उचित दवाइयों के प्रयोग से रोग पर काबू पाया जा सकता है. अनेक कुशल व सफल व्यक्ति भी इस रोग से ग्रस्त पाए गए हैं. ज्यादा तनाव, क्रोध इस रोग की तीव्रता को बढ़ा देते हैं. हमारे खानदान में तो यह रोग किसी को नहीं है, फिर तू क्यों हीनभावना से ग्रस्त है?’’ मां ने समझाते हुए कहा.

‘‘तुम इस बीमारी के विषय में उन लोगों को बता क्यों नहीं देतीं,’’ मैं ने सहज होने का प्रयत्न करते हुए कहा.

‘‘तू नहीं जानती है, बेटी, तेरे डैडी ने 1-2 जगह इस बात का जिक्र किया था, किंतु बीमारी का सुन कर लड़के वालों ने कोई न कोई बहाना बना कर चलती बात को बीच में ही रोक दिया,’’ असहाय मुद्रा में मां बोलीं.

‘‘लेकिन मां, यह तो धोखा होगा उन के साथ.’’

‘‘बेटा, जीवन में कभीकभी कुछ समझौते करने पड़ते हैं, जिन्हें करने का हम प्रयास कर रहे हैं.’’ लंबी सांस से ले कर मां फिर बोलीं, ‘‘इतनी बड़ी जिंदगी किस के सहारे काटेगी? जब तक हम लोग हैं तब तक तो ठीक है, भाई कब तक सहारा देेंगे? अपने लिए नहीं तो मेरे और अपने डैडी की खातिर हमारे साथ सहयोग कर बेटा. जा, जा कर तैयार हो जा,’’ मां ने डबडबाई आंखों से कहा.

कुछ कहने के लिए मैं ने मुंह खोला किंतु मां की आंखों में आंसू देख कर होंठों से निकलते शब्द होंठों पर ही चिपक गए. अनिच्छा से मैं तैयार हुई. मन कह रहा था कि किसी को धोखा देना अपराध है. मन की बात मन में ही रह गई. भाई रंजन ने आ कर बताया कि वे लोग आ गए हैं. मां और डैडी स्वागत के लिए दौड़े. 2 घंटे कैसे बीते, पता ही नहीं चला. मनुज अत्यंत आकर्षक, हंसमुख व मिलनसार लगा. लग ही नहीं रहा था कि हम पहली बार मिल रहे हैं. पहली बार मन में किसी को जीवनसाथी के रूप में प्राप्त करने की इच्छा जाग्रत हुई.

वे लोग चले गए, किंतु मेरे मन में उथलपुथल मच गई. क्या वे मुझे स्वीकार करेंगे? यदि स्वीकार कर भी लिया तो कच्ची डोर से बंधा बंधन कब तक ठहर पाएगा?

2 दिनों बाद फोन पर रिश्ते को स्वीकार करने की सूचना मिली तो बिना त्योहार के ही घर में त्योहार जैसी खुशियां छा गईं. डैडी बोले, ‘‘मैं जानता था रिश्ता यहीं तय होगा. कितना भला व सुशील लड़का है मनुज.’’

किंतु मैं खुश नहीं थी. जनमजनम के इस रिश्ते में पारदर्शिता अत्यंत आवश्यक है, सो, पता प्राप्त कर चुपके से एक पत्र मनुज के नाम लिख कर डाल दिया. धड़कते दिल से उत्तर की प्रतीक्षा करने लगी.

एक हफ्ता बीता, 2 हफ्ते बीते, यहां तक तीसरा भी बीत गया. उस के पत्र का कोई उत्तर नहीं आया. मनुज का विशाल व्यक्तित्व खोखला लगने लगा था. स्वप्न धराशायी होने लगे थे कि एक दिन कालेज से लौटी तो दरवाजे की कुंडी में 3-4 पत्रों के साथ एक गुलाबी लिफाफा था. उस का भविष्य इसी लिफाफे में कैद था. जीवन में खुशियां आने वाली हैं या अंधेरा, एक छोटा सा कागज का टुकड़ा निर्णय कर देगा. पत्र खोल कर पढ़ने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी.

‘प्यारी तनु,मां आज किटी पार्टी में गई थीं. सो, बैग से चाबी निकाल कर ताला खोला. कड़कड़ाती ठंड में भी माथे पर पसीने  कीबूंदें झलक आई थीं. स्वयं को संयत करते हुए पत्र खोला. लिखा था :

तुम्हें जीवनसाथी के रूप में प्राप्त  कर मेरा जीवन धन्य हो जाएगा. तुम बिलकुल वैसी ही हो जैसी मैं ने कल्पना की थी.’

मन में अचानक अनेक प्रकार के फूल खिल उठे, सावन के बिना ही जीवन में बहार आ गई. चारों ओर सतरंगी रंग छितर कर तनमन को रंगीन बनाने लगे. मैं ने भी उन के पत्र का उत्तर दे दिया था.

2 महीने के अंदर ही वैदिक मंत्रों के मध्य अग्नि को साक्षी मान कर मेरा मनुज से विवाह हो गया. दुखसुख में जीवनभर साथ निभाने के कसमेवादों के साथ जीवन के अंतहीन पथ पर चल पड़ी. विदाई के समय मां का रोरो कर बुरा हाल था. चलते समय मनुज से बोली थीं, ‘‘बेटा, नाजुक सी छुईमुई कली है मेरी बेटी, कोई गलती हो जाए तो छोटा समझ कर माफ कर देना.’’

मेरी आंखें रो रही थीं किंतु मन नवीन आकांक्षाओं के साथ नए पथ पर छलांग मारने को आतुर था. कानपुर से फैजाबाद आते समय मनुज ने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया था तथा धीरेधीरे सहला रहे थे, और मैं चाह कर भी नजरों से नजरें मिलाने में असमर्थ थी. कैसा है यह बंधन… अनजान सफर में अनजान राही के साथ अचानक तनमन का एकाकार हो जाना, प्रेम और अपनत्व नहीं, तो और क्या है.

ससुराल में खूब स्वागत हुआ. सास सौतेली थीं, किंतु उन का स्वभाव अत्यंत मोहक व मृदु लगा. कुछ ने कहा कि कमाऊ बेटा है इसीलिए उस की बहू का इतना सत्कार कर रही हैं. यह सुन कर सौम्य स्वभाव, मृदुभाषिणी सास के चेहरे पर दुख की लकीरें अवश्य आईं, किंतु क्षण भर पश्चात ही निर्विकार मूर्ति के सदृश प्रत्येक आएगए व्यक्ति की देखभाल में जुट जातीं.

ननद स्नेहा भी दिनभर भाभीभाभी कहते हुए आगेपीछे ही घूमती. कभी नाश्ते के लिए आग्रह करती तो कभी खाने के लिए. प्रत्येक आनेजाने वाले से भी परिचय करवाती. मनुज भी किसी न किसी काम के बहाने कमरे में ही ज्यादा वक्त गुजारते. मित्र कहते, ‘‘वह तो गया काम से. अभी से यह हाल है तो आगे क्या होगा?’’ मन चाहने लगा था, काश, वक्त ठहर जाए, और इसी तरह हंसीखुशी से सदा मेरा आंचल भरा रहे.

पूरे हफ्ते घूमनाफिरना लगा रहा. 2 दिनों बाद ऊटी जाने का कार्यक्रम था. देर रात्रि मनुज के अभिन्न मित्र के घर से हम खाना खा कर आए. पता नहीं ठंड लग गई या खानेपीने की अनियमितता के कारण सुबह उठी तो सांस बेहद फूलने लगी.

‘‘क्या बात है? तुम्हारी सांस कैसे फूलने लगी? क्या पहले भी ऐसा होता था?’’ मुझे तकलीफ में देख कर हैरानपरेशान मनुज ने पूछा.

‘‘मैं ने अपनी बीमारी के बारे में आप को पत्र लिखा था,’’ प्रश्न का समाधान करते हुए मैं ने कहा.

‘‘पत्र, कौन सा पत्र? तुम्हारे पत्र में बीमारी के बारे में तो जिक्र ही नहीं था.’’

लगा, पृथ्वी घूम रही है. क्या इन को मेरा पत्र नहीं मिला? मैं तो इन का पत्र प्राप्त कर यही समझती रही कि मेरी कमी के साथ ही इन्होंने मुझे स्वीकारा है. तनाव व चिंता के कारण घबराहट होने लगी थी. पर्स खोल कर दवा ली, लेकिन जानती थी रोग की तीव्रता 2-3 दिन के बाद ही कम होगी. दवा के रूप में प्रयुक्त होने वाला इनहेलर शरम व झिझक के कारण नहीं लाई थी. यदि किसी ने देख लिया और पूछ बैठा तो क्या उत्तर दूंगी.

बीमारी को ले कर इन्होंने घर सिर पर उठा लिया. इन का रौद्ररूप देख कर मैं दहल गई थी. आखिर गलती हमारी ओर से हुई थी. बीमारी को छिपाना ही भयंकर सिद्ध हुआ था. मेरा लिखा पत्र डाक एवं तार विभाग की गड़बड़ी के कारण इन तक नहीं पहुंच पाया था.

‘‘बेटा, आजकल के समय में कोई भी रोग असाध्य नहीं है. हम बहू का इलाज करवाएंगे. तुम क्यों चिंता करते हो?’’ मनुज को समझाते हुए सासससुर बोले.

‘‘पिताजी, मैं इस के साथ नहीं रह सकता. मैं ने एक सर्वगुणसंपन्न व स्वस्थ जीवनसाथी की तलाश की थी न कि रोगी की. क्या मैं इस की लाश को जीवनभर ढोता रहूंगा? अभी यह हाल है तो आगे क्या होगा?’’ कड़कती मुद्रा में ये बोले.

‘‘पापा, भैया ठीक ही तो कह रहे हैं,’’ स्नेहा, मेरी ननद ने भाई का समर्थन करते हुए कहा.

‘‘तुम चुप रहो. अभी छोटी हो, शादीविवाह कोई बच्चों का खेल नहीं है जो तोड़ दिया जाए,’’ पितासमान ससुरजी ने स्नेहा को डांटते हुए कहा.

‘‘मैं कल ही अपने काम पर लौट रहा हूं.’’ कुछ कहने को आतुर अपने पिता को चुप कराते हुए, मनुज घर से चले गए.

मनुज की बातों से व्याकुल सास मेरे पास आईं. मेरी आंखों से बहते आंसुओं को अपने आंचल से पोंछते हुए बोलीं, ‘‘बेटी घबरा मत, सब ठीक हो जाएगा. बेवकूफ लड़का है, इतना भी नहीं समझता कि बीमारी कभी भी किसी को भी हो सकती है. इस की वजह से विवाह जैसे पवित्र संबंध को तोड़ा नहीं जा सकता. हां, इतना अवश्य है कि राजेंद्र भाईसाहब को बीमारी के संबंध में छिपाना नहीं चाहिए था.’’

‘‘मांजी, मम्मीपापा ने छिपाया अवश्य था, किंतु मैं ने इन्हें सबकुछ सचसच लिख दिया था. इन का पत्र प्राप्त कर मैं समझी थी कि इन्होंने मेरी बीमारी को गंभीरता से नहीं लिया है, वरना मैं विवाह ही नहीं करती,’’ कहतेकहते आंचल में मुंह छिपा कर मैं रो पड़ी थी.

डाक्टर भी आ गए थे. रोग की तीव्रता को देख कर इंजैक्शन दिया तथा दवा भी लिखी. रोग की तीव्रता कम होने लगी थी, किंतु इन के जाने की बात सुन कर मन अजीब सा हो गया था. सारी शरम छोड़ कर सासूजी से कहा, ‘‘मम्मी, क्या ये एक बार, सिर्फ एक बार मुझ से बात नहीं कर सकते?’’

सासुमां ने मनुज से आग्रह भी किया, किंतु कोई भी परिणाम न निकला. जाते समय मैं भी सब के साथ बाहर आई. इन्होंने मां और पिताजी के पैर छुए, बहन को प्यार किया और मेरी ओर उपेक्षित दृष्टि डाल कर चले गए. सासुमां ने दिलासा देते हुए मेरे कंधे पर हाथ रखा तो मैं विह्वल स्वर में बोल उठी, ‘‘मां, मेरा क्या होगा?’’

आदमी इतना तटस्थ हो सकता है, मैं ने स्वप्न में भी कभी नहीं सोचा था. विगत एक हफ्ते में हम ने कुछ अंतरंग क्षण व्यतीत किए थे, कुछ सपने बुने थे, सुखदुख में साथ रहने की कसमें खाई थीं, क्या वह सब झूठ था?

डैडी को पता चला तो वे भी आए. उन के उदास चेहरे पर मैं नजर भी न डाल सकी. कितने प्रयत्न, कितनी खुशी से संबंध तय किया था, क्या सिर्फ एक हफ्ते के लिए?

‘‘दिवाकरजी, आप मनुज को समझा कर देखिए. यह रोग भयंकर रोग तो है नहीं, मैं सच कहता हूं, हमारे यहां न मेरी तरफ और न ही इस की मां की तरफ किसी को यह रोग है. सो, यदि प्रयास किया जाए तो ठीक हो सकता है,’’ गिड़गिड़ाते हुए डैडी बोले.

‘‘भाईसाहब, अपनी तरफ से तो मैं पूर्ण प्रयास करूंगा पर नई पीढ़ी को तो आप जानते ही हैं, यह सदा अपने मन की ही करती है,’’ मेरे ससुरजी डैडी को दिलासा देते हुए बोले.

मैं डैडी के साथ अपने घर वापस लौट आई. इस तरह एक हफ्ते में सारे सुख और दुख मेरे आंचल में आ गिरे थे. इस जीवन का क्या होगा? यह प्रश्न बारबार जेहन में उभर रहा था. मां मेरे लौट आने के बाद गुमसुम हो गई थीं. डैडी अब देर से घर लौटते थे. शायद कोई भी एकदूसरे से नजर मिलाने का साहस नहीं कर पा रहा था.

मैं विश्वविद्यालय की पढ़ाई करना नहीं चाहती थी. 2 बार प्रीमैडिकल परीक्षा में असफल होने के पश्चात एक बार फिर प्रीमैडिकल परीक्षा में सम्मिलित होने का निर्णय सुनाया तो सभी ने स्वागत किया. परीक्षा का फौर्म भरते समय नाम के आगे कुमारी शब्द देख कर मम्मी व डैडी बिगड़ उठे, किंतु, भाई रंजन ने मेरे समर्थन में आवाज उठाई, बोले, ‘‘ठीक ही तो है. उस संबंध को लाश की तरह उठाए कब तक फिरेगी?’’

एक महीने पश्चात मनुज ने अपने वकील के माध्यम से तलाक के लिए नोटिस भिजवाया. मांपिताजी ने हस्ताक्षर करने से मना किया, किंतु मैं ने दृढ़ स्वर में कहा, ‘‘पतिपत्नी का संबंध मन व आत्मा से होता है. यदि मन ही एकाकार नहीं हुए तो टूटी डोर में गांठ बांधने से क्या फायदा,’’ और कागज पर हस्ताक्षर कर दिए.

जीवन में अब न कोई उमंग थी और न ही तरंग. किसी पर भार बन कर रहना नहीं चाहती थी. सो, प्रीमैडिकल में सफल होना प्रथम और अंतिम ध्येय बन गया था. समय कम था. मन को पढ़ाई में एकाग्र किया. परीक्षा हुई और परिणाम निकला. सफल प्रतियोगियों में मैं अपना नाम देख कर खुशी से झूम उठी.

मम्मीडैडी के उदास चेहरों पर एक बार फिर खुशी झलकने लगी थी और मुझे मेरी मंजिल मिल गई थी.

5 वर्ष की पढ़ाई पूरी हुई. मैं लड़कियों में प्रथम रही थी. योग्यता के कारण सरकारी सेवा में नियुक्ति हो गई. पूरे दिन रोगियों की सेवा करती तो अलग तरह के आनंद की प्राप्ति होती. कभीकभी लगता वह जीवन क्षणमात्र के लिए था. मेरा जन्म तो इसी के लिए हुआ है. कभी फ्लोरेंस नाइटिंगेल से अपनी तुलना करती तो कभी जौन औफ आर्क से, मन में छाया कुहासा पलभर में दूर हो जाता और कर्तव्यपथ पर कदम स्वयं बढ़ने लगते.

एक दिन अस्पताल में बैठी रोगियों को देख रही थी कि एक युगल ने कमरे में प्रवेश किया. मैं उस जोड़े को देख कर चौंक गई, किंतु चेहरे पर आए परिवर्तन पर यथासंभव अंकुश लगा लिया.

‘‘कहिए, क्या तकलीफ है आप को?’’ मैं ने सामान्य होते हुए पूछा.

‘‘आप इन का चैकअप कर लीजिए. चलनेफिरने में तकलीफ होती है, पैरों में सूजन भी है,’’ युवक ने कहा.

‘‘चलिए,’’ उठते हुए मैं ने कहा व बगल के कमरे में ले जा कर युवती का पूरा चैकअप किया और फिर बताया, ‘‘कोई परेशानी की बात नहीं है, इन्हें उच्च रक्तचाप है. इसी कारण पैरों में सूजन है. दवा लिख रही हूं, समय पर देते रहिएगा. बच्चा होने तक लगातार हर 15 दिन बाद चैकअप करवाते रहिएगा.’’

‘‘जी, डाक्टर.’’

‘‘नाम?’’ दवाई का परचा लिखते हुए मैं ने पूछा.

‘‘ऋचा शर्मा,’’ उत्तर युवती ने दिया.

परचे पर नाम लिखते समय न जाने क्यों हाथ कांप गया था. कुछ दवाएं व टौनिक लिख कर दिए. साथ में कुछ हिदायतें भी. वे दोनों उठ कर चले गए, किंतु दिल में हलचल मचा गए. उस दिन, दिनभर व्यग्र रही. बारबार अतीत आ कर कुरेदने लगा. जो चीज मैं पीछे छोड़ आई थी, वह क्यों फिर से मुझे बेचैन करने लगी थी. मैं ने अलमारी से वह फोटो निकाली जो विवाह के दूसरे दिन जा कर खिंचवाई थी. देख कर मैं बुदबुदा उठी थी, ‘तुम क्यों मेरे शांत जीवन में हलचल मचाने आ गए. मैं ने तुम से कुछ नहीं मांगा. तुम ने साथ चलने से इनकार कर दिया तो मैं ने अपनी राह स्वयं बना ली. तुम इस राह में फिर क्यों आ गए. कितना त्याग और बलिदान चाहते हो?’ रात अशांति में, बेचैनी में गुजरी. सुबह उठी तो रातभर जागने के कारण आंखें बोछिल थीं. अस्पताल जाने की इच्छा नहीं हो रही थी, किंतु फिर भी यह सोच कर तैयार हुई कि कार्य में व्यस्त रहने पर मन शांत रहता है.

अस्पताल में कमरे के बाहर मनुज को प्रतीक्षारत पाया तो कदम लड़खड़ा गए. किंतु सहज बनने का अभिनय करते हुए उन्हें अनदेखा कर अपने कमरे में जा कर कुरसी पर बैठ गई. मनुज भी मेरे पीछेपीछे आए थे.

‘‘माफ कीजिएगा, आप तनुजा हैं न?’’ लड़खड़ाते शब्दों में उन्होंने पूछा.

‘‘क्यों, आप को कुछ शक है क्या?’’ तेज निगाहों से देखते हुए मैं ने पूछा.

‘‘मैं ने तुम्हारे साथ कठोर व्यवहार व अन्याय किया है, जिसे मैं कभी भूल नहीं पाया. कल तुम्हें देखने के बाद से ही मैं पश्चात्ताप की अग्नि में जल रहा हूं. मुझे माफ कर दो, तनु.’’

‘‘तनु नहीं, कुमारी तनुजा कहिए और बाहर आप मेरे नाम की तख्ती देख लीजिए,’’ निर्विकार मुद्रा में बोली थी मैं. ‘‘आप की पत्नी की तबीयत अब कैसी है? उन का खयाल रखिएगा और हो सके तो प्रत्येक 15 दिन बाद परीक्षण करवाते रहिएगा,’’ कह कर मैं ने घंटी बजा दी, ‘‘मरीजों को अंदर भेज दो,’’ चपरासी को निर्देश देती हुई बोली.

‘‘अच्छा, मैं चलता हूं, तनु,’’ मनुज ने मेरी ओर आग्रहपूर्वक देखते हुए कहा.

‘‘तनु नहीं, कुमारी तनुजा,’’ मैं ने कुमारी शब्द पर थोड़ा जोर देते हुए तीव्र स्वर में कहा. और लड़खड़ाते कदमों से मनुज चले गए.

मैं देखती रह गई. क्या यह वही व्यक्ति है जिस ने मुझे मझधार में डूबने के लिए छोड़ दिया था. किंतु यह इस समय इतना निरीह क्यों? इतना दयनीय क्यों? क्या यह सिर्फ मेरे पद के कारण है या इस के जीवन में कोई अभाव है? मुझे स्वयं पर हंसी आने लगी थी. इसे क्या अभाव होगा, जिस की इतनी प्यारी पत्नी है, पद है, मानसम्मान है.

तब तक मरीजों ने आ कर मेरी विचार शृंखला को भंग कर दिया और मैं कार्य में व्यस्त हो गई.

अतीत ने मुझे कुरेदा जरूर था किंतु अनजाने सुख भी दे गया था, क्योंकि वह व्यक्ति जिस ने मुझे अपमानित किया था, मानसिक पीड़ा दी थी, वह मेरे सामने निरीह व दयनीय बन कर खड़ा था. इस से अधिक सुख क्या हो सकता था? मेरे जीवन में एक और परिवर्तन आ गया था, वह तसवीर जिसे शादी के दूसरे दिन दोनों ने बड़े प्रेम से खिंचवाया था उसे देखे बिना मुझे नींद नहीं आती थी. उस तसवीर में उस का निरीह चेहरा मेरे आत्मसम्मान को सुख पहुंचाता था. इसलिए, अब वह तसवीर मेरे बेडरूम में लग गई थी.

ऋचा हर 15 दिन पश्चात आती रही, किंतु उस के साथ वह चेहरा देखने को नहीं मिला. 2 माह पश्चात लड़का हुआ. उस ने आ कर आभार प्रदर्शन करते हुए कहा था, ‘‘तनुजाजी, मैं आप का गुनाहगार हूं. किंतु, आप ने बेटे के रूप में उपहार दे कर अनिर्वचनीय आनंद प्रदान किया है. शायद, आप नहीं जानती कि यह मेरी और ऋचा की तीसरी संतान है. अन्य 2 जन्म से पूर्व ही काल के गाल में समा गईं.’’

मनुज चला गया, किंतु हृदय में सुलगते दावानल को मेरे सामने प्रकट कर गया. शायद वह अपनी पूर्व 2 संतानों की असमय ही मौत का कारण तनु के साथ पूर्व में किए गए अपने गलत व्यवहार को ही समझ बैठा था, तभी इतना निरीह व कातर लगने लगा है.

कुछ दिन पश्चात ही मेरा वहां से स्थानांतरण हो गया. अतीत से संबंध कट गया. किंतु कभीकभी मेरा दिल अपने ही हाथों से मात खा जाता था. तब तड़प उठती थी, क्या मेरे जीवन में यही एकाकीपन लिखा है? मम्मीपापा का देहांत हो गया था. भाई अपनी घरगृहस्थी में व्यस्त था.

कितने वर्ष यों ही बीत गए. अपने को बेसहारा पा कर मैं ने एक अनाथ बेसहारा लड़की को गोद ले लिया ताकि जीवन की शून्यता को भर सकूं. लड़की पढ़ने में तेज थी. डाक्टरी पढ़ कर अनाथ बेसहाराजनों की सेवा करना चाहती थी.

करीब 5 वर्ष पूर्व न्यूमोनिया बीमारी से पीडि़त हो कर अस्पताल में भरती हुई थी. उस की मासूम नीली आंखों में न जाने क्या था कि मन उसे अपनाने को मचल उठा था. अनाथाश्रम से उठा कर घर लाई तो सहसा विश्वास ही नहीं हो रहा था. पिछले वर्ष ही मैडिकल की प्रतियोगी परीक्षा में उस का चयन हुआ और पढ़ाई के लिए उसे इलाहाबाद जाना पड़ा और मैं फिर एक बार अकेली हो गई थी.

जीवन मेरे साथ आंखमिचौली खेल रहा था. सुखदुख एक ही सिक्के के 2 पहलू हो चले थे. एक दिन अपने कमरे में बैठी अपने संस्मरण लिख रही थी कि नौकर ने आ कर बताया कि एक आदमी आप से मिलना चाहता है. मैं बाहर निकल कर आई तो वह बोला, ‘‘डाक्टर साहब, शर्मा साहब का लड़का बेहद बीमार है. आप शीघ्र चलिए.’’

अपना बैग उठाया तथा कार में उस अनजान आदमी को बैठा कर चल पड़ी. ऐसे अवसरों पर अनजान व्यक्ति के साथ जाते समय मन में बेहद उथलपुथल होती थी, किंतु यह सोच कर चल पड़ती कि हर आदमी बुरा नहीं होता, फिर किसी पर अविश्वास क्यों और किसलिए, इंसान को अपना कर्तव्य करते रहना चाहिए. हमारा कर्तव्य हमारे साथ, उस का कर्तव्य उस के साथ. यही तो मेरी विचारधारा थी, जीवनदर्शन था.

कार के पहुंचते ही एक आदमी तेजी से उधर से बाहर आया और बोला, ‘‘डाक्टर साहब, आप को तकलीफ हुई होगी, लेकिन मजबूर था. प्रतीक्षित को 104 डिगरी बुखार है.’’

‘‘चलिए,’’ तब तक हम रोशनी में पहुंच चुके थे.

‘‘अरे तनु, तुम. ओह, माफ कीजिएगा तनुजाजी, मुझ से गलती हो गई,’’ मनुज एकदम हड़बड़ा कर बोले.

मैं भी एकदम चौंक उठी थी. इस जिंदगी में यह दोबारा अप्रत्याशित मिलन किसलिए? सोच ही नहीं पा रही थी. मैं ने पूछा, ‘‘प्रतीक्षित कहां है?’’

अंदर गए तो देखा वह बुखार में तप रहा था. आंखें बंद थीं, किंतु मुंह से कुछ अस्फुट स्वर निकल रहे थे. नब्ज देखी तो टायफायड के लक्षण नजर आए. ज्वर की तीव्रता को कम करने के लिए दवा बैग से निकाल कर खिला दी. अन्य दवाइयां परचे पर लिख कर देते हुए बोली, ‘‘ये दवाएं बाजार से मंगवा लीजिए तथा ज्वर की तीव्रता को कम करने के लिए ठंडे पानी की पट्टी माथे पर रखिए और हाथ, पैर व तलवे की भी मालिश कीजिए.’’

मनुज उस के हाथों को अपनी गोद में ले कर सहलाने लगे तथा चिंतित व घबराए स्वर में बोले, ‘‘डाक्टर साहब, मेरा प्रतीक्षित बच जाएगा न? यही मेरा जीवन है. मेरे जीवन की एकमात्र पूंजी.’’

लगभग एक घंटे पश्चात बंद पलकों में हलचल हुई तथा होंठ बुदबुदा उठे, ‘‘प…पानी… पानी…’’

मनुज ने तत्काल उठ कर उस के मुंह में चम्मच से पानी डाला. दवा के असर के कारण वह पानी पी कर फिर सो गया.

‘‘अच्छा, अब मुझे इजाजत दीजिए. आवश्यकता पड़ने पर बुला लीजिएगा,’’ घड़ी पर निगाह डालते हुए मैं ने कहा.

‘‘चलिए, मैं आप को छोड़ आता हूं,’’ मनुज ने मेरा बैग उठाते हुए कहा.

रातभर बेचैन रही. प्रतीक्षित के लिए न जाने क्यों अनजाने ही लगाव हो गया था. मैं जितना ही उस की भोली व मासूम सूरत से भागने का प्रयास करती वह उतनी ही और करीब आती जाती. ऋचा नजर नहीं आ रही थी, लेकिन पूछने का साहस भी नहीं कर पाई.

सुबह अस्पताल जाने के लिए गाड़ी स्टार्ट की तो न जाने कैसे स्टियरिंग मनुज के घर की ओर मुड़ गया. जब वहां जा कर कार खड़ी हुई तब होश आया कि अनजाने में कहां से कहां आ गई. वह कैसी स्थिति थी, मैं नहीं जानती. दिल पर अंकुश रख कर गाड़ी बैक करने ही वाली थी कि नौकर दौड़ादौड़ा आया, ‘‘डाक्टर साहब, आप की कृपा से प्रतीक्षित भैया होश में आ गए हैं. साहब आप को ही याद कर रहे हैं.’’

न चाहते हुए भी उतरना पड़ा. मुझे वहां उपस्थित देख कर मनुज आश्चर्यचकित रह गए. उन्हें एकाएक विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मैं बिना बुलाए उन के बेटे का हालचाल पूछने आऊंगी.

‘‘प्रतीक्षित कैसा है? कल उस के ज्वर की तीव्रता देख कर मैं भी घबरा गई थी. सो, उसे देखने चली आई,’’ मनुज के चेहरे पर अंकित प्रश्नों को नजरअंदाज करते हुए मैं बोली.

मनुज ने प्रतीक्षित से मेरा परिचय करवाया तो वह बोला, ‘‘डाक्टर आंटी, मैं ठीक हो जाऊंगा न, तो खूब पढ़ूंगा और आप की तरह ही डाक्टर बनूंगा. फिर आप की तरह ही सफेद कोट पहन कर, स्टेथोस्कोप लगा कर बीमार व्यक्तियों को देखूंगा.’’

‘‘अच्छा बेटा, पहले ठीक हो जा, ज्यादा बातें मत करना, आराम करना. समय पर दवा खाना. मुझ से पूछे बिना कुछ खानापीना मत. अच्छा, मैं चलती हूं.’’

‘‘आंटी, आप फिर आइएगा, आप को देखे बिना मुझे नींद ही नहीं आती है.’’

‘‘बड़ा शैतान हो गया है, बारबार आप को तंग करता रहता है,’’ मनुज खिसियानी आवाज में बोले.

‘‘कोई बात नहीं, बच्चा है,’’ मैं कहती, पर अप्रत्यक्ष में मन कह उठता, ‘तुम से तो कम है. तुम ने तो जीवनभर का दंश दे दिया है.’

मैं जानती थी कि मेरा वहां बारबार जाना उचित नहीं है. कहीं मनुज कोई गलत अर्थ न लगा लें. मनुज की आंखों में मेरे लिए चाह उभरती नजर आई थी. किंतु मेरी अत्यधिक तटस्थता उन्हें सदैव अपराधबोध से दंशित करती रहती. प्रतीक्षित के ठीक होने पर मैं ने जाना बंद कर दिया. वैसे भी प्रतीक्षित के साथ मेरा रिश्ता ही क्या था? सिर्फ एक डाक्टर व मरीज का. जब बीमारी ही नहीं रही तो डाक्टर का क्या औचित्य.

एक दिन शाम को टीवी पर अपनी मनपसंद पिक्चर ‘बंदिनी’ देख रही थी. नायिका की पीड़ा मानो मेरी अपनी पीड़ा हो, पुरानी भावुक पिक्चरों से मुझे लगाव था. जब फुरसत मिलती, देख लेती थी. तभी नौकर ने आ कर सूचना दी कि कोई आया है. मरीजों का चैकअप करने वाले कमरे में बैठने का निर्देश दे कर मैं गई, सामने मनुज और प्रतीक्षित को बैठा देख कर चौंक गई.

‘‘कैसे हो, बेटा? अब तो स्कूल जाना शुरू कर दिया होगा?’’ मैं स्वर को यथासंभव मुलायम बनाते हुए बोली.

‘‘हां, स्कूल तो जाना प्रारंभ कर दिया है किंतु आप से मिलने की बहुत इच्छा कर रही थी. इसलिए जिद कर के डैडी के साथ आ गया. आप क्यों नहीं आतीं डाक्टर आंटी अब हमारे घर?’’

‘‘बेटा, तुम्हारे जैसे और भी कई बीमार बच्चों की देखभाल में समय ही नहीं मिल पाता.’’

‘‘यदि आप नहीं आ सकतीं तो क्या मैं शाम को या छुट्टी के दिन आप के घर मिलने आ सकता हूं?’’

‘‘हां, क्यों नहीं,’’ उत्तर तो दे दिया था, किंतु क्या मनुज पसंद करेंगे.

‘‘घर में भी सदैव आप की बात करता है, डाक्टर आंटी ऐसी हैं, डाक्टर आंटी वैसी हैं,’’ फिर थोड़ा रुक कर मनुज बोले, ‘‘आप ने मेरे पुत्र को जीवनदान दे कर मुझे ऋणी बना दिया है. मैं आप का एहसान जिंदगीभर नहीं भूलूंगा.’’

‘‘वह तो मेरा कर्तव्य था,’’ मेरे मुख से संक्षिप्त उत्तर सुन कर मनुज कुछ और कहने का साहस न जुटा सके, जबकि लग रहा था कि वे कुछ कहने आए हैं. और मैं चाह कर भी ऋचा के बारे में न पूछ सकी. प्रतीक्षित इतने दिन बीमार रहा. वह क्यों नहीं आई, क्यों उस की खबर नहीं ली.

उस दिन के पश्चात प्रतीक्षित लगभग रोज ही मेरे पास आने लगा. मेरा काफी समय उस के साथ बीतने लगा. एक दिन बातोंबातों में मैं ने उस से उस की मां के बारे में पूछा, तो वह बोला, ‘‘डाक्टर आंटी, मां याद तो नहीं हैं, सिर्फ तसवीर देखी है, लेकिन डैडी कहते हैं कि जब मैं 3 साल का था, तभी मां की मौत हो गई थी.’’

मन हाहाकार कर उठा था. एक को तो उस ने स्वयं ठुकरा दिया और दूसरी स्वयं उसे छोड़ कर चली गई. प्रकृति ने उसे उस के अमानवीय व अमानुषिक कृत्य के लिए दंड दे दिया था. अब मुझे भी प्रतीक्षित के आने की प्रतीक्षा रहती. उस की स्मरणशक्ति व बुद्धि काफी तीव्र थी. जो एक बार बता देती, भूलता नहीं था. किसी भी नई चीज, नई वस्तु को देख कर उस के उपयोग के बारे में बालसुलभ जिज्ञासा से पूछता तथा मैं भी यभासंभव उस के प्रश्नों का समाधान करती.

स्कूल में विज्ञान प्रदर्शनी थी. मेरी सहायता से प्रतीक्षित ने मौडल बनाया. मौडल देख कर वह अत्यंत प्रसन्न था.

प्रदर्शनी के पश्चात वह सीधा मेरे घर आया. मेरी तबीयत ठीक नहीं थी. मैं अपने शयनकक्ष में लेटी आराम कर रही थी. दौड़ता हुआ आया व खुशी से चिल्लाता हुआ बोला, ‘‘डाक्टर आंटी, आप कहां हो? देखो, मुझे प्रथम पुरस्कार मिला है. और आंटी, गवर्नर ने हमारी प्रदर्शनी का उद्घाटन किया था और उन्होंने ही पुरस्कार दिया. आप को मालूम है, उन के साथ मेरी फोटो भी खिंची है. उन्होंने मेरी बहुत प्रशंसा की,’’ पलंग पर बैठते हुए उस ने कहा, ‘‘आप की तबीयत खराब है क्या?’’

‘‘लगता है थोड़ा बुखार हो गया है. ठीक हो जाएगा.’’

‘‘आप सब की देखभाल करती हैं किंतु अपनी नहीं,’’ तभी उस की नजर स्टूल पर रखे फोटो पर गई. हाथ में उठा कर बोला, ‘‘आंटी, यह तसवीर तो पापा की है, साथ में आप भी हैं. इस में आप दोनों जवान लग रहे हैं. यह तसवीर आप ने कब और क्यों खिंचवाई?’’

जिस का मुझे डर था वही हुआ, इसीलिए कभी उसे शयनकक्ष में नहीं लाती थी. वह फोटो मेरी अहम संतुष्टि का साधन बनी थी, सो, चाह कर भी अंदर नहीं रख पाई थी. मेरा अब कोई संबंध भी नहीं था मनुज से, लेकिन यदि तथ्य को छिपाने का प्रयत्न करती तो वह कभी संतुष्ट न हो पाता तथा कालांतर में मेरी उजली छवि में दाग लग सकता था. सो, सबकुछ सचसच बताना पड़ा.

वस्तुस्थिति जान कर वह उबल पड़ा था कि यह डैडी ने अच्छा नहीं किया. मैं यह सोच भी नहीं सकता था कि डैडी ऐसा भी कर सकते हैं. मैं अभी डैडी से जा कर इस का उत्तर मांगता हूं कि उन्होंने आप के साथ ऐसा क्यों किया? मैं बीमार हो जाऊं तो क्या वे मुझे भी छोड़ देंगे? वह जाने को उद्यत हुआ. मैं ने उस का हाथ पकड़ लिया, ‘‘बेटा, मैं ने कभी किसी से कुछ नहीं मांगा. जीवनपथ पर जैसे भी चली जा रही हूं, चलने दो, अब आखिरी पड़ाव पर मेरी भावनाओं, मेरे विश्वास, मेरे झूठे आत्मसम्मान को ठेस मत पहुंचाना तथा किसी से कुछ न कहना,’’ कहतेकहते एक बार फिर उस के सम्मुख आंसू टपक पड़े.

‘‘मैं किसी से कुछ नहीं कहूंगा, मां, किंतु आप को न्याय दिलाने का प्रयत्न अवश्य करूंगा,’’ दृढ़ निश्चय व दृढ़ कदमों से वह कमरे से बाहर चला गया था.

किंतु उस के मुखमंडल से निकला, ‘मां’ शब्द उस के जाने के पश्चात भी वातावरण में गूंज कर उस की उपस्थिति का एहसास करा रहा था, कैसा था वह संबोधन… वह आवाज, उस की सारी चेतना…संपूर्ण अस्तित्व सिर्फ एक शब्द में खो गया था. जिस मोह के जाल को वर्षों पूर्व तोड़ आई थी, अनायास ही उस में फंसती जा रही थी…कैसा है यह बंधन? कैसे हैं ये रिश्ते? अनुत्तरित प्रश्न बारबार अंत:स्थल में प्रहार करने लगे थे.

Love Story 2025 : सबसे हसीन वह

Love Story 2025 : इन दिनों अनुजा की स्थिति ‘कहां फंस गई मैं’ वाली थी. कहीं ऐसा भी होता है भला? वह अपनेआप में कसमसा रही थी.

ऊपर से बर्फ का ढेला बनी बैठी थी और भीतर उस के ज्वालामुखी दहक रहा था. ‘क्या मेरे मातापिता तब अंधेबहरे थे? क्या वे इतने निष्ठुर हैं? अगर नहीं, तो बिना परखे ऐसे लड़के से क्यों बांध दिया मु झे जो किसी अन्य की खातिर मु झे छोड़ भागा है, जाने कहां? अभी तो अपनी सुहागरात तक भी नहीं हुई है. जाने कहां भटक रहा होगा. फिर, पता नहीं वह लौटेगा भी या नहीं.’

उस की विचारशृंखला में इसी तरह के सैकड़ों सवाल उमड़तेघुमड़ते रहे थे. और वह इन सवालों को  झेल भी रही थी.  झेल क्या रही थी, तड़प रही थी वह तो.

लेकिन जब उसे उस के घर से भाग जाने के कारण की जानकारी हुई, झटका लगा था उसे. उस की बाट जोहने में 15 दिन कब निकल गए. क्या बीती होगी उस पर, कोई तो पूछे उस से आ कर.

सोचतेविचारते अकसर उस की आंखें सजल हो उठतीं. नित्य 2 बूंद अश्रु उस के दामन में ढुलक भी आते और वह उन अश्रुबूंदों को देखती हुई फिर से विचारों की दुनिया में चली जाती और अपने अकेलेपन पर रोती.

अवसाद, चिड़चिड़ाहट, बेचैनी से उस का हृदय तारतार हुआ जा रहा था. लगने लगा था जैसे वह अबतब में ही पागल हो जाएगी. उस के अंदर तो जैसे सांप रेंगने लगा था. लगा जैसे वह खुद को नोच ही डालेगी या फिर वह कहीं अपनी जान ही गंवा बैठेगी. वह सोचती, ‘जानती होती कि यह ऐसा कर जाएगा तो ब्याह ही न करती इस से. तब दुनिया की कोई भी ताकत मु झे मेरे निर्णय से डिगा नहीं सकती थी. पर, अब मु झे क्या करना चाहिए? क्या इस के लौट आने का इंतजार करना चाहिए? या फिर पीहर लौट जाना ही ठीक रहेगा? क्या ऐसी परिस्थिति में यह घर छोड़ना ठीक रहेगा?’

वक्त पर कोई न कोई उसे खाने की थाली पहुंचा जाता. बीचबीच में आ कर कोई न कोई हालचाल भी पूछ जाता. पूरा घर तनावग्रस्त था. मरघट सा सन्नाटा था उस चौबारे में. सन्नाटा भी ऐसा, जो भीतर तक चीर जाए. परिवार का हर सदस्य एकदूसरे से नजरें चुराता दिखता. ऐसे में वह खुद को कैसे संभाले हुए थी, वह ही जानती थी.

दुलहन के ससुराल आने के बाद अभी तो कई रस्में थीं जिन्हें उसे निभाना था. वे सारी रस्में अपने पूर्ण होने के इंतजार में मुंहबाए खड़ी भी दिखीं उसे. नईनवेली दुलहन से मिलनजुलने वालों का आएदिन तांता लग जाता है, वह भी वह जानती थी. ऐसा वह कई घरों में देख चुकी थी. पर यहां तो एकबारगी में सबकुछ ध्वस्त हो चला था. उस के सारे संजोए सपने एकाएक ही धराशायी हो चले थे. कभीकभार उस के भीतर आक्रोश की ज्वाला धधक उठती. तब वह बुदबुदाती, ‘भाड़ में जाएं सारी रस्मेंरिवाज. नहीं रहना मु झे अब यहां. आज ही अपना फैसला सुना देती हूं इन को, और अपने पीहर को चली जाती हूं. सिर्फ यही नहीं, वहां पहुंच कर अपने मांबाबूजी को भी तो खरीखोटी सुनानी है.’ ऐसे विचार उस के मन में उठते रहे थे, और वह इस बाबत खिन्न हो उठती थी.

इन दिनों उस के पास तो समय ही समय था. नित्य मंथन में व्यस्त रहती थी और फिर क्यों न हो मंथन, उस के साथ ऐसी अनूठी घटना जो घटी थी, अनसुल झी पहेली सरीखी. वह सोचती, ‘किसे सुनाऊं मैं अपनी व्यथा? कौन है जो मेरी समस्या का निराकरण कर सकता है? शायद कोईर् भी नहीं. और शायद मैं खुद भी नहीं.’

फिर मन में खयाल आता, ‘अगर परीक्षित लौट भी आया तो क्या मैं उसे अपनाऊंगी? क्या परीक्षित अपने भूल की क्षमा मांगेगा मुझ से? फिर कहीं मेरी हैसियत ही धूमिल तो नहीं हो जाएगी?’ इस तरह के अनेक सवालों से जू झ रही थी और खुद से लड़ भी रही थी अनुजा. बुदबुदाती, ‘यह कैसी शामत आन पड़ी है मु झ पर? ऐसा कैसे हो गया?’

तभी घर के अहाते से आ रही खुसुरफुसुर की आवाजों से वह सजग हो उठी और खिड़की के मुहाने तक पहुंची. देखा, परीक्षित सिर  झुकाए लड़खड़ाते कदमों से, थकामांदा सा आंगन में प्रवेश कर रहा था.

उसे लौट आया देखा सब के मुर झाए चेहरों की रंगत एकाएक बदलने लगी थी. अब उन चेहरों को देख कोई कह ही नहीं सकता था कि यहां कुछ घटित भी हुआ था. वहीं, अनुजा के मन को भी सुकून पहुंचा था. उस ने देखा, सभी अपनीअपनी जगहों पर जड़वत हो चले थे और यह भी कि ज्योंज्यों उस के कदम कमरे की ओर बढ़ने लगे. सब के सब उस के पीछे हो लिए थे. पूरी जमात थी उस के पीछे.

इस बीच परीक्षित ने अपने घर व घर के लोगों पर सरसरी निगाह डाली. कुछ ही पलों में सारा घर जाग उठा था और सभी बाहर आ कर उसे देखने लगे थे जो शर्म से छिपे पड़े थे अब तक. पूरा महल्ला भी जाग उठा था.

जेठानी की बेटी निशा पहले तो अपने चाचा तक पहुंचने के लिए कदम बढ़ाती दिखी, फिर अचानक से अपनी नई चाची को इत्तला देने के खयाल से उन के कमरे तक दौड़तीभागतीहांफती पहुंची. चाची को पहले से ही खिड़की के करीब खड़ी देख वह उन से चिपट कर खड़ी हो गई. बोली कुछ भी नहीं. वहीं, छोटा संजू दौड़ कर अपने चाचा की उंगली पकड़ उन के साथसाथ चलने लगा था.

परीक्षित थके कदमों से चलता हुआ, सीढि़यां लांघता हुआ दूसरी मंजिल के अपने कमरे में पहुंचा. एक नजर समीप खड़ी अनुजा पर डाली, पलभर को ठिठका, फिर पास पड़े सोफे पर निढाल हो बैठ गया और आंखें मूंदें पड़ा रहा.

मिनटों में ही परिवार के सारे सदस्यों का उस चौखट पर जमघट लग गया. फिर तो सब ने ही बारीबारी से इशारोंइशारों में ही पूछा था अनुजा से, ‘कुछ बका क्या?’

उस ने एक नजर परीक्षित पर डाली. वह तो सो रहा था. वह अपना सिर हिला उन सभी को बताती रही, अभी तक तो नहीं.’

एक समय ऐसा भी आया जब उस प्रागंण में मेले सा समां बंध गया था. फिर तो एकएक कर महल्ले के लोग भी आते रहे, जाते रहे थे और वह सो रहा था जम कर. शायद बेहोशी वाली नींद थी उस की.

अनुजा थक चुकी थी उन आनेजाने वालों के कारण. चौखट पर बैठी उस की सास सहारा ले कर उठती हुई बोली, ‘‘उठे तो कुछ खिलापिला देना, बहू.’’ और वे अपनी पोती की उंगली पकड़ निकल ली थीं. माहौल की गर्माहट अब आहिस्ताआहिस्ता शांत हो चुकी थी. रात भी हो चुकी थी. सब के लौट जाने पर अनुजा निरंतर उसे देखती रही थी. वह असमंजस में थी. असमंजस किस कारण से था, उसे कहां पता था.

परिवार के, महल्ले के लोगों ने भी सहानुभूति जताते कहा था, ‘बेचारे ने क्या हालत बना रखी है अपनी. जाने कहांकहां, मारामारा फिरता रहा होगा? उफ.’

आधी रात में वह जगा था. उसी समय ही वह नहाधो, फिर से जो सोया पड़ा, दूसरी सुबह जगा था. तब अनुजा सो ही कहां पाई थी. वह तो तब अपनी उल झनोंपरेशानियों को सहेजनेसमेटने में लगी हुई थी.

वह उस रात निरंतर उसे निहारती रही थी. एक तरफ जहां उस के प्रति सहानुभूति थी, वहीं दूसरी तरफ गहरा रोष भी था मन के किसी कोने में.

सहानुभूति इस कारण कि उस की प्रेमिका ने आत्महत्या जो कर ली थी और रोष इस बात पर कि वह उसे छोड़ भागा था और वह सजीसंवरी अपनी सुहागसेज पर बैठी उस के इंतजार में जागती रही थी. वह उसी रात से ही गायब था. फिर सुहागरात का सुख क्या होता है, कहां जान पाई थी वह.

उस रात उस के इंतजार में जब वह थी, उस का खिलाखिला चेहरा पूनम की चांद सरीखा दमक रहा था. पर ज्यों ही उसे उस के भाग खड़े होने की खबर मिली, मुखड़ा ग्रहण लगे चांद सा हो गया था. उस की सुर्ख मांग तब एकदम से बु झीबु झी सी दिखने लगी थी. सबकुछ ही बिखर चला था.

तब उस के भीतर एक चीत्कार पनपी थी, जिसे वह जबरन भीतर ही रोके रखे हुए थी. फिर विचारों में तब यह भी था, ‘अगर उस से मोहब्बत थी, तो मैं यहां कैसे? जब प्यार निभाने का दम ही नहीं, तो प्यार किया ही क्यों था उस से? फिर इस ने तो 2-2 जिंदगियों से खिलवाड़ किया है. क्या इस का अपराध क्षमायोग्य है? इस के कारण ही तो मु झे मानसिक यातनाएं  झेलनी पड़ी हैं. मेरा तो अस्तित्व ही अधर में लटक गया है इस विध्वंसकारी के कारण. जब इतनी ही मोहब्बत थी तो उसे ही अपना लेता. मेरी जिंदगी से खिलवाड़ करने का हक इसे किस ने दिया?’ तब उस की सोच में

यह भी होता, ‘मैं अनब्याही तो नहीं कहीं? फिर, कहीं यह कोई बुरा सपना

तो नहीं?’

दूसरे दिन भी घर में चुप्पी छाई रही थी. वह जागा था फिर से. घर वालों को तो जैसे उस के जागने का ही इंतजार था.  झटपट उस के लिए थाली परोसी गई. उस ने जैसेतैसे खाया और एक बार फिर से सो पड़ा और बस सोता ही रहा था. यह दूसरी रात थी जो अनुजा जागते  बिता रही थी. और परीक्षित रातभर जाने क्याक्या न बड़बड़ाता रहा था. बीचबीच में उस की सिसकियां भी उसे सुनाई पड़ रही थीं. उस रात भी वह अनछुई ही रही थी.

फिर जब वह जागा था, अनुजा के समीप आ कर बोला, तब उस की आवाज में पछतावे सा भाव था, ‘‘माफ करना मु झे, बहुत पीड़ा पहुंचाई मैं ने आप को.’’

‘आप को,’ शब्द जैसे उसे चुभ गया. बोली कुछ भी नहीं. पर इस एक शब्द ने तो जैसे एक बार में ही दूरियां बढ़ा दी थीं. उस के तो तनबदन में आग ही लग गई थी.

रिमझिम, जो उस का प्यार थी, इस की बरात के दिन ही उस ने आत्महत्या कर ली थी. लौटा, तो पता चला. फिर वह भाग खड़ा हुआ था.

लौटने के बाद भी अब परीक्षित या तो घर पर ही गुमसुम पड़ा रहता या फिर कहीं बाहर दिनभर भटकता रहता. फिर जब थकामांदा लौटता तो बगैर कुछ कहेसुने सो पड़ता.

ऐसे में ही उस ने उसे रिमझिम झोड़ कर उठाया और पहली बार अपनी जबान खोली थी. तब उस का स्वर अवसादभरा था, ‘‘मैं पराए घर से आई हूं. ब्याहता हूं आप की. आप ने मु झ से शादी की है, यह तो नहीं भूले होंगे आप?’’

वह निरीह नजरों से उसे देखता रहा था. बोला कुछ भी नहीं. अनुजा को उस की यह चुप्पी चुभ गई. वह फिर से बोली थी, तब उस की आवाज विकृत हो आई थी.

‘‘मैं यहां क्यों हूं? क्या मु झे लौट जाना चाहिए अपने मम्मीपापा के पास? आप ने बड़ा ही घिनौना मजाक किया है मेरे साथ. क्या आप का यह दायित्व नहीं बनता कि सबकुछ सामान्य हो जाए और आप अपना कामकाज संभाल लो. अपने दायित्व को सम झो और इस मनहूसियत को मिटा डालो?’’

चंद लमहों के लिए वह रुकी. खामोशी छाई रही. उस खामोशी को खुद ही भंग करते हुए बोली, ‘‘आप के कारण ही पूरे परिवार का मन मलिन रहा है अब तक. वह भी उस के लिए जो आप की थी भी नहीं. अब मैं हूं और मु झे आप का फैसला जानना है. अभी और अभी. मैं घुटघुट कर जी नहीं सकती. सम झे आप?’’

अनुजा के भीतर का दर्द उस के चेहरे पर था, जो साफ  झलक रहा था. परीक्षित के चेहरे की मायूसी भी वह भलीभांति देख रही थी. दोनों के ही भीतर अलगअलग तरह के  झं झावात थे,  झुं झलाहट थी.

परीक्षित उसे सुनता रहा था. वह उस के चेहरे पर अपनी नजरें जमाए रहा था. वह अपने प्रति उपेक्षा, रिमिझम के प्रति आक्रोश को देख रहा था. जब उस ने चुप्पी साधी, परीक्षित फफक पड़ा था और देररात फफकफफक कर रोता ही रहा था. अश्रु थे जो उस के रोके नहीं रुक रहे थे. तब उस की स्थिति बेहद ही दयनीय दिखी थी उसे.

वह सकपका गई थी. उसे अफसोस हुआ था. अफसोस इतना कि आंखें उस की भी छलक आई थीं, यह सोच कर कि ‘मु झे इस की मनोस्थिति को सम झना चाहिए था. मैं ने जल्दबाजी कर दी. अभी तो इस के क्षतविक्षत मन को राहत मिली भी नहीं और मैं ने इस के घाव फिर से हरे कर दिए.’

उस ने उसे चुप कराना उचित नहीं सम झा. सोचा, ‘मन की भड़ास, आंसुओं के माध्यम से बाहर आ जाए, तो ही अच्छा है. शायद इस से यह संभल ही जाए.’ फिर भी अंतर्मन में शोरगुल था. उस में से एक आवाज अस्फुट सी थी, ‘क्या मैं इतनी निष्ठुर हूं जो इस की वेदना को सम झने का अब तक एक बार भी सोचा नहीं? क्या स्त्री जाति का स्वभाव ही ऐसा होता है जो सिर्फ और सिर्फ अपना खयाल रखती है? दूसरों की परवा करना, दूसरों की पीड़ा क्या उस के आगे कोई महत्त्व नहीं रखती? क्या ऐसी सोच होती है हमारी? अगर ऐसा ही है तो बड़ी ही शर्मनाक बात है यह तो.’

उस की तंद्रा तब भंग हुई थी जब वह बोला, ‘‘शादी हो जाती अगर हमारी तो वह आप के स्थान पर होती आज. प्यार किया था उस से. निभाना भी चाहता था. पर इन बड़ेबुजुर्गों के कारण ही वह चल बसी. मैं कहां जानता था कि वह ऐसा कर डालेगी.’’

‘‘पर मेरा क्या? इस पचड़े में मैं दोषी कैसे? मु झे सजा क्यों मिल रही है? आप कहो तो अभी, इसी क्षण अपना सामान समेट कर निकल जाऊं?’’

‘‘देखिए, मु झे संभलने में जरा वक्त लगेगा. फिर मैं ने कब कहा कि आप यह घर छोड़ कर चली जाओ?’’

तभी अनुजा फिर से बिफर पड़ी, ‘‘वह हमारे वैवाहिक जीवन में जहर घोल गई है. अगर वह भली होती तो ऐसा कहर तो न ढाती? लाज, शर्म, परिवार का मानसम्मान, मर्यादा भी तो कोई चीज होती है जो उस में नहीं थी.’’

‘‘इतनी कड़वी जबान तो न बोलो उस के विषय में जो रही नहीं. ऊलजलूल बकना क्या ठीक है? फिर उस ने ऐसा क्या कर दिया?’’ वह एकाएक आवेशित हो उठा था.

वह एक बार फिर से सकपका गई थी. उसे, उस से ऐसे व्यवहार की अपेक्षा तो नहीं थी. फिर वह अब तक यह बात सम झ ही नहीं पाई थी कि गलत कौन है. क्या वह खुद? क्या उस का पति? या फिर वह नासपीटी?

देखतेदेखते चंद दिन और बीत गए. स्थिति ज्यों की त्यों ही बनी रही थी. अब उस ने उसे रोकनाटोकना छोड़ दिया था और समय के भरोसे जी रही थी.

परीक्षित अब भी सोते में, जागते में रोतासिसकता दिखता. कभी उस की नींद उचट जाने पर रात के अंधेरे में ही घर से निकल जाता. घंटों बाद थकाहारा लौटता भी तो सोया पड़ा होता. भूख लगे तो खाता अन्यथा थाली की तरफ निहारता भी नहीं. बड़ी गंभीर स्थिति से गुजर रहा था वह. और अनुजा  झुं झलाती रहती थी.

ऐसे में अनुजा को उस की चिंता सताने भी लगी थी. इतने दिनों में परीक्षित ने उसे छुआ भी नहीं था. न खुद से उस से बात ही की थी उस ने.

उस दिन पलंग के समीप की टेबल पर रखी रिमझिम की तसवीर फ्रेम में जड़ी रखी दिखी तो वह चकित हो उठा. उस ने उस फ्रेम को उठाया, रिमझिम की उस मुसकराती फोटो को देर तक देखता रहा. फिर यथास्थान रख दिया और अनुजा की तरफ देखा. तब अनुजा ने देखा, उस की आंखें नम थीं और उस के चेहरे के भाव देख अनुजा को लगा जैसे उस के मन में उस के लिए कृतज्ञता के भाव थे.

अनुजा सहजभाव से बोली, ‘‘मैं ने अपनी हटा दी. रिमझिम दीदी अब हमारे साथ होंगी, हर पल, हर क्षण. आप को बुरा तो नहीं लगा?’’

उस ने उस वक्त कुछ न कहा. काफी समय बाद उस ने उस से पूछा, ‘‘तुम ने खाना खाया?’’ फिर तत्काल बोला, ‘‘हम दोनों इकट्ठे खाते हैं. तुम बैठी रहो, मैं ही मांजी से कह आता हूं कि वे हमारी थाली परोस दें.’’

खाना खाने के दौरान वह देर तक रिमझिम के विषय में बताता रहा. आज पहली बार ही उस ने अनुजा को, ‘आप’ और ‘आप ने’ कह कर संबोधित नहीं किया था. और आज पहली बार ही वह उस से खुल कर बातें कर रहा था. आज उस की स्थिति और दिनों की अपेक्षा सामान्य लगी थी उसे. और जब वह सोया पड़ा था, उस रात, एक बार भी न सिसका, न रोया और न ही बड़बड़ाया. यह देख अनुजा ने पहली बार राहत की सांस ली.

मानसिक यातना से नजात पा कर अनुजा आज गहरी नींद में थी. परीक्षित उठ चुका था और उस के उठने के इंतजार में पास पड़े सोफे पर बैठा दिखा. पलंग से नीचे उतरते जब अनुजा की नजर  टेबल पर रखी तसवीर पर पड़ी तो चकित हो उठी. मुसकरा दी. परीक्षित भी मुसकराया था उसे देख तब.

अब उस फोटोफ्रेम में रिमझिम की जगह अनुजा की तसवीर लगी थी.

‘तुम मेरी रिमझिम हो, तुम ही मेरी पत्नी अनुजा भी. तुम्हारा हृदय बड़ा विशाल है और तुम ने मेरे कारण ही महीनेभर से बहुत दुख  झेला है, पर अब नहीं. मैं आज ही से दुकान जा रहा हूं.’

और तभी, अनुजा को महसूस हुआ कि उस की मांग का सिंदूर सुर्ख हो चला है और दमक भी उठा है. कुछ अधिक ही सुर्ख, कुछ अधिक ही दमक रहा है.

लेखक : केशव राम वाड़दे

Romantic Tales : उपहार

Romantic Tales : लेकिन मोहिनी थी कि उसे एक भी तोहफा न पसंद आता. आखिर में जब सत्या की मेहनत की कमाई से खरीदे छाते को भी नापसंद कर के मोहिनी ने फेंका तो…

‘‘सिर्फ एक बार, प्लीज…’’

‘‘ऊं…हूं…’’

‘‘मोहिनी, जानती हो मेरे दिल की धड़कनें क्या कहती हैं? लव…लव… लेकिन तुम, लगता है मुझे जीतेजी ही मार डालोगी. मेरे साथ समुद्र किनारे चलते हुए या फिर म्यूजियम देखते समय एकांत के किसी कोने में तुम्हारा स्पर्श करते ही तुम सिहर कर धीमे से मेरा हाथ हटा देती हो. एक बार थिएटर में…’’

‘‘सत्या प्लीज…’’

‘‘मैं ने ऐसी कौन सी अनहोनी बात कह दी. मैं तो केवल इतना चाहता हूं कि तुम एक बार, सिर्फ एक बार ‘आई लव यू’ कह दो. अच्छा यह बताओ कि तुम मुझे प्यार करती हो या नहीं?’’

‘‘नहीं जानती.’’

‘‘यह भी क्या जवाब हुआ भला? हम दोनों एक ही बिरादरी के हैं. हैसियत भी एक जैसी ही है. तुम्हारी और मेरी मां इस रिश्ते के लिए मना भी नहीं करेंगी. हां, तुम मना कर दोगी, दिल तोड़ दोगी, तो मैं…तो मर जाऊंगा, मोहिनी.’’

‘‘मुझे एक छाता चाहिए सत्या. धूप में, बारिश में, बाहर जाते समय काफी तकलीफ होती है. ला दोगे न?’’

‘‘बातों का रुख मत बदलो. छाता दिला दूं तो ‘आई लव यू’ कह दोगी न?’’

मोहिनी के जिद्दी स्वभाव के बारे में सोच कर सत्या तिलमिला उठा पर वह दिल के हाथों मजबूर था. मोहिनी के बिना वह अपनी जिंदगी सोच ही नहीं सकता था. लगा, मोहिनी न मिली तो दिल के टुकड़ेटुकड़े हो जाएंगे.

सत्या ने पहली बार जब मोहिनी को देखा तो उसे दिल में तितलियों के पंखों की फड़फड़ाहट महसूस हुई थी. उस की बड़ीबड़ी आंखें, सीधी नाक, ठुड्डी पर छोटा सा तिल, नमी लिए सुर्ख गुलाबी होंठ, लगा मोहिनी की खूबसूरती का बयान करने के लिए उस के पास शब्दों की कमी है.

मोहिनी से पहली मुलाकात सत्या की किसी इंटरव्यू देने के दौरान हुई थी. मिक्सी कंपनी में सेल्समैन व सेल्स गर्ल की आवश्यकता थी. वहां दोनों को नौकरी नहीं मिली थी.

कुछ दिनों बाद ही एक दूसरी कंपनी के साक्षात्कार के समय उस ने दोबारा मोहिनी को देखा था. गुलाबी सलवार कमीज में वह गजब की लग रही थी. कहीं यह वो तो नहीं? ओफ…वही तो है. उस के दिल की धड़कनें बढ़ गई थीं.

मोहिनी ने भी उसे देखा.

‘बेस्ट आफ लक,’ सत्या ने कहा.

उस की आंखें चमक उठीं. गाल सुर्ख गुलाबी हो उठे.

‘थैंक यू,’ मोहिनी के होंठों से ये दो शब्द फूल बन कर गिरे थे.

यद्यपि वहां की नौैकरी को वह खुद न पा सका पर मोहिनी पा गई. माइक्रोओवन बेचने वाली कंपनी… प्रदर्शनी में जा कर लोगों को ओवन की खूबियों से परिचित करवा कर उन्हें ओवन खरीदने के लिए प्रेरित करने का काम था.

सत्या ने नौकरी मिलने की खुशी में मोहिनी को आइसक्रीम पार्टी दे डाली. मुलाकातों का सिलसिला बढ़ता गया. छुट्टी के दिन व काम पूरा करने के बाद मोहिनी की शाम सत्या के साथ गुजरती. सत्या का हंसमुख चेहरा, मजाकिया बातें, दिल खोल कर हंसने का अंदाज मोहिनी को भा गया था. वह उस से सट कर चलती, उस की बातों में रस लेती. एक बार सिनेमाहाल में परदे पर रोमांस दृश्य देख विचलित हो कर अंधेरे में सत्या ने झट मोहिनी का चेहरा अपने हाथों में ले कर उस के होंठों पर अपने जलतेतड़पते होंठ रख दिए थे.

यह प्यार नहीं तो और क्या है? हां, यही प्यार है. सत्या के दिल ने कहा तो फिर ‘आई लव यू’ कहने में क्या हर्ज है?

पिछली बार मोहिनी के जन्म-दिन पर सत्या चाहता था कि वह अपने प्यार का इजहार करे. जन्मदिन पर मोहिनी ने उस से सूट मांगा. 500 रुपए का एक सूट उस ने दस दुकानों पर देखने के बाद पसंद किया था पर खरीदने के लिए उस के पास रुपए नहीं थे क्योंकि प्रथम श्रेणी में स्नातक होने के बाद भी वह बेरोजगार था.

घर के बड़े ट्रंक में एक पान डब्बी पड़ी थी. पिताजी की चांदी की… पुरानी…भीतर रह कर काली पड़ गई थी. मां को भनक तक लगे बिना सत्या ने चालाकी से उसे बेच दिया और मोहिनी के लिए सूट खरीदा.

आसमानी रंग के शिफान कपड़े पर कढ़ाई की गई थी. सुंदर बेलबूटे के साथ आगे की तरफ पंख फैलाया मोर. सत्या को भरोसा था कि इस उपहार को देख कर मोर की तरह मोहिनी का मन मयूर भी नाच उठेगा. उस से लिपट कर वह थैंक्यू कहेगी और ‘आई लव यू’ कह देगी. इन शब्दों को सुनने के लिए उस के कान कितने बेकरार थे पर उस के उपहार को देख कर मोहिनी के चेहरे पर कड़वाहट व झुंझलाहट के भाव उभरे थे.

‘यह क्या सत्या? इतना घटिया कपड़ा. और देखो तो…कितना पतला है, नाखून लगते ही फट जाएगा. यह देखो,’ कहते हुए उस ने अपने नाखून उस में गड़ाए और जोर दे कर खींचा तो कपड़ा फट गया. सत्या को लगा था यह कपड़ा नहीं, उस के पिताजी की पान डब्बी व मां के सेंटिमेंट दोनों तारतार हो गए हैं.

‘कितने का है?’ मोहिनी ने पूछा.

‘तुम्हें इस से क्या?’

‘रुपए कहां से मिले?’

‘बैंक से निकाले,’ सत्या ने सफाई से झूठ बोल दिया.

और इस बार छाता…उस ने मोलभाव किया. अपनेआप खुलने व बंद होने वाला छाता 2 सौ रुपए का था. दोस्तों से रुपए मिले नहीं. घर में जो कुछ ढंग की चीज नजर आई मां की आंखें बचा कर उसे बेच कर सिनेमा, ड्रामा, होटल के खर्चे में वह पहले से पैसे फूंक चुका था.

काश, एक नौकरी मिल गई होती. इस समय वह कितना खुश होता. मोहिनी के मांगने के पहले उस की आवश्यकताओं की वस्तुओं का अंबार लगा देता. चमचमाते जूते पर धूल न जमे, कपड़ों की क्रीज न बिगड़े, एक अदद सी नौकरी, बस, उसे और क्या चाहिए. पर वह तो मिल नहीं रही थी.

नौकरी तो दूर की बात, अब उस की प्रेमिका, उस की जिंदगी मोहिनी एक छाता मांग रही है. क्या करे? अचानक उसे रवींद्र का ध्यान आया जो बचपन में उस का सहपाठी था. बड़ा होने पर वह अपने पिता के साथ उन के प्रेस में काम करने लगा. बाद में पिता के सहयोग से उस ने प्रिंटिंग इंक बनाने की फैक्टरी लगा ली थी. बस, दिनरात उसी फैक्टरी में कोल्हू के बैल की तरह लगा रहता था.

एक दोस्त से पैसा मांगना सत्या को बुरा तो लग रहा था पर क्या करे दिल के हाथों मजबूर जो था.

‘‘उधार पैसे मांग रहे हो पर कैसे चुकाओगे? एक काम करो. ग्राइंडिंग मशीन के लिए आजकल मेरे पास कारीगर नहीं है. 10 दिन काम कर लो, 200 रुपए मिलेंगे. साथ ही कुछ सीख भी लोगे.’’

इंक बनाने के कारखाने में ग्राइंडिंग मशीन पर काम करने की बात सोच कर ही सत्या को घिन आने लगी थी. पर क्या करे? 200 रुपए तो चाहिए. किसी भी हाल में…और कोई चारा भी तो नहीं.

10 दिन के लिए वह जीजान से जुट गया. मशीनों की गड़गड़ाहट… पसीने से तरबतर…मैलेकुचैले कपड़े… थका देने वाली मेहनत, उस ने सबकुछ बरदाश्त किया. 10वें दिन उस ने छाता खरीदा. मोलभाव कर के उस ने 150 रुपए में ही उसे खरीद लिया. 50 रुपए बचे हैं, मोहिनी को ट्रीट भी दूंगा, उस की मनपसंद आइसक्रीम…उस ने सोचा.

तालाब के किनारे बना रेस्तरां. खुले में बैठे थे मोहिनी और सत्या. वह अपलक अपने प्यार को देख रहा था. हवा के झोंके मोहिनी की लटों को उलझा देते और वह उंगलियों से उन्हें संवार लेती. मोहिनी के चेहरे की खुशी, उस की सुंदरता का जादू, वातावरण की मादकता को बढ़ाए जा रही थी. सत्या का मन उसे भींच कर अपनी अतृप्त इच्छाओं को तृप्त कर लेने का था, किंतु बरबस उस ने अपनी कामनाओं को काबू में कर रखा था.

कटलेट…फिर मोहिनी की मनपसंद आइसक्रीम…सत्या ने बैग से छाता निकाला. वह मोहिनी की आंखों में चमक व चेहरे पर खुशी देखने के लिए लालायित था.

‘‘सत्या, यह क्या है?’’ मोहिनी ने पूछा.

‘‘तुम ने एक छाता मांगा था न…यह कंचन काया धूप में सांवली न पड़ जाए, बारिश में न भीगे, इसीलिए लाया हूं.’’ मोहिनी ने बटन दबाया. छाता खुला तो उस का चेहरा ढक गया. छाते के बारीक कपड़े से रोशनी छन कर भीतर आई.

‘‘छी…तुम्हें तो कुछ खरीदने की तमीज ही नहीं सत्या. देखो तो कितनी घटिया क्वालिटी का छाता है. इसे ले कर मैं कहीं जाऊं तो चार लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? छाते को झल्लाहट के साथ बंद कर के पूरे वेग से उस ने तालाब की ओर उसे फेंका. छाता नाव से टकरा कर पानी में डूब गया.’’

सत्या उसे भौंचक हो कर देखता रहा. क्षण भर…वह खड़ा हुआ, कुरसी ढकेल कर दौड़ पड़ा. सीढि़यां उतर कर नाव के समीप गया. नाव को हटा कर उस ने पानी में हाथ डाल कर टटोला. छाता पूरी तरह डूब गया था. हाथपैर से टटोल कर थोड़ी देर की मशक्कत के बाद वह उसे ले आया. उस के चेहरे पर क्रोध व निराशा पसरी हुई थी.

‘‘मोहिनी, इस छाते को खरीदने के लिए 10 दिन…पूरे 10 दिन मैं ने खूनपसीना एक किया है, हाथपैर गंदे किए हैं, इंक फैक्टरी में काम सीखा है. सोच रहा था कुछ दिनों में रुपए का जुगाड़ कर के क्यों न एक छोटी सी इंक फैक्टरी मैं भी खोल लूं. कितने अरमानों से इसे खरीद कर लाया था. तुम ने मेरी मेहनत को, मेरे अरमानों को बेकार समझ कर फेंक दिया. आई एम सौरी…वेरीवेरी सौरी मोहिनी…जिसे पैसों का महत्त्व नहीं मालूम ऐसी मूर्ख लड़की को मैं ने चाहा. लानत है मुझ पर…गुड बाय…’’

‘‘एक मिनट सत्या,’’ मोहिनी ने कहा.

‘‘क्या है?’’ सत्या ने मुड़ कर पूछा तो उस की आवाज में कड़वाहट थी.

‘‘तुम ने सूट खरीद कर दिया था, उसे भी मैं ने फाड़ दिया था, तब तो तुम ने कुछ कहा नहीं. क्यों?’’

‘‘बात यह है कि…’’

‘‘…कि वह तुम्हारी मेहनत के पैसों से खरीदा हुआ नहीं था. मैं तुम्हारी मां से मिली थी. तुम मेहनत से डरते हो, यह मैं ने उन की बातों से जाना. 500 रुपए के सूट को मैं ने फाड़ा तब तो तुम ने कुछ नहीं कहा और अब इस छाते के लिए कीचड़ में भी उतर गए, जानते हो क्यों? क्योंकि यह तुम्हारी मेहनत की कमाई का है.’’

‘‘मैं इसी सत्या को देखना चाहती थी कि जो मेहनत से जी न चुराए, किसी भी काम को घटिया न समझे, मेहनत कर के कमाए और मेहनत की खाए?’’

मोहिनी उस के समीप गई. उस के हाथों से उस छाते को लिया और बोली, ‘‘सत्या, यह मेरे जीवन का एक कीमती तोहफा है. इस के सामने बाकी सब फीके हैं. अब तुम मुझ से नाराज तो नहीं हो?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘उस के समीप जा कर मोहिनी ने उसे गले लगाया.’’

‘‘उफ्, मेरे हाथपैर कीचड़ से सने हैं, मोहिनी.’’

‘‘कोई बात नहीं. एक चुंबन दोगे?’’

‘‘क्या?’’

‘‘आई लव यू सत्या.’’

सत्या के दिल में तितलियों के पंखों की फड़फड़ाहट का एहसास उसी तरह से हो रहा था जैसे उस ने पहली बार मोहिनी को देखने पर अपने दिल में महसूस किया था.

Hindi Story Telling : कुजात

Hindi Story Telling  : लोचन को गांव वालों ने अपनी बिरादरी से निकाल दिया था, क्योंकि उस ने नीची जाति की एक लड़की से शादी कर अपनी बिरादरी की बेइज्जती की थी.

गांव के मुखिया की अगुआई में सभी लोगों ने तय किया था कि लोचन के घर कोई नहीं जाएगा और न ही उस के यहां कोई खाना खाएगा.

लोचन अपनी बस्ती में हजारों लोगों के बीच रह कर भी अकेला था. उस का कोई हमदर्द नहीं था. एक दिन अचानक उस के पेट में तेज दर्द होने लगा, तो उस की बीवी घबरा कर रोने लगी. जो पैर शादी के बाद चौखट से बाहर नहीं निकले थे, वे आज गलियों में घूम कर गांव के लोगों से लोचन को अस्पताल पहुंचाने के लिए गिड़गिड़ा रहे थे. लेकिन हर दरवाजे पर उसे एक ही जवाब मिलता था, ‘गांव के लोगों से तुम्हारा कैसा रिश्ता?’

जब वह लोचन के पास लौट कर आई, तब तक लोचन का दर्द काफी कम हो चुका था. उसे देखते ही वह बोला, ‘‘गांव वालों से मदद की उम्मीद मत करो, लेकिन जरूरत पड़े तो तुम उन की मदद जरूर कर देना.’’ इस के बाद लोचन ने खुद जा कर डाक्टर से दवा ली और थोड़ी देर बाद उसे आराम हो गया.

दूसरे दिन दोपहर के 12 बजे हरखू के कुएं पर गांव की सभी औरतें जमा हो कर चिल्ला रही थीं, पर महल्ले में कोई आदमी नहीं था, जो उन की आवाज सुनता. सभी लोग खेतों में काम करने जा चुके थे.

लोचन सिर पर घास की गठरी लिए उधर से गुजरा, तो औरतों की भीड़ देख कर वह ठिठक गया. औरतों ने उसे बताया कि बैजू चाचा का एकलौता बेटा कुएं में गिर गया है.

लोचन घास की गठरी वहीं छोड़ कुएं के नजदीक गया और देखते ही देखते कुएं में कूद गया. किसी पत्थर से टकरा कर उस का सिर लहूलुहान हो गया, फिर भी उस ने एक हाथ से बैजू चाचा के बेटे को कंधे पर उठा लिया और कुएं की दीवार में बनी एक छोटी सी दरार में दूसरे हाथ की उंगलियां फंसा कर लटक गया.

लोचन तकरीबन आधा घंटे तक उसी तरह लटका रहा, क्योंकि बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं था. तब तक लोगों की भीड़ बढ़ने लगी थी. गांव वालों ने लोहे की मोटी चेन कुएं में लटकाई, तो मुखियाजी बोले, ‘‘लोचन, अपने हाथों से चेन पकड़ लो, हम सब तुझे ऊपर खींच लेंगे.’’

लेकिन तब तक घायल लोचन तो बेहोश हो चुका था. मुखियाजी बोले, ‘‘तुम सब एकदूसरे को देख क्या रहे हो? इन दोनों को बचाने का कोई तो उपाय सोचो.’’

सब बुरी तरह घबरा रहे थे कि कुएं से उन दोनों को कैसे निकाला जाए? तभी एक नौजवान आगे बढ़ा और उस ने कुएं में छलांग लगा दी. उस ने लोचन और बैजू चाचा के बेटे को अपनी कमर में रस्सी से बांध दिया और चेन पकड़ कर वह बाहर आ गया.

लोचन और वह लड़का बेहोश थे. गांव वालों ने उन दोनों को तुरंत अस्पताल पहुंचाया और 2 दिन बाद वे सहीसलामत वापस आ गए.

आज सुबह से ही मुखियाजी के दरवाजे पर लोगों का आनाजाना लगा हुआ था. लेकिन लोचन को इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी. सचाई जानने के लिए लोचन यह सोच कर मुखियाजी के दरवाजे की तरफ बढ़ा कि शायद मुखियाजी का बरताव अब बदल चुका होगा.

लेकिन अपने दरवाजे पर लोचन को देख मुखियाजी बोले, ‘‘तू ने अपनी जान की बाजी लगा कर बैजू के बेटे को बचा लिया, तो इस का मतलब यह नहीं है कि हमारी बिरादरी ने तेरी गलतियां माफ कर दीं. आज मेरी बेटी की शादी है और तुझे यहां देख कर बिरादरी वालों के कान खड़े हो जाएंगे, इसलिए यहां से जल्दी भाग जा.’’

यह सुनते ही लोचन की आंखों से आंसू निकल पड़े. वह सिसकते हुए बोला, ‘‘मुखियाजी, मैं आप के बेटे के बराबर हूं. अगर मेरी वजह से आप की इज्जत बिगड़ती है, तो मैं खुदकुशी कर लूंगा. इस गांव में जिंदा रहने से क्या फायदा, जब मेरी सूरत देखने से ही लोग नफरत करते हैं.’’

‘‘तुम कुछ भी करो, उस के लिए आजाद हो,’’ मुखियाजी बड़बड़ाते हुए आगे बढ़ गए. लोचन आज फिर काफी दुखी हुआ. वह भारी मन से अपने घर आ गया.

शाम होते ही मुखियाजी के दरवाजे की रौनक बढ़ गई. चारों तरफ रंगबिरंगी लाइटें जगमगा रही थीं और बैंडबाजा बज रहा था.

देर रात तक शादी की रस्म चलती रही. सुबह 4 बजे बेटी की विदाई के लिए गांव की औरतें जमा हो गईं. बिरादरी वाले भी दरवाजे पर खड़े थे. अचानक घर के अंदर हल्ला मचा, तो सभी लोग दरवाजे की ओर दौड़े. पता चला कि बेटी के सारे गहने चोरी हो गए हैं और लड़की खुद बेहोश है.

मुखियाजी चिल्ला पड़े, ‘‘तुम सब यहां क्या देख रहे हो? जल्दी पता करो कि किस ने हमारे घर में चोरी की है. मैं उस को जिंदा नहीं छोड़ूंगा.’’

सभी लोगों ने घर से बाहर निकल बस्ती को घेर लिया, लेकिन चोर का कहीं पता नहीं चला.

एक घंटे बाद लड़की को होश आया, तो मुखियाजी ने उस से पूछा, ‘‘यह सब किस ने किया बेटी?’’

‘‘मुझे कुछ पता नहीं है पिताजी. किसी ने मुझे बेहोश कर दिया था,’’ इतना कह कर वह सिसकने लगी.

यह बात जब दूल्हे के पिता को पता चली, तो वे आंगन में घुसते ही मुखियाजी से बोले, ‘‘जो बीत चुका, उसे भूल जाइए समधी साहब. अब बहू को विदा कीजिए. जिस गांव में एकता नहीं होती, वहां यही सब होता है.’’

मुखियाजी आंसू पोंछते हुए बोले, ‘‘आप महान हैं समधी साहब. आज अगर कोई दूसरा होता, तो बरात लौट जाती. बस, मुझे अफसोस इस बात का है कि मेरी बेटी सोने की जगह धागे का मंगलसूत्र पहन कर जाएगी.’’

बरात विदा हो गई. बेटी के साथ सभी रोने लगे थे. सब का चेहरा मुरझाया हुआ था. गाड़ी आगे बढ़ी, तो बढ़ती ही चली गई.

लेकिन यह क्या? गांव के बाहर गाड़ी अचानक रुक गई. सामने सड़क पर कोई घायल हो कर पड़ा था. दूर से देखने पर यह पता नहीं चल रहा था कि वह कौन है.

दूल्हे के पिता ने मुखियाजी और तमाम गांव वालों को अपने हाथ के इशारे से बुलाया, तो सभी लोग दौड़े चले आए.

‘‘अरे, यह तो लोचन है,’’ पास पहुंचते ही मुखियाजी बोले, ‘‘तुम्हारी ऐसी हालत किस ने की है लोचन? तुम्हारा तो सिर फट चुका है और पैर पर भी काफी चोट लगी है.’’

‘‘मुझे माफ करना मुखियाजी. मैं उन चोरों को पकड़ नहीं सका. लेकिन अपनी बहन का मंगलसूत्र उन लोगों से जरूर छीन लिया. उन लोगों ने मारमार कर मुझे बेहोश कर दिया था.

‘‘जब मुझे होश आया, तो मैं ने सोचा कि विदाई से पहले आप के पास जा कर अपनी बहन का मंगलसूत्र दे दूं. लेकिन मैं इसलिए नहीं गया कि कहीं आप की बिरादरी वालों के कान न खड़े हो जाएं,’’ सिसकते हुए लोचन ने कहा.

‘‘लोचन, अब मुझे और शर्मिंदा मत करो बेटा. आज तुम ने साबित कर दिया कि समाज की सीमाओं को तोड़ कर भी इनसानियत को बरकरार रखा जा सकता है. आज से तुम इस गांव का एक हिस्सा ही नहीं, बल्कि एक आदर्श भी हो. तुम ने इस गांव के साथसाथ मेरी इज्जत को और भी बढ़ा दिया है,’’ कहते हुए मुखियाजी की आंखें भर आईं.

इस के बाद मुखियाजी घायल लोचन को ले कर गांव वालों के साथ अस्पताल की ओर जाने लगे. लोचन अपनी बहन की उस गाड़ी को देखता रहा, जो धीरेधीरे उस की आंखों से ओझल हो रही थी.

लेखक- संजय सिंह

Best Online Story : लमहों को आजाद रहने दो

Best Online Story :  भूमिका आज बेहद खुश नजर आ रही थी. अभीअभी तो उस ने फेसबुक पर अपनी डीपी अपलोड करी थी और 1 घंटे में ही सौ लाइक आ गए थे. गुनगुनाते हुए खुद को आईने के सामने निहारते हुए भूमिका मन ही मन सोच रही थी. पहले मैं कितनी गंवार लगती थी. न कोई फैशन सैंस थी और ना ही मेकअप की तमीज और अब देखो 50 वर्ष की उम्र में भी कितने पुरुष और लड़के उस के ऊपर मोहित हो रहे हैं. काश, कुछ वर्ष पहले यह सोशल मीडिया आ जाता तो उस की जिंदगी कुछ और ही होती.

तभी रोहित डकार मारता हुआ भूमिका के सामने आ गया. भूमिका बेजारी से रोहित को देखने लगी कि क्या रोहित ही मिला था उस के मातापिता को इस दुनिया में उस के लिए… रोहित का बढ़ता वजन, झड़ते बाल, बेतरतीबी से पहने कपड़े, जोरजोर से डकार लेना सभी कुछ तो उसे रोहित से और दूर कर देता था.

रोहित भूमिका को देखते हुए बोला, ‘‘आज खाना नहीं मिलेगा क्या?’’

भूमिका फेसबुक पर नजर गड़ाते हुए बोली, ‘‘अभी बनाती हूं.’’

खाना बनातेबनाते भूमिका बारबार आज शाम के फंक्शन में कैसे रील बनाएगी सोच रही थी. बालों को खुला छोड़े या कोई हेयर स्टाइल बनाए.

ये सब सोचतेसोचते उस की तंद्रा तब टूटी जब कुकर से जलने की महक आने लगी. जल्दीजल्दी कुकर की सीटी निकाली और जल्दी खाना खा कर पार्लर की भाग गई.

जब मेकअप खत्म हुआ तो भूमिका ने एक नजर आईने पर डाली और मन ही मन इतराते हुए सोचने लगी कि आज तो मेरे फौलोअर्स की खैर नहीं. शाम के फंक्शन में भूमिका ने जम कर रील बनाई. भूमिका के भाईभाभी, रोहित और उस की बेटी आर्या सभी भूमिका के इस व्यवहार से आहत थे.

आज भूमिका के भाई के बेटे का जन्मदिन था. भूमिका की भाभी को लगा कि भूमिका के आने से उस की कुछ मदद हो जाएगी मगर भूमिका तो अपने में ही व्यस्त थी. बारबार रील बनाते हुए टेक और रीटेक करते हुए भूमिका ने अपना सारा समय बिता दिया. जन्मदिन में कौनकौन मेहमान आए, कब केक कटा उसे कुछ भी नहीं पता. वह तो बस अपनी ही दुनिया में खोई हुई थी. घर पहुंच कर भी भूमिका अपनी रील की एडिटिंग में ही व्यस्त रही. आर्या ने ही उलटासीधा खाना बना लिया था. आर्या को किचन में काम करता देख कर रोहित को गुस्सा आ गया. भूमिका के हाथ से मोबाइल छीनते हुए रोहित बोला, ‘‘आर्या को इस साल 12वीं कक्षा के ऐग्जाम के साथसाथ ऐंट्रैंस ऐग्जाम भी देने हैं और वह तुम्हारे हिस्से का काम कर रही है.

भूमिका तुनकते हुए बोली, ‘‘मैं रातदिन किचन में लगी रहती हूं तो कभी दर्द नहीं हुआ. आज बेटी ने एक टाइम का खाना क्या बना लिया कि पूरा घर सिर पर उठा दिया.’’

रोहित के हाथ से अपना मोबाइल छीनते हुए भूमिका ने अपनेआप कमरे में बंद कर लिया. भूमिका अपनी रील के व्यूज को देखने में व्यस्त थी. बस 250 व्यूज ही आए थे. मन ही मन मनन कर रही थी कि क्या करे कि व्यूज बढ़ जाएं.

तभी भूमिका ने सोचा क्यों न डांस करते हुए अपनी एक रील बनाए. सोशल मीडिया पर वैलिडेशन की भूमिका का सिर पर इतना भूत सवार था कि उस ने बिना कुछ सोचेसमझे एक रील बना ली और फेसबूक पर अपलोड कर दी. भूमिका उस रील में बेहद भद्दी लग रही थी. साफ नजर आ रहा था कि उस ने किसी और के शौर्ट्स और टीशर्ट पहन रखे थे. खटाखट लाइक्स आ रहे थे और साथ ही साथ भूमिका की खुशी भी बढ़ती जा रही थी.

कितने सारे पुरुषों के मैसेंजर पर मैसेज आए हुए थे. हरकोई उस से दोस्ती करने को आतुर था. और तो और कुछ लड़के तो भूमिका से 10 से 15 साल छोटे थे मगर सब को वो हौट लग रही थी. तभी भूमिका के घर से उस की मम्मी का फोन आया, ‘‘लाली यह क्या कर रही है तू सारे लोग महल्ले में तेरा मजाक उड़ा रहे हैं.’’

‘‘ऐसे कैसा वीडियो बन कर तूने डाल दिया है. कम से कम देख तो लेती कि तू उस में कैसी लग रही है.’’

भूमिका ने कहा, ‘‘लगता है भैयाभाभी ने तुम्हारे कान भरे हैं. मम्मी मैं कभी भी तुम्हारी फैवरिट नहीं थी. तुम्हें तो हमेशा दीदी और भाभी की सुंदरता के आगे मैं फीकी ही लगी. इतनी फीकी कि तुम ने रोहित जैसे नीरस आदमी के साथ मुझे बांध दिया.

‘‘आज अगर लोग मुझे पहचान रहे हैं, मेरे काम की तारीफ कर रहे हैं तो तुम्हारी बहू को आग लग गई क्योंकि वह अपने बढ़ते वजन के कारण ये सब नहीं कर सकती है जो मैं अब कर पा रही हूं.’’

भूमिका की मम्मी ने फोन रखने से पहले बस यह कहा, ‘‘लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए क्याक्या करेगी तू,’’ और खटाक से फोन रख दिया.

घर के काम निबटाने के बाद भूमिका अपनी रील पर आए कमैंट्स को पढ़ने लगी कमैंट्स पढ़ कर उस का मन करा कि वह जल्द ही एक और डांस करते हुए रील बना ले. अगले दिन सब के जाते ही भूमिका ने फिर से डांस करते हुए रील बनाने की तैयारी करीए. मगर हर बार उसे संतुष्टि नहीं मिल रही थी. जब तीसरी बार भूमिका घूमघूम कर नाचने लगी उस का पैर फिसल गया और उस का सिर पास ही रखी शीशे की मेज से टकरा गया. शुक्र था कि सिर बच गया मगर पैर में मोच आ गई. किसी तरह गिरतेपड़ते डाक्टर के पास पहुंची और तमाम प्रोसीजर्स के बाद जब बाहर निकली तो 5 हजार की चपत लग चुकी थी.

जब तक भूमिका का पैर पूरी तरह से ठीक नहीं हुआ उस ने बैठेबैठे ही कुछ रील बनाईं और अपलोड कर दी थीं. हर रील पर भूमिका को कुछ न कुछ कमैंट्स आते ही थे और धीरेधीरे ऐसा होने लगा कि भूमिका अपनी वर्चुअल दुनिया से इतनी जुड़ गई कि वह अपनी असल दुनिया से डिस्कनैक्ट हो गई.

भूमिका को यह लगने लगा था कि स्क्रीन के उस पार के लोग ही हैं जो उस के अपने हैं, जो उस की कद्र करते हैं. हर रील के साथ यह पागलपन बढ़ता ही जा रहा था.

अब तो यह हाल हो गया था कि मार्केट जाते हुए, चाट खाते हुए हर समय भूमिका रील बनाती रहती. हद तो तब हो गई जब भूमिका की हास्यास्पद रीलों के कारण आर्य अपने दोस्तों के बीच मजाक बन कर रह गई.

सीधेसीधे नहीं मगर इशारों से सभी लड़के आर्या के आते ही हौट आंटी, मस्त आंटी कह कर के कटाक्ष करने लगते थे. आर्या को सब समझ में आ रहा था मगर वह कैसे अपनी मम्मी को सम?ाए. इन्हीं सब कारणों से आर्या और भूमिका में दूरी बढ़ती जा रही थी. मगर भूमिका इन सब बातों से बेखबर अपनी ही दुनिया में मस्त थी. उधर रोहित भूमिका का घर के प्रति लापरवाह रवैया देख कर मन ही मन कुढ़ता रहता था.

भूमिका का यह सोशल मीडिया का बुखार बढ़ता ही जा रहा था. वह अपने जीवन के हर लमहे को कैद कर के अपलोड कर देती थी. भूमिका को जीने से अधिक अपलोडिंग में मजा आता था. उस का पहनना, खानापीना सबकुछ सोशल मीडिया तय करता था. क्या ट्रैडिंग कर रहा है क्या नहीं इस बात पर भूमिका की जिंदगी निर्भर हो गई थी.

आर्या के ऐग्जाम के बाद पूरा परिवार जब घूमने गया तो हर 1 घंटे में एक नई रील बनाने के कारण भूमिका साथ होकर भी साथ नहीं थी. उस का सारा ध्यान उस रमणीय स्थल को देखने में नहीं वहां पर फोटो खिंचवाने और रील बनाने में था. भूमिका हर हाल में अपने सब्स्क्राइबर बढ़ाना चाहती थी.

रोहित ने एक दिन गुस्से में कह भी दिया, ‘‘भूमिका, तुम हमारे साथ आई ही क्यों हो. लगता ही नहीं तुम हमारे साथ आई हो.’’

मगर भूमिका सारी बातें अनसुनी कर देती थी. 12वीं कक्षा के रिजल्ट के बाद आर्या पढ़ने के लिए बाहर चली गई. उस की एडमिशन से ले कर प्रवेश परीक्षा तक सब चीजों में उस के पापा रोहित का ही योगदान था. भूमिका का योगदान बस अपनी बेटी के प्रति बस उस की तसवीरों और हैशटैग को सोशल मीडिया पर पोस्ट करने में ही सिमट गया था.

आर्या के कुछ बोलने से पहले ही भूमिका कहती, ‘‘तुम्हें सबकुछ वर्षों बाद भी याद रहेगा इसलिए मैं ये सब कर रही हूं.’’

आर्या व्यंग्य करते हुए बोली, ‘‘हां, महसूस तो कुछ हुआ ही नहीं है बस तसवीरों में ही याद रहेगा.’’

भूमिका इतनी अधिक इस नशे की शिकार हो गई थी कि उसे भनक भी नहीं लगी कि कब और कैसे रोहित अपनी खुशी अपनी एक तलाकशुदा सहकर्मी में ढूंढ़ने लगा था. उस महिला का नाम भावना था. रोहित अकसर दफ्तर के बाद भावना के घर ही चला जाता था. वैसे भी उसे अपना घर, घर कम स्टूडियो ज्यादा लगता था. कहीं रिंग लाइट, कहीं मेकअप का बिखरा समान… हर जगह बस दिखावा था. भावनाएं कहीं नहीं थीं.

जब से आर्या होस्टल चली गई थी तब से अधिकतर खाना या तो बाहर से आता या फिर रोहित बनाता था. भूमिका ने यह भी ध्यान नहीं दिया कि कब और कैसे रोहित रात के 9 बजे दफ्तर से घर आने लगा है.

रोहित को अब भूमिका से कोई फर्क नहीं पड़ता था. भूमिका रील बनाने में व्यस्त रहती और रोहित भावना के साथ चैटिंग करने में. जब आर्या छुट्टियों में घर आई तब भी भूमिका अपने सोशल मीडिया पर ही व्यस्त रही. रोहित आर्या को भावना के घर ले कर गया और भावना ने आर्या के साथ खूब सारी बातें और शौपिंग करी. दोनों बापबेटी को भावना में अपना नया घर मिल गया था.

भूमिका को तब होश आया जब रोहित रात को भी घर से गायब रहने लगा. आखिर एक दिन भूमिका ने रोहित को रंगे हाथ पकड़ लिया. जब भूमिका रोहित को लानतसलामत भेज रही थी तब रोहित बोला, ‘‘तुम इस बात पर रील बना कर अपने व्यूज बढ़ाओ. तुम्हारे सब्स्क्राइबर्स बढ़ाने का यह सुनहरा मौका है. तुम्हारा पति हूं कुछ तो ऐसा करूंगा जिस से मेरी पत्नी को फायदा हो,’’ यह बोल कर रोहित तीर की तरह घर से बाहर निकल गया.

भूमिका को समझ नहीं आ रहा था कि रोहित क्या सच में ऐसा उस के व्यूज बढ़ाने के लिए कर रहा है या वाकई में उस का अफेयर चल रहा है.

भूमिका इस मायावी दुनिया के सफर में इतना आगे बढ़ गई थी कि उसे वास्तविकता और वर्चुअल दुनिया में कोई फर्क ही नजर नहीं आता था. बरसों से भूमिका अपने किसी भी दोस्त से नहीं मिली थी. औनलाइन दोस्त ही उस की दुनिया बन कर रह गए थे.

भूमिका अपनी इस समस्या के लिए नए हैशटैग और अपनी एक दुखी तसवीर को क्लिक करने में व्यस्त हो गई थी. शायद जिंदगी के हर लमहे को कैद करतेकरते भूमिका कब और कैसे इस मायावी दुनिया में कैद हो गई थी उसे पता नहीं था.

Pregnancy के दौरान कब और क्यों कराना चाहिए अल्ट्रासाउंड

Pregnancy : प्रैगनेंसी के वक्त जब मां के गर्भ में बच्चा पलबढ़ रहा होता है, तो यह समय एक मां के लिए जितना सुखदायी होता है उतना ही कठिन भी, क्योंकि 9 महीने की प्रैगनेंसी में हर महीने महिला अलगअलग प्रैगनेंसी लक्षणों को झेल रही होती है. कभी अत्यधिक उलटियां, कमरदर्द, पैरों में सूजन, थकावट, कब्ज, वजन बढ़ना, जोड़ों में दर्द, ऐसिडिटी, तो कभी हार्टबर्न.

ये तो बस कुछ ही परेशानियां हैं, जानें कितनी ही दिक्कते हैं जिन का एक औरत मातृत्व की इस यात्रा में सामना करती है.

इस दौरान हिम्मत देने और जन्म से पहले शिशु से इमोशनली जुड़ने में अल्ट्रासाउंड काफी मददगार साबित होते हैं. जो न सिर्फ आप के बच्चे की सही ग्रोथ और सेहत को दिखाते हैं, जब आप अल्ट्रासाउंड के दौरान बच्चे के हाथपैर देखती हैं, उस की धड़कनों को पहली बार सुनती हैं तो उस से आप का आप के बच्चे से लगाव बढ़ जाता है.

अल्ट्रासाउंड से आप को प्रैगनेंसी के रिस्क या बच्चे को गर्भ में कुछ परेशानी तो नहीं, यह सब भी पता चल जाता है. गर्भावस्था में कौन से अल्ट्रासाउंड कराने चाहिए, इस के बारे में हम यहां जानेंगे :

अर्ली प्रैगनेंसी या डेटिंग स्कैन : यह गर्भधारण के शुरुआती दिनों जैसे 7 से 11 हफ्तों के अंदर किया जाता है. यह बताता है कि आप का बच्चा गर्भ में सही है. यहां आप को पहली बार अपने बच्चे की धड़कन सुनने का मौका मिलता है. हालांकि आप का बच्चा यहां मूंग की दाल के दाने के बराबर साइज का होता है, लेकिन आप उसे जीताजागता देख सकते हैं.

अल्ट्रासाउंड के टर्म्स की बात करें, तो यहां आप को रिपोर्ट में ईडीडी (EDD) यानी कब आप का बच्चा डिलिवर होगा, (फ्यूटस) Featus से अर्थ है आप का बच्चा, (एफएचआर) FHR से मतलब होता है बच्चे की धड़कन, जैसे टर्म्स देखने को मिलेंगी.

NT/NC स्कैन : यह आप के गर्भधारण के 11 से 13वें हफ्ते में किया जाता है. यह स्कैन बहुत जरूरी है। इसलिए आप को किसी भी हालत में इस को मिस नहीं करना चाहिए. इस में आप के बच्चे का साइज एक स्ट्राबैरी के बराबर हो जाता है और मेजर और्गन्स बनना, हाथपैर, रीड की हड्डी बनना शुरू हो जाती है. बच्चे की नाक की हड्डी की लंबाई को भी इस में मापा जाता है.

यह स्कैन इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इस दौरान आप के बच्चे में ऐडवर्ड सिंड्रोम, डाउन सिंड्रोम जैसी मानसिक बीमारियां तो नहीं हैं, पता लगाया जाता है. इस स्कैन के साथ ही डबल मार्कर, ब्लड टैस्ट कराने की सलाह भी डाक्टर आप को देते हैं जिस से बच्चे में मानसिक स्थिति का सही पता लगाया जा सके.

ऐनामौली स्कैन : यह 14-18 हफ्तों की बीच कराया जाता है. इस में आप का बच्चा ऐवाकाडो के साइज का हो चुका होता है. यही स्कैन 19-22वें हफ्ते के बीच भी दोहराया जाता है ताकि बच्चे के अंग सही से ग्रो कर रहे हैं या नहीं, उस का पता लगाया जा सके. आप के शरीर में ऐमनियोटिक फ्लूड, यानी गर्भ में जिस पानी से बच्चा घिरा रहता है वह ज्यादा या कम तो नहीं, इस की भी जांच की जाती है.

गर्भ में पानी ज्यादा या कम होने से बच्चे की सेहत पर प्रभाव पड़ता है. अत्यधिक पानी होने पर कई बार डाक्टरों को इंजैक्शन से ऐमनियोटिक फ्लूड को निकालना पड़ता है. बच्चे में स्पाइना बिफिडा जैसी बीमारी, जिस में सही से बच्चे की रीड की हड्डी नहीं बन रही हो, उस की भी जांच की जाती है.

यह स्कैन आप के लिए जरूरी है क्योंकि इस में आप को बच्चे के हाथपैर, उंगलियां आदि आप को देखने को मिलेंगी.

गर्भावस्था के आखिरी 3 महीनों (तीसरा ट्राइमेस्टर) में ग्रोथ स्कैन और डौपलर स्कैन किए जाते हैं. ग्रोथ स्कैन यह देखने के लिए होता है कि बच्चा ठीक से बढ़ रहा है या नहीं, उस का वजन और स्थिति सही है या नहीं. डौपलर स्कैन गर्भनाल और प्लेसेंटा में खून के प्रवाह की जांच करता है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि बच्चे को पूरी तरह से पोषण मिल रहा है.

प्रैगनेंसी के दौरान होने वाले सभी अल्ट्रासाउंड न सिर्फ बच्चे के लिए बल्कि आप के लिए भी जरूरी हैं क्योंकि जब आप बच्चे की धड़कन सुनते हैं, तो मातापिता सभी को बच्चे से भावनात्मक रूप से जुड़ने का मौका मिलता है.

जन्म से पहले बच्चे से लगाव प्रैगनेंसी के दौरान खड़ी होने वाली परेशानियों को तो कम नहीं करता, लेकिन बच्चे को देख कर आप को सभी दिक्कतें झेलने की ताकत मिलती हैं, क्योंकि अल्ट्रासाउंड से परिणाम आप को अपनी आंखों के सामने नजर आता है जोकि काफी सुखद अनुभव होता है.

मुसलमान होने की वजह से मुंबई शहर में उनके साथ किया जाता है भेदभाव : Saif Ali Khan

Saif Ali Khan : हिंदू मुसलमान में भेदभाव काफी सालों से चला आ रहा है, लेकिन हालिया पिछले 10 सालों से मुस्लिम जाति खतरों के साथ गुजर रही हैं. गौरतलब है पिछले कुछ सालों में मुस्लिम सेलिब्रिटी पर अटैक ज्यादा हुआ है जिसमें से कुछ तो मर गए , कुछ को लगातार जान से मारने की धमकी मिल रही है और कुछ सेलिब्रेटी पर कातिलाना हमला हो चुका है. वजह कोई भी हो लेकिन हमला मुस्लिम लोगों पर ही ज्यादा हो रहा है. जिसकी वजह से कुछ सेलिब्रिटी तो चुपचाप हिंदुस्तान छोड़कर विदेश शिफ्ट हो रहे हैं. सलमान खान, शाहरुख खान, सैफ अली खान सभी खान हीरोज डर के साए में जी रहे हैं. इसी बात को मद्दे नजर रखते हुए हाल ही में हमले के शिकार हुए सैफ अली खान ने मुसलमान होने का खामियाजा खासतौर पर हिंदुस्तान में भुगतने को लेकर एक इंटरव्यू में इस बारे में बताया है.

सैफ अली खान के अनुसार मुसलमान होने की वजह से मुंबई शहर में भी उनको भेदभाव के तहत गुजरना पड़ता है .जब की विदेश में किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता की हम हिंदू है या मुस्लिम है. वहां पर कोई किसी को उनकी जात या भाषा से जज नहीं करता. लेकिन मुंबई में अगर घर भी खरीदना हो तो बहुत सारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है. कई सारी बिल्डिंगों में मुस्लिम को घर नहीं देते. जैसे कि मुंबई के जुहू इलाके में मेने फ्लैट खरीदने की कोशिश की थी तो सिर्फ मुस्लिम होने की वजह से मुझे वहां पर कई बिल्डिंग में यह कहकर ना सुनना पड़ा कि हमारे यहां मुस्लिम को घर नहीं देते. इस बारे में अमित जी से भी बात की तो अमित जी ने भी बताया कि मुस्लिम को जुहू में फ्लैट मिलना मुश्किल होता है.

इस बात में कोई दो राय नहीं है कि इंडिया में रिलिजियस टेंशन तो है. इंडिया की यही खासियत है कि वह इस टेंशन को सुलझाने में लगे रहते हैं, बर्दाश्त भी करते हैं, क्योंकि यहां पर ह्यूमन नेचर सिंपल नहीं है, और ना ही कभी होगा, भाई भाई से झगड़ता है, आदमी बीवी से झगड़ता है, दो मजहब वाले एक दूसरे से झगड़ते हैं. यहां पर यह सब कौमन है , यह सब यहां पर मुश्किल नहीं है , मुश्किल है तो अंडरस्टैंडिंग रखना शांति बनाए रखना. अगर यह नौर्मल बात नहीं है तो अच्छी बात भी नहीं है. क्योंकि आखिर में हिंदू हो या मुसलमान हम बचपन से यहां पले बड़े हैं. अपना पूरा जीवन इसी देश हिंदुस्तान में गुजारा है . ऐसे में अपने ही देश में तकलीफ सहन करना ,परायो जैसा व्यवहार देखना. भी तो सही नहीं है.

Urvashi Rautela की ‘डाकू महाराज’ ने बौक्स औफिस पर मचाया धमाल, ‘गेम चेंजर’ को भी पछाड़ा

Urvashi Rautela : भारत की सबसे कम उम्र की सुपरस्टार और आइकन उर्वशी रौतेला को सबसे अधिक भुगतान पाने वाली अभिनेत्री और वैश्विक कलाकार के रूप में जाना जाता है.सभी प्लेटफार्मों पर 100 मिलियन से अधिक के चौंका देने वाले सोशल मीडिया फौलोअर्स के साथ, वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सबसे अधिक फौलो की जाने वाली भारतीय हस्तियों में से एक हैं. उनकी अपार लोकप्रियता ने उन्हें इंस्टाग्राम फोर्ब्स रिच लिस्ट में जगह दिलाई है, जहां वह सबसे कम उम्र की भारतीय हैं.

बौलीवुड और वैश्विक मंच दोनों पर उर्वशी का उल्लेखनीय प्रभाव दुनिया भर में लाखों लोगों को प्रेरित कर रहा है. अभिनेत्री वर्तमान में पहले कभी नहीं की गई अलग तरह की भूमिका में हैं और पर्दे पर अपने काम से लोगों को सटीक रूप से मंत्रमुग्ध कर रही हैं.वर्ष 2024 उनके लिए प्रोफेशनल रूप से असाधारण और अविश्वसनीय था और अब, वह 2025 में अपने काम के साथ बड़े पैमाने पर प्रभुत्व बनाए हुए हैं. नंदमुरी बालकृष्ण और बौबी देओल के साथ उनकी नवीनतम फिल्म ‘डाकू महाराज’ ने 3 दिनों में 100 करोड़ का आंकड़ा पार कर लिया है और उर्वशी रौतेला के स्टारडम का इससे बहुत कुछ लेनादेना है. फिल्म ने राम चरण और कियारा आडवाणी अभिनीत अपने समकालीन ‘गेम चेंजर’ को बौक्स औफिस पर वास्तव में पछाड़ दिया है और फिल्म को उचित अंतर से पीछे छोड़ दिया है. इसके साथ, उर्वशी रौतेला, उर्फ देश में सबसे अधिक भुगतान पाने वाली महिला स्व-निर्मित सुपरस्टार भी आधिकारिक तौर पर उद्योग में एकमात्र बाहरी अभिनेत्री बन गईं, जिन्होंने केवल 11 महीने की अवधि के भीतर 3 दक्षिण मेगास्टार, नंदमुरी बालकृष्ण, पवन कल्याण और चिरंजीवी के साथ काम किया.

ऐसा लगता है कि उर्वशी रौतेला की स्टारडम और बौक्स औफिस पुल ने कियारा आडवाणी की फिल्म को बड़े पैमाने पर पछाड़ दिया है. अपने हालिया मीडिया साक्षात्कारों में से एक के दौरान, उर्वशी रौतेला से एक मीडिया पत्रकार ने इस बारे में पूछा और उन्होंने वास्तव में सबसे सुंदर और अद्भुत प्रतिक्रिया के साथ जवाब दिया है. बालकृष्ण और बौबी देओल के साथ ‘डाकू महाराज’ की सफलता के बाद उर्वशी रौतेला वर्तमान में कमल हासन और शंकर के साथ ‘इंडियन 2’, आफताब शिवदासानी और जस्सी गिल के साथ ‘कसूर’ और कई अन्य परियोजनाओं पर काम कर रही हैं.

वैश्विक भारतीय सुपरस्टार उर्वशी रौतेला के पास अक्षय कुमार के साथ वेलकम 3, जस्सी गिल के साथ आने वाली फिल्म, सनी देओल और संजय दत्त के साथ ‘बाप’ (हौलीवुड ब्लौकबस्टर एक्सपेंडेबल्स की रीमेक), रणदीप हुड्डा के साथ इंस्पेक्टर अविनाश 2, ब्लैक रोज जैसी अन्य बड़ी परियोजनाएं भी हैं. इन सबके अलावा उर्वशी रौतेला एक अंतर्राष्ट्रीय संगीत वीडियो में भी दिखाई देंगी और अभिनेत्री आगामी बायोपिक में परवीन बाबी की भूमिका भी निभाएंगी.इसके साथ ही, उनका जेसन डेरुलो के साथ एक बहुत ही खास संगीत वीडियो भी है. जो उनके सुनहरे भविष्य की झलक दिखा रहा है .

Hidden Truth : पत्नी और वो

Hidden Truth : एक नाव में सवार व्यक्ति पतवार खेता हुआ झंझटों और संकटों से जू?ाता यदि कोई भयानक दुर्घटना न हो तो अंतत: किनारे पर पहुंच ही जाता है. मगर उस का क्या जो 2 नावों में सवार हो? कहीं न कहीं, कभी न कभी उस के जीवन का संतुलन बिगड़ना तय है. वह कभी एक नाव को संभालता है, कभी दूसरी को. इसी कशमकश में कभी न कभी धोखा लगता है और संतुलन बिगड़ जाता है. नावें तो बह जाती हैं लेकिन ऐसे आदमी को किनारा नहीं मिलता, उस की नियति पानी में डूब जाना है.

रामप्रसाद कोई बहुत बड़ा नहीं तो छोटा आदमी भी नहीं था. उस का काम बहुत बढि़या नहीं तो खराब भी नहीं कहा जा सकता था. कभीकभार दोस्तों की महफिल जमती तो 2 पैग भी लगा लेता. मन हुआ तो सिगरेट के कश भी लगा लेता, लेकिन मीटमच्छी से दूर ही रहता. मनमौजी. अपने काम की परवाह करने वाला. अपने परिवार की चिंता करने वाला. 2 बेटियों का अच्छा पिता. एक छोटे से गिफ्ट सैंटर, ‘सलोनी गिफ्ट सैंटर’ का अच्छा मालिक और संचालक. अपनी पत्नी देवयानी का खूब खयाल रखने वाला पति. इस से अच्छा एक आम आदमी और क्या हो सकता है?

एक भारतीय नारी की तरह देवयानी घर को संभालती. घर का सारा काम खुद करती. रामप्रसाद ने कई बार कहा, ‘‘देवयानी, तुम घर का सारा काम करतेकरते थक जाती होगी, कोई झाड़ूपोंछा करने वाली लगा ही लो.’’

‘‘नहीं, जब तक इन हाथपैरों में जान है मैं कामवाली को पैसे न देने वाली. तुम्हारे पास पैसे ज्यादा आ रहे हों तो मुझे ही कामवाली समझ कर दे दिया करो.’’

‘‘देवयानी, कैसीकैसी बातें करती हो? तुम घर की मालकिन हो, तुम्हें कामवाली क्यों समझूंगा भला? ऐसी बातें कभी मुंह से गलती से भी मत निकालना.’’

‘‘अच्छा, गलती हो गई. क्षमा करो देवताजी. मैं ने तो बस 4 पैसे बचाने की सोच कर यह बात कह दी थी.’’

इस तरह से रामप्रसाद का परिवार खुशहाल था. दोनों बेटियां बड़ी मलोनी 12वीं कक्षा में और छोटी सलोनी 10वीं कक्षा में पढ़ रही थी. दोनों अपने मम्मीपापा की आज्ञाकारी बेटियां थीं.

फिर एक दिन, ‘‘क्या 15 साल के बेटे के जन्मदिन के लिए कोई अच्छा सा गिफ्ट होगा?’’ एक आकर्षक महिला ने बड़ी मधुर आवाज में रामप्रसाद से पूछा.

रामप्रसाद एक पल उसे निहारता रह गया. फिर बोला, ‘‘हां, है न. बैठिए, अभी दिखाता हूं,’’ कहते हुए रामप्रसाद ने 3-4 गिफ्ट उस महिला को दिखा दिए.

‘‘और दिखा सकते हैं, प्लीज?’’ उस महिला ने बड़े प्यार से निवेदन किया.

रामप्रसाद छोटी सीढ़ी लगा कर छत से लगी सैल्फ से कुछ और गिफ्ट के पैकेट उतार कर उस महिला को दिखाने लगा. वह महिला गिफ्ट देख रही थी और रामप्रसाद उस महिला के आकर्षक चेहरे को. वह महिला रामप्रसाद की इस कमजोरी को ताड़ गई. उस ने एक गिफ्ट पसंद कर लिया.

‘‘क्या कीमत है इस की? ’’ उस महिला ने बेवजह मुसकराते हुए पूछा.

रामप्रसाद तो जैसे उस की मुसकान पर मोहित हो गया हो. उस ने भी उसी अंदाज में मुसकराते हुए कहा, ‘‘वैसे तो इस की कीमत 1,500 रुपए है लेकिन आप के लिए 1,400 रुपए का.’’

अपने नयनों से वार करते हुए उस महिला ने मादक अंदाज में कहा, ‘‘ऐसी मेहरबानी क्यों जनाब और मैं तो इस के 1,200 रुपए से ज्यादा देने वाली नहीं?’’

‘‘अरे मैडम, आप फ्री में ले जाएं, सब आप का ही तो है, ‘‘रामप्रसाद ने उस महिला के सामने लगभग समर्पण करते हुए कहा.

कुदरत ने महिलाओं का दिल और दिमाग ऐसा बनाया है कि वे मर्दों की महिलाओं के प्रति इश्क की कमजोरी को सरलता से ताड़ लेती हैं. वह महिला जान गई कि रामप्रसाद फिसल रहा है. उस ने अपने गुलाबी पर्स में से 1,200 रुपए निकाले और काउंटर पर रख दिए.

रामप्रसाद का मन तो उस महिला से एक पैसा लेने को भी नहीं हो रहा था लेकिन पैसे तो उठाने ही थे. उस ने पैसे उठाते हुए और उस महिला को गिफ्ट पकड़ाते हुए नशीले अंदाज में धीमे से कहा, ‘‘फिर आना.’’

‘‘अब तो आनाजाना लगा ही रहेगा. आप हो ही इतने दिलकश जनाब,’’ उस महिला ने ऐसे अंदाज में कहा कि रामप्रसाद के दिल पर इश्क की तेज छुरी चल गई. वह उस महिला को एकटक तब तक जाते देखता रहा जब तक वह आंखों से ओ?ाल नहीं हो गई.

उस दिन रामप्रसाद अलग ही दुनिया में चला गया. उस रोमानी दुनिया में जो वास्तविकता से बिलकुल अलग होती है. उस के पैर आज जमीं पर नहीं थे. उस का दिल आज उस के काबू में नहीं था. उस का दिल कबूतर की तरह गुटरगूं कर रहा था. रामप्रसाद बेवजह मुसकरा रहा था. यह कमबख्त इश्क होता ही ऐसा है जो इंसान को बदल कर रख देता है.

अगली ही मुलाकात में रामप्रसाद ने उस महिला के परिचय का बहीखाता तैयार कर लिया. उस का नाम अरुणा था. वह पारस लोक कालोनी में रहती थी. वह शादीशुदा थी. उस का पति बैंक में क्लर्क था. उस की बेटी बीए द्वितीय वर्ष की छात्रा थी जबकि बेटा 9वीं क्लास में पढ़ता था.

अरुणा को यह विश्वास नहीं था कि रामप्रसाद इश्क के दरिया में इतनी जल्दी फिसल जाएगा. वह इस क्षेत्र की माहिर खिलाड़ी थी. उस ने परिवार वाले मर्दों को कम ही और मुश्किल से ही इश्क के दरिया में फिसलते देखा था. आवास, अनाड़ी और लफंगे नवयुवक तो एक ही इशारे में इश्क के दरिया में छलांग लगाने को तैयार हो जाते थे. लेकिन इन अनाडि़यों से संबंध बनाने में हमेशा खतरा रहता है. एक तो ये अपनी मित्रमंडली में सारी बात खोल देते हैं जिस से बदनामी का डर हमेशा रहता है, दूसरे इन में उतावलापन ज्यादा रहता है. इन से बदले में कुछ ज्यादा मिलता भी नहीं.

परिवार वाला शादीशुदा आदमी अपने इश्क का ढिंढोरा पीटता नहीं घूमता. उसे खुद भी अपनी बदनामी का डर होता है और पोल खुलने पर परिवार के टूटने का भी. वह संयम से काम लेता है, उतावलेपन से नहीं. उस से गिफ्ट लेने और शौपिंग के बहाने कमाई भी अच्छी हो जाती है.

यही सब सोच कर अरुणा ने जल्द ही रामप्रसाद से जिस्मानी संबंध बना लिए.

उस ने गिफ्ट आदि के नाम पर रामप्रसाद से उगाही भी शुरू कर दी. वह अच्छी तरह जानती थी मर्दों से उगाही कैसे की जाती है. कभी रामप्रसाद ने उस के चंगुल से निकलने की कोशिश की तो अरुणा ने उसे भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल कर के संबंधों को और प्रगाढ़ बना लिया.

एक बानगी-

‘‘रामप्रसाद, मैं ने तुम्हारे इश्क में अंधी हो कर अपना सबकुछ लुटा दिया. अपनी इज्जतआबरू सब तुम्हें सौंप दी. अब तुम मुझे मंझधार में छोड़ना चाह रहे हो. मैंने तो तुम्हें ऐसा न समझ था. तुम तो उस बेवफा भौंरे की तरह निकले जो कली का रस पी कर उड़ जाता है.’’

अरुणा की आंखों में आंसू देखते ही रामप्रसाद पिघल जाता और अपने सच्चे इश्क के वादे करने लगता. उस का पहले से ज्यादा खयाल रखने लगता.

अरुणा उस से और ज्यादा उगाही करने लगती. दूसरी नाव की सवारी ऐसी हो गई कि रामप्रसाद उसे छोड़ नहीं पा रहा था. पहली नाव में तो वह सवार था ही, उसे तो वह छोड़ ही नहीं सकता था.

रामप्रसाद अरुणा के फेंके दांव में ऐसा फंसा कि उसे समझ में ही नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. अरुणा नागिन की तरह उस के दिलोदिमाग को जकड़ती जा रही थी. वह रामप्रसाद को बारबार यही जताती कि वह उस के लिए उस की बीवी से कम नहीं है. इसलिए रामप्रसाद की आमदनी में उस का बराबर का हिस्सा बनता है. यदि वह इसे नहीं देता तो उस के साथ नाइंसाफी होगी. ऐसा होने पर वह हंगामा करेगी और रामप्रसाद के बीवीबच्चों को सब बात बता देगी.

अरुणा रामप्रसाद के लिए गले में फंसी ऐसी हड्डी बन गई जो न निगलते बनती थी और न उगलते.

उधर देवयानी को यह बात समझ में नहीं आ रही थी कि रामप्रसाद को क्या होता जा रहा है. वह हर समय परेशान क्यों रहता है? परिवार से भी कटाकटा क्यों रहता है?

एक दिन देवयानी ने उस से पूछा, ‘‘क्योंजी, क्या बात है आप मुझे परेशान से दिखाई

पड़ते हो? कोई बात हो गई है क्या?’’

‘‘नहींनहीं देवयानी, कोई बात नहीं हुई.

बस कभीकभी मूड ऐसा ही हो जाता है. सब ठीक हो जाएगा.’’

‘‘नहींजी, कोई बात तो है. आप का मूड तो रोज ही खराब सा रहता है. चलो, किसी डाक्टर को दिखाएं.’’

‘‘नहीं, देवयानी. इस में डाक्टर क्या करेगा? जाओ तुम, मुझे ज्यादा परेशान मत करो,’’ कह कर रामप्रसाद ने चादर ओढ़ ली.

देवयानी को लगा कोई तो बात है जो रामप्रसाद उस से छिपा रहा है. दाल में तो कुछ काला है. गिफ्ट सैंटर की आमदनी भी कम होती जा रही है? कहीं उधारी में पैसा तो नहीं डूब गया या फिर कहीं किसी औरतवौरत का चक्कर तो नहीं? नहींनहीं, मेरा रामप्रसाद ऐसा नहीं. ऐसे ही कई सवाल देवयानी के मन में उमड़घुमड़ रहे थे. वह इन सब के जवाब चाहती थी. इसलिए समय निकाल कर गिफ्ट सैंटर पर बैठने लगी.

देवयानी के गिफ्ट सैंटर पर बैठने से रामप्रसाद और अरुणा दोनों को परेशानी थी. फिर भी दोनों ने इस बात को मैनेज किया. अब रामप्रसाद देवयानी से कोई न कोई बहाना बना कर अरुणा से मिलने चला जाता. पहले अरुणा उस से मिलने आया करती थी. लेकिन इस का एक फायदा यह हुआ कि गिफ्ट सैंटर पर बैठने से देवयानी को दुकानदारी आ गई.

हर संभव कोशिश करने पर भी देवयानी को रामप्रसाद की परेशानी का कारण सम?ा में नहीं आया. फिर एक दिन अलग ही कहानी हो गई.

अरुणा की बेटी ऊषा एक दिन कालेज से अचानक घर आ गई. उस ने घर से बाहर रामप्रसाद की मोटरसाइकिल खड़ी देखी. रामप्रसाद पहले भी उन के घर आया था और इसलिए वह उस को पहचानती भी थी. वह कोई छोटी बच्ची नहीं थी जो कुछ न समझती हो. उसे पहले से ही रामप्रसाद और अपनी मां के संबंधों पर शक था. उन्हें आज रंगे हाथ पकड़ने का ऊषा को मौका मिल गया.

उस ने उन्हें रंगे हाथ पकड़ने की एक युक्ति सोची. उस ने अपने घर की डोरबैल नहीं बजाई बल्कि पड़ोसी के घर से अपने घर में दाखिल हुई. उस समय तक वे दोनों अपना काम निबटा कर फारिग हो चुके थे.

ऊषा को सामने देख कर दोनों चौंक गए. चोर की दाढ़ी में तिनका. ऊषा को देखते ही रामप्रसाद वहां से भागा. ऊषा ने उसे पकड़ने की बहुत कोशिश की लेकिन वह ऊषा को धक्का दे कर गेट की तरफ भागा.

ऊषा फर्श पर गिर पड़ी. उसे उठ कर संभलने में 2 पल लगे. ये 2 पल रामप्रसाद के लिए काफी थे. वह गेट से बाहर आया और अपनी मोटरसाइकिल स्टार्ट कर वहां से भाग खड़ा हुआ.

ऊषा शिकार को हाथ से निकलते देख गुस्से से हांफ रही थी. उस ने अपने गुस्से को पहले तो अपनी मां को खरीखोटी सुना कर उस पर उतारा लेकिन अभी भी उस के अंदर गुस्से का ज्वालामुखी फूट रहा था. वह पैदल ही झपटते हुए रामप्रसाद की दुकान की तरफ बढ़ चली. दुकान मात्र 500 मीटर दूर थी.

रामप्रसाद हड़बड़ाता हुआ अपने गिफ्ट सैंटर पहुंचा था. उस की ऐसी हालत देख कर देवयानी ने पूछा, ‘‘क्या हुआ, इतने हांफ क्यों रहे हो? ’’

रामप्रसाद को एकदम से कुछ समझ में नहीं आया कि क्या कहे? फिर वह कुछ सोच कर बोला, ‘‘ऐक्सीडैंट, देवयानी, ऐक्सीडैंट. मैं बालबाल बचा. पानी… पानी पिलाओ.’’

देवयानी ने फुरती से पानी की बोतल उठा कर रामप्रसाद को दी. रामप्रसाद अभी बोतल से पानी पी ही रहा था तभी उस की नजर गुस्से से लालपीली और तेजी से झपटती आ रही ऊषा पर पड़ी.

ऊषा को देख कर वह लगभग चीख पड़ा, ‘‘देवयानी… ऐक्सीडैंट.’’

देवयानी भौचक्की सी इधरउधर देखने लगी. उसे लगा कि रामप्रसाद अभीअभी ऐक्सीडैंट से बच कर आ रहा है. इसलिए उस के दिमाग में ऐक्सीडैंट का फुतुर अभी भी घुसा हुआ है. रामप्रसाद की हालत तो ऐसी हो गई थी जैसे काटो तो खून नहीं, बिलकुल बेजान.

ऊषा ने आते ही रामप्रसाद की खोपड़ी पर तड़ातड़ चप्पलों की बरसात शुरू कर दी. वह चप्पल बरसा रही थी और जबानी आग उगल रही थी, ‘‘हरामजादे, मैं उतारूंगी तेरे बुढ़ापे का इश्क. बहुत आग उठ रही तुझे बुढ़ापे में, हरामखोर.’’

ऊषा उस पर तब तक चप्पलें बरसाती रही जब तक देवयानी और पासपड़ोस के दुकानदारों ने उसे काबू नहीं कर लिया. रामप्रसाद चुपचाप चप्पलें खा कर निढाल हो कर काउंटर के पीछे गश खा कर गिर गया.

ऊषा समुद्र के ज्वार की तरह आई थी और तबाही मचा कर भाटे की तरह यह कहती हुई चली गई, ‘‘हरामजादे, घर की तरफ फटक मत जाना, नहीं तो खून पी जाऊंगी, खून तेरा…’’

ऊषा को कुछ लोग पहचानते थे. कुछ को रामप्रसाद और अरुणा के संबंधों की भनक भी थी. अब उस के आखिरी शब्दों ने सबकुछ खोल कर रख दिया था, छिपाने को कुछ बचा नहीं था. आपस में खुसरफुसर शुरू हुई तो सब सबकुछ जान गए.

रामप्रसाद की ऐसी घनघोर बेइज्जती कभी नहीं हुई थी. यह जलालत उस की बरदाश्त से बाहर थी. वह बाहर वालों को तो छोडि़ए अपनी पत्नी और बच्चों को भी मुंह दिखाने लायक नहीं बचा था.

सुबह उस की लाश को पुलिस वाले पंखे से लटके फंदे से नीचे उतार रहे थे. जब उस की लाश बिजनौर के जिला अस्पताल को पोस्टमार्टम के लिए भेजी जा रही थी तो उस के बच्चे ‘पापा, पापा’ कर के दहाड़ें मार कर रो रहे थे लेकिन देवयानी की आंखें शुष्क हो चुकी थी.

कुछ दिनों के बाद दुनिया वैसी की वैसी हो गई. फर्क बस इतना था ‘सलोनी गिफ्ट सैंटर’ के काउंटर पर रामप्रसाद की जगह देवयानी बैठी थी. सच है, किसी के आनेजाने से इस दुनिया पर कोई फर्क नहीं पड़ता.

Meri Bitiya : प्यारी सी बिटिया केशवी

Meri Bitiya : केशवी… यथा नाम तथा रूप… कमर तक लहराते बाल. गेहुआं रंग, तीखे नैननक्श. छरहरी काया और आवाज तो मानो वीणा झंकृत होती हो. मंदिम स्वर कुछ सांचे तो कुदरत तराश कर ही बनाती है.

‘‘मैं आई कम इन सर,’’ धीमा सा, डरा सा स्वर, सहसा कक्षा में गूंजा.

‘‘यस कम इन… लेकिन तुम लेट कैसे हो गई और तुम्हें पहले कभी देखा भी नहीं?’’ सर की आवाज के साथ सारी कक्षा का ध्यान उस मनमोहक चेहरे पर था.

‘‘वह सर मेरा न्यू एडमिशन है और मुझे सही समय का पता नहीं था इसलिए आने में देरी हो गई,’’ केशवी का कंपित स्वर सुन कर बच्चों की दबी हंसी मानो गुंजित हो रही हो.

‘‘बैठ जाओ आगे से समय का ध्यान रखना,’’ सर ने सीट की तरफ इशारा करते हुए कहा और उपस्थिति लेने में मशगूल हो गए.

बच्चों को तो मानो कुतूहल का विषय मिल गया हो. मानो उस का ऐक्स रे ही निकाल रहे हो. उपस्थिति के बाद जब सर ने पढ़ाना शुरू किया तो भला आज कहां किसी को समझ में आने वाला था. एक नया अध्याय जो क्लास में आ गया था. जब तक उस की तहकीकात नहीं हो जाती कहां चैन आने वाला था? किशोर मन बड़ा जिज्ञासु होता. अधूरा ज्ञान अधूरा मन. जिस में संभावनाओं की अनंत डगर… ऐसा लग रहा था आज पीरियड खत्म ही नहीं हो रहा. शायद चपरासी घंटी बजाना भूल गया? जैसे ही घंटी बजे और केशवी का नाम तो पूछ ही लें.

इंतजार की घडि़यां समाप्त हुईं और सर ने प्रस्थान किया. इस से पहले कि दूसरे सर का आगमन हो कुछ तहकीकात तो कर ही लेते हैं. कुछ किशोर चंचलाएं फुरती से उठ कर उस के पास पहुंचीं और पता होने के बाद भी उस का नाम पूछने लगीं.

‘‘कहां से आई हो तुम?’’ एक लड़की ने पूछा.

‘‘मैं… मैं गुना से आई हूं, मेरे पापा का ट्रांसफर हुआ है.’’

मानो केशवी की पुलिस पूछताछ हो रही हो, ‘‘कल से समय से आना. स्कूल का समय 7 बजे का है,’’ कुछ और हिदायतें भी सुनाई दे रही थीं.

इतने में कक्षा में नए सर का आगमन हो गया और किशोर मन का कुतूहल शांत नहीं हो पाया.

ऐसे ही पीरियड पूरी हो गई और कुछ ज्यादा जिज्ञासु बच्चों की कुछ जिज्ञासा भी शांत हो गई. धीरेधीरे दिन निकलने लगे और केशवी भी क्लास के रंग में ढल गई.

एक दिन अचानक केशवी मेरी सीट पर बैठ गई और धीरे से उस ने मेरा नाम पूछा.

चूंकि मुझे पता था कि सब उस से नाम ही पूछते हैं इसलिए मैं ने कहा, ‘‘तुम्हारा नाम बहुत प्यारा है, क्या मैं तुम्हें केशू पुकार सकती हूं?’’

उस ने कहा, ‘‘हां… हां क्यों नहीं. मुझे घर में केशू ही बुलाते हैं.’’

अच्छा… तुम्हारे घर में कौनकौन हैं?’’ मैं ने उस से पूछा.

‘‘मेरी मम्मी, पापा 2 बहनें और 1 भाई है.’’

उस की मधुर आवाज मानो कोयल कूहूक रही हो. लेकिन स्वर इतना धीमा कि अपने कानों पर ही संदेह होने लगे. खैर, बातचीत आगे बढ़ाते हुए मैं ने पूछा, ‘‘तुम्हारे पापा क्या करते हैं?’’

‘‘मेरे पापा बैंक में हैं. उन का ट्रांसफर हुआ है,’’ केशू ने कहा.

‘‘पता है इस क्लास में मुझे तुम सब से अच्छी लगीं. मैं तुम्हें ही देखती रहती हूं और तुम से दोस्ती करने की कब से इच्छुक हूं.’’

उस के धीमे स्वर से मुझे अपनी तारीफ के शब्द बहुत स्पष्ट सुनाई दे रहे थे. पता नहीं प्रशंसा हम सब की जन्मजात क्यों कमजोरी होती है. प्रशंसा से हमारी इंद्रियां भी सचेत हो जाती हैं.

‘‘अच्छा,’’ मैं ने गर्वित मुसकान के साथ कहा, ‘‘अरे ऐसा कुछ नहीं तुम भी बहुत प्यारी हो.’’

‘‘बोर्ड का ऐग्जाम है तुम्हें कोई परेशानी आए तो मुझ से पूछ सकती हो,’’ मैं ने दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए उस से कहा.

अब नित्य का यह क्रम बन गया और हम दोनों की दोस्ती प्रगाढ़ होती गई.

दोस्ती का आलिंगन भी तब ही होता है जब कुछ समानताएं होती हैं और धीरेधीरे हम दोनों कब एकदूसरी से सारी बातें करने लगे पता ही नहीं चला. कैरियर … फिर विवाह और जाने कितने भविष्य के कैनवास. जिन पर मन मुताबिक रंग भरने लगे. ऐसे ही बातों में मैं ने उस से कहा, ‘‘तुम लव मैरिज करोगी या अरेंज्ड मैरिज?’’

‘‘लव मैरिज? न बाबा यह मेरे बस का रोग नहीं. मैं तो अपने पापा के राजकुमार के साथ ही खुश हूं,’’ केशू ने कहा.

‘‘सही कह रही है. तेरी हिम्मत तो नाम बताने की भी नहीं. लव भी कैसे करेगी… हां बाल के केश और चेहरा जरूर किसी को दीवाना बना सकता है. लेकिन जब वह तुम्हारी आवाज सुनेगा न तो उसे संदेह ही हो जाएगा. लड़की बोलती भी है या नहीं,’’ मैं ने उस की चुटकी लेते हुए कहा.

‘‘हठ पगली लववव मैं नहीं करने वाली,’’ केशू ने कहा.

एक संकोची स्वभाव की सौंदर्य से भरपूर किशोरी है जिस के पापा का हाल ही में स्थानांतरण हुआ है, उस की नए विद्यालय में एक सखी बनती है जिस से वह अपना सब साझा करती है. अब आगे मार्च का महीना है. पूरे सहपाठी जोश से पढ़ाई में लगे हुए हैं. पढ़ाई में सामान्य केशू भी अपनी पूरी ताकत से जुटी हुई है. चूंकि 12वीं कक्षा का ऐग्जाम है इसलिए अथक प्रयास है कि अच्छे अंक अर्जित किए जाएं.

मैं और केशू अकसर साथ पढ़ाई करते थे. साथ ही भावी योजनाएं भी बनाते थे. बोर्ड की परीक्षा में हम दोनों ने ही अच्छे अंक अर्जित किए और भविष्य की ऊंची उड़ानों के साथ महाविद्यालय में दाखिला लिया.

महाविद्यालय, शैक्षणिक जीवन का दूसरा व अंतिम पड़ाव. जहां भविष्य की उड़ान के साथसाथ आंखों में रंगीन सपने भी तैरते हैं. सब की एक अंतरंग ख्वाहिश कि काश कोई सपनोंका सौदागर मिल जाए. प्यार, एक एहसास जिस को सब महसूस तो करना ही चाहते हैं, प्यार की कशिश ही ऐसी होती है. यह बात अलग है कि प्यार हर किसी के हिस्से में नहीं होता.

कालेज में हम गर्ल्स का गु्रप अकसर हंसीठिठोली करता रहता था. उसी में केशू जो हंसने में माहिर थी और उस की उस निश्छल हंसी पर कब समीर फिदा हो गया, पता ही नहीं चला.

कहते हैं इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छिपते. लैब में एक दिन समीर ने केशू से मिलने को कहा. केशू में मानो काटो तो खून नहीं. बिना जवाब दिए केशू का चेहरा गुलाबी हो गया. उस के बाद दोनों में कोई बात नहीं हुई.

मूक मिलन का सिलसिला कक्षा में चलता रहा और हम द्वितीय वर्ष में प्रवेश कर गए. एक दिन मैं और केशू कालेज जा रहे थे तो समीर रास्ते में दिखा.

मैं ने केशू की चुटकी लेते हुए कहा कि तुम दोनों की लव स्टोरी कहां तक पहुंची? गानेबाने हुए कि नहीं. उस ने कहा कि कौन सी लव स्टोरी. कोई प्यार नहीं है मेरा तो…

मैं ने कहा कि झूठ मत बोलो. तुम न कहो तो क्या है तुम्हारा गुलाबी चेहरा सब कह रहा है. सचसच बताओ तुम्हें भी पसंद है न समीर?

उस ने मुसकराते हुए कहा कि हां बुरा भी नहीं. लेकिन मैं प्यार के चक्कर में पड़ने वाली नहीं. मेरे लिए तो मेरे पापा ही राजकुमार ढूंढ़ेंगे.

धीरेधीरे समीर का आकर्षण बढ़ता जा रहा था और केशू का संकोची स्वभाव दोनों के मिलने में बाध्य बन रहा था.

एक दिन समीर ने मु?ो एक कागज केशू को देने को कहा. जानते हुए भी मेरा किशोर मन कहां उसे पढ़े बिना रह सकता था. फिर मैं ने वह केशू को दे दिया. मैं ने केशू से कहा, ‘‘अब तो हां कर दे.’’

वह शरमाते हुए बोली, ‘‘नहीं, मुझे नहीं मिलना.’’

मगर उस के चेहरे का रंग बता रहा था कि वह भी समीर को पसंद करने लगी है.

प्यार पाना हर किसी को अच्छा लगता है लेकिन उस में आगे बढ़ना साहस का ही काम है. पहली बात तो प्यार के खरेपन को पहचानना, फिर जमाने से रूबरू होना. केशू जैसी अनेक लड़कियों की चाहतें पलकों में ही दफन हो जाती हैं, उन्हें लफ्ज ही नहीं मिल पाते.

समीर पढ़ने में तेज था, साथ ही अच्छे घर का लड़का भी था. केशू की सौम्यता उस को भा गई थी. चूंकि केशू शरमीले स्वभाव की थी इसलिए समीर भी आगे नहीं बढ़ पा रहा था. वह पढ़ाई में भी केशू की सहायता करता था और दोनों में थोड़ी नजदीकी हो गई.

एक दिन समीर ने केशू से कह ही दिया कि मैं तुम्हें पसंद करता हूं और जीवनभर इस रिश्ते को कायम रखना चाहता हूं.

केशू जवाब तो नहीं दे पाई लेकिन उस रात नींद उस की आंखों से कोसों दूर रही. रातभर इस कशमकश में रही कि समीर को क्या जवाब दे. दिल तो हां कहना चाहता था लेकिन संस्कार विवश कर रहे थे कि घर में कैसे बताएगी.

कहते हैं कुछ फैसले अपनेआप हो जाते हैं. हम अपनेआप को उलझाए रखते हैं और उन का हल स्वत: निकल आता है.

ऐसा ही हुआ. प्यार के रंग में रंगी केशू सुबह उठी तो पापा के स्थानांतरण ने मानो सारे प्रश्नपत्र ही हल कर दिए हों… जिंदगी हमारे सामने प्रश्नपत्र तो रखती ही है. कुछ प्रश्न अनिवार्य भी होते हैं लेकिन उन के हल भी स्वत: उत्तरित होते हैं. लेकिन जब फैसला लेना होता है तो हम अपनी पूरी योग्यता लगा देते हैं. ऐसे ही सुनहरी सपनों और संस्कारों के बीच पलती केशवी को अपने झंझावात से मुक्ति मिल गई और इश्क का सूफियाना रंग एक पल में फीका पड़ गया.

परिवर्तन संसार का नियम हैं… इस परिवर्तनशील संसार में स्थैत्व बनाना हमारी नियति. केशू के पापा के स्थानांतरण के साथ केशू की भी नई जिंदगी शुरू हो गई.

ग्वालियर शहर में नया महाविद्यालय, नए लोग. नए चेहरों में केशू की निगाहें अकसर समीर को ढूंढ़ती रहती थीं.

केशू के पापा ने केशू की बहन का विवाह निर्धारित कर दिया. विवाह की तैयारियों में पूरा परिवार जुट गया. केशू भी अपने जीजू से मिलने के लिए बेहद उत्साहित थी.

समीर अपने कैरियर को ले कर गंभीर हो गया था. वह कई प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं की तैयारी में जुट गया. विवाह की खरीदारी में व्यस्त केशू को एक दिन समीर जैसा चेहरा दिखाई दिया. उस के कदम ठिठक गए और वह उस के नजदीक आने का प्रयास करने लगी. अचानक उस के मुंह से निकल गया, ‘‘समीर तुम?’’

‘‘हां केशू… तुम कैसी हो?’’

समीर की आवाज सुन कर केशू मानो उसे रिकौर्ड करना चाहती हो.

‘‘मगर तुम कैसे हो?’’ बस वह इतना ही पूछ पाई.

तभी उस के पापा उसे बुलाने आ गए.

रात भर केशू की आंखों में समीर का चेहरा घूमता रहा. मन को रक्स के लिए आजाद छोड़ते हुए केशू बहन के विवाह की तैयारियों में जुट गई.

विवाह होते ही बहन अपनी ससुराल में रम गई और नवविवाह की अठखेलियों का लुत्फ केशू अपनी बहन से बड़े चाव से सुनती और मन ही मन अपने भावी राजकुमार को भी देखती.

समय तो ठहरता ही नहीं. अपनी गति से चलता है और धीरेधीरे केशू को अपने विवाह के चर्चे भी घर में सुनाई देने लगे.

पता नहीं क्यों विवाह का स्वप्न आंखों में चमक ला ही देता है. जीवन का एक रंगीन ख्वाब जो बिना तालीम के ही महसूस होने लगता है. ऐसे ही राजकुमार के सपने देखती केशू ने अपने पिता को उस की मां से बात करते हुए सुना था. एक पल को केशू की आंखों में समीर का भी चेहरा सामने आ रहा था. लेकिन सारी चाहतें कहां पूरी होती हैं, यह सोचते हुए केशू अपने पापा की बातों को ध्यान से सुन रही थी. पास ही के शहर ?ांसी का रहने वाला परिवार था.

‘‘2 भाई और 1 बहन है. लंबीचौड़ी जमीनजायदाद है, नौकरी की तो उन को जरूरत ही नहीं. हमारी केशू राज करेगी. लड़का देखने में भी अच्छा है, पढ़ालिखा भी अच्छा है,’’ पापा को कहते सुना केशू ने, ‘‘रईस लोग हैं इसलिए हमें थोड़ा पैसा अच्छा लगाना पड़ेगा पर हमारी केशू अच्छे घर में चली जाएगी.’’

केशू के पापा फिर पैसों की जुगाड़ बताने लगे. केशू की मां भी अपनी बेटी को रानी बनते देखने लगी और धीरेधीरे बात आगे बढ़ने लगी.

‘‘सोमवार को केशू को देखने आ रहे हैं,’’ एक दिन केशू को पापा की आवाज सुनाई दी.

कंपित हृदय से केशू अपने भावी राजकुमार का डीलडौल सोचने लगी और अपनेआप को तैयार भी करने लगी.

मेरा और केशू का संबंध सिर्फ खतों का रह गया था तो कभीकभी हम दोनों एकदूसरे की कुशलता पूछ लिया करते थे.

धीरेधीरे सोमवार आ गया और सुबह से ही केशू को दिखाने की तैयारियां जोरों पर थीं.

घर का कोनाकोना करीने से व्यवस्थित था. रसोई से अनेक व्यंजनों की महक आ रही थी.

घंटी बजी और प्रतीक्षित मेहमान आ गए. पूरा घर उन की खिदमत में लग गया, फिर केशू को भी बुलाया गया. सहमी सी केशू सब के सामने आ कर बैठ गई. औपचारिक प्रश्नों के बाद केशू और भावी राजकुमार को साथ समय बिताने को कहा.

कंपित हृदय से केशू ने जब लड़के से बात की तो केशू को उस की बातों में प्यार की महक न आ कर दंभ की बूआ रही थी. लेकिन वह छोटी सी मुलाकात से किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाई.

मेहमानों के जाने के बाद सब ने एकदूसरे की राय जाननी चाही और सब से अहम केशू की राय, जिस में केशू, कशमकश में थी.

‘‘पापा ने देखा है तो अच्छा ही होगा और मैं कहां किसी को समझ पाती हूं,’’ खयालों में डूबी केशू के मन में विचारों का मंथन चल रहा था. एक खयाल आ रहा था दौलत अपनी जगह है और जीवनसाथी अपनी जगह…हां के लिए अपनेआप को तैयार तो कर रही थी लेकिन पूर्णतया हां भी नहीं कर पा रही थी. अनकही चाहत की कशिश लिए केशू ने अपने मन को समझाया कि जिंदगी लंबी है, क्या पता फिर मुलाकात हो जाए.

कालेज में हौट न्यूज बना केशू का स्थानांतरण समीर के कानो तक भी पहुंच गया और अपनी बेबसी का इजहार न कर सका.

देखते ही देखते केशू के जाने का समय नजदीक आ गया और उस के लिए हम सब ने एक विदाई पार्टी भी दी, जिस में समीर भी आया मानो उस के चेहरे का नूर ही चला गया हो. भारी मन से सब ने फोटो लिए गिफ्ट भी दिए और केशू को विदाई दी.

समीर ने बस इतना कहां, ‘‘जहां भी रहो खुश रहो, याद करती रहना,’’ छलकती आंखों से समीर ने केशू को विदा किया.

एक हां से जीवन का फैसला बहुत मुश्किल ही होता है, इसीलिए कहा जाता है विवाह तो लौटरी है. ऐसी ही जद्दोजहद में उलझ केशू का मन. एक तरफ तो भविष्य की उड़ान भर रहा था तो दूसरी ओर लड़के के व्यवहार से थोड़ा आशंकित भी था. लेकिन कुछ फैसले हमारे नहीं होते. हम तो निमित्त मात्र होते हैं और पूरी इबारत लिखी होती है.

केशू ने पापा के चुनाव को निस्संदेह देखते हुए विवाह के लिए हां कर दी. दबा सा एक मलाल जबतब समीर  के लिए आंखों में तैर जाता था. लेकिन हम मध्यवर्गीय लोगों के ख्वाब कहां मुकम्मल होते हैं. यह सोचते हुए केशू भविष्य के रंगीन सपनों में खो गई.

समीर ने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई पर लगा दिया था. ग्रैजुएशन के बाद उस ने कंपीटिटिव ऐग्जाम की तैयारी में अपनी जान लगा दी. उस की मेहनत रंग लाई और उस ने उच्च पद हासिल कर लिया. लंबे अरसे के बाद केशू के पास खत आया मानो उस को उस का राजकुमार मिल गया हो. उस ने लिखा देख में अपने पापा के ढूंढे़ राजकुमार के साथ ही विवाह करने जा रही हूं और साथ ही उस ने विवाह के लिए आमंत्रणपत्र भी भेजा था.

रंगीन भावी योजनाओं के बीच केशू को अपने मंगेतर का व्यवहार कभीकभी व्यथित कर देता था लेकिन वह सोचती मैं अपने प्यार से सब सही कर दूंगी.

बेशक प्यार में बहुत ताकत होती है. वह इंसान को बदल भी देता है. मगर प्रेम का बीज होता है जब. जिस हृदय की मिट्टी गीली होगी प्रेम का अंकुर वहीं स्फुटित होगा. कुछ हृदय बंजर ही होते हैं वहां प्रेम की आशा ही निरर्थक है.

धीरेधीरे विवाह की तिथि भी नजदीक आती जा रही थी और केशू और उस का परिवार अपनी चादर से ज्यादा पैर फैला रहा था. बिटिया के सुनहरे भविष्य के लिए केशू के पापा ने लोन भी लिया कि बड़े लोगों से रिश्ता जोड़ा है तो विवाह उन के अनुरूप ही होना चाहिए.

अपनी प्रिय सखी के विवाह आमंत्रण को मैं भी नहीं ठुकरा पाई और बिना बताए ही ग्वालियर पहुंच गई. केशू की खुशी का ठिकाना नहीं रहा. उस ने कहा कि मुझे पूरी उम्मीद थी तुम जरूर आओगी. धीरेधीरे अपनी ससुराल के ऐशोआराम का भी बखान करने लगी. हम भारतीय नारी होती ही ऐसी हैं. उन्हें मायके मैं ससुराल के गुणगान और ससुराल में मायके के गुणगान करना अच्छा लगता है.

मेहंदी की रस्म हुई जिस में केशू के हाथों पर उस के भावी पति का नाम सुनील भी लिखा गया. सूर्ख रंग मेहंदी का देख कर मैं ने केशू से कहा कि जीजू तो बहुत प्यार करेंगे तुम्हें… तुम्हारी मेहंदी का रंग बता रहा है. करेंगे क्यों नहीं हमारी सखी है ही इतनी प्यारी. और विवाह की खुशियां गूंजने लगीं. शादी बहुत भव्य स्तर की लग रही थी और उतनी ही खूबसूरत दुलहन. अच्छा खानापीना, सबकुछ उच्चस्तरीय और 7 फेरों के बंधन में बंध गई केशू.

डोली में बैठी केशू अपने मांबाप से विदा होते हुए बहुत रोई और अपने भाई को तो छोड़ना ही नहीं चाह रही थी. नई गाड़ी में साजन के साथ हम सब को छोड़ कर विदा हो गई केशू.

बहुत पैसे वाले लोग हैं. केशू राज करेगी. रिश्तेदारों का विश्लेषण शुरू हो गया. मैं ने भी अपनी सखी के जाने के बाद विदा होना उचित समझ.

आलिशान बंगला और सुंदर सजावट मानो खूबसूरती माहौल के कणकण में व्याप्त हो.

दैहिक सौंदर्य बेशक नैसर्गिक होता है और समय से वह धूमिल भी होता है लेकिन विवाह के समय तो सौंदर्य न केवल एक पैमाना होता है वरन खूबसूरत दूल्हा या दुलहन एक आकर्षण का केंद्र तो होते ही हैं. ऐसी ही खूबसूरत वधू सब की नजरों का केंद्र बनी हुई थी.

रस्मोरिवाज के बाद अंतत: वह घड़ी भी आ गई जब स्त्री अपना संपूर्ण अस्तित्व एक अजनबी को सौंप देती है. जिस अस्मत की हिफाजत वह सालों से करती है विवाह उसी समर्पण की स्वीकृति है.

शर्म से लाल केशू और उस के लंबे केश मानो उस के सौंदर्य में चार चांद लगा रहे हों और फिर दोनों के मिलन की बेला थकी हुई केशू प्यार की प्रतीक्षा में शर्म से छुईमुई हो रही थी.

सुहाग सेज पर बैठी केशू… मध्यम रोशनी. कमरे की भव्य सजावट मानो वातावरण में असीम सुकून घुला हो. बैठेबैठे यों ही इस सुकून में मन को रक्स के लिए आजाद छोड़ते हुए कब आंख लग गई पता ही नहीं चला.

‘‘समीर तुम?’’

‘‘हां, मैं केशू…’’ समीर की आवाज से केशू चौंक गई.

‘‘जिस को शिद्दत से चाहो वह मिल ही जाता है,’’ कहते हुए समीर ने केशू को बांहों में भर लिया. छुईमुई सी केशू मानो पिघल ही जाएगी.

समीर ने केशू के बालों को सहलाते हुए प्यार की निशानी गुलाब उस के सुंदर बालों में लगा दिए. दोनों एकदूसरे की बांहों में खो गए.

अपने अस्तित्व का समर्पण आसान नहीं होता और समर्पण के बिना स्त्री की पूर्णता भी नहीं होती. जैसे नदिया सागर में जा कर मिलती है वैसे ही स्त्री भी पुरुष के समागम में ही पूर्ण होती है. पुरुष जो प्रकृति से ही बलिष्ठ है और स्त्री प्रकृति से कोमल. तो वह एक सशक्त बाहुबल चाहती है जिस को वह अपना वजूद सौंप सके. ऐसे ही बाहुबल की चाहत में केशवी की तंद्रा टूटी और वह तन और मन दोनों से तरबतर हो गई. मैं यह क्या सोच रही हूं. मुझे समीर के बारे में खयाल में भी नहीं सोचना चाहिए. मुझे सुनील को अपनेआप को समर्पित करना है और अचानक उस की नजर घड़ी पर पड़ी. रात्रि के 3 बज चुके थे सुनील अब तक नहीं आए? आशंकाओं से घिरा उस का मन अचानक आहट सुनता है तो अपनेआप को संभालती केशू जैसे धड़कनों को भी सुना देगी.

रात के अंधेरे में ही मन की तहें खुलती हैं. कायनात के रोशन उजाले तो दिमाग को रोशन करते हैं. रात्रि यों तो स्याह होती है लेकिन जीवन पल्लवन इस स्याह रात्रि में ही होता है, मन मिले या न मिले तन के मिलन की यही बेला है. ऐसी बेला की आस में बैठी केशू को जब सुनील की गंध महसूस हुई तो भयभीत केशु मानो चीख पड़ेगी.

सुनील ने शराब पी रखी थी और उस ने केशू के मन को पढ़ना उचित नहीं सम?ा और सिर्फ तन को अनावरत कर वह केशू का पति बन गया.

बेसुध केशू की कब नींद लग गई उसे होश ही नहीं रहा.

बदहवास केशू सुबह उठी तो अपनेआप को व्यवस्थित करने लगी. अपनेआप पर गुस्सा आ रहा था कि ससुराल में पहला दिन और इतनी लेट? नींद को भी आज ही लगना था, सोच रही थी और जल्दबाजी में उस के हाथ से पानी का गिलास फैल गया. बेसुध पड़े सुनील को कुछ पता ही नहीं चला लेकिन डरीसहमी केशू ने पहले पानी समेटा फिर कमरे से बाहर जाने लगी. इतने में एक फ्लौवर पौट गिर गया और तेज आवाज हुई. सकपकाई कैशू ने पौट को सही किया और सुनील की ओर देखा. लेकिन सुनील तो गहरी नींद में था.

केशू ने घड़ी की ओर देखा सुबह के 9 बज चुके थे. केशू अपनी साड़ी और बाल संवार रही थी. इतने में दरवाजे की ठकठक ने केशू की सांसों को और तेज कर दिया. सोच रही थी, सब लोग मेरे लिए क्या सोच रहे होंगे. नवविवाहिता का ससुराल वालों से सामंजय वैवाहिक जीवन की महत्त्वपूर्ण कड़ी होता है और ऐसे में यदि शुरुआत ही सही नहीं हो तो स्थिति मुश्किल हो जाती है.

संस्कारी केशू रिश्तों को दिलों से बांधना चाहती थी लेकिन न चाहते हुए भी उस से गलती हो रही थी. उस ने जल्दी से अपना आंचल संभाला और केश बांधते हुए दरवाजे की ओर बढ़ने लगी सोच रही थी काश, सुनील उसे आ कर बांहों में भर ले और वह उस के आगोश में खो जाए. लेकिन सारी चाहते कहां पूरी होती हैं और बढ़ती सांस और बढ़ते कदम से केशू ने दरवाजा खोला.

नवविवाहिता केशवी देर से सोने के कारण सुबह उठने में भी लेट हो गई. ससुराल में पहला दिन और देर से उठना उस को अपनेआप में लज्जित कर रहा था. उस के कमरे का दरवाजा बजा तो वह बौखलाई सी बाहर आई. बाहर ननद सीमा को खड़े देख कर कुछ बोलती उस के पहले ही सीमा का व्यंग्यात्मक स्वर सुनाई दिया, ‘‘भाभी सुबह हो गई है. क्या भैया ने रातभर सोने नहीं दिया जो अब तक नहीं उठीं?’’

‘‘नहींनहीं वे मुझे,’’ लज्जा से गठरी बनी केशु संयत कंठ से मृदुता से बोली. फिर उस ने नई ससुराल में चुप रहना ही उचित समझो.

कमरे से आगे आई तो सासूमां ने थोड़े सख्त स्वर में कहा, ‘‘हम लोग जल्दी उठते हैं.’’

‘‘जी मम्मीजी,’’ केशू ने कंपित स्वर में कहा.

‘‘अरे बहू का आज पहला ही दिन है उसे चाय तो पिला देते,’’ ससुरजी के स्नेहसिंचित स्वर ने केशू की धड़कनों को कुछ राहत दी.

कहते हैं स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है. पता नहीं क्यों वह उन कसौटियों पर अपनी बहू को भी परखना चाहती है जो उस ने स्वयं पास की होती हैं.

केशू ने अपनेआप को संयत करते हुए घर के लोग व कुछ मेहमानों से बातचीत की. वह बारबार अपने कमरे के द्वार की ओर देख रही थी कि सुनील उठ कर आ जाए.

करीब 12 बजे सुनील उठ कर कमरे से बाहर आया. आते ही उसे चाय दी गई. मां ने बड़े प्यार से बेटे को नाश्ता कराया. नवविवाहिता केशू कनखियों से अपने पति को देख रही थी. एक आस मन में कि सुनील उस के पास आएगा लेकिन कहते हैं न प्रेम नम हृदय में ही अंकुरित होता है. रिश्तों की बुनियाद हमेशा प्रेम ही होती है चाहे वह कैसा ही पाषाण हृदय हो जब प्रेम का अंकुरण हृदय में स्फुटित होता है तो जीवन को नए आयाम देता है. ऐसी नववधू प्रेम की आस लिए अपने घर वालों और पति के प्रेम में सिंचित हो जाना चाहती है.

मेहमानों के आवागमन में दिन बीता और हर किसी ने केशू के रूपसौंदर्य की प्रशंसा की. सभी ने नवदंपती को भरभर के आशीर्वाद दिए. ऐसे ही पहर बीतते गए और रात्रि भोजन का समय आ गया. केशू रात्रि भोजन के समय सुनील को तलाश रही थी लेकिन वह नजर नहीं आया.

नवविवाहिता केशू अपने पति के इंतजार में पलक पावड़े बिछा कर बैठी थी. जैसे ही सुनील के आने की आहट हुई वह चौकस हो गई. इंतजार की घडियां समाप्त हुईं और सुनील उस के शयनकक्ष में आया. वह अपना तन और मन दोनों समर्पित करना चाहती थी. सुनील के मन को भी पढ़ना चाहती थी लेकिन उस की सोच के विपरीत सुनील उस से औपचारिक बात कर के उस का पति बन जाता है. मानो केशवी के सारे सपनों पर पानी फिर गया हो. केशू जीवनसाथी के रूप में ऐसा साथी चाहती थी जो कुछ अपनी कहे और कुछ केशू की सुने. रात्रि के अंधकार में दोनों के मन की परतें खुलें लेकिन सारी चाहतें कहां मुकम्मल होती हैं.

केशू उच्च घराने की वधू तो बन गई थी लेकिन उस के ख्वाबों का शहजादा शायद नहीं मिला था. प्रात: जल्दी स्नान कर के वह कमरे से बाहर आ गई थी. वह कल की गलती को दोहराना नहीं चाहती थी. करीब सभी मेहमान घर से विदा हो गए थे. उस की ननद को उस का समान जमवाने की जिम्मेदारी दी गई थी. ननद ने जब भाभी की साड़ी देखी तो मुंह बना बर बोली, ‘‘भाभी, इतने लाइट शेड हम नहीं पहनते. आगे से शोख रंग खरीदना.’’

केशू मानो अपनेआप को दोष दे रही हो. फिर उस ने सासूमां को उस की मां के यहां से आई साड़ी दी तो सास का मुंह देख कर केशू तो पानीपानी हो गई,

‘‘अपनी मां को कहना ऐसी साड़ी मैं नहीं पहनती हूं.’’

केशू ने वह साड़ी तुरंत अपने समान में रख ली.

विवाह स्त्री के जीवन की नई शुरुआत होता है. यदि दोनों पक्षों का मेल न हो तो विवाहिता के लिए एक चुनौती हो जाती है. ऐसे में यदि पति का प्यार मिल जाए तो वह एक बूटी का काम करता है लेकिन इस प्यार से महरूम केशू का दम घुटने लगा था और वह जल्द से जल्द अपने मायके जाना चाहती थी.

अगले दिन उस का भाई और उस के मामा, बूआ के लड़के उसे लेने आ गए. केशू का मन मानो उड़ान भर रहा हो और वह जल्द से जल्द यहां से जाना चाहती थी.

आलीशान घर में अपनी बहन को देख कर उस के भाई भी खूब खुश नजर आ रहे थे. केशू के मायके जाने का समय भी आ गया और वह सुनील को देख रही थी. फिर सुनील नजर आया और उस ने हलकी सी मुसकान के साथ सुनील को देखा और फिर चल दी अपने भाइयों के साथ.

मायके जा कर केशू अपनी मां के गले मिली और उस की बेतहाशा रुलाई फूट पड़ी.

‘‘अरे पगली आज के समय में कोई ऐसे रोता है क्या?’’ उस के पापा ने उस के सिर पर स्नेहसिंचित हाथ फेरा.

मां की अनुभवी आंखें कुछ भांप गई थीं. भाई ने दीदी के आलीशान बंगले की तारीफ करते हुए कुछ माहौल को हलका करने की कोशिश की.

सांझ पड़े केशू कि सखियां उस से मिलने आईं और उस से मसखरी करते हुए उस के और जीजाजी के मध्य हुई बातचीत पूछने लगीं. लेकिन केशू और सुनील के बीच गिनेचुने ही संवाद हुए थे इसलिए केशू ने बात को टाल दिया.

केशू की बहन ने भी केशू से पूछा, ‘‘कैसी लगी हमारी बहना को ससुराल और पतिदेव?’’

केशू ने कहा, ‘‘सब अच्छा है.’’

मगर केशू का उदास चेहरा किसी से भी छिपा नहीं था.

‘‘दामादजी कल लेने आ रहे हैं,’’ केशू के पापा ने केशू की मम्मी से कहा और केशू की विदाई की तैयारी के साथ ही दामादजी के स्वागत की तैयारी भी जोरों से घर में होने लगी.

केशू का चेहरा सफेद पड़ रहा था. मां की अनुभवी आंखें समझ गई थीं कि दामादजी के आने का समाचार सुन कर केशू के चेहरे की तो रौनक बढ़नी चाहिए लेकिन केशू का चेहरा उदास क्यों? उन्होंने बेटी को कलेजे से लगा कर पूछा, ‘‘बिटिया सब ठीक तो है?’’

केशू की रुलाई फूट पड़ी, ‘‘हां मां, सब ठीक है.’’

‘‘बेटी थोड़ीबहुत उन्नीसबीस तो हर घर में होती है तुझे ही दोनों कुलों की लाज रखनी है. ससुराल और मायके दोनों का सेतू है तू,’’ मां ने हिदायत भरे स्वर में कहा.

सुनील आ गया और उस का ससुराल में भव्य स्वागत किया गया. महंगे तोहफों के साथ केशू और सुनील को विदा किया गया.

केशवी मायके से विदा हो कर ससुराल में आ गई. सुनील का अजीब व्यवहार उसे परेशान कर रहा था. ससुराल में आ कर सासूमां भी उस के मायके से आए हुए समान में मीनमेख निकालने लगी तो केशू और  सहमी सी हो जाती है. ससुरजी का स्नेहसिंचित हाथ मानो रेगिस्तान में पानी की बूंद सा प्रतीत होता. ननद भी केशू की हमउम्र हो कर भी एक दूरी ही बनाए रखती थी.

रात्रि के नीरव पहर में केशू, निशिकर की ज्योत्सना में सुनील से घंटों बतियाना चाहती थी लेकिन सुनील का देर रात तक आना और कम बात करना केशू को बेचैन कर देता था.

विवाह सौंदर्य को निखार देता है लेकिन केशू दिनबदिन सूखती जा रही थी. एक दिन केशू सुबह उठने का प्रयास कर रही थी लेकिन उस का शरीर साथ नहीं दे रहा था, उसे बुखार महसूस हुआ. थर्मामीटर से नापा तो उसे तेज बुखार था, उस ने सुनील को जगाया लेकिन सुनील की बेरुखी बुखार से ज्यादा उस के मन की तपन बढ़ा गई. कुछ मरहम प्यार का, बीमार तन और मन दोनों को ठीक कर देता है लेकिन उपेक्षा ज्वर की तीव्रता को बढ़ा भी देती है.

कुछ समय बाद सासूमां केशू के कमरे में आई. थोड़ी देर रुक कर बोली, ‘‘सुनील इसे इस के मायके भेज दो. इस के मायके वाले ही इस का इलाज करवाएंगे.’’

सासूमां के शब्द सुन कर केशू के पैरों तले की जमीन खिसक गई. अविरल अश्रुधारा बहने लगी. रोतेरोते कब उस की आंख लग गई पता ही नहीं चला.

रात में सुनील कमरे में आया और बोला, ‘‘कल तुम्हें तुम्हारी मां के यहां छोड़ आता हूं.’’

सुन कर केशू ने कहा, ‘‘क्यों?’’

सुनील ने कहा, ‘‘वहीं तुम्हारा इलाज हो जाएगा और वहीं देखभाल भी हो जाएगी.’’

तीर की तरह लगने वाले शब्द केशू के अंतर्मन को भेद गए. वह सोच रही थी इस घर में वापस कदम रखना ही नहीं. वह रातभर सो नहीं सकी.

देर तक सोने वाला सुनील अल सुबह उठ गया और केशू को साथ ले जाने की तैयारी करने लगा. सासूमां के उलहानो से आहत केशू का मन सुनील के व्यवहार से तारतार हो गया.

केशू को यों अचानक आया देख केशू की मां आश्चर्यचकित हो गई. केशू की बेतहाशा रुलाई फूट पड़ी. सुनील की उपस्थिति ने संवादों को रोक रखा था लेकिन भावों का अविरल प्रवाह बह चुका था. भावहीन सुनील कुछ समय पश्चात वहां से रवाना हो गया.

केशू ने अपने मन का ज्वार हलका किया. तन के ज्वर से ज्यादा उस के मन का ज्वार ज्यादा उफान ले रहा था. पूरे घर में मानो सन्नाटा पसर गया होे.

हम भारतीय बेशक संस्कारों को आत्मसात किए हुए हैं लेकिन कहींकहीं हम इन्हें थोपना भी चाहते हैं खासकर समाज का डर हमारे लिए हमारे अपनो से बढ़ कर है. हम अपनी बेशकीमती वस्तु भी समाज की खातिर दांव पर लगा देते हैं.

केशू को उस के मांबाप ने यही सम?ाया, ‘‘बेटा, कुछ कमी हर घर में होती है. हम

तुम्हारा इलाज करवाएंगे. तुम ठीक हो जाओगी

तो वहीं जाना.’’

डाक्टर को दिखाया. केशू को बुखार के साथ पता चला वह गर्भ से है.

कहते हैं कुछ बंधन हम छोड़ भी नहीं सकते और उन्हें निभा भी नहीं सकते. केशू स्वयं के अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही थी. ऐसे में दूसरी जान का आ जाना उसे बेहद पीड़ादायक लग रहा था.

केशू स्वस्थ हुई तो उसे उस के भाई के साथ उस की ससुराल में भेजा गया. उम्मीद पर कायनात कायम है. केशू ने सोचा मेरा नहीं तो नए मेहमान के आगमन से मुझे इस घर में स्थान मिल जाएगा.

भावहीन सुनील को नए मेहमान के आगमन की कोई खुशी नहीं हुई. सिसकियां लेता केशू का मन उस बच्चे को ही दुनिया में नहीं लाना चाहता था लेकिन जन्म और मृत्यु तो जीवन के अटल सत्य हैं. धीरेधीरे सासूमां का शासन बढ़ता ही जा रहा था. सुनील की उपेक्षा भी केशू से छिपी नहीं थी. केशू का इस घर में दम घुटने लगा था. वह किसी भी कीमत में मायके जाना चाहती थी. वह अपना और अपने आने वाले बच्चे को भविष्य दांव पर नहीं लगाना चाहती थी.

गर्भवती केशू अपने भाई के साथ अपनी ससुराल आ गई. वहां जब अपने पति सुनील को यह खबर सुनाई तो सुनील की बेरुखी केशू को और आहत कर देती है. उस की सास ने उस के आने के बाद कामवाली को भी हटा दिया. केशू की गर्भावस्था ऊपर से घर का काम और सब की बेरुखी केशू को अंदर तक ?ाक?ोर देती है. उस के सारे सपने कहीं खो गए. वह यहां रहना ही नहीं चाहती थी. घर का सारा काम करतेकरते वह थक जाती थी, वह सोचती थी सुनील एक आवरण ले कर जन्मा है. भावहीन आवरण जिस में प्यार का कोई स्थान नहीं. हम दोनों संग रहित साथी हैं जिस में दोनों निर्निमेष नत नयनों से साथ रात्रि बिता देते हैं.

एक दिन बरसात में रात्रि को बारिश हुई और निशीकर ने दर्शन दिए. उस यामिनी को देखने केशू ?ारोखे के पास जा बैठी. बारिश की सुगंध और ?ांगुरों की ध्वनि ने उस के मनोराज्य में एक प्रकार की अराजकता व्याप्त कर दी. वह सोच रही थी आज सुनील से फैसला करवा कर रहेगी. उस ने सुनील को उठाया उस समय सुनील निद्रालोक की सैर कर रहा था.

केशू ने कहा, ‘‘मैं यहां अब और नहीं रह सकती मेरा दम घुटता है यहां. आप मु?ो अपने होने वाले बच्चे की खातिर ही मुझे मेरे मायके छोड़ आओ.’’

सुनील ने कहा, ‘‘सुबह मां से बात करेंगे,’’ और वह सो गया.

चिरगमन के लिए प्रतीक्षित केशु भोर होने की प्रतीक्षा में रातभर सो नहीं पाई केशू सुबह के नित्यप्रति कार्य कर रही थी लेकिन उसे अपनी तबीयत सही नहीं लग रही थी. उस ने अपनी सासूमां से कहा तो उन्होंने कहा, ‘‘ऐसी तबीयत तो इस समय में यों ही चलती रहती है.’’

थोड़ी देर बाद केशु का बदन बुखार से तपने लगा तो उस ने सुनील से कहा. फिर केशु की सासूमां आई और बोली, ‘‘इस के इलाज के पैसे इस के मायके से मंगवा लो और कहो कि वे अपनी बेटी को ले जाएं. यहां कौन इस की सेवा करेगा.’’

केशू मानो चीख दे कर कहने को आतुर कि मायके से मेरे इलाज के पैसे क्यों आएंगे? लेकिन वह कुछ विद्रोह न कर सकी. सुनील की मूक सहमती उस का दर्द दोगुना कर रही थी.

फिर सुनील ने अपनी मां से केशु के जाने की बात की तो मां ने कहा, ‘‘इस को अभी छोड़ आओ. इस के मायके वाले ही इस का इलाज करवा लेंगे और वे ही इस की डिलिवरी करवा देंगे.’’

सुनील तो मानो रिमोट कंट्रोल रोबोट हो जिस का रिमोट मां के हाथ था. वह केशु को छेड़ने जाने की तैयारी करने लगा.

बुखार से तपन और तारतार हुआ केशू का मन अपनेआप को पूरा टूटा हुआ महसूस हो रहा था. उस का दिमाग शून्य हो गया और वह सुनील के साथ चल पड़ी.

मायके पहुंचते ही केशू को यों अचानक आया देख केशू की मां का मन आशंकाओं से घिर गया. वह कुछ न बोलते हुए स्थिति को भांप गई थी.

सुनील के जाने के बाद केशु ने सारा हाल कह सुनाया और कहा, ‘‘मैं उस घर में नहीं जाना चाहती.’’

मां ने आलिंगन कर के बेटी को समझाया कि कोई राह निकालेंगे.

समय अपनी गति से जा रहा था केशू का अधीर मन एक प्रतीक्षा में कि सुनील लेने आएगा. लेकिन वह नहीं आया और केशु के मां बनने का समय भी आ गया.

कुछ एहसास दिलों के होते हैं. नि:शब्द का नाद होता है जिसे हम सांसारिक सुख कहते हैं. इसीलिए ब्रह्मांड में संतानोत्पत्ति का कार्य स्त्रीपुरुष के संयोजन से ही किया है लेकिन जब केशु ने अपने समीप सुनील को नहीं पाया तो उस की मां बनने की सारी खुशी काफूर हो गई.

‘‘बेटा हुआ है,’’ दर्द की अनंत गहराई को महसूस कर के जब उस ने सुना तो केशू के चेहरे पर सौंदर्यमयी मुसकान आ गई.

नवजात का आलिंगन सूखी भूमि पर अमृत की मानिंद प्रतीत होता है.

सुनील और उस की मां बेटे को देखने आए. केशु उन के साथ जाना चाहती थी लेकिन जब दूरियां होती हैं संवादहीनता भी आ जाती है और कहनेसुनने का जरीया भी खत्म हो जाता है.

बेटे का नाम सृजन रखा था केशू ने. वह उस के साथ ही अपनी जिंदगी सृजित करना चाहती थी. 2 महीने का हो गया था सृजन तो केशू के मांबाप ने केशु को ससुराल भेजना मुनासिब सम?ा. हालांकि केशू वहां नहीं जाना चाहती थी. लेकिन वह वहां भी नहीं रहना चाहती थी.

फोन करने पर भी जब सुनील  नहीं आया तो केशू ने सुनील से अलग हो जाना बेहतर समझ लेकिन उस के पापा एक आखिरी सुलह करवाने के लिए अपनी बेटी को साथ ले गए.

केशू बोझिल मन से अपने पापा के साथ अपनी ससुराल चली गई. अपने बेटे की खातिर वह जीवन से समझौता करना चाहती थी. वह अपने शुष्क हृदय को ममता से तृप्त करना चाहती थी. उस के पापा उसे ससुराल छोड़ आए.

इतने बड़े घर में शादी होने के बावजूद केशू सारा काम हाथ से करती. नन्हा सृजन रोता रहता सासननद दोनोें केशू के काम में हाथ नहीं बंटातीं न ही नन्हे सृजन को लेतीं. सुनील की उदासीनता केशू की तकलीफ को असहनीय कर देती थी.

एक दिन सृजन की तबीयत खराब हो गई. केशू ने अपनी सासूमां को बताया तो बोली, ‘‘सृजन के इलाज के लिए अपने मायके चली जाओ वो ही इस का खर्चा भी उठा लेंगे.’’

आहत केशू का मन सिसकियां भर रहा था. उस ने कहा, ‘‘यह इस घर का वारिस है तो इस का इलाज भी यहीं होना चाहिए.’’

इस पर उस की सासूमां ने कहा, ‘‘बहुत जवान चलती है सुनील इस को अभी इस के घर छोड़ कर आओ.’’

केशू ने कहा, ‘‘मेरा घर तो यही है.’’

सुनील बोला, ‘‘नहीं तुम अपने घर ही रहो. अभी चलो,’’ और सुनील केशू को ले गया.

मायके पहुंच कर केशू ने अपने मांबाप से कहा, ‘‘मैं कभी उस घर में कदम नहीं रखूंगी. मेरा तलाक करवा दो.’’ केशू के पापा ने अब यही  बेहतर समझा और वकील से बात की.

जिंदगी कभी ऐसे मोड़ पर ले आती है कि हमें कड़े फैसले लेने ही पड़ते हैं. ऐसे ही मंझधार में खड़ी केशू को समाज की अवहेलना के साथ यहां भी सुनील की बेरुखी से भुगतना पड़ा. सुनील तलाक देने को भी तैयार नहीं था और रहना उस के साथ संभव नहीं था.

संकोची केशवी ने हिम्मत से काम लेते हुए तलाक का फैसला अटल रखा. केस लड़ती रही और उस ने एक स्कूल में नौकरी भी जौइन कर ली. नन्हा सृजन अपनी नानी के पास रह जाता. केशू स्कूल चली जाती.

करीब 1 साल केशू का केस चला और अंतत: फैसला केशू के पक्ष में हुआ और सुनील का तलाक हो गया.

केशवी अपने बेटे के सहारे जीवन जीना चाहती थी. उस की नीरस जिंदगी में वही आशा की किरण था. कहते हैं यह समाज भी हमें जीने न देता. केशू के पास अभी भी कोई भी रिश्ता ले कर आ जाता मानो केशू कोई बेनाम चिट्ठी हो जिसे हरकोई पढ़ना चाहता हो. केशू ने साफ इनकार कर दिया कि वह अकेले ही जीवन जीना चाहती है. उसे दोबारा शादी नहीं करनी.

एक दिन केशवी बाजार गई. वहां उसे एक चेहरा परिचित सा लगा लेकिन उस ने नजरअंदाज कर दिया. फिर एक परिचित आवाज आई, ‘‘केशु तुम?’’

अचानक समीर की आवाज सुन कर केशू की धड़कनें तेज हो गईं वह उस से बचना चाहती थी लेकिन उस की आवाज ने उस के दिल के तारों को ?ांकृत कर दिया. वह सहमी सी बोली, ‘‘हां में केशू.’’

‘‘तुम बहुत बदल गई हो सब ठीक तो है?’’ समीर ने पूछा तो केशू मानो वहां से भाग ही जाना चाहती थी. लेकिन उस ने औपचारिकता दिखाते हुए कहा कि हां सब ठीक है और वह जाने लगी तो समीर ने उस का फोन नंबर मांगा. नंबर दे कर केशू वहां से चल दी. उस ने समीर की खैरियत भी नहीं पूछी और वहां से भाग ली. घर आ कर वह सामान्य होने का प्रयास कर रही थी लेकिन रहरह कर उस के जेहन में समीर का चेहरा घूम रहा था.

समय का पहिया घूम रहा था. केशू का सुबह का समय स्कूल में और शाम सृजन के साथ व्यतीत हो जाती थी लेकिन एक खामोशी सी जिंदगी में पसार गई थी. वह सृजन के भविष्य को सुरक्षित करना चाहती थी.

एक दिन शाम को फोन की घंटी बजी. उधर से आवाज आई, ‘‘हेलो केशू, मैं समीर. तुम से मिलना चाहता हूं. प्लीज मना मत कहना. संडे को किसी कैफे में मिलते हैं.’’

केशू ने कहा, ‘‘मुझे नहीं मिलना किसी से.’’

समीर ने कहा, ‘‘एक बार मिल लो. मैं इंतजार करूंगा.’’

केशू ने फोन रख दिया. लेकिन कुछ लमहे ऐसे होते हैं जिंदगी के जो जब भी मिलते हैं हलचल पैदा कर देते हैं.

केशू उस फूल के समान हो गई जिस पर भ्रमर आ बैठा हो, वह उस भ्रमर को बुलाना भी चाहती है और उसे ही वह उड़ा भी रही है.

रविवार का दिन था सुबह फोन की घंटी बजी तो जैसे केशू के दिल की वीणा झंकृत हो गई हो. एक प्रतीक्षित फोन जिस की केशू उम्मीद कर ही रही थी.

‘‘मैं समीर, तुम शाम को आ रही हो न कैफे में.’’

केशू ने कहा, ‘‘हां.’’

कभीकभी दिल के जज्बात दिमाग पर प्रभावी हो जाते हैं. अत: बिना समय गंवाय केशू ने स्वीकृति दे दी.

जख्म कितना भी गहरा हो. दिल कब तक अपने अंतस की अंतर्मुखी बातें खुद में छिपाए रहता? केशू ने समीर से मिलना ही बेहतर समझा.

एक अरसे के बाद केशू ने अपनेआप को दर्पण में निहारा. फिर करीने से तैयार हो कर बेटे को अपनी मां को देते हुए कहा, ‘‘मां, मुझे अपनी फ्रैंड से मिलने जाना है.’’

‘‘ठीक है बेटा,’’ मां ने कहा.

दोनों नियत समय पर आ गए. समीर ने कौफी और्डर की. फिर पूछा, ‘‘कैसी चल रही है तुम्हारी मैरिड लाइफ?’’

केशू ने कहा, ‘‘सब खत्म हो गया. मेरी लाइफ में तो एक बेटा है. अब सबकुछ वही है.’’

‘‘कुछ डिटेल में बताओगी? मैं जानना चाहता हूं?’’ समीर ने कहा.

‘‘मैं अतीत को भूल जाना चाहती हूं. वर्तमान मैं ने तुम्हें बता दिया है. तुम बताओ अपनी लाइफ के बारे में?’’

‘‘शादी नहीं की,’’ समीर ने संक्षिप्त उत्तर दिया.

‘‘क्यों?’’ केशू ने हैरानी से पूछा.

‘‘प्यार अनंत है. फिर दिल जिसे चाहे, दिल को जो भा जाए, फिर चाहे लाख समरंगी, समरूपी चीजें हों पर दिल किसी अन्य को चाहता ही नहीं है.

‘‘लंबे समय से अकेलेपन की आज जा कर समाधि टूटी जब तुम्हारे द्वार पर आज दिल ने दस्तक दी है. मैं तुम से विवाह करना चाहता हूं. तुम स्वीकार करो या अस्वीकार. मरजी तुम्हारी है.’’

‘‘कैसी बात करते हो समीर. मैं तलाकशुदा, समाज से अवहेलित तुम इतने बड़े अफसर और कुंआरे… तुम्हारे लिए तो लड़कियों की कतार लग जाएगी,’’ फिर मैं ने कहा न कि मेरा भविष्य तो मेरा बेटा है. तुम्हें नए सिरे से अपनी वैवाहिक जिंदगी शुरू करनी चाहिए. तुम मेरे साथ अपना भविष्य क्यों खराब करना चाहते हो?’’ केशू ने लंबी सांस भरते हुए कहा.

‘‘बात दिलों की है, नि:शब्द के नाद की है, अनंत की अनंत से पुकार है. इस में मैं कर भी क्या सकता हूं?

‘‘मानता हूं और सम?ाता भी हूं कि तुम्हारा शादी का अनुभव अच्छा नहीं रहा. लेकिन जिंदगी रुकने का नाम तो नहीं. एक नई शुरुआत करनी ही पड़ती है. हर काली रात के बाद उजली सुबह आती है. एक नूतन सवेरा तुम्हारे सामने बांहें फैला कर खड़ा है. मेरे दिल के दरवाजे तुम्हारे लिए सदैव प्रतीक्षारत रहेंगे,’’ समीर ने कहा.

‘‘मुझे समय चाहिए. मैं अतीत, वर्तमान और भविष्य में सामंजस्य नहीं बैठा पा रही हूं. मैं सृजन का भविष्य दांव पर नहीं लगा सकती,’’ केशू ने कहा.

‘‘सृजन आज से मेरा बेटा है. मैं उसे किसी तरह की परेशानी नहीं होने दूंगा. तुम विश्वस्त रहो केशू.’’ समीर ने केशू का हाथ पकड़ लिया. वह उन हाथों को हमेशा के लिए अपने हाथों में लेना चाहता था.

‘‘मुझे कुछ समय चाहिए,’’ कह कर केशवी ने समीर से विदा ले ली.

समीर आंखों से ओझल होने तक उसे देखता रहा.

घर आ कर केशू ने सब से पहले नन्हे सृजन को गले से लगाया और वह बहुत जोरजार से रोने लगी. वह सोच रही थी कि ममता बेमानी नहीं हो सकती. वह अपनी खुशी की खातिर सृजन का भविष्य दांव पर नहीं लगा सकती. कशमकश में पलता केशू का मन और मन के कई हिस्से हुए जा रहे थे. एक तरफ ममता का आंचल, एक तरफ समाज और एक तरफ मृदु समीर का आर्द्र स्पर्श जो उसे पुकारता है. समीर का अनंत प्यार. अनंत इंतजार. छू लेता है केशू का मन. इसी ऊहापोह में उस की नींद लग जाती है.

सुबह जब नींद खुलती है तो फिर वही कुरुक्षेत्र बना उस का मन. सब पहलुओं को विचारने लगा. उस के अंतस की आवाज आई कि समाज को तो मुझे दरकिनार कर ही देना चाहिए बल्कि मुझे एक सुरक्षाकवच मिलेगा. सृजन को भी एक पूर्णता मिलेगी. सुनील जैसे व्यक्ति के लिए क्या अफसोस जैसे अपनी कटी पूंछ के लिए नहीं रोती गोधिका, जानती है नियत है उस का पुन: बढ़ जाना. ऐसे ही मुझे सारे असमंजस त्याग कर समीर को हां कह देनी चाहिए.

नित्यप्रति के काम निबटा कर केशू स्कूल चली गई. वहां भी उस का मन एक बेचैनी महसूस करता रहा. शाम को जब घर लौट कर आई तो उस ने सोचा अपने मांपिताजी से बात कर ली जाए.

संकोची केशू ने हिम्मत जुटा कर सारी बात अपने मांपिताजी को बताई तो मां ने कहा, ‘‘बेटा, समीर हमारी बिरादरी का भी नहीं तो लोग क्या कहेंगे. तुम्हारा एक फैसला हमारे परिवार की इज्जत धूमिल कर देगा.’’

मगर केशू के पिता केशू का अकेलापन महसूस कर रहे रहे. वे केशू की आंखों में समीर के लिए प्यार भी देख रहे थे. अत: उन्होंने कहा, ‘‘जो लड़का केशू को इतना प्यार करता है, जिस ने शादी ही नहीं कि वह हमारी केशू को जान से ज्यादा प्यार करेगा.’’

फिर थोड़ी देर रुक कर उन्होंने केशू की मां से कहा, ‘‘रही बिरादरी की बात तो सुनील हमारे समाज का ही लड़का है फिर भी उस ने रिश्तों को नहीं समझा रिश्ते और प्यार किसी जाति से नहीं बंधे. वे तो हर इंसान का अपना व्यक्तित्व है. हमें देर न करते हुए अपनी केशवी का हाथ समीर के हाथों में सौंप देना चाहिए.’’

केशवी की मां को भी यह बात कुछ सही लगी. फिर कहा, ‘‘सृजन का क्या होगा?’’

तब केशू नू कहा, ‘‘समीर ने कहा है सृजन आज से उस का ही बेटा है.’’

सुन कर केशवी की मां का मन खुशी से प्रफुल्लित हो गया. वो अपनी बेटी की वीरान जिंदगी में बहार देखना चाहती थी.

अगले दिल सुबह केशवी के पापा समीर से मिलने गए. समीर की सौम्यता और व्यावहारिकता केशू के पिता के दिल को छू गई. उन्होंने कहा, ‘‘समीर, मैं अपनी केशू का हाथ आप के हाथों में सौंपना चाहता हूं.’’

समीर ने कहा, ‘‘आज मेरी चिर प्रतीक्षा खत्म हुई. केशू और सृजन आज से मेरे जीवन का हिस्सा हैं.’’

केशू के पापा ने घर लौट कर सब को खुशखबरी सुनाई. लंबी उदासी के बाद एक बार फिर घर में खुशी की लहर दौड़ गई.

सादगीपूर्ण तरीके से दोनों का विवाह हुआ. नन्हा सृजन भी विवाह का हिस्सा था.

सुहाग सेज पर बैठी केशू समीर को अपने पास पा कर छुईमुई हुई जा रही थी.

समीर ने कहा, ‘‘अपने नाम के अक्षर पहन में तुम्हारा आलिंगन करता हूं. तुम्हारे बिना मेरा जीवन क्षितिज की भांति था जिस का कोई अस्तित्व नहीं. तुम्हें पा कर आज मुकम्मल हुआ हूं मैं.’’

केशवी ने कहा, ‘‘काश, हम पहले मिल पाते.’’

समीर ने कहा, ‘‘अतीत का कोई मलाल न करो. कब किस को मिलना है यह हम तय नहीं करते. कुछ कम कुदरत अपने हाथ में ही रखती है.’’

केशवी जैसे अपनी पूर्णता को प्राप्त कर गई हो.

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