Hindi Story Telling : अमूल्य धरोहर

Hindi Story Telling :  रामआसरेजी जब से विधायक बने थे किसी न किसी कारण हाईकमान से खिंचे रहते थे. खुद को जनता का सर्वश्रेष्ठ सेवक समझने वाले रामआसरे के घर आज उन्हीं जैसे 5 और असंतुष्टों की बैठक थी. भीमा, राजा भैया, प्रताप सिंह, सिद्दीकी और गायत्री देवी एक के बाद एक कर जनतांत्रिक दल के अध्यक्ष रवि और मुख्यमंत्री के खिलाफ आग उगल रहे थे.

‘‘बहुत हो गया, अब हम और चुप नहीं रहेंगे. हम ने तो तनमनधन से दल की सेवा की पर उन्होंने हमें दूध में गिरी मक्खी की भांति निकाल फेंका.’’ राजा भैया बहुत क्रोध में थे.

‘‘वही तो, मंत्रिमंडल का 3 बार विस्तार हो गया, पर हम लोगों के नाम का कहीं अतापता ही नहीं. मैं ने रवि बाबू से शिकायत की तो हंसने लगे और बोले कि तुम आजकल के छोकरों की यही समस्या है कि सेवा से पहले ही मेवा खाना चाहते हो,’’ प्रताप सिंह बोले थे.

‘‘40 वसंत देख चुके नेता उन्हें कल के छोकरे नजर आते हैं तो उस में हमारा नहीं उन का दुर्भाग्य है. जब तक दल में नए खून को महत्त्व नहीं देंगे, दल कभी तरक्की के रास्ते पर अग्रसर नहीं हो सकता,’’ रामआसरे खिन्न स्वर में बोेले थे.

‘‘दल की उन्नति और अवनति की किसे चिंता है, सब को अपनी पड़ी है. सच पूछो तो मेरा तो राजनीति से पूरी तरह मोहभंग हो गया है. महिलाओं की दशा तो और भी अधिक दयनीय है,’’ गायत्री देवी रोंआसे स्वर में बोली थीं.

तभी टेलीफोन की घंटी के तेज स्वर ने इस वार्त्तालाप में बाधा डाल दी.

‘‘नमस्ते, नमस्ते सर,’’ दूसरी ओर से दल के अध्यक्ष रवि बाबू का स्वर सुन कर रामआसरेजी सम्मान में उठ खड़े हुए थे.

‘‘रामआसरेजी, आप के लिए शुभ समाचार है,’’ रवि बाबू अपने चिरपरिचित अंदाज में हंसते हुए बोले थे.

‘‘विधायकों का एक शिष्टमंडल एड्स की रोकथाम और चिकित्सा के अध्ययन के लिए मलयेशिया जा रहा है. उस में आप का नाम भी है.’’

‘‘क्या कह रहे हैं आप? मुझे तो अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा है.’’

‘‘कानों पर विश्वास करना सीखिए, रामआसरेजी. कुछ वरिष्ठ नेतागण आप के नाम को नहीं मान रहे थे, पर मैं अड़ गया कि रामआसरेजी जाएंगे तभी शिष्टमंडल मलयेशिया जाएगा नहीं तो नहीं. अंतत: उन्हें मानना ही पड़ा.’’

वार्त्तालाप के बीच में ही रामआसरेजी ने अपनी नजर वहां बैठे अपने अन्य साथी विधायकों पर डाली थी, जो उन का वार्त्तालाप सुनने की चाहत में बेचैन हो उठे थे. तब मोबाइल कानों से लगाए रामआसरेजी धीरे से डग भरते कक्ष के बाहर बरामदे में आ गए थे.

‘‘और कौनकौन है शिष्टमंडल में?’’

‘‘आप को आम खाने हैं या पेड़ गिनने हैं,’’ रवि बाबू संयमित स्वर में बोले थे.

‘‘वही समझ लीजिए, हमारे और भी साथी हैं रवि बाबू. वे नहीं गए और मैं चला गया तो बुरा मान जाएंगे.’’

‘‘कौनकौन हैं वहां पर?’’ रवि बाबू ने तनिक गंभीर स्वर में पूछ लिया था.

‘‘कौन? कहां? रवि बाबू?’’ रामआसरेजी हड़बड़ा गए थे.

‘‘घबराइए मत, रामआसरेजी, राजनीति में आंखकान खुले रखने पड़ते हैं,’’ रवि बाबू ने ठहाका लगाया था.

‘‘हम लोग तो यों ही चायपार्टी के लिए जमा हुए हैं. आप ने शायद गलत समझ लिया.’’

‘‘देखो, मैं ने गलतसही कुछ भी नहीं समझा है. मैं ने तो बस यह बताने के लिए फोन किया था कि हाईकमान को आप की कितनी चिंता है. आप के अन्य मित्रों को भी शिष्टमंडल में शामिल कर लिया गया है,’’ रवि बाबू बोले थे.

‘‘यानी भीमा, राजा भैया, प्रतापसिंह और सिद्दीकी भी शिष्टमंडल में हैं.’’

‘‘जी हां, और गायत्री देवी भी.’’

‘‘गायत्री देवी…यह आप ने क्या किया रवि बाबू. वह भला एड्स संबंधित अध्ययन में क्या भूमिका निभाएंगी. उन्हें तो किसी महिला सम्मेलन में भेजते.’’

‘‘ऐसा मत कहिए. गायत्री देवी ने सुन लिया तो आप की खैर नहीं. स्त्री शक्ति का सम्मान करना सीखिए, रामआसरेजी.’’

‘‘मैं तो उन का बहुत सम्मान करता हूं, रवि बाबू, पर शायद हम लोगों के साथ वह सहज अनुभव नहीं कर पाएंगी.’’

‘‘उस की चिंता आप छोडि़ए और जाने की तैयारी कीजिए,’’ कहते हुए रवि बाबू ने फोन काट दिया था.

बातचीत खत्म कर रामआसरेजी किसी विजेता की मुद्रा में कमरे में घुसे और अपने खास अंदाज में सोफे पर पसर गए.

‘‘क्या हुआ, रामआसरेजी?’’ उन के दूसरे साथी उन्हें घेर कर खडे़ हो गए थे.

‘‘एक शुभ समाचार है बंधुओ,’’ रामआसरे ने अपने साथियों की उत्सुकता शांत करने का प्रयत्न किया था.

‘‘आप मंत्री बन गए क्या?’’ समवेत स्वरों में प्रश्न पूछा गया था.

‘‘अपनी ऐसी तकदीर कहां,’’ रामआसरेजी का मुंह लटक गया था.

‘‘तो फिर क्या शुभ समाचार है?’’ राजा बाबू ने पुन: प्रश्न किया था.

‘‘एक शिष्टमंडल मलयेशिया जा रहा है. एड्स की चिकित्सा और रोकथाम के अध्ययन के लिए.’’

‘‘तो?’’

‘‘हम सब उस शिष्टमंडल के सदस्य हैं.’’

‘‘अच्छा,’’ भीमा, राजा भैया, प्रताप सिंह और सिद्दीकी के चेहरे खिल उठे पर गायत्री देवी के चेहरे पर नाराजगी स्पष्ट थी.

‘‘क्या हुआ, गायत्री बहन?’’ रामआसरे ने पूछ ही लिया.

‘‘इस में इतना खुश होने के लिए क्या है? आप लोग अब तक नहीं समझे कि हाथ में विदेश भ्रमण का झुनझुना थमा कर आप को चुप किया जा रहा है. पिछले माह महिलाओं की सुरक्षा व्यवस्था के अध्ययन के लिए भी एक शिष्टमंडल आस्टे्रलिया गया था. तब तो किसी को हमारी याद नहीं आई,’’ गायत्री देवी के क्रोध की कोई सीमा न थी, ‘‘अगले माह एक और शिष्टमंडल यातायात प्रणाली के अध्ययन के लिए अमेरिका जा रहा है.’’

‘‘शांत देवी, शांत,’’ प्रकट में रामआसरेजी अत्यंत नाटकीय स्वर में बोले थे.

‘‘मुझे शांत करने से क्या होगा भाई साहब. शांत ही करने की बात है तो हाईकमान से कहिए कि आग में घी डालने के स्थान पर पानी डालें जिस से आग नियंत्रण में रह सके,’’ वह तीखे स्वर में बोली थीं.

‘‘मेरे विचार से तो हर समय आक्रामक रुख बनाए रखने से हमारा ही अहित होगा. वैसे भी भागते भूत की लंगोटी भली,’’ राजा भैया ने अपना मत जाहिर किया था.

‘‘जैसी आप लोगों की इच्छा. आप ही तो नेता बने थे असंतुष्टों के. आरपार की लड़ाई की बात करते थे. वैसे भी मैं कहां अपने लिए कुछ मांग रही हूं पर मेरे क्षेत्र के कार्यकर्ता कहते हैं कि जब तक मैं मंत्री नहीं बनूंगी क्षेत्र का विकास नहीं होगा,’’ गायत्री देवी के स्वर में निराशा थी.

‘‘हमारे क्षेत्र के कार्यकर्ता भी यही चाहते हैं. उन्होंने तो धमकी तक दे डाली है कि मंत्रिमंडल के विस्तार की सूची में मेरा नाम नहीं हुआ तो धरनेप्रदर्शनों का ऐसा दौर चलेगा कि मुख्यमंत्री तक का सिंहासन हिल जाएगा,’’ सिद्दीकी साहब कब पीछे रहने वाले थे.

‘‘मान ली आप दोनों की बात. आप और आप के कार्यकर्ता आप को मंत्री पद पर बैठा देखना चाहते हैं पर व्यावहारिक बात तो यही है कि हम सब को तो मंत्री पद मिल नहीं सकता. फिर जो मिल रहा है उसे क्यों ठुकराएं,’’ राजा भैया के विशिष्ट अंदाज ने सब की बोलती बंद कर दी थी.

‘‘मुझे लगता है कि गायत्री बहन हमारे साथ जाने में असहज अनुभव कर रही हैं,’’ रामआसरेजी ने मौन तोड़ा था.

‘‘जी नहीं, मेरी बातों को अन्यथा न लें. मुझे इस शिष्टमंडल में जाने में कोई आपत्ति नहीं है. मैं तो खुद एड्स की चिकित्सा व रोकथाम का अध्ययन कर अपने देश के एड्स पीडि़तों की सहायता करना चाहती हूं,’’ गायत्री देवी ने एक ही क्षण में सब की बोलती बंद कर दी थी और वह तुरंत ही वहां से उठ कर चल दी थीं.

‘‘देखा भैया, उड़ती चिडि़या के पर गिनने सीखो वरना राजनीति से संन्यास ले लो. इतनी आग उगलने के बाद यह गायत्री देवी मलयेशिया जाने को झट तैयार हो गईं,’’ गायत्री के जाते ही राजा भैया व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोले थे.

‘‘इसी को त्रिया चरित्र कहते हैं. वह अच्छी तरह समझती हैं कि उन्हें कब, कहां और कैसे अपनी नई चाल चलनी है,’’ सिद्दीकी ने अपना मत प्रकट किया था.

‘‘वही तो रोना है,’’ रामआसरेजी बोले, ‘‘सोचा था कि सब एकसाथ शिष्टमंडल में जा कर मौजमस्ती करेंगे. मुझे तो लगा था कि वह स्वयं ही मना कर देंगी पर वह तो तुरंत तैयार हो गईं. दालभात में मूसलचंद साथ जाएंगे तो हम क्या मस्ती करेंगे,’’ राजा भैया अपना क्रोध छिपा नहीं पा रहे थे.

‘‘इस तरह दिल छोटा करने की जरूरत नहीं है. केवल हम 5 ही नहीं 15 विधायक जा रहे हैं. हम इस अध्ययन के लिए अपना कार्यक्रम बनाएंगे,’’ रामआसरेजी ने अपने मित्रों को शांत करना चाहा था.

अगले दिन से ही शिष्टमंडल के सभी सदस्यों की जोरदार तैयारी शुरू हो गई. समय को मानो पंख लग गए थे. एड्स के रोगियों के स्थान पर सुंदर समुद्र तट, मसाज पार्लर और जहाज पर कू्रज में नाचनेगाने के सपनों ने हर दिन उन के रोमांच को और भी रंगीन बना दिया था. मलयेशिया में पहला दिन तो कुआलालम्पुर के बड़े से सभागार में व्यतीत हुआ था. सभागार ठसाठस भरा हुआ था पर दोपहर के भोजन के बाद

2 4 कुरसियों पर ऊंघते से लोगों को छोड़ कर पूरा सभागार खाली था. भारत से आए शिष्टमंडल में से केवल गायत्री देवी ही बैठी रह गई थीं.

अगले दिन शिष्टमंडल के लगभग सभी सदस्यों ने घूमनेफिरने का कार्यक्रम बनाया था पर गायत्रीजी ने साफ कह दिया कि वह गोष्ठी का कोई भी व्याख्यान छोड़ना नहीं चाहती थीं.

‘‘ठीक है, जैसी आप की इच्छा. हम आप को बाध्य तो नहीं कर रहे पर हमारा तो कार्यक्रम बन चुका है. यों भी इस गोष्ठी में रखा क्या है. एड्स से संबंधित जो भी जानकारी चाहिए सब इंटरनेट पर उपलब्ध है,’’ रामआसरेजी ने अपना पक्ष स्पष्ट किया था.

‘‘तब तो गोष्ठी के लिए यहां तक आने की जरूरत ही नहीं थी. इंटरनेट पर सारी जानकारी तो भारत में भी उपलब्ध थी,’’ गायत्रीजी ने नहले पर दहला जड़ा था.

‘‘चलिए महोदय, देर हो रही है. गाड़ी आ गई है,’’ राजा भैया बोले.

‘‘ठीक है, फिर हम लोग चलते हैं… आप गोष्ठी का आनंद लीजिए,’’ रामआसरेजी ने विदा ली थी.

मलयेशिया में 4 दिन पलक झपकते ही बीत गए. लगे हाथों सिंगापुर में भी घूमने का कार्यक्रम बन गया था. गोष्ठी के आयोजकों ने भी अतिथियों के स्वागत- सत्कार के साथसाथ घुमानेफिराने का प्रबंध किया था.

लौटते समय राजा भैया ने चुटकी ली, ‘‘गायत्रीजी, आप तो गोष्ठी में ही उलझी रही हैं. हमें भी कुछ बताइए न, क्या विचारविमर्श हुए… वैसे छपी हुई सामग्री हम ने भी ले ली है.’’

‘‘यों भी होता क्या है इन गोष्ठियों में. उद्घाटन और अंतिम सत्र के अलावा इन में किसी की रुचि नहीं होती,’’ प्रताप सिंह ने भी अपने दिल की बात कह दी.

स्वदेश पहुंचते ही सभी अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गए. मित्रोंसंबंधियों को विदेश से लाए उपहार देना भी इसी दिनचर्या का हिस्सा था. वहां से लाए हुए छायाचित्र और वीडियो भी सब के आकर्षण का केंद्र बने हुए थे.

एक दिन अचानक ही मुख्यमंत्रीजी ने वक्तव्य दे दिया कि वह अपने मंत्रिमंडल में फेरबदल करने वाले हैं. फिर क्या था राजनीतिक सरगर्मियां बढ़ गईं. विधायकगण अपने तरीके से अपनी बात हाईकमान तक पहुंचाने लगे. साम दाम, दंड भेद का सहारा लिया जाने लगा और उन की बात न सुने जाने पर दबी जबान धमकियां भी दी जाने लगीं. रामआसरेजी अपने असंतुष्ट विधायकों के साथ कई बार रवि बाबू से मिल आए थे और अपनी मांगें पूरी करवाने के लिए मांगों की पूरी सूची भी उन्हें थमा दी थी.

2 महीने इसी ऊहापोह में बीत गए थे. अधिकतर विधायक मंत्रिमंडल विस्तार की बात अब लगभग भूल ही गए थे कि एक दिन सुबह की चाय की चुस्कियों के साथ आने वाले समाचार ने हड़कंप मचा दिया था.

रामआसरेजी के असंतुष्ट विधायकों में से केवल गायत्री देवी को ही मंत्रिमंडल में स्थान मिल सका था. वह महिला एवं समाज कल्याण मंत्री बन गई थीं.

आननफानन में सभी विधायक रामआसरे के घर आ जुटे थे. मुख्यमंत्री पार्टी अध्यक्ष रवि बाबू के अलावा गायत्री देवी उन की विशेष कोपभाजन थीं. मुख्यमंत्रीजी तो मंत्रिमंडल का विस्तार करते ही विदेश दौरे पर चले गए थे. आखिर असंतुष्ट विधायकों के दल ने रवि बाबू के यहां धरना देने की योजना बनाई थी.

‘‘आइए मित्रो, बड़ी लंबी आयु है आप की, अभीअभी मैं आप लोगों को ही याद कर रहा था. देखिए न, कितने मनोहारी दृश्य हैं,’’ उन्होंने टीवी पर आते दृश्यों की ओर इशारा किया था.

रामआसरेजी, राजा भैया, प्रताप सिंह, सिद्दीकी, भीमाजी यानी पांचों के विस्फारित नेत्र पलकें झपकना भूल गए थे. मलयेशिया के मनोहारी समुद्र तटों पर आनंद विहार करते, जहाज पर कू्रज में नाचतेगाते उन के दृश्य किसी ने बड़ी चतुराई से सीडी में उतार कर रवि बाबू तक पहुंचाए थे.

‘‘राजा भैया आप नृत्य बड़ा अच्छा करते हैं, साथ में वह लड़की कौन है? और सिद्दीकीजी व रामआसरे बाबू, आप लोग भी छिपे रुस्तम निकले. मुख्यमंत्रीजी कह रहे थे कि जनतांत्रिक दल के विधायक बड़े रसिक हैं,’’ रवि बाबू ने अपने विशेष अंदाज में ठहाका लगाया था.

‘‘तो आप ने सीडी मुख्यमंत्री तक भी पहुंचा दी?’’ प्रताप सिंह और भीमा बाबू ने प्रश्न किया था.

‘‘नहीं रे, यह सीडी मुख्यमंत्री निवास से हम तक आई है,’’ रवि बाबू की मुसकान छिपाए नहीं छिप रही थी.

‘‘समझ गया, मैं सब समझ गया,’’ रामआसरेजी क्रोधित स्वर में बोले थे.

‘‘क्या समझ गए आप?’’

‘‘यही कि यह सब गायत्री देवी का कियाधरा है. इसीलिए उन्हें मंत्री बना कर पुरस्कृत किया गया है,’’ वह बोले थे.

‘‘आप गायत्री देवी को जरूरत से ज्यादा महत्त्व दे रहे हैं. बेचारी सीधीसादी सी घरेलू महिला है, जो अपने ससुर की महत्त्वाकांक्षाओं के चलते राजनीति में चली आई है. जासूसी करना उस के वश का रोग नहीं है,’’ रवि बाबू मानो पहेली बुझा रहे थे.

‘‘तो यह सीडी आप के पास कैसे पहुंची?’’

‘‘अनेक पत्रकार मित्र हैं हमारे, अनेक चैनलों के लिए भी काम करते हैं. वे तो सीधे जनता को दिखाना चाहते थे कि कैसे उन के विधायक एड्स जैसी गंभीर बीमारी के निराकरण के लिए खूनपसीना एक कर रहे हैं. आप के क्षेत्र कार्यकर्ता तो देखते ही वाहवाह कर उठते पर मुख्यमंत्रीजी ने सीडी खरीद ली. कहने लगे, दल की नाक का प्रश्न है. कोई जनतांत्रिक दल के विधायकों पर उंगली उठाए यह उन से सहन नहीं होगा,’’ रवि बाबू का स्वर भीग गया था, आवाज भर्रा गई थी.

कमरे में कुछ देर के लिए खामोशी छाई रही, मानो वहां कोई था ही नहीं, पर शीघ्र ही असंतुष्ट विधायकों की टोली रवि बाबू को नमस्कार कर बाहर निकल गई थी.

‘‘मान गए सर, आप को, क्या चाल चली है. सांप भी मरे और लाठी भी न टूटे,’’ रवि बाबू के सचिव श्रीरंगाचारी बोले थे.

‘‘क्या करें, राजनीति में रहना है तो सब करना पड़ता है. आंखकान खुले रखने ही पड़ते हैं,’’ रवि बाबू ने ठहाका लगाया था और सीडी संभाल कर रख ली थी.

Emotional Hindi Story 2025 : बेटी की चिट्ठी

Emotional Hindi Story 2025 : प्यारे पापा, नमस्ते.

सभी बच्चों की वरदियां बन गई हैं, पर मेरी अभी तक नहीं बनी है. मैडम रोज डांटती हैं. किताबें भी पूरी नहीं खरीदी हैं. जो खरीदी हैं, उन पर भी मम्मी ने खाकी जिल्द नहीं चढ़ाई है. अखबार की जिल्द लगाने के लिए मैडम मना करती हैं. कोई भी बच्चा अखबार की जिल्द नहीं चढ़ाता.

आप जल्दी घर पर आएं और वरदी व जिल्द जरूर लाएं. मम्मी ने मुझे जो टीनू की पुरानी वरदी दी थी, वह अब छोटी हो गई है. कई जगह से घिस भी गई है. मम्मी की आंख में दर्द रहता है.

आप की बेटी स्मृति.
कक्षा-5.

*प्यारे पापा, नमस्ते.

मेरे जूते और जुराबें फट गई हैं. मां ने जूते सिल तो दिए थे, मगर उन में अंगूठा फंसता है. ऐसे में दर्द होता है. मैडम कहती हैं कि जूते छोटे पड़ गए हैं, तो नए ले लो. ये सारी उम्र थोड़े ही चलेंगे. मेरे पास ड्राइंग की कलर पैंसिलें नहीं हैं. रोजरोज बच्चों से मांगनी पड़ती हैं. आप घर आते समय हैरी पौटर डब्बे वाली कलर पैंसिलें जरूर लाना.

हमारे स्कूल में फैंसी बैग कंपीटिशन है, पर मेरा तो बैग ही फट गया है. आप एक अच्छा सा बैग भी जरूर ले आना, नहीं तो मैं उस दिन स्कूल नहीं जाऊंगी.

आप की बेटी स्मृति.
कक्षा-5.

*

प्यारे पापा, नमस्ते.

हमारे स्कूल का एनुअल फंक्शन 15 दिन बाद है. सभी बच्चे कोई न कोई प्रोग्राम दे रहे हैं. मुझे भी देना है. कोई अच्छी सी ड्रैस ले आना. मम्मी के सिर में दर्द रहता है. डाक्टर ने बताया कि चश्मा लगेगा, तभी दर्द ठीक होगा. उन की नजर बहुत कमजोर हो गई है.

सभी बच्चों ने गरम वरदियां ले ली हैं. ठंड बढ़ गई है. गरमी वाली वरदी रहने दें, अब सर्दी वाली वरदी ही ले आएं. मम्मी ने इस बार भी अखबार की जिल्द चढ़ाई थी. मैडम ने 10 रुपए जुर्माना कर दिया है. 2 महीने की फीस भी जमा करानी है. आप इस बार पैसे ले कर जरूर आना, नहीं तो मेरा नाम काट दिया जाएगा.

आप की बेटी स्मृति.
कक्षा-5.

*

प्यारे पापा, नमस्ते.

मैडम ने कहा है कि स्कूल बस का किराया नहीं दे सकते, तो पैदल आया करो. कम से कम फीस तो हर महीने भेज दिया करो, नहीं तो किसी खैराती स्कूल में जा कर धूप सेंको. स्कूल में डाक्टर अंकल ने हमारा चैकअप किया था. मेरे नाखूनों पर सफेदसफेद धब्बे हैं. डाक्टर अंकल ने बताया कि कैल्शियम की कमी है. मम्मी की आंखें ज्यादा खराब हो गई हैं. वे दिनरात अखबार के लिफाफे बनाती रहती हैं. मैडम ने कहा है कि अगर घर पर कोई पढ़ा नहीं सकता, तो ट्यूशन रख लो.

पापा, आप घर वापस क्यों नहीं आते? मुझे आप की बड़ी याद आती है. मम्मी कहती हैं कि आप रुपए कमाने गए हो, फिर भेजते क्यों नहीं?

आप की बेटी स्मृति.
कक्षा-5.

*

प्यारे पापा, नमस्ते.

मैं ने ट्यूशन रख ली है, मगर आप पैसे जरूर भेज देना. अगले महीने से इम्तिहान शुरू हो रहे हैं. सारी फीस देनी होगी. आप वरदी नहीं लाए. मुझे ठंड लगती है. मैडम कहती हैं कि यह लड़की तो ठंड में मर जाएगी. क्या मैं सचमुच मर जाऊंगी?

पापा, ट्यूशन वाले सर भी रुपए मांग रहे हैं. वे कहते हैं कि जब रुपए नहीं हैं, तो पढ़ क्यों रही हो? किसी के घर जा कर बरतन साफ करो. हां पापा, मुझे ड्राइवर अंकल ने स्कूल बस से नीचे उतार दिया. आजकल पैदल ही स्कूल जा रही हूं. पढ़ने का समय नहीं मिलता. हमारी गाय भी थोड़ा सा दूध दे रही है. मम्मी कहती हैं कि चारा नहीं है. लोगों के खेतों से भी कब तक लाते रहेंगे.

पापा, आप हमारी बात क्यों नहीं सुनते?
आप की बेटी स्मृति.
कक्षा-5.

प्यारे पापा, नमस्ते.

मेरे सालाना इम्तिहान हो गए हैं. मां ने गाय बेच कर सारी फीस जमा करा दी. ट्यूशन वाले सर के भी रुपए दे दिए हैं. बाकी बचे रुपयों से मां के लिए ऐनक खरीदनी पड़ी. पिछले दिनों आए तूफान व बारिश से घर की छत उखड़ गई है.

पापा, आप खूब सारे रुपए ले कर जल्दी घर आएं, तब तक मेरे इम्तिहान का रिजल्ट भी निकल जाएगा. पापा, क्या आप को हमारी याद ही नहीं आती? हमें तो आप हर पल याद आते हैं.

आप की बेटी स्मृति.
कक्षा-5.

प्यारे पापा, नमस्ते.

मेरा रिजल्ट आ गया है. मैं अपनी क्लास में फर्स्ट आई हूं. मुझे बैग, जूते और वरदी लेनी है. और हां पापा, इस बार मैं पुरानी नहीं, नई किताबें लूंगी. पुरानी किताबों के कई पन्ने फटे होते हैं.

आजकल स्कूल में मेरी छुट्टियां चल रही हैं. सभी बच्चे बाहर घूमने जाते हैं. मैं भी मम्मी के साथ कागज के लिफाफे बनाना सीख रही हूं, ताकि इस बार मुझे स्कूल पैदल न जाना पड़े.

पापा, बारिश में छत से पानी टपकता है. बाकी बातें मैं आप के घर आने पर करूंगी. अब की बार आप घर नहीं आए, तो मैं आप को कभी चिट्ठी नहीं लिखूंगी. तब तक मेरी और आप की कुट्टी.

आप की बेटी स्मृति.
कक्षा-5.

स्मृति की लिखी इन सभी चिट्ठियों का एक बड़ा सा बंडल बना कर संबंधित डाकघर ने इस टिप्पणी के साथ उसे वापस भेज दिया, ‘प्राप्तकर्ता पिछले साल हिंदूमुसलिम दंगों में मारा गया, जिस की जांच प्रशासन ने हाल ही में पूरी की है, इसलिए ये सारी चिट्ठियां वापस भेजी जाती हैं.’

Short HIndi Story : स्वीकृति के तारे

Short HIndi Story : वह हमेशा ही टुकड़ों में बंटी रही. दूसरों के हिसाब से जीने के लिए मजबूर किसी अधबनी खंडित मूर्ति की तरह. जिसे कभी तो अपने मतलब के लिए तराश लिया जाता, तो कभी निर्जीव पत्थर की तरह संवेदनहीन मान उस की उपेक्षा कर दी जाती. आज फलां दुखी है तो उसे उस के दुखों पर मरहम लगाना होगा. आज फलां खुश है तो उसे अपने आंसुओं को पी कर जश्न में शामिल होना होगा. आज फलां के जीवन में झंझावात आया है तो उसे भी अपने जीवन की दिशा बदल लेनी चाहिए. आज फलां की नौकरी छूटी है तो उसे उस की मदद करनी चाहिए. खंडित मूर्ति को अपने को संवारना सुनने में भी कितना अजीब लगता है. ऐसे में अपने पर खर्च करना फुजूलखर्ची ही तो होता है.

संपूर्णता वह कभी नहीं पा पाई. मूर्ति पर जब भी मिट्टी लगाई गई या रंग किया गया, तो उसे पूरी तरह से या तो सूखने नहीं दिया या फिर कई जगह ब्रश चलाना आवश्यक ही नहीं समझा किसी भी फ्रंट पर, इसलिए चाह कर भी वह संपूर्ण नहीं हो पाई क्योंकि उस से जो कडि़यां जुड़ी थीं, उस से जो संबंध जुड़े थे, उन्होंने उस की भावनाओं को नरम घास पर चलने का मौका ही नहीं दिया. उन की भी शायद कोई गलती नहीं थी. आखिर, ढेर सारा पैसा कमाने वाली लड़की भी तो किसी एटीएम मशीन से कम नहीं होती है. फर्क इतना है कि एटीएम में कार्ड डालना होता है जबकि उस के लिए तो मजबूरियों व भावनाओं का बटन दबाना ही काफी था.

घर की बड़ी लड़की होना और उस पर से जिम्मेदारियों को सिरमाथे लेना – ऐसे में कौन चाहेगा कि वह अपने सपनों को सच करने की चाह भी करे. दोष न तो उस के मांबाबूजी का है, न उस के भाई का और न ही उस की 2 छोटी बहनों का. दोष है तो सिर्फ उस का. अपने ही हाथों अपने अरमानों को कुचलते हुए सब को यह एहसास दिलाते रहने की उस की उस कोशिश का कि सब का खयाल रखना उस का दायित्व है और उस के लिए चाहे कितना ही खंडखंड होना, बिखरना ही क्यों न पड़े, वह तैयार है.

ऐसे में उम्र की तरह जीवन भी अपनी गति से हाथ से फिसलता रहा.

घड़ी की रफ्तार भी उस की जिंदगी की तरह ही तेज है. 9 बज चुके थे. सवा 9 बजे की चार्टर्ड बस अगर छूट गई तो फिर 3 बसें बदल कर औफिस जाना होगा. मन हुआ कि एक बार शीशे के सामने खड़ी हो कर खुद को निहारे. पर फिर अपनी सूती साड़ी की प्लेटों को ठीक कर ऐसे ही बाहर आ गई. जानती थी कि चेहरे के खत्म होते लावण्य और आंखों में बसी उदासी देख आईना भी उस से अनगिनत सवाल पूछने लगेगा. उस क्यों का जवाब देने का न तो उस के पास समय था और न ही कोई तर्क.

‘‘औफिस से आते समय अपने बाबूजी की ये दवाइयां ले आना. उन की खांसी तो ठीक होने का नाम ही नहीं ले रही है,’’ मां ने उसे परचा थमाते हुए यह कहा तो मन में सवालों के गुंजल चक्कर काटने लगे.

‘‘क्या सोचने लगी?’’ मां ने फिर कहा.

‘‘मां, दवाइयां तो भुवन भी ला सकता है,’’ उस की आवाज में कंपकंपाहट थी.

‘‘क्यों, तुझे कोई दिक्कत है लाने में. उसे क्यों परेशान करती है. सारा दिन तो बेचारा पढ़ता रहता है. और सुन, आज सब्जी नहीं बन पाई है. रोटियां पैक कर दी हैं. सब्जी कैंटीन से ले लेना,’’ कागज में लिपटी रोटियां मां ने उसे ऐसे थमाईं मानो एहसान कर रही हों.

भीतर फिर कुछ टूटा. अपनी ही मां क्या ऐसा कर सकती है? स्वार्थ की ममता शायद ऐसी ही होती है. तभी तो उस के सामने और कुछ दिखाई नहीं देता है. न ही बेटी की खुशी, न उस की पीड़ा. बस, केवल एक डर मन में समाया रहता है कि कहीं अगर इस ने अपनी जिंदगी को ले कर कुछ ख्वाब बुनने शुरू कर दिए या अपने सपनों को पंख देने की चाह उस के अंदर पैदा होने लगी तो बाकी लोेगों का क्या होगा. बाबूजी की दवाइयां कहां से आएंगी.

भुवन और दोनों बेटियों की पढ़ाई

व शादी कैसे होगी, घर का खर्च और सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह कैसे होगा?

उसे मांबाबूजी की तकलीफ और मजूरियां सब दिखाई देती हैं. सब समझ भी आती हैं. इसलिए वह भी बिना कुछ कहे उन की डोर से बंधी कठपुतली की तरह नाचती रहती है. लेकिन, बस, एक ही कसक उसे टीस देती है कि सब की खुशियों का खयाल रखने वाली इस बेटी से मां को वैसी ममता क्यों नहीं है जैसी बाकी तीनों बच्चों से. वह तो उन की सौतेली बेटी भी नहीं है. सभी कहते हैं कि रिया की शक्ल बिलकुल मां से मिलती है. फिर वह क्यों उन के लाड़प्यार से वंचित है? क्यों मां को उस की बिलकुल भी परवाह नहीं है?

न ही उसे कभी अपने सवाल का जवाब मिल सकता, क्योंकि उसे सवाल पूछने का हक नहीं है. कौन यकीन करेगा कि इस जमाने में एक कमाने वाली आत्मनिर्भर लड़की भी इतनी असहाय हो सकती है. इतनी बेचारी कि उसे अपनी ही कमाई के एकएक पैसे का हिसाब देना पड़ता हो.

चार्टर्ड बस का सफर उस के लिए किसी राहत से कम नहीं होता है. घर के घुटनभरे माहौल की यातना से मुक्ति उसे यहीं मिलती है. हर तरह के कार्यक्षेत्रों से जुड़े लोग एकसाथ आधेपौने घंटे का सफर हंसतेगाते बिताते हैं. यह सच है कि थकावट आजकल हर इंसान की जीवनशैली का हिस्सा बन चुकी है और यही वह समय होता है जब कुछ समय बैठने का अवसर मिलता है. चाहे तो आंखें मूंद कर अपनी दुनिया में लीन हो जाओ या चैन से अपनी नींद पूरी कर लो या फिर अपने घरऔफिस की समस्या को बांट अपने मन को हलका कर लो. कभीकभी तो बात करतेकरते समाधान भी मिल जाता था.

बच्चों की समस्याएं चुटकी में सुलझ जाती थीं और दूसरों की परेशानियों के आगे अपनी परेशानी बौनी लगने लगती थी. किसी का जन्मदिन है, तो मिठाई बंट रही है. मंगलवार है, तो प्रसाद बंट रहा है. एक पूरी दुनिया ही जैसे बस में सिमट गई हो. रिया की कितनी ही सहेलियां बन गई हैं. रोज जिस के साथ बैठो, उस के साथ आत्मीयता पनप ही जाती है. मेहा और सपना के साथ उस की बहुत छनती है. हालांकि दोनों ही विवाहित और दोदो बच्चों की मां हैं, फिर भी उन की बातों का विषय केवल पति व बच्चों तक ही सीमित नहीं होता है. उन के साथ रिया हर तरह के विषय पर बिंदास हो बात कर सकती है.

‘‘ले रिया ढोकला खा. तेरे लिए खास बना कर लाई हूं. वैसे भी तुझे देख कर लग रहा है कि भूखी ही घर से आई है,’’ सपना ने ढोकले का डब्बा उस के सामने करते हुए कहा.

‘‘तेरे जैसा ढोकला तो कोई बना ही नहीं सकता है,’’ मेहा ने झट ढोकला उठा कर मुंह में डाल लिया.

‘‘कुछ तो शर्म कर. औफर मैं रिया को कर रही हूं और खुद खाने में लगी है,’’ सपना ने उसे प्यार से झिड़का.

‘‘अरे खाने दे न,’’ रिया ने कहा तो सपना हंसते हुए बोली, ‘‘जब से बस में चढ़ी है तब से ही चिप्स खा रही है. पिछले 2 सालों में कितनी मोटी हो गई है. देख तो सीट भी कितनी घेर कर बैठती है.’’ यह सुन मेहा ने उसे चिकोटी काटी. रिया खिलखिला कर हंस पड़ी.

‘‘कितनी अच्छी लगती है हंसते हुए. बुझीबुझी सी मत रहा कर, रिया. घर से निकले तो दुखों की गठरी वहीं दरवाजे पर छोड़ आया कर. चल बाय, मेरा स्टैंड आ गया,’’ सपना ने उस के कंधे पर आश्वासन का हाथ रखा. उस का भी स्टैंड अगला ही था.

औफिस में वही एक  सा रूटीन. बस, एक ही तसल्ली थी कि यहां काम की क्रद होती थी. इसलिए उस को तरक्की करते देर नहीं लगी थी. कौर्पोरेट औफिस में जिस तरह एक व्यवस्था व नियम के अनुसार काम चलता है, वही कल्चर यहां भी था. काम करोगे तो आगे बढ़ोगे, वरना जूनियर भी तेजी से आगे निकल जाएंगे. काम पूरा होना चाहिए. उस के लिए कैसे मैनेज करना है, यह तुम्हारा काम है. मैनेजमैंट को इस से कोई मतलब नहीं.

मार्केटिंग हैड होने के नाते कंपनी की उस से उम्मीदें न सिर्फ काम को ले कर जुड़ी हैं, बल्कि मुनाफे की भी वह उम्मीद रखती है. रिया कार रख सकती है. बेहतरीन सुविधाओं से युक्त घर में रह सकती है और अपनी लाइफस्टाइल को बढि़या बना सकती है. क्योंकि, कंपनी उसे सुविधाएं देती है. पर रिया ऐसा कुछ भी नहीं कर पाती है, क्योंकि उसे बेहतरीन जिंदगी जीने का हक नहीं है. वह वैसे ही जीती है जैसे उस की मां चाहती है. सुविधाओं के लिए मिलने वाले पैसे मां उसे अपने पर खर्च भी नहीं करने देती, बल्कि उन से दोनों बहनों के लिए जेवर खरीद कर रखती है. और उस के लिए… क्या मां के मन में एक बार भी यह विचार नहीं आता कि इस बेटी के अंदर भी जान है, वह कोई बेजान मूर्ति नहीं है. उस के विवाह का खयाल क्यों नहीं उसे परेशान करता.

‘‘मैं जानती हूं कि तू हमारी खातिर कुछ भी कर सकती है. अब जब लोग पूछते हैं कि तेरा ब्याह क्यों नहीं हुआ, तो मैं यही समझाती हूं कि तू ने अपनी इच्छा से ब्याह न करने का फैसला किया है. वरना, क्या मैं तुझे कुंआरी रहने देती. आखिर, अपने भाईबहन की कितनी चिंता है तुझे,’’ मां की यह बात सुन वह हैरान रह जाती. उस ने आखिर ऐसा कब कहा, उस से कब उस की इच्छा पूछी गई है?

‘‘मैडम, मिस्टर दीपेश पांडे आप से मिलना चाहते हैं. क्या आप के केबिन में उन्हें भेज दूं?’’ इंटरकौम पर रिसैप्शनिस्ट ने पूछा.

‘‘5 मिनट बाद.’’

दीपेश के आने से पहले खुद को संभालना चाहती थी वह. कंपनी जौइन किए हुए हालांकि उसे अभी 2 महीने ही हुए हैं, पर अपनी काबिलीयत और कंविंसिंग करने की क्षमता के कारण वह कंपनी को करोड़ों का फायदा करा चुका है. कंपनी के एक्स्पोर्ट डिपार्टमैंट को वही संभालता है. रिया से कोई 1-2 साल छोटा ही होगा. पर उस के सामने आते ही जैसे रिया की बोलती बंद हो जाती है. जब वह सीधे उस की आंखों में आंखें डाल कर किसी प्रोजैक्ट पर डिस्कस करता है तो वह हड़बड़ा जाती है. ऐसा लगता है मानो उस की आंखें सीधे उस के दिल तक पहुंच रही हों, मानो वे उस से कुछ कहना चाह रही हों. मानो उस में कोई सवाल छिपा हो.

ऐसा नहीं है कि रिया को उस का

साथ अच्छा नहीं लगता. उस का

बात करने का अंदाज, हर बात पर मुसकराना और जिंदादिली – सब उसे भाता है, लेकिन अपने ओहदे की गरिमा का उसे पूरा खयाल रहता है. पूरा औफिस उस की इज्जत उस के काम के अलावा उस की शिष्टता के लिए भी करता है. डिगनिटी को कैसे मेंटेन कर के रखा जाता है, यह वह बखूबी जानती है. इन 2 महीनों में न जाने कितनी बार उस के साथ इंटरैक्शन हो चुका है, फिर भी बिना इजाजत वह कमरे में नहीं आता. और रिया उस की इस बात की भी कायल है.

न जाने क्यों उस के हाथ बालों को संवारने लगे. बैग में से शीशा निकाल कर उस ने अपने को निहारा. 35 वर्ष की हो चली है, पर आकर्षण अभी भी है. इस खंडित मूर्ति को अगर नए सिरे से संवारा जाए तो इस में भी जान भर सकती है. प्यार और एहसास जैसे शब्द उस की जिंदगी के शब्दकोश में न हों, ऐसा कहना गलत होगा. बस, कभी उन पन्नों को खोलने की उस ने हिम्मत नहीं की जिन पर वे लिखे हुए हैं.

दीपेश से मिलने के बाद न जाने क्यों उस के अंदर उन पन्नों को छू कर पढ़ने की चाह जागने लगी है. इस से पहले भी कई पुरुषों ने उस की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया है, लेकिन उसे तब कभी ऐसा नहीं लगा कि वह उन के साथ किसी ऐसी राह पर कदम रख सकती है जो दूर तक जाती हो, पर…

‘‘मैम, कैन आई टेक योर फाइव मिनट्स,’’ दीपेश ने दरवाजे पर से ही पूछा.

‘‘प्लीज, डू कम इन ऐंड बाइ द वे, यू कैन कौल मी, रिया. यहां सभी एकदूसरे का नाम ले कर संबोधित करते हैं.’’

‘‘थैंक्स रिया. तुम ने मुझे कितनी बड़ी परेशानी से बचा लिया. वरना मैम कहतेकहते मैं बोर होने लगा था.’’ रिया उस के शरारती अंदाज को नजरअंदाज न कर सकी और खिलखिला कर हंस पड़ी.

‘‘माई गौड, आप हंसती भी हैं. मुझे तो यहां का स्टाफ कहता है कि आप को किसी ने कभी हंसते हुए नहीं देखा. बट वन थिंग, आप हंसते हुए बहुत खूबसूरत लगती हैं. यू नो, यू आर अ कौंबीनेशन औफ ब्रेन ऐंड ब्यूटी.’’

उस की बात सुन रिया फिर सीरियस हो गई, ‘‘टैल मी, क्या डिस्कस करना चाहते थे?’’

‘‘दैट्स बैटर. अब लग रहा है कि किसी सीनियर कलीग से बात कर रहा हूं.’’ उस के गंभीर हो जाने को भी दीपेश एक सौफ्ट टच देने से बाज न आया. मन में उस समय अनगिनत फूल एकसाथ खिल उठे. उन की खुशबू उसे छूने लगी. उसे विचलित करने लगी. काश, दीपेश यों ही सामने बैठा रहे और वह उसे सुनती रहे.

‘‘तो रिया, मेरे इस प्रपोजल पर आप की क्या राय है?’’ चौंकी वह, कुछ सुना हो तो राय दे.

‘‘इस फाइल को यहीं छोड़ दो. एक बार पढ़ कर, फिर बताती हूं कि क्या किया जाए,’’ अपने को संभाल पाना इतना मुश्किल तो कभी नहीं था रिया के लिए. तो क्या पतझड़ में भी बहार आ जाती है?

‘‘आजकल तू कुछ ज्यादा ही बनठन कर औफस नहीं जाने लगी है?’’ मां ने उसे टोका तो सचमुच उसे एहसास हुआ कि वह अपने पर कुछ ज्यादा ही ध्यान देने लगी है. बालों का जूड़ा कस कर बांधने के बजाय ढीला छोड़ देती है. अलमारी में बंद चटख रंगों की साडि़यां पहनने लगी है और बारबार शीशा देखने की आदत भी हो गई है.

‘‘कोई ऐसा काम न करना जिस से हमारी बदनामी हो. तेरी दोनों बहनों की शादी भी करनी है,’’ मां ने कहा तो उस का मन पहली बार विरोध करने को आतुर हो उठा.

‘‘और मेरी? अच्छा मां, सच कहना, क्या मैं तुम्हारी बेटी नहीं हूं?’’

‘‘रिया, मां से कैसे बात कर रही है?’’ बाबूजी का स्वर गूंजा तो पलभर को उस का विरोध डगमगाया, लेकिन फिर जैसे भीतर से किसी ने हिम्मत दी. शायद, उन्हीं सतरंगी फूलों ने…

‘‘बाबूजी, आखिर क्यों मेरे साथ मां ऐसा व्यवहार करती हैं जैसे मैं…’’ उस के शब्द आंसुओं में डूबने लगे.

‘‘उस की मजबूरी है, बेटा. वह ऐसा न करे तो यह घर कैसे चले. तेरी कमाई है तो घर चल रहा है. बाकी और चार लोगों की जिंदगी बचाने के लिए वह तुझे ले कर स्वार्थी हो गई है ताकि कहीं तेरा मोह, तेरे प्रति उस की ममता उसे तुझे अपनी जिंदगी जीने देने की आजादी न दे दे.’’

उस ने मां को देखा. उन के दर्द से भीगे आंचल में उस के लिए भी ममता का सागर लहरा रहा था. फिर क्या करे वह. एक तरफ उस की उमंगें उसे दीपेश की ओर धकेल रही हैं तो दूसरी ओर मां की उस से बंधी आस उसे अपने को खंडित और अधूरा बनाए रखने के लिए मजबूर कर रही है. क्या वह कभी पूर्ण हो कर नहीं जी पाएगी? क्या उसे अपनी खुशियों के बारे में सोचने का कोई हक नहीं है? अपनी जिंदगी को रंगों से भरने की चाह क्या उसे नहीं है? लेकिन वह यह सब क्या सोचने लगी. दीपेश को ले कर इतनी आश्वस्त कैसे हो सकती है वह? उस ने तो खुल कर क्या, अप्रत्यक्ष रूप से भी कभी यह प्रदर्शित नहीं किया कि रिया को ले कर उस के मन में कोई भाव है. शायद वही अब अपनी अधूरी जिंदगी से ऊब गई है या शायद पहली बार किसी ने उस के मन के तारों को छुआ है.

‘‘मेरा प्रपोजल पसंद आया, अगर आप की तरफ से ओके हो तो मैं इस पर काम करना शुरू करूं?’’ दीपेश का आज बिना इजाजत लिए चले आना उसे अजीब तो लगा पर एक अधिकार व अपनेपन की भावना उसे सिहरा गई.

‘‘प्लीज गो अहेड,’’ उस ने अपने को संभालते हुए कहा.

‘‘आज शाम के गेटटूगेदर में तो आप आ ही रही होंगी न? मार्केटिंग की फील्ड के सारे ऐक्सपर्ट्स वहां एकत्र होंगे.’’

‘‘आना ही पड़ेगा. दैट इज अ पार्ट औफ माई जौब. वरना मुझे इस तरह की पार्टियों में जाना कतई पसंद नहीं है.’’

पार्टी में मार्केटिंग से जुड़े हर पहलू पर बात करतेकरते कब रात के 11 बज गए, इस का उसे अंदाजा ही नहीं हुआ. मां तो आज अवश्य ही हंगामा कर देंगी. वैसे भी आज जब वह तैयार हो रही थी, तो उन्होंने कितना शोर मचाया था. उस ने गुलाबी शिफौन की साड़ी के साथ मैचिंग मोतियों की माला पहनी थी. उस की सुराहीदार गरदन पर झूलता ढीला जूड़ा और मेकअप के नाम पर सिर्फ माथे पर लगी छोटी सी बिंदी के बावजूद उस की सुंदरता किसी चांदनी की तरह लोगों को आर्किषत करने के लिए काफी थी.

‘‘काम के नाम पर रात को घर से निकलना न जाने कैसा फैशन है.’’ मां की बड़बड़ाहट की परवा न करने की हिम्मत उस समय रिया के अंदर कैसे आ गई थी, वह नहीं जानती. इसलिए हाई हील की सैंडिल उन के सामने जोर से चटकाते हुए वह उन के सामने से निकली थी.

‘‘कैसे जाएंगी आप? मैं आप को छोड़ दूं,’’ दीपेश ने पूछा तो वह मना नहीं कर पाई. और कोई विकल्प भी नहीं था, क्योंकि कंपनी में ऐसा कोई नहीं था जो उस से इस तरह का सवाल करने की हिम्मत कर पाता. गलती उसी की थी जिस ने अपने ऊपर गंभीरता का लबादा ओढ़ा हुआ था. केवल काम की बातों तक ही सीमित था उस का अपने कलीग्स से व्यवहार.

कार में कुछ देर की खामोशी के बाद दीपेश बोला, ‘‘रिया, जानती हो, मैं ने अब तक शादी क्यों नहीं की?’’ दीपेश के अचानक इस तरह के सवाल से हैरान रिया ने उसे देखा.

‘‘मैं चाहता था कि मेरा जीवनसाथी ऐसा हो जो समझदार व मैच्योर हो. मेरे काम और मेरे परिवार को समझ सके ताकि बैलेंस करने में न उसे दिक्कत आए, न मुझे. तुम से मिलने के बाद मुझे लगा कि मेरी खोज पूरी हो गई है, पर तुम अपने में इतनी सिमटी रहती हो कि तुम से कुछ कहने की हिम्मत कभी नहीं हुई.

‘‘तुम्हारे प्रति यह लगाव कोई कच्ची उम्र का आकर्षण नहीं है. एक एहसास है जिसे प्यार के सिवा कुछ नहीं कहा जा सकता है. मैं तुम्हारे और तुम्हारी घर की स्थितियों के बारे में सबकुछ जानता हूं. क्या तुम मेरे साथ जिंदगी की राह पर चलना पसंद करोगी? एक बार मजबूत हो कर तुम्हें फैसला लेना ही होगा. हम दोनों मिल कर तुम्हारे परिवार को संभालें तो?’’

रिया चुप थी. उसे समझ नहीं आ

रहा था कि  क्या सचमुच उस की

जिंदगी में रंग भर सकते हैं, क्या सचमुच अपूर्ण, खंडित इस मूर्ति के अंदर भी लहू का संचार हो सकता है? उस का घर आ चुका था.

दीपेश ने जाती हुई रिया का आगे बढ़ कर हाथ थाम लिया. मां को बालकनी में खड़ी देख अचकचाई रिया. पर दीपेश की हाथों की दृढ़ता ने उसे संबल दिया. अपना दूसरा हाथ दीपेश के हाथ पर रखते हुए उस ने दीपेश को देखा. रिया की आंखों में स्वीकृति के असंख्य तारे टिमटिमा रहे थे.

घर के अंदर कदम रखते हुए मां को सामने खड़े देख रिया ने उन्हें ऐसे देखा, मानो अपना फैसला सुना रही हो. उस के चेहरे पर लालिमा बन छाई खुशी और उस की आंखों में झिलमिलाते रंगीन सपनों को देख मां कुछ नहीं बोलीं. बस, उसे अपने कमरे की ओर जाते देखती रहीं. उस ने अपनी बेजान सी बेटी के अंदर प्यार से सजे प्राणों का संचार होते जैसे देख लिया था. वे जान गई थीं कि अब नहीं रोक पाएंगी वे उसे.

Hindi Love Story : ड्रीम डेट

Hindi Love Story : सच तो यह है कि आरव से मिलना ही एक ड्रीम है और जब उस डे और डेट को अगर सच में एक ड्रीम की तरह से बना लिया जाए तो फिर सोने पर सुहागा. हां, यह वाकई बेहद रोमांटिक ड्रीम डेट थी, मैं इसे और भी ज्यादा रोमांटिक और स्वप्निल बना देना चाहती थी. कितने महीनों के बाद हमारा मिलना हुआ था. एक ही शहर में साथसाथ जाने का अवसर मिला था. कितनी बेसब्री से कटे थे हमारे दिनरात, आंसूउदासी में. आरव को देखते ही मेरा सब्र कहीं खो गया. मैं उस पब्लिक प्लेस में ही उन के गले लग गई थी. आरव ने मेरे माथे को चूमा और कहा, ‘‘चलो, पहले यह सामान वेटिंगरूम में रख दें.’’

‘‘हां, चलो.’’

मैं आरव का हाथ पकड़ लेना चाहती थी पर यह संभव नहीं था क्योंकि वे तेजी से अपना बैग खींचते हुए आगेआगे चले जा रहे थे और मैं उन के पीछेपीछे.

‘‘बहुत तेज चलते हो आप,’’ मैं नाराज सी होती हुई बोली.

‘‘हां, अपनी चाल हमेशा तेज ही रखनी चाहिए,’’ आरव ने समझने के लहजे में मुझ से कहा.

‘‘अरे, यहां तो बहुत भीड़ है,’’ वे वेटिंगरूम को देखते हुए बोले. लोगों का सामान और लोग पूरे हौल में बिखरे हुए से थे.

‘‘अरे, जब आजकल ट्रेनें इतनी लेट हो रही हैं तो यही होना है न,’’ मैं कहते हुए मुसकराई.

‘‘कह तो सही ही रही हो. आजकल ट्रेनों का कोई समय ही नहीं है,’’ वे मुसकराते हुए बोले.

मेरी मुसकान की छाप उन के चेहरे पर भी पड़ गई. ‘‘फिर कैसे जाएं, क्या घर में बैठें?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अरे नहीं भई, आराम से फ्लाइट से जाओ,’’ उन्होंने जवाब दिया.

‘‘यह भी सही है, आजकल फ्लाइट का सफर राजधानी ऐक्सप्रैस से सस्ता है.’’

वे हंसे, ‘‘बिलकुल ठीक कहा. कुछ समय बाद देखना, फ्लाइट वाले जोरजोर से आवाजें लगाएंगे. आओ, आओ, एक सीट बची है यहां की, वहां की. जैसे बस वाले लगाते हैं.’’

उन की बात सुन कर मैं भी जोर से हंस दी.

इसी तरह से मुसकराते, बतियाते हुए लेडीज वेटिंगरूम आ गया था. किसी तरह से उस में अपने सामान के साथ उन का सामान सैट किया.

‘‘चलो, अब बाहर चलते हैं, यहां बैठना तो बड़ा मुश्किल है. लेकिन बाहर सर्दी लगेगी.’’

‘‘नहीं, कोई सर्दीवर्दी नहीं. आओ,’’ वे मेरा हाथ पकड़ते हुए बोले.

मैं किसी मासूम बच्चे की तरह उन का? हाथ पकड़े बाहर की तरफ चलती चली गई.

‘‘चलो आओ, पहले तुम्हें यहां की फेमस चाय की दुकान से चाय पिलवाता हूं.’’

‘‘आप को यहां की चाय की दुकानें पता हैं?’’

‘‘हांहां, क्यों नहीं पता होंगी, क्या मैं यहां से कहीं आताजाता नहीं?’’

मैं जवाब में सिर्फ मुसकराई.

‘‘सुन भई, जरा 2 बढि़या सी चाय ले कर आओ,’’ उन्होंने वहां पहुंचते ही अपनी ठसकभरी आवाज में और्डर दिया.

कितने अपनेपन से कहा, जैसे जाने कब से उसे जानते हैं. वे शायद मेरे मन की भाषा समझ गए थे.

‘‘अरे, यह अपना यार है, बहुत ही बढि़या चाय बनाता है. मैं तो पहले कई बार सिर्फ चाय पीने के लिए ही यहां चला आता था.’’

वे बोल रहे थे और मैं उन के चेहरे को देख रही थी. न जाने कुछ खोज रही थी या उस चेहरे को अपनी आंखों में और भी ज्यादा भर लेना चाहती थी.

चाय मेज पर रख कर जाते हुए लड़के ने पूछा, ‘‘कुछ और भी चाहिए?’’

‘‘नहीं, बस यहां की चाय से ही तृप्त हो जाता हूं.’’

चाय वाकई स्वादभरी थी. इंतजार की सारी थकान खत्म हो गई थी. लेकिन यह मेरी अपेक्षाओं के अनुकूल नहीं था. मैं तो उन के साथ गुजारे एकएक पल को बेहद खूबसूरत और रोमांटिक बना लेना चाहती थी. जैसे, चांद की रोशनी में बैठ कर उन्हें घंटों निहारती रहूं और वे मेरी गोद में सिर रखे, मेरे माथे को चूमते हुए मेरी आंखों में खा जाएं.

‘‘अरे चलना नहीं है? चाय इतनी अच्छी लगी कि और पीने का दिल कर रहा है?’’ आरव ने मुझे सोच में डूबे देख कर टोका.

‘‘नहींनहीं बाबा, ऐसा नहीं है. चलो, चलते हैं.’’

‘‘अब यह बाबा कौन है, यह भी बता दो हमें?’’ वे खूब जोर से खिलखिला कर हंस दिए, कितने प्यारे लगते हैं ये यों हंसते हुए.

‘कहीं किसी की नजर न लग जाए हमारे प्यार को, हमारी मुसकान को.’ मैं ने मन ही मन सोचा.

रात का समय था और ट्रेन अभी 2 घंटे और लेट थी. इस समय को गुजारना अब कोई मुश्किल काम नहीं था, क्योंकि मेरा प्यार, मेरा आरव मेरे साथ है. ‘वह हर जगह बहुत प्यारी है जहां मेरा आरव हो,’ मैं मन ही मन बोली. मैं ने आरव का हाथ अपने हाथ में कस कर पकड़ रखा था, ऐसे जैसे कि अगर पकड़ थोड़ी भी ढीली पड़ी तो वे कहीं मुझ से अलग न हो जाएं. मैं ने उस दूरी के कष्ट को इस कदर सहा है, इतने आंसू बहाए हैं कि अब साथ में हैं तो पलभर को भी उन्हें दूर या अलग नहीं होने देना चाहती थी.

‘‘साथ ही हूं तेरे न, फिर कैसी परवा?’’ आरव ने मुसकराते हुए पूछा.

‘‘हां, मैं इस साथ को महसूस करना चाहती हूं,’’ मैं भी मुसकराते हुए बोली.

‘‘बड़े अच्छे लगते हैं… यह धरती, यह नदिया, यह रैना और तुम…’’ आरव गुनगुना रहे थे और मैं उस मधुर धुन में खोई उन का हाथ थामे हर बात से बेफिक्र सी चाल से चल रही थी.

जनवरी का महीना और सर्द मौसम, इसलिए स्टेशन पर लोग न के बराबर थे, हालांकि ट्रेन बहुत लेट चल रही थी. लोग वेटिंगरूम में ही खुद को किसी तरह से ऐडजस्ट किए हुए थे या जो कुछ लोग बाहर बैठे भी थे वे खुद को खुद में ही सिकोड़ेसमेटे दुबके हुए से बैठे थे. मैं इस सर्द मौसम में अपने आरव का हाथ पकड़े स्टेशन के एक छोर से दूसरे छोर तक घूम रही थी. चांद पूरे निखार के साथ आसमान में चमक रहा था. मैं ने उंगली उठा कर आरव को चांद दिखाते हुए कहा, ‘‘देखो, यह चांद गवाह है न हमारे प्रेम का, कितनी मोहकता से हमें ही देख रहा है.’’

‘‘हमारे प्रेम को किसी गवाह की जरूरत ही कब है?’’ वे बोले.

मैं सिर्फ मुसकरा कर रह गई और उस ताप, उस ऊष्मा में खोती हुई उसे अपने बेहद करीब महसूस करते हुए साथसाथ चलती रही. प्रेम में बिताया और प्रेम के साथ का एकएक पल हमेशा यादगार होता है. उसे हम एक ड्रीम की तरह अपने अंतर्मन में बसाए रहते हैं.

‘‘सुनो, तुम ने खाना खाया?’’ आरव ने मौन तोड़ा और मेरी तरफ मुखातिब होते हुए पूछा.

‘‘हां,’’ मैं ने संक्षिप्त सा जवाब दिया.

‘‘सही,’’ वे संतुष्ट होते हुए बोले.

‘‘आप ने?’’

‘‘हां भाई, मैं तो खा कर ही आया हूं.’’

‘‘सुनो, मेरे पास बिस्कुट और केक रखे हैं, आप खाएंगे?’’

‘‘न, अभी कुछ नहीं खाना. चाय भी पी ली है और सफर भी करना है, रात का सफर है.’’

इस बात पर मैं ने मुसकराते हुए अपना सिर हिलाया.

पूरे एक घंटे तक यों ही दीवानों की तरह हम उस स्टेशन के प्लेटफौर्म पर एकदूसरे का हाथ पकड़े टहलते रहे. आरव ने कुछ इस तरह से मेरे हाथ को अपने हाथ में सहेज रखा था मानो कोईर् फूल. मैं कभी मुसकरा रही थी और कभी आरव की बांहों पर अपना सिर टिका दे रही थी. कितना मजबूती का एहसास मन में भर रहा था, मानो खुशियां सिमट आई हों.

सच में उन के होने से बढ़ कर मेरे जीवन में कोई और खुशी नहीं है. उन के इंतजार में बिताए दिन, आंखों से बहाए गए आंसू, सब न जाने कहां खो गए थे. आज मैं उन के साथ अपने सारे दुख भुला कर सिर्फ मुसकराना चाहती थी. बहुत रो लिए अकेले में, अब साथ में हंसने के दिन आए हैं.

‘‘चलो, अब तुम थक गई होगी, जा कर वेटिंगरूम में बैठ जाओ.’’

‘‘और आप?’’

‘‘मैं यहीं ठीक हूं.’’

‘‘सही है. वैसे, मैं भी यहीं आप के साथ रहना चाहती हूं.’’

‘‘अरे यार, साथ ही तो हैं.’’

‘‘आरव, तुम यहां?’’ किसी ने उन को आवाज लगाते हुए कहा. वे शायद गार्ड थे और आरव के दोस्त. देखा जाए तो आरव का व्यवहार इतना अच्छा है कि वे एक बार किसी से मिलते हैं तो उस के दिल में उतर जाते हैं और फिर सालोंमहीनों न मिलने के बाद भी लोग उन्हें याद रखते हैं.

‘‘और सुना, क्या हाल है तेरा और तेरे दोनों बौडीगार्ड्स का?’’ आरव ने गरमजोशी से हाथ मिलाते हुए कहा.

‘‘सब सही, भाई.’’

इन को बौडीगार्ड की क्या जरूरत. मैं ने मन ही मन में सोचा, यह कोई फिल्मस्टार तो लग नहीं रहे.

‘‘सुनो, अब तुम वेटिंगरूम में जा कर आराम से बैठो, मैं अपने यार से बातें कर लूं. बड़े दिनों के बाद दिखाई दिया है और सब से ज्यादा खुशी की बात यह है कि उस ने मुझे पहचान लिया है.’’

‘‘जी.’’

अब तो मुझे जाना ही था लेकिन मैं जाना नहीं चाहती थी. इतनी मुश्किल से मिले इस साथ का एकएक पल साथ में ही बिताना चाहती थी. खैर, मैं अंदर आ

गई और अपना मन बाहर आरव के पास  छोड़ आई.

करीब एक घंटा गुजर गया और मैं वहां आसपास के लोगों से बोलती व मोबाइल यूज करती रही. अब मुझे घुटन सी होने लगी. आरव, तुम इतने लापरवाह कैसे हो सकते हो, कोई तुम्हारे इंतजार में बैठा है और तुम करीब हो कर भी मेरे करीब नहीं हो.

मुझे बहुत तेज गुस्सा आ रहा था, नजरें लगातार वेटिंगरूम के गेट की तरफ लगी हुई थीं. आखिर नहीं रहा गया और मैं खुद ही बाहर निकल आई, देखा दूरदूर तक वे कहीं नहीं दिख रहे थे. अब तो ट्रेन के आने का समय भी हो गया है. आधे घंटे में ट्रेन आ जाएगी, मैं ने अपनी नजरें चारों तरफ घुमाईं तो देखा सामने से दोस्त से बतियाते चले आ रहे हैं.

मैं ने उन को देखा और नजरों से ही इशारा किया. वे समझ गए और करीब आते हुए बोले, ‘‘क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं, यह बताने आई थी कि ट्रेन के आने का समय हो गया है.’’

‘‘हां यार, पता है.’’

‘‘तो चलिए, सामान ले आएं.’’

‘‘अरे ले आएंगे, अभी बहुत देर है.’’

‘‘जी नहीं, अब देर नहीं है. यहां से सामान ले कर जाने में ही करीबकरीब 10 मिनट लग जाएंगे.’’

‘‘हां, यह ठीक है.’’ उन्होंने आखिर सहमति में सिर हिलाया. भरे हुए वेटिंगरूम में किसी तरह सामान निकाल कर बाहर ले कर आए क्योंकि लोग फर्श तक पर बैठे हुए थे और इस का कारण सिर्फ एक ही था कि ट्रेन हद से ज्यादा लेट थी.

हम लोग हमेशा फ्लाइट ही से जाते हैं परंतु इस बार हमें जाना था ट्रेन के फर्स्ट क्लास के एसी कोच में, कुछ अलग या बिलकुल अलग सा एहसास महसूस करने के लिए. ट्रेन प्लेटफौर्म पर बस आने ही वाली है, अनाउंसमेंट हो गई थी. मैं और आरव अपनेअपने सामान को ले कर प्लेटफौर्म पर खड़े हो गए थे. ‘‘यार, इस सरकार के राज में ट्रेनों ने रुला ही दिया. मैं इतना बड़ा हो गया, लेकिन आज तक कभी भी इतनी लेट ट्रेन नहीं देखी. अनाउंसमैंट हो गई है लेकिन ट्रेन का कहीं अतापता ही नहीं,’’ आरव बोले. सच ही तो कह रहे हैं, जिसे देखो वह परेशान है. वेटिंगरूम भरे हुए हैं, लोग जमीन पर बैठे हुए हैं, क्या करें.

अकेली महिलाएं, बच्चे सफर कर रहे हैं. वे भी ट्रेन के लेट होने से दुखी हैं और उन के साथसाथ घर में बैठे उन के परिवार वाले भी. खैर, ट्रेन प्लेटफौर्म पर लग गई. मानो सब को सांस में सांस आ गई है. एसी कोच के फर्स्ट क्लास वाले कूपे में चढ़ते हुए लगा जैसे किसी घर में प्रवेश कर लिया है जहां हमारा अपना कमरा हर सुविधा से युक्त है. सीनरी, फ्लौवर पौट से सजे हुए उस कूपे में 2 सीटें थीं, एक ऊपर और एक नीचे. नीचे वाली सीट को खींच कर बैड की तरह बना कर हम दोनों बैठ गए, फिल्मों में देखे हुए वे सीन याद आ गए जो पुरानी फिल्मों में हुआ करते थे, जब गाने गाते हुए हीरोहीरोइन अपने हनीमून इसी तरह की ट्रेन के कूपे में मनाते थे.

‘‘सुनो आरव, जब हम बात करते हैं न, तो कितना हलकाहलका सा हो जाता है मन. है न?’’

‘‘हां, तुम सही कह रही हो, एकदम फूल की तरह से. जब मैं तुम से अपने मन की बात कर लेता हूं तो वाकई बहुत ही अच्छा लगता है.’’

‘‘लेकिन मुझे कुछ भी समझ नहीं आता कि दुनिया में ऐसा क्यों होता है?’’ मैं ने कहा.

‘‘ऐसा?’’

‘‘हां, ऐसा ही कि हम जिस से बहुत ज्यादा प्यार करते हैं वह हम से दूर क्यों हो जाता है? क्यों वह उसे दुख देता है जिस ने अपनी पूरी जान सौंप दी. पूरी जिंदगी उस के नाम कर दी? क्या उस का दिल नहीं कसकता? क्या उसे यह एहसास नहीं होता कि वह तो पलपल में उसे जी रही है और वह अपने एहसास तक नहीं दे रहा है, न ही शब्द दे रहा है. क्या यह स्वार्थ नहीं है? चुप क्यों हो? आखिर इंसान ऐसा कर कैसे पाता है? क्या यही प्रेम है? वैसे, प्रेम क्या होता है, मुझे बताओ?’’

‘‘नहीं, ऐसा नहीं होता. कभीकभी परिस्थितियां ऐसी बन जाती हैं कि इंसान मजबूर हो जाता है.’’

‘‘अच्छा, आरव सुनो, मेरा एहसास, प्यार, समर्पण और विश्वास सबकुछ तुम्हारा ही तो है. मेरी कैसे याद नहीं आती, तुम कैसे मुझे भूल जाते हो?’’

‘‘नहीं, भूलता नहीं. कहा न मजबूरी.’’

‘‘इतनी मजबूरी कि कोई घूंटघूंट दर्द पी रही है बिना कहे, बिना सुने. मेरे आंसू तुम्हें क्यों नहीं दिखते क्योंकि मैं छिपछिप कर रोती हूं और सामना होने पर अपने आंसू छिपा लेती हूं ताकि तुम को कोई दुख न हो. क्या मेरी कमजोरी समझते हो, इसलिए ऐसा करते हो?’’

‘‘ समझ नहीं आ रहा, क्या कहूं.’’

‘‘कहो न कुछ, मेरे दर्द को समझे. मैं कुछ कह नहीं पाती हूं.’’

‘‘समझता हूं, सच में. तुम जानती हो कि मैं कभी झठ नहीं बोलता.’’

‘‘तो सब कह देना चाहिए क्योंकि प्रेम कहनेसुनने से और बढ़ता है, है न? जब हम प्रेम करते हैं तो फिर यह क्यों सोचते हैं कि वह कुछ न कहे, बस सामने वाला कहे.

‘‘प्रेम गली अति संकरी जामें दाऊ न समाई.

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहीं.’’

कुछ समझ आया, प्यार में अहं की जगह नहीं.’’

‘‘एक ही बात है, चाहे कोई कह दे.’’

‘‘लेकिन अगर एक ही बारबार कहता रहे, दूसरा कभी पहल न करे तो?’’

‘‘तो भी कोईर् बात नहीं? तुम प्रेम का अर्थ समझती ही नहीं हो?’’

मुझे पता था कि आरव किसी तरह से भी अपनी ही बात रखेंगे चाहे उन से कितनी भी बहस क्यों न कर लूं, जीतेंगे वही और मैं हार जाऊंगी. वैसे, हार जाने में भी जीत छिपी होती है. हार कर जीत जाना बेहतर है, जीत के हार जाने से.

खैर, मेरी खवाबोंभरी आंखों में थकान की वजह से नींद भर गईर् थी. कल से आने की तैयारी और आज सुबह ही घर से निकलना और यहां पहुंच कर ट्रेन के इंतजार में शरीर दर्द से जवाब देता लग रहा था, बस, अब सो जाओ.

आरव ने सामान सही से लगाया और मुझे कस कर सीने से लगाते हुए मेरे माथे को चूम लिया. आह, मानो जेठ की तपती हुई रेत पर सागर की शीतल लहर आ कर ठंडक दे रही हो. सच में कितना मुश्किल होता है न? यों महीनों और सालों एकदूसरे से दूर रहना.

‘‘सुनो आरव, तुम अपने दोस्त से क्या कह रहे थे कि दोनों बौडीगार्ड्स ठीक हैं? क्या वह कोई बड़ी हस्ती है जो उसे यों बौडीगार्ड की जरूरत पड़ी?’’

‘‘अरे नहीं यार, उस की 2 प्रेमिकाएं हैं न, उन के बारे में कह रहा था.’’

‘‘2-2 प्रेमिकाएं? लेकिन यह गलत है न? शादी क्यों नहीं कर लेते किसी एक से?’’

‘‘वह पहले से ही शादीशुदा है,’’ आरव मुसकराते हुए बोले.

‘‘शादीशुदा हो कर भी 2-2 प्रेमिकाएं?’’ मैं चौंक सी गई.

‘‘हां यार, आजकल की दुनिया में यही सब चल रहा है, तुझे कुछ पता भी है दुनियादारी के बारे में? खैर छोड़, हम क्यों अपना दिमाग खराब करें? सुनो, मैं तुम्हारे लिए कुछ लाया हूं.’’

‘‘मैं भी.’’

‘‘अच्छा अब पहले तुम दिखाओ.’’

‘‘नहीं, पहले तुम.’’

‘‘अरे, लेडीज फर्स्ट.’’

‘‘नो, बैड मैनर, पहले आप को दिखाना चाहिए.’’

‘‘ठीक है, मैं हारा. वरना पहले आप, पहले आप में रात गुजर जाएगी.’’

मुझे जोर की हंसी आ गई, आरव भी मुसकरा दिए. कितना अच्छा लगता है न, यों हंसते हुए खुशियों को दामन में भरते हुए.

आरव ने अपनी पैंट की जेब से एक डब्बी निकाली और उस में से डायमंड की अंगूठी निकाल कर मुझे पहना दी.

‘‘वाओ, कितनी प्यारी है. और, मैं यह लाई हूं,’’ मैं ने एक गरम शौल उन के गले में डालते हुए कहा, ‘‘देखो, तुम पहाड़ पर रहते हो, तो तुम्हें ठंड भी बहुत लगती होगी. है न?’’

‘‘हां, सच में.’’

‘‘तो अब इसे हमेशा अपने साथ में रखना,’’ कहते हुए मैं उन के गले से लग गई.

ट्रेन अपनी रफ्तार से चल रही थी और हमारी धड़कनें भी साथसाथ धड़क रही थीं जैसे ट्रेन और हमारी सांसों की रफ्तार एक सी हो गई हो.

 कहानी- सीमा सक्सेना असीम

Story 2025 : आखिर कब तक

Story 2025 : शाम के साढ़े 4 बजे रोजमर्रा की तरह मैं टीवी खोल कर देशविदेश की खबरें देखने लगा. थोड़ीबहुत देशविदेश और खेल जगत की खबरों के अतिरिक्त, बाकी खबरें लगभग वही थीं, कुछ भी बदला हुआ नहीं था, बस तारीख और दिन के.

शाम के 5 बजते ही फिर विभिन्न चैनलों में शुरू हो जाता है कहीं बहस, कहीं टक्कर, कहीं दंगल, तो कहीं ताल ठोंक के. बहुत बार न चाहते हुए भी मैं इन को देखने लग जाता हूं, यंत्रचलित सा. इस में आमांत्रित किए गए वक्ताओं में अधिकतर विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ताओं के अतिरिक्त कुछ राजनीतिक विश्लेषक, कभी सामरिक विषयों पर चर्चा के दौरान सेना में उच्च पदों पर अपना योगदान दे चुके सेनाधिकारी और सामाजिक कार्यकर्ता होते हैं. अब तो धर्मगुरु भी खूब नजर आते हैं. एंकर कार्यक्रम के नामानुसार बहस के संचालन में पूरा न्याय करते दिखाई देते हैं.

दिनभर के चर्चित किसी सनसनीखेज ज्वलंत मुद्दे पर उठी बहस से शीघ्र ही शुरू हो जाता आरोपप्रत्यारोप का दौर. कुछ बुद्धिजीवी वक्ताओं की सही और सटीक बातों को विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के प्रवक्ताओं की बुलंद आवाज और आपसी तनातनी के बीच में हमेशा दबते हुए ही देखा. अकसर ही बहस मुख्य मुद्दे से भटक कर कहीं और चली जाती है, जिस का विषय से दूरदूर तक कोई लेनादेना दिखाई नहीं देता. यह चैनल क्या दिखा रहे हैं? और, हम क्या देख रहे हैं? इसी कशमकश में दर्शकगण उलझे ही होते हैं कि एंकर के द्वारा कार्यक्रम की समाप्ति की घोषणा कर दी जाती है.

आज का विषय था- दो समुदायों में हुई हिंसा की झड़प से पूरे देश में फैली आगजनी की घटना, व्यक्तिगत व सरकारी संपत्ति का नुकसान और उस के परिणामस्वरूप कुछ लोगों की मौतें.

सभी वक्ता ऊंची आवाज में सारी मर्यादाओं को ताक पर रख कर अपनी बातों को सही साबित करने के लिए एकदूसरे की बखिया उधेड़ने में लगे हुए थे, और साथ ही एकदूसरे को नीचा साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे. पता नहीं, मैं कितनी देर तक इन दंगलों के उठापटक में उलझा रहता, अगर नीता मुझे नहीं टोकती.

‘‘उफ्फ, आप भी, ये क्या देखते रहते हो,‘‘ नीता ने चाय पकड़ाते हुए कहा.

नीता की बातें सुन कर मैं ने टीवी बंद कर अपना मोबाइल खोल दिया. चाय का आनंद लेते हुए व्हाट्सएप पर मैसेज चैक करने लगा. पूरा व्हाट्सएप भड़काऊ संदेशों से भरा हुआ था. मैं ने तुरंत उस एप से बाहर निकलने में ही अपनी भलाई समझी. फिर भी ऐसा कहना ईमानदारी नहीं होगी कि मैं इन भड़काऊ और अनेक बार विषाक्त खबरों से स्वयं को अछूता रख पा रहा था. कहीं न कहीं मैं प्रभावित भी हो रहा था. कई प्रश्न भी मस्तिष्क में उमड़नेघुमड़ने लगे थे. अगर ये खबरें मुझ जैसे एक शिक्षित और जागरूक व्यक्ति को प्रभावित कर सकती हैं तो अल्पशिक्षितों की मनःस्थिति का क्या होता होगा.

7 साल हो गए थे मुझे बैंक से रिटायर हुए. दोनों बच्चे भी अन्य शहरों में अपनेअपने जीवन में व्यवस्थित हो गए थे. घर पर मैं और मेरी पत्नी नीता अपने जिम्मेदारियों से मुक्त एक आराम की जिंदगी बिता रहे थे.

इन सब बातों को देख कर मुझे नौकरी के शुरुआती दौर की अपनी गांव की वह पोस्टिंग याद आई. मुझे बरेली में बैंक में अफसर के पद पर नियुक्त हुए अभी 2 ही साल हुए थे कि सितंबर माह 1979 को मुझे डेपुटेशन पर बरेली से 47 किलोमीटर दूर, एक रिमोट गांव में शाखा प्रबंधक के रूप में भेज दिया गया. उस गांव की पोस्टिंग को उस समय ‘काला पानी’ की सजा कहते थे, जोकि वहां पहुंचते ही सही सिद्ध भी हो गया था.

गांव मुख्य सड़क से 7-8 किलोमीटर दूर था. कोई भी वाहन वहां पर उपलब्ध नहीं था. कंधे पर अपने भारी बैग के साथ खेतों के बीच से होता हुआ ऊबड़खाबड़ पगडंडियों पर पैदल चलते हुए गांव तक पहुंचतेपहुंचते मेरी हालत पस्त हो गई थी. सीधे बैंक पहुंचा, जहां पर एक क्लर्क और चपरासी मेरा इंतजार कर रहे थे. गरमी और थकान से बेहाल जब मैं ने कुरसी पर बैठते ही उन्हें पंखा चलाने के लिए कहा, तो दोनों हंसने लगे.

‘साब, लाइट हो गांव में तो पंखा चलाएं.‘

‘क्या…?‘ यह मेरे लिए पहला झटका था.

‘रहने का क्या इंतजाम है?‘ मैं ने क्लर्क विनय से पूछा, जिस की कुछ महीने पहले ही नौकरी लगी थी.

‘साब, आप की खटिया भी रात में यहीं आंगन में डाल देंगे,‘ दैनिक वेतन में लगा हुआ जफर जिस बेतकल्लुफी से बोला, उस से मुझे अपनी अफसरगीरी का चोला उतरते हुए लगा.

जफर उसी गांव का रहने वाला था. मुझे अपनी दैनिक आवश्यकताओं के लिए उस पर होने वाली निर्भरता का अहसास होने लगा.

लोग इसे ‘काला पानी’ की सजा क्यों बोलते हैं, समझ में आने लगा. एक बार तो मन हुआ, जिन ऊबड़खाबड़ पगडंडियों पर चल कर अभी आया, उसी पर चल कर वापस लौट जाऊं. पर फिर 6 महीने की बात सोच कर मन मसोस कर दिल को बहला दिया.

मेरा सामान विनय के सामान के साथ बैंक के एक कोने में रख दिया गया. बैंक के उस कोने में मेज पर एक स्टोव, कुछ खाने की साम्रगी के डब्बों के अतिरिक्त चंद बरतन थे. बगल में ही एक चारपाई भी खड़ी कर के रखी हुई थी. बैंक ही आशियाना बन गया. खाना भी सुबह और शाम वहीं बैंक के अंदर बनता. पीने का पानी जफर पास के कुएं से ले आता. शौचालय का तो कोई प्रश्न ही नहीं था.

रात में जफर मेरी और विनय की खटमलों से भरी चारपाइयों को बाहर आंगन में लगा देता था. हमारे इर्दगिर्द मकान मालिक के परिवार के पुरुष सदस्यों की चारपाइयां भी बिछ जातीं. अकसर हमारी रातें खटमलों से युद्ध करते हुए गुजरती थीं.

मैं धीरेधीरे गांव को समझने लगा था. वह एक मुसलिम बहुल गांव था. 95 प्रतिशत लोग मुसलिम समुदाय के थे और शेष 5 प्रतिशत हिंदू समुदाय के. हमारे बैंक का मकान मालिक भी मुसलिम था. बैंक के अतिरिक्त वहां पर 3 और सरकारी विभाग के कार्यालय थे – ब्लौक, स्वास्थ्य और पशु चिकित्सालय. गांवों के विकास के न हो पाने का कारण सरकारी योजनाओं का सिर्फ पेपर तक सीमित रह जाने की वजह का मैं चश्मदीद गवाह बन गया. इन तीनों विभागों के कर्मचारी महीने में सिर्फ वेतन वाले दिन दिखाई देते थे. उस दिन तीनों विभागों के लोग इकट्ठा हो कर पिकनिक मनाते थे. स्वास्थ्य विभाग तो राम भरोसे था. पशु चिकित्सालय के कंपाउंडर को गांव के लोगों का डाक्टर बना देख मैं आसमान से जमीन पर गिरा.

यहां पर समय काटना भी एक अलग समस्या थी. किसान खातेदारों के दर्शन सुबह और शाम को ही होते थे. दिनभर सन्नाटा पसरा रहता था. सितंबर का महीना था. गरमी बेहाल कर रही थी. ऊपर से गांव में बिजली नहीं. मैं बहुत जल्दी औफिस टाइम में पैंटशर्ट से टीशर्ट और हाफ पैंट में आ गया.

वह पेड़ आज भी मुझे याद आता है, जिस के नीचे बिछी चारपाई पर मैं दिन में लेट कर उपन्यास पढ़ता था. चारपाई के निकट ही चारों ओर बंधी बकरियों का मिमियाना संगीत की ध्वनि उत्पन्न करता और नींद का वातावरण बनाता था. उन के मलमूत्र की गंध को मैं ने स्वीकार कर लिया था. कभीकभी अपने काम में अति व्यस्त किसी किसान को लगभग जबरदस्ती पकड़ कर चौथा साथी बना देते और हम तीनों ताश खेलने बैठ जाते. वहां हमारे मनोरंजन और जरूरी सामान की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मंगलवार और शुक्रवार को लगने वाले हाट थे, और एक ट्रांजिस्टर जिस को गांव आने से पहले मेरे एक कलीग ने मुझे साथ ले जाने के लिए कहा था.

उस गांव में बस एक ही दृश्य था, जो मेरे मन को आह्लादित करता था, वह था… गन्ने के लहलहाते खेत. गन्ने चूसने के लिए मेरा मन ललक उठता था.

‘हमीद मियां, कभी गन्ने तो खिलाओ,‘ एक दिन मैं बोल ही पड़ा.

उस समय मैं घोर आश्चर्य में पड़ गया, जब मैं ने उस को कानों पर हाथ लगा कर यह बोलते सुना, ‘ना बाबा ना… अभी तो दशहरे का पूजन ही नहीं हुआ. उस से पहले काटना तो दूर हम इन्हें छू भी नहीं सकते. एक बार देवता को चढ़ा दें, फिर तो साहब, सारा खेत आप का.‘

उस का विश्वास देख कर दोबारा मेरी बोलने की हिम्मत ही नहीं हुई.

मैं 6 महीने वहां पर रहा. सभी त्योहार दशहरा, दीवाली, ईद आए. दोनों समुदायों के लोगों को पूरे उत्साह के साथ सभी त्योहारों को मनाते देखा. एक बार भी मुझे ऐसा महसूस नहीं हुआ कि मैं किसी ऐसे गांव में हूं, जहां की अधिकतर जनसंख्या मुसलिम है. इतना आपसी सौहार्द्र था वहां दोनों समुदायों के बीच में.

आज जब मैं यह सारी खबरें देखता, पढ़ता या सुनता हूं, तो मेरे जेहन में बिताए वह 6 महीने जबतब आ जाते हैं. ऐसा लगता है, जैसे हमारे देश में कुछ विषयों के लिए वक्त थम सा गया है. आजादी के इतने सालों बाद भी ये सोच जस की तस है. इतने वर्षों में इतिहास तक बदल जाता है. कभी तो लगता है, परिस्थितियां संभलने के स्थान पर और बिखर रही हैं. बौर्डर पर सेना ने आतंकवादी गतिविधियों का मुंहतोड़ जवाब दिया… 4 आतंकवादी ढेर हो गए… हमारे भी 3 जवान शहीद हो गए. इस प्रकार के समाचार हमारे जीवन का हिस्सा बन गए हैं. कलैंडर बदल रहा है… सरकारें बदल रही हैं… दृश्य बहुत तेजी से बदल रहे हैं, अगर कुछ नहीं बदल रहा है, तो ये सब, देश की सीमाओं पर अशांति और देश के अंदर खलबली. सत्ता के लोभ में राजनीतिक पार्टियां इस आग को और भड़काने का प्रयास करती हैं. ऊपर से टीवी में लगातार प्रसारित इन समाचारों और सोशल मीडिया में तेजी से फौरवर्ड होते ये संदेश समाज में जहर घोलने का काम कर हैं, और इन की गिरफ्त में हम सब आ रहे हैं. क्या सचमुच हमें इन समाचारों को बारबार सुनने और देखने की जरूरत है? ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्‘ यह उक्ति अब समाचार प्रसारण में भी लागू होती दिख रही है.

यूरोपीय देशों ने भी बहुतकुछ देखा है. क्या कुछ नहीं हुआ उन देशों के बीच… हमेशा युद्ध क्या, महायुद्धों की स्थिति उन देशों के बीच रही. अपना वर्चस्व साबित करने के लिए देश की सीमाओं को बढ़ाने की होड़… कई युद्धों को झेलने के बाद, वे समझ गए कि इन बातों से कुछ हासिल नहीं होगा. और ये भी वे समझ गए कि पड़ोसी देशों से सौहार्द्रपूर्ण संबंध उन की सब से बड़ी ताकत होगी. सारी बातों को छोड़ कर, आपसी रंजिशें भुला कर, ये देश आगे बढ़े. आज वहां अमनचैन है. आवागमन भी इन देशों में सरल है. इन देशों के आपसी संबंधों का सकारात्मक प्रभाव इन देशों के पर्यटन पर भी पड़ा. अन्य देशों के पर्यटक शेंगेन वीजा से यूरोप के 26 देशों में आराम से घूम सकते हैं. हम भी जब पिछले साल नीता की बहन के पास डेनमार्क गए थे, तो कैसे कार से जरमनी चले गए थे. उस एक वीजा से हम स्वीडन, नार्वे, फ्रांस भी घूम लिए थे. कहीं कोई सघन जांच की प्रक्रिया से नहीं गुजरना पड़ा. इन देशों की ऊर्जा, अपने देश के विकास कामों में लगती है, सीमाओं की रक्षा में नष्ट नहीं होती. क्या ये सब हमारे देश और पड़ोसी देशों के बीच में संभव नहीं हो सकता. अगर ऐसा हो जाए, तो कितनी समस्याओं का समाधान हो जाएगा. देशों के बीच में सौहार्द्रपूर्ण वातावरण बन जाएगा. सीमा पर अमनचैन हो जाएगा और देश में रह रहे नागरिकों पर इस का सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा. दोनों देशों में आपसी भाईचारे के साथ व्यापार के क्षेत्र में भी प्रगति होगी. पर्यटन को भी बढ़ावा मिलेगा.

‘‘क्या हुआ…?‘‘ मुझे गंभीर देख नीता ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं…‘‘

‘‘आप जरा जुनैद को फोन कर दो. किचन और बाथरूम का भी एक नल खराब हो गया है,‘‘ कह कर नीता खाने बनाने किचन में चली गई और मैं जुनैद को फोन लगाने लगा.

मैं ने रात में नीता के हाथ का स्वादिष्ठ भोजन किया, बचे खाने को समेटा. नीता किचन की सफाई में लगी हुई थी. काम से निबट कर नीता टीवी देखने लगी. मैं लैपटौप पर अपनी मेल चेक करने लगा. कुछ बिलों का पेमेंट करने के बाद दूसरे शहरों में रह रहे दोनों बच्चों से उन के हालचाल पूछने लगा. मुझे बेटे से बातें करते देख नीता ने एकदम से मेरे हाथ से फोन ले लिया और प्रफुल्लित हो बेटे से बातचीत में मगन हो गई. मैं ने रिमोट उठाया और टीवी के चैनल खंगालने लगा. एक चैनल पर कवि सम्मेलन चल रहा था. एक से बढ़ कर एक कवि और कवयत्रियां. उन की कविता प्रस्तुत करने की अपनीअपनी शैलियां इतनी रोचक और मनमोहक थीं कि मैं मंत्रमुग्ध हो सुनता ही रह गया. शायर भी थे, उन का अंदाजेबयां भी इतना दिलकश था कि मजा आ गया.

नीता कब बच्चों से बात पूरी कर टीवी देखने लगी, इस का भी भान मुझे नहीं हुआ. फिर एक शायर आए और अपनी दमदार आवाज से एक समां सा बांध दिया. उन के हर शेर पर वाहवाह की आवाज गूंज रही थी. मैं भी अपने को रोक ना सका और वाहवाह की आवाज मेरे मुंह से भी निकलने लगी. शायर के अंतिम शेर पर तो वाहवाह करने वाले दर्शक अपनी जगह से उठ कर करतल ध्वनि के साथ शायर को दाद देने लगे. नीता भी अपने को रोक न पाई, वह भी ताली बजा कर दाद देने लगी. मेरा मन एक खूबसूरत अहसास से भर गया. मैं हलका महसूस करने लगा. जब इतनी खूबसूरती हमारे बीच है, तो हवा में जहर कौन घोल रहा है?

दूसरे दिन ठीक 10 बजे जुनैद पहुंच गया और आधे घंटे में ही दोनों नल ठीक कर दिए. जब भी हमें नलों आदि में कोई परेशानी आती थी, बस एक नाम दिमाग में आता था… जुनैद.

जुनैद को देख मैं सोचने लगा कि जुनैद और हमारे जैसे हजारों, लाखों नहीं, वरन करोड़ों लोग हैं, जिन को इन सियासती दांवपेंचों से कोई मतलब नहीं. सब अपनीअपनी दिनचर्या में इतने व्यस्त हैं कि उन्हें दूरदूर तक इन सब से कोई सरोकार ही नहीं है.

इसी बीच नीता ने फिर से न्यूज चैनल लगा दिया. टीवी पर खबर चल रही थी कि देश में सांप्रदायिक सौहार्द्र बिगाड़ने का कारण खुल कर सामने आया है. दिल्ली के दंगे हों या बैंगलुरु का उत्पात, पश्चिम बंगाल में हिंसा की बात हो या फिर मुजफ्फरनगर का बवाल. हर जगह सोशल मीडिया पर कुछ लोगों द्वारा भड़काऊ पोस्ट डाल कर दंगे भड़काए गए. आज पूरी दुनिया में इस के खिलाफ आवाज उठाई जा रही है.

इस खबर से फिर एक बवंडर दिमाग पर हावी होने लगा. ‘कुछ लोगों के कारण…’ सच में ये लोग सब के लिए घातक हैं और सब से ज्यादा अपने समुदाय के लिए.

एकाएक मुझे अनवर की बात याद आ गई कि जब वह औफिस के काम से अमेरिका गया था, तो महज एक मुसलिम नाम होने कारण कैसे एयरपोर्ट पर घंटों उस की चैकिंग होती रही और उस ने खुद को कितना जलील होते हुए महसूस किया. आखिर क्या दोष था अनवर का? किस के प्रभाव में वे ये सब करते हैं? इस से इन्हें क्या हासिल होगा? कौन हैं, जो सब के अंदर इतना विष घोल कर देश में अस्थिरता का वातावरण बना रहे हैं?

अंगरेजों से तो देश को आजादी मिल गई, लेकिन इस दूषित मानसिकता से देश को कब आजादी मिलेगी? नेता, धर्मगुरु, मौलवी कोई भी जिम्मेदार हो, परिणाम तो अंत में आम जनता को ही भुगतना पड़ता है. दंगे देश में कहीं भी हों, किसी भी कारण से हों, इस का प्रभाव प्रत्यक्षअप्रत्यक्ष रूप से सब पर पड़ता है. मुद्दा चाहे आरक्षण का हो, जाति का हो या धर्म का, विद्रोह में तो हर कोई सुलग उठता है. और अगर हिंदूमसलिम का हो तो कई दर्द उभर आते हैं… कई अध्याय खुल जाते हैं. इन प्रायोजित सांप्रदायिक दंगों में कभी किसी नेता, धर्मगुरु, मौलवी की लाशों को तो बिछते हुए नहीं देखा, अगर देखा है, तो बस आम आदमी की ही लाश को. इन दंगों के बाद रह क्या जाता है, सिवाय बरबादी के मंजर और कभी न भर पाने वालें घावों के. उन्मादता में लोग अंधे हो जाते हैं और सहीगलत तक का विवेक खो देते हैं.

क्या यूरोप की तरह हमारे भी पड़ोसी देश से अच्छे संबंध नहीं हो सकते? क्या दोनों देश एकदूसरे की ताकत नहीं बन सकते? अगर ऐसा हो जाए, तो दोनों देश एक महाशक्ति के रूप में विश्व के पटल पर उभर सकते हैं. रंगरूप, पहनावा, खानपान यहां तक कि भाषा, बोली भी एक है, फिर ये सब क्यों?

बहुत जरूरी है इस कट्टरवादी सोच से बाहर निकलना. कट्टरवादी सोच स्वयं की, समाज की और देश की प्रगति में सब से बड़ा रोड़ा है. इस से कभी किसी राष्ट्र का विकास नहीं हो सकता. साथ ही, सोशल मीडिया पर त्वरित गति से फौरवर्ड होते इन भड़काऊ पोस्ट से लोगों को बचना होगा. न्यूज चैनलों को भी अपनी सीमा में रहना होगा. सच के साथ कल्याण को भी जोड़ना होगा. आम आदमी को अपनी ताकत को समझना होगा. उस के हाथ में सामाजिक सौहार्द्र की अद्भुत शक्ति है. वह बहकावे में न आए, इस से भी बहुतकुछ संभल जाएगा.

आखिर कब तक हम लोग, देश और समाज के चंद नुमाइंदों के द्वारा देश को सांप्रदायिकता की आग में झोंक कर जलाए जाते देखते रहेंगे… कब तक… आखिर कब तक?

राइटर- सुधा थपलियाल

बंदिश बैंडिट्स फेम Shreya Chaudhry को 19 साल की उम्र में हुई स्लिप डिस्क, जानें ऐक्ट्रैस का वेट लौस जर्नी

Shreya Chaudhry : आज हर कोई श्रेया चौधरी का दीवाना है. बंदिश बैंडिट्स जैसी शानदार वेब सीरीज में उनकी बेहतरीन अदाकारी से लेकर उनकी गजब की खूबसूरती और फिटनेस तक, श्रेया लगातार सुर्खियों में हैं. लेकिन आज जिस श्रेया को लोग इतना पसंद कर रहे हैं, उनके लिए फिटनेस का यह सफर कभी आसान नहीं था. 19 साल की छोटी उम्र में स्लिप डिस्क होने से लेकर 30 किलो वजन बढ़ने तक, उनका संघर्ष प्रेरणादायक है.

हाल ही में, श्रेया ने अपने बचपन के आदर्श, ऋतिक रोशन को श्रेय दिया था, जिन्होंने उन्हें फिटनेस पर ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रेरित किया. अब, एक दिल को छू लेने वाले पोस्ट में, श्रेया ने खुलासा किया कि उनके फिटनेस संघर्ष की असली वजहें क्या थीं.

श्रेया ने लिखा, “जब मैंने सोशल मीडिया पर अपने फिटनेस और स्वास्थ्य संघर्ष के बारे में बात की, तो मुझे नहीं पता था कि मुझे इतनी सारी शुभकामनाएं और प्यार मिलेगा. मैंने यह पोस्ट इसलिए कि क्योंकि मैं खुद को सशक्त और सुरक्षित महसूस कर रही थी. लोगों की सकारात्मक प्रतिक्रिया और प्रोत्साहन ने मुझे कुछ ऐसा साझा करने के लिए प्रेरित किया, जो मैंने कभी खुलकर नहीं कहा. मैं चाहती हूं कि मेरे जैसी स्थिति में जो लोग हैं, उन्हें लगे कि वे आत्मविश्वास और मानसिक शक्ति से किसी भी मुश्किल को पार कर सकते हैं.”

उन्होंने आगे कहा, “जब मैं 19 साल की थी, मैं बहुत सारी परेशानियों से गुजर रही थी. मैं मानसिक रूप से सही स्थिति में नहीं थी. इस दौरान मेरा वजन काफी बढ़ गया, जिससे मेरे फिटनेस और स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ा. मैंने शारीरिक गतिविधि बंद कर दी थी, जिससे स्थिति और खराब हो गई और फिर, उसी उम्र में मुझे स्लिप डिस्क हो गया. मैं हमेशा से महत्वाकांक्षी थी. मैं करियर पर फोकस करने वाली लड़की बनना चाहती थी. लेकिन यह मेरे सपनों को हासिल करने में एक बड़ी बाधा बन गई. यह मेरे लिए एक बड़ा अलार्म था। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि मैंने खुद को इतना नजरअंदाज किया.

एक दिन, बिस्तर पर लेटे हुए, मैंने खुद से कहा कि मुझे खुद का ख्याल रखना होगा. अपने लिए, अपने परिवार के लिए और अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए। मैं अपने सपनों को पूरा करना चाहती थी और मुझे पता था कि मैं चीजों को बदल सकती हूं. मुझे महीनों लगे, लेकिन मैंने अपनी फिटनेस और भलाई पर ध्यान केंद्रित किया. 21 साल की उम्र तक, मेरा शरीर और मन एक नई स्थिति में थे. मैंने धीरेधीरे 30 किलो वजन घटाया और स्लिप डिस्क की समस्या भी कभी दोबारा नहीं हुई. इससे मुझे एक नया आत्मविश्वास मिला, और मैंने खुद को और फिट करने पर ध्यान केंद्रित किया.

श्रेया ने आगे कहा, “आज मैं अपनी फिटनेस के शिखर पर हूं.जो लड़की कभी स्लिप डिस्क से जूझ रही थी, वह अब बौक्सिंग करती है और घंटों शूटिंग के दौरान खड़ी रह सकती है. खुद का ख्याल रखने से मुझे अभिनेत्री बनने का मौका मिला और अपने सपने को पूरा करने की ताकत मिली. जीवन हमें हमेशा चुनौतियां देता रहेगा, लेकिन हमें उन पर जीत पाकर आगे बढ़ना चाहिए जीवन एक उपहार है, और हमें इसे पूरी तरह जीने की कोशिश करनी चाहिए.”

Winter Special Food : आपको पसंद आएंगे खिचड़ी कबाब, वीकेंड पर करें ट्राई

Winter Special Food : अगर आप वीकेंड पर हैवी फूड खाने के बाद लाइट और हेल्दी डिश ट्राई करना चाहते हैं तो खिचड़ी कबाब की ये रेसिपी ट्राई करना ना भूलें.

सामग्री

– 1 कप खिचड़ी

– 1 प्याज कटा

– 1/4 कप पत्तागोभी कटी

– 2 उबले आलू

– 1/2 छोटा चम्मच अमचूर पाउडर

– 1/4 कप ब्रैडक्रंब्स

– 1/4 कप भीगा चिड़वा

– 1-2 हरीमिर्चें कटी

– तलने के लिए पर्याप्त तेल

– नमक स्वादानुसार

विधि

चिड़वा धो कर पानी से निकाल कर छलनी में रखें. एक बाउल में खिचड़ी (कम पानी की), पत्तागोभी, आलू, नमक, हरीमिर्च, प्याज व चिड़वा अच्छी तरह मैश करें. मनपसंद आकार दे कर ब्रैडक्रंब्स से लपेटें व सुनहरा होने तक तलें. चाहें तो शैलोफ्राई भी कर सकती हैं. चटनी के साथ गरमगरम परोसें.

व्यंजन सहयोग

अनुपमा गुप्ता

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Relationship Tips In Hindi : अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है, तो ये लेख अंत तक जरूर पढ़ें…

सवाल

मैं 20 साल का अविवाहित युवक हूं. मैं जहां नौकरी करता हूं वहां मुझे एक मुसलिम लड़की से प्यार हो गया है. चूंकि मैं हिंदू हूं, इसलिए उस से अपनी फीलिंग्स शेयर करने से डरता हूं. वह नहीं जानती कि मैं हिंदू हूं. लेकिन मैं जब भी उस की तरफ देखता हूं तो उसे भी अपनी तरफ देखता हुआ पाता हूं. मैं जिस दिन भी उसे नहीं देखूं, मुझे पूरा दिन अच्छा नहीं लगता. मैं सोचता हूं कि उस से अपनी फीलिंग्स शेयर करूं लेकिन डरता हूं कि कहीं वह चीखचिल्ला कर मेरी बेइज्जती न कर दे.

जवाब

आप जो भी सोच रहे हैं सिर्फ अपने मन में सोच रहे हैं कि कहीं वह लड़की आप के हिंदू होने की बात जान कर आप को रिजैक्ट न कर दे या वह भी आप को चाहती है. आप की समस्या का हल सिर्फ उस से खुल कर बात करने में है.

आप उस से बात करें व जानें कि वह आप के बारे में क्या सोचती है, तभी आगे बढ़ें. क्या पता उस के व उस के परिवार के लिए हिंदू मुसलिम वाली बात कोई महत्त्व ही न रखती हो या फिर उस के मन में आप के लिए कोई फीलिंग ही न हो, जैसा आप सोच रहे हैं.

इसलिए हर बात का खुलासा सिर्फ उस से बात करने से होगा. बिना डरे उस से अपने मन की बात कहें और हर परिस्थिति के लिए तैयार रहें.

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सच तो यह है कि आरव से मिलना ही एक ड्रीम है और जब उस डे और डेट को अगर सच में एक ड्रीम की तरह से बना लिया जाए तो फिर सोने पर सुहागा. हां, यह वाकई बेहद रोमांटिक ड्रीम डेट थी, मैं इसे और भी ज्यादा रोमांटिक और स्वप्निल बना देना चाहती थी. कितने महीनों के बाद हमारा मिलना हुआ था. एक ही शहर में साथसाथ जाने का अवसर मिला था. कितनी बेसब्री से कटे थे हमारे दिनरात, आंसूउदासी में. आरव को देखते ही मेरा सब्र कहीं खो गया. मैं उस पब्लिक प्लेस में ही उन के गले लग गई थी. आरव ने मेरे माथे को चूमा और कहा, ‘‘चलो, पहले यह सामान वेटिंगरूम में रख दें.’’

‘‘हां, चलो.’’

मैं आरव का हाथ पकड़ लेना चाहती थी पर यह संभव नहीं था क्योंकि वे तेजी से अपना बैग खींचते हुए आगेआगे चले जा रहे थे और मैं उन के पीछेपीछे.

‘‘बहुत तेज चलते हो आप,’’ मैं नाराज सी होती हुई बोली.

‘‘हां, अपनी चाल हमेशा तेज ही रखनी चाहिए,’’ आरव ने समझने के लहजे में मुझ से कहा.

‘‘अरे, यहां तो बहुत भीड़ है,’’ वे वेटिंगरूम को देखते हुए बोले. लोगों का सामान और लोग पूरे हौल में बिखरे हुए से थे.

‘‘अरे, जब आजकल ट्रेनें इतनी लेट हो रही हैं तो यही होना है न,’’ मैं कहते हुए मुसकराई.

‘‘कह तो सही ही रही हो. आजकल ट्रेनों का कोई समय ही नहीं है,’’ वे मुसकराते हुए बोले.

मेरी मुसकान की छाप उन के चेहरे पर भी पड़ गई. ‘‘फिर कैसे जाएं, क्या घर में बैठें?’’ मैं ने पूछा.

Saif पर हमले को लेकर Kareena का ऐक्स बौयफ्रैंड Shahid Kapoor ने ऐसे किया रिऐक्ट

Shahid Kapoor : बौलीवुड के मंझे हुए एक्टर जिसने बौलीवुड से लेकर ओटीटी प्लेटफौर्म तक अपने अभिनय का सिक्का जमाया है , इश्क़ विश्क से लेकर हैदर , कमीने और विवाह तक अलगअलग तरह की भूमिका निभाने वाले शाहिद कपूर की आने वाली फिल्म देवा का ट्रेलर लौन्च हाल ही में हुआ इस ट्रेलर लौन्च में जब शाहिद कपूर से सैफ अली खान पर हुए अटैक को लेकर सवाल किया गया, तो उन्होंने चौंकाने वाला जवाब दिया.

शाहिद के अनुसार मुझे सैफ अली खान के ऊपर अटैक को लेकर जितना दुख हुआ उससे कहीं ज्यादा आश्चर्य हुआ यह सोचकर कि मुंबई ऐसी नगरी है जहां पर रात को 2:00 बजे भी औरतों और बच्चों को खतरा नहीं है, लोग रात में भी बिना डरे ट्रैवल करते हैं. मैं खुद मुंबई में कई साल से हूं और रात बे रात ट्रैवल करता हूं . लेकिन मुझे कभी कोई असुरक्षा महसूस नहीं हुई. ऐसे में सैफ अली खान जो काफी महंगी बिल्डिंग में रहते हैं और जहां पर सिक्योरिटी भी तगड़ी होनी चाहिए, ऐसी जगह पर किसी इंसान ने घर में घुसकर सैफ पर हमला कर दिया ,ये मेरे लिए बहुत शौकिंग है.

यह चौंकाने वाली बात है कि मुंबई जैसे शहर में कोई उनके घर पर घुसकर हमला करता है और भाग भी जाता है और सिक्योरिटी गार्ड या कोई कुछ नहीं कर पाता.

‘पिंटू की पप्पी’ का ट्रेलर हुआ लौन्च, स्पेशल गेस्ट पहुंचे Akshay Kumar

Akshay Kumar : हाल ही में प्रसिद्ध कोरियोग्राफर गणेश आचार्य और उनकी पत्नी विधि आचार्य ने बतौर निर्माता अपनी नई फिल्म पिंटू की पप्पी का ट्रेलर लौन्च किया. जिसमें खास तौर पर बतौर मेहमान अक्षय कुमार भी पधारे थे. ट्रेलर लौन्च के दौरान अक्षय कुमार ने गणेश आचार्य से अपनी दोस्ती का दावा करते हुए बताया कि गणेश से उनकी दोस्ती अक्षय के करियर की शुरुआत से है.

गणेश ने न सिर्फ उनके लिए गाना कोरियोग्राफ किया था बल्कि अक्षय की एक फिल्म टायलेट एक प्रेम कथा के लिए गणेश को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला है. यही वजह है कि पक्की दोस्ती के चलते अक्षय गणेश की किसी बात को टालते नहीं. 21 फरवरी 2025 को रिलीज होने वाली फिल्म पिंटू की पप्पी की खासियत यह है कि इस फिल्म से गणेश ने नए कलाकारों को फिल्म में लाने का बीड़ा उठाया है.

गणेश के अनुसार वह भी अपने करियर की शुरुआत में गरीबी में रहते थे लेकिन कुछ लोगों ने उन पर विश्वास किया और काम करने का मौका दिया तभी वह अपने आप को साबित कर पाए . इसी तरह पिंटू की पप्पी का हीरो सुशांत भी महाराष्ट्र के नांदेड़ के छोटे से गांव से हीरो बनने मुंबई आया था ना तो उसने कोई ऐक्टिंग कोर्स किया है और ना ही उसने कोई पोर्टफोलियो बनाया. लेकिन गणेश के अनुसार उन्होंने उसमें वही टेलेंट और काम करने की आंग देखी, जो एक जमाने में उनमें हुआ करती थी.

सुशांत में भी मेहनत करने का उतना ही जज्बा है जितना कि मैं एक अच्छे कलाकार में देखता हूं यही वजह है गणेश ने सिर्फ सुशांत थमके को ही नहीं बल्कि फिल्म में अन्य स्टार कास्ट भी नई ली है. जानिया जोशी, विधि यादव, आदि .फिल्म के डायरेक्टर शिव हरे हैं. गौरतलब है पिंटू की पप्पू के छोटे से टेलर में रोमांस ऐक्शन डांस कौमेडी का तड़का देखने को मिला. जो काफी दिलचस्प था.

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