Hindi Story : दोनों ने सबेरे का ढेर सारा काम निबटाया, समीर और शांता ने औफिस के टिफिन लगाए और दोनों बच्चों को स्कूल भेजने के बाद शांता का कुछ देर आराम से पलंग पर लेटने का मन हुआ. उस की मैट्रो थोड़ी देर से थी. समीर का औफिस दूर था. वह जल्दी वाली पकड़ता था.
सुबह काम भी इतना होता है कि नाम में दम आ जाता है. सुबह 5 बजे उठ कर दोनों चाय, दूध, नाश्ता, खाना बनाते खिला 8 बज ही जाते हैं. फिर जब सब के खाने के डब्बे तैयार होते तब कहीं जा कर शांता आराम कर पाती. वह भी मुश्किल से 10 मिनट.
उस के बाद भी शांता हर जगह बिखरे जूते, मोजे, चप्पलें, गंदी बनियानें, जांघिए, पजामेकुरते और तौलिए समेट वाशिंग मशीन में डालती.
घर को सुव्यवस्थित करने का काम, झाड़ूपोंछा, बरतनों की सफाई और कपड़ों की धुलाई पार्टटाइम मेड ही करती थी. जैसा भी करती थी दोनों को मंजूर ही था. शाम को बच्चों को क्रेच से ले कर आती और फिर शुरू हो जाता है अंतहीन काम… बच्चों को खाना दो, कपड़े बदलवाओ, उन के झगड़े निबटाओ और फिर उन का होमवर्क कराओ.
देखते ही रात आ जाती. बच्चों को खाना खिला कर दोनों सोफे पर टीवी के सामने बैठ कर कुछ बतियाते. फिर चाय और खाना बनाने का काम.
मगर कमाल यह है कि इतना अधिक घर और औफिस का काम करने के बावजूद शांता बच्चों के जन्म के बाद काफी मोटी हो गई. थोड़ा काम निबटाने के बाद शांता का मन चाहता कि वह 15 मिनट के लिए लेट जाए. उसे सीढि़यां चढ़ने पर तकलीफ होने लगी थी. उस से कोई व्यायाम नहीं होता.
लाख बार चाहा कि डाइटिंग की जाए पर जब कभी भी खाना छोड़ कर केवल फल, दूध और सलाद खाने का निश्चय करती है तो बजट असंतुलित हो जाता है और उस फिर अपने टिफिन के दालचावल और रोटी पर उतर आती है. शांता की दलील है कि इतना काम भी करो और भरपेट खाना भी न खाओ.
अपने रोज के काम के बासी कार्यक्रम से शांता कभीकभी खीज उठती है. दफ्तर में उस की डैस्क भी बड़ी उबाऊ, एक सा काम लगता. सामने रखे कंप्यूटर में डाटा फीड करते रहो. कभी लंबीचौड़ी किसी से बात नहीं. कब से चाहती है कि कुछ दिनों के लिए कहीं हो आए या फिर समीर ही उसे औफिस से ले कर शाम को कहीं घुमा लाया करे. मगर एक तो कमर तोड़ महंगाई फिर 2-2 बच्चों को कहां लाद कर ले जाए? छुट्टी वाले दिन ही जब मौल या लोकल बाजार जाते ही इन की फरमाइशें शुरू हो जाती हैं, जिन से बचने का एक ही रास्ता है कि शाम भी घर पर गुजारी जाए और छुट्टी भी. शांता वही करती है. सोचती है बच्चे पल गए तो सम?ो जीवन संवर गया. बढ़ते बच्चों के खर्चें कितने होते हैं, इस का एहसास शांता और समीर दोनों को होने लगा था.
मगर कभीकभी शांता को समीर के उदास होने या चुपचाप औफिस से लौट कर मोबाइल, टीवी या लैपटौप में खो जाने पर अथवा अपने मोटे होते शरीर की चिंता सताती है तो वह पूछ बैठती है, ‘‘सच कहना समीर अब मैं पहले जैसी नहीं रही? काफी मोटी हो गई हूं? तुम्हारे दिल में कहीं फर्क तो नहीं आया? गजब हो जाएगा यदि तुम ने कभी ऐसा किया. मैं तुम से बेहद प्यार करती हूं. कभी मु?ा से मुंह मत मोड़ना नहीं तो मैं मर जाऊंगी. आजकल तो औफिस में भी कहीं कोई फ्लर्टिंग नहीं करता. पता नहीं इसलिए कि मैं मोटी हो गई हूं या केस न कर दूं.’’
समीर का उत्तर होता, ‘‘पागल हो? शादी के इतने साल हो गए क्या मैं पहले जैसा रहा हूं? मेरे भी तो बाल उड़ गए हैं और बीचबीच में कितने सफेद भी हो गए हैं… फिर अब बच्चे बड़े हो रहे हैं. उन के इश्क फरमाने के दिन आ रहे हैं. हम तो बुड्ढे हो गए. फुजूल के सवाल न किया करो. तुम हमेशा मेरी रहोगी, चाहे जैसी भी हो..’’
और शांता खुश हो कर मन ही मन समीर के बड़े दिल की दाद देती हुई नए जोश से गृहस्थी की गाड़ी सुव्यवस्थित रूप से चलाने में जुट जाती.
मगर आज शांता ने सोचा कि रोज थोड़ी देर लेटने से उस के काम में देर हो जाती है इसलिए जल्दी से काम निबटाने की सोच उस ने गंदे कपड़े समेट कर सर्फ में भिगो दिए. धोने के लिए बैठते ही उसे याद आया कि समीर के कपड़े तो बैड पर ही पड़े रह गए.
शांता समीर के कपड़े लेने कमरे में आई तो आदतन उस ने जेबें टटोल लीं. पिछली जेब में एक 10 रुपए का सिक्का तथा एक मुड़ी हुई नीली सी चिट पड़ी थी.
उस नीले कागज से आ रही सुगंध से शांता को हैरानी हुई. उस ने सिक्का निकाल कर एक ओर रख दिया और चिट पढ़ने लगी. लिखा था, माई ड्रीम गर्ल अनु… जब से तुम हमारे औफिस में आई हो, मैं अपने दिल का चैन खो बैठा हूं. न घर में चैन पड़ता है और न बाहर. जी चाहता है बस तुम्हें ही देखता रहूं. इतनी कोमलांगी को देखने भर से थकान दूर हो जाती है. मैं जानता हूं शायद इस से मेरे घर की शांति भंग हो जाए, पर मैं मजबूर हूं.
‘शांता में अब वह बात नहीं. कामकाज में उलझ कर वह बिलकुल बहनजी बन गई है. इसलिए मैं उस के साथ कहीं आताजाता भी नहीं.
‘मैं चाहता हूं कि तुम कुछ दिनों तक रोज शाम को कुछ समय मेरे साथ गुजार कर ब्रिंग जौय इन माई लाइफ. देखो, मना मत करना. मैं तुम से और कुछ नहीं चाहता. केवल अपने जीवन के बासीपन को दूर कर के ताजगी चाहता हूं. आई विल वेट फौर रिप्लाई. मैं यह मैसेज व्हाट्सऐप पर नहीं भेज रहा कि कहीं कोई न देख ले.
‘-तुम्हारा प्रेमी.’
चिट पढ़ कर शांता की हिम्मत जाती रही. कौन हो सकती है यह अनु? शायद
औफिस में पास ही बैठती हो? न जाने कितने दिनों से यह नाटक चल रहा है? अब मैं क्या करूं? कैसी मीठीमीठी बातें बनाते थे? अब तो बच्चों के इश्क करने का समय है. हम तो बुड्ढे हो गए हैं और स्वयं ही उलझ गए? जीवन में ताजगी लाना चाहते हैं. आने दो आज… अच्छी खबर लूंगी. पर शांता का यह गुस्सा मिनटों में ही काफूर हो गया.
शांता निढाल हो कर पलंग पर जा लेटी. औफिस फोन कर दिया कि आज शांता नहीं आ पाएगी. शादी के 15 साल बाद यह कैसी समस्या आ खड़ी हुई है? अब तो बच्चे भी बड़े हो रहे हैं. क्या समीर को अपनी उम्र और हैसियत का जरा भी ध्यान न आया?
शांता ने वह पत्र उलटपलट कर कईर् बार देखा और पढ़ा. कहीं गलतफहमी की शिकायत नहीं थी. उस लड़की का पता भी नहीं लिखा था. ख्वाबों में बसी है. न जाने कैसी है? घर का पता लिखा होता तो उस से मिल कर अपनी बसीबसाई गृहस्थी को न उजाड़ने की भीख मांगती. पर अब क्या करे?
शांता को लगा कि वह इतने बड़े संसार में आज अकेली रह गई है अंधेरे से घिरी हुई मानो किसी ने किश्ती में बैठा कर अंधेरे में ही समुद्र के बीच छोड़ दिया है और वह दिशाहीन भटक रही है. समीर ने उस के ट्रस्ट को आज तोड़ दिया था.
शांता का दिल चीखचीख कर रोने को कर रहा था. वह कटी शाख की तरह पलंग पर बिखर कर रोने लगी. आहिस्ता से, जोर से रो भी न सकी.
रोतेरोते शांता को 3-4 दिन पहले की बात अचानक याद हो आई. उस रात शायद समीर को नींद नहीं आ रही थी. सब काम निबटा कर, बच्चों को सुला कर शांता कमरे में आई तो देखा समीर सिर पर हाथ रखे न जाने क्या सोच रहे थे.
सिर पर हाथ रख कर पूछा तो बोले, ‘‘सिर में दर्द है, पर तुम्हें क्या, रात के 11 बजे मेरी सुध आती है? जाओ अपने बच्चों के कमरे में जा कर सो जाओ.’’
समीर की बात सुन कर शांता को गुस्सा आ गया, ‘‘11 बजे न आऊं तो क्या करूं? सुबह से काम में लगती हूं औफिस जाती हूं, लौट कर किचन संभालती हूं. तब कहीं जा कर धीरेधीरे इस वक्त तक काम निबट पाता है और फिर एक मेड ही तो है वह होमवर्क तो नहीं करा सकती. यह सब भी तो मेरा ही सिरदर्द है. बच्चों के स्कूल के जूते, मोजे, टाई, कपड़े सब तैयार कर के रखने होते हैं. न तैयार करूं तो सुबह आफत हो जाए. मैं पत्नी न हो गई मशीन हो गई. उधर काम भी करूं और व्यंग्य भी सुनूं… हुंह.’’
और भर्राए गले पर काबू पा कर शांता दूसरी तरफ पलंग पर लेट गई. शायद वह सो भी जाती, पर कुछ देर बाद समीर बोला, ‘‘और कुछ नया काम नहीं है… तुम भी वही हो और काम भी वही है पर तुम से अपना भार ही नहीं ढोया जाता तो काम तो देर से होगा ही…’’
सुन कर शांता को बहुत चोट लगी. इस करारे व्यंग्य के लिए वह तैयार न थी. आखिर मन की बात जबान पर आ ही गई है.
छिटक कर बगैर बोले चादर बिछा कर शांता जमीन पर लेट गई और चुपचाप आंसू बहाते हुए न जाने कब सो गई.
दूसरे दिन से फिर वही क्रम चला. आंच जला कर चाय बनाई और फिर समीरको चाय का कप दे कर उठाया. चाय की चुसकियों के साथ मोबाइल पर गुडमौर्निंग कर रहे समीर को दे कर आई. शांता ने दालसब्जी तैयार कर ली थी. टिफिन बौक्स के लिए परांठे सेंके थे. बच्चों को तैयार किया था. उन्हें भेज कर समीर के जाने की भी सारी तैयारी की थी, पर न समीर ही शांता से कुछ बोला और न शांता समीर से. समीर के जिम्मे थोड़े से काम थे. वह फुरती से उन्हें कर देता और फिर मोबाइल पर लग जाता. कभीकभार कोई मैगजीन या पुस्तक भी पढ़ लेता.
दोपहर को 2 बजे तक शांता का गुस्सा शांत हो गया था. उस ने समीर से 2-3 बार मोबाइल चैट भी की. छोटीछोटी सिर्फ काम की. शाम को जब उस ने समीर हंस कर चाय दी तो बात आईगई हो गई. शांता ने सोचा कि समीर ने यों ही बात मजाक में कही है और उसे भी
मजाक की तरह ही लेनी चाहिए. फिर वह पहले से काफी मोटी तो हो ही गई है. पर वह भी क्या करे?
न जाने कब सुबह होती, कब शाम रात में बदल जाती. भारी शरीर से दिनभर घिसटघिसट कर काम करती. बच्चों पर भी ?ाल्लाती, पर काम निबटते ही न थे. बच्चे बड़े हुए, वे स्कूल जाने लगे तो उन को पढ़ाने का काम और बढ़ गया. दोनों बच्चों में से एक का भी जिम्मा समीर ने न लिया था पर वह आराम से उन्हें पढ़ा दिया करता था. रोज दिन की परेशानियों से शांता काफी झल्ला जाया करती थी, पर फिर भी जैसेतैसे गृहस्थी की गाड़ी खींचती जा रही थी. वह भूल गई कि बच्चों को पालने के अलावा उस के जीवन का और भी कोई उद्देश्य है.
मगर आज यह मुई नीली चिट… अच्छा हुआ समीर की असलियत सामने गई. शादी के शुरू के दिनों में दोनों में कितना प्यार था. रोज शाम को घूमने जाते थे, पर बच्चों के बाद न उसे ही वक्त मिल पाता था कि वह सजसंवर कर बच्चों को अच्छे कपड़े पहना कर बाहर घूमने ले जाए और कभी चली भी जाती तो लौटने पर उस का मन ठीक न रहता था.
एक तो थक कर लौटने पर बढ़ गए काम उसे ही समेटने पड़ते थे, दूसरे बच्चों की फरमाइशें कि खास रेस्तरां का ही खाना मंगाया जाए. शांता की सीमित बजट होने के कारण कभी पार्लर जाने की हिम्मत नहीं होती. साल 2 साल में किसी शादी से पहले ही वह जा पाती थी. पर शांता को इस कुरबानी से क्या मिला? चिड़चिड़ा स्वभाव, घर पर अनसंवरे बाल, बेडौल शरीर और प्यार के बजाय नफरत? किसी और लड़की में उल?ा कर समीर भी दूर हो गया. कईकई हफ्ते तो वह बाल डाई भी नहीं करती थी क्योंकि वीकैंड पर ढेरों काम पड़े दिखते थे.
आखिर मन का क्रोध आंखों की राह बह निकला. फूटफूट कर रोने के बाद मन कुछ हलका हुआ तो शांता उठी. किसी तरह सब कपड़े समेटे. नीली चिट को पैंट की उसी जेब में रख कर पैंट बैड पर रख दी और नहा कर बिस्तर पर आ लेटी. किसी काम में मन लग ही न रहा था. कल के धुले कपड़ों में प्रैस करनी थी, कुछ उधड़े कपड़ों को सीने को भेजना था, टूटे बटन लगाने थे, पर मन न जाने कैसा हो रहा था.
शांता एक बार फिर उठी. उस मुई नीली
चिट ने उसे विक्षिप्त सा कर दिया था. सोचा
शायद कहीं किसी कोने में कुछ और न लिखा
हो. उस ने पत्र पढ़ा, दोबारा, तिबारा, चौथी और 5वीं बार.
दोपहर के 2 बज रहे थे. औफिस के रूटीन से हट कर शांता ने अकेले शायद ही कभी टाइम घर पर बिताया हो यानी कोईर् मेहमान आता तो छुट्टी लेती या कोई बीमार पड़ता तब शांता ने सुबह से कुछ खाया न था और अभी भी उसे बिलकुल भूख न थी. पलभर में ही शांता का जीवन उलटपुलट गया था.
शाम को समय से बच्चे स्कूल से आए तो शांता उठी. बच्चों को खाना खिलाया
और उन का होमवर्क कराया. यह सब न जाने कब और कैसे हुआ शांता को कुछ पता न चला. उस का दिमाग तो न जाने कहांकहां जा रहा था. शादी के 15 साल बाद सफर के इस मोड पर आ कर किस से सलाह लेती, फिर लेती भी तो लोग उसी पर हंसते. कोई ऐसा जादू न था जो एक फूंक के मंत्र से पहले जैसी पतली, सुकोमल बना देता? शांता मन ही मन घुटती रही.
पहले शांता ने सोचा आने दो आज समीर को, खूब आड़े हाथों लूंगी. पर मन के किसी
कोने में दबी भावनाओं ने यह सब करने के
लिए मना कर दिया. शायद उसे लगा इस से
उड़ते हुए समीर को बांधना असंभव हो जाएगा. फिर सोचा, समीर के किसी दोस्त से ही विस्तारपूर्वक सब पूछ लेगी, पर यह भी उसे अपना अपमान लगा.
सोचने लगी क्या वह अपने बीते हुए सुखद दिन फिर न लौटा सकेगी? वह तो समीर को बेहद प्यार करती है. उस के बगैर अपने जीवन की कल्पना भी कितनी भयावक है. फिर शांता ने तो अपनी हर सांस में प्यार की सुगंध घोलनी चाही थी. समीर ने भी इस के प्रतिवाद में सिर्फ उसी के रहने के वादे किए थे पर सब चकनाचूर हो गया. एक लंबी आह भर कर आंखों के गीलेपन को समेट कर शांता उठी.
बच्चे अपने कमरों में खुद बिजी हो गए थे. उस ने कपड़े बदले और समीर का इंतजार करने लगी. समीर जब आया तो बगैर कुछ कहे शांता ने चाय बनाई और दोनों ने मिल कर पी. लाख चाहने पर भी आज शांता के मुंह से बोल न फूट रहे थे.
चाय पीने के बाद शांता रात के खाने में जुट गई और खाना खिलाने तथा काम निबटाने के बाद स्वयं अपने कमरे में आ गई. इतनी जल्दी शांता को काम निबटा कर आता देख समीर हैरान हुआ, फिर एक नजर उस पर डाल कर पढ़ने में व्यस्त हो गया और कुछ देर बाद बिना कोई बात किए सो गया.
मगर शांता की आंखों में नींद कहां? थकान के बावजूद अपनी फटती आंखों पर अनचाहा बो?ा समेटे सोने का यत्न करती रही. पर उन आंखों में तो उसे केवल अनिश्चित भविष्य दिखाई दे रहा था. नींद का प्रश्न ही नहीं था. शांता को लगा कि वह ऐसे कगार पर आ खड़ी हुई है, जहां शायद आत्महत्या के सिवा कोई और चारा नहीं है.
मन की आग ने शांता को पूरी तरह जला डाला था. लेटीलेटी वह समीर के साथ बिताए अच्छे और बुरे क्षणों के बारे में सोचती रही. जब उस की आंख लगी तो रात लगभग बीत चुकी थी.
दिन चढ़ आया था. बच्चों की खटरपटर ने उसे जगा दिया. भागदौड़ कर जैसेतैसे सब काम निबटाए. सब के जाने पर वह टूटी हुई सी एक प्याला चाय पी कर औफिस जाने की मैट्रो पकड़ने रास्ता भर आंखें बंद कर के न जाने क्याक्या सोचती रही.
उस शाम आई तो पैंट वहीं एक कुरसी पर पड़ी. बेतरतीब, धुलने का इंतजार करती हुई सोच कर समीर की पैंट फिर टटोलने पहुंच गई कि देखे वह चिट अभी पड़ी है या नहीं? परंतु वह चिट वहां नहीं थी. तो क्या समीर ने निकाल ली? यानी अपने सपनों की रानी तक पहुंचा दी.
सोचसोच कर शांता का मन इतना व्यथित हुआ कि वह फूटफूट कर रोने लगी. बच्चों के आने का समय हो गया तो उस ने जल्दी से खाना बनाना शुरू कर दिया और बच्चों को वही खिलापिला कर कमरों में भेज दिया.
मां को इतना चुप बच्चों ने कभी न देखा था. उल?ो बालों, पपड़ाए होंठों और बेचैन आंखों को देख कर मुकेश बोला, ‘‘मां, तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न? आज कैसी हो रही हो?’’
शांता का दिल किया कि इस सहानुभूति पर रो दे, पर मन पक्का कर के बोली, ‘‘ऐसे ही कुछ सिर में दर्द है. मेरा खाने को भी मन नहीं है. तुम लोग अपनेअपने कमरे में जाओ.’’
बच्चे चले गए तो शांता कुछ सोच कर शीशे के आगे जा खड़ी हुई. अपनी सूरत देख
कर वह स्वयं ही चौंक गई. उसे लगा वह वास्तव में बुढ़ा गई है. आंखों के नीचे काले गड्ढे, खिचड़ी बाल, थुलथुल बदन, कैसी निश्चिंत थी वह अब तक.
अचानक शांता उठी. रसोई में से एक नीबू काट कर अपने सारे मुंह, हाथों और बांहों को रगड़ा. फिर बेसन और दही से मुंह धोया और उबलते पानी से मुंह पर भाप दे कर फेस पैक लगा कर खाने की तैयारी में जुट गई. एक औनलाइन डिलिवरी वाले से 300-400 रुपए की क्रीम, सैंट, सीरम, फेस पैक मंगाया और लगाया.
आधे घंटे के बाद नहाई, अच्छी तरह मुंह साफ कर के क्रीम मली, बिंदी लगाई, अच्छे ढंग से बाल संवारे और प्रैस की हुई सलवारकमीज पहन कर वह समीर का इंतजार करने लगी जो अब देर से ही आ रहा था.
उस शाम भी समीर देर से आया. शांता का दिल इतना समय छलनी होता रहा. इस का अर्थ था कि वह कलमुंही शाम के समय समीर को ताजगी देने के लिए सहमत हो गई है. अजीब बेचैनी में शांता ने 2 घंटे गुजारे.
शांता की भूख को न जाने क्या हो गया था. जब से उस ने वह नीली चिट पढ़ी थी, सिर्फ 2 कप कौपी ही पी थी. एक भी दाना अन्न का वह नहीं खा पाईर् थी.
शाम को 7 बजे समीर लौटा. बिलकुल ताजा दम, थकावट रहित. शांता देख कर कुढ़ गई, पर सिर्फ यही बोली, ‘‘आज बड़ी देर कर दी?’’
समीर कुछ देर उसे मुसकरा कर देखता रहा, फिर बोला, ‘‘औफिस में इन दिनों काम कुछ ज्यादा है. रोज 1-2 घंटे अधिक लगेंगे, पर हमें चायनाश्ता वहीं से मिल जाया करेगा. आज भी मिला. तभी ज्यादा काम के बावजूद थकावट महसूस नहीं हो रही. एकदम तरोताजा हूं…’’ और वह बैठ कर गुनगुनाते हुए जूतों के फीते खोलने लगा. ?ाकने पर समीर की पीछे की जेब से बालों की छोटी कंघी दिखाईर् पड़ी तो शांता का दिल न जाने कैसा हो गया.
शुरू में शादी के बाद समीर वक्तबेवक्त कंघी करने के लिए जेब में कंघी जरूर रखता था. शांता तब हंस कर कहा करती, ‘‘इतने सजेधजे न रहा करो. कहीं किसी ने तुम पर डोरे डाल दिए तो मैं कहां जाऊंगी?’’
और तब समीर हंसता हुआ कहता, ‘‘नहीं भई, इस जीवन में तो मेरे पर डोरे डालने वाली आ गई. अब और गुंजाइश नहीं. हां, तुम्हें मेरे कंघी रखने से चिढ़ है तो लो आज से मैं जेब में कंघी नहीं रखूंगा,’’ और समीर ने जेब में कंघी रखना बंद कर दिया था. पर अब फिर…
शांता का मन किया कि अभी सारी पोल खोल दे कि वह इतनी भोली नहीं. वह उस के तरोताजा होने का राज जानती है, पर अपना सारा गुस्सा दबा कर बोली, ‘‘चाय लाऊं?’’
समीर गुनगुनाना बंद कर बोला, ‘‘चाय तो मैं पी कर आया हूं. तुम इंतजार न किया करो. अब तो सीधे खाना ही खाऊंगा,’’ कह समीर गुसलखाने में घुस गया.
शांता के मन में आया कि वह समीर को गुसलखाने से बाहर खींच लाए और कहे कि उन के संबंधों के धागे इतने कच्चे नहीं कि इतनी आसानी से टूट जाएं या फिर रोरो कर कहे कि तुम्हारे बिना मेरी जिंदगी का कोई अर्थ नहीं है और मु?ो तुम्हारे नाम के साथ जुड़े रहने का पूरा हक है. पर वह ऐसा कुछ कह न सकी और आंखो में आए आंसुओं को बांह से पोंछ कर रसोई में चली गई. वह जानती भी थी कि न तो वह मानसिक रूप से समीर से अलग रह सकती है, न आर्थिक या सामाजिक रूप से.
रात का खाना निबटा कर स्वयं बगैर खाए शांता बिस्तर पर पड़ कर करवटें बदलती रही. फिर सुबह हुई फिर शाम, सुबह और शाम. अपना क्रम बदलते रहे और शांता घुटती रही. पलपल मरती रही पर समीर से कुछ कह न सकी.
हर शाम समीर ने 2 घंटे देर से आने का नियम सा बना लिया और उन 2 घंटों के 1-1 मिनट में शांता शारीरिक और मानसिक रूप से घुलती रही. इस घुटन में उस की भूखप्यास ही मर गई. दिन में औफिस में वह और ज्यादा उदास रहती जबकि पहले से ज्यादा स्मार्ट दिखने लगी थी, उस का वजन घटने लगा था.
शांता ने निश्चय कर लिया था कि वह अपने शरीर का खूब ध्यान रखेगी. शायद समीर की उस पर नजर पड़े और शायद वह उसे कुछ ताजगी देने में समर्थ हो सके. इसलिए खाली होते ही वह अपने हाथ, पैर, मुंह, गरदन और पैरों की क्रीमों से देखभाल में व्यस्त हो जाती.
सुबह उठते ही गरम पानी में एक नीबू निचोड़ कर पीती और सब से पहले व्यायाम करती. अन्य काम निबटाने के बाद 1 प्याला चाय पी कर हाथ, पैरों और मुंह की मालिश में व्यस्त हो जाती. नीबू, क्रीम, फेसपैक, सीरम, ग्लिसरीन से हाथपैर काफी सुंदर हो गए थे. मुंह पर भी पुराना सलोनापन लौटने लगा था.
शांता को अब भूख तो लगती ही न थी. कभी बेचैनी होती तो वह नीबू पानी ही लेती. शाम को केवल 1 कप दूध ही पीती. अपना टिफिन आधा ही खाया जाता.
इसी तरह 10 दिन बीत गए. इस बीच शांता समीर से बहुत कम बोली थी. उस दिन हिम्मत जुटा कर बोली, ‘‘रोज दिन के एकजैसे ढर्रे से ऊब होने लगती है. आजकल बच्चों के ऐग्जाम तो हैं नहीं, अपने दोस्तों के घर कभी हमें ले चलो या उन्हें ही घर पर डिनर को इनवाइट कर लो. जब कहोगे मैं घर पर ही पूरी तैयारी कर दूंगी. इस तरह मिलतेजुलते रहने से जीवन में ताजगी बनी रहती है.’’
शांता ने सोचा कि इसी बहाने वह किसी एक मित्र से अनु के बारे में सारी जानकारी ले लेगी. मगर समीर बोला, ‘‘क्यों फालतू में पैसे खराब करती हो? हमारे घर में ऐसी कोई खास बात तो है नहीं जो सब को निमंत्रण देता फिरूं. न बाबा… इस फुजूलखर्ची से तो बेहर है कि तुम्हें एक साड़ी ही ला दूं.’’
सुन कर शांता को खीज भी हुई और खुशी भी. खीज इसलिए कि समीर की पोल न खुल जाए. इसलिए वह दोस्तों के नियंत्रणको टाल
गया और खुशी इसलिए कि अभी भी वह उसे प्यार तो करता ही है. कम से कम पैसे बरबाद करने के स्थान पर उस के लिए साड़ी होने को तैयार हो गया.
8वें दिन शाम को समीर आशा के अनुरूप 8 बजे की जगह ठीक 7 बजे घर पहुंच गया तो शांता कभी उसे देखती कभी स्वयं के चेंज पर लग जाती. औफिस में भी उस के चारों और मंडराने वाले बढ़ने लगे थे.
पर तभी समीर उसे देख कर हैरान होता हुआ बोला, ‘‘भई, कमाल हो गया. आजकल देख रहा हूं दिनबदिन जवान होती जा रही हो. क्या चक्कर है? आज तो तुम गजब ढा रही हो. चलो, आज इसी खुशी में रात का खाना कहीं बाहर खाएंगे.’’
शांता खुश तो हुई, पर उसे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. बोली, ‘‘अरे तुम्हारा तो पेट भरा होगा औफिस के चाय नाश्ते से और तुम्हें तो लैपटौप पर काम भी करना होगा, उस का क्या?’’
समीर ठठा कर बोला, ‘‘आज से बंद… अब कल से ठीक इसी समय पर आया करूंगा और तुम्हारी आंखों के आगे बैठ कर अपने पुराने दिन दोहराया करूंगा.’’
शांता को यह ठिठोली अच्छी न लगी. चिढ़ कर बोली, ‘‘रहने दो. तुम्हारी सारी पोल मैं जानती हूं. अब मैं किस काबिल हूं. तुम तो बाहर साथी ढूंढ़ने लगे. न जाने किस कलमुंही अनु को खत…’’ और आगे कुछ न कह सकी. शांता के आंसू बहने लगे. समीर हंसतेहंसते लोटपोट हो गया.
फिर बोला, ‘‘सच शांता, क्या कहूं तुम्हें? मैं तो इन 8 दिनों में बोर हो गया. 2 घंटे रोज मोहन के घर गुजारता था यह बहाना कर कि तुम मायके गई हुई हो.
‘‘तुम अपने मोटे होते शरीर को देखते हुए भी कुछ करती न थी. सोचा एक ?ाटका हूं,
शायद तुम इधर ध्यान दो. सो यह सब करना पड़ा. वह नीली चिट इसी कारण रखी थी. जब तुम ने जेब से 10 रुपए का सिक्का निकाल लिया और चिट वहीं रख दी तो मैं सम?ा गया कि तुम ने चिट पढ़ ली है. बस मैं ने यह चिट गायब कर दी और रोज ?ाक मार कर मोहन के यहां चाय पी कर आता रहा.
‘‘पर लौट कर तुम्हारा उदास चेहरा देखता तो जी होता कि सब ?ाठ उगल कर तुम्हें बांहों में भर लूं और तुम्हारा सारा तनाव दूर कर दूं.
‘जब एक रात मेरे मुंह से निकल गया कि तुम से तुम्हारा भार ही नहीं ढोया
जाता और तुम जमीन पर रोतेरोते सो गई तो मुझे बहुत दुख हुआ. मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था.
‘‘उसी रात तुम्हें झटका देने का विचार मेरे मन में आया था. चूंकि तुम मुझे बहुत प्यार करती हो इसलिए मुझे कहीं और उलझ समझ कर तुम झटका खा जाओगी, इसीलिए वह नीली चिट लिख कर रखनी पड़ी. जरा शीशे में जा कर तो देखो कितनी बढि़या फिगर निकल आई है.
शायद इन 8 दिनों में 10 किलोग्राम वजन तो कम हो ही गया होगा. और फिर तुम्हारी सजधज…वाह क्या कहने…’’
समीर ने आगे बढ़ कर शांता को बांहों में भरना चाहा तो वह बोली, ‘‘यदि तुम सच बोल रहे हो तो वह चिट तुम्हारे पास होगी.’’
‘‘यह लो,’’ कह कर समीर ने पर्स से वह नीली चिट निकाल कर शांता के हाथ में थमा दी. शांता भी इस योजना पर हंसे बगैर न रह सकी.
अपने काले बालों को संवारती हुई उठी और समीर के कंधे से झुल गई. भारहीन, तनावरहित और खुश होती हुई बोली, ‘‘इसी खुशी में जरा मेरा वजन ले लेना पहले,’’ और फिर हंसती हुई तैयार होने चल दी. आज उसे लग रहा था कि इस संसार में उस जैसा खुश कोई नहीं.