Hindi Story Online : अजमेर का सूबेदार: रहीम की क्या थी कूटनीति

Hindi Story Online : बात सन 1581 के शुरुआती दिनों की है. अकबर के संरक्षक बैरम खां के बेटे अब्दुर्रहीम खानखाना के पास कवि का कोमल दिल ही नहीं शाही आनबानशान और मुगल साम्राज्य के लिए मरमिटने का जज्बा भी था. उस के बाजुओं में कितनी ताकत थी यह उन्होंने गुजरात विजय, मेवाड़ के कुंभलनेर और उदयपुर के किले पर अधिकार कर के साबित कर दिया था.

बादशाह अकबर ने अब्दुर्रहीम की बहादुरी, ईमानदारी और समर्पण के भाव को देख कर ही उसे ‘मीर अर्ज’ की पदवी से नवाजा तो इस में कोई पक्षपात नहीं था, बल्कि वे जानते थे कि कलम और तलवार के धनी रहीम खानखाना कूटनीति के भी अच्छे जानकार हैं, तभी तो बादशाह ने उन्हें मेवाड़ मामले और खास कर महाराणा प्रताप की चट्टानी आन को तोड़ने के लिए अजमेर की सूबेदारी सौंपी थी. जिस काम को मानसिंह जैसा सेनापति और खुद बादशाह अकबर नहीं कर सके उस काम को करने के लिए खानखाना को अजमेर भेजना और वह भी यह कह कर कि शेर को जिंदा पकड़ कर दरबार में पेश करना है, कुछ अजीब लगता है लेकिन इस में कहीं न कहीं एक नायक की काबिलीयत के प्रति एक बादशाह का विश्वास भी झलकता है.

अजमेर आ कर रहीम ने पहले बेगमों, बांदियों, बच्चों को अस्त्रशस्त्र, रसद समेत शेरपुर के किले में सुरक्षित रखा ताकि उन की गैरमौजूदगी में वे सब सुरक्षित रह सकें. अब बेगमें क्षत्राणियां तो हैं नहीं कि पति को लड़ाई में भेज कर खुद किले में तीर, भाले, तलवार चलाने का अभ्यास करती रहें. यह तो शाही फौज के साथ सुरक्षा के साए में रहने वाली हरम की औरतें हैं जिन्हें अपनी अस्मत की रक्षा के लिए मर्दों पर ही निर्भर रहना है क्योंकि इसलाम धर्म इस से आगे की उन्हें इजाजत नहीं देता.

अब्दुर्रहीम खानखाना किले के विश्रामगृह में बैठे पसोपेश में हैं, परेशान हैं, सोच रहे हैं पर समझ नहीं पा रहे कि कैसे इस अरावली के शेर को काबू में करें. राणाप्रताप सिर्फ मेवाड़ पर नहीं, लोगों के दिलों पर राज करता है. आन का पक्का, भीलों का राजा नहीं उन का साथी है. कोई तो उस की कमजोरी पकड़ में नहीं आ रही जिस के सहारे वह आगे बढ़े. सारे सियासी दांवपेच उन की बेखौफ दिलेरी के सामने फीके पड़ जाते हैं.

तनमन में मेवाड़ प्रेम और स्वदेश सम्मान की रक्षा का संकल्प लिए यह राणा बिना समुचित सेना और हथियारों के भी शाही सेना पर भारी पड़ जाता है. भीलों का रणकौशल गजब का है. उन की पत्थरों और तीरों की मार के आगे मुगलिया सेना के पांव उखड़ जाते हैं.

आखिर क्या हुआ हल्दी घाटी में. राजा मानसिंह युद्ध जीत गए, उदयपुर छीन लिया, लेकिन क्या वाकई यह मुगलिया फौज की जीत थी? सारी रसद लुट गई, न राणा बंधे न उन का कुंवर. खाली हाथ भूखीप्यासी सेना को ले कर मानसिंह वापस आगरा लौटे थे. तो क्या राजा मानसिंह का शाही स्वागत हुआ था? नहीं, किस तरह इस बेकाबू राणा को काबू में करें यह वह समझ नहीं पा रहे.

अचानक उन की बड़ी बेगम ने विश्राम घर में प्रवेश किया और बोलीं, ‘‘क्या बात है मेरे सरताज, बडे़ सोच में हैं. कोई परेशानी?’’

‘‘परेशानी ही परेशानी है बेगम, एक हो तो बताएं. आप को याद है न हल्दी घाटी से लौटने पर मानसिंह की कितनी बेइज्जती हुई थी. बादशाह की पेशानी पर बल थे और उन्होंने कहा था कि क्या मानसिंह उम्मीद करते हैं कि उन की इस शर्मनाक जीत पर हम जश्न मनाएंगे? माबदौलत तो उन की शक्ल भी देखना नहीं चाहते.’’

‘‘हां, मुझे याद है,’’ बड़ी बेगम ने कहा, ‘‘बादशाह ने बदायूनी को तो सोने की मोहरों से नवाजा था और मिर्जा राजा से नाराज ही रहे थे.

‘‘बादशाह तो इतने नाराज थे कि उस के 3 महीने बाद वे खुद ही मुहिम पर निकले थे और 1 नहीं 3 हमले  राणा पर किए थे.’’

‘‘तो राणा कौन से बादशाह के हाथ आ गए थे,’’ चिंता से छटपटा रहे रहीम ने कहा, ‘‘अरे बेगम, उस के बाद भी तो जगहजगह थाने बनाए गए, हमले किए गए, लेकिन राणा के छापामारों ने मुजाहिदखां जैसे हैवानी थानेदार को भी मार डाला. एक साल बाद 15 अक्तूबर, 1577 को शाहबाज खां को भेजा गया. उस का खौफ तो जरूर फैला लेकिन वह भी तो बेकाबू राणा को बांधने में नाकाम ही रहा. 3 साल उन्हीं अरावली की पहाडि़यों में झख मारने के बाद खाली हाथ ही तो लौटा था. फिर अजमेर के सूबेदार बने दस्तम खान. वह मेवाड़ क्या जाते जब आमेर में ही दम तोड़ना पड़ा.’’

‘‘लेकिन मेरे हुजूर, आप यह सोचिए कि इन सब के बाद जब यह तय हुआ कि किसी खास बंदे को इस बेहद संगीन मामले से निबटने को भेजा जाए तो बादशाह सलामत को सिर्फ आप सूझे. कितना विश्वास है उन को आप पर और आप की काबिलीयत पर. आप को तो खुश होना चाहिए.’’

‘‘बेगम, आलमपनाह का यही भरोसा तो मुझे खाए जा रहा है. सोचिए, क्या होगा अगर यह भरोसा टूट गया?’’ रहीम वाकई परेशान थे.

‘‘इस तरह हिम्मत हारना आप को शोभा नहीं देता, हुजूर. पूरे हौसले के साथ टूट पडि़ए दुश्मनों पर. आप के सामने वह है क्या भला? आप भूल गए गुजरात विजय को जब आप ने बिना मदद का इंतजार किए सिर्फ 10 हजार सिपाहियों को साथ ले कर सुलतान मुजफ्फर की 1 लाख पैदल और 40 हजार घुड़सवार सेना को परास्त कर दिया था.’’ बेगम अब्दुर्रहीम खानखाना को प्रोत्साहित तो कर रही थीं पर उन के मन में भी डर था. वह भी जानती थीं कि भरोसा टूटने पर बादशाह कैसा कहर बरपा करते हैं.

‘‘बेगम, आप ख्वाहमख्वाह मेरी झूठी हौसलाअफजाई मत कीजिए. क्या आप को पता नहीं कि मेरे पीछे उधर आगरा में साजिशों का दौर चल रहा होगा, बादशाह के कान भरे जा रहे होंगे. अब्बा हुजूर ने बादशाह को इस लायक बनाया, गद्दीनशीन कराया, राजकाज संभाला, उन्हें सियासत सिखाई. जब उन्हें बेइज्जत  करने में बादशाह को मिनट नहीं लगा तो भला मेरी बिसात क्या है? आप को शायद पता नहीं है कि हुमायूं की शिकस्त के बाद शहंशाह शेरशाह ने अब्बा की मिन्नतें की थीं कि वह उन के साथ ही रहें लेकिन अब्बा हुजूर ने हिंदुस्तान के शहंशाह का साथ छोड़ कर हुमायूं का साथ दिया था.’’

अपने पति को शायद ही कभी इतने भावावेश में देखा होगा बेगम ने. अरबी, फारसी, तुर्की, संस्कृत और हिंदी भाषाओं पर समान अधिकार रखने वाले रहीम बड़े गंभीर व्यक्ति थे.

बेगम बोलीं, ‘‘हां, मेरे सरताज, मुझे तो यह भी पता है कि जब बादशाह अकबर गद्दी पर बैठे तो उन का सदर मुकाम सरहिंद था, क्योंकि दिल्ली और आगरा पर अफगानों की तलवार मंडरा रही थी. इस मुसीबतजदा बादशाह को हेमू से निजात अब्बा हुजूर ने ही दिलाई थी. यही नहीं अब्बा हुजूर ने बादशाह की हिचकिचाहट के बावजूद निहत्थे हेमू को मार कर और सिकंदर शूरी से समर्पण करवा कर इस बड़ी सल्तनत की नींव डाली थी.’’

अबुल फजल भी अकबरनामा में स्वीकारते हैं, ‘‘बैरमखां वास्तव में सज्जन था और उस में उत्कृष्ट गुण थे. वस्तुत: हुमायूं और अकबर दोनों ही सिंहासन प्राप्ति के लिए बैरमखां के ऋणी थे.’’

खानखाना के चेहरे पर फिर वही बेबस हंसी खेल गई, ‘‘क्या अब्बा उस दर्दनाक मौत के हकदार थे जो उन्हें पाटन में मुहम्मदखां के हाथों मिली? बोलिए बेगम, क्या मेरा डर नाजायज है?’’ उन्हें पिता की स्वामिभक्ति और बदले में मिला अपमान, धोखा, मौत आज बहुत विचलित कर रहा था. वह तो वैसे भी बड़े, नेक, ज्ञानी और नम्र थे. उन के बारे में मशहूर है कि वह दान करते समय अपनी नजरें नीचे रखते थे. कारण पूछने पर उत्तर देते-

‘‘देनदार कोई और है, भेजत है दिन रैन,

लोग भरम हम पर करें, ताते नीचे नैन.’’

ऐसे रहीम खानखाना आज महाराणा को कुचलने के अभियान पर हैं. अब जो भी हो, काम तो करना ही है यह सोच कर उन्होंने कहा, ‘‘बेगम, रात बहुत हो गई है. आप सो जाएं, कल सुबह मैं फौज के साथ मुहिम पर निकलूंगा. आप सब हिफाजत से रहें इस का मैं ने पक्का बंदोबस्त कर दिया है. आप किसी भी तरह की फिक्र न करें.’’

सुबह खानखाना मेवाड़ के भीतरी भाग की खाक छानने के लिए कूच कर गए. उन का मुख्य लक्ष्य था महाराणा को बांधना, विवश करना. दिन बीत चुके थे, लेकिन इस जंगली चीते का कुछ भी अतापता नहीं लग रहा था. थकेहारे तंबू  में बैठे दूसरे दिन की योजना बना रहे थे तभी एक विश्वस्त गुप्तचर भागता हुआ आया.

‘‘हुजूर, गजब हो गया. शेरपुर का किला राणा ने लूट लिया, सारी रसद, हथियार सबकुछ…’’ गुप्तचर हांफता हुआ बोला.

‘‘शेरपुर का किला? क्या? रसद, हथियार और उस में रह रहे लोग, बेगम, बांदियां बच्चे?’’ रहीम खानखाना यह कह कर बिलबिला उठे. उन की आत्मा कांप उठी, आंखों के आगे अंधेरा छा गया. उन औरतों की करुण चीत्कार से उन के कान फटने लगे जिन्हें समयसमय पर मुगल सैनिकों ने रौंदा था. उन्हें याद आई 25 फरवरी, 1568 की बादशाह की चित्तौड़ विजय, जब किले में पहुंचने पर हजारों नारियों की धधकती हुई चिताग्नि ने उन का स्वागत किया था.

एक कमजोर इनसान की तरह अब्दुर्रहीम खानखाना भी मन ही मन प्रार्थना करने लगे कि प्रताप के निवास में पहुंचने से पहले उस की बेगमों को मौत आ जाए. तभी उन्हें ध्यान आया कि  जंगलों की खाक छानने वाला राणा भला हरम क्या रखता होगा. लेकिन फिर भी औरतें बरबाद तो हो ही सकती हैं.

‘‘कैसे बचाएं उन की अस्मत, यह सवाल जेहन में आते ही रहीम के मुंह से निकला, ‘‘हम तो न दीन के रहे न दुनिया के. अब करें तो क्या?’’

और तभी खानखाना गा उठे:

‘‘सुमिरों मन दृढ़ कर कै, नंदकुमार,

जो वृषभान कुंवारि के प्रान अधार.’’

वे सिसक उठे और अपने ही हाथों से चेहरा ढक कर निढाल पड़ गए कि  तभी कानों में स्वर गूंजा, ‘हुजूर, हुजूर, उठिए, आप से मिलने कोई दूत आया है. कहता है उसे महाराणा ने भेजा है.’

‘‘क्या महाराणा ने भेजा है? उसे बाइज्जत पेश करो. उस के साथ कोई भी बदसलूकी नहीं होनी चाहिए.’’

आगंतुक आया. अब्दुर्रहीम खानखाना उसे देखते रह गए. गोराचिट्टा रंग, ऊंचा कद, मजबूत काठी. चेहरे पर ऐसा रुआब जो राजाओं के चेहरे पर होता है. वह उसे देख कर हैरान रह गए और सोचने लगे, दूत ऐसा है तो राणा खुद कैसा होगा? लेकिन प्रकट में पूछा, ‘‘कहिए, क्या खिदमत करें आप की?’’

युवक की रोबीली आवाज गूंज उठी, ‘‘सूबेदार साहब, आप मेरी खिदमत क्या करेंगे. मैं अकेले में आप से कुछ बात करना चाहता हूं, अगर आप चाहें तो.’’

रहीम ने हाथ उठाया तो सिपाही बाहर चले गए. उन्होंने कहा, ‘अब आप कहिए?’

आगंतुक का गंभीर स्वर फूटा, ‘‘मैं एकलिंग महाराज के दीवान महाराणा प्रताप का एक सेवक हूं. उन्होंने ही मुझे आप के पास भेजा है.’’

‘‘हांहां कहिए, हमें उन की सभी शर्तें मंजूर होंगी,’’ अजमेर के सूबेदार अपने धड़कते दिल पर काबू रख कर बोले, ‘‘बस, एक बार राणा बादशाह सलामत के हुजूर में चल पड़ें और दरबार में उन्हें कोर्निश कर लें फिर मेवाड़ के जो हिस्से छीन लिए गए हैं वे सभी उन्हें वापस मिल जाएंगे.’’

‘‘कोर्निश, हांड़मांस के उस मामूली इनसान को. वह है क्या? एक आक्रमणकारी की अत्याचारी औलाद. सूबेदार साहब, वह आप का बादशाह होगा. हमारे राणा का तो वह बस, एक प्रतिद्वंद्वी है.’’

अब्दुर्रहीम खानखाना का हाथ म्यान पर गया तो उस युवक का खनकदार स्वर उभरा, ‘‘सूबेदार साहब, तैश मत खाइए. पहले पूरी बात सुनिए. राजनीति से ऊपर उठिए. मैं किसी और उद्देश्य से आया हूं.’’

खानखाना बोले, ‘‘कहिए, क्या चाहते हैं आप के राणा हम से?’’

‘‘कुछ देना चाहते हैं आप को. गलती से आप के बच्चे, बेगमें बंदी बना ली गई हैं, उन्हें हमारे राणा लौटाना चाहते हैं, बस.’’

ऐसे होते हैं राजपूत. वे हैरान थे. फिर मिर्जा राजा क्या राजपूत नहीं? उन का तो ऐसा किरदार नहीं. क्या वाकई उन्हें काफिर कहा जा सकता है? सोचतेसोचते भी खानखाना प्रकट में बोले, ‘‘तो भला इस में पूछना क्या? यह तो मेहरबानी है हम पर.’’

‘‘नहीं, यह तभी संभव हो सकता है जब आप हमारा साथ दें. पालकियां आएंगी लेकिन उन्हें रास्ते में कोई रोकेगा नहीं, टोकेगा नहीं. वे सीधे आप के पास आएंगी. मंजूर है तो बोलिए.’’

खानखाना सोच में पड़ गए. उन्हें अलाउद्दीन खिलजी का किस्सा याद आया. डोलियां चित्तौड़ की ही तो थीं. कहीं यह शातिर प्रताप की कोई चाल तो नहीं. समझ में नहीं आता क्या करें. दिमाग का कहना है इस नौजवान को अभी बांध लो, मन कहता है, ‘इस की बात मानो.’ तभी वह नौजवान हंस पड़ा.

‘‘सोच में पड़ गए सूबेदार साहब? यही न कि कहीं पद्मिणी बाइसा की डोलियों की तरह इन में से भी सिपाही न निकल पड़ें? तो वह धोखे के जवाब का धोखा था. यह तो अपनी इच्छा से महाराणा आप पर मेहरबानी करना चाहते हैं. इस में भला धोखा क्यों? देख लीजिए, हमारी सचाई पर भरोसा हो तो ठीक है, वरना…निकल तो मैं जाऊंगा.’’

‘‘ठहरो, मुझे मंजूर है,’’ दिमाग पर मन हावी हो गया और इस आत्मविश्वासी युवक पर भरोसा करने का मन कर आया खानखाना का.

नियत दिन डोलियां आईं. आगेआगे घोड़े पर वही युवक सवार था. खानखाना के सिपाहियों के हाथ म्यान पर, लेकिन सब चुप. युवक उन सभी डोलियों के साथ अंदर दाखिल हुआ. पहले बांदियां निकलीं, फिर उन्होंने पालकियों के परदे हटाए और बेगमों और बच्चों को बाहर निकाला. सब से अंत में बड़ी बेगम बाहर आईं. उन्हें देख कर खानखाना की सांस में सांस आई जो अब तक जाने कहां अटकी थी. यह सोच कर कि क्या पता किस डोली में से राणा निकल कर टूट पडे़ं, किस में से कुंवर अमर सिंह छलांग लगा दें.

युवक बाहर जाने को मुड़ा. रहीम ने टोका, ‘‘रुको नौजवान, तुम ने मुझ पर इतना बड़ा एहसान किया है कि मैं उस का बदला तो नहीं चुका सकता. लेकिन फिर भी…’’ यह कहते हुए खानखाना ने अपने गले से वह नौलखा हार निकाला जो बादशाह ने उन्हें सुलतान मुजफ्फर को परास्त करने पर दिया था.

बेगम हड़बड़ाई, ‘‘हांहां, क्या गजब कर रहे हैं आप. जानते हैं ये कौन हैं?’ ये हैं राजकुंवर अमरसिंह. इन की खातिर कीजिए. ये इनाम लेंगे भला आप से?’’

रहीम को काटो तो खून नहीं. वह कुंवर को बस, देखते ही रह गए.

बड़ी बेगम ने हाथ पकड़ कर अमर को तख्त पर बिठाया और शौहर से बोलीं, ‘‘ये सच्चे राजपूत हैं. ये किसी की बहूबेटी की इज्जत से नहीं खेलते. उन्हें दरिंदों से बचाते हैं. मेरी जिंदगी का तो बेड़ा पार हो गया हुजूर. मैं ने इन के अब्बा हुजूर के भी दर्शन कर लिए.’’

फिर कुछ सोचते हुए बड़ी बेगम बोली, ‘‘उस…आप के अकबर बादशाह के दुश्मन ने कहा कि हमारी दुश्मनी बादशाह से है उस के मातहतों से नहीं.

‘‘जानते हैं, एक दिन इन के अब्बा हुजूर हमारे तंबू के बाहर खडे़ हो कर अंदर आने की इजाजत मांग रहे थे. मैं हैरान, परेशान, बदहवास सी भागी और उन के कदमों पर गिर कर गिड़गिड़ाने लगी. बेखयाली में मैं बेपरदा हो चुकी थी, लेकिन उस इनसान ने हमारे कंधे पर अपना दुशाला डाला और बोले, ‘‘मां, आप का स्थान चरणों में नहीं, सिर माथे पर है. अमर, इन सभी माताबहनों को सम्मान से खानखाना के पास पहुंचा आओ. रास्ते में कोई कष्ट न हो.’’

बड़ी बेगम उठीं, लोहबान जलाया और अमर सिंह की आरती उतारते हुए बोलीं, ‘‘बेटा, आज से तुम मेरे बेटे हो. मुझे अब फतह और शिकस्त से कोई वास्ता नहीं. जब तक जिंदा हूं तुम्हारी सलामती की दुआ मांगती रहूंगी. कोई भी तुम्हारा बाल बांका नहीं कर सकेगा, अकबर बादशाह हों या खुद मेरे ये शौहर.’’

खानखाना की आंखें भर आईं, गला रुंध गया. रोकतेरोकते भी आंसू ढुलक ही पडे़. इस क्षण वे न एक सूबेदार थे, न बादशाह के 5 हजारी मनसबदार. वह थे एक आम आदमी, एक कोमल हृदय कवि. उन्हें लगा कि प्रताप ने उन्हें ही नहीं, अकबर बादशाह को भी करारी शिकस्त दी है और यह नौजवान, जो उन की बेगम को नमस्कार कर के, खेमे से बाहर निकल रहा है, क्या कोई इनसान है? फिर खुद… उन के मुंह से निकल पड़ा,

‘‘तै रहीम मन आपनो, कीन्हों चारु चकोर,

निसि वासर लागो रहे, कृष्णचंद्र की ओर.’’

Social Story : आखिर कितना घूरोगे – गांव से दिल्ली आई वैशाली के साथ क्या हुआ?

Social Story : कालीकजरारी, बड़ीबड़ी मृगनयनी आंखें किस को खूबसूरत नहीं लगतीं. लेकिन उन से ज्यादा खूबसूरत होते हैं उन आंखों में बसे सपने, कुछ बनने के, कुछ करने के. सपने लड़कालड़की देख कर नहीं आते. छोटाबड़ा शहर देख कर नहीं आते.

फिर भी, अकसर छोटे शहर की लडकियां उन सपनों को किसी बड़े संदूक में छिपा लेती हैं. उस संदूक का नाम होता है ‘कल’. कारण, वही पुराना. अभी हमारे देश के छोटे शहरों और कसबों में सोच बदली कहां है? घर की इज्ज़त हैं लड़कियां. जल्दी शादी कर उन्हें उन के घर भेजना है जहां की अमानत बना कर मायके में पाली जा रही है. इसलिए लड़कियों के सपने उस कभी न खुलने वाले संदूक में उन के साथसाथ ससुराल और अर्थी तक की यात्रा करते हैं.

जो लड़कियां बचपन में ही खोल देती हैं उस संदूक को, उन के सपने छिटक जाते हैं. इस से पहले कि वे छिटके सपनों को बिन पाएं, बड़ी ही निर्ममता से वे कुचल दिए जाते हैं, उन लड़कियों के अपनों द्वारा, समाज द्वारा.

कुछ ही होती हैं जो सपनों की पताका थाम कर आगे बढती हैं. उन की राह आसान नहीं होती. बारबार उन की स्त्रीदेह उन की राह में बाधक महसूस है. अपने सपनों को अपनी शर्त पर जीने के लिए उन्हें चट्टान बन कर टकराना होता है हर मुश्किल से. ऐसी ही एक लड़की है वैशाली.

हर शहर की एक धड़कन होती है. वह वहां के निवासियों की सामूहिक सोच से बनती है. दिल्लीमुंबई में सब पैसे के पीछे भागते मिलेंगे. एक मिनट भी जाया करना जैसे अपराध है. छोटे शहरों में इत्मीनान दिखता है. ‘हां भैया, कैसे हो?’ के साथ छोटे शहरों में हालचाल पूछने में ही लोग 2 घंटे लगा देते हैं.

देवास की हवाओं में जीवन की सादगी और भोलेपन की धूप की खुशबु मिली हुई थी. बाजारवाद ने पूरे देश के छोटेबड़े शहरों में अपनी जड़ें जमा ली थीं. लेकिन देवास में अभी भी वह शैशव अवस्था में था. कहने का मतलब यह है कि शहर में आए बाजारवाद का असर वैशाली पर भी था. लिबरलिज्म यानी बाजारवाद की हवाओं ने ही तो बेहिचक इधरउधर घूमतीफिरती वैशाली को बेफिक्र बना दिया था. उम्र हर साल एक सीढ़ी चढ़ जाती. पर बचपना है कि दामन छुड़ाने का नाम ही नहीं लेता.

वैसे भी, मांबाप की एकलौती बेटी होने के कारण वह बहुत लाड़प्यार में पली थी. जो इच्छा करती, झट से पूरी कर दी जाती. यों छोटीमोटी इच्छाओं के आलावा एक इच्छा जो वैशाली बचपन से अपने मन में पाल रही थी वह थी आत्मनिर्भर होने की. वह जानती थी कि इस मामले में मातापिता को मनाना जरा कठिन है. पर उस ने मेहनत और उम्मीद नहीं छोड़ी. वह हर साल अपने स्कूल में अच्छे नंबर ला कर पास होती रही. मातापिता की इच्छा थी कि पढ़लिख जाए, तो जल्दी से ब्याह कर दें और गंगा नहाएं.

एक दिन उस ने मातापिता के सामने अपनी इच्छा जाहिर कर दी कि वह नौकरी कर के अपने पंखों को विस्तार देना चाहती है. शादी उस के बाद ही. काफी देर मंथन करने के बाद आखिरकार उन्होंने इजाजत दे दी. वैशाली तैयारी में जुट गई. आखिरकार उस की मेहनत रंग लाई और दिल्ली की एक बड़ी कंपनी का अपौइंटमैंट लैटर उस के हाथ आ गया.

वैशाली की ख़ुशी जैसे घर की हवाओं में अगरबत्ती की खुशबू की तरह महकने लगी. यह अपौइंटमैंट लैटर थोड़ी ही था, उस के पंखों को परवाज पर लगी नीली स्याही की मुहर थी. मातापिता भी उस की ख़ुशी में शामिल थे, पर अंदरअंदर डर था कि इतनी दूर दिल्ली में अकेली कैसे रहेगी. आसपास के लोगों ने डराया भी बहुत… ‘दिल्ली है, भाई दिल्ली, लड़कियां सुरक्षित नहीं हैं. जरा देखभाल के रहने का इंतजाम कराना.’ वे खुद भी तो आएदिन अख़बारों में दिल्ली की खबरें पढ़ते रहते थे. यह अलग बात है कि छोटेबड़े कौन से शहर लड़कियों के लिए सुरक्षित हैं, पर खबर तो दिल्ली की ही बनती है.

दिल्ली देश की ही नहीं, खबरों की भी राजधानी है. आम आदमी तो खबरें पढ़पढ़ कर वैसे घबराया रहता है जैसे सारे अपराध दिल्ली में ही होते हों. जितना हो सकता था उन्होंने वैशाली को ऊंचनीच समझाई. फिर भी डर था कि जाने का नाम नहीं ले रहा था.

दिल्ली में निवास करने वाले अड़ोसपड़ोस के दूरदराज के रिश्तेदारों के पते लिए जाने लगे. न जाने कितने नंबर इधरउधर के परिचितों के ले कर वैशाली के मोबाइल की कांटैक्ट लिस्ट में जोड़े जाने लगे. तसल्ली इतनी थी कि किसी गाढ़े वक्त में बेटी फोन मिला देगी तो कोई मना थोड़ी न कर देगा. आखिर इतनी इंसानियत तो बची ही है जमाने में. उन्हें क्या पता कि दिल्ली घड़ी की नोंक पर चलती है.

मां ने डब्बाभर कर लड्डू व मठरी रख दिए साथ में. कुछ नहीं खा पाएगी, तो भी ये लड्डू, मठरी, सत्तू तो साथ देगा ही. दिल लाख आगेपीछे कर रहा हो, पर बेटी की इच्छा तो पूरी करनी ही थी. लिहाजा, कदम चल पड़े दिल्ली की ओर.

औफिस के श्याम ने ‘ओय’ होटल बुक कर दिया था. यह सस्ता होता है, दोचार दिन तो टिकना ही पड़ेगा, यही ठीक रहेगा. वैशाली के लिए गर्ल्स पीजी की ढूंढा जाने लगा. आखिरकार, लक्ष्मीनगर में एक गर्ल्स पीजी किराए पर ले लिया था. खानानाश्ता मिल ही जाएगा. औफिस, बस, 2 मेट्रो स्टेशन दूर था. यहां सब लड़कियां ही थीं. पिता बेफिक्र हुए कि उन की लड़की सुरक्षित है.

वैशाली अपना रूम एक और लड़की से शेयर करती थी. उस का नाम था मंजुलिका. मंजुलिका वेस्ट बंगाल से थी. जहां वैशाली दबीसिकुड़ी सी थी, मंजुलिका तेजतर्रार, हाईफाई. कई साल से दिल्ली में रह रही थी. चाहे आप इसे आबोहवा कहें या वक्त की जरूरत, दिल्ली की ख़ास बात है कि वह लड़कियों को अपनी बात मजबूती से रखना सिखा ही देती है. मंडे को जौइनिंग थी. मातापिता जा चुके थे.

अब शनिवार, इतवार पीजी में ही काटने थे. बड़ा अजीब लग रहा था इतनी तेजतर्रार लड़की के साथ दोस्ती करना, पर जरूरत ने दोनों में दोस्ती करा दी. शुरुआत मंजुला ने ही की. पर जब उस ने अपने लोक के किस्सों का पिटारा खोला, तो खुलता ही चला गया. मंजुलिका रस लेले कर सुनती रही.

उस के लिए यह एक अजीब दुनिया थी. अपना लोक याद आने लगा जहां लोगों के पास इतना समय होता था कि कभी भी, कहीं भी महफिलें जम जातीं. लोग चाचा, मामा, फूफा होते… मैडम और सर नहीं. देर तक बातें करने के बाद दोनों रात की श्यामल चादर ओढ़ कर सो गईं.

औफिस का पहला दिन था. वैशाली ने जींस और लूज शर्ट पहन ली. गीले बालों पर कंघी करती हुई वह बाथरूम से बाहर निकली ही थी कि मंजुलिका ने सीटी बजाते हुए कहा, ‘पटाखा लग रही हो, क्या फिगर है तुम्हारी.’ वह हंस दी. वैसे, जींसटौप तो कभीकभी देवास में भी पहना करती थी वह. कभी ऐसा कुछ अटपटा महसूस ही नहीं हुआ था. उस ने ध्यान ही कहां दिया था अपनी फिगर पर.

उस का ऊपर का हिस्सा कुछ ज्यादा ही भारी है, यह उसे आज महसूस हुआ जब औफिस पहुंचने पर बौस सन्मुख ने उसे अपने चैंबर में बुलाया और उस से बात करते हुए पूरे 2 मिनट तक उस के ऊपरी भाग को घूरते रहे. वैशाली को अजीब सी लिजलिजी सी फीलिंग हुई. जैसे सैकड़ों चीटियां उस के शरीर को काट रही हों. उस ने जोर से खांसा. बौस को जैसे होश आया हो. उसे फ़ाइल पकड़ा कर काम करने को कहा.

फ़ाइल ले कर वैशाली अपनी टेबल पर आ गई यी संज्ञाशून्य सी. देवास में उस ने लफंगे टाइप के लड़के देखे थे, पर शायद हर समय मां या पिताजी साथ रहने या फिर सड़क पर घूमने वाले बड़ों का लिहाज था, इसलिए किसी की इतनी हिम्मत नहीं हुई थी. उफ़, कैसे टिकेगी वह यहां? जब शीशे के पार केबिन में बैठे हुए उस ने सन्मुख को देखा था तो पिता की ही तरह लगे थे वे. 50 वर्ष के आसपास की उम्र, हलके सफेद बाल, शालीन सा चेहरा. बड़ा सुकून हुआ था कि बौस के रूप में उसे पिता का संरक्षण मिल गया है. लेकिन, क्यों एक पुरुष अपनी बेटी की उम्र की लड़कियों के लिए भी, बस, पुरुष ही होता है. अपने विचारों को झटक कर वैशाली ने अपना ध्यान काम पर लगाने का मन बनाया.

आखिर वह यहां काम करने ही तो आई है. कुछ बनने आई है. सारी मेहनत सारा संघर्ष इसीलिए तो था. वह हिम्मत से काम लेगी और अपना पूरा ध्यान अपने सपनों को पूरा करने में लगाएगी. पर जितनी बार भी उसे बौस के औफिस में जाना पड़ता, उस का संकल्प हिल जाता. अब तो बौस और ढीठ होते जा रहे थे. उस के खांसने का भी उन पर कोई असर नहीं पड़ रहा था.

पीजी में लौटने के बाद वैशाली खुद को बहुत समझाती रही कि उसे, बस, अपने सपनों पर ध्यान देना है. पर उस लिजलिजी एहसास का वह क्या करे जो उसे अपनी देह पर महसूस होता, चींटियां सी चुभतीं, घिन आती. घंटों साबुन रगड़ कर नहाई, पर वह फीलिंग निकलने का नाम ही नहीं ले रही थी. काश, सारे मैल साबुन से धोए जा सकते. आज उसे अपने शरीर से नफरत हो रही थी. पर क्यों? उस की तो कोई गलती नहीं थी. अफ़सोस, यह एक दिन का किस्सा नहीं था. आखिर, रोजरोज उन काट खाने वाली नज़रों से वह खुद को कैसे बचाती.

हफ्तेभर में वैशाली जींसटौप छोड़ कर सलवारकुरते में आ गई. 10 दिनों तक दुपट्टा पूरा खोल कर ओढ़ कर आती रही. 15वें दिन तक दुप्पट्टे में इधरउधर कई सेफ्टीपिन लगाने लगी. पर बौस की एक्सरे नज़रें हर दुपट्टे, हर सेफ्टीपिन के पार पहुंच ही जातीं. आखिर वह इस से ज्यादा कर ही क्या सकती थी? वह समझ नहीं पा रही थी कि इस समस्या का सामना कैसे करे. एकएक दिन कर के एक महीना बीता. पहली पगार उस के हाथ में थी. पर वह ख़ुशी नहीं थी जिस की उस ने कल्पना की थी. मंजुलिका ने टोका, “आज तो पगार मिली है, पहली पगार. आज तो पार्टी बनती है.” वैशाली खुद को रोक नहीं पाई, जितना दिल में भरा था, सब उड़ेल दिया.

मंजुलिका दांत भींच कर गुस्से में बोली, “सा SSS… की मांबहन नहीं हैं क्या? उन्हें जा के घूरे, जितना घूरना है. और भी कुछ हरकत करता है क्या ?”

नहीं, बस, गंदे तरीके से घूरता है. ऐसा लगता है कि… कुछ कहने के लिए शब्द खोजने में असमर्थ वैशाली की आंखें क्रोध, नफरत और दुख से डबडबा गईं.

“अब समझी, तू जींसटौप से सूट कर क्यों आई यी. अरे, तेरी गलती थोड़ी न है. देख, तब भी उस का घूरना तो बंद हुआ नहीं. कहां तक सोचेगी. इग्नोर कर ऐसे घुरुओं को. हम लोग कहां परवा करते हैं. जो मन आया, पहनते हैं, ड्रैस, शौर्ट्स, जैगिंग… अरे जब ऐसे लोगों की आंखों में एक्सरे मशीन फिट रहती ही है तो वे कपड़ों के पार देख ही लेंगे. सो मनपसंद कपड़ों के लिए क्यों मन मारें? जरूरी है हम अपना काम करें, परवा न करें. वह कहावत सुनी है ना, ‘हाथी अपने रास्ते चलते हैं और कुत्ते भूंकते रहते हैं’. अब आगे बढ़ना है तो इन सब की आदत तो डालनी ही होगी. ठंड रख, कुछ दिनों बाद नया शिकार ढूंढ लेंगे,” मंजुलिका किसी अनुभवी बुजुर्ग की तरह उस को शांत करने की कोशिश करने लगी.

“मैं सोच रही हूं, नौकरी बदल लूं,” वैशाली ने धीरे से कहा. उस की बात पर मंजुलिका ने ठहाका लगा कर कहा, “नौकरी बदल कर जहां जाएगी वहां भी से ही घूरने वाले मिलेंगे. बस, नाम और शक्ल अलग होगी. कहा न, इग्नोर कर.”

“इग्नोर करने के अलावा भी कोई तो तरीका होगा न…” वैशाली अपनी बात पूरी कर भी नहीं पाई कि मां का फोन आ गया. मांबाबूजी उस की पहली तनख्वाह की ख़ुशी को उस के साथ बांटना चाहते थे. मां चहक कर बता रही थीं कि उन्होंने आसपड़ोस में मिठाई बांटी है. बाबूजी ने अपने औफिस में सब को समोसा, बर्फी की दावत दी. सब बधाई दे रहे थे कि उन की बहादुर बेटी अकेले अपने सपनों के लिए संघर्ष कर रही है. आखिरकार, महिला सशक्तीकरण में उन का भी कुछ योगदान है.

“ओह मां, ओह पिताजी”, इतना ही कह पाई पर अंदर तक भीग गई वह इन स्नेहभरे शब्दों से. सारी रात वैशाली रोती रही. कहां उस के मातापिता उस पर इतना गर्व कर रहे हैं और कहां वह नौकरी छोड़ कर वापस जाने की तैयारी कर रही है, वह भी किसी और के अपराध की सजा खुद को देते हुए. मंजुलिका कहती है, इग्नोर कर. वही तो कर रही थी, वही तो हर लड़की करती है बचपन से ले कर बुढापे तक. पर यह तो समस्या का हल नहीं है. इस से वह लिजलिजी वाली फीलिंग नहीं जाती.

पुरुष को जनने वाली स्त्री, जिस की कोख का सहारा सभी ढूंढते हैं, को अपने ही शरीर के प्रति क्यों अपराधबोध हो. सारी रात वैशाली सोचती रही. अगले दिन लंच पर उस ने अपनी बात साथ में काम करने वाली निधि को बताई. फिर तो जैसे बौस की इस हरकत का पिटारा ही खुल गया. कौन सी ऐसी महिला थी जो उस की इस हरकत से परेशान न होती हो.

निधि ने कहा, “हाथ पकडे तो तमाचा भी लगा दूं, पर इस में क्या करूं? मुकर जाएगा. समस्या विकट थी. बात केवल सन्मुख की नहीं थी. ऐसे लोग नाम और रूप बदल कर हर औफिस में हैं, हर जगह हैं. आखिर, इन का इलाज क्या हो? और इग्नोर भी कब तक? नहीं वह जरूर इस समस्या का कोई न कोई हल खोज कर रहेगी.

घर आने के बाद वैशाली का मन नहीं लग रहा था. ड्राइंग फ़ाइल निकाल कर स्केचिंग करने लगी. यही तो करती है वह हमेशा जब मन उदास होता है. बाहर बारिश हो रही थी और अंदर वह आग उगल रही थी. तभी मामा के लड़के का फोन आ गया. गाँव में रहने वाला 10 साल का ममेरा भाई जीवन उस का बहुत लाडला रहा है अकसर फोन कर अपने किस्से सुनाता रहता है, दीदी यह बात, दीदी वह बात… और शुरू हो जाते दोनों के ठहाके.

आज भी उस के पास एक किस्सा था, “दीदी, सुलभ शौचालय बनने के बाद भी गाँव के लोग संडास का इस्तेमाल नहीं करते. बस, यहांवहां जहां भी जगह मिल्रती है, बैठ जाते हैं. टीवी में विज्ञापन देख कर हम घंटी खरीद लाए. अब गाँव में घूमते हुए जहां कोई फारिग होता मिल जाता, तो हौ कह कर घंटी बजा देते हैं. सच्ची दीदी, बहुत खिसियाता है. कई बार कपड़े समेट कर उठ खड़ा होता है. कई बार पिताजी से शिकायत भी होती है. अकेले मिलने पर डांट भी देते हैं. पर हम भी सुधरते नहीं हैं और उन की झेंप देखने लायक होती है. गलत काम का एहसास होता है. देखना, एक दिन ये लोग सब शौचालय इस्तेमाल करने लगेंगे.” बहुत देर तक वह इस बात पर हंसती रही, फिर न जाने कब नींद ने उसे आगोश में ले लिया. आंख सीधे सुबह ही खुली. घडी में देखा, देर हो रही थी. सीधे बाथरूम की तरफ भागी.

आज उस ने जींसटौप ही पहना. बढ़ती धडकनों को काबू कर पूरी हिम्मत के साथ औफिस गई और अपनी टेबल पर बैठ फाइलें निबटाने लगी. तभी बौस ने उसे केबिन में बुलाया. उसे देख उन के चेहरे पर मुसकराहट तैर गई. आंखें अपना काम करने लगीं.

“एक मिनट सर,” वैशाली ने जोर से कहा. सन्मुख हड़बड़ा कर उस के चेहरे की ओर देखने लगे. वैशाली ने फिर से अपनी बात पर वजन देते हुए कहा, “एक मिनट सर, मैं यहां बैठ जाती हूं, फिर 5 मिनट तक आप मुझे जितना चाहिए घूरिए और यह हर सुबह का नियम बना लीजिए. पर, बस एक बार… ताकि जितनी भी लिजलिजी फीलिंग मुझे होनी है वह एक बार हो जाए. उस के बाद जब अपनी सीट पर जा कर मैं काम करना शुरू करूं तो मुझे यह डर न लगे कि अभी फिर आप बुलाएंगे, फिर घूरेंगे और मैं फिर उसी गंदी फीलिंग से और अपने शरीर के प्रति उसी अपराधबोध से गुजरूंगी.

“जिस दिन से औफिस में आई हूं, यह सब झेल रही हूं. आप की मांबहन नहीं हैं क्या? जितना घूरना है उन्हें घूरो. मैं जानती हूं कि आप नहीं तो कोई और आप की मांबहन को घूर रहा होगा. अपनी मांबहन, पत्नी, बेटी सब से कह दीजिएगा कि वे भी घूरनेवालों से घूरने का टाइम फिक्स कर दें. दोनों का समय और तकलीफ बचेगी.

“जी सर, हमारा भी टाइम फिक्स कर दीजिए,” वैशाली के पीछे आ कर खड़ी हुई निधि व अन्य कलीग्स ने एकसाथ कहा. वैशाली अंदर आते समय जानबूझ कर गेट खुला छोड़ आई थी. और उस के पीछे थी इस साहस पर ताली बजाते पुरुष कर्मचारियों की पंक्ति.

बौस शर्म से पानीपानी हो रहे थे.

और उस के बाद सन्मुख किसी महिला को घूरते हुए नहीं पाए गए.

लेखिका- वंदना बाजपेयी

ओरिएंट इकोटेक न्यू फैन 

ओरिएंट इलेक्ट्रिक का ईकोटेक न्यू फैन स्टाइलिश और टिकाऊ है जो गर्मियों में जबरदस्त ठंडी हवा देता है. ये बीएलडीसी टेक्नोलॉजी वाला पंखा सिर्फ 28 वाट बिजली खपत करता है। यानी नॉर्मल पंखों के मुकाबले कम बिजली बिल और इन्वर्टर पर भी दोगुना टाइम तक चलेगा। इसके जंगरोधी एल्यूमिनियम ब्लेड्स इसे मजबूत और टिकाऊ बनाते हैं. 1200 मिमी का स्वीप साइज और 220 सीएमएम एयर डिलीवरी मतलब कमरे के हर कोने तक ठंडी हवा पहुंचेगी।  मैट ब्राउन, ग्लेशियर ग्रे और क्लासिक व्हाइट जैसे खूबसूरत कलर ऑप्शन हैं  और 3 साल की वारंटी भी.

Skin Problems : सनस्क्रीन की चिपचिपाहट से परेशान हो गई हूं, क्या करूंं?

 Skin Problems :  अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है, तो ये लेख अंत तक पढ़ें

सवाल-

मैं दिल्ली में सर्विस करती हूं. गरमियों में मेरा रंग बहुत ही काला हो जाता है. मुझे समझ नहीं आता कि मुझे कौन सा चाहिए और किस एसपीएफ की सनस्क्रीन लगाना? मैं जो भी सनस्क्रीन लगाती हूं मुझे पसीना आने लग जाता है और इसे मैं लगाना बंद कर देती हूं.

जवाब-

आप को दिल्ली में रहते हुए 35-40 एसपीएफ का सनस्क्रीन लगाना चाहिए. आप किसी भी अच्छी क्वालिटी का सनस्क्रीन खरीद सकती हैं बस लगाने का तरीका सही होना चाहिए. घर से निकलने से 10 मिनट पहले सनस्क्रीन लगा लें. हर सनस्क्रीन से पसीना आता ही है इसलिए पसीना आने दें. परेशान न हों. हैंकी या टिशू पेपर से फेस पर थपथपा दें और पसीने को सुखा लें. दोबारा पसीना नहीं आएगा. इस के बाद आप ऐसे भी बाहर जा सकती हैं. इस के ऊपर मेकअप करना चाहे तो मेकअप भी कर सकती हैं.

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सनस्क्रीन को सनब्लौक क्रीम, सनटैन लोशन, सनबर्न क्रीम, सनक्रीम भी कहते हैं. यह लोशन, स्प्रे या जैल रूप में हो सकता है. यह सूर्य की अल्ट्रावायलेट किरणों को अवशोषित या परावर्तित कर के सनबर्न से सुरक्षा उपलब्ध कराता है. जो महिलाएं सनस्क्रीन का उपयोग नहीं करती हैं उन्हें त्वचा का कैंसर होने की आशंका अधिक होती है. नियमित रूप से सनस्क्रीन लगाने से झुर्रियां कम और देर से पड़ती हैं. जिन की त्वचा सूर्य के प्रकाश के प्रति संवेदनशील होती है उन्हें रोज सनस्क्रीन लगाना चाहिए.

क्या है एसपीएफ

एसपीएफ अल्ट्रावायलेट किरणों से सनस्क्रीन द्वारा उपलब्ध कराई जाने वाली सुरक्षा को मापता है. लेकिन एसपीएफ यह नहीं मापता है कि सनस्क्रीन कितने बेहतर तरीके से अल्ट्रावायलेट किरणों से सुरक्षा करेगा. त्वचारोग विशेषज्ञ एसपीएफ 15 या एसपीएफ 30 लगाने की सलाह देते हैं. ध्यान रखें, अधिक एसपीएफ अधिक सुरक्षा उपलब्ध नहीं कराता है.

सनस्क्रीन न लगाने के नुकसान

सनस्क्रीन हर मौसम में लगाना चाहिए. समर में इसे लगाना बहुत ही जरूरी है. इस सीजन को त्वचा के रोगों का सीजन कहा जाता है. इस मौसम में समर रैशेज, फोटो डर्माइटिस, पसीना अधिक आना और फंगस व बैक्टीरिया के संक्रमण से अधिकतर महिलाएं परेशान रहती हैं. समर में थोड़ी देर भी धूप में रहने से सनटैन और सनबर्न की समस्या हो जाती है. टैनिंग इस मौसम में त्वचा की सब से सामान्य समस्या है. अत: घर से बाहर निकलने से पहले अच्छी गुणवत्ता वाला सनस्क्रीन जरूर इस्तेमाल करें.

जो महिलाएं सनस्क्रीन का उपयोग नहीं करती हैं उन की त्वचा समय से पहले बुढ़ा जाती है, उस पर झुर्रियां पड़ जाती हैं. यूवी किरणों का अत्यधिक ऐक्सपोजर त्वचा के कैंसर का कारण बन सकता है.

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Situationship: दिल देने का नया ट्रैंड

Situationship: ‘कसमें वादे प्यार वफा सब बाते हैं बातों का क्या,,,’ फिल्म ‘उपकार’ का यह गीत ही सिचुएशनशिप रिलेशन है. इस प्यार को क्या नाम दूं, यह कहने और सोचने की जरूरत को ख़त्म करती है सिचुएशनशिप रिलेशन. इस में दो लोग एकदूसरे की जरूरत को पूरा करने के लिए साथ में रहते हैं. इस में दोनों एकदूसरे के साथ घूमने जा सकते हैं, लंच या डिनर कर सकते हैं. लेकिन इस रिश्ते को कोई नाम नहीं दिया जाता है.

यहां आप बिना शर्त एकदूसरे के साथ हैं वह भी तब तक, जब तक आप का मन चाहे और जब मन भर जाए तो दूसरे पार्टनर के प्रति आप की कोई जवाबदेही नहीं होती. वे इस रिश्ते के बारे में न तो किसी को बताना चाहते और न ही इस को कोई नाम देना चाहते हैं. आइए जानें कैसा होता है यह सिचुएशनशिप रिलेशन.

एक समय ऐसा था जब लोग प्यार के लिए बगावत तो क्या, मरनेमारने पर आ जाते थे और उस के लिए अपना घरबार सब छोड़ देते थे जैसे कि ‘मैं ने प्यार किया’, ‘बागी’, ‘कयामत से कयामत तक’ जैसी कई फिल्मों में दिखाया गया है. वास्तव में ये फिल्में सही माने में समाज का आईना थीं. तभी तो हीररांझा और शीरींफरहाद जैसी जोड़ियां प्रचलित हुईं.

लेकिन अब प्यार ‘यों ही नहीं हो जाता’ बल्कि सोचसमझ कर, जांचपरख कर होता/किया जाता है. आज के युवा जोड़े एकदूसरे को कोई भी कमिटमैंट करने से पहले सौ बार सोचते हैं और कुछ समय रिलेशनशिप में साथ रह कर एकदूसरे को जज करते हैं. अगर बाद में सबकुछ सही लगा तो ठीक वरना रास्ता बदलने में देर नहीं लगाते. लेकिन बाद में रास्ता बदलने पर ब्रेकअप आदि को झेलने का दम भी उन में नहीं है, इसलिए एक बीच का रास्ता निकला है जहां न ब्रेकअप हो और न ही कमिटमैंट लेकिन साथ हो. इसे ही अब हमारी नई पौध सिचुएशनशिप रिलेशन कह रही है.

यानी, रिश्ता तो है लेकिन अपने नाम के अनुरूप ही यह 2 शब्दों ‘सिचुएशनशिप’ और ‘रिलेशन’ से मिल कर बना है. यह रिश्ता सिचुएशन पर डिपैंड करता है. मतलब, यहां रिश्ता चलाने का कोई प्रैशर एकदूसरे पर नहीं होता क्योंकि दोनों का ही कोई कमिटमैंट एकदूसरे के साथ नहीं होता. इस रिश्ते में लोग रोमांस और शारीरिक जरूरतों को पूरा करने के लिए एकसाथ आते हैं.

कुछ लोग तो केवल टाइमपास के लिए भी इस रिश्ते में आ जाते हैं. इस में अलग होना बहुत आसान है. बिना किसी एक्सप्लेनेशन के आप अपने पार्टनर को छोड़ सकते हैं वह भी बिना किसी सवालजवाब के.

युवाओं को क्यों पसंद आ रहा है सिचुएशनशिप रिलेशन

इस बारे में प्रियांशु, जो कि अभी ग्रेजुएशन कर रहे हैं, का कहना है कि दरअसल, कई बार कुछ लोग अपने पुराने रिलेशनशिप में मिले धोखे या असफलता की वजह से भी इस तरह की रिलेशनशिप को पसंद करने लगते हैं.

दूसरे, ब्रेकअप के दर्द से एक बार गुजरने के बाद वह दोबारा उन परिस्थितियों में नहीं पड़ना चाहते जहां दिल टूटने जैसा कौन्सैप्ट हो. वहीं, कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अपनी लाइफ के गोल्स से भटके बिना रिलेशनशिप के फायदों को एंजौय करने के लिए इस में आ जाते हैं.

सिचुएशनशिप के फायदे

इस तरह के रिश्तों में इंटिमेसी का लैवल, एकसाथ बिताया गया समय आदि सभी अलगअलग लोगों के लिए अलगअलग होता है. इस में दो लोग केवल एकदूसरे के साथ लव रिलेशनशिप के फायदों को शेयर करने के लिए साथ होते हैं. यहां एकदूसरे के साथ कोई भी प्यारभरा वादा नहीं किया जाता.

इस रिश्ते में दोनों पार्टनरों के बीच फ्यूचर को ले कर भी कोई बात नहीं होती है. इस रिश्ते में दोनों लोग बिना किसी शर्त के एकसाथ रहते हैं और अच्छा समय बिताते हैं. सिचुएशनशिप रिलेशन में आ कर कई बार युवाओं को खुद के बारे में जाननेसमझने का मौका मिलता है. कई बार आप को अपनी प्रायोरिटीज के बारे में भी रिलेशनशिप में आने के बाद पता लगता है.

कैसे पता करें कि आप का रिलेशन सिचुएशनशिप है

इस रिलेशनशिप में पार्टनर पब्लिकप्लेस में मिलने से बचते हैं और एकदूसरे के घर पर जाना और रिलेटिव से मिलना भी अवौयड करते हैं. सोशल गैदरिंग में जाते ही अगर पार्टनर अनजान बन जाता है तो यह भी सिचुएशनशिप का ही एक लक्षण है. पार्टनर वैसे तो बहुत क्लोज है लेकिन बहुत ज्यादा इमोशनल अटैचमैंट और किसी तरह के कमिटमैंट से बच रहा है, तो यहां मामला क्लियर है कि आप सिचुएशनशिप में हैं. अगर दोनों रिश्ते को औफिशियली ऐक्सेप्ट करने से बचते हैं तो यह सिचुएशनशिप है.

सिचुएशनशिप के नुकसान

 यहां पता तो है कि कोई कमिटमैंट नहीं है लेकिन फिर भी जब मनमुताबिक चीजें नहीं होतीं तो मन में खीझ उठना स्वाभाविक है. यदि एक व्यक्ति ज्यादा इमोशनल है तो सिचुएशनशिप उस के लिए भावनात्मक उतारचढ़ाव और असुरक्षा का कारण बन सकती है.

सिचुएशनशिप के कारण कई अच्छे पार्टनर आप के हाथ से निकल सकते हैं. आप रिलेशन में हैं, इसलिए दूसरे औप्शन पर भी ध्यान नहीं देते और सारी उम्र साथ निभाने वाले अच्छे पार्टनर से कई बार हाथ धो बैठते हैं.

ध्यान से परखें क्योंकि सिचुएशनशिप कोई एक्सक्लूसिव रिश्ता नहीं है

सिचुएशनशिप में अगर दोनों में से एक भी रिश्ते के प्रति सीरियस हो जाता है तो उसे इमोशनल कंफ्यूजन का शिकार होना पड़ता है. क्योंकि दोनों में से किसी को भी यह नहीं पता होता है कि वे रिश्ते के किस मोड़ पर खड़े हैं. इस तरह की इमोशनल टैंशन उन्हें मानसिक रूप से तनाव दे सकती है. साथ ही, सिचुएशनशिप में बहुत समय और ऊर्जा बरबाद हो सकती है. लोग अपने संबंध को समझने और उसे सही दिशा देने की कोशिश में बहुत सारा समय खर्च कर सकते हैं लेकिन अगर अंत में वह संबंध किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचता, तो यह समय और ऊर्जा की बरबादी साबित हो सकती है.

सिचुएशनशिप में भविष्य की कोई गारंटी नहीं होती. लोग एकदूसरे के साथ समय बिताते हैं लेकिन वे यह नहीं जानते कि उन का संबंध आगे चल कर किसी ठोस आधार पर टिकेगा या नहीं. इसलिए इस तरह के रिश्ते में भी सोचसमझ कर आगे बढ़ना ही समझदारी है.

वैसे भी, रिश्ता कोई भी हो, समर्पण मांगता ही है. ऐसे में एकदूसरे के साथ सच्चे बने रहना जरूरी होता है. सिचुएशनशिप भी ऐसा ही रिश्ता है जो एकदूसरे से सच्चाई की अपेक्षा पूरी होने के साथ अच्छे से चल सकता है. इसलिए रिश्ता चाहे जो भी हो उस में आने से पहले कई बार सोचें कि क्या वाकई आप को उस रिलेशन की जरूरत है या फिर ऐसे ही दूसरों की देखादेखी इस में शामिल हो रहे हैं. एक बार खुद से यह सवाल करिएगा जरूर?

Interesting Hindi Stories : दिल के पुल – क्यों समीक्षा की शादी के खिलाफ था उसका परिवार?

Interesting Hindi Stories : आज अल्लसुबह इतना कुहरा न था जितना अब दिन चढ़ते छाया जा रहा था. मौसम को भी अनुमान हो चला था कि आज साफगोई की आवश्यकता नहीं है. दिल की उदासी मौसम पर छाई थी और मौसम की उदासी दिल पर. समीक्षा खामोशी से तैयार होती जा रही थी. न मन में कोई उमंग, न कोईर् स्वप्न. आज फिर उसे नुमाइश करनी थी, अपनी. 33 श्रावण पार कर चुकी समीक्षा अब थक चुकी थी इस परेड से. पर क्या करे, न चाहते हुए भी परिवार वालों की जागती उम्मीद हेतु वह हर बार तैयार हो जाती. शुरूशुरू में अच्छी नौकरी के कारण उस ने कई रिश्ते टाले, फिर स्वयं उच्च पदासीन होने के कारण कई रिश्ते निम्न श्रेणी कह कर ठुकराए. 30 पार करतेकरते रिश्ते आने कम होने लगे. अब हर 6 माह बीतने बाद रिश्तों के परिमाण के साथ उन की गुणवत्ता में भी भारी कमी दिखने लगी थी.

समीक्षा ने प्रोफैशनल जगत में बहुत नाम कमाया. आज वह अपनी कंपनी की वाइस प्रैसीडैंट है. बड़ा कैबिन है, कई मातहत हैं, विदेश आनाजाना लगा रहता है. सभी वरिष्ठ अधिकारियों की चहेती है. पर यह कैसी विडंबना है कि जहां एक तरफ उस की कैरियर संबंधी उपलब्धी को इतनी छोटी आयु की श्रेणी में रख सराहा जाता है, वहीं दूसरी तरफ शादी के लिए उस की उम्र निकल चुकी है. यही विडंबना है लड़कियों की. कैरियर में आगे बढ़ना चाहती हैं तो शादी पीछे रखनी पड़ती है और यदि समय रहते शादी कर लें तो पति, गृहस्थी, बालबच्चों के चक्कर में अपनी जिम्मेदारियां निभाते हुए कैरियर होम करना पड़ता है. क्या हर वह स्त्री जो नौकरी में आगे बढ़ना चाहती है और गृहस्थी का स्वप्न भी संजोती है, उसे सुपर वूमन बनना होगा?

‘‘समीक्षा तैयार हो गई? लड़के वाले आते होंगे,’’ मां की पुरजोर पुकार से उस के विचारों की तंद्रा भंग हुई. वर्तमान में लौट कर वह पुन: आईने में स्वयं को देख कमरे से बाहर चली गई.

‘‘हमारी बेटी ने बहुत जल्दी बहुत ऊंचा पद हासिल किया है जनाब,’’ महेशजी ने कहा.

यह सुनते ही लड़के की मां ने बिना देर किए प्रश्न दागा, ‘‘घर के कामकाज भी आते हैं या सिर्फ दफ्तरी आती है?’’

‘हम सोच कर बताएंगे,’ वही पुराना राग अलाप कर लड़के वाले चले गए. समय बीतने के साथ रिश्ता पाने की लालसा में समीक्षा के घर वाले उस से कम तनख्वाह वाले लड़कों को भी हामी भर रहे थे. लेकिन अब बात उलट चुकी थी. अकसर सुनने में आता कि लड़के वाले इतनी ऊंची पदासीन लड़की का रिश्ता लेने में सहज नहीं हैं. कहते हैं घर में भी मैनेजरी करेगी.

शाम ढलने तक बिचौलिए के द्वारा पता चल गया कि अन्य रिश्तों की भांति यह रिश्ता भी आगे नहीं बढ़ पाएगा. एक और कुठाराघात. कड़ाके की ठंड में भी उस के माथे पर पसीना उग गया. सोफे पर बैठेबैठे ही उस के पैर कंपकंपा उठे तो उस ने शाल से ढक लिए. ऐसा लग रहा था कि उस के मन की कमजोरी उस के तन पर भी उतर आई है. पता नहीं उठ कर चल पाएगी या नहीं. उस का मन काफी कुछ ठंडा हो चला था, किंतु आंखों का रोष अब भी बरकरार था.

‘‘पापा, प्लीज अब रहने दीजिए न,’’ पता नहीं समीक्षा की आवाज में कंपन मौसम के कारण था या मनोस्थिति के कारण. इस बेवजह के तिरस्कार से वह थक चुकी थी, ‘‘जो भी आता है मेरी खूबियों को कसौटी पर कसने की फिराक में नजर आता है. हमेशा शीर्ष पर रहने के बाद हाशिए पर सरकाए जाने की पीड़ा असहनीय लगने लगी है मुझे,’’ उस ने भावुक बातों से पिता को सोच में डाल दिया.

समय का चक्र चलता रहा. समीक्षा के जिद करने पर उस के भाई की शादी करवा दी गई. उस ने शादी का विचार त्याग दिया था. सब कुछ समय पर छोड़ नौकरी के साथसाथ सामाजिक कार्य करती संस्था से भी जुड़ गई. मजदूर वर्ग के बच्चों को शिक्षा देने में उसे सच्चे संतोष की प्राप्ति होती. वहीं उस की मुलाकात दीपक से हुई. दीपक भी अपने दफ्तर के बाद सामाजिक कार्य करने हेतु इस संस्था से जुड़ा था. उस की उम्र करीब 45 साल होगी. ऐसा बालों में सफेदी और बातचीत में परिपक्वता से प्रतीत होता था. दोनों की उम्र में इतना फासला होने के कारण समीक्षा बेझिझक उस से घुलनेमिलने लगी. उस की बातों, अनुभव से वह कुछ न कुछ सीखती रहती.

एक दिन दोनों काम के बाद कौफी पी रहे थे. तभी अचानक दीपक ने पूछा, ‘‘बुरा न मानो तो एक बात पूछूं? अभी तक शादी क्यों नहीं की समीक्षा?’’

‘‘रिश्ते तो आते रहे, किंतु कोई मुझे पसंद नहीं आया तो किसी को मैं. अब मैं ने यह फैसला समय पर छोड़ दिया है. मैं ने सुना है आप ने शादी की थी, लेकिन आप की पत्नी…’’ कहते हुए समीक्षा बीच में ही रुक गई.

‘‘उफ, तो कहानी सुन चुकी हो तुम? सब के हिस्से यह नहीं होता कि उन का जीवनसाथी आजीवन उन का साथ निभाए,’’ फिर कुछ पल की खामोशी के बाद दीपक बोले, ‘‘मैं ने सब से झूठ कह रखा है कि मेरी पत्नी की मृत्यु हो गई. दरअसल, वह मुझे छोड़ कर चली गई. उसे जिन सुखसुविधाओं की तलाश थी, वे मैं उसे 30 वर्ष की आयु में नहीं दे सकता था…

‘‘एक दिन मैं दूसरी कंपनी में प्रैजेंटेशन दे कर जल्दी फ्री हो गया और सीधा अपने घर आ गया. अचानक घर लौटने पर मैं अपने एहाते में अपने बौस की कार को खड़ा पाया. मैं अचरज में आ गया कि बौस मेरे घर क्यों आए होंगे. फटाफट घंटी बजा कर मैं पत्नी की प्रतीक्षा करने लगा. दरवाजा खोलने में उसे काफी समय लगा. 3 बार घंटी बजाने पर वह आई. मुझे देखते ही वह अचकचा गई और उलटे पांव कमरे में दौड़ी. इस अप्रत्याशित व्यवहार के कारण मैं भी उस के पीछेपीछे कमरे में गया तो पाया कि मेरा बौस मेरे बिस्तर पर शर्ट पहने…’’

दीपक का गला भर्रा गया. कुछ क्षण वह चुप नीचे सिर किए बैठा रहा. फिर आगे बोला, ‘‘पिछले 4 महीनों से मेरी पत्नी और मेरे बौस का अफेयर चल रहा था… मुझ से तलाक लेने के बाद उस ने मेरे बौस से शादी  कर ली.’’

समीक्षा ने दीपक के कंधे पर हाथ रख सांत्वना दी, ‘‘एक बात पूछूं? आप ने मुझे ये सब बातें क्यों बताईं?’’

कुछ न बोल दीपक चुपचाप समीक्षा को देखता रहा. आज उस की नजरों में एक अजीब सा आकर्षण था, एक खिंचाव था जिस ने समीक्षा को अपनी नजरें झुकाने पर विवश कर दिया. फिर बात को सहज बनाने हेतु वह बोली, ‘‘दीपकजी, इतने सालों में आप ने पुन: विवाह क्यों नहीं किया?’’

‘‘तुम्हारे जैसी कोई मिली ही नहीं.’’

यह सुनते ही समीक्षा अचकचा कर खड़ी हो गई. ऐसा नहीं था कि उसे दीपक के प्रति कोई आकर्षण नहीं था. ऐसी बात शायद उस का मन दीपक से सुनना भी चाहता था पर यों अचानक दीपक के मुंह से ऐसी बात सुनने की अपेक्षा नहीं थी. खैर, मन की बात कब तक छिप सकती है भला. दोनों की नजरों ने एकदूसरे को न्योता दे  दिया था.

समीक्षा की रजामंदी मिलने के बाद दीपक ने कहा, ‘‘समीक्षा, मुझे तुम से कुछ कहना है, जो मेरे लिए इतना मूल्यवान नहीं है, लेकिन हो सकता है कि तुम्हारे लिए वह महत्त्वपूर्ण हो. मैं धर्म से ईसाई हूं. किंतु मेरे लिए धर्म बाद में आता है और कर्म पहले. हम इस जीवन में क्या करते हैं, किसे अपनाते हैं, किस से सीखते हैं, इन सब बातों में धर्म का कोई स्थान नहीं है. हमारे गुरु, हमारे मित्र, हमारे अनुभव, हमारे सहकर्मी जब सभी अलगअलग धर्म का पालन करने वाले हो सकते हैं, तो हमारा जीवनसाथी क्यों नहीं? मैं तुम्हारे गुण, व्यक्तित्व के कारण आकर्षित हुआ हूं और धर्म के कारण मैं एक अच्छी संगिनी को खोना नहीं चाहता. आगे तुम्हारी इच्छा.’’

हालांकि समीक्षा भी दीपक के व्यक्तित्व, उस के आचारविचार से बहुत प्रभावित थी, किंतु धर्म एक बड़ा प्रश्न था. वह दीपक को खोना नहीं चाहती थी, खासकर यह जानने के बाद कि वह भी उसे पसंद करता है मगर इतना अहम फैसला वह अकेली नहीं ले सकती थी. लड़कियों को शुरू से ही ऐसे संस्कार दिए जाते हैं, जो उन की शक्ति कम और बेडि़यां अधिक बनते हैं. आत्मनिर्भर सोच रखने वाली लड़की भी कठोर कदम उठाने से पहले परिवार तथा समाज की प्रतिक्रिया सोचने पर विवश हो उठती है. एक ओर जहां पुरुष पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी राय देता है, पूरी बेबाकी से आगे कदम बढ़ाने की हिम्मत रखता है, वहीं दूसरी ओर एक स्त्री छोटे से छोटे कार्य से पहले भी अपने परिवार की मंजूरी चाहती है, क्योंकि इसी का समाज संस्कार का नाम देता है. आज रात खाने में क्या बनाऊं से ले कर नौकरी करूं या गृहस्थी संभालू तक मानो संस्कारों को जीवित रखने का सारा बोझ स्त्री के कंधों पर ही है.

समीक्षा ने यह बात अपनी मां के साथ बांटी, ‘‘आप क्या सोचती हैं इस विषय पर मां?’’

मां ने प्रतिउत्तर प्रश्न किया, ‘‘क्या तुम दीपक से प्यार करती हो?’’

समीक्षा की चुप्पी ने मां को उत्तर दे दिया. वे बोलीं, ‘‘देखो समीक्षा, तुम्हारी उम्र मुझे भी पता है और तुम्हें भी. मैं चाहती हूं कि तुम्हारा घर बसे, तुम्हारा जीवन प्रेम से सराबोर हो, तुम भी अपनी गृहस्थी का सुख भोगो. मगर अब तुम्हें यह सोचना है कि क्या तुम दूसरे धर्म के परिवार में तालमेल बैठा पाओगी… यह निर्णय तुम्हें ही लेना है.’’

समीक्षा की मां से हामी मिलने पर दीपक उसे अपने घर अपने परिवार वालों से मिलाने ले गया. दीपक  के पिता का देहांत हो चुका था. घर में मां व छोटा भाई थे. समीक्षा को दीपक की मां पसंद आई. मां की परिभाषा पर सटीक उतरतीं सीधी, सरल औरत.

‘‘विवाहोपरांत कौन क्या करेगा, अभी इस का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है. दीपक की पहली शादी हम ने अपनी बिरादरी में की थी, लेकिन… अब इतने वर्षों के बाद यह किसी को पसंद कर रहा है तो जरूर उस में कुछ खास होगा,’’ मां खुश थीं.

लेकिन समीक्षा हिंदू है यह जान कर दीपक के भाई का मुंह बन गया.  कुछ ही देर में दीपक की बड़ी विवाहित बहन आ पहुंची. उसे दीपक के छोटे भाई ने फोन कर बुलाया था. बहन ने आ कर काफी हंगामा किया, ‘‘तेरे को शादी करनी है तो मुझ से बोल. मैं लाऊंगी तेरे लिए एक से एक बढि़या लड़की… यह तो सोच कि एक हिंदू लड़की, एक तलाकशुदा ईसाई लड़के से, जो उस से उम्र में भी बड़ी है, शादी क्यों करना चाहती है. तूने अपना पास्ट इसे बता दिया, पर कभी सोचा कि जरूर इस का भी कोई लफड़ा रहा होगा? इस ने तुझे कुछ बताया? क्या तू हम से छिपा रहा है?’’

लेकिन दीपक अडिग था. उस ने सोच लिया था कि जब दिल ने पुल बना लिया है तो वह उस पर चल कर अपने प्यार की मंजिल तक पहुंचेगा.  समीक्षा प्रसन्न थी कि दीपक व उस की मां को यह रिश्ता मंजूर है, साथ ही थोड़ी खिन्नता भी मन में थी कि उस के भाई व बहन को इस रिश्ते पर ऐतराज है. अब समीक्षा ने अपने घर में पिता और भाई को इस रिश्ते के बारे में बताने का निश्चय किया और फिर वही हुआ जिस की आशा भी थी और आशंका भी.

‘‘डायन भी 7 घर छोड़ देती है पर तुम ने अपने ही घर वालों को नहीं बख्शा, शर्म नहीं आई अपनी ही शादी की बात करते और वह भी एक अधर्मी से?’’ उस का छोटा भाई गरज रहा था. वह भाई जिस की शादी की चिंता समीक्षा ने अपनी शादी से पहले की थी.

‘‘मैं क्या मुंह दिखाऊंगी अपने समाज में? मेरे मायके में मेरी छोटी बहन कुंआरी है अभी, उस की शादी कैसे होगी यह बात खुलने पर?’’ उस की पत्नी भी कहां पीछे थी.

‘‘सौ बात की एक बात समीक्षा, यह शादी होगी तो मेरी लाश के ऊपर से होगी.  अब तेरी इच्छा है अपनी डोली चाहती है या अपनी मां की मांग का सिंदूर,’’ पिता की दोटूक बात पर समीक्षा सिर झुकाए, रोती रही.  वह रात बहुत भारी बीती. बेटी की इस स्थिति पर मां अपने बिस्तर पर रो रही थीं और समीक्षा अपने बिस्तर पर. आगे क्या होगा, इस से दोनों अनजान डर पाले थीं.

अगले दिन पिता ने बूआ का बुला लिया. समीक्षा अपनी बूआ से हिलीमिली थी. अत: पिता ने बूआ को मुहरा बनाया उसे समझा कर शादी से हटाने हेतु. बूआ ने हर तरह के तर्कवितर्क दिए, उसे इमोशनल ब्लैकमेल किया.

उन की बातें जब पूरी हो गईं तो समीक्षा ने बस एक ही वाक्य कहा, ‘‘बूआ, मैं बस इतना कहूंगी कि यदि मैं दीपक से शादी नहीं करूंगी तो किसी से भी नहीं करूंगी.’’

किंतु अपेक्षा के विपरीत समीक्षा का शादी न करने का निर्णय उस के पिता व भाई को स्वीकार्य था. लेकिन दूसरे धर्म के नेक, प्यार करने वाले लड़के से शादी नहीं.  अगली सुबह नाश्ते की टेबल पर पिता बोले, ‘‘समीक्षा की शादी के लिए मैं ने एक लड़का देखा है. हमारे गोपीजी का भतीजा. देखाभाला परिवार है. उन्हें भी शादी की जल्दी और हमें भी,’’ उन्होंने घृणाभरी दृष्टि समीक्षा पर डाली.

समीक्षा का मन हुआ कि वह इसी क्षण वहां से कहीं लुप्त हो जाए. उसी शाम से हिंदुत्व प्रचारक सोना के प्रमुख गोपीजी के भतीजे के गुंडे समीक्षा के पीछे लग गए. उस के दफ्तर के बाहर खड़े रहते. रास्ते भर उस का पीछा करते ताकि वह दीपक से न मिल सके. 3 दिनों की लुकाछिपी से समीक्षा काफी परेशान हो गई.  क्या हम इसीलिए अपनी बेटियों को शिक्षित करते हैं, उन्हें आगे बढ़ने, प्रगति करने की प्रेरणा देते हैं कि यदि उन के एक फैसले से हम असहमत हों तो उन का जीना दूभर कर दें? यह संकुचित सोच उस की मां को कुंठित कर गई. उन के मन में फांस सी उठी. क्या लड़की समाज के लिए अपनी खुशियों का, अपने जीवन का बलिदान दे दे तो महान तथा संस्कारी और यदि अपनी खुशी के लिए अपने ही परिवार से कुछ मांगे तो निर्लज्ज… परिवार का अर्थ ही क्या रह गया यदि वह अपने बच्चों की तकलीफ, उन का भला न देख सके…

रात के भोजन पर समीक्षा के मन पर छाए चिंताओं के बादल से या तो वह स्वयं परिचित थी या उस की मां. अन्य सदस्य बेखबर थे. वे तो समस्या का हल खोज लेने पर भोजन का रोज की भांति स्वाद उठा रहे थे, हंसीमजाक से माहौल हलका बनाए हुए थे.

अचानक मां ने अपना निर्णय सुना दिया, ‘‘समीक्षा, तुम मन में कोई  चिंता न रख. तुम आज तक बहुत अच्छी बेटी, बहुत अच्छी बहन बन कर रहो. अब हमारी बारी है. आज यदि तुम्हें कोई ऐसा मिला है जिस से तुम्हारा मन मिला है तो हम तुम्हारी खुशी में रोड़े नहीं अटकाएंगे.’’  इस से पहले कि पिता टोकते वे उन्हें रोकती हुई आगे बोलीं, ‘‘कर्तव्य केवल बेटियों के  नहीं होते, परिवारों के भी होते हैं. दीपक के परिवार से मैं मिलूंगी और शादी की बात  आगे बढ़ाऊंगी.’’

मां के अडिगअटल निर्णय के आगे सब  चुप थे. शादी के दौरान भी तनाव कुछ कम नहीं हुआ. दोनों परिवारों में शादी को ले कर न तो रौनक थी और न ही उल्लास. समीक्षा के पिता और भाई ने शादी का कार्ड इसलिए नहीं अपनाया था, क्योंकि उस पर बाइबिल की पंक्तियां लिखी जाती थीं. और दीपक के रिश्तेदारों को उस पर गणेश की तसवीर से आपत्ति थी. केवल दोनों की मांओं ने ही आगे बढ़चढ़ कर शादी की तैयारी की थी. बेचारे दूल्हादुलहन दोनों डरे थे कि शादी में कोई विघ्न न आ जाए.

शादी हो गई तब भी समीक्षा थोड़ी दुखी थी. बोली, ‘‘कितना अच्छा होता यदि हमारे परिवार वाले भी सहर्ष हमें आशीर्वाद देते.’’  मगर दीपक की बात ने उस की सारी

शंका दूर कर दी. बोलीं, ‘‘कई बार हमें चुनना होता है कि हम किसे प्यार करते हैं. हम दोनों ने जिसे प्यार किया, उसे चुन लिया. यदि वे हम से प्यार करते होंगे, हमारी खुशी में खुश होंगे तो हमें चुन लेंगे.’’  अब मन में बिना कोई दुविधा लिए दोनों की आंखों में सुनहरे भविष्य के उज्जवल सपने थे.

Hindi Moral Tales : जीवन चलने का नाम

Hindi Moral Tales : ‘‘ मम्मी, चाय,’’ सरिता ने विभा को चाय देते हुए ट्रे उन के पास रखी तो उन्होंने पूछा, ‘‘विनय आ गया?’’

‘‘हां, अभी आए हैं, फ्रेश हो रहे हैं. आप को और कुछ चाहिए?’’

‘‘नहीं बेटा, कुछ नहीं चाहिए,’’ विभा ने कहा तो सरिता ड्राइंगरूम में आ कर विनय के साथ बैठ कर चाय पीने लगी.

विनय ने सरिता को बताया, ‘‘परसों अखिला आंटी आ रही हैं, उन का फोन आया था, जा कर मम्मी को बताता हूं, वे खुश हो जाएंगी.’’

सरिता जानती थी कि अखिला आंटी और मम्मी का साथ बहुत पुराना है. दोनों मेरठ में एक ही स्कूल में वर्षों अध्यापिका रही हैं. विभा तो 1 साल पहले रिटायर हो गई थीं, अखिला आंटी के रिटायरमैंट में अभी 2 साल शेष हैं. सरिता अखिला से मेरठ में कई बार मिली है. विभा रिटायरमैंट के बाद बहूबेटे के साथ लखनऊ में ही रहने लगी हैं.

विनय के साथसाथ सरिता भी विभा के कमरे में आ गई. विनय ने मां को बताया, ‘‘मम्मी, अखिला आंटी किसी काम से लखनऊ आ रही हैं, हमारे यहां भी 2-3 दिन रह कर जाएंगी.’’

विभा यह जान कर बहुत खुश हो गईं, बोलीं, ‘‘कई महीनों से मेरठ चक्कर नहीं लगा. चलो, अब अखिला आ रही है तो मिलना हो जाएगा. मेरठ तो समझो अब छूट ही गया.’’

विनय ने कहा, ‘‘क्यों मां, यहां खुश नहीं हो क्या?’’ फिर पत्नी की तरफ देख कर उसे चिढ़ाते हुए बोला, ‘‘तुम्हारी बहू तुम्हारी सेवा ठीक से नहीं कर रही है क्या?’’

विभा ने तुरंत कहा, ‘‘नहींनहीं, मैं तो पूरा दिन आराम रतेकरते थक जाती हूं. सरिता तो मुझे कुछ करने ही नहीं देती.’’

थोड़ी देर इधरउधर की बातें कर के दोनों अपने रूम में आ गए. उन के दोनों बच्चे यश और समृद्धि भी स्कूल से आ चुके थे. सरिता ने उन्हें भी बताया, ‘‘दादी की बैस्ट फ्रैंड आ रही हैं. वे बहुत खुश हैं.’’

अखिला आईं. उन से मिल कर सब  बहुत खुश हुए. सब को उन से हमेशा अपनत्व और स्नेह मिला है. मेरठ में तो घर की एक सदस्या की तरह ही थीं वे. एक ही गली में अखिला और विभा के घर थे. सगी बहनों की तरह प्यार है दोनों में.

चायनाश्ते के दौरान अखिला ही ज्यादा बातें करती रहीं, अपने और अपने परिवार के बारे में बताती रहीं. मेरठ में वे अपने बहूबेटे के साथ रहती हैं. उन के पति रिटायर हो चुके हैं लेकिन किसी औफिस में अकाउंट्स का काम देखते हैं. विभा कम ही बोल रही थीं, अखिला ने उन्हें टोका, ‘‘विभा, तुझे क्या हुआ है? एकदम मुरझा गई है. कहां गई वह चुस्तीफुरती, थकीथकी सी लग रही है. तबीयत ठीक नहीं है क्या?’’

‘‘मैं बिलकुल ठीक हूं. तुझे ऐसे ही लग रहा है,’’ विभा ने कहा.

‘‘मैं क्या तुझे जानती नहीं?’’ दोनों बातें करने लगीं तो सरिता डिनर की तैयारी में व्यस्त हो गई. वह भी सोचने लगी कि मम्मी जब से लखनऊ आई हैं, बहुत बुझीबुझी सी क्यों रहने लगी हैं. उन के आराम का इतना तो ध्यान रखती हूं मैं. हमेशा मां की तरह प्यार और सम्मान दिया है उन्हें और वे भी मुझे बहुत प्यार करती हैं. हमारा रिश्ता बहुत मधुर है. देखने वालों को तो अंदाजा ही नहीं होता कि हम मांबेटी हैं या सासबहू. फिर मम्मी इतनी बोझिल सी क्यों रहती हैं? यही सब सोचतेसोचते वह डिनर तैयार करती रही.

डिनर के बाद अखिला ने विभा से कहा, ‘‘चल, थोड़ा टहल लेते हैं.’’

‘‘टहलने का मन नहीं. चल, मेरे रूम में, वहीं बैठ कर बातें करेंगे,’’ विभा ने कहा.

‘‘विभा, तुझे क्या हो गया है? तुझे तो आदत थी न खाना खा कर इधरउधर टहलने की.’’

‘‘आंटी, अब तो मम्मी ने घूमनाटहलना सब छोड़ दिया है. बस, डिनर के बाद टीवी देखती हैं,’’ सरिता ने अखिला को बताया तो विभा मुसकरा भर दीं.

‘‘मैं यह क्या सुन रही हूं विभा?’’

‘‘अखिला, मेरा मन नहीं करता?’’

‘‘भई, मैं तुम्हारे साथ रूम में घुस कर बैठने नहीं आई हूं, चुपचाप टहलने चल और कल मुझे लखनऊ घुमा देना. थोड़ी शौपिंग करनी है, बहू ने चिकन के सूट मंगाए हैं.’’

सरिता ने कहा, ‘‘आप मेरे साथ चलना आंटी. मम्मी के पैरों में दर्द रहता है. वे आराम कर लेंगी.’’

अगले दिन अखिला विभा को जबरदस्ती ले कर बाजार गई. दोनों लौटीं तो खूब खुश थीं. विभा भी सरिता के लिए एक सूट ले कर आई थीं.

डिनर के बाद भी अखिला विभा को घर के पास बने गार्डन में टहलने ले गई. विभा बहुत फ्रैश थीं. सरिता को अच्छा लगा, विभा का बहुत अच्छा समय बीता था.

विभा को ले कर अखिला बहुत चिंतित  थीं. वे चाहती थीं कि विभा पहले की तरह ही चुस्तदुरुस्त हो जाए. पर यह इतना आसान न था. जिस दिन अखिला को वापस जाना था वे सरिता से बोलीं, ‘‘बेटा, कुछ जरूरी बातें करनी हैं तुम से.’’

‘‘कहिए न, आंटी.’’

‘‘मेरे साथ गार्डन में चलो, वहां अकेले में बैठ कर बातें करेंगे.’’

दोनों घर के सामने बने गार्डन में जा कर एक बैंच पर बैठ गईं.

‘‘सरिता, विभा बहुत बदल गई है. उस का यह बदलाव मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा है.’’

‘‘हां आंटी, मम्मी बहुत डल हो गई हैं यहां आ कर जबकि मैं उन का बहुत ध्यान रखती हूं, उन्हें कोई काम नहीं करने देती, कोई जिम्मेदारी नहीं है उन पर, फिर भी पता नहीं क्यों दिन पर दिन शिथिल सी होती जा रही हैं.’’

‘‘यही तो गलती कर दी तुम ने बेटा, तुम ने उसे सारे कामों से छुट्टी दे कर उस के जीवन के  उद्देश्य और उपयोगिता को ही खत्म कर दिया. अब वह अपनेआप को अनुपयोगी मान कर अनमनी सी हो गई है. उसे लगता है कि उस का जीवन उद्देश्यहीन है. मुझे पता है तुम तो उस के आराम के लिए ही सोचती हो लेकिन हर इंसान की जरूरतें, इच्छाएं अलग होती हैं. किसी को जीवन की भागदौड़ के बाद आराम करना अच्छा लगता है तो किसी को कुछ काम करते रहना अच्छा लगता है. विभा तो हमेशा से ही बहुत कर्मठ रही है. मेरठ से रिटायर होने के बाद भी वह हमेशा किसी न किसी काम में व्यस्त रहती थी. वह जिम्मेदारियां निभाना पसंद करती है. ज्यादा टीवी देखते रहना तो उसे कभी पसंद नहीं था. कहती थी, सारा दिन टीवी वही बड़ेबुजुर्ग देख सकते हैं जिन्हें कोई काम नहीं होता. मेरे पास तो बहुत काम हैं और मैं तो अभी पूरी तरह से स्वस्थ हूं.

‘‘जीवन से भरपूर, अपनेआप को किसी न किसी काम में व्यस्त रखने वाली अब अपने कमरे में चुपचाप टीवी देखती रहती है.

‘‘विनय जब 10 साल का था, उस के पिताजी की मृत्यु हो गई थी. विभा ने हमेशा घरबाहर की हर जिम्मेदारी संभाली है. वह अभी तक स्वस्थ रही है. मुझे तो लगता है किसी न किसी काम में व्यस्त रहने की आदत ने उसे हमेशा स्वस्थ रखा है. तुम धीरेधीरे उस पर फिर से थोड़ेबहुत काम की जिम्मेदारी डालो जिस से उसे लगे कि तुम्हें उस के साथ की, उस की मदद की जरूरत है.

सरिता, इंसान तन से नहीं, मन से बूढ़ा होता है. जब तक उस के मन में काम करने की उमंग है उसे कुछ न कुछ करते रहने दो. तुम ने ‘आप आराम कीजिए, मैं कर लूंगी’ कह कर उसे एक कमरे में बिठा दिया है. जबकि विभा के अनुसार तो जीवन लगातार चलते रहने का नाम है. उसे अब अपना जीवन ठहरा हुआ, गतिहीन लगता है. तुम ने मेरठ में उस की दिनचर्या देखी थी न, हर समय कुछ न कुछ काम, इधर से उधर जाना, टहलना, घूमना, कितनी चुस्ती थी उस में, मैं ठीक कह रही हूं न बेटा?’’

‘‘हां आंटी, आप बिलकुल ठीक कह रही हैं, मैं आप की बात समझ गई हूं. अब आप देखना, अगली बार मिलने पर मम्मी आप को कितनी चुस्तदुरुस्त दिखेंगी.’’

अखिला मेरठ वापस चली गईं. सरिता विभा के कमरे में जा कर उन्हीं के बैड पर लेट गई. विभा टीवी देख रही थीं. वे चौंक गईं, ‘‘क्या हुआ, बेटा?’’

‘‘मम्मी, बहुत थक गई हूं, कमर में भी दर्द है.’’

‘‘दबा दूं, बेटा?’’

‘‘नहीं मम्मी, अभी तो बाजार से घर का कुछ जरूरी सामान भी लाना है.’’

विभा ने पलभर सरिता को देख कर कुछ सोचा, फिर कहा, ‘‘मैं ला दूं?’’

‘‘आप को कोई परेशानी तो नहीं होगी?’’ सरिता धीमे से बोली.

‘‘अरे नहीं, परेशानी किस बात की, तुम लिस्ट बना दो, मैं अभी कपड़े बदल कर बाजार से सारा सामान ले आती हूं,’’ कह कर विभा ने फटाफट टीवी बंद किया, अपने कपड़े बदले, सरिता से लिस्ट ली और पर्स संभाल कर उत्साह और जोश के साथ बाहर निकल गईं.

विनय आया तो सरिता ने उसे अखिला आंटी से हुई बातचीत के बारे में बताया. उसे भी अखिला आंटी की बात समझ में आ गई. उस ने भी अपनी मम्मी को हमेशा चुस्तदुरुस्त देखा था, वह भी उन के जीवन में आई नीरसता को ले कर चिंतित था.

एक घंटे बाद विभा लौटीं, उन के चेहरे पर ताजगी थी, थकान का कहीं नामोनिशान नहीं था. मुसकराते हुए बोलीं, ‘‘आज बहुत दिनों बाद खरीदा है, देख लो, कहीं कुछ रह तो नहीं गया.’’

सरिता सामान संभालने लगी तो विभा ने पूछा, ‘‘तुम्हारा दर्द कैसा है?’’

‘‘थोड़ा ठीक है.’’

इतने में विनय ने कहा, ‘‘सरिता, आज खाने में क्या बनाओगी?’’

‘‘अभी सोचा नहीं?’’

विनय ने कहा, ‘‘मम्मी, आज आप अपने हाथ की रसेदार आलू की सब्जी खिलाओ न, बहुत दिन हो गए.’’

विभा चहक उठीं, ‘‘अरे, अभी बनाती हूं, पहले क्यों नहीं कहा?’’

‘‘मम्मी, आप अभी बाजार से आई हैं, पहले थोड़ा आराम कर लीजिए, फिर बना दीजिएगा,’’ सरिता ने कहा तो विभा ने किचन की तरफ जाते हुए कहा, ‘‘अरे, आराम कैसा, मैं ने किया ही क्या है?’’

विनय ने सरिता की तरफ देखा. विभा को पहले की तरह उत्साह से भरे देख कर दोनों का मन हलका हो गया था. वे हैरान भी थे और खुश भी कि सुस्त रहने वाली मां कितने उत्साह से किचन की तरफ जा रही थीं. सरिता सोच रही थी कि आंटी ने ठीक कहा था जब तक मम्मी स्वयं को थका हुआ महसूस न करें तब तक उन्हें बेकार ही इस बात का एहसास करा कर कुछ काम करने से नहीं रोकना चाहिए था, जबरदस्ती आराम नहीं करवाना चाहिए था. अच्छा तो यही है कि मम्मी अपनी रुचि का काम कर के अपनेआप को व्यस्त और खुश रखें और जीवन को उत्साह से जिएं. उन का व्यक्तित्व हमारे लिए आज भी महत्त्वपूर्ण व उपयोगी है यह एहसास उन्हें करवाना ही है.

सरिता ने अपने विचारों में खोए हुए किचन में जा कर देखा, पिछले 6 महीने से कभी कमर, कभी पैर दर्द बताने वाली मां के हाथ बड़ी तेजी से चल रहे थे.  वह चुपचाप किचन से मुसकराती हुई बाहर आ गई.

Best Hindi Story : एक रात का सफर- क्या हुआ अक्षरा के साथ?

Best Hindi Story :  बस के हौर्न देते ही सभी यात्री जल्दीजल्दी अपनीअपनी सीटों पर बैठने लगे. अक्षरा ने बंद खिड़की से ही हाथ हिला कर चाचाचाची को बाय किया. उधर से चाचाजी भी हाथ हिलाते हुए जोर से बोले, ‘‘मैं ने कंडक्टर को कह दिया है कि बगल वाली सीट पर किसी महिला को ही बैठाए और पहुंचते ही फोन कर देना.’’

बस चल दी. अक्षरा खिड़की का शीशा खोलने की कोशिश करने लगी ताकि ठंडी हवा के झोंकों से उसे उलटी का एहसास न हो, मगर शीशा टस से मस नहीं हुआ तो उस ने कंडक्टर से शीशा खोल देने को कहा. कंडक्टर ने पूरा शीशा खोल दिया.

अक्षरा की बगल वाली सीट अभी भी खाली थी. उधर कंडक्टर एक दंपती से कह रहा था, ‘‘भाई साहब, प्लीज आप आगे वाली सीट पर बैठ जाएं तो आप की मैडम के साथ एक लड़की को बैठा दूं, देखिए न रातभर का सफर है, कैसे बेचारी पुरुष के साथ बैठेगी?’’

अक्षरा ने मुड़ कर देखा, कंडक्टर पीछे वाली सीट पर बैठे युवा जोड़े से कह रहा था. आदमी तो आगे आने के लिए मान गया पर औरत की खीज को भांप अक्षरा बोली, ‘‘मुझे उलटी होती है, उन से कहिए न मुझे खिड़की की तरफ वाली सीट दे दें.’’

‘‘वह सब आप खुद देख लीजिए,’’ कंडक्टर ने दो टूक लहजे में कहा तो अक्षरा झल्ला कर बोली, ‘‘तो फिर मुझे नहीं जाना, मैं अपनी सीट पर ही ठीक हूं.’’

कंडक्टर भी अव्वल दर्जे का जिद्दी था. वह तुनक कर बोला, ‘‘अब आप की बगल में कोई पुरुष आ कर बैठेगा तो मुझे कुछ मत बोलिएगा, आप के पेरैंट्स ने कहा था इसलिए मैं ने आप के लिए महिला के साथ की सीट अरेंज की.’’

तभी झटके से बस रुकी और एक दादानुमा लड़का बस में चढ़ा और लपक कर ड्राइवर का कौलर पकड़ कर बोला, ‘‘क्यों बे, मुझे छोड़ कर भागा जा रहा था, मेरे पहुंचे बिना बस कैसे चला दी तू ने?’’

ड्राइवर डर गया. मौका   देख कर कंडक्टर ने हाथ जोड़ते हुए बात खत्म करनी चाही, ‘‘आइए बैठिए, देखिए न बारिश का मौसम है इसीलिए, नहीं तो आप के बगैर….’’ उस ने लड़के को अक्षरा की बगल वाली सीट पर ही बैठा दिया.

अक्षरा समझ गई कि कंडक्टर बात न मानने का बदला ले रहा था. उस ने खिड़की की तरफ मुंह कर लिया.

बारिश शुरू हो चुकी थी और बस अपनी रफ्तार पकड़ने लगी थी. टेढ़ेमेढ़े घुमावदार पहाड़ी रास्तों पर अपने गंतव्य की ओर बढ़ती बस के शीशों से बारिश का पानी रिसरिस कर अंदर आने लगा. सभी अपनीअपनी खिड़कियां बंद किए हुए थे. अक्षरा ने भी अपनी खिड़की बंद करनी चाही, लेकिन शीशा अपनी जगह से टस से मस नहीं हुआ. उस ने इधरउधर देखा, कंडक्टर आगे जा कर बैठ गया था. पानी रिसते हुए अक्षरा को भिगा रहा था.

तभी बगल वाले लड़के ने पूछा, ‘‘खिड़की बंद करनी है तो मैं कर देता हूं.’’

अक्षरा ने कोई उत्तर नहीं दिया. फिर भी उस ने उठ कर पूरी ताकत लगा कर खिड़की बंद कर दी. पानी का रिसना बंद हो गया, बाहर बारिश भी तेज हो गई थी.

अक्षरा खिड़की बंद होते ही अकुलाने लगी. उमस और बस के धुएं की गंध से उस का जी मिचलाने लगा था. बाहर बारिश काफी तेज थी लेकिन उस की परवाह न करते हुए उस ने शीशे को सरकाना चाहा तो लड़के ने उठ कर फुरती से खिड़की खोल दी.

अक्षरा उलटी करने लगी. थोड़ी देर तक उलटी करने के बाद वह शांत हुई मगर तब तक उस के बाल और कपड़े काफी भीग चुके थे.

बगल में बैठे लड़के ने आत्मीयता से पूछा, ‘‘आप की तबीयत तो ठीक है, मैं पानी दूं, कुल्ला कर लीजिए.’’

अक्षरा अनमने भाव से बोली, ‘‘मेरे पास पानी है.’’

वह फिर बोला, ‘‘आप अकेली ही जा रही हैं, आप के साथ और कोई नहीं है?’’

अक्षरा इस सवाल से असहज हो

उठी, ‘‘क्यों मेरे अकेले जाने से आप को क्या लेना?’’

‘‘जी, मैं तो यों ही पूछ रहा था,’’ लड़के को भी लगा कि शायद वह गलत सवाल पूछ बैठा है, लिहाजा वह दूसरी तरफ देखने लगा.

थोड़ी देर तक बस में शांति छाई रही. बस के अंदर की बत्ती भी बंद हो चुकी थी. तभी ड्राइवर ने टेपरिकौर्डर चला दिया. कोई अंगरेजी गाना था, बोल तो स्पष्ट नहीं थे पर कानफोड़ू संगीत गूंज उठा.

तभी पीछे से कोई चिल्लाया, ‘‘अरे, ओ ड्राइवरजी, बंद कीजिए इसे. अंगरेजी समझ में नहीं आती हमें. कुछ हिंदी में बजाइए.’’

कुछ देर बाद एक पुरानी हिंदी फिल्म का गाना बजने लगा.

रात काफी बीत चुकी थी, बारिश कभी कम तो कभी तेज हो रही थी. बस पहाड़ी रास्ते की सर्पीली ढलान पर आगे बढ़ रही थी. सड़क के दोनों तरफ उगी जंगली झाडि़यां अंधेरे में तरहतरह की आकृतियों का आभास करवा रही थीं. बारिश फिर तेज हो उठी. अक्षरा ने बगल वाले लड़के को देखा, वह शायद सो चुका था. वह चुपचाप बैठी रही.

पानी का तेज झोंका जब अक्षरा को भिगोते हुए आगे बढ़ कर लड़के को भी गिरफ्त में लेने लगा तो वह जाग गया, ‘‘अरे, इतनी तेज बारिश है आप ने उठाया भी नहीं,‘‘ कहते हुए उस ने खिड़की बंद कर दी.

थोड़ी देर बाद बारिश थमी तो खुद ही उठ कर खिड़की खोल भी दी और बोला, ‘‘फिर बंद करनी हो तो बोलिएगा,’’ और आंखें बंद कर लीं.

अक्षरा ने घड़ी पर नजर डाली, सुबह के 3 बज रहे थे, नींद से उस की आंखें बोझिल हो रही थीं. उस ने खिड़की पर सिर टेक कर सोना चाहा, तभी उसे लगा कि लड़के का पैर उस के सामने की जगह पर फैला हुआ है. उस ने डांटने के लिए जैसे ही लड़के की तरफ सिर घुमाया तो देखा कि उस ने अपना सिर दूसरी तरफ झुका रखा था और नींद की वजह से तिरछा हो गया था और उस का पैर अपनी सीट के बजाय अक्षरा की सीट के सामने फैल गया था. अक्षरा उस की शराफत पर पहली बार मुसकराई.

सुबह के 6 बजे बस गंतव्य पर पहुंची. वह लड़का उठा और धड़धड़ाते हुए कंडक्टर के पास पहुंचा, ‘‘उस लड़की का सामान उतार दे और जिधर जाना हो उधर के आटो पर बैठा देना. एक बात और सुन ले जानबूझ कर तू ने मुझे वहां बैठाया था, आगे से किसी भी लड़की के साथ मेरे जैसों को बैठाया तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा. फिर वह उतर कर तेज कदमों से चला गया.’’

अक्षरा के मस्तिष्क में कई सवाल एकसाथ कौंध गए. उसे जहां उस लड़के की सहायता के बदले धन्यवाद न कहने का मलाल था, वहीं इस जमाने में भी इंसानियत और भलाई की मौजूदगी का एहसास.

लेखिका- सोनी किशोर सिंह

Story In Hindi : बहकते कदम – क्या अनीश के चगुंल से निकल सकी प्रिया

Story In Hindi : ‘देख प्रिया, तू ऐसावैसा कुछ करने की सोचना भी मत, अनीश अच्छा लड़का नहीं है, अभी भी समय है संभल जा.’ प्रज्ञा दीदी के शब्द मानो पटरी पर दौड़ती रेलगाड़ी का पीछा कर रहे थे. भय, आशंका, उत्तेजना के बीच हिचकोले लेता मन अतीत को कभी आगे तो कभी पीछे धकेल देता था. कुछ देर पहले रोमांचकारी सपनीले भविष्य में खोया मन जाने क्यों अज्ञात भय से घिर गया था. मम्मीपापा की लाडली बेटी और प्रज्ञा दीदी की चहेती बहन घर से भाग गई है, यह सब को धीरेधीरे पता चल ही जाएगा.

अलसुबह आंख खुलते ही मम्मी चाय का प्याला ले कर जगाने आ जाएगी, क्या पता रात को ही सब जान गए हों? कितना समझाया था प्रज्ञा दीदी ने कि इस उम्र में लिया गया एक भी गलत फैसला हमारे जीवन को बिखेर सकता है. जितना दीदी समझाने का प्रयास करतीं उतनी ही दृढ़ता से बिंदास प्रिया दो कदम अनीश की ओर बढ़ा देती.

‘‘प्रिया, अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे, ये प्यारव्यार के चक्कर में पड़ कर अपने भविष्य से मत खेल.’’

‘‘दीदी, अब तो अनीश ही मेरी जिंदगी है. मैं ने उसे दिल से चाहा है, वह जीवनभर मेरा साथ निभाएगा,’’ प्रिया के ये फिल्मी संवाद सुन प्रज्ञा अपना सिर पकड़ लेती.

‘‘क्या हम तुझे नहीं चाहते और अगर तुझे अपने प्यार पर इतना ही भरोसा है तो एक बार पापा से बात कर उसे सब से मिलवा तो सही.’’

एक अनजाने अविश्वास के तहत जाने क्यों प्रिया पापा से बात करने की हिम्मत न जुटा पाई. उस वक्त अनीश द्वारा घर से भाग कर शादी करने का रास्ता उसे रोमांच भरा दिखाई दिया.

अनीश के केयरिंग स्वभाव पर वह उस दिन फिदा हो गई, जब प्रज्ञा दीदी के जोर डालने पर उस ने अनीश को मम्मीपापा से मिलने को कहा, तो उस ने भावावेश में प्रिया को गले लगा लिया और कहा वह अपने प्यार को खोने का रिस्क नहीं उठा सकता है, बस, उसी रात गली के उस पार इंतजार करते अनीश के साथ वह आ गई, घर छोड़ कर आते समय प्रिया का मनोबल चरम पर था. रास्ते में अनीश ने बताया कि वे लोग बेंगलुरु जा रहे हैं, जहां वे कुछ दिन उस के एक दोस्त के घर पर ठहरेंगे और 7 महीने बाद प्रिया के बालिग होने पर शादी करेंगे.

रास्ते भर वह प्रिया को समझाता रहा कि इस दौरान उसे किसी से संपर्क नहीं रखना है, इस मामले में यहां का कानून बेहद सख्त है. विचारों में डूबतीउतराती प्रिया कब नींद के आगोश में चली गई उसे पता ही नहीं चला. अचानक एक स्टेशन पर गहमागहमी के बीच उस की नींद खुली, उस ने देखा तो अनीश अपनी सीट पर नहीं था. बिंदास और मजबूत इरादों वाली प्रिया का हलक सूख गया था. आवेग से उस की आंखें भर आईं, माथे पर पसीने की बूंदें चुहचुहा आई थीं, अकेलेपन के एहसास ने उसे घेर लिया, तभी वह अपना मोबाइल खोजने लगी, पूरा पर्स खंगाल डाला पर कहीं मोबाइल नहीं दिखा.

‘‘आप मोबाइल तो नहीं ढूंढ़ रही हैं?’’ एक आवाज ने उसे चौंका दिया. सामने देखा तो एक युवती बैठी किताब पढ़ रही थी, ‘‘आप ने मुझ से कुछ कहा क्या?’’

‘‘मुझे लगा आप अपना मोबाइल ढूंढ़ रही हैं.’’

‘‘हां, आप ने देखा क्या?’’

प्रिया ने पूछा तो वह बोली, ‘‘तुम्हारे साथ जो लड़का है वह तुम्हारा भाई है क्या ?’’

उस का प्रश्न प्रिया को रुचिकर नहीं लगा. तभी उस युवती ने आगे खुलासा किया, ‘‘तुम्हारा मोबाइल तुम्हारे साथ जो लड़का था वह ले गया है.’’

कातर दृष्टि से इधरउधर देखती प्रिया को उस ने बताया कि वह दूसरे कंपार्टमेंट में बैठा ताश खेल रहा है. प्रिया यह सुन शर्म से गड़ गई. उसे अनीश पर बहुत गुस्सा आया.

‘‘कृपया आप मेरा सामान देखिएगा, मैं वाशरूम जा रही हूं,’’ प्रिया तेजी से निकली. तभी अंधेरे में किसी की आवाज पर उस के पांव वहीं ठिठक गए, दरवाजे के पास खड़ा अनीश मोबाइल पर किसी से कह रहा था, ‘‘बस, ऐसी ही बेवकूफ लड़कियों से तो रोजीरोटी चल रही है हमारी, उस का मोबाइल ले लिया है, 15-20 हजार का तो होगा ही. डर भी था कहीं घर वालों से संपर्क न कर बैठे, मैं बिना बात की मुसीबत मोल नहीं लेना चाहता. अभी पूछा तो नहीं है, पर घर से कुछ न कुछ तो ले कर जरूर आई होगी, घर जो बसाना है मेरे साथ,’’ उस के ये शब्द ठहाकों के साथ हवा में तैर गए.

‘‘और हां सुन, तू सारा इंतजाम रखना, मेरी जिम्मेदारी केवल वहां तक छोड़ने की है आगे तू संभालना, बस, फिल्म मस्त बननी चाहिए.’’

इस वार्त्ता को सुन कर प्रिया का खून बर्फ की तरह जम चुका था, उस के पांव स्थिर न रह पाए. वह गिरने वाली थी कि किसी ने उसे संभाला, वह कैसे अपनी सीट तक आई उसे पता ही नहीं चला, दो घूंट पानी पीने के कुछ क्षण बाद उस ने आंखें खोलीं तो अपने कंपार्टमैंट में बैठी युवती का चिरपरिचित चेहरा दिखा.

‘‘तुम ठीक तो हो न?’’ उस ने जैसे ही पूछा प्रिया की आंखों से अश्रुधारा बहने लगी, उस युवती ने अपने साथ आए शख्स को बाहर भेज दिया और कूपे को अंदर से बंद कर दिया.

‘‘क्या हुआ? साथ आया लड़का बौयफ्रैंड है न तुम्हारा?’’ उस युवती की बात सुन प्रिया फफक पड़ी.

‘‘देखो, वह लड़का ठीक नहीं है. यह शायद तुम्हें भी पता चल गया होगा. मैं जानती हूं कि तुम दोनों घर से भाग कर आए हो.’’

प्रिया ने आश्चर्य और शंकित नजरों से उसे देखा तो वह बोली, ‘‘मेरा नाम सरन्या है. तुम मुझ पर भरोसा कर सकती हो. वैसे तुम्हारे पास और कोई चारा भी नहीं है.’’ युवती की बातों में सचाई थी. वैसे भी अनीश का जो बीभत्स चेहरा वह अभीअभी देख कर आई थी, उसे देख कर तो उस की रूह कांप उठी थी.

‘‘देखो, जो गलत कदम तुम ने उठाया है, जिन कांटों में तुम उलझी हो उस से निकलने के लिए तुम्हें साहस जुटाना पड़ेगा.’’ सरन्या की बातों का प्रभाव प्रिया पर पड़ा. कुछ देर में ही वह संभल गई.

‘‘प्रिया नाम है न तुम्हारा? अपने पापा का नंबर दो मुझे.’’ उस ने अधिकार से कहा तो प्रिया ने पापा का नंबर बता दिया. वह युवती बात करने के लिए बाहर चली गई.

अब तक प्रिया स्थिति का सामना करने को तैयार हो गई थी. कुछ देर में वह वापस आई और बोली, ‘‘मैं ने तुम्हारे पापा से बात कर ली है, वह अगली फ्लाइट से बेंगलुरु पहुंच रहे हैं. अब तुम्हें क्या करना है यह ध्यान से सुनो.’’ वह प्रिया को कुछ बताते हुए अपने साथ आए युवक से बोली, ‘‘मैडम के साथ जो व्यक्ति आया है उसे बताओ कि ये उसे बुला रही हैं और हां, अर्जुन कुछ देर तुम बाहर ही रहना.’’

कुछ देर बाद ही अनीश आ गया तो प्रिया उस से शिकायती लहजे में बोली, ‘‘तुम कहां चले गए थे, अनीश? मैं कितना डर गई थी मालूम है तुम्हें.’’

अनीश उस की बात सुन कर तुरंत बोला, ‘‘मैं तुम्हें छोड़ कर भले कहां जाऊंगा.’’ प्रिया ने कूपे की लाइट जला दी. उसे कुछ देर पहले जिस अनीश की आंखों में प्यार का समुद्र नजर आ रहा था अब उन में मक्कारी दिखाई दे रही थी. अब वह अपनी खुली आंखों से देख रही थी कि किस तरह सतर्कतापूर्वक अनीश इधरउधर देख रहा था. तभी प्यार से प्रिया ने उस से कहा, ‘‘मैं तुम्हें एक खुशखबरी देना चाहती हूं.’’

‘‘क्या?’’ भौचक्का सा वह बोला तो प्रिया ने कहा, ‘‘जानते हो पापा हमारी शादी के लिए राजी हो गए हैं और वे भी बेंगलुरु पहुंच रहे हैं.’’ प्रिया के इस खुलासे से अनीश का तो रंग ही उड़ गया, वह अचानक बिफर गया, ‘‘बेवकूफ लड़की, मैं ने मना किया था कि कहीं फोन मत करना.’’

तभी मानो उसे कुछ याद आया हो, न चाहते हुए भी उस के मुंह से निकला, ‘‘तुम्हारा मोबाइल तो…’’ ‘‘मैं जानती हूं वह तो तुम्हारे पास है.’’ इस से पहले कि अनीश कुछ और पूछता प्रिया अपना आपा खो चुकी थी. उस का हाथ पूरे वेग से लहराया और अनीश के गाल पर तेज आवाज के साथ झन्नाटेदार चांटा पड़ा. क्रोध और अपमान से उस का बदन कांप रहा था. अनीश का सारा खून निचुड़ गया था. शोरशराबे की आवाज बाहर तक चली गई थी. लोगों ने अंदर झांकना शुरू कर दिया था. उतनी देर में टीटीई भी आ गया. उस ने पूछा कि क्या माजरा है? तो बड़े इत्मीनान से वह युवती उठ कर आई और बोली, ‘‘ये मेरी रिश्तेदार हैं, दरअसल यह हमारे साथ बैठा एक यात्री है. हमें लगता है कि इस ने हमारा मोबाइल चुराया है. आप पुलिस बुलाइए.’’ अनीश के चेहरे की हवाइयां उड़ने लगी थीं.

’’देखिए मैडम, यह फर्स्ट क्लास का डब्बा है, आप इस में बैठे यात्री पर इस तरह का इलजाम नहीं लगा सकतीं.’’ टीटीई के बोलने पर अर्जुन बोला, ‘‘मैं भी इन को यही समझा रहा हूं कि पुलिस के झंझट में पड़ने से पहले खुद तसल्ली कर लो,’’ इतना कहते ही उस ने अनीश की जेबें खंगालते हुए प्रिया का मोबाइल निकाल लिया. अनीश सकते में था, पासा यों पलट जाएगा, उस ने तो स्वप्न में भी नहीं सोचा था. तुरतफुरत रेलवे के 2 पुलिस कांस्टेबल आए तो उस युवती ने अपना पहचानपत्र दिखाया. ‘एसीपी सरन्या’ पढ़ कर दोनों ने उसे एक करारा सेल्यूट बजाया तो टीटीई सहित प्रिया भी अचंभे में पड़ गई. टीटीई हंस कर बोला, ‘‘क्या बेटा, चोरी भी की तो पुलिस वालों की?’’

एसीपी सरन्या ने अर्जुन से कहा, ‘‘इंस्पेक्टर अर्जुन, आप इस के साथ अगले स्टेशन पर उतर जाइए, मैं बताती हूं आप को आगे क्या करना है और हां, जरा इसे समझाना और खुद भी ध्यान रखना कि इस लड़की का नाम बीच में न आए, ’’ हंगामे के बीच अनीश को अगले स्टेशन पर उतार लिया गया.

ट्रेन में सवार यात्री इस पर अपनीअपनी टिप्पणी देने में मशगूल थे. प्रिया अपमान और शर्मिंदगी से भरी देर तक रोती रही. तभी सरन्या ने सांत्वनाभरा हाथ उस की पीठ पर फेरा, तो वह सरन्या के गले लग गई और बोली, ‘‘आप ने मुझे बचा लिया, आप का यह एहसान मैं कभी नहीं भूलूंगी.’’

उस की बात पर सरन्या हंस पड़ी और बोली, ‘‘कैसे नहीं बचाती तुम्हें, यह तो वही बात हुई कि एक डाक्टर के सामने किसी ने खुदकुशी करने की कोशिश की. जान तो उस की बचनी ही थी, यह मेरी पहली नियुक्ति है आईपीएस औफिसर के रूप में, तुम ने तो मुझे शुरू में ही इतना बड़ा केस दिला दिया है. मैं तो तुम्हें देख कर ही समझ गई थी कि तुम घर से भाग कर आई हो. ट्रेन में चढ़ते वक्त तो तुम किसी दूसरी ही दुनिया में थीं. किसी और का तुम्हें होश ही कहां था, अलबत्ता वह लड़का जरूरत से ज्यादा सतर्क था.’’

‘‘दूसरों को औब्जर्व करना मेरी हौबी है, उसे देख कर ही मैं समझ गई थी कि वह लड़का ठीक नहीं है. जब मैं ने चुपके से उसे तुम्हारे पर्स से मोबाइल निकालते और पैसे चेक करते देखा तो मुझे बड़ा अजीब लगा. जब वह बाहर गया तो मैं ने अर्जुन से बात कर के उस  पर नजर रखने को कहा, इसीलिए जब तुम वाशरूम गईर् तो तुम्हारे पीछेपीछे मैं भी आई थी. मुझे पता था कि कहीं कुछ गड़बड़ है, पर मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि तुम्हारे जैसी पढ़ीलिखी लड़की आज के जमाने में ऐसी मूर्खता कैसे कर सकती है.

‘‘जरा सोचो, अगर वह अपनी योजना में कामयाब हो जाता तो क्या होता. तुम ठीक समय पर संभल गई अन्यथा उस दलदल में फंसने के बाद जिंदगी दूभर हो जाती.

प्रिया सब सोच कर एकबारगी फिर से सिहर उठी. ‘‘मैं अब घर जा कर सब से नजरें कैसे मिलाऊंगी,’’ कुछ खोई हुई सी वह बोली.

‘‘देखो प्रिया, सवाल यह नहीं है कि तुम सब से कैसे नजरें मिलाओगी, यह सोचो कि तुम अपने वजूद से कैसे नजरें मिलाओगी जिसे तुम ने इतने बड़े जोखिम में यों ही डाल दिया, खुद से नजरें मिलाने के लिए तो तुम्हें अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ेगा, तुम्हारा कर्म ही तुम्हारी अग्नि परीक्षा होगी. अब यह तुम पर निर्भर करता है कि तुम किस तरह से खुद को और अपने भविष्य को संवार कर अपने परिवार के सदस्यों को यह खुशी दो जिस से तुम्हारा यह सफर न तुम्हें और न कभी तुम्हारे परिवार को याद आए.’’

सरन्या की बातों का असर प्रिया की चुप्पी में दिखा, मन ही मन वह आत्ममंथन करती रही. मानसिक रूप से थकी प्रिया कब सो गई पता ही नहीं चला, किसी के स्नेह भरे स्पर्श से आंखें खुलीं, सामने पापा को देख वह छोटी बच्ची की तरह उन से लिपटी, साथ आई प्रज्ञा भी रो पड़ी.

‘‘आप का यह एहसान हम कैसे चुका पाएंगे,’’ पापा सरन्या से बोल रहे थे.

‘‘पापा, आप मुझे कभी माफ कर पाएंगे क्या?’’

उन दोनों की बात सुन कर सरन्या ने प्रिया के पापा से कहा, ‘‘अगर आप वाकई एहसान उतारना चाहते हैं तो मुझ से वादा कीजिए कि आप अपनी बेटी पर भरोसा कायम रखते हुए इस की उड़ान को पंख देंगे, इस सफर को भूलते हुए, आगे की जिंदगी में इस का साथ देंगे, न कि इस सफर का बारबार उल्लेख कर इस की आगे की जिंदगी को दूभर बनाएंगे.’’

‘‘मैं वादा करता हूं कि प्रिया की आज की भूल का जिक्र कर के हम इस के मनोबल को नहीं गिरने देंगे, आज के बाद हम में से कोई भी प्रिया से इस बारे में कोई बात नहीं करेगा.’’

‘‘पापा, आप की बेटी आप का सिर कभी झुकने नहीं देगी, मैं भी सरन्या दीदी जैसा बन कर दिखाऊंगी.’’ सरन्या के व्यक्त्तित्व के प्रभाव से प्रभावित प्रिया पापा का साथ पा कर पूरे आत्मविश्वास से बोली, तो पापा और प्रज्ञा ने उसे प्यार से थाम लिया. सरन्या समझ गई कि अब सही माने में प्रिया भंवर से बाहर निकल चुकी है. उस के होंठों पर तसल्ली भरी स्मितरेखा थी.

Hindi Story : एक नीली चिट

Hindi Story : दोनों ने सबेरे का ढेर सारा काम निबटाया, समीर और शांता ने औफिस के टिफिन लगाए और दोनों बच्चों को स्कूल भेजने के बाद शांता का कुछ देर आराम से पलंग पर लेटने का मन हुआ. उस की मैट्रो थोड़ी देर से थी. समीर का औफिस दूर था. वह जल्दी वाली पकड़ता था.

सुबह काम भी इतना होता है कि नाम में दम आ जाता है. सुबह 5 बजे उठ कर दोनों चाय, दूध, नाश्ता, खाना बनाते खिला 8 बज ही जाते हैं. फिर जब सब के खाने के डब्बे तैयार होते तब कहीं जा कर शांता आराम कर पाती. वह भी मुश्किल से 10 मिनट.

उस के बाद भी शांता हर जगह बिखरे जूते, मोजे, चप्पलें, गंदी बनियानें, जांघिए, पजामेकुरते और तौलिए समेट वाशिंग मशीन में डालती.

घर को सुव्यवस्थित करने का काम, झाड़ूपोंछा, बरतनों की सफाई और कपड़ों की धुलाई पार्टटाइम मेड ही करती थी. जैसा भी करती थी दोनों को मंजूर ही था. शाम को बच्चों को क्रेच से ले कर आती और फिर शुरू हो जाता है अंतहीन काम… बच्चों को खाना दो, कपड़े बदलवाओ, उन के झगड़े निबटाओ और फिर उन का होमवर्क कराओ.

देखते ही रात आ जाती. बच्चों को खाना खिला कर दोनों सोफे पर टीवी के सामने बैठ कर कुछ बतियाते. फिर चाय और खाना बनाने का काम.

मगर कमाल यह है कि इतना अधिक घर और औफिस का काम करने के बावजूद शांता बच्चों के जन्म के बाद काफी मोटी हो गई. थोड़ा काम निबटाने के बाद शांता का मन चाहता कि वह 15 मिनट के लिए लेट जाए. उसे सीढि़यां चढ़ने पर तकलीफ होने लगी थी. उस से कोई व्यायाम नहीं होता.

लाख बार चाहा कि डाइटिंग की जाए पर जब कभी भी खाना छोड़ कर केवल फल, दूध और सलाद खाने का निश्चय करती है तो बजट असंतुलित हो जाता है और उस फिर अपने टिफिन के दालचावल और रोटी पर उतर आती है. शांता की दलील है कि इतना काम भी करो और भरपेट खाना भी न खाओ.

अपने रोज के काम के बासी कार्यक्रम से शांता कभीकभी खीज उठती है. दफ्तर में उस की डैस्क भी बड़ी उबाऊ, एक सा काम लगता. सामने रखे कंप्यूटर में डाटा फीड करते रहो. कभी लंबीचौड़ी किसी से बात नहीं. कब से चाहती है कि कुछ दिनों के लिए कहीं हो आए या फिर समीर ही उसे औफिस से ले कर शाम को कहीं घुमा लाया करे. मगर एक तो कमर तोड़ महंगाई फिर 2-2 बच्चों को कहां लाद कर ले जाए? छुट्टी वाले दिन ही जब मौल या लोकल बाजार जाते ही इन की फरमाइशें शुरू हो जाती हैं, जिन से बचने का एक ही रास्ता है कि शाम भी घर पर गुजारी जाए और छुट्टी भी. शांता वही करती है. सोचती है बच्चे पल गए तो सम?ो जीवन संवर गया. बढ़ते बच्चों के खर्चें कितने होते हैं, इस का एहसास शांता और समीर दोनों को होने लगा था.

मगर कभीकभी शांता को समीर के उदास होने या चुपचाप औफिस से लौट कर मोबाइल, टीवी या लैपटौप में खो जाने पर अथवा अपने मोटे होते शरीर की चिंता सताती है तो वह पूछ बैठती है, ‘‘सच कहना समीर अब मैं पहले जैसी नहीं रही? काफी मोटी हो गई हूं? तुम्हारे दिल में कहीं फर्क तो नहीं आया? गजब हो जाएगा यदि तुम ने कभी ऐसा किया. मैं तुम से बेहद प्यार करती हूं. कभी मु?ा से मुंह मत मोड़ना नहीं तो मैं मर जाऊंगी. आजकल तो औफिस में भी कहीं कोई फ्लर्टिंग नहीं करता. पता नहीं इसलिए कि मैं मोटी हो गई हूं या केस न कर दूं.’’

समीर का उत्तर होता, ‘‘पागल हो? शादी के इतने साल हो गए क्या मैं पहले जैसा रहा हूं? मेरे भी तो बाल उड़ गए हैं और बीचबीच में कितने सफेद भी हो गए हैं… फिर अब बच्चे बड़े हो रहे हैं. उन के इश्क फरमाने के दिन आ रहे हैं. हम तो बुड्ढे हो गए. फुजूल के सवाल न किया करो. तुम हमेशा मेरी रहोगी, चाहे जैसी भी हो..’’

और शांता खुश हो कर मन ही मन समीर के बड़े दिल की दाद देती हुई नए जोश से गृहस्थी की गाड़ी सुव्यवस्थित रूप से चलाने में जुट जाती.

मगर आज शांता ने सोचा कि रोज थोड़ी देर लेटने से उस के काम में देर हो जाती है इसलिए जल्दी से काम निबटाने की सोच उस ने गंदे कपड़े समेट कर सर्फ में भिगो दिए. धोने के लिए बैठते ही उसे याद आया कि समीर के कपड़े तो बैड पर ही पड़े रह गए.

शांता समीर के कपड़े लेने कमरे में आई तो आदतन उस ने जेबें टटोल लीं. पिछली जेब में एक 10 रुपए का सिक्का तथा एक मुड़ी हुई नीली सी चिट पड़ी थी.

उस नीले कागज से आ रही सुगंध से शांता को हैरानी हुई. उस ने सिक्का निकाल कर एक ओर रख दिया और चिट पढ़ने लगी. लिखा था, माई ड्रीम गर्ल अनु… जब से तुम हमारे औफिस में आई हो, मैं अपने दिल का चैन खो बैठा हूं. न घर में चैन पड़ता है और न बाहर. जी चाहता है बस तुम्हें ही देखता रहूं. इतनी कोमलांगी को देखने भर से थकान दूर हो जाती है. मैं जानता हूं शायद इस से मेरे घर की शांति भंग हो जाए, पर मैं मजबूर हूं.

‘शांता में अब वह बात नहीं. कामकाज में उलझ कर वह बिलकुल बहनजी बन गई है. इसलिए मैं उस के साथ कहीं आताजाता भी नहीं.

‘मैं चाहता हूं कि तुम कुछ दिनों तक रोज शाम को कुछ समय मेरे साथ गुजार कर ब्रिंग जौय इन माई लाइफ. देखो, मना मत करना. मैं तुम से और कुछ नहीं चाहता. केवल अपने जीवन के बासीपन को दूर कर के ताजगी चाहता हूं. आई विल वेट फौर रिप्लाई. मैं यह मैसेज व्हाट्सऐप पर नहीं भेज रहा कि कहीं कोई न देख ले.

‘-तुम्हारा प्रेमी.’

चिट पढ़ कर शांता की हिम्मत जाती रही. कौन हो सकती है यह अनु? शायद

औफिस में पास ही बैठती हो? न जाने कितने दिनों से यह नाटक चल रहा है? अब मैं क्या करूं? कैसी मीठीमीठी बातें बनाते थे? अब तो बच्चों के इश्क करने का समय है. हम तो बुड्ढे हो गए हैं और स्वयं ही उलझ गए? जीवन में ताजगी लाना चाहते हैं. आने दो आज… अच्छी खबर लूंगी. पर शांता का यह गुस्सा मिनटों में ही काफूर हो गया.

शांता निढाल हो कर पलंग पर जा लेटी. औफिस फोन कर दिया कि आज शांता नहीं आ पाएगी. शादी के 15 साल बाद यह कैसी समस्या आ खड़ी हुई है? अब तो बच्चे भी बड़े हो रहे हैं. क्या समीर को अपनी उम्र और हैसियत का जरा भी ध्यान न आया?

शांता ने वह पत्र उलटपलट कर कईर् बार देखा और पढ़ा. कहीं गलतफहमी की शिकायत नहीं थी. उस लड़की का पता भी नहीं लिखा था. ख्वाबों में बसी है. न जाने कैसी है? घर का पता लिखा होता तो उस से मिल कर अपनी बसीबसाई गृहस्थी को न उजाड़ने की भीख मांगती. पर अब क्या करे?

शांता को लगा कि वह इतने बड़े संसार में आज अकेली रह गई है अंधेरे से घिरी हुई मानो किसी ने किश्ती में बैठा कर अंधेरे में ही समुद्र के बीच छोड़ दिया है और वह दिशाहीन भटक रही है. समीर ने उस के ट्रस्ट को आज तोड़ दिया था.

शांता का दिल चीखचीख कर रोने को कर रहा था. वह कटी शाख की तरह पलंग पर बिखर कर रोने लगी. आहिस्ता से, जोर से रो भी न सकी.

रोतेरोते शांता को 3-4 दिन पहले की बात अचानक  याद हो आई. उस रात शायद समीर को नींद नहीं आ रही थी. सब काम निबटा कर, बच्चों को सुला कर शांता कमरे में आई तो देखा समीर सिर पर हाथ रखे न जाने क्या सोच रहे थे.

सिर पर हाथ रख कर पूछा तो बोले, ‘‘सिर में दर्द है, पर तुम्हें क्या, रात के 11 बजे मेरी सुध आती है? जाओ अपने बच्चों के कमरे में जा कर सो जाओ.’’

समीर की बात सुन कर शांता को गुस्सा आ गया, ‘‘11 बजे न आऊं तो क्या करूं? सुबह से काम में लगती हूं औफिस जाती हूं, लौट कर किचन संभालती हूं. तब कहीं जा कर धीरेधीरे इस वक्त तक काम निबट पाता है और फिर एक मेड ही तो है वह होमवर्क तो नहीं करा सकती. यह सब भी तो मेरा ही सिरदर्द है. बच्चों के स्कूल के जूते, मोजे, टाई, कपड़े सब तैयार कर के रखने होते हैं. न तैयार करूं तो सुबह आफत हो जाए. मैं पत्नी न हो गई मशीन हो गई. उधर काम भी करूं और व्यंग्य भी सुनूं… हुंह.’’

और भर्राए गले पर काबू पा कर शांता दूसरी तरफ पलंग पर लेट गई. शायद वह सो भी जाती, पर कुछ देर बाद समीर बोला, ‘‘और कुछ नया काम नहीं है… तुम भी वही हो और काम भी वही है पर तुम से अपना भार ही नहीं ढोया जाता तो काम तो देर से होगा ही…’’

सुन कर शांता को बहुत चोट लगी. इस करारे व्यंग्य के लिए वह तैयार न थी. आखिर मन की बात जबान पर आ ही गई है.

छिटक कर बगैर बोले चादर बिछा कर शांता जमीन पर लेट गई और चुपचाप आंसू बहाते हुए न जाने कब सो गई.

दूसरे दिन से फिर वही क्रम चला. आंच जला कर चाय बनाई और फिर समीरको चाय का कप दे कर उठाया. चाय की चुसकियों के साथ मोबाइल पर गुडमौर्निंग कर रहे समीर को दे कर आई. शांता ने दालसब्जी तैयार कर ली थी. टिफिन बौक्स के लिए परांठे सेंके थे. बच्चों को तैयार किया था. उन्हें भेज कर समीर के जाने की भी सारी तैयारी की थी, पर न समीर ही शांता से कुछ बोला और न शांता समीर से. समीर के जिम्मे थोड़े से काम थे. वह फुरती से उन्हें कर देता और फिर मोबाइल पर लग जाता. कभीकभार कोई मैगजीन या पुस्तक भी पढ़ लेता.

दोपहर को 2 बजे तक शांता का गुस्सा शांत हो गया था. उस ने समीर से 2-3 बार मोबाइल चैट भी की. छोटीछोटी सिर्फ काम की. शाम को जब उस ने समीर हंस कर चाय दी तो बात आईगई हो गई. शांता ने सोचा कि समीर ने यों ही बात मजाक में कही है और उसे भी

मजाक की तरह ही लेनी चाहिए. फिर वह पहले से काफी मोटी तो हो ही गई है. पर वह भी क्या करे?

न जाने कब सुबह होती, कब शाम रात में बदल जाती. भारी शरीर से दिनभर घिसटघिसट कर काम करती. बच्चों पर भी ?ाल्लाती, पर काम निबटते ही न थे. बच्चे बड़े हुए, वे स्कूल जाने लगे तो उन को पढ़ाने का काम और बढ़ गया. दोनों बच्चों में से एक का भी जिम्मा समीर ने न लिया था पर वह आराम से उन्हें पढ़ा दिया करता था. रोज दिन की परेशानियों से शांता काफी झल्ला जाया करती थी, पर फिर भी जैसेतैसे गृहस्थी की गाड़ी खींचती जा रही थी. वह भूल गई कि बच्चों को पालने के अलावा उस के जीवन का और भी कोई उद्देश्य है.

मगर आज यह मुई नीली चिट… अच्छा हुआ समीर की असलियत सामने गई. शादी के शुरू के दिनों में दोनों में कितना प्यार था. रोज शाम को घूमने जाते थे, पर बच्चों के बाद न उसे ही वक्त मिल पाता था कि वह सजसंवर कर बच्चों को अच्छे कपड़े पहना कर बाहर घूमने ले जाए और कभी चली भी जाती तो लौटने पर उस का मन ठीक न रहता था.

एक तो थक कर लौटने पर बढ़ गए काम उसे ही समेटने पड़ते थे, दूसरे बच्चों की फरमाइशें कि खास रेस्तरां का ही खाना मंगाया जाए. शांता की सीमित बजट होने के कारण कभी पार्लर जाने की हिम्मत नहीं होती. साल 2 साल में किसी शादी से पहले ही वह जा पाती थी. पर शांता को इस कुरबानी से क्या मिला? चिड़चिड़ा स्वभाव, घर पर अनसंवरे बाल, बेडौल शरीर और प्यार के बजाय नफरत? किसी और लड़की में उल?ा कर समीर भी दूर हो गया. कईकई हफ्ते तो वह बाल डाई भी नहीं करती थी क्योंकि वीकैंड पर ढेरों काम पड़े दिखते थे.

आखिर मन का क्रोध आंखों की राह बह निकला. फूटफूट कर रोने के बाद मन कुछ हलका हुआ तो शांता उठी. किसी तरह सब कपड़े समेटे. नीली चिट को पैंट की उसी जेब में रख कर पैंट बैड पर रख दी और नहा कर बिस्तर पर आ लेटी. किसी काम में मन लग ही न रहा था. कल के धुले कपड़ों में प्रैस करनी थी, कुछ उधड़े कपड़ों को सीने को भेजना था, टूटे बटन लगाने थे, पर मन न जाने कैसा हो रहा था.

शांता एक बार फिर उठी. उस मुई नीली

चिट ने उसे विक्षिप्त सा कर दिया था. सोचा

शायद कहीं किसी कोने में कुछ और न लिखा

हो. उस ने पत्र पढ़ा, दोबारा, तिबारा, चौथी और 5वीं बार.

दोपहर के 2 बज रहे थे. औफिस के रूटीन से हट कर शांता ने अकेले शायद ही कभी टाइम घर पर बिताया हो यानी कोईर् मेहमान आता तो छुट्टी लेती या कोई बीमार पड़ता तब शांता ने सुबह से कुछ खाया न था और अभी भी उसे बिलकुल भूख न थी. पलभर में ही शांता का जीवन उलटपुलट गया था.

शाम को समय से बच्चे स्कूल से आए तो शांता उठी. बच्चों को खाना खिलाया

और उन का होमवर्क कराया. यह सब न जाने कब और कैसे हुआ शांता को कुछ पता न चला. उस का दिमाग तो न जाने कहांकहां जा रहा था. शादी के 15 साल बाद सफर के इस मोड पर आ कर किस से सलाह लेती, फिर लेती भी तो लोग उसी पर हंसते. कोई ऐसा जादू न था जो एक फूंक के मंत्र से पहले जैसी पतली, सुकोमल बना देता? शांता मन ही मन घुटती रही.

पहले शांता ने सोचा आने दो आज समीर को, खूब आड़े हाथों लूंगी. पर मन के किसी

कोने में दबी भावनाओं ने यह सब करने के

लिए मना कर दिया. शायद उसे लगा इस से

उड़ते हुए समीर को बांधना असंभव हो जाएगा. फिर सोचा, समीर के किसी दोस्त से ही विस्तारपूर्वक सब पूछ लेगी, पर यह भी उसे अपना अपमान लगा.

सोचने लगी क्या वह अपने बीते हुए सुखद दिन फिर न लौटा सकेगी? वह तो समीर को बेहद प्यार करती है. उस के बगैर अपने जीवन की कल्पना भी कितनी भयावक है. फिर शांता ने तो अपनी हर सांस में प्यार की सुगंध घोलनी चाही थी. समीर ने भी इस के प्रतिवाद में सिर्फ उसी के रहने के वादे किए थे पर सब चकनाचूर हो गया. एक लंबी आह भर कर आंखों के गीलेपन को समेट कर शांता उठी.

बच्चे अपने कमरों में खुद बिजी हो गए थे. उस ने कपड़े बदले और समीर का इंतजार करने लगी. समीर जब आया तो बगैर कुछ कहे शांता ने चाय बनाई और दोनों ने मिल कर पी. लाख चाहने पर भी आज शांता के मुंह से बोल न फूट रहे थे.

चाय पीने के बाद शांता रात के खाने में जुट गई और खाना खिलाने तथा काम निबटाने के बाद स्वयं अपने कमरे में आ गई. इतनी जल्दी शांता को काम निबटा कर आता देख समीर हैरान हुआ, फिर एक नजर उस पर डाल कर पढ़ने में व्यस्त हो गया और कुछ देर बाद बिना कोई बात किए सो गया.

मगर शांता की आंखों में नींद कहां? थकान के बावजूद अपनी फटती आंखों पर अनचाहा बो?ा समेटे सोने का यत्न करती रही. पर उन आंखों में तो उसे केवल अनिश्चित भविष्य दिखाई दे रहा था. नींद का प्रश्न ही नहीं था. शांता को लगा कि वह ऐसे कगार पर आ खड़ी हुई है, जहां शायद आत्महत्या के सिवा कोई और चारा नहीं है.

मन की आग ने शांता को पूरी तरह जला डाला था. लेटीलेटी वह समीर के साथ बिताए अच्छे और बुरे क्षणों के बारे में सोचती रही. जब उस की आंख लगी तो रात लगभग बीत चुकी थी.

दिन चढ़ आया था. बच्चों की खटरपटर ने उसे जगा दिया. भागदौड़ कर जैसेतैसे सब काम निबटाए. सब के जाने पर वह टूटी हुई सी एक प्याला चाय पी कर औफिस जाने की मैट्रो पकड़ने रास्ता भर आंखें बंद कर के न जाने क्याक्या सोचती रही.

उस शाम आई तो पैंट वहीं एक कुरसी पर पड़ी. बेतरतीब, धुलने का इंतजार करती हुई सोच कर समीर की पैंट फिर टटोलने पहुंच गई कि देखे वह चिट अभी पड़ी है या नहीं? परंतु वह चिट वहां नहीं थी. तो क्या समीर ने निकाल ली? यानी अपने सपनों की रानी तक पहुंचा दी.

सोचसोच कर शांता का मन इतना व्यथित हुआ कि वह फूटफूट कर रोने लगी. बच्चों के आने का समय हो गया तो उस ने जल्दी से खाना बनाना शुरू कर दिया और बच्चों को वही खिलापिला कर कमरों में भेज दिया.

मां को इतना चुप बच्चों ने कभी न देखा था. उल?ो बालों, पपड़ाए होंठों और बेचैन आंखों को देख कर मुकेश बोला, ‘‘मां, तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न? आज कैसी हो रही हो?’’

शांता का दिल किया कि इस सहानुभूति पर रो दे, पर मन पक्का कर के बोली, ‘‘ऐसे ही कुछ सिर में दर्द है. मेरा खाने को भी मन नहीं है. तुम लोग अपनेअपने कमरे में जाओ.’’

बच्चे चले गए तो शांता कुछ सोच कर शीशे के आगे जा खड़ी हुई. अपनी सूरत देख

कर वह स्वयं ही चौंक गई. उसे लगा वह वास्तव में बुढ़ा गई है. आंखों के नीचे काले गड्ढे, खिचड़ी बाल, थुलथुल बदन, कैसी निश्चिंत थी वह अब तक.

अचानक शांता उठी. रसोई में से एक नीबू काट कर अपने सारे मुंह, हाथों और बांहों को रगड़ा. फिर बेसन और दही से मुंह धोया और उबलते पानी से मुंह पर भाप दे कर फेस पैक लगा कर खाने की तैयारी में जुट गई. एक औनलाइन डिलिवरी वाले से 300-400 रुपए की क्रीम, सैंट, सीरम, फेस पैक मंगाया और लगाया.

आधे घंटे के बाद नहाई, अच्छी तरह मुंह साफ कर के क्रीम मली, बिंदी लगाई, अच्छे ढंग से बाल संवारे और प्रैस की हुई सलवारकमीज पहन कर वह समीर का इंतजार करने लगी जो अब देर से ही आ रहा था.

उस शाम भी समीर देर से आया. शांता का दिल इतना समय छलनी होता रहा. इस का अर्थ था कि वह कलमुंही शाम के समय समीर को ताजगी देने के लिए सहमत हो गई है. अजीब बेचैनी में शांता ने 2 घंटे गुजारे.

शांता की भूख को न जाने क्या हो गया था. जब से उस ने वह नीली चिट पढ़ी थी, सिर्फ 2 कप कौपी ही पी थी. एक भी दाना अन्न का वह नहीं खा पाईर् थी.

शाम को 7 बजे समीर लौटा. बिलकुल ताजा दम, थकावट रहित. शांता देख कर कुढ़ गई, पर सिर्फ यही बोली, ‘‘आज बड़ी देर कर दी?’’

समीर कुछ देर उसे मुसकरा कर देखता रहा, फिर बोला, ‘‘औफिस में इन दिनों काम कुछ ज्यादा है. रोज 1-2 घंटे अधिक लगेंगे, पर हमें चायनाश्ता वहीं से मिल जाया करेगा. आज भी मिला. तभी ज्यादा काम के बावजूद थकावट महसूस नहीं हो रही. एकदम तरोताजा हूं…’’ और वह बैठ कर गुनगुनाते हुए जूतों के फीते खोलने लगा. ?ाकने पर समीर की पीछे की जेब से बालों की छोटी कंघी दिखाईर् पड़ी तो शांता का दिल न जाने कैसा हो गया.

शुरू में शादी के बाद समीर वक्तबेवक्त कंघी करने के लिए जेब में कंघी जरूर रखता था. शांता तब हंस कर कहा करती, ‘‘इतने सजेधजे न रहा करो. कहीं किसी ने तुम पर डोरे डाल दिए तो मैं कहां जाऊंगी?’’

और तब समीर हंसता हुआ कहता, ‘‘नहीं भई, इस जीवन में तो मेरे पर डोरे डालने वाली आ गई. अब और गुंजाइश नहीं. हां, तुम्हें मेरे कंघी रखने से चिढ़ है तो लो आज से मैं जेब में कंघी नहीं रखूंगा,’’ और समीर ने जेब में कंघी रखना बंद कर दिया था. पर अब फिर…

शांता का मन किया कि अभी सारी पोल खोल दे कि वह इतनी भोली नहीं. वह उस के तरोताजा होने का राज जानती है, पर अपना सारा गुस्सा दबा कर बोली, ‘‘चाय लाऊं?’’

समीर गुनगुनाना बंद कर बोला, ‘‘चाय तो मैं पी कर आया हूं. तुम इंतजार न किया करो. अब तो सीधे खाना ही खाऊंगा,’’ कह समीर गुसलखाने में घुस गया.

शांता के मन में आया कि वह समीर को गुसलखाने से बाहर खींच लाए और कहे कि उन के संबंधों के धागे इतने कच्चे नहीं कि इतनी आसानी से टूट जाएं या फिर रोरो कर कहे कि तुम्हारे बिना मेरी जिंदगी का कोई अर्थ नहीं है और मु?ो तुम्हारे नाम के साथ जुड़े रहने का पूरा हक है. पर वह ऐसा कुछ कह न सकी और आंखो में आए आंसुओं को बांह से पोंछ कर रसोई में चली गई. वह जानती भी थी कि न तो वह मानसिक रूप से समीर से अलग रह सकती है, न आर्थिक या सामाजिक रूप से.

रात का खाना निबटा कर स्वयं बगैर खाए शांता बिस्तर पर पड़ कर करवटें बदलती रही. फिर सुबह हुई फिर शाम, सुबह और शाम. अपना क्रम बदलते रहे और शांता घुटती रही. पलपल मरती रही पर समीर से कुछ कह न सकी.

हर शाम समीर ने 2 घंटे देर से आने का नियम सा बना लिया और उन 2 घंटों के 1-1 मिनट में शांता शारीरिक और मानसिक रूप से घुलती रही. इस घुटन में उस की भूखप्यास ही मर गई. दिन में औफिस में वह और ज्यादा उदास रहती जबकि पहले से ज्यादा स्मार्ट दिखने लगी थी, उस का वजन घटने लगा था.

शांता ने निश्चय कर लिया था कि  वह अपने शरीर का खूब ध्यान रखेगी. शायद समीर की उस पर नजर पड़े और शायद वह उसे कुछ ताजगी देने में समर्थ हो सके. इसलिए खाली होते ही वह अपने हाथ, पैर, मुंह, गरदन और पैरों की क्रीमों से देखभाल में व्यस्त हो जाती.

सुबह उठते ही गरम पानी में एक नीबू निचोड़ कर पीती और सब से पहले व्यायाम करती. अन्य काम निबटाने के बाद 1 प्याला चाय पी कर हाथ, पैरों और मुंह की मालिश में व्यस्त हो जाती. नीबू, क्रीम, फेसपैक, सीरम, ग्लिसरीन से हाथपैर काफी सुंदर हो गए थे. मुंह पर भी पुराना सलोनापन लौटने लगा था.

शांता को अब भूख तो लगती ही न थी. कभी बेचैनी होती तो वह नीबू पानी ही लेती. शाम को केवल 1 कप दूध ही पीती. अपना टिफिन आधा ही खाया जाता.

इसी तरह 10 दिन बीत गए. इस बीच शांता समीर से बहुत कम बोली थी. उस दिन हिम्मत जुटा कर बोली, ‘‘रोज दिन के एकजैसे ढर्रे से ऊब होने लगती है. आजकल बच्चों के ऐग्जाम तो हैं नहीं, अपने दोस्तों के घर कभी हमें ले चलो या उन्हें ही घर पर डिनर को इनवाइट कर लो. जब कहोगे मैं घर पर ही पूरी तैयारी कर दूंगी. इस तरह मिलतेजुलते रहने से जीवन में ताजगी बनी रहती है.’’

शांता ने सोचा कि  इसी बहाने वह किसी एक मित्र से अनु के बारे में सारी जानकारी ले लेगी. मगर समीर बोला, ‘‘क्यों फालतू में पैसे खराब करती हो? हमारे घर में ऐसी कोई खास बात तो है नहीं जो सब को निमंत्रण देता फिरूं. न बाबा… इस फुजूलखर्ची से तो बेहर है कि तुम्हें एक साड़ी ही ला दूं.’’

सुन कर शांता को खीज भी हुई और खुशी भी. खीज इसलिए कि समीर की पोल न खुल जाए. इसलिए वह दोस्तों के नियंत्रणको टाल

गया और खुशी इसलिए कि अभी भी वह उसे प्यार तो करता ही है. कम से कम पैसे बरबाद करने के स्थान पर उस के लिए साड़ी होने को तैयार हो गया.

8वें दिन शाम को समीर आशा के अनुरूप 8 बजे की जगह ठीक 7 बजे घर पहुंच गया तो शांता कभी उसे देखती कभी स्वयं के चेंज पर लग जाती. औफिस में भी उस के चारों और मंडराने वाले बढ़ने लगे थे.

पर तभी समीर उसे देख कर हैरान होता हुआ बोला, ‘‘भई, कमाल हो गया. आजकल देख रहा हूं दिनबदिन जवान होती जा रही हो. क्या चक्कर है? आज तो तुम गजब ढा रही हो. चलो, आज इसी खुशी में रात का खाना कहीं बाहर खाएंगे.’’

शांता खुश तो हुई, पर उसे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. बोली, ‘‘अरे तुम्हारा तो पेट भरा होगा औफिस के चाय नाश्ते से और तुम्हें तो लैपटौप पर काम भी करना होगा, उस का क्या?’’

समीर ठठा कर बोला, ‘‘आज से बंद… अब कल से ठीक इसी समय पर आया करूंगा और तुम्हारी आंखों के आगे बैठ कर अपने पुराने दिन दोहराया करूंगा.’’

शांता को यह ठिठोली अच्छी न लगी. चिढ़ कर बोली, ‘‘रहने दो. तुम्हारी सारी पोल मैं जानती हूं. अब मैं किस काबिल हूं. तुम तो बाहर साथी ढूंढ़ने लगे. न जाने किस कलमुंही अनु को खत…’’ और आगे कुछ न कह सकी. शांता के आंसू बहने लगे. समीर हंसतेहंसते लोटपोट हो गया.

फिर बोला, ‘‘सच शांता, क्या कहूं तुम्हें? मैं तो इन 8 दिनों में बोर हो गया. 2 घंटे रोज मोहन के घर गुजारता था यह बहाना कर कि तुम मायके गई हुई हो.

‘‘तुम अपने मोटे होते शरीर को देखते हुए भी कुछ करती न थी. सोचा एक ?ाटका हूं,

शायद तुम इधर ध्यान दो. सो यह सब करना पड़ा. वह नीली चिट इसी कारण रखी थी. जब तुम ने जेब से 10 रुपए का सिक्का निकाल लिया और चिट वहीं रख दी तो मैं सम?ा गया कि तुम ने चिट पढ़ ली है. बस मैं ने यह चिट गायब कर दी और रोज ?ाक मार कर मोहन के यहां चाय पी कर आता रहा.

‘‘पर लौट कर तुम्हारा उदास चेहरा देखता तो जी होता कि सब ?ाठ उगल कर तुम्हें बांहों में भर लूं और तुम्हारा सारा तनाव दूर कर दूं.

‘जब एक रात मेरे मुंह से निकल गया कि तुम से तुम्हारा भार ही नहीं ढोया

जाता और तुम जमीन पर रोतेरोते सो गई तो मुझे बहुत दुख हुआ. मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था.

‘‘उसी रात तुम्हें झटका देने का विचार मेरे मन में आया था. चूंकि तुम मुझे बहुत प्यार करती हो इसलिए मुझे कहीं और उलझ समझ कर तुम झटका खा जाओगी, इसीलिए वह नीली चिट लिख कर रखनी पड़ी. जरा शीशे में जा कर तो देखो कितनी बढि़या फिगर निकल आई है.

शायद इन 8 दिनों में 10 किलोग्राम वजन तो कम हो ही गया होगा. और फिर तुम्हारी सजधज…वाह क्या कहने…’’

समीर ने आगे बढ़ कर शांता को बांहों में भरना चाहा तो वह बोली, ‘‘यदि तुम सच बोल रहे हो तो वह चिट तुम्हारे पास होगी.’’

‘‘यह लो,’’ कह कर समीर ने पर्स से वह नीली चिट निकाल कर शांता के हाथ में थमा दी. शांता भी इस योजना पर हंसे बगैर न रह सकी.

अपने काले बालों को संवारती हुई उठी और समीर के कंधे से झुल गई. भारहीन, तनावरहित और खुश होती हुई बोली, ‘‘इसी खुशी में जरा मेरा वजन ले लेना पहले,’’ और फिर हंसती हुई तैयार होने चल दी. आज उसे लग रहा था कि इस संसार में उस जैसा खुश कोई नहीं.

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