Financial Planning: विवाह करने वाले जोड़ों के लिए वित्तीय चेकलिस्ट

Financial Planning: शादी सिर्फ़ भावनात्मक साझेदारी ही नहीं है—यह एक वित्तीय साझेदारी भी है. इससे पहले, कपल्स को अपने वित्तीय मामलों पर ईमानदारी से बातचीत करनी चाहिए. शादी से पहले एक वित्तीय चेकलिस्ट तैयार करने से कपल का आपसी विश्वास मजबूत होता है, इसके साथ ही दोनों के बीच  लंबे समय तक फाइनेंस  को लेकर सुरक्षित महसूस करते हैं. यह उनके रिश्ते की नींव को और भी मजबूत बनाता है.

बचत और बजट से लेकर बीमा और सेवानिवृत्ति योजना तक, वित्तीय आदतों और लक्ष्यों पर खुली चर्चा यह सुनिश्चित करने में मदद करती है कि दोनों साथी एकमत हों. वैवाहिक जीवन की शुरुआत एक मज़बूत वित्तीय बुनियाद  तैयार करने में यह वास्तविक वित्तीय चेकलिस्ट कपल की मदद करेगा.

शादी से पहले जोड़ों के लिए वित्तीय चेकलिस्ट

सफल विवाह,  प्रभावी वित्तीय टीमवर्क पर आधारित होते हैं. इस चेकलिस्ट पर एक नजर डालें और सुनिश्चित करें कि आप अपने जीवन का नया अध्याय शुरू करने से पहले हर सुझाव को फॉलो करेंगे –

  1. ईमानदारी से पैसे के बारे में बातचीत शुरू करे

शादी से पहले, पैसों के बारे में खुलकर बात करें. ईमानदारी विश्वास का आधार है; दोनों साथियों को अपनी आय, संपत्ति, कर्ज और खर्च करने की आदतों के बारे में सच बोलना चाहिए. क्रेडिट कार्ड ऋण, छात्र ऋण और किसी भी मौजूदा वित्तीय प्रतिबद्धताओं पर चर्चा करें.

एक-दूसरे के आर्थिक दृष्टिकोण को समझने से यह समझने में मदद मिलती है कि कहां टकराव हो सकता है. वित्तीय ईमानदारी नवविवाहित जोड़ों के लिए सफल वित्तीय योजना की कुंजी है. यह विवाह की शुरुआत में ही दोनों पति-पत्नी को एक जानकार टीम के सदस्य के रूप में समान स्तर पर रखती है.

  1. अपना संयुक्त वित्तीय ढांचा तैयार करें

पूरी पारदर्शिता के साथ, अपने संयुक्त वित्तीय ढांचे का निर्माण शुरू करें. एक साझा बजट बनाएं जिसमें आय, बचत, निश्चित लागत और विवेकाधीन खर्च शामिल हों. संयुक्त या व्यक्तिगत बैंक खाते—या दोनों पर सहमति बनाएँ.

पूरी पारदर्शिता के साथ, अपना संयुक्त वित्तीय ढांचा बनाना शुरू करें. एक एकीकृत बजट बनाएं जिसमें आय, बचत, निश्चित लागत और विवेकाधीन खर्च शामिल हों. संयुक्त या व्यक्तिगत बैंक खातों पर—या दोनों पर—आपसी सहमति बनाएं.

जोड़ों को बिलों के भुगतान और वित्तीय निर्णयों पर भी सहमत होना चाहिए. अगर किसी भी साथी को पिछली शादी से संपत्ति या वित्तीय दायित्व विरासत में मिले हैं, तो किसी वित्तीय योजनाकार से सलाह लेना बुद्धिमानी होगी. इससे आप दोनों को अपने धन संबंधी व्यवहार में सामंजस्य बिठाने और समझदारी भरी उम्मीदें रखने में मदद मिलेगी.

  1. नई देनदारियां जोड़ने से पहले देनदारियों का प्रबंधन करें

अगर तुरंत समाधान न किया जाए, तो किसी भी तरह का कर्ज़ नवविवाहित जोड़ों पर बहुत ज्यादा दबाव डाल सकता है. छात्र ऋण, व्यावसायिक या व्यक्तिगत ऋण सहित सभी मौजूदा ऋणों की समीक्षा करें और उनका लिस्ट तैयार करें. पहले अधिक ब्याज वाले ऋणों का भुगतान करने की योजना बनाएं और यह तय करें कि भविष्य के ऋण, जैसे कार ऋण या बंधक, का प्रबंधन कैसे किया जाएगा.

अपने क्रेडिट स्कोर के बारे में पारदर्शी रहें और उन्हें बेहतर बनाने के लिए काम करें, क्योंकि ये आपके वित्तीय लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण हैं. देनदारियों का समय पर प्रबंधन करने से आप कर्ज के बोझ तले दबे रहने के बजाय बचत और निवेश पर ध्यान केंद्रित कर पाते हैं.

  1. अपनी वित्तीय सुरक्षा को मजबूत करें

शादी से पहले और बाद में एक आपातकालीन निधि ज़रूरी है. एक तरल बचत खाते में तीन से छह महीने के जीवन-यापन के खर्च के बराबर बचत करने का लक्ष्य रखें. यह निधि नौकरी छूटने, बीमारी या अप्रत्याशित बिलों से सुरक्षा प्रदान करती है. इसके अलावा, एक ऐसा सुरक्षा जाल बनाएँ जो चिकित्सा, कार और जीवन बीमा के माध्यम से आपके जीवन के हर पहलू (आपके स्वास्थ्य, वाहन और परिवार) की रक्षा करे.

जीवन बीमा खरीदना, विशेष रूप से, आपके परिवार के भविष्य को सुरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह आपके जीवनसाथी और बच्चों को किसी अप्रत्याशित घटना की स्थिति में गंभीर वित्तीय संकट से बचाता है। यह वित्तीय स्थिरता प्रदान करता है, ऋणों का निपटान करने में मदद करता है, जीवन-यापन के खर्चों को कवर करता है, और किसी भी चिकित्सा या अंतिम खर्च को कवर करता है।

  1. एक जोड़े के रूप में टैक्स की योजना बनाएं

विवाह आपकी टैक्स स्थिति को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित कर सकता है. चर्चा करें कि संयुक्त आय आपके टैक्स दायरे को कैसे प्रभावित करती है और क्या संयुक्त रूप से या अलग-अलग दाखिल करना बेहतर है. एक टैक्स सलाहकार जोड़ों के लिए कटौतियों, रोके गए करों और क्रेडिट की संभावनाओं का पता लगाने में सहायता कर सकता है.

अपनी टैक्स रणनीति की शुरुआती समीक्षा करने से शादी के पहले साल में निराशाओं से बचने में मदद मिलती है और नई साझा वित्तीय ज़िम्मेदारियों का पालन सुनिश्चित होता है. उचित टैक्स नियोजन नवविवाहितों के लिए दीर्घकालिक वित्तीय योजना को बेहतर बनाता है और बचत को अधिकतम करता है.

  1. संयुक्त निवेश जल्दी शुरू करें

अपने भविष्य के लिए धन जुटाने हेतु एक जोड़े के रूप में जल्दी निवेश करें. अपने साथी से इस बारे में बात करें कि आप म्यूचुअल फंड या रियल एस्टेट जैसे अन्य निवेशों के साथ-साथ सेवानिवृत्ति खातों में कितना योगदान देंगे. संयुक्त निवेश आपको दीर्घकालिक वित्तीय लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद करते हैं—जैसे घर खरीदना, बच्चों की शिक्षा का खर्च उठाना, या समय से पहले सेवानिवृत्ति लेना.

अगर आप दोनों में से कोई आर्थिक रूप से ज़्यादा स्थिर है, तो निवेश के फ़ैसले साथ मिलकर लें ताकि दोनों को अच्छी जानकारी हो. जल्दी शुरुआत करें ताकि चक्रवृद्धि रिटर्न आपके पक्ष में काम करे और एक इकाई के रूप में आपको आर्थिक आज़ादी हासिल करने में मदद मिले.

  1. भविष्य के लक्ष्यों और जिम्मेदारियों पर चर्चा करें

शादी में न सिर्फ़ साझा सपने होते हैं, बल्कि साझा ज़िम्मेदारियाँ भी होती हैं. तय करें कि इन्हें अपनी दीर्घकालिक वित्तीय योजना में कैसे शामिल किया जाए. जैसे-जैसे शादी आगे बढ़ती है और वित्तीय प्राथमिकताएँ बदलती हैं, यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि दोनों पार्टनर अच्छी तरह से सुरक्षित रहें.

जोड़े भविष्य में स्थिर आय सुनिश्चित करने के लिए गारंटीड रिटर्न बीमा योजना पर विचार कर सकते हैं. बाजार की स्थितियों के साथ उतार-चढ़ाव वाले अन्य निवेश विकल्पों के विपरीत, यह योजना एक स्थिर आय स्रोत प्रदान करती है, जो कम जोखिम वाले व्यावसायिक जोड़ों को आकर्षित करती है.

इसके अलावा, जोड़ों को वसीयत, लाभार्थियों और पावर ऑफ अटॉर्नी सहित संपत्ति नियोजन पर चर्चा करनी चाहिए. भविष्य की आकांक्षाओं के बारे में एकमत होने से यह सुनिश्चित होता है कि आपका विवाह धारणाओं के बजाय आपसी समझ पर आधारित हो.

  1. वित्तीय समीक्षा करें और खुला संचार बनाए रखें

वित्तीय स्थिति और अपेक्षाएँ समय के साथ बदलती रहती हैं, इसलिए समय-समय पर जाँच ज़रूरी है. प्रगति की समीक्षा करने, अपने बजट को दुरुस्त करने और लक्ष्यों का आकलन करने के लिए, मासिक या हर कुछ महीनों में, कुछ निश्चित तिथियाँ निर्धारित करें. शादी के बाद, सभी खातों, लाभार्थियों और पतों की समीक्षा करें.

जैसे-जैसे साझेदारी बढ़ती है, अपनी बीमा ज़रूरतों, निवेश रणनीतियों और सेवानिवृत्ति योजनाओं की समीक्षा करें. पारदर्शिता बनाए रखने से ग़लतफ़हमियाँ दूर रहती हैं और आपका रिश्ता आर्थिक रूप से मज़बूत रहता है. बातचीत को खुला और ईमानदार रखने से आपको एकजुट रहने और आर्थिक रूप से साथ-साथ आगे बढ़ने में मदद मिलती है.

एक जोड़े के रूप में वित्तीय संतुलन हासिल करना अपने आप नहीं होता—यह खुलेपन, सहयोग और सोची-समझी योजना से बनता है. जोड़ों के लिए इन वित्तीय लक्ष्यों का पालन करके, आप एक स्वस्थ वित्तीय साझेदारी की नींव रखेंगे.

अपने लक्ष्यों पर पुनर्विचार करते रहें, अपनी योजनाओं में बदलाव करते रहें और एक-दूसरे की आकांक्षाओं का समर्थन करते रहें. नवविवाहितों के लिए स्मार्ट वित्तीय योजना आपके वित्तीय भविष्य को मज़बूत बनाती है और साथ ही एक मज़बूत, अधिक मज़बूत रिश्ते के लिए आपसी विश्वास का निर्माण करती है.

Financial Planning

Motivational Story: तुम डरना मत राहुल- पिता ने बेटे को सिखाया सही रास्ता

Motivational Story: सारा ने कालेज जाने के लिए तैयार अपने बेटे राहुल को प्यारभरी नजरों से निहारते हुए कहा, ‘‘नर्वस क्यों हो बेटा. मेहनत तो की है न, एग्जाम अच्छा होगा, डोंट वरी.’’ राहुल ने मां से मायूसी से कहा, ‘‘पता नहीं मां, देखते हैं.’’

औफिस के लिए निकलते जय ने राहुल से कहा, ‘‘आओ बेटा, आज मैं तुम्हें कालेज छोड़ देता हूं.’’ ‘‘नहीं पापा, रहने दीजिए, मुझे अजय को भी उस के घर से लेना है, उस की स्कूटी खराब है, मैं अपनी स्कूटी ले जाऊंगा तो आने में भी हमें आसानी रहेगी.’’

‘‘ठीक है, औल द बैस्ट,’’ कह कर जय औफिस के लिए निकल गए. सारा ने भी स्नेहपूर्वक बेटे को विदा किया और उस के बाद वह घरेलू कामों में लग गई. वह घर के काम तो कर रही थी पर उस का मन राहुल में अटका था. सारा और जय के अंतर्जातीय प्रेमविवाह को 25 साल हो गए थे. दोनों के बीच न तो धर्म कभी मुद्दा बना, न ही दोनों ने कभी लोगों की परवा की. दोनों का मानना था कि प्रेम से अनजान लोग इंसान के दिलोदिमाग को धर्म के बंधन में बांधते रहते हैं. धर्म को एक किनारे रख दोनों ने कोर्टमैरिज कर वैवाहिक जीवन की मजबूत नींव रख ली थी. लेकिन 21 वर्षीय राहुल कुछ समय से धर्म के बारे में भ्रमित था, उस के सवाल कुछ ऐसे होते थे, ‘मां, कौन सी सुप्रीम पावर सच है? हर धर्म अपने को बड़ा मानता है, पर वास्तव में बड़ा कौन सा है?’

सारा और जय अभी तक तो हलकेफुलके ढंग उसे जवाब दे देते थे लेकिन अब सारा को बात कुछ गंभीर लग रही थी, राहुल इस विषय पर बहुत सोचने लगा था. धर्म से जुड़ी हर बात पर उस का एक तर्क होता था. न कभी सारा ने इसलाम धर्म की बात की थी और न ही जय ने कभी वेदपुराण व पंडितों की. दोनों, बस, जीवन की राह पर एकदूसरे के साथ प्यार से आगे बढ़ रहे थे. जय उच्च पद पर कार्यरत था जबकि सारा एक अच्छी हाउसवाइफ थी.

राहुल के बारे में यों ही सोचतेसोचते सारा का पूरा दिन निकल गया और राहुल शाम को परीक्षा दे कर घर भी आ गया. वह खुश था, उस का एग्जाम बहुत अच्छा हुआ था. दोनों मांबेटे ने साथ खाना खाया और राहुल फिर सारा के पास ही लेट गया. राहुल को गंभीर देख सारा ने पूछा, ‘‘क्या सोच रहे हो बेटे?’’ ‘‘वही सब मां.’’

सारा सचेत हुई, ‘‘क्या?’’ ‘‘बस, यही कि मैं जब अजय को लेने गया तो वह पूजा कर रहा था. उस की मम्मी ने उसे तिलक लगाया, उस का मीठा मुंह करवाया और उसे शुभकामनाएं दीं. लेकिन इतना कुछ करने के बाद भी अजय के अधिकांश सवाल तो छूट ही गए और काफी कुछ उसे आया भी नहीं. वह काफी उदास था, कह रहा था कि इतना पूजापाठ किया, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला. पर आप ने तो यह सब नहीं किया, फिर भी मेरा एग्जाम अच्छा हुआ. मां, आखिर उस का इतना पूजापाठ करने का क्या फायदा हुआ. क्यों नहीं सुनी गई उस की. वैसे, मैं मन ही मन काफी डरा हुआ था, हमेशा की तरह आप मुझे ऐसे ही भेज रही थीं पर मेरा एग्जाम बहुत अच्छा हुआ, मां.’’

सारा आज बेटे के मन की सारी दुविधा दूर करने के लिए तैयार थी, ‘‘वह इसलिए बेटा, तुम ने बहुत मेहनत की और सफलता हमेशा मेहनत से ही मिलती है, इन सब ढोंगों

से नहीं.’’ ‘‘पर मां, हम लोग तो कभी कोई पूजापाठ नहीं करते, मेरे अन्य दोस्तों के यहां तो अलग ही माहौल होता है. आरिफ तो रातरात भर जाग कर इबादत करता है और कैरेन हर संडे चर्च जरूर जाती है चाहे कुछ हो जाए. अजय का हाल तो मैं ने अभी आप को बता ही दिया है. मां, आप को डर नहीं लगता कि हम लोगों के साथ कुछ बुरा न हो जाए? कहीं जो एक सुप्रीम पावर है, वह हम से नाराज न हो जाए.’’

‘‘कौन सी सुप्रीम पावर की बात कर रहे हो बेटा? यह सब, बस, धर्म का डर है जो पीढि़यों से हमारे परिवार वाले हमारे अंदर बिठाते चले गए. राहुल, यह हमारे अंदर बैठा धर्म का बस एक डर है जो हमें इन अंधविश्वासों को मानने के लिए मजबूर करता है. तुम कभी डरना मत. बस, सचाई और मेहनत से आगे बढ़ते चलो.’’ ‘‘पर मां, धर्म भी तो सच बोलने के लिए कहता है.’’

‘‘सचाई धर्म की नहीं, समाज की मांग है कि हम सच बोलें, अच्छे रास्ते पर चलें. बस, हमारा यही कर्तव्य है. धर्म के नाम पर नहीं, बल्कि समाज की बेहतरी के लिए सचाई, मेहनत और ईमानदारी के रास्ते पर चलना है?’’ ‘‘पर मां, डर नहीं लगता कि हमारे साथ कुछ बुरा न हो जाए, हमारे सामने कोई परेशानी आएगी तो फिर हम किस से मदद मांगेंगे, कौन सुनेगा हमारी?’’

‘‘कोई परेशानी आएगी तो हिम्मत रख कर उस का सामना कर लेना. जो लोग धार्मिक अंधविश्वासों में अपना समय बरबाद कर रहे हैं, क्या उन के साथ कुछ बुरा नहीं होता? उन्हें कभी कोई दुख नहीं होता? धर्म इंसान को कायर, डरपोक बना रहा है, उसे आगे बढ़ने के बजाय पीछे ढकेलता है. ‘‘तुम्हें याद है न, 5 साल पहले तुम्हारे पापा की तबीयत बहुत खराब हो गई थी. उन्हें हमें अस्पताल में ऐडमिट करना पड़ा था. मैं तो कहीं पूजा करने नहीं भागी. यही सोचा था कि जय शहर के एक अच्छे अस्पताल में भरती हैं और अच्छे डाक्टर्स उन का इलाज कर रहे हैं, वे जल्दी ठीक हो जाएंगे. और ठीक हुए भी. उस समय उन को अच्छे इलाज की ही जरूरत थी और वह उन्हें मिला तो जय कितनी जल्दी ठीक हो गए थे, याद है न तुम्हें राहुल?’’

‘‘हां मां, आप की फ्रैंड्स घर आ कर कहती थीं कि आप के ग्रह खराब हैं, आप को कुछ पूजा वगैरह करवानी चाहिए, लेकिन तब आप कितने आराम से कहती थीं, सब ठीक हो जाएगा, तुम लोग परेशान न हो.’’ और राहुल हंस पड़ा तो सारा भी मुसकरा दी. राहुल आगे बोला, ‘‘पता है मां, मेरे सारे दोस्त मुझ से पूछते रहते हैं कि तुम लोग किस धर्म को मानते हो, लेकिन मैं उन्हें हंस कर टाल देता हूं, बता ही नहीं पाता किसी धर्म के बारे में.’’

‘‘बेटा, बता देना अपने दोस्तों को कि हम लोग आधुनिक विचारधारा वाले हैं. हमारा एक ही धर्म है इंसानियत का. कर्म करते रहने का. मेरे मातापिता व्यावहारिक हैं और बिना किसी धर्म को माने भी हमें जीवन में सबकुछ मिल रहा है. हमारे जीवन में भी वही सुखदुख लगे रहते हैं जो आप लोगों के जीवन में आते हैं. उन्हें बता देना कि हम ने ऐसा कुछ नहीं खोया है जोकि किसी धर्म के अंधविश्वासों के बंधन में बंध कर उन्हें मिल गया या हमारा कोई भारी नुकसान हो गया.’’ सारा ने अब हंसते हुए राहुल से कहा, ‘‘उन के बच्चे धर्म के विश्वास का सहारा ले कर भी फेल होते हैं और तुम ने इन बेकार बातों पर आंख मूंद कर विश्वास किए बिना पिछले साल कालेज में टौप किया है. तुम्हें पता ही है, हमारे सारे रिश्तेदार भी हमें नास्तिक, बेकार कह कर ताने मारते हैं, पर हमारे किसी भी सवाल का जवाब उन के पास नहीं होता.’’

राहुल ने हंसते हुए मां के गले में बांहें डाल दीं, ‘‘पर मेरी मां के पास हर सवाल का जवाब है. आई प्रौमिस, मां, मेरे मन में अब कोई डर नहीं रहेगा.’’

‘‘वैरी गुड, दैट्स लाइक आवर सन.’’ राहुल का मन हलका हो गया था. वह अगले एग्जाम की तैयारी के बारे में सोचने लगा था. सारा खुश थी कि उस ने अपने बेटे को वही सीधा, उचित रास्ता दिखाया है जिस पर वह और जय 25 सालोें से चल रहे हैं. अब उन का बेटा भी बिना किसी दुविधा के, बिना किसी शंका के उस रास्ते पर उन के साथ था, यह उन के लिए काफी खुशी की बात थी.

Motivational Story

Hindi Drama Story: समझौता ज़िन्दगी और मौत का

Hindi Drama Story: बात सन 1920 की है. कार्तिक का महीना था. गुलाबी सर्दी पड़ने लगी थी. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बसे छोटे से गांव गिराहू में, सभी किसान  दोपहर बाद खेतों से थके-हारे लौटे थे. बुवाई का समय निकला जा रहा था, सभी व्यस्त थे. पर सब लोग पंचों की पुकार पर पंचायत के दफ्तर में इकट्ठे हो गए थे. बस पंचों के आने का बेसब्री से इंतज़ार हो रहा था.

एक ओर  गाँव की औरतें होने वाली दुल्हन निम्मो को जबरन  पंचायत के दफ्तर में ले आयी थी और दूसरी तरफ कुछ आदमी होने वाले दूल्हे रामबिलास का हाथ  पकड़कर बाहर पेड़ के नीचे खड़े थे.  वह भी इस शादी के नाम पर हिचकिचा रहा था.

सारे गाँव वाले इस शादी के पक्ष में थे पर वर और वधू, दोनों ही इस शादी के लिए तैयार न थे. आखिरकार मामला पंचायत में पहुंचा दिया गया था. पंचायत का फैसला तो  सबको मानना ही पड़ेगा. बस पंचों के आने का इंतज़ार था पर पंच अभी तकआये नहीं थे.

अंदर के कमरे में बैठी निम्मो शादी के लिए तैयार ही नहीं हो रही थी.

“मुझे ये शादी नहीं करनी है,” कहते हुए निम्मो ने एक बार फिर हाथ छुड़ाने का असफल प्रयास किया तो पड़ोस की बुज़ुर्ग काकी बोली, “चुपकर, मरी. शादी नहीं करेगी तो भरी जवानी में कहाँ जायेगी?”

सभी उपस्थित औरतों ने काकी की बात से सहमति में सिर हिलाया.

“हाँ तो और क्या? मरद के सहारे के बगैर भी भला औरत को कोई पूछे है क्या?” दूसरी पड़ोसन बोली.

“काहे का सहारा देगा मुझे? अपनी सुध तो है नहीं उसे. अरे बच्चा है वो तो?” निम्मो ने खीजकर  पलटवार किया.

काकी ने एकबार फिर  ज्ञान बघारा, “कैसा बच्चा? अरे मरद तो है ना घर में ? मिटटी का ही हो, मरद तो मरद ही होता है. और क्या चाहिए औरत को?”

बाहर कुछ सरगर्मी हुई.  शायद पंच आ गए थे.  पंचायत बैठी तो फैसला सुनाने में दो मिनट भी न लगे. रामबिलास, अपने भाई हरबिलास की विधवा निम्मो को चूड़ी पहनायेगा और आज से वो मियां-बीवी कहलायेंगे. निम्मो ने आवाज़ उठाने की कोशिश की तो सबने उसे चुप करा दिया.

उधर सरपंच ने ऊंची आवाज़ में कहा, “अरे ओ रामबिलास! कहाँ  मर गया रे. चल, जल्दी कर. ये लाल चूड़ियाँ डाल दे अपनी भाभी  के हाथ में. चल आज से ये तेरी जोरू हुई. ख़याल रखना इसका और इसके लड़के का. वो भी आज से तेरा लड़का ही हुआ. ”

“चलो अच्छा ही  है. बिना शादी किये ही लड़का मिल गया,” किसी ने पीछे से चुटकी ली.

पंचायत के दो टूक फैसले से सहमा सा रामबिलास जब चूड़ियाँ लेकर निम्मो के पास पहुंचा तो निम्मो ने अपने हाथ पीछे खींच लिए. पर गाँव की औरतें कहाँ मानने वाली थी? साथ बैठी औरतों ने उसके हाथ ज़बरन पकडे और रामबिलास से उनमें लाल कांच की चूड़ियाँ डलवा दीं. कहीं से कोई एक चुटकी सिन्दूर भी ले आई और रामबिलास से निम्मो की मांग में डलवा दिया. निम्मो की नम आँखों को किसी ने नहीं देखा या शायद देखा तो अनदेखा कर दिया.  पास बैठी औरतों में से एक ढोलक उठा लाई और सबने शादी के गीत गाने शुरू कर दिये.

और इस तरह रामबिलास की शादी अपने बड़े भाई हरबिलास की विधवा निम्मो से हो गयी.

इसी तरह बन्ने-बन्नी गाते-गाते रात हो गयी और गांव की औरतें निम्मो को उसकी कोठरी में धकेल कर बाहर निकल गयीं. पड़ोस की काकी ने बाहर से आवाज़ दी, “अरी निम्मो, तेरा बेटा हरिया आज हमारे घर में रहेगा. फ़िक्र न करना.”

निम्मो का दिमाग तो बिलकुल सुन्न हो गया था. उसे समझ में ही नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. कुछ देर सोचती रही, फिर थककर बिस्तर पर बैठी ही थी कि कोई रामबिलास को भी कमरे में धकेल गया और बाहर से कुंडी लगा दी. सहमासकुचाया सा रामबिलास कोठरी में आकर दो मिनट तो खड़ा रहा.  फिर जैसे ही लालटेन की बत्ती बुझाने बढ़ा, निम्मो ने खिन्न मन से कहा, “देवर जीये बत्ती-वत्ती बाद में बुझाना. यह दरी ले लोऔर उधर ज़मीन पर सो जाओ.”

रामबिलास ने चुपके से दरी उठाई और कोठरी के एक कोने में बिछाली. वह सुबह से परेशान था और थका हुआ था.  थोड़ी ही देर में उसके खुर्राटों की आवाज़ कोठरी में गूंजने लगी. पर निम्मो की आँखों में नींद कहाँ थी? यह वही कोठरी थी जहाँ उसके पति की मृत्यु  हुई थी.  वही चारपाई थी और वही लालटेन थी.

उसके पति को मरे अभी एक साल भी नहीं गुज़रा था और देवर से चूड़ी पहनवाकर जबरन उसकी शादी करवा दी गयी थी. ये पंच भी  कैसे पत्थर दिल हैं . इनके दिल में कोई भावनाएं नहीं हैं क्या? क्या कोई अपनों को इतनी जल्दी भुला देता है? क्या पति-पत्नी का रिश्ता सिर्फ जिस्मानी रिश्ता है? निम्मो  का  दिमाग पूर्णतः अशांत था. उसके दिमाग में पिछले सालभर की घटनाये फिल्म की तरह घूम रही थी.

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करीब एक साल पहले की ही तो बात थी.  पूस का महीना था. कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी.  हवा के थपेड़े तो इतने तेज़ कि मानो झोंपड़ी पर पड़े छप्पर को ही उड़ाकर ले जायेंगे. टूटी हुई खिड़की पर ठंडी हवा को रोकने के लिए लगाया हुआ गत्ता  हिल-हिल कर मानो हवा को अंदर आने का बुलावा दे रहा था. कोठरी के अंदर दीवार के कोने पर लटकी हुई लालटेन की लौ लगातार भभक रही थी.  संभवतःउसमे तेल शीघ्र ही समाप्त होने वाला था.

कोने में एक टूटी सी चारपाई पर हरबिलास लेटा हुआ था. उसका बदन तीव्र ज्वर से तप रहा था. पुरानी मैली सी रज़ाई में उंकडूं होकर किसी तरह वहअपनी ठण्ड मिटाने का असफल प्रयास कर रहा था. पर उसका शरीर की कंपकंपाहट थी कि ख़त्म होने को नहीं आ रही थी. पास ही एक पीढ़े पर वह बैठी थी. तीन  वर्ष का हरिया उस की गोद में सो रहा था. चिंता के मारे उसका सुन्दर चेहरा स्याह पड़ गया था. पति के माथे पर ठन्डे पानी की पट्टी रख-रखकर उसके हाथ भी ठण्ड से सफ़ेद हो गए थे.  पर बुखार था कि उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था.पति के होठ कुछ बुदबुदाये तो उसने आगे झुककर सुनने की कोशिश की.

“राम बिलास कहाँ है?” वो पूछ रहा था.

“उसे भी तेज़ बुखार है. वो दूसरी कोठरी में लेटा है.” उसने धीरे से जवाब दिया था.

“निम्मो, कितने लोग और चल बसे?” हरबिलास की आवाज़ कमज़ोरी और डर के मारे और भी मंद  हो गयी  थी.

“आप फिकर नहीं करोजी, कोई  नहीं गया है. सब ठीक हो रहे हैं,” उसने अपने स्वर को संभालकर झूठ बोला था.
“मुझे नहीं लगता मैं ठीक हो पाऊँगा.  यह महामारी तो कितने प्राण ले चुकी है.  लगता है इसका कोई इलाज भी नहीं हैं,”  उसने फिर कहा था.

“नहीं नहीं.  रामू काका कह रहे थे कल सरकारी अस्पताल का डाक्टर गॉंव में आएगा,” उसने पति को उम्मीद दिलाने की कोशिश की थी.

“अरे डाक्टर ही क्या कर लेगा.  इस प्लेग का तो कहते हैं कोई इलाज ही नहीं हैं. मैंने सुना था बड़े-बड़े अँगरेज़ भी मर गए हैं इससे. फिर हम गरीबों का क्या?”

पास रखी अंगीठी की आंच तेजी से कम होती जा रही थी और लाल अंगारों पर राख की मोटी परतें जमने लगी थी. क्या यह मात्र संयोग था या फिर आने वाले काल का संकेत? तभी पास के मकान से ह्रदय-विदारक विलाप की चीखें सुनाई पड़ी.

“लगता है बाबूलाल भी गया. मुझे लगता है अब मेरी बारी है,” हरबिलास की आवाज़ कांप रही थी.

“शुभ- शुभ बोलो. तुम कहीं नहीं जाओगे मुझे और हरिया को छोड़के,” उसने प्यार भरी झिड़की दी थी.

“ना निम्मो. लगता है मेरा टाइम आ गया है. हरिया और रमिया का ख्याल …” कहते-कहते उसकी सांसें उखडने लगी थी.

घर्र …घर्र …घर्र ………… और फिर उसका सिर एक और लुढ़क गया था.

उसको कुछ समझ नहीं आया था.  वह पथराई आँखों से  कुछ क्षण उसे देखती रही.  फिर जोर से आवाज़ दी, “रमिया, जल्दी आ.  देख तो तेरे भाई को क्या हो गया,” कहते हुए उसने हरिया को गोद से धक्का दिया और अपने पति की छाती को झकझोरने लगी थी.

“क्या हुआ भैया को?” कहते हुए जब रामबिलास कोठरी में घुसा तो उसका चेहरा भी तेज़ बुखार से तप रहा था और आँखें गुडहल के फूल की तरह लाल थी. एक मिनट तो उसने भाई की नब्ज़ देखने की कोशिश की पर वो यह सदमा न सह पाया और बेहोश  होकर ज़मीन पर गिर पड़ा था .

यह घटना सन  1919 की थी. सारे देश में प्लेग की महामारी फैली हुई थी. गिराहू गाँव भी इससे अछूता न था. मौत का तांडव हर रोज़ आठ दस लोगों की बलि ले रहा था. बस एक यही घर बचा हुआ था जिसमे भी आज यमराज के पाँव पड़ गए थे. घर का इकलौता कमाऊ आदमी आज मौत के घाट उतर गया  था.

राम बिलास को होश आ गया था और अब  वह ज़मीन पर बैठा हुआ, रीती आँखों से फर्श की ओर घूर रहा था. आठ साल की उम्र में माँ-बाप दोनों भगवान को प्यारे हो गए थे. तब से आज तक बड़े भैया ने ही उसे बच्चे की तरह संभाला था.  पिछले तेरह साल कैसे निकल गये, उसे पता ही नहीं चला था.  बड़े  भैया ने उसे हर तकलीफ से दूर रखा था. उनके बगैर पता नहीं वह ज़िन्दगी कैसे जियेगा?

वह थोड़ी देर तो गुमसुम बैठी देखती रही, फिर दहाड़ें मारकर रोने लगी थी. उसे पता भी न चला की रामबिलास  कोठरी से कब बाहर निकल गया. कुछ देर बाद जब भोले-भाले हरिया ने उसका हाथ खींचना शुरू किया तो उसे होश आया. आसपास देखा तो रामबिलास कहीं न दिखा.  उसने मन पक्का किया और देवर को देखने बाहर निकली. उसका कहीं नामो-निशान  भी नहीं था. कहाँ चला गया? अभी-अभी तो यहीं था.

घनी काली रात थी और बर्फीली हवाएं अभी भी चल रही थी.  कहाँ जाए, किसको बुलाए? पास के घर में तो अभी कुछ मिनट पहले  ही बाबूलाल की मौत हो चुकी थी. वहां से रोने की आवाज़ें अभी भी आ रही थीं.  हरिया को कमर पर उठाये वह दरवाज़े पर खड़ी ही थी की अचानक चन्दन  काका दिख गये जो शायद बाबूलाल के घर जा रहे थे.

“काका,” उसने सिर पर पल्लू लिया और सिसकना शुरू कर दिया.

“क्या हुआ हरबिलास की बहू?” चन्दन काका की आवाज़ में चिंता थी.

“हरिया के बापू … …भी चले गये.” किसी तरह उसके मुंह से निकला था. उसकी सिसकियाँ  किसी तरह  भी रुक नहीं  रही थी.

“हे राम.हे राम.  रमिया कहाँ है?”

“पतानहींकाका.  अभीतोयहींथा.”

राम बिलास कहीं न दिखा तो चन्दन काका पड़ोस से कुछ और लोगों को ले आये थे और उसके पति के शव को चारपाई से उतारकर ज़मीन पर रख दिया था. गाँव के कुछ बड़े आकर वहां बैठ गए थे. वह लोग मरने वालों की गिनती कर रहे थे. इस रफ़्तार से तो पूरा गाँव ही ख़तम हो जायेगा. निम्मो उनकी बातें नहीं सुन रही थी. वह तो बस सूनी आँखों से ज़मीन को देख रही थी. यह व्यक्ति जो अभी तक उसका पति था, एक क्षण में लाश कहलाने लगा था. सुबह होते न होते उसे जला भी दिया जायेगा. यह कैसी रीत है? यह कैसी दुनिया है? निम्मो और उसका तीन साल का बच्चा हरिया, उनका क्या होगा? पर रमिया?  रमिया कहाँ है? वह तो अपने बड़े  भैया  के बिना रह भी नहीं सकता. उसे इतना बुखार भी है, पर वह है कहाँ? सोच सोचकर उसका दिमाग सुन्न  होने लगा था.

सुबह हुई और उसके पति का अंतिम संस्कार हो गया. साथ ही उसी रात प्लेग की चपेट में आये चार और लोगों का भी. औरतें श्मशान घाट नहीं जातीं है यह कहकर चन्दन काका बस अपने साथ तीन वर्ष के हरिया को लेगए थे.  उसने आपत्ति की तो चन्दन काका ने कहा था, “बाप के मुंह में अग्नि कौन देगा? यही तो देगा न!”

“लगता है किसी मरने वाले की  क्रिया या तेरहवीं भी नहीं हो पाएगी.  पंडित जी खुद भी प्लेग की चपेट में आ गए हैं.  शायद भगवान को यही मंज़ूर है.” श्मशान घाट से लौटने पर उन्होंने कहा था.

रामबिलास का कुछ पता ही नहीं चल रहा था. हफ्ते भर तक गाँव वाले उसे ढून्ढ-ढून्ढकर हार गये थे.  कहाँ चला गया? कोई शेर चीता उसे खा गया या कोई भूत-प्रेत उसे  उठाकर ले गया था ?

पंद्रह दिन कैसे कटे, यह तो अकेली निम्मो ही जानतीथी. कितनी अकेली हो गयी थी वह. दो हफ्ते बाद का वह दिन क्या वह भूल पायेगी? शाम का झुटपुटा हो चला था और घर में अँधेरा होता जा रहा था. कितने दिनों से घर में चूल्हा नहीं जला था. वह हरिया को गोद में सुलाने की कोशिश कर रही थी. अचानक पड़ोस का लड़का गूल्हा रामबिलास को हाथ से पकडे घर में घुसा, “लो भाभी, रमिया भैया आ गए.”

रामबिलास खड़ा-खड़ा सर झुकाए फर्श को घूर रहा था.

उसे देख वह अपने गुस्से पर काबू नहीं कर पाई थी और इतने दिन की सारी भड़ास उसपर निकाल दी थी, “अरे कहाँ मर गया था रे  तू ? मैं अकेली यहाँ परेशान हो रही हूँ. तुझे किसी की कोई फ़िकर-विकर है कि नहीं? सारी ज़िन्दगी निकम्मा ही रहेगा?”

कहते-कहते उस के आंसू बह निकले थे.शायद इतने दिनों का रुका  बांध टूट गया था.

गूल्हा पहले तो अकबकाकर कुछ क्षण उसे देखता रहा था, फिर बोला था, “अरे भाभी, इस बिचारे को ना डांट. ये तो पागल हो गया है. और तो और, इसकी तो ज़बान भी गयी. पहले ही  गऊ था, पर अब तो ….”

सुनकर वह सकते में आ गयी थी. अपना रोना-धोना छोड़कर बोली, “हाय राम! और इसका बुखार?  उतरा कि नहीं?”

भाग के उसने उसके मत्थे पर हाथ रखा और बोली, “चल बुखार तो ठीक हो गया. खाना-वाना खाया कि नहीं?  तेरा स्वेटर कहाँ गया रे? जा बिस्तर में लेट जा. मैं तेरे लिए चाय लाती हूँ.”

पिछले चार साल से उसने छोटे देवर को अपने बच्चे की तरह संभाला था. वही ममता आज फिर उमड़ आयी थी.

चाय बना के लौटी तो देखा हरिया चाचा की गोद में बैठा हुआ था.  रामबिलास  के आंसू बह रहे थे और हरिया उन्हें  पोंछ रहा था.

अगले छह महीनों में प्लेग की महामारी कुछ थम गयी थी औरज़िंदगी फिर से पुराने ढर्रे पर लौटने सी लगी थी. पर रामबिलास को न अपनी सुध थी और न ही वो बोल पा रहा था. बस जब हरिया उसके पास होता उसके चेहरे पर हल्की सी खुशी दिखती थी. जैसे जैसे परिस्थितियां सामान्य होने लगीं, निम्मो उसे लेकर इलाज कराने चली.  बेचारी कहाँ-कहाँ नहीं गयी थी और किस-किस वैद्य, हकीम और ओझाओं के चक्कर नहीं काटे थे. तब कहीं जाकर रामबिलास की जुबान वापिस आयी थी. पर एक उदासी सी उसके चेहरे पर हमेशा के लिए बस गयी थी जो जाने का नाम ही नहीं लेती थी. भाई की कमी उसे हर वक़्त खलती थी. हर वक़्त हँसने-हँसाने वाला रमिया अब गंभीर रामबिलास बन गया था. उसको पति के रूप में स्वीकारना तो किसी भी हालत में संभव नहीं होगा.  पर पंचायत के इकतरफा फैसले के बाद और चारा भी क्या है?

यूं ही सोचते-सोचते कब निम्मो की आँख लग गयी और कब सुबह हो गयी निम्मो को पता ही नहीं चला. आँख खुली तो दिन चढ़ आया था. खिड़की से सूरज की किरणे अंदर झाँक रहीं थी. दरवाज़ा खुला हुआ था और रामबिलास कमरे में नहीं था.

निम्मो धीरे से उठकर बाहर आयी तो देखा पड़ोसन हरिया को वापस छोड़ गयी थी. आँगन में रामबिलास दातुन कर रहा था.  साथ ही एक छोटी सी दातुन उसने हरिया को भी बनाकर दे दी थी.  दोनों मिलकर हंस रहे थे. दातुन हो गयी थी. अब रामबिलास हरिया को कुल्ला करना सिखा  रहा था. निम्मो खड़ी-खड़ी दोनों को देखती रही.  दोनों एकदूसरे के साथ कितने खुश लग रहे थे. दातुन कर के राम बिलास खड़ा हुआ तो हरिया मचल उठा, “काका गोदी .. काका गोदी …”

उसकी आवाज़  सुनकर निम्मो का ध्यान टूटा तो देखा हरिया अपने चाचा की पीठ पर  चढ़ने की कोशिश कर रहा था. रामबिलास ने दातुन ख़तम की और हरिया को गोद में उठा लिया.

” उठ गयी भाभी? अच्छा रोटी दे दे. खेत पर जा रहा हूँ. बुवाई का समय निकलता जा रहा  है, अभी खेती भी शुरू करनी है ना और हाँ, हरिया की रोटी भी बना देना. इसे भी साथ ले जा रहा हूँ.”

“हाँ, बस पांच मिनट में देती हूँ,” और  निम्मो जल्दी से आटा गून्दने लगी.

नाश्ता कर के रामबिलास हरिया को अपने कंधे पर बिठाकर खेत की ओर चल  पड़ा और निम्मो दरवाज़े पर खड़ी काफी देर तक दोनों को जाते हुए देखती रही. लगता था रामबिलास को अपनी ज़िम्मेदारियों का एहसास होने लगा था. कितनी आसानी से उसने घर का ज़िम्मा संभाल लिया था. अपने मृतक भाई की सारी ज़िम्मेदारियाँ, उसकीखेती, उसका बच्चा, उसकी बीबी,  सभीकुछ  मानो आज उसकी ज़िम्मेदारी बन गया था.

शायद ज़िंदगी को यही मंज़ूर था.

समय किसी के लिए नहीं रुकता और जीवन से समझौता करने में ही शायद सबकी भलाई है. उसे महसूस हुआ कि ज़िंदगी और मौत के बीच ज़िंदगी ही ज़्यादा बलवान है. दोनों के बीच आज शायद एक समझौता हो गया था .

Hindi Drama Story

Family Story: यही है मंजिल- सयुंक्त परिवार में क्या रह पाई नेहा

Family Story: कुछ पेचीदा काम में फंस गई थी नेहा. हो जाता है कभीकभी. जब से नौकरी में तरक्की हुई है तब से जिम्मेदारी के साथसाथ काम का बोझ भी बढ़ गया है. पहले की तरह 5 बजते ही हाथपैर झाड़, टेबल छोड़ उठना संभव नहीं होता. अब वेतन भी दोगुना हो गया है, काम तो करना ही पड़ेगा. इसलिए अब तो रोज ही शाम के 7 बज जाते हैं.

नवंबर के महीने में चारों ओर कोहरे की चादर बिछने लगती है और अंधेरा हो जाता है. इस से नेहा को अकेले घर जाने में थोड़ा डर सा लगने लगा था. आजकल रात के समय अकेली जवान लड़की के लिए दिल्ली की सड़कें बिलकुल भी सुरक्षित नहीं हैं, चाहे वह सुनसान इलाका हो या फिर भीड़भाड़ वाला, सभी एकजैसे हैं. इसलिए वह टैक्सी या औटोरिकशा लेने का साहस नहीं करती, बस ही पकड़ती है और बस उसे सोसाइटी के गेट पर ही छोड़ती है.

आज ताला खोल कर जब उस ने अपने फ्लैट में पैर रखा तब ठीक 8 बज रहे थे. फ्रैश हो कर एक कप चाय ले जब वह ड्राइंगरूम के सोफे पर बैठी तब साढ़े 8 बजे रहे थे.

आकाश में जाने कब बादल घिर आए थे. बिजली चमकने लगी थी. नेहा शंकित हुई. टीवी पर रात साढ़े 8 बजे के समाचार आ रहे थे. समाचार शुरू ही हुए थे कि एक के बाद एक दिलदहलाने वाली खबरों ने उसे अंदर तक हिला दिया.

पहली घटना में चोरों ने घर में अकेली रहने वाली एक 70 वर्षीय वृद्धा के फ्लैट में घुस कर लूटपाट करने के बाद उस की हत्या कर दी. दूसरी घटना में फ्लैट में रहने वाली अकेली युवती के साथ सामूहिक दुष्कर्म के बाद गला दबा कर उस की हत्या कर दी गई. तीसरी घटना में भी कुछ ऐसा ही किया गया था. छेड़छाड़ की घटना तूल पकड़ती कि इतने में लड़की का भाई आ गया, जिस से बदमाश भाग खड़े हुए. नेहा ने हड़बड़ा कर टीवी बंद कर दिया. आज 9 बजे का सीरियल देखने का भी उस का मन नहीं हुआ. तभी बादल गरजे और तेजी से बारिश शुरू हो गई. बारिश के साथ तेज हवा भी चल रही थी.

बचपन से ही आंधी से नेहा को बड़ा डर लगता है. जब भी आंधीतूफान आता था, वह मां से लिपट कर रोती थी. शादी के बाद 2 वर्षों तक पति दीपक के साथ ससुराल में रही. वैसे भी वह घर पूरी तरह कबाड़खाना है, उस घर में घुसेगा कौन? हर कदम पर कोई न कोई खड़ा मिलेगा. इतना बड़ा संयुक्त परिवार कि रोज 2 किलो आटे की रोटियां बनती हैं. महाराज भी रसोई संभालते परेशान हो जाते थे.

2 जेठ, उन के जवान 3-4 बेटाबेटी, जेठानियां, सास, विधवा बूआ, उन के 2 जवान बेटे और वे दोनों. बड़ी ननद का विवाह गांव में बहुत बड़े जमींदार परिवार में हुआ था. वे गाड़ी भरभर कर वहां से अनाज, घी, फल, सब्जी, खोया और सरसों का तेल भेजती रहती हैं. उन के दोनों बेटे कालेज में पढ़ते हैं, इसलिए वे नानी के पास ही रहते हैं.

उस घर में यदि भूल से भी कोई घुसा तो उस का उन लोगों के बीच से जीवित निकलना मुश्किल होगा. नेहा को संयुक्त परिवार में रहना बिलकुल भी पसंद नहीं था. विवाहित जीवन के नाम पर जो चित्र उस के मन में था वह था कि बस घर में वह और एक उसे चाहने वाला उस का पति हो. हां, आगे चल कर एकदो बच्चे, बस. पर मां को पता नहीं क्या सूझा.

पापा तो पहले ही गुजर गए थे. मां ने ही पाला था उस को. मां को पता था कि उसे संयुक्त परिवार पसंद नहीं, फिर भी इतने बड़े परिवार में उस की शादी कर दी. उस ने पूरी ताकत से इस का विरोध किया पर मां टस से मस नहीं हुईं. उन का बस एक ही तर्क था, ‘मैं आज हूं, कल नहीं.’ अकेले रहना खतरे से खाली नहीं, बड़े परिवार का मतलब बड़ी सुरक्षा भी है. नेहा के विरोध का कुछ फायदा नहीं हुआ. शादी हो गई, शादी के 3 महीने बाद ही मां चल बसीं. मां के फ्लैट में ताला लग गया. उस ने तब दीपक को फुसलाने की कोशिश की थी मां के फ्लैट में रहने के लिए, लेकिन दीपक ने दोटूक जवाब दिया था कि वह अपना घर छोड़ कर कहीं नहीं जाएगा. वह जहां चाहे वहां रह सकती है.

नेहा गुस्से से पागल हो गई थी. इस परिवार में वही फालतू है क्या? इतना कमाती है, उस की तो बड़ी कद्र होनी चाहिए. पर नहीं, यहां तो सर्वेसर्वा सास हैं जो एक डंडे से सब को हांकती हैं. 3 भाइयों में दीपक सब से ज्यादा कमाता है. नेहा ठीक से नहीं जानती पर इतना जानती है कि मां के हाथ में वही सब से ज्यादा खर्चा देता है. कायदे से परिवार में उस के लिए खास व्यवस्था होनी चाहिए. पर नहीं, जो सब के लिए वही उस के लिए भी. बूआ तो एक तरह से आश्रित हैं बेटे के साथ, पर कौन कहेगा ये आश्रित हैं, उन के भी वही ठाटबाट जो सब के हैं.

इतना बड़ा परिवार नेहा को बिलकुल भी पसंद नहीं था पर मां के कहने पर कि ‘मेरा कोई भरोसा नहीं, पता नहीं कब चल दूं. तुझ में अक्ल नहीं. यह बड़ा परिवार है. जितना बड़ा परिवार उतनी बड़ी सुरक्षा.’ लेकिन उन का कुछ भी कहा नेहा को अच्छा नहीं लगता था. देखा जाए तो परिवार खुले विचारों का था, पुरानी परंपरा के साथसाथ आधुनिकता का भी तालमेल बना कर रखा जाता था.

अम्मा उस जमाने की ग्रेजुएट थीं लेकिन अब भी रोज समाचारपत्र पढ़तीं. हां, घर को बांध कर रखने के लिए कुछ नियम, बंधन, अनुशासन होता है, उन का पालन कठोरता से जरूर करना पड़ता है. उन की अनदेखी करने को माफ नहीं किया जा सकता. ऐसा ही कुछ अम्मा सोचती थीं. इसलिए नेहा अपनेआप को परिवार में फिट महसूस नहीं करती थी. उस का घर तो एकदम खुला था, एकल परिवार में भी उग्र, आधुनिक, एक अकेली संतान, सिरचढ़ी, जो मन में आता, करती. कभीकभी सहेली के साथ गपें मारतेमारते वहीं रुक जाती, घर पर एक फोन कर देती, बस.

अब नेहा की इन सब आदतों पर अंकुश लग गया था. औफिस में देर हुई तो भी जवाब दो. कहीं जाओ तो बता कर जाओ. शौपिंग करने जाओ तो कोई न कोई साथ लग जाता. परेशान हो उठी नेहा इस सब से. मां की मृत्यु के बाद उन का सजाधजा फ्लैट खाली पड़ा था, उस ने दीपक को फुसलाने की कोशिश की कि चलो, अपना घर अलग बसा लें, लेकिन वह तो टस से मस नहीं हुआ.

कुछ उपाय नहीं सूझा तो दोस्तों की सलाह पर नेहा ने घर में सब के साथ बुरा व्यवहार, कहासुनी करनी शुरू कर दी. परिवार के लोग थोड़ा विचलित तो हुए पर इस सब के बावजूद घर से अलग होने का रास्ता नहीं बना. तब एक दिन नेहा असभ्यों की तरह गंदी जबान से लड़ी. यह देख कर दीपक भी परेशान हो गया. दीपक खुद ही नेहा को उस की मां के फ्लैट में छोड़ आया. नेहा 2 महीने तक दीपक से बात करने का काफी प्रयास करती रही लेकिन उस ने फोन उठाना ही बंद कर दिया. नेहा के दोस्तों ने उसे तलाक के लिए उकसाया पर नेहा दीपक की तरफ से पहल की प्रतीक्षा करती रही. उस ने सोचा तलाक दीपक मांगे तो वह मोटी रकम वसूले. यह भी दोस्तों की सलाह थी.

टीवी औन किया. समाचार चल रहे थे. खबर थी कि एक फ्लैट में अकेली युवती पर हमला हो गया. यह सुन उस का दिल दहल गया. पर इस से भी भयानक समाचार था कि आज रात भयंकर तूफान के साथ मूसलाधार बारिश होने वाली है, सब को सावधान कर दिया गया था. नेहा ने बाहर झांका तो वास्तव में तेज हवा चल रही थी, आसमान में बिजली कौंध रही थी और घने बादल छाए हुए थे. ओह, यह मेरे लिए कितनी डरावनी रात होगी. कामवाली रात का खाना तैयार कर के रख गई थी. नेहा मेज पर आई और टिफिन खोल कर देखा तो पनीर व मखाने की सब्जी और परांठे रखे थे. लेकिन आज उस का खाने का मन नहीं हुआ. घड़ी देखी, 9 बज रहे थे. वहां ससुराल में इस समय सब लोग डिनर के लिए खाने की मेज पर आ गए होंगे. मेज क्या टेबल टैनिस का मैदान. इतने सारे लोग.

असल में दोपहर का खाना तो नाममात्र बनता था. सुबह सब अपनेअपने हिसाब से खा कर टाइम से निकल जाते. बड़ी जेठानी डाक्टर हैं. 8 बजे ही निकल जाती हैं. रात को ही सब लोग एकसाथ बैठ कर खाते, वही एक खुशी का समय होता. उस परिवार में फरमाइशी, मनपसंद खाना, छेड़छाड़, हंसीमजाक, कल रात के खाने की फरमाइश होती, यानी पूरा एकडेढ़ घंटा लगा देते खाना खाने में वे. और अच्छा व स्वादिष्ठ खाना तैयार करने में सास और बूआ दोनों पूरे दिन लगी रहतीं.

अचानक पूरा फ्लैट थरथरा उठा. बहुत पास ही कहीं बिजली गिरी. यह देख नेहा का तो दम ही निकल सा गया. यदि कोई खिड़की का शीशा तोड़ कर अंदर चला आया तो क्या होगा. उसे अपनी सहेली मधुरा की याद आई जो उसी के ब्लौक में छठी मंजिल पर रहती थी. साथ में उस की सास रहती है जिस से उस की बिलकुल भी नहीं बनती. दोनों में रोज झगड़ा होता है. आज नेहा काफी डर गई थी. पता नहीं क्यों उस का खून सूख रहा था. मन में न जाने कैसीकैसी बुरी घटनाएं उभर कर आ रही थीं.

झमाझम गरज के साथ बारिश हो रही थी. आखिरकार उस ने मधुरा को फोन किया.

‘‘नेहा, क्या बात है,’’ मधुरा ने कहा.

‘‘तू नीचे मेरे पास आजा मधुरा, मुझे आज बहुत डर लग रहा है. यहां सो जा आज,’’ नेहा बोली.

‘‘सौरी, आज तो मैं तेरे पास नहीं आ सकती. अगर ज्यादा परेशान है, तो तू ही ऊपर आ जा.’’

मधुरा से इस तरह के जवाब की आशा नहीं थी नेहा को, उसे यह जवाब सुन बड़ा धक्का लगा, ‘‘क्यों, क्यों नहीं आ सकती?’’

‘‘अरे यार, विनय चंडीगढ़ एक सैमिनार में गए हैं. मांजी को बुखार है. उन को छोड़ कर मैं कैसे आ सकती हूं.’’

गुस्सा आ गया नेहा को, कहां तो सास इसे फूटी आंख नहीं सुहाती,

रोज लड़ाई और आज उन को जरा बुखार क्या आया, छोड़ कर नहीं आएगी. ‘‘आज बड़ा दर्द आ रहा है सास पर,’’ नेहा थोड़ा तल्ख अंदाज में बोली.

‘‘नेहा, जबान संभाल कर बात कर. हम लड़ें या मरेकटें, लेकिन तेरी तरह रिश्ता तोड़ना नहीं सीखा हम ने. मुझे उन के पास रहना है देखभाल के लिए, बस.’’ उस ने फोन काट दिया.

फिर बिजली गिरी. अब तो नेहा कांपने लगी. हवा कम हो गई पर गरज के साथ बारिश और बिजली चमकी और वर्षा तेज हो गई.

एक मुसीबत और आ गई. अब बारबार बिजली जाने लगी. वैसे यहां सोसाइटी वालों ने जेनरेटर की व्यवस्था कर रखी है, पर आलसी गार्ड उसे चलाने में समय ले लेते हैं. उन्हीं 6-7 मिनटों में नेहा का दम निकल जाता है. नेहा 2 वर्षों से अकेली इस फ्लैट में रह रही है. ससुराल से उस ने एकदम नाता तोड़ लिया है. हजार कोशिशों के बाद भी वह दीपक को उस के परिवार से अलग कर अपने फ्लैट में नहीं ला पाई. ऐसे में उस परिवार पर उसे गुस्सा तो आएगा ही.

वह परिवार ही उस का एकमात्र दुश्मन है संसार में. उस से क्या रिश्ता रखना, पर आज इस डरावनी रात में उसे लगने लगा जिस घर को वह मछली बाजार कहती थी, वह कितना सुरक्षित गढ़ था. बड़ी जेठानी डाक्टर हैं. उस से दस गुना कमाती हैं. पर वे कितनी खुश थीं उस घर में. बस, उसे ही कभी अच्छा नहीं लगा, तो क्या उस के संस्कारों में कोई खोट है?

पास में ही फिर से बिजली गिरी और उसे लगा किसी ने उस के फ्लैट का दरवाजा ढकेला हो. होश उड़ गए उस के. घड़ी में मात्र सवा 9 बज रहे थे. जाड़े, वह भी इस महाप्रलय, की रात कैसे काटेगी वह. मधुरा भी आज दगा दे गई, सास की सेवा में लगी है, इसलिए उसे छोड़ कर नहीं आई. इतनी रात को भला कौन आएगा उस का साथ देने? अब तो बस एक ही सहारा है. जन्मजन्मांतर का रक्षक दीपक. लेकिन उसे फोन करेगी तो वह मोबाइल पर उस का नंबर देखते ही फोन काट देगा. उस ने ससुराल के लैंडलाइन पर फोन लगाया.

अम्मा ने फोन उठाया, बोलीं, ‘‘हैलो.’’

अचानक जाने क्यों अंदर से रुलाई फूटी, ‘‘अम्माजी.’’

‘‘अरे नेहा, क्या बात है बेटा?’’

इतना सुनते ही वह रो पड़ी. सोचने लगी कि कितना स्नेह है अम्मा के शब्दों में.

अम्मा ने आगे कहा, ‘‘अरे, नेहा, रो क्यों रही है? कोई परेशानी है? तू ठीक तो है न बेटा?’’

‘‘अम्माजी, मुझे डर लग रहा है.’’

‘‘हां, रात बड़ी भयानक है और तू अकेली…’’ अम्मा तसल्लीभरे शब्दों में बोलीं.

‘‘इन को भेज देंगी आप,’’ नेहा का गला रुंध गया था बोलते हुए.

‘‘बेटा, दीपू तो बेंगलुरु गया है काम से. तू चिंता मत कर, घर को अच्छे से बंद कर, बैग में कपड़े डाल कर तैयार हो ले. यहां चली आ, मैं संजू को गाड़ी ले कर भेज रही हूं. 10 मिनट में पहुंच जाएगा. घबरा मत बेटा. सब हैं तो घर में.’’

अब नेहा की जान में जान आई. संजू बड़ी ननद का बेटा है, एमबीए कर रहा है. नेहा को ससुराल में अपना कमरा याद आ गया, कितना सुरक्षित है वह. नेहा को खुद पर ग्लानि हुई कि वह उस परिवार की अपराधिन है जिस ने उस परिवार के बच्चे को परिवार वालों से अलग करना चाहा. उस परिवार के टुकड़े करने पर वह उतारू हो गई थी. दूसरी तरफ वे सब लोग हैं जो इस मुसीबत में उस को माफ कर उस के साथ खड़े हैं.

‘‘अम्माजी…’’

‘‘अरे, संजू 10 मिनट में पहुंचता है, तू घबरा मत बेटा, जल्दी तैयार हो जा…’’ अम्मा ने उसे तसल्ली दी.

नेहा को आज लग रहा था कि वह कितनी गलत थी. सुरक्षा, स्नेह और प्यारभरी अपनों की छांव को छोड़ कर दुनिया के झंझावातों के बीच चली आई थी. नहीं…नहीं…अब ऐसी गलती दोबारा नहीं करेगी वह. आज अपने घर जा, अपनों से माफी मांग, सब गलतियां सुधार लेगी.

Family Story

Hindi Fictional Story: वास्तु और मेरा घर

Hindi Fictional Story: मकान बनाना कितनी बड़ी बला है यह तो वही जान सकता है जिस ने बनवाया हो. लोगों के जीवन में बड़ी मुश्किल से यह दिन आ पाता है. इतने सारे पापड़ बेलना हर किसी के बस की बात नहीं है. पर आदमी दूसरों को बनवाता देख कर हिम्मत कर बैठता है और एक दिन रोतेधोते मकान बनवा ही लेता है.

ऐसा ही मेरे साथ हुआ. एक दिन मेरी पत्नी ने सुबहसुबह एक गृहप्रवेश कार्ड मेरे सामने रख दिया. मेरे एक रिश्तेदार ने नया मकान बनवाया था. उसी खुशी में वह पार्टी दे रहा था. शाम को वहां जाना था.

‘‘देखिए, अब बहुत हो गया. मेरा शाम को कहीं जाने का मन नहीं है,’’ श्रीमतीजी तल्ख लहजे में बोलीं.

मैं ने उन के नहीं जाने के निर्णय को बहुत हलके से लिया, ‘‘हां, वैसे आजकल पक्का खाना नहीं खाना चाहिए. वाकई अब इस उम्र में इन चीजों का ध्यान भी रखना चाहिए.’’

पर यह क्या, मेरी इस बात पर तो वह बादल की तरह फट पड़ीं, ‘‘यह क्या, बस तुम्हें हर बात पर मजाक सूझता रहता है. मैं ने तो फैसला कर लिया है कि मैं अब किसी के गृहप्रवेश में तब तक नहीं जाऊंगी जब तक तुम मुझे एक प्यारा सा मकान नहीं बनवा कर दे दोगे.’’

मुझे बस चक्कर ही नहीं आया, ‘‘यह तुम कैसी बात कर रही हो. अरे, मूड खराब है तो शाम को चल कर एक साड़ी ले लेना. लेकिन कम से कम ऐसी बात तो मत करो जिसे सुन कर मुझे हार्टअटैक आ जाए.’’

श्रीमती के तेवर देख कर लगता था कि बात बहुत आगे बढ़ चुकी है. अब आसानी से केवल साड़ी पर सिमटने वाली नहीं थी. जब भी किसी का मकान बनता तो वह ऐसी फरमाइश कर बैठती थीं. उन्होंने थोड़ाबहुत इतिहास भी पढ़ा हुआ था अत: कह बैठती थीं, ‘‘देखो, शाहजहां ने अपनी बेगम के लिए ताजमहल बनवाया था. क्या तुम मेरे लिए एक अदद मकान नहीं बनवा सकते.’’

यहां मैं चुप रह जाता था. हालांकि चाहता तो मैं भी बता सकता था कि शाहजहां ने उस के जीतेजी कोई ताजमहल नहीं बनवाया था. जब मुमताज नहीं रही तब जा कर वह ऐसा कर पाया था. पर यह कहने पर एक युद्ध की संभावना और हो सकती थी इसलिए चुप रहने में ही भलाई थी.

बात जब इस स्तर पर पहुंच जाए तो कोई न कोई समाधान निकलना आवश्यक होता है. सो जल्दी ही यह बात मिलनेजुलने वालों तक पहुंच गई कि मैं मकान बनवाने वाला हूं.

मकान को ले कर लोगों ने अलगअलग सलाह दी. मुझे लगता है कि मुझे बनाबनाया मकान ले लेना चाहिए क्योंकि मकान बनवाने में उठाई जाने वाली मुसीबतों के नाम से ही मुझे बुखार आने लगता था. पर चूंकि मेरी बीवी के पिताजी यानी कि मेरे ससुर साहब का यही मानना था कि आदमी को जमीन खरीद कर ही मकान बनवाना चाहिए तो फिर भला मेरे तर्क कितनी देर चलते. अब प्लाट की खोज शुरू हुई और फिर जैसेतैसे एकमत हो कर एक प्लाट का चयन कर लिया गया.

प्लाट खरीदने वाला आदमी यही सोचता है कि वह आधी लड़ाई जीत चुका है, लेकिन यह मात्र उस का खयाली पुलाव ही होता है क्योंकि अभी तो उसे मकान बनाने की तकलीफदेह प्रक्रिया से गुजरना होता है और वही मेरे साथ भी हुआ. लेकिन बात यहीं तक सीमित होती तो कोई बात नहीं थी. असली परेशानी तो तब शुरू हुई जब मकान के निर्माण ने गति पकड़ी. मकान आधा बन चुका था. तभी एक दिन मेरी पत्नी ने मुझ से कहा, ‘‘आज तुम जरा आफिस से जल्दी घर आ जाना, मैं ने शर्माजी को बुलवाया है.’’

मैं चक्कर में पड़ गया, ‘‘यह शर्माजी कौन हैं. क्या कोई नए ठेकेदार हैं. तुम तो अभी इसी ठेकेदार को चलने दो.’’

वह नाराज हो गईं, ‘‘एक तो आप की आदत खराब है. पूरी कोई बात नहीं सुनते. वह कोई ठेकेदार नहीं हैं. वह तो बहुत पहुंचे हुए आदमी हैं. बहुत बड़े वास्तुकार हैं. मैं ने सोच लिया है, आजकल सभी लोग वास्तु के बिना कोई काम नहीं करते. मैं ने भी उन्हें बुलवाया है. उन के पास तो टाइम नहीं है. बड़ी मुश्किल से राजी हुए हैं.’’

मैं ने सोचा, चलो आज देख लेते हैं फिर टाल देंगे. मुझे तो पहले ही इन चीजों में कोई विश्वास नहीं है. आदमी कर्म करे, ईमानदारी से जीवन व्यतीत करे, समाज, परिवार व देश के प्रति जिम्मेदारी भलीभांति निभाए. बस, जीवन अपनेआप ठीकठाक निकल जाता है.

शाम को जल्दी घर आ गया. एक सज्जन मेरा इंतजार कर रहे थे. झूलती हुई दाढ़ी, माथे पर लंबा तिलक, गले में बड़ेबड़े मनकों की मालाएं, सभी उंगलियों में विभिन्न प्रकार की अंगूठियां पहनी हुईं. मुझे लगा किसी आश्रम से चंदा वगैरह लेने पधारे हैं.

मैं ने सोचा, इस से पहले कि श्रीमतीजी कुछ देनेलेने का वादा कर लें, इसे भगा दूं सो बोल पड़ा, ‘‘देखिए, हम लोग इन पाखंडों में विश्वास नहीं करते हैं. हमें जो भी देना होता है हम किसी सामाजिक संस्था को दे देते हैं. इसलिए आप हमें तो क्षमा कर ही दें.’’

मेरी इस बात से वह सज्जन नाराज हो गए. तभी मेरी आवाज सुन कर श्रीमतीजी बाहर निकल आईं, ‘‘क्या बकवास लगा रखी है. मैं ने इन्हें बुलवाया है.’’

वह सज्जन मुझे क्रोध भरी नजरों से देखने लगे. मैं ने नजर दूसरी ओर कर ली तो उधर श्रीमती की निगाहें अंगारे बरसा रही थीं, ‘‘माफ कीजिए, दरअसल यह आप को जानते नहीं हैं. पता है, शर्माजी बहुत बड़े वास्तु विशेषज्ञ हैं. इन्हें तो बिलकुल भी समय नहीं मिलता. बड़ेबड़े लोग इन से मकान के बारे में राय लेते हैं, तुम भी बस…’’ लानत उलाहना देते श्रीमतीजी बोलीं.

मैं निसहाय सा उन के पीछेपीछे चल दिया. थोड़ी ही देर में मकान पर पहुंचा. मैं अपने मकान पर बहुत मेहनत कर रहा था. मेरा आर्किटेक्ट बहुत अच्छा था. मैं ने स्वाभाविक रूप से अपनी निगाह प्रशंसा पाने के लिए उन के चेहरे पर जमा दी. पर यह क्या, उन का मुखमंडल तो मानो जड़ हो गया.

‘‘भई, यह क्या किया आप ने. एक तो दरवाजा ही गलत दे दिया. आप के दोनों ओर दरवाजे का विकल्प था, पर आप ने दरवाजा दक्षिण में क्यों दिया, उत्तर में क्यों नहीं.’’

‘‘देखिए, उत्तर की ओर दुकानें बनी हुई हैं. वहां भीड़भाड़ अधिक रहती है. उधर दरवाजा खोलने पर शोरशराबा अधिक रहता है.’’

‘‘पर भई, यह तो गजब हो गया. यह नहीं चल सकता. आप को इधर दरवाजा तुड़वाना पड़ेगा और यह क्या, आप ने रसोई उधर रख दी. यह तो 3 कोण पर निर्मित है, इसे तो बदलवाना ही पड़ेगा. बेडरूम इधर शिफ्ट करना पड़ेगा.’’

मैं धम से जमीन पर बैठ गया. अगर इतनी तोड़फोड़ हुई तो 50 हजार रुपए बेकार हो जाएंगे और समय भी अधिक लग जाएगा. जैसेतैसे उन्हें निबटा कर घर आया तो पत्नी ने 5 हजार रुपए मांगे. मैं तो आसमान से जमीन पर आ गिरा.

‘‘5 हजार…’’ मेरे मुंह से निकला.

शर्माजी को कुछ अच्छा नहीं लगा.

‘‘देखिए, यह तो डिस्काउंट रेट है, वरना मैं 15 हजार से एक पैसा कम नहीं लेता.’’

क्या करता, बुझे मन से 5 हजार दिए. शर्माजी के विदा होते ही श्रीमतीजी मुझ पर चढ़ बैठीं, ‘‘क्या है… बिलकुल भी तमीज नहीं है. कितनी मुश्किल से तैयार किया था. छोटीमोटी जगह तो शर्माजी जाते ही नहीं हैं. कितने नेताअभिनेता उन की एक विजिट के लिए चक्कर लगाते रहते हैं.’’

पर बात केवल लड़ने तक ही सीमित रहती तो चल जाती. वह तो शर्माजी की कही हुई बातों पर अड़ गईं.

‘‘देखो, तुम मुझे मत टोको. शर्माजी बहुत पहुंचे हुए हैं. उन की सारी बातें बिलकुल सच निकलती हैं. गर हम ने नहीं मानीं, तो अनिष्ट ही हो जाएगा.’’

मैं ने श्रीमतीजी की बातों का बहुत विरोध किया. बहुत लड़ाझगड़ा भी पर अनिष्ट का भूत उन के दिमाग पर इस कदर सवार था कि वह मानी ही नहीं, फिर घर वाले भी उन के साथ हो लिए.

मकान में टूटफूट होती रही. मैं भारी मन से सब देखता रहा. देखतेदेखते बजट से 60 हजार रुपए और निकल गए. जब सारा काम पूरा हुआ तो मैं ने चैन की सांस ली कि चलो, इतने में ही निबटे.

पर अभी थोड़े दिन ही निकले थे कि एक दिन मैं ने शर्माजी को फिर अपने घर में पाया. एक बार फिर वह सब के साथ मकान पर गए, मकान में 10 दोष गिना दिए. नतीजे में फिर टूटफूट हो गई और फिर हजारों रुपए का खर्चा हुआ और इन सब से बड़ी दुख की बात तो यह हुई कि 5 हजार रुपए फिर शर्माजी को देने पड़े.

यह प्रक्रिया यहीं रुक जाती तो ठीक था, पर अफसोस, ऐसा नहीं हो पाया. शर्माजी का अनवरत आनाजाना लगा रहा. मकान के निर्माण में कई तरह के दोष हो जाते, फिर टूटफूट हो जाती और शर्माजी की जेब में एक मोटी रकम चली जाती.

इन सब बातों का फर्क यही पड़ा कि एक दिन मकान का निर्माण कार्य ओवरबजट होने के कारण बंद हो गया. जितने भी लोन मैं ले सकता था, मैं ने ले लिए थे. अब कोई जगह बाकी नहीं रह गई थी.

मकान मालिक, जो मेरे जल्दी मकान खाली करने के वादे को पूरा होते देख खुश था, वह हकीकत जान कर नाराज रहने लगा.

लगातार होती टूटफूट ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा. जिस बजट में मकान पूरा हो सकता था वह बजट पहले ही पूरा हो गया. मैं श्रीमतीजी पर भी नाराज होता था लेकिन वह भी चुपचाप रह जाती थीं.

ऐसे ही एक रविवार को घर पर बैठे हुए थे कि शर्माजी घर आ गए. उन्हें देखते ही मेरा पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया, ‘‘शर्माजी, अब हमें किसी वास्तुशास्त्र की जरूरत नहीं है. वास्तु के चक्कर में पड़ कर मेरा तो मकान ही अधूरा रह गया.’’

शर्माजी हंसने लगे, ‘‘चिंता मत कीजिए, भाई साहब. मैं यहां वास्तुदोष बताने नहीं आया. मैं अपने गृहप्रवेश का न्योता देने आया हूं. शाम को पधारिएगा. खाना भी वहीं है,’’ कह कर वह चले गए.

मन तो नहीं था पर फिर शाम को यही सोच कर चले गए कि शाम को खाना तो नहीं बनाना पड़ेगा.

वहां जा कर देखा तो श्रीमतीजी की आंखें फटी की फटी रह गईं. शर्माजी ने बहुत भव्य मकान बनवाया था. पूरे मकान को देख कर यही लग रहा था कि उस में बहुत पैसा खर्च हुआ है.

श्रीमतीजी ने दबे स्वर में पूछ ही लिया, ‘‘शर्माजी, इस में तो बहुत खर्चा आया होगा.’’

शर्माजी हंसने लगे, ‘‘हां, बहनजी, प्लाट के अलावा 20 लाख रुपए खर्च हुए हैं. मेरी तो बिसात ही क्या थी, आप जैसे भक्त लोगों के सहयोग से यह कार्य पूरा हो पाया. हां, आप के मकान का काम कैसा चल रहा है. आप लोग कब शिफ्ट हो रहे हैं. मेरे लायक कोई सेवा हो तो बताइएगा.’’

उन की बात सुन कर पत्नी का चेहरा उतर गया, लेकिन फिर धीरेधीरे चेहरे की रंगत बढ़ी और फिर जो उस ने कहा, वह मेरे लिए अप्रत्याशित था.

‘‘हां, आप बिलकुल सही कह रहे हैं. हमारे जैसे बेवकूफों के सहयोग से ही यह कार्य संपन्न हुआ है. आप ने अंधविश्वास के जाल में फंसा कर हमारा घर तो बनने नहीं दिया, पर अपनी झोली भर कर अपना उल्लू सीधा कर लिया. सेवा बस इतनी सी है कि आप भूल कर भी हमारे घर की ओर रुख मत करिएगा. आज आप की बातों में नहीं आते तो हम अपने घर में रह रहे होते.’’

इतना कह कर श्रीमतीजी ने मेरी ओर देखा. मुझे भी लगा कि उन के कहने से मेरे दिल पर छाया एक बड़ा बोझ उतर गया था.

हम दोनों बाहर निकल आए. हालांकि मुझे इतना बड़ा नुकसान झेलना पड़ा था पर इस बात की खुशी थी कि अंतत: मेरी श्रीमतीजी इन सब चीजों से बाहर तो निकल आई थीं.

Hindi Fictional Story

लघु कहानी: पोलपट्टी- क्या हुआ था गौरी के साथ

लघु कहानी: आज अस्पताल में भरती नमन से मिलने जब भैयाभाभी आए तो अश्रुधारा ने तीनों की आंखों में चुपके से रास्ता बना लिया. कोई कुछ बोल नहीं रहा था. बस, सभी धीरे से अपनी आंखों के पोर पोंछते जा रहे थे. तभी नमन की पत्नी गौरी आ गई. सामने जेठजेठानी को अचानक खड़ा देख वह हैरान रह गई. झुक कर नमस्ते किया और बैठने का इशारा किया. फिर खुद को संभालते हुए पूछा, ‘‘आप कब आए? किस ने बताया कि ये…’’

‘‘तुम नहीं बताओगे तो क्या खून के रिश्ते खत्म हो जाएंगे?’’ जेठानी मिताली ने शिकायती सुर में कहा, ‘‘कब से तबीयत खराब है नमन भैया की?’’

‘‘क्या बताऊं, भाभी, ये तो कुछ महीनों से… इन्हें जो भी परहेज बताओ, ये किसी की सुनते ही नहीं,’’ कहते हुए गौरी की आंखें भीग गईं. इतने महीनों का दर्द उमड़ने लगा. देवरानीजेठानी कुछ देर साथ बैठ कर रो लीं. फिर गौरी के आंसू पोंछते हुए मिताली बोली, ‘‘अब हम आ गए हैं न, कोई बदपरहेजी नहीं करने देंगे भैया को. तुम बिलकुल चिंता मत करो. अभी कोई उम्र है अस्पताल में भरती होने की.’’

मिताली और रोहन की जिद पर नमन को अस्पताल से छुट्टी मिलने पर उन्हीं के घर ले जाया गया. बीमारी के कारण नमन ने दफ्तर से लंबी छुट्टी ले रखी थी. हिचकिचाहटभरे कदमों में नमनगौरी ने भैयाभाभी के घर में प्रवेश किया. जब से वे दोनों इस घर से अलग हुए थे, तब से आज पहली बार आए थे. मिताली ने उन के लिए कमरा तैयार कर रखा था. उस में जरूरत की सभी वस्तुओं का इंतजाम पहले से ही था.

‘‘आराम से बैठो,’’ कहते हुए मिताली उन्हें कमरे में छोड़ कर रसोई में चली गई.

रात का खाना सब ने एकसाथ खाया. सभी चुप थे. रिश्तों में लंबा गैप आ जाए तो कोई विषय ही नहीं मिलता बात करने को. खाने के बाद डाक्टर के अनुसार नमन को दवाइयां देने के बाद गौरी कुछ पल बालकनी में खड़ी हो गई. यह वही कमरा था जहां वह ब्याह कर आई थी. इसी कमरे के परदे की रौड पर उस ने अपने कलीरे टांगी थीं. नवविवाहिता गौरी इसी कमरे की डै्रसिंगटेबल के शीशे पर बिंदियों से अपना और नमन का नाम सजाती थी.

मिताली ने उस का पूरे प्यारमनुहार से अपने घर में स्वागत किया था. शुरू में वह उस से कोई काम नहीं करवाती, ‘यही दिन हैं, मौज करो,’ कहती रहती. शादीशुदा जीवन का आनंद गौरी को इसी घर में मिला. जब से अलग हुए, तब से नमन की तबीयत खराब रहने लगी. और आज हालत इतनी बिगड़ चुकी है कि नमन ठीक से चलफिर भी नहीं पाता है. यह सब सोचते हुए गौरी की आंखों से फिर एक धारा बह निकली. तभी कमरे के दरवाजे पर दस्तक हुई.

दरवाजे पर मिताली थी, ‘‘लो, दूध पी लो. तुम्हें सोने से पहले दूध पीने की आदत है न.’’

‘‘आप को याद है, भाभी?’’

‘‘मुझे सब याद है, गौरी,’’ मिताली की आंखों में एक शिकायत उभरी जिसे उस ने जल्दी से काबू कर लिया. आखिर गौरी कई वर्षों बाद इस घर में लौटी थी और उस की मेहमान थी. वह कतई उसे शर्मिंदा नहीं करना चाहती थी.

अगले दिन से रोहन दफ्तर जाने लगे और मिताली घर संभालने लगी. गौरी अकसर नमन की देखरेख में लगी रहती. कुछ ही दिनों में नमन की हालत में आश्चर्यजनक सुधार होने लगा. शुरू से ही नमन इसी घर में रहा था. शादी के बाद दुखद कारणों से उसे अलग होना पड़ा था और इस का सीधा असर उस की सेहत पर पड़ने लगा था. अब फिर इसी घर में लौट कर वह खुश रहने लगा था. जब हम प्रसन्नचित्त रहते हैं तो बीमारी भी हम से दूर ही रहती है.

‘‘प्रणाम करती हूं बूआजी, कैसी हैं आप? कई दिनों में याद किया अब की बार कैसी रही आप की यात्रा?’’ मिताली फोन पर रोहन की बूआ से बात कर रही थी. बूआजी इस घर की सब से बड़ी थीं. उन का आनाजाना अकसर लगा रहता था. तभी गौरी का वहां आना हुआ और उस ने मिताली से कुछ पूछा.

‘‘पीछे यह गौरी की आवाज है न?’’ गौरी की आवाज बूआजी ने सुन ली.

‘‘जी, बूआजी, वह नमन की तबीयत ठीक नहीं है, तो यहां ले आए हैं.’’

‘‘मिताली बेटा, ऐसा काम तू ही कर सकती है, तेरा ही दिल इतना बड़ा हो सकता है. मुझे तो अब भी गौरी की बात याद आती है तो दिल मुंह को आने लगता है. छी, मैं तुझ से बस इतना ही कहूंगी कि थोड़ा सावधान रहना,’’ बूआजी की बात सुन मिताली ने हामी भरी. उन की बात सुन कर पुरानी कड़वी बातें याद आते ही मिताली का मुंह कसैला हो गया. वह अपने कक्ष में चली गई और दरवाजा भिड़ा कर, आंखें मूंदे आरामकुरसी पर झूलने लगी.

गौरी को भी पता था कि बूआजी का फोन आया है. उस ने मिताली के चेहरे की उड़ती रंगत को भांप लिया था. वह पीछेपीछे मिताली के कमरे तक गई.

‘‘अंदर आ जाऊं, भाभी?’’ कमरे का दरवाजा खटखटाते हुए गौरी ने पूछा.

‘‘हां,’’ संक्षिप्त सा उत्तर दिया मिताली ने. उस का मन अब भी पुराने गलियारों के अंधेरे कोनों से टकरा रहा था. जब कोई हमारा मन दुखाता है तो वह पीड़ा समय बीतने के साथ भी नहीं जाती. जब भी मन बीते दिन याद करता है, तो वही पीड़ा उतनी ही तीव्रता से सिर उठाती है.

‘‘भाभी, आज हम यहां हैं तो क्यों न अपने दिलों से बीते दिनों का मलाल साफ कर लें?’’ हिम्मत कर गौरी ने कह डाला. वह इस मौके को गंवाना नहीं चाहती थी.

‘‘जो बीत गई, सो बात गई. छोड़ो उन बातों को, गौरी,’’ पर शायद मिताली गिलेशिकवे दूर करने के पक्ष में नहीं थी. अपनी धारणा पर वह अडिग थी.

‘‘भाभी, प्लीज, बहुत हिम्मत कर आज मैं ने यह बात छेड़ी है. मुझे नहीं पता आप तक मेरी क्या बात, किस रूप में पहुंचाई गई. पर जो मैं ने आप के बारे में सुना, वह तो सुन लीजिए. आखिर हम एक ही परिवार की डोर से बंधे हैं. यदि हम एकदूसरे के हैं, तो इस संसार में कोईर् हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता. किंतु यदि हमारे रिश्ते में दरार रही तो इस से केवल दूसरों को फायदा होगा.’’

‘‘भाभी, मेरी डोली इसी घर में उतरी थी. सारे रिश्तेदार यहीं थे. शादी के तुरंत बाद से ही जब कभी मैं अकेली होती. बूआजी मुझे इशारों में सावधान करतीं कि मैं अपने पति का ध्यान रखूं. उन के पूरे काम करूं, और उन की आप पर निर्भरता कम करूं. आप समझ रही हैं न? मतलब, बूआजी का कहना था कि नमन को आप ने अपने मोहपाश में जकड़ रखा है ताकि… समझ रही हैं न आप मेरी बात?’’

गौरी के मुंह से अपने लिए चरित्रसंबंधी लांछन सुन मिताली की आंखें फटी रह गईं, ‘‘यह क्या कह रही हो तुम? बूआजी ऐसा नहीं कह सकतीं मेरे बारे में.’’

‘‘भाभी, हम चारों साथ होंगे तो हमारा परिवार पूरी रिश्तेदारी में अव्वल नंबर होगा, यह बात किसी से छिपी नहीं है. शादी के तुरंत बाद मैं इस परिवार के बारे में कुछ नहीं जानती थी. जब बूआजी जैसी बुजुर्ग महिला के मुंह से मैं ने ऐसी बातें सुनीं, तो मैं उन पर विश्वास करती चली गई. और इसीलिए मैं ने आप की तरफ शुष्क व्यवहार करना आरंभ कर दिया.

‘‘परंतु मेरी आंखें तब खुलीं जब चाचीजी की बेटी रानू दीदी की शादी में चाचीजी ने मुझे बताया कि इन बातों के पीछे बूआजी की मंशा क्या थी. बूआजी चाहती हैं कि जैसे पहले उनका इस घर में आनाजाना बना हुआ था जिस में आप छोटी बहू थीं और उन का एकाधिकार था, वैसे ही मेरी शादी के बाद भी रहे. यदि आप जेठानी की भूमिका अपना लेतीं तो आप में बड़प्पन की भावना घर करने लगती और यदि हमारा रिश्ता मजबूत होता तो हम एकदूसरे की पूरक बन जातीं. ऐसे में बूआजी की भूमिका धुंधली पड़ सकती थी. बूआजी ने मुझे इतना बरगलाया कि मैं ने नमन पर इस घर से अलग होने के लिए बेहद जोर डाला जिस के कारण वे बीमार रहने लगे. आज उन की यह स्थिति मेरे क्लेश का परिणाम है,’’ गौरी की आंखें पश्चात्ताप के आंसुओं से नम थीं.

गौरी की बातें सुन मिताली को नेपथ्य में बूआजी द्वारा कही बातें याद आ रही थीं, ‘क्या हो गया है आजकल की लड़कियों को. सोने जैसी जेठानी को छोड़ गौरी को अकेले गृहस्थी बसाने का शौक चर्राया है, तो जाने दे उसे. जब अकेले सारी गृहस्थी का बोझा पड़ेगा सिर पे, तो अक्ल ठिकाने आ जाएगी. चार दिन ठोकर खाएगी, तो खुद आएगी तुझ से माफी मांगने. इस वक्त जाने दे उसे. और सुन, तू बड़ी है, तो अपना बड़प्पन भी रखना, कोई जरूरत नहीं है गौरी से उस के अलग होने की वजह पूछने की.’

‘‘भाभी, मुझे माफ कर दीजिए, मेरी गलती थी कि मैं ने बूआजी की कही बातों पर विश्वास कर लिया और तब आप को कुछ भी नहीं बताया.’’

‘‘नहीं, गौरी, गलती मेरी भी थी. मैं भी तो बूआजी की बातों पर उतना ही भरोसा कर बैठी. पर अब मैं तुम्हारा धन्यवाद करना चाहती हूं कि तुम ने आगे बढ़ कर इस गलतफहमी को दूर करने की पहल की,’’ यह कहते हुए मिताली ने अपनी बांहें खोल दीं और गौरी को आलिंगनबद्ध करते हुए सारी गलतफहमी समाप्त कर दी.

कुछ देर बाद मिताली के गले लगी गौरी बुदबुदाई, ‘‘भाभी, जी करता है कि बूआजी के मुंह पर बताऊं कि उन की पोलपट्टी खुल चुकी है. पर कैसे? घर की बड़ीबूढ़ी महिला को आईना दिखाएं तो कैसे, हमारे संस्कार आड़े आ जाते हैं.’’

‘‘तुम ठीक कहती हो, गौरी. परंतु बूआजी को सचाई ज्ञात कराने से भी महत्त्वपूर्ण एक और बात है. वह यह है कि हम आइंदा कभी भी गलतफहमियों का शिकार बन अपने अनमोल रिश्तों का मोल न भुला बैठें.’’

देवरानीजेठानी का आपसी सौहार्द न केवल उस घर की नींव ठोस कर रहा था बल्कि उस परिवार के लिए सुख व प्रगति की राह प्रशस्त भी कर रहा था.

लघु कहानी

Emotional Story: पश्चात्ताप:- बलदेव राज ने कौनसा गुनाह किया था

Emotional Story: दारोगा बलदेव राज शहर के बाईपास मोड़ पर अपनी ड्यूटी बजा रहे थे. सरकारी अफसर  हैं इसलिए जब मन में आता वाहनों को चेक कर लेते नहीं तो मेज पर टांगें पसार कर आराम करते थे.

जिस वाहन को वे रोकते उस से 100-50 रुपए झटक लेते. नियमों का शतप्रतिशत पालन वाहन चालक करते ही कहां हैं. वैसे इस की जरूरत होती भी नहीं क्योंकि जब चेकपोस्ट पर 100-50 रुपए देने ही पड़ते हैं तो इस चक्कर में पड़ कर समय और पैसा बरबाद करने का फायदा ही क्या है.

पुलिस वाले वाहन चालकों की इस आदत को अच्छी तरह से जानते हैं और वाहन चालक पुलिस का मतलब खूब समझते हैं.

बलदेव राज टैंट के भीतर जा कुरसी पर अधलेटी मुद्रा में पसर गए और अपनी रात भर की थकान उतारने की कोशिश करने लगे.

तभी एक सिपाही ने कहा, ‘‘साहब, ज्यादा थकान लग रही हो तो कमर सीधी कर लो. मैं चाय वाले के यहां से खटिया ला देता हूं.’’

अलसाए स्वर में मना करते हुए वह बोले, ‘‘अरे, नहीं सोमपाल, खटिया रहने ही दे. सो गया तो 2-3 बजे से पहले उठ नहीं पाऊंगा. अभी तो 8 ही बजे हैं और ड्यूटी 10 बजे तक की है. पुलिस वाले को ड्यूटी के समय बिलकुल भी नहीं सोना चाहिए.’’

‘‘क्या फर्क पड़ता है, साहब,’’ सिपाही सोमपाल बोला, ‘‘गाडि़यों को तो इसी तरह चलते रहना है, और फिर जब इस समय किसी को रोकना ही नहीं है तो एक नींद लेने में हर्ज ही क्या है.’’

तभी एक दूसरा सिपाही बड़े ही उत्साह में भरा हुआ टैंट के अंदर आया और बलदेव राज से बोला, ‘‘साहब, बाहर एक टैक्सी वाला खड़ा है. मैं ने तो यों ही उसे रोक लिया था लेकिन उस के पास ड्राइविंग लाइसेंस ही नहीं है. कहता है घर पर भूल आया है.’’

‘‘उस से तुम दोनों जा कर निबट लो. ध्यान रखना, अगर रोज का आनेजाने वाला हो तो हाथ हलका ही रखना,’’ बलदेव राज ने जम्हाई लेते हुए कहा.

सिपाही खुश हो कर बोला, ‘‘साहब, रोज वाला तो नहीं लगता है. गाड़ी भी किसी दूसरे जिले के नंबर की है.’’

‘‘फिर चिंता की क्या बात है,’’ बलदेव राज बोले, ‘‘उस की औकात देख कर जैसा चाहो वैसा कर लो. और हां, सुनो, मेरे लिए अच्छी सी चाय भिजवा देना. चाय वाले से कहना कि दूध में पत्ती डाल दे.’’

‘‘जी, साहब,’’ दोनों सिपाही एक साथ बोले और खुशीखुशी बाहर चले गए.

थोड़ी देर बाद चाय वाला चाय ले आया और बलदेव राज चाय की चुस्की लेने लगे.

लगभग 15 मिनट बाद दोनों सिपाही अंदर आए तो दोनों काफी खुश दिखाई दे रहे थे. बलदेव राज को वे कुछ बताना चाहते थे कि वह खुद ही बोल पड़े, ‘‘मुझे कुछ भी बताने की जरूरत नहीं है. जाओ और जा कर रकम को आपस में बांट लो.’’

सोमपाल गद्गद हो उठा. उस ने बलदेव राज की स्तुति करते हुए कहा, ‘‘आप की इसी दरियादिली के कारण ही तो हर सिपाही आप का गुलाम बन जाता है, साहब. बर्फ की चोटी हो या रेत का मैदान, आप के साथ हर जगह ड्यूटी करने में मजा आ जाता है.’’

‘‘अच्छा, ज्यादा चापलूसी नहीं. मेरा तो सदा से ही जियो और जीने दो का सिद्धांत रहा है. देखो, 8 बज चुके हैं. अब से ले कर रात 8 बजे तक बड़ी गाडि़यों का शहर में घुसना मना है. तुम दोनों बाहर जा कर खड़े हो जाओ. कहीं ऐसा न हो कि कोई ट्रक चालक मौके का फायदा उठा कर ट्रक निकाल ले.’’

दूसरा सिपाही मुंह बना कर कटाक्ष करते हुए बोला, ‘‘सरकार ने भी कैसेकैसे नियम बना रखे हैं. सब जानते हैं कि इन नियमों को खुद बनाने वाले ही इसे तोड़ देते हैं फिर भी…’’

‘‘ये सब बातें तू नहीं समझेगा,’’ सिपाही की बात को बीच में ही काट कर बलदेव राज बोले, ‘‘जनता की मांग पर सरकार नियम नहीं बनाएगी तो कैसे पता चलेगा कि वह कुछ काम कर रही है. वैसे सरकार नियम न भी बनाए तो कोई खास फर्क पड़ने वाला नहीं है. सरकार जानती है कि जनता ही नियमकानून बनवाती है और जनता ही उसे तोड़ती है.

‘‘कानून बनाने से कुछ होता तो जेलों में इतनी भीड़ नहीं होती, कोर्टकचहरी में मेले न लगे होते. फिर भी सरकार बनाती है, क्योंकि उसे पता है कि तेरी तनख्वाह इतनी नहीं है कि बीवीबच्चों के शौक पूरे कर सके. अब बता, एक नियम टूटने से तेरी घरवाली के शौक पूरे हो जाते हैं तो इस में बुराई क्या है?’’

सिपाही के बाहर जाते ही बलदेव राज फिर से कुरसी पर पसर गए.

अभी दारोगाजी ठीक से झपकी भी नहीं ले पाए थे कि सोमपाल अंदर आ कर बोला, ‘‘साहब, बाहर एक ट्रक आया है. ऊपर तक बोरियां लदी पड़ी हैं. ड्राइवर कह रहा है कि मुन्ना सेठ का माल है. शहर के अंदर जाना है.’’

‘‘इस मुन्ना सेठ ने तो खून पी रखा है. इस के आदमी जब मरजी तब मुंह उठाए चले आते हैं. बुला के ला तो उस ड्राइवर को.’’

कुरसी पर संभल कर बैठते हुए बलदेव राज ड्राइवर का इंतजार करने लगे. सोमपाल उसे अपने साथ ले आया. बलदेव राज ड्राइवर को देखते ही गुस्से से बोले, ‘‘क्यों बे नंदू, तू कभी सुधरेगा भी या नहीं. जानता है कि 8 बजे के बाद शहर में घुसना मना है. फिर भी सवा 8 बजे यहां पहुंच रहा है.’’

नंदू ने एक सलाम ठोका और दांत दिखाते हुए बोला, ‘‘मुझे पता था कि यहां पर आप ही मिलेंगे, इसलिए आराम से आ रहा था. गाड़ी में लोड भी कुछ ज्यादा ही है.’’

‘‘तो फिर रात 8 बजे तक खड़ा रह आराम से. तेरी आदत गंदी हो गई है. आज तुझे नहीं जाने दूंगा. कहीं कुछ गड़बड़ हो गई तो मैं हर एक को क्या जवाब देता फिरूंगा. सोमपाल, जा, इस का ट्रक किसी ढंग की जगह पर लगवा दे.’’

‘‘जी साहब,’’ सोमपाल ने कहा, मगर वहां से गया नहीं और न ही नंदू को उस ने बाहर चलने के लिए बोला.

नंदू भी शायद जानता था कि साहब का गुस्सा बनावटी है. वह लगातार हंसे ही जा रहा था और हंसते हुए ही कहने लगा, ‘‘आप भी कमाल की बात करते हैं साहब. मैं तो हमेशा आप की कही हुई बात याद रखता हूं. आप ही तो कहते हैं

कि ये नियमकानून सब ढकोसलेबाजी है. कुछ होना न होना तो ऊपर वाले के ही हाथ में है. जो होना है वह तो हो ही जाता है. बाजार में ट्रक के घुसने से क्या फर्क पड़ता है.’’

‘‘वाह बेटा, मैं ने एक बार कह दिया तो तू जीवन भर इसी तरह से मंत्र ही जपता रहेगा क्या? और यह भूल गया कि मैं ने यह भी तो कहा था कि नियम अच्छा हो या बुरा, उसे तोड़ना ठीक नहीं होता.’’

नंदू और जोर से हंसा और जेब से 200 रुपए निकाल कर मेज पर रखते हुए बोला, ‘‘आप का नियम कौन तोड़ रहा है, साहब, अब मैं जाऊं?’’

‘‘बड़ा समझदार हो गया है, और यह क्या 200 रुपए की भीख दे रहा है? मैं क्या जानता नहीं कि दिन भर यहां खड़ा रहेगा तो तेरा कितना नुकसान होगा.’’

नंदू खुशामदी स्वर में बोला, ‘‘रोज का मिलनाजुलना है, साहब, इतना लिहाज तो चलता है. आपसी संबंध भी तो कोई चीज होती है.’’

‘‘तू मानेगा नहीं,’’ बलदेव राज गहरी सांस ले कर बोले, ‘‘ठीक है जा, मुन्ना सेठ से कहना ज्यादा लालच न किया करे. और सुन, कोई पूछे तो कहना चेकपोस्ट से 8 बजे से पहले ही निकल आया था.’’

‘‘यह भी कोई कहने की बात है, साहब,’’ नंदू ने कहा और सलाम ठोंक कर चला गया.

‘‘चल भई, सोमपाल, थोड़ी देर अब बाहर ही चल कर बैठते हैं. 10 बजे घर जा कर तो सोना ही है,’’ बलदेव राज ने कहा और बाहर आ गए.

सिपाहियों से गपशप करते बलदेव राज को अभी 20 मिनट ही हुए थे कि अचानक शहर से आ रही एक गाड़ी के चालक ने खबर दी कि मुन्ना सेठ का बोरियों से भरा ट्रक शहर में एक टैंपो से टकराने के बाद उलट गया है.

‘‘क्या?’’ बलदेव राज का मुंह खुला का खुला रह गया, ‘‘कोई मरा तो नहीं?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘मरा तो शायद कोई नहीं, साहब, लेकिन कुछ बच्चों को चोटें आई हैं. टैंपो बच्चों को स्कूल छोड़ने जा रहा था.’’

बलदेव राज थोड़ा परेशान से हो गए. अपने साहब की परेशानी देख कर सोमपाल बोला, ‘‘मुझे तो पहले ही शक हो रहा था कि कहीं आज वह कोई गड़बड़ न कर दे. लोड बहुत ही ज्यादा कर रखा था उस ने.’’

बलदेव राज थोड़ा उत्तेजित स्वर में बोले, ‘‘अहमक ने टक्कर मारी भी तो स्कूल जाते टेंपों को. अब बच्चों के मांबाप तो आसमान सिर पर उठा ही लेंगे.’’

‘‘हां जी, साहब, जांच तो जरूर होगी कि ‘नो एंट्री’ टाइम में ट्रक शहर में कैसे घुस आया,’’ सोमपाल ने चिंता जताई.

बलदेव राज तुरंत बोले, ‘‘देखो, कोई कितना भी कुरेदे, दोनों यही कहना कि ट्रक यहां से 8 बजे से पहले ही निकल गया था.’’

दोनों सिपाहियों ने सहमति में गरदन हिला दी.

तभी फोन की घंटी घनघना उठी. बलदेव राज ने फोन उठाया. दूसरी ओर से उन की पत्नी का रोताबिलखता स्वर आया, ‘‘आप जल्दी से आ जाइए, जगदेव के टैंपो को स्कूल जाते समय किसी ट्रक वाले ने टक्कर मार दी है. सीधे अस्पताल आ जाइए, मैं वहीं से बोल रही हूं.’’

‘‘क्या?’’ बलदेव राज के हाथों से रिसीवर छूटतेछूटते बचा. वह घबराए स्वर में बोले, ‘‘मैं आता हूं, 5 मिनट में पहुंचता हूं. तुम घबराना मत.’’

रिसीवर रख कर वह मोटरसाइकिल की ओर बढ़ते हुए बोले, ‘‘मैं जा रहा हूं, सोमपाल, जिन बच्चों को चोटें आई हैं उन में मेरा बच्चा भी है.’’

रास्ते में बलदेव राज के मन में तरहतरह के विचार आते रहे. यदि जगदेव को कुछ हो गया तो वे कैसे अपनी पत्नी से आंखें मिला सकेंगे. जगदेव ही क्यों, दूसरे बच्चे भी तो अपने मातापिता के दुलारे हैं. उन में से किसी को भी कुछ हो गया तो वे कैसे अपनेआप को माफ कर सकेंगे.

कितना गलत सोचते थे वह कि नियमकानून बेवजह बनाए गए हैं. आज पता चल गया था कि हर नियम और कानून का इस समाज के लिए बड़ा ही महत्त्व है. खुद उन के लिए भी महत्त्व है. वह भी तो इसी समाज का हिस्सा हैं.

कुछ ही देर बाद बलदेव राज अस्पताल में पहुंच गए. वहां काफी भीड़ लगी हुई थी. डाक्टर लोग बच्चों का उपचार करने में जुटे हुए थे और उन के मातापिता के आंसू थामे नहीं थम रहे थे.

उन्हीं में उन की पत्नी भी शामिल थी. जगदेव सहित बाकी बच्चों का शरीर पट्टियों से ढका हुआ था और वे लगातार कराहे जा रहे थे. इस करुणामय दृश्य ने उन के कठोर दिल को भी पिघला कर रख दिया था.

अचानक एक बिस्तर पर घायल नंदू भी उन्हें दिखाई दे गया. वह पुलिस के संरक्षण में था. गुस्से की एक तेज लहर उन के शरीर में कौंधी और वे उस ओर बढ़े भी किंतु फौरन ही रुक गए. मन के किसी कोने से आवाज आई थी, ‘क्या अकेला नंदू ही दोषी है?’

बाहर कुछ लोग कह रहे थे, ‘‘ट्रक ड्राइवर का दोष है और उसे सजा मिल भी जाएगी मगर चेकपोस्ट पर पुलिस वाले सोए हुए थे क्या, जो इतने खतरनाक ढंग से लदे ट्रक को नहीं देख सके. टैंपो वाला समझदारी न दिखाता तो इन बेकुसूरों में से कोई भी नहीं बच पाता.’’

‘‘पुलिस वालों को इस से क्या सरोकार, उन्होंने तो 100-50 का नोट देख कर अपनी आंखें बंद कर ली होंगी.’’

इसी तरह की और भी बहुत सी बातें, तीर बन कर बलदेव राज के दिल को भेदने लगीं.

वह पत्नी के पास आ कर खड़े हो गए. पत्नी की आंसुओं से भीगी आंखों में जब उन्होंने अपने प्रति एक सवाल तैरते देखा तो असीम अपराध बोध से उन का चेहरा खुद ही झुकता चला गया और पश्चात्ताप आंसू बन कर आंखों से बाहर छलकने लगा.

Emotional Story

Hindi Short Story: रोहित- क्या सुधर पाया वह

Hindi Short Story: हमेशा की तरह आज भी स्टाफरूम में चर्चा का विषय था 9वीं कक्षा का छात्र रोहित, जिस की दादागीरी से उस के सहपाठी ही नहीं बल्कि अन्य कक्षाओं के छात्रों सहित टीचर्स भी परेशान थे. प्राचार्य भी उस की शिकायत सुनसुन कर परेशान हो गए थे. न जाने कितनी बार उसे अपने औफिस में बुला कर हर तरह से समझाने की कोशिश कर चुके थे, पर नतीजा सिफर ही था.

रोहित पर किसी भी बात का कोई असर नहीं होता था. उस के गलत आचरण को निशाना बना कर उस पर कोई कड़ी कार्यवाही भी नहीं की जा सकती थी कारण कि वह फैक्टरी मजदूर यूनियन के प्रमुख का बेटा था और उन से सभी का वास्ता पड़ता रहता था. कैमिस्टरी की टीचर संगीता को देखते ही बायोलौजी टीचर मीना ने कहा, ‘‘मैडम, इस बार तो 9वीं कक्षा की क्लास टीचर आप होंगी. संभल कर रहिएगा, रोहित अपने आतंक से सभी को परेशान करता रहता है.’’

‘‘कोई बात नहीं मिस. हम उसे देख लेंगे. है तो 15 साल का किशोर ही न. उस से क्या परेशान होना. आप तो बायोलौजी से हैं. आप को पता ही होगा, इस उम्र के बच्चों के शरीर में न जाने कितने हारमोनल बदलाव होते रहते हैं. अगर सभी तरह के वातावरण अनुकूल नहीं हुए तो नकारात्मक प्रवृत्तियां घर कर लेती हैं. समय पर अगर उन्हें हर प्रकार की भावनात्मक मदद व प्रोत्साहन मिले तो वे अपनेआप ही अनुशासित हो जाते हैं.’’

‘‘ठीक है मैम. लेकिन उस पर उद्दंडता इतनी हावी है कि उस का सुधरना नामुमकिन है.’’

मैथ्स के सर भी चुप नहीं रहे, ‘‘जो भी हो मैडम, पर मैथ्स में उस का दिमाग कमाल का है. कठिन से कठिन सवाल को चुटकियों में हल कर लेता है. पता नहीं अन्य विषयों में उस के इतने कम अंक क्यों आते हैं?’’

‘‘डिबेट वगैरा में तो अच्छा बोलता है. बस, उसे टोकाटाकी अच्छी नहीं लगती. हां, यह अलग बात है कि वह बस में खिड़की के पास बैठने के लिए हमेशा मारपीट पर उतर आता है. वहां बैठे टीचर्स की भी उसे कोई परवा नहीं रहती.’’

‘‘मैं ने तो न जाने कितनी बार उसे लड़कियों की ओर कागज के गोले फेंकते पकड़ा है, जिन में अनर्गल बातें लिखी रहती हैं,’’ हिंदी वाले सर बोले. हिंदी वाले सर की बात को काटते हुए संगीता मैम ने कहा, ‘‘छोडि़ए सर, अब उस आतंकवादी को मुझे देखना है,’’ कहते हुए वे स्टाफरूम से निकल गईं. 9वीं कक्षा में क्लास टीचर के रूप में संगीता मैम का आज पहला दिन था. वे अटैंडैंस ले रही थीं कि अचानक उन्हें लगा जैसे अभीअभी कोई क्लास में आया हो.

‘‘क्लास में कौन आया है अभी?’’ संगीता मैम ने पूछा, लेकिन कोई उत्तर न पा कर दोबारा बोलीं, ‘‘जो भी अभी आया है खड़ा हो जाए.’’ प्रत्युत्तर में रोहित को खड़ा होते देख कर संगीता मैम ने कहा, ‘‘रोहित, तुम क्लास से बाहर जाओ और आने की आज्ञा ले कर क्लास में आओ.’’ रोहित ने इसे अपनी बेइज्जती समझा. उस ने क्रोध भरी नजरों से संगीता मैम को देखा और दरवाजे को जोर से बंद करते हुए बाहर चला गया. क्लास समाप्ति की घंटी बजते ही संगीता मैम बाहर आईं तो उन्होंने रोहित को बाहर खड़ा पाया. उसे कैमिस्टरी लैब में आने को कहते हुए वे आगे बढ़ गईं. उम्मीद तो नहीं थी कि रोहित उन के कहने पर वहां आएगा, लेकिन अपने आने से पहले रोहित को वहां पर देख कर वे मुसकरा उठीं.

‘‘अच्छा रोहित, मुझे यह बताओ कि तुम क्लास में फिर क्यों नहीं आए? इस से तो तुम्हारा ही नुकसान हुआ न. आज मैं ने ‘औरगैनिक कैमिस्टरी, कैमिस्टरी की कौन सी ब्रांच है, इस की क्या उपयोगिता है?’ नामक पाठ पढ़ाया है. अब तुम्हें कौन समझाएगा? अनुशासित हो कर पढ़ने के लिए बच्चे स्कूल आते हैं. सभी टीचर्स को तुम से कोई न कोई शिकायत है. तुम ऐसे क्यों हो? क्यों इतनी उद्दंडता पर उतर आते हो? घर में अपने मम्मीपापा के साथ भी ऐसे ही करते हो क्या?’’ कहते हुए संगीता मैम ने उस की पीठ क्या सहलाई रोहित रो पड़ा. संगीता मैम ने उसे पहले जीभर कर रोने दिया. फिर जब उस के मन का सारा गुबार निकल गया तो उन्होंने रोहित को आश्वस्त करते हुए कहा, ‘‘संकोच की कोई बात नहीं है रोहित. अपने मन की बात कहो. जो भी दुख है उसे बाहर निकालो. तुम्हारी जो भी समस्या है तुम बेझिझक मुझ से कह सकते हो. यहां कोई नहीं है तुम्हें कुछ कहने वाला. तुम्हारा मजाक कम से कम मैं तो नहीं उड़ाऊंगी. इतना विश्वास तुम मुझ पर कर सकते हो.’’

आज तक किसी टीचर ने उस की दुखती रग पर हाथ नहीं रखा था. उन सभी से डांटफटकार के साथ आतंकवादी की उपाधि पा कर वह दिनोदिन उद्दंड होता ही गया. आज पहली बार किसी ने उस के असामान्य व्यवहार का कारण पूछा तो वह भी स्वयं को रोक नहीं पाया. संगीता मैम का प्यार एवं विश्वास भरा आश्वासन पाते ही वह सबकुछ उगलने लगा.

‘‘घर में हम दोनों भाइयों को देखने वाला है ही कौन मैम. जब से होश संभाला मम्मीपापा को हमेशा झगड़ते हुए ही पाया. प्यारदुलार के बदले उन दोनों का क्रोध हम दोनों भाइयों पर कहर बन कर टूटता रहा है. अकारण ही हम भी उन की गालियों का शिकार हो जाते हैं. घर का ऐसा माहौल है कि हंसना तो दूर की बात है, हम खुल कर सांस भी नहीं ले पाते. मम्मीपापा का प्यार हम दोनों ने आज तक जाना नहीं,’’ कहता हुआ रोहित सुबकने लगा. रोहित के बारे में जान कर संगीता मैम को बहुत दुख हुआ. वे उस दिन स्कूल से ही रोहित के घर गईं और अपने अनगिनत प्रश्नों के घेरे में उस के मम्मीपापा को खड़ा कर के समझाते हुए उन की भर्त्सना की. बच्चों के भविष्य का वास्ता दिया, तो उन दोनों ने भी अपने सुधरने का आश्वासन दे कर संगीता मैम को निराश नहीं किया.

दूसरे दिन सर्वसम्मति से रोहित को क्लास मौनीटर बनाते हुए संगीता मैम ने उसे ढेर सारी जिम्मेदारी सौंप दी. फिर तो रोहित के अंतरमन से वर्षों का दबा हीनभावना का सारा अंधकार जाता रहा. अब आत्मविश्वास की ज्योति से जगमगाते हुए एक नए रोहित का जन्म हुआ. देखते ही देखते सब टीचर्स का मानसम्मान करता वह सब का प्रिय बन गया. संगीता मैम ने भी ऐसे चमत्कार की उम्मीद नहीं की थी. हर साल लुढ़क कर पास होने वाला रोहित अब क्लास में ही नहीं स्कूल की भी सारी गतिविधियों में प्रथम आ कर सब को आश्चर्यचकित करने लगा था. ‘यूथ पार्लियामैंट’ नामक एकांकी में प्रधानमंत्री की भूमिका निभा कर वह सारे जोन में प्रथम आया. दिल्ली के मावलंकर सभागार में उसे पुरस्कृत किया गया. सारे अखबार, टीवी चैनल्स पर वह न जाने कितने दिन तक छाया रहा.

‘‘अरे भाई, रोहित तो हमारे स्कूल का बड़ा होनहार छात्र है,’’ जो टीचर्स उस की शिकायतें करते नहीं थकते थे उन की जबान पर अब यही शब्द थे. रोहित के मम्मीपापा के पैर तो जमीन पर ही नहीं पड़ रहे थे. वे संगीता मैम को धन्यवाद देते नहीं थक रहे थे. स्कूल को सभी तरह से गौरवान्वित करता रोहित अब सब का प्रिय छात्र बन गया था.

Hindi Short Story

Fictional Story: मेहनत रंग लाई- क्या शर्मिंदगी को गर्व में बदल पाया दिवाकर

Fictional Story: ठाणे के विधायक दिवाकर की कार में ड्राइवर के अलावा पिछली सीट पर दिवाकर उन की पत्नी मालिनी थीं. पीछे वाली कार में उन के दोनों युवा बच्चे पर्व और सुरभि और दिवाकर का सहायक विकास थे. आज दिवाकर को एक स्कूल का उद्घाटन करने जाना था.

दिवाकर का अपने क्षेत्र में बड़ा नाम था. पर्व और सुरभि अकसर उन के साथ ऐसे उद्घाटनों में जा कर बोर होते थे, इसलिए बहुत कम ही जाते थे. पर कारमेल स्कूल की काफी चर्चा हो रही थी, काफी बड़ा स्कूल बना था, सो आज फिर दोनों बच्चे आ ही गए. वैसे, उद्घाटन तो किसी न किसी जगह का दिवाकर करते ही रहते थे. पर स्कूल का उद्घाटन पहली बार करने गए थे.

विकास ने भाषण तैयार कर लिया था. मीडिया थी ही वहां. मालिनी भी उन के साथ कम ही आती थी, पर आज बच्चे उसे भी जबरदस्ती ले आए थे. वैसे भी स्कूल की प्रबंध कमेटी ने दिवाकर को सपरिवार आने के लिए बारबार आग्रह किया था. विकास का भी यही कहना था ‘सर, ऐसे संपर्क बढ़ेंगे तो पार्टी के लिए ठीक रहेगा. टीचर्स होंगे, अभिभावक होंगे, आप का सपरिवार जाना काफी प्रभाव डालेगा.’

कार से उतरते ही दिवाकर और बाकी सब का स्वागत जोरशोर से हुआ. स्कूल की पिं्रसिपल विभा पारिख, मैनेजर सुदीप राठी और प्रबंधन समिति के अन्य सदस्य सब का स्वागत करते हुए उन्हें गेट पर लगे लाल रिबन तक ले गए. दिवाकर ने उसे काटा तो तालियों की आवाज से एक उत्साहपूर्ण माहौल बन गया. दिवाकर स्टेज पर चले गए. दर्शकों की पंक्ति में सब से आगे रखे गए सोफे पर मालिनी विकास और बच्चों के साथ बैठ गई.

विभा पारिख ने दिवाकर को सपरिवार आने के लिए धन्यवाद देते हुए एक बुके दे कर उन का अभिनंदन किया. फिर उन्होंने अपने स्कूल के बारे में काफीकुछ बताया. अभिभावकगण बड़ी संख्या में थे. स्कूल की बिल्ंिडग वाकई बहुत शानदार थी. कैमरों की लाइट चमकती रही. दिवाकर से भी दो शब्द बोलने का आग्रह किया गया.

दिवाकर माइक पर खड़े हुए. शिक्षा के महत्त्व शिक्षा के विकास, नए बने स्कूल की तारीफ कर के भाषण खत्म कर ही रहे थे कि एक मीडियाकर्मी ने पूछ लिया, ‘‘सर, आप ने शिक्षा के संदर्भ में बहुत अच्छी बातें कहीं, आप प्लीज अपनी शिक्षा के बारे में भी आज बताना पसंद करेंगे?’’

शर्मिंदगी का एक साया दिवाकर के चेहरे पर आ कर लहराया. उन की नजरें मालिनी और अपने बच्चों से मिलीं तो उन की आंखों में भी अपने लिए शर्मिंदगी सी दिखी. नपेतुले, सपाट शब्दों में उन्होंने कहा, ‘‘अपने बारे में फिर कभी बात करूंगा, आज इस नए स्कूल के लिए, इस के सुनहरे भविष्य के लिए मैं शुभकामनाएं देता हूं. बच्चे यहां ज्ञान अर्जित करें, सफलता पाएं.’’

तालियों की गड़गड़ाहट से सभा समाप्त हुई पर शर्मिंदगी का जो एक कांटा आज दिवाकर के गले में अटका था, लौटते समय कुछ बोल ही नहीं पाए, चुप ही रहे. मालिनी को घर छोड़ा और विकास के साथ अपने औफिस निकल गए. विकास दिवाकर के साथ सालों से काम कर रहा था. दोनों के बीच आत्मीय संबंध थे. दिवाकर के तनाव का पूरा अंदाजा विकास को था. वह सम झ रहा था कि अपनी शिक्षा पर उसे सवाल दिवाकर को शर्मिंदा कर गए हैं. पूरे रास्ते दिवाकर गंभीर विचारों में डूबे रहे, विकास भी चुप ही रहा.

औफिस पहुंचते ही विकास ने उन के लिए जब कौफी मंगवाई इतनी देर में वे पहली बार हलके से मुसकराए. कहा, ‘‘तुम्हें सब पता है, मु झे कब क्या चाहिए,’’ विकास भी हंस दिया, ‘‘चलो सर, आप ने कम से कम कुछ बोला तो. आप इतने परेशान न हों. खोदखोद कर सवाल पूछना मीडिया का काम ही है. और यह पहली बार तो हुआ नहीं है. पर आज आप इतने सीरियस क्यों हो गए? एक ठंडी सांस ली दिवाकर ने. ‘‘बहुत कुछ सोच रहा था, विकास मु झे तुम्हारी हैल्प चाहिए.’’

‘‘हुक्म दीजिए सर.’’‘‘तुम तो जानते हो, बहुत गरीबी में पलाबढ़ा हूं. गांव से काम की तलाश में यहां आया था और अपने ही प्रदेश के यहां के विधायक के लिए काम करता था. उन की मृत्यु के बाद बड़ी मेहनत से यहां पहुंचा हूं. आज लोगों की नजरों में अपने लिए उस समय एक उपहास सा देखा तो बड़ा दुख हुआ. अपने परिवार की नजरों में भी अपने लिए एक शर्मिंदगी सी देखी, तो मन बड़ा आहत हुआ. सच तो यही है कि इतने बड़े स्कूल के उद्घाटन में जा कर स्वयं कम शिक्षित रह कर शिक्षा के महत्त्व और विकास पर बड़ीबड़ी बातें करना खुद को ही एक खोखलेपन से भरता चला जाता है. आज मैं ने सोच लिया है कि मैं किसी दूसरे राज्य से पत्राचार के जरिए आगे पढ़ाई करूंगा. यहां किसी को बताऊंगा ही नहीं, मालिनी और बच्चों तक को नहीं.’’

विकास को जैसे एक करंट लगा, ‘‘सर, यह क्या कह रहे हैं? यह तो बहुत ज्यादा मुश्किल है, असंभव सा है.’’‘‘कुछ भी असंभव नहीं है. मैं आगे पढ़ूंगा, तुम इस में मेरी मदद करोगे और किसी को भी इस बात की खबर नहीं होनी चाहिए.’’

‘‘सर, कैसे होगा? पढ़ाई कहां होगी? बुक्स, कालेज?’’‘‘आज तुम यही सब पता करो. मु झे अगर अपने क्षेत्र में सिर उठा कर लोगों से शिक्षा के महत्त्व पर बात करनी है तो उस से पहले मु झे स्वयं को सुशिक्षित करना होगा. जाओ फौरन काम शुरू कर दो.’’

विकास ‘हां’ में सिर हिलाता हुआ उन के रूम से निकल गया, दिवाकर से मिलने कुछ और लोग आए हुए थे. वे उन के साथ व्यस्त हो गए. वे सब चले गए तो दिवाकर कुछ पेपर्स देख रहे थे. विकास उत्साहपूर्वक अंदर आया. उसे देखते ही बोले, ‘‘क्या पता किया? बैठो.’’

‘‘सर सब हो जाएगा, आप सिक्किम मणिपाल यूनिवर्सिटी से अपना फौर्म भर दें. इस की परीक्षाओं के कई सैंटर हैं. आप भोपाल चुन लें. वहां औनलाइन परीक्षाएं होती हैं. वहां आप को कोई पहचानेगा भी नहीं. आप अपना कोर्स, अपने विषय बता दें. मैं और भी डिटेल्स देख लूंगा.’’

‘‘वाह, शाबाश, कहते हुए दिवाकर अपनी चेयर से उठे और विकास का कंधा थपथपाते हुए उसे गले लगा लिया, ‘‘आओ, अभी फाइनल कर लेते हैं. ध्यान रखना, तुम्हारे अलावा यह सब किसी को पता नहीं चलना चाहिए.’’

‘‘निश्चित रहिए, सर.’’

विकास को दिवाकर ने हमेशा अपना छोटा भाई ही सम झा था. उस की पत्नी और एक बच्चा ठाणे में ही रहते थे. दिवाकर विकास का हर तरह से खयाल रखते थे तो विकास भी दिवाकर का बहुत निष्ठावान सहायक था. एक विधायक और एक सहायक के साथसाथ दोनों दोस्त, भाई जैसा व्यवहार भी रखते थे. दोनों ने बैठ कर औनलाइन बहुतकुछ देखा, विषय चुने और सिक्किम मणिपाल यूनिवर्सिटी में पत्राचार से ग्रेजुएशन करने के लिए फौर्म भर दिया गया. सब ठीक रहा, औफिस में ही बुक्स भी आ गईं.

दिवाकर ने नई बुक्स को हाथ में ले कर बच्चे की तरह सहलाया, आंखें भीग गईं, उन्हें कभी पढ़ने का शौक था पर साधन नहीं थे. फिर कुछ नया करने की चाह उन्हें मुंबई ले आई थी. अब उन के सामने एक नई राह थी, शिक्षा की राह, जिस पर उन्होंने अपने कदम उत्साहपूर्वक बढ़ा दिए थे. व्यस्त वे पहले भी रहते थे. सो, मालिनी और बच्चों को उन्हें व्यस्त देखने की आदत थी ही. अब वे औफिस में बैठ कर पढ़ने भी लगे थे. कभी पढ़ते कभी नोट्स बनाते. उन्हें अपने जीवन में आए इस मोड़ पर बड़ा आनंद आ रहा था. जीवन एक नई उमंग, उत्साह से भर उठा था. विकास उन के इस मिशन में हर पल उन के साथ था. उन की सेहत का, उन के खानेपीने का पूरा खयाल रखता था.

परीक्षाओं का समय आया तो वह दिवाकर के साथ भोपाल भी गया. परीक्षाकाल में दोनों होटल में ही रहे. अब परीक्षाफल के इंतजार में दिवाकर बेचैन होते तो विकास हंस पड़ता. अपने क्षेत्र की समस्याओं के साथ जब दिवाकर अपनी पढ़ाई भी विकास के साथ डिस्कस करने लगे, तो विकास मुसकराता हुआ उन का उत्साह देखता रहता. दिवाकर का जब रिजल्ट आया तो वे उस समय घर में ही थे. विकास रिजल्ट देखने के बाद उन के घर पहुंच गया. मिठाई का डब्बा मालिनी को देते हुए बोला, ‘‘मैडम, मुंह मीठा कीजिए.’’

दिवाकर भी वहीं बैठे थे, बोले, ‘‘क्या हुआ भई?’’

‘‘एक दोस्त का रिजल्ट निकला है सर, वह पास हो गया,’’ कहतेकहते विकास ने उन की तरफ जिस तरह से देखा, दिवाकर उत्साहपूर्वक खड़े हो गए. विकास को  झटके से गले लगा लिया. मालिनी हैरान हुई, ‘‘अरे, विकास, यह कौन सा दोस्त है तुम्हारा?’’

‘‘है एक पढ़ रहा है आजकल मैडम, बहुत मेहनती है.’’

‘‘बढि़या, इस उम्र में? क्या पढ़ रहा है?’’

‘‘ग्रेजुएशन किया है, और शिक्षा प्राप्त करने की तो कोई उम्र नहीं होती है न.’’

‘‘हां, यह भी ठीक है.’’

दिवाकर ने कहा, ‘‘तुम रुको, मैं तैयार होता हूं मु झे भी जाना है कुछ जरूरी काम है. घर से निकलते ही दिवाकर ने कहा, ‘‘थैक्यू विकास.’’

‘‘आप को बधाई हो सर, आप की मेहनत, लगन रंग लाई है.’’

‘‘चलो, अब, एमए भी करूंगा.’’

‘‘क्या?’’ विकास चौंका.

‘‘हां, चलो, औफिस, पौलिटिकल साइंस में अब एमए करूंगा. देखो, क्या, कैसे करना है सब.’’

विकास उन का मुंह देखता रह गया. फिर एमए का फौर्म भी भर दिया गया और फिर अपनी बाकी व्यस्तताओं के साथसाथ रातदिन से अपनी पढ़ाई का थोड़ाथोड़ा समय निकाल कर एमए की परीक्षाएं भी दे दीं. इस बार पढ़ाई ज्यादा की गई थी क्योंकि दिवाकर को और पढ़ना था, शिक्षा प्राप्त करने का नशा गहराता जो जा रहा था. आगे एमफिल करने के लिए एमए में 55 प्रतिशत अंक प्राप्त करने जरूरी थे. कहीं समय की कमी से पढ़ाई प्रभावित न हो, इस के लिए दिवाकर ने अपने आराम, नींद के घंटे कम कर दिए थे. पार्टी के कामों के बाद बेकार की गप्पों, निरर्थक बातों में बीतने वाला समय वहां से जल्दी उठ कर औफिस में बैठ कर खुद को किताबों में डुबो कर बिताया था. खूब नोट्स बना बना कर पढ़ाई की गई थी.

एमए में 60 प्रतिशत अंक पा कर दिवाकर की खुशी का ठिकाना न रहा. विकास को ले कर ‘कोर्टयार्ड’ गए. एक कोने में चल रहे गजलों के लाइव प्रोग्राम का आनंद लेते हुए विकास को शानदार दावत दी. उन के चेहरे की खुशी देखने लायक थी. विकास ने कहा, ‘‘सर, अब बस न? और तो नहीं पढ़ना है न?’’

दिवाकर हंस पड़े कहा, ‘‘एमफिल.’’

विकास कुछ न बोला, सिर्फ मुसकरा दिया. थोड़ी देर बाद कहा, ‘‘लगता है आप सुरभि और पर्व से भी ज्यादा शिक्षा हासिल कर लेंगे.’’

‘‘उन्हें तो मु झे बहुत पढ़ाना है ताकि उन्हें किसी भी उम्र में जा कर कम पढ़ने का अफसोस कभी न हो. अब तुम एमफिल के डिटेल्स देख लो.’’

‘‘ठीक है, सर.’’

दिवाकर के जीवन का एक सार्थक उद्देश्य था अब, मन ही मन उस पल का शुक्रिया अदा करते जब कारमेल के उद्घाटन के लिए गए थे और अपनी कम शिक्षा पर शर्मिंदगी हुई थी. अब किताबों के साहित्य में जीवन जैसे एक नई दिशा की तरफ बढ़ता जा रहा था. दिवाकर की छवि एक मेहनती और सहृदय नेता की थी. अब जब वे सुशिक्षित होते जा रहे थे कई बातें और स्पष्ट होती जा रही थीं. अपना समय शिक्षा के प्रचारप्रसार में लगाने लगे थे.

विकास ने आ कर उन्हें आगे की जानकारी देते हुए कहा, ‘‘सर, आप इग्नू से एमफिल के लिए फौर्म भर दें. पर इस में ऐडमिशन के लिए लिखित परीक्षा होगी. फिर इंटरव्यू होगा. तब एडमिशन होगा. काफी तैयारी करनी पड़ेगी. सर, पत्राचार से 18 महीने का कोर्स है.’’

पलभर सोचते रहे दिवाकर, फिर बोले, ‘‘हां, काफी समय निकालना पड़ेगा, लिखित परीक्षा, इंटरव्यू. हां, ठीक है. भर दो मेरा फौर्म.’’

विकास उन्हें गर्वभरी नजरों से देखता रहा. फिर दोनों अपनेअपने काम में व्यस्त हो गए. दिवाकर देर रात तक औफिस में बैठ कर पढ़ते. बहुत व्यस्त पहले भी रहते थे. अब बहुत रात होने लगी तो मालिनी ने टोका भी, ‘‘आजकल कुछ ज्यादा ही देर से आ रहे हो? पहले तो इतनी रात कभी नहीं हुई,’’ बच्चों ने भी संडे को कहा, ‘‘पापा पहले तो संडे को आराम करते थे, अब संडे को भी औफिस?’’

सब को देख कर मुसकराते हुए दिवाकर ने जवाब दिया, ‘‘एक प्रोजैक्ट पर काम कर रहा हूं.’’

‘‘कितना टाइम लगेगा?’’

‘‘लगभग 2 साल, शायद बीचबीच में दिल्ली भी जाना पड़े.’’

सब ने पार्टी का काम सम झ कर ही संतोष कर लिया. दिवाकर को कोई बुरी आदत तो थी नहीं, हमेशा घरगृहस्थी के प्रति भी जिम्मेदार रहे थे. सब ने इसे राजनीतिक व्यस्तता सम झ कर यह विषय यहीं रोक दिया.

दिवाकर ने लिखित परीक्षा भी पास कर ली, दिल्ली जा कर इंटरव्यू भी दे आए. विकास हर कदम पर उन के साथ था. उन का चयन हो गया. दिवाकर एमफिल की पढ़ाई में जुट गए. जहां कभी कुछ अटकते, विकास गूगल पर खोजबीन कर उन की मदद करता. इग्नू में कुछ संपर्क निकाल कर विकास कुछ प्रोफैसर्स के फोन नंबर भी ले आया था. उन्होंने यथासंभव दिवाकर की मदद करने का आश्वासन भी दिया था और वे मदद कर भी रहे थे. और एमफिल भी हो गया. अपनी डिग्री हाथ में लेने पर दिवाकर की आंखों से आंसू बह निकले. विकास की आंखें भी भीग गईं. गर्व हुआ इतने मेहनती नेता का सहयोगी है वह. ठाणे लौटते हुए घर जाने से पहले उन्होंने सब के लिए उपहार लिए. एक बड़ी धनराशि लिफाफे में रख कर विकास को देते हुए कहा, ‘‘जो तुम ने मेरे लिए किया, उस का मूल्य हो ही नहीं सकता. वह अनमोल है. यह सिर्फ तुम्हारे और तुम्हारे परिवार के लिए मेरा खुशी का उपहार है.’’

विकास हंसता हुआ बोला, ‘‘सर, आप ने कई सालों से किसी स्कूल का उद्घाटन नहीं किया, मना कर दिया. 2 दिनों बाद ही एक नए स्कूल के उद्घाटन के लिए बारबार आग्रह किया जा रहा है, चलें? मजा आएगा इस बार.’’

‘‘देखते हैं.’’

‘‘सौरी सर, मैं ने आप की तरफ से हां कर दी है, आप की सफलता के लिए मैं सुनिश्चित था. अब की बार मीडिया को जो पूछना हो, पूछ ले, मजा आएगा.’’

खुल कर हंस पड़े दिवाकर, ‘‘अच्छा ठीक है.’’

घर आ कर सब को उपहार दिए, उन्हें बातबात पर मुसकराता, हंसता, चहकता देख मालिनी और बच्चे हैरान थे. दिवाकर ने कहा, ‘‘प्रोजैक्ट पूरा हो गया.’’

‘‘अब तो बता दो, कौन सा प्रोजैक्ट?’’

‘नीलकंठ हाइट्स’ में बने अपने बंगले के गार्डन में बने  झूले पर बैठते हुए दिवाकर बोले, ‘‘2 दिनों बाद एक स्कूल का उद्घाटन करूंगा, वहीं बताऊंगा. तीनों साथ चलना,’’ मालिनी और बच्चों ने एकदूसरे पर नजर डाली, जाने की बात पर संकोच हुआ, मालिनी ने कह ही दिया, ‘‘तुम ही चले जाना हम क्या करेंगे.’’

‘‘हां, पापा, हमें भी अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘इस बार अच्छा लगेगा, इस की गारंटी देता हूं,’’ तय समय पर सब नए स्कूल की बिल्ंिडग की तरफ चल दिए. वही तरीके, वही स्वागत, वही मीडिया, जब उन्हें 2 शब्द कहने के लिए मंच पर बुलाया गया, इस बार कदमों का आत्मविश्वास देखते ही बनता था. पूरे व्यक्तित्व में कुछ खास नजर आ रहा था. स्कूल, शिक्षा का महत्त्व बता कर बात खत्म की.

आज फिर उन की शिक्षा के बारे में भी पूछ लिया गया तो जवाब देने से पहले वे मुसकराए. विकास से नजरें मिलीं तो वह हंस दिया. फिर उन्होंने मालिनी और बच्चों पर नजर डालते हुए कहा, ‘‘मैं ने एमफिल किया है,’’ मालिनी और बच्चों के चेहरे का रंग उड़ गया, स्टेज पर खड़े हो कर दिवाकर इतना बड़ा  झूठ बोल रहे हैं. यह मीडिया उन की क्या गत बनाएगा, कितना अपमान होगा.

दिवाकर कह रहे थे, ‘‘कुछ साल पहले मु झे शिक्षा का महत्त्व सम झ आया. मैं ने पढ़ना शुरू किया तो पढ़ता चला गया. शिक्षा प्राप्त करने में जो आनंद मिला, वह सब सुखों से बढ़ कर लगने लगा. पहले बीए, फिर राजनीति विज्ञान में एमए और 2 दिन पहले ही दिल्ली के इग्नू से एमफिल की डिग्री ले कर लौटा हूं. पढ़ाई हो गई. अब अपने क्षेत्र, देश के विकास, कल्याण पर ध्यान देना है. बच्चे को समुचित शिक्षा मिले, इस पर काम करना है.’’

तालियों की गड़गड़ाहट से स्कूल का प्रांगण गूंज उठा था. उन की नजरें मालिनी और बच्चों की नजरों से मिलीं, तीनों के आंसू बहे चले जा रहे थे. गर्वमिश्रित खुशी के आंसू. विकास तो तालियां बजाते हुए खड़ा ही हो गया था. कई लोग वाहवाह कर उठे थे. समाज को आज ऐसे ही मेहनती नेता की तो तलाश थी. दिवाकर के दिल को मालिनी, बच्चों और वहां उपस्थित लोगों के दिलों में अपने लिए जो भाव दिखे, उन्हें महसूस कर असीम शांति मिली थी. सालों की मेहनत रंग लाई थी. आज किसी की नजरों में अपने लिए अपमान, शर्मिंदगी का नामोनिशान नहीं था. अब वे शिक्षा, किताबों और ज्ञान की दुनिया की सैर से जो लौटे थे, तनमन पुलकित हो उठा था.

Fictional Story

Best Hindi Story: मुखौटा:- कमला देवी से मिलना जरूरी क्यों था

Best Hindi Story: सुबह के सारे काम प्रियदर्शिनी बड़ी फुरती से निबटाती जा रही थी. उस दिन उसे नगर की प्रतिष्ठित महिला एवं बहुचर्चित समाजसेविका कमला देवी से मिलने के लिए समय दिया गया था. काम के दौरान वह बराबर समय का हिसाब लगा रही थी. मन ही मन कमला देवी से होने वाली संभावित चर्चा की रूपरेखा तैयार कर रही थी.

आज तक उस का समाज के ऐसे उच्चवर्ग के लोगों से वास्ता नहीं पड़ा था लेकिन काम ही ऐसा था कि कमला देवी से मिलना जरूरी हो गया था. वह समाज कल्याण समिति की सदस्य थीं और एक प्रसिद्ध उद्योग समूह की मालकिन. उन के पास, अपार वैभव था.

कितनी ही संस्थाओं के लिए वह काम करती थीं. किसी संस्था की अध्यक्ष थीं तो किसी की सचिव. समाजसेवी संस्थाओं के आयोजनों में उन की तसवीरें अकसर अखबारों में छपा करती थीं. उन की भारी- भरकम आवाज के बिना महिला संस्थाओं की बैठकें सूनीसूनी सी लगती थीं.

ये सारी सुनीसुनाई बातें प्रियदर्शिनी को याद आ रही थीं. लगभग 3 साल पहले उस ने अपने घर पर ही बच्चों के लिए एक स्कूल और झूलाघर की शुरुआत की थी. उस का घर शहर के एक छोर पर था और आगे झोंपड़पट्टी.

उस बस्ती के अधिकांश स्त्रीपुरुष सुबह होते ही कामधंधे के सिलसिले में बाहर निकल जाते थे. हर झोंपड़ी में 4-5 बच्चे होते ही थे. घर का जिम्मा सब से बडे़ बच्चे पर सौंप कर मांबाप निकल जाते थे. 8-9 बरस का बच्चा सीधे होटल में कपप्लेट धोने या गन्ने की चरखी में गिलास भरने के काम में लग जाता था.

जीवन चक्र की इस रफ्तार में शिक्षा के लिए कोई स्थान नहीं था, न समय ही था. दो जून की रोटी का जुगाड़ जहां दिन भर की हाड़तोड़ मेहनत के बाद कई बार संभव नहीं हो पाता था वहां इस तरह के अनुत्पादक श्रम के लिए सोचा भी नहीं जा सकता था. 10 साल पढ़ाई के लिए बरबाद करने के बाद शायद कोई नौकरी मिल भी जाए लेकिन जब कल की चिंता सिर पर हो तो 10 साल बाद की कौन सोचे?

फिर भी प्रियदर्शिनी की यह निश्चित धारणा थी कि ये बच्चे बुद्धिमान हैं, उन में काम करने की शक्ति है, कुछ नया सीखने की उमंग भी है. इन्हें अगर अच्छा वातावरण और सुविधाएं मिल जाएं तो उन के जीवन का ढर्रा बदल सकता है. अभाव और उपेक्षा के वातावरण में पलतेबढ़ते ये बच्चे गुनहगार बन जाते हैं. चोरी करने, जेब कतरने जैसी बातें सीख जाते हैं. मेहनतमजदूरी करतेकरते गलत सोहबत में पड़ कर उन्हें जुआ, शराब आदि की लत पड़ जाती है और अगर बच्चे बहुत छोटे हों तो कुपोषण का शिकार हो कर उन की अकाल मृत्यु हो जाती है.

उस का खयाल था कि थोड़ी देखभाल करने से उन में काफी परिवर्तन आ सकता है. इसी उद्देश्य से उस ने अपनी एक सहेली के सहयोग से छोटे बच्चों के खेलने के लिए झूलाघर और कुछ बडे़ बच्चों के लिए दूसरी कक्षा तक की पढ़ाई के लिए बालबाड़ी की स्थापना की थी.

रात के समय वह झोंपडि़यों में जा कर उन में रहने वाली महिलाओं को परिवार नियोजन और परिवार कल्याण की बातें समझाती, घरेलू दवाइयों की जानकारी देती, साफसुथरा रहने की सीख देती.

पूरी बस्ती उस का सम्मान करती थी. अधिकाधिक संख्या में बच्चे झूलाघर और बालबाड़ी में आने लगे थे. इसी सिलसिले में वह कमला देवी से मिलना चाहती थी. अपना काम सौ फीसदी हो जाएगा ऐसा उसे विश्वास था.

किसी राजप्रासाद की याद दिलाने वाले उस विशाल बंगले के फाटक में प्रवेश करते ही दरबान सामने आया और बोला, ‘‘किस से मिलना है?’’

‘‘बाई साहब हैं? उन्होंने मुझे 11 बजे का समय दिया था.’’

‘‘अंदर बैठिए.’’

हाल में एक विशाल अल्सेशियन कुत्ता बैठा था. दरबान उसे बाहर ले गया. इतने में सफेद ऊन के गोले जैसा झबरीला छोटा सा पिल्ला हाथों में लिए कमला देवी हाल में प्रविष्ट हुईं.

भारीभरकम काया, प्रयत्नपूर्वक प्रसाधन कर के अपने को कम उम्र दिखाने की ललक, कीमती साड़ी, चमचमाते स्वर्ण आभूषण, रंगी हुई बालों की कटी कृत्रिम लटें, नाक की लौंग में कौंधता हीरा, चेहरे पर किसी हद तक लापरवाही और गर्व का मिलाजुला मिश्रण.

पल भर के निरीक्षण में ही प्रियदर्शिनी को लगा कि इस रंगेसजे चेहरे पर अहंकार के साथसाथ मूर्खता का भाव भी है जो किसी भी जानेमाने व्यक्ति के चेहरे पर आमतौर पर पाया जाता है.

उठ कर नमस्ते करते हुए उस ने सहजता से मुसकराते हुए अपना परिचय  दिया, ‘‘मेरा नाम प्रियदर्शिनी है. आप ने आज मुझे मिलने का समय दिया था.’’

‘‘अच्छा अच्छा…तो आप हैं प्रियदर्शिनी. वाह भई, जैसा नाम वैसा ही रंगरूप पाया है आप ने.’’

अपनी प्रशंसा से प्रियदर्शिनी सकुचा गई. उस ने कुछ संकोच से पूछा, ‘‘मेरे आने से आप के काम में कोई हर्ज तो नहीं हुआ?’’

‘‘अजी, छोडि़ए, कामकाज का क्या? घर के और बाहर के भी सारे काम अपने को ही करने होते हैं. और बाहर का काम? मेरा मतलब है समाजसेवा करने का मतलब घर की जिम्मेदारियों से मुकरना तो नहीं होता? गरीबों की सेवा को मैं सर्वप्रथम मानती हूं, प्रियदर्शिनीजी.’’

कमला देवी की इस सादगी और सेवाभावना से प्रियदर्शिनी अभिभूत हो उठी.

‘‘प्रियदर्शिनी, आप बालबाड़ी चलाती हैं?’’

‘‘जी.’’

‘‘कितने बच्चे हैं बालबाड़ी में?’’

‘‘जी, 25.’’

‘‘और झूलाघर में?’’

‘‘झूलाघर में 10 बच्चे हैं.’’

‘‘फीस कितनी लेती हैं?’’

‘‘जी, फीस तो नाममात्र की लेती हूं.’’

‘‘फीस तो लेनी ही चाहिए. मांबाप जितनी फीस दे सकें उतनी तो लेनी ही चाहिए. इतनी मेहनत करते हैं हम फिर पैसा तो हमें मिलना ही चाहिए.’’

‘‘जी, पैसे की बात सोच कर मैं ने यह काम शुरू नहीं किया.’’

‘‘तो फिर क्या समय नहीं कटता था, इसलिए?’’

‘‘जी, नहीं. यह कारण भी नहीं है.’’

कंधे उचका कर आंखों को मटका कर हंस दी कमला देवी, ‘‘तो फिर लगता है आप को बच्चों से बड़ा लगाव है.’’

‘‘जी, वह तो है ही लेकिन सच बात तो यह है कि उस इलाके में ऐसे काम की बहुत जरूरत है.’’

‘‘कहां रहती हैं आप?’’

‘‘सिंधी बस्ती से अगली बस्ती में.’’

‘‘वहां तो आगे सारी झोंपड़पट्टी ही है न?’’

‘‘जी. होता यह है कि झोंपड़पट्टी वाले सुबह से ही काम पर निकल जाते हैं. घर संभालने का सारा जिम्मा स्वभावत: बड़े बच्चे पर आ जाता है. मांबाप की अज्ञानता और मजबूरी का असर इन बच्चों के भविष्य पर पड़ता है. इसी विचार से मैं बच्चों की प्रारंभिक पढ़ाई के लिए बालबाड़ी और छोटे बच्चों की देखभाल के लिए झूलाघर चला रही हूं.’’

‘‘तो इन छोटे बच्चों की सफाई, उन के कपडे़ बदलने और उन्हें दूध, पानी आदि देने के लिए आया भी रखी होगी?’’

‘‘जी नहीं. ये सब काम मैं स्वयं ही करती हूं.’’

‘‘आप,’’ कमला देवी के मुख से एकाएक आश्चर्यमिश्रित चीख निकल गई.

‘‘जी, हां.’’

‘‘सच कहती हैं आप? घिन नहीं आती आप को?’’

‘‘जी, बिलकुल नहीं. क्या अपने बच्चों की टट्टीपेशाब साफ नहीं करते हम?’’

‘‘नहीं, यह बात नहीं है. लेकिन अपने बच्चे तो अपने ही होते हैं और दूसरों के दूसरे ही.’’

‘‘मेरे विचार में तो आज के बच्चे कल हमारे देश के नागरिक बनेंगे. अगर हम उन्हें जिम्मेदार नागरिक के रूप में देखना चाहें, उन से कुछ अपेक्षाएं रखें तो आज उन की जिम्मेदारी किसी को तो उठानी ही पड़ेगी न?’’

शांत और संयत स्वर में बोलतेबोलते प्रियदर्शिनी रुक गई. उस ने महसूस किया, कमला देवी का चेहरा कुछ स्याह पड़ गया है. उन्होंने पूछा, ‘‘लेकिन इन सब झंझटों से आप को लाभ क्या मिलता है?’’

‘‘लाभ?’’ प्रियदर्शिनी की उज्ज्वल हंसी से कमला देवी और भी बुझ सी गईं, ‘‘मेरा लाभ क्या होगा, कितना होगा, होगा भी या हानि ही होगी, आज मैं इस विषय में कुछ नहीं कह सकती लेकिन एक बात निश्चित है. मेरे इन प्रयत्नों से समाज के ये उपेक्षित बच्चे जरूर लाभान्वित होंगे. मेरे लिए इतना ही पर्याप्त है.’’

‘‘अद्भुत, बहुत बढि़या. आप के विचार बहुत ऊंचे हैं. आप का आचरण भी वैसा ही है. बड़ी खुशी की बात है. वाह भई वाह, अच्छा तो प्रियदर्शिनीजी, अब आप यह बताइए, आप मुझ से क्या चाहती हैं?’’

‘‘जी, बच्चों के बैठने के लिए दरियां स्लेटें, पुस्तकें और खिलौने. मदद के लिए मैं एक और महिला रखना चाहती हूं. उसे पगार देनी पड़ेगी. वर्षा और धूप से बचाव के लिए शेड बनवाना होगा. इस के साथ ही डाक्टरी सहायता और बच्चों के लिए नाश्ता.’’

‘‘तो आप अपनी बालबाड़ी को आधुनिक किंडर गार्टन स्कूल में बदल देना चाहती हैं?’’

‘‘बिलकुल आधुनिक नहीं बल्कि जरूरतों एवं सुविधाओं से परिपूर्ण स्कूल में.’’

‘‘तो साल भर के लिए आप को 10 हजार रुपए दिलवा दें?’’

‘‘जी.’’

‘‘मेरे ताऊजी मंत्रालय में हैं. आप 8 दिन के बाद आइए. तब तक आप का काम करवा दूंगी.’’

‘‘सच,’’ खुशी से खिल उठी प्रियदर्शिनी, ‘‘आप का किन शब्दों में धन्यवाद दूं? आप सचमुच महान हैं.’’

कमला देवी केवल मुसकरा भर दीं.

‘‘अच्छा, अब मैं चलती हूं. आप की बहुत आभारी हूं.’’

‘‘चाय, शरबत कुछ तो पीती जाइए.’’

‘‘जी नहीं, इन औपचारिकताओं की कतई जरूरत नहीं है. आप के आश्वासन ने मुझे इतनी तसल्ली दी है…’’

‘‘अच्छा, प्रियदर्शिनीजी, आप का घर और हमारा समाज कल्याण कार्यालय शहर की एकदम विपरीत दिशाओं में है. आप ऐसा कीजिए, अपनी गाड़ी से यहां आ जाइए.’’

‘‘जी, मेरे पास गाड़ी नहीं है.’’

‘‘तो क्या हुआ, स्कूटर तो होगा?’’

‘‘जी नहीं, स्कूटर भी नहीं है.’’

‘‘मेरे पास फोन भी नहीं है.’’

‘‘प्रियदर्शिनीजी, आप के पास गाड़ी नहीं, फोन नहीं, फिर आप समाजसेवा कैसे करेंगी?’’

उपहासमिश्रित उस हंसी से प्रियदर्शिनी कुछ  हद तक परेशान सी हो उठी. फिर भी वह अपने सहज भाव से बोली, ‘‘मेरा मन पक्का है. हर कठिनाई को सहने के लिए तत्पर हूं. तन और मन के संयुक्त प्रयास के बाद कुछ भी असंभव नहीं होता.’’

अब तो खुलेआम छद्मभाव छलक आया कमला देवी के मेकअप से सजेसंवरे चेहरे पर.

‘‘मैं तो आप को समझदार मान रही थी, प्रियदर्शिनीजी. मैं ने आप से कहीं अधिक दुनिया देखी है. आप मेरी बात मानिए, अपनी इस प्रियदर्शिनी छवि को दुनिया की रेलमपेल में मत सुलझाइए. खैर, आप का काम 8 दिन में हो जाएगा. अच्छा.’’ दोनों हाथ जोड़ कर नमस्ते कहते हुए प्रियदर्शिनी ने विदा ली.

‘‘दीदी, हमारे लिए नाश्ता आएगा?’’

‘‘दीदी, स्कूल के सब बच्चों के लिए एक से कपडे़ आएंगे?’’

‘‘दीदी, सफेद कमीज और लाल रंग की निकर ही चाहिए.’’

‘‘नए बस्ते भी मिलेंगे?’’

‘‘और नई स्लेट भी?’’

‘‘मैं तो नाचने वाला बंदर ले कर खेलूंगा.’’

‘‘दीदी, नाश्ते में केला और दूध भी मिलेगा?’’

‘‘अरे हट. दीदी, नाश्ते में मीठीमीठी जलेबियां आएंगी न?’’

बच्चों की जिज्ञासा और खुशी ने उसे और भी उत्साहित कर दिया.

8वें दिन कमला देवी की कार उसे लेने आई तो उस के मन में उन के लिए कृतज्ञता के भाव उमड़ आए. जो हो, जैसी भी हो, उन्होंने आखिर प्रियदर्शिनी का काम तो करवा दिया न.

उस की साड़ी देख कर कमला देवी ने मुंह बिचकाया और जोरजोर से हंस कर बोलीं, ‘‘अरे, प्रियदर्शिनीजी, कम से कम आज तो आप कोई सुंदर सी साड़ी पहन कर आतीं. फोटो में अच्छी लगनी चाहिए न. फोटोग्राफर का इंतजाम मैं ने करवा दिया है. कल के अखबारों में समाचार समेत फोटो आ जाएगी. अच्छा, चलिए, फोटो में आप थोड़ा मेरे पीछे हो जाइए तो फिर साड़ी की कोई समस्या नहीं रहेगी.’’

कार अपने गंतव्य की ओर बढ़ने लगी तो धीमी आवाज में कमला देवी ने कहा, ‘‘देखिए, प्रियदर्शिनीजी, आप के नाम पर 5 हजार का चेक मिलेगा. वह आप मुझे दे देना. मैं आप को ढाई हजार रुपए उसी समय दे दूंगी.’’

प्रियदर्शिनी ने कुछ असमंजस में पड़ कर पूछा, ‘‘तो बाकी ढाई हजार आप कब तक देंगी?’’

‘‘कब का क्या मतलब? प्रिय- दर्शिनीजी, हमें समाजसेवा के लिए कितना कुछ खर्च करना पड़ता है. ऊपर से ले कर नीचे तक कितनों की इच्छाएं पूरी करनी पड़ती हैं और फिर हमें अपने शौक और जेबखर्च के लिए भी तो पैसा चाहिए.’’

प्रियदर्शिनी को लगा उस की संवेदनाएं पथरा रही हैं.

कमला देवी अभी तक बोले जा रही थीं, ‘‘प्रियदर्शिनीजी, आप बुरा मत मानिए. लेकिन यह ढाई हजार रुपए क्या आप पूरा का पूरा स्कूल के लिए खर्च करेंगी? भई, एकआध हजार तो अपने लिए भी रखेंगी या नहीं, खुद के लिए?’’

समाज कल्याण कार्यालय के दरवाजे तक पहुंच चुकी थीं दोनों. तेजी के साथ प्रियदर्शिनी पलट गई. तेज चाल से चल कर वह सड़क पर आ गई. सामने खडे़ रिकशे वाले को घर का पता बता कर वह निढाल हो कर उस में बैठ गई. उस की आंखों के सामने बारबार कमला देवी का मेकअप उतर जाने के बाद दिखने वाला विद्रूप चेहरा उभर कर आने लगा. उन की छद्म हंसी सिर में हथौड़े मारती रही. उन का प्रश्न रहरह कर कानों में गूंजने लगा, ‘फिर आप समाजसेवा कैसे करेंगी?’

जाहिर था प्रियदर्शिनी के पास तथाकथित समाजसेवियों वाला कोई मुखौटा तो था ही नहीं.

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