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Hindi Love Stories : स्वीकृति नए रिश्ते की

Hindi Love Stories : परफ्यूम की लुभावनी खुशबू उड़ाता एक बाइकचालक सुमेधा की बिलकुल बगल से तेजी से गुजर गया.

‘‘उफ, गाड़ी चलाने की जरा भी तमीज नहीं है लोगों में,’’ सुमेधा गुस्से में बोली. उस की गाड़ी थोड़ी सी डगमगाई, लेकिन किसी तरह बैलेंस बना ही लिया उस ने.

वाकई रोड पर जबरदस्त ट्रैफिक था. अगर वह बाइक वाला फुरती से न निकला होता, तो आज 2 गाडि़यों में टक्कर हो ही जाती. शाम के समय कलैक्ट्रेट के सामने के रास्ते पर भीड़ बहुत बढ़ जाती है. धूप ढलते ही लोग खरीदारी करने निकल पड़ते हैं और फिर औफिसों के बंद होने का समय भी लगभग वही होता है.

थोड़ी दूर पहुंची थी सुमेधा कि वह बाइकचालक उस की बाईं ओर फिर से प्रकट हो गया और रुकते हुए बोला, ‘‘सौरी मैडम.’’

‘‘ठीक है, कोई बात नहीं,’’ सुमेधा हलकी सी खीज के साथ बोली. फिर बुदबुदाई कि अब यह क्या तुक है कि बीच रास्ते रुक कर सौरी बोले जा रहा है.

‘‘सौरी तो बोल दिया न आंटी,’’ सुमेधा ने आवाज की तरफ नजर उठा कर देखा तो बाइक की टंकी पर बैठी नन्ही सी बच्ची भोलेपन से उस की ओर ही देख रही थी.

‘सुबोध,’ हां सुबोध ही तो था वह, जो उस बच्ची की बात सुन कर उसे ही देख रहा था.

‘‘पापा, आंटी अभी भी गुस्से में हैं. आंटी ने क्या बांधा है?’’ सुमेधा को नकाब की तरह दुपट्टा बांधे देख कर बच्ची फिर से बोली.

‘‘बेटा, मैं गुस्से में नहीं हूं. अब जाओ,’’ इतना कह कर सुमेधा फुरती से आगे बढ़ गई.

घर पहुंची तो उस पर अजीब सी खुमारी छाई हुई थी. आज सालों बाद स्कूल के दिन याद आने लगे. सारी सखियां मिल कर कितनी अठखेलियां किया करती थीं. पता नहीं 11वीं में नए विषय पढ़ने की उमंग थी या उम्र के नए पड़ाव का प्रभाव, सब कुछ धुलाधुला और रंगीन लगता था. डाक्टर बनना सपना था उस का. इसी सपने को पूरा करने के लिए वह पढ़ाई में जीजान से जुटी हुई थी. सभी शिक्षिकाएं सुमेधा से बहुत खुश थीं, क्योंकि विज्ञान के साथसाथ साहित्य में भी खास दिलचस्पी रखती थी वह. हिंदी में उस का प्रदर्शन गजब का था.

उस की चित्रकला में रुचि होने की वजह से उस की फाइलें भी अन्य सहपाठियों के लिए उदाहरण बन गई थीं. किसी भी शिक्षिका को जब अच्छी फाइलें बनाने की बात विद्यार्थियों को बतानी होती, तो वे सुमेधा की फाइलें मंगवा लेतीं.

‘‘कोएड स्कूल में मत पढ़ाओ इसे. लड़कियां बिगड़ जाती हैं,’’ मां ने ऐडमिशन के समय बाबूजी से कहा था.

‘‘तुम चिंता मत करो. देखना, हमारी बेटी ऐसा कोई काम नहीं करेगी. यह तो हमारा नाम रौशन करेगी,’’ बाबूजी ने सुमेधा के पक्ष में निर्णय सुनाया था.

सिर झुका कर बैठी सुमेधा ने बाबूजी के शब्दों को दिमाग में अच्छी तरह बैठा लिया था. स्कूल में वह लड़कियों के ही ग्रुप में रहती थी. हालांकि सहपाठी लड़कों से थोड़ीबहुत बातचीत हो जाती थी, लेकिन वह उन से कटीकटी ही रहती थी. कई लड़के उस के इस व्यवहार से उसे घमंडी कहते या फिर उस की कठोरता को देख कर बातचीत करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे.

एक दिन सुमेधा के एक सहपाठी रमेश ने उस के नाम प्रेमपत्र लिख कर नोटबुक में रख दिया. पत्र किसी तरह नंदिनी के हाथ में पड़ गया तो क्लास की सारी लड़कियां सुमेधा को छेड़ने से बाज नहीं आईं.

‘‘लाली, तुम बनती तो बड़ी भोली हो, लेकिन एक दिन यह गुल खिलाओगी हमें पता न था,’’ नंदिनी गंभीर स्वर में बोली तो सारी लड़कियां हंस पड़ीं.

सुमेधा आगबबूला हो गई और उस ने तुरंत रमेश का प्रेमपत्र प्रिंसिपल के समक्ष प्रस्तुत कर दिया. उस के बाद रमेश की ऐसी पेशी हुई कि भविष्य में स्कूल और कोचिंग के किसी भी लड़के का सुमेधा के सामने कोई प्रस्ताव रखने का साहस ही न हुआ.

लड़कों के ग्रुप में अकसर कहा जाता कि झांसी की रानी के आगे न जाना, नहीं तो अपनी जान से हाथ धोने पड़ सकते हैं.

इस घटना के बाद सुमेधा ने स्वयं को पढ़ाई में व्यस्त कर लिया. सुमेधा और नंदिनी में गहरी छनती थी. दोनों के व्यक्तित्व बिलकुल अलगअलग नदी के 2 किनारों की तरह थे, लेकिन एकदूसरे से प्यार की तरल धारा दोनों को जोड़े रखती थी. सुमेधा जहां शांत सरोवर की तरह थी, वहीं नंदिनी बरसात में उफनती हुई नदी की तरह थी. दोनों की पारिवारिक स्थितियों में भी जमीनआसमान का अंतर था. सुमेधा सरकारी स्कूल के टीचर की बेटी थी, तो नंदिनी एक बिजनैसमैन की बेटी. नंदिनी का सुबोध के प्रति आकर्षण किसी से छिपा नहीं रह सका था, लेकिन किताब का कीड़ा कहे जाने वाले सुबोध की नंदिनी में कोई दिलचस्पी नहीं थी. हां, अनु और मनोज, प्रीति और रजत आदि कई जोडि़यां बन गई थीं स्कूल में, जो आगे चल कर साथसाथ पढ़ने और उस के बाद सैटल होने पर एकदूजे का हो जाने के सपने देखा करती थीं.

एक बार बायोलौजी की लैक्चरर सारिका ने बातों ही बातों में कह दिया, ‘‘यह तुम लोगों के पढ़नेलिखने की उम्र है. बेहतर है कि रोमांस का भूत अपनेअपने दिमाग से उतार दो.’’

क्लास के भावी जोड़ों ने सारिका मैडम को खूब कोसा. उन की बात में छिपे तथ्य को वे अपरिपक्व मस्तिष्क नहीं समझ पाए थे.

‘कितने सुहाने दिन थे वे,’ सुमेधा मुसकराते हुए सोचने लगी.

सुमेधा बालकनी में आ गई. गुनगुनाते हुए सामने के ग्राउंड में खेलते बच्चों को देखना उसे बहुत अच्छा लग रहा था. आज सुमेधा को न जाने क्या हो गया था. न उस ने हवा में उड़ते केशों को संवारने की कोशिश की, न उड़ान भरने को आतुर दुपट्टे को हमेशा की तरह काबू में करने का प्रयत्न.

‘‘बिट्टू, चाय ले ले,’’ मां की आवाज सुनते ही सुमेधा चौंक गई जैसे किसी ने चोरी करते पकड़ लिया हो.

‘‘अरे मां, मैं अंदर ही आ जाती,’’ सुमेधा कुछ झेंपते हुए बोली.

‘‘तो क्या हुआ. दिन भर तो तुम भागदौड़ करती रहती हो. इसी बहाने मैं भी थोड़ी देर ताजा हवा में बैठ लूंगी,’’ मां ने कुरसी खींच ली और चाय की चुसकियां लेने लगीं.

सुमेधा भी बेमन से कुरसी पर बैठ गई. आज किसी से भी बात करने का मन नहीं हो रहा था उस का. दिल चाह रहा था कि वह अकेली रहे. किसी से बात न करे.

‘‘बिट्टू, आज तो तू बड़ी खुश दिख रही है. तुझे ऐसा देखने के लिए तो आंखें तरस जाती हैं,’’ मां बोलीं.

‘‘नहीं मां ऐसा कुछ नहीं है,’’ कह बात टाल गई सुमेधा.

रात को सोने लेटी तो नींद आंखों से कोसों दूर थी. वह लुभावनी खुशबू और तरल आवाज जेहन को सराबोर किए जा रही थी. लेकिन एक पल बाद सुमेधा ने रोमानी विचारों को झटक दिया. सुबोध, जिसे आज वर्षों बाद देखा, अब किसी और की अमानत है. उसका इस तरह की कल्पनाएं करना भी गलत है. और वह अबोध बच्ची कितनी प्यारी है. कौन होगी उस की मां? अब तो पुराने परिचय के तार कहां रहे, जो किसी से संपर्क कर के पूछताछ की जा सके. पुराने साथी न जाने कहां गुम हो गए. एक नंदिनी थी, लेकिन वह भी दिल्ली चली गई और गई भी ऐसी कि पीछे सुध लेने का होश तक न रहा. वह खुद भी तो एक नए लक्ष्य को पाने के लिए किसी तीरंदाज की तरह भिड़ गई थी. 1-2 बार पत्रों का आदानप्रदान कर दोनों ने अपनेअपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली और संपर्क के सूत्र ओझल होते गए.

‘‘बाबूजी, मां, यह देखिए मैं फौर्म ले आई,’’ सुमेधा आंगन से ही चिल्लाते हुए घर में घुसी और बाबूजी के सामने सोफे पर बैठ गई.

कुछ पल बाबूजी खामोश रहे, फिर एकएक शब्द सोचते हुए बोलने लगे, ‘‘बेटी, तुम्हारी जिद की खातिर बायोलौजी सब्जैक्ट तुम्हें दिला दिया था. लेकिन मैं तुम्हें ज्यादा से ज्यादा बी.एससी. करा सकता हूं. डाक्टरी कराने की हैसियत नहीं है मेरी.’’

बाबूजी की बेबस आवाज आज भी कानों में गूंजती रहती है. बाबूजी की हैसियत सुमेधा से छिपी कहां थी, लेकिन यौवन की उमंगों ने उन्हें अनदेखा कर कई सपने पाल लिए थे.

‘‘बाबूजी, आप ने मेरे सपने तोड़े हैं. मैं आप को कभी माफ नहीं करूंगी,’’ सुबकते हुए सुमेधा ने कहा और पी.एम.टी. प्रवेश परीक्षा के फौर्म के टुकड़ेटुकड़े कर हवा में उछाल दिए.

‘‘मुझे समझने की कोशिश कर बेटी,’’ बाबूजी के अंतिम शब्द थे वे. उस के बाद उन्हें लकवा मार गया, जो उन की वाणी ले गया.

‘‘सौरी बाबूजी, मेरे कहने का यह मतलब नहीं था. आप अपनेआप को संभालिए बाबूजी, मुझे नहीं बनना डाक्टर. मां तुम कुछ बोलती क्यों नहीं?’’ न जाने क्याक्या कह गई सुमेधा, लेकिन तीर कमान से निकल कर सुनने वाले को जख्मी कर चुका था और वह जख्म लाइलाज था.

उस दिन के बाद तो सुमेधा की जिंदगी ही बदल गई. उस ने बी.ए. में दाखिला ले लिया.

परिचित कई बार हंसी भी उड़ाते, ‘‘अरे डाक्टर बनना हर किसी के बूते की बात नहीं. 2 साल साइंस पढ़ कर ही पसीने छूट गए, तभी तो आर्ट्स कालेज में अपना नाम लिखवा लिया है.’’

सुमेधा ऐसी बातों को अनसुना कर जाती. अब घर के 3 प्राणियों की जिम्मेदारी भी उसी की थी. उस ने पार्टटाइम जौब कर ली. बाबूजी की थोड़ी जमापूंजी और मां के गहने कितने दिन काम आते. बी.ए. की परीक्षा में वह पूरी यूनिवर्सिटी में अव्वल आई. बाबूजी की खुशी से चमकती आंखें देख सुमेधा की आत्मग्लानि कुछ कम होने लगी. फिर एम.ए., पीएच.डी. और कालेज में लैक्चररशिप. कालेज में जौब के बाद उसे महसूस हुआ कि अब कुछ विराम मिला है भटकती हुई जिंदगी को. लेकिन इस प्रयत्न में उम्र का पक्षी फरफर करता हुआ 32वें वर्ष की दहलीज पर पहुंचा गया.

बाबूजी उस के सैटल होते ही एक दिन खुली आंखों से उसे आशीर्वाद देते हुए चल बसे जैसे सुमेधा को सक्षम और सफल देखने के लिए ही उन के प्राण अटके पड़े थे.

अब सुमेधा और मां 2 ही प्राणी बचे थे घर में. 1-2 बार उस के विवाह की बात चली, लेकिन सुमेधा ने शर्त रख दी, ‘‘मां भी विवाह के बाद मेरे साथ ही रहेंगी.’’

धन के लालची युवक एक बूढ़े जीव को दहेज के रूप में अपनाने की कल्पना भी नहीं कर सकते थे, इसलिए ऐसे भागते जैसे गधे के सिर से सींग. धीरेधीरे 35वें साल तक पहुंचतेपहुंचते सुमेधा ने जीवनसाथी की आस को तिलांजलि दे दी. लेकिन आज की घटना ने उसे अच्छी तरह वाकिफ करा दिया कि चाहे वह ऊपर से कितनी भी कठोर क्यों न बने, एक साथी की आकांक्षा उसे अब भी है. कोमल भावों के अंकुर अब भी उस के हृदय की मरुभूमि में फूटते हैं.

सोचतेसोचते उसे नींद आ गई. सुबह उठ कर फिर कालेज जाने का रूटीन चालू हो गया.

एक दिन शाम को मां के साथ पास के ही गार्डन में टहलने गई, तो वहां बाइकचालक की उसी प्यारी बच्ची को देख कर खुद को रोक न सकी. पूछा, ‘‘बेटी, कैसी हैं आप?’’

‘‘आप कौन हैं आंटी?’’ बच्ची ने भोलेपन से पूछा.

‘‘मैं वही, उस दिन वाली आंटी, जिस ने चेहरे पर स्कार्फ बांधा था.’’

बच्ची कुछ देर सोचती रही, फिर प्यार से मुसकरा दी.

सुमेधा का मातृत्व उमड़ पड़ा. बच्ची

के गाल थपथपा कर बोली, ‘‘आप का नाम क्या है?’’

‘‘पहले अपना नाम बताइए?’’ बच्ची

द्वारा किए गए प्रश्न पर सुमेधा खिलखिला कर हंस पड़ी.

फिर बच्ची ‘‘पापापापा…’’ चिल्लाते हुए सुबोध को खींच लाई.

उसे देख कर चौंक पड़ा सुबोध, ‘‘अरे, सुमेधा तुम?’’

‘‘पापा, ये तो वही आंटी हैं जिन को हम ने सौरी कहा था.’’

‘‘उस दिन तुम्हीं थीं, आई मीन आप ही थीं?’’

‘‘ठीक है, मुझे तुम भी कह सकते हो,’’ सुमेधा मुसकराते हुए बोली.

सुबोध कुछ झेंप सा गया.

‘‘नमस्ते डाक्टर साहब. बच्ची को घुमाने लाए हैं?’’

‘‘अरे मांजी आप भी यहां, अब कैसी तबीयत है आप की?’’

‘‘तुम लोग एकदूसरे को पहचानते हो?’’

सुबोध कुछ हंसते हुए बोला, ‘‘दरअसल, हम सभी लोग एकदूसरे को जानते हैं, लेकिन यह नहीं जानते कि हम एकदूसरे को जानते हैं.’’

‘‘पापा, पापा, आप क्या बोल रहे हो मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है,’’ बच्ची मासूमियत से बोली तो तीनों हंस पड़े.

सुबोध जान गया कि बुजुर्ग महिला जो 4 दिन पहले इलाज के लिए आई थीं, सुमेधा की मां हैं और सुमेधा भी जान गई कि मां जिन डाक्टर साहब का बखान करते हुए नहीं थक रही थीं, वह डाक्टर साहब और कोई नहीं, बल्कि सुबोध ही है.

मां ने तुरंत सुबोध को घर आने का निमंत्रण दे डाला. परिचय की कडि़यां कुछ इस तरह जुड़ीं कि सारे दायरे खत्म होते से नजर आने लगे. सुबोध की बेटी कनु सुमेधा को चाहने लगी थी. बिन मां की बच्ची कनु पर सुमेधा का प्यार कुछ ज्यादा ही उमड़ता था. एक दिन सुमेधा, कनु के जिद करने पर सुबोध के घर गई. वहां नंदिनी की तसवीर पर फूलों की माला देख कर सुमेधा का चेहरा फक पड़ गया. आंखें डबडबा आईं.

‘‘क्या नंदिनी ही…?’’

‘‘हां.’’

सुमेधा सोफे पर बैठ गई. अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था उसे.

कुछ ही देर में सुबोध 2 कप कौफी बना लाया. प्याला थामते हुए बड़ा असहज महसूस कर रही थी सुमेधा. कनु पड़ोस के घर में खेलने चली गई थी.

कौफी पीते हुए सुबोध कह रहा था, ‘‘एम.बी.बी.एस. करने के बाद दिल्ली में ही एक अस्पताल में मैं ने प्रैक्टिस चालू कर दी थी. नंदिनी के मौसाजी हमारे डिपार्टमैंट के हैड थे. उन्हीं की पहल पर हमारी शादी हो गई. मेरे ख्वाबों में तो कोई और ही बसी थी. मैं राजी नहीं था, लेकिन मां की जिद के आगे मेरी एक न चली.

‘‘नंदिनी बहुत प्यारी लड़की थी, लेकिन मेरे स्वभाव के बिलकुल विपरीत. हम लोगों के दिल ज्यादा जुड़ नहीं पाए. उसे हर वक्त मुझ से शिकायत रहती थी कि मैं उसे समय नहीं देता हूं, उस के साथ शौपिंग पर और पार्टियों में नहीं जाता हूं. उस के शौक कुछ अलग ही थे मुझ से. न वह मुझे समझ पाई और न मैं उसे संतुष्ट कर पाया. सोचा था, बच्चे के आने के बाद सब कुछ ठीक हो जाएगा, लेकिन डिलीवरी में ही कौंप्लिकेशन पैदा हो गया. लाख कोशिशों के बावजूद हम नंदिनी को बचा नहीं पाए. तब से मैं ही मां और बाप दोनों की भूमिका निभा रहा हूं कनु के लिए,’’ कहतेकहते सुबोध का गला रुंध गया.

किन शब्दों में सांत्वना देती सुमेधा. बड़ी देर तक बुत बनी बैठी रही.

‘‘मैं तो सोच भी नहीं सकती कि नंदिनी अब इस दुनिया में नहीं है. और इस मासूम कनु का क्या कुसूर है जो इसे बिन मां के रहना पड़ रहा है,’’ कहते हुए सुमेधा की आवाज कांप रही थी.

वह जैसे ही उठने को हुई, सुबोध की आवाज ने चौंका दिया, ‘‘तुम चाहो तो कनु को मां मिल सकती है.’’

‘‘मैं समझी नहीं?’’ उस ने चौंक कर पूछा.

‘‘कई दिनों से पूछना चाह रहा था सुमेधा मैं… मेरी कनु की मम्मी बनोगी तुम?’’

‘‘सुबोध, क्या कह रहे हो तुम? कुछ होश है तुम्हें?’’

‘‘मैं तो होश में हूं, लेकिन निर्णय तुम्हें लेना है,’’ सुबोध मुसकराते हुए अधिकार भाव से बोला.

सुबोध का अधिकार भाव से भरा स्वर सुमेधा को अपने अहं पर प्रहार सा ही लगा. उस का अप्रत्याशित सवाल सुमेधा के दिल में हलचल मचा गया. वह फिर सोफे पर बैठ गई.

‘‘मुझे सोचने के लिए वक्त चाहिए. अभी मैं कुछ नहीं कह सकती,’’ न चाहते हुए भी सुमेधा के स्वर में हलकी सी कड़वाहट घुल गई.

‘‘ठीक है, आखिर फैसला तो तुम्हें ही करना है,’’ सुबोध कोमलता से बोला.

घर वापस आई तो देखा मां अपने काम में व्यस्त थीं. सुमेधा मन ही मन बोली, ‘अच्छा हुआ, नहीं तो तरहतरह के सवालों से हैरान कर देतीं मुझे. पता नहीं कैसे मेरे मन की थाह मिल जाती है मां को.’

कुरसी पर बैठी सुमेधा के सामने टेबल पर दूसरे दिन के लैक्चर से संबंधित किताब थी, लेकिन दिल जरा भी नहीं लग रहा था. उसे एकएक पंक्ति पढ़ना भारी लग रहा था.

‘मेरी कनु की मम्मी बनोगी तुम?’ आखिर सुबोध के यह पूछने का मतलब क्या है? क्या मेरा अपना कोई अस्तित्व नहीं? क्या सहचर की आवश्यकता सुबोध को नहीं है या सिर्फ अपनी बेटी के लिए मां की प्राप्ति से उस की सारी आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाएगी? मैं कनु की मां बन सकती हूं, तो तुम्हारे जीवन में मेरा क्या स्थान होगा? लगता है, सुबोध अभी भी नंदिनी को भुला नहीं पाया है. साथ ही, उस के मन में बिन मां की कनु को देख कर अपराधभाव भी है. तभी तो उस ने प्रस्ताव अपने विवाह का नहीं, बल्कि कनु की मां बनने का रखा है. पर मेरी मां का क्या होगा? उस का तो इस दुनिया में कोई भी नहीं. कल अगर मैं विवाह के लिए हामी भर देती हूं, इस शर्त पर कि मां शादी के बाद मेरे साथ ही रहेगी, तो क्या सुबोध स्वीकारेगा इसे?

तरहत रह के सवालों ने सुमेधा के दिमाग को मथ दिया. दूसरे दिन अनमने भाव से वह कालेज पहुंची. क्लास में रोज की तरह उमंग और उत्साह नहीं था. थोड़ी ही देर में सिरदर्द का बहाना बना कर उस ने लड़कियों को फ्री कर दिया. कुछ ही पलों में सारी लड़कियां चहकती हुई चली गईं.

‘‘भई, आज हमारी संयोगिता कहां खोई है?’’ अनीता की जोशीली आवाज ने स्टाफरूम में बैठी सुमेधा का ध्यान भंग कर दिया. यों तो उम्र में वह सुमेधा से 3-4 साल बड़ी और सीनियर भी थी, फिर भी सुमेधा को अपने दोस्ताना व्यवहार की वजह से हमउम्र भी लगती थी.

‘‘रिलैक्स यार, किसी बात का इतना टैंशन ले लेती हो तुम कि पूछो मत. और तुम्हें टैंशन में देखती हूं न, तो मेरी भी तबीयत बिगड़ने लगती है,’’ अनीता, सुमेधा के कंधे पर हाथ रखते हुए बड़ी अदा से बोली.

अनीता की बात सुन कर सुमेधा की हंसी छूट गई.

‘‘आ गईं वापस मैडम आप?’’

‘‘हां बच्चू. तुम्हें तनहा छोड़ कर मैं कहां जाऊंगी?’’

‘‘मजाक छोड़ो यार. मैं अभी मजाक के मूड में बिलकुल नहीं हूं,’’ सुमेधा गंभीरता से बोली.

‘‘अभी क्या, तुम तो कभी भी मजाक के मूड में नहीं होतीं. क्यों संयोगिता, मैं ने कुछ गलत तो नहीं कहा?’’

‘‘यह क्या संयोगितासंयोगिता लगा कर रखा है?’’ सुमेधा परेशान हो कर बोली.

‘‘भई, जब हमारे पृथ्वीराज तुम पर जान छिड़कते हैं, तो तुम संयोगिता ही हुईं न,’’ अनीता मसखरी करती हुई बोली.

अनीता सुबोध की मुंहबोली बहन थी और उस से भी बढ़ कर दोस्त और सलाहकार. और जब से उसे सुबोध और सुमेधा के पूर्व परिचय के बारे में पता चला था वह दोनों का मेल कराने में बड़ी उत्सुक थी. कनु की प्यारी बातों और सुमेधा के प्रति उस के स्नेह ने, उस की इस चाहत को और बढ़ा दिया था. एक बार तो वह सुमेधा की मां के सामने ही यह किस्सा छेड़ बैठी. उन्होंने अनीता की बात सुनी तो उन्हें जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गई. लेकिन सुमेधा ने अपने स्वाभिमान का वास्ता दे कर मां को कभी भी यह बात करने से रोक दिया.

लेकिन सुमेधा मां के मन और उस के प्यार भरे दिल की हसरतों को कैसे रोकती?

एक दिन फिर वे यह बात करने लगीं तो वह बोली, ‘‘मां, बातचीत करना एक बात है और घरपरिवार बसाना दूसरी. पहले भी तुम 2-3 लड़कों को देख चुकी हो न, जो मेरी नौकरी के आकर्षण से शादी के लिए राजी हुए थे. लेकिन शादी के बाद तुम्हारे भी साथ रहने की बात सुन कर ऐसे गायब हुए कि दोबारा शक्ल न दिखाई.’’

‘‘मेरा क्या देखती है तू? मैं तो अकेली भी रह लूंगी,’’ मां सहमते हुए बोलीं.

‘‘तुम्हें अकेला छोड़ कर शादी करना इतना जरूरी नहीं है, मेरे लिए. और हां, यह

बात आज के बाद इस घर में नहीं होगी,’’ सुमेधा ने कड़े स्वर में मां की जबान पर ताला लगा दिया.

अनीता से विदा ले कर सुमेधा घर की तरफ रवाना हुई तो विचारों के चक्र में उलझी हुई थी. उसे जब होश आया, तब तक उस का स्कूटर विपरीत दिशा से तेज गति से आती कार की चपेट में आ चुका था. टक्कर होते ही सुमेधा उछल कर रोड पर जा गिरी.

राहगीरों ने सहारा दे कर उसे उठाया. फिर जब सामान्य हुई तो उसे आटोरिकशा में बैठा कर रवाना कर दिया. स्कूटर को पास ही के गैराज में खड़ा कर दिया.

मां सुमेधा को देखते ही सुधबुध खो बैठीं. बमुश्किल अपनेआप को संभाल कर उन्होंने सब से पहले सुबोध को ही फोन लगाया.

‘‘बेटा, सुमेधा का ऐक्सिडैंट हो गया है. आप जल्दी आ जाओ.’’

सुबोध आते ही बोला, ‘‘क्या हो गया? किस से भिड़ गईं?’’ फिर मां की तरफ पलट कर बोला, ‘‘चलिए मांजी, मेरे दोस्त डा. आकाश का क्लीनिक पास ही है. मैडम की ड्रैसिंग करवा लाते हैं.’’

सुमेधा मंत्रमुग्ध सी दोनों के साथ चलती रही. कब चलते हुए उस ने सुबोध का सहारा लिया और ड्रैसिंग कराते वक्त दर्द बढ़ने पर कब उस का हाथ थाम लिया, ध्यान न रहा. लेकिन इन लमहों ने अपनों के महत्त्व से

सुमेधा को परिचित करवा दिया. आज मां अकेली होतीं तो क्या करतीं? कोई न कोई मदद तो कर ही देता, लेकिन ऐसा अपनत्व भरा सहयोग, मदद का हाथ मिलना क्या संभव था?

शाम को सुबोध कनु को ले आया. सुमेधा को देख कर कनु उस से लिपट गई. सुमेधा असहनीय दर्द से कराह उठी. सुबोध ने आहिस्ता से कनु को अलग कर के बैठाया.

‘‘बेटा, आंटी को चोट लगी है न, उन को परेशान नहीं करना,’’ सुबोध ने समझाते हुए कहा.

‘‘ठीक है, पापा. पापा, आंटी को दवा दो न.’’

‘‘हां बेटा, दवा देंगे.’’

‘‘अगर आंटी ने नहीं ली तो?’’ कनु ने मासूमियत से पूछा.

‘‘तो हम उन से कुट्टी कर लेंगे,’’ सुबोध मुसकरा कर बोला.

सुबोध की बात सुन कर कनु और मां खिलखिला कर हंस पड़ीं. माहौल में ताजगी भरी खुशबू फैल गई.

रात खाना खा कर सो गई सुमेधा. सुबह उठ कर देखा तो मां और सुबोध बतिया रहे थे. दोनों की आंखों के लाल डोरे बता रहे थे कि उन्होंने रात जाग कर काटी है. इस का मतलब सुबोध घर वापस नहीं गया. यानी कल से क्लीनिक भी बंद ही है. कोई किसी अपने के लिए ही ये सब कर सकता है. मैं बेकार की शंका में फंसी रही.

सुमेधा को जागा हुआ देख कर मां लपक कर आ गईं और सहारा दे कर बैठाया. हाथ और पैर की चोटों में दर्द बराबर बना हुआ था. मां सुमेधा को सहारा दे कर मुंह धुला लाईं. तब तक सुबोध चाय और बिस्कुट ले आया. कनु होमवर्क करने में व्यस्त थी. बगल के कमरे से उस के पढ़ने की आवाज आ रही थी. थोड़ी देर बाद कनु उन के पास पहुंच गई.

सुबोध बोला, ‘‘मांजी, अब मैं इजाजत चाहूंगा. कनु को तैयार कर स्कूल भेजना है और मेरे मरीज राह देखते होंगे. हां, मैं शाम को आऊंगा. अच्छा सुमेधा, मैं चलूं?’’

‘‘ठीक है, बाय कनु बेटा,’’ मां और सुमेधा ने दोनों को विदा दी.

शाम को 4 बजे अनीता कालेज से सीधे सुमेधा से मिलने चली आई.

‘‘मैं बोलती थी न, बेकार की चिंता मत पालो. कहां ध्यान रहता है और कैसे गाड़ी चलाती हो तुम?’’ अनीता आते ही बनावटी रोष में बरस पड़ी.

‘‘देखो, मेरा तो वैसे ही बुरा हाल है. तुम मुझे और तंग मत करो,’’ सुमेधा धीमी आवाज में बोली.

6 बजे तक सुबोध भी कनु को ले कर आ गया. बूआ को देख कर कनु चहक उठी.

अनीता बोली, ‘‘हम अपनी कनु बिटिया को अपने घर ले जाएंगे.’’

‘‘नहीं, जब तक आंटी ठीक नहीं हो जातीं हम कहीं नहीं जाएंगे,’’ कनु इतराते हुए बोली और सुमेधा के गले लग गई.

कनु का प्यार देख कर मां, सुबोध और अनीता की आंखें गीली हो गईं. सुमेधा भी इस से अछूती नहीं रह पाई.

‘‘चलिए मांजी, नाश्ते की तैयारी करें. चलो कनु, तुम भी हमारी हैल्प करो,’’ अनीता मांजी और कनु को किचन में ले गई.

सुबोध पास की कुरसी खींच कर बैठते हुए बोला, ‘‘सुमेधा, पता नहीं उस दिन की मेरी बात का क्या मतलब निकाला तुम ने. आज तुम्हारे लिए एक खास चीज लाया हूं. और हां, अनीता ने मुझे सब बता दिया है. मांजी की जितनी चिंता तुम्हें है, उतनी ही मुझे भी. यदि तुम ने इस नए रिश्ते को स्वीकार किया तो मांजी को अपने साथ पा कर मुझे बेहद खुशी होगी. तुम्हारे बाबूजी की असमय बीमारी और उन के गुजरने के बाद इतने सालों की तपस्या से तुम ने जिस स्वाभिमान की शिला को रचा है, मैं उसे भी ठेस नहीं पहुंचाना चाहता. हां, उस शिला में कोई दरवाजा निकल सके तो मैं और कनु जरूर उस से गुजर कर तुम्हारे करीब पहुंचना चाहेंगे.’’

सब सुन कर सुमेधा सिमट सी गई.

सुबोध ने एक पुरानी डायरी उस की ओर बढ़ा दी.

पहले ही पन्ने पर लिखी थी छोटी सी कविता-

‘‘सरस्वती कहूं तुम्हें कि तुम्हें मैं परी कहूं

कह दो तुम्हीं क्या मैं तुम्हें सुंदरी कहूं.

तुम को कुंतला पुकारूं या कहूं शकुंतला

या फिर तुम को मैं कादंबरी कहूं.

चित्रा कहूं या सुमित्रा चंदा या सितारा

अथवा सावित्री सत्य से तुम्हें भरी कहूं.’’

नीचे लिखा था- सुमेधा के लिए, जो इन पंक्तियों को कभी नहीं पढ़ेगी. उस में तारीख थी उस साल की जब वे 12वीं कक्षा में थे.

डायरी बंद कर सुमेधा ने सुबोध की ओर देखा. फिर हौले से बोली, ‘‘सुबोध, सुमेधा ने अपने लिए लिखी पंक्तियों को पढ़ लिया है,’’ और अपनी स्वीकृति देते हुए सुबोध के हाथों को अपनी हथेलियों में छिपा लिया.

उस पल दर्द के बावजूद सुमेधा के चेहरे पर मुसकान थी, नए रिश्ते को अपना कर मिली मुसकान. सुबोध की आंखों में खुशहाल परिवार के सपने झिलमिलाने लगे.

Best Family Drama : अपने हिस्से की धूप

 Best Family Drama : कुहरे में लिपटी एक नई सुबह नए जीवन में नूपुर का स्वागत कर रही थी. खेतों की तरफ किसान राग मल्हार गाते चले जा रहे थे. गेहूं और सरसों की फसलें फरवरी की इस गुलाबी ठंड में हलकीहलकी बहती शीतल, सुगंधित बयार के स्पर्श को पा कर खिलखिलाने लगी थीं. नूपुर की आंखें नींद से मुंदी जा रही थीं. इन सब के बीच 2 मन आपस में चुपकेचुपके कार की पहली सीट पर लगे बैक मिरर में एकदूसरे को देख आंखों ही आंखों में बतियाने  का प्रयास कर रहे थे. शरीर थकान से टूट रहा था, विदाई का मुहूर्त सुबह का ही था. ससुराल में पहला दिन था उस का. टिटपुट रीतिरिवाजों के बाद उसे कमरे में बैठा दिया गया था. उस की आंखें उनींदी हो रही थीं. कितने दिन हो गए थे उसे मन भर सोए हुए. सोती भी कैसे घर रिश्तेदारों से जो भरा हुआ था.

‘‘नूपुर. सो जा वरना चेहरा सोयासोया लगेगा. फोटो अच्छे नहीं आएंगे,’’ कहते सब जरूर थे पर कैसे? इस बात का किसी के पास कोई जवाब नहीं था. जिसे देखो वही हाथ में ढोलक ले कर उस के सिर पर आ कर बैठ जाता.

‘‘इन्हें देखो महारानी की खुद की शादी है और यह फुर्रा मार कर सो रही हैं. अरे भाई शादीब्याह रोजरोज थोड़े होता है. अभी मजे ले लो फिर तो बस यादें ही रह जाती हैं.’’

मन मार कर उसे भी शामिल होना ही पड़ता. अभी तो ससुराल के रीतिरिवाज बाकी थे.

उस ने खिड़की के बाहर झंक कर देखा, सड़कें सो रही थीं और वह जाग रही थी. दबेदबे पांवों से वह हौलेहौले एक नई जिंदगी में प्रवेश कर रही थी. एक ही मासमज्जा से बने हर इंसान की देह में एक अलग खुशबू होती है जो उसे दूसरों से अलग करती है. शायद घरों की भी अपनी एक देह और एक अलग खुशबू होती है जो उन्हें दूसरों से अलग करती है. नूपुर इस खुशबू से बिलकुल अपरिचित और अनजान थी. उस के घर खुशबू उस के पीहर से बिलकुल अलग थी जिसे उसे अपनाना और अपना बनाना था.

‘‘अरे भई कोई अपनी भाभी का सामान कमरे में पहुंचा दो,’’ सासूमां ने आवाज लगाई.

नूपुर की आंखें तेजी से अपने सामान को ढूंढ़ रही थीं. कल रात से 15 किलोग्राम का लहंगा पहनेपहने अब तो उस का शरीर भी जवाब देने लगा था. कितने शौक से लिया था उस ने.

‘‘जितना तेरा खुद का वजन नहीं है जितना लहंगे का है. कैसे संभालेगी?’’ पापा ने चिंतित स्वर में कहा था.

‘‘अरे पापा लेटैस्ट फैशन है.’’

‘‘लेटैस्ट… यह भी कोई रंग है. मरामरा सा रंग लाई हो. अरे लेना ही था तो लालमैरून लेती, दुलहन का रंग. तुम्हारी मां ने भी अपनी शादी में लाल रंग की साड़ी पहनी थी,’’ पापा ने मुंह बनाते हुए कहा.

‘‘अब ये सब रंग कौन पहनता है… यह एकदम लेटैस्ट और ट्रैडी कलर है. आलिया भट्ट ने भी यही रंग अपनी शादी में पहना था.’’

‘‘वे सब हीरोइनें हैं, कुछ भी पहनें सब अच्छा लगता है पर अपने समाज में तो दुलहन का रंग वही सब माना जाता है.’’

‘‘पापा शादी कोई रोजरोज थोड़ी होती है.’’

‘‘मैं भी तो नहीं कह रहा हूं कि शादी रोजरोज होती है. कम से कम शादी के दिन सुहाग का रंग तो पहनना चाहिए.’’

‘‘इतना महंगा लहंगा सिर्फ एक दिन के लिए तो नहीं खरीद सकती थी. ऐसा रंग लिया है कि आगे भी यूज में आ जाए,’’ नूपुर ने दलील दी.

‘‘सुन रही हो नूपुर की मां तुम्हारी बिटिया की पंचवर्षीय योजना है. यहां जिंदगी का भरोसा नहीं और यह आगे तक की योजना बना कर चल रही है.’’

मम्मी चुपचाप बापबेटी की चिकचिक सुनती रही. जानती थी कुछ भी बोलने का कोई फायदा नहीं है. अभी आपस में लड़ेंगे, बहस करेंगे और फिर खुद ही एक हो जाएंगे और वह विलेन बन कर रह जाएगी.

तभी किसी के कदमों की आहट से नूपुर का ध्यान टूटा. उस के दोनों देवर हाथ में ब्रीफकेस ले कर कमरे में घुसे.

‘‘कितना भारी है भाभी, पत्थर भर कर लाई है क्या?’’

नूपुर मुसकरा दी. क्या कहती महीनों से खरीदारी की थी. कहांकहां से ढूंढ़ढूंढ़ कर सामान इकट्ठा किया था. उस ने तेजी से सामान को

गिनना शुरू किया. 3 ब्रीफकेस, 1 एअर बैग और 1 वैनिटी बैग और वह गुलाबी वाला ब्रीफकेस. वह नदारद था. पापा से कहा तो था कि उसे भी अपने साथ ले कर जाएगी. जीवन की नई शुरुआत हुई थी, हर तरह के रंग और स्वाद से भर गई थी उस की जिंदगी. सबकुछ तो ले कर आई थी वह पर क्या सबकुछ पीछे बहुत कुछ छूट गया था.

‘‘भैया एक पिंक कलर का ब्रीफकेस भी होगा.’’

‘‘पिंक?’’

छोटे देवरों के चेहरे पर शरारत उभर आई,

‘‘आप को भी पिंक कलर पसंद है? वह तो पापा की परियों को पसंद होता है?’’

‘‘तुम लोग फिर से शुरू हो गए,’’ मम्मीजी ने दोनों की मीठी ?िड़की देते हुए कहा.

‘‘भाभी. उस पर बार्बी डौल बनी हुई थी क्या?’’

‘‘हांहां वही. देखा क्या आप ने?’’ उस की आंखों में जुगनू चमक उठे.

‘‘कब से पूरे घर में टहल रहा था समझ ही नहीं आ रहा था कि पता नहीं किस का सामान भाभी के सामान के साथ चला आया है.’’

‘‘जी, वह मेरा ही है,’’ नूपुर ने संकुचाते हुए कहा.

वे दोनों उस भीड़ में कहीं खो गए और थोड़ी देर में अलादीन के चिराग की तरह उस का वह पिंक ब्रीफकेस ले कर हाजिर हो गए.

‘‘यह लीजिए आप की अमानत और कोई आदेश?’’ दोनों ने सीने पर हाथ रख बांएं पैर को पीछे मोड़ सिर को हलका सा झुका कर बड़ी अदा से कहा.

‘‘भाभी को बड़ा मक्खन लगाया जा रहा है. इन की सेवा करोगे तभी तुम्हारा कल्याण होगा,’’ सिद्धार्थ ने कमरे में घुसते हुए कहा.

वैसे तो सिद्धार्थ से शादी से पहले नूपुर की 2-4 बार ही मुलाकात और टेलीफोन पर बातें हुई थीं पर उन अनजान चेहरों के बीच नूपुर को वह चेहरा बहुत अपना सा लगा.

‘‘अपनी भाभी को कुछ खाने को पूछा या बस बातें ही बना रहे हो,’’ सिद्धार्थ ने शेरवानी उतारते हुए कहा, ‘‘इन से बातें बनवा लो, काम धेले भर का नहीं करते.’’

मम्मीजी ने कहा, ‘‘नूपुर तुम जल्दी से नहा लो. मेहमानों का आना शुरू हो जाएगा, कुछ रीतिरिवाज भी करने हैं और यह मायके से जो तुम्हारे लिए सामान आया है उसे भी दो.’’

‘‘क्या मां आप से कहा था न मुझे यह सब पसंद नहीं. उस का सामना है, किसी से क्या मतलब है. नूपुर के घर वालों ने दिया उस ने लिया, उस से हमें क्या?’’ सिद्धार्थ के चेहरे पर नाराजगी साफ झलक रही थी.

नुपुर चुपचाप मांबेटे की बहस सुन रही थी. ‘‘बात तुम्हारी पसंद या नापसंद की नहीं, परंपरा की है. तुम्हारी दादी और बूआ को तुम्हारी बातें समझ आएंगी. कौन नूपुर से कुछ ले लेगा, बस मान देने की बात है. नूपुर तुझे कोई दिक्कत तो नहीं? यह तो कुछ समझता ही नहीं. चार अक्षर क्या पढ़ लिए मां को ही पढ़ाने लगे.’’

नूपुर ने मम्मीजी की आवाज में एक खलिश महसूस की थी. वह समझ नहीं पा रही थी. वह अपनी नईनवेली सास और नएनवेले पति के बीच फंस गई थी.

‘‘नूपुर, इस की छोड़ इसे दुनियादारी समझ नहीं आती. तू तो समझदार है तुझे कोई दिक्कत तो नहीं?’’

‘‘जी कोई बात नहीं,’’ नूपुर ने मद्धिम स्वर में कहा.

सिद्धार्थ नूपुर के इस फैसले से कुछ खास खुश नजर नहीं आ रहा था. बोला, ‘‘जो मन में आए करो फिर मुझ से कोई कुछ मत कहना.’’

‘‘नूपुर मैं सब को इसी कमरे में बुला लूंगी, तुम नहाधो कर तैयार हो जाओ. रात में रिसैप्शन भी है. सिद्धार्थ तू मेरे कमरे में नहा ले, बहू को तैयार होने दे,’’ मम्मीजी कमरे से बाहर जाने लगी, तभी उन्हें कुछ याद आया. बोली, ‘‘आज दिनभर पूजापाठ और रीतिरिवाज में ही निकल जाएगा. हलवाई को अभी सब का नाश्ता बनाने में समय लगेगा. तुम कुछ खा लो, तुम्हारे लिए चायनाश्ता भेजती हूं.’’

‘‘जी,’’ नूपुर ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया.

अब कमरे में सिद्धार्थ और नूपुर ही रह गए थे. उस की चूडि़यों की खनखनाहट के अलावा कोई आवाज नहीं आ रही थी. नूपुर ने पर्स खोला और ब्रीफकेस की चाबी निकाली.

‘‘मैं कुछ मदद करूं?’’ सिद्धार्थ ने कहा.

नूपुर कुछ कहती उस से पहले ही सिद्धार्थ ने ब्रीफकेस उठा कर बैड पर रख दिया. नूपुर ने ब्रीफकेस खोला और घाटचोला की साड़ी, उसी का मैचिंग ब्लाउज और पेटीकोट निकाला. फिर उस ने धीरे से सिद्धार्थ की ओर देख कर वाशरूम पूछा.

सिद्धार्थ ने उंगली से इशारा किया. वाशरूम से ताजा पेंट और सीमेंट की खुशबू आ रही थी. उस ने वाशरूम में कदम बढ़ाया ही था कि सिद्धार्थ ने पीछे से आवाज दी, ‘‘एक मिनट रुको,’’ सिद्धार्थ ने उस का रास्ता रोक लिया और वाशरूम में घुस गया, ‘‘नूपुर इधर आओ यह गीजर का पौइंट है, यहां से औन होगा.’’

सबकुछ नयानया सा लग रहा था जिसे नूपुर को अपना बनाना था. नया टूथपेस्ट, 2 टूथब्रश, शैंपू, तेल की शीशी, क्रीम, कपड़े धोने और नहाने के नए साबुन के पैकेट. उस ने हाथ में पकड़े शैंपू और साबुन के पैकेट को अपने कपड़ों में छिपा लिया, मैं ने 1-1 चीज याद करकर के रखी है. ससुराल में किस से मांगने जाएगी, खुद इंतजाम कर के चलो. धीरेधीरे जब समझ में आने लगेगा, तब मंगवा लेना.’’

मां ने 1-1 चीज वैनिटी बौक्स में कितने जतन से सजो कर रखी थी. मां को याद कर उस का मन भारी हो गया. नए घर में अपना कहने वाला कोई नहीं था पर उन नए लोगों को अब अपना बनाना था.

‘‘तुम जल्दी से तैयार हो जाओ, मैं भी नहा कर आता हूं. कमरे का दरवाजा अंदर से बंद कर लेना कोई तुम्हें डिस्टर्ब नहीं करेगा,’’ सिद्धार्थ ने बड़ी सहजता से कहा.

नूपुर के चेहरे पर एक मुसकान आ गई. उस ने दरवाजा बंद करने के लिए ऊपर की ओर हाथ बढ़ाया. वहां चिटकनी नहीं थी. ओह, आदत भी कितनी खराब चीज है… नूपुर तू ससुराल में है उस ने आप से कहा. सागौन की पौलिश से दरवाजे पर औटोमैटिक लौक लगा हुआ था. एक, दो और तीन उस ने 3 बार उस के कान उमेठ दिए और बैड पर आ कर बैठ गई. कितनी देर से गला सूख रहा था. रात में खाना खाते वक्त ही पानी पीया था. उस ने इधरउधर नजर दौड़ाई, बैड के सिरहाने जग और स्टील के

2 गिलास उलटे रखे थे. बहुत तेज प्यास लगी थी. उस ने गिलास को झट से भर लिया और होंठों को तेजी से लगाया. जितना तेजी से उस ने होंठों को गिलास से लगाया था उतनी ही तेजी से उस ने गिलास से हटा भी लिए. उस के चेहरे का रंग बदल गया था, ‘‘कैसा स्वाद है इस का.’’

2 घूंट पानी पीने के बाद नूपुर ने गिलास वैसे ही छोड़ दिया. जीवन के साथसाथ अब उसे उस पानी के साथ भी एडजस्ट करना था. उस ने कपड़े समेटे और वाशरूम की ओर बढ़ गई.

नूपुर ने वाशरूम में कपड़े टांगने के लिए खूंटी ढूंढ़ी, किसी नामी कंपनी की रैक वाली स्टील की खूंटी टाइल्स पर चमचमा रही थी. ऊपरी हिस्से पर नरम, नए और मुलायम 2 तौलिए रखे थे. उसे अपना वाशरूम याद आ गया, बुध बाजार से वह पूरे घर के वाशरूम के लिए कार्टून और दिल के आकार की कई चिपकाने वाली खूंटियां ले आई थी तब पापा ने कितना डांटा था, ‘‘ताड़ की तरह बड़ी हो गई पर अभी बचपना नहीं गया. तुम ही लगाओ अपने वाशरूम में कीड़ेमकोड़े वाली खूंटियां हमारे लिए तो ये स्टील वाली ही ठीक हैं.’’

न जाने क्या सोच कर नूपुर की आंखें मुसकराने लगीं. अब सिद्धार्थ की पसंद ही उस की पसंद है. एक अपरिचित लड़के का हाथ पकड़ेपकड़े वह दूसरे संसार में प्रवेश कर गई थी इस उम्मीद के साथ कि अब जीवन भर उस के साथ रहना है. उस के सुख और दुख मेरे होंगे और मेरे सुख और दुख उस के  वह शावर के नीचे खड़ी हो गई. शावर की तेज धार से उस के मनमस्तिष्क की सारी उलझनें सुलझती चली गईं.

अब यही घर उस का है. अब इस घर में ही उसे रहना है और इस घर को भी उस घर की तरह अपनाना, सजाना और संवारना है. कमरे में ड्रैसिंग टेबल रखी थी. उस पर गिनती का कुछ सामान था. उस के चेहरे पर मुसकान आ गई. सिद्धार्थ भी और लड़कों की तरह ही थे. एक महीन दांत वाली कंघी, एक डिओड्रैंट, क्रीम और तेल की शीशी उन के वैनिटी बौक्स के नाम पर बस इतनी ही जमा पूंजी थी.

वह सोच रही थी कि शृंगार के नाम पर उस ने न जाने कितनी चीजें जुटाई थीं इन 6 महीनों में. लिपस्टिक के न जाने कितने शेड और न जाने कितने प्रकार थे. उस की पिटरिया में लिक्विड, मैट, पैंसिल, क्रीम बेस्ड. इसी तरह कंघियां भी विभिन्न प्रकार और साइज की थीं. महीन दांत वाली, बाल सुलझने के लिए चौड़े दांत वाली ब्रश, रोलर और नोक वाली.

नूपुर ने ड्रैसिंग टेबल के शीशे के सामने अपनेआप पर एक भरपूर नजर डाली. मांग में लाल सिंदूर चमक रहा था. कितनी सुंदर दिख रही थी वह शायद यह सिंदूर का ही कमाल था. खिड़की पर मोटेमोटे परदे पड़े थे. नूपुर ने इधरउधर देखा और परदे को खींच कर एक तरफ कर दिया. खिड़की के शीशों पर हलकी गुलाबी धूप चमक रही थी. उस ने हाथों का दबाव दे शीशे को पीछे की तरफ धकेल दिया. शायद खिड़कियां काफी दिनों से नहीं खुली थीं.

कमरे की खिड़कियों को खोल उस ने धूप को आने दिया जैसे वह अपने हिस्से की धूप को इकट्ठा कर लेना चाहती हो. कहीं न कहीं जिंदगी का फलसफा भी तो नहीं है. खुशियां भी तो कुछ ऐसी ही होती हैं अपनेअपने हिस्से की खुशियां. उस ने एक गहरी सांस ली और साफ हवा को अपने मनमस्तिष्क में भरने दिया. कितनी अलग थी इस कमरे की दीवारें एकदम शांत नए रंगरूटों की तरह जिन की उंगलियां कुछ करने को छटपटा रही हों.

नूपुर ने दीवारों पर हाथ फेर कर अपनेपन की खुशबू को महसूस करने की कोशिश की. कितना अलग था उस का यह कमरा उस के पीहर के कमरे से. उस ने औनलाइन अपने कमरे की दीवार के लिए स्टिकर मंगवाए थे. पिंजरे से निकल कर उड़ती ढेर सारी चिडि़यांएं. अजीब सी खुशी मिलती थी उसे उन्हें देख कर. पापा हमेशा कहते हैं लड़कियां भी तो चिडि़यों की तरह होती हैं. एक दिन उड़ जाती हैं. तू भी उड़ जाएगी इन की तरह छत पर रेडियम के चमकते सितारे अंधेरे में कितने टिमटिमाते थे मानो खुले आसमान के नीचे सो रहे हों. कभीकभी लगता जैसे वह खुली आंखों से सपने देख रही हो.

नूपुर ने एक गहरी सांस ली. पीछे बगीचा था. हलवाई के बरतनों के आवाज उसे अब साफसाफ सुनाई दे रही थी. उस ने खिड़की को खुला ही रहने दिया और परदों को खींच कर हलका बंद कर दिया.

तभी दरवाजे पर किसी ने धीरे से खटखटाया, ‘‘नूपुर… नूपुर.’’

‘‘कौन?’’ नूपुर ने पूछा और यह सवाल कर के वह खुद ही अचकचा गई. वह इस वक्त सिद्धार्थ के घर में थी और वह उन्हीं से पूछ रही थी.

‘‘नूपुर मैं हूं सिद्धार्थ,’’ एक भारी आवाज आई. आवाज में नूपुर के लिए हक था.

‘‘जी, आती हूं,’’ वह खुद ही कह कर शरमा गई, उस ने अपनेआप को समझाया कि अब उसे इन सब चीजों की आदत डालनी होगी.

‘‘तैयार हो गई तुम?’’ सिद्धार्थ ने एक भरपूर नजर उस पर डाली. उस की आंखों में ऐसा कुछ था कि नूपुर की आंखें नीचे गईं.

‘‘ये परदे किस ने खोल दिए?’’ सिद्धार्थ का ध्यान परदों की ओर गया.

‘‘वह बड़ा स्फोकेशन हो रहा था. मैं ने खिड़कियां खोल दी थीं. औक्सीजन कैसे मिलेगी, क्रौस वैंटिलेशन भी तो जरूरी है. मुझे उलझन होने लगती है,’’ नूपुर एक सांस में बोल गई.

‘‘तुम दोनों तैयार हो गए? लो जल्दीजल्दी नाश्ता कर लो दादी और बूआजी तुम लोगों को पूछ रही थी,’’ मम्मीजी हाथ में चायनाश्ते की ट्रे ले कर कमरे में घुसीं, ‘‘कुछ हुआ है क्या? तुम दोनों ऐसे शांत क्यों खड़े हो?’’

‘‘कुछ नहीं मम्मी नूपुर को बंद कमरे में उल?ान हो रही थी. उस ने खिड़की खोल दी, कह रही थी औक्सीजन कैसे मिलेगी, क्रौस वैंटिलेशन भी तो जरूरी है. उसे उलझन होने लगती है.’’

मम्मी ठहाका मार कर हंस पड़ी, ‘‘अब इस घर में एक नहीं 2 लोग हो गए खिड़की खोल कर सोने वाले मैं और नूपुर.’’

नूपुर को मांबेटे की बात समझ नहीं आ रही थी.

‘‘जानती हो नूपुर सिद्धार्थ और उस के पापा को खिड़की खोलना बिलकुल पसंद नहीं कहते हैं बाहर का शोर अंदर आता है. मुझे तो बंद कमरे में बिलकुल नींद नहीं आती. लगता है सांस घुट रही है. अब तो तेरी बीवी भी मां के रंग में रंगी आ गई है. अब तू क्या करेगा सिद्धार्थ?’’ मम्मी मंदमंद मुसकरा रही थी और उन की बात सुन नूपुर भी मुसकराने लगी.

‘‘चलो अब समय बरबाद मत करो और जल्दी से नाश्ता कर लो. तेरी बूआ और दादी भी उठ गए हैं. तुम लोग कमरा ठीक कर लो. मैं भी काम देख कर आती हूं, हलवाई ने नाश्ता बनाना शुरू किया या नहीं.’’

‘‘मम्मी आप ने नाश्ता किया या नहीं. अभी बीपी लो हो जाएगा, तबीयत खराब हो जाएगी,’’ सिद्धार्थ के चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ पढ़ी जा सकती थीं.

‘‘सुन रही हो नूपुर इस की बात. अभी पूरा घर मेहमानों से भरा पड़ा है और सब से पहले मैं ही नाश्ता करने बैठ जाऊं लोग क्या कहेंगे.’’

सिद्धार्थ ने मम्मीजी का हाथ पकड़ कर उन्हें जबरदस्ती अपने पास बैठा लिया, ‘‘कोई कुछ नहीं कहेगा. नूपुर तुम भी जल्दी से नाश्ता कर लो. मम्मी तुम भी साथ खा लो, कौन देखने आ रहा है सब सो रहे हैं.’’

मम्मीजी ने कैशरोल से पोहा निकाल कर प्लेट में परोस दिया और सिद्धार्थ ने चाय का प्याला नूपुर की ओर बढ़ा दिया. नूपुर बैड के एक कोने में बैठ चाय पीने लगी.

‘‘चाय ठीक बनी है न? मीठा ज्यादा तो नहीं हो गया? इतना सामान फैला हुआ है कुछ मिल ही नहीं रहा था.’’

‘‘जी ठीक है मैं थोड़ा चीनी हलकी पीती हूं,’’ कहने को तो नूपुर ने कह दिया पर वह कशमकश में पड़ गई कि पता नहीं उसे यह बात कहनी भी चाहिए थी या नहीं. मम्मी ने कितनी बार समझाया था वह ससुराल है कुछ भी मुंह में आए तो बोल मत देना पर वह भी तो आदत से मजबूर थी. कहने से पहले एक बार भी नहीं सोचती.

‘‘ओह? मुझे पता नहीं था बेटा दूसरी बना देती हूं.’’

‘‘नहींनहीं आंटीजी. इस की कोई जरूरत नहीं है.’’

‘‘आंटी नहीं मम्मी कहना सीखो,’’ मम्मीजी की आवाज में एक मनुहार के साथ एक आदेश भी था. नूपुर का चेहरा उतर गया. बोली, ‘‘मुश्किल है पर धीरेधीरे आदत पड़ जाएगी,’’ मां के अलावा कभी किसी को मां नहीं कहा तो़…’’ मां को याद कर उस की आंखें सजल हो आईं.

‘‘समझ सकती हूं कि इतना आसान नहीं है पर धीरेधीरे आदत पड़ जाएगी,’’ मम्मीजी ने धैर्य बंधाया, ‘‘तुम लोग जल्दी से नाश्ता खत्म कर लो और अपना सामान बैड पर सजा दो. मैं पहले देख लूंगी, उस के बाद दादी और सारे लोगों को भी बुला कर दिखा देती हूं.’’

सिद्धार्थ के चेहरे पर अभी भी नाराजगी थी पर अब वह इस विषय में कुछ भी कहना नहीं चाह रहा था.

‘‘सिद्धार्थ जरा नूपुर की मदद कर दे, मुझे और भी काम हैं.’’

सिद्धार्थ की मदद से नूपुर ने सारे ब्रीफकेस के सामान को बैड पर सजा दिया.

‘‘नूपुर, क्या इस अटैची का सामान भी सजाना है?’’ सिद्धार्थ ने पिंक ब्रीफकेस की ओर इशारा करते हुए कहा.

नूपुर समझ नहीं पा रही थी सिद्धार्थ की बात का वह क्या जवाब दे.

उसे असमंजस में देख सिद्धार्थ ने कहा, ‘‘क्या हुआ कुछ खास है क्या इस में कुछ कीमती?’’

‘‘खास. मेरे दिल के बहुत करीब है पर क्या इसे भी लगाना जरूरी है?’’

तभी मम्मीजी ने कमरे में प्रवेश किया, ‘‘क्या हुआ सब लगा दिया न बेटा?’’

‘‘मम्मी बस यह एक ब्रीफकेस रह गया है. शायद कुछ पर्सनल सामान है नूपुर का.’’

‘‘नहीं पर्सनल जैसा कुछ भी नहीं है पर…’’ नूपुर की आवाज में संकोच उभर आया.

मम्मीजी की आंखों में प्रश्न तैर रहे थे. नूपुर समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या करे. शायद इसी स्थिति से बचाने के लिए पापा ने उसे इस ब्रीफकेस को ले जाने के लिए मना किया था. क्या नए घर में नए लोगों के बीच इस ब्रीफकेस को खोलना ठीक होगा पर अगर नहीं खोला तो उन की आंखों में उग आए प्रश्नों के जवाब उन्हें कैसे मिलेंगे.

‘‘मम्मी रहने दो. अगर नूपुर नहीं चाहती है कि इस ब्रीफकेस को खोला जाए तो हरज क्या है?’’

मम्मीजी खुद असमंजस की स्थिति में थीं. बात बिगड़ते देख नूपुर ने उस ब्रीफकेस को खोल दिया और एक किनारे खड़ी हो गई. अटैची में कुछ किताबें, हाथ से बनी हुई गुडि़या, टैडी बियर, दिल के आकार का पैन स्टैंड, मम्मीपापा का फोटो, कुछ गुलाबी लिफाफे और एक फीरोजी दुपट्टा मुसकरा रहा था.

सिद्धार्थ उस के सामान को देख कर हंसने लगा, ‘‘बहुत कीमती सामान है इस में, सच कहा था तुम ने.’’

मम्मीजी घुटने के बल बैठ गईं और उन्होंने उस सामान पर बड़े प्यार से हाथ फेरा. वे भी तो अपने ब्याह के समय एक ऐसा ही ब्रीफकेस ले कर आई थीं.

‘‘सिद्धार्थ सचमुच बहुत कीमती सामान है

इस अटैची में. इस में नूपुर की नादानियां हैं, खामियां हैं, चुलबुलापन है. बेबाकपन है और हां अल्हड़पन है. सच कहूं तो वह इस ब्रीफकेस में अपने साथ अपने अंदर की लड़की को ले कर भी आई है. नूपुर अपने हिस्से की धूप ले कर आई है,’’ मां बोली.

नूपुर की आंखों में खुशी के आंसू थे. खुली खिड़कियों से धूप बैडरूम के फर्श पर दस्तक दे रही थी. धूप की इस कुनकुनी गरमाहट में सारे सवाल और गलतफहमियां भाप बन कर उड़ रही थीं.

New Year 2025 : मीठे में बनाएं सेब का हलवा, स्वाद है बेहद लाजवाब

आपने हलवा तो बहुत तरह का खाया होगा लेकिन क्या आपने कभी सेब का हलवा चखा है? सेब का हलवा बनाना बहुत ही आसान है और स्वाद में भी यह बहुत अलग है. अगर आपके घर भी मेहमान आने वाले हैं और आप उन्हें डेजर्ट में कुछ स्पेशल सर्व करना चाहते हैं तो सेब का हलवा एक नया विकल्प है.

पड़ेगी इन चीजों की जरूरत

सेब- 1

खोया- एक चौथाई कप

चीनी- एक चौथाई कप

घी- एक चौथाई कप

इलायची पाउडर- आधा चम्मच

काजू- आधा चम्मच, टूटे हुए

बादाम- आधा चम्मच, कटा हुआ

बनाने की विधि

– सेब को छिलकर ग्राइंड कर लें.

– मध्यम आंच पर एक पैन में घी गर्म करें.

– काजू और बादाम को लगभग 30 सेकंड के लिए फ्राई कर लें.

– सेब को इस पेन में डाल दें और आंच कम कर दें.

– 10 मिनट तक इसे धीमी आंच पर पकाते रहें.

– अब इसमें खोया और चीनी डालकर अच्छी तरह मिलाएं.

– जब मिश्रण किनारा छोड़ने लगे तो इसमें इलायची पाउडर, काजू और बादाम मिला दें.

– आपका सेब हलवा सर्व करने के लिए तैयार है.

Tips For Healthy Marriage : कहीं कपल हो रहे बदनाम तो कहीं बन रहे आदर्श, जानें वजह

Tips For Healthy Marriage : हाल ही में शादी को लेकर बहुत से विचार सुनने में आ रहे हैं. कुछ समय पहले अतुल सुभाष की सुसाइड ने देश की कानून प्रक्रिया तक को कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया. हर कोई निकिता जैसी महिलाओं से छुटकरा पाने की चाह में कानूनी प्रक्रिया को दोष दे रहा है तो कहीं नेपाल के विवेक-सृजना की कहानी सब के लिए एक मिसाल बन गई है कि किस तरह एक कपल एकदूसरे के लिए जीवन के मुश्किल से मुश्किल वक्त में एक दूसरे की ढाल बनकर खड़ा रहा और जीवन भर साथ निभाया.

विवेक और सृजना एक दूसरे से 19 दिसंबर को हमेशा के लिए जुदा हो गए. विवेक को स्टेज-4 ब्रेन कैंसर था इस मुश्किल भरे समय में सृजना ने अपने पति की दिन रात सेवा की हर पल उसे खुशियां दी अपनी सारी जमा पूंजी विवेक के इलाज में लगा दी लेकिन 19 दिसंबर को विवेक पंगेनी का निधन हो गया.इन दोनों की कहानी में न कोई सस्पेंस है न कोई ड्रामा है तो सिर्फ इमोशंस, विश्वास, एक दूसरे के लिए जीने मरने का जूनून. जो आज हर किसी की जबान पर है इन्होंने दुनिया की नजरों में शादी, प्रेम को जन्म जन्म का रिश्ता सिद्ध करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

वहीं अतुल के केस में रिश्ते की उलझन खुदकुशी का कारण बन गई दोनों ही केस में महिलाओं के व्यक्तित्व पर फोकस किया गया है एक तरफ पत्नी अपने पति की हिम्मत बनी हुई है तो दूसरे में पत्नी के कारण जिंदगी हार कर सुभाष मौत को चुनना मुनासिफ समझता है.

आखिर क्यों कुछ लोगों के गलत इरादों के कारण विवाह के बंधन को अपवित्र किया जाता है जबकि कहा जाता है कि विवाह ना सिर्फ दो लोगों का मिलन है बल्कि दो लोगों का एक हो जाना है. विवाहिक जीवन दो पहियों की गाड़ी है यदि एक लड़खड़ा जाए तो दूसरा उसे संभाल ले. जो इसे समझ लेता है उसके लिए यह जीवन स्वर्ग से कम नहीं और जो सिर्फ अपने ही बारे में सोचे तो उसके लिए जीवन सजा से कम नहीं.

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Winter Fashion Ideas : इस समय सर्दियां अपने चरम पर है. मौसम कोई भी हो हम ट्रैवल तो करते ही हैं साथ ही शादी, फंक्शन और पार्टियां तो होती ही रहती हैं. सर्दियों के इन दिनों में जहां एक ओर स्वयं को सर्दियों से बचाना होता है वहीं दूसरी तरफ अपने लुक को भी स्टाइलिश बनाना होता है. आजकल बाजार में अनेकों वूलन औप्शंस हैं जिन्हें अपनी वार्डरोब में शामिल करके आप किसी भी अवसर पर खुद को स्टाइलिश दिखा सकती हैं. आज हम आपको ऐसे ही कुछ औप्शंस बता रहे हैं जिन्हें अपनाकर आप सर्दियों में भी खुद को मौडर्न और स्टाइलिश लुक वाला बना सकती हैं.

निट मिडी स्कर्ट

बुनी या वूल फैब्रिक वाली मिडी स्कर्ट घुटनों से थोड़ा नीचे और एंकल से थोड़ा ऊपर तक की लंबाई वाली स्कर्ट होती है जिसे आप टौप, टर्टलनेक स्वेटर, और घुटनों तक के लम्बे बूट्स के साथ पेयर किया जा सकता है. मिडी स्कर्ट वास्तव में कभी भी आउट औफ फैशन नहीं होती. हां समय और फैशन के अनुसार इसके फैब्रिक और पैटर्न में जरूर बदलाव होता रहा है. सर्दियों के मौसम में कैशमियर मिडी स्कर्ट फैशन स्टेटमेंट है इसे आप अपनी वार्डरोब में जरूर रखें.

स्वेटपैंट्स

सर्दियों में स्वेटपैंट से तात्पर्य एक ऐसी गर्म पैंट से होता है जो काफ़ी आरामदायक होती है. यदि आप ट्रैवल के दौरान कम्फर्ट की तलाश में हैं तो ये स्वेट पैंट्स आपके लिए मददगार हैं. आजकल आराम और स्टाइल का इनमें इतना परफैक्ट ब्लेंड होता है की कोई जान भी नहीं पाता कि आपने कैजुअल स्वेट्स पहने हैं. इन्हें आप अपनी पसंद के अनुसार ऐसे न्यूट्रल कलर्स में ले सकते हैं जिन्हें आप किसी भी शर्ट या पुलोवर के साथ पेयर कर सकें.

शेरपा जैकेट

शेरपा जैकेट में प्रयोग की जाने वाली ऊन सामान्य ऊन की तुलना में काफी हल्की और गर्म होती है इसीलिए ये जैकेट्स भी वजन में काफी हल्की और गर्म होती है. शेरपा जैकेट यूं तो हमेशा से ही फैशन में रहा है पर आजकल इसके बहुत से कलर्स, पैटर्न और वेराइटी उपलब्ध हैं. यह हमेशा ही आपके लुक को आकर्षक बनाती हैं क्योंकि ये ट्रैंडी टू टोन डिजाइन, वार्म और बहुत कंफरटेबल होते हैं. ये एक ऐसा आउटर औप्शन है जो हमेशा आपकी पर्सनेलिटी को एकदम नया लुक देता है. क्योंकि इसमें शेड्स और विविधता की भरमार होती है.

लौंग स्लीव टीशर्ट

सर्दियों के दिनों में ट्रेवल के लिए टीशर्ट परफैक्ट होती है क्योंकि ये बेहद कंफर्टेबल और वार्म होती है. इस पर लेयरिंग आसानी से की जा सकती है, इसे आप जींस, स्नीकर्स और पफर जैकेट के साथ बड़ी आराम से पेयर कर सकतीं हैं साथ ही मैचिंग लेगिंग्स पहनकर एक सिंपल एथलीजर का लुक भी ले सकतीं हैं.

थर्मल फ्लीस स्टौकिंग्स

सामान्य लेगिंग्स की अपेक्षा थर्मल लेगिंग्स फ़्लीस फर के साथ आतीं हैं ये काफ़ी सॉफ्ट और गर्म होतीं है। जिससे शरीर के निचले हिस्से को काफ़ी गर्मी मिलती है. सॉलिड कलर वाली और स्किनी फिटिंग वाली ये लैगिंग्स काफी ट्रेंडी हैं और आपको बेहद स्मार्ट लुक देतीं हैं. आप अपनी पसंद के अनुसार कलर च्वाइस कर सकतीं हैं.

स्टोल्स और स्कार्फ

कुछ समय पूर्व तक जहां स्टौल्स और स्कार्फ को सर्दियों के दिनों में कानों और गर्दन को गर्माहट देने के लिए प्रयुक्त क्या जाता था वहीं आज ये स्टाइल स्टेटमेंस होते हैं. आजकल बाजार में वूलन के साथसाथ कश्मीरी कढ़ाई वाले, अजरख, पैच वर्क वाले ट्रैडिशनल स्टोल्स भी बाजार में उपलब्ध हैं. जींस, कुर्ता या साड़ी के साथ गर्दन के चारों तरफ लपेटकर आप खुद को स्टाइलिश लुक दे सकती हैं.

Sad Love Story : चार सुनहरे दिन

Sad Love Story : रेखा ने बैग अपने कंधे पर लटकाते हुए मैनेजर से कहा, ‘‘मिस्टर जगतियानी, मुझे ही बैग ढोने की क्या जरूरत है? रामलाल भी तो…’’

‘‘नहींनहीं,’’ वह घबरा कर बोला, ‘‘बैग तो तुम्हीं रखा करो. बैंक है ही कितनी दूर,’’ फिर उस ने पुकारा, ‘‘चलो भई, रामलाल, जल्दी करो…’’

बिगड़ी पड़ी एक बस के पास मिस्त्री से तंबाकू ले रहा रामलाल लपकता हुआ आया, ‘‘आ गया, मालिक.’’

रोज की तरह वह रेखा के पीछेपीछे चल पड़ा. रेखा को उतना भारीभरकम बैग रोज ढो कर ले जाना अखरता था, किंतु मिस्टर जगतियानी को और किसी भी कर्मचारी पर भरोसा नहीं था. सुरक्षा के लिए रामलाल को वह जरूर साथ कर देता था.

रामलाल बड़ा हट्टाकट्टा, तगड़ी कदकाठी का अधेड़ आदमी था. बड़ीबड़ी मूंछें रखता था. कद 6 फुट के आसपास था, लेकिन अक्ल का कोरा था. मालिक का सब से वफादार आदमी था. सांड़ से भिड़ जाने की हिम्मत रखता था, लेकिन कोई भी उसे आसानी से बेवकूफ बना सकता था. इसलिए मैनेजर ने रेखा के साथ पहलवान जैसे रामलाल को लगा रखा था. वह दोनों के काम से संतुष्ट था.

दि रोज ट्रांसपोर्ट कंपनी के पास 20 से ज्यादा बसें थीं. अकसर कुछ खराब हो जातीं, लेकिन ज्यादातर के चलते रहने से रोज लगभग 20-25 हजार रुपए की रकम आ जाती थी. त्योहार वगैरह के दिनों में तो यह रकम 40 हजार से ऊपर पहुंच जाती थी. जगतियानी बड़ा डरपोक था. वह रात को रकम औफिस की तिजोरी में रखना नहीं चाहता था. रोज रात को चौक वाले भारतीय स्टेट बैंक की शाखा में रुपए जमा करा दिया करता था.

इस तरफ बसस्टैंड तथा एक बड़ा व्यावसायिक केंद्र होने के कारण स्टेट बैंक ने सुविधा के लिहाज से खासतौर से यह शाखा खोली थी, जो दोपहर बाद से रात के 9 बजे तक खुली रहती थी. रेखा रोज 8.50 बजे तक बैंक पहुंच जाती थी और रुपए जमा करा देती थी.

बसअड्डा होने के कारण सड़क थोड़ी चौड़ी और साफ थी. बसअड्डे के पास ही चाय और पान की कई दुकानें थीं. आगे चल कर एक अच्छा सा चायखाना भी था. फिर बैंक तक का रास्ता सूना था. रास्ता लगातार आतीजाती गाडि़यों की रोशनी से प्रकाशित होता रहता था. रेखा शुरू से बहुत डरती थी कि कोई उस का गला दबा कर या छुरा मार कर बैग छीन ले तो? किंतु अब वह अभ्यस्त हो गई थी. रामलाल के कारण उसे इत्मीनान रहता था.

चलतेचलते रेखा ने बैग को दूसरे कंधे पर रखते हुए कहा, ‘‘भई रामलाल, अगर कोई गुंडाबदमाश छुरा या पिस्तौल ले कर…’’

‘‘गुंडाबदमाश?’’ रामलाल मूंछों पर ताव देता हुआ हंसा, ‘‘बिटिया, हम एक ही हाथ में पिस्तौल, छुरा सब  झाड़ देंगे उस का. तुम चिंता न करो.’’

बैंक का कैशियर उन्हीं का इंतजार कर रहा था. रेखा के बैग से नोटों की गड्डियां निकाल कर उस ने फुरती से गिनीं. कुल 21 हजार 9 सौ रुपए मात्र. उस ने मुहर लगा कर रसीद रेखा को दे दी.

लौटते वक्त रेखा चौराहे के इधर वाले चायखाने में रोज की तरह चाय पीने चली आई. रामलाल चाय पीते वक्त बोला, ‘‘बिटिया, तुम किसी तरह की चिंता न करो. रामलाल के रहते कोई पंछी पंख भी नहीं फड़फड़ा सकता है. यहां हम को सब लोग जानते हैं. किसी ने कुछ करने की कोशिश भी की तो उठा के पटक दूंगा. हड्डीपसली सब बराबर हो जाएगी.’’

रेखा इस सीधे पर अनपढ़गंवार को कैसे सम झाती कि यह गांव का अखाड़ा नहीं है. यहां गुंडेबदमाश कुश्ती नहीं लड़ते. पीछे से कोई छुरा या गोली मार दे. वह बहुत डरती थी. लेकिन इस काम के लिए मैनेजर उसे कंपनी से 5 सौ रुपए का अतिरिक्त बोनस दिलाता था, क्योंकि उसे वह अच्छी लड़की सम झता था और उस की मदद करना चाहता था. मैनेजर जगतियानी जानता था कि रेखा पर बूढ़े पिता, एक छोटी बहन और एक लापरवाह और आवारा किस्म के छोटे भाई की जिम्मेदारी है. जगतियानी यह भी जानता था कि 30 साल की उम्र पार कर चुकी रेखा की शादी हो पाने की उम्मीद कम ही है, क्योंकि वह देखने में सुंदर नहीं है. न चेहरे से, न शरीर से. संकरा माथा, दबी नाक, भीतर धंसी छोटीछोटी आंखें. मोटे होंठ, रंग सांवला, सपाट सा शरीर, न वक्ष उभरते हुए न नितंब. देखने में लड़कों जैसी लगती थी. उम्र के असर से चेहरे पर कुछ रेखाएं भी बनने लगी थीं. वैसे लड़की कमाऊ हो तो शादी किसी तरह हो भी जाती है, किंतु रेखा अपने परिवार के भरणपोषण के खयाल से खुद ही शादी नहीं करना चाहती थी. लेकिन उस के हिसाबकिताब, अकाउंटैंसी, फाइलिंग आदि की दक्षता का जगतियानी प्रशंसक था.

लौट कर रेखा ने रसीद जगतियानी को दी और साढ़े 9 बजे की बस से घर लौट चली. वह बस उसे घर के पास के चौराहे पर ही उतार देती थी.

बस से उतर कर वह जैसे ही घर की तरफ चली थी कि अचानक पीछे से धक्का लगा और वह गिर पड़ी. धक्का एक मोटरसाइकिल से लगा था. मोटरसाइकिल वाले ने उसे उठा कर खड़ा किया और माफी मांगने लगा, ‘‘बड़ी गलती हुई. माफ कीजिए, मैडम.’’

रेखा कराहती हुई उठी. उस ने देखा, सामने एक सुंदर युवक खड़ा था. रंग गोरा, अच्छे नाकनक्श वाला, सुंदर कपड़े पहने, तंदुरुस्त. वह बोला, ‘‘आप का घर कहां है, चलिए पहुंचा दूं.’’

वैसे तो रेखा का घर पास में ही था और उसे चोट भी ज्यादा नहीं लगी थी कि किसी को पहुंचाने जाना जरूरी होता, लेकिन पता नहीं क्यों वह उस लड़के को मना नहीं कर सकी. वह उस के साथ घर तक आई.

‘‘आइए,’’ रेखा ने कहा, ‘‘चाय पी कर जाइएगा.’’

युवक तुरंत तैयार हो गया. रेखा ने उसे बैठक में बिठा दिया. बैठक बहुत सामान्य थी. जहां एक पुराना सा बदरंग सोफा पड़ा था. एक चौकी पर दरी बिछी थी. दीवारों पर पुराने कैलेंडर लगे थे. रेखा उसे बिठा कर भीतर चली गई.

चाय के 2 प्याले ले कर वह लौटी. युवक उस के बूढ़े पिता से बातें कर रहा था. बूढ़े पिता ने खोदखोद कर उस के बारे में पूछताछ की. रेखा ने सुना, नाम प्रदीप कुमार. उस के पिता हेडक्लर्क हो कर रिटायर्ड हो चुके हैं. परिवार में मां और 2 छोटे भाईबहन हैं. वह खुद एमए पास कर चुका है और नौकरी तलाश रहा है. रेखा ने दोनों को चाय दी.

रेखा के पिता ने चाय पी कर जम्हाई ली और भीतर चले गए. प्रदीप वहीं बैठा रहा. उस ने चाय पीतेपीते कहा, ‘‘चाय तो पीता ही रहता हूं, लेकिन सच कहूं रेखाजी, ऐसी चाय कभी नहीं पी मैं ने. आप ने ही बनाई होगी?’’

‘‘जी,’’ रेखा लजा गई, ‘‘आप को पसंद आई?’’

‘‘अजी, क्या कहती हैं, आप,’’ प्रदीप उत्साह से बोला, ‘‘काश, ऐसी चाय रोज मिल सकती.’’

रेखा ने साहस कर कहा, ‘‘तो रोज आ कर पी जाया करें. मैं रात को साढ़े 9 बजे लौटती हूं.’’

प्रदीप बोला, ‘‘मौका मिलेगा तो जरूर आऊंगा, मिस रेखा. आप जितनी भली हैं, उतनी ही…मेरा मतलब है कि उतना ही आकर्षण है आप में.’’

रेखा का चेहरा लाल हो गया. किसी ने आज तक उस से ऐसी बात नहीं कही थी, और यह सुंदर युवक.

‘‘आप जरूर आया करें. मैं इंतजार करूंगी.’’

तब से प्रदीप अकसर उस के घर आने लगा. रेखा के बूढ़े पिता और छोटी बहन शोभा से उस ने अच्छी घनिष्ठता बना ली. वह खुशमिजाज और बातचीत में चतुर था. शाम को आता तो साथ में कुछ नमकीन या मीठा लेता आता. 16 साल की शोभा उस के लिए चाय बनाती और वह रेखा के आने तक रुका रहता. रेखा के पिता इस मिलनसार, शरीफ युवक से बहुत खुश थे. रेखा जब आती तो फिर से चाय बनाती थी.

रविवार को रेखा की छुट्टी होती थी. उस दिन मैनेजर जगतियानी खुद रामलाल के साथ जा कर रुपए बैंक में जमा कराता था. रविवार को प्रदीप रेखा को मोटरसाइकिल से घुमाने ले जाता. कभी सिनेमा तो कभी किसी रैस्तरां में भी ले जाता.

प्रदीप रेखा की हर बात की बड़ी तारीफ करता था. कहता, ‘‘रेखा, तुम जैसी सम झदार और अच्छी लड़की मैं ने कहीं नहीं देखी.’’

31वें वर्ष में कदम रख रही रेखा को अपने लिए लड़की शब्द सुन कर गुदगुदी सी होती थी. कहती, ‘‘तुम तो मु झे बना रहे हो.’’

‘‘सच कहता हूं,’’ प्रदीप गंभीर हो जाता, ‘‘तुम हीरा हो. जो तुम्हारा हाथ थामेगा, वह बहुत खुशनसीब होगा.’’

अब तक पुरुषों की प्रशंसात्मक दृष्टि या रोमांस से अपरिचित और उस के लिए तरसती रही रेखा प्रदीप की इन बातों में भूल जाती कि वह बहुत असुंदर है, 30 साल पार चुकी है और प्रदीप उस से उम्र में छोटा और स्मार्ट युवक है. वह उस की बातों पर विश्वास कर लेना चाहती थी. वह और प्रशंसा सुनने के लिए कहती, ‘‘मैं तो इतनी बदसूरत.’’

प्रदीप हंसता, ‘‘खूबसूरती और गोरी चमड़ी को देखने वाले बेवकूफ होते हैं. स्त्री का असली सौंदर्य तो उस के भीतर छिपा रहता है, रेखा. तुम देखने में भले ही बहुत सुंदर न हो लेकिन तुम में एक जबरदस्त आकर्षण और सम्मोहन है. उसे तुम क्या जानो.’’

और, रेखा के ऊपर जैसे नशा छा जाता. घर लौट कर वह आईने में खुद को निहारती रहती. क्या सच में वह आकर्षक है? आईना तो उस का वही पुराना अक्स दिखाता है. किंतु उसे लगता, वह आकर्षक हो गई है.

प्रदीप पिछले रविवार को उसे शहर के बाहर  झील के किनारे बने रैस्तरां ले गया था. वहां  झील के पास  झाड़ीनुमा पेड़ों के बीच बैठने के लिए अलगथलग मेजें लगी हुई थीं. बैरे सामने के होटल से सामान ला कर परोसते. लोग आजादी के मजे लेते हुए खातेपीते, प्राकृतिक दृश्यों का आनंद लेते.

प्रदीप ने डोसे, चिप्स और कौफी का और्डर दिया.

‘‘यहां कितना अच्छा लग रहा है,’’ रेखा विभोर थी, ‘‘सच प्रदीप, मैं पहले कभी यहां नहीं आई, बल्कि मैं तो कहीं किसी होटल या रैस्तरां में भी नहीं जाती. अकेली…’’

‘‘छोड़ो, अब तुम अकेली नहीं हो, रेखा,’’ प्रदीप ने बड़े प्यार से कहा, ‘‘मैं तुम्हारा दोस्त हूं, अब.’’

‘‘मेरी दोस्ती से तुम्हें क्या मिलने वाला है?’’ रेखा ने उसे टटोलना चाहा.

प्रदीप हंसा, ‘‘मु झे तुम्हारा साथ ताजगी से भर देता है. सच मानो, जिंदगी में बहुत सी सुंदर लड़कियां मिलीं, लेकिन किसी से इतना प्रभावित न हुआ जितना तुम से.’’

‘‘ झूठे…’’ रेखा व्याकुलता से उसे देखने लगी.

‘‘सच, तुम मेरे लिए संसार की सब से सुंदर और योग्य लड़की हो.’’

‘लड़की’ शब्द से रेखा रोमांचित हो उठी. प्रदीप के मुंह से वह बारबार लड़की शब्द सुनना चाहती थी. बोली, ‘‘मैं और लड़की. लड़की तो शोभा है.’’

‘‘शोभा?’’ प्रदीप हंसा, ‘‘वह बच्ची है. उस में वह सुंदर नारीत्व कहां है? छोड़ो रेखा, मैं आज तुम्हारे सिवा और किसी का नाम नहीं लेना चाहता बीच में.’’

‘‘क्या, सच?’’ रेखा कुछ आगे  झुकी, ‘‘सो, क्यों भला?’’

‘‘क्योंकि…बुरा न मानो, तो सच कहूं…’’ प्रदीप ने गंभीरता से कहा, ‘‘मैं तुम्हें प्यार करता हूं.’’

रेखा के कान सनसना उठे. कुछ देर तो जैसे उसे होश ही न रहा. प्रदीप ने उस के हाथों को दबा कर सचेत किया, ‘‘बैरा आ रहा है.’’

बैरा आया, क्या रख गया, रेखा को कुछ होश ही नहीं था. वह तो प्रदीप की बात के नशे में मस्त थी. प्रदीप ने उस का हाथ दबाया, ‘‘खाओ…’’

उस दिन का नाश्ता रेखा को अपने जीवन का सब से स्वादिष्ठ नाश्ता लगा. वह तरंगों में  झूल रही थी. उस ने सोचा भी न था कि उस के जीवन में कभी कोई ऐसा मौका आएगा, जब कोई सुंदर युवक उसे कहेगा, ‘तुम बड़ी सुंदर हो, मैं तुम्हें प्यार करता हूं,’ वही आज अचानक हो गया है.

लौटते समय प्रदीप ने कहा, ‘‘आज तुम मेरे घर चलो तो कैसा रहे?’’

रेखा बोली, ‘‘तुम्हारे घर वाले क्या सोचेंगे?’’

‘‘आज तो घर पर सिर्फ मेरे पिताजी हैं. मां और भाईबहन एक नातेदारी में शादी में गए हुए हैं. तुम्हें अपने पिताजी से मिलाऊं.’’

उस ने रेखा के जवाब का इंतजार किए बिना ही मोटरसाइकिल मोड़ दी. शहर के दूसरे किनारे बसे एक छोटे से साधारण दोमंजिला घर के आगे मोटरसाइकिल खड़ी की, ‘‘मेरा गरीबखाना.’’

रेखा के साथ बरामदे में आ कर उस ने घंटी बजाई. कई बार बटन दबाया, किंतु दरवाजा नहीं खुला. बोला, ‘‘पिताजी जरूर घूमने निकले हैं. 9 बजे रात तक लौटते हैं. खैर, कोई बात नहीं, मेरे पास भी चाबी है.’’

अपनी चाबी से दरवाजा खोल कर वह रेखा को भीतर लाया. साधारण सी बैठक. सोफा, टीवी, दीवान आदि से सजा हुआ. एक तरफ भीतर जाने का दरवाजा.

प्रदीप भीतर देख आया. बोला, ‘‘जरूर वे बाहर हैं. खैर, उन के आने तक बैठते हैं. तुम्हें जल्दी तो नहीं है?’’

रेखा ने कहा कि उसे कोई जल्दी नहीं है.

‘‘तो आज मेरी ही बनाई चाय पियो,’’ प्रदीप हंसा, ‘‘तुम्हारे जैसी तो क्या बनेगी, किंतु…’’

वह भीतर चला गया. रेखा की आंखों के आगे रंगीन सपने तैरते रहे. प्रदीप उसे प्यार करता है? अपने पिता से मिलाने लाया तो है. अगर शादी हुई तो वह इसी घर में आएगी.

प्रदीप चाय ले आया. रेखा को वह मामूली चाय भी अमृत जैसी लगी प्रदीप ने बनाई थी इसलिए. प्रदीप ने उस का हाथ अपनी हथेली में दबा कर कहा, ‘‘रेखा, तुम मु झ से प्यार करती हो?’’

रेखा शरमा गई. उस की आंखें जैसे शराब के नशे में थीं. प्रदीप बोला, ‘‘तुम्हारी आंखें सच बता रही हैं. हम दोनों जल्द शादी करेंगे.’’

‘‘सच?’’ रेखा ने ऐसे कहा जैसे बच्चे को मिठाई देने का वादा किया गया हो और वह उस पर विश्वास नहीं कर पा रहा हो.

प्रदीप बोला, ‘‘बिलकुल सच. मेरे घर वाले मेरी बात नहीं टालेंगे. हां, तुम्हारे पिताजी की राय.’’

‘‘वह तो तुम्हें बहुत अच्छा लड़का सम झते हैं. खुशी से राजी हो जाएंगे. लेकिन प्रदीप, क्या सच कहते हो या यह सब सपना है?’’

‘‘सपना?’’ प्रदीप उस के नजदीक आ गया. उसे आलिंगन में कस कर उस के होंठों पर अपने होंठ रख दिए. चाय पीने के बाद ही से रेखा पर अजीब सी मदहोशी छाने लगी थी. बदन में कामोत्तेजना सनसनाने लगी थी. चाहती थी, प्रदीप उसे आलिंगन में ले कर पीस डाले. 31 साल के एकाकी, शुष्क और पुरुषस्पर्श से वंचित उस के नारीत्व में बाढ़ सी आ गई. वह प्रदीप से लिपट गई. वह कब उसे भीतर के कमरे में ले गया, उसे पता ही न चला.

प्रदीप उसे रात 8 बजे घर पहुंचा गया था. उस समय तक प्रदीप के पिता घूम कर वापस नहीं लौटे थे, इसलिए उन से भेंट न हुई. प्रदीप ने रेखा के पिता के चाय पीने का अनुरोध नम्रतापूर्वक अस्वीकार करते कहा कि आज घूमतेफिरते कई बार चाय पी चुके हैं, सो माफ करें. रेखा ने रात को खाना नहीं खाया. शोभा से कह दिया कि उस ने भारी नाश्ता कर लिया है. असल में उस की आत्मा ऐसी तृप्त हो गई थी कि सिर्फ सो जाने का मन हो रहा था.

रातभर रेखा के बदन में मीठी टूटनभरी खुमारी छाई रही. पहली बार का यह पुरुष संसर्ग उसे एक ऐसे अद्भुत लोक में ले गया, जहां वसंत के सिवा कुछ नहीं होता. रातभर मीठे सपने आते रहे.

सुबह जागी तो बदन में मीठे दर्द के साथ ताजगी भी थी. नहाधो कर वह कार्यालय पहुंची. दिनभर उस का मन घबराता रहा और सोचती रही कि शायद अब प्रदीप न मिले.

लेकिन प्रदीप मिला. वह रोज की तरह रामलाल के साथ रुपए जमा करा कर साढ़े 9 बजे आई, तो वह चौराहे पर ही खड़ा था.

‘‘रेखा…’’

रेखा चौंक पड़ी. उस का मन खिल उठा. सामने प्रदीप था. वह धीरेधीरे उस के पास आई, तो वह बोला, ‘‘कैसी हो?’’

रेखा उस से आंखें मिलाने में शरमा रही थी. प्रदीप बोला, ‘‘आओ, मोटरसाइकिल पर बैठो.’’

‘‘घर सामने ही तो है,’’ रेखा बोली.

वह धीरे से बोला, ‘‘तुम्हारा असल घर तो वह है जहां हम अभी चलेंगे, रेखा रानी. आओ, बैठो.’’

रेखा रोमांचित हो उठी. मंत्रगुग्ध सी मोटरसाइकिल के पीछे आ बैठी. प्रदीप अपने घर की तरफ चल पड़ा. रेखा का बदन बारबार सिहर रहा था. प्रदीप उसे भीतर के कमरे की ओर ले चला, तो बोली, ‘‘तुम्हारे पिताजी?’’

‘‘आज वे भी शादी में चले गए हैं. सभी लोग 15-20 दिनों बाद लौटेंगे. मेरठ में हैं. हमें बिलकुल आजादी है.’’

रेखा के अंतर्मन में कुछ खटक रहा था. लेकिन वह भी अपने भीतर की प्यास बु झाने का लोभ रोक नहीं पाई. उस दिन भी दोनों पिछले दिन की तरह ही आनंद में डूबते चले गए.

तब से जैसे रोज का यह नियम बन गया. प्रदीप का घर ऐसी जगह पर था जहां आतेजाते पड़ोसियों की नजर नहीं पड़ती थी. रेखा भी अब पुरुष संसर्ग की आदी हो गई थी. वह बहुत संतुष्ट और प्रसन्न थी. एक दिन उस ने कहा, ‘‘प्रदीप, मान लो, कुछ गड़बड़ी हुई तो?’’

प्रदीप ने उसी दिन उसे घर पहुंचाते वक्त दवा की दुकान से गोलियों का एक पैकेट खरीद दिया, और बताया, ‘‘इस में से एक गोली रोज लेनी है, फिर तो निश्चिंत…’’

एक दिन रेखा औफिस जा रही थी कि प्रदीप अपनी मोटरसाइकिल पर तेजी से जाता हुआ दिखा. वह ठिठक गई. प्रदीप के पीछे एक गोरी, सुंदर सी लड़की बैठी हंसहंस कर उस से बातें करती जा रही थी. प्रदीप ने उसे नहीं देखा. मोटरसाइकिल तेजी से आगे बढ़ गई.

उस दिन रेखा से अपने काम में कई बार भूल हुई. मैनेजर जगतियानी ने  झल्ला कर कह दिया, ‘‘तबीयत ठीक नहीं है तो घर जा कर आराम करो.’’

रेखा ने यही उचित सम झा. वह घर आ गई. उस दिन वह जैसे अंगारों पर लोटती रही. शाम को वह चौराहे पर गई जहां बस रुकती थी और जहां उसे प्रदीप मिलता था. आज वह नहीं मिला. रेखा की वह रात जागते बीती. ईर्ष्या से वह जली जा रही थी. प्रदीप उसे धोखा दे रहा है क्या? यह तो रेखा से सच्चे प्रेम की बात कहता है और वह लड़की. कहां वह स्मार्ट, खूबसूरत यौवन से छलकती हुई नवयौवना, और कहां खुद रेखा. सपाट से बदन वाली असुंदर, अधेड़ कुमारी.

अगला दिन भी उसी तरह कांटों पर लोटते बीता. रात में वह घर के पास बस से उतरी, तो प्रदीप खड़ा मिला. रेखा ने तुरंत पूछा, ‘‘कल सवेरे तुम्हारे साथ वह कौन लड़की थी, प्रदीप?’’

‘‘लड़की?’’ प्रदीप ने पलभर सिर खुजलाया. हंस कर बोला, ‘‘ओह…याद आया…ललिता. हां, वह मेरी अपनी चचेरी बहन है, ललिता. मैं ने तुम्हें बताया तो था कि मेरे छोटे चाचाजी का घर यहीं है. कल ललिता का जन्मदिन था. उस ने मु झे भी निमंत्रण दे रखा था. सवेरे ही मेरे घर आई थी और मु झे कुछ खरीदारी के लिए अपने साथ बाजार ले गई थी. वहीं तुम ने देखा होगा. कल शाम को वहीं फंसा रहा था, तभी तो तुम से नहीं मिल पाया. क्या हुआ?’’

‘‘ओह.’’

प्रदीप मुसकराया, ‘‘तुम्हें कुछ गलतफहमी हो गई है क्या?’’

‘‘नहीं तो,’’ रेखा लज्जित हो कर बोली, लेकिन उस की आंखें कुछ और ही कह रही थीं.

प्रदीप हंस पड़ा. बोला, ‘‘रेखा, तुम निश्ंचत रहो. तुम्हारे सिवा मेरे जीवन में और कोई स्त्री न है, न रहेगी.’’

और वह उसे अपने घर ले गया. रेखा अब पुरुष संसर्ग की आदी हो चली थी. अकसर वह पूछती, ‘‘हम शादी कब करेंगे, प्रदीप? बहुत देर हो रही है…’’

प्रदीप कहता, ‘‘डार्लिंग, पिताजी ने पहले एक जगह मेरी शादी की बात चलाई थी. असल में, मेरी बड़ी बहन की शादी के लिए उन्होंने कर्ज लिया था और कर्ज पटाने के लिए उन लोगों की लड़की से मेरी शादी की बात तय कर दी थी. इस तरह वे लोग अपना रुपया छोड़ देते, अलग से दहेज भी दे रहे थे. लेकिन वह लड़की मु झे बिलकुल पसंद नहीं है. मैं ने इनकार कर दिया.’’

रेखा सन्न रह गई. बोली, ‘‘तुम्हारे पिताजी यदि तुम पर जोर दे कर…’’

‘‘नहीं, मैं ने साफ इनकार कर दिया है. लेकिन पिताजी का कहना है कि वे उन लोगों का कर्ज अपनी पैंशन से नहीं चुका सकेंगे, वे लोग हमारा घर नीलाम कराने की धमकियां दे रहे हैं.’’

रेखा ने सूखे गले से पूछा, ‘‘तब तुम क्या करोगे?’’

इसीलिए तो मैं नौकरी ढूंढ़ रहा हूं. मैं ने पिताजी से कह दिया है कि नौकरी कर के उन्हें हर महीने अपना वेतन देता रहूंगा और कर्ज पट जाएगा. लेकिन नौकरी मिले तब तो.’’

रेखा चिंता में पड़ गई थी. प्रदीप को यदि नौकरी न मिली, और कर्ज के दबाव में वह वहां शादी के लिए राजी हो गया, तो…

3 दिनों के बाद प्रदीप वहीं मिला, बस स्टौप पर. घबराया हुआ सा था. बोला, ‘‘डार्लिंग, कुछ जरूरी बातें करनी हैं. चलो…’’

वह उसे अपने घर नहीं, पास के एक रैस्तरां में ले गया. एक केबिन में बैठ कर सैंडविच और चाय का और्डर दिया और धीरेधीरे कहने लगा, ‘‘डार्लिंग, मैं आज तुम से विदा लेने आया हूं.’’

रेखा सन्न रह गई, ‘‘विदा लेने…’’

‘‘हां, बात बिगड़ गईर् है. लड़की वालों ने अपनी बेटी की शादी कहीं और तय कर दी है. यह तो मेरे सिर से एक बला टली, लेकिन अब वे लोग सख्ती से अपना रुपया मांग रहे हैं. पिताजी पर दबाव डाल रहे हैं. दबंग आदमी हैं, बड़ी विनतीचिरौरी करने पर 3 दिनों का समय दिया है. वरना घर नीलाम करा लेंगे.’’

‘‘तो?’’ सूखे गले से रेखा ने पूछा.

‘‘मैं ने सोचा है कि मैं कहीं भाग जाऊं. पिताजी उन लोगों पर मेरे अपहरण का केस दायर कर देंगे. यों वे हमारा घर नहीं ले सकेंगे. मामला चलेगा, और फिर देखा जाएगा. शायद मु झे बाहर नौकरी मिल जाए. तब सब ठीक हो जाएगा.’’

रेखा ने कांपते स्वर में पूछा, ‘‘फिर कब लौटोगे?’’

‘‘फिलहाल तो भागना ही पड़ेगा, लौटने का कुछ ठीक नहीं. शायद न भी लौटूं. नौकरी के बिना या रुपए की व्यवस्था के बिना लौटने पर तो अपहरण का केस भी टिक न सकेगा. इसलिए अलविदा.’’

रेखा चुप रही. उस के दिल में तूफान चल रहा था. इधर पुरुष सहवास का जो अनोखा आनंद उसे मिला था वह उस के लिए एक अनिवार्य नशा जैसा हो गया था. वह इतने सुख के दिन बिताने के बाद अब इसे हाथ से नहीं जाने देना चाहती थी. भागने के बाद प्रदीप का उस से शादी कर पाना मुश्किल हो जाएगा. न जाने कहांकहां छिपता फिरेगा. वह सोचने लगी कि क्या उस को फिर से अकेले जीवन गुजारना पड़ेगा? सवेरे से शाम तक सूखे रजिस्टरों, लेजरों में सिर खपा कर पैसे बैंक पहुंचाना, लौट कर थके शरीर से अकेली बिस्तर पर रात काट देना और सवेरे उठ कर फिर उसी एकरस दिनचर्या की तैयारी. उस का मन जैसे हाहाकार कर उठा. कांपते स्वर में बोली, ‘‘कितने पैसे देने हैं उसे?’’

‘‘ठीक से पता नहीं,’’ प्रदीप लापरवाही से बोला, ‘‘लेकिन पिछले साल तक यह 32 हजार रुपए के लगभग था. सूद की मोटी राशि जुड़ती रहती है. सो, अब 40 हजार रुपए से कम क्या होगा. लेकिन क्या फायदा इस गिनती से. न मैं यह जुटा सकता हूं न पिताजी. ये लोग इतने खूंखार हैं और कह चुके हैं कि 3 दिनों में रुपया न मिला तो मेरे हाथपैर तोड़ देंगे. मु झे तो भागना पड़ेगा ही.’’

रेखा कांप गई. इस बीच बैरे ने खाने का सामान ला कर रख दिया. रेखा ने उसे छुआ भी नहीं. बोली, ‘‘क्या तुम्हारे चाचाजी कुछ मदद नहीं करेंगे?’’

‘‘चाचा.’’ प्रदीप फीकी मुसकान से बोला, ‘‘वे तो उड़ाऊखाऊ आदमी हैं. उन के पास पैसा कहां. उन्हें इस साल ललिता की शादी भी करनी है. उस के लिए कर्ज लेने वाले हैं.’’

प्रदीप आगे बोला, ‘‘खाओ, चिंता मत करो. वही तरीका ठीक है कि मैं यहां से भाग जाऊं. यहीं से चला जाऊंगा. मोटरसाइकिल एक दोस्त के घर पर रख कर मैं स्टेशन चला जाऊंगा.’’

‘‘क्या पैसे की कुछ भी व्यवस्था नहीं कर सकते?’’ रेखा बोली, ‘‘मेरे पास 3 हजार रुपए हैं.’’

प्रदीप फीकी हंसी हंसा, ‘‘कभी शौक से मोटरसाइकिल ली थी. आज बेच दूं तो शायद 7-8 हजार रुपए मिलें. ये 10 हजार रुपए हुए. लेकिन 30 हजार रुपए का सवाल रह जाता है. नहीं भई, यों नहीं होगा. मु झे भागना पड़ेगा.’’

रेखा कुछ सोच कर बोली, ‘‘मैं रुपए की व्यवस्था कर दूं तो?’’

‘‘तुम?’’ प्रदीप चौंका, ‘‘तुम कहां से लाओगी 30 हजार रुपए?’’

‘‘मैं ला दूंगी.’’

‘‘क्या अपने पिताजी से मांगोगी? तब तो.’’

‘‘ उन से मतलब नहीं, और न उन के पास हैं. मैं इंतजाम कर दूंगी. मु झे जरा सोचने दो.’’

‘‘जरूर औफिस से लोन लोगी, लेकिन वे इतनी रकम दे देंगे? 3 दिनों में ही चाहिए.’’

‘‘मैं तुम्हें ला दूंगी रुपए, बस. फिर तो तुम्हें घर छोड़ने की जरूरत न होगी?’’

‘‘नहीं तो,’’ प्रदीप खुश हो कर बोला, ‘‘तब क्यों कहीं जाऊंगा. रुपए उन हरामियों को सूद समेत चुका कर निश्ंिचत हो जाएंगे हम लोग. फिर तो ठाट से हमारी शादी अगले लगन में ही पक्की सम झो.’’

‘‘क्या सच में?’’ रेखा उत्सुक हुई.

‘‘बिलकुल सच. तब बाधा ही क्या रहेगी भला. लेकिन मैं नहीं सम झ सकता कि कैसे.’’

‘‘छोड़ो. तुम ऐसा करना कि कल सवेरे ठीक साढ़े 9 बजे वहीं मिलना जहां बस खड़ी होती है.’’

रात में रेखा गंभीरता से विचार करती रही. रोज वह कंपनी का जो रुपया जमा कराती है, वह आजकल 30 हजार रुपए से ज्यादा ही होता है. दीवाली नजदीक है, बसों में भीड़ होने लगी है.

2 दिनों बाद भीड़ और बढ़ जाएगी. उसे वही रुपया हथियाना होगा. कंपनी बहुत बड़ी है और रोज इतना रुपया जमा होता है. एक दिन की आमदनी यदि न भी जमा हो तो क्या फर्क पड़ता है.

रेखा के जीवन का सवाल है. 8 साल से उस ने यहां मेहनत की है. वेतन सिर्फ

3 हजार रुपए मिलता है, जबकि रेखा 2-3 लोगों के बराबर काम अकेली कर देती है. अकाउंटैंसी, फाइलिंग, कौरेस्पौंडेंस, रुपए जमा कराना. उस के परिश्रम से कंपनी को लाखों रुपए का लाभ होता रहता है. क्या उसे 8 साल के कुछ बोनस का अधिकार नहीं? कंपनी को तो चाहिए कि उसे कम से कम 4 हजार रुपए वेतन दे. इसी बहाने वह अपना घाटा भी पूरा कर लेगी. इस में कुछ दोष या पाप बिलकुल नहीं. रेखा का जीवन बनेगा, एक परिवार का बचाव होगा, और कंपनी का कुछ खास नहीं बिगड़ेगा.

रातभर वह इसी उधेड़बुन में रही. सवाल केवल रामलाल का था. उस सीधे आदमी को आसानी से उल्लू बनाया जा सकता है. उस ने एक उपाय सोचा.

सवेरे देर से जागी. उस का मुर झाया चेहरा देख कर शोभा ने पूछा, ‘‘क्या तबीयत खराब है?’’ उसे टाल कर वह समय पर औफिस के लिए चल दी. साढ़े 9 बजे बसस्टौप पर प्रदीप पहले से मौजूद था.

रेखा ने कहा, ‘‘मेरे साथ थोड़ी दूर तक टहलने चलो. राह में बातें करेंगे.’’

चलते हुए उस ने प्रदीप को धीरेधीरे अपनी योजना बतानी शुरू की. फिर कहा, ‘‘बैंक और उस चाय की दुकान को तो जानते ही हो. चाय की दुकान और बैंक के बीच नीम का एक बड़ा मोटा सा पेड़ है. रात में वह सड़क सूनी रहती है. बैंक के पास 1-2 दुकानें हैं, जिन की रोशनी वहां तक आती है. पेड़ से बैंक का फासला मुश्किल से सौडेढ़सौ कदम होगा. तुम पेड़ के पीछे रहना. और जो सम झाया है, वही करना. हां, वह चीज आज मु झे किसी तरह औफिस में दे देना.’’

‘‘कुछ मुश्किल नहीं,’’ प्रदीप बोला, ‘‘मैं पेड़ के पास रहूंगा. मोटरसाइकिल भी है. ठीक से चेक किए रखूंगा. वह चीज तुम्हें आज किसी के हाथों पहुंचा दूंगा.’’

‘‘तुम खुद औफिस क्यों नहीं आते? तुम्हें कौन जानता है वहां?’’

‘‘असल में, मु झे दिन में कुछ जरूरी काम है, डार्लिंग. लेकिन, मैं पहुंचा दूंगा, तुम निश्चिंत रहो.’’

रेखा को उस दिन भी उखड़े मूड में काम करते देख जगतियानी ने पूछा, ‘‘क्या आज भी तबीयत खराब है, रेखा? तब तो भई, घर जा कर…’’

‘‘नहीं सर, बस यों ही.’’ वह चुस्ती दिखाती हुई काम करने लगी. हिसाब निबटाते हुए दिमाग उस तरफ लगा था जो प्रदीप को सम झाया था. अब होथियारी रखनी है.

12 बजे छोकरे से उस ने चाय मंगवाई. चाय आईर् ही थी कि एक बाहरी लड़के ने आ कर कहा, ‘‘आप रेखाजी हैं?’’

‘‘हां,’’ वह सतर्क हुई, ‘‘क्या बात है?’’

‘‘यह लीजिए,’’ लड़के ने उसे एक पुडि़या दी और तुरंत लौट गया. मैनेजर 2-3 लोगों से बातें कर रहा था. अपनी जगह से ही पूछा, ‘‘क्या बात है? कौन छोकरा….’’

‘‘किसी रमेश के बारे में पूछ रहा था, सर,’’ उसे विश्वास था जगतियानी ने पुडि़या लेते देखा नहीं है, ‘‘मैं ने कह दिया यहां कोई रमेश नहीं रहता.’’

धीरे से पुडि़या मुट्ठी में दबा कर वह बाथरूम चली गई. वहां उसे खोला, 2 सफेद गोलियां थीं. पुडि़या ठीक से लपेट कर ब्रा में छिपा ली और निकल आई.

समय बीत नहीं रहा था. किसी तरह साढ़े 8 बजे. नोट गिने गए. आज तो पूरे 38 हजार 3 सौै रुपए हुए. रजिस्टर पर हिसाब चढ़ा कर रुपयों को बैग में रख कर वह रामलाल के साथ निकल गई.

रेखा का मन कांप रहा था. उसे हलका पसीना आने लगा था. वह पहली बार ऐसा काम करने जा रही थी, जो उसे वर्षों के लिए जेल भिजवा सकता था. नौकरी तो जाती ही. लेकिन जिंदगी में ऐसे भी क्षण आते हैं जब आदमी जुआ खेलने को मजबूर हो जाता है.

अब पीछे कदम हटाना कठिन था.

बसअड्डे पर चाय और पान की दुकानें थीं, किंतु रेखा थोड़ा आगे वाली दुकान पर बैंक से लौटते वक्त रोज चाय पीती थी. वहां पहुंची तो बोली, ‘‘भई रामलाल, आज मेरे सिर में दर्द है. अभी चाय पीते चलें, अभी टाइम है.’’

रामलाल आसानी से मान गया, ‘‘चलो बिटिया, मु झे भी भूख लगी है. एकाध बिस्कुट भी ले लेना.’’

वे चायखाने में आए तो 2-3 लोग ही थे. रेखा ने जल्दी 2 चाय लाने को कहा. चाय तुरंत आ गई. वह रामलाल से बोली, ‘‘खुद ही जा कर बिस्कुट ले लो. नौकर गंदे हाथ से निकालता है.’’

रेखा ने कोने की जगह चुनी थी. रामलाल बिस्कुट लाने काउंटर की ओर गया तो उस ने वे गोलियां निकाल कर चाय में डाल दीं. ऐसा करते उसे किसी ने नहीं देखा. बिस्कुट ले कर रामलाल लौटा तो बोली, ‘‘जल्दी करो.’’

रामलाल ने बिस्कुट खा कर जल्दी से चाय पी ली. पैसे चुका कर रेखा चली तो बैंक बंद होने में कुल 7 मिनट बाकी थे. थोड़ी दूर आगे बैंक था. चायखाने के आगे कुछ बढ़ कर नीम का वह पेड़ था. रेखा ने गौर से देखा. उधर कोई था.

रामलाल ने कहा, ‘‘बिटिया, मेरा सिर चकरा रहा है.’’

‘‘खाली पेट थे, सो, गैस चढ़ी होगी,’’ रेखा बोली.

कांपते गले से रामलाल बोला, ‘‘हाथपैर सनसना रहे हैं, बिटिया. मु झे तो नींद आने लगी है.’’

‘‘कोईर् बात नहीं, अभी बैंक पहुंचते हैं. आराम कर लेना, ठीक हो जाओगे.’’

पेड़ के पास पहुंचने के लिए उस का कलेजा उछल रहा था. जैसे ही वे पेड़ के नीचे आए. उस के पीछे से कोई उछल कर निकला और रामलाल के सिर पर किसी चीज से चोट की. रामलाल लड़खड़ा कर गिर पड़ा. वह आदमी रेखा की ओर  झपटा, उस ने देख लिया प्रदीप था. कुछ कहने ही वाली थी कि प्रदीप ने  झटके के साथ उस के कंधे से बैग ले लिया और भिंचे गले से बोला, ‘‘धन्यवाद.’’

रेखा हतबुद्धि थी. उसे खुद बैग प्रदीप को देना था, लेकिन यह गुंडों, अपराधियों की तरह छीन लेना. उस ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला कि प्रदीप के पीछे खड़ी मोटरसाइकिल पर उस की नजर पड़ी पिछली सीट पर एक लड़की. रेखा ने पलक मारते उसे पहचान लिया. वही लड़की, जिसे प्रदीप ने अपनी चचेरी बहन बताया था. तब तक प्रदीप ने बैग उस लड़की को थमा दिया, और पीछे मुड़ा, ‘‘अब.’’

पलक  झपकते उस का हाथ उठा, रेखा को पता नहीं चला कि किस चीज से उस पर जोरदार चोट की गई है. उस की आंखों के आगे सितारे नाच उठे, वह नीचे गिर पड़ी.

उसे होश आया तो औफिस में बैंच पर लेटी थी. मैनेजर जगतियानी वहीं खड़ा था. उस के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं. नीचे चटाई पर रामलाल पड़ा हुआ था. उस के माथे पर पट्टी थी और डाक्टर उसे इंजैक्शन दे रहा था. रेखा का सिर फोड़े की तरह दुख रहा था. टटोला, माथे पर पट्टी लपेटी हुई थी.

‘‘क…क्या हुआ?’’ रेखा ने कमजोर आवाज में पूछा.

हाथ मलता जगतियानी बोला, ‘‘रास्ते में बदमाशों ने तुम लोगों पर हमला कर रुपए छीन लिए, और क्या. ताज्जुब तो है, रामलाल 5-6 पर भारी पड़ता है, लेकिन यह भी मार खा गया. पुलिस को फोन किया है मैं ने.’’

‘‘सब रुपए ले गए?’’

‘‘सब. यह दूसरी बार कंपनी को चूना लगा है. 2 साल पहले की बात तुम्हें याद होगी. जब दि प्रीमियर ट्रांसपोर्ट कंपनी के मैनेजर के नाम से किसी ने  झूठा फोन किया था. जब मैं 4 दिनों की छुट्टी पर गया था और मेरा असिस्टैंट मेरा काम संभाल रहा था. उस बदमाश ने  झूठा फोन किया, और जाली हुंडी मैनेजर के नकली दस्तखत बना कर ले आया था और नकद 10 हजार रुपए ले गया था. यह काम प्रीमियर ट्रांसपोर्ट के ही एक आदमी अजीत का था. पुलिस ने जांचपड़ताल की तो उसी का नाम सामने आया था लेकिन, सुबूत की कमी से वह छूट गया था. मैं छुट्टी के बीच से ही दौड़ा आया था. तुम्हें याद होगा. मैं ने उस पाजी को कोर्ट में अच्छी तरह देखा था. मामूली सूरत बदल कर उस ने जाली हुंडी से पैसे लिए और मेरे असिस्टैंट ने रुपए दे भी दिए. प्रीमियर वालों ने अजीत को नौकरी से निकाल दिया है. वह कभीकभी शहर में घूमता दिखाई देता है. मोटरसाइकिल पर घूमता है बदमाश. तुम ने शायद उसे न देखा हो. माथे पर कटे का निशान है और एक दांत आधा टूटा हुआ…’’

प्रदीप का हुलिया सुन कर रेखा का माथा घूम गया.

डाक्टर बोला, ‘‘दवाएं लिख देता हूं, मिस्टर जगतियानी.’’

डाक्टर के जाने के बाद जगतियानी ने बताया, ‘‘चाय की दुकान वाला तो बताता है कि रात में उसे मोटरसाइकिल स्टार्ट होने की आवाज सुनाई दी थी. यह काम भी उसी बदमाश का हो सकता है. अब तो पुलिस ही पता लगाएगी, आने दो.’’

रेखा का दिमाग ही सुन्न हो रहा था. प्रदीप…अजीत उस लड़की के साथ रुपए ले कर चंपत हो गया. उसे उल्लू बना गया. वह मैनेजर को कुछ नहीं बता सकती. उस की अपनी इज्जत और नौकरी का सवाल है. जो सोचा था सब उलटा हो गया. जिंदगी में हवा के  झोंके की तरह आए सुख के ये चार सुनहरे दिन चले गए. उन दिनों की बहुत बड़ी कीमत ले गया है वह.

Emotional Hindi Story : सुहानी गुड़िया

लेखिका -वीना  उदयमो

Emotional Hindi Story : आज मेरा जी चाह रहा है कि उस का माथा चूम कर मैं उसे गले से लगा लूं और उस पर सारा प्यार लुटा दूं, जो मैं ने अपने आंचल में समेट कर जमा कर रखा था. चकनाचूर कर दूं उस शीशे की दीवार को जो मेरे और उस के बीच थी. आज मैं उसे जी भर कर प्यार करना चाहती हूं.

मुझे बहुत जोर की भूख लगी थी. भूख से मेरी आंतें कुलबुला रही थीं. मैं लेटेलेटे भुनभुना रही थी, ‘‘यह मरी रेनू भी ना जाने कब आएगी. सुबह के 10 बजने को हैं, पर महारानी का अतापता ही नहीं. यह लौकडाउन ना होता तो ना जाने कब का इसे भगा देती और दूसरी रख लेती. जब इसे काम की जरूरत थी तो कैसे गिड़गिड़ा मेरे पास आई थी और अब नखरे देखो मैडम के.’’

अरविंद सुबहसुबह मुझे चाय के साथ ब्रेड या बिसकुट दे कर दवा खिलाते और खुद दूध कौर्नफ्लैक्स खा कर अस्पताल चले जाते हैं. डाक्टरों की छुट्टियां कैंसिल हैं, इसलिए ज्यादा मरीज ना होने पर भी उन्हें अस्पताल जाना ही पड़ता है.

मैं डेढ़ महीने से टाइफाइड के कारण बिस्तर पर पड़ी हूं. घर का सारा काम रेनू ही देखती है. मैं इतनी कमजोर हो गई हूं कि उठ कर अपने काम करने की भी हिम्मत नहीं होती. पड़ेपड़े न जाने कैसेकैसे खयाल मन में आ रहे थे, तभी सुहानी की मधुर आवाज मेरे कानों में पड़ी, ‘‘मां आप जाग रही हैं क्या? मैं आप के लिए चाय बना लाऊं.’’

मैं ने कहा, ‘‘नहीं, चाय और दवा तो तेरे बड़े पापा दे गए हैं, पर बहुत जोर की भूख लगी है. रेनू भी ना जाने कब आएगी. कितना भी डांट लो, इस पर कोई असर नहीं होता.’’

सुहानी बोली, ‘‘मां, आप उस पर चिल्लाना मत, आप की तबीयत और ज्यादा खराब हो जाएगी.’’

उस ने टीवी औन कर के लाइट म्यूजिक चला दिया. मैं गाने सुन कर अपना ध्यान बंटाने की कोशिश करने लगी.

थोड़ी ही देर में सुहानी एक प्लेट में पोहा और चाय ले कर मेरे पास खड़ी थी. मैं हैरानी से उसे देख कर बोली, ‘‘अरे, यह क्या किया तुम ने, अभी रेनू आ कर बनाती ना.’’

सुहानी ने बड़े धीमे से कहा, ‘‘मां, आप को भूख लगी थी, इसीलिए सोचा कि मैं ही कुछ बना देती हूं.’’

मेरा पेट सच में ही भूख के कारण पीठ से चिपका जा रहा था, इसलिए मैं प्लेट उस के हाथ से ले कर चुपचाप पोहा खाने लगी. उस ने मुझ से पूछा, ‘‘मां, पोहा ठीक से बना है ना?’’

नमक थोड़ा कम था, पर मैं मुसकरा कर बोली, ‘‘हां, बहुत अच्छा बना है, तुम ने यह कब बनाना सीखा.’’

यह सुन कर उस की आंखों में जो संतोष और खुशी की चमक मुझे दिखी, वह मेरे मन को छू गई.

जब से मैं बीमार पड़ी हूं, मेरे पति और बच्चों से भी ज्यादा मेरा ध्यान सुहानी रखती है. मेरे कुछ बोलने से पहले ही वह समझ जाती है कि मुझे क्या चाहिए.

मुझे याद आने लगा वह दिन, जब मेरे देवरदेवरानी अपनी नन्ही सी बिटिया के साथ शौपिंग कर के लौट रहे थे. सामने से आती एक तेज रफ्तार कार ने उन की कार में टक्कर मार दी. वे दोनों बुरी तरह घायल हो गए.

देवर ने तो अस्पताल ले जाते समय रास्ते में ही दम तोड़ दिया था और देवरानी एक हफ्ते तक अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझने के बाद भगवान को प्यारी हो गई.

अस्पताल में जब अर्धचैतन्य अवस्था में देवरानी ने नन्ही सलोनी का हाथ अरविंद के हाथों में थमाते हुए कातर निगाहों से देखा तो वह फफकफफक कर रो पड़े. उन की मृत्यु के बाद लखनऊ में उन के घर, औफिस, फंड, ग्रेच्युटी वगैरह के तमाम झमेलों का निबटारा करने के लिए लगभग 2 महीने तक अरविंद को लखनऊ में काफी भागदौड़ करनी पड़ी. सारी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद सलोनी की कस्टडी का प्रश्न उठा.

देवरानी का मायका रायबरेली में 3 भाइयों और मातापिता का सम्मिलित परिवार और व्यवसाय था. वे चाहते थे कि सलोनी की कस्टडी उन्हें दे दी जाए. उन के बड़े भैया बोले, ‘‘सलोनी हमारी बहन की एकमात्र निशानी है, हम उसे अपने साथ ले जाना चाहते हैं.’’

इस पर अरविंद ने कहा कि सलोनी मेरे भाई की भी एकमात्र निशानी है. वहीं अरविंद के पिताजी बोले, ‘‘सलोनी कहीं नहीं जाएगी. मेरे बेटे अनिल की बिटिया हमारे घर में ही रहेगी.”

इस पर देवरानी का छोटा भाई बिगड़ कर बोला, ‘‘मैं अपनी भांजी का हक किसी को नहीं मारने दूंगा. आप लोग मेरे बहनबहनोई की सारी संपत्ति पर कब्जा करना चाहते हैं, इसीलिए सलोनी को अपने पास रखना चाहते हैं.’’

इस विषय पर अरविंद और मांबाबूजी की उन से बहुत बहस हुई. अरविंद और बाबूजी जानते थे कि उन लोगों की नजर मेरे देवर के लखनऊ वाले मकान और रुपयोंपैसों पर थी. सलोनी के नानानानी बहुत बुजुर्ग थे, वे उस की देखभाल करने में सक्षम नहीं थे. अंत में अरविंद ने सब को बैठा कर निर्णय लिया कि अम्मांबाबूजी बहुत बुजुर्ग हैं और गांव में सलोनी की पढ़ाईलिखाई का उचित इंतजाम नहीं हो सकता, इसलिए सलोनी मेरे साथ रहेगी. अनिल का लखनऊ वाला मकान सलोनी के नाम पर कर दिया जाएगा और उसे किराए पर उठा दिया जाएगा. उस का जो भी किराया आएगा, उसे सलोनी के अकाउंट में जमा कर दिया जाएगा.

अनिल के औफिस से मिला फंड वगैरह का रुपया भी सलोनी के नाम से फिक्स कर दिया जाएगा, जो उस की पढ़ाईलिखाई और शादीब्याह में खर्च होगा.

अरविंद के इस फैसले से मैं सहम गई. उस समय तो कुछ न कह पाई, पर अपने 2 छोटे बच्चों के साथ एक और बच्चे की जिम्मेदारी उठाने के लिए मैं बिलकुल तैयार नहीं थी. अभी तक जिस सहानुभूति के साथ मैं उस की देखभाल कर रही थी, वह विलुप्त होने लगी.

मैं ने डरतेडरते अरविंद से कहा, ‘‘सुनिए, मुझे लगता है कि आप को सलोनी को उस के नानानानी को दे देना चाहिए. नानानानी और मामा के बच्चों के साथ वह ज्यादा खुश रहेगी.’’

अरविंद शायद मेरी मंशा भांप गए और मेरे कंधे पर सिर रख कर रो पड़े. कातर नजरों से मेरी ओर देखते हुए बोले, ‘‘रंजू, अनिल मेरा एकलौता भाई था. वह मुझे इस तरह छोड़ जाएगा, यह सपने में भी नहीं सोचा था. सलोनी मेरे पास रहेगी तो मुझे लगेगा मानो मेरा भाई मेरे पास है.’’

मैं ने उन्हें जीवन में पहली बार इतना मायूस और लाचार देखा था. वह बच्चों की तरह बिलखते हुए बोले, ‘‘रंजू, मेरे मातापिता और सलोनी को अब तुम्हें ही संभालना है.’’

उन को इतना व्यथित देख मैं ने चुपचाप नियति को स्वीकार कर लिया. बाबूजी इस गम को सह न पाए. हार्ट पेशेंट तो थे ही, महीनेभर बाद दिल का दौरा पड़ने से परलोक सिधार गए.

बाबूजी के जाने के बाद तो अम्मां मानो अपनी सुधबुध ही खो बैठीं, न खाने का होश रहता, न नहानेधोने का. हर समय पूजापाठ में व्यस्त रहने वाली अम्मां अब आरती का दीया भी ना जलाती थीं. वे कहतीं, ‘‘बहू, अब कौनो भगवान पर भरोसा नाही रही गओ है, का फायदा ई पूजापाठ का जब इहै दिन दिखबे का रहै.’’

उन्हें कुछ भी समझाने का कोई फायदा नहीं था. वे अंदर ही अंदर घुलती जा रही थीं. एक बरस बाद वे भी इस दुनिया को छोड़ कर चली गईं.

अरविंद अपने काम में बहुत व्यस्त रहने लगे. सामान्य होने में उन्हें दोतीन वर्ष का समय लग गया.

नन्ही सलोनी मुझे मेरे घर में सदैव अवांछित सदस्य की तरह लगती थी. उस के सामने न जाने क्यों मैं अपने बच्चों को खुल कर न तो दुलरा ही पाती और न ही खुल कर गले लगा पाती थी. मैं अपने बच्चों के साथसाथ उसे भी तैयार कर के स्कूल भेजती और उस की सारी जरूरतों का ध्यान रखती, पर कभी गले से लगा कर दुलार ना कर पाती.

समय कब हथेलियों से सरक कर चुपकेचुपके पंख लगा कर उड़ जाता है, इस का हमें एहसास ही नहीं होता. कब तीनों बच्चे बड़े हो गए और कब मैं सलोनी की बड़ी मां से सिर्फ मां हो गई, मुझे पता ही ना चला. मैं उसे कुछ भी नहीं कहती थी, पर सुमित और स्मिता को जो भी इंस्ट्रक्शंस देती, वह उन्हें चुपचाप फौलो करती. उन दोनों को तो मुझे होमवर्क करने, दूध पीने और खाने के लिए टोकना पड़ता था, पर सलोनी अपना सारा काम समय से करती थी.

मुझे पेंटिंग्स बनाने का बड़ा शौक था. घर की जिम्मेदारियों की वजह से मैं अपने इस शौक को आगे तो नहीं बढ़ा पाई, पर बच्चों के प्रोजैक्ट में और जबतब साड़ियों, कुरतों और कपड़ों के बैग वगैरह पर अपना हुनर आजमाया करती थी.

जब भी मैं कुछ इस तरह का काम करती, तो सुहानी भी अपनी ड्राइंग बुक और कलर्स के साथ मेरे पास आ कर बैठ जाती और अपनी कल्पनाओं को रंग देने का प्रयास करती. यदि कहीं कुछ समझ में ना आता, तो बड़ी मासूमियत से पूछती, ‘‘बड़ी मां, इस में यह वाला रंग करूं अथवा ये वाला ज्यादा अच्छा लगेगा.’’ उस की कला में दिनोंदिन निखार आता गया. विद्यालय की ओर से उसे सभी प्रतियोगिताओं के लिए भेजा जाने लगा और हर प्रतियोगिता में उसे कोई ना कोई पुरस्कार अवश्य मिलता. पढ़ाई में भी अव्वल सलोनी अपने सभी शिक्षकशिक्षिकाओं की लाड़ली थी.

जब कभी सुमित, स्मिता और सुहानी तीनों आपस में झगड़ा करते, तो सुहानी समझदारी दिखाते हुए उन से समझौता कर लेती. मैं बच्चों के खेल और लड़ाई के बीच में कोई दखलअंदाजी नहीं करती थी.

डेढ़ महीने पहले जब डाक्टर ने मेरी रिपोर्ट देख कर बताया कि मुझे टाइफाइड है तो सभी चिंतित हो गए. सुमित, स्मिता और अरविंद हर समय मेरे पास ही रहते और मेरा बहुत ध्यान रखते थे, पर धीरेधीरे सब अपनी दिनचर्या में बिजी हो गए.

अभी परसों की ही बात है, मैं स्मिता को आवाज लगा रही थी, ‘‘स्मिता, मेरी बोतल में पानी खत्म हो गया है, थोड़ा पानी कुनकुना कर के बोतल में भर कर रख दो.”

इस पर वह खीझ कर बोली, ‘‘ओफ्फो मम्मा, आप थोड़ा वेट नहीं कर सकतीं. कितनी अच्छी मूवी आ रही है, आप तो बस रट लगा कर रह जाती हैं.’’

इस पर सुहानी ने उठ कर चुपचाप मेरे लिए पानी गरम कर दिया. मेरी खिसियाई सी शक्ल देख कर वह बोली, ‘‘मां क्या आप का सिरदर्द हो रहा है, लाइए मैं दबा देती हूं.”

मैं ने मना कर दिया. सुमित बीचबीच में आ कर मुझ से पूछ जाता है, ‘‘मां, आप ने दवा ली, कुछ खाया कि नहीं वगैरह.”

स्मिता भी अपने तरीके से मेरा ध्यान रखती है और अरविंद भी, किंतु सलोनी उस के तो जैसे ध्यान में ही मैं रहती हूं.

आज मुझे आत्मग्लानि महसूस हो रही है. 11वीं कक्षा में पढ़ने वाली सलोनी कितनी समझदार है. मैं सदैव अपने घर में उसे अवांछित सदस्य ही मानती थी, कभी मन से उसे बेटी न मान पाई. लेकिन वह मासूम मेरी थोड़ी सी देखभाल के बदले में मुझे अपना सबकुछ मान बैठी. कितने गहरे मन के तार उस ने मुझ से जोड़ लिए थे.

मुझे याद आ रहा है उस का वह अबोध चेहरा, जब सुमित और स्मिता स्कूल से आ कर मेरे गले से झूल जाते और वह दूर खड़ी मुझे टुकुरटुकुर निहारती तो मैं बस उस के सिर पर हाथ फेर कर सब को बैग रख कर हाथमुंह धोने की हिदायत दे देती थी.

उस ने मेरी थोड़ी सी सहानुभूति को ही शायद मेरा प्यार मान लिया था. अपनी मां की तो उसे ज्यादा याद नहीं, पर मुझे ही मानो मां मान कर चुपचाप अपना सारा प्यार उड़ेल देना चाह रही है.

आज मेरा जी चाह रहा है कि मैं उसे अपने गले से लगा कर फूटफूट कर रोऊं और अपने मन का सारा मैल और परायापन अपने आंसुओं से धो डालूं. मैं उसे अपने सीने से लगा कर ढेर सारा प्यार करना चाह रही हूं. मैं उस से कहना चाहती हूं, ‘‘मैं तेरी बड़ी मां नहीं सिर्फ मां हूं. मेरी एक नहीं दोदो बेटियां हैं. अपने और सलोनी के बीच जो कांच की दीवार मैं ने खड़ी कर रखी थी, वह आज भरभरा कर टूट गई है. सलोनी मेरी गुड़िया मुझे माफ कर दो.‘‘

Bigg Boss 18 को हिट बनाने के लिए खेला जा रहा है वूमेन कार्ड…

Bigg Boss 18 : कलर्स चैनल के बिग बौस के सारे सीजन में बिग बौस 18 की टीआरपी सबसे कम है. जिसके चलते बिग बौस के मेर्कस इसी जुगाड़ में लगे हैं कि किस तरह से शो की टीआरपी बढ़ाई जाए. लिहाजा इस बार हर बार की तरह महिला प्रतियोगियों द्वारा पुरुष प्रतियोगियों को टारगेट बनाकर शो की टीआरपी बढ़ाने का सिलसिला एक बार फिर शुरू हुआ.

पिछली बार मुनव्वर फारूकी को वूमेन कार्ड के तहत बिग बौस की घर की लड़कियों द्वारा काफी प्रताड़ित किया गया था. इस बार बिग बौस 18 में प्रतियोगी अविनाश मिश्रा वूमेन कार्ड का शिकार हुए हैं. शो में दिखने के लिए बिहार की कशिश ने अविनाश को टारगेट बनाकर लाइमलाइट बटोरने की कोशिश की लेकिन बाद में जब मामला नहीं जमा तो कशिश ने अविनाश पर भयंकर आरोप लगाए  और बाकी प्रतियोगी भी जैसे चाहत पांडे,सारा, श्रुति भी शो में दिखने के चक्कर में अविनाश की बेईज्जती करते नजर आए.

प्रतियोगी रजत दलाल ने तो अविनाश को ठरकी तक कह दिया. बहती गंगा में हाथ धोते हुए ईशा सिंह जो अविनाश की गर्लफ्रैंड के रूप में दिखाई दे रही हैं और बाहर उनका शालीन भनोट जो बिग बौस के ऐक्स प्रतियोगी रह चुके है से चक्कर चल रहा है वह भी अविनाश पर इल्जाम लगाती नजर आई. ज्यादातर प्रतियोगी अविनाश को टारगेट इसीलिए बना रहे थे ताकि वह शो में दिख सके और नौमिनेशन से बच जाए. भला हो एंकर सलमान खान और शो में दिखाई जाने वाली फुटेज का जिससे सच पूरी तरह से सामने आ गया.

गौरतलब है अगर ऐसा ही कुछ बिग बौस के बाहर हुआ होता तो अविनाश का ऐक्टिंग कैरियर शुरू होने से पहले ही खत्म हो जाता. ग्लैमर वर्ल्ड में आजकल बोहत कौमन हो गया है कि अपना फायदा लेने के लिए कई लड़कियां अपने से जुड़े मर्दों पर मौलेस्टेशन के आरोप लगाती नजर आ रही है जिसमें ज्यादातर समाज और कानूनी तौर पर मर्दों को ही दोषी माना जाता है. जिसके बाद ऐसे एक्टर अपनी पर्सनल और प्रोफेशनल लाइफ दोनों जगह ही मार खाते नजर आते हैं. बिग बौस में ये कांड होने की वजह से अविनाश मिश्रा बच गए.

Kahani 2025 : मेरी बेचारी वाचलिस्ट

Kahani 2025 : आजघर के काम से थोड़ा जल्दी फ्री हो गई तो सोचा, चलो अब आराम से लेट कर आईपैड पर ‘मैरिड वूमन’ देखूंगी. जैसे ही कानों में इयरफोन लगा कर आराम से लेट कर पोज बनाया, शिमोली अंदर आई. मैं इसी घड़ी से बच रही थी. पता नहीं कैसे सूंघ लेते हैं ये बच्चे कि मां कुछ देखने लेटी है.

उस ने बहुत ही ऐक्ससाइटेड हो कर पूछा, ‘‘वाह मम्मी, क्या देखने लेटीं?’’

‘‘मैरिड वूमन.’’

शिमोली को करंट सा लगा, ‘‘क्या? आप ‘मेड’ नहीं देखेंगी जो मैं ने आप को बताई थी?’’

‘‘देखूंगी बाद में.’’

‘‘मुझे पता था जो आदिव बताता है वह तो फौरन देख लेती हैं आप.’’

‘‘अरे, फौरन कहां देखती हूं कुछ? इतना टाइम मिलता है क्या?’’

‘‘मम्मी, मुझे कुछ नहीं पता, आप पहले ‘मेड’ देखो. इतने सारे शोज बता रखे हैं आप को, आप को उन की वैल्यू ही नहीं. एक तो अच्छेअच्छे शोज बताओ, ऊपर से आप देखने के लिए तैयार ही नहीं होतीं. मैं ही आप को बताने में अपना टाइम खराब करती हूं.’’

‘‘शिमो बेटा, मेरी सारी फ्रैंड्स ने ‘मैरिड वूमन’ शो देख लिया है, मुझे भी देखनी है.’’

‘‘मतलब मेरे बताए शोज की कोई वैल्यू

ही नहीं?’’

‘‘अरे, देख लूंगी बाद में.’’

‘‘मुझे पता है अभी आदिव आप को कोई शो बताएगा, आप देखने बैठ जाएंगी.’’

वहशिमोली ही क्या जो मुझे अपनी पसंद का शो दिखाए बिना चैन से बैठ जाए, मेरे हाथ से आईपैड ले कर फौरन ‘मेड’ का पहला ऐपिसोड लगा कर दे दिया और बोली, ‘‘पहले यह देखो.’’

अब जितना टाइम था मेरे पास, उस में से काफी तो इस बातचीत में खत्म हो चुका था. मैं ‘मेड’ देखने लगी. ‘मैरिड वूमन’ आज फिर रह गया था. यह कोई आज की बात ही थोड़े ही है. यह तो मेरे मां होने के रोज के इम्तिहान हैं जो मेरे दोनों बच्चे शिमोली और आदिव लेते रहते हैं.

मैं ने अनमनी सी हो कर शो रोका और सोचने लगी कि मेरी वाचलिस्ट में कितने शोज हो चुके हैं जो मुझे देखने हैं पर कितने दिनों से देख ही नहीं पा रही. होता यह है कि आदिव और शिमोली जो शोज देखते हैं जो उन्हें अच्छा लगता है, दोनों चाहते हैं कि मैं भी जरूर देखूं. पसंद दोनों की अलगअलग है.

दोनों यही चाहते हैं कि मैं उन्हीं का बताया शो देखूं और सितम यह भी कि मुझे उस शो की तारीफ भी करनी है जो उन्हें पसंद आया हो. अगर कभी कह दो कि उतना खास तो नहीं लगा मुझे तो सुनने को मिलता है कि आप की पसंद ही नीचे की हो गई है, पता नहीं अपनी फ्रैंड्स के बताए हुए कौनकौन आम से शोज देखने लगी हूं. मतलब तुम्हारी पसंद खास, मेरी आम.

बहुत नाइंसाफी है, भई. इंसान बाहर वालों से ज्यादा अच्छी तरह निबट लेता है पर शिमोली और आदिव से डील करना मैनेजमैंट के एक पूरे कोर्स को पास करना है.

पिछले दिनों आदिव के कहने पर ‘कोटा फैक्टरी’ के दोनों सीजन देखे, उसे जीतेंद्र पसंद है तो मां का फर्ज बनता है कि वे भी शो देखे और हर ऐपिसोड पर वाहवाह करें और बेटे को थैंक्स बोल कर कहें कि वाह बेटा, तुम ने मुझे कितना अच्छा शो दिखाया नहीं तो मैं दुनिया से ऐसे ही चली जाती.

मेरी सहेली रोमा का एक दिन फोन आया. बोली, ‘‘‘बौलीवुड बेगम’  देखा? नहीं देखा तो फौरन देख ले… मजा आ गया.’’

मैं जब यह शो देखने बैठी, एक ही ऐपिसोड देखा था कि आदिव आया, बोला, ‘‘छोड़ो मम्मी, मैं बताता हूं आप को एक अच्छा शो.’’

मैं ने कहा, ‘‘यह भी अच्छा

है, अभी शुरू किया है, अच्छा लग रहा है.’’

‘‘अरे, नहीं मम्मी, आप के पास टाइम है तो देखो. रुको, मैं ही लगा कर देता हूं.’’

देखते ही देखते ‘बौलीवुड बेगम’ चला गया और सामने था ‘जैकरायान.’

यह टाइम भी तो वर्कफ्रौम होम का है, सब बाहर जाएं तो

कुछ अपनी पसंद का चैन से देखा जाए पर नहीं, पता नहीं कैसे कुछ भी देखना शुरू करते ही सब अपनीअपनी पसंद बताने आ जाते हैं. अरे, भई, मेरी भी एक बेचारी वाचलिस्ट है जो मुझे आवाजें देती रहती है. बच्चों की तो छोड़ो, बच्चों के पापा वीर भी कहां कम हैं.

उन्हें ऐक्शन फिल्म्स पसंद हैं तो वे चाहते हैं कि जब वे देखें तो मैं उन की पसंद की मूवी देखने में अपनी हसीं कंपनी दूं, उन्हें अच्छा लगता है अपनी पसंद की मूवी में मेरा साथ. जब गाडि़यां हवा में उड़ रही होती हैं, मेरा मन करता है कि किसी कोने में बैठ कर कानों में इयरफोन लगाऊं और आराम से कोई अपनी पसंद का शो देख लूं. कोशिश भी की तो वीर ने फरमाया, ‘‘अरे, नैना आओ न, तुम ने सुना नहीं? साथ मूवी देखने से प्यार बढ़ता है, एकदूसरे के साथ टाइम बिताने का यह अच्छा तरीका है, आओ न.’’

मन कहता है अरे, वीर इंसान. अकेले क्यों नहीं देख लेते एक्शन फिल्म. इस में भी कंपनी चाहिए? कोविड के टाइम रातदिन साथ बिता कर साथ रहने में कोई कसर रह गई है क्या? मुझे सस्पैंस वाली मूवीज या रोमांटिक कौमेडी अच्छी लगती है, बच्चे ऐसी मूवीज के नाम भी बताते हैं पर दोनों के बीच यह कंपीटिशन खूब चलता  है कि मम्मी किस के बताए हुए शो को देख रही हैं.

यह अच्छा नया तरीका है सिबलिंगरिवेलरी का. पुराना तरीका अच्छा नहीं था जहां बस इतने में निबट जाता था कि मम्मी ने किसे 1 लगाया, किसे 2? किसे ज्यादा डांट पड़ी, किसे कम. अब उस दिन मुझे ‘होस्टेजिस’ देखना था, हाय. रानितराय. जमाने से फैन हूं उस की. पर इतनी आसानी से कहां देख पाई, दोनों से प्रौमिस करना पड़ा कि ‘होस्टेजिस’ खत्म करते ही ‘अवेंजर्स’ और ‘द इंटर्न’ देखूंगी. देखे भी. अच्छे थे. पर मेरी अपनी लिस्ट का क्या? जब रानितराय का ‘कैंडी’ आया, मुझे न चाहते हुए भी साफसाफ कहना ही पड़ा कि अब मैं इसे देख कर ही कुछ और देखूंगी, जब तक वे शो खत्म नहीं किए, दोनों मुझे ऐसे देख रहे थे कि कोई गुनाह कर रही हूं.

अपना टाइम खराब कर रही हूं, परेशानी असल में इस बात की है कि बच्चे बड़े हो जाएं तो उन से इन छोटीछोटी बातों के लिए उलझा नहीं जाता. लगता है कि छोटी सी फरमाइस ही तो कर रहे हैं कि हमारी पसंद का शो देख लो पर इस चक्कर में अपनी वाचलिस्ट तो लंबी होती जा रही है न.

देखिए, जितनी छोटी यह प्रौब्लम सुनने में लग रही है न, उतनी है नहीं. देखने का टाइम कम हो, शोज की लिस्ट लंबी हो, दूसरों की लिस्ट उस से भी लंबी हो कि मुझे क्याक्या दिखाना है, बताइए, कितना मुश्किल है मैनेज करना. अपनी लिस्ट, शिमोली की लिस्ट, आदिव की लिस्ट, वीर की लिस्ट. मेरी अपनी बेचारी लिस्ट.

मैं यही सब सोच रही थी कि शिमोली की आवाज आई, ‘‘मम्मी, यह क्या आंखें बंद किएकिए क्या सोचने में अपना टाइम खराब कर दिया? एक भी ऐपिसोड खत्म नहीं किया ‘मेड’ का? ओह. सो डिसअपौइंटिंग. आप से एक शो ठीक से नहीं देखा जाता.’’

मैं ने कहा, ‘‘बस, मूड ही

नहीं हुआ. पता नहीं क्याक्या सोचती रह गई.’’

वह मेरे पास ही लेट गई, पूछा, ‘‘क्या सोचने लगीं मम्मी?’’

‘‘बेचारी के बारे में सोच

रही थी.’’

‘‘कौन बेचारी?’’

‘‘मेरी बेचारी वाचलिस्ट.’’

उस ने पहले मुझे घूरा, फिर हम दोनों एकसाथ जोर से हंस पड़ीं.

Hindi Kahaniyan 2025 : और नदी बहती रही…

राइटर- वीणा राज

Hindi Kahaniyan 2025 : नदी के किनारे खड़ी सुमन तरहतरह की थौट्स से घिरी हुई थी.  वह सुबह जैसे ही सो कर उठी उसे बिलकुल अच्छा नहीं लगा. वह होटल के कमरे से बाहर निकल आई और टहलते हुए गंगा के किनारे आ खड़ी हुई.

सूर्य की किरणें मिल कर पानी में इंद्रधनुषी रंग पैदा कर रही थीं जो आंखों को सुकून दे रहा था. लेकिन क्या करे मन का जिसे कहीं सुकून नहीं था.

अपने अंदर कीबेचैनी को दूर करने के लिए सुमन 2 दिन पहले बनारस आई थी पर यहां भी उसे शांति नहीं मिली. 2 दिन तो वह होटल के कमरे में बंद रही, पर आज हिम्मत कर गंगा के पास आ गई थी. उस ने सुन रखा था कि गंगा की चंचल लहरें अस्थिर मन को शांत कर देती हैं. पर यहां आ कर भी उसे चैन नहीं मिला और वह अतीती में खो गई…

4 साल पहले वह बनारस आई थी और गंगा के किनारे बैठ अपनी डायरी में कुछ लिख रही थी तभी किसी ने आ कर पूछा, ‘‘मैम, अगर आप को एतराज न हो तो मैं यहां बैठ सकता हूं?’’

उस ने नजरें टेढ़ी कर उसे देखा. बेहतरीन पर्सनैलिटी का सुदर्शन युवक. वह बोली, ‘‘जी… जगह तो बहुत है यहां. आप कहीं और जा कर भी बैठ सकते हैं.’’

‘‘जी पर मैं 3-4 दिनों से रोज शाम को आप को यहां बैठ लिखते हुए देख रहा हूं. शायद लिखने का शौक है आप को,’’ कहतेकहते वह उस की बगल में आ कर बैठ गया.

‘‘जी…’’ न चाहते हुए भी उस के सामने वह खुलने लगी, ‘‘यह गंगा का तट, घाट की सीढि़यां और सब से बढ़ कर मणिकर्णिका घाट ने हमेशा से आकर्षित किया है मुझे. इसलिए जब भी मैं फुरसत में होती हूं या अकेलापन खलने लगता है, मैं बनारस आ जाती हूं. ऐसा लगता है जैसे आवाज दे कर बुला रहा हो यह मुझे,’’ सुमन ने मुसकराते हुए कहा.

‘ओह, तब से मैं अपने बारे में ही बताए जा रही हूं,’ मन में सोच उस ने अपने दांतों से होंठ को दबा लिया, ‘‘और आप कहां से आए हैं?’’

‘‘मैं तो यहीं का रहने वाला हूं. जब कभी घरपरिवार, काम आदि से मन उचाट हो जाता है तो गंगा की गोद में आ जाता हूं,’’ उस ने मुसकराते हुए कहा पर उस की मुसकराहट में भी एक उदासी सी छिपी हुई थी.

अंधेरा घिर आया था. सड़कों और घाट के किनारे स्ट्रीट लाइट जगमगाने लगी थी. उस ने अपनी डायरी और कलम को बैग में रखा और चलने को उद्धत हुई ही थी कि उस ने फिर से कहा, ‘‘मैं अधर और आप?’’

एक अनजान को अपना नाम बताते हुए उसे झिझक महसूस हुई, फिर कहा,

‘‘मैं सुमन.’’

‘‘कब तक रुकेंगी आप यहां?’’ फ्रैंक होते हुए उस ने पूछा. फिर थोड़ी देर रुक कर बोला, ‘‘अगर आप इजाजत दें तो जब तक आप यहां ठहरेंगी मैं आप से मिलने आ सकता हूं?’’

‘‘जी… 2-4 दिन और…’’

‘‘फिर तो ठीक है. मेरा घर पास में ही है. बिना मुश्किल मैं आप से मिल सकता हूं… वह क्या है न कि साहित्य में मु?ो भी रुचि है पर पारिवारिक दबाव के कारण लिखनापढ़ना हो नहीं पाता,’’ उस ने मुसकराते हुए कहा.

फिर तो जब तक वह बनारस में रही वह रोज उस से मिलने आता रहा. कभी कचौडि़यां ले कर तो कभी लस्सी ले कर. कभीकभी वहीं चाय बेचने वाले से चाय ले कर दोनों पी लेते.

इन 2-4 दिनों में ही दोनों के बीच साहित्य को ले कर कितनी ही चर्चाएं हुईं. महाश्वेता देवी, जयशंकर प्रसाद से ले कर अमृता प्रीतम, शिवानी, धर्मवीर भारती, राजेंद्र यादव. नए लेखकों के बारे में भी उन्होंने ढेर सारी बातें कीं. उन के लिखने का तरीका. विषय सबकुछ.

बातोंबातों में पता चला कि घर में पत्नी

और बेटे के अलावा उस के पिताजी भी रहते हैं. पत्नी अकसर बीमार रहती है, जिस कारण वह ज्यादा बातचीत नहीं करती और वैसी बातें तो बिलकुल नहीं जिन से उसे थोड़ा भी तनाव हो.

सुमन ने भी अपने बारे में बताया, ‘‘उस के पति के देहांत को काफी वर्ष गुजर गए. 2 बच्चे हैं जो होस्टल में रहते हैं. अकेलेपन की साथी ये किताबें और लेखनी ही है. किसी से ज्यादा दोस्ती भी नहीं. परिवार में लोग हैं पर वे भी अपनी लाइफ में व्यस्त हैं. सब से बड़ी बात कि मैं बेचारी नहीं बनना चाहती.’’

‘‘ओह. तब तो खूब जमेगा रंग जब मिल बैठेंगे साहित्य के दीवाने,’’ अधर ने ठहाका लगाते हुए कहा.

‘‘अच्छा, अब मैं चलती हूं. आज रात

की मेरी ट्रेन है,’’ कह सुमन चलने को हुई कि आधार ने झट कहा, ‘‘कृपया आप अपना नंबर

दे दें और मेरा यह कार्ड रख लीजिए. आप मुझे कभी भी याद कर सकती हैं,’’ उस ने मुसकराते हुए कहा.

‘‘जरूर…’’

तब से ले कर अब तक 4 साल हो गए थे. सुमन जब भी बनारस आती, अधर उस से जरूर मिलता. सुमन उम्र के उस दौर से गुजर रही थी जहां उसे किसी का स्पर्श नहीं बल्कि उस के मनोभावों को समझने वाला चाहिए था. वह चाहती थी इमरोज सा प्रेम. जो अमृता के लिए था. वह ‘गुनाहों के देवता’ के चंदर सा प्रेम चाहती थी.

एक सुबह वह सो कर उठी ही थी कि मैसेज आया, ‘‘क्या तुम मुझसे प्रेम करती हो?’’

पढ़ कर वह सन्न रह गई. कब वह आप से तुम पर उतर आया था. फिर हिम्मत जुटा कर कहा, ‘‘शायद क्योंकि प्रेम के कई रूप होते हैं.’’

‘‘कैसे, कभी जता भी दिया करो.’’

‘‘जब भी बनारस से लौटती हूं, तब साथ में गंगाजल भर कर ले आती हूं जो मु?ो तुम्हारी याद दिलाता है और रात में जल्दी सोने की कोशिश करती हूं ताकि सपने में तुम्हारे लिए एक नई कहानी रच सकूं.’’

‘‘ओहो.’’

‘‘यह क्या बात हुई.’’

‘‘प्रेम ऐसे होता है क्या?’’

‘‘तो?’’

‘‘जैसे मैं करता हूं कभीकभी गंगा तट पर चला जाता हूं ताकि तुम्हारी यादों में विचर सकूं. शाम में जब तुम नहीं होती तब मैं छत पर जा कर चांद को निहारता हूं और सोचता हूं कि तुम भी चांद को निहार रही होगी. इस तरह हम दोनों ही एकसाथ होते हैं.’’

उस के मैसेज पढ़ उस की नादानी पर वह मुसकरा पड़ी. वह जानती थी कि प्रेम करना हर किसी के वश की बात नहीं. फिर भी गर्वित थी अपनेआप पर.

अभी 2 दिन पहले अकेलेपन से ऊब वह बनारस आई थी. अधर को इत्तिला कर दी थी. पर कल शाम के धुंधलके में होटल की बालकनी में बैठ जब वह चाय का कप लिए क्षितिज की ओर देख रही थी. भर रही थी आंखों में धरती और अंबर का मिलन. तभी मोबाइल पर अधर का मैसेज नमूदार हुआ, ‘‘मैं अब नहीं मिल पाऊंगा तुम से. मेरी बीवी और बच्चे मेरा इंतजार कर रहे हैं. भटक गया था मैं शायद. एक स्त्री और लेखिका होने के नाते तुम मेरी मनोस्थिति सम?ा सकती हो.’’

उस के आत्मसम्मान की तरह अंदर कुछ दरका हो जैसे उफ. इतनी घटिया सोच.

मतलब वह मुझे किसी और तरीके से परिभाषित कर रहा था. पावन प्रेम या दोस्ती पर उस की

ऐसी नजर थी. ठगी सी रह गई वह. चाय का कप हाथ से छूट कर चकनाचूर हो गया था. बिलकुल तब से नींद उस की आंखों से कोसों दूर थी. और सुबह होते ही वह दशाश्वमेध घाट की ओर चल पड़ी.

पति की मौत के बाद कितनी मुश्किल से संभाला था उस ने खुद को. अपने आत्मसम्मान को बचाए रख कर. किसी से कोई सहायता या एहसान नहीं लिया उस ने अपना और अपने बच्चों का सम्मान बरकरार रखा हमेशा.

और आज उस की थौट्स उस की जिंदगी में हलचल मचा रही थीं. सोच कर ही उस का दिमाग बोझिल हो गया. काफी देर तक वह गंगा को बहता हुआ देखती रही. मन में हजारों सवालजवाब उठ खड़े हुए गंगा को बहता देख.

तभी उस की नजर गंगा किनारे कचरे के ढेर पर पड़ी. ओह. मैं भी कितनी पागल हूं नदी जब अपने साथ लाए कचरे को किनारे पर झटक आगे निर्मल पावन हो बहती रहती है तो मैं ऐसे कचरे को अपने अंदर क्यों जगह दूं? अधररूपी कचरे को नहीं छोड़ मैं अपनी जिंदगी के बहाव को क्यों न धार दूं. सोचतेसोचते उस का मन हलका हो चला था.

वह प्रफुल्लित मन से उठी और होटल की ओर चल दी और नदी बहती रही.

कभीकभी अकेले ही पूरे करने होते हैं जिंदगी के कुछ सफर.

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