Hindi Story : स्टाफरूम से आती आवाजों ने नीता के कदम बाहर ही रोक दिए. तेजतेज उभरते स्वर कानों में हथौड़े की तरह बज रहे थे, ‘‘अरे, इतनी चालाक हो गई है आजकल की लड़कियां कि दोनों हाथों में लड्डू चाहिए उन्हें. बराबरी भी करेंगी और आरक्षण भी चाहिए. जहां लंबी लाइन देखी वहीं अपनी लाइन अलग बना लेंगी और यदि ऐक्स्ट्रा पीरियड लेने की बात आए तो लड़कियां शाम को ज्यादा देर नहीं रुक सकती कह कर पल्लू झाड़ लेंगी. फिर जैसे ही विभागाध्यक्ष बनाने की बात आई पुरुषमहिला सब बराबर. सब को समान अवसर मिलने चाहिए, इसलिए हमारे नाम पर भी गहराई से विचार किया जाए.’’
मुकुल की तेज आवाज में व्यंग्य के पुट से नीता की कनपटियों में दर्द सा उठने लगा. उस के लिए अब और खड़े रहना मुश्किल हो गया तो वह धीरे से अंदर दाखिल हुई और एक कुरसी खींच कर बैठ गई.
जैसाकि नीता को उम्मीद थी उस के अंदर घुसते ही कमरे में पूर्णतया शांति छा गई. उस ने चुपचाप कापियां जांचना आरंभ कर दिया मानो कुछ सुना ही न हो. चपरासी चाय ले आया था और इस के साथ ही वातावरण सामान्य होने लगा था. नीता ने राहत की सांस ली. स्कूलकालेज के दिनों से ही उसे बहस, वादविवाद आदि से घबराहट सी होने लगती थी. इसीलिए निबंध प्रतियोगिता में सदैव अव्वल आने वाली लड़की वादविवाद प्रतियोगिता में भाग लेना तो दूर हौल में बैठ कर सुनना भी गवारा नहीं समझती थी.
वैसे देखा जाए तो मुकुल के आक्षेप गलत भी नहीं थे. हमेशा से ही किसी भी वर्ग के कुछ प्रतिष्ठित लोगों की वजह से ही वह पूरा वर्ग बदनाम होता है. लेकिन कुछ प्रतिष्ठित लोगों के प्रयास ही उस वर्ग को रसातल से ऊपर भी खींच ले आते हैं नीता. मन में उठ रहा विचारों का अंतर्द्वंद्व फिर गंभीर वादविवाद में तबदील न हो जाए इस आश से घबरा कर नीता ने फटाफट चाय की चुसकियां लेनी आरंभ कर दीं.
तभी साथी अध्यापक विनय अपनी शादी का कार्ड ले आया, ‘‘लीजिए, आप ही बची थीं. बाकी सब को तो दे चुका हूं.’’
‘‘विनय, तुम्हारी सगाई हुए तो काफी अरसा हो गया न?’’ अपने हाथ के कार्ड को उलटपुलट कर देखते हुए मुकुल ने राय जाहिर की.
‘‘हां, सालभर से ज्यादा ही हो गया है. विनीता भी सरकारी स्कूल में सीनियर टीचर है तो इसलिए उस के यहां तबादले का प्रयास कर रहे थे पर नहीं हो पाया.’’
‘‘फिर अब?’’
‘‘अब उस ने रिजाइन कर दिया है. यहीं कहीं प्राइवेट में कर लेगी.’’
‘‘उफ, खैर किसी एक को तो एडजस्ट करना ही था,’’ मुकुल ने गहरी सांस भरी तो नीता की चुभती नजरें उस पर टिक गईं जैसे कहना चाह रही हो किसी एक को नहीं मुकुल, लड़की को ही एडजस्ट करना था. इसी से तो आप पुरुषों का ईगो तुष्ट होता है. हुंह, स्त्रियों पर दोगला होने का आरोप लगाते हैं. पहले अपने गरीबान में तो ?ांक कर देख लें. मन में कुछ और ऊपर से कुछ.
विद्यालय का वार्षिकोत्सव समीप था. तैयारी कराने वाली समिति में नीता और मुकुल का भी नाम था. नीता जितना जल्दीजल्दी काम कर शाम को जल्दी फारिग होने का प्रयास करती मुकुल उतनी ही देर लगाता. नीता उस का मंतव्य समझ रही थी. मगर उस ने भी ठान लिया था कि वह बहसबाजी में नहीं पड़ेगी बल्कि कुछ कर के दिखाएगी. वह परेशानियां झेलती रही. लेकिन एक बार भी अपनी स्त्रीसुलभ मजबूरियां बखान कर उस ने किसी की सहानुभूति उपार्जित करने का प्रयास नहीं किया.
वार्षिकोत्सव सफलतापूर्वक संपन्न हुआ तो नीता ने संतोष की सांस ली. साथी अध्यापिकाओं की प्रशंसा के बीच मुकुल के चेहरे के असंतोष को वह आसानी से पढ़ पा रही थी.
‘‘कितना मुश्किल होता है इन पुरुषों के लिए हमारी प्रशंसा को पचाना. हम इन से सहायता की गुहार किए बिना कोई कार्य कर लें, वह इन के अहं को इतना नागवार क्यों गुजरता है?’’ नीता मन ही मन सोच रही थी. पहली ही जीत ने नीता में गजब का उत्साह भर दिया था. उसे इस लड़ाई में एक आनंद सा आने लगा था.
विद्यालय की ओर से लड़केलड़कियों का एक गु्रप शैक्षणिक भ्रमण के लिए भेजा जा रहा था, जिस में नेतृत्व की कमान 3 अध्यापकों को सौंपी जानी थी. इसी संदर्भ में प्रिंसिपल ने मीटिंग बुलाई थी. टूर काफी लंबा और कठिनाइयों भरा था, इसलिए प्रिंसिपल को आशंका थी कि कोई भी अध्यापिका इस के लिए सहर्ष तैयार नहीं होगी. मगर चूंकि लड़कियां भी टूर में शामिल थीं इसलिए एक अध्यापिका को तो भेजना ही था. दुविधा में फंसे प्रिंसीपल ने अभी अपनी इस मजबूरी की भूमिका बांधना आरंभ ही किया था कि नीता ने हाथ उठा कर उन्हें हैरत में डाल दिया.
‘‘मैं टूर की कमान संभालने को तैयार हूं. आप 2 असिस्टैंट टीचर नियुक्त कर दें.’’
नीता की हिमाकत पर वैसे ही मुकुल का खून खौल रहा था और जब प्रिंसिपल ने 2 असिस्टैंट टीचर्स में एक नाम मुकुल का लिया तो मानो आग में घी पड़ गया.
मुकुल ने तुरंत किसी व्यक्तिगत मजबूरी का बहाना बना कर पीछे हटना चाहा तो प्रिंसिपल ने उसे आड़े हाथों लिया, ‘‘नीता मैडम से सीखिए कुछ. वे महिला हो कर अपनी जिम्मेदारियों से नहीं भागतीं और आप…’’
नीता ने एक कुटिल मुसकान मुकुल की ओर फेंकी तो मुकुल तिलमिला उठा.
हालांकि मन ही मन नीता जानती थी कि यह मुसकान उसे बहुत भारी पड़ने वाली है पर इस शह और मात के खेल में पीछे हटना अब उसे मंजूर नहीं था.
जैसाकि नीता को उम्मीद थी मुकुल ने साथी अध्यापक के साथ मिल कर उस की राह में पलपल परेशानियां खड़ी करने का प्रयास किया. यह तो विद्यार्थी लड़कों और लड़कियों का सहयोग था कि नीता हर बाधा लांघ कर सकुशल टूर लौटा लाई. मगर इस चूहादौड़ से अब वह पूरी तरह ऊब और थक चुकी थी.
कुछकुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया उसे अब मुकुल की ओर से भी अनुभव होने लगी थी. पहले वह बातबात में उसे काटने और नीचा दिखाने का प्रयास करता था लेकिन इधर काफी समय से वह गौर कर रही थी कि वह अब न केवल मूक दर्शक बना उसे देखता और सुनता रहता बल्कि कई अवसरों पर तो उस ने मुकुल की आंखों में अपने लिए प्रशंसा के भाव भी देखे. नीता के लिए यह एहसास सर्वथा नया और चौंकाने वाला था.
जब दूसरी ओर से कोई प्रतिप्रहार न करे तो भला इंसान इकतरफा लड़ाई कब तक जारी रख सकता है? नीता सम?ा नहीं पा रही थी कि मुकुल किसी उपयुक्त अवसर की तलाश में है या उस की मानसिकता बदल गई है? वह इस परिवर्तन को अपनी जीत के रूप में ले या हार के रूप में?
इसी दौरान विद्यालय में प्रातकालीन योग कक्षाएं आरंभ हो गईं, जिन में नियम से 2-2 अध्यापकों को ड्यूटी देनी थी. इसे संयोग कहें या दुर्योग लेकिन नीता की ड्यूटी फिर मुकुल के संग ही लगी. सवेरे जल्दी उठ कर तैयार हो कर टिफिन पैक कर निकलना नीता के लिए बेहद सिरदर्दी साबित हो रहा था. घर से स्कूल इतना दूर था कि वह बीच में समय मिलने पर आराम के लिए भी नहीं लौट सकती थी. लौटते में बाजार से सब्जी, आवश्यक सामान आदि खरीदने में अकसर शाम हो आती थी. नीता में अपने लिए खाना बनाने की ताकत भी शेष नहीं रहती थी. 2 दिनों से तो वह दूधब्रैड खा कर ही बिस्तर पर पड़ जाती थी. वापस सवेरे अलार्म से ही आंख खुल पाती.
इसी दौरान माहवारी आरंभ हो जाने से उस की हालत और भी पस्त हो गई. मगर नीता ने ठान रखी थी कि वह स्त्री होने का कोई भी लाभ उठा कर मुकुल को जबान खोलने का अवसर नहीं देगी. हकीकत तो यह थी कि मुकुल के छोड़े व्यंग्यबाणों से वह इतनी आहत हुई थी कि उन्हें उस ने एक चुनौती के रूप में ले लिया था. मगर समय के अंतराल के साथ यह चुनौती एक जिद में तबदील होती जा रही थी. नीता को मानो हर वह काम कर के दिखाना था जिसे सामान्यतया एक स्त्री करना टालती है. अपनी जिद और जनून के आगे न तो उसे अपने स्वास्थ्य की परवाह रह गई थी और न ही किसी खतरे की आशंका. चाहे भोर का धुंधलका हो या स्याह रात की वीरानगी, वह अपनी स्कूटी ले कर कभी भी, कहीं भी निकल पड़ती.
नीता महसूस कर रही थी कि उस के गिरते स्वास्थ्य ने मुकुल को उस के प्रति अनायास ही बहुत मृदु और सहृदय बना दिया है. उस के चेहरे से झलकता अपराधबोध दर्शाता कि उसे विगत के अपने व्यवहार पर शर्मिंदगी है. मुकुल के चेहरे के ये सब भाव तो नीता को सुकून प्रदान कर रहे थे. लेकिन इधर कुछ दिनों से वह उस के व्यवहार में, मनोभावों में जो कुछ परिवर्तन महसूस कर रही थी उसे स्वीकारने में उसे बेहद हिचकिचाहट महसूस हो रही थी. पर हकीकत से कब तक भागा जा सकता था?
हां, निसंदेह यह प्यार ही था और कुछ नहीं. मुकुल यानी जिस शख्स की उसे शक्ल देखना भी गवारा नहीं था, जो शख्स उस पर छींटाकशी का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देता था वही शख्स उस से प्यार करने लगा है? वह कैसे विश्वास करे इस शख्स का? प्यार का इजहार करना तो दूर की बात है, उस ने तो आज तक कभी उस से खुल कर अपने गलत व्यवहार के लिए शर्मिंदगी भी व्यक्त नहीं की है.
विचारों में उलझन नीता स्कूल पहुंच कर योगा तो करवाने लग गई लेकिन कमजोरी और थकान के मारे उस का बुरा हाल हो रहा था. मुकुल ने 1-2 बार उस से यह कह कर आराम करने का आग्रह किया कि वह अकेला दोनों गु्रप संभाल लेगा लेकिन नीता पर इस आग्रह का विपरीत असर हुआ. मुकुल के प्रस्ताव को सिरे से नकार कर वह और भी जोश से हाथपांव चलाने लगी. कुछ ही देर में उस की आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा और फिर उसे कुछ होश न रहा.
जब होश आया तो नीता अस्पताल में थी और उसे ग्लूकोस चढ़ रहा था. मुकुल पास ही टकटकी बांधे उसे देख रहा था. पूछा, ‘‘अब कैसी तबीयत है आप की?’’
नीता ने ठीक है में सिर हिला दिया.
‘क्यों अपने स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रही हैं आप?’’ मुझ पर गुस्सा है तो चिल्लाइए न मुझ पर, गालियां दीजिए, हाथ उठाइए पर प्लीजप्लीज, अपनेआप पर अब और जुल्म मत कीजिए. मैं अपनी गलती मानता हूं. 1-2 महिलाओं के व्यवहार से ही पूरी नारी जाति का आंकलन कर बैठा था. नारी हमेशा से ही सम्माननीय थी, है और रहेगी. उस की शारीरिक दुर्बलताएं उस की कमजोरियां नहीं वरन शक्तियां हैं. जो उस सहित पूरे परिवार को एक संबल प्रदान करती हैं. उस के त्याग, ममता और सहानुभूति के गुण न केवल उस में वरन हम पुरुषों में भी एक नई ऊर्जा का संचार करते हैं. कुदरत की यह अनुपम कृति उपहास उड़ाने योग्य नहीं वरन सहेजने योग्य है. अपनी अल्पबुद्धि के कारण मैं उन के महत्त्व को कमतर आंक बैठा, इस के लिए मैं शर्मिंदा हूं. बहस में शायद मैं आप से पराजित नहीं होता, मगर आप के स्वयंसिद्धा रूप ने मुझे घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया है.’’
‘‘नहींनहीं. गलती मेरी भी है. जिन आक्षेपों को चुनौती की तरह ले कर संघर्ष आरंभ किया था वह संघर्ष धीरेधीरे कब जिद का रूप ले बैठा ध्यान ही नहीं रहा. मगर आप ने तो खुद को झुक कर मुझे मौका दिया है.’’
अपनीअपनी हार को स्वीकार करते हुए भी दोनों के मन में जीत का उन्माद हिलोरें ले रहा था.