तजरबा: भाग 1- कैसे जाल में फंस कर रह गई रेणु

अगले मुलाकाती का नाम देखते ही ऋषिराज चौंक पड़ा. ‘डा. धवल पनंग.’ इस से पहले कि वह अपनी सेक्रेटरी सीपा से कुछ पूछता, उस ने आगंतुक के आने की सूचना दे दी. सीपा के सामने वह गाली तो दे नहीं सकता था फिर भी कहे बिना न रह सका, ‘‘तू अपना नर्सिंग होम छोड़ कर मेरे आफिस में क्या कर रहा है?’’

‘‘मास्टर डिटेक्टिव ऋषिराज से मुलाकात का इंतजार. भाई, क्लाइंट हूं आप का, बाकायदा फीस भर कर समय लिया…’’

‘‘मगर क्यों? घर पर नहीं आ सकता था?’’ ऋषि ने बात काटी.

‘‘जैसे मरीज के रोग का इलाज डाक्टर नर्सिंग होम में करते हैं वैसे ही मैं समझता हूं कि जासूस समस्या का सही समाधान अपने आफिस में करते होंगे,’’ धवल बोला.

‘‘वह तो है पर तू अपनी समस्या बता?’’

‘‘पिछले सप्ताह की बात है. एक दिन नर्सिंग होम में मोबाइल पर बात करते वक्त रेणु ने घबराए स्वर में कहा था, ‘कहा न मैं आऊंगी, फिर बारबार फोन क्यों…हां, जितना भी हो सकेगा करूंगी.’ रेणु के मायके वाले अपनी हर छोटीबड़ी घरेलू समस्या में रेणु को जरूर उलझाते हैं. सो यह सोच कर कि वहीं से फोन होगा, मैं ने कुछ नहीं पूछा. फिर मैं ने गौर किया कि रेणु काफी कोशिश कर के भी अपनी घबराहट छिपा नहीं पा रही है और अपने कुछ खास मरीज भी उस ने अपनी सहायक डा. सुरेखा के सिपुर्द कर दिए.

‘‘भले ही एकसाथ काम करते हैं, मगर मैं और रेणु अपनीअपनी गाड़ी से जाते हैं ताकि जिसे जब फुरसत मिले वह बच्चों को देखने घर आ जाए. उस दिन रेणु ने कहा कि उस का गाड़ी चलाने का मन नहीं है सो वह मेरे साथ चलेगी. मैं ने कहा कि शौक से चले, मगर वापस कैसे आएगी क्योंकि मुझे तो एक आपरेशन करने जल्दी आना है तो उस ने कहा कि सुरेखा से पिकअप करने को कह दिया है. रास्ते में मैं ने उस से पूछा कि किस का फोन था तो उस के चेहरे पर ऐसे डर के भाव आए जैसे कोई खून करते हुए वह रंगेहाथों पकड़ी गई हो.

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‘‘वह सकपका कर बोली, ‘यहां तो सारे दिन ही फोन आते रहते हैं, आप किस की बात कर रहे हो?’ मैं चाह कर भी नहीं कह सका कि जिसे सुन कर तुम्हारा हाल बेहाल हो गया है, लेकिन ऋषि, घर पहुंचने पर रेणु के बाथरूम जाते ही मैं ने उस के मोबाइल में वह नंबर ढूंढ़ लिया. वह रेणु के मायके वालों का नंबर नहीं था…’’

‘‘नंबर बता, अभी नामपता मंगवा देता हूं,’’ ऋषि ने बात काटी.

‘‘तेरा खयाल है, मैं नंबर पता लगवाने तेरे पास आया हूं?’’ धवल सूखी सी हंसी हंसा. फिर कहने लगा, ‘‘खैर, अगली सुबह मैं तो जल्दी निकल गया और आपरेशन से फुरसत मिलने पर जब बाहर आया तो देखा कि रेणु आज नर्सिंग होम आई ही नहीं है. घर पर फोन किया तो पता चला कि मैडम वहां भी नहीं है और गाड़ी नर्सिंग होम में खड़ी है. उस के मोबाइल पर फोन किया तो बोली कि किसी जरूरी काम से सिविल लाइन आई थी, अब ट्रैफिक में फंसी हुई हूं. सिविल लाइन में मेरी ससुराल है सो सोचा कि मायके की परदादारी रखना चाह रही है तो रखे.

‘‘मगर परसों शाम जब रेणु एक डिलीवरी केस में व्यस्त थी, मैं बच्चों को ले कर डिजनी वर्ल्ड चला गया. वहां जिस बैंक में हमारा खाता है उस के मैनेजर भी सपरिवार घूम रहे थे. उन्होंने मजाक में पूछा कि क्या डाक्टर साहिबा अभी भी खरीदारी में व्यस्त हैं, कल उन्होंने खरीदारी करने के लिए 1 लाख रुपए निकलवाए थे.

‘‘मैं यह सुन कर स्तब्ध रह गया. रेणु जो घरखर्च के लिए भी मुझ से पूछ कर पैसे निकलवाती थी, चुपचाप 1 लाख रुपए निकलवा ले, यकीन नहीं आया. अभी इस उलझन से उबर नहीं पाया था कि मेरी छोटी साली और साला मिल गए. वह हमारे घर गए थे, पता चलने पर कि हम यहां हैं, वह भी यहीं आ गए. बच्चों को उन के मामा को सौंप कर मैं साली के साथ बैठ गया और पूछा कि घर में ऐसी क्या परेशानी है जिसे फोन पर सुनते ही रेणु भी परेशान हो जाती है.

‘‘सुनते ही मीनू चौंक पड़ी. बोली, ‘क्या कह रहे हैं, जीजाजी? दीदी को घर पर आए 15 रोज से ज्यादा हो गए हैं और पिछले 4-5 रोज से उन्होंने फोन भी नहीं किया. तभी तो मां ने हमें उन का हालचाल जानने को भेजा है क्योंकि हमें फोन करने को तो जीजी ने मना कर रखा है.’

‘‘अब चौंकने की मेरी बारी थी, ‘रेणु ने कब से तुम्हें फोन करने को मना किया हुआ है?’

‘‘‘हमेशा से बहुत ही जरूरी काम होने पर हम उन्हें फोन करते हैं, फुरसत मिलने पर वह खुद ही रोज सब से बात कर लेती हैं, कभीकभी तो दिन में 2 बार भी. सो 4-5 रोज से फोन न आने पर सब को चिंता हो रही है.’

‘‘‘चिंता की कोई बात नहीं है, रेणु आजकल थोड़ी व्यस्त है,’ अपनी चिंता को दरकिनार करते हुए मैं ने मीनू की चिंता दूर की. वह अनजान फोन नंबर जो मैं ने अपने मोबाइल में नोट कर लिया था, दिखा कर मीनू से पूछा कि यह किस का नंबर है?

‘‘‘यह तो अपने पड़ोसी डा. शिवमोहन चाचा का नंबर है. छोटीमोटी बीमारी में हम उन्हीं के पास जाते हैं. समझ में आ गया जीजाजी, इस नंबर से फोन आने पर जीजी क्यों परेशान हुई थीं और क्यों काम छोड़ कर उन से मिलने गई थीं. डा. चाचा का एक डाक्टर बेटा रतन मोहन है. भोपाल के सरकारी अस्पताल में पोस्टमार्टम करता था. एक गलत रिपोर्ट देने के सिलसिले में नौकरी से निलंबित कर दिया गया सो यहां आ गया है. चाचाजी जीजी के पीछे पड़े होंगे कि उसे अपने नर्सिंग होम में रख लें और जीजी परेशान होंगी कि पोस्टमार्टम करने वाले डाक्टर का नर्सिंग होम में क्या काम?’

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‘‘मैं ने जब मीनू से पूछा कि रतन की उम्र क्या है? तो वह बताने लगी कि वह मेडिकल कालिज में रेणु दीदी से 2 साल सीनियर था. पहले उस का घर में बेहद आनाजाना था लेकिन फिर मां ने मुर्दे चीरने वाले रतन के घर में आनेजाने पर रोक लगा दी.

‘‘मैं बुरी तरह आहत हो गया. साफ जाहिर था कि रेणु ने वह 1 लाख रुपए रतन को पुरानी दोस्ती की खातिर दिए थे. जब किसी अपने से किसी गैर के लिए धोखा मिले तो बहुत तकलीफ होती है, ऋषि. खैर, जब मैं बच्चों के साथ घर पहुंचा तो रेणु आ चुकी थी. बच्चों से यह सुन कर कि उन्हें डिजनी वर्ल्ड में बड़ा मजा आया, रेणु के चेहरे पर अजीब से राहत और संतुष्टि के भाव उभरे और मैं ने उसे बुदबुदाते हुए सुना, ‘चलो, यह तसल्ली तो हुई कि मेरे जाने के बाद धवल बच्चों को बहला लेंगे.’ उस की यह बात सुनते ही मैं स्तब्ध रह गया. ऋषि, रेणु मुझे छोड़ने की सोच रही है.’’

‘‘तू ने भाभी से इस बुदबुदाने का मतलब नहीं पूछा?’’ ऋषि ने धवल से पूछा.

‘‘नहीं, ऋषि, मैं उस से अभी कुछ भी पूछना नहीं चाहता. तू मुझे रेणु और रतन के सही संबंधों के बारे में जो भी पता लगा कर दे सकता है, दे. उस के बाद मैं सोचूंगा कि क्या करना है. कितना समय लगेगा यह सब पता लगाने में?’’

‘‘अगर रतन के कालिज का नाम, किस साल से किस साल तक उस ने पढ़ाई की और उस के अन्य सहपाठियों के नाम का पता चल जाए तो 2-3 रोज में गड़े मुर्दे उखड़ जाएंगे और फिलहाल क्या हो रहा है, यह जानने के लिए भाभी और रतन की गतिविधियों पर पहरा बैठा देता हूं. रतन का अतापता मालूम है?’’

धवल को जो भी मालूम था वह ऋषि को बता कर थके कदमों से लौट आया. उस का खयाल था कि ऋषि 2-3 रोज से पहले क्या फोन करेगा लेकिन ऋषि ने उसी शाम फोन किया.

‘‘धवल, या तो अभी मेरे आफिस में आजा या फिर रात में खाने के बाद मेरे घर पर आ जाना.’’

‘‘अभी आया,’’ कह कर धवल ने फोन रख दिया. काम में दिल नहीं लग रहा था सो उस ने कल से ही नए मरीजों को समय देने से मना किया हुआ था.

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पतंग: भाग 1- जिव्हानी ने क्यों छोड़ा शहर

लेखक- डा. भारत खुशालानी

दिलेंद्रके भैया ने पूछा, ‘‘कल जिस से मिलने गए थे तुम, उस का क्या हुआ?’’

दिलेंद्र ने ठंडी सांस भरी, ‘‘होना क्या था? वही हुआ जो हमेशा होता है. वह औरत अपने ही बारे में बोलती रही. इतना ज्यादा बोलती रही कि मुझे बोलने का मौका ही नहीं दिया उस ने.’’

भैया ने कहा, ‘‘लेकिन स्वभाव में वह

कैसी है?’’

‘‘आप और भाभी ने मुझे उस से मिलाया. आप की पहचान की थी. आप को उस के स्वभाव के बारे में ज्यादा पता होगा. मुझे तो कुछ समझ में नहीं आया,’’ दिलेंद्र बोला.

भैया ने निराशा में कहा, ‘‘मतलब इस रिश्ते को भी ना ही समझें, है ना?’’

दिलेंद्र ने कुछ नहीं कहा.

भाभी सुन रही थी. उस ने भैया से कहा, ‘‘मैं ने तो पहले ही कहा था आप से कि वह लड़की भैया के लायक नहीं है.’’

भैया, ‘‘अब दिलेंद्र के जन्मदिन पर इसे किसी से मिलाएंगे.’’

‘‘आज से संक्त्रांति महोत्सव का रजिस्ट्रेशन शुरू कर दिया है संस्था वालों ने,’’ भाभी बोली.

‘‘दिलेंद्र तो बचपन से आज तक कभी चूका नहीं है इस में भाग लेने से,’’ भैया बोले.

‘‘बस वहीं जा रहा हूं. चल भई शांति सिंह,’’ दिलेंद्र ने कहा.

शांति सिंह उस के कुत्ते का नाम था. एकदम शांतिप्रिय था. इसीलिए दिलेंद्र ने उस का यह नाम रख दिया था. लेकिन अभी इस कुत्ते को कुछ आता नहीं था. अपना नाम भी नहीं पहचान

पाता था. दिलेंद्र अपने कुत्ते को ले कर

भैयाभाभी के घर से रवाना हो गया.

संस्था के कार्यालय में रजिस्ट्रेशन के इंचार्ज किवैदहेय से उस की मुलाकात हो

गई. हमेशा की तरह संक्रांति महोत्सव के फ्लायर और पैंपलेट पर किवैदहेय ने अपना फोटो नीचे दाईं ओर लगा दिया था. वह अपना प्रचार करने का कोई अवसर नहीं चूकता था. महोत्सव के लिए उस ने दिलेंद्र की ऐंट्री ले ली.

दिलेंद्र के पीछेपीछे जिव्हानी आ गई. किवैदहेय को देख कर वह मुसकरा दी. किवैदहेय ने ही उसे संस्था में फ्लैट दिलाया था. वैसे तो जिव्हानी शहर से अपरिचित नहीं थी, लेकिन नौकरी के लिए उस ने यह शहर छोड़ दिया था. महानगर में चली गई थी. वहीं उस का ब्याह भी हुआ और बेटा भी. बस कुछ ही दिन हुए थे उसे वापस आए हुए. अपने बच्चे स्वाभेश के साथ वापस आ गई थी. आज स्वाभेश भी उस के साथ ही था.

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किवैदहेय ने मुसकरा कर आश्चर्य से उस से पूछा, ‘‘आप यहां क्या कर रही हैं? यहां तो संक्रांति महोत्सव का रजिस्ट्रेशन हो रहा है. सिर्फ पतंगबाजी के शौकीनों के लिए है.’’

स्वाभेश की नजर तब तक शांति सिंह पर पड़ चुकी थी और वह कुत्ते को पुचकार रहा था. उस ने दिलेंद्र से पूछा, ‘‘यह आप का कुत्ता है?’’

दिलेंद्र ने हामी भर कर उत्तर दिया, ‘‘काटता नहीं है. विश्व शांति संगठन का सदस्य है.’’

7 साल की उम्र का स्वाभेश यह तो समझा नहीं, लेकिन उस ने कुत्ते को सहलाना शुरू कर दिया.

दिलेंद्र को यह देख कर अच्छा लगा, ‘‘शांति सिंह है इस का नाम. तुम को पतंग उड़ाने का शौक है?’’

स्वाभेश ने अचरजभरा उत्तर दिया, ‘‘मेरी मां को है. अभीअभी हम लोग यहां फ्लैट में रहने के लिए आए हैं. मैं ने तो आज तक पतंग कभी नहीं उड़ाई है.’’

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‘‘अरे, बहुत मजा आता है पतंग उड़ाने में. इस कालोनी में तो एक से बढ़ कर एक महारथी हैं. मेरे पास कुछ पतंगें हैं. आ कर ले जाना. सभी लोग येवकर्णिम पार्क में उड़ाते हैं,’’ दिलेंद्र ने कहा.

किवैदहेय ने जिव्हानी का रजिस्ट्रेशन लेते हुए उसे बताया, ‘‘आप के मम्मीपापा से मुलाकात हुई थी.’’

‘‘अच्छा,’’ जिव्हानी बोली.

किवैदहेय की पहचान जिव्हानी के मांबाप से थी. जब उन्होंने कहा कि उन की बेटी शहर वापस आ रही है और उस के रहने के लिए फ्लैट चाहिए, तो किवैदहेय ने तुरंत अपनी संस्था की बिल्डिंगों में से एक फ्लैट दिलवा दिया. फिलहाल किराए पर था.

किवैदहेय, ‘‘मेरा नंबर तो है ही आप के पास. कोई बात हो तो जरूर काल करिए.’’

स्वाभेश ने उत्साहित हो कर अपनी मां से कहा, ‘‘मम्मी, अंकल मुझे पतंग देने वाले हैं. मैं भी पतंग उड़ाऊंगा.’’

जिव्हानी ने मुसकरा कर दिलेंद्र को धन्यवाद दिया, ‘‘वैसे भी मुझे देख कर तो कभी न कभी इसे शौक लगना ही था. आप ने शुरुआत करा दी, वह भी ठीक है.’’

दिलेंद्र ने अपना परिचय दिया, ‘‘मेरा

नाम दिलेंद्र है. मैं डांस कोरियोग्राफर हूं. डांस सिखाता हूं.’’

स्वाभेश यह सुन कर प्रफुल्लित हो उठा. बोला, ‘‘मुझे डांस करने का बेहद शौक है.’’

‘‘बेटा, आप के नानानानी यहीं रहते हैं?’’ दिलेंद्र ने पूछा.

‘‘मेरे मम्मीपापा कुछ दूरी पर रहते हैं.

मेरे पिताजी की पतंग बनाने की फैक्टरी है,’’ जिव्हानी बोली.

दिलेंद्र को अचंभा हुआ. पूछा, ‘‘किस नाम से?’’ पतंगों का शौकीन होने से उसे इस क्षेत्र की काफी जानकारी थी.

‘‘मुरुक्षेश पतंग फैक्टरी,’’ जिव्हानी ने बताया.

‘‘बिलकुल सुना है नाम और कई बार उड़ाई भी हैं मुरुक्षेश पतंगें. लेकिन आम लोगों के लिए नहीं हैं. वे उच्च क्वालिटी की महंगी पतंगें बनाते हैं,’’ दिलेंद्र बोला.

जिव्हानी को यह सुन कर प्रसन्नता हुई, ‘‘हम लोग आकार में बड़ी और नायाब पतंगें बनाते हैं. भेड़चाल वाली आम बाजारू पतंगों की तरह नहीं.

अपने घर वापस आ कर जिव्हानी फिर से घर के सामान की फेरबदल करने लगी. घर अभी भी अस्तव्यस्त पड़ा था. स्वाभेश पतंग लेने दिलेंद्र के घर पहुंचा, तो वह कुछ महिलाओं को जुंबा सिखा रहा था. जब जुंबा डांस क्लास खत्म हुई तो उस ने खुशी से कुछ पतंगें स्वाभेश को दे दीं. स्वाभेश येवकर्णिम पार्क पहुंचा और पतंग उड़ाने लगा. फरफर की आवाज के साथ हवा से खेलती हुई उस की पतंग थोड़ी ही देर में आसमान की सैर करने लगी. नानाजी और मां कितने खुश होंगे यह देख कर, वह सोचने लगा. पतंग थोड़ी देर इधरउधर मंडराती रही, फिर नीचे गिर गई.

थोड़ी ही देर में अपने कुत्ते को टहलाने दिलेंद्र भी वहां आ पहुंचा और उस ने स्वाभेश को पतंग उड़ाने के उचित तरीके बताए. स्वाभेश शांति सिंह को देख कर और भी खुश हुआ. खेलने की 2 वस्तुएं उसे दिलेंद्र से प्राप्त हुई थीं.

कुछ देर वह खेलता रहा. फिर स्वाभेश को बुलाने उस की मम्मी आ गईं. जिव्हानी ने स्वाभेश को दिलेंद्र के कुत्ते के साथ खेलते देखा. उस ने दिलेंद्र से कहा, ‘‘अगर पतंगों का आप को इतना ही शौक है, तो हमारी फैक्टरी में आइए. मैं वहीं जा रही हूं. आप चाहें तो चल सकते हैं.’’

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दिलेंद्र ने बिना हिचकिचाहट के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया. जिव्हानी की कार में बैठ कर तीनों मुरुक्षेश फैक्टरी पहुंच गए जहां दिलेंद्र की मुलाकात जिव्हानी के मातापिता से भी हुई. जिव्हानी ने दिलेंद्र को फैक्टरी की सैर कराई.

इतने वर्षों से दिलेंद्र पतंगें उड़ा रहा था, लेकिन आज उस की आंखें खुल गईं. जिन्हें

वाकई में पतंगबाजी का शौक है और जो अव्वल दर्जे की पतंगें उड़ाने में विश्वास रखते हैं, उन्हीं लोगों के लिए यहां पतंगें बन रही थीं. कोई कारीगर यहां कागजों की कटाई नहीं कर रहा था. एक मशीन बेहद महीनता से कृत्रिम पौलिएस्टर कपडे की कटाई कर रही थी. कपड़ा लचीला था. हां, अलगअलग रंग के कटे हुए टुकड़ों को एक कारीगर जरूर इकट्ठा कर के वहीं स्टील की मेज पर रख रहा था. इस कपड़े पर प्रिंट जमाने के लिए 2 लड़के स्क्रीन प्रिंटिंग कर रहे थे. जिव्हानी ने बताया कि प्रिंट की स्याही, विशेष मिश्रण होती है और वह भी एकदम सही अनुपात में.

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पतंग: भाग 3- जिव्हानी ने क्यों छोड़ा शहर

लेखक- डा. भारत खुशालानी

‘‘मुझे पता है कि आप दोनों मेरा रिश्ता खोजने के लिए बेताब हो. मैं भी आप दोनों को निराश नहीं करना चाहता, परंतु अपनी वर्तमान स्थिति में भी मैं वास्तव में बहुत संतुष्ट और खुश हूं,’’ दिलेंद्र की इच्छा हुई कि अपने भैयाभाभी को ऐसी जीवनशैली की खासीयतों के बारे में बताए जिन्हें वह जी रहा है लेकिन जिस के बारे में लोग बात या तो करते नहीं थे या करना पसंद नहीं करते थे.

‘‘वह कैसे?’’ भैया ने पूछा.

‘‘अपनी मरजी का टीवी प्रोग्राम देख रहा हूं, जितने पर पंखा चाहिए, उतने पर चलाता हूं, जब मन होता है तब उठता हूं,’’ दिलेंद्र बोला.

‘‘परिवार चलाने के समक्ष ये सारी बातें नगण्य हैं,’’ भैया बोले.

‘‘मेरी जितनी भी आदतें हैं, उन में से किसी से भी मैं शर्र्मिंदा नहीं हूं. पत्नी आने के बाद यह स्थिति बदल जाएगी,’’ दिलेंद्र बोला.

‘‘भैया, अपनी उम्र का भी खयाल कीजिए. 40 हो रही है और आप डांस सिखाते हो, कहीं किसी जनरल मैनेजर के पद पर नहीं हो,’’ भाभी बोली.

बात चुभने वाली थी, लेकिन एकदम सत्य.

‘‘भाभी, आप जो कह रही हो, मैं वाकई उस की सराहना करता हूं और मेरा विश्वास कीजिए कि मैं आप की बात पर अच्छे से विचार करूंगा.’’

भाभी ने उसे चिंतित नजरों

से देखा.

उसी दिन सुबह करीब 10 बजे जिव्हानी किवैदहेय के औफिस पहुंची. किवैदहेय वहीं था जिस ने उसे फ्लैट दिलाया था. संक्रांति महोत्सव के रजिस्ट्रेशन के समय जिव्हानी की उस से मुलाकात हुई थी. उस के मांबाप की पहचान का था. उम्र करीब 40 बरस होगी. जिव्हानी ज्यादा कुछ नहीं जानती थी उस के बारे में. किवैदहेय का औफिस देख कर अचरज में पड गई. इतना भव्य औफिस. महानगरों में तो ऐसा औफिस सिर्फ बड़ी कंपनियों का ही होता है. उस ने प्रवेश किया, यहांवहां देखा और रिसैप्शनिस्ट से बात कर के किवैदहेय के कक्ष तक पहुंची.

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उस ने आश्चर्य जताते हुए कहा, ‘‘आप का कार्यालय तो बहुत फैंसी है?’’

किवैदहेय ने उस का मुसकरा कर अभिवादन किया.

‘‘आप तो कह रहे थे कि मेरा छोटा सा व्यापार है. यहां तो मध्यम साइज की कंपनी दिख रही है?’’ जिव्हानी ने पूछा.

‘‘‘छोटा’ शब्द सापेक्ष है,’’ किवैदहेय बोला. फिर उस ने जिव्हानी के फ्लैट वाली फाइल निकाली और एक पेज पर उसे हस्ताक्षर करने के लिए कहा, ‘‘आप के पिताजी ने तो डिपौजिट भर ही दिया है. बस आप के हस्ताक्षर चाहिए.’’

फ्लैट के मालिक विदेश में थे और अपने फ्लैट का जिम्मा किवैदहेय को दे दिया था.

जिव्हानी ने साइन करते हुए कहा, ‘‘मैं बहुत आभारी हूं आप की. अब अपनी फीस बताइए.’’

किवैदहेय बोला, ‘‘कैसी बातें करती हैं आप.’’

महानगरों में कोई भी व्यक्ति बिना स्वार्थ भाव से किसी के लिए कोई

काम नहीं करता. इसीलिए जिव्हानी को थोड़ा अटपटा लगा, ‘‘कम से कम दलाली का तो हिस्सा बता दीजिए.’’

‘‘कुछ नहीं,’’ किवैदहेय बोला. इस तरह किसी का आर्थिक एहसान लेने में जिव्हानी को असुविधा हो रही थी, ‘‘आप के मम्मीपापा ने भी यही बात कही, लेकिन मैं उन से भी कैसे पैसे ले सकता हूं. बिलकुल सही नहीं लगेगा.’’

जिव्हानी ने कुछ कहना चाहा पर किवैदहेय ने कहने का अवसर नहीं दिया, ‘‘इसके बदले हम लोग कभी आप के बेटे के साथ मिल कर खाने पर किसी अच्छे से रैस्टोरैंट जा सकते हैं.’’

जिव्हानी को यह बात अजीब लगी, लेकिन उसने मुसकरा कर हामी भर दी, ‘‘बिलकुल.’’

किवैदहेय ने जिज्ञासा से पूछा, ‘‘अभी बेटा कहां हैं? स्कूल गया है क्या?’’

‘‘स्कूल में अभी दाखिला पूरा नहीं हुआ है. पापा की पहचान वाले हैं. कुछ ही दिन में ट्रांसफर पूरा हो जाएगा. अभी उसे उस के नए मित्र दिलेंद्रजी के पास छोड़ आई हूं.’’

किवैदहेय को सुन कर जैसे टीस लगी, ‘‘दिलेंद्र के पास वह क्या करेगा?’’

जिव्हानी ने किवैदहेय की जलन को भांप लिया, ‘‘उन के कुत्ते के साथ खेलता है. दिलेंद्र उसे डांस भी सिखाते हैं और पतंग उड़ाना भी सिखा रहे हैं.’’

दिलेंद्र को इस तरह से पूरी तरह जिव्हानी के घरपरिवार में घुसा जान कर किवैदहेय का चेहरा लाल हो गया. अपनी भावनाओं को वह अपने चेहरे पर आने से छिपा न सका. जिव्हानी चकित हो कर उसके हावभाव देखती रह गई. उसे इस बात की कतई उम्मीद नहीं थी.

दोपहर 2 बजे जब किवैदहेय भोजन करने घर पहुंचा, तो अचानक बिल्डिंग के बाहर ही उस की मुलाकात दिलेंद्र से हो गई.

‘‘क्या बात है बड़े खुशमिजाज लग रहे हो?’’ किवैदहेय ने पूछा.

दिलेंद्र को स्वयं पता नहीं था कि यह जिंदादिल मनोवृत्ति कहां से उस के अंदर इतने सालों के बाद जाग उठी है.

‘‘मेरे लिए तो यह थकाऊ दिन रहा है… औफिस का बहुत काम है,’’ किवैदहेय बोला.

दिलेंद्र ने उस का कंधा थपथपाते हुए कहा, ‘‘शाम को पार्क में पतंग उड़ा कर देखना कैसे पतंग के साथसाथ मन भी आकाश में उड़ने लगेगा.’’

‘‘वास्तव में पहले तो मैं ने कभी भाग नहीं लिया है, लेकिन सोचता हूं इस बार जरूर लूं,’’ किवैदहेय बोला.

‘‘पतंग उड़ाना अपने घावों पर मरहम लगाने जैसा है. सब दुखों को दूर करने वाला अनुभव, सब घावों को भर देने वाली दवा. हवा में उड़ती हुई किसी चीज को अपने काबू में रख पाने की अनुभूति… सच बहुत मजा आएगा तुम्हें भी,’’ दिलेंद्र बोला.

किवैदहेय ने रुक कर कहा, ‘‘जिव्हानी ने बताया कि तुम उस के बेटे के लिए आया का काम कर रहे हो जब तक उस का स्कूल में दाखिला नहीं हो जाता?’’

दिलेंद्र जैसे आसमान से नीचे गिर गया हो. बोला, ‘‘आया?’’

‘‘हां, तुम्हारे पास इतना काम नहीं है इसीलिए तुम दाई का काम करके दूसरों के बच्चों की देखभाल कर सकते हो. वैसे भी डांस क्लास के बहाने लोग अपने बच्चे तुम्हारे पास छोड़ कर ही जाते हैं.’’

किवैदहेय का मुंह ताकता रह गया.

किवैदहेय ने मोबाइल में समय देखा और कहा, ‘‘मेरा समय हो रहा है. स्वाभेश का ध्यान रखने के लिए हम दोनों की ओर से बहुत शुक्रिया.’’

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दिलेंद्र के मुंह से निकला, ‘‘हम दोनों?’’

‘‘मेरी और जिव्हानी की ओर से,’’ किवैदहेय बोला और फिर चला गया.

दिनभर दिलेंद्र को यह वार्त्तालाप परेशान करता रहा. शाम को पार्क में स्वाभेश उस का इंतजार करता रहा. सूर्यास्त हो गया, लेकिन दिलेंद्र दिखाई नहीं दिया. स्वाभेश मायूस हो कर घर लौट आया. सोफे पर हताश हो कर बैठ गया तो मां ने कारण पूछा. स्वाभेश ने बता दिया. मां को समझ आ गया कि स्वाभेश का दिल दिलेंद्र के साथ लग चुका है.

दूसरी ओर दिलेंद्र दोपहर से शाम तक अपने बिस्तर पर पड़ा रहा. दोपहर

की क्लास भी रद्द कर दी. उसे बिलकुल समझ नहीं आ रहा था कि अचानक उस के साथ ऐसा कैसे हो रहा है. 7 बजे उस ने अपनेआप को हिम्मत दी और निकल कर भैयाभाभी के घर पहुंचा और उन से जिक्र किया.

भैयाभाभी को एक ही क्षण में सारा मामला समझ में आ गया. दिलेंद्र के मन को गहरी चोट पहुंची थी. लेकिन यह इसीलिए था कि उस ने जिव्हानी और उस के बेटे को अपना समझा.

भाभी ने उसे समझाया, ‘‘कोई कुछ भी कहे उस की बातों का एकदम यकीन नहीं करना चाहिए जो कुछ भी किवैदहेय ने कहा है मुझे उस पर जरा भी विश्वास नहीं कि यह जिव्हानी ऐसा कह सकती हैं.’’

मकर संक्रांति का दिन आ गया. सुबह से ही लोगों में उत्साह था. येवकर्णिम पार्क को सुबह सबेरे ही खोल दिया गया. इक्कादुक्का आवारा लड़के भटक कर अपनी पतंगों के साथ 5 बजे ही आ गए. एक दिन पहले ही तिलगुड़ के लड्डू बन चुके थे. आज एकदूसरे में वितरित होंगे. आज पतंगें जब हवा में लहराएंगी, तो चोरीछिपे या ग्लानि की भावना से नहीं, बल्कि सीना तान कर आधिकारिक रूप से. आज उन्हीं का दिन है.

आगे पढ़ें- आज इन 5 बजे से ही जमा हो रहे…

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पतंग: भाग 2- जिव्हानी ने क्यों छोड़ा शहर

लेखक- डा. भारत खुशालानी

स्याही को सूखने के लिए रख दिया जाता. तत्पश्चात यह देखा जाता कि उस के छिल जाने या रंग उतरने का खतरा तो नहीं. कुछकुछ अंतराल पर ऐसी टेबलें थीं, जिन में नीचे से प्रकाश आ रहा था, जिस से टेबल के ऊपर रखे पतंग के कपडे की जांच हो सके कि उस में छेद या कोई और नुक्स तो नहीं है. पतंग के अलगअलग रंग के गत्तों को एक कारीगर बड़े प्रेम से टेप लगा कर चिपका रहा था. टेप से चिपके हुए गत्ते सिलाई मशीन तक जा रहे थे, जहां एक महिला मशीन से उन की सिलाई कर रही थी. जैसे कागज की पतंग पर बारीक लकड़ी की तीलियां लगती थीं, यहां उन तीलियों के बजाय रौड से पतंग का ढांचा बनाया जा रहा था जिस से पतंग के सिकुड़ने का डर नहीं था.

फैक्टरी देख कर दिलेंद्र को दंग रहते देखा तो जिव्हानी ने हंसते हुए कहा, ‘‘कागज की पतंग कभी आसमान में बादलों को नहीं छू सकती है. लेकिन आधुनिक तरीके से बनाई ये पतंगें छूने में सक्षम हैं.’’

स्तब्ध दिलेंद्र ने पूछा, ‘‘यह सब पिताजी ने सीखा कहां से?’’

पिताजी ने अपने नाम का जिक्र सुना तो बुला कर एक ज्यामितीय आकार की तीनआयामी पतंग दिखाई. त्रिकोणीय बक्से सी दिखने वाली पतंग पर वे काम कर रहे थे, ‘‘मिस्र के पिरामिड देखे हैं? उन्हीं के आकार की पतंग है यह वाली.’’

माताजी, जो कांच के बने औफिस के अंदर लेखांकन का काम कर रही थीं, ने कहा, ‘‘पहले जिव्हानी महज शौकिया नजरिए से पतंगों को देखती थी.’’

‘‘अब वह दार्शनिक हो गई है. कहती है कि डोर तो मेरे हाथ में है, लेकिन

पतंग कोई और उड़ा रहा है,’’ पिताजी बोले.

दिलेंद्र ने हंसते हुए कहा, ‘‘बिलकुल सही बात है. न जाने कब किस की नौकरी छूट जाए, किसी का परिवार टूट जाए, इन्हीं सब को भारतीय दर्शन में कटी हुई पतंग से जोड़ा जाता है.’’

जिव्हानी को ऐसा लगा कि दिलेंद्र और उस की सोच मेल

खाती है.

‘‘कितनी उमंगों के साथ उड़ती हुई हमारी बच्ची नौकरी के लिए इस घर से निकली थी…’’

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माताजी ने तुरंत बात काट दी, ‘‘सब कुदरत का लेखाजोखा है,’’ पिताजी बोले.

दिलेंद्र को कुछ भी नहीं समझा कि वे क्या कह रहे हैं. उस ने बात को कुरेदना उचित नहीं समझा.

वापस जाते वक्त पिताजी ने अपनी पसंद की एक बड़ी सी आलीशान पतंग दिलेंद्र को भेंट की. उस की खुशी की सीमा न रही.

अगले दिन उस ने भैयाभाभी के घर संपूर्ण किस्सा

बयां किया. भाभी ने अचरज से कहा, ‘‘मैं तो जानती हूं जिव्हानी को, हमारे ही स्कूल में पढ़ती थी. मुझ से 1 साल छोटी है. मुझे नहीं पता था कि अब वह यहां आ गई है रहने के लिए.’’

भैयाभाभी तुरंत दिलेंद्र के साथ उस के घर गए. भैया और दिलेंद्र घर पर ही रहे, भाभी जिव्हानी से मिलने उस के फ्लैट पहुंची.

भाभी ने घंटी बजाई. जिव्हानी ने दरवाजा खोला तो पहचान न सकी. भाभी ने परिचय दिया, तो खुशी से भाभी का स्वागत किया. चाय पिलाई. दोनों ने बहुत बातें की. अस्तव्यस्त सामान में भाभी को एक तसवीर दिखी जिस में जिव्हानी की गोद में छोटी उम्र का स्वाभेश था और उनके साथ एक व्यक्ति था.

भाभी ने फोटो की ओर इशारा कर पूछा, ‘‘ये पति हैं?’’

जिव्हानी ने थोड़ी मायूसी से कहा, ‘‘थे.’’

भाभी समझ गई कि मामला नाजुक है. अत: उस ने कुछ नहीं कहा.

जिव्हानी ने स्वयं ही कह दिया, ‘‘चल बसे.’’

जिव्हानी के साथ कोई नजदीकी रिश्ता न होते हुए भी भाभी को यह सुन कर बहुत दुख हुआ.

‘‘2 साल पहले गुजर गए,

तब स्वाभेश 5 साल का था. कुछ समय वहीं रह कर नौकरी की, फिर मन लगना बंद हो गया. इसीलिए यहां चली आई हूं. अब पिताजी की ही पतंग फैक्टरी संभालूंगी,’’ जिव्हानी बोली.

जिव्हानी ने सही निर्णय लिया था. इतनी कम उम्र में ऐसा हादसा हो जाना किसी भी इंसान को असमंजस की स्थिति में डाल देने के लिए काफी था. स्वयं को भ्रमित महसूस कर इस उलझन और शहर से बाहर निकलना ही उसे उपयुक्त लगा. कोई उसे दोष नहीं दे सकता था. मांबाप ने बहुत समझाया कि उन्हीं के साथ रहे, कोई कुछ नहीं कहेगा, लेकिन वह अड़ी रही कि उसे अपनी जिंदगी आगे भी बढ़ानी है. सब से जटिल कार्य उसे यह लगा कि स्वाभेश को कैसे बताए. 5 वर्ष के बच्चे को क्या स्पष्ट और प्रत्यक्ष शब्दों का प्रयोग कर के कहा जा सकता है कि उस के पिताजी की मृत्यु हो गई है? किस प्रकार की प्रतिक्रिया होगी उस की?

मगर न तो वह रोया, न ही उस ने कोई सवाल पूछा. जिव्हानी को लगा कि शायद अपने दुखी होने की भावना को वह अपने बच्चे से साझा करे तो हो सकता है कि उस की भी भावनाएं सामने आ जाएं. शहर छोड़ते वक्त भी उसे ग्लानि महसूस हुई कि 7 साल के बालक को कैसे बताया जाए कि उसके जीवन और उस की दिनचर्या दोनों में बदलाव आने वाला है, इस के लिए वह तैयार हो जाए. अपने बेटे को दिलेंद्र के साथ सामान्य तरीके से व्यवहार करते देख समझ में आ गया कि स्वाभेश ने अपनी नई जिंदगी को बिना किसी झिझक के अपना लिया है.

भाभी वापस चली आई तथा भैया और दिलेंद्र को स्थिति से अवगत किया. फिर भैया और भाभी वापस अपने घर लौट गए.

शाम को फिर पार्क में पतंगें हवा में लहराने लगीं. उड़ती हुई पतंगें देख कर सभी खुश थे. आसमान में उड़ नहीं सकते तो क्या हुआ, कम से कम पतंग तो उड़ा सकते हैं. जिन वयस्कों के परिवार थे और उन की स्त्रियां यह दलील देती थी कि ए जी, आप तो इतने बड़े हो गए हो. अब क्यों आप पतंग उड़ा रहे हो? तो उन्हें वे कहते कि श्रीराम ने भी तो पतंग उड़ाई थी.

पार्क में एक पागल भिखारी कचरे में मिली हुई एकदम पतले कपडे़ की बनी टोपी को रस्सी से बांध कर पतंग बना कर उड़ाने का प्रयास कर रहा था. बच्चों का एक झुंड, कटी हुई पतंग को लूटने के लिए दौड़ रहा था.

दिलेंद्र जब अपने कुत्ते को ले कर पार्क पहुंचा, तो स्वाभेश को पतंग उड़ाने की कोशिश करते पाया. दिलेंद्र ने स्वाभेश को धागे का तनाव बनाए रखने के गुर सिखाए ताकि कमान तनी रही. किस प्रकार हवा पतंग के नीचे से होती हुई ऊपर से गुजर जाती है, इस के बारे में समझाया ताकि स्वाभेश हवा के प्रवाह का लाभ उठा सके और पतंग को निश्चित दिशा दे सके. ठीक हवाईजहाज की तरह पतंग के नीचे हवा का दबाव ज्यादा होने से वह हवा में उड़ पाती है, इस वैज्ञानिक सिद्धांत को समझाया. थोड़ी ही देर में स्वाभेश ने ढील देने के दांवपेंच सीख लिए.

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जब स्वाभेश वापस घर लौटा, तो सूर्यास्त हो चुका था. ्र

आज वह 7वें आसमान पर था. संक्रांति महोत्सव से पहले उस में इतना आत्मविश्वास तो भर ही जाएगा कि वह चंद लोगों के साथ पेंच लड़ा सके. घर में उस के नानानानी आए हुए थे. नानी ने गरमगरम बेसन और प्याज के पकोड़े तले थे.

जिस आदमी के साथ स्वाभेश और उस की मम्मी फैक्टरी आए थे, उस के विषय में चर्चा हो रही थी.

‘‘क्या करता है वह?’’ नानी

ने पूछा.

‘‘डांस सिखाता है. बच्चों को भी, बड़ों को भी,’’ जिव्हानी ने बताया.

‘‘और पतंग उड़ाने में भी नंबर वन,’’ स्वाभेश बोला.

‘‘तभी तो फैक्टरी में इतने ध्यान से सबकुछ देख रहा था,’’ नाना बोले.

‘‘और एक प्यारा सा कुत्ता भी है उनके पास, शांतिसिंह नाम का,’’ स्वाभेश ने बताया.

‘‘स्वाभेश भी उस से डांस सीखेगा,’’ जिव्हानी बोली.

अगले दिन दिलेंद्र की मुलाकात अपने भैयाभाभी से हुई तो एक बार फिर किसी के साथ उस के मेलमिलाप की संभावना की चर्चा हुई.

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पतंग: भाग 4- जिव्हानी ने क्यों छोड़ा शहर

लेखक- डा. भारत खुशालानी

मांझे के अपराधों ने पतंगों को भी बदनाम कर दिया था जिस से पतंगों में रोष था. सख्त आदेश थे कि कांच से घोटे हुए मांझे का इस्तेमाल नहीं होगा. ऐसे किसी भी तेज मांझे का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा जिस से पक्षियों की जान को खतरा हो. जो उड़ाएगा वह खुद अपने अरमान को आसमानों में पहुंचाएगा और जो नहीं उडाएगा वह महोत्सव देख कर अपना मुफ्त मनोरंजन करेगा, उड़ाने वालों की हौसलाअफजाही करेगा.

आज इन 5 बजे से ही जमा हो रहे आवारा लड़कों को भी कोई कुछ नहीं कहेगा क्योंकि भारत की प्राचीन परंपरा को जिंदा रखने की जिम्मेदारी इन्हीं के सिर पर है. पक्षियों को तो जैसे हर बात का पता पहले से होता है. इस बात का पता भी पहले ही चल चुका था कि उन के प्रतिद्वंदी से आज उन की मुलाकात है. सर्दी के कारण लोग स्वैटर पहन कर पार्क में आ रहे थे. सूर्योदय होतेहोते डोर पर सवार पतंगों की सवारियां किसी दुलहन की तरह सज कर निकल चुकी थीं.

पिछले कई दिनों से सूर्यास्त देखने वाली पतंगों को आज सूर्योदय देखने का

सौभाग्य प्राप्त हुआ. कुछ लोग अपने वफादार अनुयायिओं को साथ ले कर आ रहे थे जो मांझे की रील पकड़ेंगे. जैसे पतंग के साथ डोर बंधी होती है, वैसे ही ये निष्ठावान अनुगामी भी अपने पतंग उड़ाने वाले मालिक के साथ बंधे थे,ठीक उसी तरह जैसे कोई समर्पित सेनापति अपने राजा के साथ बंधा होता है.

8 बजे जिव्हानी अपने मातापिता और अपने बेटे स्वाभेश के साथ पार्क पहुंच गई. उस के हाथ में पिताजी की स्पेशल बनाई पतंग थी जो सिल्क से बनी थी. 1 मीटर चौड़ी और आधा मीटर लंबी इस पतंग की शान का मुकाबला अगर कोई कर पाएगा, तो वह मुरुक्षेश पतंग ही होगी. स्वाभेश के नानाजी ने दिल लगा कर अपने हाथों से इसे बनाया था. पतंग के बीच में ‘मुरुक्षेश’ भी प्रिंट कर दिया था ताकि आकाशवाणी की तरह ही आसमान से सब तक यह संदेश पहुंचे कि शान से पतंग उड़ानी है तो मुरुक्षेश पतंग ही उडाएं.

ठीक 9 बजे दिलेंद्र अपनी पतंगों के सैट और अपने भैयाभाभी के साथ पार्क पहुंच गया. पार्क बहुत बड़ा था. और जमा होती लोगों की भीड़ में एकदूसरे को ढूंढ़ निकालना आसान नहीं था. जिन के पास रजिस्ट्रेशन के समय प्राप्त संक्रांति महोत्सव का टिकेट था, वही पतंग प्रतियोगिता में भाग ले सकते थे और उन्हीं के लिए विशेष भोजन और उपहारों की छोटी टोकरी थी. भैया ने चक्री संभाली और दिलेंद्र ने अपनी पहली पतंग को आसानी से मंद सर्द हवाओं में ऊपर उठा लिया.

दिलेंद्र के मन में अचानक यह खयाल आया कि हो सकता है हवा का रुख इस प्रकार चले कि जिव्हानी की पतंग अपनेआप ही उस की पतंग से आ कर मिल जाए या फिर दोनों की पतंगों की डोरें आपस में जुड़ जाएं. आज दोनों के पतंगों की लड़ाई हो ही जाए और दोनों में से जो भी पतंग कटेगी, वह आज अपशकुन नहीं बल्कि लूट प्रतियोगिता का कारण बनेगी.

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कभी संक्रांति महोत्सव में भाग न लेने वाले किवैदहेय ने भी आज हिस्सा लिया. उस ने भी भारतीय संस्कृति में होली के रंगों की तरह रंग जाने का प्रमाण दे कर पतंग उड़ाई लेकिन एक ही झटके में उस की पतंग कट गई. ठीक तरह से ऊंचाई भी न पकड़ पाई. आसपास के बच्चे उस के इस अनुभवहीन प्रयास को देख कर हंसने लगे. उस की कटी पतंग को किसी दौड़ते बच्चे के पांवों ने रौंद दिया.

स्वाभेश पतंग उड़ाने वालों की भीड़ को चीरता हुआ दिलेंद्र तक जा पहुंचा. उस के पास नानाजी द्वारा बनाई गई पतंग थी, लेकिन जिव्हानी की पतंग से छोटी थी. अपनी पतंग नीचे रख कर पहले वह शांति सिंह के साथ खिलवाड़ करने लगा. शांति सिंह की जोड़ी उस के साथ जम चुकी थी. फिर उस ने दिलेंद्र से अनुरोध किया कि उस की मुरुक्षेश पतंग की उड़ान भरने में उस की सहायता करे.

दिलेंद्र ने भैया के कहने पर अपनी पतंग को नीचे कर लिया तथा स्वाभेश के साथ मुरुक्षेश पतंग तान दी. कलाबाजियां खाती हुई स्वाभेश की पतंग शान के साथ सूरज की पीली चमकदार किरणों को सीना तान कर आत्मसात करने लगी. आकाश में 2 नायाब मुरुक्षेश पतंगें दिख रही थीं. जैसे 2 राजा एकसाथ सिंहासन पर बैठे राज कर रहे हों. आकाश में नजारा देखने लायक था, 2 महलों के आसपास ढेर सारी झोपडि़यां, लेकिन एक म्यान में 2 तलवारें. दिलेंद्र ने धीरेधीरे ढील देते हुए सूरज की सुनहरी किरणों को प्रतिबिंबित करती हुई अपनी चमकदार पतंग को आकाश में उड़ रही दूसरी मुरुक्षेश पतंग की ओर मोड़ दिया. उल्फत और उमंगों के संगम से बने दिलेंद्र के संदेश को ले कर पतंग अपनी बड़ी बहन से मिलने चल दी.

दोनों पतंगें बहनें थीं क्योंकि उन का निर्माता सह पिता एक ही था- स्वाभेश के नानाजी. चंद ही क्षणों में संदेश के साथ छोटी बहन ने बड़ी का दरवाजा खटखटाया. आकाश के पंछी आतुरता से प्रतीक्षा कर रहे थे. वैसे तो उन्होंने आज सबेरे से ही सैकड़ों भिन्नभिन्न प्रकार की पतंगों के दर्शन कर लिए थे, लेकिन इन 2 महारथियों की शान बेमिसाल थी. 2-4 पंछी और आ गए और इन दोनों महारथियों के ऊपर मंडराने लगे जैसे इंतजार में हों कि देखें आगे क्या होता है.

पार्क वालों ने भी जब यह नजारा देखा तो अपनी पतंगों को भूल कर वृहंगम पतंगों की जंग का अद्भुत दृश्य देखने लगे. दोनों महाकाय पतंगों की डोरें आपस में उलझ गईं. दोनों बहनें एकदूसरे से लिपट गईं. दोनों के बीच स्नेहशील गुत्थमगुत्था होने लगी. सुबह की कुनकुनी धूप से छंटते हुए बादलों की छांव तले दोनों विशाल पतंगें में जैसे द्वंद्वयुद्ध हो रहा हो. युद्ध का तेज किरणों को मात देने लगा. बाकियों की पतंगें उन के आसपास घूमफिर कर चुपचाप वहां से खिसक लीं.

न तो उन में इतना दम था, न ही उन के हौसले इतने बुलंद थे कि इस महायुद्ध में भागीदार बन सकें. बस ऊंची नजरें कर इन दोनों में से जो कटेगी, आज जिसे वह मिलेगी, उस की खुशहाल हो गया समझो. इस महायुद्ध में डोर की शक्ति उस की शारीरिक क्षमता पर नहीं, अपितु उड़ाने वाले के जोश पर निर्भर थी और दोनों उड़ाने वाले, दिलेंद्र और जिव्हानी जोशखरोश में आ गए थे. दिलेंद्र का अनमनापन कब काफूर हो गया उसे पता ही न चला. महाशक्तियों की पैतरेबाजी से विरक्ति आह्लाद में परिवर्तित हो चुकी थी. विशेष कर यह जान कर कि दूसरी पतंग की डोर जिव्हानी के हाथों में है. मुरुक्षेश की प्रेमरूपी पतंगों का यह खेल चलता रहा.

और फिर जोर की आवाज से आकाश गूंज उठा, ‘‘वह काट,’’ जैसे सारा स्टेडियम क्रिकेट के मैदान में छक्का लगने से गूंज उठ हो. कटी हुई पतंग लहराती हुई दूर अनजान प्रदेश में जाने लगी. 30-40 बच्चे और युवक उस के पीछे भागे.

दिलेंद्र की बांछें खिल गईं. स्वाभेश खुशी से झूमने लगा. जिव्हानी की पतंग कट गई थी. स्वाभेश की पतंग आसमान में अपनी बुलंदी पर इतरा रही थी.

थोड़ी ही देर में जिव्हानी आकाश में उडती इकलौती मुरुक्षेश पतंग की डोर की

दिशा पकड़ कर उन के पास आ पहुंची. अपनी रोबीली पतंग कट जाने से उस के चेहरे पर न तो कोई शिकन के भाव थे न ही गम.

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आते ही सब से पहले उस ने अपने ही हाथों से बनी तिलगुड़ की मिठाई का डब्बा भैयाभाभी के सामने खोल दिया. दिलेंद्र ने स्वाभेश की पतंग नीचे ला कर वापस अपने पास खींच ली. सभी ने मुंह मीठा किया.

भाभी ने मौका देख कर जिव्हानी से पूछ ही डाला, ‘‘तुम किवैदहेय के साथ हो क्या?’’

जिव्हानी ने हैरानी के साथ कहा, ‘‘नहीं, बिलकुल नहीं.’’

भाभी ने किवैदहेय और दिलेंद्र के बीच हुए संवाद को दोहरा दिया. जिव्हानी ने सभी से इस बात के लिए माफी मांगी और कहा, ‘‘दरअसल, मेरे मम्मीपापा की पहचान का है वह. मम्मीपापा ने मेरे इस शहर में आने से पूर्व मेरी सगाई की बात उस से की थी. लेकिन मुझे मंजूर नहीं है, यह बात मैं ने अपने मम्मीपापा से साफ कह दी है. किवैदहेय भ्रम में है. ऐसा कुछ भी नहीं है. बस, उस ने मुझे फ्लैट दिलाया है.’’

दिलेंद्र के अरमानों ने एक बार फिर पंख फैलाए. एक बार फिर पतंग की तरह आसमान में उड़ने के लिए वह तैयार था और अब उस की पतंग को कोई नहीं काट सकेगा. सर्वसम्मति से संक्रांति महोत्सव का उसे विजेता घोषित कर दिया गया.

उसी दहलीज पर बार-बार: भाग 2- क्या था रोहित का असली चेहरा

कहानी- यामिनी वर्मा

शाम को सोमी ममता से मिलने उस के घर आई तो ममता ने बिना किसी भूमिका के बता दिया कि रिया रोहित की बेटी है और उस की मां का पिछले साल निधन हो गया है. रोहित हमारे स्कूल में अपनी बच्ची का दाखिला करवाने आया था.

‘‘रोहित को कैसे पता चला कि तुम यहां हो?’’ सोमी ने पूछा.

‘‘नहीं, उस को पहले पता नहीं था. वह भी मुझे देख कर आश्चर्य कर रहा था.’’

थोड़ी देर बैठ कर सोमी अपने घर लौट गई. उसे कुछ अच्छा नहीं लगा था यह ममता ने साफ महसूस किया था. वह बिस्तर पर लेट गई और अतीत के बारे में सोचने लगी. ममता और रोहित एक- साथ पढ़ते थे और वह उन से एक साल जूनियर थी. इन तीनों के ग्रुप में योगेश भी था जो उस की क्लास में था. योगेश की दोस्ती रोहित के साथ भी थी, उधर रोहित और ममता भी एक ही क्लास में पढ़ने के कारण दोस्त थे. फिर चारों मिले और उन की एकदूसरे से दोस्ती हो गई.

ममता का रंग गोरा और बाल काले व घुंघराले थे जो उस के खूबसूरत चेहरे पर छाए रहते थे.

रोहित भी बेहद खूबसूरत नौजवान था. जाने कब रोहित और ममता में प्यार पनपा और फिर तो मानो 2-3 साल तक दोनों ने किसी की परवा भी नहीं की. दोनों के प्यार को एक मुकाम हासिल हो इस प्रयास में सोमी व योगेश ने उन का भरपूर साथ दिया था.

ममता और रोहित ने एम.एससी. कर लिया था. सोमी बी.एड. करने चली गई और योगेश सरकारी नौकरी में चला गया. यह वह समय था जब चारों बिछड़ रहे थे.

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रोहित ने ममता के घर जा कर उस के मातापिता को आश्वस्त किया था कि बढि़या नौकरी मिलते ही वे विवाह करेंगे और उस के बूढ़े मातापिता अपनी बेटी की ओर से ऐसा दामाद पा कर आश्वस्त हो चुके थे.

ममता की मां तो रोहित को देख कर निहाल हो रही थीं वरना उन के घर की जैसी दशा थी उस में उन्होंने अच्छा दामाद पा लेने की उम्मीद ही छोड़ दी थी. पति रिटायर थे. बेटा इतना स्वार्थी निकला कि शादी करते ही अलग घर बसा लिया. पति के रिटायर होने पर जो पैसा मिला उस में से कुछ उन की बीमारी पर और कुछ बेटे की शादी पर खर्च हो गया.

एक दिन रोहित को उदास देख कर ममता ने उस की उदासी का कारण पूछा तो उस ने बताया कि उस के पापा उस की शादी कहीं और करना चाहते हैं. तब ममता बहुत रोई थी. सोमी और योगेश ने भी रोहित को बहुत समझाया लेकिन वह लगातार मजबूर होता जा रहा था.

आखिर रोहित ने शिखा से शादी कर ली. इस शादी से जितनी ममता टूटी उस से कहीं ज्यादा उस के मातापिता टूटे थे. एक टूटे परिवार को ममता कहां तक संभालती. घोर हताशा और निराशा में उस के दिन बीत रहे थे. वह कहीं चली जाना चाहती थी जहां उस को जानने वाला कोई न हो. और फिर ममता का इस स्कूल में आने का कठोर निर्णय रोहित की बेवफाई थी या कोई मजबूरी यह वह आज तक समझ ही नहीं पाई.

इस अनजाने शहर में ममता का सोमी से मिलना भी महज एक संयोग ही था. सोमी भी अपने पति व दोनों बच्चों के साथ इसी शहर में रह रही थी. दोनों गले मिल कर खूब रोई थीं. सोमी यह जान कर अवाक्  थी… कोई किसी को कितना चाह सकता है कि बस, उसी की यादों के सहारे पूरी जिंदगी बिताने का फैसला ले ले.

सोमी को भी ममता ने स्कूल में नौकरी दिलवा दी तो एक बार फिर दोनों की दोस्ती प्रगाढ़ हो गई.

स्कूल ट्रस्टियों ने ममता की काबिलीयत और काम के प्रति समर्पण भाव को देखते हुए उसे प्रिंसिपल बना दिया. उस ने भी प्रिंसिपल बनते ही स्कूल की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली और उस की देखरेख में स्कूल अनुशासित हो प्रगति करने लगा.

अतीत की इन यादों में खोई सोमी कब सो गई उसे पता ही नहीं चला. जब उठी तो देखा दफ्तर से आ कर पति उसे जगा रहे हैं.

‘‘ममता, तुम जानती हो, रिया रोहित की लड़की है. इतना रिस्पांस देने की क्या जरूरत है?’’ एक दिन चिढ़ कर सोमी ने कहा.

‘‘जानती हूं, तभी तो रिस्पांस दे रही हूं. क्या तुम नहीं जानतीं कि अतीत के रिश्ते से रिया मेरी बेटी ही है?’’

अब क्या कहती सोमी? न जाने किस रिश्ते से आज तक ममता रोहित से बंधी हुई है. सोमी जानती है कि उस ने अपनी अलमारी में रोहित की बड़ी सी तसवीर लगा रखी है. तसवीर की उस चौखट में वह रोहित के अलावा किसी और को बैठा ही नहीं पाई थी.

ममता को लगता जैसे बीच के सालों में उस ने कोई लंबा दर्दनाक सपना देखा हो. अब वह रोहित के प्यार में पहले जैसी ही पागल हो उठी थी.

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पापा की मौत हो चुकी थी और मां को भाई अपने साथ ले गया था. जब उम्र का वह दौर गुजर जाए तो विवाह में रुपयों की उतनी आवश्यकता नहीं रह जाती जितना जीवनसाथी के रूप में किसी को पाना.

विधुर कर्नल मेहरोत्रा का प्रस्ताव आया था और ममता ने सख्ती से मां को मना कर दिया था. स्कूल के वार्षिकोत्सव में एम.पी. सुरेश आए थे, उन की उम्र ज्यादा नहीं थी, उन्होंने भी ममता के साथ विवाह का प्रस्ताव भेजा था. इस प्रस्ताव के लिए सोमी और उस के पति ने ममता को बहुत समझाया था. तब उस ने इतना भर कहा था, ‘‘सोमी, प्यार सिर्फ एक बार किया जाता है. मुझे प्यारहीन रिश्तों में कोई विश्वास नहीं है.’’

प्यार और विश्वास ने ममता के भीतर फिर अंगड़ाई ली थी. रोहित आया तो उस ने आग्रह कर के उसे 3-4 दिन रोक लिया. पहले दिन रोहित, ममता और सोमी तीनों मिल कर घूमने गए. बाहर ही खाना खाया.

सोमी कुछ ज्यादा रोहित से बोल नहीं पाई… क्या पता रोहित ही सही हो… वह ममता की कोमल भावनाएं कुचलना नहीं चाहती थी. अगर ममता की जिंदगी संवर जाए तो उसे खुशी ही होगी.

अगले दिन ममता रोहित के साथ घूमने निकली. थोड़ी देर पहले ही बारिश हुई थी. अत: ठंड बढ़ गई थी.

‘‘कौफी पी ली जाए, क्यों ममता?’’ उसे रोहित का स्वर फिर कालिज के दिनों जैसा लगा.

‘‘हां, जरूर.’’

रेस्तरां में लकड़ी के बने लैंप धीमी रोशनी देते लटक रहे थे. रोहित गहरी नजरों से ममता को देखे जा रहा था और वह शर्म के मारे लाल हुई  जा रही थी. उस को कालिज के दिनों का वह रेस्तरां याद आया जहां दोनों एकदूसरे में खोए घंटों बैठे रहते थे.

‘‘कहां खो गईं, ममता?’’ इस आवाज से उस ने हड़बड़ा कर देखा तो रोहित का हाथ उस के हाथ के ऊपर था. सालों बाद पुरुष के हाथ की गरमाई से वह मोम की तरह पिघल गई.

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परित्याग: भाग 2- क्या पहली पत्नी को छोड़ पाया रितेश

‘‘अभी गरम कर देता हूं. मूंग छिलके वाली दाल के साथ चावल बनाए हैं. आप भी लीजिए,’’ रितेश ने कहा.

‘‘मैं अपना टिफिन लाई हूं. आप आराम कीजिए, मैं खाना गरम कर देती हूं.’’

खाना खाते समय रिया ने रितेश से पारिवारिक प्रश्न पूछ ही लिया, ‘‘सर, आप की तबीयत ठीक नहीं है, अपने घर से किसी को बुला दीजिए.’’

‘‘बूढ़े मातापिता को मैं तकलीफ नहीं देना चाहता हूं. दोचार दिन में ठीक हो जाऊंगा. बहनभाई अपने परिवार के साथ दूसरे शहर में रहते हैं. अब बुखार तो उतर ही गया है.’’

‘‘आप के मातापिता कहां रहते हैं?’’

‘‘बड़े भाई के साथ रहते हैं.’’

‘‘आप विवाह कर लीजिए, एक से दो भले,’’ रिया की बात सुन कर रितेश मुसकरा दिया और खाना खाने के बाद बोला, ‘‘विवाह के कारण ही यहां अकेला रह रहा हूं.’’

‘‘आप की पत्नी अलग रहती है?’’

‘‘मेरा पत्नी से तलाक हो गया है. 4 साल पहले मेरा रीमा से विवाह हुआ था. मैं भी आर्किटेक्ट और रीमा भी आर्किटेक्ट. हम दोनों एक ही कंपनी में काम करते थे.

“उस समय हम कोलकाता में काम करते थे. विवाह के एक महीने बाद ही रीमा अपने मायके गुवाहाटी गई और लौट कर नहीं आई.

“मैं ने उसे बुलाया, गुवाहाटी भी कर्ई बार लेने गया, पर वह मेरे साथ रहने को तैयार नहीं हुई. 6 महीने के प्रयास के बाद मैं ने थक कर बिना किसी कारण के रीमा का परित्याग करने पर हिंदू मैरिज ऐक्ट के अंतर्गत तलाक ले लिया. पिछले वर्ष कोर्ट ने तलाक पर मुहर लगा दी और मैं कोलकाता छोड़ कर दिल्ली आ गया.’’

‘‘कोई कारण तो अवश्य होगा?’’

‘‘उस ने कोर्ट में भी कोई कारण नहीं बताया और तलाक हो गया. विवाह के बाद हम मुश्किल से एक महीना साथ रहे. मुझे आज तक उस का बिना कारण छोड़ कर चले जाने का रहस्य समझ नहीं आया.

“जब उसे रहना ही नहीं था, तब विवाह क्यों किया? खैर, अब एक वर्ष से अकेला रह रहा हूं. अपने गुजारे के लिए खाना बना लेता हूं…

“आप जो गीत सुन रही थीं, वह मेरे हाल पर सही बैठता है. रीमा को भूलना चाहता हूं और वो याद आ जाती है.’’

‘‘वो तो मैं देख रही हूं,’’
रिया पूरे दिन रितेश के साथ रही, मिलजुल कर काम करते रहे और शाम को अपने बौस कमलनाथ को कार्य प्रगति की सूचना दी.

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कमलनाथ ने रितेश को आराम करने को कहा कि औफिस आने की जल्दी न करे और रिया को अगले 3-4 दिन रितेश के घर से काम करने को कहा.

‘‘रिया, हमारे बौस भी महान हैं. मुझे आराम करने को कह रहे हैं और तुम्हें मेरे साथ काम करने को कह रहे हैं. जब काम करूंगा, तब आराम कैसे करूंगा.’’

‘‘मैं आप को परेशान नहीं करूंगी. आप अधिक आराम कीजिए और सिर्फ मुझे काम बता दीजिए. काम मैं कर लूंगी, क्योंकि मैं ने ऐसे प्रोजैक्ट पर काम नहीं किया है, इसलिए आप को अधिक नहीं थोड़ा सा परेशान करूंगी.’’

‘‘रिया, मैं तो मजाक कर रहा था, क्योंकि तुम्हें मालूम है कि मैं एक मिनट भी खाली नहीं बैठ सकता हूं.’’

‘‘आप आराम कीजिए, अपना खाना मत बनाना. मैं आप के लिए खाना ले आऊंगी.’’

‘‘शाम को तो बनाना ही होगा.’’

‘‘शाम को जाते समय मैं बना दूंगी.’’

एक सप्ताह तक रिया रितेश के घर आ कर काम करती रही. शनिवार और रविवार की छुट्टी वाले दिन भी रिया रितेश के घर आई. काम करने के साथ दोनों पारिवारिक और औफिस की बातों पर चर्चा करते.

रिया भी तलाकशुदा थी, जिस का अभी 6 महीने पहले ही आपसी रजामंदी से तलाक हुआ था.

रिया अपने टिफिन में रितेश का भी खाना लाती और रात का खाना बना कर जाती. एक सप्ताह में रितेश और रिया ने अपने जीवन को साझा किया और छोटे से समय में कुछ नजदीक होते हुए.

रितेश स्वस्थ होने के बाद औफिस आने लगा. रिया रितेश के लिए खाना यथापूर्वक लाती रही. धीरेधीरे नजदीकियां बढ़ने लगीं और 5 महीने बाद दोनों एकदूसरे के बिना अधूरे से लगने लगे.

एक दिन उन के बौस कमलनाथ ने उन्हें नया जीवन आरंभ करने की सलाह दी.

रितेश और रिया विवाह के बंधन में बंध गए. दिन गुजरते गए और दोनों दो से तीन हो गए. एक पुत्री के आने से दोनों का जीवन पूर्ण हो गया. रितेश कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ता गया.

आर्किटेक्ट एसोसिएशन के अधिवेशन में रितेश का कोलकाता जाना हुआ. वहां रीमा ने उसे देख लिया. रितेश अपना कार्य संपन्न करने के बाद दिल्ली वापस आ गया. थोड़े दिन बाद उसे कोर्ट से नोटिस मिला.

नोटिस रीमा ने दंड प्रक्रिया संहिता (क्रिमिनल प्रोसीजर कोड) के सैक्शन 125 के अंतर्गत गुजारा भत्ता देने के लिए था.

नोटिस मिलने पर उदास रितेश से रिया ने कारण पूछा.

‘‘रिया, जब तुम्हारा तलाक हुआ था, तब गुजारा भत्ता के लिए कोई आदेश जारी हुआ था?’’

‘‘रितेश, मेरा तलाक आपसी सहमति से हुआ था. हमारा लिखित अनुबंध हुआ था, जिस के तहत मुझे एकमुश्त रकम मिली थी. लेकिन तुम यह क्यों पूछ रहे हो?’’

‘‘रीमा ने गुजारा भत्ता के लिए कोर्ट में केस किया है,’’ रितेश ने कोर्ट के नोटिस को रिया के आगे किया.

‘‘जब तुम्हारा तलाक हुआ था, तब गुजारा भत्ता नहीं मांगा था?’’

‘‘रिया, यह नोटिस मुझे इसलिए हैरान कर रहा है कि तलाक के केस के दौरान रीमा ने कोई प्रतिरोध नहीं किया था. शादी के एक महीने के बाद बिना कारण वह मुझे छोड़ गई थी. इसी कारण पर तलाक हो गया था और उस ने गुजारा भत्ता के लिए कोई जिक्र ही नहीं किया था.’’

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‘‘अब क्या होगा?’’

‘‘कोर्ट का नोटिस है, वकील से बात करनी होगी. कोलकाता कोर्ट में तलाक हुआ था, वहीं कोर्ट में केस किया है. अब सारी कार्यवाही कोलकाता में होगी. दिल्ली में रहने वाला कोलकाता कोर्ट के चक्कर काटेगा. मुसीबत ही मुसीबत है. काम का हर्ज भी होगा, कोलकाता आनेजाने का खर्चा, वकील की फीस के साथ दिमाग चौबीस घंटे खराब और परेशान रहेगा,’’ कह कर रितेश गहरी सोच में डूब गया.

‘‘तुम चिंता मत करो. अब जो मुसीबत आ गई है, उस का मुकाबला मिल कर करेंगे. आप वकील से बात करो, अधिक चिंता मत करो,’’ रिया को अपने साथ कंधे से कंधे मिला कर खड़ा देख रितेश में हिम्मत आ गई और कोलकाता में उस वकील से बात की, जिस ने उस का तलाक का केस लड़ा था.

वकील बनर्जी बाबू ने रितेश को कोलकाता आ कर एक बार मिलने को कहा, ताकि केस की पैरवी की जा सके.

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परित्याग: भाग 3- क्या पहली पत्नी को छोड़ पाया रितेश

रितेश के साथ रिया भी कोलकाता में वकील बनर्जी से मिली. वकील बनर्जी तलाक की पुरानी फाइल देख कर कहता है कि आप का तलाक परित्याग के कारण हुआ था. रीमा ने बिना कारण आप का परित्याग किया है. गुजारा भत्ता क्रिमिनल प्रोसीजर कोड के सैक्शन 125 के अंदर मिलता है. उस ने देरी से केस फाइल किया है, जिस का हम विरोध करेंगे और दूसरी आपत्ति हमारी सैक्शन 125 (4) के अंतर्गत करेंगे कि रीमा ने बिना किसी कारण आप का परित्याग किया और आप के साथ रहने से इनकार किया था. इन्हीं वजहों से तलाक मिला था और आप का गुजारा भत्ता देना नहीं बनता है. आप केस जीतेंगे, आप बेफिक्र रहें.’’

रिया ने अपने तलाक का जिक्र किया, तब वकील बनर्जी ने समझाया कि सैक्शन 125 के तहत आपसी रजामंदी से हुए तलाक में समझौते के अंतर्गत गुजारा भत्ता नहीं बनता है, क्योंकि ऐसे केस में एकमुश्त राशि पर समझौता होता है.

रितेश कोर्ट की तारीख पर कोलकाता आया. रीमा से आमनासामना हुआ. रितेश ने कहा, ‘‘रीमा, तुम ने बिना किसी कारण के मेरा परित्याग किया था, जिस कारण हमारा तलाक हुआ और अब तुम गुजारा भत्ता मांग रही हो, जो तुम्हारा हक भी नहीं है और मिलेगा भी नहीं.’’

‘‘रितेश, यह तो मेरा हक है. पहले नहीं मांगा, अब मांग लिया. यह तो देना ही होगा तुम्हें.’’

‘‘जब शादी से भाग गई, तब हक नहीं बनता है.’’

‘‘कानून महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करता है, तुम मेरा हक नहीं छीन सकते हो.’’

‘‘अपने मन से पूछो, जब वैवाहिक जीवन का कोई दायित्व नहीं निभाया. तुम भाग खड़ी हुई. इस को भगोड़ा कहते हैं. कोर्ट भगोड़ों से कोई सहानुभूति नहीं रखती है. तुम अपना केस वापस ले लो.’’

‘‘मैं ने केस वापस लेने के लिए नहीं किया है, गुजारा भत्ता लेने के लिए किया है.’’

‘‘क्या तुम ने शादी गुजारा भत्ता लेने की लिए की थी?’’

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‘‘बिलकुल यही समझो.’’

‘‘तुम भारतीय स्त्री के नाम पर एक कलंक हो. विवाह जनमजनम का रिश्ता होता है. पति और पत्नी अपना संपूर्ण जीवन एकदूसरे पर न्यौछावर करते हैं. सुख और दुख में बराबर के भागीदार होते हैं. तुम ने क्या किया? विवाह से भाग खड़ी हुई, सिर्फ गुजारा भत्ता लेने के लिए?’’

‘‘अब जो भी बात होगी, कोर्ट में होगी. मुझे तुम से कोई बात नहीं करनी है,’’ कह कर रीमा चली गई.

कोर्ट में हर दूसरे महीने तारीख पड़ जाती. रितेश को औफिस से छुट्टी ले कर कोलकाता जाना पड़ता. वकील से बात कर के पेशी के दौरान की रणनीति बनानी पड़ती. कभी जज महोदय छुट्टी पर होते, तो कभी रीमा का वकील तारीख ले लेता कि वह दूसरी कोर्ट में व्यस्त है, कभी उस का वकील तारीख लेता और कभी वकीलों की हड़ताल के कारण तारीख मिल जाती. एक बार जज का तबादला हो गया और नए जज ने तारीख दे दी. तारीख पर तारीख के बीच कभीकभार दोचार मिनट की सुनवाई हो जाती.

रितेश कोर्ट के पचड़ों से परेशान था, लेकिन कोई रास्ता नहीं निकल पा रहा था. आखिर तीन वर्ष बाद कोर्ट का फैसला आया.

रीमा की ओर से तर्क दिया गया कि सैक्शन 125 के अंतर्गत तलाक के बाद पत्नी को गुजारा भत्ता का हक है, क्योंकि उस ने दूसरा विवाह नहीं किया. जबकि रितेश की ओर से तर्क दिया गया, क्योंकि रीमा स्वयं विवाह के एक महीने बाद भाग गई थी और कई प्रयासों के बावजूद रितेश के संग नहीं रही और रीमा ने रितेश का परित्याग कर दिया और इसी कारण हिंदू मैरिज एक्ट के अंतर्गत तलाक हुआ और सैक्शन 125 (4) के अंतर्गत रीमा जानबूझ कर रितेश के साथ नहीं रही, इसलिए वह गुजारा भत्ता की हकदार नहीं है.

कोर्ट ने रितेश के पक्ष में फैसला दिया. रितेश प्रसन्न हो गया, लेकिन रीमा ने कोर्ट से बाहर आते ही रितेश को हाईकोर्ट में मिलने की चेतावनी दे दी.

रीमा ने हाईकोर्ट में अपील दायर की. अगले 3 वर्ष कोलकाता हाईकोर्ट के चक्कर काटने में लग गए. हाईकोर्ट ने रीमा के पक्ष में फैसला सुनाया.

हाईकोर्ट ने रीमा के पक्ष में फैसला इस आधार पर दिया कि रीमा का रितेश के साथ तलाक हो गया है. उस ने दोबारा विवाह नहीं किया. सैक्शन 125 के तहत रीमा गुजारा भत्ता की हकदार है.

हाईकोर्ट के फैसले से रितेश मायूस हो गया कि उसे किस जुर्म की सजा मिल रही है. जुर्म उस का इतना कि उस ने अपने साथ औफिस में काम करने वाली सहकर्मी से विवाह किया, जो एक महीने बाद उसे त्याग कर भाग गई. गलती पत्नी की और गुजारा भत्ता दे पति, यह कहां का इंसाफ है.

रिया ने रितेश का हौसला बढ़ाते हुए सुप्रीम कोर्ट में अपील करने की सलाह दी.

‘‘रिया, आज 6 वर्ष हो गए हैं मुकदमा लड़ते हुए. हिम्मत टूट गई है अब. बिना कुसूर के सजा काट रहा हूं मैं.’’

‘‘रितेश, हमारे देश और समाज की यह बहुत बड़ी विडंबना है कि बेकुसूर सजा भुगतता है और कुसूरवार मजे करते हैं. सैक्शन 125 एक भले काम के लिए बनाया गया है, लेकिन इस का दुरुपयोग रीमा जैसी औरतें करती हैं, जो भले पुरुषों से विवाह कर के छोड़ देती हैं और पुरुषों को जीवनभर बिना किसी कारण के दंड भुगतना पड़ता है.’’

रितेश ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की. सुप्रीम कोर्ट में अपील का फैसला तीन वर्ष बाद आया.

सुप्रीम कोर्ट ने रितेश की दलील को अस्वीकार कर दिया कि रीमा ने दूसरी शादी नहीं की, इसलिए रीमा गुजारा भत्ता की हकदार है. विवाह के बाद रीमा ने रितेश का परित्याग किया, जिस कारण हिंदू मैरिज ऐक्ट के अंतर्गत तलाक हो गया. सैक्शन 125 में तलाक के बाद गुजारा भत्ता है.

तलाक के बाद रीमा और रितेश स्वाभाविक रूप से अलग रहेंगे. यह अलग रहना ही गुजारा भत्ता दिलाता है.

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रितेश की इस दलील को सुप्रीम कोर्ट ने ठुकरा दिया कि यह किस का परित्याग है. रीमा ने जानबूझ कर बिना कारण के रितेश का परित्याग किया और इस परित्याग के कारण रीमा को गुजारा भत्ता नहीं मिलना चाहिए.

रीमा पढ़ीलिखी आर्किटेक्ट है. वह स्वयं अपने पैरों पर खड़ी हो सकती है, लेकिन रीमा ने स्वयं को बेरोजगार बताया. रीमा ने दोबारा विवाह नहीं किया और बेरोजगार की बात मानते हुए रीमा के हक में फैसला किया.

10 वर्ष की लंबी कानूनी लड़ाई में चंद सिक्कों की जीत से रीमा को क्या मिला, यह रितेश और रिया नहीं समझ सके. ऐसी स्त्रियों को गुजारा भत्ता का कानून भी बेसिरपैर का लगा, लेकिन उन के हाथ सुप्रीम कोर्ट के फैसले से बंधे हुए थे. आखिर कानून को अंधा क्यों बनाया हुआ है. अबला नारी को संरक्षण मिलना चाहिए, लेकिन अबला पुरुष को सबला नारी से भी बचाना चाहिए. कानून को किताब से निकाल कर व्यावहारिक निर्णय लेने चाहिए. रितेश और रिया जवाब ढूंढ़ने में नाकामयाब हैं. उन के हाथ 10 वर्ष की लंबी लड़ाई के बाद सिर्फ निराशा ही मिली. सचझूठ के आवरण में छिप कर अपना स्वरूप खो बैठा.

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परित्याग: भाग 1- क्या पहली पत्नी को छोड़ पाया रितेश

रितेश अपने औफिस में काम में व्यस्त था. पेशे से वह एक बहुत बड़ी आर्किटेक्ट फर्म में काम करता था. सारा समय वह काम में डूबा रहता था. उम्र उस की मात्र 32 वर्ष की ही थी, लेकिन उस के दिमाग के घोड़े जब दौड़ते थे, तब अनुभवी आर्किटेक्ट भी चारों खाने चित हो जाते थे.

हमेशा शांत रहने वाला रितेश एकाकी जीवन व्यतीत कर रहा था. घर से औफिस और औफिस से घर तक ही रितेश का जीवन सीमित था. रितेश का व्यक्तित्व साधारण था, गेहुंआ रंग और मध्यम कदकाठी. उस का शरीर किसी को आकर्षित नहीं करता था, लेकिन उस का काम और काम के प्रति समर्पण हर किसी को आकर्षित करता था.

औफिस के नजदीक ही उस ने रहने के लिए एक कमरा किराए पर लिया था. वह औफिस पैदल आया जाया करता था. उस के पास कोई कार, स्कूटर, बाइक वगैरह कुछ भी नहीं था. कमरे में एक बिस्तर, कुछ कपड़े, कुछ किताबें के अतिरिक्त कुछ बरतन, जिन में वह अपना खाना बनाया करता था. दाल, रोटी, चावल बनाना वह सीख गया था और इन्हीं में अपना गुजारा करता था. कभी रोटी नहीं भी बनाता था, फलाहार से काम चल जाता था.

औफिस में रिया नई आई थी. वह भी काम के प्रति समर्पित थी. सुबहसवेरे रिया को औफिस में रितेश नहीं दिखा. वह एक प्रोजैक्ट पर रितेश के साथ काम कर रही थी. उस ने फोन किया, लेकिन रितेश ने फोन नहीं उठाया. रितेश को रात में तेज बुखार हो गया था, जिस कारण वह करवटें बदलता रहा और सुबह नींद आई. तेज नींद के झौंके में फोन की घंटी उसे सुनाई नहीं दी.

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औफिस में रितेश के बौस कमलनाथ को आश्चर्य हुआ कि बिना बताए रितेश कहां चला गया. उस ने कोई संदेश भी नहीं छोड़ा. रितेश औफिस के समीप ही रहता था, इसलिए लंच समय में टहलते हुए कमलनाथ रितेश के घर की ओर रिया के संग चल दिए.

रितेश एक मकान की तीसरी मंजिल पर बने एक कमरे में रहता था. जब कमलनाथ और रिया रितेश के कमरे में पहुंचे, तब डाक्टर रितेश का चेकअप कर रहा था. डाक्टर ने दवाई का परचा लिख दिया.

‘‘परचा तो आप ने लिख दिया, लेकिन बिस्तर से उठने की हिम्मत ही नहीं हो रही है,’’ रितेश ने डाक्टर को अपनी लाचारी बताई.

डाक्टर ने अपने बैग से दवा निकाल कर रितेश को दी और कहा, ‘‘यह दवा अभी ले लो. पानी किधर है.’’

पानी की बोतल बिस्तर के पास एक स्टूल पर रखी हुई थी. रितेश ने दवा ली. कमलनाथ ने डाक्टर से रितेश की तबीयत का हालचाल पूछा.

‘‘मैं कुछ टैस्ट लिख देता हूं. लैब का टैक्निशियन खून और पेशाब के सैंपल जांच के लिए यहीं से ले जाएगा. रितेश को तीन दिन से बुखार आ रह था. मुझे टाइफाइड लग रहा है.’’

डाक्टर के जाने के बाद कमलनाथ ने रितेश से दवा का परचा लिया और रिया को कैमिस्ट शौप से दवा लाने को कहा.

‘‘कमरे को देख कर ऐसा लगता है कि तुम अकेले रहते हो?’’ कमलनाथ ने रितेश से पूछा. रितेश ने गरदन हिला कर हां बोल दिया.

‘‘रितेश तुम आराम करो, मैं यहां औफिस बौय को भेज देता हूं. वह तुम्हारी मदद कर देगा. तुम कुछ दिन आराम करो, काम हम देख लेंगे,’’ रिया ने रितेश को दवा दी और कमलनाथ के संग वापस औफिस चली गई.

रितेश को बारबार उतरतेचढ़ते बुखार से कमजोरी हो गई. शाम को औफिस बौय रितेश के लिए बाजार से कुछ फल ले आया और दालचावल बना दिए. अगले दिन जांच रिपोर्ट आने पर टाइफाइड की पुष्टि हो गई.

रितेश औफिस जाने की स्थिति में नहीं था. टाइफाइटड ने उस का बदन निचोड़ लिया, जिस कारण वह औफिस नहीं जा सका.

3 दिन बाद कमलनाथ ने रितेश से उस की तबीयत पूछी और उस के औफिस आने की असमर्थता जताने पर जरूरी काम निबटाने के लिए रिया को उस के घर जा कर काम करने को कहा.

कमजोरी के कारण रितेश ने शेव भी नहीं बनाई थी. स्नान करने के पश्चात उस ने कपड़े बदले थे और चाय बना कर ब्रेड को चाय में डुबो कर खा रहा था.

फाइल और लैपटौप के साथ रिया रितेश के कमरे में पहुंची. पिछली शाम कमलनाथ से बातचीत के बाद रिया के उस के पास आ कर काम करने का कार्यक्रम बन गया था.

रितेश ने कमरा व्यवस्थित कर लिया था. बिस्तर पर नई बेडशीट बिछा दी थी और झाड़ू लगा कर कमरा साफ कर दिया था. 2 कुरसी के साथ एक गोल मेज थी.

सुबह का अखबार पढ़ते हुए रितेश चाय पी रहा था. ब्रेड को चाय में डुबा कर खाते देख रिया अपनी मुसकराहट रोक नहीं सकी. उसे अपने बचपन के दिन याद आ गए, जब वह भी चाय में बिसकुट और ब्रेड डुबो कर खाती थी.

‘‘मुसकराहट के पीछे का राज भी बता दो?’’ रितेश ने आखिर पूछ ही लिया.

रिया लैपटौप और फाइल गोल मेज पर रख कर एक कुरसी पर बैठ गई. रितेश ने रिया को चाय देते हुए कहा, ‘‘अभी बनाई है, गरम है. पहले चाय पी लो, फिर काम करते हैं. बिसकुट मीठे भी हैं और नमकीन भी हैं,’’ कह कर रितेश ने बिसकुट के डब्बे रिया के सामने रखे.

चाय पीने के पश्चात दोनों ने काम आरंभ किया. एक घंटा काम करने के पश्चात रितेश ने आंखें बंद कर लीं.
‘‘सर, आप को थकान हो रही है. कुछ देर के लिए काम रोक लेते हैं, बाद में कर लेते हैं.’’

‘‘टाइफाइड ने बदन निचोड़ लिया है, एकमुश्त काम नहीं होता है. थोड़ा आराम करता हूं, 10-15 मिनट बाद काम करते हैं.’’

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‘‘जी सर, आप आराम कीजिए.’’

रितेश ने एफएम रेडियो लगाया. रेडियो पर गीत आ रहा था, ‘जिन्हें हम भूलना चाहें वो अकसर याद आते हैं…’ रितेश ने एफएम स्टेशन बदल दिया, वहां नए गीत आ रहे थे.

‘‘अच्छा गाना था, ‘जिन्हें हम भूलना चाहें वो अकसर याद आते हैं…’ रिया ने रितेश से कहा.

‘‘पुराना गीत है और साथ में थोड़ा उदासी वाला. शायद, आप को पसंद न आए, इसीलिए बदल लिया.’’

‘‘सर, मुझे नएपुराने सभी गीत पसंद हैं,’’ रिया की बात सुन कर रितेश मुसकरा दिया और काम फिर से शुरू कर दिया.

धीमे स्वर में एफएम रेडियो बजता रहा और हर आधे घंटे बाद रितेश काम बंद कर 10 मिनट आराम करता. दोपहर के एक बजे रिया ने रितेश से खाने के बारे में पूछा.

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