अभय डाक्टर बन गया तो घर में उस के लिए रिश्तों की बाढ़ आ गई. किसीकिसी दिन तो एकसाथ 2-2 लड़की वाले आ कर बैठ जाते. अपनीअपनी बेटियों की प्रशंसा के पुल बांधते, लड़की की योग्यता के प्रमाणपत्रों की फोटोस्टेट कापियां दिखलाते, लड़की दिखाने का प्रस्ताव रखते और विभिन्न कोणों से खींची गई लड़की की दोचार रंगीन तसवीरें थमा कर, बारबार नमस्कार कर के, उम्मीदें बांध कर चले जाते थे.
शिखा की समझ में नहीं आ रहा था, इन रंगीन तसवीरों के समूह में से किस लड़की को अपनी देवरानी बनाए. किसे पसंद करे. सभी तसवीरें एक से बढ़ कर एक फिल्म अभिनेत्रियों जैसे अंदाज व लुभावने परिधानों में थीं.
शिखा ने अपने पति दिनेश से पूछा. उस ने कह दिया, ‘‘अभय से पूछो, विवाह उसे करना?है. लड़की उस की पसंद की होनी चाहिए.’’
शिखा ने सभी तसवीरें और प्रमाणपत्रों की फोटोस्टेट कापियां अभय के सामने रख दीं. अभय ने उड़ती सी निगाह डाल कर सभी तसवीरें सामने से हटा दीं और बोला, ‘‘जो लड़की तुम्हें पसंद आए उसी को बहू बना कर ले आओ, भाभी. मुझे लडकी के रंगरूप से क्या लेनादेना. जो लड़की मेरी मां समान भाभी की सेवा व सम्मान कर सके, दोनों भाइयों में फूट न डलवाए, सुख का नया संसार बनाने में मदद करे, वही मुझे स्वीकार होगी.’’
‘लेकिन तसवीर से कैसे पता लग सकता?है कि लड़की का स्वभाव कैसा है? गुणों के साथ सुंदरता भी तो चाहिए. बहू घर की शोभा होती है,’ शिखा सोचती रह गई थी.
दिनेश व अभय ने गृहस्थी के अन्य कामों की तरह लड़की पसंद करने की जिम्मेदारी भी शिखा के कंधों पर डाल दी थी.
उस ने सभी तसवीरों में से एक तसवीर छांट कर, अभय को जबरदस्ती लड़की देखने भेज दिया. अभय ने लौट कर बतलाया कि लड़की के सामने के दांत काफी उभरे, चौड़ेचौड़े लग रहे थे. हंसने पर पूरी बत्तीसी बाहर आ जाती थी.
2 जगह दिनेश को भेजा. वह दोनों लड़कियां भी पसंद नहीं आईं. फिर दोचार जगह शिखा भी अभय व दिनेश को साथ ले कर लड़की देख आई. पर जो बात तसवीरों में थी, वह लड़कियों में नहीं थी.
तसवीरों व प्रमाणपत्रों के आधार पर कोई लड़की कैसे पसंद की जा सकती थी? झुंझला कर शिखा ने तसवीरें वापस भेज दीं. अकारण जगहजगह लड़की देखने जा कर लड़की वालों को परेशान करना उचित नहीं था. अपना वक्त भी बरबाद होता?था. घर में अकेले बच्चे भी दुखी हो जाते?थे.
शिखा को लड़की पसंद करने का काम पहाड़ पर चढ़ने जैसा लग रहा था. फिर भी लड़की तो पसंद करनी ही थी. इकलौते देवर के गले में कोई ऐसीवैसी थोड़े ही बांधी जा सकती थी?
एक दिन एक सज्जन अपनी भांजी का रिश्ता ले कर आए. एक सीधीसादी तसवीर, बस. न प्रमाणपत्रों की गठरी न प्रशंसा के पुल और न दहेज का लालच.
लड़की इसी शहर में डाक्टरी पढ़ रही थी. लड़की डाक्टरी पढ़ती है, सुन कर दिनेश भी दिलचस्पी लेने लगा. अभय से पूछा तो उस ने वही वाक्य दोहरा दिया, ‘‘लड़की?भाभी की पसंद की होनी चाहिए.’’
दिनेश व शिखा लड़की देखने चले गए. शिल्पी ने अपने व्यवहार, सुघड़ता व भोलेपन से दोनों का मन मोह लिया. दिनेश के इशारे पर शिखा शिल्पी को अंगूठी भेंट कर रिश्ता पक्का कर आई.
सूचना पा कर अन्य शहर में रहने वाले शिल्पी के पिता, सौतेली मां, सौतेले भाईबहन आ गए. सादे समारोह में विवाह संपन्न हो गया.
शिल्पी का मधुर स्वभाव व अच्छा व्यवहार देख कर अभय शिखा की प्रशंसा करता रहता, ‘‘मैं जानता था, भाभी मेरे लिए लाखों में एक छांट कर लाएंगी. शिल्पी मेरी उम्मीदों से बढ़ कर है.’’
शिखा खुश थी. देवर ने उस का मान तो रखा ही, सराहना भी की.
अभय जब से चिकित्सा के क्षेत्र में आया था तभी से निजी नर्सिंग होम खोलने का सपना देखता रहता था. अब शिल्पी के आ जाने से उस की यह इच्छा और बलवती हो उठी थी. घर में 2 डाक्टर हो गए. अपना नर्सिंग होम होता तो प्रतिभा दिखलाने के अधिक अवसर मिलते. अधिक लाभ उठाया जा सकता था.
लेकिन नर्सिंग होम दूर की चीज थी. दिनेश के पास इतने भी रुपए नहीं थे कि इकलौते भाई के लिए कोई अच्छा सा दवाखाना खुलवा दे. न उस की पहुंच कहीं ऊपर तक थी कि अभय को नौकरी दिलवा पाता.
किसी अच्छी सिफारिश के अभाव में काफी भागदौड़ कर के भी अभय किसी अस्पताल में नौकरी नहीं पा सका तो उस ने एक किराए की दुकान ले कर प्रैक्टिस शुरू कर दी.
अनुभव व आवश्यक डाक्टरी उपकरण पास में न होने के कारण अभय का चिकित्सालय कम चलता था. जो आमदनी होती वह दुकान का किराया, कंपाउंडर की तनख्वाह व स्कूटर के पेट्रोल में खर्च हो जाती थी. इतनी बचत नहीं थी कि वह कुछ रुपए घर में दे पाता.
शिल्पी ने पढ़ाई पूरी की. नौकरी पाने का प्रयास किया तो उस की नौकरी एक स्थानीय अस्पताल में लग गई.
शिल्पी ने अपना पहला वेतन ला कर शिखा के हाथ में रखा तो शिखा ने नम्रता से इनकार कर दिया, ‘‘क्या यह अच्छा लगता है कि घर की बहू से खानेरहने के पैसे लिए जाएं? तुम इस घर की बहू हो. तुम्हें घर में रहनेखाने का पूरा अधिकार है.’’
अभय ने भी शिल्पी के वेतन को हाथ नहीं लगाया. भारी स्वर में बोला, ‘‘पत्नी की कमाई खा कर क्या मैं मर्दों की जमात में सिर नीचा कर लूं? कायदे से तो मुझे तुम्हारा खर्च उठाना चाहिए था.’’
दिनेश ने शिल्पी को समझाया, ‘‘देखो बहू, तुम बचपन से अपने मामा के घर में पली हो. उन्होंने तुम्हारे पालनपोषण, शिक्षा आदि का भार उठाया है. तुम्हारे मामा की आर्थिक स्थिति भी ठीक नहीं है. अपने वेतन से तुम्हें उन की सहायता करनी चाहिए.’’
‘‘लेकिन भैया, मेरा इस घर के लिए भी तो कुछ फर्ज है?’’ उलझन में पड़ी शिल्पी ने पूछा.
‘‘इस घर के खर्चे की चिंता मत करो. मैं इतना तो कमा लेता हूं, जिस से सब का खानापीना चलता रहे.’’
दिनेश ने शिल्पी के नाम से बैंक में खाता खुलवा दिया और कह दिया, ‘‘जो रुपए बचें वे नर्सिंग होम बनवाने के लिए जमा करती जाओ.’’
धीरेधीरे अभय की डाक्टरी चल निकली. उस ने घर में रुपए देने चाहे तो दिनेश ने मना कर दिया. अभय को अपने लिए नर्सिंग होम कोठी बनवाने व कार खरीदने के लिए भी तो रुपए चाहिए. डाक्टर हो कर इस पुराने छोटे से घर में रहेगा तो लोग क्या कहेंगे. अभी से रुपए जोड़ना शुरू करेगा तो वर्षों में जुड़ पाएंगे.
शिल्पी की तरह फिर अभय ने भी चुप लगा ली. दोनों पतिपत्नी कभीकभार कुछ नाश्ते का सामान, फल, सब्जी वगैरा खरीद कर ले आते थे.
शिल्पी के पांव भारी हुए तो शिखा ने उसे सुबह का नाश्ता बनाने से भी रोक दिया. अस्पताल में तो सुबह से शाम तक मरीजों से सिर मारना ही पड़ता है. घर में तो आराम मिल जाए.
शिल्पी मां बनी तो शिखा ने उस के बेटे डब्बू को पालने का पूरा भार अपने कंधों पर ले लिया. वह डब्बू के पोतड़े भी हंसीखुशी धोती थी.
शिल्पी व अभय दोनों ने डब्बू की देखरेख के लिए कोई आया रखने की पेशकश की तो शिखा ने मना कर दिया. क्या यह उचित लगता है कि उस के रहते डब्बू आया की गोद में पले? नवजात शिशु के लालनपालन के लिए आया पर विश्वास भी तो नहीं किया जा सकता. जरा सी असावधानी शिशु के लिए जानलेवा बन सकती है.
शिल्पी 2 माह के डब्बू को जेठानी की गोद में सौंप कर निश्चिंत हो कर पुन: अस्पताल जाने लगी.
शिखा के तीनों बच्चे हर वक्त डब्बू के इर्दगिर्द मंडराते रहते. डब्बू सभी के हाथों का खिलौना बन गया था. दिनेश भी रात को दुकान से आ कर डब्बू को उछालउछाल कर खूब हंसाता और अपने पूरे दिन की थकावट भूल जाता था.
अब तक अभय अपनी डाक्टरी में इतना अधिक व्यस्त हो चुका था कि अपने बेटे को गोद में ले कर पुचकारनेदुलारने का वक्त भी नहीं निकाल पाता था.
शिखा का बड़ा बेटा गौरव 3 वर्ष से लगातार इंजीनियरिंग की प्रतियोगिता में बैठता आ रहा था. गौरव की योग्यता देख कर सभी को उस के प्रतियोगिता में आ जाने की उम्मीद थी. पर पता नहीं क्यों गौरव को इस बार भी असफलता ही मिली.
तीसरी बार असफल हो कर गौरव पूरी तरह से निराश हो उठा. इंजीनियर बनने की इच्छा पूरी होने के आसार नजर नहीं आए तो गौरव का मन क्षुब्ध हो उठा. पढ़ाई से जी उचटने लगा.
गौरव को दुखी देख कर शिखा व दिनेश का मन भी बेचैन रहने लगा. दोनों वर्षों से बेटे को इंजीनियर बनाने के सपने देखते आए थे.
लेकिन सपने क्या आसानी से सच हुआ करते हैं? घर में आर्थिक अभाव हो तो छोटेछोटे खर्चे भी पहाड़ मालूम पड़ने लगते हैं.
गौरव के एक मित्र ने चंदा दे कर किसी इंजीनियरिंग कालिज में दाखिला करा देने का प्रस्ताव रखा तो पहली बार दिनेश को अपनी आर्थिक अक्षमता का बोध हुआ.
कहां से लाए वह 30-35 हजार रुपए? फिर गौरव की पढ़ाई और छात्रावास का खर्चा. कैसे पूरा कर सकेगा वह?
दोनों बेटियां भी तो विवाह योग्य होती जा रही थीं और घर का दिनप्रतिदिन बढ़ता हुआ हजारों का खर्चा.
गौरव ने पहले तो चंदा दे कर दाखिला लेने से इनकार कर दिया. उस की नजरों में चंदा देना रिश्वत देने के समान था.
लेकिन जब उस ने अपने मित्रों को चंदा दे कर, दाखिला लेते देखा तो वह तैयार हो गया.
दिनेश ने जब शिखा को बतलाया कि वह गौरव की पढ़ाई का खर्चा उठाने में असमर्थ है तो चिंता के कारण शिखा की भूखप्यास मिट गई. उस ने पहली बार पति के सामने जबान खोली, ‘‘जब भाई को डाक्टरी पढ़ाई थी, तब उस का हजारों का खर्च भारी नहीं लगा था. आज मेरे बेटे की पढ़ाई बोझ लगने लगी है.’’
‘‘गौरव अकेला तुम्हारा ही नहीं, मेरा भी तो बेटा है, शिखा. मेरी बात समझने की कोशिश करो. जब अभय पढ़ रहा था तब घर में अधिक खर्चा नहीं था. मेरी दुकान में उस वक्त अधिक आमदनी हुआ करती थी,’’ दिनेश के स्वर में विवशता थी.
‘‘तो अभय से मांग लो. उस की डाक्टरी तो अब खूब चलने लगी है.’’
‘‘अभय के पास इस वक्त इतने रुपए नहीं होंगे. कुछ दिन पहले उस ने नए डाक्टरी उपकरण खरीदे हैं, दुकान का फर्नीचर बनवाया है.’’
‘‘शिल्पी से मांग लो.’’
‘‘मुझे किसी से कुछ मांगना अच्छा नहीं लगता, शिखा. शिल्पी क्या सोचेगी? जेठजेठानी दो वक्त का साधारण भोजन खिलाते हैं और बदले में हजारों रुपए मांग रहे हैं. हो सकता?है नाराज हो कर वह अलग घर में रहना शुरू कर दे.’’
‘‘तुम्हें दूसरों की चिंता अधिक है. अपने इकलौते बेटे का बिलकुल खयाल नहीं है. आखिर गौरव की पढ़ाई का क्या होगा?’’
दिनेश के पास शिखा की बात का कोई उत्तर नहीं था.
आक्रोश से भरी शिखा अंदर ही अंदर गीली लकड़ी की भांति सुलगती. उस के मन में बारबार एक ही विचार पनप रहा था. क्या अभय व शिल्पी का कोई फर्ज नहीं है? दोनों अपनेअपने पैरों पर खड़े हैं. आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं. क्या अपना खुद का खर्चा भी नहीं उठा सकते?
उसे अपने ऊपर भी बेहद क्रोध आ रहा था. उस की अक्ल पर पत्थर पड़ गए थे जब उस ने शिल्पी को घर में खर्चा देने से रोक दिया था?
सिर्फ एक ही बार तो रोका था. शिल्पी ने दोबारा खर्चा देने की पेशकश क्यों नहीं की? वह घर की स्थिति से अनजान तो नहीं है. रुपयों की कमी के कारण त्योहारों पर भी बच्चों के कपड़े नहीं बन पाते. वर्षों से शिखा मामूली साडि़यों में गुजारा कर रही है. क्या शिल्पी को यह सब दिखाई नहीं देता?
शिखा के जी में आ रहा था, शिल्पी को खूब खरीखोटी सुना कर मन की भड़ास निकाल ले. रूठ कर शिल्पी अलग हो जाएगी तो हो जाए. साथ में रह कर ही वह किसी का क्या भला कर रही है. कभी यह भी नहीं सोचती, जेठानी को थकान लग रही होगी. चाय बना कर पिला दे. थोड़ाबहुत घर के कामों में हाथ बंटा दे. आते ही बिस्तर पर पसर जाती है.
अभय ही कौन सा दूध का धुला है? घर के खर्चे का बोझ हलका करना चाहता तो क्या कोई उस का हाथ पकड़ लेता? सिर्फ झूठमूठ का खर्चा देने का नाटक किया था. परंतु डब्बू का?भोला चेहरा देखते ही शिखा के विचार बदल गए. मांबाप के स्वार्थ की सजा डब्बू को क्यों मिले?
अगर अभय, शिल्पी अलग रहने लगे तो यह मासूम नौकरों का मुहताज बन जाएगा. इस की परवरिश कैसे हो पाएगी? जैसे गौरव उस का बेटा है, वैसे डब्बू भी है. शिल्पी ने उसे जन्म दिया है तो क्या हुआ. ममता, स्नेह, दुलार दे कर तो वह ही पाल रही है.
शिखा ने देवरदेवरानी को इस बारे में अनभिज्ञ रखना ही उचित समझा. अकारण घर में कलह हो या वे दोनों कुछ गलत अर्थ लगा बैठें इसलिए उस ने रुपयों की कमी की या गौरव की पढ़ाई की किसी प्रकार की चर्चा घर में नहीं की.
लेकिन रुपयों की कमी की वजह से गौरव के मन को ठेस पहुंचाना भी उचित नहीं था. उत्साह भंग हो जाने से महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति न हो पाने के कारण गौरव का मानसिक संतुलन भी बिगड़ सकता था.
शिखा को अपने दोचार सोने के आभूषणों का खयाल हो आया. आभूषण बेटे से अधिक कीमती थोड़े ही थे? बेटे की खुशियों के लिए शिखा अपना जीवन तक बलिदान करने को तत्पर थी. फिर बेजान आभूषण क्या माने रखते थे?
वह घर में सब से छिपा कर आभूषण बेच रुपए ले आई. चंदे का, किराए का, इंतजाम तो हो ही चुका था. गौरव के मासिक खर्चे की इतनी फिक्र नहीं थी. जिस तरह से पेट काट कर अभय को डाक्टर बनाया था उसी प्रकार गौरव की पढ़ाई चल सकती थी.
शिखा तरहतरह की गुडि़या बनाने में पारंगत थी. घर के कामों से अवकाश पा कर व वक्त का सदुपयोग कर आसानी से वह 200-300 रुपए महावार कमा सकती थी.
दिनेश चकित रह गया. शिखा के पास इतना रुपया कहां से आ गया? हकीकत जानने, समझने का वक्त नहीं था. गौरव के जाने में सिर्फ एक दिन का वक्त ही तो बाकी बचा था.
बड़े उत्साह से शिखा गौरव के साथ रखने के लिए मठरी, पापड़ी तल रही थी. बेटे से लंबे अर्से तक अलग रहने के खयाल से उस की आंखें बारबार भर आती थीं. दोनों बेटियां भी बारबार आंखें पोंछ रही थीं.
शिल्पी आज कुछ देर से घर लौटी. बड़ी परेशान, गंभीर लग रही थी. आते ही सिर थाम कर कुरसी पर बैठ गई.
कुछ अनहोनी तो नहीं हो गई? शिखा का दिल आशंकाओं से धड़क उठा. उस ने प्रतिदिन की भांति चाय बना कर शिल्पी को दी तो वह फूट पड़ी, ‘‘भाभी, तुम मुझे कब तक पराया समझती रहोगी? क्या मैं इस घर की बहू नहीं हूं?’’
‘‘क्या हुआ?’’
‘‘भाभी, घर में रुपए की कमी थी तो अभय से या मुझ से क्यों नहीं कहा? चुपचाप बाजार जा कर अपने आभूषण क्यों बेच दिए?’’
शिखा घबरा गई. आभूषण बेचने की बात कानों में पड़ने से कहीं गौरव इंजीनियरिंग पढ़ने का इरादा न बदल डाले. उस ने शीघ्रता से कमरे का दरवाजा बंद कर लिया. फिर शिल्पी से चुप हो जाने का आग्रह करने लगी.
शिल्पा कहे जा रही?थी, ‘‘यह तो अच्छा हुआ, वह सर्राफ मामाजी का परिचित था. वह आप को जानता था. उस ने मामाजी से यह बात बतला दी. मामाजी घबराए हुए अस्पताल में मेरे पास पहुंचे, मुझे खूब लताड़ा. ऊंचनीच समझाई कि मैं बहुत लापरवाह हूं, घर का ध्यान नहीं रखती, जेठजेठानी को सता रही हूं, घर में डाक्टर बहू लाने का उन्हें क्या लाभ रहा. मुझे माफ कर दो भाभी. सचमुच मुझ से बहुत भारी भूल हो चुकी है.’’
शिल्पी की आंखों से पश्चात्ताप के आंसू बहने लगे थे. ‘‘अरेअरे, यह क्या करती है? बच्चों की तरह रोने बैठ गई. थकीहारी आई है, ले चाय पी, ठंडी हुई जा रही है,’’ शिखा द्रवित हो कर शिल्पी के आंसू पोंछने लगी.
‘‘मैं आप के सभी आभूषण वापस ले आई हूं, भाभी. मेरे खाते में जितने रुपए जमा थे वे भी निकाल कर ले आई हूं. आप ने कभी कुछ नहीं मांगा, न कभी रुपए लिए. मामाजी ने भी मुझ से कोई आर्थिक सहायता स्वीकार नहीं की. उलटे डांट पिलाई. बताओ भाभी, आखिर मैं इन रुपयों का क्या करूं?’’
‘‘इतने ढेर सारे रुपए निकाल कर ले आई. यह क्या नादानी की तू ने? रास्ते में कोई गुंडा पर्स पार कर देता तो? इन रुपयों को वापस बैंक में जमा कर आना. तुम दोनों को नर्सिंग होम और अपनी कोठी भी तो बनवानी है. मेरे आभूषण ले आई, तेरा यह एहसान ही क्या कम है, मेरे ऊपर?’’
‘‘भाभी, पराएपन की बातें करोगी तो मैं फिर से रोना शुरू कर दूंगी. जिस तरह से डब्बू आप का बेटा है, क्या गौरव मेरा बेटा नहीं है? गौरव को लिखानेपढ़ाने की जिम्मेदारी मेरी है, आप की नहीं.’’
एहसानों के भार से शिखा का सिर झुका जा रहा था. वह भरे गले से बोली, ‘‘तुम्हें भी तो रुपए चाहिए. अपने गाढ़े परिश्रम की कमाई हमारे ऊपर खर्च कर डालोगी तो तुम्हारी कोठी कैसे बनेगी? यह गंदा महल्ला, पुराना मकान किसी डाक्टर के रहने के योग्य कहां है?’’
‘‘आप को छोड़ कर हम कहीं नहीं जाएंगे, भाभी. हमारा मन नहीं लगेगा. डब्बू भी आप के बिना नहीं रह पाएगा. अगर कभी कोठी बनेगी तो सभी के लिए बनेगी. सब इकट्ठे रहेंगे.’’
शिखा को लगा, इस पुराने मकान की दीवारें अब और अधिक मजबूत हो उठी हैं. उस ने शिल्पी को समझने में बहुत बड़ी भूल की थी.
अगर वह सहनशीलता से काम न ले कर शिल्पी से तकरार कर बैठती तो? वर्षों से एकसूत्र में बंधा परिवार तिनकेतिनके हो कर बिखर जाता.
पर शिखा के धैर्य, संयम व गुणवती शिल्पी की बुद्धिमता, साथ ही दोनों के आपसी प्यार ने सुख के नए संसार का सृजन कर डाला.