माता पिता के सपनों तले मिटता बचपन

हमारे पड़ोसी की हंसमुख तथा चुलबुली बेटी जब भी मिलती बहुत तपाक से ‘हैलो अंकल’ बोल कर स्वागत करती. उस की उम्र रही होगी मुश्किल से 14 वर्ष. उस के पिता का 2 साल पहले एक हादसे में देहांत हो गया था. उस की मां एक बैंक में नौकरी करती थीं और वे बहुत जतन से अपनी इस इकलौती बेटी का पालनपोषण करने में लगी हुई थीं. लेकिन उन्होंने अनजाने में ही अपने सपने उस बच्ची पर लादने शुरू कर दिए थे. जब वह उन की गोद में किलकारियां भर कर खिलखिलाती, तो वे उसे प्यार करती हुई बड़े गर्व से कहतीं, ‘‘मेरी दुलारी बेटी डाक्टर बनेगी.’’

असल में हुआ यह था कि वे खुद पढ़ाईलिखाई में बहुत तेज थीं और इंटर की परीक्षा में उन्हें लगभग हर विषय में डिस्टिंक्शन मिला था. वे डाक्टर बनना चाहती थीं, लेकिन घर वाले उन्हें ज्यादा पढ़ाने के पक्ष में नहीं थे. शायद परिवार की आर्थिक स्थिति उन के और उन के सपनों के बीच एक दीवार बन कर खड़ी हो गई थी.

उन्होंने घर में लड़झगड़ कर किसी तरह मैडिकल का ऐंट्रैंस ऐग्जाम तो क्लियर कर लिया था, लेकिन मैडिकल कालेज की फीस जमा करने के लिए पैसों का इंतजाम न हो पाने के कारण उन्हें मनमसोस कर रह जाना पड़ा था. और फिर विवाह के बाद वे एक नए माहौल और नई जिम्मेदारियों के बीच घिर गई थीं.

उन्होंने अपने सपने को तभी अपनी इस चुलबुली बच्ची के ऊपर थोप दिया था जब वह डाक्टर शब्द का मतलब समझने के लायक भी नहीं हुई थी. 14 साल की उम्र तक पहुंचतेपहुंचते इस मासूम बच्ची को यह एहसास हो गया था कि वह बचपन से अपनी मां के किसी अधूरे सपने को जीती आ रही थी और अब इस सपने को साकार करना ही उस के जीवन का एकमात्र मकसद बन गया था.

तब वह 9वीं कक्षा में पढ़ती थी. उस ने पूरीपूरी रात जाग कर परीक्षा की तैयारी की थी, लेकिन गणित का पेपर उस की इच्छा के अनुरूप नहीं हुआ था. जब परीक्षा का रिजल्ट आया, तो वह यह देख कर एकदम स्तब्ध रह गई थी कि वह गणित में फेल हो गई थी. उस की आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा था और शायद उसे लगा होगा कि उस ने अपनी मां के सपने को चूरचूर कर दिया था. उसे अपना जीवन व्यर्थ लगने लगा था और व न जाने कब कक्षा से चुपचाप उठ कर स्कूल की छत पर जा पहुंची थी. उस ने बिना कुछ सोचेसमझे छत से नीचे छलांग लगा दी थी. एक पल में ही उस की मासूम जिंदगी पर पूर्ण विराम लग गया था. एक नन्ही कली खिलने से पहले ही मुरझा गई थी.

लेकिन वह कोई अकेली ऐसी नहीं थी, जो अपने मातापिता के सपने पूरे न कर पाने या उन की आशाओं पर खरा न उतर पाने के कारण इस दुनिया से समय से पहले ही कूच कर गई थी. हमारे देश में हजारों छात्र परीक्षा के बाद असफलता के डर से अपना जीवन समाप्त कर देते हैं.

आम मानसिकता

आज मातापिता की आशाएं, अपेक्षाएं पूरी करने की चुनौती के साथसाथ बेमानी विषयों की पढ़ाई भी बच्चों पर निरर्थक बोझ डाल रही है. यह एक ऐसा ज्ञान है जिस का व्यावहारिक जीवन में कभी कोई लाभ नहीं होता. हमारे देश के लोगों की आम मानसिकता कुछ ऐसी बन गई है कि हमारे बच्चे अगर डाक्टरी या इंजीनियरिंग जैसे प्रोफैशनल कोर्स में नहीं जाते, तो उन का भविष्य अंधकारमय बन जाता है. लेकिन ऐसा सोचते समय वे यह भूल जाते हैं कि अगर सारे मातापिता हमेशा ऐसा ही सोचते, तो फिर लोकमान्य तिलक, सुभाष चंद्र बोस या महात्मा गांधी कहां से पैदा होते.

गांधी का उदाहरण तो इस संदर्भ में सभी की आंखें खोलने के लिए पर्याप्त होना चाहिए. एक सामान्य सा कमजोर छात्र अपनी तमाम शारीरिक तथा मानसिक सीमाओं को लांघ कर न सिर्फ स्वाधीनता संग्राम का प्रमुख सूत्रधार बन गया, वरन सारी दुनिया को अहिंसा तथा प्रेम का संदेश देने वाला मसीहा और हमारा राष्ट्रपिता भी बन गया. वे इतिहास की एक अनूठी मिसाल हैं जो सदियों तक पूरी मानव जाति के लिए प्रेरणास्रोत बनी रहेगी.

इस संदर्भ में हमें हाल ही में सिंगापुर में विश्व प्रसिद्ध मनोविश्लेषक तथा सिडनी विश्वविद्यालय के ‘सैंटर फौर द माइंड’ के निदेशक प्रोफैसर ऐलेन स्नाइडर के विचार सुनने का अवसर मिला. उन का कहना था कि अगर मेरा बेटा अपनी परीक्षाओं में उच्च अंक प्राप्त करता है, तो यह मेरे लिए चिंता का विषय बन जाएगा. मैं नहीं चाहता कि मेरा बेटा केवल किताबी कीड़ा बन कर रह जाए. मेरी खोज इस बात का सुबूत है कि अपनेअपने क्षेत्र में जो लोग उच्चतम शिखर पर पहुंचे, वे कभी अपनी कक्षा में सब से ज्यादा अंक प्राप्त करने वाले छात्र नहीं रहे. जो छात्र सर्वोच्च अंक हासिल करते हैं, वे अकसर अपने जीवन में कोई असाधारण काम नहीं कर पाते.

अपनी बात पर बल देने के लिए उन्होंने अलबर्ट आइंस्टाइन का उदाहरण दिया. उन्होंने कहा कि आइंस्टाइन एक औसत छात्र थे. उन के शिक्षकों ने कभी यह नहीं सोचा था कि वह कोई असाधारण प्रतिभा का धनी है और बड़ा हो कर अपने जीवन में कोई अविस्मरणीय काम कर पाएगा. जब वे भौतिकशास्त्र के सामान्य सिद्धांतों का अध्ययन कर रहे थे, तो उस समय एक सामान्य छात्र थे और परीक्षा पास करने के लिए उन सिद्धांतों को केवल याद करने की कोशिश कर रहे थे. लेकिन जब बड़े हो कर उन्होंने इन परंपरागत सिद्धांतों की सत्यता पर संदेह करना और उन्हें चुनौती देना शुरू किया तो उन की उस असाधारण प्रतिभा का जन्म हुआ, जिस ने उन्हें दुनिया के महानतम वैज्ञानिकों की श्रेणी में ले जा कर बैठा दिया.

प्रोफैसर स्नाइडर की खोज का महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष यह है कि सभी बच्चे कोई न कोई जन्मजात गुण ले कर पैदा होते हैं. यह गुण ही उन्हें महानतम लोगों की श्रेणी में शामिल करने के लिए पर्याप्त होता है. जरूरत केवल इस बात की होती है कि मातापिता अपने बच्चों पर अपने सपने थोपने के बजाय उन के जन्मजात गुणों को विकसित करने में उन की सहायता करें.

उन का मानना है कि जिन छात्रों को पढ़ाईलिखाई में फिसड्डी कह कर उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता है, वे ही छात्र आगे जा कर किसी क्षेत्र विशेष में अपनी अनोखी प्रतिभा का प्रदर्शन करते हैं.

इस संदर्भ में वे आस्ट्रेलिया के मैकडोनल फर्म के चेयरमैन पीटर रिची की कहानी सुनाते हैं. रिची सड़क पर भीख मांगने वाले बच्चों को अपने साथ ले गए और उन्हें अपने रेस्तरां में ग्राहकों की मेज तक बर्गर पहुंचाने के बुनियादी उसूलों का प्रशिक्षण दे कर काम पर रख लिया. बाद में इन्हीं भीख मांगने वाले बच्चों में से फास्ट फूड उद्योग के कुछ महानतम नेता पैदा हुए.

स्नाइडर का कहना है कि इस उदाहरण से यह साबित होता है कि जो लोग नियमों को तोड़ कर तथा आम सोच से अलग हट कर कुछ नया करते हैं, वे ही जीवन की महानतम ऊंचाइयों को छू पाते हैं. नियमों को तोड़ने के साथसाथ वे कुछ ऐसा भी करते हैं जो दूसरे लोग करते हुए डरते या हिचकिचाते हैं.

चैंपियन बनता कौन

इस में कोई शक नहीं कि शिक्षा की जीवन में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि शिक्षा ही सब कुछ नहीं होती और न ही किताबी कीड़ा बन कर जीवन में कोई अद्भुत उपलब्धि हासिल की जा सकती है. जिस तरह कोई इमारत खड़ी करने में उस की नींव की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, उसी तरह किसी व्यक्ति के सफल जीवन की इमारत भी शिक्षा की नींव पर ही खड़ी होती है.

किसी भी विषय के मूलभूत सिद्धांतों को जानना जरूरी है. वे चाहे भौतिकशास्त्र के सामान्य सिद्धांत हों या फिर ग्राहकों तक बर्गर पहुंचाने के नियम. चैंपियन वही बनता है, जो इन सामान्य नियमों की जानकारी हासिल करने के बाद इन के साथ नएनए प्रयोग करने का साहस करता है और कोई भी काम करने का अपना खुद का कोई नया तरीका ढूंढ़ निकालता है.

वे तेनसिंह के साथ एवरेस्ट की चोटी पर सब से पहले पहुंचने वाले चैंपियन एडमंड हिलेरी का जिक्र करते हुए कहते हैं कि हिलेरी के लिए एवरेस्ट की चोटी पर पहुंच पाना ही जीवन का अंतिम लक्ष्य नहीं था. वहां पहुंच जाने के बाद वे नेपाल के मकालू पर्वत के शिखर पर पहुंचने की योजना बनाने लगे थे.

उस समय तक इस पर्वत शिखर को भी कोई नहीं जीत पाया था. एडमंड हिलेरी ने एक बार प्रोफैसर स्नाइडर से कहा था, ‘‘जब आप जानते हैं कि आप उस पर्वत शिखर पर चढ़ सकते हैं, तो फिर चिंता किस बात की?’’

प्रोफैसर स्नाइडर कहते हैं कि इस दृष्टांत से चैंपियन लोगों के एक अन्य महत्त्वपूर्ण गुण का पता चलता है कि वे सृजनात्मक प्रवृत्ति के लोग होते हैं.

उन्होंने यह भी कहा कि महान आविष्कारक अकसर अलगअलग असंबंधित विषयों का अध्ययन कर के उन के बीच के किसी नए रिश्ते को खोज निकालते हैं. कई बार ऐसा भी होता है कि कोई संबंधित व्यक्ति किसी तकनीकी गुत्थी को बहुत दिमाग लगाने के बावजूद नहीं सुलझा पाता, जबकि कोई बाहरी व्यक्ति उसे एक क्षण में हल कर देता है.

न्यूटन ने धरती के गुरुत्वाकर्षण के नियम की खोज भौतिकशास्त्र की किसी प्रयोगशाला में नहीं, वरन सेब के एक बगीचे में की थी. उस से पहले अनगिनत लोगों ने सेब को या किसी और फल को पेड़ से टूट कर धरती पर गिरते हुए देखा होगा, लेकिन किसी अन्य व्यक्ति ने इस बात को कभी विचारणीय नहीं माना. उन के लिए यह एक प्रतिदिन होने वाली एक सामान्य सी घटना थी. लेकिन न्यूटन ने इस सामान्य घटना के पीछे छिपे एक महान वैज्ञानिक सत्य को दुनिया के सामने प्रस्तुत किया. न्यूटन की ही तरह आर्कमिडीज को भी एक वैज्ञानिक सत्य का एहसास स्नानागार के टब में नहाने के लिए बैठते हुए हुआ था.

अब सवाल यह उठता है कि क्या हरेक व्यक्ति ऐसा बन सकता है? क्या हम किसी आम आदमी को चैंपियन के रूप में विकसित कर सकते हैं? इस सवाल के जवाब में प्रोफैसर स्नाइडर कहते हैं कि हरेक आदमी में किसी न किसी क्षेत्र का चैंपियन बनने के जन्मजात गुण होते हैं.

यह बात ठीक उसी तरह है कि जैसे सरोजिनी नायडू बचपन में आड़ेतिरछे शब्द लिखतेलिखते एक महान कवयित्री में परिवर्तित हो गई थीं या फिर पिकासो अपनी पैंसिल से स्कूल की किताबों पर पशुपक्षियों के बेडौल चित्र बनातेबनाते दुनिया के महान चित्रकार बन गए थे.

यह हमारा अपना मानसिक दृष्टिकोण ही है, जो हमारी उम्मीदों पर सीमारेखाएं खींच सकता है, तो यह मनुष्य की अपनी खुद की सोच ही है, जो उसे उस के किसी खुद के चुने हुए क्षेत्र में चैंपियन बना सकती है. शर्त सिर्फ यही है कि मातापिता अपने लादे गए लक्ष्यों से उस के दिमाग को बोझिल अथवा कुंद न बना दें.

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जब नौकरी ही बन गई हत्यारी

सरकारी पक्की नौकरी की चाह इस देश में इतनी अधिक है कि भाई भाई को ही नहीं मां को भी मार सकता है, क्योंकि उन्होंने पिता के मरने के बाद उस की जगह नौकरी बड़े भाई को दिला दी. पश्चिम बंगाल के खड़गपुर शहर में रेलवे क्वार्टरों में रहने वाले शुभाषीश मंडल ने एक रात भाई के घर में घुस कर अपनी मां और भाई को मार डाला, क्योंकि उन दोनों ने मिल कर पिता के मरने के बाद नौकरी उसे नहीं मिलने दी.

13 साल तक मुकदमा लड़ते रहने पर भी शुभाषीश मंडल को कहीं से रहम नहीं मिला. शुभाषीश ने कहानी गढ़ने की पूरी कोशिश की थी कि हत्याएं किसी और ने लूट के इरादे से की थीं पर उस की बहन के बयान पर विश्वास करते हुए अदालतों ने उस बनावटी बहाने को नहीं माना.

हत्याएं तो हर समाज में होती रहती हैं पर सरकारी नौकरी के लिए कोई युवा अपनी मां और भाई को मार डाले यह अचंभे की बात जरूर है. सरकारी नौकरी का आकर्षण ही कुछ ऐसा है कि लोग इसे जीवन का अकेला उद्देश्य समझ लेते हैं. एक बार नौकरी लगी नहीं कि जीवन भर की पैंशन तय. अच्छा वेतन तो मिलेगा ही ऊपर से अच्छीखासी रिश्वत भी आप की. हर तरह से यह नौकरी जीवन को पक्की सड़क पर रखती है, इसीलिए जब हाथ से यह फिसलती नजर आए तो गुस्सा आ ही जाता है.

सरकारी नौकरी में मिलने वाली सुविधाओं की कीमत कोई तो देता ही है. जो देता है वह आम आदमी है जिस के पास सरकारी नौकरी नहीं है. इस देश में अगर

हर जगह मारामारी है, अस्तव्यस्तता है, गरीबी है, लूट है तो इस का बड़ा कारण सरकारी नौकरियां हैं, जो सिखाती हैं कि कम काम और ज्यादा वेतन ही जीवन का तत्त्व है.

आरक्षण के नाम पर चल रही राजनीति के पीछे यही है. भारीभरकम टैक्सों के पीछे यही है. पगपग पर रिश्वतखोरों के लिए यही जिम्मेदार है. सरकारी पैसे की बरबादी का कारण यही सरकारी कर्मचारी हैं, जो सरकार से सिर्फ पैंशन पाने आते हैं, काम करने नहीं.

जब सरकारी नौकरी में हर समय शहद की बूंदें टपकती रहें तो कौन उसे छोड़ेगा. उस के लिए  न पिता पिता है,न मां मां और न भाई भाई. आम जनता तो कहीं भी नहीं.

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मील पार्सल्स

सामग्री

1 कप गेहूं का आटा, 1 कप जई का आटा, 2 प्याज कटे, 2 टमाटर, 6-7 टुकड़े ब्रोकली, 1 गाजर, 1/2 कप पत्तागोभी कटी, 1-2 हरीमिर्चें, 1/4 कप तेल, 2 बड़े चम्मच तेल, 100 ग्राम पनीर, नमक स्वादानुसार.

विधि

दोनों आटे मिला कर उस में 1/4 कप तेल व स्वादानुसार नमक डालें और गूंध लें. सभी सब्जियों को धो कर बारीक काट लें. कड़ाही में तेल गरम करें व प्याज भूनें. इस में कटी सब्जियां व नमक डाल कर पकाएं. पकने पर पनीर डाल कर मिक्स कर आंच से उतारें. गुंधे आटे की रोटी बेल कर व चौकोर काट कर उस में सब्जी की फिलिंग डाल कर बंद करें फिर गरम ओवन में 180 डिग्री पर बेक करें.

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निवेश ही नहीं खर्च करके भी बचाया जा सकता है इनकम टैक्स

टैक्स बचत को लेकर आम लोगों के मन में यह धारणा होती है कि सिर्फ निवेश कर ही टैक्स की बचत की जा सकती है. जबकि पूरी तरह से ऐसा नहीं होता है, आप पैसे खर्च करके भी टैक्स की बचत कर सकती हैं. अगर आप भी यह बात नहीं जानती हैं तो हम आपको इस बारे में जानकारी देने जा रहे हैं. वित्त वर्ष 2017-18 खत्म होने जा रहा है ऐसे में अगर आप भी टैक्स बचाने के लिए किसी विकल्प की तलाश में हैं तो यह खबर आपके काम की हो सकती है.

आयकर रिटर्न दाखिल करने के दौरान आपको अपनी सेविंग और उन खर्चों की पूरी डिटेल देनी होती है जो आपको टैक्स की बचत करने में मदद करते हैं. टैक्स डिडक्शन की श्रेणी में आने वाले अधिकांश निवेश 80सी के तहत आते हैं, हालांकि कुछ ऐसे खर्चे भी होते हैं जो आपकी टैक्स की बचत करते हैं और ये आयकर की धारा 80सी के दायरे में नहीं बल्कि अन्य धाराओं के अंतर्गत आते हैं. हम अपनी इस रिपोर्ट में आपको ऐसे ही कुछ खर्चों के बारे में जानकारी देने जा रहे हैं.

एजुकेशन लोन: अगर आपने अपने लिए, पत्नी या बच्चे के लिए एजुकेशन लोन लिया हुआ है या फिर आप किसी स्टूडेंट के कानूनी रूप से अभिभावक है तो सेक्शन 80ई के तहत लोन के लिए भुगतान की गई ब्याज राशि पर आप टैक्स कटौती के लिए क्लेम कर सकती हैं. किसी भी वित्त वर्ष में भुगतान की गई कुल ब्याज राशि बिना किसी लिमिट के इस कटौती के लिए वैध है. स्कूल की ट्यूशन फीस भी सेक्शन 80सी के टैक्स बेनिफिट्स के दायरे में आती है. टैक्स बेनिफिट की राशि 1.5 लाख रुपये प्रति वर्ष की कुल सीमा के भीतर होनी चाहिए. टैक्स के लिहाज से फीस करदाता की टोटल ग्रौस इनकम को कम देता है जिससे टैक्स देनदारी भी कम हो जाती है.

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मेडिकल इंश्योरेंस प्रीमियम: सेक्शन 80डी के तहत मेडिकल इंश्योरेंस के लिए भुगतान की गई प्रीमियम राशि टैक्स कटौती के लिए योग्य होती है. इस सेक्शन के तहत क्लेम की जाने वाली अधिकतम राशि 60,000 रुपये है. लेकिन इसमें कई उप सीमाएं भी शामिल हैं. कोई भी व्यक्ति 25000 रुपये की प्रीमियम राशि पर अधिकतम कटौती क्लेम कर सकता है जो उसने खुद के लिए, पत्नी या आश्रित बच्चों के लिए दी है. साथ ही 25000 रुपये की अतिरिक्त कटौती भी वैध होती है अगर प्रीमियम माता-पिता के लिए भुगतान किया गया है. अगर पौलिसीधारक वरिष्ठ नागरिक है तो कटौती की लिमिट 30,000 रुपये होती है.

होम लोन: सेक्शन 80सी के तहत होम लोन रिपेमेंट की प्रिंसिपल राशि पर कर कटौती उपलब्ध है. इस सेक्शन के अंतर्गत लागू कटौती में यह बात मायने नहीं रखती है कि आपने किस साल में भुगतान किया है. स्टांप ड्यूटी और रजिस्ट्रेशन फीस की राशि भी इस सेक्शन के अंतर्गत कटौती योग्य होती है.

होम लोन के ब्याज भुगतान पर टैक्स ब्रेक की सुविधा आयकर की धारा 24 के अंतर्गत दी जाती है. सेल्फ औक्युपाइड प्रौपर्टी पर अधिकतम टैक्स डिडक्शन की सीमा 2 लाख रुपए निर्धारित है. फर्स्ट टाइम बायर्स के लिए होम लोन की ब्याज राशि पर सेक्सन 80ईई के तहत 50,000 रुपये की अतिरिक्त कटौती का प्रावधान है. इस स्थिति में लोन राशि 35 लाख रुपये से कम और घर की कीमत 50 लाख रुपये से कम होनी चाहिए.

सेविंग एकाउंट पर ब्याज: सेविंग्स अकाउंट पर मिलने वाला ब्याज सेक्शन 80टीटीए के तहत कटौती के लिए योग्य है. क्लेम की जाने वाली अधिकतम राशि 10,000 रुपये है. इसका मतलब यह नहीं है कि 10,000 रुपये तक का ब्याज आयकर के दायरे से बाहर है.

एक और एपिक फिल्म बनाने में जुटे राजामौली

28 अप्रैल साल 2017 को रिलीज हुई एस.एस. राजामौली निर्देशित फिल्म ‘बाहुबली-2’ इतिहास रचने में कामयाब रही. भारत की अब तक की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म के निर्देशक अब अपनी अगली एपिक फिल्म के निर्देशन की तैयारियों में जुट गए हैं. राजामौली इस बार जूनियर एनटीआर और एक्टर राम चरण को मौका देने जा रहे हैं. जाहिर है कि दर्शकों का उत्साह चरम पर है. एक ट्वीट के माध्यम से इस फिल्म के नाम और बाकी जानकारियों का ऐलान किया गया है. फिल्म का नाम आर.आर.आर. होगा. इसी नाम के एक ट्विटर हैंडल बनाया गया है जिससे एक वीडियो ट्वीट किया गया है.

इससे पहले कि हम आपको वीडियो के बारे में बताएं, पहले आपको बता देते हैं इस ट्वीट में क्या कुछ लिखा गया है उसके बारे में. मेकर्स ने ट्वीट में लिखा- 18 नवंबर 2017 से आप जिस कंफर्मेशन का इंतजार कर रहे थे वह अब आ गया है. यह सिर्फ एक टाइटल नहीं है बल्कि ग्रहों की टक्कर है. आपको बता दें कि डीवीवी एंटरटेनमेंट नाम के यूट्यूब चैनल पर अपलोड किया गया यह 23 सेकंड का वीडियो अब तक 9 लाख लोगों ने देख लिया है. अपलोड किए जाने के सिर्फ एक दिन के भीतर यह वीडियो यूट्यूब पर 27वें नंबर पर रैंक कर रहा है. वह भी तब जब इस वीडियो में सिर्फ टाइटल्स दिखाए गए हैं.

एस.एस. राजामौली के निर्देशन में बनी फिल्म बाहुबली-2 के बारे में बता दें कि यह फिल्म साल 2012 में आई फिल्म बाहुबली का दूसरा पार्ट थी जिसे दर्शकों ने खासा पसंद किया. फिल्म में एक्टर प्रभास लीड रोल में थे और राणा दग्गुबाती ने निगेटिव रोल (भल्लालदेव) प्ले किया था. फिल्म में सत्यराज और अनुष्का शेट्टी भी अहम भूमिकाओं में थे. 350 करोड़ के बजट से बनी फिल्म बाहुबली-2 भारतीय सिनेमा के इतिहास की अब तक की सबसे महंगी फिल्म थी, हालांकि साल 2018 में रिलीज होने जा रही रजनीकांत और अक्षय कुमार की फिल्म 2.0 जल्द ही इसका रिकौर्ड तोड़ डालेगी.

हौट समर की ये हैं सुपर कूल ऐक्सैसरीज

हर मौसम में फैशनेबल नजर आने के लिए मौसम के अनुसार न सिर्फ आउटफिट का सलैक्शन, बल्कि ऐक्सैसरीज का कलैक्शन रखना भी जरूरी है. आउटफिट और ऐक्सैसरीज के बैस्ट कौंबिनेशन से ही तो पर्सनैलिटी को मिलता है परफैक्ट लुक. हौट समर सीजन में कौन से कूल ऐक्सैसरीज से करें अपने लुक को कंप्लीट, जानने के लिए हम ने बात की फैशन डिजाइनर एवं स्टाइलिस्ट सोनल जैन से:

फ्लोरल स्कार्फ: हौट समर में फ्रैश लुक के लिए अपने वौर्डरोब में स्कार्फ का कलैक्शन जरूर रखें. इन दिनों फ्लोरल प्रिंटेड कलरफुल स्कार्फ फैशन में इन है. इसे आप शौर्ट ड्रैस के साथ ही टौप या टीशर्ट के साथ कैरी कर सकती हैं. स्कार्फ को रोजाना अलगअलग स्टाइल से पहनें. इस से आप ज्यादा स्टाइलिश दिखेंगी.

ऐवीऐटर सनग्लास: कड़ी धूप में आंखों की सुरक्षा करने के साथसाथ स्टाइलिश भी नजर आना चाहती हैं तो सनग्लास से बढि़या औप्शन और कोई नहीं. लेकिन राउंड, स्क्वैयर या बौक्स शेप के बजाय मैटल फ्रेम वाला ऐवीऐटर सनग्लास सलैक्ट करें. इसे पहनने के बाद आप को हैवी आई मेकअप करने की जरूरत भी नहीं होगी.

क्लासिक वाच: इस समर बोल्ड और बिंदास अंदाज के लिए अपने हाथों की खूबसूरती बढ़ाइए क्लासिक वाच से. ये किसी भी आउटफिट के साथ आसानी से मैच हो जाती है और लैदर बेल्ट होने की वजह से कभी आउट औफ फैशन नहीं होती.

सुपरसाइज्ड बैग: कंपलीट लुक के लिए समर सुपरसाइज्ड बैग को अपनी पहली पसंद बनाइए. इस में न सिर्फ आप की जरूरत की चीजें आसानी से ऐडजस्ट हो जाएंगी, बल्कि यह आप को सुपर स्टाइलिश लुक भी देगा. सैंटर औफ अटै्रक्शन बनने के लिए नियौन शेड्स के हैंड बैग खरीदें. ट्रांसपेरैंट बैग भी ट्राई कर सकती हैं. यह आप को बोल्ड लुक देगा.

पौप कलर्स नैकपीस: गोल्ड, डायमंड और रैग्युलर नैकपीस से अगर आप ऊब चुकी हैं, तो पौप कलर्स के हौट नैकपीस को अपना स्टाइल स्टेटमैंट बनाइए. अपने ज्वैलरी बौक्स में लाइम ग्रीन, पिंक, औरेंज जैसे पौप शेड्स, स्टोन, पर्ल और क्रिस्टल से बने नैकपीस को जगह दें. सिंगल शेड या प्लेन आउटफिट के साथ पौप कलर का नैकपीस आप को सुपर स्टाइलिश लुक देगा.

स्टेटमैंट ईयररिंग: समर सीजन में कूल लुक के लिए अपने ज्वैलरी बौक्स की रैग्युलर ईयररिंग्स को लौंग स्टेटमेंट ईयररिंग्स से रिप्लैस करें. शौर्ट्स के साथ लौंग ईयररिंग का कौबिंनेशन आप को सुंदर हौट लुक देगा. किसी भी शेप और साइज की स्टेटमैंट ईयररिंग का सलैक्शन आप कर सकती हैं.

ऐंकल ब्रैसलेट फुटवियर: चूंकि सर्दी का मौसम खत्म हो चुका है इसलिए फुल पैक फुटवियर की जगह अपने शू रैक में ऐंकल ब्रैसलेट फुटवियर रखिए. यह फुटवियर चारों तरफ से खुला होता है. इसे पहनने के बाद पसीना भी नहीं होता है. यह दिखने में भी काफी स्टाइलिश नजर आता है. शौर्ट्स के साथ इस का लुक हौट लगता है.

ग्लिटर मोबाइल कवर: फुटवियर और हैंड बैंग की तरह मोबाइल की गिनती भी अब ऐक्सैसरीज में की जाने लगी है. लेकिन फुटवियर और बैग की तरह रोजाना मोबाइल बदलना आसान नहीं है, तो क्यों न मोबाइल कवर को ही चेंज कर मोबाइल को न्यू लुक दिया जाए. अत: समर में कूल लुक के लिए ग्लिटर मोबाइल कवर खरीदें.

थंब रिंग्स: फैशनेबल नजर आने के लिए इंडैक्स फिंगर में कौकटेल या डबल फिंगर रिंग पहनने के बजाय अंगूठे में थंब रिंग ट्राई करें. कूल लुक के लिए ऐनिमल प्रिंटेड या फिर चंकी थंब रिंग खरीदें, इन दिनों ये ट्रेड में हैं. आप चाहें तो दोनों हाथों के अंगूठों में या फिर सिर्फ एक हाथ के अंगूठे और बाकी उंगलियों में भी अलगअलग शेप और स्टाइल की रिंग पहन सकती हैं.

हौट हैट्स: अगर आप हौलिडे मूड में हैं और बीच पर छुट्टियां मनाने जा रही हैं तो अपने लुक को कंप्लीट करने के लिए आउटफिट से मैच करता हौट हैट लगाना न भूलें. धूप से बचाने के साथसाथ यह आप को फैशनेबल लुक भी देगा. ओवरसाइज्ड हैट ज्यादा अट्रैक्टिव नजर आता है. इसे आप अपनी पहली पसंद बना सकती हैं.

हैल्दी रहने के लिए बदलें लाइफस्टाइल

गत 25 फरवरी, 2018 को नोएडा के सैक्टर-47 स्थित जलवायु टावर में महिलाओं की चहेती पत्रिका गृहशोभा व आईटीसी के तत्वावधान में आशीर्वाद सर्वगुणसंपन्न कार्यक्रम का आयोजन किया गया, जिस में महिलाओं ने बढ़चढ़ कर भागीदारी ले कर जता दिया कि वे किसी से कम नहीं हैं.

इवेंट की शुरुआत रोटी मेकिंग की ऐक्टिविटी से हुई, जिस में ऐंकर अंकिता ने वहां उपस्थित महिलाओं की ड्रैस के रंग के आधार पर 3 महिलाओं को स्टेज पर बुला रोटी बनाने को कहा. ऐक्टिविटी का उद्देश्य सिर्फ रोटी बनाना ही नहीं था, बल्कि यह भी था कि रोटी दिखने में अच्छी होने के साथसाथ सौफ्ट व टेस्टी भी हो. इस में प्रियंका द्वारा बनाई रोटी ही विजेता बनी, क्योंकि वह आशीर्वाद सलैक्ट आटे की जो बनी थी.

शैफ की हैल्दी रैसिपी

इस के बाद शैफ सारिका मेहता ने आशीर्वाद आटे की गुणवत्ता बताते हुए आशीर्वाद शुगर रिलीज कंट्रोल आटे से चूरोज बनाना सिखाया. इसे बच्चे और बड़े दोनों बड़े चाव से खाते हैं. इसे बनाने में भी काफी कम समय लगता है. सारिका ने यह भी बताया कि इसे डायबिटीज के मरीज भी खा सकते हैं, क्योंकि इस में काफी लो शुगर होती है.

न्यूट्रिशनिस्ट डा. अमृता ने कार्यक्रम में मौजूद महिलाओं को आशीर्वाद मल्टीग्रेन आटा क्यों खाना चाहिए यह बताते हुए डाइटिंग के बैड इफैक्ट्स बताए. अमृता ने बताया कि महिलाओं को अपने दिमाग, अपनी लाइफ से हमेशा के लिए डाइटिंग शब्द निकाल देना चाहिए वरना वे कई बीमारियों की गिरफ्त में आ सकती हैं. उन्होंने कहा कि जब भी कुछ खाएं तो थोड़ीथोड़ी मात्रा में खाएं और साथ ही अपने लाइफस्टाइल को चेंज करने पर भी ध्यान दें. फिर देखें कि आप खुद को अंदर से कितना फिट फील करती हैं.

मनोरंजक टास्क

इवेंट को और मनोरंजक बनाने के लिए ‘मल्टी टास्किंग दीवा’ के लिए 2 महिलाओं को बुलाया गया, जिन्हें 2 मिनट में ज्यादा से ज्यादा रोटियां बनाने के साथसाथ ऐंकर द्वारा पूछे गए प्रश्नों के जवाब भी देने थे. इस रोचक ऐक्टिविटी में भी महिलाओं ने बढ़चढ़ कर भाग लेने का उत्साह दिखाया. इस में मंजू रावत ने प्रथम पुरस्कार तो मधु ने द्वितीय पुरस्कार जीता. फिर पुन: 2 महिलाओं को बुला कर उन्हें 15 मिनट में आशीर्वाद पौपुलर आटा व अन्य दी गई सामग्री से डिश बनाने को कहा. इस में औडियंस ने भी बढ़चढ़ कर भाग लिया. और ‘मोस्ट पौपुलर दीवा’ के खिताब को काठी रोल बना कर मंजू ने अपने नाम किया. द्वितीय पुरस्कार की विजेता रही फ्रूट रोल बनाने वाली अंजू.

इस के बाद रैसिपी विनर्स के नामों की घोषणा की गई. मालपुआ बना कर मंजू आनंद ने प्रथम पुरस्कार, लौकी की मुठिया बना कर राखी वर्मा ने द्वितीय पुरस्कार और आटा केक बना कर प्रियंका ने तृतीय पुरस्कार जीता. वाणी को वैज आटा मोमोज के लिए सांत्वना पुरस्कार मिला. अंत में सभी को गुड्डी बैग्स दिए गए.

लौन : आपके पास है ये हराभरा गलीचा

आधुनिक युग में जहां एक ओर घर की आंतरिक बनावट व साजसज्जा का ध्यान रखा जाता है वहीं दूसरी ओर घर के चारों ओर खाली पड़ी जमीन या आंगन को आकर्षक बनाया जाता है. घर के बाहर का बगीचा आजकल आउटडोर लिविंगरूम कहलाता है. इस लिविंगरूम का फर्श यदि एक जीवंत हराभरा गलीचा हो तो घर की शोभा ही अनोखी बन जाती है. जी हां, हम जिस हरेभरे गलीचे की बात कर रहे हैं वह और कुछ नहीं बल्कि लौन है.

लौन एक हरे कैनवस की भांति होता है जिस के ऊपर आप रुचि के अनुसार रंग बिखेर सकते हैं. आधुनिक चिकित्सा पद्धति ने भी यह स्वीकारा है कि हमारे आसपास पेड़पौधों व हरियाली का मानव मस्तिष्क पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है. सुबहशाम लौन पर नंगे पांव चलने से प्राकृतिक रूप से ऐक्यूप्रैशर होता है और आंखों को भी शीतलता प्राप्त होती है. अन्य पौधों के मुकाबले लौन की विशेषता यह है कि यह वर्षभर हराभरा रहने के साथ बगीचे का स्थायी अंग बन जाता है, जिसे बारबार लगाने की आवश्यकता नहीं होती. आइए, लौन लगाने व उस की देखभाल करने की जानकारी लें.

घास का चुनाव : घास का चुनाव करते समय वातावरण, तापमान, आर्द्रता इत्यादि की जानकारी अवश्य लें. गरम स्थानों पर उगाई जाने वाली घास जहां गरम, आर्द्र मौसम को सहन कर सकती है वहीं ठंडे स्थानों पर लगाई जाने वाली घास अत्यंत कम तापमान (कभीकभी 0 डिगरी सैंटीग्रेड से नीचे) व पाले की मार को सहन करने की क्षमता रखती है. अगर भूमि काफी है तो दूब घास यानी साइनोडोन डैक्टाइलोन की उन्नत किस्मों का प्रयोग करें. छोटे लौन में गद्देदार घास, कोरियन घास यानी जौयशिया जैपोनिका का प्रयोग कर सकते हैं.

इसी प्रकार ठंडे इलाकों में जहां तापमान शून्य से कम चला जाता है और पाले की मार भी अधिक होती है वहां बंगाल बैंट यानी एगरोस्टिस की विभिन्न प्रजातियां बहुत अच्छा गलीचा बनाती हैं. कैंटकी ब्लू घास यानी पोआ प्रेटेंसिस व राई घास यानी लोलियम पेरेनि भी ठंडे क्षेत्रों में उपयुक्त पाई गई हैं.

जमीन की तैयारी : लौन लगाने के लिए धूपदार जगह का चुनाव करें. एक बार लौन लगाने पर वह वर्षों तक आप के आंगन की खूबसूरती बढ़ाएगा, इसलिए जमीन की तैयारी पर अधिक ध्यान देना आवश्यक है. चूंकि घास जमीन की सतह पर चारों ओर फैलती है और जड़ें बहुत गहरी नहीं जातीं इसलिए ऊपरी 10-12 इंच की मिट्टी का भुरभुरा होना जरूरी है. इस मिट्टी को भली प्रकार छान लें और कंकड़पत्थर निकाल दें. अब मिश्रण तैयार करें. इस में 2 भाग छनी हुई मिट्टी, 1 भाग छनी हुई रेत व 1 भाग छनी हुई गोबर की खाद मिलाएं. इस मिश्रण को 15-20 दिन तक धूप लगाएं व 2 दिन के अंतराल पर उलटपलट करें. मिश्रण को गीला कर के पौलिथीन शीट से इस प्रकार ढकें कि हवा कहीं से भी अंदर न जा सके. इसे 25-30 दिन तक बिना छेड़े रहने दें, पौलिथीन से मिश्रण का तापमान बढ़ेगा और कीट, बीमारियां व खरपतवार के बीज नष्ट हो जाएंगे. इस प्रकार तैयार किया गया मिश्रण आदर्श लौन लगाने के लिए सर्वोत्तम है. अब इस मिश्रण को समान सतह बना कर फैलाएं. मिश्रण फैलाते समय ग्रेडिएंट का ध्यान रखना आवश्यक है ताकि पानी निकासी का उचित प्रबंधन हो. वैसे तो लौन समतल भूमि पर बनाया जाता है परंतु इसे और अधिक आकर्षक बनाने के लिए छोटेछोटे टीले यानी पहाड़ भी बनाए जा सकते हैं.

लौन लगाने का समय : शुष्क व गरम इलाकों में बरसात के आरंभ में लौन लगाएं. इस में घास के पौधे शुरुआती जड़ें अच्छी तरह पकड़ेंगे और वातावरण में नमी की मात्रा अधिक होने से घास का फैलाव भी शीघ्रता से होगा. ठंडे इलाकों में लौन फरवरी, मार्च, जुलाई, अगस्त या सितंबर, अक्तूबर में भी लगाया जा सकता है. यद्यपि अगर सिंचाई करने की पर्याप्त सुविधा हो तो सर्द महीनों को छोड़ कर लगभग पूरे वर्ष लौन लगा सकते हैं.

लौन कैसे लगाएं : लौन लगाने के 2 प्रमुख तरीके हैं, बीज से व पौध से. जब लौन बीज से लगाना चाहें तो  बीज की मात्रा का ज्ञान होना चाहिए. घास की कुछ प्रजातियों के बीज अत्यंत छोटे होते हैं ऐसे बीजों को समान मात्रा में रेत में मिला कर बोया जाता है. इस में लौन को कई बराबर भागों में विभाजित करें. फिर उस में बीज बराबर हिस्सों में छिड़काव विधि द्वारा डालें. इस से पूरे लौन में बराबर बीज डलेगा. बीज डालने के बाद उस के ऊपर लौन मिश्रण की 0.5 से 1.0 सैंटीमीटर ऊंची सतह बिछाएं. लौन के ऊपर बीज डाल कर सीधे सिंचाई न करें. इस पर जूट या बोरी या सूखी घास बिछा कर फौआरे से सिंचाई करें.

बीज बोने के बाद मिश्रण में नमी खत्म न होने दें, आवश्यकतानुसार फौआरे या स्प्रिंकलर से पानी दें. लगभग 12-15 दिन बाद जब बीज उगना शुरू हो जाए तो जूट हटा दें. बहुत बड़ा लौन हो तो बिना जूट से ढके केवल स्प्रिंकलर से भी पानी दे सकते हैं. पौध से लौन लगाने के लिए पहले नर्सरी में पौध तैयार की जाती है, फिर जड़दार घास को लगाया जाता है. यह तरीका बड़े लौन के लिए ठीक नहीं है.

लौन लगाने के और भी कई तरीके हैं परंतु सब से आधुनिकतम तरीका है टर्फिंग. इस में लौन विभिन्न आकार के टुकड़ों (टाइलों) में बनाबनाया उपलब्ध रहता है. सब से पहले लौन का मिश्रण मनचाहे आकार में बिछा लें. अब इस भूमि को नाप कर, इसी के आकार का टुकड़ा नर्सरी से ले आएं. यदि लौन का आकार बड़ा है तो घास टाइलों के रूप में (1×1 फुट) कटवा कर लाएं. इन टाइलों को ईंटों की चिनाई की तरह भूमि पर बिछाएं. लौन को खूब पानी दें. इस प्रकार की लौन घास लगभग सभी नर्सरियों में 90-150 रुपए प्रति किलोग्राम के मूल्य पर उपलब्ध रहती है. यह लौन लगाने का सब से आसान व शीघ्रतम तरीका है. इस तरह आप रातोंरात घर के आंगन में हराभरा लौन लगा सकते हैं. इसे इंस्टैंट लैंडस्केपिंग भी कहा जाता है.

लौन की देखभाल : खूबसूरत लौन बगीचे की जान और घर की शान है. यदि लौन की घास ऊंचीनीची, ज्यादा बढ़ी या खरपतवार से भरपूर है तो बगिया की सुंदरता नष्ट हो जाती है. लौन को खूबसूरत बनाए रखने के लिए इन बातों का खयाल रखें :

मोइंग (घास काटना) : घास की सतह को समतल व हराभरा रखने के लिए घास को समयसमय पर काटना आवश्यक है. मोइंग करने से घास में नई कोंपलें (टिलरिंग) निकलती हैं, जिस से लौन घना बनता है और शीघ्रता से एक हरे गलीचे की तरह फैलता है. मोइंग करते समय घास की ऊंचाई 5-7 सैंटीमीटर रखनी चाहिए. अधिक छोटी करने पर घास की जड़ें कमजोर पड़ सकती हैं और घास पर तीव्र धूप व पाले का असर भी जल्द पड़ता है. मोइंग कितने समय के अंतराल पर करें, यह घास के स्वभाव और उस के उगने की क्षमता पर निर्भर करता है. छोटे लौन के लिए हाथ से चलने वाला मोअर इस्तेमाल करें.

रोलिंग : लौन में समतल हरियाली प्राप्त करने के लिए रोलिंग करना जरूरी है. रोलिंग का काम बरसात का मौसम शुरू होने पर शुरू करें. रोलिंग में घास के तने, जो जमीन से ऊपर उठे हों, को रोलर के दबाव से मिट्टी के नजदीक पहुंचा दिया जाता है. घास की गांठों से नई जड़ें निकलती हैं जिस से घास के बीच की खाली जमीन भर जाती है और घास समान रूप से पूरे लौन को ढक लेती है.

सिंचाई : नए लगाए लौन में तब तक सिंचाई करें जब तक जड़ें मिट्टी न पकड़ लें. वैसे सालभर आमतौर पर तापमान और वातावरण की नमी के अनुसार सिंचाई करें. जब लौन अपनी जड़ें पकड़ ले तब लौन में समुचित पानी दें और उस के बाद सिंचाई के अंतराल को बढ़ा दें. दूसरी सिंचाई तभी करें जब लौन की मिट्टी में सूखने के आसार नजर आने लगें. ऐसा करने से घास की जड़ें गहराई तक जाएंगी और मजबूत बनेंगी, गहरी जड़ें लौन को वातावरण के दुष्प्रभावों  से बचाने के साथसाथ घास को बारंबार मोइंग सहन करने की ममता भी प्रदान करती हैं.

खाद व उर्वरक : लौन में हरियाली कायम रखने के लिए पोषक तत्त्वों में से नाइट्रोजन सब से जरूरी है. इस के लिए रासायनिक खादों में 15 भाग अमोनियम सल्फेट, 5 भाग सुपर फास्फेट व 2 भाग पोटैशियम सल्फेट का मिश्रण बनाएं. अब इस मिश्रण को 2.5 किलोग्राम प्रति 100 वर्ग मीटर की दर से लौन में छिड़काव विधि द्वारा वर्ष में 2 बार डालें. खाद डालने के बाद लौन की जम कर सिंचाई करें, ताकि ये रसायन मिट्टी में चले जाएं और जड़ों तक पोषक तत्त्व पहुंच जाएं.

खरपतवार उन्मूलन : लौन में खरपतवार का होना उस की सुंदरता को नष्ट करता है. अगर लौन मिश्रण को अच्छी प्रकार स्टरिलाइज किया गया हो तो यह ज्यादा परेशानी का कारण नहीं बनता. छोटे लौन में खुरपी से खरपतवार को जड़सहित निकाल फेंकें. चौड़े पत्ते वाले खरपतवार के लिए रासायनिक स्प्रे का प्रयोग किया जा सकता है.

कीट व बीमारियां : आमतौर पर लौन में कीट व बीमारियों का प्रकोप बहुत कम देखने को मिलता है. यद्यपि कोई बीमारी अगर लौन में नजर आए तो उस का सावधानी से निरीक्षण करें. कई बार खराब जल निकासी के कारण भी लौन में समस्या आती है. ऐसा होने पर जल निकासी का प्रबंध करें. फफूंद की समस्या आने पर लौन में डाइथेनन (2 लिटर पानी) व बाविस्टिन (1 ग्रा./लिटर पानी) के घोल से ड्रैचिंग करें, यानी मग में डाल कर घास पर डालें. घास में रस्ट की समस्या आने पर प्रोपिकोनाजोल का स्प्रे करें.

जड़ों को छेदने वाले ग्रब्ज या कीटों की रोकथाम के लिए क्लोरपाइरेफास (2 मिली./लिटर पानी) की डै्रचिंग करें. वैसे तो आंगन में एक हराभरा लौन सब की नजर आकर्षित करने के लिए पर्याप्त है लेकिन अगर इस के साथसाथ छोटे अलंकृत पौधे या वस्तुएं सजाएं तो इस का आकर्षण कई गुना हो जाता है. यदि लौन से हो कर घर का प्रवेशद्वार पड़ता है तो लौन में रास्ता बनाएं ताकि लौन पर लोग न चलें. बाजार में अलगअलग प्रकार के पेवर उपलब्ध हैं जिन का बखूबी प्रयोग किया जा सकता है. गोल पत्थर के पेवर आप के लौन को जापानी आभास देंगे. लौन के एक कोने में छोटी रौकरी, फौआरा या झरना इत्यादि आप के लैंडस्केप को जीवंत कर देगा. किसी कोने में रखा बर्ड बाथ व पेड़ों की शाखों पर बर्ड नैस्ट आप के प्रकृति प्रेम को उजागर करेगा.

व्यंजनों के देश में विदेशी जायके की दीवानगी

भारत को व्यंजनों का महादेश कहा जाता है. अपने देश के बारे में मशहूर है कि यहां कोसकोस में पानी और 4 कोस में वाणी बदल जाती है. और जहां तक बात व्यंजनों या पकवानों की है तो इन के बारे में तो मशहूर ही नहीं, बल्कि सर्वविदित है कि ये तो हर घर में अलग मिलते हैं. एक ही तरह की चीज से हमारे यहां हर घर में दूसरे घर से भिन्न व्यंजन बनते हैं. इस से हमारे यहां खानपान की समृद्धि और व्यंजनों की विविधता को जाना जा सकता है. कुछ साल पहले डिस्कवरी चैनल ने भारतीय खानपान को ले कर डौक्यूमैंटरी की एक शृंखला प्रसारित की थी, जिस में बताया गया था कि दुनिया में कुल मौजूद 82 हजार व्यंजनोें में से 77 हजार व्यंजन अकेले भारत जैसे महादेश के हैं. शेष में 2 हजार से ज्यादा व्यंजन अकेले चीन के और इस के बाद बची संख्या में पूरी दुनिया के व्यंजन शामिल हैं. इन आंकड़ों से भी खानपान को ले कर हमारी समृद्धि का पता चलता है.

लेकिन यह कैसी विडंबना है कि जो देश खानपान की विविधता, स्वाद की मौलिकता और प्रयोगों के अथाह सागर का मालिक हो उसी देश में इन दिनों विदेशी व्यंजन छाते जा रहे हैं. इन दिनों हिंदुस्तान में चाइनीज, थाई, इटैलियन, मैक्सिकन, स्पेनी व्यंजनों का जलवा हर तरफ दिखता है. बड़े शहर हों या छोटे, चाउमिन, चिली पोटैटो, मंचूरियन, पिज्जा, बर्गर, फ्रैंचफ्राई, पास्ता जैसे तमाम तरह के व्यंजन युवाओं की जबान का अभिन्न हिस्सा बन गए हैं. सवाल है क्या भूमंडलीकरण के दौर में हिंदुस्तानी व्यंजन विदेशी व्यंजनों के सामने टिक नहीं पा रहे हैं?

भारतीय बाजार में सेंध

90 के दशक में जब भूमंडलीकरण के प्रभावों को ले कर हमारे यहां बहस शुरू हुई थी तो इस के ज्यादातर समर्थकों को भी यह उम्मीद नहीं थी कि कुछ ही सालों बाद हमारे खानपान में इस कदर जबरदस्त बदलाव आ जाएगा. भूमंडलीकरण के धुर समर्थक भी यह बात जोर दे कर कह रहे थे कि हिंदुस्तानी अपना खानपान, अपने रिश्ते और अपने रीतिरिवाज कभी नहीं छोड़ते. इसलिए देश में पिज्जा, बर्गर, हौट डौग और चाउमिन की संस्कृति से कम से कम देशी रेस्तरां को तो कोई फिकर नहीं है. लेकिन पिछले 2 दशकों के व्यावहारिक अनुभव ने इस धारणा को बदल दिया है. 1996 में देश में पहला विदेशी फास्टफूड आउटलेट, डौमिनोज पिज्जा राजधानी दिल्ली में खुला. बाद में इसी वर्ष पिज्जा कौर्नर, पिज्जा हट और फिर साल के अंत आतेआते मैकडोनाल्ड्स ने खानपान के भारतीय बाजार में सेंध लगाई. लेकिन देशी रेस्तरां के मालिक तब तक कतई चिंतित नहीं थे. दरअसल, उन्हें यह आशंका नहीं थी कि खानपान में बेहद पारंपरिक रुचि वाले भारतीय इन विदेशी रेस्तराओं का इस कदर दिल खोल कर स्वागत करेंगे.

बढ़ती जा रही दीवानगी

लेकिन 2 दशक बाद आज भारत में विदेशी फूड चेन्स की तसवीर बिलकुल बदली हुई है. आज देश के बड़े महानगरों में ही नहीं, 300 से ज्यादा छोटे शहरों में भी विदेशी फास्ट फूड के आउटलेट्स देखे जा सकते हैं. इन की संख्या में बहुत तेजी से इजाफा हो रहा है. इन में जा कर खाने की हिंदुस्तानी लोगों की दीवानगी का आलम यह है कि कुछ साल पहले जब कानपुर में पिज्जा कौर्नर का आउटलेट खुला तो वहां इतने ज्यादा ग्राहक पहुंचे कि उन की भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पुलिस को बुलाना पड़ा. आज हर दिन करीब 2 अरब रुपए के विदेशी व्यंजनों का कारोबार हो रहा है. हालांकि इस में देशी रेस्तरां और रेहडि़यों तक में विदेशी पकवानों की खरीदफरोख्त का आंकड़ा भी शामिल है. दिल्ली, मुंबई, बैंगलुरु, चंडीगढ़, इंदौर, भोपाल, मद्रास, हैदराबाद, पुणे, जयपुर, लखनऊ, पटना, कोलकाता, गुवाहाटी, भुवनेश्वर, अहमदाबाद, विशाखापट्टनम, अमृतसर, शिमला, कोचीन, पणजी, रायपुर, देहरादून और रांची आदि देश का कोई ऐसा बड़ा या मझोला शहर  नहीं है जहां आज की तारीख में मैकडोनाल्ड्स, पिज्जा कौर्नर, पिज्जा हट, डौमिनोज पिज्जा और केएफसी के आउटलेट्स न हों. बड़े और पहले दर्जे के शहरों को छोडि़ए आज मथुरा, अजमेर और नवसारी जैसे छोटे शहरों में भी ये विदेशी रेस्तरां धड़ल्ले से दिख रहे हैं.

भारतीय ग्रुप की योजना

1996 में जब मैकडोनाल्ड्स कौरपोरेशन यूएसए ने हिंदुस्तान में अपनी 2 मास्टर फ्रैंचाइजियों- हार्डकैसल रैस्टोरैंट्स प्राइवेट लिमिटेड और कनाट प्लाजा रैस्टोरैंट्स प्राइवेट लिमिटेड के जरीए हिंदुस्तान में कदम रखा था तो भारतीय रैस्टोरैंट्स के मालिकों का यही खयाल था कि मैकडोनाल्ड्स कुछ महीने उछलकूद मचा कर वापस चला जाएगा, क्योंकि हिंदुस्तानियों को अपने पारंपरिक और थोड़े जटिल किस्म के व्यंजनों से बेहद लगाव है, जिन्हें परोस पाना विदेशी रैस्टोरैंट्स के लिए कभी संभव न होगा. हालांकि मैकडोनाल्ड्स की फूड चेन्स दुनिया के सब से ज्यादा देशों में सफलतापूर्वक चल रही थीं, लेकिन भारतीय रैस्टोरैंट्स के मालिक यह मानने को कतई तैयार नहीं थे कि उस की विस्तृत फूड चेन्स सूची का हिंदुस्तान भी कभी सफल हिस्सा बन पाएगा. भारतीय रेस्तरां मालिक गलत साबित हुए. इस में दोराय नहीं कि आज भी हिंदुस्तानी अपने भारतीय व्यंजनों से बेहद लगाव रखते हैं, लेकिन यह भी सच है कि भारतीय बेहद प्रयोगशील भी हैं और विदेशी जायके से उन्हें परहेज नहीं. नतीजतन, जिस मैकडोनाल्ड्स के बारे में भारतीय रेस्तराओं के मालिक सोचते थे कि साल 6 महीनों में वह हताशनिराश हो कर लौट जाएगा, वह गलत साबित हुआ था. आज पूरे भारत में मैकडोनाल्ड्स के 220 से भी ज्यादा आउटलेट्स हैं जिन में 120 से ऊपर केवल उत्तर व पूर्वी भारत में जबकि 48 दक्षिण व करीब 60 पश्चिम भारत में चल रहे हैं. अगले कुछ सालों में इन की संख्या बढ़ कर 500 के पार पहुंच जाएगी. जबकि कोई भी देशी रेस्तरां अखिल भारतीय नहीं है. अखिल भारतीय होना तो दूर की बात है देश में कोई भी फूड चेन ऐसी नहीं है जिस की 5 राज्यों में एकसाथ मौजूदगी हो. हालांकि मैकडोनाल्ड्स और दूसरी विदेशी फूड चेन्स से सबक सीख कर अब निरुलाज और हलदीराम, सागर रत्ना जैसे भारतीय ग्रुप अपने विस्तार की योजना बना रहे हैं, लेकिन अभी भी इस योजना में कश्मीर से कन्याकुमारी तक का हिंदुस्तान शामिल नहीं है.

सफलता की कहानी

मैकडोनाल्ड्स की सफलता की कहानी अकेली नहीं है. पिज्जा कौर्नर भी उसी साल आया था जिस साल मैकडोनाल्ड्स हिंदुस्तान आया था. उस ने भी अपना तेजी से विस्तार किया है. आज पिज्जा कौर्नर देश के 50 से ज्यादा छोटेबड़े शहरों में अपने 150 से ज्यादा आउटलेट्स के साथ मौजूद है. इस का अगले 5 सालों के भीतर देश के 500 से ज्यादा शहरों तक पहुंचने का लक्ष्य है. डौमिनोज पिज्जा और पिज्जा हट ने भी देश के बड़े शहरों में अपने को तेजी से विस्तारित किया है. जबकि देश की सब से पुरानी और सफल फूड चेन्स में से एक निरुलाज के सिर्फ उत्तर भारत में ही अभी 86 के आसपास आउटलेट्स हैं. हालांकि 1934 में दिल्ली के कनाट प्लेस इलाके से शुरू हुई निरुलाज की फूड चेन्स आने वाले दिनों में तेजी से बढ़ती हुई दिखेंगी लेकिन अब ये पूरी तरह से हिंदुस्तानी फूड चेन्स नहीं होंगी, क्योंकि कुछ साल पहले इसे मलयेशिया की नेविस कैपिटल व एमडी समीर कुकरेजा ने अधिग्रहीत कर लिया है.

पीछे छूटते भारतीय रेस्तरां

सवाल है, आखिर हिंदुस्तान में इस कदर तेजी से विदेशी रैस्टोरैंट्स क्यों छा गए हैं? जो हिंदुस्तानी खानपान के मामले में बेहद पारंपरिक समझा जाता था, उस ने आखिर इन विदेशी रेस्तराओं को हाथोंहाथ क्यों लिया? इस की कई वजहें हैं. मसलन, एक बड़ी वजह तो यही है कि हिंदुस्तानी खानपान के शौकीन हैं. आज भी जबकि पिछले 2 दशकों में भारतीयों के एक वर्ग की औसत सालाना आय बढ़ कर 2-3 गुनी हो गई है तब भी आम भारतीय खानेपीने की चीजों में कमाए गए एक रुपए का 57 पैसा खर्च कर देता है. नैशनल काउंसिल फौर अप्लाइड इकौनोमिक रिसर्च तथा फिक्की द्वारा कुछ साल पहले किए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक 1 रुपए में से खानपान के लिए खर्च किए जाने वाले 57 पैसोें में 6 पैसे घर के बाहर होटल व रेस्तराओं में जा कर खर्च होते थे, जबकि 10 साल पहले होटल व रेस्तराओं में जा कर खर्च करने के लिए औसत हिंदुस्तानी के पास 1 रुपए का 1.5 पैसा ही होता था. मतबल साफ है कि पिछले एकडेढ़ दशक में भारत में जिस तेजी से अर्थव्यवस्था बढ़ी है, उस बढ़ी हुई अर्थव्यवस्था ने भी फूड चेन्स की रौनक बढ़ाई है. आज सरकारी आंकड़ों के मुताबिक प्रत्येक भारतीय की औसतन सालाना आय क्व2 लाख से ऊपर है. लेकिन वास्तविक आंकड़ा शायद इस से भी थोड़ा बेहतर है. यही नहीं अर्थशास्त्रियों का मानना है कि 2020 तक 80 फीसदी भारतीयों की सालाना आय 5 लाख से ऊपर हो जाएगी. हालांकि यह भी सच है कि देश में जहां मध्यवर्ग खुशहाल हो रहा है, वहीं पहले से ही गरीब और भी कहीं ज्यादा गरीब हो रहे हैं. बहरहाल, भारतीयों की आय बढ़ रही है और इस का मतलब यह है कि आने वाले दिनों में रेस्तराओं में भीड़ कम होने वाली नहीं, बल्कि बढ़ने ही वाली है. फिर चाहे वे देशी हों या विदेशी.

बदलाव है वजह

विदेशी रैस्टोरैंट्स के देश में छा जाने का जहां एक बड़ा कारण पिछले 2 दशकों में लगातार हुई आर्थिक वृद्धि, बढ़ता शहरीकरण और मध्यवर्ग की आय में हुआ खासा इजाफा है, वहीं विदेशी रैस्टोरैंट्स के छा जाने का दूसरा बड़ा कारण है कामकाज की इन की संस्कृति. विदेशी रैस्टोरैंट्स शुरुआत में अपने व्यंजनों की बदौलत भारतीयों को भले न आकर्षित कर सके हों, लेकिन अपनी सत्कार संस्कृति से उन्होंने शुरू से ही भारतीयों का दिल जीत लिया है. सच बात तो यह है कि 1996 में मैकडोनाल्ड्स के हिंदुस्तान आने के बाद खानपान की रेस्तरां संस्कृति में आमूलचूल परिवर्तन हुआ है. भले रैस्टोरैंट्स के मेन्यू कार्ड्स में यह बहुत व्यापक परिवर्तन न दिख रहा हो, लेकिन इस में कोई शक नहीं कि विदेशी रैस्टोरैंट्स के आने के बाद हमारे यहां खानपान की आदत लगभग बदल गई है.

बदल गया है अंदाज

पहले आप रेस्तरां में बैठते थे और मेन्यू कार्ड उठा कर जिस चीज का और्डर देने की कोशिश करते थे, पता चलता था वही चीज मौजूद नहीं है. रैस्टोरैंट्स में कोई चीज और्डर देने के घंटों बाद वह टेबल तक पहुंचती थी. कई रेस्तरां तुरतफुरत नई सब्जियां, पुरानी सब्जियों से मिला कर बना देते थे. जहां आप खानेपीने के लिए बैठे होते थे, वहीं सिर के ऊपर लिखा होता था कृपया खाली न बैठें. वेटर और्डर पूछने आता था और इस तरह आ कर खड़ा हो जाता था जैसे उस की और्डर लेने में नहीं, बल्कि मांगी गई चीज के उपलब्ध न होने की खबर सुनाने में दिलचस्पी हो. विदेशी रैस्टोरैंट्स ने खानपान की इस संस्कृति में पूरी तरह से बदलाव ला दिया है. शानदार बैठने की जगह, साफसफाई, साफसुथरे चुस्त ही नहीं, बल्कि और्डर को कनविंस करने वाले वेटर, मेन्यू कार्ड्स में लिखी हर चीज की हर समय उपलब्धता और समय पर गुणवत्तापूर्ण डिलिवरी ने भारतीयों का जायका ही नहीं सत्कार और सुकून हासिल करने का अंदाज भी बदल दिया है.

बढ़ती लोकप्रियता

पहले आमतौर पर भारतीय रेस्तरां आसपास ही होम डिलिवरी करते थे. उस में भी समय पर डिलिवरी पहुंचने की गारंटी नहीं होती थी. कई बार तो डिलिवरी का और्डर देने वाले लोग थक कर कुछ और खा लेते थे, तब कहीं जा कर डिलिवरी पहुंचती थी. लेकिन विदेशी रैस्टोरैंट्स ने होम डिलिवरी की इस संस्कृति को बदल दिया है. आज दिल्ली के किसी भी कोने में पिज्जा हट की डिलिवरी पाई जा सकती है और उस के लिए जिस सैंट्रलाइज फोन नंबर पर ग्राहक और्डर बुक कराते हैं, वह नंबर दिल्ली के बाहर गुड़गांव से कंट्रोल  होता है. इस से अंदाजा लगाया जा सकता है कि विदेशी रैस्टोरैंट्स होम डिलिवरी को ले कर कितने कौंशस हैं.

पहले जब सिर्फ हिंदुस्तानी रेस्तरां थे तो वे न सिर्फ होम डिलिवरी के लिए अतिरिक्त शुल्क लेते थे, बल्कि डिलिवरी बौय भी टिप की उम्मीद ले कर आता था और अगर आप ने उसे डिलिवरी चार्ज के अलावा टिप न दी तो वह बुरा सा मुंह बनाता था और धोखे से भी अगर अगली बार फिर उस डिलिवरी बौय को आप के घर आना पड़ता तो उस का व्यवहार बेहद रूखा होता. विदेशी रैस्टोरैंट्स ने इस माहौल को पूरी तरह से बदल दिया है. आज विदेशी रैस्टोरैंट्स समय पर और बिना अतिरिक्त शुल्क लिए डिलिवरी देते हैं. बड़े शहरों में मैकडोनाल्ड्स और पिज्जा कौर्नर के रिटेल आउटलेट महज खानेपीने की जगह भर नहीं रहे, बल्कि ये मीटिंग पौइंट भी बन गए हैं. खासकर युवाओं के लिए. युवा जोड़े 1-1 कप कौफी और 1-1 बर्गर के बहाने यहां घंटों बैठे रहते हैं. लेकिन इन में कहीं पर भी कृपया बेकार न बैठें का बोर्ड नहीं टंगा होता. यही वजह है कि विदेशी आउटलेट युवाओं के बीच लोकप्रिय हैं. सच तो यह है कि भारतीय रैस्टोरैंट्स की भीतरी दीवारों पर लिखे जुमलों कृपया बेकार न बैठें को विदेशी रैस्टोरैंट्स ने एक अवसर की तरह भुनाया है.बड़ेबड़े शहरों में ही नहीं छोटेछोटे शहरों में भी ये विदेशी आउटलेट्स हर समय ग्राहकों से खचाखच भरे होते हैं. विदेशी रेस्तरां ने भारतीयों को संतुष्ट करने का फौर्मूला खोज लिया है. इसलिए वे नएनए प्रयोग बेहिचक कर रहे हैं और 74 हजार से 80 हजार करोड़ रुपए के सालाना खानपान के कारोबार के एक बड़े हिस्से पर कब्जा जमा चुके हैं. अगर देशी रैस्टोरैंट्स की अभी भी आंखें नहीं खुलीं तो पारंपरिक फूड के ग्राहक भी उन से किनारा कर लेंगे. 

झगड़ें नहीं तर्क की भाषा इस्तेमाल करें

‘लगे रहो मुन्ना भाई’ के बूढ़े पिता के बेटे का बालकनी से लटक कर अपनी बात मनवाने के स्टाइल में 4 गुंडों ने 43 माले की एक बिल्डिंग इंपीरियल हाइट से डौन को पैसा वसूलने के लिए लटका दिया. हार कर पीडि़त ने पैसा देना मंजूर कर लिया पर उस ने हिम्मत दिखा कर पुलिस में शिकायत कर दी और अब चारों जेल में हैं. पैसे वसूलने के ये घिनौने तरीके नए नहीं हैं. इन से कहीं ज्यादा क्रूर तरीके अपनाए जाते हैं. गनीमत है कि देश में अभी भी खासा कानून का राज है और पुलिस पूरी तरह बेबस नहीं है. हां, पीडि़त को भी खासा खर्च करना पड़ता है और वर्षों परेशान रहना पड़ता है.

ये मामले आजकल आम गृहिणियों को भी झेलने पड़ रहे हैं. घरों के नौकरनौकरानियां, छोटीमोटी सेवा देने वाले पेंटर, बढ़ई, माली, आदि काम करने के दौरान या खराब काम करने पर कटौती करने पर धमकियों पर उतर आते हैं और उन से निबटना बड़ा मुश्किल काम हो जाता है. घरेलू नौकरानियां तो अकसर मालकिन के पति पर सैक्सुअल हैरेसमैंट का झूठा मुकदमा दायर कर देती हैं. कानूनों की भरमार ऐसी है कि हर छोटी चीज का विवाद बनाया जा सकता है और यदि कोई थोड़ा हिम्मत वाला हो तो जराजरा से मामले में यारोंदोस्तों को बुला कर धमकियां दे सकता है या पुलिस बुलवा सकता है.

वैसे तो बुद्धिमानी इसी में है कि लेनदेन में जितना हो पहले ही बात साफ कर ली जाए और कुछ खो देने को तैयार रहें. यह कमजोरी नहीं, बल्कि शांति खरीदना है. अपनी जिद पर अड़ कर नौकरानी के  200 काट लेना या फ्रिज बेचने वाले के यहां सिर पटकने से अच्छा है कि जो जैसा है उसे सह लिया जाए और आगे चल दिया जाए.

पर इस का अर्थ यह नहीं कि तर्क, अधिकार, स्पष्टता, नैतिकता को नाली में बहा दिया जाए. जहां जरूरत हो वहां हर तरह से अड़ना चाहिए और कोशिश करनी चाहिए कि दूसरे पक्ष को समझाया जा सके कि इस की सेवा में कमी है, इसलिए पैसे काटे जा रहे हैं. जबरदस्ती नहीं. मगर दिक्कत यह है कि हमारे यहां तर्क की भाषा का इस्तेमाल न तो पतिपत्नी में होता है, न रिश्तेदारों में और न ही सामान्य बाहरी लोगों से व्यवहार में.

आम नौकर, सब्जी वाला, प्लंबर या दुकानदार भी वास्तव में झगड़ा नहीं चाहता. वह भी काम कर के अपने रास्ते चले जाना चाहता है. झगड़े में उस का भी नुकसान होता है. समय लगता है, वह काम पर नहीं जा पाता. तकादों के लिए आनेजाने पर खर्च करता है. वह भी चाहता है कि उस के भविष्य पर आंच न आए. लोग उसे झगड़ालू न समझें. सभ्य समाज का तकाजा है कि बिना हल्ला किए विवाद हल करें पर अपना हक हरगिज न खोएं.

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