अलविदा: आखिर क्या चाहती थी पूजा

पूजा सुबह से गुमसुम बैठी थी. आज उस की छोटी बहन आरती दिल्ली से वापस लौट रही थी. उस को आरती के वापस आने की सूचना रात को ही मिल चुकी थी. साथ ही इस बात की भनक भी मिल गई थी कि लड़के ने आरती को पसंद कर लिया है और आरती ने भी अपने विवाह की स्वीकृति दे दी है. उस को लगा था कि इस स्वीकृति ने न केवल उस के साथ अन्याय ही किया?है, बल्कि उस के भविष्य को भी तहसनहस कर डाला है.

पूजा आरती से 4 वर्ष बड़ी?थी लेकिन आरती अपने स्वभाव, रूप एवं गुणों के कारण उस से कहीं बढ़ कर थी. वह एक स्कूल में अध्यापिका थी. विवाह में देरी होने के कारण पूजा का स्वभाव काफी चिड़चिड़ा हो गया था. हर किसी से लड़ाईझगड़ा करना उस की आदत बन चुकी थी. उन के पिता दोनों पुत्रियों के विवाह को ले कर अत्यंत चिंतित थे. इसलिए बड़े बेटों को भी उन्होंने विवाह की आज्ञा नहीं दी थी. उन्हें भय था कि पुत्र अपने विवाह के पश्चात युवा बहनों के विवाह में दिलचस्पी ही नहीं लेंगे.

पितापुत्र आएदिन अखबारों में पूजा के विवाह के लिए विज्ञापन देते रहते. कभी पूजा के मातापिता, कभी पूजा स्वयं लड़के को और कभी पूजा को लड़के वाले नापसंद कर जाते और बात वहीं की वहीं रह जाती. वर्ष दर वर्ष बीतते चले गए, लेकिन पूजा का विवाह तय नहीं हो पाया. वह अब पड़ोस में जा कर आरती की बुराइयां करने लगी थी. एक दिन पूजा सामने वाली उषा दीदी के घर जा कर रोने लगी, ‘‘दीदी, मेरे लिए जितने भी अच्छे रिश्ते आते हैं वे सब मुझे ठुकरा कर आरती को पसंद कर लेते हैं. इसीलिए मुझे आरती की शक्ल से भी नफरत हो गई है. मैं ने भी पक्का फैसला कर रखा है कि जब तक मेरा विवाह नहीं होगा, मैं आरती का विवाह भी नहीं होने दूंगी.’’

उषा दीदी पूजा को समझाने लगीं, ‘‘यदि तुम्हारे विवाह से पहले आरती का विवाह हो भी जाए तो क्या हर्ज है? शायद आरती की ससुराल की रिश्तेदारी में तुम्हारे लिए भी कोई अच्छा वर मिल जाए. ऐसे जिद कर के आरती का जीवन बरबाद करना उचित नहीं.’’ लेकिन पूजा का एक ही तर्क था, ‘जब मैं बरबाद हो रही हूं तो दूसरों को क्यों आबाद होने दूं.’ 2 वर्ष तक लाख जतन करने के बाद भी जब पूजा का विवाह निश्चित नहीं हुआ तो वह काफी हद तक निराश हो गई थी.

आरती अध्यापन कार्य करने के पश्चात शाम को घर पर भी ट्यूशन पढ़ा कर अपनेआप को व्यस्त रखती. पूजा सुबह से शाम तक मां के साथ घरगृहस्थी के कार्यों में उलझी रहती. वह यह भी भूल गई थी कि अधिक पकवान, चाटपकौड़ी खाने से उस का शरीर बेडौल होता जा रहा?था. लोग पूजा को देख कर हंसते तो वह कुढ़ कर कहती, ‘‘बाप की कमाई खा रही हूं, जलते हो तो जलो लेकिन मेरी सेहत पर कुछ भी असर नहीं पड़ेगा.’’ पिता ने हार कर अपने दोनों बड़े पुत्रों की शादियां कर दी?थीं. बड़े बेटे का एक मित्र मनोज उन के परिवार का बड़ा ही हितैषी?था. उस ने आरती से शादी करने के लिए अपने एक अधीनस्थ सहयोगी को राजी कर लिया था.

मनोज ने आरती के पिता से कहा, ‘‘चाचाजी, आप चाहें तो आरती का रिश्ता आज ही तय कर देते हैं.’’ पिता ने उत्तर दिया, ‘‘बेटा, आरती तुम्हारी अपनी बहन है. मैं कल ही किसी बहाने आरती को तुम्हारे साथ अंबाला भेज दूंगा.’’ चूंकि मनोज का परिवार भी अंबाला में रहता था, इसलिए आरती के बड़े भाई तथा मनोज के परिवार के लोगों ने ज्यादा शोर किए बगैर आरती के शगुन की रस्म अदा कर दी. विवाह की तारीख भी निश्चित कर दी. चंडीगढ़ में पूजा को इस संबंध में कुछ नहीं बताया गया था. घर में सारे कार्य गुप्त रूप से किए जा रहे थे, ताकि पूजा किसी प्रकार की अड़चन पैदा न कर सके.

अचानक एक दिन पूजा को एक पत्र बरामदे में पड़ा हुआ मिला. वह उत्सुकतावश पत्र को एक सांस में ही पढ़ गई. पत्र के अंत में लिखा था, ‘आरती की गोदभराई की रस्म के लिए हम लोग रविवार को 4 बजे पहुंच रहे हैं.’ पढ़ते ही पूजा के मन में जैसे हजारों बिच्छू डंक मार गए. उस से झूठ बोला गया कि अंबाला में मनोज के बच्चे की तबीयत ज्यादा खराब होने की वजह से आरती को वहां भेजा गया था. उसे लगा कि इस घर के सब लोग बहुत ही स्वार्थी हैं. उस ने पत्र से अंबाला का पता डायरी में लिखा और पत्र को फाड़ कर कूड़ेदान में फेंक दिया.

2 दिन के पश्चात लड़के के पिता के हाथ में एक चिट्ठी थी, जिस में लिखा था, ‘आरती मंगली लड़की है. यदि इस से आप ने पुत्र का विवाह किया तो लड़का शीघ्र ही मृत्यु को प्राप्त होगा.’ पत्र पढ़ते ही उस परिवार में श्मशान जैसी खामोशी छा गई. वे लोग सीधे मनोज के घर पहुंच गए. लड़के के पिता गुस्से से बोले, ‘‘आप जानते थे कि लड़की मंगली है, फिर आप ने हमारे परिवार को ही बरबाद करने का क्यों निश्चय किया? मैं इस रिश्ते को किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं कर सकता.’’

मनोज ने उन लोगों को समझाने का काफी प्रयत्न किया, लेकिन बिगड़ी बात संवर न सकी. चंडीगढ़ से पूजा के बड़े भाई को अंबाला बुला कर सारी स्थिति से अवगत कराया गया. पत्र देखने पर पता चला कि यह पूजा की लिखावट नहीं है. उस के पास तो अंबाला का पता ही नहीं था और न ही आरती के रिश्ते की बात की उसे कोई जानकारी थी. चंडीगढ़ आने पर बड़े भैया उदास एवं दुखी थे. पूजा से इस बात की चर्चा करना बेकार था. घर का वातावरण एक बार फिर खामोश हो चुका था.

उषा दीदी की बड़ी लड़की नीलू, पूजा से सिलाई सीखने आती थी. एक दिन कहने लगी, ‘‘पूजा दीदी, आप ने जो चिट्ठी किसी को बेवकूफ बनाने के लिए लिखवाई थी, उस का क्या हुआ?’’ आरती के कानों में इस बात की भनक पड़ गई और वह झटपट मां तथा?भाई को बताने भाग गई. 2 दिन पश्चात पूजा की मां ने उषा के घर जा कर नीलू से सारी बात उगलवा ली कि पूजा दीदी ने ही मनोज भाई साहब के रिश्तेदारों को तंग करने के लिए उस से चिट्ठी लिखवाई थी.

आरती और पूजा में बोलचाल बंद हो गई लेकिन फिर धीरेधीरे घर का वातावरण सामान्य हो गया. पूजा और आरती चुपचाप अपनेअपने कामों में लगी रहतीं. आरती स्कूल जाती और फिर शाम को ट्यूशन पढ़ाती. पूजा उसे अच्छ-अच्छे कपड़ोंजेवरों में देख कर कुढ़ती और फिर उस का गुस्सा उतरता अपनी भाभियों तथा बूढ़े पिता पर, ‘‘मैं पैदा ही तुम्हारी गुलामी करने के लिए हुई थी. क्यों नहीं रख लेते मेरे स्थान पर एक माई.’’ स्कूल की अध्यापिकाएं आरती को समझातीं, ‘‘अब भी समय है, यदि कोई लड़का तुम्हें पसंद कर ले तो तुम स्वयं ही कोशिश कर के विवाह कर लो.’’ आरती की एक सखी ने अपने ममेरे भाई के लिए उसे राजी कर लिया था और उस के साथ स्वयं दिल्ली जा कर उस का विवाह तय कर आई थी.

आरती की शादी की बात पूजा को बता दी गई थी. पूजा ने केवल एक ही शर्त रखी थी, ‘आरती की शादी में जितना खर्च होगा, उस से दोगुना धन मेरे नाम से बैंक में जमा कर दो ताकि मैं अपने भविष्य के प्रति आश्वस्त हो जाऊं.’ विवाह का दिन नजदीक आता जा रहा था. बाहरी रूप से पूजा एकदम सामान्य दिखाई दे रही थी. पिता ने मोटी रकम पूजा के नाम बैंक में जमा करवा दी थी. आरती को उपहार देने के लिए पूजा ने अपने विवाह के लिए रखी हुई 2 बेहद सुंदर चादरें व गुड्डेगुडि़या का जोड़ा निकाल लिया था तथा छोटीमोटी अन्य कई कशीदाकारी की चीजें भी थीं. आरती के विवाह का दिन आ गया.

पूजा सुबह से ही भागदौड़ में लगी थी. घर मेहमानों से खचाखच भरा था, इसलिए दहेज के सामान का कमरा ऊपर की मंजिल पर निश्चित हुआ था और विदा से पूर्व दूल्हादुलहन उस में आराम भी कर सकते थे. उस कमरे की चाबी आरती की बड़ी भाभी को दे दी गई थी. पूजा ने सामान्य सा सूट पहन रखा था. उस की मां ने 2-3 बार गुस्से से उसे डांटा भी, ‘‘आज भी ढंग के कपड़े नहीं पहनने तो फिर 4 सूट बनवाने की जरूरत ही क्या थी?’’ पूजा ने पलट कर जवाब दिया, ‘‘अब सूट बदलने का क्या फायदा. मुझे कई काम निबटाने हैं.’’ मां बड़ी खुश हुईं कि इस के मन में कोई मलाल नहीं. बेचारी कितनी भागदौड़ कर रही?है.

पूजा अपने कमरे में बारबार आजा रही थी. भाभी समझ रही थीं कि शायद मां उसे ऊपर काम के लिए भेज रही हैं और आरती समझ रही थी कि शायद अधूरे काम पूरे कर रही है. दरअसल, पूजा अपने दहेज के लिए सहेज कर रखी हुई सब चीजों को छिपाछिपा कर बांध रही थी. यहां तक कि उस ने अपने जेवर भी डब्बों में बंद कर दिए थे. बरात आने में केवल 1 घंटा शेष रह गया था. आरती को मेकअप के लिए ब्यूटी पार्लर भेज दिया गया था और पूजा घर में ही अपनेआप को संवारने लगी थी. उस ने बढि़या सूट पहना और शृंगार इत्यादि कर के पंडाल में पहुंच गई. सब रिश्तेदारों से हंसहंस कर बतियाती रही. निश्चित समय पर बरात आई तो बड़े चाव से पूजा आरती को जयमाला के लिए मंच पर ले गई.

इस के पश्चात पूजा किसी बहाने से भाभी से चाबी ले कर पंडाल से खिसक गई. बरात ने खाना खा लिया तो घर के लोग भी खाना खाने में व्यस्त हो गए. अचानक बड़ी?भाभी को खयाल आया कि पूजा ने अभी खाना नहीं खाया. उसे बुलवाने किसी बच्चे को भेजा तो पता चला कि पूजा ऊपर वाला कमरा ठीक कर रही है. थोड़ी देर बाद आ जाएगी. काफी देर बाद भी पूजा नीचे नहीं उतरी तो मां स्वयं उसे बुलाने ऊपर पहुंच गईं. तब पूजा ने कहा, ‘‘मैं दूल्हा-दुल्हन का कमरा ठीक कर रही हूं. 5 मिनट का काम बाकी है.’’

मां और दूसरे लोग नीचे फेरों की तैयारी में व्यस्त हो गए. रात 1 बजे तक फेरे भी पूरे हो चुके थे, लेकिन पूजा नीचे नहीं आई थी. घर के लोग डर रहे थे कि बारबार बुलाने से शायद वह गुस्सा न कर बैठे और बात बाहर के लोगों में फैल जाए. इसलिए सभी अपनेआप को काबू में रखे हुए थे. दूल्हादुलहन को आराम करने के लिए भेजा जाने लगा तो भाभी ने सोचा कि पहले वह जा कर कमरा देख ले. जैसे ही भाभी ने दरवाजा खोला तो सामने बिस्तर पर फूल इत्यादि बिखरे पड़े थे. साथ ही एक लिफाफा भी रखा हुआ था. पत्र आरती के नाम था,

‘प्रिय आरती, मैं ने अपनी सभी प्यारी चीजें तुम्हारे विवाह के लिए बांध दी हैं. अपने पास कुछ भी नहीं रखा. पैसा भी पिताजी को लौटा रही हूं. केवल मैं अकेली ही जा रही हूं. पूजा.’ भाभी ने पत्र पढ़ लिया, लेकिन उसे किसी को भी नहीं दिखाया और वापस आ कर दूल्हादुलहन को आराम करने के लिए उस कमरे में ले गई. थोड़ी देर बाद अचानक ही आरती भाभी से पूछ बैठी, ‘‘भाभीजी, पूजा दिखाई नहीं दे रही. क्या सो गई है?’’ भाभी ने कहा, ‘‘हां, मैं ने ही सिरदर्द की गोली दे कर उसे अपने कमरे में भिजवा दिया है. थोड़ी देर बाद ऊपर आ जाएगी.’’

भाभी दौड़ कर पति के पास पहुंची और उन्हें छिपा कर पत्र दिखाया. पत्र पढ़ कर उन्हें पैरों तले की जमीन खिसकती नजर आने लगी. बड़े भैया सोचने लगे कि अगर मातापिता से बात की तो वे लोग घबरा कर कहीं शोर न मचा दें. अभी तो आरती की विदाई भी नहीं हुई. भैयाभाभी ने सलाह की कि विदा तक कोई बहाना बना कर इस बात को छिपाना ही होगा. विदाई की सभी रस्में पूरी की जा रही थीं कि मां ने 2-3 बार पूजा को आवाज लगाई, लेकिन भैया ने बात को संभाल लिया और मां चुप रह गईं. सुबह 8 बजे बरात विदा हो गई. आरती ने सब से गले मिलते हुए पूजा के बारे में पूछा तो भाभी ने कहा, ‘‘सो रही है. कल शाम को तेरे घर पार्टी में हम सब पहुंच ही रहे हैं. फिर मिल लेना.’’

बरात के विदा होने के बाद अधिकांश मेहमान भी जाने की तैयारी में व्यस्त हो गए. 10 बजे के लगभग बड़े भैया पिताजी को सही बात बताने का साहस जुटा ही रहे थे कि सामने वाली उषा दीदी का नौकर आया, ‘‘भाभीजी, मालकिन बुला रही हैं. जल्दी आइए.’’ भाभी तथा भैया दौड़ कर वहां पहुंचे. वहां उषा दीदी और उन के पति गुमसुम खड़े थे. पास ही जमीन पर कोई चीज ढकी पड़ी थी. उषा तो सदमे से बुत ही बनी खड़ी थी. उन के पति ने बताया कि नौकर छत पर कपड़े डालने आया तो पूजा को एक कोने में लेटा देख कर घबरा कर नीचे दौड़ा आया और उस ने बताया कि पूजा दीदी ऊपर सो रही?हैं लेकिन यहां आ कर कुछ और ही देखा.

बड़े भैया ने पूजा के ऊपर से चादर हटा दी. उस ने कोई जहरीली दवा खा कर आत्महत्या कर ली थी. समीप ही एक पत्र भी पड़ा हुआ था. लिखा था : ‘पिताजी जब तक आप के पास यह पत्र पहुंचेगा तब तक मैं बहुत दूर जा चुकी होंगी. आरती को तो आप ने केवल विदा ही किया है, लेकिन मैं आप को अलविदा कह रही हूं. मैं आरती के विवाह में सम्मिलित नहीं हुई, इसलिए मेरी विदाई में उसे न बुलाया जाए. आप की बेटी पूजा.’

मां-बाप और भाइयों को दुख था कि पूजा को पालने में उन से कहीं गलती हो गई थी, जिस से वह इतनी संवेदनशील और जिद्दी हो गई थी और अपनी छोटी बहन से ही जलने लगी थी. उन्हें लगा कि अगर वे कहीं सख्ती से पेश आते तो शायद बात इतनी न बिगड़ती. पूजा न केवल बहन से ही, बल्कि पूरे घर से ही कट गई थी. जिस लड़की ने जीते जी उन की शांति भंग कर रखी थी, उस ने मृत्यु के बाद भी कैसा अवसाद भर दिया था, उन सब के जीवन में.

बाढ़: क्या मीरा और रघु के संबंध लगे सुधरने

बौस ने जरूरी काम बता कर मीरा को दफ्तर में ही रोक लिया और खुद चले गए.

मीरा को घर लौटने की जल्दी थी. उसे शानू की चिंता सता रही थी. ट्यूशन पढ़ कर लौट आया होगा, खुद ब्रेड सेंक कर भी नहीं खा सकता, उस के इंतजार में बैठा होगा.

बाहर तेज बारिश हो रही थी…अचानक बिजली चली गई तो मीरा इनवर्टर की रोशनी में काम पूरा करने लगी. तभी फोन की घंटी बज उठी.

‘‘मां, तुम कितनी देर में आओगी?’’ फोन कर शानू ने जानना चाहा, ‘‘घर में कुछ खाने को नहीं है.’’

‘‘पड़ोस की निर्मला आंटी से ब्रेड ले लेना,’’ मीना ने बेटे को समझाया.

‘‘बिजली के बगैर घर में कितना अंधेरा हो गया है, मां. डर लग रहा है.’’

‘‘निर्मला आंटी के घर बैठे रहना.’’

‘‘कितनी देर में आओगी?’’

‘‘बस, आधा घंटा और लगेगा. देखो, मैं लौटते वक्त तुम्हारे लिए बर्गर, केले व आम ले कर आऊंगी, होटल से पनीर की सब्जी भी लेती आऊंगी.’’

बेटे को सांत्वना दे कर मीरा तेजी से काम पूरा करने लगी. वह सोच रही थी कि महानगर में इतनी देर तक बिजली नहीं जाती, शायद बरसात की वजह से खराबी हुई होगी.

काम पूरा कर के मीरा ने सिर उठाया तो 9 बज चुके थे. चौकीदार बैंच पर बैठा ऊंघ रहा था.

मीरा को इस वक्त एक प्याला चाय पीने की इच्छा हो रही थी, पर घर भी लौटने की जल्दी थी. चौकीदार से ताला बंद करने को कह कर मीरा ने पर्स उठाया और जीना उतरने लगी.

चारों तरफ घुप अंधेरा फैला हुआ था. क्या हुआ बिजली को, सोचती हुई मीरा अंदाज से टटोल कर सीढि़यां उतरने लगी. घोर अंधेरे में तीसरे माले से उतरना आसान नहीं होता.

सड़क पर खड़े हो कर उस ने रिकशा तलाश किया, जब नहीं मिला तो वह छाता लगा कर पैदल ही आगे बढ़ने लगी.

अब न तो कहीं रुक कर चाय पीने का समय रह गया था न कुछ खरीदारी करने का.

थोड़ा रुक कर मीरा ने बेटे को मोबाइल से फोन मिलाया तो टींटीं हो कर रह गई.

अंधेरे में अचानक मीरा को ऐसा लगा जैसे वह नदी में चली आई हो. सड़क पर इतना पानी कहां से आ गया…सुबह निकली थी तब तो थोड़ा सा ही पानी भरा हुआ था, फिर अचानक यह सब…

अभी वह यह सब सोच ही रही थी कि पानी गले तक पहुंचने लगा. वह घबरा कर कोई आश्रय स्थल खोजने लगी.

घने अंधेरे में उसे दूर कुछ बहुमंजिली इमारतें दिखाई पड़ीं. मीरा उसी तरफ बढ़ने लगी पर वहां पहुंचना उस के लिए आसान नहीं था.

जैसेतैसे मीरा एक बिल्ंिडग के नीचे बनी पार्किंग तक पहुंच पाई. पर उस वक्त वह थकान की अधिकता व भीगने की वजह से अपनेआप को कमजोर महसूस कर रही थी.

मीरा को यह स्थान कुछ जानापहचाना सा लगा. दिमाग पर जोर दिया तो याद आया, इसी इमारत की दूसरी मंजिल पर वह रघु के साथ रहती थी.

फिर रघु के गैरजिम्मेदाराना रवैये से परेशान हो कर उस ने उस के साथ संबंध विच्छेद कर लिया था. उस वक्त शानू सिर्फ ढाई वर्ष का था. अब तो कई वर्ष गुजर चुके हैं…शानू 10 वर्ष का हो चुका है.

क्या पता रघु अब भी यहां रहता है या चला गया, हो सकता है उस ने दूसरा विवाह कर लिया हो.

मीरा को लग रहा था कि वह अभी गिर पडे़गी. ठंड लगने से कंपकंपी शुरू हो गई थी.

एक बार ऊपर जाने में हर्ज ही क्या है. रघु न सही कोई दूसरा सही, उसे किसी का सहारा तो मिल ही जाएगा. उस ने सोचा और जीने की सीढि़यां चढ़ने लगी…फिर उस ने फ्लैट का दरवाजा जोर से खटखटा दिया.

किसी ने दरवाजा खोला और मोमबत्ती की रोशनी में उसे देखा, बोला, ‘‘मीरा, तुम?’’

रघु की आवाज पहचान कर मीरा को भारी राहत मिली…फिर वह रघु की बांहों में गिर कर बेसुध होती चली गई.

कंपकपाते हुए मीरा ने भीगे कपडे़ बदल कर, रघु के दिए कपडे़ पहने फिर चादर ओढ़ कर बिस्तर पर लेट गई.

कानूनी संबंध विच्छेद के वर्षों बाद फिर से उस घर में आना मीरा को बड़ा विचित्र लग रहा है, उस के  व रघु के बीच जैसे लाखों संकोच की दीवारें खड़ी हो गई हैं.

रघु चाय बना कर ले आया, ‘‘लो, चाय के साथ दवा खा लो, बुखार कम हो जाएगा.’’

दवा ने अच्छा काम किया…मीरा उठ कर बैठ गई.

रघु खाना बना रहा था.

‘‘तुम ने शादी नहीं की?’’ मीरा ने धीरे से प्रश्न किया.

‘‘मुझ से कौन औरत शादी करना पसंद करेगी, न सूरत है न अक्ल और न पैसा…तुम ने ही मुझे कब पसंद किया था, छोड़ कर चली गई थीं.’’

मीरा देख रही थी. पहले के रघु व इस रघु में बहुत बड़ा अंतर आ चुका है.

‘‘तुम ने खाना बनाना कब सीख लिया? सब्जी तो बहुत स्वादिष्ठ बनाई है.’’

‘‘तुम चली गईं तो मुझे खाना बना कर कौन खिलाता, सारा काम मुझे ही करना पड़ा, धीरेधीरे सारा कुछ सीख लिया, बरतन साफ करता हूं, कपड़े धोता हूं, इस्तिरी करता हूं.’’

‘‘आज बिजली को क्या हुआ, आ जाती तो मैं फोन चार्ज कर लेती.’’

‘‘तुम्हें शायद पता नहीं, पूरे शहर में बाढ़ का पानी फैल चुका है. बिजली, टेलीफोन सभी की लाइनें खराब हो चुकी हैं, ठीक करने में पता नहीं कितने दिन लग जाएं.’’

मीरा घबरा गई, ‘‘बाढ़ की वजह से मैं घर कैसे जा पाऊंगी…शानू घर में अकेला है.’’

‘‘शानू यानी हमारा बेटा,’’ रघु चिंतित हो उठा, ‘‘मैं वहां जाने का प्रयास करता हूं.’’

मीरा ने पता बताया तो रघु के चेहरे पर चिंता की लकीरें और अधिक बढ़ गईं. वह बोला, ‘‘मीरा, उस इलाके में 10 फुट तक पानी चढ़ चुका है. मैं उसी तरफ से आया था, मुझे तैरना आता है इसलिए निकल सका नहीं तो डूब जाता.’’

‘‘शानू, मेरा बेटा…किसी मुसीबत में न फंस गया हो,’’ कह कर मीरा रोने लगी.

‘‘चिंता करने से क्या हासिल होगा, अब तो सबकुछ समय पर छोड़ दो,’’ रघु उसे सांत्वना देने लगा. पर चिंता तो उसे भी हो रही थी.

दोनों ने जाग कर रात बिताई.

हलका सा उजाला हुआ तो रघु ने पाउडर वाले दूध से 2 कप चाय बनाई.

मीरा को चाय, बिस्कुट व दवा की गोली खिला कर बोला, ‘‘मैं जा कर देखता हूं, शानू को ले कर आऊंगा.’’

‘‘उसे पहचानोगे कैसे, वर्षों से तो तुम ने उसे देखा नहीं.’’

‘‘बाप के लिए अपना बेटा पहचानना कठिन नहीं होता, तुम ने कभी अपना पता नहीं बताया, कभी मुझ से मिलने नहीं आईं, जबकि मैं ने तुम्हें काफी तलाश किया था. एक ही शहर में रह कर हम दोनों अनजान बने रहे,’’ रघु के स्वर में शिकायत थी.

‘‘मैं ही गलती पर थी, तुम्हें पहचान नहीं पाई. मैं सोच भी नहीं सकती थी कि तुम इतना बदल सकते हो. शराब पीना और जुआ खेलना बंद कर के पूरी तरह से तुम जिम्मेदार इनसान बन चुके हो.’’

रघु ने बरसाती पहनी और छोटी सी टार्च जेब में रख ली.

मीरा, शानू का हुलिया बताती रही.

रघु चला गया, मीरा सीढि़यों पर खड़ी हो उसे जाते देखती रही.

आज दफ्तर जाने का तो सवाल ही नहीं था, बगैर बिजली के तो कुछ भी काम नहीं हो सकेगा.

मीरा ने पहले कमरे की फिर रसोई और बरतनों की सफाई का काम निबटा डाला. उस ने खाना बनाने के लिए दालचावल बीनने शुरू किए पर टंकी में पानी समाप्त हो चला था.

उसे याद आया कि नीचे एक हैंडपंप लगा था. वह बालटी भर कर ले आई और खाना बना कर रख दिया.

पर रघु अभी तक नहीं आया था. मीरा को चिंता सताने लगी…पता नहीं वह उस के कमरे तक पहुंचा भी है या नहीं. किस हाल में होगा शानू.

मीरा कुछ वक्त पड़ोसिन के साथ गुजारने के खयाल से जीना उतरी तो यह देख कर दंग रह गई कि सभी फ्लैट खाली थे. वहां रहने वाले बाढ़ के डर से कहीं चले गए थे.

बाहर सड़क पर अब भी पानी भरा हुआ था, बरसात भी हो रही थी. अकेलेपन के एहसास से डरी हुई मीरा फ्लैट का दरवाजा बंद कर के बैठ गई.

रघु काफी देरी से आया, उस के जिस्म पर चोटों के निशान थे.

मीरा घबरा गई, ‘‘चोटें कैसे लग गईं आप को, शानू कहां है?’’

उस ने रघु की चोटों पर दवा लगाई.

रघु ने बताया कि उस के घर में शानू नहीं था, पुलिस ने बाढ़ में फंसे लोगों को राहत शिविरों में पहुंचा दिया है, शानू भी वहीं गया होगा.

मीरा की आंखों में आंसू भर आए, ‘‘मैं ने कभी बेटे को अपने से अलग नहीं किया था. खैर, तुम ने यह तो बताया नहीं, चोटें कैसे लगी हैं.’’

‘‘फिसल कर गिर गया था…पैर की मोच के कारण कठिनाई से आ पाया हूं.’’

मीरा ने खाना लगाया, दोनों साथसाथ खाने लगे.

खाना खाने के तुरंत बाद रघु को नींद आने लगी और वह सो गया. जब उठा तो रात गहरा उठी थी.

मीरा खामोशी से कुरसी पर बैठी थी.

‘‘तुम ने मोमबत्ती नहीं जलाई,’’ रघु बोला और फिर ढूंढ़ कर मोमबत्ती ले आया और बोला, ‘‘मैं राहत शिविरों में जा कर शानू की खोज करता हूं.’’

‘‘इतनी रात को मत जाओ,’’ मीरा घबरा उठी.

‘‘तुम्हें अब भी मेरी चिंता है.’’

‘‘मैं ने तुम्हारे साथ वर्षों बिताए हैं.’’

रघु यह सुन कर बिस्तर पर बैठ गया, ‘‘जब सबकुछ सही है तो फिर गलत क्या है? क्या हम लोग फिर से एकसाथ नहीं रह सकते?’’

मीरा सोचने लगी.

‘‘हम दोनों दिन भर दफ्तरों में रहते हैं,’’ रघु बोला, ‘‘रात को कुछ घंटे एकसाथ बिता लें तो कितना अच्छा रहेगा, शानू की जिम्मेदारी हम दोनों मिल कर उठाएंगे.’’

मीरा मौन ही रही.

‘‘तुम बोलती क्यों नहीं, मीरा. मैं ने जिम्मेदारियां निभाना सीख लिया है. मैं घर के सभी काम कर लिया करूंगा,’’ रघु के स्वर मेें याचक जैसा भाव था.

मीरा का उत्तर हां में निकला.

रघु की मुसकान गहरी हो उठी.

सुबह एक प्याला चाय पी कर रघु घर से निकल पड़ा, फिर कुछ घंटे बाद ही उस का खुशी भरा स्वर फूटा, ‘‘मीरा, देखो तो कौन आया है.’’

मीरा ने दरवाजा खोल कर देखा तो सामने शानू खड़ा था.

‘‘मेरा बेटा,’’ मीरा ने शानू को सीने से चिपका लिया. फिर वह रघु की तरफ मुड़ी, ‘‘तुम ने आसानी से शानू को पहचान लिया या परेशानी हुई थी?’’

‘‘कैंप के रजिस्टर मेें तुम्हारा पता व नाम लिखा हुआ था.’’

रघु राहत शिविर से खाने का सामान ले कर आया था, सब्जियां, दूध का पैकेट, डबलरोटी, नमकीन आदि.

उस ने शानू के सामने प्लेटें लगा दीं.

‘‘बेटा, इन्हें जानते हो.’’

शानू ने मां की तरफ देखा और बोला, ‘‘यह मेरे डैडी हैं.’’

‘‘कैसे पहचाना?’’

‘‘इन्होंने बताया था.’’

‘‘शानू, तुम्हें पकौड़े, ब्रेड- मक्खन पसंद हैं न,’’ रघु बोला.

‘‘हां.’’

‘‘यह सब मुझे भी पसंद हैं. हम दोनों में अच्छी दोस्ती रहेगी.’’

‘‘हां, डैडी.’’

मुसकराती हुई मीरा बाप- बेटे की बातें सुनती रही, कितनी सरलता से रघु ने शानू के साथ पटरी बैठा ली.

‘‘शुक्र है इस बरसात के मौसम का कि हम दोनों मिल गए,’’ मीरा बोली और रसोई में जा कर पकौडे़ तलने लगी.

उसे लग रहा था कि उस का बोझ बहुत कुछ हलका हो गया है. सबकुछ रघु के साथ बंट जो चुका है.

बीच का लंबा फासला न जाने कहां गुम हो चुका था. जैसे कल की ही बात हो.

घर तो इनसानों से बनता है न कि दीवारों से. पशु भी तो मिल कर रहते हैं. मीरा न जाने क्याक्या सोचे जा रही थी. बापबेटे की संयुक्त हंसी उस के मन में खुशियां भर रही थी.

प्यार का तीन पहिया

‘‘जी मैडम, कहिए कहां चलना है?’’

‘‘कनाट प्लेस. कितने रुपए लोगे?’’

‘‘हम मीटर से चलते हैं मैडम. हम उन आटो वालों में से नहीं हैं जिन की नजरें सवारियों की जेबों पर होती हैं. जितने वाजिब होंगे, बस उतने ही लेंगे.’’

मैं आटो में बैठ गई. आटो वाला अपनी बकबक जारी रखे हुए था, ‘‘मैडम, दुनिया देखी है हम ने. बचपन का समय बहुत गरीबी में कटा है, पर कभी किसी सवारी से 1 रुपया भी ज्यादा नहीं लिया. आज देखो, हमारे पास अपना घर है, अपना आटो है.’’

‘‘आटो अपना है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘बिलकुल मैडम, किस्तों पर लिया था. साल भर में सारी किस्तें चुका दीं. अब जल्द ही टैक्सी लेने वाला हूं.’’

‘‘इतने रुपए कहां से आए तुम्हारे पास?’’

‘‘ईमानदारी की कमाई के हैं, मैडमजी. दरअसल, हम सिर्फ आटो ही नहीं चलाते विदेशी सैलानियों को भारत दर्शन भी कराते हैं. यह देखो, हर वक्त हमारे आटो में दिल्ली के 3-4 मैप तो रखे ही होते हैं. विदेशी सैलानी एक बार हमारे आटो में बैठते हैं, तो शाम से पहले नहीं छोड़ते. मैं सारी दिल्ली दिखा कर ही रुखसत करता हूं उन्हें. इस से मन तो खुश होता ही है, अच्छीखासी कमाई भी हो जाती है. कुछ तो 10-20 डौलर अतिरिक्त भी दे जाते हैं. लो मैडम, आ गई आप की मंजिल. पूरे 42 रुपए, 65 पैसे बनते हैं.’’

‘‘50  रुपए का नोट है मेरे पास. बाकी लौटा दो,’’ मैं ने कहा.

‘‘मैडम चेंज नहीं है हमारे पास? आप देखो अपने पर्स में.’’

‘‘नहीं है मेरे पास. बाकी 500-500 के नोट ही हैं.’’

‘‘तो फिर छोड़ो न मैडमजी, बाद में कभी बैठ जाना. तब हिसाब कर लेंगे और वैसे भी इतना तो चलता ही है,’’ वह बोला.

‘‘ऐसे कैसे चलता है? पैसे वापस करो.’’

‘‘क्या मैडम, 5-6 रुपयों के लिए इतनी चिकचिक? 5-6 रुपए छोड़ने पर कौन सा आप गरीब हो जाओगी?’’

‘‘बात रुपयों की नहीं, नीयत की है.’’

‘‘क्या बात करती हो मैडम? कोई और आटो वाला होता तो 60-70 रुपए से कम में बैठाता ही नहीं.’’

‘‘हद करते हो,’’ कह कर मैं गुस्से में आटो से उतर गई और वह खीखी कर हंसता रहा.

औफिस आ कर भी काफी देर तक मेरा मूड अजीब सा रहा. क्या करूं? औफिस आते वक्त हड़बड़ी में आटो लेना ही पड़ता है पर इस तरह का कोई अनुभव हो जाए तो सारा दिन ही खराब हो जाता है.

शाम को जब मैं औफिस से निकली तो काफी थक चुकी थी. तबीयत भी ठीक नहीं थी. चलने का बिलकुल मन नहीं कर रहा था. मैट्रो स्टेशन औफिस से दूर है, इसलिए आटो ही देखने लगी. पास ही एक खाली आटो वाला दिखा. मैं ने जल्दी से उसे हाथ दिया. पर यह क्या, सामने वही आटो वाला था, जिस ने सुबह मेरा दिमाग खराब किया था.

मजबूरी थी, इसलिए मैं ने उसे चलने को कहा तो वह रूखे अंदाज में बोला, ‘‘मुझे नहीं जाना मैडम. आप दूसरा आटो देख लो.’’

मेरा मन किया कि उस का सिर फोड़ दूं. पर किसी तरह खुद पर कंट्रोल कर मैट्रो स्टेशन की तरफ बढ़ चली.

तभी उस की तेज, भद्दी आवाज सुनाई दी, ‘‘ओ वसुधाजी, अरे ओ वसुधाजी, आओ बैठो, मैं आप को छोड़ दूं.’’

मेरा मन गुस्से से जल उठा कि मैं ने कहा तो साफ इनकार कर गया और अब किसी लड़की को आवाजें लगा रहा है. फिर मैं ने पलट कर देखा तो पाया कि वह आटो ले कर जिस लड़की की तरफ बढ़ रहा है, वह वसुधा थी, जो एक पैर से अपाहिज थी और धीरेधीरे मैट्रो की तरफ बढ़ रही थी. वसुधा और मेरा परिचय मैट्रो में ही हुआ था. वह आटो वाले को इनकार करते हुए मेरे साथ मैट्रो स्टेशन की तरफ बढ़ चली.

लगभग साल भर में हम कई बार मिले थे. वह बहुत बतियाती थी और घरबाहर की बहुत बातें हम लोग शेयर कर चुके थे. अपाहिज होने के बावजूद उस में गजब का आत्मविश्वास था. वह जौब करती थी और दिल्ली में अपनी बूआ के साथ अकेली रहती थी. सीपी में उस का औफिस और घर करोलबाग में था, जहां मैं भी रहती थी. सफर में ही हमारी अच्छी दोस्ती हो गई थी.

अगले दिन हम दोनों औफिस से एक ही वक्त पर निकले. वह आटो वाला लपक कर आगे बढ़ा और हमारे करीब आटो रोकते हुए बोला, ‘‘वसुधाजी, बैठिए न… छोड़ दूंगा आप को.’’

वसुधा ने नकारात्मक मुद्रा में सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘नहीं. तुम जाओ, मैं चली जाऊंगी.’’

आटो वाला अड़ा रहा, ‘‘आप ऐसा क्यों कह रही हैं? मैं इतना बुरा इंसान नहीं. बैठ जाओ, घर तक सलामत पहुंचा दूंगा.’’

वसुधा ने प्रश्नवाचक नजरों से मेरी तरफ देखा. मैं समझ नहीं सकी कि आखिर माजरा क्या है? फिर बोली, ‘‘चलो बैठ जाते हैं प्रीति. वैसे भी देर हो रही है.’’

मैं ने इनकार किया, ‘‘तू बैठ, मैं किसी और में चली जाऊंगी.’’

‘‘तो फिर मैं तेरे साथ ही चलती हूं,’’ और वह मेरे साथ हो ली.

तभी आटो वाला मुझ से बड़ी नम्रता से बोला, ‘‘बहनजी, प्लीज आप भी बैठ जाओ, वसुधाजी तभी बैठेंगी. किराया भी जितना मन करे दे देना. न भी दोगी तो भी चलेगा,’’ और फिर मेरी तरफ मुसकरा कर देखा.

उस की मुसकान मुझे व्यंग्यात्मक नहीं, सहज सरल लगी अत: मैं आटो में बैठ गई. रास्ते भर तीनों खामोश रहे. मैं सोच रही थी, आज इस की बकबक कहां गई. उस ने सीधे वसुधा के घर के आगे आटो रोका.

वह उतर गई, तो मुझ से बोला, ‘‘अब बताइए, आप को कहां छोड़ूं?’’

‘‘मैं चली जाऊंगी. पास ही है मेरा घर,’’ कह मैं ने पर्स निकाला.

‘‘रहने दीजिए. आप लोगों से क्या किराया लेना?’’ वह बोला.

‘‘क्या मैं इस दरियादिली की वजह जान सकती हूं?’’

‘‘आप वसुधाजी की सहेली हैं, तो जाहिर है मेरे लिए भी खास हैं… खैर, मैं चलता हूं,’’ और वह चला गया.

‘इस आटो वाले को वसुधा में इतनी दिलचस्पी क्यों? कहीं दोनों पुराने प्रेमी तो नहीं?’ मैं सोच में पड़ गई.

अगले दिन जब मैं ने वसुधा से इस संदर्भ में बात की तो उस ने बताया, ‘‘ऐसा कुछ नहीं है. हां, कुछ दिनों से वह मेरे पीछे जरूर पड़ा है, पर कभी गलत हरकत नहीं की.’’

‘‘क्या तू भी उसे मन ही मन पसंद करती है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘मेरा और उस का क्या मेल? वह एक तो आटो वाला, ऊपर से न जाने किस जाति का है… हम लोग कुलीनवर्ग के हैं. मैं अपाहिज हूं, तो इस का मतलब यह तो नहीं कि कोई भी मुझे अपने लायक समझने लगे.’’

मैं बोली, ‘‘ये छोटे लोग तो बस ऐसे ही होते हैं.’’

अगले दिन जानबूझ कर हम दूसरे रास्ते से निकले पर उस आटो वाले ने हमें ढूंढ़ ही लिया और आटो बगल में रोक कर बोला, ‘‘चलिए.’’

‘‘नहीं जाना,’’ हम ने रुखाई से कहा.

‘‘गरीब हूं, पर बेईमान नहीं. वसुधाजी ज्यादा चल नहीं सकतीं, मैं आटो ले आता हूं, तो इस में बुरा क्या है?’’

मैं ने वसुधा की तरफ देखा तो वह भी पसीज गई. हम दोनों एक बार फिर आटो में खामोश बैठे थे. सच, कभीकभी जिंदगी कितनी अजनबी लगती है. कौन किस तरह और कब हमारे जीवन से जुड़ जाए, कुछ पता नहीं.

अब तो रोज का नियम बन गया था. आटो वाला मुझे और वसुधा को घर छोड़ता पर एक रुपया भी नहीं लेता. रास्ते भर वह अपने बारे में बताता रहता. उस का नाम अभिषेक था और वह बिहार का रहने वाला था. 2 कमरे के घर में किराए पर रहता था.

उस दिन औफिस से निकलते हुए मैं ने वसुधा से कहा, ‘‘शुक्रवार की छुट्टी है, यानी कुल मिला कर 3 दिन की छुट्टियां लगातार पड़ रही हैं. कितना मजा आएगा.’’

मैं खुश थी पर वसुधा परेशान सी थी. बोली, ‘‘क्या करूंगी 3 दिन… समय काटना मुश्किल हो जाएगा.’’

‘‘ऐसा क्यों कह रही है? हम घूमने चलेंगे. खूब ऐंजौय करेंगे.’’

‘‘सच,’’ वसुधा का चेहरा खिल उठा.

शुक्रवार को सुबह हम लोटस टैंपल देखने के लिए निकले. इस के बाद कुतुबमीनार जाने की प्लानिंग थी. तभी अभिषेक आटो ले कर सामने आ खड़ा हुआ, ‘‘आइए मैं ले चलता हूं. कहां जाना है?’’

मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘तुम आज सुबह ही आ गए हमारी खिदमत के लिए, माजरा क्या है?’’

‘‘क्या करूं मैडम, अपना मिजाज ही ऐसा है. आइए न.’’

उस ने फिर निवेदन किया तो मैं हंस पड़ी. बोली, ‘‘हम आज लोटस टैंपल और कुतुबमीनार जाने वाले थे.’’

‘‘तब तो आप दोनों को इस बंदे से बेहतर गाइड कोई मिल ही नहीं सकता. कुतुबमीनार ही क्यों, पूरी दिल्ली घुमाऊंगा. बैठिए तो सही.’’

हम दोनों बैठ गए.

‘‘आप को पता है कि कुतुबमीनार कब और किस के द्वारा बनवाई गई थी?’’ अभिषेक की बकबक शुरू हो गई.

‘‘जी नहीं, हमें नहीं पता पर क्या आप जानते हैं?’’ वसुधा ने पूछा.

‘‘बिलकुल. कुतुबमीनार का निर्माण दिल्ली के प्रथम मुसलिम शासक कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1193 में आरंभ कराया था. पर उस समय केवल इस का आधार ही बन पाया. फिर उस के उत्तराधिकारी इल्तुतमिश ने इस का निर्माण कार्य पूरा करवाया.’’

‘‘अच्छा, पर यह बताओ, इसे बनवाने के पीछे मकसद क्या था?’’ मैं ने सवाल किया.

‘‘दरअसल, मुगल अपनी जीत सैलिब्रेट करने के लिए विक्ट्री टावर बनवाते थे. कुतुबमीनार को भी ऐसा ही एक टावर माना जा सकता है. वैसे आप के लिए यह जानना रोचक होगा कि कुतुबमीनार को यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर के रूप में स्वीकृत किया गया है.’’

वसुधा और मैं एकदूसरे की तरफ देख कर मुसकरा पड़े, क्योंकि एक आटो वाले से इतनी ज्यादा ऐतिहासिक और सामान्यज्ञान की जानकारी रखने की उम्मीद हमें नहीं थी.

‘‘1 मिनट, तुम ने यह तो बताया ही नहीं कि कुतुबमीनार की ऊंचाई कितनी है?’’ वसुधा ने फिर से सवाल उछाला और फिर मेरी तरफ देख कर मुसकराने लगी, क्योंकि उसे पूरा यकीन था कि यह सब अभिषेक नहीं जानता होगा.

‘‘5 मंजिला इस इमारत की ऊंचाई 234 फुट और व्यास 14.3 मीटर है, जो ऊपर जा कर 2.75 मीटर हो जाता है और इस में कुल 378 सीढि़यां हैं.’’ आटो वाला गर्व से बोला.

अब तक हम कुतुबमीनार पहुंच चुके थे. अभिषेक हमारे साथ परिसर में गया और रोचक जानकारियां देने लगा. हम चकित थे. इतनी गूढ़ता से तो कोई गाइड भी नहीं बता सकता था.

परिसर में घूमते हुए वसुधा कुछ आगे निकल गई, तो अभिषेक तुरंत बोला, ‘‘अरे मैडम, उधर ध्यान से जाना… कहीं चोट न लग जाए.’’

‘‘बहुत फिक्र करते हो उस की. जरा बताओ, ऐसा क्यों?’’ मैं ने पूछा.

‘‘क्योंकि वे मुझे बहुत अच्छी लगती हैं.’’

‘‘पर क्यों?’’

‘‘उन की झील सी आंखें… वह सादगी…’’

वह और कुछ कहता, मैं उसे बीच में ही टोकती हुई बोली, ‘‘कभी सोचा है, तुम ने कि तुम दोनों में क्या मेल है? तुम ठहरे आटो वाले और वह है बड़े घराने की.’’

‘‘मैडमजी, ठीक कहा आप ने. कहां वे महलों में रहने वाली और कहां मैं आटो वाला. पर क्या मैं इंसान नहीं? क्या मेरी पहचान सिर्फ इतनी है कि मैं आटो चलाता हूं. आप को नहीं पता, मैं भी अच्छे परिवार से हूं. इतिहास में एम.ए. किया है, परिस्थितियोंवश हाथों में आटो आ गया.’’

तभी वसुधा आ गई और हमारी बात बीच में ही रह गई. अगले दिन जब मैं वसुधा से मिली तो अभिषेक से हुई बातचीत सुनाते हुए उसे समझाया, ‘‘एक बार तुझे अभिषेक के लिए सोचना चाहिए. इतना बुरा भी नहीं है वह… और तुझे कितना प्यार करता है.’’

‘‘देख प्रीति, यह संभव नहीं. मेरे घर वाले ऐसे बेमेल रिश्ते के लिए कभी तैयार नहीं होंगे और मेरा दिल भी इस की गवाही नहीं देता. क्या कहूंगी उन्हें कि एक आटो वाले से प्यार करती हूं? नहीं यार, कभी नहीं. इतना नहीं गिर सकती मैं. वह चाहे कितना भी काबिल हो, है तो एक आटो वाला ही न?’’

वसुधा का जवाब मुझे पता था, पर वह यह सब इतनी बेरुखी से कहेगी, यह मैं ने नहीं सोचा था. मैं समझ गई, वसुधा कभी उसे स्वीकार नहीं करेगी. मुझे भी वसुधा का फैसला सही लगा.

एक दिन सुबहसुबह ही वसुधा ने मुझे फोन किया, ‘‘प्रीति प्लीज, अभी जल्दी से मेरे घर आ जा. एक बहुत जरूरी बात करनी है.’’

उस की बेसब्री देख कर मैं जिन कपड़ों में थी, उन्हीं में उस के घर पहुंच गई. फिर पूछा, ‘‘क्या बात है? सब ठीक तो है? बूआजी कहां हैं?’’

वह मुझ से लिपटती हुई बोली, ‘‘बूआजी 4 दिनों के लिए मामाजी के यहां गई हैं.’’

मैं ने देखा, उस की आंखों से आंसू बह रहे थे. मैं ने पूछा, ‘‘वसुधा, बता क्या हुआ? रो क्यों रही है?’’

‘‘ये खुशी के आंसू हैं. मुझे मेरा हमसफर मिल गया प्रीति,’’ वह बोली.

‘‘अच्छा… पर है कौन वह?’’

‘‘वह और कोई नहीं, अभिषेक ही है.’’

‘‘क्या? इतना बड़ा फैसला तू ने अचानक कैसे ले लिया? कल तक तो तू उस के नाम पर भड़क जाती थी?’’ मैं ने चकित हो कर पूछा.

वह मुसकराई, ‘‘प्यार तो पल भर में ही हो जाता है प्रीति. कल शाम तू नहीं थी तो मैं अकेली ही अभिषेक के आटो में बैठ गई. मुझे एक बैग खरीदना था. उस ने कहा कि मैं जनपथ ले चलता हूं. वहां से खरीद लेना.

‘‘बैग खरीद कर मैं लौटने लगी, तो अंधेरा हो चुका था. ओडियन के पास वह बोला कि क्या फिल्म देखना पसंद करेंगी मेरे साथ? घर में तो मैं अकेली ही थी. अब हां करने में क्या हरज था. हमें 6 बजे के टिकट मिले. 9 बजे तक फिल्म खत्म हुई तो गहरा अंधेरा था. उस ने एक पल भी मेरा हाथ न छोड़ा. प्यार और दुलार का ऐसा एहसास मैं ने जीवन में कभी नहीं महसूस किया था.

‘‘रास्ते में याद आया कि बूआजी की दवा लेनी है. एक मैडिकल शौप नजर आई तो मैं ने हड़बड़ा कर आटो रुकवाया और तेजी से उतरने लगी तभी लड़खड़ा कर गिर पड़ी. सिर पर चोट लगी थी. अत: मैं बेहोश हो गई. फिर मुझे कुछ याद नहीं. जब होश आया तो देखा, कि मैं अपने कमरे में एक शाल ओढ़े लेटी थी और मेरे कपड़े उतरे हुए थे. घुटने पर पट्टी बंधी थी. एक पल को तो लगा जैसे मेरा सब कुछ लुट चुका है. मैं घबरा गई पर फिर तुरंत एहसास हुआ कि ऐसा कुछ नहीं है. किसी तरह उठ कर बाथरूम तक गई तो देखा कि अभिषेक कीचड़ लगे मेरे कपड़े धो रहा था.

‘‘मैं खुद को रोक न सकी और पीछे से जा कर उस से लिपट गई. उस के बदन के स्पर्श से मेरे भीतर लावा सा फूट पड़ा. अभिषेक भी खुद पर काबू नहीं रख सका और फिर वह सब हो गया, जो शायद शादी से पहले होना सही नहीं था. पर मैं एक बात जरूर कह सकती हूं कि अभिषेक ने मुझे वह खुशी दे दी, जिस की मैं ने कल्पना भी नहीं की थी. अपाहिज होने के बावजूद मुझे ऐसा सुख मिलेगा, यह मेरी सोच से बाहर था.

‘‘उस का प्यार, उस की सादगी, उस की इंसानियत, उस के सारे व्यक्तित्व ने मुझ पर जैसे जादू कर दिया है. जरा सोच मैं जिस हालत में उस के पास थी, बिलकुल अकेली… किसी का भी दिल डोल जाता. पर उस ने अपनी तरफ से कोई गलत पहल नहीं की. क्या यह साबित नहीं करता कि वह नेकदिल और विश्वस्त साथी है? मैं अब एक पल भी उस से दूर रहना नहीं चाहती. प्लीज, कुछ करो कि हम एक हो जाएं. प्लीज प्रीति…’’

‘‘मैं थोड़ी देर अचंभित बैठी रही. वैसे मुझे वसुधा को खुश देख कर बहुत खुशी हो रही थी. फिर मैं ने वसुधा को समझाया, ‘‘सब से पहले तुम दोनों कोर्ट मैरिज के लिए कोर्ट में अर्जी दो. फिर मैं तुम्हारी बूआ व परिवार वालों को इस शादी के लिए तैयार करती हूं. थोड़े प्रतिरोध के बाद वसुधा के घर वाले मान गए.’’

हंसीखुशी के माहौल में अभिषेक और वसुधा का विवाह संपन्न हो गया. ‘मन’ फिल्म के आमिर खान की तरह अभिषेक ने वसुधा को गोद में उठाया कर फेरे निबटाए. बात यहीं खत्म नहीं हुई, शादी के बाद जब हनीमून से दोनों लौटे और मैं औफिस जाने के लिए अभिषेक की टैक्सी (अभिषेक ने नई टैक्सी ले ली थी) में बैठी तो अभिषेक ने चुटकी ली, ‘‘साली साहिबा, अब तो आप से मनचाहा किराया वसूल कर सकता हूं. हक बनता है मेरा.’’

मैं ने हंस कर कहा, ‘‘बिलकुल. पर साली होने के नाते मैं आधी घरवाली हूं. इसलिए तुम्हारी आधी कमाई पर मेरा हक होगा, यह मत भूलना.’’

मेरी बात सुन कर वह ठठा कर हंस पड़ा और फिर मैं ने भी हंसते हुए उस की पीठ पर धौल जमा दी.

Raksha Bandhan: ज्योति- सुमित और उसके दोस्तों ने कैसे निभाया प्यारा रिश्ता

मनीष ने ज्योति की इस नसीहत का बुरा नहीं माना. वह खुद भी नेहा को इस तरह रुला कर अच्छा महसूस नहीं कर रहा था. एक लंबे अरसे से वह और नेहा एकदूसरे के करीब थे. दोनों ने एकदूसरे के साथ जीनेमरने के वादे किए थे. कितनी ही बार दोनों ने अलग होने का फैसला लिया, मगर कुछ पलों की जुदाई भी दोनों से बरदाश्त नहीं होती थी.

मनीष को ज्योति की बात में सचाई लगी. जातपांत के ढकोसलों में आ कर नेहा जैसी लड़की को खोना बहुत बड़ी बेवकूफी थी, जो उसे टूट कर चाहती थी और हर हाल में उस का साथ देने को तैयार थी.

‘‘अब चाहे कुछ भी हो जाए. नेहा ही मेरी जीवनसंगिनी बनेगी,’’ मनीष के शब्दों में सचाई की झलक थी.

ज्योति मुसकरा उठी. उस की एक कोशिश से 2 दिल टूटने से बच गए थे.

उसी दिन नेहा से माफी मांग कर मनीष ने उस से शादी का वादा किया. रही बात घरवालों की, तो उन्हें भी किसी तरह मानना होगा, और वह उन्हें राजी कर के रहेगा.

रक्षाबंधन से ठीक एक दिन पहले सुमित के लिए उस की छोटी बहन की राखी आई थी. रोहन और मनीष की कोई बहन नहीं थी. तो इस दिन उन दोनों की कलाई सूनी रह जाती थी. नहाधो कर नया कुरतापजामा पहन कर सुमित ने उल्लास से लिफाफा खोल कर राखी निकाली. ज्योति से उस ने छुटकी की भेजी राखी अपनी कलाई में बंधवा ली. एक राखी ज्योति ने भी उसे अपनी ओर से बांध दी.

रोहन मनीष के साथ बैठा मैच देख रहा था. हाथ में राखी के 2 चमकीले धागे लिए ज्योति आई.

‘‘भैया, मैं आप दोनों के लिए भी राखी लाई हूं. असल में, मेरा कोई सगा भाई नहीं है, तो आप तीनों  को ही मैं भाई मानती हूं.’’

रोहन और मनीष ने भी खुशीखुशी ज्योति से राखी बंधवाई.

उसी शाम तीनों दोस्त बैठ कर छुट्टी वाले दिन का आनंद ले रहे थे. ‘‘यार सुमित, नेहा से शादी कर के मुझे अलग फ्लैट लेना पड़ेगा, तुम लोगों के साथ बिताए ये दिन बहुत याद आएंगे,’’ मनीष ने कहा.

‘‘और हम क्या यों ही कुंआरे रहेंगे?’’ रोहन ने उस की पीठ पर धप्प से एक हाथ मारा, ‘‘क्यों, है न सुमित? तेरी और मेरी भी शादी हो जाएगी.’’

फिर सब अपनीअपनी जिंदगी में मस्त भविष्य के सपनों में तीनों कुछ देर के लिए खो गए. लेकिन सुमित कुछ और ही सोच रहा था.

शादी की बात पर उसे न जाने क्यों सुरेश का खयाल आ गया. इतने अच्छे स्वभाव वाला सुरेश अपने निजी जीवन में निपट अकेला था. ‘‘यार, मैं सोच रहा हूं किसी का घर बसाना अच्छा काम है, मेरी जानपहचान में एक सुरेश है, वही गैराज वाला,’’ सुमित ने रोहन की तरफ देखा. रोहन सुरेश को जानता था. ‘‘अगर कोई सलीकेदार महिला सुरेश की जिंदगी में आ जाए तो कितना अच्छा हो.’’

‘‘सही कहा तुम ने, बहुत भला है बेचारा,’’ रोहन समर्थन में बोला.

कुछ देर खामोशी छाई रही, शायद अपनेअपने तरीके से सब सोच रहे थे.

‘‘एक बहुत नेक औरत है मेरी नजर में,’’ तभी तपाक से रोहन बोला.

‘‘कौन?’’ मनीष और सुमित ने एकसाथ पूछा.

‘‘हमारी ज्योति दीदी, और कौन?’’

दोनों ने रोहन को अजीब सी नजरों से घूरा.

‘‘यार, ऐसे क्यों देख रहे हो. कुछ गलत थोड़े ही बोला मैं ने. एक चोरउचक्के को भी जिंदगी में दूसरा मौका मिल जाता है तो फिर एक विधवा क्यों दूसरी शादी नहीं कर सकती? औरत को भी दूसरी शादी करने का उतना ही हक है जितना मर्द को. और फिर मुन्नी के बारे में सोचो. इतनी छोटी सी उम्र में पिता का साया सिर से उठ गया, आखिर उस को भी तो एक पिता का प्यार मिलना चाहिए कि नहीं? बोलो, क्या कहते हो?’’

रोहन की बात सौ फीसदी सच थी. ज्योति कम उम्र में ही विधवा हो गई थी. उसे पूरा अधिकार था कि वह किसी के साथ एक नया जीवन शुरू कर सके, जो उस का और उस की बेटी का सहारा बन सके. उस के जैसी व्यवहारकुशल और भली औरत किसी का भी घर संवार सकती थी.

तीनों दोस्तों की नजर में सुरेश के लिए ज्योति एकदम फिट थी. ‘‘लेकिन ज्योति मानेगी क्या?’’ मनीष ने शंका जाहिर की.

‘‘मैं मनाऊंगा ज्योति दीदी को,’’ सुमित बोला.

उसी शाम जब ज्योति उन तीनों का खाना पका कर निपटी और मुन्नी भी अपनी पढ़ाई कर चुकी तो सुमित ने उसे रोक लिया.

‘‘बोलो, क्या बात करनी थी भैया,’’ ज्योति ने पूछा.

बड़े नापतोल कर शब्दों को चुन कर सुमित ने अपनी बात ज्योति के सामने रखी. वह कुछ अन्यथा न ले ले, इस बात का उस ने पूरा ध्यान रखा.

सिर झुकाए सुमित की बातों को चुपचाप सुनती रही ज्योति. आज तक उस के अपने सगे रिश्ते वालों ने उस का घर बसाने की चिंता नहीं की थी. वह अकेली ही अपने दम पर अपना और अपनी बेटी का पेट पाल रही थी. उस ने कभी किसी से सहारे की उम्मीद नहीं की थी. लेकिन खून का रिश्ता न होने पर भी उस के ये तीनों मुंहबोले भाई आज उस के भले के लिए इतने फिक्रमंद हैं, यह सोच कर ही ज्योति की आंखों से आंसू बह चले.

उसे इस तरह से रोता देख तीनों के चेहरे पर परेशानी के भाव आ गए. सुमित को लगा शायद उसे यह सब नहीं कहना चाहिए था.

‘‘देखो ज्योति, रो नहीं, हम तुम्हारी और मुन्नी की भलाई चाहते है, बस. एक बार सुरेश से मिल लो, फिर आगे जो तुम्हारी मरजी,’’ सुमित ने प्रयास किया उसे शांत कराने का.

‘‘भैया, मैं तो इसलिए रो रही हूं कि आज मुझे अपने और पराए की पहचान हो गई. जो मेरे अपने हैं, वे कभी मेरे सुखदुख में काम नहीं आए और एक आप हो, जिन से खून का रिश्ता नहीं है, फिर भी आप लोगों को मेरी और मेरी बेटी की चिंता है,’’ कुछ सयंत हो कर अपनी गीली आंखें पोंछती हुई वह बोली, ‘‘यह सच है कि एक पिता की जगह कोईर् नहीं ले सकता. मेरी बेटी पिता के प्यार से हमेशा महरूम रही है. मगर मैं ने उसे मां और बाप दोनों का प्यार दिया है. अगर आप लोगों को यकीन है कि कोई नेक इंसान मेरी बेटी को सगी बेटी की तरह प्यार देगा, तो मैं भी आप पर भरोसा करती हूं.’’

बात बनती देख तीनों के चेहरे खिल गए. 2 अधूरे लोगों को मिला कर उन के जीवन में खुशियों की बहार लाने से बढ़ कर भला और क्या नेकी हो सकती थी.

सुरेश और ज्योति की एक औपचारिक मुलाकात करवाई गई. तीनों ने पूरी तसल्ली के बाद ही ज्योति के लिए सुरेश जैसे इंसान को चुना था. सुरेश ने सहर्ष ज्योति और मुन्नी को अपना लिया, एकाकी जीवन के सूनेपन को भरने के लिए कोई तो चाहिए था.

बहुत ही सादगी के साथ सुरेश और ज्योति का विवाह संपन्न हुआ. तीनों दोस्तों ने शादी की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली थी. प्रीतिभोज पर वरवधू पक्ष के कुछेक रिश्तेदारों को भी बुलाया गया था.

सुमित ने मां और छुटकी को भी खास इस विवाह के लिए बुला रखा था. उस की मां गर्व का अनुभव कर रही थी सपूत के हाथों नेक काम होते देख कर.

विदाई के समय ज्योति सुमित, मनीष और रोहन के गले लग कर जारजार रोने लगी, तो तीनों को महसूस हुआ जैसे उन की सगी बहन विदा हो रही है.

अपने आंचल में बंधे खीलचावल को सिर के ऊपर से पीछे फेंक कर रस्म पूरी करती ज्योति विदा हो गईर् थी, साथ में देती गई ढेरों आशीर्वाद अपने तीनों भाइयों को.

मुट्ठी भर आसमान: सोमेश के घर जाते ही उसकी बहन को क्या हुआ?

भैया की शादी के बाद आज पहली बार भैया के पास जा रही हूं. मम्मीपापा 2 महीनों से वहीं हैं. मन आशंकाओं से भरा है कि पता नहीं उन का वहां क्या हाल होगा. अपने दोस्तोंमित्रों, सगेसंबंधियों से दूर मन लगा होगा या नहीं. पापा तो बाहर घूमफिर आते होंगे, पर मां वहां सारा दिन क्या करती होंगी. भैया की नईनई शादी हुई है. वे दोनों तो आपस में ही मस्त रहते होंगे.

फिर बरबस ही उस के होंठों पर मुसकराहट आ गई. क्या खूब होते हैं वे दिन भी. हर तरफ मस्ती का आलम, देर रात तक जागना और दिन में देर तक सोना. सब कुछ चलचित्र की तरह उस की आंखों के सामने घूमने लगा…

सोमेश देर तक सोते रहते और वह चुपचाप पास पड़ी उन्हें निहारती रहती, तनबदन सहलाती रहती. उस के पास तो सोने के लिए पूरा दिन रहता. सोमेश के बाथरूम से निकलते ही उन के साथ ही खाने की मेज पर पहुंच जाती.

नाश्ते के बाद सोमेश औफिस चले जाते और वह अपने कमरे में पहुंच जाती. दिन में 5-6 बार सोमेश से फोन पर बात करती. उन के पलपल की खबर रखती. लंच के लिए उन का फोन आते ही तुरंत तैयार हो कर खाने के लिए पहुंच जाती. सोमेश कुछ देर आराम कर चले जाते और वह दीनदुनिया से दूर न जाने किन खयालों में गुम कमरे में ही पड़ी रहती.

उन्हीं दिनों अंशु कोख में आ गया. फिर तो वह 7वें आसमान पर पहुंच गई. मन चाहता सोमेश हर पल साथ बने रहें. हलका सा सिरदर्द भी हो तो वे ही आ कर सहलाएं. तनमन में आने वाले बदलाव को सम झें,

महसूस करें. पर इन पुरुषों के लिए नारी के हर मर्ज की दवा उन की मां होती है. वे सम झते हैं एक मां ही भावी मां को सम झ सकती है, इसलिए चुपचाप पत्नी को मां के हवाले कर देते हैं.

एकाएक उस की सोच पर विराम लग गया. उन दिनों सोमेश के मम्मीपापा भी तो उन के साथ थे. उन के अकेलेपन का खयाल तो उसे कभी नहीं आया. वे दोनों भी शाम को सोमेश का बेचैनी से इंतजार करते और उन के आते ही उन से बात करने के लिए बेताब हो उठते. मम्मी दिन भर इधरउधर खटपट करती रहतीं, जिस से कभीकभी उसे बड़ी कोफ्त होती. असल में आपस में तालमेल हुए बिना हम शायद एकदूसरे की परेशानी को महसूस तो क्या सम झ भी नहीं सकते.

वह तो सारा दिन दरवाजा बंद कर के पड़ी रहती. अपने मम्मीपापा, सहेलियों से फोन पर लगी रहती. उस ने कभी यह जानने की कोशिश नहीं की कि वे सारा दिन कैसे गुजारते हैं. मम्मीजी दिन में कई बार आतीं, दरवाजा खटखटातीं और खानेपीने के लिए पूछतीं.

उसे याद आया उन दिनों तबीयत कुछ नासाज थी. वह किसी भी जरूरत के लिए नौकरानी को आवाज लगाती तो मम्मीजी भागीभागी चली आतीं. पर एक दिन आवाज लगाने पर नौकरानी ही आई. उस ने हैरान हो कर दरवाजे से  झांक कर देखा पापा मम्मी का हाथ पकड़ कर यह कह कर उन्हें अंदर आने से रोक रहे थे, ‘‘कोई तुम्हें इस तरह ‘फौर ग्रांटेड’ नहीं ले सकता.’’

मन एकाएक एक कदम और पीछे चला गया. एक दिन सोमेश ने उस का हाथ पकड़ कर बड़ी कोमलता से कहा, ‘‘शुरू से ही मेरा यह सपना रहा है कि मेरे मम्मीपापा हमेशा मेरे साथ रहें. बच्चे, मम्मीपापा, दादादादी घर कितना भराभरा लगता है.’’

‘‘हां, बच्चे संभालने के लिए हमें उन की जरूरत तो होगी.’’

‘‘बात जरूरत की नहीं, मेरी इच्छा की है,’’ सोमेश बोले.

वह कुछ नहीं सम झ पाई, पर यह जरूर जान गई कि ये लोग अब यहीं रहने वाले हैं उन के पास. पुरानी स्मृतियां थीं कि याद न आने का नाम ही नहीं ले रही थीं. वे अकसर एकदूसरे को अपने हाथों से खिलाते. कभीकभी एकाएक मम्मीपापा सामने पड़ जाने पर सोमेश सकपका जाते.

उसे बड़ा अजीब लगता कि हम पतिपत्नी हैं. एकदूसरे की कमर में हाथ डाल या गले में बांहें डाल कर घूमने में शर्म कैसी?

पर आज… आज यदि भैयाभाभी इसी प्रकार व्यवहार करते होंगे तो मम्मीपापा को कैसा लगता होगा, यह सोच कर ही वह शर्म से लजा गई. शर्म, लज्जा, हया सब व्यक्तिपरक होते हैं.

इन्हीं खयालों में डूबी उस को कब घर आ गया, पता ही नहीं चला. रात को खाना खा कर वह, मम्मी और पापा सोने का उपक्रम कर रहे थे. भैयाभाभी के कमरे से देर रात तक दबेदबे हंसी के स्वर आ रहे थे. वह भी जीवन के स्वप्निल क्षणों में पहुंच गई और फिर पता नहीं कब आंख लग गई. सुबह भाभी उठा रही थीं, ‘‘दीदी उठो, नाश्ता लग गया है.’’

मेज पर पहुंची तो मम्मीपापा, भैया सब उस का इंतजार कर रहे थे. सब को एकसाथ देख कर बड़ा अच्छा लगा. नाश्ते के बाद मम्मी ने भाभी को अपने कमरे में आराम करने भेज दिया. फिर मांबेटी दोनों बातों में लग गईं. 2 बजे भाभी ने आ कर कहा, ‘‘मम्मीजी, खाना लग गया है.’’

‘‘रघु कब आ रहा है?’’ मम्मी ने जानना चाहा.

‘‘उन का फोन आया था. लेट आएंगे… आप सब खाना खा लो,’’ भाभी ने आग्रह किया.

वह सोच में डूबी रही और चुपचाप भाभी की दिनचर्या देख रही थी. भाभी घर को व्यवस्थित करने के गुर, जैसे कपड़े संभालना, धोबी का हिसाब रखना, राशन, सब्जी मंगवाना, नौकरों पर निगरानी रखना आदि मम्मी से सम झने की कोशिश करतीं. उन के अनुसार चलतीं और बीचबीच में अपने फंडे मसलन, फ्राइड के साथ रोस्टेड या स्प्राउट खाना, परांठों के साथ ब्रैडबटर, समोसे, कचौरी, जलेबी के साथसाथ पेस्ट्री पैटीज डाल देतीं. मम्मीपापा भी इस छोटेमोटे बदलाव को सहर्ष स्वीकार कर रहे थे.

भाभी रात को अपने कमरे में जाने से पहले नौकर ने सब का बिस्तर ठीक किए हैं या नहीं, कमरे में पानी रख दिया है या नहीं जैसी छोटीछोटी बातों पर पूरी निगरानी रखतीं. कितनी जल्दी सब संभाल लिया है… वह सोचती रही.

‘‘आप तो बड़ी अच्छी गृहस्थी संभाल रही हैं,’’ एक दिन वह भाभी से बोली.

‘‘मु झे कहां कुछ आता था. सब मम्मीजी से सीखा है,’’ भाभी ने संकोच से जवाब दिया.

‘‘डिलिवरी के लिए आप मायके जाएंगी,’’ उस ने बात आगे बढ़ाई.

‘‘नहीं, रघु कहते हैं उन्हें वहां कंफर्टेबल नहीं लगेगा. फिर मम्मीजी भी यही चाहती हैं. उन्होंने तो अभी से तैयारी भी शुरू कर दी है,’’ भाभी शरमाती हुई बोलीं.

वह सोच रही थी, ‘रघु कहते हैं’ ‘मम्मीजी चाहती हैं’ यह सब क्या है? सब दूसरों की मरजी पर. कितनी मूर्ख लड़की है. क्या इस का अपना कोई स्टैंड नहीं? पर मन में कुछ चुभन सी जरूर हुई.

वापसी वाले दिन सुबहसुबह भैया को देख कर चौंक गई, ‘‘भैया, आज

आप इतनी जल्दी…’’

‘‘तेरी ये भाभी मु झे सोने देंगी तब न? ‘दीदी जा रही हैं’ कह कर जबरन मु झे जगा दिया,’’ भैया ने एक प्यार भरी नजर भाभी पर डालते हुए कहा.

धीरगंभीर भैया के चेहरे पर अनोखी चमक थी. फिर आप ही कहते, ‘‘मु झे उठाया क्यों नहीं?’’ भाभी का उत्तर उसे अंदर तक कचोट गया. उसे याद आया उस की अपनी ननद जाने वाली थी. सोमेश गहरी नींद में सो रहे थे. उस ने दरवाजे पर पदचाप सुनी और चुपचाप पड़ी रही. जागने पर सोमेश ने भी ऐसा ही कुछ कहा था. सारा दिन उस का मूड उखड़ा रहा था. अगर वह भी इसी तरह निकल जाती तो? यहां यह बेवकूफ सी लगने वाली लड़की आगे निकल गई. जितनी नासम झ यह दिखती है उतनी है नहीं. वह सोच रही थी.

‘‘बहू खुशखबरी सुनाने वाली है. उन दिनों जरूर आना. थोड़ी मदद हो जाएगी, मु झे तो अभी से घबराहट हो रही है,’’ मम्मी ने मनुहार की. उन का चेहरा उल्लास से दमक रहा था.

पर चलते समय उस का मन बोझिल था. पता नहीं क्यों? उसे तो खुश होना चाहिए था. सारी आशंकाएं निराधार निकलीं. सब ठीकठाक है. मम्मीपापा, भैयाभाभी सब खुश हैं. फिर यह अन्यमनस्कता क्यों? शायद मां का हर बात में भाभी को उस से अधिक तरजीह देना या शायद उसे अब अपना मायका पराया लगने लगा था या फिर भैयाभाभी का आपसी प्यार… पर सोमेश भी तो उस पर जान छिड़कते हैं. फिर ऐसा क्या है, जो उसे कचोट रहा है. वह सम झ गई उस का अपना घरसंसार मात्र सोमेश तक ही सीमित रहा है. उस से आगे वह कभी सोच ही नहीं सकी. यहां तक कि उस के अपने मम्मीपापा के आने पर उस ने स्पष्ट कह दिया था, ‘‘ममा, सुबह

6 बजे ही जाने के लिए तैयार न हो जाना, कल सोमेश की छुट्टी है, हम देर तक सोते हैं.’’

सुन कर सोमेश, उस के मम्मीपापा सब उस का मुंह देखने लगे थे. पर विवाह 2 जिस्मों का 2 आत्माओं का ही नहीं 2 परिवारों का भी बंधन है और भाभी ने यह साबित भी कर दिया.

कहते हैं, इस असीम आकाश में सब का अपनाअपना हिस्सा है. उसे मुट्ठी भर आसमान ही मिल पाया. पर यह नादान सी लगने वाली भाभी बांहें पसार कर आसमान का एक बड़ा सा भाग समेट कर ले गई.

नाक की नाक

नाकें भी किस्मकिस्म की होती हैं. कोई छोटी, कोई मोटी, कोई लंबी, कोई नोकदार तो कोई चपटी यानी जितनी तरह के लोग उन की उतनी तरह की नाकें. साहित्य में तोते जैसी नाक का वर्णन कवियों ने खूब किया है. मु झे अभी तक नहीं पता कि सुग्गे जैसी नाक कैसी होती है. बहुत सी रूपसियों की नाक को गौर से देखा, पर मु झे कोई खास बात नजर नहीं आई. संभव है यह मेरी आंखों का दोष रहा हो.

वैसे देखा और सम झा जाए तो चेहरे पर नाक का महत्त्व कुछ ज्यादा ही है. नाक की खातिर लोग कुछ भी कर बैठते हैं. चेहरे या नाक को खूबसूरत बनाने के लिए विशेष कर युवतियां प्लास्टिक सर्जरी का सहारा लेती हैं. नाक छिदवाती हैं. शादी अथवा तीजत्योहारों पर नाक में नथ पहनने की परंपरा है. कुछ प्रांतों की महिलाएं हमेशा नथ पहने रहती हैं. कुछ जगह नथ उतराई किसी उत्सव की भांति संपन्न होने वाला रिवाज है.

विवाह और नथ यानी दुलहन और नथ का भी ऐसा ही संबंध है. नोज पिनें तो बच्ची, युवा, प्रौढ तथा वृद्धाएं सभी पहनती हैं, जो छोटेबड़े हर साइज में उपलब्ध होती हैं. कोई दाईं तरफ नाक छिदवाती हैं, कोई बाईं तरफ, तो कोई दोनों नथुनों के बीच की जगह. खैर, सौंदर्य के अलगअलग प्रतिमान अपनी पसंद के अनुसार गढ़े गए हैं.

नाक बनी रहे, इस के लिए लोग नाक पर मक्खी नहीं बैठने देते, चाहे इस के लिए नाकों चने चबाने पड़ें. अब बच्चों को क्या मालूम कि उन का प्यार मातापिता की नाक का बाल बन गया है. प्यार कोई करे, नाक किसी की कटे. हां, रामायणकालीन रावण की बहन शूर्पणखा की नाक अवश्य जगप्रसिद्ध रही. शूर्पणखा की नाक क्या कटी, रावण की ही नाक कट गई. 2 महायोद्धा युद्ध में कूद पड़े और एक ऐतिहासिक, पौराणिक युद्ध नाक की खातिर हो गया.

हर साल इस की याद में पुन: शूर्पणखा की नाक काटी जाती है, लंका दहन होता है और रावण के 10 शीशों की आहुति दी जाती है. यह नाक की कथा न जाने कब तक चलती रहेगी. हम रहें न रहें, नाक अवश्य बनी रहेगी.

मैं अभी तक नहीं सम झ पाई हूं कि लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक ही क्यों काटी? खैर, व्याख्या करना व्याख्याकारों का काम है. मु झे तो बस नाक से मतलब है. जुकाम होने पर लोग नाक पोंछ कर रूमाल जेब में रख लेते हैं, जिस से वक्त पड़ने पर मुंह भी पोंछा जा सकता है.

कुछ लोग पूरा साल नाक सुड़कते रहते हैं, पर हासिल कुछ नहीं कर पाते. नाक के मारे नाक में दम. किसी दवा का कोई असर नहीं. नाक है कि नाकों चने चबवा रही है. नाक को चने चबाते मैं ने नहीं देखा, पर विशिष्टजन ऐसा कहते हैं. लोगों को मुंह से चने चबाते जरूर देखा है. हो सकता है कुछ लोगों की नाक में ही दांत निकल आते हों, क्योंकि दुनिया अजूबों से जो भरी पड़ी है.

हां, नाक पर मक्खी न बैठने देने की बात खासी प्रचलित है. नाक पर बैठी मक्खी अच्छी नहीं लगती. नाक पर बैठ कर अपने नाजुक पंखों और पैरों से गंदगी जो छोड़ती है. नाक में सुरसुराहट जैसा भी कुछ होने लगता है. लेकिन मक्खी की भी एक आदत है कि जहां से उड़ाओ पुन: वहीं आ कर बैठती है. जिद्दी जो ठहरी. इस की भिनभिनाहट भी नहीं भाती.

एक बार मैं अपने 4 वर्षीय बेटे के साथ बस से सफर कर रही थी. बगल की सीट पर बैठे एक सज्जन बड़ी देर से ऊंघ रहे थे. एक मक्खी काफी देर से उन के मुंह पर मंडरा रही थी. कभी मूंछों पर, कभी दाढ़ी पर तो कभी टोपी पर बैठती. वे सज्जन गरदन  झटक कर हटा देते.

मेरा बेटा काफी देर से मक्खी का खेल देख रहा था. तभी मक्खी उड़ कर सज्जन की नाक पर बैठ गई. मैं कुछ सम झ पाती, उस से पहले ही मेरे लाड़ले ने अपनी चप्पल उतार कर उन सज्जन की नाक पर दे मारी.

वे एकदम घबराए से उठ गए और फिर  झट से मेरे बेटे का हाथ पकड़ लिया और कड़क कर बोले, ‘‘तेरी यह मजाल कि मेरी नाक पर चप्पल मारे? तु झे अभी मजा चखाता हूं.’’

फिर जैसे ही मेरे बेटे को मारने के लिए अपना हाथ ऊपर उठाया, तभी बेटे ने सहमेसहमे कहा, ‘‘अंकल, मैं ने आप को नहीं, मक्खी को मारा था. वह आप को तंग कर रही थी. मम्मी कहती हैं कि नाक पर मक्खी नहीं बैठने देनी चाहिए.’’

यह सुन कर उन सज्जन का गुस्सा दूध के उफान सा शांत हो गया और उन्होंने मेरे बेटे का हाथ छोड़ दिया.

अब मैं ने बेटे को धमकाया, ‘‘तु झे क्या मतलब, मक्खी किसी के भी ऊपर और कहीं भी बैठे? तुम केवल अपनी नाक पर मक्खी मत बैठने दो. दूसरे की नाक की चिंता न करो.’’

बस में बैठे लोग ठठा कर हंस पड़े. वे सज्जन इतना  झेंपे कि अगले स्टौप पर ही उतर गए. पता नहीं उस समय लाड़ले को यह बात सम झ में आई कि नहीं, पर डांट खा कर चुप हो कर जरूर बैठ गया.

कभी नाक बाप जैसी होती है, तो कभी मां जैसी. बाप जैसी नाक को खूब वाहवाही मिलती है यानी नाक खानदानी है. होनी भी चाहिए. बेटा भी पिता की तरह नाकदार न हुआ तो बात ही क्या. भले बारबार कटवानी पड़े.

आजकल जिस के पास पैसा है वही ऊंची नाक वाला है. पैसा और नाक का चोलीदामन का साथ है. पैसा नहीं तो नाक भी नहीं. पैसा हो तो कैसी भी नाक मार्केट में चल जाएगी. ऊंची नाक वालों की ओर लोग हसरत भरी निगाहों से देखते हैं. पर नकचढ़ों को कोई नहीं पूछता. उन्हें देख कर अकसर लोग नाकभौं चढ़ा लेते हैं.

घोड़े, भैंसे, खच्चर, टट्टू, बैल, ऊंट की नाक में नकेल डाली जाती है, पर आजकल सासबहू में छत्तीस का आंकड़ा है. जिस के हाथ में नकेल है वही दूसरी को पहना देती है. कहीं बहू की नकेल सास के हाथ तो कहीं सास की नकेल बहू के हाथ. हो सकता है और लोग भी नकेल पहनाते हों. हां, दबंगों के हाथ में किसी न किसी की नकेल अवश्यरहती है.

मैं एक बात अकसर सुना व पढ़ा करती हूं कि बदमाशों को पकड़ने के लिए पुलिस को नाकेबंदी करनी पड़ी. बदमाशों को पकड़ने में नाक ए बंदी का क्या मतलब? पता नहीं ऐसेऐसे मुहावरे किस बात की जरूरत थे और क्यों बन गए. नाक है तो सब कुछ है वरना नाक में दम है.

अकसर नाक में दम होता रहता है. कभी बच्चों के कारण, कभी बुजुर्गों के कारण, कभी काम के कारण तो कभी शोरगुल के कारण. यह आज की बात नहीं है. हमारे बड़ों की नाक में भी दम हुआ था. हमारी नाक में भी होता है और आगे आने वालों की नाक में भी होगा. नकसीर भी फूटेगी. नाक है तो नाक के मसले भी होंगे. यानी नाक की समस्या आसानी से नहीं सुल झेगी. पूरा देश नाक बचाने में लगा है. बढ़ती महंगाई और मंदी के दौर के कारण विश्व की नाक में दम है.

पूरा देश नाक बचाने में लगा है. सब अपनीअपनी नाक देख रहे हैं. क्या पता कब किस की नाक कट जाए. माननीय अन्ना हजारेजी की नाक इतनी ऊंची हो गई है कि सरकार को अपनी नाक बचानी भारी पड़ रही है. पूरा देश अन्नाजी की नाक के नीचे आ गया है. जन लोकपाल बिल नाक का बाल बन गया है. नाक के ढेरों करतब सामने हैं. मैं अब कलम रखती हूं. कहीं औरों की नाक देखतेदेखते मेरी नाक भी चक्कर में न आ जाए.

प्रतिबद्धता: क्या था पीयूष की अनजाने में हुई गलती का राज?

बारिश शुरू हुई तो उस की पहली फुहार ने पेड़पौधों के पत्तों पर जमी धूल को धो दिया. मिट्टी से सोंधीसोंधी गंध उठने लगी. ठंडी हवा चलने लगी. सारी प्रकृति, जो अब तक गरमी से बेहाल थी बारिश से तृप्त हो जाना चाहती थी. पेड़पौधे ही नहीं, पशुपक्षी भी बारिश का आनंद लेने आ गए. कहीं गड्ढे में जमा पानी में चिडि़यों का झुंड पंख फड़फड़ाता हुआ खेल रहा था, तो कहीं छोटेछोटे बच्चे घरों से कागजों की नावें ला कर उन्हें पानी में तैराते हुए खुद भी भीग रहे थे. छतों पर कुंआरी ननदें और सयानी भाभियां भी भीगने के लोभ से बच न पाईं और बड़ों की आंखें बचा कर फुहारों में अपना आंचल भिगो कर एकदूसरे पर पानी के छींटे उड़ाने लगीं. घरों के बरामदों और गैलरियों में बड़ेबुजुर्गों की कुरसियां लग गईं और वे बैठ कर बारिश का आनंद लेने लगे.

इन सारी खुशियों के बीच खिड़की के कांच से बाहर देखती पलक के चेहरे पर खुशी बिलकुल नहीं थी. उस के चेहरे पर तो उदासी और दुख की घनी बदली छाई हुई थी. वह उदास चेहरा ले कर दुखी मन से बाहर की खुशियों को देख रही थी. सामने चंपा

के पेड़ की पत्तियों से पानी की बूंदें फिसलफिसल कर नीचे गिर रही थीं. पलक निर्विकार भाव से बूंदों का थमथम कर नीचे गिरना देख रही थी.

पलक के मातापिता बरामदे में खड़े ठंडी हवा का मजा ले रहे थे.

‘‘भई, आज तो पकौड़े खाने का मौसम है. प्याज के बढि़या कुरकुरे पकौड़े और गरमगरम चाय हो जाए,’’ पलक के पिता ने कहा.

‘‘मैं अभी बना कर लाती हूं,’’ कह कर पलक की मां रसोईघर में चली गईं. प्याज काट कर उन्होंने पकौड़े तले और चाय भी बना ली. पकौड़े और चाय टेबल पर रख कर उन्होंने पलक को आवाज लगाई.

‘‘तुम ने पलक से बात की?’’ पलक के पिता आनंदजी ने पूछा.

‘‘अभी नहीं की. सोच रही हूं 1-2 दिन में पूछूंगी,’’ अरुणा ने उत्तर दिया.

‘‘जल्दी बात करो. जब से आई है उदास और बुझीबुझी लग रही है. अच्छा नहीं लग रहा,’’ आनंदजी ने चिंतित स्वर में कहा.

तभी पलक के आने की आहट पा कर दोनों चुप हो गए. साल भर पहले ही तो उन्होंने बड़ी धूमधाम से पलक का विवाह किया था. पलक उन की एकलौती बेटी थी, इसलिए पलक का विवाह कहीं दूर करने का उन का मन नहीं था. वे चाहते थे कि पलक का विवाह इसी शहर में हो और इत्तफाक से पिछले साल उन की इच्छा पूरी हो गई.

पलक के लिए इसी शहर से रिश्ता आया. शादी हुई तो पीयूष के रूप में उन्हें दामाद नहीं बेटा मिल गया. उस के मातापिता भी बहुत सुलझे हुए और सरल स्वभाव के थे. पलक को उन्होंने बहू की तरह नहीं, बल्कि बेटी की तरह रखा. पलक भी अपने घर में बहुत प्रसन्न थी. जब भी मायके आती चहकती रहती. उस की हंसी में उस के मन की खुशी छलकती थी.

लेकिन इस बार बात कुछ अलग ही है. एक तो पलक अचानक ही अकेली चली आई है और जब से आई है, तब से दुखी लग रही है. उन दोनों के सामने वह सामान्य और खुश रहने की भरसक कोशिश करती है, लेकिन मातापिता की अनुभवी नजरों ने ताड़ लिया है कि कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है.

पहले पलक 2 दिन के लिए भी मायके आती थी, तो पीयूष औफिस से सीधे यहीं आ जाता था और रात का खाना खा कर घर जाता था. दिन में भी कई बार पलक के पास उस का फोन आता था.

लेकिन इस बार 5 दिन हो गए पलक को घर आए, एक बार भी पीयूष उस से मिलने नहीं आया. यहां तक कि उस का फोन भी नहीं आया और पलक ने भी एक बार भी पीयूष को फोन नहीं किया. आनंद और अरुणा की चिंता स्वाभाविक थी. एकलौती बेटी का दुख से मुरझाया चेहरा उन से देखा नहीं जा रहा था.

रात का खाना खा कर पलक अपने कमरे में सोने चली गई. वह पलंग पर लेटी थी, लेकिन नींद उस की आंखों से कोसों दूर थी.

8 दिन पहले जिंदगी क्या थी और अब कैसी हो गई. कितनी खुश थी वह पीयूष का प्यार पा कर. पूरी तरह उस के प्यार के रंग में रंग गई थी. सिर से पैर तक पीयूष के प्रेमरस में सराबोर थी. लेकिन पीयूष के जीवन के एक राज के खुलते ही उस की तो जैसे दुनिया ही बदल गई. कल तक जो पीयूष अपने दिल का एक टुकड़ा लगता था, अचानक ही इतना बेगाना, इतना अजनबी लगने लगा कि विश्वास ही नहीं होता था कि कभी दोनों की एक जान हुआ करती थी.

पीयूष, उस का पीयूष. कालेज के दिनों में दोस्तों ने एक पार्टी में उसे जबरदस्ती शराब पिला दी तो नशे में चूर हो कर उस ने रात में दोस्त के फार्महाउस पर एक लड़की को अपना एक कण दे दिया. उस का पीयूष पूरा नहीं है, खंडित हो चुका है. पलक को कभी पूरा पीयूष मिला ही नहीं था. उस का एक कण तो उस लड़की ने पहले ही ले लिया था. पलक के सामने सच बोल कर पीयूष ने अपने मन का बोझ हलका कर दिया, लेकिन तब से पलक का मन पीयूष के इस सच के बोझ तले छटपटा रहा है.

पीयूष के इस सच को वह सह नहीं पाई. उस सच ने उसे अचानक ही उस के पास से उठा कर बहुत दूर पटक दिया. पल भर में ही वह इतना पराया लगने लगा, मानो कभी अपना था ही नहीं. दोनों के बीच एक अजनबीपन पसर गया. अजनबी के अजनबीपन को सहना आसान होता है, लेकिन किसी बहुत अपने के अजनबीपन को सहना बहुत मुश्किल होता है. पलक जब अजनबीपन को बरदाश्त नहीं कर पाई तो यहां चली आई.

काश, पीयूष उसे कभी सच बताता ही नहीं. कितना सही कहा है किसी ने, सच अगर कड़वा बहुत है तो मीठे झूठ की छाया में जीना अच्छा लगता है. वह भी पीयूष के झूठ की छाया में सुख से जीवन बिता लेती. कम से कम उस के सच की आंच में जिंदगी यों झुलस तो न जाती.

उधर पीयूष पश्चात्ताप की आग में जल रहा था कि क्यों उस ने अपना यह राज अपने सीने से बाहर निकाला? क्यों नहीं छिपा कर रख पाया? दरअसल पलक का निश्छल प्यार, उस का समर्पण देख कर मन ही मन उसे ग्लानि होती थी. ऐसे में बरसों पहले की गई अपनी गलती को अपने मन में दबाए रखने पर एक अपराधबोध सा सालता रहता था हर समय. इसलिए अपने मन का बोझ उस ने भावुक क्षणों में पलक के सामने रख दिया.

मन में कहीं गहराई तक दृढ़ विश्वास था अपने प्यार पर कि वह उस की गलती को माफ कर देगी. अपने निर्मल और निश्छल प्रेम से उस के मन पर लगे दाग को धो डालेगी. उबार लेगी उसे इस ग्लानि से, जिस में वह बरसों से जल रहा है. क्षमा कर देगी उस अपराध को जो उस से अनजाने में हो गया था.

पीयूष का न तो उस घटना के पहले और न ही बाद में कभी किसी भी लड़की से कोई रिश्ता रहा है और उस लड़की के साथ भी रिश्ता कहां था. रिश्ते तो मन के होते हैं. वहां तो बस नशे की खुमारी में शरीर शामिल हो गए थे. मन से तो वह पूरी तौर पर बस पलक का ही था, है और रहेगा. लेकिन पलक के व्यवहार ने उसे अंदर तक हिला दिया. क्या वह पलक को अब तक पूरी तरह जान नहीं पाया था? क्या उस के मन की थाह पाना अभी बाकी था?

लेकिन तीर अब कमान से निकल चुका था, जिस ने उस की प्यार भरी जिंदगी को

एक ही पल में बरबाद कर के रख दिया. उसे समझ नहीं आ रहा था कि पलक के आहत मन को कैसे सांत्वना दे. उसे लगा था कि अपने प्यार से कोई भी बात छिपाना गलत है. लेकिन उस के इस सच से पलक को इतनी अधिक पीड़ा पहुंचेगी, इस का अंदाजा उसे नहीं था. वह तो उस से बात तक नहीं कर रही. बेगानों जैसा बरताव हो गया है उस का.

इधर 8 दिनों में ही पीयूष वर्षों का बीमार लगने लगा है. उस का न काम में मन लगता है और न ही घर में.

दूसरे दिन अरुणाजी के पास पीयूष की मां का फोन आया, ‘‘अरुणाजी, आप ने पलक से कोई बात की क्या? मुझे तो कोई समझ में नहीं आ रहा है कि बच्चों को अचानक क्या हो गया. पलक बिना कुछ कहे अचानक चली गई. उस का फोन भी औफ है. यहां पीयूष भी गुमसुम सा कमरे में पड़ा रहता है. पूछने पर कुछ बताता ही नहीं है. पलक कैसी है, ठीक तो है न?’’ पीयूष की मां के स्वर में चिंता झलक रही थी.

‘‘पलक जब से आई है, तब से उदास और दुखी लग रही है. मैं ने 1-2 बार पूछना चाहा तो टाल गई, पर कुछ बात तो जरूर है. मैं आज उस से बात करूंगी. आप चिंता न करें, सब ठीक हो जाएगा,’’ अरुणाजी ने पीयूष की मां को आश्वासन दिया.

‘अब पलक से साफसाफ पूछना ही होगा. यहां पलक उदास है तो वहां पीयूष भी दुखी है. आखिर दोनों के बीच ऐसा क्या हो गया? यदि समय रहते बात को संभाला नहीं गया तो ऐसा न हो जाए कि बात और बिगड़ जाए. अब देर करना ठीक नहीं,’ अरुणाजी न तय किया.

दोपहर को पलक के पिता किसी काम से बाहर गए थे. पलक खाना खा कर अपने कमरे में लेटी थी. अरुणाजी को यही सही मौका लगा उस से बात करने का. अत: वे पलक के पास गईं.

‘‘पलक, क्या बात है बेटा, जब से आई हो परेशान लग रही हो? मुझे बताओ बेटा तुम्हारे और पीयूष के बीच सब ठीक तो है?’’ अरुणाजी ने प्यार से पलक का माथा सहलाते हुए पूछा.

मां का स्नेह भरा स्पर्श पाते ही पलक के अंतर्मन में जमा दुख पिघल कर आंखों के रास्ते बहने लगा. अरुणाजी ने उसे जी भर कर रोने दिया. वे जानती थीं कि रोने से जब मन में जमा दुख हलका हो जाएगा, तभी पलक कुछ बता पाएगी. वे चुपचाप उस की पीठ और केशों पर हाथ फेरती रहीं. जब पलक का मन हलका हुआ, तब उस ने अपनी व्यथा बताई. पीयूष की गलती कांटा बन कर उस के दिल में चुभ रही थी और अब वह यह दर्द बरदाश्त नहीं कर पा रही थी.

अरुणाजी पलक के सिर पर हाथ फेरती स्तब्ध सी बैठी रहीं. वे तो सोच रही थीं कि नई जगह में आपस में अभी पूरी तरह से सामंजस्य स्थापित नहीं हुआ है, तो छोटीमोटी तकरार हुई होगी, जिस के कारण दोनों दुखी होंगे. कुछ दिन में दोनों अपनेआप सामान्य हो जाएंगे. यही सोच कर आज तक उन्होंने पलक से जोर दे कर कुछ नहीं पूछा था. लेकिन यहां मामला थोड़ा पेचीदा है.

पलक के दिल में लगा कांटा निकालना मुश्किल होगा. समय के साथसाथ जब रिश्ते परिपक्व हो जाते हैं, तो उन में प्रगाढ़ता आ जाती है. दोनों के बीच विश्वास की नींव मजबूत हो जाती है, तब अतीत की गलतियों की आंधी रिश्ते को, विश्वास को डिगा नहीं पाती. लेकिन यहां रिश्ता अभी उतना परिपक्व नहीं हो पाया था. पीयूष ने अपने रिश्ते और पलक पर कुछ ज्यादा ही भरोसा कर लिया था. उसे थोड़ा धीरज रखना चाहिए था.

अरुणाजी समझ रही थीं कि इस समय पलक को कुछ भी समझाना व्यर्थ है. पलक का घाव अभी ताजा है. अपने दर्द में डूबी वह अभी अरुणाजी की बात समझ नहीं पाएगी. इसलिए उन्होंने 2 दिन सब्र किया.

मां से अपनी व्यथा कह कर पलक को अब काफी हलका लग रहा था. 2 दिन बाद वह रात में गैलरी में खड़ी थी, तब अरुणाजी उस के पास जा कर खड़ी हुईं.

‘‘तुझे दुख होना स्वाभाविक है पलक, क्योंकि तू पीयूष से प्यार करती है और उसे केवल अपने से जोड़ कर देखती है. इसलिए सच सुन कर तू हिल गई और तेरा भरोसा टूट गया.

‘‘पीयूष ने जो कुछ किया वह भावनाओं और उत्तेजना के क्षणिक आवेग में बह कर किया. उस संबंध का कोई अस्तित्व नहीं है. बरसात में जब पानी अधिक बरसता है तो कई नाले बन जाते हैं, जो नदी से भी अधिक आवेग के साथ बहते हैं, उफनते हैं, लेकिन बरसात खत्म होते ही वे सूख जाते हैं.

उन का अस्तित्व समाप्त हो जाता है. परंतु नदी शाश्वत होती है. वह बरसात के पहले भी होती है और बरसात खत्म होने के बाद भी उस का अस्तित्व कायम रहता है. वासना और सच्चे प्यार में यही अंतर है.

‘‘वासना बरसाती नाले के समान होती है, जो भावनाओं के ज्वार में उफनने लगती है और ज्वार के ठंडा होते ही उस का चिह्न भी जीवन में कहीं बाकी नहीं रहता. लेकिन सच्चा प्यार नदी की तरह शाश्वत होता है वह कभी नहीं सूखता.

सूखे की प्रतिकूल परिस्थिति में भी जिस प्रकार नदी अपनेआप को सूखने नहीं देती, मिटने नहीं देती, ठीक उसी प्रकार सच्चा प्यार भी जीवन से मिटता नहीं है. जीवन भर उस की धारा दिलों में बहती रहती है. तेरे प्रति पीयूष का प्यार उसी नदी के समान है,’’ अरुणाजी ने समझाया.

‘‘लेकिन मां मैं कैसे…’’ पलक कह नहीं पाई कि पीयूष के जिन हाथों ने कभी किसी और लड़की को छुआ है, अब पलक उन्हें अपने शरीर पर कैसे सहे? लेकिन अरुणाजी एक मां ही नहीं एक परिपक्व और सुलझी हुई स्त्री भी थीं. वे पलक के दुख के हर पहलू को समझ रही थीं.

‘‘प्रेम एवं प्रतिबद्धता एकदूसरे से जुड़े हुए जरूर हैं, पर किसी संबंध में पड़ने के पहले उस व्यक्ति का किसी के साथ क्या रिश्ता रहा है, कोई माने नहीं रखता. यदि कोई व्यक्ति पूर्णरूप से किसी के प्रति प्रतिबद्ध हो गया हो, तो उस के लिए पिछले सारे अनुभव शून्य के समान होते हैं.

अब पीयूष पूरी तरह से तेरे प्रति समर्पित है, इसलिए बरसों पहले उस ने एक रात क्या गलती की थी, यह बात आज कोई माने नहीं रखती. माने रखती है यह बात कि तुझ से जुड़ने के बाद वह तेरे प्रति पूर्णरूप से प्रतिबद्ध रहे बस,’’ अरुणाजी ने समझाया तो पलक सोच में पड़ गई. सचमुच साल भर में उसे कभी नहीं लगा कि पीयूष के प्यार में कोई खोट या छल है. वह तो एकदम निर्मलनिश्छल झरने की तरह है.

‘‘पर मां उस का सच मेरी सहनशीलता से बाहर है. मेरी नजर में अचानक ही पीयूष की मूर्ति खंडित हो गई है. मैं प्रेम की टूटी हुई मूर्ति के साथ कैसे रहूं? पीयूष ने

मुझे धोखा दिया है,’’ पलक आंसू पोंछती हुई बोली.

‘‘उस के झूठ पर तुझे एतराज नहीं था. तब तू खुश थी. लेकिन उस की ईमानदारी

को तू धोखा कह रही है. अगर धोखा ही देना होता तो वह उम्र भर यह बात तुझ से

छिपा कर रखता. जरा सोच, वह तुझे हृदय की गहराइयों से प्यार करता है. तुझे पूरे सम्मान से रखता है. तुझे अपने जीवन के सारे अधिकार दे दिए हैं उस ने, पर आज तू एक तुच्छ बात के लिए उस के सारे अच्छे गुणों को नकार रही है.

‘‘जरा सोच, यदि उस ने जीवन में कोई गलती नहीं की होती, लेकिन तुझे प्यार करता, तेरी भावनाओं का सम्मान करता, तुझे तेरे अधिकार देता, तब तू ज्यादा खुश रहती या अब ज्यादा खुश है? जीवन में अहम बात किसी की गलती नहीं, अहम बात है उसका प्यार मिलना. पीयूष अपना एक कण अनजाने में कभी किसी को बांट चुका है,

इस के लिए तू उसे खंडित कह रही है. एक कण के लिए पूरे को ठुकरा कर अपनी और पीयूष की जिंदगी बरबाद मत करो. वह वर्तमान समय में पूरे समर्पण से बस तुझे ही चाहता है. एक छोटी सी घटना पर उम्र भर के लिए किसी के प्यार और रिश्तों को तोड़ देना अक्लमंदी नहीं है,’’ अरुणाजी ने पलक के कंधे पर हाथ रख कर उसे समझाया.

पलक की आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे. आंखों  के सामने पीयूष का साल भर का प्यार, उस का सामंजस्य, उस की निश्छलता तैर रही थी.

उस से कोई गलती हो जाने पर वह कभी बुरा नहीं मानता था, उस की जिद पर कभी नाराज नहीं होता था. उस की छोटी से छोटी खुशी का भी कितना ध्यान रखता था. सचमुच मां ठीक कहती हैं. जीवन में बस किसी का सच्चा प्यार और प्रतिबद्धता ही महत्त्वपूर्ण है और कुछ नहीं. आज से वह भी पीयूष के प्रति पूर्णरूप से प्रतिबद्ध रहेगी.

‘‘तेरे चले जाने के बाद पीयूष ने खानापीना छोड़ दिया है. कल तेरे पिताजी उस से मिलने गए थे. वह वर्षों का बीमार लग रहा था. उस की वजह से तुझे जो दुख पहुंचा है उस का पश्चात्ताप है उसे. उसी की सजा दे रहा है वह अपनेआप को. तेरी पीड़ा का एहसास तुझ से भी अधिक उसे है. तेरा दर्द वह तुझ से ज्यादा महसूस कर रहा है. इसीलिए तड़प रहा है. अब भी कहेगी कि उस ने तुझे धोखा दिया है?’’ अरुणाजी ने पूछा तो पलक बिलख पड़ी.

‘‘मैं अभी इसी समय पीयूष के पास जाऊंगी मां, उस से माफी मांगूंगी.’’

‘‘कहीं जाने की जरूरत नहीं है. यहीं है पीयूष. मैं उसे भेजती हूं,’’ कह कर अरुणाजी चली गईं.

2 मिनट में ही पीयूष गैलरी में आ कर खड़ा हो गया. पलक कुछ कहना चाह रही थी पर गला रुंध गया. वह पीयूष के सीने से लग कर फफक पड़ी. उस के आंसुओं ने गलतियों के सारे चिह्न धो दिए. दोनों के दिलों और आंखों में सच्चे प्यार की निर्मल और शाश्वत नदी बह रही थी, एकदूसरे के प्रति अपनी पूरी प्रतिबद्धता के साथ.

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Raksha Bandhan: ज्योति- सुमित और उसके दोस्तों ने कैसे निभाया प्यारा रिश्ता

दूसरी नौकरी की तलाश में सुबह का निकला रोहन देरशाम ही घर लौट पाता था. उस का दिनभर दफ्तरों के चक्कर लगाने में गुजर जाता. मगर नई नौकरी मिलना आसान नहीं था. कहीं मनमुताबिक तनख्वाह नहीं मिल रही थी तो कहीं काम उस की योग्यता के मुताबिक नहीं था. जिंदगी की कड़वी हकीकत जेब में पड़ी डिगरियों को मुंह चिढ़ा रही थी.

सुमित और मनीष ने रोहन की मदद करने के लिए अपने स्तर पर कोशिश की, मगर बात कहीं बन नहीं पा रही थी.

एक के बाद एक इंटरव्यू देदे कर रोहन का सब्र जवाब देने लगा था. अपने भविष्य की चिंता में उस का शरीर सूख कर कांटा हो चला था. पास में जो कुछ जमा पूंजी थी वह भी कब तक टिकती, 2 महीने से तो वह अपने हिस्से का किराया भी नहीं दे पा रहा था.

सुमित और मनीष उस की स्थिति समझ कर उसे कुछ कहते नहीं थे. मगर यों भी कब तक चलता.

सुबह का भूखाप्यासा रोहन एक दिन शाम को जब घर आया तो सारा बदन तप रहा था. उस के होंठ सूख रहे थे. उसे महसूस हुआ मानो शरीर में जान ही नहीं बची. ज्योति उसे कई दिनों से इस हालत में देख रही थी. इस वक्त वह शाम के खाने की तैयारी में जुटी थी. रोहन सुधबुध भुला कर मय जूते के बिस्तर पर निढाल पड़ गया.

ज्योति ने पास जा कर उस का माथा छुआ. रोहन को बहुत तेज बुखार था. वह पानी ले कर आई. उस ने रोहन को जरा सहारा दे कर उठाया और पानी का गिलास उस के मुंह से लगाया. ‘‘क्या हाल बना लिया है भैया आप ने अपना?’’

‘‘ज्योति, फ्रिज में दवाइयां रखी हैं, जरा मुझे ला कर दे दो,’’ अस्फुट स्वर में रोहन ने कहा.

दवाई खा कर रोहन फिर से लेट गया. सुबह से पेट में कुछ गया नहीं था, उसे उबकाई सी महसूस हुई. ‘‘रोहन भैया, पहले कुछ खा लो, फिर सो जाना,’’ हाथ में एक तश्तरी लिए ज्योति उस के पास आई.

रोहन को तकिए के सहारे बिठा कर ज्योति ने उसे चम्मच से खिचड़ी खिलाई बिलकुल किसी मां की तरह जैसे अपने बच्चों को खिलाती है.

रोहन को अपनी मां की याद आ गई. आज कई दिनों बाद उसी प्यार से किसी ने उसे खिलाया था. दूसरे दिन जब वह सो कर उठा तो उस की तबीयत में सुधार था. बुखार अब उतर चुका था, लेकिन कमजोरी की वजह से उसे चलनेफिरने में दिक्कत हो रही थी. सुमित और मनीष ने उसे कुछ दिन आराम करने की सलाह दी. साथ ही, हौसला भी बंधाया कि वह अकेला नहीं है.

ज्योति उस के लिए कभी दलिया तो कभी खिचड़ी पकाती और बड़े मनुहार से खिलाती. रोहन उसे अब दीदी बुलाने लगा था.

‘‘दीदी, आप को देने के लिए मेरे पास पैसे नहीं हैं फिलहाल, मगर वादा करता हूं नौकरी लगते ही आप का सारा पैसा चुका दूंगा,’’ रोहन ने ज्योति से कहा.

‘‘कैसी बातें कर रहे हो रोहन भैया. आप बस, जल्दी से ठीक हो जाओ. मैं आप से पैसे नहीं लूंगी.’’

‘‘लेकिन, मुझे इस तरह मुफ्त का खाने में शर्म आती है,’’ रोहन उदास था.

‘‘भैया, मेरी एक बेटी है 10 साल की, स्कूल जाती है. मेरा सपना है कि मेरी बेटी पढ़लिख कर कुछ बने. पर मेरे पास इतना वक्त नहीं कि उसे घर पर पढ़ा सकूं और उसे ट्यूशन भेजने की मेरी हैसियत नहीं है. घर का किराया, मुन्नी के स्कूल की फीस और राशनपानी के बाद बचता ही क्या है. अगर आप मेरी बेटी को ट्यूशन पढ़ा देंगे तो बड़ी मेहरबानी होगी. आप से मैं खाना बनाने के पैसे नहीं लूंगी, समझ लूंगी वही मेरी पगार है.’’

बात तो ठीक थी. रोहन को भला क्या परेशानी होती. रोज शाम मुन्नी अब अपनी मां के साथ आने लगी. रोहन उसे दिल लगा कर पढ़ाता.

ज्योति कई घरों में काम करती थी. उस ने अपनी जानपहचान के एक बड़े साहब को रोहन का बायोडाटा दिया. रोहन को इंटरव्यू के लिए बुलाया गया. मेहनती और योग्य तो वह था ही, इस बार समय ने भी उस का साथ दिया और उस की नौकरी पक्की हो गई.

सुमित और मनीष भी खुश थे. रोहन सब से ज्यादा एहसानमंद ज्योति का था. जिस निस्वार्थ भाव से ज्योति ने उस की मदद की थी, रोहन के दिल में ज्योति का स्थान अब किसी सगी बहन से कम नहीं था. ज्योति भी रोहन की कामयाबी से खुश थी, साथ ही, उस की बेटी की पढ़ाई को ले कर चिंता भी हट चुकी थी. घर में जिस तरह बड़ी बहन का सम्मान होता है, कुछ ऐसा ही अब ज्योति का सुमित और उस के दोस्तों के घर में था.

ज्योति की उपस्थिति में ही बहुत बार नेहा मनीष से मिलने घर आती थी. शुरूशुरू में मनीष को कुछ झिझक हुई, मगर ज्योति अपने काम से मतलब रखती. वह दूसरी कामवाली बाइयों की तरह इन बातों को चुगली का साधन नहीं बनाती थी.

मनीष और नेहा की एक दिन किसी बात पर तूतूमैंमैं हो गई. ज्योति उस वक्त रसोई में अपना काम कर रही थी. दोनों की बातें उसे साफसाफ सुनाई दे रही थीं.

मनीष के व्यवहार से आहत, रोती हुई नेहा वहां से चली गई. उस के जाने के बाद मनीष भी गुमसुम बैठ गया.

ज्योति आमतौर पर ऐसे मामले में नहीं पड़ती थी. वह अपने काम से काम रखती थी, मगर नेहा और मनीष को इस तरह लड़ते देख कर उस से रहा नहीं गया. उस ने मनीष से पूछा तो मनीष ने बताया कि कुछ महीनों से शादी की बात को ले कर नेहा के साथ उस की खटपट चल रही है.

‘‘लेकिन भैया, इस में गलत क्या है? कभी न कभी तो आप नेहा दीदी से शादी करेंगे ही.’’

‘‘यह शादी होनी बहुत मुश्किल है ज्योति. तुम नहीं समझोगी, मेरे घर वाले जातपांत पर बहुत यकीन करते हैं और नेहा हमारी जाति की नहीं है.’’

‘‘वैसे तो मुझे आप के मामले में बोलने का कोई हक नहीं है मनीष भैया, मगर एक बात कहना चाहती हूं.’’

मनीष ने प्रश्नात्मक ढंग से उस की तरफ देखा.

‘‘मेरी बात का बुरा मत मानिए मनीष भैया. नेहा दीदी को तो आप बहुत पहले से जानते हैं, मगर जातपांत का खयाल आप को अब आ रहा है. मैं भी एक औरत हूं. मैं समझ सकती हूं कि नेहा दीदी को कैसा लग रहा होगा जब आप ने उन्हें शादी के लिए मना किया होगा. इतना आसान नहीं होता किसी भी लड़की के लिए इतने लंबे अरसे बाद अचानक संबंध तोड़ लेना. यह समाज सिर्फ लड़की पर ही उंगली उठाता है. आप दोनों के रिश्ते की बात जान कर क्या भविष्य में उन की शादी में अड़चन नहीं आएगी? क्या नेहा दीदी और आप एकदूसरे को भूल पाएंगे? जरा इन बातों को सोच कर देखिए.

‘‘अब आप को जातपांत का ध्यान आ रहा है, तब क्यों नहीं आया था जब नेहा दीदी के सामने प्रेम प्रस्ताव रखा?’’ ज्योति कुछ भावुक स्वर में बोली. उसे मन में थोड़ी शंका भी हुई कि कहीं मनीष उस की बातों का बुरा न मान जाए, आखिर वह इस घर में सिर्फ एक खाना पकाने वाली ही थी.

Raksha Bandhan: ज्योति- सुमित और उसके दोस्तों ने कैसे निभाया प्यारा रिश्ता

औरत ने सुमित को महीने की पगार बताई और साथ ही, यह भी कि वह एक पैसा भी कम नहीं लेगी.

दोनों दोस्तों ने सवालिया निगाहों से एकदूसरे की तरफ देखा. पगार थोड़ी ज्यादा थी, मगर और चारा भी क्या था. ‘‘हमें मंजूर है,’’ सुमित ने कहा. आखिरकार खाने की परेशानी तो हल हो जाएगी.

‘‘ठीक है, मैं कल से आ जाऊंगी,’’ कहते हुए वह जाने के लिए उठी.

‘‘आप ने नाम नहीं बताया?’’ सुमित ने उसे पीछे से आवाज दी.

‘‘मेरा नाम ज्योति है,’’ कुछ सकुचा कर उस औरत ने अपना नाम बताया और चली गई.

दूसरे दिन सुबह जल्दी ही ज्योति आ गई थी. रसोई में जो कुछ भी पड़ा था, उस से उस ने नाश्ता तैयार कर दिया.

आज कई दिनों बाद सुमित और मनीष ने गरम नाश्ता खाया तो उन्हें मजा आ गया. रोहन अभी तक सो रहा था, तो उस का नाश्ता ज्योति ने ढक कर रख दिया था.

‘‘भैयाजी, राशन की कुछ चीजें लानी पड़ेंगी. शाम का खाना कैसे बनेगा? रसोई में कुछ भी नहीं है,’’ ज्योति दुपट्टे से हाथ पोंछते हुए सुमित से बोली.

सुमित ने एक कागज पर वे सारी चीजें लिख लीं जो ज्योति ने बताई थीं. शाम को औफिस से लौटता हुआ वह ले आएगा.

रोहन को अब तक इस सब के बारे में कुछ नहीं पता था. उसे जब पता चला तो उस ने अपने हिस्से के पैसे देने से साफ इनकार कर दिया. ‘‘बहुत ज्यादा पगार मांग रही है वह, इस से कम पैसों में तो हम आराम से बाहर खाना खा सकते हैं.’’

‘‘रोहन, तुम को पता है कि बाहर का खाना खाने से मेरी तबीयत खराब हो जाती है. कुछ पैसे ज्यादा देने भी पड़ रहे तो क्या हुआ, सुविधा भी तो हमें ही होगी.’’

‘‘हां, सुमित ठीक कह रहा है. घर के बने खाने की बात ही कुछ और है,’’ सुबह के नाश्ते का स्वाद अभी तक मनीष की जबान पर था.

लेकिन रोहन पर इन दलीलों का कोई असर नहीं पड़ा. वह जिद पर अड़ा रहा कि वह अपने हिस्से के पैसे नहीं देगा और अपने खाने का इंतजाम खुद कर कर लेगा.

‘‘ठीक है, जैसी तुम्हारी मरजी’’, सुमित बोला, उसे पता था रोहन अपने मन की करता है.

थोड़े ही दिनों में ज्योति ने रसोई की बागडोर संभाल ली थी. ज्योति के हाथों के बने खाने में सुमित को मां के हाथों का स्वाद महसूस होता था.

ज्योति भी उन की पसंदनापसंद का पूरा ध्यान रखती. अपने परिवार से दूर रह रहे इन लड़कों पर उसे एक तरह से ममता हो आती. अन्नपूर्णा की तरह अपने हाथों के जादू से उस ने रसोई की काया ही पलट दी थी.

कई बार औफिस की भागदौड़ से सुमित को फुरसत नहीं मिल पाती तो वह अकसर ज्योति को ही सब्जी वगैरह लाने के पैसे दे देता.

जिन घरों में वह काम करती थी, उन में से अधिकांश घरों की मालकिनें अव्वल दर्जे की कंजूस और शक्की थीं. नापतौल कर हरेक चीज का हिसाब रख कर उसे खाना पकाना होता था. सुमित या मनीष ज्योति से कभी, किसी चीज का हिसाब नहीं पूछते थे. इस बात से उस के दिल में इन लड़कों के लिए एक स्नेह का भाव आ गया था.

अपनी हलकी बीमारी में भी वह उन के लिए खाना पकाने चली आती.

एक शाम औफिस से लौटते वक्त रास्ते में सुमित की बाइक खराब हो गई. किसी तरह घसीटते हुए उस ने बाइक को मोटर गैराज तक पहुंचाया.

‘‘क्या हुआ? फिर से खराब हो गई?,’’ गैराज में काम करने वाला नौजवान शकील ग्रीस से सने हाथ अपनी शर्ट से पोंछता हुआ सुमित के पास आया.

‘‘यार, सुरेश कहां है? यह तो उस के हाथ से ही ठीक होती है, सुरेश को बुलाओ.’’

जब भी उस की बाइक धोखा दे जाती, वह गैराज के सीनियर मेकैनिक सुरेश के ही पास आता और उस के अनुभवी हाथ लगते ही बाइक दुरुस्त चलने लगती.

शकील सुरेश को बुलाने के लिए गैराज के अंदर बने छोटे से केबिन में चला गया. थोड़ी ही देर में मध्यम कदकाठी के हंसमुख चेहरे वाला सुरेश बाहर आया. ‘‘माफ कीजिए सुमित बाबू, हम जरा अपने लिए दोपहर का खाना बना रहे थे.’’

‘‘आप अपना खाना यहां गैराज में बनाते हैं? परिवार से दूर रहते हैं क्या?’’ सुमित ने हैरानी से पूछा. इस गैराज में वह कई सालों से काम कर रहा था. अपने बरसों के अनुभव और कुशलता से आज वह इस गैराज का सीनियर मेकैनिक था. ऐसी कोई गाड़ी नहीं थी जिस का मर्ज उसे न पता हो, इसलिए हर ग्राहक उसे जानता था.

‘‘अब क्या बताएं, 2 साल पहले घरवाली कैंसर की बीमारी से चल बसी. तब से यह गैराज ही हमारा घर है. कोई बालबच्चा हुआ नहीं, तो परिवार के नाम पर हम अकेले हैं. बस, कट रही है किसी तरह. लाइए, देखूं क्या माजरा है?’’

‘‘सुरेश, पिछली बार आप नहीं थे तो राजू ने कुछ पार्ट्स बदल कर बाइक ठीक कर दी थी. अब तो तुम्हें ही अपने हाथों का कमाल दिखाना पड़ेगा,’’ सुमित बोला.

सुरेश ने दाएंबाएं सब चैक किया, इंजन, कार्बोरेटर सब खंगाल डाला. चाबी घुमा कर बाइक स्टार्ट की तो घरर्रर्र की आवाज के साथ बाइक चालू हो गई.

‘‘देखो भाई, ऐसा है सुमित बाबू, अब इस को तो बेच ही डालो. कई बरस चल चुकी है. अब कितना खींचोगे? अभी कुछ पार्ट्स भी बदलने पड़ेंगे. उस में जितना पैसा खर्च करोगे उस से तो अच्छा है नई गाड़ी ले लो.’’

‘‘तुम ही कोई अच्छी सी सैकंडहैंड दिला दो,’’ सुमित बोला.

‘‘अरे यार, पुरानी से अच्छा है नईर् ले लो,’’ सुरेश हंसते हुए बोला.

‘‘बात तो तुम्हारी सही है, मगर थोड़ा बजट का चक्कर है.’’

‘‘हूं,’’ सुरेश कुछ सोचने की मुद्रा में बोला, ‘‘कोई बात नहीं, बजट की चिंता मत करो. मेरा चचेरा भाई एक डीलर के पास काम करता है. उस को बोल कर कुछ डिस्काउंट दिलवा सकता हूं, अगर आप कहो तो.’’

सुमित खिल गया, कब से सोच रहा था नई बाइक लेने के लिए. कुछ डिस्काउंट के साथ नई बाइक मिल जाए, इस से बढि़या क्या हो सकता था. उस ने सुरेश का धन्यवाद किया और नई बाइक लेने का मन बना लिया.

‘‘ठीक है सुरेश, मैं अगले ही महीने ले लूंगा नई गाड़ी. बस, आप जरा डिस्काउंट अच्छा दिलवा देना.’’

‘‘उस की फिक्र मत करो सुमित बाबू, निश्ंिचत रहो.’’

लगभग 45 वर्ष का सुरेश नेकदिल इंसान था. सुमित ने उसे सदा हंसतेमुसकराते ही देखा था. मगर वह अपनी जिंदगी में एकदम अकेला है, इस बात का इल्म उसे आज ही हुआ.

इधर कुछ दिनों से रोहन बहुत परेशान था. औफिस में उस के साथ हो रहे भेदभाव ने उस की नींद उड़ा रखी थी. रोहन के वरिष्ठ मैनेजर ने रोहन के पद पर अपने किसी रिश्तेदार को रख लिया था और रोहन को दूसरा काम दे दिया गया जिस का न तो उसे खास अनुभव था न ही उस का मन उस काम में लग रहा था. अपने साथ हुई इस नाइंसाफी की शिकायत उस ने बड़े अधिकारियों से की, लेकिन उस की बातों को अनसुना कर दिया गया. नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह उस की शिकायतें दब कर रह गई थीं. आखिरकार, तंग आ कर उस ने नौकरी छोड़ दी.

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